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जैनतत्त्वमीमांसा अपादानत्व और अधिकरणत्व धर्मोंका भी ग्रहण कर लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि ऐसे उपचारमें सत्त्व आदि सादृश्य सामान्यकी अपेक्षा कुम्भकारको मिठोरूपसे स्वीकार कर पहले कुम्भकारमें मिट्टीके आवश्यक कर्तृत्व आदि गुण-धर्म स्वीकार किये गये और तब जाकर यह कहा गया कि कुम्भकार घट बनाता है, कुम्भ कुम्भकारका कर्म है
आदि।
६. शंका-समाधान
शंका--जब कुम्भकार विवक्षित हस्तादि क्रिया और विकल्प करता है तभी मिट्टी घटपरिणमनरूप कार्य करती है, इसीलिये यदि यह कहा जाय कि मिट्टी घटरूप परिणमन करती है और कुम्भकार परिणमाता है तो क्या आपत्ति है ? ____समाधान-परमार्थसे ऐसा माननेमे यह आपत्ति है कि जो सत्ताकी अपेक्षा अत्यन्त भिन्न है वह अपनेसे भिन्न दूसरेको कैसे परिणमा सकता है, अर्थात् त्रिकालमें नही परिणमा सकता । इसीलिये आचार्य कुन्दकुन्दने भी इसे ( स० सा० गा० १०७ )में असद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार किया है।
शंका-ऐसा व्यवहार तो होता है। क्या उसे असत्य माना जाय ? ___समाधान-ऐसा व्यवहार होता है इसमे सन्देह नहीं। ऐसे व्यवहारका हम निषेध भी नहीं करते, क्योंकि उससे इष्टार्थकी सूचना मिलती है। या ज्ञान होता है। मिट्टी घटरूप परिणमी यह प्रकृतमें इष्टार्थ है इसकी सूचना हमें उक्त व्यवहारसे मिल जाती है, इसीलिये आगममें उसे स्थान मिला हुआ है और इस दृष्टिसे उसे असत्यकी कोटिमें परगणित भी नहीं किया गया है। वस्तुतः यह ऐसा ही व्यवहार है जैसे सूननेवाला कोई व्यक्ति व्याख्यान देनेवालेसे कहे कि आप सुनाते जाइये हम सुन रहे हैं। विचार करिये यह सुनाना क्या वस्तु है ? व्याख्याताका जो कहना है वही तो दूसरीकी अपेक्षा सुनाना है। जितना भी लौकिक व्यवहार होता है वह प्रायः इसी प्रकारका होता है। उसे परमार्थ मानना ही भूल है और इसीलिये अध्यात्मरत होनेके लिए अन्याश्रित सभी प्रकारका व्यवहार त्याज्य है यह उपदेश दिया गया है ।
शंका-तत्त्वार्थसूत्रके पांचवें अध्यायमें एक उपकार प्रकरण है। उसमें बतलाया है कि कार्यको अपेक्षा एक द्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे