Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 403
________________ ४४२] जैनसिद्धांतसंग्रह। चौतिस पतिज्ञय भष्ट पातहारन मये । चार चतुष्टय सहित सुगुण छयालिम लये ॥ ९ ॥ कर विहार मवि जीवन पार लगाइये। नथ अघातिय चार सो शिवपुर भाइये ॥ निनके गुण सु अनंत कहां वर्णन करों। वसु गुण हैं व्यवहार सिड युति उच्चरों ॥३॥ सोरठा-श्रीमाचारज जान, धात सदा माचारको । छत्तिस गुण पावान, बन्दों मन बच कायकर ॥ १ ॥ दोहा-पचिस गुण उवझायके, ते धारे वर वीर। पढ़ें पढ़ावें पाठ वर, निर्मक गुण गम्भीर ॥ ५ ॥ वीस पाठ गुण धारका, साधे साधु महन्त । नीवदया पालें सदा, नहीं विराचे नन्त ॥ ६ ॥ चौपाई-ये ही पंच परमगुरु नानो । या नगमें मन्य न मानो। जिन जीवन इन सुमरन कियो । सुर शिवथान नाय तिन लियो। जो प्राणी मन वच तन ध्यावें । सिंह व्याघ्र गम नाहिं सतावे । जो मनमें इन सुमरन लावे । ताहि मप्त भय नाहिं सतावें ॥९॥ दोहा-यही इष्ट उत्कृष्ट अति, पूजों मन रच काय । थापत हों त्रय वारकर, विष्ठ विष्ठ इत माय ॥१०॥ ॐ ह्री पंचपरमेष्टिनोऽत्रागच्छगच्छ संवौषट (माहाननं ) ॐ ही पंचपरमेष्टिनोऽत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (पतिष्ठापन) ॐ ही पंचपरमेष्ठिनोऽत्र मम संनिहितो भव भव वषट् स्वाहा (सन्निधापनम् )

Loading...

Page Navigation
1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422