Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9803959828enosesc MP4 MOREA है. सहयोध रक्षाका पाँची . . जैन सिद्धान्तसहि। (१२१ पुस्तकों व पाठोंका संग्रह) निसकोपण्डित मूलचन्दजी मैनेजरने संग्रहकर श्री कन्हैयालाल मूलचन्द,.. मालिक-सबोध रत्नाकर कार्यालय, बड़ा वजार, सागर (सी. पी.) के द्वारा प्रकाशित कराया। Aam:000000000000000308208 Cat0säsos08e8cococsoscoosesescorseses 0 "जैनविजय" प्रिन्टिंग प्रेस-सूरतमें मूलचंद किसनदास कापड़ियाने .' मुद्रित किया। तृतीयान] वीर सं० २४५१. [क्रम संख्या ६... . मूल्य रु० ) Cooeeo dec202828282828 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सजनों !... ... जनसिद्धान्तसंग्रहकी वीसरी आवृत्ति आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है। पहली और दूसरी आइतिकी कुल प्रतियां इतने स्वल्पसमयमें बिक गई जिससे स्पष्ट विदित होता है कि जैन समाजमें ऐसे अन्यकी बहुत आवश्यक्ता है। ऐसा होना ठीक ही है। जिस अन्य संग्रहम जैन बालकोंक पठन योग्य पाठोंसे पर नित्य नियमके उपयोगी सभी विषयों का समावेश होकर पंडितों ताके स्वाध्याय योग्य अन्योंका सम्मेलन हो उस अन्यरतका इतना आदर होना स्वाभाविक ही है। स्वल्प मूल्य प्रायः सभी उपयोगी विषय एकत्र मिल सके यह मायः सब नी भाइयोंकी सदैव इच्छा रहती है। समाजमैं इस ग्रन्थ आज भी सी आवश्यक्ता होनेसे यह तृतीयावृत्ति पाठकोंके सन्मुख प्रेषित करनी पड़ी है। . . द्वितीयावृत्तिकी नाई इस आवृधिम भी छनई सफाई और कागजी उचमता की ओर.पछुत ध्यान रखखा गया ई-नवीनर विषयोंका समावेश कर देने वारण प्रन्यवा आकार पहले की अपेक्षा कुछ बढ़ गया है तो मी मूल्य नहीं बढ़ाया गया है। पुस्तकके विषय नियंत्रण, अबकी बार कुछ परिवर्तन गया गया है। विषयों की गिनतीकी ओर रुक्ष्य न रख अबकी बहुत से उपयोगी विश्य बढ़ाकर संप्रहके पांच भाग बना दिये गये हैं । आशा है कि स्वाध्याय प्रेमी जनगण इस संग्रहको पहलेकी नाई अपनायेंगे। इस आवृत्तिके.संशोधनमें श्रीमान् मास्टर दीपच दी वर्णी, पं. माणिक्यचन्दजी न्यायतीर्यसागरने अपना अमूल्य समय देकर जो सहायता की है उसके लिये हम धारणसे आमारी हैं। . सागर, . ज्येष्ठ शुदी ५ (शुपंचमी) । जाति सेवक विक्रम ...) मूलचन्द विती जैन । । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। प्रथम खण्ड । । द्वितीय खण्ड . णमोकार मंत्र ....... १. इट.छत्तीसी . २८ २., का माहात्म्य ..... २ दर्शनपाठ- ३: पंचपरमेष्टीके, माम .... ३ मारणेचना. पाठ ......४६ ४. मेरी- भावना... .. २ ४ पंचकल्याणक ....५: ५ चौवीस वी के नाम ४ ५ निर्वाणकांड ... ... ५९ ६ के चिन्ह ५१ दर्शन पचीसी ... ६५ बारह चक्ररी ' ... 5. महावीराहक छहदाला १०४ ४ नव नारायण ... ..., ११ सामायिक पाठे..... १ नं प्रविनारायण ... " र , संस्कृत'.. 10-11 पलमा, नारद - १७३ समाधमरण मांगा .... ५ ११ ग्यारह वर...'• Time वैराग्य भावना ... १०६ १३ चौवीस कामदेव ... १७/१५ फूलमाल पचीसी ... १०६ १४ चौदह कुलकर. ... १८) प्रात: स्तुति'...' ... AR बारह प्र० पुरुषों के नाम 16/१७ सायंकाल स्तुति ....११३ १६ सिवक्षेत्रोंके नाम .... १९१८ भक्तामरस्तोत्र संस्कृत ११४ १७.विद्यमान १७ तीर्थकर १९, , भाषा ... ११९ १८ मतीत चौवीसी ..... , २०:२१ बारह भावना ... १२४-५ 28 अनागत . ... २०/२२ मुबा बत्तीसी ....१२. २०. बौदह गुणस्थान ... २०२३ एकीमाव भाषा ... १३० २१ सोलहकारण भावना... , २४ नामावली स्तोत्र ... १३४ २२ आपको २१ उत्तरगुण २०/२५ छहढाला (बुधजन)... १३५ २१ प्रावककी ५३ क्रिया ' २१:२६ निशि- भोजन कथा .... २४ ग्यारह प्रतिमा स्वरूप २५/२७ चौबीस दंडक ........ १४८ २५ भावकके १. नियम २६/२८ कुगुरु० भक्तिका फल १५३ १६-२७ सस व्यसन, अमक्य |२९ खोटे'कोका फल...' २८ नित्य षट्कर्म..... ....२०३०-३मोह रसस्वरूप, रेश्या १६३ २९ दशलक्षण धर्म ... २०३२ द्वारचाक्षा ...... १९४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] ३३ करुणाष्टक भाषा ... १६७, २७ भकत्रिम ० पूजा २८४ ३४ मंगलाष्टंक ... ... १६८ २९ सम्मेदशिखर विधान... २८९ ३५ शील गहात्म्य ... १५०. .चतुर्थ खण्ड ! ३६ वाईस परीयहं ..... १५३१ ऑति पाठ... ... १०२ .. तीसरा खण्ड । विसर्जन, ... ... ३०४ ११ अभिषेक, विनयपाठ १७e-eal .३ भापा.स्तुति पाठ ... ३०५ ३ देवशान गुरुपूजा सं० १८४) ४ जिनसहस्रनामस्तोत्र १०० ४ , भाषा ... १९७ ५ मोक्षशानम् ... ... ४१६ ५ वीस वीर्यकर पूजा :२०१ / ६ वारहमासा मुनिराम ३२८ ६ अतिम बै० भर्ष ... २०५ ७ सुप्रभात स्तोत्रम् ... ३३२ ८ दृष्टाष्टक - ....३१५ ७ सिद्ध पूजा ... ... २०७ । अबष्टक ... ३३४ ८ सिब, भाषाष्टक ... २३. १०-११ सूतक, पिनती संग्रह ९ समुच्चय चौवीसी पूजा २४ १२ समाधिशतक भाषा... ३५२ १० सप्तऋषि पूजा ... २१० ११ सोलहकारण पूजा ... पांचवा खण्ड । १ एकीभाषस्तोत्रम् ... ३६६ ११ दशरक्षणधर्मपूजा ... • स्वयंमस्तोत्रम् .. १६९ १३ पंचमेव , १४ रत्नत्रय , ३ वृहत्स्वयंभूस्तोत्रम् ... ०१ १५ नन्दीश्वर , ... ४ द्रव्यसंग्रह ... ....३८६ १६ निर्माण क्षेत्र, ... २४५ ५ रलकरंडप्रावकाचार ३११ ६ थालाप पतिः १७ देव पूजा ... ... ४०५ १८ सरस्वती ७ बारह भावना , ... ... ४११ १९ गुरु ८ दश.आरतिए , ... ... ४२२ २० मक्खी पार्श्वनाथ पूजा ९ संकटहरण विनती... ४२६ २१ गिरनारक्षेत्र पूजा ... १. भोजनोंकी प्रार्थनाएँ ४२९ २२ सोनागिर ... ११ नरकोंके दोहे ... ४२४ २३ रविवस. , ... | १२ जन्मकल्याणककी पूजा ४३६ २४ पावापुर क्षेत्र, ... २७४ १३ रघु पंचपरमेप्टी वि० ४४१ २५ चम्पापुर , y: ... २७४ १४ अरहत पूना ... ... ४५३ २९ महावीर पूजा...: २५ | १५ रविवत कथा . ... ४५८. . - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीवीतरागाय नमः जैनसिद्धान्तसंग्रह प्रथम खंड (१) णमोकार मंत्र। गाथा। मोरहताण। णमो सिदोणाणमो आयरियाणं । मो उबझायाणं, णमो लोए सव्यसाहगं। स णमोकार मंत्रमें पांच पद, पैंतीस अक्षर, अठारन मात्रा है। . " (२) णमोकार मंत्रका माहात्म्य । महामंत्रका जाप किये, नर सब सुख पावै । अतिशयोक्ति इसमें, रंचक भी नहीं दिखावै ॥ देखो ! शून्यविवेक' सुभग ग्वाला भी आखिर । हुआ सुदर्शन कामदेव, इसके प्रमावकर ॥ (३) पञ्च परमेष्ठियों के नाम । अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु । उही असि आ 3 सा । नमः सिद्धेभ्यः ॥ नोट-अ सि आउ नाम पञ्च परमेष्ठीका है । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] जैन सिद्धांतसंग्रह. ।.. ॐ पञ्चपरमेष्ठी के नाम गर्मित हैं । यथा अर्हन्ता अशरीरा. आयरिया तह· उवज्झयाः मुनिना । -1 पढ़मक्खर निप्पणो ॐकारोय पंचपरमेष्टी ॥ ही में २४ तीर्थकरोंके नाम गर्भित हैं । • ..(४) मेरी भावना । .. बाबू जुगलकिशेरनी कृत) · तत्पर रहते हैं | जिसने रागद्वेषकामादिक जीते, सब जग जान लिया । ' सब जीवोंको मोक्षमार्गका निस्पृहः हो उपदेश दिया ॥ बुद्ध, वीर जिन, हरिहर "ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो ।.. भक्ति भावसे प्रेरित हो यह, चित्त उसीमें लीन रहो ॥ श्रा विषयोंकी आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव- धन रखते हैं। निज-परके हित साधनमें जो निशदिन स्वार्थत्यागकी कठिन तपस्या, विना खंद ऐसे ज्ञानी साधु जगतके, दुखसमूहको रहे सदा सत्संग उन्होंका, ध्यान उन्होंका नित्य रहे । - उनही जेनी चर्या में यह चिच सदा अनुरक्त रहे | नहीं सताऊँ किसी जीवको, झूठ कभी नहिं कहा करूँ | परधनवांनता पर न लुभाऊँ, संतोपामृत पिया करूं ॥३॥ अहंकारका भाव न क्यूँ नहीं किसी पर जो करते हैं । : हरते हैं ॥ २ ॥ • देख दूसरोंकी बढ़तीको, कभी न इर्पा-भाव . रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य - व्यवहार करूँ 1, ; करूँ 1.-. ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U VARANA जैनसिद्धांतसंग्रह बने जहांतक इस जीवनमें, औरोंका उपकारका ४ ॥ मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे. 'दीन दुखी जीवोंपर मेरे, उरसे करुणास्रोत ॥ दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्यभाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥५॥ गुणीजनोंको देख हृदय, मेरे ममें उमड़ावे । चने जहांतक उनकी सेवा, करके यह मन मुख पावे ।। होऊं नहीं कृतघ्न कमी मैं; द्रोह न मेरे उर आवे । ... गुण ग्रहणका भाव रहे नित दृष्टि न दोषों पर जावे ॥६॥ कोई 'बुगको या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे । लाखा वर्षांतक जीऊं या मृत्यु आज ही आजावे ।। अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे तो भीन्यायमार्गसे मेरा कभी न पद डिग: पावे ॥ ७॥ होकर मुखमें मन न फूले, दुखमें कमी न घबराये । पर्वत-नदी-मशान-भयानक अम्वीसे नहिं भय खावे ॥ ... रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन, हेहतर वन जावे। इष्टवियोग अनिष्टयोगमें सहनशीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कमी न घारावे। वैर-पाप-अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गवे ।। घरघर चचो रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हा जावें। ज्ञान चरित उन्नतकर अपना मनुन-जन्मफलं सब पावें ॥९॥ ईति-भीति व्याप नहिं जगमें, दृष्टि समय पर हुआ 'करे। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। nimammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm धर्मनिष्ठं होकर राजा भी, न्याय मजाका किया करे। रोग मरी दुर्भिस न फैले, मजा शान्तिसे जियां करे। . परम अहिंसा-धर्म जगतम, फैले सर्वहित किया करे ॥१०॥ फैले प्रेम परस्पर जगमें, मोह दूर पर रहा करे। . अमिय कटक कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करे ।। , बनकर सब 'युगवीर' हृदयसे देशोन्नतिरत रहा करें। वस्तुखरूप विचार खुशीसे, सब दुख संकट सहा करें.॥११॥ (५) चौवीस तीर्थंकरों के नाम । १ श्री ऋषभनाथ, २ श्री अजितनाथ, ३ श्री संभवनाथ, ४ श्री अभिनन्दननाथ: ५ श्री सुमतिनाथ, ६ श्री पद्मप्रम, ७ श्री सुपार्श्वनाथ, ८ श्री चन्द्रप्रभ, ९श्री पुष्पदन्त, १० श्री शीतलनाथ, १ श्री श्रेयांसनाथ, १२ श्री वासुपूज्य. १३ श्री विमलनाथ, १४ श्री अनन्तनाथ, १५ श्री धर्मनाथ, १६ श्रीशान्तिनाथ, १७ श्री कुन्युनाथ, १८ श्री अरनाथ, १९ श्री मल्लिनाथ, २० श्री मुनिसुव्रतनाथ, २१ श्री नमिनाथ, २२ श्री नेमिनाथ, २३ श्री पार्श्वनाथ, २४ श्री वर्द्धमान; Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह ! चौवीस तीर्थंकरोंके चिह्न । ६ ammum mimmmmmmmmmmmmmmmm १-ऋषभदेवके बैलका चिह्न । पहला भवं सर्वार्थसिद्धि, जन्मनगरी अयोध्या.पिता नामिराजा, माता मरुदेवी, गर्भतिथि आषाढ़ वदि.२, जन्मतिथि चैन वदि ९, जन्म नक्षत्र उत्तराषाढ, काय ऊंची ५०० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ८० लाख पूर्व, दीक्षातिथि चैत्र वदि ९, दीक्षावृक्ष वड़ (वड़के नीचे दीक्षा ली), केवलज्ञान तिथि फाल्गुण वदि .११, गणधर ८९, निर्वाण तिथि माघ वदी ११, निर्वाण आसन पद्मासन (वैठे हुए), निर्वाणस्थान कैलाश । अंतरइनसे १० लाख कोटि सागर गए.पोछे २रे ती अनितनाथ भए। . -अजितनाथके हाथीका चिह ।। पहला भव वैजयन्त, जन्मनगरी अयोध्या, पिताका नाम जित'शत्रु. माताका नाम विजयादेवी, गर्मतिथि ज्येष्ठ वदि अमावस्या, जन्मतिथि माघ शुदी १०, जन्मनक्षत्र रोहिणी, काय ऊंची '४५० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ७२ लाख पूर्व, दीक्षा तिथि माघ शुदी १०, दीक्षा वृक्ष सप्तछद (सतौना), केवलज्ञान तिथि पौप शुदी ४, गणधर ९०, निर्वाण तिथि चैत्र शुदी १, निर्वाण आसन खड़गासन (खड़े हुए;, निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर । अन्तर-इनसे ६० लाखकोटि सागर गए पीछे रे तीर्थकर संभवनाथ भए। . ३-संभवनाथके घोड़ेका चिह्न । . '. पहला भव प्रैवेयक, जन्मनगरी श्रावस्ती, पिताका नाम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। "मितारी, माताका नाम सेना, गर्मतिथि फाल्गुन सुदी ८, जन्मतिथि कार्तिक शुदि १५, जन्मनक्षत्र पूर्वापाद, काय ऊंची ४.. धनुष, रंग पीला सुवर्ण समान, आयु ६० लाख पूर्व, दीक्षातिथि माशिर शुदि १५, दीक्षावृक्ष शाल, केवलज्ञान तिथि कार्तिक बदि ४, गणधर १०१, निर्वाणतिथि चैत्र शुदि ६, निर्वाण आसन खड्गासन, निर्वाण स्थान सम्मेशिखर, अन्तर-इनसे १० लाख कोटि सागर गए पीछे ४ थे अभिनन्दननाथ भए। . ४-अभिनन्दननाथके वन्दरका चिह। पहला भव नियंत, जन्मनगरी अयोध्या, पिताका नाम संवर, माताका नाम सिद्धार्था, गर्मतिथि वृन्दावन और बखतावरसिंहकृत पाठोंमें वैशाख शुदि ६, रामचन्द्रकृतमें वैशाख शुदि ८, जन्मतिथि माघ शुदि १२, जन्मनक्षत्र पुनर्वस, काय ऊंची ३५० धनुप, रंग सुवर्ण समान पला, आयु ५० लाख पूर्व, दीक्षातिथि माघ शुदि १२, दीक्षावृक्ष सरल, केवलज्ञान तिथि घोष शुदि ११, गणधर १०१, निर्वाणतिथि वैशाख शुदि, निर्वाण मासन खड्गासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनसे ९, लाख कोटी सागर गए पीछे ५ चे सुमतिनाथ भए । ५-सुमतिनाथके चकवेका चिह्न । पहला भव ऊई मैवेयफ, जन्मनगरी अयोध्या, पिताका नाम मेघप्रम, माताका नाम सुमंगला, गतिथि श्रावण शुदि २, जन्मतिथि चैत्र शुदि ११, जन्मनक्षत्र मघा, काय ऊंची ३०० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु १० लाख पूर्व, दीक्षातिथि वृन्दावन और वखतावरकत पाठोंमें चैत्र सुदी ११, रामचंद्रकृतमें Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासिद्धांतसंग्रह। [७ , वैशाख सुदी.९, दीक्षावृक्ष.- प्रियंगु (कंगुनी), केवलज्ञान तिथि चैत्र सुदी ११, निर्वाण आसन खड्गगासन, निर्वाण स्थान, सम्मेशिखर, अन्तर-इनसे ९० हजार कोटि सागर गए पीछे पद्मप्रभ भए! ६-पद्मप्रभके कंमलका चिह्न। ' पहला भव वैजयंत, जन्मनगरी कौशांबी, पिताका नाम धारण, माताका नाम सुसोमा, गर्भतिथि माघ वदी ६, जन्म. तिथि कार्तिक सुदी १३, जन्मनक्षत्र चित्रा, काय ऊंची २५० धनुष, रंग आरक्त (सुरख) कमलसमान, आयु ३० लाख पूर्व, दीक्षातिथि वृन्दावन और वखतावरकृत पीठोंमें कार्तिक सुदी १५,रामचंद्रकृतमें कार्तिक वदी १३,दीक्षावृक्ष प्रियंगु (कंगुनी), केवलज्ञान तिथि चैत्र शुदि १५, गणधर १११, निर्वाणतिथि . फाल्गुण वदी १, निर्वाण आसन खड्गासन, निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इनसे ९ हजार कोटि सागर गए पीछे ७ वे सुपार्श्वनाथ भए । __ ७-सुपार्श्वनाथके माथियेका चिह्न। पहला भव मध्यवेयक, जन्मनगरी काशी, पिताका नाम सुप्रतिष्ठ, माताका नाम पृथिवी, गर्भतिथि वृंद्रावनकत पाठोंमें भादों सुदी २, रामचन्द्र और वखतावरकृत पाठोंमें भादों सुदी ६, जन्मतिथि ज्येष्ठ सुदी १२, जन्मनक्षत्र विशाखा, काय ऊंची २०० धनुष, रंग हरा प्रियंगुमञ्जरी समान, आयु १० लाख पूर्व, दीक्षा तिथि ज्येष्ठ सुदी १२, दीक्षावृक्ष शिरीष (सिरस), केवलज्ञान तिथि फाल्गुण वदी ६, गणधर ९५, निर्वाण तिथि फाल्गुण वदी ७, निर्वाण आसन खगासन, निर्वाण स्थान Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ८1 जैनसिद्धांतसंग्रह। सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे ९ सौ कोटि सागर गए पीछे ८ वें चन्द्रप्रम भए । . ८-चन्द्रप्रभ अर्धचन्द्रका चिह्न । पहला भव वैजयंत, जन्मनगरी चन्द्रपुरी, पिताका नाम महासेन. माताका नाम लक्ष्मणा, गर्मतिथि चैत्र वदी ५, नन्मतिथि पौष वदी ११. जन्मनक्षत्र अनुराधा, काय ऊंची १५० धनुष, रंग श्वेत (सफेद), आयु १० लाख पूर्व, दीक्षा तिथि पौष वदी ११, दीक्षावृक्ष नाग, केवलज्ञान तिथि फाल्गुण वदी ७, गणधर ९६, निर्वाणतिथि वृन्दावन और रामचन्द्रकृत पाठोंमें फाल्गुण सुदी ७, वखतावरकृतमें माघ वदी ७, निर्वाण आसन खगासन, निर्वागस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनसे ९० कोटि सागर गए पीछे ९वें पुप्पदन्त भए । १-पुष्पदन्तके नाकू (मगर) का चिह्न। __पहला भव अपरानित, जन्मनगरी काकन्दी, पिताका नाम मुग्रीव, माताका नाम रामा, गतिथि फाल्गुन वदी ९, जन्मतिथि मार्गशिर सुदी १, जन्मनक्षत्र मूला, काय ऊची १०० धनुष, रंग श्वेत (सफेद), आयु २ लाख पूर्व, दीक्षातिथि मार्गशिर सुदी १, दीक्षावृक्ष शाल, केवलज्ञान तिथि कार्तिक सुदी २, गणधर ८, निर्वाणतिथि वृन्दावनतमें कार्तिक मुदी २, वखतावरकृतमें आश्विन सुदी ८. रामचंद्रकृतमें भादो मुरीद, निर्वाग आसन खशासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे ९ कोटी सागर गए पछि १० चे शीतलनाथ भए । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। " . १०-शीतलनाथके कल्पवृक्षका चिह। . पहला भव १५ वां आरणस्वर्ग, जन्मनगरी भद्रिकापुरी, पिताका नाम दृढंरथ, माताका नाम सुनन्दा, गर्मतिथि चैत्र वदी, जन्मतिथि माघ वदी, १२, जन्मनक्षत्र पूर्वाषाढ़, काय ऊंची ९० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु १ लांख पूर्व, दीक्षातिथि माघ वदी १२, दीक्षावृक्ष प्लक्ष (पिलखन), केवलज्ञान तिथि पोष वदी ११, गणधर ८१, निर्वाणतिथि आसोज सुदी ८, निर्वाणआसन खड्गासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे १०० सागर घाट कोटिसागर गए पीछे ११वें श्रेयांसनाथ भए । ११-श्रेयांसनाथके गेंडेका चिह्न । पहला भव पुष्योचर विमान, जन्मनगरी सिंहपुरी, पिताका नाम विष्णु, माताका नाम विष्णुश्री, गर्भतिथि वृन्दावन और बख्तावरकृत पाठोंमें ज्येष्ठ वदी ८, रामचन्द्रकृत पाठमें ज्येष्ठ सुदी १, जन्मतिथि फाल्गुण वदी १, जन्म नक्षत्र श्रवण, काय ऊंची ८० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ८१ लाख वर्ष, दीक्षातिथि फाल्गुण वंदी ११: दीक्षावृक्ष तिंदुक, केवलज्ञान तिथि वृन्दावन व रामचन्द्रकृत पाठोंमें माघ वदी अमावास्या, बखतावरकृतमें माघ वदी १०, गणधर ७७, निर्वाणतिथि श्रावणसुदी १५, निर्वाण आसन खगासन, निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अन्तरइनसे १४ सागर गए पीछे १९ वे वासुपूज्य भए । १२-वासुपूज्यके भैंसेका चिह्न । पहला भव (वां कापिष्ट स्वर्ग, जन्मनगरी चंपापुरी, पिताका नाम वासुपूज्य; माताका नाम विजया, गर्मतिथि आषाढ वदी १, मुदी ६, रंग सुवर्ण हावृक्ष तिया , बलवा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] जैनासदांतसंग्रह। जन्मतिथि फाल्गुन वदी १४, जन्मनक्षत्र शतभिषा, काय ऊंची ७० धनुष, रंग आरक (मुरस) केमूके फूल समान, आयु ७२ लाख वर्ष, दीक्षातिथि फाल्गुन वदी ११, दीनाक्ष पाटल, केवलज्ञान तिथि वृन्दावन-वत्सतावर व पाठाम मादों वदी २, रामचंद्रग्तम माघ सुदी २, गणधर १६, निर्वाण तिथि भादों सुदी ११, निर्वाण आसन खडासन, निर्वाणस्थान चयापुरीका वन, अन्तर इनसे ३. सागर गए पीछे १५व विमलनाथ भए। वासुपूज्य बालब्रह्मचारी भए न विवाह क्रिया, न राज्य किया-कुमार अवस्था में ही दीक्षा ली। १३-विमलनायके मूबरका चिह्न । पहला मा ९वां शुक्र स्वर्ग, जन्मनगरी कपिला, पिताका नाम स्तवर्मा, माताका नाम मुरन्या, गर्भनिधि ज्येष्ठ वदी १०, जन्मतिथि वृन्दावन व वनावर पाठोंमें माघ मुदी ३, रामचंद्रवमें माघ सुदी ११, जन्मनक्षत्र उत्तरापाड, काय ६० धनुष ऊंची, रंग पीला सुवर्ण समान, आयु १० लाख वर्ष दीक्षातिथि माय मुदी १, दीक्षावृक्ष लंब, केवलज्ञान विधि माघ सुदी ६, गणघर १५, निर्वाणतिथि आपाद बदी ६. निर्वाण आसन सहासन. निर्वाणस्थान सन्नेदशिखर, अंतर-इनके पाछे ९ सागर गए बाद १४ व अनंतनाथ मए। १४-अनंतनायक सेहीका चिह्न। पहला मव १२ वां सहसार स्वर्ग, जन्मनगरी अयोध्या, पिता का नाम सिंहसेन, माताका नाम सर्वयशा, गर्मतिथि कार्तिक वदी १, जन्मतिथि ज्येष्ठ वदी १२, नन्मनक्षत्र रेवती, काय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। ऊंची ५० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु १० लाख वर्षे, दीक्षातिथि ज्येष्ठ वदी १२, दीक्षावृक्ष पीपल, केवलज्ञान तिथि चैत्र वदी अमावस्या, गणघर १०, निर्वाणतिथि वृन्दावन व बखतावरकृत पाठोंमें चैत्र वदी १, रामचन्द्रकृतमें चैत्र कृष्ण अमावास्या. निर्वाण आसन खड्गासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर- इनसे ४ सागर गए पीछे १५वें धर्मनाथ भए । ५-धर्मनाथके वज्रदण्डका चिह्न । .. पहला भव पुष्पोत्तर विमान, जन्मनगरी रत्नपुरी, पिताका नाम भानु, माताका नाम सुव्रता, गर्भतिथि वृंदावन-बखतावरकृत पाठोंमें वैशाख सुदी ६, रामचन्द्रकृत. वैशाख सुदी १३, जन्मातथि माघ सुदी १३, जन्मनक्षत्र पुप्य काय ऊंची ४५ धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु १० लाख वर्ष, दीक्षातिथि माघ सुदी १३, दीक्षावृक्ष दधिपर्ण, केवलज्ञान तिथि पौष सुदी .१५, गणघर १३, निर्वाणतिथि ज्येष्ठ सुदी ४, निर्वाण आसन खगासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनसे पौण पल्य घाट तीन सागर गए पीछे १६वे शांतिनाथ भए । १६-शांतिनाथके हिरणका चिह्न । . पहला भव पुष्पोत्तर विमान, जन्मनगरी हस्तनागपुर, पिताका नाम विश्वसेन, माताका नाम ऐरा, गर्भतिथि भादों वदी ७, जन्मतिथि ज्येष्ठ वदी १४, जन्मनक्षत्र भरणी, काय ऊंची ४० धनुष, रंग पीला सुवर्ण समान, आयु १ लाख वर्ष, दीक्षातिथि ज्यष्ठ वदी १४, दीक्षावृक्ष नंदी, केवलज्ञान - तिथि वृंदावनः ... बखतावरकत पाठोंमें पौष सुदी १०, रामचन्द्रकृत्तमें. मौष मुदी. . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] जनासद्धांतसंग्रह। . ११, गणघर १६, निर्वाणतिथि ज्येष्ठ वदी १४, निर्वाणासन खड्गासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनसे आप पल्य गए पीछे १७वे कुन्थुनाथ भए । शांतिनाथ तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव तीन पदवीके धारी भए। १७-कुन्युनाथके वारेका चिह्न । ' पहला भव पुप्पोचर विमान,जन्मनगरी हस्तनागपुर, पिताका नाम सूर्य माताका नाम श्रीदेवी, गर्मतिथि श्रावण वदी १०, जन्मतिथि वैशाख सुदी १, जन्मनक्षत्र कृतिका, काय ऊंची ३५ धनुष रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ९५ हजार वर्ष, दीक्षा तिथि वैशाख सुदी १, दीक्षावृक्ष तिलक, केवलज्ञान तिथि चैत्र सुदी ३, गणधर ३५, निर्वाणतिथि वैशाख सुदी १, निर्वाण आसन खड्दासन निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे छह हजार कोटि वर्षघाट पाव पल्य गए पीछे अरनाथ भए । कुन्युनाथ तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव तीन पदवीके धारी भए । . १८-अरनाथके मच्छीका चिह्न । पहला भव सर्वार्थसिद्धि, जन्मनगरी हस्तनागपुर, पिताका नाम सुदर्शन, माताका नाम मित्रा, गर्मतिथि फाल्गुण सुदी ३, जन्मतिथि मार्गशिर सुदी १४, जन्मनक्षत्र रोहिणी, काय ऊंची ३० धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ८४ हजार वर्ष, दीक्षातिथि वृन्दावन बखतावररूत पाठोंमें मार्गशिर सुदी १४, रामचन्द्रकतम मार्गशिर सुदी १०, दीक्षावृक्ष आम्र, केवलज्ञान । विथि कार्तिक सुदी १२, गणधर '३०, निर्वाणतिथि वृन्दावन- ' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। बख्तावरकृत पाठोंमें चैत्र सुदी ११, रामचन्द्रकृतमें चैत्र वदी अमावास्या, निर्वाण आसन खगासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे पैंसठलाख चौरासीहजार वर्ष घाट हजार कोटी वर्ष गए १९वें मल्लिनाथ भए। __ अरनाथ तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव तीन पदवीके धारी भए। १९-मल्लिनाथके कलशका चिह्न । पहला भवं विजय, जन्मनगरी मिथिलापुरी, पिताका नाम कुम्भ, माताका नाम रक्षता. गर्भतिथि चैत्र सुदी , जन्मतिथि मार्गशिर सुदी ११, जन्मनक्षत्र अश्विनी, काय ऊंची २५ धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ५५ हजार वर्ष, दीक्षातिथि मार्गशिरं सुदी ११, दीक्षावृक्ष अशोक, केवलज्ञान तिथि पौष वदी २, गणधर २८, निर्वाणतिथि फाल्गुण सुदी ५, निर्वाण आसन खड्डासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अतर-इन पाछ १४ लाख वर्ष गए ..वें श्री मुनिसुव्रतनाथ भए । ' . मालिनाथ बालब्रह्मचारी भए न विवाह किया, न राज्य किया-कुमार अवस्था में ही दीक्षा लो। २०-मुनिसुव्रतनाथके कछवेका चिह्न। . . पहला भव अपराजित, जन्मनगरी कुशाग्रनगर अथवा रानग्रही, पिताका नाम सुमित्र, माताका नाम पद्मावती, गर्भ तिथि श्रावण वदी २, जन्मतिथि वैशाख वदी १., जन्मनक्षत्र, श्रवण, काय ऊंची १० धनुष, रंग श्याम अंजनगिर समान, आयु ३० हजार वर्षे, दीक्षातिथि वैशाख वदी १०...दीक्षावृक्ष Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwmmm १४]. जैनसिद्धांतसंग्रह चंपंके (बेली), कंवलज्ञान तिथि बैंशाख वदी ९. गणधर १८:: निर्वाणतिथि फाल्गुन वदी १२, निर्वाण आमन खड्गासन.' निर्माणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनके पीछे ६ लाख वर्ष •गए २ नमिनाथ भए । -- २१-नमिनाथके लाल कमलका चिंह ।। पहला मत्र १४ वां प्राणत स्वर्ग जन्मनगरी मिथिलापुरी. पिताका नाम विजय माताका नाम विप्रा, गर्मतिथि आसौन 'वदी २, जन्मतिथि आषाढ़ वढी १०, जन्मनक्षत्र अश्विनी, काय ऊंची २५ धनुष, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु १० हजार वर्ष, दीक्षातिथि. आषाढ़ वदी १०, दीक्षावृक्ष बौलश्री केवलज्ञान तिथि मार्गशिर सुदी.११; गणधर ७. निर्वाणतिथि पैशाख वदी.१४, निर्वाण आसन खगासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अन्तर-इनस ५ लाख वर्ष गए पीछे १२वें नेमिनाथ भए । २०-नमिनाथके शंखका चिह्न। पहला भव वजयंत, जन्मनगरी सौरीपुर वा हारिका, "पिताका नाम समुद्रविजय, माताका नाम शिंवादेवी, गर्भ तिथि वृंदावन-बख्तावरकृत पाठोंमें कार्तिक सुदी ६, रामचन्द्र 'कृतमें कार्तिक वदी ६, जन्मतिथि श्रावण सुदी ६, जन्मनक्षत्र चित्रा, कायली धनुष, रंग श्याम मोरकै कठ समान, आयु १ हजार दीक्षांतिथि श्रावण 'सुदी'६, दीक्षा मषेशृंग, केवलज्ञानतिथि आसौनं सुदी १, गणधर ११, निर्वाणतिथि वृन्दावन-बखतावरकृत पाठोंमें आषाढ़ सुदी १. रामचन्द्र कृतमें भापाइ सुदी ७, निर्वाण मासन, खदासन, निर्वाणस्थान Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह गिरनार पर्वत, अंतर-इनसे-पौने चौरासी हजार वर्ष-गए पीछे ९वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भए नेमिनाथ बालब्रह्मचारी भए, न 'विवाह किया न राज्यं..., . कुमार अवस्थामें ही. दीक्षा ली। . . . . ! ; ...२-पार्श्वनाथके संर्पका चिंह। __... पहला. भव. ११वां आनत स्वर्ग, जन्मनगरी, कोशीपुरी. पिताका नाम अश्वसेन, माताका नाम बामा, गर्मतिथि वैशाखं बदी २, जन्मतिथिः पौष, वदी ११, जन्म नक्षत्र विशाखा, काय ऊंची ९ हाथ: रंग हरा काचि शांलि समान, आयु सौ वर्ष दीक्षा तिथि पोष वदी ११, · दीक्षावृक्ष- धवल, केवलज्ञान तिथि चैत्र वदी ४, गंणधर १०, निर्वाणतिथि श्रावण सुदी ७, निर्वाण आसन खड्गासन, निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर, अंतर-इनसे अढ़ाइसौ वर्ष गए पीछे २४व वर्द्धमान भए । पाश्वनाथ बालब्रह्मचारी भए, न विवाह किया न राज्यकुमार अवस्थामें ही दीक्षा ली। ... २४-महावीरके शेर (सिंह).का चिह्न । पहलाभव पुष्पोचर, जन्मनगरी :कुण्डलपुर, पिताका नाम सिद्धार्थ, माताका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला), गर्मतिथि आषाद सुदी. १; जन्मातिथि चैत्र सुदी १३, जन्मनक्षत्र हस्त, काय ऊंची :. ७ हाथ, रंग सुवर्ण समान पीला, आयु ७२ वर्ष, दीक्षा तिथि १४.मार्गशिर. वदी १०-दीक्षावृक्ष. शाल,...केवलज्ञान- तिथि-वैशाख - : सुदी १०, गणधर. ११, निर्वाणतिथि कार्तिक वदी अमावास्या, निर्वाण:आसन -खगासन, निर्वाणस्थान पावापुर। ' . . . . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] जैनासेद्धांतसंग्रह । यह वालब्रह्मचारी भए, न विवाह किया न राज्य किया, कुमार अवस्था में ही दीक्षा की। जब ये मोक्ष गए चौथे कालके वर्ष साढ़े आठ महीना बाकी रहे थे । ૧ (६) वारह चक्रवर्त्ती । १ भरतचक्री, २ सगस्चक्री, ३ मघवाचक्री, ४ सनत्कुमारचक्री, ५ शान्तिनाथचक्री (तीर्थकर ); ६ कुन्थुनाथचक्री (तीर्थंकर), ७ अरनाथचकी (तीर्थकर ), ८ सभूमचक्री, ९ पद्मचक्री वा महापद्म; १० हरिषेणचक्री, ११ जयचक्री, १२ ब्रह्मदत्तचक्री | : (७) नव नारायण । १ त्रिपृष्ट, २ द्विपृष्ट, ३ स्वयंभू, ४ पुरुषोत्तम, ५ पुरुषसिंह, ६ पुण्डरीक, ७ दत्त, ८ लक्ष्मण, ९ कृष्ण । ( 2 ) नव प्रतिनारायण । १ अश्वग्रीव, २ तारक, ३ बेरक, ४ मधु (मधुकैटभ) ५ निशुंभ, ६ बली, ७ प्रल्हाद, ८ रावण, ९ जरासंघ । (९) बलभद्र । १ अचल, २ विजय, ३ भद्र, ४ सुप्रभ, ५ सुद Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [१७ र्शन, ६ आनंद, ७ नंदन नेदी, ८ पद्म (रामचन्द्र), .९.राम (बलभद्र)। . ... नोट-२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र यह मिलकर ६३ शनाकाके पुरुष कहलाते हैं। (१०) नव नारद । . १ भीम, २ महाभीम, ३ रुद्र, ४ महारुद्र, ५ काल, ॥ महाकाल, ७ दुर्मुख, ८ नरकमुख, ९ अधोमुख । . (११) ग्यारह रुद्र। भीमयली,२ जितशत्रु, रुद्र, ४ विश्वानल, ५ सुप्रतिष्ठ, अचल, ७ पुण्डरीक, ८ आजितधर, ९जितनाम, १० पाठ, ११ सात्यकी। . . ' (१२) चौवीस कामदेव । बाहुबली, अमिततेज, ३ श्रीधर, ४ दशभद्र, प्रसेनजित् ६ चंद्रवर्ण, ७ अनिमुक्ति, सनकुमार (चक्रवर्ती), ९ वत्सराज, १० कनकममु, ११ सेधवर्ण, ११शांतिनाथ (तीर्थंकर),१३ कुंथुनाथ, (तीर्थकरः, १४ अरनाथ तीर्थकर) १५ विजयराज, १६ श्रीचंद्र, १५ राजा नल, १८ हनुमान, १९ घलरा. जा, २० वसुदेव, २१ प्रद्युम्न, २२ नागकुमार, २३ । श्रीपाल, २४ जंबुस्वामी। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। .(१३) चौदह कुलकर। १ प्रतिश्रुति, २ सन्मति, ३ क्षेमकर क्षेमंधर, ६ सीमकर, ६ सीमंधर, ७ विमलवाहन, ८चक्षु मान, ९ यशस्वी, १० अभिचंद्र, ११ चंद्राम, १५ मरुदेव, १३ प्रसेनजित, १४ नाभिराजा। नोट-५८ तो यह और शलाका पुरुष इनमें चौवीस तीर्थकरोंके १८ माता पिता मिलाकर यह सर्व १६९ पुण्यपुरुष कहलाते हैं अर्थात् जितने पुण्यवान् पुरुष हुए हैं उनमें यह मुख्य गिने जाते है। (१४) बारह प्रसिद्ध पुरुषों के नाम । १ नाभि, कुलकरोंमें.२ श्रेयांस, दान.३ थाहुषली, बलमें. ४ भरत, चकी.५ रामचन्द्र, पलंभ. द्रों. ६ हनुमान, कामदेवों में.७ सीता, मतियोंमें.८ रावण, मानियों में. ९ कृष्णं नारायणों में. १० महा. देव, रुद्रों में ११ भीम,योडावों में १२पार्श्वनाथ, उपसर्ग महने में प्रसिद्ध देव । __ तात्पर्य-कुलकरोंमें नाभिराना, दान देनेमें श्रेयांस राजा, . तप करनेमें बाहुबली एक साल तक कायोत्सर्ग खड़े रहे, भावकी शुद्धतामें भरत चक्रवर्तीको दीक्षा लेते ही केवलज्ञान हुवा; वलदेवों में रामचन्द्र, कामदेवोंमें हनुमान , सतियों में सीता मानियोंमें रावण. नारायणों में कृष्ण, रुद्रोंमें महादेव, बलवानोंमें भीम, तीर्थकरों में पार्श्वनाथ, यह पुरुष जगत्में बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . immo जैनसिद्धांतसंग्रह। .. . . (१५) सिद्धक्षेत्रोंके नाम।। १ मांगीतुंगी, र मुक्तागिरि (मेहगिरी), ई सिद्धवरकूट, पावागिरि चलनानदी के पास, शत्रुजय, बड़वानी, ७ सोनागिरि, नैनागिरी (नैनानंद), ए द्रोणागिरि, १० तारंगा, १ कुंथुगिरि. १२ गमपंथ, ११ राजनहीं, १५ गुंणावा, १५ 'पंटना, १६ कोटिशिला १७ चौरासी । ... (१६) महाविदेहक्षेत्रके २० विद्यमान तीर्थकर । · १ सीमन्धर. ५ युगमंघर, बाहु, : सुबाहु, ५ सुजात, १. स्वयंप्रभु, वृषमानन, (मनन्तवीर्य,९सूरप्रमु, १०विशालकीर्ति ११.बजघर, १२ चंद्रानन, १३ चन्द्रवाहु, १४ भुजंगम, १५ ईश्वर, १९ नेमप्रमु (नेमि) १७ वीरसेन, ११ महामद्र, १९ देवयश, १० अजितवीर्य । (१७) अतीत (पिछली) चौवीसी । १ श्रीनिर्वाण, ९ सागर, ३ महासाधु, ४ विमलप्रभु, ५ श्रीधर, सुदत्त,७ अमलप्रमु ८ उद्धर, ९ अंगिर, १ सन्मति, ११. सिंधुनाथ, १२ कुसुमांजलि, १३- शिवगण, १४ उत्साह, १५ ज्ञानेश्वर, १६ परमेश्वर, १७ विमलेश्वर, १८ यशोधर, १९ कृष्णंमति, २० ज्ञानमति, २१ शुद्धमति, २२ श्रीमद्र, १३ अतिक्रांत, २१ शांति । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह | (१८) अनागत (आइन्दा) चौबीसी । १ श्रीमहापद्म, २ सुरदेव, ३ सुपार्श्व, १ स्वयंप्रभु, ५ सर्वामम्, ६ श्रीदेव, ७ कुलपुत्रदेव, ८ उदंकदेव, ९ प्रोष्ठिलदेव, १० जयकीर्ति, ११ मुनिसुव्रत, ११ अरह (अमम ) १९ निष्पाप, १४ निःकषाय, ११ विपुल, १६ निर्मक, १७ चित्रगुप्त, १८ समाधिगुप्त, १९ स्वयंभू, २० अनिवृत्त, २१ जयनाथ २१ श्रीविमल, २३ देवपाल, २४ अनन्तवीर्य । · AND (१९) चौदह गुणस्थान | १ मिथ्यात्र, २ सासादन, ३ मिश्र, 8 अविरत सम्यत्तव ९ देशत्रत. १ प्रमत्त, ७ अप्रमत्त ८ अपूर्व र्करण, ९ अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्मसांपराय, ११ उपशांतकपाय वा उपशांत मोह, १२ क्षीणकषाय वा क्षोणमोह, १२ सयोगकेवली, १४ अयोगकेवली । (२०) सोलहकारण भावना | १ दर्शनविशुद्धि. २ विनयसंपन्नता, ३ शीलत्रतेन तिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ९ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप. ८ साघुसमाधि, ९ चैय्यावृत्य, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतमति, ११ प्रवचनमति, १४ आवश्यका परिहाणि, १५ मार्गप्रभावना, १६ प्रवचनवात्सल्य । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२१: (२१) श्रावकोंके २१ उत्तरगुण । १ लज्जावंत, १ दयावंत, ३ प्रसन्नता, प्रतीतिवन्त, " परदोषाच्छादन, ६ परोपकारी, ७ सौम्यदृष्टि, ८ गुणग्राही, ९ १. मिष्टवादी, ११ दीर्घविचारी, १२ दानवंत, १३ शीलवंत, १. कृतज्ञ, १९ तत्वज्ञ, १६ धर्मज्ञ, १७ मिथ्यात्व रहित, १८ संतोषवंत,१९स्याहादभाषी, २०अभक्ष्यत्यागी,२१षट्कर्मप्रवीण। (२२) भावककी ५३ क्रिया। ८ मूलगुण, १२ व्रत, ११ तप, १ समतामाव, ११.प्रतिमा, दान, ३ रत्नत्रय, १ जलगालन क्रिया, १ रात्रिभोजनत्यांग (दिनमें ही भोजन शोधकर खाना अर्थात् छानवीन कर देखभालकर खाना ।) ___ श्रावकके ८ मूलगुण- उदंबर । ३ मकार । १९ व्रत-५ अणुव्रत, ३ गुणवत, : शिक्षावत । अणुव्रत-१ अहिंसा अणुव्रत,२ सत्याणुव्रत, ३परस्त्रीत्याग अणुव्रत, १ (अचौर्य) चोरी त्याग अणुव्रत, र परिग्रहप्रमाण अणुव्रत । ३ गुणवत-१ दिग्वत, २ देशवत, ३ अनर्थदंडत्याग। . ४ शिक्षाबत-१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास,.३ अतिथिसंविभाग, ४ भोगोपभोगपरिमाण । १२ तप__ . ' आचार्यके १६ गुणों में लिखे है। इनके भी वही नाम। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २२] जैनासिदांतसंग्रह। ज्यादे इतना है कि मुनियोंके महानत होते. हैं, श्रावकों के अणुव्रत अर्थात् शक्ति अनुसार। ' ११ प्रतिमा-१ दर्शनप्रतिमा, २ व्रत, ३ सामायिक, 'प्रोषधोपवास, ५ सचित्तत्याग, १ रात्रिभुक्ति अथवा दिवा मैथुन त्याग, ७ ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भ त्याग, ९ परिग्रहत्याग, १० अनुमति त्याग, ११ उद्दिष्ट त्याग । चार दान-आहारदान,औषधदान,शास्त्रदान,अमयदान। यह ४ दान श्रावकको करने योग्य हैं। ३ रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकूचारित्र । यह तीन रल श्रावकके धारने योग्य हैं। इनका खुलासा (अर्थ) जैन बाल गुटकेके दूसरे भागमें सम्यक्तके वर्णनमें लिखा है। इनका नाम रत्न इस कारणसे है कि जैसे सुवर्णादिक सर्व धनमें रल उत्तम अथात् बहुमूल्य होता है इसी प्रकार कुल नियम, व्रत, तपमें यह तीन सर्वमें उत्तम हैं। जैसे कि विना अंक विन्दियां किसी कामकी नहीं इसी प्रकार वगैर इन तीनोंके सारे व्रत नियम कुछ भी फलदायक नहीं हैं। यह तीनों मानिन्द शुरूके अंकके हैं इसलिये इन तीनोंको रत्न माना है। दातारके २१ गुणा-१ नवधामक्ति, गुण, ५आभूषण। यह ११ गुण दातारके हैं अर्थात् पात्रको दान देनेवाले दातामें यह २१ गुण होना चाहिये। दातारकी नवधा भक्ति-पात्रको देखकर बुलाना, उच्चासन पर बैठौना, चरण धोना, चरणोदक मस्तक पर चढ़ाना, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। पूना करना, मन शुद्ध रखना, वचन विनयरूप बोलना, शरीर शुद्ध रखना, शुद्ध आहार देना।. . . . . . : इसे नवधा भक्ति कहते हैं अर्थात् दातारकोयह. नव प्रकारकी.. भक्तिपूर्वक पात्रदान करना चाहिये। दातारके सात गुण-१. श्रद्धावान् होना, २ शक्तिवान् होना, ३ अलोभी होना, ४ दयावान् होनी, ५ भक्तिवान् होना, ६ क्षमावान् होना, ७ विवेकवान् होना। .:. दावारमें यह सात गुण होते हैं अर्थात् जिसमें यह सात गुण हों वह सच्चा दातार है। दातारके पांच भूषण-१ आनन्दपूर्वक देना,आदर-: पूर्वक देना, ३ प्रिय वचन कहकर देना, ४ निर्मल भाव रखना, ५ दान दकर जन्म सुफल मानना। दातारके पांच दूषण-विलम्बसे देना, विमुख होकर देना, दुर्वचन कहकर देना, निरादर करके देना, देकर पछताना। __ ये दाताके पांच दूपण हैं अर्थात् दातारमें यह पांच बात' · नहीं होनी चाहिये ।। [२३] ग्यारह प्रतिमाओंका सामान्य स्वरूप ।। दोहा। प्रणम पंच परमेष्ठि-पद; जिन आगम अनुसार; श्रावकंप्रतिमा एकदश, कहुं भविजन हितकार ॥२॥ सवैया. ३१ ॥ श्रद्धा कर ब्रते. पालें, सामायिकै दोष टाले, पोसा मॉडे, साचित्तकौं त्यो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] जैन सिद्धांत संग्रह । लों घटायें । रात्रिमुक्त परिहरै ब्रह्मचर्य नित घरे. आरम्भको त्याग करें मन वच कायके । परिग्रह कान टार, अघ अनुमति छारें स्वनिमित त टारें आतम लोलायकै । सब एकादश येह प्रतिमा जु शर्मा गह, धारें देश व्रती हर्ष उर वढायकै । दर्शन प्रतिमा स्वरूप - अष्ट मूलगुण संग्रह करे, व्यसन अमक्ष्य सबै परिहरै । युत अष्टांग शुद्ध सम्यक्त, घराह प्रतिज्ञा दर्शन रक्त ॥ १ ॥ व्रत प्रतिमा स्वरूप- अणुव्रतपन अनिचार विहीन, धारहिं जो पुन गुणत्रत तीन, चौ शिक्षात्रत संजुत सोय; व्रत प्रतिमा घर श्रावक होय ॥ २ । सामायिक प्रतिमा स्वरूप- ( गीतका छद) सब नीवमें सममाच घर शुभ भावना संयममहीं, दुरव्यान आरत रौद्र तनकर त्रिविध काल प्रमाणहीं । परमेष्ठिपन जिन वचन जिन वृष बिंब जिन जिग्रनह तनी, वंदन त्रिकाल करहि सुजानहु भव्य सामायिक धनी ॥ २ ॥ प्रोषधं प्रतिमा स्वरूप-पद्धरी छंद वर मध्यम जघन त्रिविध घरेय, प्रोषध विधि युत निजवल प्रमेय: प्रति मास, चार पर्वी मंझार, नानहु सो प्रोषध नियम धार ॥ १ ॥ सचित्तत्याग प्रतिमा स्वरूप- ( चौपाई ) जो परिहरे सचित सब चीज, पत्र प्रवाळ कंदं फलबीन । अरु अपासुक जल भी सोय, सचित त्याग प्रतिमा घर होय ॥ ५ ॥ रात्रिभुक्तत्याग प्रतिमा स्वरूप- (अडिल छंद) मन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२५, वच तन कृत कारित अनुमौदै नही, नवविध मैथुन दिवस माहि ' जो वर्जही । अरु चतुर्विध आहार निशामाहीं तने, रात्रिमुक्ति परित्याग प्रतिमा सो सजै ।। ६॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमा स्वरूप-(चौपाई) पूर्व उक्त मैथुन नव भेद, सर्व प्रकार तमै निरखेद, नारि कथादिक भी परिहरे, ब्रह्मचर्य प्रतिमा सो घरे ।। ७॥ आरंभ त्याग प्रतिमा स्वरूप-(चौपाई) जो कछु अल्प बहुत अघ काज, ग्रह संबंधी सो सब त्याज । निरारम्भ है वृषरत रहै, सो जिय अष्टम प्रतिमा वहै ॥ ८॥ . परिग्रहत्याग प्रतिमा स्वरूप-(चौपाई) वस्त्र मात्र रख परिग्रह अन्य, त्याग करै जो व्रतसंपन्न । तामें पुन मूर्छा परहरै, नवमी प्रतिमा सो भवि-धरै ॥९॥ अनुमतित्याग प्रतिमा स्वरूप-(चौपाई) जो प्रमाण अघमय उपदेश देय नहीं परकोलवलेश । अरु तमु अनुमोदन भी तजै, सोही दशमी प्रतिमा सजै ॥१०॥ उद्दिष्टत्याग प्रतिमा स्वरूप-(चौपाई) ग्यारम थान भेद हैं दोय, इक छुल्लक इक ऐळक सोय। खंडवस्त्र घर प्रथम सुजान, युतकोपीन हि दुतिय पिछान । १.१॥ ए गृह त्याग मुनिन ढिंग रहँ, वा मठ, मंदिरमें निवसह । उतर उदंड उचित आहार, करहिं शुद्ध मंत्रायन बार ॥ दोहा । इम सब प्रतिमा एकदश, दौल देशव्रत यानं । ग्रहै अनुक्रम मूल सह 'पाले भवि सुखदान Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwww २६] जनसिद्धांतसंग्रह। ..[२४] श्रावकके १७ नियमः । - १ भोजन, संचित वस्तु, ३ गृह, ४ संग्राम, ५ दिशागमन, ६ औषधिविलेपन, ७ तांबूल, ८ पुष्पंसुगंध, ९ नाच, १० गीतश्रवण, ११ स्नान, १२ ब्रह्मचर्य, १३ आभूषण, १४. वस्त्र, १५शय्या, १६औषध खाना, १७घोड़ा बैलादिककी सवारी। नोट-इनमें से निस जिसकी जरूरत हो उसका प्रमाण रखकर शेषका प्रतिदिन त्याग किया करें। [२५] सात व्यसनका त्याग । १ जुवा, २ मांस, ३ मदिरा, ४ गणिका (रंडी), ५ शिकार, ६ चोरी, ७ परखी। [२६] बावीस अभक्ष्यका त्याग । पांच उदम्बर१ उदम्बर (गूलर), २ कठूम्बर, ३ बड़फल, ४ पीपलफल, ५ पाकरफळ (पिलखन फल)। तीन मकार। १ मांस, २ मधु, ३ मदिरा । . नोट--इन तीनोंको तीन मकार इस कारण से कहते हैं कि इन तीनों नामोंके शुरूमें 'म' है। . थाकी चौदहं येह हैं। १ ओला, २ विदल, ३ रात्रिभोजन, ४ बहुबीना, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ANANA जैनसिद्धांतसंग्रह। ५ बैंगन, ६ अचार, ७ विना चीन्हे फल (अनजान),८कन्दमूल, ९ माटी, १० विष, ११ तुच्छफल, १२ तुषार (बरफ), १३. चलितरस, ११ माखन । नोट-६ उदम्बर, ६ मकार, १४ दूसरे ये बाईस अभक्ष्य हैं। [२७] श्रावकके नित्य षट्कर्म । षट् नाम छका है । १ देवपूजा, २ गुरुसेवा, ३ स्वाध्याय, ४ संयम, ५ तप, ६ दान । यह छह कर्म श्रावकके नित्य करनेके हैं। . [२८] दशलक्षण धर्म । १ उत्तम क्षमा, २ उत्तम मादेयं, ३ उत्तम आजैव, ४ उत्तम सत्य, ५ उत्तम शौच, ६ उत्तम संयम, ७ उत्तम तप, ८ उत्तम त्याग, ९ उत्तम आकिंचन्य, १० उत्तम ब्रह्मचर्य 13 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] जैनसिद्धांतसंग्रह। द्वितीय खंड। (१) इष्टछत्तीसी अर्थात् पंचपरमेष्टीके १५३ मूलगुण। सोरठा। मणमू श्री अहंत, दयाकथित जिनधर्मको। गुरु निरपथ महंत, अवर न मानूं सर्वथा ॥१॥ विन गुणकी पहिचान, नान वस्तु समानता। तातें परम बखान, परमेष्ठी गुणको कहूं ॥२॥ रागद्वेण्युत देव, माने हिंसाधर्म पुनि । सग्रंथनकी सेव, सो मिथ्याती जग अमै ॥३॥ अथ अरहंतके ४३ मूलगुण। दोहा। चौतीसा अतिशय सहित, प्राविहार्य पुनि आठ। अनंत चतुष्टय गुणसहित, ये छियालीसों पाठ ॥ ४॥ अथ-१४ अतिशय, ८ प्रतिहार्य, १ अनंतचतुष्टय ये अरहंतके १६ मूलगुण होते ह । अव इनका भिन्न वर्णन करते हैं जन्मके १० अतिशय। . अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पसेव निहार । प्रियहितवचन अतुल्य बल, रुधिर शत भाकार ॥५॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। । २९ .. वजन लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्कसंठान |. - वज्रवृषभनाराच जुत; ये जनमत दश जान ।। ६ ।। अर्थ-१ अत्यन्त सुन्दर शरीर, २ अति सुगन्धमय शरीर, ३ पसेवरहित शरीर, ४ मलमूत्ररहित शरीर, ५ हितमितप्रियवचन बोलना, ६ अतुल्य बल, ७ दुग्धवत् श्वेत रुधिर, ८ शरीरमें एक हजार आठ लक्षण, ९समचतुरस्त्रसंस्थान, १०वषमनाराचसंह'नन । ये दश अतिशय अरहंत भगवानके जन्मसे ही उत्पन्न होते हैं। केवलज्ञानके दश अतिशय । योजन शत इकमें सुमिख, गगनगमन मुख चार । . नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कवलाहार ॥ ७ ॥ सब.विद्या ईश्वरपनों, नाहिं बड़े नख केश। अनिमिष हग छायारहित, दश केवलके वेश ॥ ८॥ अर्थ-१ एकसौ योजनमें सुमिक्षता, अर्थात् जिस स्थानमें केवली हों उनसे चारों तरफ सौ सौ कोशमें सुकाल होता है, २ आकाशमें गमन, ३ चार मुखोंका दीखना, अदयाका अभाव, 5 उपसर्गरहित, ६ कवल (प्रास) वर्जित आहार, ७ समस्त. विद्याओंका स्वामीपना, ८ नखकेशोंका नहीं बढ़ना, ९ नेत्रोंकी पलकें नहीं झपकना, १० छाया रहित ।ये १० अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे प्रगट होते हैं ॥ ८॥ . देवकृत.१४.अतिशय । देवरचित हैं चार दश, अर्द्धमागधी भाष । ' आपसमाही मित्रता, निर्मल दिश आकाश ॥९ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] जैनसिद्धांतसंग्रह। होत फूल फल ऋतु सबै, प्रथिवी कांच समान । चरणकमलतंल कमल हैं. नमते जय जय वानं ॥१॥ मंद सुगंध चयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविष कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टिं ॥११॥ धर्मचक्र आगे चले, पुनि वसु मंगल सार । अतिशय श्रीअरहंतक, ये चौंतीस प्रकार ॥ १२॥ . अर्थ-१ भगवान्की अर्द्धमागधी भाषाका होना. समस्त जीवों में परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निर्मल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सर ऋतुके फल पुष्प धान्यादिकका एक ही समय फलना, ६ एक योजनतककी पृथिीका दर्पणवत् निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान्के चरणकमलके तले सुवर्णकमलका होना, ८ आकाशमें जयनय ध्वनिका होना, ९ मंदसुगंधित पवनका चलना. १० सुगंधमय जलकी दृष्टि होना, ११ पवनकुमार देवोंके द्वारा भूमिका कण्टकरहित होना, १२ समस्त नावोंका आनन्दमय होना, १३ भगवान के आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र, चमर, चना, घंटादि अष्ट मंगल द्रव्योंका साथ रहना । इसप्रकार सब मिलाकर ११ अतिशय भरहंत भगवान के होते - अष्टप्रातिहार्य । :: त मोकके निकटमें, सिंहासन छविधार । तीन छत्र सिरपर लौं, मामंडल पिछवार । १॥ दिव्यध्वनि मुख खिरे, पुष्पवृष्टि सुर होय । दार चौसठ चमर सुर, बनि दुंदुमि नोयं ॥१॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैन सिद्धांतसंग्रह । अर्थ-१ अशोकवृक्षका होना, २ रत्नमय सिंहासन, भगवानके सिरपर तीन छत्रका फिरना, ४ भगवानके पीछे भामंडका होना, ५ भगवानके मुखसे दिव्यध्वनिका होना, ६ देवोंके द्वारा पुष्पवृष्टिका होना, ७ यक्षदेवों द्वारा चासठ चवेराका दुरना, दुंदुभि बाजका बनना, य आठ प्रातिहार्य हैं । . अनन्तचतुष्टय | • ज्ञान अनंत अनंत सुख दर्श अनंत प्रमान । बल अनंत अर्हत सो, इष्टदेवं पहिचान ॥१५॥ [#2 • ११ . अर्थ - १ अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, ३ अनन्तसुख, 8 अनन्तवीर्य | जिसमें इतने गुण हों, वह अरहन्तं परमेष्ठी है । अष्टादशदोषवर्जन | जनम नरा तंरषा क्षुधा विस्मय आरत खेद ! रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिंता स्वेद ॥ १८॥ राग-द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष । नाहिं हात अर्हत, सो छबि लायक मोप ॥ १७॥ अर्थ - १ जन्म, २ जरा, १ तृषा, १ क्षुधा, ९ आश्चर्य, ६ अरति (पीडां), ७ खेद (दुःख, ८ रोग, ९ शोक, १० मद ११ मोह, १२ भयं, १३ निंद्रा, १४ चिन्ता, १५ पसीना, *१६ राग, १७ द्वेष, १८ मरण, ये १८ दोष अरहंत भगवान में -नहीं होते ॥ १७ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] जैनसिद्धांतसंग्रह। सिद्धोंके ८ गुण । सोरठा । . . समकित दर्शन ज्ञान, मगुरुलघू अवगाहना । सूच्छम वीरजवान, निराकाष गुन सिद्धके ॥१८॥ . अर्थ-१ सम्यक्तव, २ दर्शन, ३ ज्ञान, १ अगुरुलघुत्व, ५ अवगाहनत्व, १ सूक्ष्मत्व, ७ अनंतवीर्य, ८ अन्यावायत्व, ये सिदोंके ८ मूलगुण होते हैं ॥१८॥ आचार्यके ३६ गुण। द्वादश तप दश धर्मजुत, पालं पंचाचार । षट आवश्यक त्रिगुप्ति गुन, आचारन पदसार ॥ अर्थ-तप १२, धर्म १०, आचार , आवश्यक ६, गुप्ति ये आचार्य महारानके ३६ मूलगुण होते हैं। अब इनको मित्र १ कहते हैं ॥१९॥ द्वादश तप। अनशन ऊनोदर करें, व्रतसंख्या रस छोर । विविक्तशयन आसन घरै, कायकलेश झुठोर ॥ प्रायश्चित्त घर विनयजुत, वैयावत स्वाध्याय । । पुनि, उत्सर्ग विचारक, धरै ध्यान मन लाय ॥२१॥ ... अर्थ- अनशन, २.उनोदर, ३ चैतपरिसंख्यान, १ रसपरित्याग, ५ विविकशम्यासन, ६ कायलेश, ७ प्रायश्चिच लेना, ८ पांच प्रकार विनय करना, ९ वैयाव्रत करना, १० स्वाध्याय Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनसिद्धांतसंग्रह। करना, ११ . व्युत्सर्ग :( शरीरसे ममत्व छोड़ना ), आर १९ ध्यान करना, ये बारह प्रकारके तप हैं ।। २१ ॥ दश. धर्म। ... . क्षमा मार्दव आर्जव, सत्यवचन चित पाग। संजम तप त्यागी सरव, आकिंचन तिय त्याग ॥ . अर्थ-१ उत्तमक्षमा, २ मार्दव, ६ आर्जव, ४ सत्य, १ शौच ६, संयम, ७ तप, त्याग,९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य, ये दश प्रकारके धर्म हैं ॥२२॥ . . . आवश्यक। समता घर वंदन करें, नाना थुती बनाय । प्रतिक्रमण स्वाध्यायजुत कायोत्सर्ग लगाय ॥ अर्थ-१ समता ( समस्त जीवोंसे समताभाव रखना) २,.वंदना, ३ स्तुति (पंचपरमेष्ठीकी स्तुति) करना. ४ प्रतिक्रमण (लगे हुए दोषोंपर पश्चाताप) करना, ५ स्वाध्याय, और ६ कायोसंर्ग (ध्यान) करना ये छह आवश्यक है ॥२३॥ पंचाचार और तीन गुप्ति। दर्शन ज्ञान चारित्र तप, बीरन पंचाचार । गोपे मनवचकायको, गिन छतीस गुन सार ।। अर्थ-१ दर्शनाचार, २ ज्ञानाचार, ३ चारित्राचार, ४ तपाचार, ५ वी-चार, १ मनोगुप्ति (मनको वशमें करना) २ वचनगुप्ति (वचनको वशमें करना) ३ कायगुति (शरीरको वशमें करना) इस प्रकार सब मिलाकर आचार्यके ३६ मूलगुण हैं ॥१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। उपाध्यायके २५ गुण। चौदह पूरवको घर, ग्यारह अंग सुनान । उपाध्याय पञ्चीस गुण, पढ़ें, पढ़ावे ज्ञान ॥२॥ अर्थ-११ अंग ११ पूर्वको आप पढ़ें, और अन्यको पढ़ावें ये ही उपाध्यायके २५ गुण हैं ॥११॥ ग्यारह अंग। प्रयहिं आचारांग गनि. दूनो स्वकृतांग ठाणभंग तीनो सुमग, चौथो समवायांग ॥२६॥ व्याख्या प्रज्ञप्ति पंचमो, ज्ञातृकया पट् आन । पुनि उपासनाध्ययन है, अन्तःकृत दशठान ॥२७॥ अनुचरणउत्पाद दश, सूत्रविपाक पिछान । बहुरि प्रश्नव्याकरणजुत, ग्यारह अंग प्रमान २८॥ अर्थ-१ आचारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग, १ समवायांग, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातृश्यांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अंत स्तदशांग,९ अनुचरोत्साददशंग, . प्रश्नव्याकरणांग, १९ विपाकसूत्रांग, ये न्यारह अंग है ।८। चौदह पूर्व-उत्पादपूर्व अप्रायणी. तीने वीरनवादी अस्ति नाखि प्रवाद पुनि. पंचम ज्ञानवाद ।। छछो कर्मप्रसाद है सतप्रवाद पहिचान। . अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवमों प्रत्याख्यान ॥ ३० ॥ विद्यानुगद पूरव दशम, पूर्वकल्याण महंत । प्राणवाद क्रिया बहुल लोकपिंदु है अंत ॥ ३१ ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [ ३५ ७ - अर्थ - १. उत्सादपूर्व : २, अग्रायिणी, पूर्व, २ वार्यानुवादपूर्व 8 अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व १ ज्ञानप्रवाद्रपूर्व ६ कर्मप्रवादपूर्व, • सत्मवादपूर्व, ८ आत्मवादपूर्व ९. प्रत्याख्यानपूर्व, १० विद्यानुवादपूर्व ११ कल्याणवादपूर्व, १२ प्रागानुवादपूर्व १३ क्रियाविशालपूर्व, १४ लोकविन्दुपूर्व ये १-४ पूर्व हैं ॥ ३१ ॥ सर्व साधुके २८ मूलगुण । : पंचमहाव्रत । हिंसा अनृत तस्करी, अब्रह्म परिग्रह पाय । मनवचतनते त्यागवो, पंचमहाव्रत थाय ॥ · ३२ ॥ अर्थ - १ अहिंसा महाव्रत, १ सत्य महाव्रत, १ : अचौर्य महाव्रत, ४ ब्रह्मचर्य · महात्रा, ९ परिग्रहत्याग महात्रा - ये पांच महाव्रत हैं । । • . पांच समिति | ईर्ष्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपन आदान । प्रतिष्ठापनाजुतः क्रिया, पांचों समिति विधान ॥ अर्थ - १ इर्ष्यासमिति, २ भाषासमिति, ३ एषणासमिति, 8 आदान निक्षेपणसमिति, १ प्रतिष्ठापनासमिति, ये पांच समिति हैं ॥ १२ ॥ पांच इंद्रियों का दमनः । . सपरस रसना नासिका, नयन धोत्रका रोध । 1 षट् आशि मंजन: तजन, शयन भूमिको शोत्र ॥ अर्थ -१ स्पर्शन ( क ), रसना, ३ . भाग ४ च Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। और ५ श्रोत्र इन पांच इन्द्रियोंका वश करना सो इन्द्रियदमन है (छह मावश्यक आचार्यके गुणोंमें देखो) ॥ ३४ ॥ शेष सात.गुण। वस्त्रत्याग कचलोच अरु. लघु भोजन इकबार । दांतन मुंखमें ना करें, ठाड़े लेहि अहार ।। अर्थ- यावनीव स्नानका त्याग, शोधकर ( देख भाल कर) भूमिपर सोना, ३ वस्त्रत्याग (दिगम्बर होना) केशोंका लोच करना, ५ एकवार घुमोजन करना, ६ दन्तधावन नहीं करना, ७ खड़े खड़े आहार लेना; इन सात गुणोसहित.२८ मूल गुण सर्व मुनियों के होते हैं । ३६ ।। . . : .. .. साधर्मी भवि पठनको, इष्टछतीसी ग्रंथ . . . . . .. अल्पबुद्धि बुधवन रच्यो, हित मित शिवपुरपंथ । . इति पंचपरमेष्ठीक.१४३ मूलगुणोंका वर्णन समाप्त । (२) दर्शनकाला __अनादिनिधन महामंत्र....:.:... गाथा-णमो अरहंताणं, गमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं . समो वायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं ॥१॥ मंदिर के. वेदीगृहमें प्रवेश करते ही "न्य जय नय, निःसहि. नि:सहि, निःसहि" इस प्रकार उच्चारण करके उपर्युक्त महामन्त्रका ९वार पाठ करे । तत्पश्चात् : Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांत संग्रह । चत्तारि मंगलं - अर्हत मंगलं । सिद्ध मंगलं ! साहू मंगलं | केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ १ ॥ चचारि लोगुत्तमा-अरहंत लोगुत्तमा । सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुतमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥ २ ॥ चचारि सरणं पव्वज्जामि - अरहंत सरणं पव्वज्जामि । सिद्धसरणं पव्वज्जामि । साहूसरणं पव्वज्जामि | केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ॥ ॐ झौं झीं स्वाहा ॥ देवदर्शन | दर्शनं देव देवस्य दर्शनं पापनाशनं । दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनं ॥ दर्शनेन जिनेंद्राणाम्, साधूनां वंदनेन च । न चिरं तिष्ठति पामम्, छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥ वीतरागगुखं दृष्ट्वा पद्मरागसमप्रभं । अनेकजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति || दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनं । बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थप्रकाशनं ॥ दर्शनं जिनचंद्रस्य सद्धर्मामृतवर्षणं । जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधेः ॥ ': जीवादितच्चं प्रतिदर्शकाय । جاج کا شیشہ सम्यक्तमुख्याष्टगुणाश्रयाय ॥ प्रशांत रूपाय दिगंबराय । 'देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ चिदानन्दैकरूपाय, जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः !! 5 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ 'जैन सिद्धांतसंग्रह" अन्यथां शरणं नास्ति, त्वमेवशरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ नहि त्राता हि त्राता, नहि त्राता जगत्त्रये ।' वीतरागात्परो देवों न मूर्ती' न भविष्यति ॥ • जिने भक्तिर्जिने भक्ति - जिने भक्तिदिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेरतु, सदा मेातु भवे भवें ॥ जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भूतं चक्रवर्त्यपि । स्यंचितोऽपि दरिद्रोऽपिं, जिनधर्मानुवासितं ।। जन्मजन्मकृतं पापं जन्म कोटिमुपार्जितं । जन्ममृत्युजरारोगं हन्यते जिनदर्शनात् ॥ अद्याभव सुफलता नयनद्वयस्य । देव त्वदीयचरणांजवीक्षणेन. अद्य त्रिलोकतिलकप्रतिभाषते मे संसारवारिधिरयं चुलकप्रमाणं इति देवदर्शनं । वर्तमान चौवीस तीर्थकरों के नाम । श्री ऋषम १, अजित २, संभव, अभिनन्दन ४, सुमति” पद्मप्रभु ६, सुपार्श्व ७, चंद्रप्रभु ८, पुष्पदंत ६, शीतल १०, श्रेयान्स ११, वासुपूज्य १२, विमलं ११, अनन्त १४, धर्म १९, शांति १६, कुन्थु १७, अर १८, मल्लि १९, मुनिसुव्रत २०, नाम २१, नेमि २२, पार्श्वनाथ २३, महावीर २४, इति वर्तमानकालसम्बंधिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नमोनमः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह. । - [ ३९ अद्य मे सफलं : जन्म नेत्रे च सफले मम । सामद्राक्षं यतो देव हेतुमक्षयसम्पदः ॥ १ ॥ अद्य संसारगम्भीरपारावारः सुदुस्तरः । : सुतरोऽयं क्षणेनैव मिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ १ ॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ३ ॥ अद्य मे सफलं जन्म प्रशस्तं सर्वमङ्गलम् । संसारार्णवतीर्णोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ४ ॥ अद्य कर्माष्टकज्वालं विधूतं सकषायकम् । दुर्गविनिवृत्तोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ १ ॥ अद्य सौम्या गृहाः सर्वे शुभाश्चैकादशस्थिताः । नष्टानि विन्नजालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ६ ॥ अद्य नष्टो महाबन्धः कर्मणां दुःखदायकः । सुखसंगं समापन्नी जिनेन्द्र तव दर्शनात् । ७ ॥ अद्य कर्माष्टकं नेष्टं दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमग्नोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ८ ॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्य हन्ता ज्ञानदिवाकरः । उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् मिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ९ । अद्याहं सुकृती भूतो निर्धूताशेपकरमपः । भुवनत्रयपूज्योऽहं मिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ १० ॥ अद्याष्टकं पठेद्यस्तु गुणानन्दितमानसः । तस्य सर्वार्थसिद्धि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ११ ॥ इति अद्याष्टकस्तोत्रं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] जैनसिद्धांतसंग्रह। इस प्रकार बोलकर साष्टांग नमस्कार करना चाहिये। नमस्कारके पश्चात् पूजनक लिये चांवल चढ़ाना हा तो नीचे लिखा लोक तथा मंत्र पढ़कर चढ़ावे अपारसंसारमहासमुद्रपोचारणे प्राज्यतरीन्युभक्त्या। . दीक्षितापवलाक्षतोघर जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् योऽहम ॐ ही देवशास्त्रगुरुम्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति खाहा। यदि पुष्पोंसे पूजन करना हो तो नीचे लिखा श्लोक और मंत्र पढ़कर चढ़ावे। विनीतभव्यानविबोधसूर्यान् वर्यान सुचर्याकथनकधुर्यान् । कुन्दारविन्दप्रमुखप्रसूनैर् जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् यनेऽहमारा ॐ ही कामवाणविध्वंसनाय देवशास्त्रगुरुभ्यः पुष्पं निर्वामीति साहा! यदि किसीको लोंग, बदाम, एलायची दाडिम मादि कोई प्रामुक फल चढ़ाना हो तो नीचे लिखा, श्लोक और मंत्र पढ़कर चढ़ावे। क्षुभ्यद्विलुभ्यन्मनसाप्यगम्यान कुवादिवादाऽस्खलितप्रमावान् । फरलं मोक्षफलामिसारैर जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् यजेऽहमा ही मोक्षफलप्राप्तये देवशास्त्रगुरुभ्यः फलं निर्वपामीति खाहा । ____ यदि किसीको अर्घ चढ़ाना हो, तो नीचे लिखा श्लाक व मंत्र बोलकर चढ़ाना चाहिये। मद्वारिगन्धाक्षतपुष्पजातेर नैवेद्यदीपामलधूपधूम्रः।। फविचित्रनिपुण्ययोगान् जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् योऽहम ही अनर्घ्यपदमाप्तये देवशास्त्रगुरुभ्योऽय समर्पयामि ॥॥ - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैनसिद्धांतसंग्रह । । [४१ इस प्रकार.चार प्रकारके द्रव्योमेसेजो द्रव्य हो, उसी द्रव्यका श्लोक व मंत्र पढ़कर वह द्रव्य चढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् नीचे लिखी दोनों स्तुतियां अथवा दोनों से कोई एक स्तुति अवश्य.. पढ़नी चाहिये। दौलतराम कृत स्तुति ॥ दोहा-सकल-ज्ञेय-ज्ञायक तदपि, निजानंदरसलीन । सो निनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहसविहीन ॥ पडरिछन्द । जय वीतराग विज्ञानपूर, जय मोहतिमिरको हरनसूर ॥ जय ज्ञान अनंतानंतधार, हगसुखवीरजमंडित अपार ॥१!! जय परमशांतिमुद्रासमेत, भविमनको निनअनुभूतिहत ॥ भवि भागनवश जोगे वशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय॥२॥ तुम गुणचिंतत निजपरविवेक, प्रगटे, विघटें आपद अनेक ॥ तुम जगभूषण दूषणवियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥३॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्मपरमपावन अनूप ॥ शुभ अंशुभविभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परिणतिमय अछीन॥४॥ अष्टादशदोषविमुक्त धीर, सुचतुष्टयमय राजत गंभीर ।। मुनि गणधरादि सेवत महंत, नवकेवललब्धिरमा घरंत ॥५॥ तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव ।। . भवसागरमें दुख छारवारि, तारनको और न आप टारि ॥६॥ यह लखि.निज दुखगदहरणकाज, तुमही निमित्तकारण इलान ।। नान, तात मैं शरण आय, उचरूं निज दुख जो चिरलहाय॥७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NARMA - ४२] नैनसिद्धांतसंग्रह। मैं अम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधिफळ पुण्यपाप । निनको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान | आकुलित भयो अज्ञानधारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि ॥ तनपरणतिमें आपो चितारि, कचहूं न अनुभवो स्वपदसार ॥९॥ तुमको विन जाने नो कलेश, पाये सो तुम जानत मिनेश । पशु नारक नर सुर गतिमझार, भव घर घर मरचा अनंतबार ।।१०॥ अब काललाधवल दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शांत भयो मिट सकलद्वंद, बायोस्वात्मरस दुखनिकंद॥११॥ तातें अब ऐसा करहु नाथ विठुरै न कभी तुव चरणमाय ! तुम गुणगणको नहिं छेव देव, जगतारनको तुव विरद एव ॥१॥ मातमके अहित विषय कषाय. इनम मेरी परिणत न जाय ।। मैं रहूं आपमें आप लीन, सो करो होहु ज्यों निनाधीन ॥१॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रयनिधि दीन मुनीश ॥ मुझ कारजके कारन सु आप, शिव करहु हरहुमम मोहताप ॥१॥ शशि शांतिकरन नपहरनहेत, स्वयमेव क्या तुम कुशल देव ॥ पीवत पियूय ज्यों रोग जाय, त्या तुम अनुमवत भव नसाय ॥१५॥ त्रिभुवन तिहुकालमँझार काय, नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज, दुखजलधि उतारन तुम निहान ॥ ६॥ दाहा-तुमगुणगणमाण गणपतो, गणत न पाहि पार । • 'दौल' स्वल्पमति किम कहे, नमू त्रियोग समार ॥ अथ बुधजनकृत स्तुति। प्रभु पतिपावन में अपावन, चरन आयो शरनजी। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जैनसिद्धांतसंग्रह। यो विरद आप निहार स्वामी, मेंटे जामन मरनजी ॥. तुम ना पिछान्या आन मान्यां, देव विविधप्रकारंजी। या बुडिंसंती निन नजाण्या, प्रमागण्या हितकारंजी ॥१॥ भवविकटवनमें करम वैरी, ज्ञानधन मेरो हरयो । । । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्टगति धरता फिरयो॥ धन घड़ी यो, धन दिवस योही, धन जनम मेरो भयो। . अव भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लख लयो ॥२॥ छबि वीतरागी नगनमुद्रा, दृष्टि नासापै धेरै। . वसुंप्रातहार्य अनन्तगुणयुत, कोटिरविछविको हौ। मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो । मो उर हरख ऐसो भयो, मनु रक चिंतामगि लयो ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊं तुव चरनजी। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनो तारन तरननी ॥ नाचू नहीं सुरवास पुनि, नरराज परिजन साथ नी । 'बुध' जाचहू तुव भक्ति भवभव, दौनिये शिवनाथनी ॥४॥ __इस प्रकार एक या दोनों स्तुति पढ़कर पुनः साष्टांग नमस्कार करना चाहिये । तपश्चात् नीचे लिखा श्लोक पढ़कर गंधोदक. मस्तकपर तथा हृदयादि उत्तम अंगोंमें भी लगाना चाहिये । निर्मल निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम् । । जिनगन्धोदकं वन्दे अष्टकर्मविनाशकम् ॥१॥ .. : यदि आशिंका लेनी हो तो यह दोहा पढ़कर लेना चाहिये ।। दोहा-श्रीनिनवरकी आशिका, लीने शीसं चढ़ाय । . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAR ४४] जैनसिद्धांतसंग्रह। भवभवके पातक कटें, दुःख दूर हो जाय ॥१॥ तत्पश्चात् नीचे लिखे दो अथवा एक कवित्त पढ़कर शास्त्रजीको (मिनवाणीको) साप्टांग नमस्कार करके शास्त्रनी सुनना चाहिये। अथवा थोड़ी बहुत किसी भी शास्त्रकी स्वाध्याय करना चाहिये। कषित्त। वीरहिमाचलते निकसी, गुरुगौतमके मुख कुंड डरी है। मोहमहाचल भेद चली, जगकी जड़तातप दूर करी है। ज्ञानपयोनिधिमाहिं रली बहुमंग तरंगनिसों उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदीप्रति मैं अँजुलीकर शीस घरी है ॥१॥ या जगमदिरमें अनिवार अज्ञान अधेर छयो अति भारी॥ श्रीजिनकी धुनि दीपशिखासम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ।। तो किस भांति पदारथपांति, वहां लहते, रहते अविचारी। या विधि संत कहें धनि हैं धनि, हैं मिनवैन बड़े उपकारी || रात्रिको भी इसी प्रकार दर्शन करके तत्पश्चात् दीप धूपसे नीच लिखी अथवा जिस पर रुचि हो वह आरती करना चाहिय। पंचपरमेष्ठीकी आरती। चाल खडी। मनवचतनकर शुद्ध पचपद, पूनों भविनन सुखदाई । सबनन मिलकर दीप धूप ले, करहुं आरती गुणगाई ।।टेक॥ प्रथमाह श्री अरहंत परमगुरु, चौतिस आतिशयं सहित वसे ॥ प्रातिहार्य व अतुल चतुष्टय, सहित समवसृत माहिं लस । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनासद्धांतसंग्रह। क्षुषा तृषा भय जन्में नरो मंति, रोग शोक रति अरति महा। विस्मये खेद स्वेदै मैंदै निद्रों, रोग द्वेषे मिल मोहे दहा ॥ इन अष्टादश दोषरहित नित, इन्द्रादिक पूजतं आई। : . . .. . सबजन मिल ॥१॥ दूने सिद्ध सदा सुखदाता, सिद्धशिलापर राजत हैं। सम्यक्दशन ज्ञान वीर्य अरु, सूक्ष्मपणाका छानत हैं ।। अगुरुलघू अवगहनशाकै घर, बाधाविन अशरीरा हैं। . तिनका सुमरण नित्य कियेतें, शीघ्र नशत भवपीरा हैं। . .. या. कारण नितं चित्तशुद्ध कर भमहु सिद्ध शिवके राई । . . . . . . . सबजन मिल० ॥ १ ॥ तीने श्री.आचार्य परमगुरु छत्तिस गुणके धारी हैं। दर्शन ज्ञान चरण तप वीरन पंचाचार-प्रचारी हैं। द्वादशतप दशधर्म गुप्तित्रय, षट् आवश्यक नित पालें। सब मुनिजनकों प्रायश्चित दें, मुनिव्रतके दृषण टालें ॥ ऐसे श्री आचार्य गुरुनकी, पूजा करिये चित लाई। . . . . . . . . सबनन मिल ॥ ३ ॥ चौथे श्रीउवझायचरणपंकजरज, सुखदा भविजनको । ग्यारह अंगसु पूर्वचतुर्दश, पढ़ें पढावें मुनिगणको ॥ मुनिके सब आचरण आचरें, द्वादश तपके धारी हैं। स्यादवाद सुखकारी विद्या, सबंजगमें विस्तारी हैं। ऐसे श्रीउवझाय गुरुनके चरणकमल पूनहु भाई। . .. संवजन मिल ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। 'पंचमि आरति सर्वसाधुकी, आठवीस गुण-मूल घर। पंचमहावत पंचसमितिघर इन्द्रिय:पांचा दमन करें। 'पटुझावश्यक केशलोंच इक बार ख़ड़े भोजन करते। . दाँतण खान त्याग भू सोवत, यथाजात मुद्रा धरते ॥ या विधि "पन्नालाला" पंचपद, पूनत भवदुख नशनाई । सवजन मिलकर ॥६॥ इस प्रकार आरती बोलकर नीचे लिखा लोक, दोहा और -मत्र पढ़कर आरतीको मस्तक चढ़ावें । 'यस्तोधमान्धीकृत विश्वविश्वमोहान्धकारप्रतिघातदीपान् । -दीपैः कनकाश्चनमाननस्थैर् जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन योऽहम् ॥१॥ दोहा-स्वपरप्रकाशनज्योति अति, दीपक तमकरहीन । जासूं पूजूं परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ । (३) आलोचना पाठ। दोहा-वंदो पांचों परम गुरु, चौबीसी निनरान । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्ध करनके कान ॥ ॥ सखी छन्द (१४.मात्रा) सुनिये मिलः अरज हमारी, इम: दोष.किये अति. भारी.॥ : तिनकी समितिकाज़ा, तुम चरन लही मिनराना ॥ २॥. इक बे ते चंउँ इंद्री वामनरहित सहित जे.जीवा.. तिनकी नहिं करुना धारी, निरदई है.घात विचारी ॥ ३॥ समरम्म समारम्भ भारम्भ, मनवचतन कीनो प्रारम्म । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। कृत कारित मोदन- करिके, क्रोधादि चतुष्टय धरिके ॥ १॥ -शत आठःशु-इम:मेदनतें, अघ कीने परछेदना . . .. : तिनकी कहुं कहलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानीजा -- . विपरीत एकांत विनयके, संशय-अज्ञान कुनयके:॥ .. वश होय घोर अघकीने, वचते नहिं जात कहीन-१॥ कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदयाकार भीनी ॥ .. या विध मिथ्यातः भ्रमायो, चहुंगतिमधि-दोष उपायो.॥७॥ हिंसा पुनि झूठ-जु चोरी, परवनितासौं हगनोरी-॥ आरम्भपरिग्रहमीनो, पन-पाप जु याविधि कीनो ॥८॥ सपरस रसना माननको, हग कान विषय सेवनको ॥ . . बहु कर्म किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने ।।९।. फल पंच उदंबर खाये, मधु मांस.मद्य चित चाये ॥ .:. नहिं अष्ट मूलगणधारे, सेये जु विसन दुखकोरः॥ १०॥ दुइ बीस अभख मिन गाये, सो भी निशदिन मुंजाये॥ . कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों कर उदर भरायो ॥ ११॥ अनंतान जु बंधी मानो, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानो ॥ संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जुषोडश सुनिये ॥१२॥ परिहास अरति-रति शोग, भय ग्लानि तिवेद संभोग ।। पनवीस जु भेद भये इम, इनके दश पाप किये हम ॥शा निद्रावश शयन करायो, सुवनेमधि.दोष लगायो॥ 'फिर भांग विषयवन धायो, नानाविध विषफल खायो ॥१४॥ आहार निहार विहारा, इनमें नहिं यतन विचारा.॥ . विन देखा घरा उठाया, विन शोषा भोजन .खाया.॥१५ . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "४८] जनसिद्धांतसंग्रह। mamimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm तबही परमाद सतायो, बहुविध विकलप उपनायो । कछु सुधि बुधि नाहि रही है. मिथ्यामति छाय गई है ॥ १६ ॥ मरगदा तुम ढिग लीनी, ताहमैं दोष जु कीनी ॥ मिन भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविर्षे सब लहिये।॥१७॥ हा हा मैं दुठ अपराधी, त्रसं नीवनराशि विराधी॥ थावरकी जतन न कीनी, उरमैं करुणा नहिं कीनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई; महलदिक जागां चिनाई। :: . विन गाल्यो पुन जल ढोल्यो, पंखाते पवन विलोल्यो ।॥ १९ ॥ हा हा मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।। या मधि जीवनिके खंदा, हम खाये धरि आनंदा ॥ २०॥ हा परमादवसाई, विन देख अगनि नलाई ॥ तामध्य जेीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये ॥२१॥ बीघो अन राति पिसायो, इंधन बिन सोध्य भलायो । झाडू ले भागां बुहारी, चिंटियादिक व विदारी ॥२२॥ जल छान नीवानी कीनी सोहु पुनि डारि जु दीनी ॥ नहिं लथानक पहुचाई किरिया विन पाप उपाई ॥२॥ नल मल मोरिनमें गिरायो. कमि कुल बहु घात करायो॥ नदियन विच ची धुवाये कोसनक जीव मराये ॥२४॥ अन्नादिक शाम कर.ई तामै जुनीर निसराई । तिनका नहि जतन कराया, गलियारे धूप डराया ॥ ५॥ पुनि द्रव्य कमावन काने बहु आरम हिंसा साने। किये अघ तृसनावश भारी, करुना नाहं रच विचारी २६ इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्रीभगवता ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [.४९ संतति चिरकाल उपाई. बानी कहिय न नाई ॥१७॥ बाको जु उदय नंब आयो, नानाविध मोहि सगयो । फल मुंजत जो दुख पाउं, वचैत कैसें करि गाउं ॥१८॥ तुम जानत केवल ज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी ॥ हम तो तुम शरन लही है, जिन तारन विरद सही है ॥२१॥ जो गांवपति इक होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै । तुम तीन भुवनके स्वामी, दुख मेटो अंतरजामी ॥१०॥ द्रौपदिको चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो॥ अंजनसे किये अकामी; दुख मेटो अंतरजामी ॥११॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो॥ सब दोष रहित करि स्वामी, दुख मेंटहु अंतरजामी २२॥ इंद्रादिक पद नाहिं चाहूं, विषयनिमैं नाहि लुभाउं ।। रागादिक दोष हरीने, परमातम निजपद दीने ॥३॥ दोहा-दोषरहित जिनदेवनी, निजपद दीजे मोय । सब जीवनकोसुख बढ़े, आनंद मंगल होय ॥२४॥ अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनंद। ये ही वर मोहि दीजिये, चरन सरन आनंद ॥३१॥ इति आलोचना पाठ समाप्त ।। Rel Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwww १०] जैनसिद्धांतसंग्रह। स्वर्गीय कविवर ५० रूपचंद्रजी पडिकृत- . fol पंचकल्याणक पाठ। .' * श्री गर्भकल्याणके। 'पणविवि पंच परमगुरु, गुरुं निनशासनो। सकलसिद्धिदातार सु. विधनविनासनो।। शारद अरु गुरु गौतम, सुमतिप्रकासनो। . मंगलकर चउ-संघहि पापपणासनो॥ पापै पणासन गुणहि गरुवा दोष अष्टादश रहे। धरि ध्यान कर्म विनाशि केवल-ज्ञान आविचल जिन लहे। प्रमु पंचकल्याणक विरानित, सफल सुर नर ध्यावहीं । त्रैलोक्यनाथ सु देव निनवर, जंगत मंगल गावहीं ॥१॥ जाकै गरमकल्याणक, धनपति आइयो। अवविज्ञान प्रमाण सु इंद्र पगइयो॥ रचि नव बारह योजन, नयरि सुहावनी । कनकरयणमणिमंडित, मंदिर मती बनी। अति वनी पोरि पगारि परिखा, सुवन उपवन सोहिए। नर नारि सुंदर चतुरभेख से, देख जनमन मोहिए । तहां जनकगृह छह मास प्रथमहि, रतनधारा बरपियो । पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा, करहिं सब विधि हरषियो ॥२॥ सरकुंजरसम कुजर धवल धुरंधरो। केही केशरशोभित, नखशिखसुंदरो॥ कमलाकलशन्हवन, दोय दास सुहावनी। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। रवि शशि:मंडल मधुर, मीन जुग पावनी : पावन कनक घटझुगम पूरण कमलकलित. सरोवरो! : कल्लोलमालाकलित. सागरः सिंहमीठ मनोहरो: . रमणीक अमरविमान मणिपती, भवन भुवि छविछाज़ए । रुचि रतनराशि दिपंत दहन सु, तेनपुंन विराजए.... . ये सखि सोलह स्वमें, सुती सयनमें । देखे माय :मनोहर, पच्छिम-रयनमें । उठि प्रमात पिय पूछियो, अवधिःप्रकासियो । त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहिं भासियो । भासियो फल तिहिं चिंति.दपति, परम आनंदित भए । छहमासपरि नवमास पनि तह, स्यन दिन सुखसूं गए । गर्भावतार महंत महिमा सुनत सब सुख पावहीं। जन 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१॥ श्री जन्म कल्याणक. मतिश्रुतअवधिविराजित, निन जब जनमियो। तिहलोक भयो छोभित, सुरगण भरभियो । कल्पवासिघर घंट, अनाहद वज्जियो ।। जोतिषधर हरिनाद, सहज गल गजियो । . गन्नियो सहनहिं संख भावन,-भवन सक्द सुहावने । • व्यंतरनिलय पटु'पदहि वज्जिय कहत महिमा क्यों बनें ॥ . कंपित सुरासन अवधिवल तव जनम जिनको मानियो । धनराज तब गरान माया-मपी निरमय आनियो।। १ ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RANA ५२ जैनसिद्धांतसंग्रह। योजन लाख गयंद बदन-सौ निरमए । वदन वदन वसुदंत, दंत सर संठए । सर सर सौ-पणवीस कमलिनी छानहीं। कमलिनि कमलिनि कमल, पचीस विरामहीं ॥ रानहीं कमलिनि कमल अठोवर,-सौ मनोहर दल बने । दल दलाहिं अपछर नटहि नवरस, हावभाव सुहावने ॥ मणि कनककंकण वर विचित्र, सु अमरमुडप सोहये । धन घंट चंवर धुमा पनाका देखि त्रिभुवन मोहये ।। . विहिं करि हरि चदि आयो, सुरपरिवारियो। पुरहि प्रदच्छन देत सु, गिन नयकारियो । . गुप्त नाय जिन-जननिहि, सुखनिंद्रा रची। मायामयी शिशु राखि नौ, मिन आन्यो सची। मान्यो सची मिनरूप निरखत, नयन तृप्ति न इजिये । वब परमहरपितहृदय हरिने, सहस लोचन पूनिये ॥ पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इंद्र, उछंग धरि प्रभु लीनए । ईशानइंद्र सुचंद्रछवि शिर, छत्र प्रमुके दीनए ॥ ७॥ सनतकुमार महेंद्र, चमर दुहि दारहीं। शेष शक जयकार, सबद उच्चारहीं। उच्छवसहित चतुविधि, सुर हरषित भएं। योजन सहस निन्याणवे, गगन उलंधि गए। मंघि गये सुरगिरि नहाँ पांडक,-वन-विचित्र विराजहीं। पांडकशिला तहाँ अर्द्धचंद्रसमान, मणि छवि छानहिं ।। योजन पचास विशाल दुगुणायाम वसु ऊंची गणी । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। . [५६ वर अष्ट मंगल कनक कलशनि, सिंहपीठ सुहावनी ।। ८॥ रचि माणिमंडप शोमित मध्य सिंहासनो। .. . थाप्यो पूरव-मुख तहा, प्रभु कमलासनो ।। . . बानहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने । दुंदुभि प्रमुख मधुर, धुनि, और जु वामने:॥ बानने बानहिं सची सब मिलि, धवल मंगल गावहीं ॥ कर करहिं नृत्य सुरांगना सब, देव कौतुक धावहीं॥ भरि छीरसागर-जल जु हाहिं, हाथ सुर गिरि ल्यावहीं । सौधर्म अरु ऐशानइंद्र सु, कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥१॥ वदन-उदरं-अवगाह, कलशगत जानिये। . एक चार वसु योजन, मान प्रमानिये ॥ सहस-अठोवर कलशा, प्रभुके सिर ढरै। फुनि शृंगारप्रमुख आ,-चार सबै करै ।। करि प्रगट प्रमु महिमामहोच्छव, आनि फुनि मातहिं दयो। धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो । जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। जन 'रूपचंद्र' सुदेव निनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१०॥ ... श्री तप कल्याणक । श्रमजलरहित शरीर, सदा सब मलरहिउ । छोर-वरन वर रुधिर, प्रथमाकृति लहिउ ।। प्रथम सारसंहनन, सुरूप विरानहीं। सेहज-सुगंध सुलच्छन,-मंड़ित छानहीं ॥. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५४] , जैनसिद्धतिसंग्रह। छानहिं अंतुलबल परम प्रिय हिंत, मधुर वचन मुंहावने । दश सहन अतिशय सुभग मूरति, वाललील कहावने ।। भाबाल काल त्रिलोकपति मन, रुचिंत उचितं जु नित नये। अमरोपनीत पुनीत अनुपम, सकल मोंग विभोगये ॥११॥ भवतन-भोग-विरत, कदाचित चित्तए। . धनं योवन पिय पुत्त, कलत्त अनित्त ए॥ .. . कोई न शरन मरनदिन, दुख चढंगति भर्यो। . सुखं दुख एकहि भोगत; जियं विधिवश पर्यो . : पर्यो विधि वश आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो। . तन मशुचिपरतें होय आस्लव, परिहरी सो संवरो । निर्जरा तपबल होयं समकित,-विन सदा त्रिभुवन अन्यो। दुर्लभ विवेक विना न कबहूं, परम धरमविपै रम्यो ॥ ११ ॥ ये प्रभु बारह पावन, मावन भाया। लोकांतिक वर देव, नियोगी आइया॥ कुसुमांजलि दे चरन, कमल शिरनाइया । स्वयंबुद्ध प्रभु थुति करि, तिन समुझाइया ॥ . . समुझाय प्रभु ते गये निजपद, फुनि महोच्छन हरि कियो। रुचिरुचिर चित्र विचित्र शिविका, कर सुनंदन बन लियो । वह पंचमुष्टि लोच कीनों, प्रथम सिद्धहि नुति करी। मंडित महाव्रत पंच दुर्द्धर, सकल परिग्रह परिहरि ॥१३॥ मणिमयमानन केश परिहिय सुरमती। . चीर-समुद्र-जल खिपिकरि, गयो अमरावती ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनासदांतमंग्रह। [५६ । तप संभमबल प्रभुको, मनपर्नय भयोः। .. मौनसहित. तप करत, काल कछु तहँ गयो । गयो कछु तहँ काल तपबल, रिद्धि वसुविधि सिडिया । जसु धर्मध्यानवलेन खयगये, सप्तः प्रकृति प्रसिद्धिया.॥ . खिपि सातवें मुण-जतन विन-तहँ, तीन प्रकृति जु बुधि चढ़े। करि करण तीन प्रथम शुकलबल, खिपक श्रेणी प्रभु चढ़े ॥१४॥ . प्रकृति छतीस नवें गुण,- थान विनासिया। । दशमें सूच्छमलोम -प्रकृति तहं नासिया। शुकल ध्यान पद, दूजो, फुनि प्रभु: पूरियो । बारहमें-गुण सोलह, प्रकृति जु चूरियो । चूरियो. त्रेसाठ प्रकृति इहविधि, घातिया कर्महंतणी । तप कियो ध्यानप्रयत बारह, विधि त्रिलोकशिरोमणी॥ निःक्रमणकल्याणक मुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं । नन 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥११॥ 'श्रीज्ञान कल्याणक । तेहरमें गुण-थान, सयोगि जिनेसुरो : अनंतचतुष्टयमंडित, भयो परमेसुरो॥ समवसरन तब धनपति, बहुविधि निरमयो। आगम युक्ति प्रमाण, गगनतल परिठयो ।. परिठयो चित्र विचित्र मणिमय, सभामंडप सोहये । तिहिं मध्य बारह बने कोठे, वनक सुरनर मोहये ॥ मुनि कल्पवासिनि अरनिका फुनि, ज्योति भौम-भवन-तिया : Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] जैना-द्धांतसंग्रह 1 कृनि भवन व्यंतर नभग सुर नर पशुनि कोठे बेठिया ॥१६॥ मध्यप्रदेश तीन, यणिपीठ वहां बने । गंधकुटी सिंहासन, कमल लुहावने ॥ तीन छत्र सिर शोभित त्रिभुवन मोहए । अंतरीक्ष कमलासन प्रनु तन सोहए | सोहए चौसठि चमर हरत, अशोकतर तल झनए । कृति दिव्यधुनि प्रविशद जुत तह, देवदुंदुमि वानए । सुरपुहुपवृष्टि सुप्रभामंडल, कोटि रवि छवि लानए । इम मष्ट अनुपम प्रातिहार, वर विभूति विराजए ॥ ७॥ दुवै योवनमान सुमिच्छ चहूं दिशी । गगन गन्न वरु प्राणि, -वघ नहिं महनिशी ॥ निरुपसर्ग निराहार. सदा नगद्दीलए । आनन चार चहूदिशि, शोभित दसिए ॥ दास अशेष विशेष विद्या, विभव वर ईसुरपनो । छाया विवर्जित शुद्ध फटिक, मनान तन प्रभुको बनो ॥ नहिं नयन पटक पतन कदाचित केशनख सम छामहीं । ये वानियाहयजनित अतिशय, दश विचित्र विराम्हीं ॥१८॥ सकल जरयनय नागा, भाषा जानिये | सकल जीवगत मैत्री,-भाव बखानिये ॥ सकल अतुज फरफूल, वनस्पति नन हरै । दर्पणसन मनि अवनि, पचन गति अनुसरे ॥ अनुसरें परमानंद सत्रो, नारि नर जे सेवता योजन प्रमाण घरा कुमार्जार्ह, जहां मास्त देवता Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह ... [६७ कुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पदकमलतर सुर खिपहिं :कमल सु. धरण शशिशोभा बनी ॥ अमलं गगन तल अरु दिशि तहँ अनुहारहीं। चतुरनिकायःदेवगण, जय जयकारहीं।। धर्मचक्र चले आगे, रवि नहँ लाजहीं : . फुनि श्रृंगार-प्रमुख वसु, मंगल राजहीं ॥ राजहीं चौदह चारु अतिशय. देवरचित सुहावने । जिनराज केवलज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा वने ॥ तब इंद्र आनि किया महोच्छव समा शोमित अति वनी ॥ धर्मोपदेश कियो तहां, उच्छरिय वानी जिनतनी ॥ ॥ क्षुषा तृषा अरु राग, द्वेष असुहावने । जनम जरा अरु मरण, त्रिदोष भयावने । रोग शोक भय विस्मय, अरु निद्रा धणी। । खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गणी ॥ .. ' -गणीये अठारह दोष तिनकरि, रहित देव निरंजनो ।. 'नव परमकेवललब्धिमंडित, शिवरमणी-मनरंजनो ॥ श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं । जन 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥२१॥ श्री निर्वाणकल्याणक । केवलदृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो।। भविननप्रति उपदेश्यो, निनवर वारिसो ॥ भवभयभीत महाजन शरण आइया । . . . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। रत्नत्रयलच्छंन शिवपंथनि लाइयाँ । लाइया पंथ जु भव्य फुनि, प्रभु तृतिय शुकल जु पूरियो। तानि तेरहों गुणथान योग, अयोगपथपग धारियो । फुनि चौदहें चौथे सुकलबल, बहत्तर तेरह हती। इमि धाति वसुविधि कर्म पहुंच्यो, समयमें पंचमगती ॥१२॥ लोकशिखर तनुवात, बलयमहं संठियो। धर्मदव्यविन गमन न, निहिं आगे कियो । मयनरहित भूपोदर, अंबर जारिसों। . किमपि हीन निजतनुते, भयौ प्रभु तारिसों। वारिसों पर्भय नित्य अविचल, अर्थपर्जय क्षणक्षयी । निश्चयनयेन अनंतगुण पिवहार, नय वसु गुणमयी । वस्तु स्वभाव विभावविरहित, शुद्ध परणति परिणयो । चिद्रूप परमानंदमंदिर, सिद्ध परमातम भयो ॥ २३ ॥ तनपुरमाणु दामिनिवत् सब खिर गये। रहे शेपं नसकेशरूप, ने परिणये ॥ तब हरिप्रमुख चतुरविषि, सुरंगण शुभं संच्यो।' मायामई नखकेशरहित, भिनतन रच्यो । राच अगर चंदनप्रमुख परिमल द्रव्य मिन जयकारियो। पदातित् अगनिकुमारमुकुटानल, सुविधि संस्कारियो । निर्वाणकल्याणक सुमहिमा, सुनत सव सुख पावहीं। जन रूपचंद्र' सुदेव निनवर, जगत् मंगल गावहीं ॥२४॥ मंगल गीत। . , मैं मविहीन भक्तिवश, भावन भाइया ।। : Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। minim मंगलंगीतप्रबंध सु, ज़िनगुण गाईया ॥ :: जो नर सुनहिं बखानहि, सुर घरि गावहीं । . .. मनवांछित फलं सो नर, निहचै पविहीं॥ पावहीं अष्टौ सिद्धि नवनिधि, मनप्रतीति जु आनहीं। 'भ्रममावं छूट सकल मनके, जिनस्वरूप सों जानहीं । पुनि हराह पातंक टरहिं विघन, सु होय मंगल नित नये । भणि रूपचन्द्र त्रिलोकंपति जिन-देव चड़संघहिं नये ॥२५॥ .. (५) निर्माणकाण्ड (गाथा) : अट्ठावयम्मि उसहो चंपाए वासुपुजजिणणाहो । उज्जतेणेमिजिणो पावाए शिव्वुदो महावीरो ॥१॥ वीसं तु निणवरिंदा अमरासुरवंदिदा:धुदकिलेसा। सम्मेदे गिरिरासिहरे णिव्वाणगया णमो तेर्सि ॥२॥ वरदत्तोय वरंगो सायरदत्तो य तारवरणयरे । आहुट्ठयकोडीओ णित्वाणगया णमो. तोसि ॥३॥णेमिसामि पज्जण्णो संवुकुमारो तहेब अणिरुद्धो । बाहत्तरिकोड़ीओ उज्जते सत्चसया सिद्धा . रामसुवा वेणि जणा लाडणरिंदाण पंचकोडीओ । पावागिरिवरसिहरे मिव्वाणगया णमो तेसिं ॥३॥ पंडुसुआ तिण्णिजणा दविडगरिंदाण. अट्ठकोडीओ। सेत्तुंनयगिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ॥६॥संते जेवलमदा जदुबणारिंदाण अट्टकोडीओ।गजपथे गिरिसिहरे गिधाणगया णमो तोस ॥७॥ रामहणू सुग्गीओ गंवयगवाक्खो यणीलमहणीलो ।णवणवदीकोडीआतुंगीगिरिणिन्बुदे वंदेसाणगाणंगकुमारा कोडीपंचद्धमुणिवरा सहियां।.सुवणागिरिवरसिहरेणिवाणगया Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww णमो तेसि ॥९॥ दहमुहरायस्स सवा कोडीपंचमुणिवरा सहिया। -रेवाउहयतडग्गेणिन्वाणगयाणमो तेसिं॥ १०॥रेवाणइए तरे पश्चिममायम्मि सिद्धवरकूडे । दो चक्की दह कप्पे आहुट्ठयकोडिणिन्दे वंदे ॥११॥ वडवाणीवरणयरे दक्षिणमायम्मि चूलगिरिसिहरे। इंदनीदकुभयणो णिव्वाणगया णमो तेसि।१२। पावागिरिवरासिहरे, सुवण्णमदाइमुणिवरा चउरो। चलणाणईतडग्गे णिवाणगया णमो तेसिं ॥१२॥ फलहोडीवरगामे पश्चिममायम्मि दोणगिरिसिहरे । -गुरुदत्ताहमुर्णिदा णिबाणगयाणमोतेसिं ।। ४॥णायकुमारमुर्णिदो वाल महागालि चेव अज्ञया । अट्ठावयगिरिसिहरे णिबाणगया णमो सेसि ।।११। अञ्चलपुरवरणयरे ईसाणे भाए मेढगिरिसिहरे। आहुहृयकोडिओ णिव्वाणगया णमो तेसि ॥१६॥ सत्यलवरणियरे पच्छिममायम्मि कुंथुगिरिसिहरे । कुलदेसभूसणमुणी णिवाणगया णमो तेसि । ७|| नसरहरायस्स सुमा पंचसयाई कलिंगदेसम्मि । कोडिसिलाकोडिमुणि णिव्वाणगया णमो तेसिं । ॥ पासस्स समवसरणे सहिया वरदत्तमुणिवरा पंच। रिस्सिदे गिरिसिहरे णिमा'णगया णमो तेसि ॥ ९॥ अथ अइसयखेतकडं-अतिशयक्षेत्रकाण्डम् । पासं तह अहिणदणं पायद्दहि मगलाउरे वंदे । . अस्सारम्मे पट्टणि मुणिसुव्वओ तहेव वदामि ॥१॥ बाहुबलि तह वंदमि पोयणपुरहस्थिणापुरं वंदे । ... .संती कुंथव अरिहो वाणारसिए सुपासपासं च ॥२॥ . : .. महुराए महिछित्ते वीरं पास तहेव वंदामि। . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह | जंबुमणिंदो वंदे णिव्वुइपतोवि जंबुवणगहणे ॥ २ ॥ पंचकल्लाणठाणंई जाणवि संजादमचलोयम्मि । मणक्यणकार्यसुद्धी सर्व्वं तिरसा मस्सामि ॥ ॥ अग्गलदेवं बंदमि वरणयरे निवंडकुंडली बंदे । पासं 'सिंवपुरि वंदमि होला गिरिसंखदेवम्मि ॥ ॥ गोमटदेवं वदमि पंचसयं धणुहदेह उच्चतं । देवा कुणति वुट्टी केसरिकुसुमाण तस्स उबरिम्मि ॥६॥ निव्वाणठांग जाणिवि अइसयठाणाणि अइसए सहिया । संजादमिचलोए सच्चे सिरसा णमंस्सामि ॥७॥ 'नो जण पढइ तियालं निव्बुइकडंपि भावसुद्धीए । भुजदि रसुरसुक्खं पच्छा सो लहइ निव्वाणं ॥ ८॥ इति अइसइखित्तकंड । निर्वाण कांड (भाषा) (कविवर भैया भगवतीदासजीरचित ) दोहा - वीतराग बंद सदा, भावसहित सिरनाय । कहूं कांड निर्वाणकी, भाषा सुगम बनाय ॥ १ ॥ चौपाई - अष्टापदआदीसुरस्वामि । वासुपूज्य चंपापुरि नामि । नेमिनाथस्वामी गिरनार | बंदौं भावभगति उरधार ॥ ९ ॥ चरम तीर्थकर चरम शरीर । पावापुरि स्वामी महावीर ॥ शिखरसमेद जिनेसुर वीस | भावसहित वदा नगदीस || ३ || वरदतरायरु इन्द्र मुनिंद, सायरदत्त आदि गुणवृंद । नगरतारवर मुनि उठकोड़ि । बंद Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in पांडव तान भावसहित हि भये। ६२] नैनसिद्धांतसंग्रह। भावसहित करजोड़ि | श्रीगिरनारशिखर विख्यात । कोड़ि चहत्तर अरु सौ सात || संबु प्रदुम्न कुमर है भाय | अनिरुषआदि । नमू तसु पाय | रामचंद्रके सुत द्वै वीर । लाइनरिंद आदि । गुणधीर ॥ पांच कोड़ि मुनि मुक्तिमझार । पावागिरि वदानिरवार । । पांडव तीन द्रविड राजान आठकोड़ि मुनि मुकति पयान । श्रीशQजयांगरिक सीस । भावसहित वदों निश दीस.॥णाने बलिभद्र मुकतिमें गये | आठकोड़ि मुनि औरहिं मये। श्रीगन'पंथशिखर मुविशाल। तिनके चरण न तिहुं काल राम हलू सुग्रीव मुडील | गवगवास्य नील महांनील । कोहि निन्याण मुक्तिपयान · तुंगीगिरी बंदी धरि ध्यान ॥९.नंग अनंग कुमार सुजान | पंचकोड़ि अरु अर्धप्रमान ॥ मुक्ति गये सोनागिर शीस। ते बंदों त्रिभुवनपति ईश। ८॥ रावणके मुत आदि कुमार । मुक गये रेवातट सार || कोडि पंच अरु लाख पचास । ते वदों घर परम हुलास | ॥रवानदी सिद्धवरकूट । पश्चिमदिशा देह जहँ छूट ॥ द्वै चक्री दश कामकुमार । ऊठकोड़ि वंदी भवपार ॥१२॥ बड़वाणी वडनयर सुचंग । दक्षिण दिश गिरिचूल उतग। इंद्रनीत अरु कुंम जु कर्ण । ते बदौं भवसायरतर्ण ॥१॥ मुवरणमद्रआदि मुंनि चार । पावागिरिवर शिखरमंझार ॥ चलना नदी तीरके पास । मुक्ति गये वर्दी -नित तास .||१|| फळहोड़ी बड़गाम अनुर पश्चिमदिशा द्रोणगिरिरूप ॥ गुरुदत्तादि -मुनीसुर जहाँ मुक्ति गये बंदी. नित तहाँ ॥ १५ ॥ बाल महाबाल मुनि दाय । नागकुमार मिले त्रय होय ॥ श्रीमष्टापद . मुक्तिमंझार । ते बौं नित सुरतसमार ॥१९॥ अचलापुरकी दिश Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह [ ६६ ईशान 1. तहां मेदगिरि नामः प्रधान | साढ़े तीन कोडि : मुनिराय ॥ तिनके चरन नमूं चित्त 'लाये ॥१७॥ वंशस्थल बनके ढिंग होय ॥ पश्चिमदिशा कुंथगिरि सोय ॥ कुलभूषण देशभूषण नाम । तिनक 1. चरणानि करूं प्रणाम ||it|| जसरथराजाके सुतः कहे । देशकलिंग पांचसौ हे ॥ कोटिशिला मुनि कोटिसमान । वंदन करूं जोर जुगप्रान ॥ १९॥ समवसरण श्री पार्श्वनिनंद । रेसंदीगिरि नयनीनंद्रगी वरदचादि पंच ऋषिराज । ते बंदों नित धरमनिहींज ॥१०॥ तीन लोकके तीरथ जहाँ नितप्रति वंदन कीजे तहाँ मन वच कीयसहित सिरनाय । वंदन करहिं भविक गुणंगाय ॥॥२१॥ संवत - सतरहसौ इकताल | अश्विनसुदि दशमी-सुविशाल || 'मैया" वंदन करहिं त्रिकाल | जय निर्वाणकांड गुणमाल ॥ २२॥ . इति निर्वाणकांड 'भाषा ।' I श्रीनिर्वाणकांडका भावार्थ | श्री आदिनाथ भगवान्, कैलाश पर्वतपरसे मोक्षको पधारे हैं। श्री वासुपूज्य स्वामी, चंपांपुरते मोक्षं गये हैं श्री नेमिनाथ स्वामी गिरिनार पर्वत से मोक्षं गये हैं। श्री महावीर स्वामी पावापुर से मोक्ष गये हैं । इन चार तीर्थकरों के सिवाय शेष वर्तमान वीस तीर्थंकर श्री सम्मेदशिखरभी से मोक्ष को पंधाएँ हैं ।। १,२ ॥ श्रीतारंगाजी से वरदत्त, वरंगदत्त और सागरंदत आदि सांढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं ॥ ३ ॥ श्री गिरिनार पर्वत से (श्री नेमिनाथ स्वामी के सिवाय ) शंबुकुमार, प्रदुम्न कुमार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] नैनसिद्धांतसंग्रह। ये दोनों भाई और अनिरुड आदि बहत्तर करोड़ सावसौ मुनि मोक्ष गये हैं।॥ १॥ पावागढजीसे रामचन्द्रजीके दो पुत्र और लाड़ देशके राजा आदि पांच करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं ॥५। श्री शनुनय पर्वत से तीन पांडव द्रविढ देश के राना आदि आठ करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं। ६ । श्री गजपंथानीसे सात बलिभद्र जादवनरेन्द्र आदि आठ करोड़ 'मुंनि मोक्ष गये हैं ॥ ७ ॥ मांगीतंगीगिरिजीसे रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव, सुडील, गवय, गवाक्ष, नील, महानील कुमार, आदि निन्यानवै करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं॥ ८॥ सोनागिरिजीमें नंगकुमार अनंग कुमार आदि साढ़े पांच करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं॥९॥ नर्मदा नदीके किनारे से रावण के पुत्र आद पांचं करोड़ पचास लाख मुनि मोक्ष गये हैं ॥ १० ॥ नर्मदा नदीसे पश्चिमकी तरफ सिद्धवर कूटसे दो चक्रवर्ती. दश कामदेव आदि साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं।॥ १९ ॥ वड़वानी भी से इन्द्रनीत और कुंमकर्ण मुनि मोक्ष गये हैं ॥ १२ ॥. पावागिरिसे सुवर्णभद्र आदि चार मुनि मोक्ष गये हैं॥ १३ ॥ द्रोणगिरिजासै गुरुदत्त आदि मुनि गये हैं ॥ १४ ॥ कैलाशगिरिसे बाल महाबाल और नागकुमार मुनि मोक्ष गये हैं ॥१५॥ मुक्कागिरजी से साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं ॥ १६॥ कुंथलगिरिजी से कुलभूषण और देशमूषण मुनि मोक्ष गये हैं ॥१७॥ दक्षिण दिशामें कोटिशिलासे जसपर रानाके पांचसौ पुत्र आदि १-युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [ ६५ एक करोड़' मुनि 'मोक्ष'गये हैं॥ १८ ॥ श्रीरेसंदीगिर (नयना गिर) जीसे वरदत्त आदि पांच मुनि मोक्ष गये हैं ॥ १६ ॥ मथुराजी से जम्बूस्वामी पांचवें कालके अंतिम केवली मोक्ष गये हैं ॥२॥ सर्व मोक्ष गामी जीवों और निर्वाणक्षेत्रोंकी में त्रिकाल वन्दना करता हूं || • इन 1 (६) श्री दर्शन पच्चीसी : } तुम निरखत मुझको मिली, मेरी संपति आज । कहा चक्रवति संपदा, कहा स्वर्ग साम्राज ॥ १ ॥ तुम वंदत जिन देवजी, नित नव मंगल होंय | विघ्न कोटि तत्क्षण टरें; लहहिं सुयश सब लोय ॥ २ ॥ तुम जाने बिन नाथजी, एक 'स्वांस के मांहि । जन्म मरण अठारा किये, साता पाई नांहि ॥ ३॥आन देव पूजत लहे, दुःख नरकके बीच । भूख प्यास पशुगत सही, करो नाम उच्चारत सुख लहे, दर्शनसे पूजत पावे देव पद, ऐसे हैं बंदत हूं जिनराज मैं, घर उरं निरादर नीच ॥ १ ॥ अघ नाय । " जिनराय ॥ १ ॥ समताभाव । तन धन जन जग-जालसे, घर विरागता भाव ॥ ६॥ • त्रिभुवनके आधार । बेगि करो उद्धार ॥ ७ ॥ सुनो अरज हे नाथ नी, दुष्ट कर्मका नाश कर, याचत हूं मैं आपसे, मेरे जियके मांहि । राग द्वेषकी कल्पना, क्यों हूं उपने नांहि ॥ ८ ॥ · Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] जैनासिदांतसंग्रह। अति भदभुन प्रभुता लखी, वीतरागवा माहि । विमुख होंहि ते दुख लहें, सन्मुख सुखी लखाहिं ॥ कलमल कोटिक न रहे, निरखत ही जिन देव ।। ज्यों रवि जगत जगतमें, हरै तिमर स्वयमेव ॥१॥ परमाणू पुद्गल तणी, परमातम संयोग । मई पूज्य सब लोकम, हरे भन्मका रोग ॥१॥ कोटि जन्मम कर्म भो, चषि हते अनन्त । ते तुम छवि विलोकिते, छिनमें हो है अंत ॥ १२॥ आन नृपति किरपा करे, तव कछु दे धन धान । तुम प्रभु अपने भक्तको, करलो आप समान ॥१॥ यंत्र मंत्र मणि औषधी, विपहर राखत प्राण । यो निन छवि सब भ्रम हरे, करै सर्व प्राधान ॥ ११॥ त्रिभुवनपति हो ताहि ते छत्र विराजे तीन । अमरा नाग नरेश पद, रहे चरण आधीन ॥ १५॥ अब निरखत भव आपने, तुव भामंडल बीच । भ्रम मेटे समता गहे, नाहिं लहे गति नीच ॥ १६ ॥ दोई ओर ढोरत अमर, चौसठ चमर सफेद । निरखत भविजनका हरे, भव अनेक का खेद ॥१७॥ तरु अशोक तुव हरत है, भवि जीवनका शोक । आकुलता कुल मेटिके, करै निराकुल लोक ॥ १८॥ . अन्तर बाहिर परिग्रह, त्यागो सकल समाज । सिंहासन पर रहत हैं, अंतरीक्ष जिनराज ॥ १९ ॥ नीत भई रिपु मोह ते, यश सूचत है तास । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैनसिद्धांतसंग्रह। . देव दुंदुभिके सदा, बाजे बजे अकाश ॥ १०॥ विन अक्षर इच्छारहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय । । । सुन नर पशु समझें सवै, संशय रहे न कोय ॥ २१ ॥ वरसत सुर तरुके कुसुम, गुंजत अलि चहुंओर । । फैलत सुयश सुवासना, हरषत भवि सब ठौर ॥ १२ ॥ समुंद वाघ अरु रोग अहि, अर्गल बंधु संग्राम । . विघ्न विषम सब ही रै, सुमरत ही मिन नाम ॥२३॥ श्रीपाल चंडाल पुनि, अंजन भील कुमार । हाथी हरि अहि सब तरे, आज हमारी वार ॥ २॥ बुधजन यह विनती करै, हाथ जोड़ शिर नाय । जबलों शिव नहि रहे तुव, भक्ति हृदय अधिकाय ॥ १५॥ वीतराग सर्वज्ञ अरु, हितोपदेशक नाथ । दोष नहीं छयालीस प्रभु, तुम्हें नमाऊ माथ ॥१॥ दीन दयाल दयानिधि खामिन् भक्तिनिको दुखहारि तुही है। तू सब ज्ञायकं लोक अलोकरु ज्ञान प्रकाशनहार तुही है। न्तु भविकंन विकाशन भानुभवोदधि तारनहार तुही है। "मूल " तुही शिव मारग साधन आपति नाशनहार तुही है ॥R कवित्त-जीवन आनित्य अरु लक्ष्मी है चंचल रूं यौवन • अथिर एक छिनमें विलायगो । याहि पाय रे अज्ञान कर काहे अभिमान धर्म हिय धार नहिं सर्व व्यर्थ जायगो ॥ कर कछु उपकार जगतमें येही सार मौका यह बार बार हाथ नहिं आयगो । प्रेम हिय धार अरु सत्यका प्रचार कर दया."मूद" धार नहिं पीछे पछतायगो । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] जैन सिद्धांत संग्रह. । (७) अकलंक अकलंक स्तोत्र । त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषयं सालोकमालोकितम् । साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले रेखान्त्रयं सांगुळ || रागद्वेषमयामयान्त कमरालोलत्वलोभादयो । नालं यत्पदलङ्घनाय स महादेवो मया वन्द्यते ||१| दग्धं येन पुर त्रयं शरमुवा तीव्रार्चिषा वन्हिना । यो वा नृत्यति मत्तवत्पितृवने यस्मात्मनो वा गुहः ॥ सोऽयं किं मम शङ्करो मयतृषारोषांतिमोहक्षयं । कृत्वा यः स तु सर्व वितनुभृतां क्षेमंकरः शङ्करः ॥ ॥ यत्नाद्येन विदारितं कररुहे दैत्येन्द्रवक्षःस्थलम् । I · सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत्कौरवान् ॥ नासौ विष्णुरनेककालविषयं यज्ज्ञानमंव्याहतम् । विश्व व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम ॥३॥ उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः । पात्रीदण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ॥ आविर्भावयितुं भवन्ति स कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् । क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ॥ ४ ॥ यो नग्ध्वा पिशितं समत्स्यकबलं भीवं च शून्यं वदन् । कर्ता कर्मफलं न मुक्त इति यो बक्ता स वुद्धः कथम् ॥ यज्जानं क्षणवा वस्तु सकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा । यो नानन्युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात्स बुद्धो मम ॥ ५ ॥ : किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं स्यात् । : Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९ जनसिद्धांतसंग्रह। नाथः किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मनश्च ।। आद्रोजः किन्जन्मा सकलविदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं । संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिमपशुः कोऽत्र धीमानुपास्ते ॥६॥ ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेश विनान्तचेताः । शम्भुः खट्वाङ्गधारी गिरिपतितनया पांगलीलानुविद्धः । विष्णुश्चक्राधिपः सन्दुहितरमगमगोपनाथस्य मोहा: दर्हन्विध्वंस्तरागो जितसकलभयः कोऽयमेप्वाप्तनाथः ॥ ७॥ एको नृत्यति विप्रसार्य कुकुंभां चक्रे सहस्रं भुनानेकः शेषभुनंगभोगशयने व्यादाय निद्रायते ।। दृष्टुं चारु तिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुर्वक्रतामेते मुक्तिपथं वदन्ति विदुषामित्येतदत्यद्भुतम् ॥ ८॥ यो विश्वं वेदवेद्यं जननजलनिशिनः पारडवापौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपम निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकलगुणनिधि धस्तदोषद्वितंबुद्ध वा बईमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा | माया नास्ति जटाकपालमुकुट चन्द्रो न मुर्दावली। खट्वाङ्गं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखं ।। कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्यं पुनः । सोऽस्मान्पातुनिरंजनो निनपतिः सर्वत्रसूक्ष्मः शिवः ॥१०॥ नो ब्रह्मांकित भूतलं न च हरेः शम्भोन मुद्राङ्कितं । नो चन्द्राकराकितं सुरपतेर्वजाङ्कितं नैव च ॥ षड्वक्राङ्कित बौद्धदेवं हतमुग्यक्षोरगर्नाकितं । नानं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राकितं ॥ ११ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA ६.] जैनसिद्धांतसंग्रह। (७) अकलंक रस्तोत्र। . त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितम् । साक्षायेन यथा खयं करतले रेखात्रय सांगुलि॥ रागद्वेषमयामयान्तकनरालोलत्वलोभादयो। ' नालं यत्पदलङ्घनाय स महादेवो मया वन्यते ॥१॥" दग्धं येन पुर त्रयं शरभुवा तीवार्चिपा चन्हिना। यो वा नृत्यति मत्तवपितृवने यस्मात्मनो वा गुहः ।। सोऽयं किं मम शकरो भयतृषारोपार्निमोहक्षयं । कृत्वा यः स तु सर्व वित्तनुभृतां क्षेमंकरः शङ्करः ॥२॥ यत्नाद्येन विदारितं कररुदत्येन्द्रवक्षःस्थलम् । । सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत्कौरवान् ।। नाग विष्णुरनेककालविषयं यज्जानमंन्याहतम् । विश्व व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम ||३|| उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं घेतो यदीयं पुनः । पात्रीदण्डकमण्डलुप्रमृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ॥ आविर्भावयितुं भवन्ति स कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् । क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ॥ ४॥ यो जग्ध्वा पिशितं समस्यकवलं जीवं च शून्यं वदन् । कर्ती कर्मफलं न मुंक्त इति यो बक्ता स बुद्धः कथम् ।। यजानं क्षणवार्त वस्तु सकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा । : यो जानन्युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात्स.बुद्धो मम ॥ ५ ॥.. कि छिन्नलिंगों यदि विगतमयः शूलपाणिः कथं स्यात् । .. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। नाथः किं भक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मनश्च । आर्द्रानः किन्तजन्मा संकलविदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं । संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिमपशुः कोऽत्र धीमानुपास्ते ॥६॥ ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेश विप्रान्तचेताः । शम्भुः खट्वाङ्गधारी गिरिपतितनया पांगलीलानुविद्धः ।। विष्णुश्चक्राधिपः सन्दुहितरमगमगोपनाथस्य मोहादर्हन्विध्वस्तरागो जितसकलमयः कोऽयमेवाप्तनाथः ॥ ७॥ एको नृत्यति विप्रसार्य कुकुभां चक्रे सहस्त्रं मुनानेकः शेषभुमंगभोगशयने व्यादाय निद्रायते ।। दृष्टुं चारु तिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुर्वक्रतामेते मुक्तिपथं वदन्ति विदुपामित्येतदत्यद्भुतम् ॥ ८ ॥ यो विश्वं वेदवेद्य नननजलनिधर्मशिनः पारदश्वापौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपम निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकलगुणनिधि वस्तदोषद्विषतं. बुद्धं वा बर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।। माया नास्ति नटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मुर्दावली । 'खट्वाङ्गं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोयं मुखं ।। कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्यं पुनः। सोऽस्मान्पातुनिरंजनो मिनपतिः सर्वत्रसूक्ष्मः शिवः ॥१०॥ • नो ब्रह्मांकित भूतलं न च हरेः शम्भोर्न मुद्राङ्कितं । नो चन्द्राकराङ्कितं सुरपतेर्वजाङ्कितं नैव च ॥ घडूबक्राङ्कित बौद्धदेव हतमुग्योरगैर्नाङ्कितं । नानं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितं ॥ ११ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। मौजीदण्डकमण्डलुप्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणो। रुद्रस्यापि नटाकपालमुकुटं कोपीन खट्वांगनाः ॥ . विष्णोश्चकगदादिशङ्खमतुलं वुद्धस्य रकाम्बरं । नग्नं पश्यत वादिनी नगदिदं जैनेन्द्रमुद्राक्रितम् ॥ १२॥ नाहकारक्शी कृतेन मनसा ना द्वपिणा केवलं, . नैरास्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्ध्या मया । राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धौघान्सकलान्विजित्य स घटः पादन विस्फालितः॥१३॥ खट्वाङ्गं नैव हस्ते न च हृदि रचितालम्बते मुण्डमाला, भस्माचं नैवशूलं न च गिरिदुहिता नैव हस्ते कपालं । चन्द्राई नैव मूईन्यपि वृपगमनं नैव कण्ठे फणीन्द्रः । तं वन्दे त्यक्तदोष भवभयमथनं चेश्वरं देवदेवं ॥१४॥ किं वाद्यो भगवानभेयमहिमा देवोऽकलङ्कः कलौ, काले यो जनतासुधर्म निहितो देवोऽकलको जिनः । यस्य स्फारविवेकमुद्रलहरी जालेऽप्रमेयाकुला, निर्मग्ना तनुतेतरां भगवती ताराशिरः कम्पनम् ॥ १५ सा वारा खल देवता भगवती मन्यापि मन्यामहे, पण्मासावधि नाड्य सांख्य भगवद्भट्टाकलंकममोः । बा कल्लोल परम्परामिरमते नूनं मनो मज्जन व्यापार सहतेस्म विस्मितमतिः सन्ताडितेतस्ततः ।। १६॥ ॥ इति श्री अकरकस्तोत्र सम्पूर्णम् ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MA जैनसिद्धांतसंग्रह । [.७९ श्रीकविवरभागचन्द्रजीकृत{ महाकाराष्टकस्तोत्र। (पं० बुद्भूलालजीकृत भाषा छन्द सहित ) यदीये चैतन्ये, मुकुर इच भावाश्चिदचितः ।। समं भान्ति धौव्यव्ययजनिलसन्तोऽन्तरहिताः॥ जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव यो। महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न: ॥१॥ चेतन अचेतन तत्त्व नेते, हैं अनन्त जहानमें । उत्पाद व्यय ध्रुवमय मुकुरवत् , लसत नाके ज्ञानमें ॥ जो जगतदरशी जगतमें सन्-मार्ग दर्शक रवि मनो। ते वीर स्वामीजी हमारे नयनपथगामी बनो ॥१॥ अतानं यच्चक्षुः, कमलयुगलं स्पंदरहितं । जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि ।। स्फुट मूर्तियस्य प्रशमितमयी वातिविमला । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ॥२॥ टिमिकार विन जुग कमल लोचन, ललिमाते रहित हैं। बाह्य अंतरकी क्षमाको, भविजनोंसे कहत हैं । अति परम पावन शांति मुद्रा, जासु तन उज्ज्वल धनो। ते वीरस्वामीनी हमारे, नयनपथगामी बनो ॥२॥ ‘नमन्नाकेंद्रालीमुकुटमणिभाजालजटिलं । लसत्पादाम्भोजव्यमिह यदीयं तनुभृतां ॥ भवज्वालाशान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ॥३॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AVRANA - जैन सिद्धांतसंग्रह। मिहि स्वर्गवासी विपुल सुरपति, नम्रतन है नमत है। तिन मुकुटमाणके प्रभामंडल, पद्मपदमें लसत हैं। जिन मात्र सुमरनरूप जलसे, हनै भव आतप धनो। ते वीर स्वामीजी हमारे, नयनपथगामी बनो ।॥ ३ ॥ यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह ।। क्षणादासीत्स्वर्गी, गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः॥ लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुखसमाज किमु तदा ? महावीरस्वामी, नयनपथगामी भवतु मे (म.)४ मन मुदित है मंडूकने, प्रभु-पूजवे मनशाकरी । तत् छन लही सुर संपदा, बहु रिद्ध गुण निधिसौं भरी ॥ निहि भक्तिसों सद्भक्त जन लह, मुक्तिपुरको सुख धनो। ते वीर स्वामीनी हमारे, नयनपथगामी चनो॥४॥ कनत्स्वर्णाभासोऽध्यपगततनुर्माननियहो। विचित्रात्माप्येका, नृपतिवरसिद्धार्थतनयः॥ अजन्मापि श्रीमान्, विगतभवरागोदभुतगतिर। महावीरस्वामी, नयनपथगामी भवतु मे (न) ॥५ कंचन तपतवत ज्ञाननिधि हैं, तदपि तनर्मित हैं। नो हैं अनेक तथापि इक, सिद्धार्थसुत भवरहित हैं । मो वीतरागी गति रहित हैं, तदपि अदभुत गतिपनो । ते वीरस्वामीनी हमारे, नयनपथगामी बनो ॥५॥ 'यदीया पारंगंगा, विविधनयकल्लोलविमली। वृहज्झानाम्माभिर्जगति जनतां या स्नपयति॥ ...१ कमलस्वरूपी चरणोंमें। . . . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जनसिद्धांतसंग्रह। इदानीमप्येषा, बुधजनमरालैः परिचिता महावीरस्वामी, नयनपथगामी भवतु मे (न:) जिनकी वचन मय अमल सुर सरि, विविधनय लहरै धरै । 'जो पूर्णज्ञान स्वरूप जलसे, नहन भविजनको करै।। तामें अनौं लगि धने पंडित, हंसही सोहत मनो। ते वीर स्वामीनी हमारे, नयनपथगामी बनो ॥६॥ अनिरोद्रेकत्रिभुवनजयी कामसुभटः। कुमारावस्थाया-मपि निजषलायन विजितः ॥ स्फुरन्नित्यानन्दप्रशमपदराज्याय स जिनः । महावीरस्वामी, नयनपथगामी भवतु मे (ना) ॥७॥ नाने जगतकी.नंतु जानिता, करी खवश तमाम है। है वेग जाको अमिट ऐसो, विकट अतिमट काम है ॥ ताको स्ववलसे प्रौढवयमें, शान्ति शासन हित हनो। ते वीरस्वामीनी हमारे, नयनपथगामी बनो ॥ ७ ॥ महामोहातङ्क-प्रशमनपराकस्मिकभिषम् । निरापेक्षो बंधुर्विदितमहिमामङ्गालकरः॥ शरण्यः साधूनाम् , भवभयभृतामुत्तमगुणो। महावीरस्वामी,नयनपथगामी भवतुमे (न:) ॥८॥ भयभीत भवते साधु जनकों, शरण उत्तम गुण भरे । निःस्वार्थके ही जगत बांधव, विदितयश मंगल करे ॥ जो मोहरूपी रोग हनिवे, वैद्यवर अद्भुत मनो। . ते वीर स्वामीजी हमारे, नयनपथगामी बनो ॥४॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४1 जैनसिद्धावसंग्रह। महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या मागेन्दुना कृतम् । यः पठेच्छृणुयाचापि, स याति परमां गति ॥. दोहा-महावीर अष्टक रच्यो, भागचन्द रुचि ठान । पढ़ें सुनें ने भावसों, ते पावें निरवान || . प्रार्थना-भागचन्द पंडित महा, कियो अन्य गंमीर । में मतिमिते भाषा करी, शोषो सुधी सुधीर ॥१॥ श्रीयुत् पंडित दौलतरामजी कृत (१) छावाला। सारठा-तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार. नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ।। प्रथमढाल । चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । मुख चाहें दुखतें भयवन्त | तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥१॥ ताहि सुना मवि मन थिर आन | जो चाहो अपनो कल्यान । मोह महा मद पियो अनादि । मूल आपको भरमत वादि ॥२॥ तास प्रमणकी है बहु कथा । पै कछु कहूं कही मुनि यथा ।। काल अनन्त निगोद मॅझार । बीतो एकेन्द्री:तन धार ॥२॥ एक श्वासमें अठदशवार । जन्मो मरो भरो दुख मार ॥ निकस भूमि जल पावक भयो। पवन प्रत्येक वनस्पति थयो दुर्लभ लहि ज्यों चिंतामणी । त्यों पर्याय लही त्रस तणी॥ १ मति माफिक । . . - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। लट पिपील अलि आदि शरीर । घरघर मरो सही बहुपीर ।।' कबहूँ पंचेंद्रिय पशु भयो । मन बिन निपट अज्ञानी थयो ॥ . सिंहादिक सेनी है कूर । निबल पशू हत खाए भूर ॥६॥ कबहूँ आप भयो बलहीन । सबलनकर खायो अति दीन ।।. छेदन भेदन भूख प्यास | भार बहन हिम आतप त्रास ॥७॥ वध बंधन आदिक दुख घनैं । कोट जीमकर नात न भनें ।। अतिसंक्लेश भावतें मरो। घोर शुभ्र सागरमें परो॥॥ वहाँ भूमि परसत दुख इसो । बीछू सहस डसे नहिं तिसो ॥ तहाँ राध श्रोणित वाहिनी । क्रमि कुल कलित देह दाहिनी ॥९ सेमरतरु जुत दल असिपत्र । असि ज्यों देह विदारें तत्र ॥ मेरुसमान लोड गलिजाय । ऐसी शीत उप्णता थाय ॥ १० ॥ तिल तिल करें देहके खंड । असुर मिड़ावें दुष्ट प्रचंड ॥ सिंधु नीरतें प्यास न जाय । तो पण एक न बूंद लहाय ॥११॥ तीन लोकको नाज नो खाय । मिटै न भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सागरलों सहै। कर्मयोगते नरगति लहै ॥ १२ ॥ जननी उदर वसो नवमास, अंग सकुचतें पाई त्रास ॥ निकसत में दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ॥१॥ बालपने में ज्ञान न लह्यो। तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्धमृतक सम बूढापनो। कैसे रूपलखै आपनो ॥ १४ ॥ कभी अकामनिर्जरा करै । भवनत्रिकमें सुर-तन धरै॥ विषय-चाह-दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुःख सहो ॥ १.६॥ जो विमानवासी इ थाय । सम्यक्दशनविन दुख .पाय..... तहते चय थावर तन धेरै। यों परिवर्तन. पूरे करै,॥ १६.. . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। द्वितीय ढाल-परीछंद १५ मात्रा। ऐसे मिथ्या हग ज्ञान चर्ण । वश अमत भरत दुःख जन्म मर्ण । ताते इनको तनिये सुनान । सुन तिन संक्षेप कहूं वखान ॥१॥ नीवादि प्रयोजनमूततत्व । सरधै तिन मांहिं विपर्ययत्व ॥ . चेतनको है उपयोग रूप। विन मूरति चिन्मरति अनूप ॥ पुद्गल नम धर्म अधर्म काल । इनते न्यारी है जीवचाल ॥ ताकू न जान विपरीति मान । करि कर देहमें निजपिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी में रंक राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुत तिय मैं सबल दीन । रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥३॥ तन उपनत अपनी उपजजान । तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख दैन । तिनहीको सेवत गिनत चैन | शुम अशुम बंधके फल मंझार। रति अरति करे निजपद बिसार। आतम हित हेतु विराग ज्ञान । ते लखे आपकू कष्ट दान ॥॥ रोके न चाह निन शक्ति खोय । शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतियुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त । ताकू जानो मिथ्याचरित्त ।। यो मिथ्यात्वादि निसर्ग नेह। अव जे गृहीत सुनिये सुतेह । ॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोखें चिर दर्शन मोह एव ।। अन्तर रागादिक धेरै नेह । बाहर धन अवर सनेह ॥९॥ -धारें कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव । जे रागद्वेष मलकर मलीन । वनिता गदादिजुत चिन्ह चीन्ह ॥१० तेहे कुदेव तिनकी जु सेव । शठ करत न तिन भवनमणछेव । -रागादिभाव हिंसा समेत । दर्षित सथावर मरण खेत ॥१.१॥ . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [.७७ ने क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म | सिन सर] जीव लहे अशर्म । याकू गृहीत मिथ्यात् भान | अब सुन ग्रहीत जो है अजान ॥१२ एकांत बाद-दूषित समस्त । विषयादिक पोशक अप्रशस्त ॥.. कपिलादिरचित श्रुतका अभ्यास । सौह कुबोध बहु देन त्राप्त १३. जो ख्याति लाभ.पूजादि चाह । धर करन विविध विदेहदाह । आतम अनात्मके ज्ञान हीन । जे जे करनी तन करन छीन र ते सब मिथ्या चारित्र त्याग । अब आतमके हित-पंथ लाग । नगाल भ्रमणको देय त्याग । अबदौलत निजआतमसु पाग ।।१५ तृतीय ढाल । नरेन्द्रछन्द २८ मात्रा। आतंमको हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमांहि न ताते, शिवमग लाग्यो चहिये । । सम्यकदर्शन ज्ञान चरन शिव-मग सो दुविधि विचारो ॥. जो सत्यारथरूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो॥१॥ परद्रव्यन” भिन्न आप मैं, रुचि सम्यक्त भला है । आप रूपको जानपनो सो, सम्यकज्ञान कला है ।। आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यकचारित सोई। अब बिवहार मोख-मग मुनिये, हेतु नियतको होई ॥२॥ जीव अजीव ,तत्व अरु आश्रव, बंधरु संवर नानो । • निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्योंको त्यों सरधानो ।। है सोई समाकत विवहारी, अब इनरूप वखानो। तिनको सुन सामान्य विशेषे, दिढ़ प्रतीति उर आनो ॥३॥ बहिरातम अन्तर आतम पर-मातम जीव त्रिधा है। देह जीवको एक गिने बहि,-रातम तत्वः मुधा है ।। . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सिद्धांतसंग्रह। उत्तम मध्यम जघन त्रिविधिके, अन्तरआतम ज्ञानी। द्विविधि संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ॥ . मध्यम अन्तर आवम हैं जे. देशप्रती आगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टि. तीनों शिवमगचारी ॥ सकल निकल परमातम दैविधि. तिनमें धाति निवारी। श्री अरहंत सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥५॥ ज्ञानशरीरी त्रिविधकममल, वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता । पहिरातमता हेय जानि वजि, अन्तरआतम हुने । 'परमातमको घ्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजे ॥६॥ चेतनता विन सो अनीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंचवरण रस गंध दो, फरसबसू जाके हैं। जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, बिन बिन मूर्ति निरूपा ॥ ७ ॥ सकलद्रव्यको वास नासमे, सो आकाश पिछानो। नियत वर्तना निशिदिन सो. व्यव-हार काल परिमानो। यो अनीव अब आश्रव सुनिये, मन वच काय त्रियोगा। मिथ्या अविरत अरु पाय पर-माद सहित उपयोगां ॥ ८॥ ये ही मामला दुखकारण, लाने इनको तजिये। . नीव प्रदेशाधाविधिसों सो बंधन कबहुँ न सजिये। शमदमते जो कर्म न आवै, सो संबर आदरिये । तप पलते विधि झरन निर्जरा, वाहि सदा आचरिये ॥९॥ सकलकर्मते रहित अवस्था, सो शिव थिर मुखकारी। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैनासिद्धांतसंग्रह | [ ७९ इडिविधि जो सरधा तत्त्रनकी, सो समकित व्यवहारी ॥1.. देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्मदयायुत सारो । यह मान समतिको कारण, अष्ट अङ्ग जुत घारो ॥ १० ॥ नसुमद टारि निवारि त्रिशठता, पटू अनायतन त्यागी । - शंकादिक बसु दोष विना सं-वेगादिक चित पागो ॥ अष्टअङ्ग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपै कहिये । बिन जाने तैं दोष गुननको, कैसे ताजिये गहिये ॥ ११ ॥ जिन बचमै शंका न धार वृष, भवसुख वांछा भानै । . मुनितन देख मलिन न धिनावै, तत्त्वकुतत्त्व पिछाने | निजगुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषतें चिगते, निज परको सु दिढ़ावै ॥ १२ ॥ धर्मीसो गौ वच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावै । इन गुणतें विपरीत दोष बसु तिनकों सतत खिपावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूपको मदन ज्ञानको, धनबलको मद भानै ॥ १६ ॥ तपको मद न मद प्रभुताको, करे न सो निज जानै । मद घौरे तो यही दोष बसु, समकितकूं मल ठानै ॥ - कुगुरु कुदेव कुवृष सेवककी, नहि प्रशंस उचरे है। जिन मुनि जिन श्रुति विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करे है ॥ दोष रहित गुण सहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सने हैं । ... चरित मोहवश लेश न संज़म, पै सुरनाथ ननै हैं ॥ *** 4 गेही पै गृहमें न रचै ज्यों, जलमें भिन्न कमक 1 नगरनारिको प्यार यथा कां-देमें हेम अमल है ।। ११ ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। प्रयन नाक विन धान ज्योतिष, वान भवन सब नारी 1 यार विकलत्रय पान नहि, उपनत सन्यक्रधारी। तीनलोक तिहुंचाल मांहि नहि, दर्शन सो मुखकारी ।। सकल घरनको मूल यही इस, बिनकरणी दुखकारी ||१६ नोक्षनहल्की परयन नाही, या विन ज्ञान चरित्रा। सन्यता न लह, बो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा । दाल समझ सुन चेत सयाने, काल च्या मत लौर। . यह नरमव रि मिलन ऋठिन है, जो सन्यक नहिं हो । चतुर्य दाल। दोहा-सन्या श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सन्यज्ञान ! स्वपर अर्थ बहु धर्मयुत, वा प्रगयवन मान ।। रोलाउन्न २४ मात्रा। सन्यक साये ज्ञान, होप 4 मिन्न मरायो। . लक्षण अता नान, दुम मेड बायो॥ सन्या कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। युगपत होते . प्रश्नाव दीपा ते होई ॥ १ ॥ गस नेद दो है, परोक्ष परतत विन माहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, मन मनते. उपनाही ॥ अविज्ञान ननर्यय, ये हैं देशप्रत्यक्षा। द्रव्यक्षेत्र परिमाण, लिये जाने बिय स्वच्हा ॥ २ ॥ सन इन्यक्के गुण, अनंत पर्याय जनगा। . भान एकै चार, प्रगट केवलि भगवन्ना । ज्ञान जान न आन, नगर्ने मन्त्रको कारण ! Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। इहि परमामृतं जन्म, जरामृत रोग निवारण ॥ ॥ कोटि जन्म तप तपै, ज्ञानविन कर्म झरे में। ज्ञानीकै छिनमें त्रिगुप्तिते सहन ते मुनिव्रत धार" अनंतबार ग्रीवक उपनायो । पै निन आतम-ज्ञान-विना सुख लेश न पायो ४ ॥ 'तात निनवर कथित, तत्र अभ्यास करीजै ।। संशय विभ्रम मोह, त्यांग आपो लेख लीजै । यह मानुप पर्याय, संकुल सुनवा जिन बानी।" इह विधि गये न मिले, सुमनि ज्यों उदधि समानी ॥१॥ धन समाज गंज बान, रा. तो कांज न आवै ।" ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावे ॥ 'तास ज्ञानको कारण, स्वपर विवेक बखानो। कोटि उपाय बनायं भव्य ताको 'उर आनो ॥ ६॥ ने पूरब शिव गए, जाहिं अब आगे हैं। सो सब महिमा ज्ञान-तणी मुनिनाथ कहे हैं।" विषय चाह-दवदाह, जगत जन अरन दझावै ।' तास उपाय न आन, ज्ञानधन-धान वुझावै ॥७॥ पुण्य पाप फलं माहि, हरष"विलखो मत भाई। यह पुद्गलं पर्याय, उपनि विनशै फिर थाई ॥' लाख बांतकी बाने, यही निश्चय उर लायो । बोरि सकल जगदंद-फंद नित आतम ध्यावो ॥ ८ ॥ सम्यग्ज्ञांनी होय, बहुरि 'दृढ़ चारित लाजै। एकदेश अरु सकलंदेश, तेसु भेद कहीने ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। त्रसहिंसाको त्याग, वृया थावर न संघारे । परवधकार कठोर निन्य, नहिं बयन उचारै॥९॥ मलमृतका बिन और, लाहिं कछु गहै अदचा। निन बनिता बिन और, नारिसौं रहे विरता ॥ अपनी शक्ति विचार, परिग्रह योरो राखें । दस दिश.गमन प्रमाण ठान, जल सीम न नावें॥ ताहूमें फिर प्राम, गली गृह बाग बमारा । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा.॥ काकी धन हानि, किसी नय हार न चित। देय न सो उपदेश, होय अप बनन कृषीत ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोप-करण नहिं दे यश लाथै ॥ राग द्वेष करतार, कया कबहूँ न मुनीने । औरहु अनरथ दंड, हेतु अब तिन्है न कीन ॥१२॥ घर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये । पर्व चतुष्टै माहि, पाप तज़ प्रोषष धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियमकर ममत निवार । मुनिको भोजन देय, फेर निज करहि अहार ॥१॥ चारह व्रतके अतीचार, पन पन न लगावै । मरण सम संन्यास, धार तमु दोष नशावै ॥ . यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपनावे । तहते चय नर जन्म, पाय मुनि हो शिव नावै ॥१४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [ ८३ पंचमढाल | चाल छन्द १४ मात्रा । मुनि सकल व्रती बड़ भागी । भवभोगनतें वरागी ॥ वैराग्य उपावन माई | चिंतें अनुप्रेक्षा भाई ॥ १ ॥ तिन चिन्तत समसुख लागे, निम ज्वलन पवन लागे || जब ही निय आतम जाने । तबही भिय शिवसुख ठानै ॥ २ ॥ जोवन गृह गो धन नारी । हृय गय जन आज्ञाकारी ॥ ● इन्द्रिय भोग छिन थाई । सुरधनु चपला चपलाई ॥ ३ ॥ सुर असुर खगाधिप जेते | मृग ज्यों हरि काल दले ते । मणिमंत्र तंत्र बहु होई । मरते न बचावै कोई ॥ १ ॥ चहुंगति दुख जीव भरे हैं । परवर्तन पंच करे हैं। सब विधि संसार अंसारा । तार्भे सुख नांहिं लगारा ॥ ५ ॥ शुभ अशुभ करम फलं जेते । भोगे जिय एकहि तेते ॥ सुत दारा होय न सीरी । सब स्वारथके हैं भीरी ॥ ६ ॥ जलपय ज्यों जियतन मेला । पै भिन्न २ नहि भेला ॥ जो प्रगट जुदे धनं धामा । क्यों हों इक मिल सुत रामा ॥७॥ पल रुधिर राधे मल थैली । कीसस बसादितैं मैली ॥ नव द्वार बहैं घिनकारी । अस देह करे किम यारी ॥ ८ ॥ जो योगकी चपलाई । तातें है आश्रव भाई || · आश्रव दुखकार घनेरे । बुद्धिवंत तिन्हें निरबेरे ॥ ९ ॥ जिन पुण्य पाप नहिं कीना । आतम अनुभव चित दीना ॥ तिनही विधि आवत रोके । संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥ निज काल पाय विधि झरना । तासों निजकाज न सरना ॥ तप कर जो कर्म खपावै । सोई शिवसुख दरसावै ॥ ११ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] जैनासिद्धांतसंग्रह। किनह न करो न घरै को। पटू द्रव्यमयी ने हर की। सो लेकमाहिं दिन समंता । 'दुख सहै नीव नित भ्रमता im, अंतिम प्रीवकोंकी हद । पायो अनंत विरियाँ पद ॥" पर सम्यक्ज्ञान न लांघी । दुर्लभ निमें मुनि सा ॥१ नो भाव मोहत न्यारे । गज्ञान व्रतादिक सारे । '' सो धर्म नौ जिय धारै । तपही मुख अल निहारे । सो धर्म मुनिनकार परिये । तिनकी करंतुति उचरिये .. ताईं सुनिये भवि प्राणी । अपनी अनुभूति पिछांनी ॥१६॥ अथ पष्ठम ढाला हरिगीता छंद २८ मात्रा पट कायि नीव न हननत सब, विष दरबहिसाटरी:..: . रागादि भाव निवारतें, हिंसा.न भावित अवतरी गा.: . . जिनके न लेश मृषा मजल मृण हा विना दीयों गहैं..... अठदशसहस विधि शीलधर, चिवसमें नित रमि र १. ५.॥ अंतर चतुर्दश भेद'वाहर, संग दुशपति, टलें। . परमाद तनि चौकर मही लखि समिति यति चलें ॥ जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब. संशय हो। श्रम रोग हर जिनके वचन मुंख, चंद्र अमृत झरै ।: २.॥ छयालीस दोष विनामुकुल, श्रावक तणे घर अशनको । हैं तप बढ़ावन हेत नहिं तन, पोपते तन रसनको। : . शुचि ज्ञान संमय उपकरण लखि-के गहें लसिके घर। ... निर्जतु थान विलोक तन मल, मूत्र क्षेपमं परिहरें ॥३॥ सम्यकप्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते . . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह... . ८५. "तिन मुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपड़ खाज खुजावते ॥... रस, रूप, गंध तथा परस अरु, शब्द शुभ असुहावने । . तिनमें न राग विरोध पंचेंद्रियजयन पद पावने ॥ ४॥ . समता.सम्हार थुति उचारें वन्दना.निन देवको। । नित करें श्रुति रति करें प्रतिक्रम, तमें तन अहमेवको । जिनके न न्हौन न दंतघावन, लेश अंबर आवरण। . भूमाहि पिछली रयनिमें कछु, शयन एकासन करण ॥ ५॥ इकबार लेत आहार, दिनमें, खड़े अलप निन पानमें .। कचलोंच करत न डरत परिपह, सों लगे निज ध्यानमें । अरि मित्र महल मसान कंचन, काच निन्दन थुतिकरण । अर्घावतारण, असि प्रहारण-में सदा समताधरण ॥ ६॥ तप तपें द्वादश-धरै, वृष दश, रत्नत्रय सेवें सदा । मुनि साथमें वा एक विच, चहैं नहिं भवसुख कदा ॥ . यौ है सकल संयम चरित मुनि-ये स्वरूपाचरण अब ! जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सब पणा ‘लिन परम- पैनी सुबुधि छैनी, डार अंतर भेदिया। वरणादि अरु रागादि तें, निज भावको न्यारा किया। निजमाहि निनके हेत-निजकर, आपको आपै गयो। गुणगुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मझार कुछ भेद न रखो ॥ ८॥ 'जह ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद न जहाँ। चिद्भावकर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ । तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ गज्ञानब्रमं ये, तीनघां एक लशा ॥ ९ ॥ : ' . . . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] मैनसिद्धांतसंग्रह । : परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुमवमें दिखे। ढग-ज्ञान-मुख-बल मय सदा नाह; आनं भाव जो मोविले ॥ मैं साध्य साधक मैं अबांधक, कर्म अरुं तसु फलंनित। चितपिंड चंड अखंड सुगुण करंड, च्युत पुनि कलंनित ॥१०॥ यो चिन्त्य निममें थिर भए तिन, अकथ नो आनन्द लयो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रके नाही कहो। तवही शुकलध्यानानि करि चउ, घातं विधि कानन देखो। सब लख्यो केवलज्ञान करि भवि, लोककों शिवमग कंहो ।। पुनि धाति शेष अघात विधि, छिनमाहिं अष्टम भू वसे । वसु कर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त आदिक संब लसै ॥ संसार खार अपार पारा-वार तरि तीरहिं गये। अविकार अकल अरूप शुष, चिद्रूप अविनाशी भये ॥१२॥ निजमाहि लोक अलोक गुण, पर्याय प्रतिविम्बित थये। रहि हैं अनन्तानन्त काल य-या तथा शिव परणये ॥ पनि धन्य हैं जे जीव नरमव, पाय यह कारज किया। तिनहीं अनादि भ्रमण पंच, प्रकार ताज वर सुख लिया ॥१३ मुख्योपचार दुमेद यों बड, मागि रत्नत्रय धेरै। अरु धरेंगे ते शिव लहें सिन, सुयशनल-जगमल हरें। इमि जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिख आदरो। जबलों न रोग बरा गहै तब, लो झटिति निनहित करो॥१४॥ यह राग आग दहै सदा ता-ते. समामृत पनिये ॥ चिर भने विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लीजिये। कहा रच्यो पर पंदमें न तेरो, पर्दै यहै क्यों दुख सहै। . . अब दौल होऊ सुखी स्वपंद चिं, दीव मत चूको यह ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनैसिद्धतिसंग्रह। दोहा। इक नव वसु इक वर्षकी, तीज़ शुकल वैशाख । करयो तत्वउपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१॥ लघुघी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल । Kधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भवकूल ॥ F [१०] सामायिक पाठ झापा। . (पं० महाचंद्रजीकृत) . अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म । काल अनंत अम्यो जगमें सहिये दुख भारी । जन्ममरण नित किये पापको है अधिकारी || कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ सामायिक | धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ॥१॥ हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु म अव । ते सब मनवचकाय योगकी गुप्ति विना लभ ॥ आप समीप हजूरमाहि मैं खड़ो खड़ो. अब । दोष कहूं सो सुनो करो नठ दु:ख देहि जब ॥९॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश पानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ विना प्रयोजन एकेंद्रिय चिंति चउ पंचेंद्रिय । आप प्रसादहि मिटै दोष 'जो लग्यो मोहि जिय |॥ ३ ॥ आपसमें इक और थापि करि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतले दानकार प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीवं जिते विन सबके नायकें । परं करौं मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक | अंजन आदिक चार महां घनघोर पापमय । तिनके जे अपरोष भये है. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनासद्धांतसंग्रह ! . क्षिमा क्षिमा किय ॥ मेरे ने अव.दोष मये ते क्षमो दयानिधि । यह पड़िकोणो कियो आदि पट्कर्ममांहि विधि. ॥५॥ अथ द्वितीय प्रत्याख्लानकर्म।.. नो प्रमादवश होय विराधे जीव घनेरे। तिनको जो अपराध भयो मेरै अघ ढेरे। सो सब झूठो होहु जगतपतिके परसादै। जा प्रसादत मिले सर्व सुख दुःख न लाधै HE || मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ । किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ॥ निहूँ हूँ मैं वारवार निन जियको गरहू । सवविध धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं ॥ ७ ॥ दुर्लम है नरजन्म. तथा श्रावककुल भारी। सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिनवचनामृतधार समावत जिनवानी। तौह जीव सहारे पिक धिक् धिक् हम जानी ॥ ८॥ इंद्रियलंपट होय खोय निन ज्ञानजमा सब । अज्ञानी जिम कर तिसी विधि हिंसक है अब ।। गमनागमन करतो जीव विराधे मोले। ते सब दोष किये निर्दू अब मनवच तोले ॥९॥ आलोचनविषयकी दोष लाग जु घनेरे। ' ते सब दोष विनाश होउ तुम जिन मेरे ।। बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता ईर्षादिकत भये निदिये जे भयमीता ॥१॥ :... · · अथ तृतीय सामायिक कर्म। . .. - सब जीवनमें मेरे समताभाव जग्यो है । सब नियं मो सम. समता राखो भाव लग्यो है . आर्त रौद्र द्वय ध्यान छाँहि . करिहै सामायिक । संयम मो का शुद्ध होय-यह भाव वधायक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . । जैनसिद्धांतसंग्रह ! ॥१९॥ पृथ्वी जल. अरु अग्नि वायु चउ काय वनस्पति । पंचहि थावरमाहिं तथा त्रस जीव बसें नित । वे, इंद्रिय तियं चउ पंचेद्रियमाहिं जीव सब । तिनतै क्षमा कराऊं मुझपर क्षमा करो. अब ॥ १२॥ इस अवसरमैं मेरे सब सम कंचन अरु त्रण । महल मसानं समान शन्नु अरु- मित्रहि सम गणं ॥ नामन मरण समान जानि हम समता कीनी । सामायिकका काल जिते यह भाव नवीनी ॥ १३॥ मेरो है इक तामैं ममता जु कीनौ ।। और सबै मम भिन्न जानि समतारस भीनौ ।। मातापिता सुत बंधु मित्र तिय मादि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथरूप कहो गह ॥१४॥ मैं अनादि, नगजालमाहिं फंस रूप न जाण्यो एकेंद्रिय. दे आदि जंतुको प्राण हराण्यो। ते अब जीवसमूह सुनो मेरी यहः अरनी ! भवभवको अपराध क्षमा कीज्यो कर मरज़ो। १५ ॥ अथ चतुर्थ स्तवनकर्म। नमू. ऋषभ- जिनदेव अनित जिन जीत कर्मको । संभव भवदुखहरण करण अमिनन्द शर्मकों ।। सुमति सुमतिदातार तार भवसिंधु पारकरः। पद्मप्रभु पद्माम भानि भवभीति प्रीतिधर ॥१६ श्रीसुपार्श्व. कृतपाश नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचंद्रप्रम चंद्रकांतिसम देहकांति घर ॥ पुष्पदत दमि दोषकोश भविपोष. रोषहर । शीतल .शीतल करन हरन भवताप दोषहर ॥ १७ ॥ श्रेयरूप जिन श्रेय घेय नित सेय भव्यजन । वासपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय हन । विमल विमलमतिदैन अंतगत हैं अनंत. निन । धर्म शर्म शिवकरन शांति जिन शांतिविधायिन ॥ १८ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] जैन सिद्धीतसंग्रह । कुंथ कुंथुमुखनीवपाल नरनाथ मार्क हर । मल्लि मल्लर्समं मोहमल मारेण प्रचार घरं ॥ सुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुरसंघार्हि नाम मिनं । नेमिनाथ नेमि घर्मरंथ मांहिं ज्ञानं धनं ॥ १९ ॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व पळसम मोक्षरमापति । वर्द्धमान भिन' नमू बमूं भवदुःख कर्मकृत ॥ याविष में जिनसंघरूप चंडवीस संख्यघर । स्तऊं नमूं हूं बार बार बंद शिवसुखंकर ॥ २० ॥ अथ पंचम वेदना कर्म । वंदूं में जिनवीर धीर महावीर सु सन्मति । वर्द्धमान अंतिवीर बंदिनों मनवचतनकृत ॥ त्रिशलातनुज महेश घीश विद्यापति बदूं | बंदूं नितप्रति कनकरूपतनु पाप निकंदूं ॥ २१ ॥ सिद्धारथ नृपनन्द द्वंद दुखदोष मिटावन । दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल नगजीव उधारन ॥ कुंडलपुर करि जन्म जगतनिय आनन्दकारन | वर्ष बहतरि आयु पाय सब ही दुख टारन २२ सप्तहंस्ततनुतुंग मंग कृत जन्म मरण भय । बालब्रह्ममय ज्ञेयः हेय आदेयं ज्ञानमयं ॥ दे उपदेश उधारि तारिं भवसिंधु जीवंघन । आप वसे शिवमाहिं ताहि वंदो मनवचतन ॥ ११ ॥ जाके बंदनथकी दोष दुख दूरहि नावै । जाके वंदनथकी मुक्ति तियं सम्मुख आवैं ॥ जाके वंदनथकी वंद्य होवें सुरगनके । ऐसे. वीर निनेश बंदिहू क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिकं षटकर्म - माहिं बंदन यह पंचम । वदे वीरंजिनन्द्र इंद्रशववंद्य वंद्य मम ॥ जन्म मरण भय हरो कॅरो अघ शांति शांतिमयं । मैं अधकांश सुपोष दोषको दोष- विनाशय ॥ २६ ॥ 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] जनसिद्धांतसंग्रह। पांचा इंद्री शिथल भई तब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । . वापर भी ममता नहिं छोड़े, समता र नहिं लावै ॥ १७॥ मृत्युरान उपकारी नियको, तनसे तोहि छुड़ावे । नावर या तन बंदीग्रहमें, पड़ापड़ा विकलावे ॥ पुदगलके परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी। ' यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञाननाति गुपखासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, वे सब पुदल लारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ॥ या तनसे इस क्षेत्र संबंधी कारण आन बनो है। . खान पान दे याको पोषो, अब समभाव ठनो है ।।.१९ । मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान विन, यह तन अपनो नानो। इंद्री भोग गिने मुख मैंने, आपो नाहिं पिछानो ॥ तन विनशनते नाश जानि निन, यह अयान दुखदाई। कुटुम आदिको अपनो जानो, मूल अनादी छाई ॥ २०॥ अब निज भेद यथारथ समझो, मैं हूं ज्योतिस्वरूपी।. उपज बिनश सो यह पुद्गल, नानो याको रूपी । इष्टनिष्ट नेते सुखदुख हैं, सो सब पुदल सांगे। . मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुख भागे ॥ २१॥ बिन समता तन नन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। शस्त्रघातनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो । चार नन्त ही अग्निमाहि जर, मूवो सुमति न लायो। सिंह न्यान अहि नन्तवार मुझ, नाना दुःख दिखायो र विन समाधि ये दुःख लहे में, अब उर समता.आई.। . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९६" जैनसिद्धांतसंग्रह। मृत्युरानको भय नहिं मानो, देवै तन सुखदाई ॥ . याते. नवलग मृत्यु-न आवे, तबलग जप तप कीजै। ..... जप तप बिन इस जगके माहीं, कोई भी ना सीने ॥ २३॥ स्वर्गः संपदा तपसे पावे, तपसे कर्म नशावे। ... तपहीसे.शिवकामिनिपति है, यासे तप चित लावे ॥ ... अब मैं जानी समता विन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई। :: मात पिता सुत बान्धव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई ॥ २४॥ मृत्यु समयमें मोह करें ये, तात आरत हो है। औरत ते गति नीची पावे, यो लख मोह तनो है। ::: और परिग्रह जेते जगमें, तिनसे प्रीति न कीजे | : . परमवमें ये संग न चालें, नाहक आरत कीजे ॥ २९॥ . जे जे.वस्तु लसत हैं तुझ. पर, तिनसे नेह निवारो। .. परगतिमें ये साथ न चालें, ऐसो. भाव विचारों |... १... जो परभवमें, संग चलें तुझ, तिनसे प्रीति सुकीने। . . : पंच पाप तन समता पारो, दान चार विध दीने ॥ १६... दशलक्षणमय धर्म, धरो उर, अनुकम्पा चित लावो । ., षोडशकारण नित्य चिन्तवो, हादश भावन भावो ॥. . . . चारों परवी प्रोषध कीजे, , अशन रातको त्यागो।.. समताधर दुर्भाव निवारो, संयमसूं अनुरागो ॥ २७ ॥ :. अन्तसमयमें ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई। ... स्वर्ग मोक्षफल तोहि दिखावें, ऋद्धि देय अधिकाई | .:., खोटे भाव सकल -जिय त्यामो, उरमें समता लाके। : . • जासेती गति: चार दूर कर, वसो: मोक्षपुर जाके ।। 361.. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनसिद्धांतसंग्रह। मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई। येही तोकों सुखकी दाता, और हित कोक नाई ॥ .. आगे बहु मुनिरान भये हैं तिन गहि थिरता भारी। " बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥ १९ ॥ तिनमें कछु इक नाम कहूं मैं सो सुन जिय ? चित लाके । मावसहित अनुमोद तासें, दुर्गति होय न जाके ॥ . अरु समता निज उरमें आवै, भाव अधीरज जावे। : । यों निश दिन नो उन मुनिवरको, ध्यान हिये विच लावे धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसी पोरन धारी । एक श्यालनी युगबच्चायुत, पांव भखो दुखकारी॥ यह उपसर्ग सो समभावन आराधन उर धारी। . तो तुमरे जिय कौन दुख है ! मृत्यु महोत्सव वारी ॥३॥ . धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहि, आतमसों हित लायो। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३२॥ देखो गजमुनिके सिर ऊपर विप्र अगिनि बहु वारी। शीस जले जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिगारी॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। मै तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३॥ सनतकुमार मुनीके तनमें, कुष्टवेदना व्यापी। छिन्न छिन्न तन तासौं हुवो, तब चिन्तो गुण आपी। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। १०१ तो तुमरे प्रिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी॥१४॥ श्रेणिकसुत गंगामें डूबो, तब जिननाम चितारे। . घर सलेखना परिग्रह छाड़ो, शुद्ध भाव उर धारे॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता आराधन चित धारी। . तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्यु महोत्सव वारी ॥३॥ समतभद्रमुनिवरके तनमें, क्षुधा वेदना आई। ता दुखमें मुनि नेक न डिगियो, चिन्ता निजगुण भाई ।। यह उपसर्ग सहो'घर थिरता, आराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥१६॥ ललितघटादिक तीस दोय मुनि कौशांबीतट जानो। नदीमें मुनि वडकर मूवे. सो दुख उन नहिं मानो। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे निय कौन दुःख है ! मृत्यु महोत्मव बारी॥३७॥ धर्मघोष मुनि चम्पानगरी बारा ध्यान धर ठाढ़ो। . एक मासकी कर मर्यादा ता दुःख सह गाढ़ो॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्यु महोत्सव वारी ॥२८॥ श्रीदतमुनिको पूर्व जन्मको, वैरी देव सु आके। विक्रियकर दुख शीतंतनो सो, सहो साधु मन लाके ॥ यह उपसर्ग सही घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे निय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३९॥ वृषभसेन मुनि उष्ण शिलापर, ध्यान धरो मनलाई । • सर्यधाम अरु उष्ण पवनकी, वेदन सहि अधिकाई ॥ . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] जैनसिद्धांतसंग्रह। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, माराधन चितधारी। ' तो तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्यु महोत्सव पारी ४.०|| • अभयघोष मुनि काकंदीपुर, महां वेदना पाई। . वैरी चंडने सब तन छेदो, दुख दीनो अधिकाई॥ . यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। . तो तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्युमहोत्सव वारी ॥४ विद्युतचरने बहु दुख पायो, तौभी धीर न त्यागी। . शुममावनस प्राण तजे निज, धन्य आर बड़भागी॥. यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्युमहोत्सव वारी ॥११॥ पुत्र चिलाती नामा मुनिको, बैरीने तन घातो। . मोटे मोटे कीट पड़े तन, तापर निन गुण रातो ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव बारी ॥४॥ दण्डक नामा मुनिकी देही, वाणन कर अरि भेदी। . वापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्ममहारिपु छेदी-॥. यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। . . वो तुमरे जिय कौन दुःख है ! मृत्युमहोत्सव वारी ॥४॥ अमिनंदन मुनि आदि पांचस, धानी पेलि जु मारे । . . तौ मी श्रीमुनि समताधारी, पूरव कर्म विचारे ।।.. यह उपसर्ग सहो घर थिरतो, आराधन चित धारी ।. तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥१५॥ बाणक मुनि गोघरके मांही, मूंद अग्नि परिजालो। . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [ १०३ श्रीगुरु उरु समभाव घारके, अपनो रूप सम्हालो ॥ - यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ ४६ ॥ सात शतक मुनिवरने पायो, हथनापुरमें जानो । बलिब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो || यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित घारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ १७ ॥ लोहमयी आभूषण गड़के, तातेकर पहराये । पांचों पाण्डव मुनिकेतनमें तौ भी नाहिं चिगाये || • यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित घारी । तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ ४८ ॥ और अनेक भये इस जगमें, समता रसके स्वादी । वे ही हमको हो सुखदाता, हरहें टेव प्रमादी || सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तप ये, आराधन चारों । ये ही मोकों सुखकी दाता, इन्हें सदा उर धारों ॥ ४९ ॥ यो समाधि उरमांही लावो, अपनो हित जो चाहो । तज ममता अरु आठों मदको जोतिस्वरूपी ध्यावो ॥ जो कोई निज करत पयानो, ग्रामांतर के काजे । सो भी शकुन विचारे नीके, शुभ शुभ कारण साने ॥ ५० ॥ मात पितादिक सर्व कुटुमसो, नीके शकुन बनावें । हलदी धनिया पुंगी अक्षत, दूध दही फल लावें ॥ एक ग्रामके कारण एते, करै शुभाशुभ सारे । - जब परगतिको करत पयानो, तब नहिं सोचे प्यारे ॥ ११ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१४] जैनमिद्धांतसंग्रह। सर्व कुटुम जब रोवन लागे, तोहि रुलावें सारे।..: : ये अपशकुन करें सुन तोकू, तू यों क्यों न विचार ॥ अब परगतिके चालत बिरियां, धर्मध्यान उर आनो। .. चारों आराधन आराधो मोह तनो दुखहानो ॥ ५९॥ है निश्शल्य तनो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। . जब परगतिको करहु पयानो, परमतत्व उर लावो ॥ मोह जालको काट पियारे ! अपनो रूप विचारो। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो यों उर निश्चय धारो ॥ १६ ॥ दोहा-मृत्युमहोत्सव पाठको, पढ़ो सुनो बुधिवान। . सम्घा घर नित सुख लहो, सूरचन्द शिवथान ॥५॥ पंच उभय नव एक नम, सम्वत सो सुखदाय । आश्विन श्यामा सप्तमी, कहो पाठ मनलाय ! ५५ ॥ (१३) समाधिमणा । . (कवि द्यानतरायकृत।) . गौतमस्वामी वन्दों नामी मरण समाधि भला है। मैं कब पाऊं निशदिन ध्याऊं गाऊं वचन कला है ॥ .. देव धरम गुरु प्रीति महा दृढ़ सात व्यसन नहीं जाने । त्याग बाईस अभक्ष संयमी बारहव्रत नित ठाने ॥ १ ॥ चक्की उखरी चुल्लि बुहारी पानी त्रस न विराधे । बनिन करे परद्रव्य हरे नहिं छहो कर्म इम सोधे । : पूजा शास्त्र गुरुनकी सवा संयम- तप चहुँ दानी.। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०५ " पर उपकारी अल्प अहारी. सामायिक विधि ज्ञानी ।। १ ।। जाप जपे तिहुं योग घरे थिर तनकी समता टारै 1 अन्त समय वैराग्य सम्हारे ध्यान-समाधि विचार ॥ आग लगे अरु नाव जु डूबे धर्म विघन जब आवे । चार प्रकार अहार त्यागिके मंत्र सु मनमें ध्यावे ॥ १ ॥ रोग असाध्य जहां बहु देखे कारण और निहारे ! बात बड़ी है जो बनि आवे भार भवनको डारे ॥ जो न बने तो घरमें रहकर सबसों होय निगला | मात पिता सुत त्रियको सोंपै निन परिग्रह अनि काला ॥४॥ कछु चैत्यालय कछु श्रावक जन कछु दुखिया धन देई | क्षमा क्षमा सब ही सों कहिये मनकी शल्य होई शत्रुन सों मिलि निमकर जोरे में बहु करी है बुगई · तुमसे प्रीतमको दुख दीने ते सब बकसो भाई । ९ ॥ धन धरती जो मुख सो मांगे सो सब दे संतोषे । छहों कायके प्राणी ऊपर करुणाभाव विशेषे || ऊंच नीच घर बैठ जगह इक कछु भोजन कछु पयले । - दूधाहारी क्रम क्रम तजिके छाछ अहार गहेले ॥ ६ ॥ - छाछ त्यागिके पानी राखे पानी तजि संथारा । भूममांहि थिर आसन मांडे साधर्मी ढिंग प्यारा ॥ जब तुम जानो यह न जपै है तब जिनवानी पढ़िये । यो कहि मौन लियो संन्यासी पंच परमपद गहिये ॥ ७ ॥ चौ आराधन मनमें ध्यावे बारह भावन भावे. । दशलक्षण मन धर्म बिचारै रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ .." । जैन सिद्धांत संग्रह । www. ► Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] जैन सिद्धांतसंग्रह। पैतिस सोलह षट पन चारों दुइ इक बर्ण विचार । काया तेरी दुखकी ढेरी ज्ञानमई तूं सारे ॥ ८॥ अजर अमर निम गुण सों पूरे परमानन्द सुमावे। आनन्द कन्द चिदानंद साहब तीन जगतपति घ्यावे ॥ क्षुषा तृषादिक होइ परीषह सहै भाव सम राखे । अतीचार पांचो सब त्यागे ज्ञान सुधारस चाख ॥९॥ हाड मांस सव सूखि नाय जब धरम लीन तन त्यागे। अदभुत पुण्य उपाय सुरगमें सेज उठे ज्यों नागे ॥ तहँ ते आवे शिवपद पावे बिलसे सुक्ख अनन्तो। 'धानत' यह गति होय हमारी जैन धरम जयवन्तो ॥१॥ (१४) वैराग्य मावना। (वजनाभि चक्रवर्ती कृत) दोहा-वीन राख फल भोगवे, ज्यों कृषान जगमाहिं । । त्यों चक्री सुखमें मगन, धर्म विसार नाहि ॥ . योगीरासा वा नरेन्द्र छन्द । . . इस विषि राज्य करै नर नायक, भोगे पुण्य विशाल । सुख सागरम मग्न निरन्तर, जात न जानो काल || एक दिवस शुभ कर्म योगसे, क्षेमंकर मुनि बंदे । देखे श्री गुरुके पद पंकन लोचन अलि आनंदे.॥१॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, कर पूना स्तुति कीनी । साधु समीप विनयकर बैठो, चरणों में दृष्टि दीनी ।। गुरु उपदेशो धर्म शिरोमणि सुन राना वैरागो । राज्य रमा बनतादिक नो रस, सो सब नीरस लागो ॥२॥ मुनि सुरज Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनसिद्धांतसंग्रह। [१७. कथनी किरणाबलि, लगत 'भर्म बुधि भागी। भव तन भोग स्वरूप विचारो परम धर्म अनुरागी ।। या संसार महा वन भीतर, मर्मत छोर न आवे । जन्मन मरन जरा दव दाहे, जीव महा दुख पावे ॥ ३ ॥ कवई जाय नरक पद भुने, छेदन भेदन भारी । कबहूं पशु पर्याय घरे वहां, षध बंधन भयकारी । सुरगतिमें पर सम्पति देखे, राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति मय, सर्व सुखी नहीं कोई ॥१॥ कोई इष्ट वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री दीखे, कोई तनका रोगी॥ किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम, भाई । किस हीके दुख बाहर दखि, किसही उर दुचिताई ॥५॥ कोई पुत्र विना नित झुरै, होई मरे तब रोवे । खोटी संततिसे दुख उपने, क्यों प्राणी सुख सोर ।। पुण्य उदय जिनके तिनको भी, नाहिं सदा मुख साता। यह जगवास यथारथ दीखे, सवही ह दुखदाता ॥६॥ ॥६॥ नो संसार विपै सुख हो तो, तीथकर क्यों त्यागे। काहेको शिव साधन करते, संयमसे अनुरागें । देह अपवान अथिर पिनावनि इसमें सार न कोई। सागरके जलसे शुचि कोने, तो भी शुद्ध न होई ॥ ७ ॥ सप्त कुधातु भरी मल मूतर, चर्म लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जगमें, और अपावन को है ॥ नव मलद्वार अवै निशि वासर, नाम लिये घिन आवे । व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां, कोन सुधी सुख पावे ॥ ८॥ पोषत तो दुख दोप करे अति, सोपत सुख उपनावे । दुर्जन देह स्वभावं वरावर; मूरख प्रीति बढ़ावे ॥ राचन योग्य स्वरूप न याको विरचित योग्य सही है । यह तन पाय ‘महां तप कोने, इसमें Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] जैनसिद्धांतसंग्रह। सार यही है ॥९॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावे. वैरी हैं नग जीके। वे रस होय विपाक समय अति, सेवत लगगें नीके । वन अगिनि विषसे विष घरसे, ये अधिक दुखदाई । धर्मरलके चौर प्रदल अति, दुर्गति पन्य सहाई ॥०॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन ताय धतूग, सो सब कंचन माने । न्यों • मोग संयोग मनोहर. मन वांछित जन पावे । तृष्णा नागिन त्यों र डके लहर लोम विष लाये ॥ १॥ मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोग भोग घनेर । तोमी ननक भये ना पूग्ण. भोग मनोरथ मेरे ॥ राज समान नहीं अघ कारण, वर बढ़ावन हारा । वेश्यासम लक्ष्मी अति चचल इसका कौन पत्यारा ।१ । मोह महारिपुवर विचारो जगनिय संकट डारे। पर कारागृह वनिता बेड़ी, परनन रखवारे॥ सन्यदर्शन ज्ञान चरण तप, ये जियके हितकारी । ये ही सार असार और सब यह चक्री चित धारी ॥ १६॥ छोड़े चौदह रन नवोनिधि और लोड़े सनसाथी । कोड़ि अठारह घोड़े छोड़, चौरासी लत हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहुनेरी, नीरण तृणवत त्यागी। नीति विचार नियोगी मुतको, राज्य दियो बड़भागी॥ १७॥ होय निशस्य अनेक नृाति संग. भूषग वसन उतारे । श्रीगुरु चरण धरी जिननुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ पनि यह समझ सुबुद्धि नगोत्तम, पनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ वसे वन तिनपद घोक हमारी ॥५॥ दोहा-परिग्रह पोठ उतार सब, लीनो चारित:पंय.। - . निन स्वभावमें थिर भये, वजनामि नियुथ ॥ . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAN जैनसिद्धांतसंग्रहः। ।१०९ (१५) फूलमाल पच्चीसी. दोहा-जैन धरम पन क्रिया, दया धरम संयुक्त । यादों वंश- विर्षे जये, तीन ज्ञान संयुक्त ॥१॥ भयो महोछो नेमिको, जूनागड़ गिरनार । ; जाति चुरासिय जैनमत जुरे क्षोहनी चार ॥ ३॥ • माल भई जिनराजकी, गूंथी इन्द्रन आय। . : देशदेशके भव्य जन, जुरे लेनको धाय ॥ ३ ॥ : . छप्पय । देश गौड़ गुजरात चौड़ सोरठि वीजापुर । करनाटक काशमीर मालवो अरु अमेरधुर ।। • पानीपथ ही सार और बैराट महां लघु । . . . काशी अरु मरहट्ट मगध तिरहुत पहन सिंधु ॥ तह वंग चंग बंदर सहित, उदधि पार लौ जुरिय सव। . आएं जु चीन महं चीन लग, माल भई गिरनारी जब ॥ ४ ॥ • • • . नाराच छन्द । . . . सुगंध पुष्पं वेलि कुंद केतकी मगायके । चमेलि चंप सेवती जुही गुही जु लायकें । गुलाब कंज लायची सबै सुगंध जातिके। सुमालती महा. प्रमोद लै अनेक भांतिके ॥५॥ सुवर्ण तारसोय बीच मोति लाल लाइया। सु हीर पन्न नील पीते पद्म जोति छाइया । शची रची विचित्र भांति चित्त दे वनाई है। सुइंद्रने उछाहसों जिनेंद्रको चढाई है ॥६॥सुमागहीं अमोल माल हाथ जोरि बानियें। जुरी तहां चुरासि जाति रावराज जानिये ॥ अनेक और भूपलोग सेठ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०] जैनसिद्धांतसंग्रह। साहुको गर्ने । कहाँलों नाम वर्णिये सुदेखते समा बनें ॥पाखंडेलवालं जैसवाल अग्रवाल आइया । वघरवाल पोरवाल देशवाल छाइया ।। सहेलवाल दिल्लिवाल सेतवाल जातिके । बढेलवाल पुप्पभालं श्रीश्रिमाल पांतिक पासुमओसवाल पल्लिबाल चूरुवाल जानिये । परबार पोरवाल पद्मावती बखानिये । गंगेरवाल बंधुराल तोर्णवाल सोहिला | करिंदवाल पश्चिवाल मेढ़वाल खोहिला ॥९॥ लवेंचु आर माहुरे महेसुरी उदार हैं। सुगोललार गोलापूर्व गोलहूं सिंघार हैं ॥ बंध नौर मागधी विहारवाल गूजरा । सुखंडरा गहोय और नानंरान वूसरा ॥१॥ भुराल और मुराल और सोरठी चितौ-. रिया । कपोल सोमराठ वर्ग इमड़ा नागौरिया || सिरी गहाड़ मंडिया कनोजिया अनोषिया । मिवाड मालवान और जाधड़ा समोधिया |१|| सुभट्टनेर रायवाल नागरा रूघाफरा । सुकथ रारु नालुरारु वालमीक भाकरा ॥ पमार लाड़ चोड़ कोड गोड़ मोड़ संमरा । सु खंडिआत श्री खन्डा चतुर्थ पंचम भरा ॥१२॥ सु रत्नकार भोजकार नारसिंघ हैं पुरी । सु जबूबाल और क्षेत्र अंश वैश्य लौं जुरी | सु आइ है चुरासि नाति जैनधर्मका धनी। सवै विरामि गोटियों जु इंद्रकी समां बनी॥१शा सुमाल लेनको अनेक भूपलोग आवहीं । सु एक एकत सुमांग मालको बड़ावहीं॥ कहें जु हाथ जोरि जोरि नाथ माल दीनिये । मंगाय देउँ हेमर डार कीनिये ॥१४ बघेलवाल बांकडा हजार • बीस.देत है हमार.दे पचास.पोरवार फेरि लेत हैं। जैसवाल लाख देत माल.लेत चोपसों । जु-दिलिवाल, दोय लाखे देत है अगोपंसो ॥ १५ ॥सु अग्रवाल बोलिये जु माल मोह दीजिये। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। दिनार देंहुं एक लक्ष सो गिनाय लीजिये। खंडेलवाल पोलिया-छु दोय लाख देउंगो । सुवाँटि केत मोलमैं जिनेन्द्रमाललेउँगो ॥१६॥ जु समरी कहें सु मेरि खानि लेहु नाय । सुवर्ण मानि देते हैं चितौड़िया बुलायके ।। अनेक भूप गांव देत रायसो चंदेरिका । खनान खोलि कोठरी सु देत अपरि मेरिका ॥१७॥ सुगोड़वाल यों कहै गयन्द वीस लीजिये । मदाय देउ हेमदन्त माल मोहि दीजिये । पमारके तुरङ्ग सानि देत हैं विना गने । लगाम नीन याहुड़े बड़ाउ हेमके बने ॥१८॥ कनौजिया कपूर देत गाड़ियां भरायके ।.सुहीर मोति लाल देत ओशवाल आयके ॥ मुहूंमड़ा हकारही हमैं न माल, देउगे । भराइये जिहाजमें कितेक.दाम लेउगे । १९॥ कितेक लोग आयके खड़ते हाथ.जोरि । कितक भूप देखिके चले जु बाग मोरिके ॥ कितेक सूम यों कहे-जु कैस लक्षि देत हो । लुटाय माल आपनों सु फूलमाल लेत हो.॥ २.० ॥ कई प्रवीन श्राविका मिनेन्द्रको बघावहीं । कई सुकंठ रागसों खड़ी जु·माल गावहीं । कईसु नृत्यकों करें नहैं अनेक भावहीं । कई मृदङ्ग तालपे सु अङ्गको फिरावहीं ॥२॥ कहैं गुरु उदार धी सु यों न माल पाइये । कराइये जिनेंद्र यज्ञ · विबहू भराइये ॥ चलाइये जु संघ 'जात संघही कहाईये । तबै अनेक पुण्यसों अमोल माल पाइये ॥२२॥ सबोधि सर्व गोटिसी - "गुरू उतारके लई। बुलाय के भिनंद्रमाल संघरायको दई अनेक हर्षसो करें जिनेंद्र तिलक पाईये । सुमाल श्री जिनेंद्रकी विनो. दीलाल गाइये । २३ ॥ . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] जैनसिद्धांतसंग्रह। दोहा-माल भई भगवन्तंकी, पाई संग नरिन्द ।', लालाविनोदी उच्चरे, सबको नयति जिनंद ॥२४॥ , माला श्री मिनराजकी, पाव पुण्य संयोग। . यश प्रघटै कीरति बढ़े, धन्य कहैं सबलोग ॥२५॥ (१६) पातकालकी स्तुतिह। वीतराग सर्वज्ञ हितकर भविजनकी अब पूरो आस । ज्ञानमानुका उदय करो मम मिथ्यातमका होय विनाश ॥१॥ जीवोंकी हम करुणा पालं झूठ वचन नहीं कहें कदा । . परधन कबई न हरहुं स्वामी ब्रह्मचर्यव्रत रहे सदा ॥२॥ तृप्णा लोम बड़े.न हमारा तोप सुधा नित पिया करें। . श्री जिनधर्म हमारा प्यारा सिसकी सेवा किया करें ॥ ३ ॥ दूर भगावें वुरी रीतियां सुखद रीतिका करें प्रचार । . भेल मिलाप बढ़ा हमसब धर्मोन्नतिका करें प्रचार ।। ४ ॥ सुखदुःखमें हम समता परि रहें अचल निमि सदा अटल.। न्यायमार्गको लेश न त्यागें वृद्धि करे निन आतमपल |.५॥ अष्टकर्म जो दुःख देत है तिनके क्षयका करें उपाय । नाम आपका जपें निरंतर विनरोग सब ही टर जाय ॥ ६॥ आतम शुद्ध हमारा होने पाप मैल नहिं चढ़े कदा । । विद्याकी हो उन्नति हममें धर्मज्ञान हू बढ़े सदा ॥७॥ हाय जाड़कर शीस. नवावें तुमको भविजन खड़े खड़े। यह सब पूरो आस हमारी चरण शरणमें आन पड़े ॥ ८॥. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wazwazw जनसिद्धांतसंग्रह (१५) सायंकालकी स्तुति हे सर्वज्ञ ज्योतिर्मयागुणमणि बालक जनपर करहु-दया कुंमति निशाअघयारीकारी सत्यं ज्ञानरविछिपा वियागमा क्रांपमान अरुामायाः तृष्णाष्यह वटा मारफिरे बहु और। लूट रहेजिगजीवनक्रो-यह देिखाविद्या तमकानोरंगा समी मारा हमको सूझ नाही ज्ञान खिना सब अंध भये। घटमें आस.विरानों स्वामी बालकजनासनीखड़े नो .:सतपथदर्शकाजनमनहर्षका बटर अंतरयामीलहो। " . श्री: जिनधम हमारा .प्यारा तिसकेतुम.ही स्वामी हो ॥॥ घोर विपतमें आना पड़ा हूं मेरागबेड़ा पार करो। .... शिक्षाका हो घर: आदर: शिल्पकला संचार करो ॥ ५ ॥ मेलमिलाप: बढ़ावाहामक द्वेषमात्र हो घटाघटी। नाहि सतावे किसी जीवको-प्रीति क्षीरकी गटागटी ॥६ मातपिता अरु गुरुजनकी हम सेवा निशदिन क्रिया करें। ' स्वारथ तनकर सुखं दे परको आशिश सबकी लिया करें ॥७॥ आतम.शुद्ध हमारा होय.पापभैल नहिं चढ़े कदा।। विद्याकी हो उन्नति, हममें धर्मज्ञान हू बढ़े सदा ॥ ८॥ दोऊ कर जोड़े बालक ठाड़े करें प्रार्थना सुनिये तात। . सुखसे वीते न हमारी.जिनमतका हो शीघ्र प्रभात ॥९॥ मातपिताकी.आज्ञा पालें गुरुकी भक्ति घरे उरमें । । रहें सदा हम करतव्य.तत्पर उन्नति करदें 'पुरपुरमें ॥1 ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] जैन सिद्धांतसंग्रह । (१८) मक्तामर स्तोत्र संस्कृत । भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य मिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ १ ॥ यः संस्तुतः सकलवाष्पयतत्त्वबाधादुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगत्रितयचित हरैरुदारैः खोध्ये किनाहमपि तं प्रथमं निनेन्द्रम् ||२|| बुद्धधा विनापि विबुधार्चितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय मलसंस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥ ३ ॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्ककन्तान् कस्ते क्षमः सुरगुरु - तिमोऽपि बुद्धया । कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधि मुजाभ्याम् ॥ ४ ॥ सोऽहं तथापि तब भक्तिवशान्मुनीश कर्तु स्तवं विगतशा करपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रम् नाभ्येति किं निमशिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५॥ अल्पयतं श्रुतवतां परिहासधाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मघौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिका निकरैकहेतु ॥ १ ॥ . त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिस निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरमामाम् । आक्रान्तलोकमलिनीलमशेपमाशु सूर्यांशुभिन्नभिच शार्वरमन्त्रकारम् ||७|| मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेपु मुक्ताफद्युतिमुपैति नन्दविन्दुः ॥ ८ ॥ आस्तां तव स्तवन मस्त समस्तदोपं त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव पद्माकरेषु जलजानि विकासमाक्षि ॥ ९ ॥ नात्यद्भुतं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। ummimamina भुवनभूषणभूत नाथ भूतैर्गुणै वि भवन्तममष्टुिवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति ननस्य. चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः क्षारं जलं जलनिधे.. रसितुं क इच्छेत् ॥११॥ यः शान्तरागरुचिभिः परमाणुमिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः एपिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमास्ति ।। १२ ।। वक्त्रं क ते सुरनरोंरंगनेत्रहारि निःशेषनिर्जितनगत्रितयापमानम् । बिम्बं कलङ्कमलिन क निशाकरस्य यहासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् । ॥१॥ सम्पूर्णमण्डलशशाककलाकलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लयन्ति। ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ चित्रं किमत्र यदि तें त्रिदशनानामिनीतं मनागपि मनों न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन किं मन्दरा' द्विशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ निधूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न नातु मरुतां चलिता चलानां दीपोमेरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाश: ॥१६॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोपि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशापिमाहमासि मुनींद्र लोके ॥१७॥ नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखानमनल्पकान्ति विद्योतय. ज्जगदपूर्वशशाङ्कविम्बम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाहि विवस्वता वायुष्मन्मुखेन्दुदहितेषु तमासु नाथ । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके कार्य कियजलवरैजेलमारनम्रः ॥ १९ ॥ ज्ञानं यथा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: २१६] नैनसिद्धांतसंग्रह त्वयि विभाति कृतावकाशं नैव तथा इरिहादिप नायकम् ।। तेन स्फुरन्मणिषु याति यथा महलं नैव तु कार्यशाल. किरणाकुनेपि २०॥ मन्ये वर हरिहरादय एवं दृष्टा दृष्टषु येषु हृदयं त्वयि तोयमेति । क वीक्षितेन भवता मुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२॥ स्त्रीणां शतानि शतशी जनयति पुत्रान् नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा द्विशी दधति मानिसहस्ररभि प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरर्दशुजालम् ॥९॥ त्वामामनन्ति मुन्यः परमं पुमांस-मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेवं सम्यगुपलभ्य नयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः॥२३॥ त्यामव्ययं विभुमचित्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनन्त. मनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमक ज्ञानस्वरूपममल प्रबदति संतः ॥२४॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि. भुवनत्रयशंकरत्वान् । धातासि धीर शिवमार्गविविधानात् व्यक्त त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥तुभ्यं नमत्रिभुवनातिहराय नाथ तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाया तुभ्य नमस्त्रिजगतःपरमेश्वराय तुभ्यं नमा जिनमवोदधिशोषणाय ॥ १६ ॥ को विस्मयोऽत्र यदि. नाम गुणेरशेपस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपातपिवुधाश्रयः जातगः स्वमान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥ उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखमाभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥ स्पष्टोलसकिरणमस्तमोवितानं विवरवेरिव पयोधरपार्श्ववति ॥२६॥ सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे विभाजते तव वपुः कनकावदातम् । विव वियद्विलसदंशुलतावितानं तुंगोदयादिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं विभ्रानते तव वपुः कलधौतकान्तम्। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १२४] जनासदांतसंग्रह .. .. ... नहिं निर्न कोय, भूप बंदीखाने ।। तुम सुमरत खयमेव हो, बंधन संच खुल जाहि छिनमें ते सम्पति लहैं. 'चिन्ता भय विनसाहि ।। महामत्तं गनरान, और नृगराज दवानले । फणपति रण पंरचंड नीरनिधि रोग नहावलं ॥ बन्धन ये भय आठ. डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरतं हिनमाहि, अभय थानक परकाश ।। इस अपारं संसारमें, शरन नाहि प्रभु कोय । यति तुम पदभक्तकों, मकि सहाई हो ॥ यह गुनमाल विशालं, नायें तुमं गुनन संबारी। विविध वर्णनय पुहुपं गूथ में भक्ति विद्यारी ।। में नर पहिरे कंठ भावना ननमें भावें । मानतुंगते निजाधीनं, शिवलछमी पाव | भाषा भतामर कियो, 'हेमराज हिनहेत । बनर पढ़ें मुमावसों, ते पा शिवसत ॥ (२०) बारह माना। (मूघरदास कृत) दाहाना राणा छत्रपति हार्थिनके असंवार । मरनों सबने एक दिन. अपनी अपनी वार ॥॥ दल बलं देई देवता मात पिता-परिवार। मरती विरिया जीवको कोई न राखनहार गरि दोम विना निर्यन दुखी, तृष्णांश धनवान् । कहूं न मुर्ख संसारमें, सब जग देयो जानं ॥ ३ ॥ आप अकेला अवतर मेरे भकेला होय।यों कवई इस नविको, साथी सगा न कोय । नहां देह अपनी नहीं, वहां नं अपना कोय। घर संपति पर' प्रगट ये; पर हैं परिजन लोय ॥५॥ दिपै चाम चादर मंदी, हाई पीना देह मानर यार्सन जगत, और नहीं बिननेह ॥६॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जैनसिद्धांतसंग्रहः। सोरठा मोहनींद लोर, जगवासी धर्मे सदाः कमलोर चहुंओर, सरबस सुध नहीं७॥ सतगुरु देय जगीय, सोहनींद जब उपशमें । तब कुछ बने उपाय, कर्म चोर आवतारुमारा. .. दोहा ज्ञान दीप:तपा तेल:भिरघर सोधे ममाछोर । याविधि विना निकसें नहीं, पेठे पूरव चोर || ९ ||पंचमहावत, संचरण, समिति पंचापरकार प्रिवलं पंचाइन्द्री विजय धार निरी सार ॥१६॥ चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें भीव अनादिते; भरमत है।विन ज्ञानराजाचे सुरतरु चिंतत चिंतारेंना विनःनांचे बिन चिंतये, धर्म सकलसुख दैन' ।। १. धनकन कंचना राजसुख, सबंहि सुलभकर जा संसार एक यथारथ ज्ञानः ॥ १३ ॥ ....: बारहमाना। बुधजनदास कृत) ती जगतमें वस्तु तेती अथिर पर्ययते सदा। परणमनराखनः कोन समरथ इन्द्र.चक्री मुनि कदा ॥ धन यौवन सुत नारी पर कर जान दामिन-दमकसा । ममता न कीजे धारि समता मानि जलमें नमकसा ||--१. 1 चेतन अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति हें । सो रहें आम करार माफिक अधिक राखे न रहें। अब शरण काकी लेयगा जब. इन्द्र नाहीं रहत हैं। शरण तो इक धर्म आतम जाहि मुनिजन गहत हैं ॥ १ सुरनर नरक पशु सकल हेरे कर्म चेरे बन रहे । सुख शाश्वता नहीं . भासता सक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन सिद्धांतसंग्रह। विपतिमें अतिसनरहे । दुःख मानसी तो देवगंतिमें नारकी दुःख" ही भरे । तियच मनुज वियोग रोगी शोक संकटमें जरे ॥ ३ ॥ क्यों भूलता शठ फूलता है देख पर कर थोकको । लाया कहाँ लेनायगा क्या फान भूषण रोकको ।। जामन मरण तुझ एकले । को काल केता होगया । संग ओर नाही लगे तेरे सीख मेंरी. सुन मया ॥४॥ इन्द्रीनसे जाना न जाने चिदानन्द अलक्ष है। ख सम्वेदन करत अनुभव होत तब प्रत्यक्ष है । तन अन्य भड़ . नानो सरूपी तू अरूपी सत्य है । कर भेद ज्ञान सो ध्यान घर निन और वात असत्य है ॥३॥ क्या देख राचा फिरे नाचारूपः सुन्दर तन लिया। मल मूत्र भाड़ा भरा गाढ़ातून जाने भ्रम गया। क्यों सूग नाही लेत आतुर क्यों न चातुरता घरे। तोहि काल. गटके नाहिं अटके छोड़ तुझको गिरपरे ॥६॥ कोई खरा कोई बुरा नाही वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान टरमें करत राग उपाव है। यों भाव आश्रव बनत तू ही द्रव्य आश्रव सुन कथा । तुझ हेतुसे पुद्गल करम वन निमित हो देत व्यथा ॥ तन भोग जगत् सरूप बख डर भविक गुर शरणा लिया। सुन धर्म धारो भर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया। इंद्री अनिन्द्री दावि लीनी त्रसे रु थावर व तना। तब कर्म आश्रव द्वार रोके ध्यान निमें से सजा तन शल्य तीनों वरत लीनो वाह्या. भ्यन्तर तप तपा। उपसर्ग सुर नर जड़ पशु त सहा निन आत्म जपा | तब-कर्म रस विन होन लागे द्रव्य भावन निर्जरा। सब कर्म हरके मोक्ष वरके रहत चेतन उजरा ॥९॥ विच लोक नंतालोक माहीमें द्रव सब है भरा । सब भिन्न- २ अनादि रचना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांससंग्रह में [१५७ निमित्त.कारणकी करा ॥ जिनदेव भासा तिनःप्रकाशा भर्मनाशामुन गिरा। सुर मनुष-तिथंच नारकी हुवे ऊर्ध्व मध्य अघोघरा ॥ अनंत कालानिगोद मटका निकस थावर तनधरा । भूवारि तेज क्यारि है..के वेइन्द्रिय त्रस अवतरा। फिर हो तेइन्द्री वा चौइंद्री पंचेंद्री.. मनबिन बना । मन युतमनुषगतिहोना दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लम चना॥११॥ न्हाना-धोना तीर्थ जाना धर्म नाही जप जपा | नमः रहना धर्म नाही धर्म नाहीं तप तपा ॥ वर धर्म निन आत्मः स्वमाव ताहि विन सब निष्फला । बुधजन घरमं निज धार लीना ।' तिनहि कीना सब भला ॥१२॥ :... अथिराशरणसंसार है, एकत्वअनित्यहि जान । अशुचि आश्व संवरा, निर्भर लोक बखान ॥१३॥ बोध औ दुर्लभ धर्म: थे, बारह भावन नान । इनको भावे जो सदा क्यों न लहै निर्वाण ॥ १.१.॥. : .. (२२) सुकावतीसी । . । .. दोहा-नमस्कार जिन देवको, करों दुई करनोर । सुवा. बतीसी :सुरस मैं, कहुं अरिनदल मोर ॥१॥ आतम सुआ सुगुरु वचन, पढ़त रहे दिन रैन । करत काज अघरीतिके, यह अचरज लखि नैन ॥२॥ सुगुरु पढ़ावे प्रेमसो, यह पढ़त मनलाय । घटके पट जो ना खुलै, सब ही अकारथ नाय ॥ ३ ॥ चौपाई-सुवा पढ़ाया सुगुरु बनाय । करम वनहि मिन जइयो भाय । भूले चूके कबहु न नाहु । लोम नलिनि में चुगा न ख़ाहु ॥४॥ दुर्जन मोह दगाके कान | बांधी नलनी तल पर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ New RE] जैनसिंदविसंग्रह। नाला तुम: जिनाचेठाहीसुद्धा सुजान नाक विषयसुखाल्लाह तिहाथाना ॥जो बैठहुं-तोपिंकरिन रहियो नो परोतों दे जिन गहियो । जोढ़ गहो तो: लटिनः जहयोगजो उलटी तीतानि भनिधियोः॥ ६ ॥ इह विधिासुमा पढायों तित भुवय पदिक भयो विचित्त पृढ़त-हेनिशदिनाय नमः सुनत लहै। सबः प्राती चैन:॥ ७॥ इक-दिनासुपटै आई भने । गुरु संगत तन मन गये वनै ॥वनमें लोमानलिनाअतिचिनी । • दुर्भन मोह दगाको, तनी ॥ ८॥तो तरुविषयमोशमनाघरे। सुवटै जान्यो ये सुख खरे। उतरे विषयसुखनकोकांना नलित विलस रान:॥॥ बैठो लोभ नलिन जगाविषय स्वाद रमालटको तवे ॥ लटकत तर उलटि गये.मावा तर मुंडीऊपर भये पांव ॥ १० ॥ नलिनी दृढ़ - पकरें पुनि रहै। मुख वचनः दीनता कहे ॥ कोउ न तहां छुड़ावनहार। नलनी-पकरहि किरहिं पुकार ॥११॥ पढ़त रहै गुरुके सब बैंन । ने जे हितकर रखिये ऐन ॥ सुवटी वनमें उड़ निज जाहु । जाहु तो भूलचुगा निज खाहु ॥ १२ ॥ नलनीके मिन जड्यो तीर। ना तो वहां न बैठहु वीर ॥ जो बैठो तो दृढ़ जिन गहो । जो दृढ़ ग़होतो परि न रहो ॥ १३ ॥ जो पकरो तो चुगा न खइयो। जो तुमः खावो तो उलट न जइयो । नो उलटो तो तन मन धड्यो । इतनी सीख हृदयमें लहियो" ॥१॥ ऐसे वचन पढ़त पुन रहै। लोमाननि तन .भज्यो न चहै ॥ आयो दुर्जन दुर्गतिरूपः । पकड़े सुवटा सुन्दर भूपं ॥ १५॥ डारे दुखके जाल मंझार । सो दुख कहत न आवै पार || भूख. प्यास बहु संकट सहै । परखस: Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह ! [ १३९ १६ ॥ सुवटाकी सुधि बुधि-- सत्र गई । . - १० ॥ परे महां दुख लहै: ॥ यह तो बात और कछु भई | आय: परे दुखसागर मांहिः | अब इततें:- कितको, भज, जाहिं ॥ तो काल गयो. इह ठौर । सुवटै नियमें ठानी और ॥ यह: दुख जाल कटे कि भांति । ऐसी मनमें उपजी खांति ||१८|| रात दिना प्रभु सुमरन करै । पाप जाल काट्न चित. घरे ॥ क्रम क्रम कर काट्यो- अघ जाल | सुमरन फल भयो दनिदयाल ॥ १९ ॥ अब इतर्ते जो भजर्के जाऊं । तो नलनीपर बैठ न खाऊं ॥ पायो दाव भज्यो. ततकाल । तज़ दुर्जन दुर्गति अंजाल ॥ २० ॥ आये उड़त बहुरः वनमाहिं | बैठ नरभव द्रुमकी छाहिं ॥ तित इक साधु महां: मुनिराय | धर्मदेशना देत सुभाय ॥ २१ ॥ यह संसार कर्मवन:रूप । तामहिं चेत सुभ, अनूप ॥ पढ़त रहै गुरु बचन विशाल | तौह न अपनी कर सम्भाल ||२२|| लोभ नलिनपैं बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय । पकरहि दुर्जन दुर्गति परै । तामें. दुःख बहुत जिय भरे ॥ २१ ॥ सो दुख कहत न आवे पार । जानत जिनवर ज्ञानमंझार ॥ सुनतै सुवटा चौंक्यो आप । यह तो मोहि परयो सत्र पाप ॥ २४ ॥ ये दुख तौ सब में ही सहे । जो मुनिवरने मुखतें कहे || सुबटा सोचै हिये मंझार । ये गुरु". सांचे तारनहार ॥ २९ ॥ मैं शठ फिरयो करम वनमाहि । ऐसेगुरुं कहुं पाये नाहिं | अब मोहि पुण्य उदै कछु भयो । सांचे गुरुको दर्शन लयो || २६ ॥ गुरु स्तुति कर वारंवार । सुमिरै सुवटा हिये मंझार ॥ सुमरत आप पाप भज गयो । घटके पट . खुल सम्यक् थयो ॥ २७॥ समकित होत लखी सब बात । यह " • । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.1: नैनसिद्धांतसंग्रह। मैं यह परद्रव्य. विख्यात ॥ चेतनके गुण निजमाहिं घरे । पुदलं रागादिक परिहरे ॥ २८ ॥ आप मगन अपने गुणमाहि । जन्म मरण भय मिनको नाहिं ॥ सिद्ध समान निहारत हिये । कर्म कलक सवहि तन दिये ॥ १९ ॥ न्यावत आप माहिं नगदीश । दुहुंपद एक विराजत ईश ॥ इहविधि सुवटा ध्यावत ध्यान । दिन दिन प्रति प्रगटत कल्यान ॥३०॥ अनुक्रम शिवपद नियका भया । सुख अनंत विलसत नित नया ।। सतसंगति सबको सुख देय। जो कछु हियमें ज्ञान घरेय ॥ ३१ ॥ केवलिपदः आतम अनुभूत | घट घट रानत ज्ञान संजूत ॥ सुख अनन्त विलस निय सोय । नाफे निनपद परगट होय.||३२|| सुवावचीसी सुनहु सुजान निजपद प्रगटत परम निधान । सुख अनन्त विलसहु ध्रुव नित्त । 'भैयाकी' विनती घर चित्त ।। ३३ ॥ संवंत सत्रह त्रैपन माहिं । अश्विन पहले पक्ष कहाहि ॥ दशमी दशे दिशां: परकाश । गुरु संगति ते शिव सुखमास । (२३) एकीमामाया। दोहा-चादिरान मुनिराजके, चरणकमल चित लाय । . भाषा एकीभावकी, करूं स्वपरसुखदाय ॥ • जो मति एकीमाव भयो मानो अनिवारी । सो मुझ कर्म प्रवन्ध करत भव भव दुःखमारी || नाहि तिहारी भक्ति नगत. रविनो निरवारैः। तो अव और कलेश कौनसो नाहि विदारै ।। तुम जिन जोतिस्वरूप-दुरित अंघयार निवारी-1. सो गणेश गुरु. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रहः।। . . [१ m mmmmmmmmmerinamarimmmmmmmmmmmminimimmmmmmm. कहें तत्वविद्याधन धारी। मेरे चितघर माहिं वंसो तेजोमय यावत। पापविमर अवकाश तहां सो क्यों कर पावतः ॥२॥ भानंद आंसू वदन घोय तुम सो चित सानै । गदगद सुर, सों सुयश मंत्र पढ़" पूना ठाने । ताके बहुविधि व्याधन्याल चिरकाल निवासी। भाजै थानक छोड़ देहबांवईके बासी ॥६॥ दिवसे आवनहार भयें। भवि भाग उदयबल । पहले ही सुर आय कनकमय कीन: महीतल ॥ मन गृह धान दुवार आय निवसे जगनामी । जो. सुवर्ण तन करो कौन यह अचरज स्वामी ॥२॥ प्रभु सव नमके.. विना हेतु बंधव उपकारी। निरावर्ण सर्वज्ञ शक्ति मिनराज तिहारी ॥ भक्ति रचित मम चित्त सेन नित बास करोगे । मेरे दुःख सन्ताप देख किम धीर धरोगे ॥ ५ ॥ भववनमें चिरकाल.. भ्रमो कछुकही न जाई । तुम-श्रुति कथा पियूष वापिका भागन पाई ॥ शशितुषार धनसार हार शीतल नहिं जा सम । करत. न्हौन तिस माहिं क्यों न भव ताप बुझे मम ॥६॥ श्रीविहार, परिवार होत शुचिरूप सकल नग। कमल कनक आभास सुरंभि श्रीवास धरत पग । मेरो मन सग परस प्रभुको सुख पावै। अब सों कौन कल्याण जो न दिन दिन ढिग आवे ॥ ७ ॥ भव तन सुखपद बसे काम मद सुमट संघारे । जो तुमको निर्खेत . सदा प्रियदास तिहारे। तुम वचनामृत पान भक्ति अंजुलिसों पी। तिसे भयानक क्रूर रोग रिपु कैसे छीवै ॥ ८ ॥ मानर्थम पाषाण आन पाषाण पटंतर । ऐसे और अनेक रत्न दीखें जग अन्तर.। देखत दृष्टि प्रमाण मानमद तुरत मिटावै। जो तुम निकट न. . होय शक्ति यह क्यों कर पावै ॥ ९॥ प्रभुतन पर्वत परंस पवनः Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। उरमें निबहे है। वासों तवक्षण सकंट, रोगरज वाहिर है है। नाके घ्यानाहूत वसो उर अंबुन माही। कोनं जगत उपकार करण समरथ सो नाहीं ॥ १०॥ बन्म जन्मके दुःख सहै सब ते तुम जानो। याद किये मुझ हिये लग आयुधसे मानो। तुम दयालु जगपाल स्वामि मैं शरण गही है। जो कुछ करना होय करो परमाण वही है ॥११॥ मरण समय तुम नाम मंत्र जीवक ते पायो । पापाचारी स्वान प्राण तज अमर कहायो । नो मणि माला लेय पै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र संपदा लहै कौन संशय इस अंतर ॥१२॥जो नर निर्भल ज्ञान मान शुचि चारित साफैं। मनबधि मुखकी सार भकि ताली नाह ला) । सो शिव ठिक पुरुष मोक्षपट केम उघारे। मोह मुहर दिदकरी मोक्षनन्दरके द्वारे ॥३॥ शिवपुर को पंथ पापतम सो अति छायो। दुःख स्वरूप बहु कपट खाई सो विकट बतायो ।। स्वामी मुख सो तहां कौन जनमारग लागे । प्रमु प्रवचन मणिदीप जानहें आगें आगे ॥१०॥ कर्म पटक भूमाहं दबी आत्म निधि भारी। देखत अति सुख होय दिनुखनन नाहिं उधारी | तुम सेवक तकाल ताहिं निश्चय कर पारें । श्रुति कुदाल सों खोद बंद मू कठिन विदारे ॥११॥ स्यादवाद गिर उपन मोक्ष सागर लों धाई। तुम चरणांवुज. परम भक्तिगंगा सुखदाई । मोचित निर्मल श्यो न्हौन रुचि पुरव जाँमै | अब वह हों न मलीन कौन जिन संशय याम ॥१६॥ तुम शिवमुलमय प्रकट करत प्रमु चिन्तवन तेरो । मैं भगवान् समान भाव यों पर मेरो ॥ यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपबावै। तुम प्रसाद सकलंक नीव वांछित फल पावै ॥१७॥वचन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। . . [:१३३ annimmmmmmmmmmmmmmmmmm जलधि तुम देव सकल त्रिभुवनमें व्यापै । मंग तरंगिनि विकंथ बाद. मल मलिन उथापै ॥ मन सुमेरु सों मथै ताहि जे सम्यकज्ञानी । परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्राणी ॥१.८॥ जो कुदेव छवि हीन बसन भूषण अभिलाष । बैरी सों' भयभीत होय. सो आयुध राखै ॥ तुम सुन्दर सर्वंग शत्रु समरथ नहिं कोई ॥ भूषण बसन गंदादि ग्रहण काहेको होई ॥ १९ ॥ सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी। सोशलाधना लहै मिटै जग सो जग फेरी । तुम भव नलघि जहाज तोहि शिव कंत उचरिये । तुही ' जगत् जनपाल नाथ थुतिकी थुति करिये ॥२०॥ वचन जाल नड़ रूप आप चिन्मूरति झाई । तातै थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम नाई। तो भी निष्फल नाहिं भक्तिरस भीने वायक । सन्तनको सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥२१॥ कोप कमी नहिं करो प्रीत कबहुं नहिं धारो। अति उदास बेचाह चित्त जिनरान तिहारो ॥ तदपि आन जग वहै वैर तुम निकट न लहिये । यह प्रभुता जग तिलक कहां तुम बिन सरधैये ।। २२॥ सुर तिय गावै सुयश सर्व गति ज्ञान स्वरूपी ॥ जो तुमको थिर होहि नमैं भवि आनन्द रूपी ॥ ताहि क्षेमपुर चलन बाट वाकी नहि हो है.। श्रुतिके सुंमरण माहिं सोन कब ही नर मोहै ॥ १३ ॥ अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चितमें धार | आदर सो तिहुंकाल माहि: जग थुति विस्तारै ।। सो सुकृत शिवपन्थ भक्ति रचना कर पूरै पंचकल्याणक ऋद्धि पाय निश्चय दुख चूरै ॥२४॥ अंहो जाता, पति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि तारे । तुमगुण कीर्तन माहि कौन. हम मन्द विचारे । स्तुतिछंल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ immmmmmmmmm नैनसिद्धांतसंग्रह। शिवमुख पूरणहार कल्पतरु यही हमारे ॥९॥ वादिरानं मुनिराज शब्दविद्याके स्वामी। वादिरान मुनिरान तर्कविद्यापति नामी । वादिराज मुनिरान काव्य करता अधिकारी । बादिरानं मुनिराज बड़े भविनन उपकारी ॥१६॥ दोहा-मूल अर्थ बहुविधि कुमुम, भाषा सत्र मंझार ॥ :: भक्तिमाल भूधर करी, करो कण्ठ मुखकार ॥१॥. .: - (२४) नामावली स्तोत्र : नय विनंद सुखकंद नमस्ते । जय निनंद जित फंद नमस्ते । बय निनंद वरवोष नमस्खे | वय निनंद बित क्रो नमरते ॥१॥ पाप ताप हर इन्दु नमस्ते । अहं वरन जुत विन्दु नमस्खे ॥ शिष्टाचार विशिष्ट नमस्ते । इष्ट मिष्ट उतरुट नमस्ते ॥ ॥ पर्म धर्म वर शर्म नमस्ते । मर्म मर्म धन धर्म नमस्ते ।। इगविशाल वर माल नमस्ते । हद दयाल गुनमाल नमस्ते ॥शा शुद्धबुद्ध अविरुद्ध नमस्ते । सिद्धिसिद्धि पर पद्ध नमस्ते॥ वीतराग विज्ञान नमस्ते । चिद्विलास धृत ध्यान नमस्ते स्व च्छं गुणांबुधि रल नमस्ते । सत्व हितकर यल नमस्ते । कुनयकरी मृगराज नमस्ते । मिथ्या खगवर बान नमस्ते ॥ ५॥ भन्य भवोदधि पार नमस्ते । शर्मामृत सित सार.. नमस्ते । दरखचान मुखवीर्य नमस्ते । चतुरानन घर धीर्य नमस्ते वा हरिहर ब्रह्मां विष्णु नमस्ते । मोह मई मनु निष्णु नमस्ते । महा दान महमोग नमस्ते। महां ज्ञान मह.नोग नमस्ते ॥ 6.महार न मां . . . . . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह-1. नमस्ते । महां मौन गुण भूरि-नमस्ते ॥ धरम चक्रि वृष केतु, नमस्ते । मवसमुद्र शत सेतु नमस्ते ॥८॥ विद्याईश मुनीश नमस्ते। इन्द्रादिक नुत शीस नमस्ते ॥ जय रत्नत्रय राय नमस्ते । सकल: जीव सुखदाय नमस्ते ॥९॥ अशरण शरण सहाय नमस्ते । मव्य. सुपन्थ लगाय नमस्ते ॥ निराकार साकार नमस्ते।.एकानेक अधार, नमस्ते ॥१०॥ लोकालोक विलोक नमस्ते । त्रिधा सर्व गुण थोक: नमस्ते । सल्ल दल दल मल्ल नमस्ते । कल्ल मल्ल जित लल नमस्ते: ॥११॥ मुक्ति मुक्ति दातार नमस्ते । उक्ति मुक्ति शृंगार नमस्ते गुण. अनन्त भगवन्त नमस्ते । जै जै जै जयवन्त नमस्ते ॥१५॥ इति पठित्वा जिनचरणाने परिपुष्पांजलि क्षिपेत् । (२५) छहवाला। (पं० वुवजनकृत) सर्व द्रव्यमें सार, आतमको हितकार है। नमों ताहि चितधारं, नित्य निरंजन जानके ॥ १ ' अथ प्रथम ढाल १६ मात्रा (चौपाई छन्द) (इसमें जीवोंके संसारभ्रमणदुःखका कथन है) आयु घटे तेरी दिनरात । हो निश्चिन्त रहो क्यों भ्रात ॥ यौवनतनधनकिकरनारि । हैं सब जलवुद बुद उनहारि ॥१॥ पूरे आयु बढ़े क्षणनाहिं । दियें कोड़ धन तरिय माहिं । इन्द्र चक्रपत भी क्या करें। आयु अन्तपर ते मी मरें ॥२॥ यो संसार . । जलबुद २-पानीके बुलबुले समान है। .... , Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिदांवसंग्रह। अंसार महान । सार आपमें आपा जान । सुखके दुख दुखसे मुख' होय। समता चारों गति नहिं कोय ॥३॥ अनन्तकाल गति गति दुख सह्यो। बाकी काल अनन्ता कह्यो। सदा.अकेला चेतन एका तो माही गुण बसत अनेक ॥४॥ तू न किसीका तार न कोय । तेरा दुख सुख तोको होय । यासे तुझको तू उरधार । परद्रव्योंसेः • मोह निवार ||५|| हाड़ मांस तन लिपटा चाम । रुधिर मूत्रमल पूरित धाम । सो भी थिर न रहै क्षय होय । याकों तने मिले • शिवलोय ॥ ६॥ हित अनहित तनकुलजनमाहिं । खोटीबानि . हरो क्यों नाहिं । यासे पुद्गल कर्म नियोग ॥ प्रणवे दायक सुख दुःख रोग ॥ ७ ॥ पांचों इंद्रियक तज फैल | चित्त निरोप लागि शिवगैल । तुझमें तेरी तू कर सैल । रहो कहाहो कोल्हु बैक ॥६॥. तन कपाय मनकी चलचाल | ध्यावो अपना रूप रसाल | झड़े. . कर्म बन्धन दुःखदान । बहुरि प्रकाशे केवलज्ञान ॥९॥ तेरा जन्म हुआ नहीं जहां । ऐसो क्षेत्र जो नाहीं कहां ॥ याही जन्म भूमिका रचो । चलो निकलतो विघिसे बचो ॥१०॥ सब व्यवहार • क्रियाको ज्ञान | भयो अनतेवार प्रधान। निपटकठिन अपनी पहि ८ चित्त निरोध-मनको पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे रोककर मोक्षके रस्ते पर लगा शुद्ध सम्यक्त पालो । १. सब व्यवहार क्रियाका ज्ञान-इस जीवने जितने संसारमें इलम हुनर है । संघारी कर्तव्यका ज्ञान अनन्ती ही वार पाया है। इनके पानेसे जीव आत्माको कुछ भी सुख नही हुआ, .चारों गतिक दुःख भोगता. लता ही फिरा । यदि एक बार भी सम्यक्त पालेता तो अनंते . जन्ममरणके दुखोंसे छूटकर शाश्वते मुख भोगता ।". . . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासिद्धांतसंग्रह १३७ चान | तांको पावतं होय कल्याण ॥५१॥धर्म स्वभाव आप श्रद्धान । धर्म नशील न न्हौन न दान | बुधजन गुरुकी सीख विचार । गहो धर्म आपन निर्धार ॥१२॥ . . . . अथ द्वितीय हाल २८ मात्रा (नरेन्द्रः छन्द) इसमें प्रथम ढालमें कहे हुवे प्रयोजनका कारण, ग्रहीत अग्रहीत मिथ्या दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रका कथन है। . .. . . सुन रे जीव कहतहो तुझसे तेरे हितके काजे । हो निश्चल । मन जो तू धारे तो कुछ इक तोहिलाजे ॥ निस दुःखसे थावर. । तनपायो वरण सको सो नाहीं । अठारह बार मरा और जन्मा एक स्वासके माहीं ॥१॥ काल अनन्तानन्त रहो यों फिर विक:त्रय हुवो। बहुरि असैनी निपट अज्ञानी क्षण क्षण जन्मो मूवो । पुण्य उदय सैनी पशु वो बहुत ज्ञान नहीं भालो। ऐसे जन्म गए कौवश तेरा जोर न चालो ॥ २ ॥ जबर मिलों तब तोहि. सतायो निबल मिलो ते खायो । मात. त्रिया सम भोगी पापी. • तातें नर्क सिधायो । कोटिक विच्छू कारें जैसे ऐसी भूमि नहां है। रुधिर राषि जलछार बहे नहां दुर्गघि निपट तहां है ॥२॥ घाव करें असिपत्र अंगमें शीत उष्ण तन गालें । कोई काटें करवत गहिकर केई पावक जालें यथायोग्य सागरस्थिति भुगतें दुःखका अन्त न आवे । कर्म विपाक ऐसा ही होवे मानुषगति । तब पावे ॥३॥ मात उंदरमें रहै गैंद हो निकसत ही बिललावे.। ४ सागर-की गिणती बहुत ही बड़ी है जो किरोड़ॉन. किरोड़ वर्ष बीतं जाय "वो भी एक सागरकी स्थिति पूरी न हो। इसे त्रिलोकसारादि ग्रन्थों में देखना चाहिये ।। . . . .. ....... - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] जैनसिद्धांतसंग्रहां डावा दांक कलां विस्फोटक डांकनसे बचं नावे | तो यौवन भामिनके संग निशिदिन भोग रचाये। अन्धा हो धन्धा दिन खोकः वृद्धा नाहि हलावे ॥ यम पकड़े तब भार न चाळे सन हीसन मवावे । मन्द कषाय होय तो माई भवनत्रक पद पावे ॥ परकी सम्पति लखि अति झुरके रति काल गमावे। आयु अन्त माला मुरझावे तव लख लख पछतावे ॥६॥ वहांसे चलके थावर होने रुलता काल अनन्ता । या विधि पंच परावर्तन दे दुखका नाही. मन्ता । काललब्धि मिन गुरु उपासे आप आपको बाने। तब ही बुधनन भवोदषि तरके पहुंच बाय निर्वाणे ॥ ७॥ अथ तृतीय ढाल। बिसमें सम्यक होनेका वर्णन है। । इसविधि भववनके माहि जीव । वशमोह गहल सोग सदीय । उपदेश तथा सहनहि प्रबोष | तव नागो ज्यों रण उठतं योष १॥ तव चिन्तत अपनेमाहि आप । मैं चिदानन्द नहि पुण्यपाप ॥ मेरे नाही हैं संगमाव । ये तो विधिवस उपमें विमाव ॥॥ मैं नित्य निरंजन शिव समान । ज्ञानावरणी-आच्छादा ज्ञान | निश्चय शुद्ध इक व्यवहारमेव । गुणगुणी अंग अंगी अतेव ॥३॥ मानुष सुर नारक पशु पर्याय । शिशु ज्यान वृद्ध ५ विस्फोटक-बच्चोंको माता याने पंचकका निकलना सख देखना-भवनत्रक पद । व्यंतर, ज्योतिषी, भवनवासी, इन तीन प्रकारके देवोंको कहते है। शादानाक लिया । अर्थात ज्ञानावरणी-कर्म ज्ञानको के है। ३। मेव मेद (फरक) भतेव-सी वास्त, मर्याद बीद. और पर - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनसिद्धांतसंग्रह । [.१३९ बहुरूप काय ॥ धनवान दरिद्री दास राव । यह तो विडम्ब मुझे ना सुहाय ॥ ४ ॥ स्पर्श गंध रसवर्ण नाम | मेरो नाहीं में ज्ञान धाममैं एकरूप नहीं होत और । मुझमें प्रतिविम्बित सकल ठौर ॥५॥ तन पुलकत वर हर्षित सदीव । ज्यों भई रंक गृह.निधि. अतीव । जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय । तब चितपरणति .ऐसी उपाय ॥ ६ ॥ सो सुनो भव्य चित धारकान | वर्णत मैं ताकी विधि विधान ॥ सब करें कान घर माहिं बास। ज्यों भिन्न कमल जलमें निवास ॥ ७ ॥ ज्यों सती अंगमाहीं शृंगार । अति करे प्यार ज्यों नगरनारि ॥ ज्यों धाय चुखवति अन्य बाल ॥ त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥ ८ ॥ जो उदय मोह चारित्रमाव । नहीं होत रंच हू त्यागभाव ॥ तहां करें मन्द खोटे कषाय । घरमें उदास हो अथिर पाय ॥९॥ सबकी रक्षायुत न्याय नीति। जिन शासन गुरुकी दृढ़ प्रतीति ॥ बहु रुले अर्द्धपुद्गल प्रमाण । शीघ्र ही महरत ले परम थान ॥ १० ॥ वे धन्य जीव धनमाग्य सोइ । जिनके ऐसी सुप्रतीति होइ ।। तिनकी महिमा है स्वर्ग लोइ । बुधजन भाषे मोसे न होइ ॥११॥ अथ चतुर्थ ढाल । . इसमें व्यवहार सम्यग्दर्शन कथन है। सोरठा छन्द-ऊगो आतम सूर दूर गयो मिथ्यात्त्व तम् ।. अब प्रगटो गुणपूर ताको कुछइक कहत हों ॥ शंका मनमें नाहिं तत्त्वारथ श्रद्धानमें | निर्वाधिक चित माहि परमारथमें रत मात्मामें असली भेद नहीं व्यवहार भेद है। इसी हेतु एक अंग (गौण) और एक अंगी (प्रधान) है। शिशु-पालक अवस्था । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ij नसिद्धतिसंग्रह रहे ॥२॥ नेक न करतें ग्लान बाब मलिन मुनिजन लखें। नाही होत अनान तत्त्व कुतत्त्व विचारमें ॥३॥ उरमें दया विशेष गुण प्रगटें औगुण ढकें । शिथिल धर्ममें देख जैसे तैसे विरकर. ॥४॥ साधी पहिचान करें प्रीति गोवच्छसम । महिमा होय महान् धर्म कार्य ऐसे करें ॥५॥ मद नहीं जो नृप वात मद नहीं भूपतिवानको । मद नहीं विमव लहात मद नहीं सुन्दर रूपको ॥६॥ मद नहीं होय प्रधान मद नहीं तनमें बोरका । मद नहीं मो विद्वान् मद नहीं सम्पति कोषका ॥णा हुवो आत्मज्ञान तम रागादि विमाव पर । ताको हो क्यों मान जात्यादिक व अथिरका ॥ ८॥ वंदत हैं अरिहंत मिन मुनि जिन सिद्धांतको । नवे न देख महन्त कुगुरु कुदेव कुधर्मको ॥९॥ कुत्सित मागम देव कुत्सित पुन सुरसेवकी प्रशंसा षट् भेव करें न सम्यक्वान हैं ॥ १० ॥ प्रगटो ऐसा भाव किया अभाव मिथ्यात्वका.. ... बन्दत बाके पांव बुपनन मनवचकायसे ॥ ११॥ अथ पंचम दाल। . जिसमें बारह ब्रतका वर्णन है। " मनहर छन्द-तिथंच मनुष दोय गतिमें। व्रत धारक. श्रद्धा चितमें । सो अगलित नीर न पावें। मिशि भोजन तने मिभकमल-मलका फूल चाहे जितना पानी हो पानीसे अपर ही रहता है ऐसा समदृष्टि घरमें बहकर भी अपने परिणाम गृहस्थीसे भलग भोर धर्मसे तल्लीन रखता है। नगरनारोश्या । १० कुस्थित भागम देवकुदेष कुशाखको सेवा प्रशंसा समुहष्यो, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। १४१. सदीवें ॥१॥ मुख बस्तु अभक्ष न खावें। जिन भाक्ति त्रिकाल: रचावें । मन बच तन कपट निवारे । इंतकारित मोद सम्हारे । जैसे.उपशमित कषांया । तैसा तिन त्याग कराया । कोई सात. व्यसनको त्यागें । कोई अणुव्रत तप लागे। त्रस नीव कमी नहीं मारें। वृथा थावर न संडारें । परहित बिन झूठ न बोलें । मुख सत्य विना नहिं खोलें। जल मृतिका बिन धन सब ही विनं. दिये न लेवें कब ही। व्याही वनिता विन नारी । लघु बहिन बड़ी... महतारी । तृष्णाका जोर संकोचें। जादे परिग्रहको मोचें ।। दिशिकी मर्यादा लावें। बाहर नहीं पांव हलावें । तामें भी पुरसर. सरिता । नित राखत अघसे डरता। सब अनर्थदंड ना करते ।। क्षण २ मिनधर्म सुमरते । द्रव्य क्षेत्र काल शुम भावे । समता सामायिक ध्यावे । प्रोषध एकाकी हो है। निष्किंचन मुनि ज्यों सो हैं। परिग्रह परिणाम विचारें। नित नेम भोगका घारें । मुनि. आवन वेला जावे । तव योग्य अशन मुख लावे । यों उत्तम कारज करता । नित रहत पापसे डरता। जब निकट मृत्यु निज. जाने । तब ही सव ममता भाने । ऐसे पुरुषोत्तम केरा । वुषनन चरणोंका चेरा ॥ वे निश्चय सुर पद पावें । थोड़े दिनमें शिव नावें ॥ अगलित नीर-आसमानसे पड़े हुवे गोले या गड़े, बर्फ वा . अनछाणा पानी इनको नहिं खाना पीना चाहिये। २ अभक्ष्य जो २२ अभक्ष्य है सो धर्मात्माओंको खाने नहीं चाहिये। ४ सजीव-चलंता हलता जीव । थावर-मिट्टी पानी भाग हवा वनस्पति । मृतकामही। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनासवापत २४.] जैन सिद्धावसंडा .. अथं षष्टम दाल। - जिसमें मुनिधर्मका कथन है। . ' रोला छन्द-अथिर ध्याय पर्याय भोगसे होय उदासी। • नित्य निरंजन ज्योति आवमा घटमें भासी ॥ सुतदारादि वुलाव सर्वसे मोह निवारा । त्यागनगर वनधाम वास बन बीच विचारा ॥१॥ भूषण बसन उतार नम हो मातम चीन्हा । गुरुतटदीक्षा धार शीश कच लुंच जु कीन्हा । त्रसथावरका घात त्याग मनं ... बच तन लीना । झूठ वचन परिहार गहें नहीं जल विन दीना ॥ चेतन जड़ त्रिय भाग तबो भवभव दुःखकारा। अहि कंचुकि जो तनत चित्तसे परिग्रह डारा ॥ गुप्त पालने कान कपट मन चंच तन नाहीं। पांचों समिति सम्हाल परीषह सहि हैं आहीं ॥३॥ छोड़ सकल जगजाल आपकर आप आपमें। अपने हितको आप किया है शुद्ध नापमें ॥ ऐसी निश्चल कार्यध्यानमें मुनिजन करी । मानो पत्थर रची किषों चित्राम चितरी ॥४॥ चारि 'घातिया घात ज्ञानमें लोक निहारा ॥दे जिन मति उपदेश भव्योंको दुःखसे टारा । बहुरि अधातिया तोड़ समयमें शिवपद पाया। अलख अखंडित ज्योति शुद्ध चेतनि ठहराया ॥५॥ काल अनन्तानन्त नैसे के तैसे रहिहैं । अविनाशी अविकार अचल अनुपमसुख लहिहै । ऐसी भावना भाय ऐसे बों कार्य करे हैं। साही होय दुष्ट काँको हरे हैं ॥६॥ जिनके उर ३ अपि । कंचुकी-सर्पकी कांचली। जैसे सर्प काचलीको पुरानी निकम्मी समझकर त्याग करता है इसी तरह धर्मात्मा पुरुष परिग्रहको भति पापका मूल जानकर त्याग देते हैं। . . - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह - 1: विश्वास वचन जिन शासन नाहीं । ते भोगातुर नकों माहीं ॥ सुख दुख. पूर्व विपांक 'अरे मत ● कठिनः १ कर मित्र. जन्म मानुषका लीया ॥७॥ ताहि वृथा मत खोय जो आपा पर भाई ॥ गये न मिलती फेर . समुद्रमें डूबी राई । भला नर्कका बास सहित जो सम्यक पाता ॥ 1 • . • [ २४३ होय सहें दुख कल्पै नीया । बूरे बने जो देव नृपति मिथ्या मद माता ॥ ८ ॥ ना खर्च धन होय नहीं काहसे लरना । नहीं दीनता होय नहीं घरका परि हरना ॥ सम्यक, सहज स्वभाव आपका अनुभव करना । या विन जप तप व्यर्थ कष्टके माहीं परना ॥ ९ ॥ क्रोड़ बातकी बात अरे बुधजन उर घरना । मन वच. तन शुचि होय गहो जिन वृषका शरणा | ठेरिसौ पंचास अधिक 1 शुक्ल वैशाख. ढाल षह शुभ उपजानो ॥ नव सम्वत् जानो ॥ तीन १० ॥ . - इति छह ढाला पण्डित बुध जनकृत सम्पूर्णम् । (२६) निशिमोजन कथा | ( कविवर भूधरदासजीकृत ) दोहा - नमो शारदा सार बुब, करें हरें अघ लेप । निशभोजन मुंजन कथा, लिखूं सुगम संक्षेप ॥१॥ ।।" जम्बूद्वीप जगत् विरूपात् । भरतखंड छबि कंहियन नांत ॥ 4 - तहां देशंकुरु नांगल नाम । हस्त नागपुर. उत्तम ठाम ॥२॥ यशोभद्र भूपति गुण बास । रुद्रदत्त द्विम मोहित तास ॥ आश्वनि; मास तिथि दिन आराम ! पहली पड़वा कियो सराप ॥ २३ ॥ बहुत Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] जैन सिद्धांत संग्रहः विनयसः नगरी तने । न्योतः निमाये, ब्राह्मण धने ॥ वानः सात सबद्दीको दियो । आप विम भोजन नहि कियो ||४|| इतने रॉक पठायो दास । मोहित गयो रायके पास 11. राम कान कछु ऐसो भयो । करत करावत सब दिन यो ॥ ५ ॥ निशिमें नारि- रसोई करी । चूल्हे ऊपर हांड घरी ॥ हींग लैन उठ बाहर गई: यहां विधाता औरहि उई ॥ ६ ॥ मैडक उछल परो तामाहिं । विभि तहां कछु भानो नाहिं | बैंगन छोक दिये तत्काल । मैडक सरो होय बेहाल ॥ ७ ॥ तबहु विम नहिं आयो धाम । घरी उठाक रसोई ताम ॥ पराधीनकी ऐसी बात । औसर पायो आधी रातः ॥८॥ सोय रहे सब घरके लोग. आग न दीवा कर्म संयोग | भूखो प्रोहित निकस प्रान । ततक्षण बैठो रोटी खान | ९|| बैंगन, भेले लीनो पास । मैडक मुंहमें आयो तास ॥ 1 1 दांतन. तले चबो: · नहि जब । काद घरो थाली में तबै ॥ १० ॥ प्रात हुए मैंडक' पहिचान । तौमी विप्र न करो गिलान ॥ थिति पूरी कर छोड़ी' काय || पशुकी योनि उपनो आय ॥ ११ ॥ सोरठा- घूघू कागे बिलावै सःबर गिरैष पखेरुवा । सुर्कर अजगर भाव, वार्ष गोई मलमें मंग॥ १२॥ दश भव इहि विघ थाय, दस जन्म नरकहि: ग्रयां । दुर्गति कारण पाय, फलो पाप वट बीजवत् ॥ १३॥ .. १४... चौपाई - देशनाम करहाट सुखेतः । कौशल्या नगरी छबि देत ॥ तहां संग्राम शूर भूपाल । बिना युद्धं बीते रिपुनाल ॥ १४: रामा मोहित लोमस नाम । तार्के तिय लोमा अभिराम ॥ तिनकैः Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । ' . [१४५' रुद्रदत्तबर वही महीदत्त मुत. उसनो' सही ॥ १९ ॥ खोटी: संगतिके बश होय । सबै कुलक्षण.सीखो सोय। सबै कुव्यसन करैन कान । बहुत द्रव्य खोयो बिन ज्ञान ॥१६॥ मात पिता . तब दियो निकास !. मामाके घर गयो निरास ॥ तिन भी तहां, न आदर कियो । शीश फेर पा आगे दियो ॥१७॥ मारगके वश पहुंची सोय । जहां बनरसको बन होय ॥ भेटे साधु अशुभ अवसान | नमस्कार कीनो तन मान || |पूंछ महीदत्त सिर नाय । मैं क्यों दुखी भयो मुनिराय ॥ पर उपकारी मुनिमन सही। पूरब जन्म कथा सब कही ||१९| निशमोजन ते विरघो पाप ।'तांत भयो जन्म संताप ॥ फिर तिन दियो धर्म उपदेशजति बहुर न होय कलेश ॥२०॥ गुरुकी शिक्षा ग्रह व्रत लये। . मनके दुक्ख दूर सब गये ॥ कर प्रमाण आयो निज गेह । मात पिता अतिकियो मनेह ॥१॥ स्वजन लोक मन अवरज भयो। देख. सुलक्षण सत्र दुख गयो । राना बहुत कियो सनमान । भयोविष सुत सब सुख मान ॥१॥ बढ़ी संपदा पुन्यसंयोग । छहों कर्म साधे पुनि योग । कियो देव मदिर बहु भाय । सुवरणमय प्रतिमा पधराय ॥ २६ ॥ धर्म शास्त्र लिखवाए जान। बहुबिध दियो सुपात्रहि दान ॥ ऐसे धर्महेत धन वोय । उपजो ' १३ बड़का वीज जरासा होता है और उसके बोनेसे पेड़का विस्तारं बहुत ही बड़ा होजाता है। यही हाल पापा है, जो करते वक्त तो अपने को बड़े चलाक समझकर खुश होते है और जब भोगना पड़ता है, नरकों निगोदोंका दुख तब रोते है ! याद करते हैं ! हाय ! मैंने ऐसे पाप क्यों करे, पतु 'फिर पछताये होत क्या चिड़ियां चुन गई खेत ॥ - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] जैनसिद्धांत संग्रह । बिसुख बरते नित अंत अच्युत सुर होय ॥२४॥ बद्रि आव जहां भोग विशाल । सुखमें ज्ञात न जाने काल । थित अवसान तहां तै, चमो । भरतखंड सुमानुष भयो ||१९|| देश अवंती नगर उजैन । पिरथमिल रामा बहुसेन || प्रेमकारिणी राणी सती । तिनके पुत्र भयो शुभमती ॥ २६ ॥ नाम सुधारस परम सुमान रूपवंत गुणवंत महान । यौबन बैस विकार न कोय । भोग 1 सोय ॥२७॥ धर्मकथारसरागी सदा । गीत निरत भावै नहिं ख़ुदा । एक दिना बाड़ी में गयो । बनविहार देखन चित दियो. ॥ २८ ॥ तहां एक जो वृक्ष महान । देखो सघन छांहि छवि: चान || शाखा प्रतिशाखा बहु जास । बहु विधि पंछी पथिक निवास ||२९|| वन विहार कर फिरियो नवै । वज्र दो तरु देख्यो तबै ॥ उर बैराग थयो तिहुकाल । जानो अथिर जगसको ख्याल ॥३०॥ जो नगमें उपजे कछु लाय । सो सब ही थिर रह न कोय । विघटत चार लगे नहीं तास । तन धनकी सब झूठी आस ॥१ ॥ काळ अगनि नगमें लहलहै । सुके तृण सम सबको दहै | यह अनादिकी ऐसी रीत । मोहि उदय समझे विपरीत ||३२|| यह विधि बुद्ध यथारथ भई । परमारथ पथ सन्मुख ठई। राजभोगसों भयो उदास । निस्टह चित्त गयो गुरु पास ॥ ३३ ॥ सतगुरु साख योगपथ लियो । इच्छा छोड़ 1 घोर तप कियो || ध्यान हुताशन हिरद नगी । समता - पवन पाय जगमगी ॥ ३४ ॥ कर्म काठ दाहे बहुभेव । भयो मुक्ति अजरामर देव ॥ .. आतमते परमातम भयो । आवागमनरहित थिर थयो ॥ ३५ ॥ ३१ विघट - विनास होना, विलाय जाना बिगड़ना । ३४ । हुताश-भक्ति । 3 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । ।१४ रजनी मुंजनकथा बरणई । यथा पुराणे समापति भई ॥ पापधर्मको फल यह भाय। भली लगै सो कर मन लाय ॥ ३६॥ सोरठा-प्रगट दोष अविलोय, निशमोनन करिये नहीं। - इस भव रोग न होय, परमव सब सुख संपने ॥३७॥ छप्पय-कीड़ी बुध वलहरै कंपगद करै कसारी । मकड़ी कारण पायकोढ़ उपनै दुख भारी ॥ जुआं जलोदर ननै फांस गल विथा बढ़ावै । वाक करें सुरमंग वमन माखी उपजावे ॥ तालचे छिंद्र वीच्छु मखत और व्याधि बहु करहिं थल । यह प्रगट दोष निशमशनके । परमव दोष परोक्षफल ॥ ३८॥ . दोहा-जो अघ इहि दुखंकर, परमव क्यों न करेय ।। इसत सांप पीड़े तुरत, लहर न क्यों दुख देय ॥ ३९॥ सुवचन सुनके क्रोध हो । मूरख मुदित न होय | मणिघर फग फेरे सही, नदी सांप नहिं सोय ॥ ४० ॥ सुवचन सत्गुरुके वचन, आर . न सुवचन कोय । सत्गुर वही पिछानिये, ना डर लोम न होय . ॥ ४१ ॥ भूधर सुवचन सांभलो, स्वपर पक्ष करवान । सावुत महामणी मिले, तोड़ेसे गुण कौन ॥ १५ ॥ ॥ इति श्रीभूधरदासकृत निशिमोजनकथा सम्पूर्णम् ॥ . . . . - ३० वमन-रटी घरदमाखी खा जानेसे होती है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] जनसिद्धांतसंग्रह। । (२७) चौवीस दंडका दोहा-बन्दो वीर सुधीरको, महावीर गंभीर । वर्द्धमान सन्मति महां, देवदेव अतिवीर ॥१॥ गल्यागत्य प्रकाश जो, गत्यागत्य वितीत । अद्भुत अतिगतसुगति जो, जैनेश्वर नगजीत ॥ २॥ नाकी भक्ति विना विफल, गए अनंते काल । अगिनत गत्यागति धरी, घटो न जगननाल ॥ ३ ॥ चौबीसौ दंडक वि. घरी अनंती देह । लख्यो न निनपद ज्ञानबिन, शुद्ध स्वरूप विदेह ॥१॥. जिनवाणी परसादत, लहिये आंतमज्ञान । दहिये गत्यागत्य सव, गहिये पद निर्वाण || II चौबीसौ दंडक तनी, गत्यागति मुनि लेहु। . : . सुनकर विरकत भाव घर, चहुंगति पानी देहु ॥६॥ चौपाई-पहिलो दंडक नारिफ तनो। भवनपती देस दंडक भनौं । ज्योतिस व्यंतरे स्वर्ग निवास । थावर पंचें महादुख रास ॥ ७॥ विकलत्रय अरु नरे तिर्यछ। पंचेंद्री धारक परपंच ।। यह चौवीस दंडक कहे । अब सुन इनमें भेद जु लहे || नारककी गति आगति देय । नर तिर्यच पंचेंद्री जोय ॥ नाय असैनी पहला बगै । मन विन हिंसा कर्म न पगै॥ ९॥ सरीसर्प दूजे लौं जाय। अरु पक्षी तीजे ली थाय ॥ सर्प जांय चौथे लौं सही । नाहर पंचम आगे नहीं ॥१०॥ नारी छटे लगही 'माय । नर अरु मच्छ सातवें थाय ॥ एतौ नारक आगत कही। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [१४९ अब सुन नारककी गति सही ॥१६॥ नरक सातवेंको जो जीव । पशुगति ही पावै दुखदीव ।। और सब नारक मर नर पहुँ। दोउ गति आवै पर वसू ॥१९॥ छटेको निकसैं जु कंदांप। सम्यक् सहित श्रावगनिःपाप | पंचम निकसौ मुनिहूं होय । चौथेको केवलिहू कोय ॥ १३ ॥ तीने नर्कको निकंसो नींव तीर्थकर भी हो नगपीव ॥ यह नारककी गत्यागती । भाषी जिनवाणीमें सती ॥१४॥ तेरह दंडक देवनिकाय । तिनको भेद सुनों मनलायं । नर तियेच पंचेंद्री विना । औरनको नहिं सुरपद गिना ॥ १५ ॥ देव मर गति पांच लहाहि । भूजल तरुवर नर तिर माहि ॥ दूजे सुरग उपरले देव । थावर है न कहो जिनदेव ॥१६॥ सहस्त्रारतें ऊंचे सुरा । मरकर होवें निश्चय नरा । भोगभूमिके तिर्यंच नरा । दूजे देवलोकः परा ॥१७॥ नाय नहीं यह . निश्चय कही। देवन भोग भूमि नहिं गही ॥ कर्मभूमियां नर अरु ढोर । इन बिन भोगभूमिकी ठौर ॥ १८ ॥ जाइन ताते आगति दोई । गति इनको देवनकी होई ॥ कर्मभूमि या तिर्यग बुद्ध । श्रावकवत धर वारम शुद्ध ॥१९॥ सहसार ऊपर तियच ॥ जाय नहीं.तज है परपंच । अव्रत सम्यकदृष्टी नरा ॥ वारम ते ऊपर नहि धरा ॥२०॥ अन्यमती पंचागिनि साध । भवनंव्यक से जाह न वाद ॥ परिव्राजक त्रिदंडी देह । पचम पर न उपन . नेह ॥२१॥ परमहंस नामें परमती ॥ सहसार ऊपर नहिं गती। मोख न पावें परमत मांहि । जैन बिना नहि कर्म नसांहि ॥२२॥ श्रावक आर्य अणुव्रत धार। बहुरि श्राविका गण अविकार it सौलह स्वर्ग परै नहिं जाय । ऐसो मेदं कहें जिनराय ॥ २३ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धावसंग्रह। द्रव्य लिंग धारी जे जती | नव ग्रीवक ऊपर नहिं गती ॥. नवहि अनोचर पंचोचरा ।। महामुनि बिन और नहिं धरा ॥ २४ ॥ कई वार जीव सुर भयो । पणके इक पद नाहीं गह्यो । इंद्र भयो न शचीहू भयो। लोकपाल कबहूं नहीं थयो ॥ २५॥ लोकांतिक . हूवो न कदापि । नहीं अनोत्तर पहुंचो आप । ए पद पर बहु भवनहिं धरै । अल्प काल में मुक्ति हि वरै ॥ १६ ॥ है विमान सरवास्थ सिद्धि । सबतें ऊंचो अतुलस रिद्धि ॥ ताके सिरपर है शिवलोक । परै अनंतानंत अलोक ॥ २७ ॥ गत्यागत्य देव गति भनी । अब सुन भाई मनुप गति तनी। चौवीसी दंडकके माहि। मनुप नाहि यामैं शक नाहि ॥२८॥ मोक्षहू पावै मनुष मुनीश ! सकल घराको जो अवनीश || मुनि विन मोक्ष नहीं कोऊ वरे। मनुष विना नहिं मुनिको तरै ॥ ९॥ सम्यकदृष्टि ने मुनिराय। भवनल उतरें शिवपुर जाय । नहां जाय अविनाशी होय ॥ फिर पछि आवें नहिं कोय ॥३०॥ रहे शाश्वते शिवपुर माहि। मातम राम भयो सत नाहिं ॥ गति पर्चास कहीं नरवनी। आगति फुनि बाईसहि भनी ॥१॥ तेजकाय अरु वाई जुकाय । इन बिन और सबै नर थाय । गति पचीस आगत बाईस ॥ मनुषतनी जो भाषी ईस ॥३२॥ ताहि सुरासुर आतमरूप ॥ ध्यावें चिदानन्द चिद्रूप ॥ तौ उतरो भवसागर भया। और न शिवपुर मारग लया ॥२९॥ यह सामान्य मनुष्यकी कही। अब मुनि पदवीधरकी सही। तर्थिकरको दोय आगती । स्वर्ग नरकतें आवें सती ॥३४॥ फेरिन गति धार नगदीस । जाय विराज नगके सीस ॥ चक्री अर्धचक्री अरु हली । सुर्ग लोकतें आवें बली ॥१९॥ इनकी आगति, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत संग्रह । [ १५१ एक हि जान । गतिकी रीति कहूं जो वखानि । चक्रीकी गति • तीन जो होय । सुरग नरक अरु शिवपुर जोय ॥ ६६ ॥ तपं धारै तौ शिवपुर जांय । मेरे राजमें नरकहि ठांय | आखरि मैं होंय पद निर्वाण । पदवी धारक बड़े प्रधान ॥२७॥ बलभद्रनको दोयहि गती । 'सुरंग जांहिं के है शिवपती ॥ तप घारें एशिय भया । मुक्ति पात्र ये श्रुत मैं रा ॥ १८ ॥ अर्द्धचक्री को एकै ་ | I भेद । नारक जांय लहैं अति खेदः ॥ राज मांहि जो निश्चय मर । तद्ध ं मुक्तिपन्थ नहि घरें ॥ १९ ॥ आखिर पार्ने जिनवर लोक | 'पुरुष शलाका शिवके थोक || ये पद पाए कबहुं नहिं जीव ॥ ये पद पाय होय शिव पीव ॥ १०॥ और हु पद कइयक नहिं हे | कुलकर नारदपद हु न लहे || रुद्र भए न मंदन नहीं गए । जिनवर मातपिता नहिं थए ॥ ४१ ॥ ये पद पाय जीव नहीं रुलै । थोड़ेहि दिन में जिन सम तुलै ॥ इनकी आगति श्रुतमें जांनि । गतिको भेद कहूं जो वखांनि ॥ ४२ ॥ कुलकर देव लोक ही गर्दै । मदन सुरग शिवपुरको लहैं । नारद रुद्र अधोगति नाय । लहैं कलेश महा दुःख पांय || ४६॥ जन्मांतर पार्वै निरवान | बड़े पुरुष ने सूत्र प्रमान ॥ तीथकरके पिता प्रसिद्ध | स्वर्ग जांयकै होहें सिद्ध | ४४ ॥ माता स्वर्ग लोक ही 1 जां । आखिर शिवपुर लोक लहांय। ये सब रीति मनुषकी कही । अब सुन तिरयंचन गति सही । ४१ । पंचेंद्री पशु मरण कराय । चौवासौ दंडकमै माय ।। चौवीसौ दंडकतै मरे । पशू • ४० पी - स्वामी ! ४३ मदन- कामदेव | ४४ जन्मांतर थोडे भव पीछे मोक्ष पावे है । ४७ पथ- रास्ता । ४९ काय देह | Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२1 नैनसिद्धांतसंग्रह। होय तौ नाह न करे ॥४६॥ गती आगती कही चौवीस ।। पंचेंद्री पशुकी जिन ईस । ता परमेश्वरको पथ गहौ । चौवीसों दंडक नहिं लहो ॥ १७ ॥ विकलत्रयकी दश ही गती । दश आगति कहीं नगपती ॥ पांचों थावर विकलजु तीन । नर तिथंच पंचेंद्री लीन ॥ १८॥ इनहीं दशम उपजे जाय । पृथिवी पानी तरवर काय ॥ इनहीं ते विकलत्रय आय | इस ही दसमें जन्म कराय ॥ १९॥ नारक विन सब दंडका जोय । पृथ्वी पानी तरु वर सोय ॥ तेज वायु मरि नव मैं जाय। मनुष होय नाही सूत्र कहाय ॥५०॥ थावर पच विकल-त्रय ठौर । ये नवगति भाष मद मोर ॥ दसते आव तेन अरु वाय । होय सहीगामें मिनराय ॥५१॥ ये चौईस दंडके कहे । इनकू त्याग परमपद लहे ॥ इनमें स्लैम जगको भाव । इनते रहित सुत्रि भुवन पीव॥५३॥ नीव ईशमैं और न भेदाएकरमी वे कर्म उछेदः।। कर्मबंध नोलो नगनीव | नाशे कर्म होय शिव पीव ॥ ५३॥ दोहा-मिथ्या अव्रत योग अर, मद परमाद कषाय । इंद्रिय विषय जु त्याग ये, अमन दूरि है जाय ॥ जिन विनगति भवनै धरी, भयो नहीं सुर झार । जिन मारग उर धारिये, पइये भवदधि पार ॥१५॥ जिन मन सब परपंच तन, बड़ी बात है येह । पंच महाव्रत धारिकै, भव जलको नलदेह ।। ५६ ॥ अंतर करणजु सुध है, जिनधर्मी अमिराम । . भाषा कारण कर सकू, मापी दौलतगम ॥ १७ ॥ इति चौबीसदंडक सम्पूर्णम् ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनसिद्धांतसंग्रहः। ।१५३ (२८) कुगुरु; कुदेव, कुशास्त्रकी भक्तिका फल। अन्तर बाहर ग्रन्थ नहि, ज्ञान ध्यान तप लीन । सुगुरु विन कुगुरु नमें. पड़े.नक हो दीन ॥ १॥ दोषरहित सर्वज्ञ प्रभु हित उपदेशी नाथ । श्री अरिहंत सुदेव , तिनको नमिये माथ ॥ २॥ रागद्वेष मलकर दुखी, हैं कुदेव जगरूप ।। तिनकी वन्दन जो करें, पड़ें न भवकूप ॥ ३ ॥ आत्मज्ञान वैराग्य सुख, दया क्षमा सत शील । भाव नित्य उज्जल करै. है सुशास्त्र भवकील ॥१॥ रागद्वेष इन्द्री विषय प्रेरक सर्व कुशास्त्र । तिनको जो वंदन करे, लहै नर्क विटगान ॥ ५ ॥ (२९) खोटे कोका फल । मद्य, मांस, मधु भक्षण करनेका फलजो मतवारे होत ह, पीय मद्य दुख दाय । उन्है पिलावत नरकमें, तांबों लाल तपाय ॥ १॥ और चढ़ावत शूल पै, नरक निवासी कूर । इस भव परभव मद्य है, दुखदाई भरपूर ॥२॥ जिन अंगन सों यह कर, औरनके तन खण्ड । तिन अंगन को नरकमें, करहिं असुर शतखण्ड ॥ ३॥ मांस प्राणि भंडार है, निर्दय खात सदीव।' तन रोगी कर मरण है, होवे नारकि जीव ॥ ४ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] जैनसिदांतसंग्रह। . मधु भक्षणके पापत, परै नरकमें आप। मुंजै दुख चिरकाल लो, लहै अधिक सन्ताप ॥५॥ मधु भक्षण तें नीवकी, दया दूर भनि जात । पाप पंक संयोगते, सम्यग् दरश नशात ॥६॥ हुक्का, गांजा, भांग पीनका फलअगनीको अंगार ठे, गांन तमाखू चप्स । घरी भरी पीयी चिलम, हुसपै घर हर्ष । ते नरकनिकी भूमिम, उपजें घाणत अघोर । तांवो खूब तपायक प्यावे असुर कठार ।। आत्मघातका फलआतमधातीको लखा, कैसो होत हवाल । हनवेको हुंकरत है नारकि अति विकराल | मनुष्यघातका फलपि दे अयवा और विधि, करके क्रोष प्रचण्ड । जिन मानुष मारे यहां, तिनके है शतखण्ड । गर्भपातका फलकामी हो मिसने करो, परनर ते व्यभिचार । गर्म भयो तब लाज वश, कियो पात अधकार ।। तिनकी देखो नरकमें, होत दशा है कौन । ले त्रिशूल तन छेदिया, हाय २ दुख मौन । मेंढा वधका फलभेदाप जिसने यहां छुरी चलाई क्रूर । है करोत काटें लखो, विनको दुख भरपूर ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनसिद्धांतसंग्रह। म १९५ जलचर मारनेका फल-... अमि कुंडमें रोपके, गलमें सकल डार। . दंड खड़गले हाथमें, मारे तहं भयकार ॥ निर्दयी जाल बिछायके, पकड़ मच्छ अतिदीन । चरित ताको हो मगन, पड़ते नर्क कमीन ॥ पक्षी मारनेका फलपंखी मार पडयो नरक, कूम्भी पाकन मांहि । ऊपर कौए नोंचते. भीतर पीड़ा पाहिं ।। शिकार करनेका फलहरिण शशादिक निवल मे, जंतु दीन अति भूर । तिनसे दिल बहलावको, करत शिकार जो कर ॥ 'तिन पुरुषनकी नरकमें, लखो दुर्दशा हाय । व्याघ्रादिकं हिंसक पशू, नोंच २ के खाय || कसाई कर्मका फलकरें कसाई कूरने, हिंसा कर्म अघोर । कुम्भीमें ते ऊपनें, करें भयंकर शोर ।। . घुना धान्य व्यवहारका फलवीघा अन्न अशोधकें, जो कू? दिनरात । अर खावें होकर मगन, नर्क महा दुख पात ॥. रात्रिको भट्टी जलानेका फलभट्टी रात्रि जलायकें, करें विविध पकवान । जीव अनंता गिर मरे, बांधे पाप : अजान ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | नर्क पड़त दुःख बहु सहत, जलत कढ़ाई बीच अर्द्ध दग्ध होकर करें, हाय हाय ते नीच ॥ परको धनकरनेका फलपरको बंधन फोन । बांघे पाप अहीन ॥ अशुभ कर्मके उदयते. कुगति उहें ते जीव । छेदन वंदन ताड़ना, बेधन सहें सदीच ॥ परको ताड़नेका फल - निज कुटुम्बके हेतु जिन, माया कीन्ही अति घनी लाठी मूसल विकट अति, चाबुक आदि प्रहार | निर्दय हो तन पीड़ते बांधत पाप अपार ॥ पड़त नर्क संकट सदें, लहें मार विकराल | रोबत हैं रक्षक नहीं, बीतत बहुतहिं काल ॥ इन्द्रिय छेदनका फर हाय पाप में क्या किया, छेदा मानुष चिन्ह | नर्क पड़ा असहाय हो, सहत दुःख हो खिन्न ॥ अधिक बोझ लादनेका फलचढ़ गाड़ी रथपै यहां, लादो बोझ अपार । तिनकी नरकनिमें दशा देखो हृदय विचार || अति कठोर पाथरिनकी, भूमिमाहिं रथ जोर । बैल बनाके जोतके, मारें मार कठोर ॥ अन्न पान निरोधका फलचालक वृद्ध पशु वधू, जो अपने आधीन । खानपान कम देत हैं, समय टाल अति दीन ॥ ENTE GERMAND Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत संग्रह | : इस हिंसा के पापतें पड़े नर्क दुःख पात । नोरकि बहुविध मारते, देवें छाती लात ॥ . अनछानें जलपानका फल · अनछांनो पानी पियो, तिनकी गतिं लख यार । उलट्यो कर शिलमें घर्यो तापै मुद्गर मार ॥ : रात्रिभोजनका फल 1 हंस हंसत निशिमें भखो, कन्दमूल मद मांस नरकनिमें देवें तिनहिं बुरी वस्तुको ग्रास | .. झूठ बोलनेका फल --- झूठ वचन बोले घने, कूर कपटकी खान । तिनकी जिव्हा असुरगन, काटें छेदें जान ॥ विश्वासघातका फल देय भरोसा. जिन यहां. कीना कपट अपार । नर्क पड़ें नारकि तिन्हें, पटकें मारें मार ॥ झूठी सौगंध खाय ने, चुगली करें नरकनमें जोरावरी, भूपै देत व्यापार में झूठ बोलनेका फलवस्तु खरीदी अल्पमें, कहे अधिक हमदीन | घोर झूठ कहि पापले, पहुंचे नर्क कमीन || झूठी गवाहीका फल देत गवाही झूठ जो अपने स्वारथ काज | पाप बांध नरकहिं पड़े, करते आत्म अकाज ॥ 0 · बिगाड़ | पछाड़ || [१५७ Categ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। लोह मई कंटकनिकी, शय्याप पौदाय । मार खड़ग स्वहस्तले हाय ! हाय ! विनाय ॥ अधिकारके गर्वका फल-- दगा द्रोहकरि जिन यहां, रान सत्वको पाय । दण्डित कोने दीनने, नर्कन पहुंचे जाय ॥ अगनि माहि तिनको तहां, बैठावें दुखदाय । और कराती लेयके, चीरें मस्तक हाय॥ खोटी निंदाका फल । सम्बनकी चुगली करी. अर निन्दा अति घोर । नरक माहिं ठिस पापत. परसत भूमि कठार ।। मार पड़त वहां बहुत विषि देख थरहर आप । हाहा करि तहां कहत हैं, अब न करेंगे पाप ॥ चुगली आदि पापोंका फलजिन चुगली कीन्ही यहां, किये घनेरे पाप । नरक गते देखलो काटें विच्छू सांप ॥ विन देखी अरु विन मुनी, करें पराई यात । पापपिंड ने मरत है, ते चण्डाल कहात ॥ पापोपदेशका फलदे पदेश सुपापके आप करावे पाप। कि लापत स्वान हैं, देवें बहु संताप ॥ खii. दस्तावेज बनानेका फलपरके ठगने कारण, झूठी लेख लिखा। तीव्र लोमसे नक बा, अधिकहिं दुःत लहाहि । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। घसेहर कमती देनेका फल.-.. कर विश्वास सुद्रव्य बहु, राखा- कोई पास : .. 'झूठ बोल कमती दिया, सहे नर्क बहु त्रास ॥ गुप्तमंत्र प्रगट करनेका फल- . दो.जन. बातें करत हैं, देख सनसे कोय.। कर प्रकाश हानी करत, पड़त नर्क दुःख होय ॥ चोरीका फलरस्ते चलते जिन्होंने, लूटे लोग अपार । 'नरक जाय कोल्हू पिले, और सही बहु मार ॥ चारीकी प्रेरणाका फलचोरी,मिन दूसरनते. करवाई पर प्यार । । देखो मुद्गर मारतें, नरक माहि बहु बार ॥ चोरीका माल लेनेका फलजो चोरीके मालको, जानबूझके हि । उल्टे लटकावत तिन्हें, और त्रास बहु देहिं ।। खोटा न्याय करनेका फलबैठ भूप दरवारमें, न्याय धर्म कर हीन । बिन अपराधी दण्डिया, पड़ा नर्क हो दीन ॥ उलट्यो मस्तक रोपके, रस्सी कस काय । ताऊपर मुद्गरनकी, मार पड़े अधिकाय ॥ .'चोखी वस्तु, खोटी वस्तु मिलाके बेचनेकाफ: चोखीमें खोटी मिला, कह चोखीका दाम | वेचत पाप कमाइया, पड़े नर्क दुःखधाम ॥.. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAW १६०] जैनसिद्धांतसंग्रह। छेदत शिरं भाला लिये, दिखा काय विकराल । पाप कियो भव पीछले, अब उदयागत काल । 'हीनाधिक तोलनेका फल । कम देना लेना अधिक, कपट रचा घर लोम । तीन पाप ते नरक ना, सहन कर .चित क्षोम ।। धकषकात आगी पच्यो, हाय हाय चिल्लाय । वाप ले मुदर कठिन, मारें दया बिहाय ॥ तीर्थ भण्डार और देव द्रव्य खानेका फल श्री जिन सेवा कारण तीर्थ धर्मके कान । पैसा रुपया द्रव्य गो, रक्षक नैन समाज ॥ रक्षक यदि मक्षक भये. तीन लोभ लहि- पाप.। नक नाय बहुकाल लों, भुगतै बहु ‘संताप ।। परस्त्री संगका फलनिज नारी अर्धाङ्गिनी, दुख सुखमें सहकार । तासों प्रेम निवारके, डोलत परतिय द्वार ।। भोग परस्त्री रक हो, घोर नर्कमें जाय। तप्त लोहकी पूतली, तिनते दुई .सटाय ।। वेश्या कर्मका फल- . वेश्या विषय बिकारसे कर व्यभिचार विहार । नरक मूमिमें उपलकें, पावत कष्ट अपार ॥ मायाचारी हो यहां, धन लटैः भरपूर । सो वेश्या पड़ नरकमें, सई दुःख अति क्रूर ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांत संग्रह | कामचेष्टा करनेका फैल कीन्ह बहुत घिनावनैः कामरूप अविचार । :: तिनकी देखो वेदना; नरकनिकी - भयकार | कामातृष्णाका फल --- निशदिन काम कथा करें, घरै चित्त अंतिकाम !न्याय अन्याय गिने नहीं, पड़े नरकके धाम ॥ रज्जुपाशते. बांधिके, अग्नि चिताने डारि । सहते पीर घिनावनी, जलत अंग दुखकारि ॥ व्यभिचारिणी स्त्रीका फल 1 [ • मोहित है पर पुरुष संग, कीनो जो व्यभिचार । ar नारीकी दशाको देखो सुजन बिचार ॥ अग्नि शिखा विच डारिके, छेदत अंग उपङ्ग 1 देत दुःख नहिं कह सकत, ऐसे करत कुढङ्ग ॥ अनंगक्रीड़ा करनेका फल - पुत्र जननके कारणे प्रगट कामके अंग । तिन्हें छोड़ काम घजन, राचें और कुअंग ॥ महां पापसे नर्क जा होते नित्य अधीर । अंग छेद पीड़ा अधिक, सहते विक्रिय शरीर ॥ अति आरम्भका पल होय लोलुपी जगतनें, बहु आरम्भ बढ़ाय । हिंसा कीनी ऊपने, ते नरकनिमें नाय ॥ दान अं रायका फ. देत देखके दानको, दुखी हेय जो भूल । नरकनिमें ताकी दशा देखो मुखमं सूल ॥ · १६९, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] जैनसिद्धांतसंग्रह। सप्तव्यमनका फलजुआ चोरी मांस मद, वेश्या रमण शिकार । पररमारत व्यसन ये, सात सेय दुखकार ॥ . पड़े नरकम नारकी, तांबो प्यावे ताय । मार मारके खड्गसे, करें दुर्दशा आय ॥ पतिको कष्ट देनेका फल- . में नारी अति दुष्ट चित, स्वामीको दुख देय । तीव्रमावतें नरक लहि, बहुतहिं कष्ट सहेय ॥ पतिकी आज्ञा न माननेका फलहितकारी पतिके वचन, करै निरादर जोय ।। नर्कवास भयभीत लहि. मार घाड़ तहं होय ।। अपनी मौतक बचेको दुःख टेनेका फलदया रहित में नारि हैं, बालक मौत निहार । द्वेष बुद्धिसे न दे प'चे नर्क मंझार ॥ छेदन भेदन दुख . तहं पावत दिन रैन । जो परको दुख देत है. कैसे पावै चैन । माता पिताकी आज्ञा भंग करनेका फल जगमें हितकारी बड़े, मात पिताके चैन । करें निरादर दुष्ट सुत, पावें नर्क अचैन । माता पिताके द्रोहका फलमात पिताने मोहवश, पाले पोषे पूत । ते नारिन कश परे, दुखदाई भये ऊत ।। तिनकी छाती लात दे, भाला मारे शूर । मात पिताके द्रोहा, पावें दुःख भरपूर ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जैन सिद्धांनसंग्रह | (३०) मोहरस स्वरूप । bha भववन भटकत पार्थक जन, हाथी काळं करालं । पीछे लागो हो दुखित, पड़ो कूप विकराल ॥ १ ॥ पकड़ शाख वट वृक्षकी, लटको मुंह फैलाय । 8 ऊपर मधु छत्ता लगा, पड़ी बूंद मुंह आय ॥ १ ॥ निशि दिन दो चूहे लगे, काटत आयु डाल नीचे अजगर फाड़ मुख हे निंगोद भव जाल ॥ ६ ॥ चारं सर्प चारों गति, चारों ओर निहार | । " ... १६३ है कुटुंब माखी अधिक चुंटत तन हरबार ॥ ४ ॥ श्री गुरु विद्याधर मिलें, देख दुखी भव जीव । हो दयाल टेरत उसे मत सह दुःख अतीव ॥ ५ ॥ चन्द मधु है विषय सुख, ताके लालच काज | मानंत. नहि उपदेशको, कर रह्यो आत्म अकाज ॥ ६ ॥ आयु डाल कुछ कालमें कट जावेगी हाय । 'नीचे पड़ बहुकाल लों, भुगते फल दुखदाय ॥ ७ ॥ " (३१) लेश्या स्वरूप । : माया क्रोध रु लोभ मद. है कषाय दुखदाय । तिनसे, रंजित भात्र जो, लेश्या नाम कहाय ॥ १ ॥ षट् लेश्या जिनवर कही, कृष्ण नील कापोत | तेज़ पद्म छट्टी शुकल, परिणामहिं तें होत ॥ २ ॥ " कठियारे षट् भावघर लेन काष्टको भार । " · - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांत संग्रह - बन चाले भूखे हुए, नामन वृक्ष निहार ॥ ३ ॥ कृष्ण वृक्ष काटन चहे भील जुकाटन लघु ढाली कापोत उर पीठ सर्व फल पद्म चहै फल पक्कको, तोडूं खाऊं शुक्ल चहें घरती गिरे, तूं पक्के निरवार ॥ ५ ॥ जैसी जिसकी लेश्या, तसा बांचे कर्म । श्री सद्गुरु संगति मिले, मनका जावे मर्म ॥ ६ ॥ १६४ ] डाल | माल ॥ ॥ सार । (३२) द्वादशानुक्रेक्षा । (पं. मुन्नालालजी विशारद महरोनी कृत ) उद्बोधन | भवदाहसे संतप्तजनको शांतिकारी भावना | इन्द्रिय विषय तन, भोगसे वैराग्यका भावना || मुनि चित्त प्यारी, कुगति हारी, केयकारी भावना | "मणि" हो निराकुल चित्तभावहु. नित्य बारह भावना ॥ उत्तेजन । हे आत्मन् ! तन, घन विनश्वर क्या तुझे दिखता नहीं ? १ यमसे ग्रसित क्या जीवको, कोई शरण दिखता कहाँ ? २ - क्या है सुखी निश्चिन्त कोई इस दुखद सुख स्वार्थ के साथी स्वजन, क्या दीखते संसार में ? ६ दुख घारमें ? 8 जानता । ५ परद्रव्य तुझसे मित्र हैं तू एक मलमूत्रमय दुर्गंध तनको रूप इनको पना मानता ६ ! Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [१६५ करता निरन्तर योगसे, आश्रव शुमाशुभ कर्मका ! ७ नहिं ध्यान है कुछ भी तुझे, संवर करन व्रत, धर्मका ! ८ में पूर्व संचितं कर्म ते बिन निर्जरा नाही कौ । ९ . समता विना तू नित्य भ्रमता हो दुखी तिहुंलोको । १० सब हैं सुलभ नगमें सु दुर्लम ज्ञान-सम्यक् पावना । ११ सुखकर सुधासम धर्म लख "मणि नित्य भावहु भावना । १९ पारम्बार चिन्तवनधन, विमव, जीवन, राज्य, परिजन, सकल अथिर असार हैं। इन्द्रिय जनित-सुख स्वमवत् क्षण सुखद पुन दुखकार है। यौवन जरासे ग्रसित है 'अरु मोग रोगोंसे भरे। मग इन्द्रजालसमान है "मणि' ! भूल क्यों इसमें परे । (अनित्य) 'छंह खण्डपति अरु इन्द्रका भी पतन नब अनिवार है। तब रोक सक्ता कौन तुझको मृत्युसे, परिवार है॥ जगगहनवनमें कर्म हत जनको नहीं कोई शरण। निजमाव निजको हैं शरण 'मणि" धर्म वा श्री गुरु शरण ॥ २ तिय, पुत्र विन कोई दुखी, तन रोगसे कोई दुखी। 'निर्धन बिना धनके दुखी, धनवान तृष्णासे दुखी ॥ चहुँगति विपतिमय जगतमें “मणि" चाहसे सब हैं दुखी। -तन चाह निन कल्याणमें लागे सदा वे ही सुखी ॥ (संसार) ३ -उत्पत्तिमें अरु मरणमें सुख, दुःख, योग, वियोगमें । यह है अकेला जीव "मणि" दारिद्र, रोग सुमोगमें ॥ . जाता अकेला. नरंकमें सुरसुख अकेला लटता। करता अकेला कर्म अरुं बषता अकेला छूटनाः।। (एकत्व)... Page #160 --------------------------------------------------------------------------  Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतमंग्रह। [१६७ सुरलोक ऊपर मागमें अरु अंतमें शिवलोक है | लोक) १० दुर्लभ्य नित्य निगोदसे पर्याय थावर पावना । दुर्लभ्य त्रस पर्याय पंचेंद्रिय मनुज श्रावकपना ॥ दुर्लभ म आयु, निरोगता, सत्संग संयम भावना । दुर्लभ मिलो यह योग "मणि" लहि "बोधि" कर्म खिपावना जो है अहिंसारूप वह हो धर्म जगत शरण्य है। निज शुद्ध भाव अभिन्न नित्य पवित्र मित्र-अनन्य है। स्वर्धेनु, चिन्तामाणि कल्पतरु धर्मके किंकर सभी। सब इष्ट दायक धर्म है "माग" धर्म मत भूलो कभी। (धर्म) १२ ___ उपसंहार-यह अनित्ये असहाय जगत बहु दुखमय मानो । मत अकेला जीव बन्धु सब अन्य प्रमानो ॥ दह अशुचिं नहिं नेह योग्य आश्रव दुखकारी। सर्वर समता रूप निर्भर शिव सुखकारी ॥ इस चौदह राजू लोक दुलभ निज निधि पावना। जग शरण धर्म ‘माण" चिंतिये इम नित बारह भावना।. (३३) करुणाष्टक मका - (पं. पन्नालाल विशारद महरौनी कृत ) हे त्रिभुवनं गुरु जिनवर, परमानन्दैक हेतु हितकारी। करहु दया किङ्करपर, प्राती ज्यों होय मोक्ष सुखकारी || In हे अर्हन् भवहारी, भव थितिसे मैं भयो दुखी भारी। दया दीन पर कीने, फिर नहिं भव वास होय. दुखकारी ॥२॥ नग उद्धार प्रमो ! मम कनि, उद्धार विषम भव जलसे । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM १६८] जैनसिद्धांतसंग्रह। चार बार यह बिनती करता हूँ में पतित दुखी दिलसे ॥३॥ तुम प्रमु करुणासागर तुम ही मशरण शरण जगत स्वामी । दुखित मोह रिपुसे मैं या करता पुकार जिन नामी ॥ ४ ॥ एक गांवपति भी जव करुणा करता प्रबल दुखित जनपर । तब हे त्रिभुवनपति तुम करुणा क्या नहीं करेंगे मुझपर ॥ ५ ॥ विनती यही हमारी मैटो ससार भ्रमग भयकारी। दुखी भयो मैं भारी तातें करता पुकार बहु वारी ॥६॥ करुणामृत कर शीतल भव तप हारी चरण कमल तरे। रहें हृदयमें मेरे जब तक हैं कर्म मुझे जग घेरे ॥ ७ ॥ पद्मनन्दि गुण-बंदित भगवन् ! संसार शरण उपकारी। अतिम विनय हमारी करुणा कर करह भव जलधि पारी ॥ ८॥ [३४] मंगलाष्टक। श्रीमन्ननसुरासुरेन्द्रमुकुट-प्रद्योतरतप्रभा । भास्वतपादनखेन्दवः प्रभावनांमोधाववत्यायिनः ।। ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः । म्तुत्या योग्यजनैश्च पंचगुरुवः कुर्वन्तु वे मंगलम् ॥ १ ॥ नामेयादि मिनप्रशस्तबदनाः ख्याताश्चतुर्विशति । श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रणो हादशः ।। ये विष्णु प्रतिविष्णुलालघराः सप्तोतराविंशति । त्रैलोक्याभिपदात्रिषष्टि पुरुषाः कुवन्तु ते मंगलम् ॥ २ ॥ ये पंचौषधिऋद्धयः श्रुततपे वृद्धिंगताः पञ्च ये। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। १६९ . . ये चाष्टांगमहानिमित्त कुशलाश्चाष्टौ विधाश्चारिणः ॥ पंचज्ञानघराश्च येऽपि विपुला ये बुद्धिऋद्धीश्वराः। सप्तैते सकलाश्च ते मुनिवराः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ३ ॥ ज्योतिय॑न्तरमावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः। . जम्बूशाल्मलिचैत्यशखिषु तथा वक्षार.रूप्याद्रिषु ॥ इक्ष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे हीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुजोत्तरे जिनमहाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ४ ॥ कैलाशे वृषमस्य निर्वृतिमही वारस्य पावापुरे । चंपायां वसुपूज्य सजिनपतेः सम्मेदशैलेर्हतः॥ .. शेषाणामपिचोर्जयन्ति शिखरे नेमीश्वरस्याहतः । निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ५ ॥ यो गर्भावतरोत्सवे भगवतां जन्माभिषेकोत्सवे । यो जातः परिनिष्क्रमस्य विभवे यः केवलज्ञानभाक् ॥ या कैवल्यपुर प्रवेशमहिमा संपादिता माविता । कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥६॥ जायन्ते जिन चक्रवर्तिबलमृद्भोगीन्द्रकृष्णादयोः। धर्मादेव दियङ्गनाङ्गविलसच्छश्वयशश्चन्दनाः॥ तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दुःख सहन्ते ध्रुवम् । स स्वर्गात् सुखरामनयिकपदं कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ७॥ सप्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते । संपधेत रसायनं विषमपि प्रीति विधत्ते रिपुः ।। देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु बमहे । धर्मादेवं नभोपि वर्षति नगैः कुवन्तु ते मङ्गलम् ॥ ८॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] जैनसिद्धांतसंग्रह। इत्थं श्रीनिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसम्यकरम् । कल्याणेषु महोत्सवेषु सुषियस्तार्थकराणां मुखाः ॥ ये श्रृणवन्ति पठति ते च सुजना धर्मार्थकामान्विता । लक्ष्मीराश्रिय ते विपापरहिता कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ९॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रनत्रय पावनं । मुक्तिश्री नगराधिनाथ मिनपत्युक्तोपवगप्रदः ॥ . धर्मः सूक्तिसुधाधि देव महिता चैत्यालयश्चालकः । प्रोकं तत्रिविधं चतुर्षिषममी कुर्वन्तु ते मंगळम् ॥ १० ॥ दिव्योऽष्टौ च जयादिकाः द्विगुणिताः विद्यादिकाः देवताः। । श्री तीर्थकर मातृकाश्च मनकाः यक्षाश्च यक्ष्वास्तथा ॥ द्वात्रिंशनिदशा गृहस्थितिसुराः दिकन्यकाश्चाष्टधा । दिक्पाला दशचेत्यमी पुरगणः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ११ ॥ (३५) शील माहात्म्य जिनरानदेव कीनिये मुझ दीनपर करुणा । भविवृन्दको अब दीजिये इस शीलका शरणा ॥ टेक || शीलकी धारामें जो स्नान करें हैं । मलकमको सो धोयके शिवनार वरें हैं । वृतरान सो वेताल व्याल काल डरे हैं । उपसर्ग वर्ग घोर कोट कष्ट रें. हैं ॥१॥ तप दान ध्यान जापनपन जोग आचारा । इस शीलसे सब धमक मुंहका है उनारा | शिवपंथ अन्य मंथके निम्रन्थ : निकारा । विन शील कौन कर सके संसारमें पारा ॥ २ ॥ इस .. शीलसे निर्वाण नगरकी है अवादी । पट शलाका कौन ये ही . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [१७१ शील सवादी ।। सव पूज्यक पदवीमें हैं परधान ये गादी अठारा सहस्र भद भने वेद अचादी ॥३॥ इस शीलसे सीताका हुवा आगसे पानी । पुर द्वार खुला चलनिमें भरकूप सों पानी ।। नृप ताप टरा शीलसे रानी दिया पानी । गंगामें ग्राहसों बची इस शीलसे रानी ॥ ४ ॥ इस शील ही से सांप सुमनमाल हुमा है। दुख अंजनाका शीलसे उद्धार हुआ है। यह सिन्धुमें श्रीपालको आधार हुआ है । वप्राका परम शील हा से पार हुआ है ॥५॥ द्रोपदीका हुआ शीलसे अम्बरका अमारा । जा धातुदीप कृष्णने सब कट निवारा ॥ सब चन्दना सतीकी व्यथा शीलने टारी।। इस शीलसे ही शक्ति विशल्याने निकारी ॥६॥ वह कोटि शिला शीलसे लक्ष्मणने उठाई। इस ही से नागन था कृष्ण कन्हाई ॥ इस शीलने श्रीपालनीकी कोढ़ मिटाई · अरु रंनमंजूसाको लिया शील बचाई प्रणा इस शीलसे रनपाल कुंवरकी कटी वेरी। इस शीलसे शिष सेठके नन्दनकी निवेरी ।। मूलीसे सिंह पाठ हुआ सिंह ही सेरी । इस शीलसे करमाल सुमनमाल गलेरी ॥ सामन्तभद्रजीने यही शील सम्हारा । शिवपिंडते जिनचन्द्रका प्रतिविम्ब निकारा ॥ मुनि मानतुंगजीने यही शील सुधारा । तव आनके चक्रेश्वरी सव बात सम्हारा ॥९॥ अकलंकदेवनीने इसी शीलसे भाई । ताराका हरा मान विनय बौद्धसे पाई । गुरु कुन्दकुन्दजीने इसी शीलसे नाई। गिरनारपै पाषाणकी देवीको बुलाई ॥१०॥ इत्यादि इसी शीलकी महिमा है घनेरी। विखारके कहने में बड़ी होयगी देरी ।। पल एकमें सब कष्टको यह नष्ट करे। इस ही से मिली रिद्धिसिद्धिं वृद्धि सरी ॥११॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] अनसिद्धांतसंग्रह। विन शील खता खाते हैं सब कांछके ढीले । इस शील विना तंत्र मंत्र जंत्र होकीले ॥ सब देव करें सेव इसी शीलके 'हीले । इस शील ही से चाहे तो निर्वाणपदी ले ॥ ११॥ सम्यत्त्व सहित शीलको पालें हैं जो अन्दर । सो शील धर्म होय. है कल्याणका मन्दिर ॥ इससे हुवे भवपार है कुल कोल और चन्दर । इस शीलकी महिमा न सके भाष पुरन्दर ॥ १३॥ जिस शीलके कहनेमें थका सहस बदन है । सि शीलसे भय पाय भगा कूर मदन है। सो शील ही भविवृन्दको कल्याण मंदन है। दश पैंड ही इस पेंडसे निर्वाण सदन है ॥ ११॥ (३६) बाईस पबिह। छप्पर-सुंधा तृषा हिम अने डसमसैंक दुख भारी । निरावरण तन मरैति वेद उपनावन नारी ॥ चरैया औसन शयेन दुष्ट वैयिक बध बन्धेन । याचे नहीं अलोम रोग तृण परस होय सन | मन मनित मैनि सनमान वश प्रज्ञा और अज्ञान' कर । दरशन मलीन पाईस सब साधु परीषह जान नर ॥१॥ . दोहा-सूत्र पाठ अनुसार ये कहे परीषह नाम । . इनके दुख जो मुनि सह तिनप्रति सदा प्रणाम ॥२॥ १ क्षुधा परीषह-अनसन ऊनोदर तप पोषत पक्षमास दिन बीत गये हैं। जो नहीं वेन योग्य भिक्षा विधि सूख अङ्ग सब शिथिल भये हैं। तब वहां दुस्सह भूखकी वेदन. सहत साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमलप्रति प्रति दिन हाथ जोड़ हम शीशं नये हैं ॥३॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । - तृषा परीषह-पराधीनः मुनिवरकी मिक्षा - पर घर . लेय कहें कुछ नाही। प्रकृति विरुद्ध पारण' मुंजत बढ़त प्यास. . की त्रास तहाही ॥ ग्रीषमकाल पित्त भतिकोपै लोचनं दोय फिरे जव नाहीं । नीर न चहैं सहैं ऐसे मुनि जयवन्ते वा जग-माहीं ॥ ४ ॥ ३शीन परीषह-शीत काल सबही जन कम्पतः खड़े तहां वन वृक्ष डहे हैं । झंझा वायु चले वर्षाऋतु बर्षत बादल. झूम रहै हैं ॥ तहां धीर तटनी तट चौपट ताल पाल परकर्म दहे। हैं। सह समाल शीतकी बाधा ते मुनि तारण तरण कहे है।। ४ उष्ण परीषह-भूखप्यास पीड़े उर अन्तर प्रजुलै आंत देह सब दागै। अमि सरूप धूप ग्रीषमकी तातीवाय झालसी लागै ॥ त पहाड़ ताप तन उपजति कोपै पित्त दाह ज्वर मागे । इत्यादिक गर्भाकी बाधा सहैं साधु धीरन नहाँ त्यागें ॥६. ५ डन्समस्क परीषह-डन्स मस्क माखी तनु का. पा. वन पक्षी बहुतेरे । डसें व्याल विषहारे विच्छू लगें खजूरे आन घनेरे ॥ सिंह स्याल सुन्डाल सतावें रीछ रोझ दुख देहि । घनेरे। ऐसे कष्ट सह समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे ॥७॥ नग्न परीषह-अन्तर विषयवासना बरते बाहर लोक लाज भय भारी । याते परम दिगम्बर मुद्रा घर नहिं सके दीनः संसारी ॥ ऐसी दुर्द्धर नगन परीषह जीते साधुशील व्रतधारी । निर्विकार बालकवत निर्भय तिनके चरणों धोक हमारी ॥ __ ७ अरति परीषह-देशकालका. कारण लहिकै होता अचैन अनेक प्रकारें । तब तहां छिन्नं होत अगवासी कलमलाया Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M २७४]. नसिद्धांतसंग्रह। थिरवापद छाडे । ऐसी पति परीपह उपजत तहां धीर-धीरनं उरघारें । ऐसे साधुनको उर अन्तर बसो निरन्तरसनाम हमारे ९ . ८खी परीषह-नो.प्रधान केहरिको पकडै पनग पकड पानसे चावें । मिनकी तनक देख भौं वांकी कोटिन सूर दीनता मा । ऐसे पुरुष पहाड उडाचन प्रलय पवन त्रिय वेद पया। धन्य धन्य वे सर साहसी मन सुमेर जिनका नहिं कां ॥१०॥ ९चयों परीषद-चार हात परवान परख पथ चलत दृष्टि इत उत नहिं ताने । कोमल चरण कठिन धरतीपर धरत धीर बाधा नहीं मानें ॥ नाग तुरङ्ग पालकी चढते ते सर्वादि याद नहीं आने । यो मुनिरान सहें चा दुःख त हद कर्म कुलाचल भाने ॥१२॥ १० आसन परीषह-गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसें जहां शुद्ध भूरें । परमितकाल हैं निश्चल तन बारवार आसन नहीं फेरें ॥ मानुष देव अचेतन पशुकत बैठे विपति मान जब घरे । ठौर न त म थिरतापद ते गुरु सदा बसो उर मेरे ॥ १२॥ ११ शयन परीषह-जो प्रधान सोनेके महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। अब अचल अंग एकासन कोमल कठिन भूमिपरगावें ॥ पाहनखण्ड कठोर कांकरी गडत कोरका. यर नहीं हो शयन परीषह भात ते मुनि कर्मकालिमा धावे ।। १६ - .. . ... . ' • १२ आक्रोश.परीषह-जगत श्रीव यावन्त चराचर सबके हित सबको सुखदानी । तिन्हें. देख दुर्वचन क..खल Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. . जैनसिद्धांतसंग्रह पाखंडी ठग यह अभिमानी || मारो. 'याहि पकड पापीको तपसी मेष चोर है छानी। ऐसे वचन बाणको बेला क्षमा ढाल मो मुनि ज्ञानी ॥ १४ ॥ . . . . . . i. १३ वध बंधन परीषह-निरपराध नि₹र महामुनि तिनको दुष्ट लोग मिल मौर। कोई बैंच खंबसे बांध कोई पावक, परनारै ॥ तहां कोप करते न कदाचित पूरव कर्मविपाक विचारें। समरथ होय सहें व बंधनते गुरु भव भव शरण हमारें। .: याचना परीषह-घोर वीर तपकरत तपोधन भये. क्षीण सूखी गलबांहीं । अस्थि चाम अवशेष रहो तन नसांजाल झूलक तिसमाहीं॥ औषधि असन पान इत्यादिक प्राण जाउ पर जांचत नाहीं। दुर्डर अयाचक व्रत धार करै न मलिन घरम. परछाहीं ॥ १६ ॥. १५ अलाभ परीषह-एकवार भोजनकी वेला मौन साधं बस्तीम भाव । नो न बनै योग्य भिक्षाविधि तो महन्त मन खेद न लावै ।। ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीते तब तपथद्धि भावना भावें। यों अलाभकी परम परषिह सह साधु लो ही शिव • पावः ॥ १७॥ ...१६.रोग परीषह-बात पित्त कफ श्रोणित चारों ये जब घटें बर्दै तनु माहीं । रोग संयोग शोक जव उपजत जगत ....नाव कायर होजाहीं ॥.ऐसी व्याधि वेदना दारुण सह सूर.उप.. चार न चाहीं ॥ आतमलीन विरक्त . देहसों जैनयती निज नेम निवाहीं॥१८॥ . .... ... .. मातमलीन विरक्त. हा दारुण सह सूर.उप. निवाहीं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREETHEL जैनसिद्धांतसंग्रह। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm १५ तृणस्पर्श परीषह-सूखेतण :अरु तीक्ष्णकांडे कठिन कांकरी पांव-विदार। रन उड़ मान पड़े लोचूनमें वार फांस तनु पीर निथार || वापर पर सहाय नहीं: बांछत अपने करसे काह न डोरे। यो तृणपरस परीषह विनयी ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥ १९॥ १८ मल परीषह-यावनीव जल न्होंन तनो जिन नम रूप बन थान खडे हैं || चले पसेव धूपकी बेला उड़त धूल संब जंग भरे हैं । मलिन देंहको देख महामुनि मलिनमाव उर नाहि करें हैं । यो मलमनितं परीषह नाते तिनहि हाथ हम सीस घरे हैं ॥ २०॥ १९ सत्कार पुरस्कर परीषह-जा महान विद्यानिधिः विनयी-चिर तपसी गुण अतुल भरे हैं। तिनकी.विनय बचनसे अथवा उठ प्रणाम जन नाहिं करें हैं । तो मुनि तहां खेद नहीं मानत उर मलीनता भाव हरे हैं | ऐसे परम साधुके अहनिशि हात जोड हम पांय परे हैं ॥ २१ ॥ २० प्रज्ञा परीषह-तर्क छंद व्याकरण कलानिधि आगम अलङ्कार पढनानें । नाकी सुमति देख परवादी विलखत होय लाज उर ऑन । जसे सुनत नाद फेहरिका बनंगयंद भाजत भयमानें । ऐसी महाबुद्धिके भाजन पर मुनीश मद रंच न ठानें । २१ अज्ञान परीषह-सावधान बत निशिबासर संयमसूर परम बैरागी । पालत गुठि गये दीर्घ दिन सकल संग ममता परत्यागी ॥ अवधिज्ञान अथवा मनपर्यय केवल ऋद्धि न अजहूं जागी । यो विकल्प नहीं करें तपोनिधिः सो अज्ञान विषयी बडमागी ॥ २३ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [·?00 २२ अदर्शन परीषह - मैं चिरकाल घोर तपकीनों अजों ऋद्धि अतिशय नहीं जागे । तपबल सिद्धं होत सब सुनियत सो कुछ बात झूठसी लांगे ॥ यों कदापि चितमें नहीं चिंतत समकित शुद्ध शांति रस पागै । सोई साधु अदर्शन विनई ताक दर्शनसे अघ भागे ॥ २४ ॥ किस २ कर्मके उदयसे कौन २ परीषह होती हैं ज्ञानावरणीतें दोइ प्रज्ञा अज्ञान होई एक महा मोहतें अदर्शन बखांनिये । अन्तराय कर्मसेती उपजै अलाभ दुख सप्त चारित्र मोहनी केवळ जानिये "नगन निपव्या नारि मान सन्मानगारि यांचना अरति सब ग्यारह ठीक ठानिये | एकादश बाकी रहीं वेदना उदयसे कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उर आनिये ॥ अडिल्ल एकबार इनमाहिं एक मुनि के कही । सब उनी उत्कृष्ट उदय सही || आसन शयन विज्ञाय दाय इन माहिंकी । शीत उप्गमैं एक तीन य नाहिंकी ॥ २६ ॥ " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VARI १७८] जैनसिद्धांतसंग्रह। तृतीय खंड। (१) लघु अभिषेक पाह। श्रीमजिनेन्द्रमभिवन्धनगप्रयेशं . स्याहावादनायकमनन्तचदृष्टपाईम् ॥ . श्रीमूळसंघसुटा मुकतैकहेतु जैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाम्यधायि ॥ 1 इस श्लोकको पढ़कर जिनचाणों में इप्पांजलि छोड़नी चाहिए) श्रीमन्मन्दरसुदरे शुचिजगात सुदर्माक्षतैः . .. पीठे मुधिवरं निघाय, विपादपद्मसनः। इद्रोऽहं निगमूषणार्थव मिदं यज्ञोपवीतं दधे। मुद्राक्कणशेखरान्यपि तथा नाभिषकोत्सवें ॥ (इस श्लोकको पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको ज्ञोपवीत तथा नाना प्रकारके सुंदर मामृष्ण धारण करना चाहिये) सौगन्ध्यसंगतम्भुवतझकतेन सौवर्ण्यमानमिव गंधमनिंधमादौ । भारोपयामि विबुधेश्वरवृन्दवन्ध पादारविन्दममिवाय जिनोत्तमानाम् । ( इस श्लोकको पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको अपने अंगमें चन्दनके नव तिलक करना चाहिये। ये सन्ति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता नागाः प्रभूतबादर्पयुता • विवोधाः । संरक्षणार्थममृतेन शुभेन तेषां प्रक्षालयामि पुरतः स्नपनस्य मूमिम् ॥ (इसको पढ़कर अभिषेक के लिये भूमिका प्रक्षालन करें) क्षीगणवाय पयसां शुचिभि: प्रवाहैः प्रक्षालितं सु-वदनेकवारम्। अत्युमुदतम्हं मिनपार पीठं प्रक्षालयामि स्वसंभवतापहारि ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. • जनसिद्धांतसंग्रह। . [ १७९ (निस पीठपर (सिंहासनपर) मिराममान करके अभिषेक करनी होवे उसका प्रक्षालन करना चाहिये। ) श्रीशाग्दांमुमुखनिर्गतवानवर्ण श्रीमंगझीकवरसर्वननस्य नित्यं । श्रीमत्स्वय क्षयतयस्य विनाशविघ्नं श्रीकारवर्ण लिखित निनभद्रपीठे। '"' (इस श्लोकको पढ़कर पीठार श्रीकार लिखना चाहिये ।) इन्द्राग्निदंडवरनेऋतपायपाणि-वायूतरेशशशिमौलिफणीन्द्रचन्द्रा:। मागत्य यूयमिह सानुचराः सचिताः स्वस्वं प्रतीच्छ वर्कि जिनपाभिषेक।। 1 (नीचेलिखे मंत्रों को पढकर क्रमसे दश दिकगोंके लिये भर्घ चढ़ावो।) १ ॐ आ क्रौं ही इन्द्र आगच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा । १ पला क्रौं ही भग्ने आगच्छ मागच्छ मग्नये स्वाहा । ३ ॐा क्रौं ह्रीं यम मागच्छ आगच्छ यमाय स्वाहा । ॐ आ क्रौं ह्रीं नर्ऋत आगच्छ मागच्छ नैर्ऋताय स्वाहा। ५ ॐ मा बौं ह्रीं वरुण आगच्छ मागच्छ वरुणाय स्वाहा । क्रौं ह्रीं पवन मागच्छ मागच्च पवनाय स्वाहा। ७.४ मा क्रौं ह्रीं कुवेर मागच्छ आगच्छ कुवेराय स्वाहा । क्रौं ह्रीं ऐशान आगच्छ पागच्छ ऐशानाय स्वाहा। कौं ही धरणीन्द्र मागच्छ मागच्छ धरणीन्द्राय स्वाहा। १. ॐा क्रौं ह्रीं सोम आगच्छ मागच्छ सोमाय स्वाहा । . : - इति दिवसालमंत्राः। .. ' दंध्युज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपैः पात्राषितं प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्यमंगलमुखानलघामदाह मारातिक तवविभोरवतास्यामि ।। :: ॐ mata ..ggessegege Page #174 --------------------------------------------------------------------------  Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह . [ १८१ सम्पूर्णशारदर्शशाङ्कमरीचिनालस्यन्दैरिवात्मयशसामिव सुपवाहः। सौरनिनाः शुचितरैरमिषिच्यमाणाः संपादयतु मम चित्तसमीहितानिया (इस श्लोकको पढ़कर दुग्धके कलशसे अभिषेक करना चाहिये।) दुग्धाषिवीचिपयसाचितफेनराशिंपांडुत्वकांतिमवधारयतामतीव । दनां गता निनपते प्रतिमा सुधारा सम्पद्यतां सपदि वांछितसिदये वा (इस श्लोकको पढ़कर दधिके कलशसे अभिषेक करना चाहिये।) भक्या बलाटतऽदेशनिवेशितोच इश्यता मावराSEरमयनाथः। तत्कालपीलितमहेक्षुरसस्यधारा सघः पुनातु जिनबिम्ब गव युष्मान् ।। (इस श्लोकको पढ़कर इक्षुरसके कलशसे अभिषेक करना चाहिये।) संस्नापितस्य घृतदुग्पदघोरवाहैः सर्वामिरौषधिमिरईतमुज्वामिः । उद्धर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेला कालेयकुङ्कुमरसोत्कटवारिपुरैः॥ (इस श्लोकको पढ़कर सर्वोषधीके कलशसे अभिषेक करना चाहिये।) द्रव्यैरनस्पधनसारचतुः समाचैरामोदवासितसमस्तदिगन्तरालेः । मिश्रीकृतेनपयसा जिनपुङ्गवानां त्रैलोक्यपावनमहं स्नपनं करोमि ।। (इस श्लोकको पढ़कर केसर कस्तुरी कर्पूरादिसे बनाये हुये सुगंधित भकसे स्नपन करना चाहिये।) इष्टैमनोरथशतैरिव भव्यपुंसां पूर्णः सुवर्णकलशनिखिवतानः । संसारसागरविलंघनहेतुसेतुमालावये त्रिभुवनैकपति मिनेन्द्रम् ॥ __ . (इस लोकको पढ़कर शेष बचे हुये सम्पूर्ण कलशोंसे ममिषेक करना चाहिये।) १. घृत दुग्ध दधि आदिके मिलानेसे सर्वोषधि होती है तथा करादि सुगन्धंद्रव्योंके मिलानेसे भी साँषधि होती हैं। ' . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] नैनसिद्धांतसंह मुक्ति श्रीवनिताकरोदकमिदं पुण्याङ्करोत्पादकम् । नागेन्द्रदिशेन्द्रचक्रपदवीराज्याभिषेकोदकम् ॥ . सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनकता संवृद्धिसम्पादकम् । कीतिश्रीमयसाधकं तव निन ! स्नानस्य गंधोदकम् ॥ ( इस श्लोकको पढ़कर अपने अङ्गमें गंधोदक लगाना चाहिये।.) इति श्री मधुरमिपेक्रविधिः समाप्तः ।। (२) विनयपाठ। इहि विधि ठाडो होयके प्रथम पढ़े भो पाठ ।। धन्य जिनेश्वर देव तुम नाशे कर्म जु पाठ॥१॥ अनंत चतुष्टयके धनी तुमही हो शिरतान॥ मुक्तिवधूके कंथ तुम तीन भुवनके राम ॥२॥ तिहुँमगकी पीडाहरण भवदधि शोषनहार ॥ ज्ञायक हो तुम विश्वके शिवमुखके करतार ॥३॥ हरता अघ-अधियारके करता धर्मपकाश ॥ थिरता पद दातार हो घरता निजगुण राम || || ' धर्मामृत र नलषसों ज्ञान भानु तुम रूप ॥ तुमरे चरण-सरोनको नाबत तिहु मगभूप ॥ ५ ॥ मैं बदौं जिनदेवको कर अति निरमल भाव ॥ -. . कर्म बंधके छेदने और न कोई उपाय ॥ ६॥ भविननको मविकूपते तुमही कादनहार । दीनदयाल अनावपति मातम गुण भंडार ॥ .... Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम विनवपद बापत पाप जैनसिद्धांतसंग्रह ।" चिदानंद निमल कियो धोय कर्मरन मैल || . सरक करी या जगतमैं मविननको शिव गेल ॥८॥ तुम-पंद -पंकन पूजते विघ्न रोग टर नाय | शत्रु मित्रताको धरै विष निरविषता थाय ॥ ९॥ चक्री खग मरु इन्द्रपद मिळे मापते आप || अनुक्रम कर शिवपद है नेम सफल हन पाप ॥१०॥ 'तुम विन मैं व्याकुल भयो जैसे नल विन मोन ॥ जन्म जरा मेरी हरो को मोह स्वाधीन ॥ ११॥ पतित बहुत पावन किये गिनती कौन करेय ॥ अमनसे तारे कुधी तु जय जय जय निनदेव ॥ १२ ॥ थकी नाव भविदधिविर्षे तुम प्रभु पार करेय ॥ खेवटिया तुम हो प्रभु सो जय नय नय निनदेव ॥१३॥ राग सहित नगमें रुले मिले सरागी देव ॥ वीतराग भैटो अब मेटों राग कुटेव ॥ १४ ॥ कित निगोद कित नारकी कित तिर्यच अज्ञान ।। भान धन्य मानुष भयो पायो जिनवर थान ॥ १५ ।। तुमको पू, सुरपति महिपति नरपति देव ॥ धन्य भाग मेरो भयो करनगो तुम सेव ॥ १६ ॥ मशरणके तुम शरण हो निराधार आधार ।। मैं इनत भवसिंधुमें खेमो लगायो पार ॥ १७॥ इंद्रादिक गणपति थकी तुम विनती भगान ।। विनती मापनी टारि के कीने भाप समान ॥१८॥ तुमरी नेक मुद्दष्टसे भगा उतरत है पार ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८४] नैनसिद्धांतसंग्रह। हाहा डूबौ नात हों नेक निहार निकार ॥ १९ ॥ मो मैं कह ऊं औरसों तौ न मिटै ठा झार ॥ मेरी तो मोसों बनी ताते कात पुकार ॥ १० ॥ वंदौ पचौं परमगुरु मुरगुरु वंदन नास ॥ विधनहरन मंगलकरन पूरन परम प्रकाश ॥ २१ ॥ चौविसों जिन पद नमो नमों शारदामाय ॥ शिवमग सापक साधु नमि रचों पठ मुखदाय ॥ १२॥ (३) देवशाखागुरुपूजा। ॐ नय नय नय | नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । णमो माहंताणं णमो सिडाणं णमो मायरियाण। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वस हणं ॥ ॐ अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः। (यहां पुष्पाअलि क्षेपण करना चाहिये) चत्तारि मंगल-अहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगळ, फेवलिपण्णतो धम्मो मंगळं । चत्वारि लोगुत्तमा-मरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहूकोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारिसरणं पवजामि-अरहतसरणं पञ्चजामि, सिद्धसरणं पन्धजामि, साइसरणं बजामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरणं पन्बजामि॥ . ॐ नमोऽहं स्व हा। (यहां पुष्पांनलि क्षेप. करना चाहिये ) अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पञ्चनमस्कासपीः प्रमुच्यते ॥१॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिंद्धांतसंग्रह । १४५ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। __ यः स्मरेत्परमात्मानं सं बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥ १॥ अपराजितमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मङ्गलं मतः ॥ ३ ॥ एसो पंच णमोयारो सव्वपावप्पणासणो। . मंगलाणं च सव्वेसि, पढम होह मंगलं ॥ ४ ॥ महमित्यक्षरं ब्रह्मवाचक परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य. सहीन सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ ५ ॥ कर्माष्टकविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मीनिकेतनम् । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्र नमाम्यहम् ॥ ६ ॥ (यहां पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये ।) (यदि अवकाश हो, तो यहांपर सहस्रनाम पढ़कर दश अर्ष देना, नहीं तो नीचे लिखा श्लोक पढ़कर एक मर्घ चढाना चाहिये।) उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफनाकः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥७॥ ॐ श्री भगवजिनसहस्रनामेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।। श्रीमजिनेंद्रमभिवंद्य जगत्रयेशं ' स्याहादनायकमनंतचतुष्टयाईम् ।। श्रीमूळसंघसुदृशां मुरुतेकहेतु जैनेंद्रयज्ञविधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥ ९ ॥ स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुङ्गवाय • स्वस्ति खभावमहिमोदयमुस्थिताय । . . : स्वस्ति प्रकाशसहजोजितष्पयाय , . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनसिद्धांतस ... स्वस्ति प्रसन्नलितादभुतवैमवाय ॥ ९॥ । स्वस्त्युच्छद्विमलमोषभुषाप्लवाय स्वस्ति स्वभावपरभावविभासकाय । स्वस्ति त्रिलोकविततेकचिदुद्द्वमाय खस्ति विकासकलायतविस्तृताय ॥ १०॥ द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं । मावस्य शुद्धिमषिकामधिगन्तुकामः ॥ . . माकम्धनानि विविधान्यवलम्व्य वल्गन् । भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम् ॥ ११ ॥ महत्पुराणपुरुषोत्तमपावनानि । __ वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव । अस्मिन् ज्वलहिमलकेवळबोधवौ । पुण्यं समममहमेकमना जुहोमि ॥ १२ ॥ (पुष्पांजलि क्षेपण करना) श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमनितः । श्रीसंभवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमभिनन्दनः। श्रीमुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री पद्मप्रभः । श्रीसुपार्थः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रपमः । श्रीपुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्रोशीतलः। श्रीश्रेयान्स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः। श्रीविमलः स्वस्ति, स्वस्त श्री अनन्तः । श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशांतिः। श्रीकुन्थुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमरनाथः। श्रीमहिक स्वस्ति स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः। श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः । श्रीवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः।. (पुष्पांजलि क्षेपण) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ जैन सिद्धांत संग्रहः । नित्याप्रकम्पाद्भुतकेबलौघः स्फुरन्मनःपयशुद्धोषाः । दिव्यावधिज्ञानचलपबोषाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ १ ॥ आगे प्रत्येक श्लोक अन्तमें पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये । कोष्ठस्थधान्योपममेकवीनं संभिन्नसंश्रोतृपदानुसारि । चतुर्विधं बुद्धिवलं दधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ २ ॥ संस्पर्शन संश्रवणं च दूरादास्वादन घ्राणविलोकनानि | दिव्यान्मतिज्ञानवाद्वहन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ३ ॥ प्रज्ञाप्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः प्रत्येकबुद्धा दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टग्निमित्तविज्ञाः स्वस्ति क्रियासुः परमषयो नः ॥ 8 ॥ जङ्घावमिश्र णिफलाम्बुतन्तुप्रसुनबीजाङ्कुरचारणाह्वाः । नमोऽगणस्वैरविहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ५ ॥ अणिनिक्षाः कुशला महिनि धिन शक्ताः कृतिनो गरिणि । मनोवपूर्वाग्वलिनश्च नित्यं स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ६ ॥ सकामरूपित्ववशित्वमैश्यं प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः । तथाऽपतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ७ ॥ दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः । ब्रह्मापरं घोरगुणाश्चरंतः स्वस्ति क्रिषासुः परमषयो नः ॥ ८ ॥ आमर्षसवौषषयस्तथाशीविषविषा दृष्टिविपंविषाश्च । सखिलविड मलमलौषधोशाः स्वस्त्रि क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ९ ॥ - क्षीरं खवन्तोऽत्र घृतं समन्तो मधु स्रवन्तोऽप्यमृतं खवन्तः । अक्षीणसंवास महानसाच स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ १० ॥ इति स्वस्तिमंगलविधानं | Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८1 जैनसिद्धांतसंग्रह। सार्वः सर्वज्ञनाथः सकलतनुभृतां पापसन्तापहर्ता । .. त्रलोक्याक्रान्तकीतिः क्षतमदनरिपुर्षातिकर्मपणाशः। श्रीमान्निवाणसम्पहरयुवतिकरालीढकण्ठः सुकण्ठे देवेन्द्रवन्धपादो जयति मिनपतिः प्राप्तकल्याणपूनाः ॥१॥ जय जय जय श्रीसत्कातिप्रभो जगतां पते । जय जय भवानेव स्वामी भवाम्मसि मन्जताम् । जय जय महामोहध्वान्तप्रमात कृतेऽ नम् ___ नय नय निनेश व नाथ प्रसीद करोम्यहम् ॥२॥ ॐ हीं भगवजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । सवौपट् । (इत्याहाननम् । ॐ ह्रीं भगजिनेन्द्र मत्र तिष्ठ तिष्ठ । । (इति स्थापनम् 1 ) ॐ ही भगवजिनेन्द्र । मत्र मम सनिहितो भव भव । वषट् । ( इति सनिधिकरणम् ) देवि श्रीश्रुतदेवते भगवति त्वत्पादपकरुह___हन्दू यामि शिलीमुखत्वमपरं मया मया प्रायते । मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिनमुखोद्भुते सदा त्राहि मां उग्दानेन मयि प्रसीद भवती सम्पूनयामोऽधुना ॥२॥ ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भुतद्वादशानश्रुतज्ञान । मत्र अवतर अवसर संवौषट् । ॐ ही निनमूखोद्भुतद्वादशाङ्गश्रुतज्ञान ! मत्र. 'तिष्ठ तिष्ठः । ॐ ही जिनमुखोद्भूतद्वादशाङ्गश्रुतज्ञान ! पत्र -मम सन्निहितो भव भव वषट् । संपूनयामि पूज्यस्य पादपद्मयुगं गुरोः । तपामाप्तपविष्ठस्य गरिष्ठत्य महात्मनः ॥ ४ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनसिद्धांतसंग्रह। ॐ ह्री आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमुह ! पत्र अवतर अवतरसंवौषट् । ॐ ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमूह ! पत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ हीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो मव भव । । देवेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रवन्धान शुम्भत्पदान शोभितमारवर्णान् । ..दुग्धाब्धिसंस्पर्धिगुणे लोमिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन्यजेऽहम् ॥ १ ॥ • ॐ ही परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणमहिताय महत्परमेष्ठिने जन्मनगमृत्युविनाशनायः नलं निर्वपामांति स्वाहा। ___ॐ ह्रो निनमुखोद्भुतस्याद्वादनयमितहादशांगश्रुतज्ञानाय जामनरामृत्युविनाशनाय नलं निर्वामीति स्वाहा । ॐही सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्योगाध्यायसर्वसाधुम्यो जम्मनर मृत्युविनाशनाय जल निगमोति स्वाहा। ताम्यत्रिचोकोदग्मध्यवर्तिसमस्तसत्त्वाऽहितहारिवाक्यान् । श्रीचंद गंधविलुब्धभृद्भभिनेंद्रसिद्धांतयतीन्यजेऽहम् ॥ २॥ • ॐ ही परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय महत्परमेष्ठिा संसारतापविनाशनायः चंदन निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भुतस्याद्वादनयगमितद्वादशांगश्रुवज्ञानायः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्री.सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविरानमानाचार्योपाध्यायसर्वसाधुम्भः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा , अपारसंसारमहासमुदपोत्तारणे प्राज्यतरीन् मुभक्त्या । दीर्घाक्षता वनक्षतौजितेन्द्रसिद्धांतयतीन्यजेऽहम् ॥ ३॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] जैन सिद्धांत संग्रह । ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अंष्टादशदो पर हिताय षट्चत्वरिंशद्गुणसहिताय भर्हत्परमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा | ॐ ह्रीं जिनमुखे नस्याद्वादनयगमितद्वादशांगश्रवज्ञानाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रा विगुणविराममानाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो ऽक्षयपदप्राप्तये भक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । 'विनीतभव्याज्ञविबोधसुर्य्यान्वयन सुचर्थ्याकथनैकधुर्य्यात् । कुन्दारविन्द प्रमुखः प्रसुनैर्निनेन्द्र सिद्धान्तयतीन्यजेऽहम् ॥ 8 ॥ ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय • षट्चत्वारिंशद्गुण सहिताय महत्परमेष्ठिने कामत्राणविध्वसनाव - पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ! ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भूतस्याद्वादनयगर्भितद्वादशाङ्गश्रुतज्ञानाम - कामवाणविध्वंसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा | ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुण विराजमानाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । कुदर्प कन्दर्पविससर्पप्रस्ह्यनिर्णाशन चैनतेयान् । प्राज्याज्य सारैश्चैरुमी रसाढ्यैर्जिनेन्द्र सिद्धांतयतीन्यजेऽहम् ॥६॥ ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंश्---. हिताय अईत्तरमेष्ठिने सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वमा....अ ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भूतस्याद्वादन यगर्भितद्वादशांगश्रुतज्ञानाय क्षुषारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [१९१ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञांनचारित्रादिगुण विराजमानाचार्योपाध्या'यसर्वसाधुभ्यः क्षुषारोगविनाशनाय नेवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।. ध्वस्तोद्यमान्धीकृतविश्वविश्वमोहान्धकारप्रतिघातिदीपान् । दीपैः कनकाञ्चनमामनस्थैर्जिनेन्द्र सिद्धान्तयती यजेऽहम ॥६॥... ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं निनमुखोद्भूतस्याद्वादनय गर्मितद्वादशांगश्रुतज्ञानाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रादिगुण विराजमानाचार्योपाध्याय सर्वसाधुम्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निवपामीति । दुष्टाष्ट कर्मे न्वनपुष्टनाकंसघूपने भासुग्घूमकेतुन् । धूपैर्विधूतान्यसुगन्धगन्धैर्जिने - द्र सिद्धान्तयतीन्यजेऽम् ॥ ७ ॥ .. ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय बटूचत्वारिंशदगुसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं जिन मुखोद्भूतस्याद्वादनयगर्भितद्वादशांगश्रुतज्ञानाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । "T ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रादिगुण विराजमाना चार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा | क्षुम्पद्विलुम्पन्मनसामगम्यान् कुत्रादिवादाऽस्खलित प्रभावान् । फलैरलं मोक्षफफ़ासिसारे जिनेन्द्र सिद्धान्तयनीन्ययनेऽइस ॥ ॐ ॥ . ! * Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९1 जैनसिद्धांतसंग्रह ., ..ॐ ह्री पाबह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशकये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने मोक्षफल्माप्तये फलं निर्वामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भूतस्याद्वादनयमितद्वादशांगनुवज्ञानाम मोक्षफळपाप्तये फळ निर्वपामांति स्वाहा । . ॐ हीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविरांनमानाचार्योपाध्याय सर्वसाधुम्यो मोक्षफलप्राप्तये फळ निपामीति स्वाहा। सहारिगन्ध क्षतपुष्पजातेनैवेद्यदीपामलघूपधूनः। फ-विचित्रर्धनपुण्ययोग्यान् निनदसिद्धांतयतीन्यजेऽहम् ॥९॥ . ___ॐ ही परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये भष्टादशदोषरहिवायं घटचत्वारिंशदगुणसहिताय महत्परमेष्ठिने भनपदमासये मर्ष . निवामीति स्वाहा। ॐ हो जिनमुखोदमस्याहादनयमितद्वादशांग_वज्ञानाय मनपदप्राप्तये वर्ष निर्वपापोति स्वाहा। . ॐ हीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्योपाध्या सर्वसाधुम्योऽनर्षपदमाप्तये अर्घ निपामीति स्वाहा । ये पूजा मिननाथशास्त्रयमिनां मचमा सदा कुर्वते सन्ध्यं मुविचित्रकाव्यरचनामुच्चारयन्तो नराः। पुण्याच्या मुनिरामकीर्तिप्तहिता मूत्वा तपोभूषणा स्ते भव्याः सकलास्वोरुचिरां सिदि लमन्ते पराम् ॥ १॥ इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलि क्षेपण करना) वृषभोऽमितनामा च संभवश्वामिनन्दनः । सुमतिः पद्ममासश्च सुपार्थो निनसत्तमः ॥ १॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिंदांतसंग्रह। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmi mmmmmmmmmmmmmmmm चन्द्रामः पुष्पदन्तश्च शीतलो भगवानन्मुनिः । श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमलद्युतिः ॥ २॥ . भनन्तो धर्मनामा च शान्तिः कुन्थुर्जिनोत्तमः । .. ' अरश्च मलिनाथश्च सुब्रतो नमितीर्थकृत् ॥ ३ ॥ हरिवंशसमुद्भूतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । . ध्वस्तोपसर्गदत्यारिः पार्थो नागेन्द्रपूजितः ॥ ३ ॥ कर्मान्तकृन्महावीर सिद्धार्थकुलसम्भवः । एते सुरासुरौघेण पूजिता विमलहि षः ॥ ५ ॥ पूनिता भरतायैश्च भूपेन्द्र रिभूनिमिः ।. चतुविषस्य सङ्घस्य शान्ति कुर्वन्तु शाश्वतीम् ॥९॥ जिन भक्तिजिने मक्तिजिने भक्तिः सदाऽस्तु मे। सम्यक्त्वमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥ ७॥ . : (पुष्पांजलि क्षेपण) श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः सदाऽस्तु मे। सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥ ८॥ (पुष्पांजलि क्षेपण) गुरौ भक्तिर्गुरी भक्तिर्गरौ भक्तिः सदाऽस्तु मे ।' चारित्रमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥९॥ . (पुष्पांजलि क्षेपण) ....-. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am १९४] जैनसिद्धांतसंग्रह अथ देवजयमाला प्राकृत। . पत्ताणुहाणे नणघणुदाणे पइपोसिउ तुहु खत्तपरु । तुहु चरणविहाणे केवलणाणे तुहु परमप्पउ परमपरु ॥ १॥ जय रिसह रिसीसर मियपाय । जय अजिय जियंगमरोसराय। नय संभव संभवकय विओय । नय अहिणंदण दियपोय ॥२॥ नय सुमह सुमइ सम्मयपयास । जय पउमप्पह पउमाणिवास | " . जय जयहि सुपास सुपासगत । जय चंदप्पह चंदाहवत्त ॥३॥ जय पुष्फयंत दंततरंग | जय सीयल सीयलययणमंग। 'नय सेय सेयकिरणोहसज्ज । जय वासुपुज पुज्नाणपुज्न १२॥ नय विमल विमलगुणसेविठाण । नय भयहि अणताणतणाण। जय धम्म धम्मतित्थयर संत । नय सांति सांति विहियायवत्त ॥५॥ चय कुंथु कुंयुपहुमंगिसदय । नय अर अर माहर विहियसमय। नय मलि मालि आदामगंध | जय मुणिमुन्वय मुन्वयणिबंध ॥६॥ नय गमि णमियामरणियरसामि । जय मि धम्मरहचकणेमि । जय पास पासछिंदणकिवाण । भय वडूढमाण जसवड्ढमाण ॥॥ घत्ता। इह गाणिय णामीह, दुरियविरामहि, परहिवि णमिय सुरावलिहि। अणहहिं अणाइहिं, समियकुवाइदि, पणविमि अरईतावलिहिं ।। ॐ ह्रीं वृषमादिमहावीरान्तेभ्यो महा निर्वणमीति स्वाहा ॥१॥ अथ शास्त्रजयमाला प्राकृत । संपइ सुहकारण, कम्मवियारण, भवसमुदतारणतरणं। . निणवाणि णमस्सामि, सतपयास्समि, सरगमोक्खसंगमकरणं ॥१॥. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmminimuman जैनसिद्धांतसंग्रह.... [१९५.. जिणंदमुहाओ विणिग्गयतार 1. गणिदविगुंफिय गंथपयार । 'तिलोयहिमंडण धम्मह खाणि । सया पणमामि निणिदहवाणिं ॥२॥ अवग्गहईहअवायजुएहि । सुधारणमेयहिं तिण्णिसएहि । मई छत्तीस बहुप्पमुहाणि । सया पणमामि निर्णिदह वाणि ||३n. सुदं पुण दोणि अणेयपयार | सुवारहमेय नगचयसार । . सुरिंदरिदसमचियो जाणि । सया पणमामि निणिदह वाणि निजिंदगणिंदणरिंदह रिद्धि । पयासइ पुण्णपुराकिउलदि जिउग्गु पहिलउ एडवियाणि । सया पणमामि निर्णिदहवाणि ॥९ जु लोयमलोयह जुति नह । जु तिण्णविमलसरूव भणेह.. चउग्गइक्खण दजउ जाणि । सया पणमामि निर्णिदह वाणि: जिणिदचरित्तविचित्त मुणेइ । सुसावयधम्महि जुत्ति नणेइ। . णिउग्गुबितिनउ इत्यु वियागिा सया पगमामि निर्णिदहवाणि सुनीवमनीवह तच्चह चक्खु । सुपुरम विपाव चिंध विमुक्खु चउत्थुणिउग्गु विभासिय णाणिं । सया पणमामि जिणिदह वाणि तिमेयहि ओहि विणाण विचित्तु । चउत्यु रिनोविउलमइ उत्त ।। सुखाइय केवलणाण वियाणि । सया पणमामि निर्णिदह वाणि ॥९ निणिदह.. गाणु जगत्तयमाणु । महातमणासिय सुक्खणिहाणु। ‘पयञ्चहुंमत्तिमरेण वियाणि । सया पणमामि जिणिदह पाणि ॥१. 'पाणि सुवारहकोडिसेयण । सुलक्स्थतिरासिय जुचि भरेण। : सहस्सअठावण पंच वियाणि । सया पणमामि जिणिदहं वागि... इकावण, कोडिट लक्ख अठेव.। सहस.चुलसीदिसबा छकव। ..... सढाइगवीसह गथंपयाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] जैनसिदांतसंग्रह। प्रसा-इह निणवरवाणि विसुद्धमई। जो भवियणणियमण धरई।. सो सुरणरिंदसंपय लहिवि। केवलणाण विउत्तरई ॥१३॥ ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भुतस्याहादनयमितद्वादशांगधुतज्ञानाम. अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। ': अर्थ गुरुजयमाला प्राकृत। मवियह मवतारण, सोलहकारण, मजवि तित्थयरतणहं। . तव कम्म असंगइ दयधम्मंगह पालवि पंच महन्वयहं ॥१॥ वंदामि महारिसि सीलवंत । पत्रंदियसनम जोगजुत्त । जे न्यारह अंगह अणुसरति । जे चउदहपुव्वह मुणि धुणति ॥ पादाणु सारवार कुटुवुद्धि । उप्पण्णजाह आयासरिद्धि। ने पाणाहारी तोरणीय ने रुक्खमूल आतावणीय ॥ ३॥ ने मोणिधाय चंदाहणीय । जे जत्थत्यवाणि णिवासणीय । जे पंचमहव्वय धरणधीर । ने समिदि गुत्ति पालणहि वीर ॥॥ ने वदहि देह विरत्तचित्त | ने रायरोसमयमोहचत्त । जे कुगइहि सवरु विगयलोह । ने दुरियविणासण कामकोह ॥५॥ जे जलमल्ल तिणलित गत | आरम्भ परिगह ने विरत ।... ने तिण्णकाल बाहर गमति । छछम दसमठ तउचरंति ॥ ६॥ ने इकगास दुइगास लिति । नेणीरसमोयण रह करति । ते मुणिवर बंदऊँ ठियमसाण | जे कम्म डहइवरमुक्कझाण ॥७ बारह विह संनम जे घरंनि । ने चारि विकहा परहरति । . बावीस परीषह ने सहति । संसारमहण्णड ते तरति ॥ ८॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [ १९७ जे धम्मबुद्ध महियलि थुति । जे काउस्सग्गो गिंस गर्मवि । जे सिद्धिविलासण अहिलसंति । जे पक्खमास आहार लिंति ॥९॥ गोहणं जे वीरासणीय । जे धणुह सेज वज्जासणीय । 1 । ने तवबण आयांस नंति । जे गिरिगुहकंदर विवर यंति ॥१०॥ जे सत्तुमित समभावचित । ते मुनिवरवंदउ दिढचरितं । चवीसह गंथह ने विरत । ते मुणिवरवंदउं जगपवित्त ॥ ११॥ जे सुझा णिज्झा एकचित्त । वृंदामि महारिसि मोखपत । रयणत्तयरंजिय सुद्धभाव । ते सुणिवर बंदउं ठिदिसहाव ॥१२॥ घन्त्ता ने तपसूरा, संभमधीरा, सिद्धवधू अणुराईया । रयणत्तयरंजिय, कम्मह गंजिय, ते रिसिवर मई झाईया ॥१२॥६ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगु गविराजमानाचार्योपाव्यायसर्वसाधुभ्यो महार्षं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ · (४) देशraगुरु माषा पूजा । देवशास्त्रगुरु अडिल - प्रथमदेव अरहन्त सु श्रुतसिद्धान्तजू | गुरु निर्बंथ महन्त मुकतिपुरपन्थजू ॥ तीन रतन जगमाहिं सो ये भवि घ्याइये । तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ १ ॥ दोहा - पूजों पद अरहंतके, पूजों गुरुपद सार । पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः, ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह | अत्र मम सन्निहितो भव भव । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] जैनसिद्धांतसंग्रह। सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, बन्दनीक सुपदप्रभा। : अंति शोभनीकमुवरण उज्जल, देख छवि मोहित सभा ॥ भर नीर क्षीरसमुद्रघटभरि. अन तमु बहुविषि नचूं। महंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिर्मन्थ नितपूजा रचूं ॥१॥ दोहा-मकिनवस्तु हर लेत सब, नलस्वभाव मलछीन । . जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐहीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय नलं ।। ने त्रिजग उदरमझार मानी, तपत अति दुद्धर खरे। . तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे . तमु भ्रमरगेमित प्राण वावन, सरस चंदन पसि सचूं।' । अहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूजा रचूं ॥२॥ दोहा-चंदन शीतलता करै, तपतवस्तु परबीन । नासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ..॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदन राम यह मवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई। अति दृढ़ परमपावन नथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि तंदुल, पुंन घरि त्रयगुण न । अहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिन्थ नितपूजा रचूं ॥ ३॥ . दोहा-तंदुल सालि सुगंधि अति, परम अखंडित वीन। जासों पूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ . . ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदमाप्तये आक्षतं ॥३॥ में विनयवंत सुमन्यउरअंबुनप्रकाशन. भान हैं। जे एकमुखचारित्र भारत, त्रिजगमाहि.प्रधान हैं ॥. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९९ - जैन सिद्धांतसंग्रह। लहि कुन्दकमलादिक पहुप. भव भव कुवेदनसों बचूं । ' अहंतश्रुतासिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूना रचूं ॥ ४ ॥ दोहा-विविधांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन । तासों पूनों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ॥२॥ अति सबल मद कंदर्प जाको, क्षुषा उरग अमान है। , दुस्सह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़समान है ॥ उत्तम छहौरसयुक्त नित नैवेद्य करि घृतमें पचूं। अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूजा रचूं ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशाय चलं ॥५॥ जे त्रिजग उद्यम नाश कीनें मोहतिमिर महाबली । तिहि कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशनोति प्रभावली ॥ इह भांति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खचूं । • अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिन्थ नितपूना रचू ॥ ६॥ 'दोहा-स्वपरप्रकाशक जोति अति दीपक तमकरि हीन । जासों पूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ६॥ .. ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥ जो कर्म-ईंधन दहन अमिसमूहसम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगन्धि ताकरि सकलपरिमलता हँसे ।। इह भाँति धूप चढ़ाय नित, भवज्वलनमाहिं नहिं पचूं। अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिय नितपूना रचूं ॥ ७॥ दोहा-अमिमाहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन । जासों पूनों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ७॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिदांतसंग्रह। सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, वन्दनीक मुपदनमा। अति शोमनीकसुवरण उज्जल, देख छवि मोहित सभा । भर नीर क्षीरसमुद्रघटभरि. अन तमु बहुविषि नचूं। महंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिर्भन्ध नितपूजा रचूं ॥१॥ दोहा-मलिनवस्तु हर लेत सब, जलस्वभाव मलछीन । .. जासों पूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐही देवशाखगुरुभ्यो जन्मनरामृत्युविनाशनाय नलं . त्रिजग उदरमझार मानी, वपत अति दुद्धर खरे। तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता मरे तनु भ्रमरोमित प्राण वाचन, सरस चंदन घसि सचूं। महत श्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूजा रचूं ॥२॥ दोहा-चंदन शीतलता करे, तपतवस्तु परवीन । नासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं ॥२॥ यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई।। अति दुद परमपावन नयारथ, भक्ति वर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि संदुल, पुंन परि प्रयगुण अचूं। । महंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिमेन्य नितपूजा रचूं ॥३॥ . दोहा-तेंदुल सालि सुगंधि अति, परम अखंडित वीन। जासोपूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ३॥ ही देववशत्रगुरुम्यो अक्षयपदमाप्तये अक्षतं ॥ में विनयवंत सुमन्यउरगंबुनप्रकाशन भान हैं। ने एकमुखत्यारित्र भाषत, त्रिनगमाहि.प्रधान हैं। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA जैनसिद्धतिसंग्रह। । १९९ लहि कुन्दकमलादिक पहुप. भंव भव कुवेदनसों वचूं । अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूना रचूं ॥१॥ दोहा-विविधमांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन । तासों पूनों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ॥२॥ भति सबल मद कंद जाको, क्षुषा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़समान है । उत्तम छहारसयुक्त नित नैवेद्य करि घृतमें पचूं। अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूजा रचूं ॥ ५ ॥ ॐ हीं देवशालगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशाय चरुं ॥५॥ जे त्रिजग उद्यम नाश कीनें मोहतिमिर महाबली । तिहि कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशनोति प्रभावली ।। इह भांति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खचूं । . . . अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिन्थ नितपूना रचू ॥ ६ ॥ 'दोहा-स्वपरप्रकाशक जोति अति दीपक तमकरि हीन । जासों पूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ६॥ . ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं ॥६॥ जो कर्म-ईंधन दहन अनिसमूहसम उहत लसै । वर धूप तासु सुगन्धि ताकरि सकलपरिमलता हसै ॥ इह माँति धूप चढ़ाय नित, भवज्वलनमाहिं नहिं पचूं । अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिग्रंथ नितपूना रचूं ॥ ७॥ दोहा-अमिमाहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन । . नासों पूनों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ७ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] जैनसिद्धांतसंग्रह। ॐ ह्रीं देवंशावगुरुभ्यो अंटकर्मविधांसनाय धूपं ॥ ७॥ लोचन सुरसना प्राण उर. उत्साहके करतार हैं। मोपै न उपमा जाय वरणी, सकलकलगुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थ पूरन, परम अम्रतरस सबूं । महंतश्रुतसिद्धांत गुरु निग्रंथ नितपूजा रचूं ॥ .. दोहा-ने प्रधान फल फलविणे, पंचकरण-रसलीन । जासों पूनों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ८॥ ॐ ह्रीं देवशाकगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं ॥ ८॥ जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूं। वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमक पातक हरूं॥ इहमादि अर्व चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मर्छ । अहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निग्रंथ नितपूजा रचूं ॥ ॥९॥ दोहा-वसुविधि अर्घ संने यके, अति उछाह मन कीन । जासों पूनों परम पइ. देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ९॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनपदप्राप्तये अर्घ ॥ ९ ॥ ___अथ जयमाला। दोहा-देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरनी. अल्प मुगुग विस्तार ॥ १ ॥ पडि छन्द । चउकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि। जीवे अष्टादशदोपराशि ।। ने परम सुगुण हैं अनंत धीर । कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥२॥ शुम समवसरगशीमा अपार । शत इंद्र नमत कर शीस धार । देवाधिदेव अहंत देव । वंदो मनवचतनकरि सु सेव ॥शा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०१ 1 तिनकी धुनि है ओंकाररूप । निरभक्षरमय महिमा अनूप । दश अष्ट महाभाषा समेतं । लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्यादवादमय सप्त भंग । गणधर गूँथे बारह सु अंग । रवि शशि न हरै सो तमहराय । सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय ॥५ -गुरु आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध ! संसारदेह वैराग धार । निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥ ६ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस । भवतारनतरन नहाज ईस । गुरुकी महिमा बरनी न जाय। गुरु नाम जप मनवच काय ॥७॥ सोरठा-कीने शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा घरै । *** जैनसिद्धांतसंग्रह ! 'द्यानत' सरधावान, अजर अमरपद भोगवै ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । सूचना- आगे जिस भाईको निराकुलता व स्थिरता हो, वह नीचे लिखे अनुसार बीस तीर्थंकरोंकी भाषा पूना करै । यदि स्थिरता नहीं हो, तो इस पूजा के आगे पत्र २०९ में जो अर्थ लिखा है, उसको पढ़कर अर्ध चढ़ावै । (५) की तीर्थकर पूजा भाषा । दीप अढ़ाई मेरुपन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा करूं, मनवचतन घरि सीस ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! अत्र अवतर अवतर ! i. ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः 1... ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! मंत्र मम सन्निहितो भव भव । • Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAVANA २०१] जैनसिद्धांतसंग्रह। इन्द्रफणींद्रनरेंद्रवंध, पद निर्मलधारी। शोमनीक संसार, सार गुण हैं अविकारी ॥ क्षीरोदपिसम नीरसों (हो), पूजों तृषा निवार । सीमंधर मिन आदि दे, बीस विदेहमँझार ।। श्रीनिमरान हो भन, तारणवरणनिहान ११॥ ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं। (इस पूजामें यदि वीस पुंज करना हो तो इस प्रकार मंत्र । बोलना चाहिये। - ॐ हीं सीमंघर-युग्मंघर-बाहु-सुबाहु सजात-स्वयंप्रभु-ऋपमा- .. नन-अनन्तवीर्य-सूरप्रभु-विशालकीर्ति-वजयर-चन्द्रानन-चन्द्रवाहुमुंभगम-ईश्वर-नेमिप्रभु-वारपेण-महाभद्र-देवयशानितवीय्येति विशविविद्यमानतीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ तीन लोकके जीव, पाप आताप सताये। तिनको साना दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ बावन चंदनसों जजू (हो), अमनतपन निरवार । सीम० ॥ ॐ ह्रीं विधमानविंशतितीर्थकरेभ्यो भवातापविनाशनाय चंदन । निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी.। ताते तारे बड़ी भक्ति-नौका नग-नामी ।।. . बंदुक अमल सुगंधसों (दो), पूजों तुम गुणसार । सीम०॥३॥ ॐहीं विद्यमानविंशतिवार्थकरेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षवं ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२०३. ... भाविक-सरोज-विकाश, निंद्यतमहरं-रविसे. हो। - जतिश्रावकआचार कथनको, तुम्ही बड़े हो॥ फूलसुबास अनेकसों हो), पूजों मदनप्रहार । सीमं ॥४॥ ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः कामबाणविध्वंसनायं पुष्पं ॥४॥ कामनाग विषधाम-नाशकों गरुड़ कडे हों। .. . छुधा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो। :::: नेवन बहुधृत मिष्टसों (हो), पूनों भूखविडार । सीम० ॥५॥ ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्य ॥ उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है। मोह महातम घोर, नाश परकाश करयौ है ॥ पूनों,दीपप्रकाशसों हो। ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं ॥६॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशाय दीपं । · कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनिकर प्रगट, सर्व कीनों निरवारा ॥ धूप अनूपम खेवतें (हो, दुःख जलै निरधार । सीम० ॥ ७॥ . ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें नीत, जैनके मेरु खरे हैं । फल अति उत्तमसों जनों (हो, वांछित-फल दातार । सी• IKIE ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं । . . जल फल आठों दरब, अरघ. करमीत. धरी है। । ..गणधर इन्द्रनिहते, थुति पूरी न करी है.... Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | 'धानत' सेवक मानके (हो, जगते लेहु निकार । सीमं० ॥९॥ ॐ ह्रीं विद्यमान विद्यतितीर्थंकरेभ्यो ऽनर्घपदप्राप्तये अर्ध नि० स्वाहा। अथ जयमाला आरती । सोरठा - ज्ञानपुधाकर चन्द, भविकत्वेताहेत मेघ हो । भ्रमतममान अमन्द, तीर्थकर बीसों नमों ॥ १ ॥ सीमन्धर सीमन्धर स्वामी । जुगमन्धर जुगमन्धर नामी | बाहु बाहु जिन नगनन तारे । करम सुबाहु बाहुबल दारे ॥ १॥ जात जात केवलज्ञानं । स्वयंप्रम् प्रभु स्वयं प्रधानं । ऋपमानन ऋषि मानन दोष । अनन्त वीर्य वीरनकोषं ॥ २ ॥ सौरीप्रभ सौरीगुणमालं | मुगुण विशाल विशाल दयालं । वज्रधार भवगिरिवज्जर हैं । चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं ॥ ३ ॥ भद्रबाहु भद्रनिके करता । श्रीमुजंग मुजंगम भरता | ईश्वर सबके ईश्वर हालेँ । नेमिप्रभु बस नेमि विराजे ॥ १ ॥ वीरसेन वारं जग जाने । महाभद्र महामद बखाने । 1 नमो जसोधर जसधरकारी, नमो अजितवीरज बलधारी ॥ ५ ॥ धनुष पांचसे काय विरानै । आव कोड़िपूग्ब सब छानै । - समवसरण शोभित बिनराजा । भवजलतारनतरन जिहाना ॥ ६ ॥ सम्यक् रत्नत्रयनिधि दानी | लोकालोकप्रकाशक ज्ञानी । - चत इन्द्रनिकरि वंदित सोहे । सुरनर पशु सबके मन मोहे ॥७॥ दोहा- तुमको पूर्ने वंदना, करे धन्य नर सोय । : · 'द्यानत' सरघा मन धेरै, सो भी घरंमी होय ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M जैनसिद्धांतसंग्रह. २०६ अर्थ विद्यमानवीसतीर्थंकरोंका. अर्ध। . उदकचन्दनवन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्षकैः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं सीमंघरयुग्मंघरबाहुसुंबा सजातस्वयंप्रभुऋषमाननअनन्तवीर्यसूरप्रभुविशालकीर्तिवजघरचन्द्राननचन्द्रबाहुभुनंगमईश्वरनेमिप्रभुवीरसेनमहाभद्रदेवयशमजितवीति विशति विद्यमानतीर्थकरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १॥ • (६) अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्थ कृत्याऽकृत्रिमचारुचैत्यनिलयानित्यं त्रिलोकीगतान् ।. ___ वन्दे भावनन्यन्तरान्युतिवरान्कल्पामरान्सर्वगान् ।। : सद्गन्धाक्षतपुष्पदामदामचरुकैःश्च धूपैः फलै नारायश्च यने प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ॥१॥ ॐ ह्रीं कृत्रिमारुत्रिमचैत्यालयसम्बन्धिजिनबिम्बेभ्योऽयं । वर्षेषु वर्षान्तरपर्वतेषु नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु । . , . यावन्ति चैत्यायतनानि लोके सर्वाणि वन्दे जिनपुंगवानाम् ॥१॥ . अवनितलगानां कृत्रिमाऽकृत्रिमाणां । .'. वनमवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् ॥ इह मनुनकवानां देवरानार्चितानां । जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥२॥ नम्बूधातकिपुष्करार्द्धवसुषाक्षेत्रत्रये ये भवा श्चन्द्राम्मोजशिखण्डिकण्ठकनकमावृड्घनामाजिनः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। सम्यगुज्ञानचरित्रलक्षणपरा दग्याष्टकमेंन्धना भूतानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥३॥ श्रीमन्मेरौ कुलाद्री रजतगिरिवरे शाल्मली नम्बुले वक्षारे चत्यक्ष रतिकररुचिके कुण्डले मानुषाके। इप्वाकारेशनादौ दधिमुखशिखरे व्यन्तरे स्वर्गलोके ज्योतिलोकेऽभिवन्दे भुवनमहितले यानि चैत्यालयानि ॥ दौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलौ हाविन्द्रनीलामो द्वौ बन्धूकसमप्रमौ निनवृषौ द्वौ च प्रियगुममौ । शेषाः षोडशनन्ममृत्युरहिताः सन्तप्तहेमप्रमा स्ते सज्ञानदिवाकराः सुरनुताः सिद्धि प्रयच्छन्तु नः ॥ *ही त्रिलोकसम्बन्धिमकत्रिमचैत्यालयेभ्योऽर्ष निर्वामि। . इच्छामि भते-चेइयमति कामओसगो को तस्सालोचेको अहलोय तिरियलोय उडलोयम्मि क्रिष्टिमाकिटिमाणि बाणि निणचेहयाणि वाणि सव्वाणि । तीमुवि एस मवणवासियवाणवितरनोयसियक्रप्पवासियति चविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गन्षेण दिव्वेण पुष्फेण दिव्वेण धुण दिवेण चुण्णण दिवेण वासेक दिवेण हाणेण । णिचकालं अञ्चति पुति वदति णमसति। अहमवि इह संतो तत्य संताई णिचकालं अञ्चेमि पुजमि चंदामि मसामि दुक्खक्समो कम्मक्समो बोहिलामो सुगइगमणं समाहिमरणं निणगुणपत्ति होउ मज्झं। . अकादः। परिपुप्पांजलिं क्षिपेत् ) अथ पौर्वाहिकमाध्याहिकअपराडिकदेवबंदनायां पूर्वाचार्या Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनासिद्धांतसंग्रह । - . . [२०७ जुक्रमेण सकलकर्मसयार्थ भावपूजाबन्दनास्तवसमेत श्रीपंचमहागुरू भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् । . . . (कायोत्सर्ग करना और नीचे लिखे मंत्रका नौबार जाप करना) णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरीयाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाणं ॥ . . ताव कार्य पावकम्मं दुचरियं वोसरामि । (७) सिद्धपूजा। उवाघो रयुतं सबिन्दुसपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं वर्गापूरितदिग्गताम्बुनदलं तत्सन्धितत्त्वान्वितम् । 'अन्तःपत्रतटेवनाहतयुतं हाकारसंवेष्टितं . देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीमकण्ठीरवः।।। ____ श्री सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । . ही सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेछिन् अत्र विष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐहीं सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहित भव भवं वषट्। निरस्तकर्मसम्बन्ध सुक्ष्म नित्यं निरामयम् । वन्देऽहं परमात्मानममूर्तमनुपद्रवम् ॥ १॥ (सिद्धयन्त्रकी स्थापना) . सिद्धौं निवासमनुगं परमात्मगम्यं. . . , . हीनांदिभावरहित भववीतकायम् । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] नैनसिद्धांतसंग्रह। रेवापगावरसरो-यमुनोद्भवानां नारयने कलशगवरसिद्धचक्रम् ॥१॥ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्ममृत्युविनाशनाय नलं ।। मानन्कन्दननकं घनकर्ममुक्त सम्यक्त्वशर्मगरिमं जननासिवीतम् । सौरम्यवासितमुवं हरिचन्दनानां . गन्धैर्यजे परिमलवरसिद्धचक्रम् ॥१॥ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदन। सर्वावगाहनगुणं सुसमाधिनिष्ठ, सिद्धं स्वरूपनिपुणं कमलं विशालम् । सौगन्ध्यशालिवनशालिवराक्षतानां पुजयने शशिनिमवरसिद्धचक्रम् ॥ ६ ॥ ॐ ही सिद्धकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षय नित्य स्वदेहपरिमाणमनादिसंज्ञ द्रव्यानपेक्षममृत मरणाघातीतम्। मन्दारकुन्दकमलादिवनस्पतीनां पुष्पैर्य ने शुभतमेवरसिद्धचक्रम् ॥ ४॥ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं । उद्धस्वभावगमनं सुमनोव्यपेत. ब्रक्षादिबीमसहितं गगनावमासम् । क्षीरानसाच्यवटकै रसपूर्णगमैं नित्यं यने चरुवरैर्वरसिद्धचक्रम् ॥ ५॥ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेटिने क्षुद्रोगविध्वंसनाय नैवेद्य। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसिद्धातसंग्रह। [२०९ . भातशोकमयरोगमदपशान्त । निईन्द्वभावधरण महिमानिवेशम् ॥ . कपूरवर्तिबहुमिः कनकावदति- . . : पर्यने रुचिवरैर्वरसिंखचक्रम् ॥..॥ ॐही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दी पश्यन्समस्तभुवन युगपनितान्त । काल्यवस्तुविषये निविंडंप्रदीपम् ॥ सद्रव्यगन्धधनमारविमिश्रितानी । धूपैर्यजे. परिमलैवरसिद्धचक्रम् ॥ ७ ॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं । सिद्धासुगदिपतियक्षनरेन्द्रचक्र यं शिवं सकळमव्यजनैः सुबन्धम् । . नारिङ्गपगकदलीफलनारिकेलैः ।। सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥ ८॥ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्टिने मोक्षफळपाप्तये फलं। . गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रतगणेः सङ्गं वरं चन्दनं । पुप्पोविमलं सदक्षतचयं रम्यं चरुं दीपकम् ॥ धूप गन्धयुतं ददामि विविध श्रेष्ठं फलं लब्धये । सिद्धानां युगपत्कमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ॥ ॐही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपदमाप्तये मध्य ॥९: ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं । सुक्ष्मस्वभावपरमं यदनन्तवीर्यम् ॥ १४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] जैनसिद्धांतसंग्रह । कर्मेष कक्षदहनं सुखशस्पचीनं । वन्दे सदा निरुपमं वर सिद्धचक्रम् ॥ १० ॥ • ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाष्ये निर्वपामीति । त्रैलोक्येश्वरवन्दनीयचरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वतीं । यानाराध्य निरुद्धचण्डमनसः सन्तोऽपि तीर्थङ्कराः ॥ सत्यभ्यवत्वविवशेषवीविशदाऽव्या वाघता बैगुणेयुक्तांस्तानिह तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयान् ॥ ११ (पुष्पालि क्षिपेत् ) ww 1 अथ जयमाला ! विराग सनातन शान्त निरंश । निरामय निर्भय निर्मल हंस || सुधाम विबोधनिधान विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१॥ विदूरितसंसृतभाव निरङ्ग । समामृतपूरित देव विसङ्ग ॥ भवन्ध कषायविहीन विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धममूह ||२|| निवारितदुष्कृतकर्म विपास | सदामलकेवळ लिनिवास || भवोदविशर शान्त विमोह । प्रसिद्ध विशुद्ध सुसिद्धममुह ॥३॥ अनन्तसुखामृत मागर धीर । कलङ्करजोमलमुरिसमोर ॥ विखण्डितकाम विराम विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धमूह ||४|| विकारविवर्तित तर्जितशोक । विशेषसुनेत्र विलोकितलोक || बिहार विराव विरङ्ग विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धमूह ॥१॥ रमोमलखेद विमुक्त विगात्र । निरन्तर नित्य सुखामृतपात्र | सुदर्शनराजित नाथ विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुमिद्धममूह ॥६॥ (नरामरवन्दित निर्मकभाव । अनन्तमुनीश्वरपूज्य विहाव || सदोदय विश्वमहेश विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥ ०॥ 1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। [२.१. विदभ वितृष्ण विदोष विनिंद्र | परात्पर शंकर सार वितन्द्र। विकोप विरूप विश विमोह । प्रसीद विशुद्ध मुसिद्धपमूह |८ भरामरणोज्झित वीतविहार । वितित निर्मल निरहंकार । अचिन्त्यचरित्र विदर्प विमोह । प्रसोद विशुद्ध मुसिद्धसमूह ॥९॥.. 'विवर्ण विगन्ध विमान विलोम | विमाय विकाय विशब्द विशोम। अनाजुक केवळ सर्व विमोह। प्रसीड विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१०॥ मसमसमयसारं चारुचैतन्यचिह्न, परपरणतिमुक्तं पद्मनंदीन्द्रवंद्यम्। निखिलगुणनिकेतं सिद्धचक्र विशुद्ध, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् ॥११॥ ॐ ही सिद्धपरमेष्ठिम्यो महाध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ अडिल्ल छन्द-अविनाशो अविकार परमरस धाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहन भमिराम हो॥ शुद्धघोष अविरुद्ध अनादि अनंत हो। जगतशिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो॥१॥. ध्यानमगनिकर कर्म कलंक सबै दहे। नित्य निरंजन देव सरूपी हो रहे ॥ ज्ञायकके भाकार ममत्वनिवारिके । सो परमातम सिद्ध नमूं सिरनायके ॥२॥ दोहा-अविचलज्ञानपकाशते, गुण अनंतकी खान । ध्यान धेरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ॥३॥. इत्याशीर्वादः ( पुष्पानलिं क्षिपेत् ) Page #208 --------------------------------------------------------------------------  Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१३ जैन सिद्धांतसंग्रह | - सोलहकारणका अर्ध । उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्वरुसुदी पसुधूप फकां धकैः । धवलमङ्गकगानरवाकुले जिनगृहे जिनहेतुमहं बजे ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्ध चादिषोडशकारणेभ्यो मध्ये ॥ १ ॥ दशलक्षण धर्मका अर्घ । उदकचन्दनवन्दुल पुष्पकैश्वरुसुदीप सुधूपफलार्धकैः । धवळ मङ्गळगानरवाकुले जिनगृहे जिनधर्ममहं यजे ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं भई मुखकमलसमुद्भूतोत्तमक्षमा माई वार्जवसत्यशौचसंन्यमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्य्यदशलाक्षणिक धर्मेम्यो अर्ध्य ॥ २ ॥ रत्नत्रयका अर्ध । उदकचन्दनवन्दुल पुष्पकेश्वरुसुदी पसुधूपफलार्थ है: ] ..चवलमलगा नरवाकुले जिनगृहे शिवरत्नमहं यजे ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविषसम्यग्ज्ञानाय त्रयोद- शमकारसम्यक् चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ अथ पञ्चपरमेष्ठिजयमाला ( प्राकृत ) - मणुय - णाइन्द - सुरधरियछत्तत्तया । पञ्च कल्लाणसुक्खावली पत्तथा ॥ दंसणं णाण झाणं अनंतं बलं । ते निणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं ॥ १ ॥ 'नेह झाणग्गिव हि मथद्वयं । जन्मजरमरणणयरत्तयं दड्ढयं ॥ जेहि पत्तं सिव सासयं ठाणयं । ते महा दिंतु सिद्धावरं गाणये ॥२॥ · पञ्चहाचारपञ्च ग्गिसंसाहया | वारसंगाई सुयजलहिं अवगाहया || मोक्खलच्छी महंती महं ते सया । सुरिओ रिंतु मोक्खं गया संगया || चोरसंसारमीमाडवीकाणणे । - तिक्ख वियरालणह पावपञ्चाणणे ॥ गाण जीवाण पहदेसया । बंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया ||४ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] जैनसिद्धांतसंग्रह। उगतवयरणकरणेहिं झणं गया। घमवरहाणकखेकझाणं गया । णिन्मरं तबसिर.ऐ समालिंगया। साहो ते महामोवस्वपहमग्गया। एण थोषण जो पंचगुरु वंदए । गुरुयसंसारघणवेल्लि सो छिंदए । बहह सो सिडमुक्खाइ वरमाणण। कुणइ कम्भिवण पुंमपज्जाकणं . मा--मरहा सिद्धाइरिया, उपझाया साई पञ्चपरमेट्ठी। ___ एयाण णमुकारो, भवे भवे मम मुहं दित ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं महंसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुपश्चपरमेष्ठिम्योऽर्षमहा निर्वामीति स्वाहा। __इच्छामि भते पञ्चगुरुभत्ति कामओसग्गो कमओ, तसालोचेको अट्टमहापडि हेरसंजुत्ताणे अरहताणं । अद्वगुण सपण्णाणं उदलोबम्मि पटियाण सिद्धाण | अटुपवयणमा संजुत्ताण आइरियाणं ।। मायारादिमुदणाणोददेसबाण उवझायाणं । तिरयण गुणपालणरमाणं सव्वसाणं । विकालं बच्चेमि पूजेमि वदामि णमस्सामि ।। दुःखवखो कम्मक्खको बोहिलाहो मुगइगमण समाहिमरणं निणगुणसंपत्ति होस मज्झं । इत्याशीर्वादः । (पुप्पामलिं क्षिपेत् .. H {९] समुच्चयचौकीली पूजा । (कविवर वृन्दावन नीकृत) वृषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदम सुगार्स जिनराय ।। अन्द पुहुप शीतक श्रेयांस नमि, वासुपुन पूनितरराय । विमल अनंत धर्मनसटजल, शांति कुंथु भर मल्लि मनाय । सानिमुखत नमि नेमि पार्सप्रभु, बर्द्धमानपद पुष्प चढ़ाप ॥ १. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२१६ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तचतुर्विशतिजिनसमूह.! पत्र अवतर भवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीवृषमादिवीरान्त चतुर्विशतिनिनसमूह ! अत्र विष्ठ तिष्ठ | 3:31 ॐ ही श्रीवृषभादिवीरान्तचतुर्विशति जिनसमूह ! पत्र मम सन्निहितो भव भव वषट । मुनिमनसम उज्जल नीर, पामुक गन्ध भरा। भरि कनकाटोरी धीर, दीनी धार धरा ॥ चौंवीसों श्रीनिनचंद, मानन्दकंद सही। पदननत हरत भवफंद, पावत मोक्षमही ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो जन्मभरामृत्युविनाशनाय नलं। गोशीर कपूर मिलाय, केशर रंगमरी । जिनचरनन देत चढ़ाय, भवाताप हरी ॥ चौवीसों ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं । वंदुल सित सोमसमान, सुंदर अनियारे । मुकताफलकी उनमान, पुन धरों प्यारे । चौवीसो० ॥३॥ ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्योऽभयपरप्राप्तये अक्षतं । वरकंन कदंव कुरंड, सुमन सुगंध भरे । जिन अन घरौ गुनमंड, कामकलंक हरे ॥ चौबीसों ॥ १ ॥ ॐ ही श्रीवृषभादिवीरान्तम्धः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं । मनमोदनमोदक आदि, सुंदर सद्य बने । रसपरित प्रामुक स्वाद, जनत छुधादि हने ॥ चौवीमों ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यः क्षुवारोगविनाशनाय नैवेचं । : तमखंडन दीप जगाय, पारों तुम आगे। सब तिमिरमोह-क्षय नाय, ज्ञानकला जागै ॥ चौवीसा० ॥६॥ . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] जनसिद्धांतसंग्रह । ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं । दशगंध हुताशनमा, हे प्रभु खेवत हों । मिस घूम करम नरि नांहिं, तुम पद सेवत हों | चौवीसों ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूरं निर्वपा० || शुचि पक्क सरव फक्र सार, सत्र ऋतुके स्थायो । देखत डगमनको प्यार, पूजत सुख पायो ॥ चौवीसौ० ॥८॥ ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्यो मोक्षफराप्तये फलं निर्वपा० ॥ मलफल आठों शुचि सार, ताको अर्ध करों । तुमको भरप भवतार, भव तरि मोच्छ वरों ॥ चौवीसों श्री मिनचन्द, आनंदकंद सही । पदमनत हरत भवकंद, यावत मोक्षमही ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो मन पद राप्तये अर्ध्य | जयमाला । दोहा - श्रीमत तीरथनाथपद, माथ नाय हितहेत । गाऊं गुणमाका भबे, अमर अपरपददेत ॥ १ ॥ धत्ता - जय भवतम्भन मनमनकंजन, रंजन दिनमनि स्वच्छ करा । शिवमगपरकाशक अरिगननाशक, चौवीसौं मिनराज वरा ॥ २ ॥ नय रिषभदेव रिपिगन नमंत । जय अजित नीत वसुमरि तुरन्त । नय समेव भवभय करत चूर। जब अभिनंदन आनंदपूर | २|| मय सुमति सुमतिदायक दयाक जय पद्म पद्मति तनरसाल । जय जय सुपास भवपासनाश | जय चंद चंदतनदुतिप्रकाश ||४|| मय पुष्पदंत दुतिदंत सेत । जय शीतळ शीतळगुननिकेत । अय श्रेमनाथ नुतसहसमुच । नय वासवपूजित वासुपूज्न ॥ ९ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह: । [ २१७ भय विमल विमलपददेनहार | जय जय अनंत गुनगन अपार । जय धर्म धर्म शिवशर्मदेत । नय शांति शांतिपुष्टीकरेत ॥ ६ ॥ जय कुंथु कुंयुवा दिक रखेय | जय भर जिन वसुपरिक्षण करेय ॥ जय मछि मल्ल हतमोहमल । नय मुनिसुव्रत व्रतशद ॥७॥ नय नमि नित वासवनुत सपेम । जय नेमिनाथ वृषचक्रनेम ॥ जय पारसनाथ अनाथनाथ । जय वर्द्धमान शिवनगरसाथ ॥ ८ ॥ धत्ता-चौवीस जिंनंदा आनंदकंदा, पापनिकंदा सुखकारी । तिनपदजुगचन्दा उदय अमंदा, वासववंदा हितधारी ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विंशतिजिनेम्यो महार्ष निर्वपामीति स्वाहा || सोरठा - भुक्तिमुक्तिदातार, चौवीसौं निनंराजवर | तिनपद मनवचधार, जो पुत्रै सो शिव कहै ॥१०॥ इत्याशीर्वादः । (पुष्पांजलिं क्षिपेत) (१०) सऋषिपूजा | । छप्पय- प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर । तीसर मुनि श्रीनिचय सर्वसुन्दर चौथौ वर ॥ • पंचम श्रीजयवान विनयकाकस षष्ठम भनि । जयमित्राख्य सर्वचारित्रधामगनि ॥ सप्तम ये सातौं चारणऋद्धिवर, करूं तासु पद स्थापना । मैं पूजूं मनवचकायकरि जो सुख चाहूं आपना. ॥ ॐ ह्रीं चारणविरश्री सप्तर्षीश्वरा ! अत्रावतर अवतर संव षट् । मन्त्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । मत्र मम सन्निहितो सब सब वट् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१८ ] जैनसिद्धांतसंग्रह । गीता छन्द । शुमतीद्भव जल अनूपम, मिष्ट शीतळ कायके ॥ भव तृषा कंद निकंद कारण, शुद्ध घट भरवायके || मन्यादि चारण ऋद्धिधारक, मुनिनकी पूजा करूं । ता करें पातिक हरे सारे सकळ अनंद विश्वरूं || ॐ ह्रीं श्रीमन्वस्वरमन्वनिचय सर्व सुंदर मयवान विनयलाल सजयमित्रर्षिम्यो जन्ममरामृत्यु विनाशनाय नलं ॥ १ ॥ श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द मन्द घिप्तायके । तसु गन्ध प्रसरति दिगदिगन्तर, भर कटोरी लायके ॥ म ॐ ह्रीं श्रीमन्वस्वरमन्वनिचय सर्वसुन्दर जयवान विनयलाळतभयमित्रर्पिम्यो चन्दनं ॥ १ ॥ अति धवल अक्षत खण्डवर्जित हि गननभोगके | कलधौत धारा भरत सुन्दर, चुन्ति शुभ उपयोगके ॥ म०॥ाॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षियो अक्षमा निर्वपामि ॥३॥ बहु वर्ण सुवरण सुमन बांछे, अमन कम गुळाचके | केतकी चम्पा चारु महमा, चुने निन कर चावके ॥ म० ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्यादिसप्तर्षियोपुष्पं ॥ ४ ॥ पकवान नाना भांति चातुर, राचत्र शुद्ध नये नये । सदशिष्ट लाडू आदि भर बहु, पुष्टकर भारी लये ॥ म० ॥ ॐॐ ह्रीं श्रीमन्यादिसप्तर्षियो नवेद्यं निर्वपामि ॥ ९ ॥ कलमौत दीपक मड़ित नाना, भरित गोघृतसारसो । यति ज्वलित नगमग मोति भाकी, तिमिर नाशनहार सो ॥म०॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो दीपं निर्वपामि ॥ ६ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२१९ दिक्चक्र गंधित होत जाकर, धूप दशअंगी कही। सो लाय मन वच काय शुद्ध, कगायकर खेऊ सही ॥ म० ॥ . ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिम्यो धूपं निर्वपामि ॥ ७॥ वर दाख खारक अमित प्यारे. मिष्ट चुष्ट चुनायके । ' द्रावड़ी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर भरवायके ॥ म० ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिम्यो फर्क निर्वपामि ॥ ॥ नल गन्ध अक्षत पुष्प चरु वर, दीप धूप सु लावना । फल केलित भाठों द्रव्य मिश्रित, बघे कीजे पावना ॥ म. ॥ ॐहो श्रीमन्वादिसप्तषम्यो मध्य निर्वयामि ॥ ९ ॥ अथ जयमाला। बन्दू ऋषिराजा, धर्मनहाजा, निजपर काना, करत भले । करुणाके धारी, गगनविहारी, दुख अपहारी, भरम दले ॥ काटत. यमफन्दा, भविजन वृन्दा, करत अनंदा, चरणनमें । जो पून घ्यावे, मङ्गल गावें, फेर न भावे भववर्नमें । पद्धड़ी छन्द । जय श्रीमनु मुनिराजा महंत । त्रस थावरकी रक्षा करत ॥ भय मिथ्यातमनाशक पतङ्ग | करुणारसपूरित अङ्गमङ्ग ॥ १ ॥ जय श्रीस्वरमनु अकलवरूप । पद सेव करत नित अमर भूप ॥ जय पञ्च मक्ष जीते महान । तप तपत देह कञ्चन समान ॥२॥ जय निचय सप्त तत्वार्थभास । तप रमातनो तनमें प्रकाश । . जय विषयं रोष सम्बोष भान । परणतिके नाशन अचल ध्यान ॥ • नय जयहिं सर्वमुन्दर दयाका लखि इन्द्रनालवत जगतमाल || . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। भय तृष्णाहारी रमण राम । निम परणतिमें पायो विराम ॥ भय मानदघन कल्याणरूप । कल्याण करत सबको मनूप ॥ नय मदनाशन नयवान देव । निरमद विरचित सब करत सेव ॥५॥ 'जय नेय विनयलालस ममान | सब शत्रु मित्र मानत समान ॥ नय कृशितकाय तपके प्रमाव । छवि छटा उड़ति मानंददाय ॥६॥ 'नयमित्र सकल नगके सुमित्र । अनगिनत अधम कीने पवित्र । •जय चन्द्रवदन रानीव-नयन । कवई विकथा बोलत न वयन ॥७॥ नय सातों मुनिवर एक सङ्ग। नित गगन गमन करते अमङ्ग । जय भाये मथुरापुरमशार | तह मरीरोगको गति प्रचार || जय जय तिन चरणों के प्रसाद | सब मरी देवकृत भई बाद ॥ मय कोक परे निर्भय समस्त । हम नमत सदा तिन मोर हस्त ॥९॥ जय भीषम ऋतु पर्वतमझार । नित करत मतापन योग सार ।। भय तृषा परीषह करत जेर । कहुं रंच चलत नहिं मन सुमेर ॥१. जय मूल पठाइस गुणन पार । तप उग्र तपत मानन्दकार ॥ भय वर्षा ऋतु में वृक्षतीर । तह मति शीतक झेल समीर ॥११॥ -भय शीत काल चौपट मझार । के नदी सरोवर वट विचार ॥ भय निवसतध्यानारूढ़ होय । रचक नहिं मटकत रोम कोय ॥१२ भय मृतकासन बचासनीय । गौदहन इत्यादिक गनीय .॥ . नय भासन नाना भांति धार | उपसर्ग सहत ममता निवार ॥१३ जो नपत निहारो नाम कोय । तिस पुत्र पौत्र कुछ वृद्धि होय ॥ भय भरे लक्ष अतिशय भण्डार। दारिद्रतनो दुख होय क्षार ॥१५ जय चोर अग्नि डाकिन पिशाच । अरु ईतिमीत सव नसत सांच ।। जय तुम सुमरत सुख लहत कोकासुर मसुर नवत पद देत धोक। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धीतसंग्रह। शेला-ये सातों मुनिराज महातपलछमी धारी। - परम पूज्य पद घरें सकल नंगके हितकारी ।। जो मन वच तन शुद्ध होय सेवे औ ध्याय । सौ जन मनरङ्गालाल भष्ट ऋद्धनको पावै ।। दोहा-नमत करत चरनन परत, महो गरीब निवानं । पञ्च परावर्तननि, निरवारौ ऋषिराज ।। ॐ ह्रीं प्तर्षिम्यो पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा । (११) अथ सोलहकारण पूजा। अडिल्ल-सोलहकारण भावं तीर्थकर जे भये । हरषे इन्द्र अपार मेरूपै ले गये ।। पूना करि निज धन्य लख्यौ बहु चावसौं । हमहू षोडशकारण भावें भावसौं ॥ १ ॥ - ॐ ह्री दर्शनविशुयादि षोड़शकारणानि ! पत्रावरावतर संवौषट। ___ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणानि ! मत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ । ही दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणानि ! मन मम सन्निहितौ भव भव वषट् । चौपाई-कंचनझारी निर्मल नीर । पूजौं जिनवर गुणगंभीर । परमगुरु हो, जय नय नाथ परम गुरु हो॥ दर्शविशुदि भावना माय । सोलह वीर्थकरपददाय । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] जैनसिद्धावसंग्रह। परमगुरु हो, भय जय नाम परमगुरु हो ॥ १ ॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धादिपोडशकारणेम्यो जन्ममृत्युविनाशा. यमकं ॥ चंदन पिस कपूर मिलाय, पनौ श्री जिनवरके पाय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्शन ॥२॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशचारणेभ्यः चंदनं.॥ तंदुल धवल सुगंध मनृप । पुौ निनवर तिहुँनगमूप । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शनवि० ॥॥ ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशकाणेम्यो मक्षवान् नि० ॥ फूक सुगंध मधुपगुनार । पूनों निनबर जगाधार । परमगुरु हो, जय जय नाय परमगुरु हो ॥ दर्शन ॥॥ ॐ ही दर्शनविशुस्यादिषोडशकारणेम्यः पुष्पं नि०॥ सदनेवन बहुविध पकवान | पनों श्री मिनवर गुणखान.। परमगुरु हो, भय जय नाथ परमगुरु हो। दर्शनवि० ॥५॥ ॐ दो दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेम्पः नवेद्य नि॥ . दीपकमोति तिमर छपकार । जू श्रीनिन केवलधार। . पामगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । ' दर्शविशुद्ध भावना माय ! सोलह वायकरपद दाय। । परमगुल हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ ६॥ - ॐही नविशुद्धयादिषोडशकारणेम्यो दीपं नि० ॥ . . मगर शुम खेय | श्रीजिनवर मागे महकेय । परमगुरु हो, भय नव नाथ परमगुरु हो. ॥ दर्शन ॥७॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२२३ ॐ ह्रीं दर्शनविशुब्यादिषोड़शकारणेम्यो निर्वपामि ॥७॥ : श्रीफल आदि बहुत फळसार । पूजौं जिन वांछितदातार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शन ॥८॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेम्यो फलं ॥८॥ मक फल माठों दरन चढ़ाय | 'धानत' व्रत करों मनलाय,-परमगुरु हो, जय नय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शन ॥ ९ ॥ ही दर्शनविशुड्यादिषोड़शकारणेभ्यो मध्ये निर्वपामि || अथ जयमाला । दोहा-पोडशकारण गुण करै, हरै चतुरगतिवास । पापपुण्य सब नाशक, ज्ञानमानु परकास ॥१॥ दर्शनविशुद्ध घरै जो कोई। ताको भावागमन न होई॥ विनय महा धारे जो पानी । शिववनिताकी सखी वखनो ॥२॥ शील सदा दिढ़ नो नर पालें । सो औरनकी मापा टाः ॥ ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं । साकै मोहमहातम नाहीं ॥२॥ जो संवेगमाव विस्तारै । सुरगमुकतिपद माप निहारे । दान देय मन हरष विशेले । इह भर जस परमव सुख देख ॥३॥ जो तप तपै खपै ममिकाषा । चूरे करमशिखर गुरु भाषा ॥ साधुसमाधि सदा मम लावै । तिहुं नगमोगि भोग शिव नावै ॥६॥ 'निशदिन यावृत्य करैया। सौ निह भवनीर औरैया ॥ नो मरहंतमगति मन माने । सो जन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो माचारनमगति करे है । सो निर्मक माचार ,धरै है. बहुश्रुतवतमगति जो करई । सो नर संपुरन थापरई ॥२॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] बैनसिद्धांतसंग्रह। प्रवचनमगति कर जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानंददाता ॥ . पटुमावश्य काल जो साथै । सो ही रतनत्रय भाराधे ॥ ८॥ घरमप्रभाव करें जे ज्ञानी । तिन शिवमारग रीति पिछानी। वत्सलमंग सदा जो ज्यादै । सो तीर्थपदवी पावे ॥९॥ दोहा-एही सोलहभावना, सहित धेरै व्रत मोय । देवइन्द्रनवंद्यपद, 'पानत' शिवपद होय ॥१०॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः पूर्णाध्य । (अध्यके बाद विर्मन भी करना चाहिये) (१२) दशलक्षणधर्मपूजा। अडिल्ल-उत्तम छिमा मारंदव भारमवमाव हैं। शौच सत्य सनम तप त्याग उपाव हैं। माकिंचन ब्रह्मचर्य धाम दश सार हैं। चहुंगतिदुखत काढ़ि मुक्तिकरता हैं ॥१॥ ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! वापता अवतर ! संवौषट् । ॐ ह्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ विष्ठ । 3.1 - ॐही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म | मन मम सनिहितो भव भव । वषट् । सोरठा-हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल मुरम। भव माताप निवार, दसकच्छन पूनों सदा ॥१॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नलं निवपामि ॥१॥ चन्दन केशर गार, होय सुवास ों दिशा । भवमा० ॥२॥ ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय चंदनं निर्वपामि ||२|| Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२२६ अमल अखंडित सार, तंदुल चंद्रसमान शुम ।। भवा० ॥ ३॥ ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान् निर्वामिः॥शा फूल अनेक प्रकार, महकै अरघलोंके लों ॥ भव ॥१॥ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय पुप्पं निर्वपामि॥४ नेवन विविध निहार, उत्तम पटरसयुत ॥ भवआ• ॥५॥ . ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नैवेद्य निर्वपामि ॥५॥ बाति कपूर सुधार, दीपकजोति :सुहावनी ॥ भव० ॥१॥ - ॐ ह्रीं उत्तेमक्षमादिदशलक्षणधर्माय दीपं निर्वामि ॥६॥ अगर धूप विस्तार, फैले. सर्व सुगंधता ॥ भवा०॥ ७ ॥ ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय धूपं निर्वयामि ॥ ७॥ फलकी नाति अपार, प्रान नयन-मनमोहने ॥ भव० ॥८॥ ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं निर्वामि ॥ ८॥ आठों दरव सम्हार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों॥ भवआ० ॥९॥ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मायाय निर्वपामि ॥ ९॥ अंगपूजा । सोरठा-'पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें। धरिये क्षमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥ १.॥ १ कहीं, २ सोरठा कहकर प्रत्येक धर्मको स्थापना करते है और फिर भागेकी चौगई तथा गीता कहकर अर्घ चढ़ाते है और कहीर सोरठाके अन्तमें भी अर्घ चढ़ाते हैं और चौगई गीताके अन्तमें भी भर्ष चंदाते हैं । यथार्थमें सोरठा और चौपाई गीताके अन्तमें एक २ धर्मका अलग २ एक २ अर्घ चढ़ाना चाहिये। १५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmM २२६ ] मनसिद्धांतसंग्रह। चौपाई मिश्रित गीताछंद । उचमक्षमा गहो रे भाई । इहमव नस परभव सुखदाई॥ गाली मुनि मन खेद न आनो । गुनको औगुन कहै अयानो। कहि है अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविषि करे । घरते निकारै तन विदार, वैर जो न वहां धरै ॥ तें करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति कोष अगनि बुझाय प्राणि, साम्य जल ले सीयरा ॥१॥ ॐ ही उत्तमक्षमाधानाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ मान महाविपरूप, करहि नीचगति जगतम । . कोमल सुधा अनूप, सुख पाव प्राणी सदा ॥२॥ उत्तम माईब गुन मन माना | मान करनको कौन ठिकाना ।। चस्यो निगोदमाहित आया । दमरी लंकन भाग विकाया ॥ रूंकन विकाया भागवशत, देव इकइंद्री भया । उत्तम मुभा चंडाल हुआ, भूप कीडोंमे गया । नीतन्य-मोवन-धनगुमान, कहा करै मलबुदबुदा । करि विनय बहुश्रुत बड़े ननकी, ज्ञानका पावै उदा ॥२॥ ही उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अय निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कपट न कोने कोय, चोरनके पुर ना बसे। . सरल स्वभावी होय, ताके घर बहु संपदा ॥३॥ उत्तममार्जवरीति बखानी । रंचक दगा बहुत दुखदानी ॥ मनमें हो सो वचन उचरिये । वचन होय सो तनसौं करिये।। तत्त्वार्थसूत्र में सत्यसे पहले शैवषर्मको कहा है, इस कारण इस । नामें भी हमने तत्वार्थपत्रके पागनुसार शौवषर्मको पहले कर दिया है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धतिसंग्रह 1 [ २२७ करिये सरल तिहुजोग अपने, देख निर्मल आरसी । मुख करे जैसा लखै तैसा, कपट प्रीति अँगारसी || । नहिं लहै लछमी अधिक छलकरि, करमबंधविसेखता । भय त्यागि दूध विलाव पीवै. आपदा नहिं देखता ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाभवधर्माङ्गाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहां ॥ चेरि हरिदै संतोष करहु तपस्या देहसौं । शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसारमें ॥ 8 ॥ उत्तम शांच सर्व जग जाना । लोभ पापको बाप मखाना ॥ आसपास महां दुखदानी । सुख पावै संतोषी प्राणी ॥ प्राणी सदा शुचि शीलजपतप ज्ञानध्यानप्रभावतें । नित गंगाजमुन· समुद्र न्हाये, अशुचिशेष स्वभावर्ते । ऊपर अमल मल भरचो भीतर, कौन विष घट शुचि कहै ॥ चहु देह मैली सुगुनथैली, शौचगुन साधू लहै ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमशौचघर्मांगाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ कठिन वचन मति बोल, परनिंदा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी नगमें सुखी ॥ १ ॥ उत्तम सत्य चरत पालीजे, परविश्वास घात नहिं कीने । सांचे झूठे मानुष देखो, आपनपून स्वपास न पेखो || 'देखो तिहायत पुरुष सांचेको, दरब सब दीजिये । सुनिराज श्रावककी प्रतिष्ठा, सांचगुण लख लीजिये ॥ ऊंचे सिंहासन बैठ सुनृप, धर्मका भूरति भया । . चच झूठसेती नरक पहुंचा, सुरगमें नारद गया ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसत्यम गाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] जैनसिद्धावसंग्रह । "काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो। संजम रतन समाल, विषयचोर बहु फिरत हैं ।॥ ६॥ उत्तम संजम गहु मन मेरे। भवमत्रके मार्ग अघ तेरे। . सुरग नरक पशुगतिमें नाहीं । आलसहरन करन सुख ठाहीं । गही प्रथी नल आग मारुत, रूख त्रस करुना घरो। सपरसन रसना भान नैना, कान मन सब वश करो। निस विना नहिं निजगज सीझें, तू रुल्यो जगकीचमें । इक घरी मत विसरो करो नित, आयु नममुखबीचमें ॥१॥.. ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ तप चाह सुखराय, कर्म सिखरको वज्र है द्वादशविषि सुखदाय, क्यों न करै निन सक्ति सम् ॥ ७॥ उत्तम तप सवमाहि वखाना । कर्मशिखरको वन समाना। बस्यो अनादिगोदमंझारा । भूविकलत्रय पशुवन धारा ॥ . धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता। श्रीजनवानी तत्वज्ञानी, भई विषमपयोगता ॥ अति महादुर्लभ त्याग विषय, कपाय नो तप आदरै। नरभवअनूपमकनकघरपर, मणिमयी कलसा घरै ॥ ७॥ ॐ हीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अय निर्वपामीति स्वाहा ॥ दान चार परकार, चार संघको दीजिये। धन विजुली उनहार, नरमव लाहो लीजिये ॥ ८ ॥ उत्तमत्याग कयो जगसारा । औषध शास्त्र अभय अहारा । निश्चय रागद्वेष निरवारै। ज्ञाता दोनों दान समारै। दोनों संमारे कूपनलसम, दरव घरमें परिनया । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह.. .[२२९ निनहाथ दीने साथ लीने, खायाखोया वह गया || धनि साधु शास्त्र अभयदिवैया, त्यांग राग विरोधको ।। विन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाही बोधकों ॥ ८॥ . ॐ ही उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अध्ये निर्वपामीति स्वाहा ICE परिग्रह चौविस भेद, त्याग करें मुनिरानजी । तिसनामाव उंछेद, घटती जान घटाइये ॥९॥ उत्तम आकिंचन गुण नानौ । परिग्रहचिंता दुख ही मानौ । फाँस तनकसी तनमें सालै । चाह लंगोटीकी दुख भाले । भाले न समता सुख कभी नर विना मुनिमुद्रा धेरै । पनि नगनपर तन-नगन ठाड़े, सुर असुर पायन पैरें । घरमाहि तिसना जो घंटों, रुचि नहीं संसारसौ। बहु धन बुरांहू मला कहिये, लीन पर उपगारसौ ॥९॥ ___ही उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अयं निर्वपामिति स्वाहा ॥९॥ शीलवाड़ि नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ॥१०॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो । माता बहिन सुता पहिचानो । सहैं वानवर्षा बहु सूरै। टिके न नैन वान लखि कूरे ॥ . कूरे त्रियाके अशुचितनमें, कामरोगी रति करें। बहु मृतक सहहिं, मसानमांहीं, काक ज्यों चौंचे भरें । संसारमें विषवेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । 'धानत' धरमदड़ि चड़िय, शिवमहलमें पग घरा ॥१०॥ ॐ हीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय मध्य निर्वपामिति स्वाहा ॥१० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । अथ जयमाला ! दोहा - दशलक्षण बंद सदा, मनवंछित फलदाय । कहीं आरती भारती, हमपर होहु सहाय ॥ १ ॥ खत्तम क्षमां जहां मन होई । अंतरबाहर शत्रु न कोई ॥ उत्तममार्दव विनय प्रकासे । नाना भेद ज्ञान सब भासै ॥ १ ॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावै । दुरगति त्यागी सुगति उपजावै ॥ उत्तमशौच लोभ परिहारी। संतोषी गुनरतनमँडारी ॥ ३ ॥ उत्तमसत्यवचन मुख बोले । सो प्रानी संसार न डोलै । उत्तमसंयम पालै ज्ञाता । चरभव सफल करे ले साता ॥ ४ ॥ उत्तमतप निरवांक्षित पालै । सो नर करमशत्रुको टालै ॥ उत्तमत्याग करे जो कोई । भोगी भूमि- सुर- शिवसुख होई ॥२॥ उत्तम आकिंचनत घारै । परमसमाधिदशा विसतारे ॥ सत्तमब्रह्मचर्य मन लावै । नरसुरसहित मुकतिफल पावै ॥ ६ ॥ २३० ] K · . दोहा - करे करमकी निर्जरा. भवपींजरा विनाशि | अजर अमरपदको छ, 'द्यानत' सुखकी राशि ||७|| ॐ ह्रीं उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमत्तपस्त्यागा किंचन्य अह्मचर्यदशलक्षणधर्माय पुर्णाय निर्वपामीति स्वाहा || ( अध्यंके बाद विसर्जन करना ) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . जैनसिद्धांतसंग्रह । [२३१ (१३) पंचमेरुपूजा। तीर्थंकरोंके न्हवनजलतें, भये तीरथ शर्वदा । वातै प्रदच्छन देत सुरगन, पंचमेरनकी सदा ॥ दो नलघि ढाईदीपमें सब, गनतमूल विराजही। पूजौं असी निजधाम प्रतिमा, होहि सुख, दुख भाजही ॥१॥ ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअस्सीचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! मनावतरावर । संवौषट् । .. ॐ हीं पञ्चमेरुसम्बन्धिअस्सीचैत्यालयस्थाजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः। ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिअस्सीचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! मन ममसनिहितो भव भव वषट् । अथाष्टक। चौपाई आंचलीबद्ध ( ११ मात्रा) सीतलमिष्टसुवास मिलाय । जलसौं पूजौं श्री जिनराय ।। . महांसुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। पांचों मेरु असी निजधाम । सब प्रतिमानीको करों प्रणाम || महांसुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ १ ॥ । ॐ हीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो जलं ॥३॥ नल केशरकरपूरमिलाय । चन्दनसौं पूनौं श्रीजिनराय ॥ . . महांसुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों ॥२॥ ॐ ह्री पञ्चमेरुसम्बन्धिचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः चंदनं । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] जैनसिद्धांतसंग्रह । अमल अखंड सुगंध सुहाय • अच्छतसौं पूजौं जिनराय । महांसुख होय, देखे नाथ परमसुख होय । पांचो० ॥शा ॐ ही पञ्चमेरुसम्बन्धिनिनचैत्यालयस्थबिम्बेभ्यो अक्षतान् । बरन अनेक रहे महकाय, फूलनसौं पूनों जिनराय । ___ महांसुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। पांचों ॥४॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिमिनचैत्यालयस्थजिनविम्बेभ्यः पुप्पं ।। मनवांछित बहु तुरत बनाय | चरुसौं पूनौं श्री जिनराय । __महांसुख होय देख नाथ परम सुख होय ॥ पांचों ॥५॥ ॐ ह्री पंचमेरुसम्बन्धिजिनचल्यालयस्थमिनविम्बेभ्यो नैवेद्यं ॥ . तमहर उज्जल नोति नगाय दीपसौं पूनौं श्रीमिनराय । महांमुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥पांचों० ॥६॥ ॐही पंचमेरुसम्बन्धिनिनचैत्यालयस्थगिनबिम्बेभ्यो दीपं ।। खेडं अगर परिमल अधिकाय । धूपसौं पूर्जी श्रीजिनराय । ___ महांमुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों० ॥७॥ ॐ ह्री पञ्चमेरुसम्बन्धिनिनचैत्यालयस्थनिन बिम्बेभ्यो धूपं ।। मुरस सुवर्ण सुगंध सुमाय । फलसौं पृनौं श्रीजिनराय । महांसुख होय, देख नाथ परम सुख होय । पांचों ॥6॥ ॐ ही पञ्चमेरुसम्बन्धिनिनचेत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः फलं ।। माठ दरवमय अरघ बनाय । 'धानत' पूनों श्रीनिनराय। . • महामुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥पांचों ॥९॥ ॐही पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अध्ये ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धातसंग्रह। [२३३ अथ जयमाला। सोरठा। प्रथम सुदर्शन स्वाम, विनय अचल मदर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेरु जगमें प्रगट ॥ १ ॥ वेसरी छंद । प्रथम सुदर्शन मेरु विराजै । भद्रशाल वन भूपर छाजै। . चैत्यालय चारों सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥१॥ 'ऊपर पंच-शतकपर सोहै। नंदनवन देखत मन मोहै चि०॥॥ साढ़े बासठ सहस ऊंचाई । वन सौमनस शोमा अधिकाई ॥२॥ ऊंचा जोजन सहस छतीसं । पांडुकवन सोहै गिरिसीसं चि०॥५॥ चारों मेरु समान बखानो । भूपर भद्रसाल चहुं नानो ॥ चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥६॥ ऊंचे पांच शतकपर माखें। चारों नंदनवन अभिलाखे । चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनबचतन वंदना हमारी ||७|| •साढ़े पचपन सहस उतंगा | वन सौमनस चार बहुरंगा ॥ . चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥८॥ उच्च अठाइस सहस बताये । पांडक चारों नव शुभ गाये ॥ चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥९॥ सुरनर चारन वंदन आ । सो शोभा हम किह मुख गावें ॥ चैत्यालय अस्सी सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥१०॥ दोहा-पंचमेरुकी आरती, पढ़े सुनै जो कोय।। • धानत, फल जाने प्रभु, तुरत महासुख होय ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] जैनसिद्धांतसंग्रह। ॐ ह्रीं पंचमेहसंबंधिभस्सीजिनचत्यालयस्यविनाविम्प्रेभ्यो मध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ( अर्यके बाद विसर्जन करना चाहिये ) (११) रत्ननायपूजा। दोहा-चहुंगतिफणिविषहरनमणि, दुखपाक जलधार । शिवसुतमुधासरोवरी, सम्यकत्रयी निहार ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्रावतरावर । संवौषट् । . ॐ ही सन्यप्रत्नत्रय ! अत्र तिष्ठ विष्ट । ऊ : ॐ ही सम्यप्रत्नत्रयः। अत्र मम सन्निहिने भव भव । वषटी. होरठा-क्षीरोदपि उनहार, उजल जल अति सोहना। जनमरोगनिरवार, सन्यकरत्नत्रय यनों ॥ १ ॥ ही सम्यग्रलत्रयाय जन्मनरामृत्युरोगविनाशनाय नलं ॥१॥ चंदन केसर गरि, परिमल महां सुगंधमय । जन्मरो० ॥२॥ ॐही सम्यग्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चंदनं ॥२॥ वंदुल अमल चितार, बासमती सुखदासके। जन्मरो० ॥३॥ ॐ ही सम्यमलत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ॥ ३ ॥ महके फूल अपार, अलि गुर्जे ज्यों श्रुति करें। जन्मरो० ॥ १ ॥ ॐही सम्यग्रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ॥ १ ॥ लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत । जन्मरोः ॥५॥ ॐ ही सम्यमलत्राय तुषारोगविनाशनाय नैवेद्यं ॥५॥ दीपरतनमय सार, जोत प्रकाश जगतमें । जन्मरो० ॥ ६ ॥ ही सम्यात्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। |२३५ . धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूरकी । जन्मरो० ॥ ७॥ . . ॐ ह्रीं सम्यग्रलत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं ॥ ७॥ फलशोभा अधिकार लोग छुहारे नायफल | जन्मरो. ॥८॥ ॐ हीं सम्यग्रतत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि ॥८॥ माठदरव निरधार, उत्तमंसों उत्तम लिये । जन्मरो० ॥९॥ । ॐ हीं सम्यग्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामि ॥९॥ सम्यकदर्शनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी। पार उतारन जान, 'धानत' पूजौं व्रतसहित ॥१०॥ . ॐ हीं सम्यग्रत्नत्रयाय पूर्णार्य निर्वपामीति स्वाहा ॥१०॥ दर्शनपूजा। दोहा-सिद्ध अष्टगुणमय प्रगट, मुक्कमहलसोपान । निहबिन ज्ञानचरित अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥ ॐ हीं अष्टांगसम्यदर्शन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट । भत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । सन्निहितौ भव भव वषट् । सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल क्षय करै। सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ १ ॥ ॐ हीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जल.केसर धनसार, ताप हेरै शीतल करै । सम्यकद० ॥॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ मक्षत अनुप निहार, दारिद नाशै सुख मेरै । सम्यक ॥३॥ '. ॐ हीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ॥ पहुप सुवास उदार, खेद हेरै मन शुचि करै । सम्यकद• ॥॥ ॐ हीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ||: Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | • नेवज विविधप्रकार, छुपा हरै थिरता फेर सम्यकद० ॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ||५|| दीपज्योति तमहार घटपट परकाश महां सम्यकद० ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ भूप प्राणसुखकार, रोग विघन जड़ता हरे । सम्यकद० ||७|| · ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ||७|| श्रीफलआदि विचार, निहचे सुरशिवफल करै । सम्यकद ० ॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ||८|| जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फत्र फूल चरु । सम्यकद ० ॥९॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति ॥९॥ जयमाला । · दोहा - आप भाप निचे लखे, तत्वप्रीति व्योहार । रहितदोष पच्चीस है, सहित अष्ट गुन सार || १॥ चोपाइमिश्रित गीता छन्द । - सम्यकदर्शन रतन गहीने। जिनवचमैं संदेह न कोने ! इहभव विभवचाह दुखदानी । परभवमोग है मत प्रानी ॥ प्रानी गिललन न करि अशुचि लाख, घरमगुरूप्रभु परखिये । परदोष ढकिये धरम डिगतेको सुथिर कर रखिये | चहुसंघको वात्सल्य कीजे धर्मकी परभावना । = शुन आठसौ गुन आठ लहिकै, इहां फेर न आवना ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसहितपञ्चविंशतिदोषरहित सम्यग्दर्शनाय · पूर्णाष्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धातसंग्रह -। ज्ञानपूजा । दोहा - पञ्चभेद नाके प्रगट, ज्ञेयप्रकाशन भान । मोह - तपन - हर - चंद्रमा, 'सोई सम्यकज्ञान ॥ १ ॥ [ २३० ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर । संवाष 1ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र मम सन्निहितो भव भव D वपटू ॥ सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरे मल क्षय करे । : सम्यकज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ १ ॥ · ॐ ह्रीं अष्टविषसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ - नलकेसर घनसार, ताप हरै शीतल करै । सम्यकज्ञा० ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ अक्षत अनुप निहार, दारिद नाशे सुख करै । सम्यकज्ञा० ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपा० स्वाहा ॥३॥ पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्यकज्ञा० ॥४॥ . ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ||४|| नेवज विविधप्रकार, छुधा हर थिरता करै । सम्यकज्ञा ० ॥ ५ ॥ ॐ ह्री, अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्यं निर्वपा० स्वाहा ॥५॥ दीपज्योतितमहार, घटपट परकाशे महां । सम्यकज्ञा • ॥६॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ ग्रुप प्रानसुखकार, रोग विघन नड़ता हरे । सम्यकज्ञा ० ॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ||७|| श्रीफल आदि विथार, निहचै सुरशिवफल करै । सम्यकज्ञा• ॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टविषसम्यग्ज्ञानायं फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] जैनसिद्धांतसंग्रह। जल गंधाक्षत चार, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यकज्ञा ॥९॥ ही अप्रविषसम्याज्ञानाय अर्घ्य निर्वपा. स्वाहा ९॥ अय जयमाला। दोहा-आप आप जाने नियत ग्रंथपठन न्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अप्टअंग गुनकार ।। चोपाई मिश्रित गीता छन्द । • सम्यकज्ञान रतन मन भाया । आगम तीजा नैन बताया ॥ भक्षर शुद्ध अर्ष पहिचानौ । भक्षर अर्थ उमय संग नाना ।। 'चानौं सुकाल पढ़ो जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तपरीति गही बहु मान दे, विनयगुन चित लाइये। ए आठ भेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पण देखना। इस ज्ञानहींसों भरत सोझे, और सब पटपेखना ॥२॥ ॐ अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाध्य निर्वपा• स्वाहा ॥२॥ चारित्र पूजा। दोहा-विषयरोग औषध महा, देवकषायजलधार । तीर्थकर जाको धेरै, सम्यकचारितसार ॥१॥ *ही त्रयोदशविषसम्यकचारित्र ! अत्र अवतर अवतर।. संबोषट् । ॐ त्रयोदशविधसम्यकूचारित्र ! अत्रतिष्ठ तिष्ठ| 3:31 . *ही शविषसम्यकचारित्र ! अत्र मम सन्निहिवं -भव भव । वषट् । सोरठा-नीर मुगंध अपार, त्रिषा हरै मल क्षय करे। . . सम्यकचारित धार, तेरहविष पूर्वी सदा ॥ १ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांत संग्रह | [ २३९ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधंसम्यकचारित्राय नलं ॥ १ ॥ जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करे । सम्यकचा ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय चंदनं निर्वपा• ॥ २ ॥ अक्षत अनुप निहार, दारिंद नाशै सुख करें । सम्यकचा ॥३॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्रचारित्राय अक्षतान् निवपा० ॥ ६ ॥ पुहपसुवास उदार, खेद हर मन शुचि करै । सम्यकचा ० ॥४॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय पुष्पं निर्वपा स्वाहा ॥४॥ नेवन विविधप्रकार, छुषा हरें थिरता करै । सम्यक० । ५ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय नैवेद्यं निर्वपा • स्वाहां ॥१॥ -दापजोति तमहार, घटपट प्रकाशै महां । सम्यकचा• ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधिसम्यकचारित्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धूप प्राण सुखकार, रोग विधन जड़ता हरै । सम्यकचा० ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदश सम्यकचारित्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफलआदि विथार, निर्हेचे सुरशिवफल करे । सम्यक• ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय फलं निर्वपा० स्वाहा । ८ १ जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु सम्यक• ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविषसम्यकचारित्राय अर्घ्यं निर्वपा • स्वाहा ॥ ९ ॥ J अथ जयमाला । दोहा - आप आप थिर नियत नय, तपसंजम व्योहार । स्वपर दया दोनो लिये, तेरहविष दुखहार ॥ १ ॥ चोपाई मिश्रित गीता छंद । सम्यकचारित रतन सँभालो । पांच पाप तजि व्रत पालो । पंचसमिति त्रय गुपति गहजै । नरमव सफल करहु तन होने ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] जैनसिद्धांतसंग्रहः । .7 छीने सदा तनको मतन यह एक संगमः पाकियै । बहु रुल्यो नर्कनिगोदमाहिं, कषायविषयनिटालियेः ॥ शुभ करमजोग सुधार आयो पार हो दिन मात है। 'धानत' घरमकी नाव बैठो शिवपुरी कुंशलात है. ॥ २ ॥१६० ॐ ह्रीं त्रयोदशविधिसम्यकचारित्राय महार्घ्यं निर्वपा• ॥२॥ अथ समुचय जयमाला । दोहा - सम्यकदरशन ज्ञान व्रत, इन विन सुकत न होय । : : अंघ पंगु अरु आलसी, जुदे न दव-लोय ॥ १ ॥ तामै ध्यान सुथिर बन आवै । ताके कमरबंध कट जावै । वाषै शिवतिय प्रीति बढ़ावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥ २ ॥ ताक चहुंगतिके दुख नाहीं । सो न परै भवसागरमांहीं ॥ जनमबरामृत दोष मिटावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥ ३ ॥ सोई दशलच्छनको साधै । सो सोलहकारण आराधे !!. सो परमातम पद उपजावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥ ४ ॥ सोई शक्रचक्रिपद लेई । तीनलोकके सुख बिलसेई ॥ सो रागादिक भाव बहाने । नो सम्यकरतनत्रय ध्यावै- 11.50सोई कोकालोक निहारें । परमानंददशा विखारैः ॥ 1 आप तिरे औरन तिरवावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥ ६ ॥ 1 1 दोहा - एकस्वरूपप्रकाश निन, वचन कह्यो नहिं जायः ॥ 'तीनमेद व्योहार सब, धानतको सुखदाय ॥ ७ सम्यग्रत्नत्रयाय महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । ( अर्ध्यके बाद विसर्जन करना चाहिये । " Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनासिद्धांतसंग्रह। [२४१ (१५) श्रीनन्दीवरपूजा। अडिल्लं-सरव पर्वमें बड़ो अठाई पर्व हैं। नन्दीश्वर सुरं जाहिं लेय वसु दरब है ।। हमें शक्ति सो नाहिं इहां करि थापना । पूनों जिनगृह प्रतिमा है हित आपना । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशजिनालयस्थभिनप्रतिमासमूह। अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशजिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वाहीपे द्विपञ्चाशजिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! भत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । कंचनर्माणमय भृगारं, तीरथनीरभरा । तिहुँ धार दयी निरंवार; नामन मरन जरा ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंन करों। । वसुदिन प्रतिमा अमिराम, आनंदभाव घरों ॥१॥ . ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वग्हीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षणे द्विचाश. जिनालयस्थनिनप्रतिमाम्यो जन्मनरामृत्युविनाशनाय नलं निवपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ भवतपहर शीतलवास, सो.चंदननाहीं। . :प्रभु यह गुन कीने सांच, भायो तुम ठगही ॥ नंदी० ॥२॥' ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्व-द्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाक्ष. जिनालयस्थनिनप्रतिमाम्यो । संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ १६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। उत्तम मक्षत मिनरान, घुनघरे सोहे ॥ सब जीते भक्षसमान. तम सम मा को है। नंदी॥an ॐ ही श्रीनन्दीश्वरहीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाक्षन्जिनालयस्थनिनप्रतिमाम्यो भक्षयपदप्राप्तये नक्षतान निर्वपामि || तुम कामविनाशक देव, घ्याऊं फूलनसौं। बहु शील उच्छमी एक, छुटू सुननसौं ॥ नंदी ॥१॥ ही श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपचाशचि. नालयस्यनिनपतिमाभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निवपामि ॥ नेवन इन्द्रियवनकार, सो तुमने चूरा। चर तुम ढिग सोहे सार, मचरन है पूरा ॥ नन्दी० ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चायजिव्यस्थनिनप्रतिमाम्यः क्षुषारोगविनाशनाय नवे निर्वामि ॥५॥ दीपककी ज्योति प्रकाश, तम वनमाहि मे ॥ टै करमनकी राश, ज्ञानकणी दास ॥ नन्दी० ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री नंदीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशजिनालयस्थमिनपतिमाम्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥ कृष्णागरुघूपसुवास दशदिशिनारि रै। अति हर्षभाव परकाश, मानों नृत्य करें। नंदी. ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशनिनाम्यस्यनिनप्रतिमाभ्यो अष्टधर्मदहनाय धुपं निर्वयामि ॥ ७ ॥ • 'बहुविषफल ले तिहुंकाल, भानंद राचत हैं। तुम शिवफल देहु दयाक, तो हम भाचत है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह | नंदीश्वरश्री जिनधाम, बाचन पुंत्र करों । वसुदिन प्रतिमा अभिराम, मानंदभाव घरों ॥ ८ [ २४३ ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्व द्वीपे पूर्व पश्चिमोत्तर दक्षिणे द्विपञ्चाश्चज्जि - नालयस्थ जिनप्रतिमाम्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि ॥ ८ ॥ यह मर कियो निम हेत, तुमको भर्पत हों। 'द्यानंत' कीनो शिवखेत, भूप समर्पत हों ॥ नंदी• ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशजिनाळवस्थाजिन प्रतिमाम्पो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्ध्या निर्वपामि ॥ ९ ॥ अथ जयमाला । दोहा - कार्तिक फागुन साढ़के, अंत भाठ दिनमाहि । नन्दीश्वर सुर जात हैं, हम पूर्जे इह ठाहिं ॥ १ ॥ एकसौ तरेसठ कोड़ि जोननमहां । . कख चौरासिया एक दिशमें कहा || आठमों द्वीप नन्दीश्वरं भास्वरं । भवन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥ २ ॥ चारदिशि चार अंजनगिरि राजहीं ।. सहस चौरासिया एकदिश छानहीं । ढोलसम गोल ऊपर तले सुंदरं ॥ भवन ० ॥ ३ ॥ एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी । एक इकलाख भोजन अमल जळभरी ॥ चहुंदिशा चार वन लाखजोजन वरं ॥ भवन ० ॥४॥ सोक वापीनमधि सोक गिरि दधिमुखं । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५] अनसिद्धांतसंग्रह। सहस वश महां. नोनन लखत ही मुखं ॥ पावरीकोंन दोमाहि दो रतिकरं । भान०॥ ५॥ शैल बत्तीस इक सहस नोजन कहे। चार सोले मिले सर्व बावन लहे ॥ एक इक शीशपर एक मिनमदिरं । भवन ॥१ विंब मठ एकसौ रतनमई सोहही। देवदेवी सरव नयनमन मोह ही॥ पांचसे धनुष तन पद्ममासनपरं ।। भवन ॥ ७॥ काक नख मुख नयन स्याम मरु स्वेत है। स्यामरंग भोह सिरकेश छवि देत हैं। ___ वचन बोलत मनों हसत कालुपहरं ॥ भवन ॥८॥ कोटिशशि मानधुति तेम छिप जात हैं। महांवराग परिणाम ठहरात हैं। बयन नहिं कहैं कखि होत सम्यकपरं । भवन०॥९॥ सोरठा। नंदीश्वर निनघाम, प्रतिमामहिमाको कहें। 'चानत' लीनों नाम, यहै कि शिवमुख कर ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरहीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशजिनालयस्थजिनप्रतिमाग्यः पूर्णाध निर्वपामीति स्वाहा। [मयके बाद विसर्जन करना चाहिये ] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जनासद्धावसंग्रह। " (१६) निर्वाणक्षेत्र पूजा। सोरठा-परम पूज्य चौवीस, जिह जिह थानकं शिव गये। - सिद्ध भूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करों ॥१॥ ॐ ह्रीं चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि | पत्र अवतर नवतर: संवौषट् । ॐ ही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि? मत्र तिष्ठ विष्ठ । काठः। ॐही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि मत्र मम सन्निहितो भव भव | वषट् । गीता छंद। शुचि क्षीरदधिसम नीर निर्मल, कनकझारीने भरौं । संसारपार उतार स्वामी, मोर कर विनती करौं । सम्मेदगिरि गिरनार चंपा, पावापुरि कैलामकौं । पनों सदा चौवीसमिननिर्वाणमूमिनिवासकौं ॥१॥ . ॐ ही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो जलं ॥ १ ॥ केशर'कपूर सुगंध चंदन, सलिक शीतल विस्त ।। भवपापको संताप मेटौं, नोर कर विनती करौं सम्मेाशा ॐ ह्रीं चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो चंदनं ॥२॥ मोतीसमान अखंड तंदुल, अमल मानदधरि तरौं । भौगुन हरौ गुन करौ हमको, नोर कर विनती करौं सम्मे॥३॥ ॐही चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अक्षतान् ॥३॥ शुभफूलराम सुवासंवासित, खेद सब मनके हरौं। बुखधाम काम विनाश मेरो, नोर कर विनती करौं ।सम्मे । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। ." ही चतुविशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः पुष्पं ॥ ४॥ नेवन भनेक प्रकार जोग, मनोग परि भय परिहरौं । यह मुखदुखन टार प्रभुनी, नोर कर विनती करौं सम्मे-11॥ ॐ ह्रीं चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो नवेचं ॥५॥ दीपक प्रकाश टनाप उज्जल, तिमिरसेती न िडौँ। मंशयविमोहविमर्म-वमहर, नोरकर विनती करौं सम्मे॥९॥ ॐही चविशतित थैकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं ॥१॥ . शुभ धूप परम भनूर पावन, भाव पावन माचरौं। सब करमपुंन जलाय दीजे, मोर कर विनती करों। सम्मे० ॥७ ॐ ह्रीं चविंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूपं ॥७॥ बहु फल मगाय चढ़ाय उत्तम, चारंगतिसों निरव ।। निहचे मुस्तफल देहु मोकौं, जोर कर विनती की। सम्मे० ॥८ ॐ ही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेम्यः फलं ॥॥ . जल गंध अच्छत फूल चरु फल, दीप धूपायन घरों। बानत' करो निर्भय नगवे, मोर कर विनती करौं। सम्मे• ॥९॥ ॐ ही चतुविशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रभ्यो मध्ये ॥९॥ अथ जयमाला। सोरग-श्रीचौबीसमिनेश, गिरिकलासादिक नमों। : वीरथ महारदेश महापुरुष निर्वाणते ॥१॥ नों रिषम फैलासपहारं । नेमिनाथ गिरनार निहारं । मामुपज्य चपाएर दौं। सनमति पावापुर जमिनदों ॥१॥ .. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जनसिद्धातसंग्रह। वंदौं अनित अनितपददाता | वंदों संभवमवदुखपाता ॥ वंदों मभिनन्दन गणनायक । वंदौं सुमति सुमतिके दायक ॥३॥ . बंदी पदम मुकतिपदमाघर । बंदी सुपार्श भाशपाताहर । वंदौं चंदप्रभु प्रभु चंदा । वंदौं मुविधि सुविधिनिधिकदा ॥ ४ ॥ वंदी शीतल मतपशीतल । वदों श्रियांस श्रियांस महीतल ॥ वंद विमल विमल उपयोगी । वदौं अनंत अनंतमुखमोगी ॥१॥ वंदों धर्म धर्म विस्तारा । बदौं शांति शांतमनधारा ॥ बंद कुंथु कुंथुरखबाळ । वंदौं भरि अरहर गुनमालं ॥६॥ बंदी मल्लि काममल चूरन । वंदौं मुनिसुव्रत व्रतपूरन ॥ बंद नमि जिन नमित सुरासुर । वदी पार्स पासभ्रमनरहर ॥७॥ वीसों सिंद्धभूमि ना ऊपर, सिखर समेद महागिरि भूपर॥ एकवार बंदै जो कोई | नाहि नरक पशुगति नहिं होई ॥८॥ नरगतिनृप सुर शक कहावै । तिहुँ जग भोग भोगि शिव पावै ।। विधनविनाशक मंगलकारी । गुण विलास वर्दै नरनारी ॥९॥ छंद घत्ता। जो तीरथ भावै पापमिटा ध्यावे गावै भक्ति करें। ताको मत कहिये संपति कहिये, गिरिके गुणको बुध उचर ॥१०॥ ॐ ही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्य निर्वामि। . (अध्यके बाद विसर्जन करना चाहिये।) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] नैनसिद्धांतसंपा। . (१७) देवपूजा। दोहा-प्रभु तुम रामा भगतके, हमें देय दुख मोह । तुम पद पूजा करत हूं. हम करना होहि ॥१॥ ॐ ही अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीमिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरावर । सौपेट् । * ही अष्टादश्चदोषरहितपटचत्वारिंशदगुणसहितप्रीमिनेंद्रभगवन् अत्र तिष्ठ तिष्ट । : । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीनिंद्रभगवन् मत्र मम सन्निहितो भव भव ! वटै । बहु तृपा सतायो, अति दुख पायो, तुम भायो, नळ लायो। उत्तम गंगामड, शुचि अति शीतक, प्राशुक निर्मक, गुन गायो । प्रमु अतरनामी त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो! यह अरन सुनीने, दीक न कीन, न्याय करीजे, दया घरो ॥१॥ ॐही अष्टादशदोषरहिषटचत्वारिंशदगुणसहितनीमिन्द्र भगवदम्यो जन्मभरामृत्युविनाशनाय नई निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ अवतपत निरंतर, अगनिपटतर, मो र अंतर. खेद कयौँ । के बावन चंदन, दाहनिकंदन, दुमपदवंदन, हरप धरयो प्रमु०॥ *ही बटादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीमिनेम्यो मवातापनाशाय चंदनं०॥ १ संवोपडिति देवोद्देशेन इविस्त्यागे । २० इति बृहप्पनौ । ३ पपडिति देवोदयकहविस्त्यागे । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिंदातसंग्रह । [२४९ . भौगुन दुखतादा, कहो न माता मोहिमसाता, बहुत करे। । तंदुल गुनमंडितं, ममा मखडित, पनत पंडित, प्रीति धेरै प्रमु॥ ॐ ह्रीं भष्टदिशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीनिनेम्यो भक्षयपदप्राप्तये मक्षतान निर्वामीति ॥ ३॥ सुरनर पशुको दल, काम महापलं, बात कहत छल, मोहिं लिया। तोके शर लाऊं फूल चढाऊ, भक्ति बढाऊँ, खोल हियो पसुगा 'ॐही अष्टादशदीपरहिवषट्चत्वारिंशदगुणहितश्रीनिनेम्यो कामबाणावध्वंसनायं पुष्पं निर्बपामि ॥१॥ सब दोषनमाही, मासम नाही, भूख सदा ही, मो कागे। सद घेवर वावर, लाई बहु घर, थार कनक मर तुम मांगें ॥ ॐही मष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीमिनेम्यो क्षुद्रोगनाशाय नैवेध ॥. मज्ञान महातम, छाये रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख पावें । तम मेटनहारा, तेन मपारा, दीप संवारा, नस गावें ॥ प्रभुः ॥ • . ॐहीं मष्टादशदोषरहितषटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वामि ॥६॥ इह कर्म महावन, मूल रहयो जन, शिवमारग नहिं पावत है। कुष्णागुरुधूपं, समलअनूपं, सिडस्वरूप, धावत हैं। प्रभु अवरनामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो। यह अरज सुनीज, ढील न कीन, न्याय करीने, दया धरो.पा. ॐ ह्रीं-मष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणासहितश्रीजिनेभ्यो. मष्टकर्मदहनाय धूपं० . . . . . . . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] नसिद्धांतसंग्रह । समते नोरावर, अंतराय मरि, सुफळ विन करि दारत हैं। फलपुन विविध भर, नयनमनोहर, श्रीमिनारपद धारत हैं। ॐही मष्टादशदोपरहिषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीमिनेम्यो मोक्षफलप्राप्तये फळ० ॥ माठौं दुखदानी, आठनिशानी तुम टिग पानि निवारन हों। दीनननितारन, अधमउधारन, 'गनत' वान कारण हो । प्रमु. ही महादशदोपरहितपट्चत्वारिंशद् गुणसहितश्रीमिनेन्द्रभगवद्भ्योऽनपदप्राप्तये मध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥ जयमाला। गुण अनंत को कहि सक, छियालिस मिनराय । प्रगट मुगुन गिनती हूं, तुम ही होहु,सहाय ॥ १॥ एक ज्ञान केवल मिनस्वामी । दो बागम अध्यातम नामी ।। तीन काल विषि परगट नानी । चार अनंतचतुष्टय ज्ञानी ॥२॥ पंच पावर्तन परकासी। छहों दरवगुनपर्नयमामी ॥ सातमंगवानी परकाशक | माठों कर्म महारिपुनाशक ||३॥ नव तत्त्वनकै माखनहारे । दशरच्छनौं भविजन तारे ॥ ग्यारह प्रतिमाके उपदेशो। बारह समा सुखी अकलेशी ॥ ४ ॥ तेरहविधि चारितके दाता । चौदह मारगनाके ज्ञाता॥ . पंद्रह भेद प्रमाद निवारी । सोलह मावन फळ भविकारी॥ ॥ वारे सत्रह अंक भरत भुव । ठारै थान दान दाता तुव ।। भाव उनीस तु हे प्रथम गुन । वीस अंक गणपरनीकी धुन ॥९॥ इकइस सर्व पातविधि मान । बाइस विष नवमै गुन थाने । तेइस निषि मरु रतन नरेघर । सो पमै चौवीस मिनेश्वर ॥७॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२५१ नाश पचीस कषाय करी हैं। देशवाति छब्बीस हरी हैं। तत्व दरब सत्ताइंस देखे । मति विज्ञान मठाइस पेखे ॥८॥ उनतिस अंक मनुष सब जाने । तीस कुलाचल सर्व बखाने । इकतिस पटल सुधर्म निहारे । बत्तिस दोष समायिक टारे ॥९॥ वेविस सागर सुखकर माये । चौतिस भेद.मलब्धि बताये। पैतिस मच्छर जप मुखदाई । छत्तिस कारन रीति मिटाई ॥१०॥ सैतिस मग कहि ग्यारह गुनमें । अठतिस पद लहि नरक अपुनमें ।।.. उनतालीस उदीरन तेरम | चालिस भवन इंद्र पूर्फ नम ॥११॥ इकतालीस भेद माराधन । उदै वियालीस तीर्थकर मन ।। तालीस बंध ज्ञाता नहिं । द्वार चवालिस नर चौथेमहि ।।१२॥ पैतालीस पत्यके मच्छर । छियालीसों बिन दोष मुनीश्वर ।। नरक उदैन छियालीस मुनिधुन । प्रकृति छियालिस नाश दशेम गुन' ॥ १३ ॥ छियालीस घन राजु सात भुव । अंक छियालीस सरसों कहि कुछ। भेद छियालीस अतर तपवर। छियालिसों पुरन गुन निनवर ॥१४॥ अडिल-मिथ्या तपन निवारन चन्द समान हो मोहतिमिर वारनको कारन भानु हो ।। काल कषाय मिटावन मेष मुनीश हो 'धानत' सम्यकरतनत्रय गुनईश हो।॥ १५॥ .. ॐ हीं मष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंगगुणसहित श्रीनिनेन्द्रभगवदम्यो पूर्णा निर्वपामि ॥ (पर्णायके बाद विसर्जन करना चाहिये) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amwww wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ३५३]. अनसिद्धांतसंग्रह । - (१८) सरस्वतीपूजा।। दोहा-मनम नरा मृतु छय करै, हरे कुनय जड़रीति । __ भवसागरसों के तिरे, पर्ने मिनवप्रीति ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भबसरस्वतिवाग्वादिनि । अत्र अवतर भवतर । संवोषट् । मत्र तिष्ठ तिष्ठ : मन मम सन्निहितो भव भव । वषट् । छोरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, मुखसंगा। परि कंचन झारी, धार निकारी, वृषा निवारी, हित चंगा॥ . तीर्थकरकी ध्वनि, गणधरने मुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । -सो मिनवरवानी, शिवमुखदानी, त्रिभुवन मानी, पूज्य भई ॥५॥ ॐ ही श्रीनिनमुखोद्भवासरस्वतीदेव्यै मकं ॥१॥ करपूर मंगाया, चंदन भाया, केशर लाया, रंग भरी। शारदपद बंदौं, मन ममिनदौं, पापनिकदौं, दाहं हरी|वी ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै चन्दनं निर्वपामीति । भुखदासकमोद, धारकमोद, मतिमनुमोदं, चंद्रसमं । .. .. बहुमक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मात मम ॥ तीर्थ०॥३॥ ___ॐ ह्रीं श्रीनिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै पक्षवान् निर्वपामिा| महुशनसुवासं, विमलपकाश, आनंदरासं, काय धरै । मम काम मिटायौ, शील बढ़ायौ, सुख उपनायौ, दोष हरैः॥तीर्थ ॥४॥ __ॐ ह्रीं श्रीमिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै पुष्पं निर्वामि-100 पकवान बनाया, बहुत काया, सब विध माया, मिष्ट महां । ____ 'पूचं युति गाऊं, प्रीति बढ़ाऊं क्षुषा नशा, हर्षे लहा तीर्थ ॥१॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनसिद्धांतसंग्रह | | २५३ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै नैवेद्यं निर्वपामि ॥ १ ॥ करि दीपक ज्योतं, तमक्षय होतं, ज्योति: उदोतं, तुमहिं चढ़े तुम हो परकाशक, भरम विनाशक, हम घट भासक, ज्ञान बढ़े। तीर्थ • ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामि ० ॥६॥ शुभगंध. दशोंकर, पावकमै घर, घूप मनोहर, खेवत हैं । सब पाप जलायें, पुण्य कमावें, दास कहावें, खेवत हैं ॥ तीर्थ० ॥ ॥ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै धूपं निर्वपामि ० ॥७॥ बादाम छुहारो, लोंग सुपारी, श्रीफल - भारी, ल्यावत हैं । मनवांछित दाता मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं ॥ तीर्थ ॥८ ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्धवसरस्वतीदेव्यै फलं निर्वपामि ॥८॥ नयनसुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्वलभारी*, मोल घरै । शुभगंधसम्हारा, वसननिहारा, तुमतट धारा, ज्ञान करे ॥ तीर्थकरकी धुनि, गनघरनेसुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो निवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी, पूज्य भई ||९|| ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै बस्त्र निर्वपामि ॥९॥ नलचंदन अच्छत, फूल चरू चत, दीप धूप अति, फळ कावै । पुजाको ठानत, जो तुम जानत, सो नर धानत, सुख पावै ॥ तीर्थ ● ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्भवसरखतीदेव्यै अर्ध्य निर्वपामि ॥ १० ॥ अथ जयमाला । सोरठा - ओंकार धुनिसार, द्वादशांग वाणी विमल | नमो भक्ति र घार, ज्ञान करे जड़ता हरे ॥ *यहां शुद्ध ( हाथकी कांती बुनी पवित्र स्वदेशी ) खादी धोकर चढ़ाना। हिंसासे बने परदेशी और रेशमके वस्त्र चढ़ाना पापका कारण है। : Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] जैनसिद्धांतसंग्रह। पहला भाचागंग वखानो। पद माटादश सहस प्रमानो। दूमा सुत्रक मामिलापं । पद छत्तीस सहस गुरु मापं ॥१॥ सीमा ठाना भंग सुनाना सहस बियालिस पदारषानं ॥ चौथो समवायांग निहारं । चौसठ सहस लाख इकधारं ॥२॥ पंचम व्याख्यामगपति दरशं । दोय लाख अट्ठाइस सहसं। छट्ठा ज्ञातृकया विसतारं । पांचलाख छप्पन हजारं ॥३॥ सप्तम उपासकाध्ययनंग । सत्तर सहस ग्यारलख मंगे। माष्टम मंतकदस ईस । सहस पठाइस लाख तेइस ॥१॥ नवम अनुत्तरदश मुविशालं । लाख वानवे सहस चवाल। दशम प्रभव्याकरण विचारं । काख तिरानः सोक हमारं ॥५॥ ग्यारम सुत्रविपाक मु भाखं । एक कोड़ चौरासी लाखें । चार कोड़ि भरु पंद्रह लाख । दोहमार सब पद गुरुशाख ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसौ आठ कोड़ि पन वेदं ॥ मड़सट लाख सहस छप्पन हैं। सहित पंचपद मिथ्या हन हैं। इक सौ बारह कोड़ि वखानो । लाख तिरासी कर जानो। -ठावन सहस पंच मषिकाने । द्वादश मङ्ग सर्व पद माने ॥६॥ कोड़ि इकावन माठ हि लाख | सहस चुरासी छहसौ भाख ॥ साढ़े इकीस श्लोक बताये । एक एक पदके ये गाये ॥१०॥ 'घत्ता-मा पानीके ज्ञानमें, सुझ लोक अलोक । 'धानत' मग नयवंत हो, सदा देत हों घोक। इति सरस्वती पूजा।। - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AANAA NRNAVANAAD जनसिद्धातसंग्रह। .[२६५. : (१९) गुरुपूजा। दोहा-चहुं गति दुखसागरविणे, तारनतम्ननिहाम । रतनत्रयनिधि नगन तन, धन्य महां मुनिराम ॥ ॥ . ही श्रीभाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्राववरावतर। संवौषट् । ॐ ही श्रीमाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र विष्ट तिष्ठ । : । ॐ ही श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! न मम सनिहितो भव भव । वषट् । शुचि नीर निर्मल छीरदघिसम, मुगुरु चरन चढ़ाया। .... तिहुँ घार तिहुं गदटार स्वामी, पति उछाह बढ़ाइया ॥ भवमोगतनवैराग्य पार, निहार शिव तप तपत हैं। . .. तिहुं जगतनाथ भधार साधु सु पून नित गुन नपत हैं ॥१॥ .. __ ॐ ह्रीं श्रीभाचार्योगध्यायसर्वसाधुगुरुम्यो मलं नि० ॥१॥ कपूर चंदन सकिळसौं घसि, सुगुरुपद पूना करौं । सब पाप ताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल विस्तरौं । भवमोगतनवैराग धार निहार, शिवतप तपत हैं। तिहु जगतनाथ भराष साधु सु, पून नितगुन भपत हैं ॥२॥ ॐही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्यो भवतापविनाशनाय चंदन नि. वन्दुल कमोद सुवास उज्जल, सुगुरुपगतर घरत हैं। गुनकार औगुनहार स्वामी, वंदना हम करत हैं।भव मोना ॐ ही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्योऽक्षयपदपाप्तयें.मक्षवान नि. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIRAAD ३५६] जैनसिद्धांतसंग्रह। शुभफूलासमकाश परिमल, मुगुरुपापनि परत हों। निरवार मार उपाधि स्वामी, शीक दिढ़ उर परत हो ॥मव०॥४॥ ॐ ह्रीं नाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं । पकवान मिष्ट सलोन सुंदर, मुगुरु पार्यन प्रीतिसौं । र क्षुषारोग विनाश स्वामी, सुधिर कीजे रीतिसौं ।मन० ॥५॥ ॐ ही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य दीपक उदोत सनोत नगमग, मुगुरुपद पनों सदा। तमनाश ज्ञानठमात स्वामी, मोहि मोह न हो कदा भव ॥९॥ ॐ ही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्यों मोहान्धकारविनाशनाय दी नि.॥ बहु मगर जादि सुगन्ध खेळ सुगुण पद पद्महि खरे । दुख पुन्न काट मनाय स्वामी गुण अछय चित्त घरे भव०॥७॥ ॐ ह्रीं भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनायं धूपं नि०॥ भर थार पर बदाम बहुविधि, मुगुरुकम आगें घरों। मंगळ महांफळ करो स्वामी, नोर कर विनती करों ॥भव || ॐ हीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्यो मोक्षफळप्राप्तये फळं निक मल गंध अक्षत फूल नेवन, दीप धूप फलावली। 'धानत' मुगुरुपद देहु स्वामी, हमर्हि तार उतावली ॥भव०॥९॥ ॐ हीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽनयपदमाप्तये.मर्थ्य नि.॥९॥ अथ जयमाला। . दोहा-कनककामिनी विषयवश, दीसै सब संसार । त्यागी वैरागी महां, साधु मुगुनमण्डार ।। १ ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसिद्धांतसंग्रह.। . २५७ तीन घाटि.नवकोड़ सब, वंदौसीस.नवाय।. ... गुन तिन अट्ठाईस लों, कहूँ भारती गाय ॥२॥ एक दया पालैं मुनिराना, रागदोष है हरन परं। . तीनों लोक प्रगट सब देखें, चारौं माराधन निकर ।। पंच महाव्रत दुबर धारे, छहों दरव माने मुहितः। सांतमंगवानी मन लावें, पा माठ रिड उपितं ॥ ३.. नवों पदारथ विधिसौं भावं, बंध दशों चूरन करनं. : ग्यारह शंकर नानै मान, उत्तम.बारह व्रत घरनं ॥ . तेरह भेद काठिया चूरे, चौदह गुनथानक लखियं । । महाप्रमाद पंचदश नाशे, सोलकषाय सवै नशियं ॥ ४-11 धादिक सत्रह सब चुरे ठारह जन्म न मरन मुनं । एक समय उनईस परीषह, वीस प्ररूपनिमें निपुर्ण ॥ भाव.उदीक इकोसों जाने, वाइस ममखन त्याग कर । महिमिंदर तेईसों वर्दै, इन्द्र मुरग चौवीस वरं ॥ ५॥ पच्चीसों भावन नित भावे, छनिस अंगउपंग पढ़ें। . सत्ताईसों विषय विनाशें, मट्ठाईसों गुण सुब॥ . . शीतसमय सर चौपटवासी, ग्रीषमगिरिसिर जोग धरें। . वर्षा वृक्ष तर शिर ठाढ़े, आठ करम हनि सिद्ध वरै ॥६॥ दोहा-कहाँ कहाँ को भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर । हेमराज, सेवक हृदय, भक्ति करौं भरपूर ॥७॥ ॐ ह्रीं आचार्योगाध्यायप्सर्वसाधुगुरुभ्यो अय निर्वपामिः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] जैन सिद्धांतसंग्रह । (२०) मक्सीपार्श्वनाथ पूजा । दोहा - श्री पास फमेशजी, शिखर शीर्ष शिवचार | यहां पूजते मावसे, थापनकर त्रयवार i ॐ ह्रीं श्रीमक्सीपार्श्व जिन अत्र अवतर अवतर सम्वौषटाहाननं । मत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥ अत्र मम सन्नहितो भव भव वपट् सन्निविकरणं ॥ • अथाष्टकं । लै निर्मल नीर सुखान, प्राशुक ताहि करों । मन वच तन कर वर आन, तुम ढिग धार घरों ॥ श्री मक्सी पारसनाथ, मन बच ध्यावत हों । मम जन्म जरामृत्यु नाथ, तुम गुण गावत हों ॥ ॐ ह्रीं श्री मक्ष्मीपाश्र्वनाथनिनेन्द्रेभ्यो मलं ॥ १ ॥ पिस च दनसार सुवास, केसर ताहि मिले । १ मैं पूजों चरण हुकास, मनमें आनन्द ले || श्री मक्सी पारसनाथ, मन चच ध्यावतहों । मम मोहाताप विनाश, तुम गुण गावत हों | सुगंधं ॥ २ ॥ सन्दुक उज्ज्वक अति आन, तुम ढिग पूज्य घरों । मुक्ताफलके सन्मान. लेकर पूम करों ॥ श्रीमक्सी पारसनाथ, मन वच घ्यावत हों । संसार वास निरवार, तुम गुण गावत हों ॥ अक्षतं ॥ १ ॥ ले - सुमन विविधि एव पूजों तुम चरणा । - हो काम विनाश देव, काम व्यथा हरणा ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह ! श्रीमक्सी पारसनाथ, मन वच ध्यावत हों । मन वच तन शुद्ध लगाय, तुम गुण गावत हों ॥ पुनं ॥ 8 ॥ ; समथाक सुवे वजधार, उज्ज्वल तुरत किया । लाडू मेवा अधिकार, देखत हर्ष हिया || " [ २५९ श्रीमक्सी पारसनाथ, मन वच पूज करों । मम क्षुबा रोग निर्वार, चरणों चित्त घरों ॥ नैवेद्यं ॥ १॥ वर धूप दशांग बनाय, सार सुगंध सही । मति हर्ष भाव ठर ल्याय, अग्नि मंझार दही ॥ अति उज्ज्वक ज्योति जगाय, पूजत तुम चरणा । मम मोहांधेर नशाय, आायो तुम शरणा ॥ s श्री मक्सी पारसनाथ, मन वच ध्यावत हों । तुमहो त्रिभुवनके नाथ, तुम गुण गावत हों | दीपं ॥ ६ ॥ श्रीमक्सी पारसनाथ, मन वच ध्यावत हों । वसु कर्महि कीजे क्षार, तुम गुण गावत हों ॥धु॥ ७ ॥ . बादाम क्षुहारे दाख, पिस्ता ल्याय घरों । ले नाम अनार सुपक्व, शुचिकर पूज करों ॥ .. श्रीमती पारसनाथ, मन वच ध्यावत हों । (M शिवफल दीने भगवान, तुम गुण गावत हों ॥ फलं ॥८॥ जल आदिक द्रव्य मिळाय, वसुविधि अघं किया । घर सान रचो ल्याय, नाचत हर्ष हिया ॥ . A श्रीमती पारसनाथ, मन वच ध्यावत हों । !" तुम भव्यों को शिव साथ, तुम गुण गावतं हों ॥ अर्ध ॥२॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmwww जैनसिदांवसंग्रह। अडिल्ल-नक गंधाक्षत पुष्प सो नेवन त्यायक। दीप धूप फक लेकर वर्ष बनायके। नाचों गांय बनाय हर्ष उर धारकर । पुरण भर्ष चढाय मु भयंजयकार कर पूर्णीषार॥ 'जयमाला। दोहा-जयजयजय जिनरायनी, श्रीपारसपामेश। . . गुण अनंत तुममाहि प्रभु, पर पछु गाऊ श॥१॥ पद्धडि छन्द । श्रीवानाम नगरी महान । मुरपुर समान मानो सुथान। . वहां विश्वसेन नामा सुमूए । बामादेवी रानी अनूप ॥२॥ माये तनु गौवर्षे सुनव । वैशाखपदी. दोहन स्वयमेव । माताको सेवें मची मान । माज्ञा तिनकी घर शीश मान ॥शा पुन: मन्म भयो मानंदकार । एकादशि पौष वदी विचार।। त इन्द्र माय मानंद धार । नन्माभिषेक कीनो सुसार ॥ शतप सनी तुम मायु नान । कुंवरावय तीस बरस -प्रमाण ॥ नव हाथ तुग रामत शरोर । तन हरित वग्ण मोहै सुधीर ॥५॥ तुम रग हि वर उरग सोई । तुम रामऋद्धि भुगती न कोई । तपधारा फिर आनंद पाय । एकादशि पौष वदी सुहाय ॥६॥ फिर कर्म पतिया चार नाश। वर केवलज्ञान भयो प्रकाश। यदि चत्र चौथ वेला प्रभात। हरिसमोसरण रचियो विख्यात ॥ माना रचना देखन सुयोग । दर्शनको भावत अन्य लोग ।।. सावन मुदि सममि दिन मुषारिरातन विधि अपातिया नाश.चारिका Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। . [२६१ 'शिव थान लयो वसुकर्म नाशि । पद सिद्ध भयो मानन्दरांशि। तुम्हरी प्रतिमा मक्सी मझार । थापी मविजन मानंदकार ॥९॥ तहां जुरत बहुत भवि नीव आय । कर भक्तिभावसे शीश नाय ॥ अतिशय भनेक वहां होत जान । यह अतिशय क्षेत्र भयो महान ॥१०॥ वहां माय भव्य पूना रचात । कोई स्तुति पढ़ते भांति भांति ॥ कोई गावत गांन कला विशाला स्वाताल सहित सुंदरसाल ॥११॥ कोई नाचत मन लानंद पाय | तत थेई थेई थेई थेई ध्वनि कराय॥ छम छम नूपुर बाजत अनुप । अति नटत नाट सुंदर सरूप.३.१.२॥ इस दुम दुम बाजत मृदंग । सननन सारंगी बजति संग ॥ झननन नन शारकरि बजे सोई घननन घननन ध्वनि घण्ट होई॥१शा इस विधि भनि जीव करें अनंद । हैं पुण्यबंध करें पापमंद ।। हम भी बन्दन कीनी अवार | मुदि पौष पंचमी शुक्रवार ॥१॥ मन देखत क्षेत्र बढी प्रयोग जुरमिक पूजन कीनी मुळोग ॥ जयमान गाय भानंद पाय । जय जय श्रीपारस नगति राय ॥१५॥ चत्ता-जय पाचनिनेशं नुत नाकेश चक्रधरेश ध्यावत हैं। .. मन वच भाराधे भव्य समाधे ते सुरशिवफल पावत हैं। 'इत्याशीर्वादः॥ (इति श्रीमक्सीपार्श्वनाथपूजा संपूर्णम् ।) . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NNA HINNN NA २६२] जैनसिद्धांतसंग्रह। (२१) श्री गिरनारक्षेत्र पूजा। दोहा-वेदी नेमि जिनेश पद्, नेम धर्म दातार। . . नेम धुरंधर परम गुरु, भविजन सुख कार ॥ १ ॥ निनवाणीको प्रणमिकर, गुरु गणधर उधार । सिद्धक्षेत्र पूना रचों, सब जीवन हितकार ॥ २ ॥ उर्मयत गिरीनाम तस, कहो जगति विख्यात । गिरिनारी तासे कहत, देखत मन हर्षात ॥३॥ गिरिमुउन्नत सुभगाकार है। पंचकूट उतंग सुधार है। बन मनोहर शिला मुहावनी। लखत सुंदर मनको भावनी ॥ भौर कूट भनेक बने तहां । सिद्ध थान मुमति सुन्दर नहीं। देखि पविजन मन हर्षावते । सका मन बन्दनको भावते ॥५॥ त्रिभंगी छन् । वहाँ नेमकुमारा व्रत तप धारा कम विदारा शिव पाई। मुनि कोहि बहत्तर सात शतक पर नागिरि ऊपर मुखदाई। : भये शिवपुरवासी गुणके राशी विविथिति नाशी ऋद्धि परा। सिनके गुण गाऊं पून रचाऊ मन हाऊ सिद्धि करा।. दोहा-ऐसो क्षेत्र महान, विहि पूजत मन वच काय'। स्थापन त्रय वारकर, विष्ठ तिष्ठ इत भाय ॥ ॐ ह्रीं श्री गिरिनारि सिद्धक्षेत्रेभ्यो। मत्र अवतर भववर संवौषटाहाननं । मन्त्र सिष्ठ तिष्ठ :: स्थापनं । अत्र ममसनिहितो भव भव वषट सन्निधिकरण। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। लेकर नीरमुक्षीरसमान महां सुग्वदान भुषासुक. भाई । दे त्रय धार ननों चरणा हरना मम जन्मजरा दुःखदाई ॥ नेमपती तन राजमती भये बालयती वहांसे शिवपाई। कोडि बहत्तरि सातसौ सिद्ध मुनीश भये सुननों हरपाई ॥ . ॐ ह्रीं श्रीगिरिनारि सिद्धक्षेत्रेभ्यो जलं ॥ १॥ चंदनगारि मिलायं सुगंध मुख्याय कटोरीमें धरना । मोह महातम मैंटन कान सु चर्चेतु हों तुम्हारे चरणा ॥ नेम । सुगंधं ॥२॥ मक्षत उज्ज्वल ल्याय घरों तहां पुंन करो मनको हर्षाई । देउ मक्षयपद प्रभु करुणाकर फेर न या भव बास कराई । अक्षत फूल गुलाब चमेली वेळ कदव सुचंपक वीर मुल्याई । प्राशुक पुष्प लवंग चढ़ाय मुगाय प्रभु गुणकाम नशाई । नेमपती. ॥ पुष्पं ॥१॥ नेवन नव्य करों भर थाल सुकंचन भाजनमें घर भाई । मिष्ट मनोहर क्षेपत हों यह रोग क्षुषा हरियो जिनराई। नेमपती० ॥ नैवेद्यं ॥ ५॥ दीप बनाय घरों मणिका अथवा घृतवाति कपूर नलाई । नृत्य करों कर भारति ले मम मोह महातम नाय पलाई ॥नेमपती, ॥ दीपं ॥६॥ धूप दशांग सुगंध मईकर खेवहुं अग्निमझार सुहाई।। लौकर अन सुनो जिननी मम कर्म महावन देठ जराई । नेमि पती० ॥ धूपं ॥ ७॥ के फल सार सुगंधमई रसनाहद नेत्रनको सुखदाई । क्षेपत .. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૪ ] जैनसिद्धांतसंग्रह | हों तुम्हारे चरणा प्रभु देहु हमें शिवकी ठकुराई ॥ मपती० ॥ फलं ॥ ८ ॥ ध्याई । वसुकर्म को दु:खदाई ॥ नेमपती • • ॥ वर्ष ॥ ९ ॥ केतु का पूजत हों तुम्हरे चाणा हरिये दोहा - पूजत हाँ बतु द्रव्य ले, मिद्धक्षेत्र सुन्दाय | निमहित हेतु सुहावनो, पूरण अर्ध चढ़ाय ॥ पूर्णच॥१०॥ पंच कल्याणका | कार्तिक सुडिकी हठि जानो । दर्भान दिन मानो ॥ टव इन्द्र ने उस धानी | इस पृष्ठ हम हर्षानी || ॐ ह्रीं कार्तिक सुदि हठ गर्भमंगल वं ॥ १ ॥ श्रावण हृदि छठ सुखकारी । व जन्ममहोत्मक धारी ॥ सुरराजगिरि अन्हवाई | हम पूजत इन सुख पाईं ॥ ॐ ह्रीं श्रावण सुदी इठ जन्ममंगलधारणेम्यो | अर्ध ॥ १ ॥ सित साधनही हठि प्यारी । वादिन प्रभु दिक्षाधारी ॥ तप घोर चीर तहां करना । हम पूजत तिनके चरणा ॥ ॐ ह्रीं सावन सुदि छठ दिक्षाधारणन्यो | अर्ध ॥ १ ॥ एकम सुदि अश्विन माता । तच देवज्ञान प्रकाशा ॥ हरि समवशरण तब कीना । हम पूजत इत सुख लीना ॥ ॐ ह्रीं अनि तुदि एकम केवलकल्याणप्राप्ताय ॥ अर्ष ॥ ४ ॥ सिठ अष्टमि मास भाषाढ़ा । तब योग प्रभूने डांडा || मिन ई मोक्ष ठकुराई । इठ पृमत चरणा भाई ॥ ॐ ह्रीं भाषाढ़ सुदी मष्टमी मोक्षमकप्राप्ताय ॥ भवं ॥ ५ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६६ जैन सिद्धांतसंग्रह । अडिल्ल - कोड़ि बहत्तर मप्त सैकड़ा जानिये । मुनिवर मुक्ति गये तहांसे सुपमाणिये ॥ पूजों निनके चरण सु मनवचकायके । वसुविधि द्रव्य मिलाव सुगाय चनायके ॥ पूर्णाधं ॥ जयमाला । दोहा - सिद्धक्षेत्र नग उच्च थक, सव जीवन सुखदाय । कहों ताम जयमालका, सुनते पाप नशाय ॥ ९ ॥ गिरिनारि सुगिरि उन्नत वखान || सौराष्ट्र देशके मध्य सार || २ || जयं सिद्धक्षेत्र तीरथ महान । वहां झूनागढ़ है नगर सार । जत्र झूनागढ़से चले सोई । समभूमि कोस वर तीन होई ॥ दरवाजेसे चक कोस श्राघ । इक नदी बहुत है जक भगाध ॥ ३ ॥ पर्वत उत्तर दक्षिण सुदोय । मंघि वहत नदी उज्ज्वक सु तोय || -ता नदी मध्य कई कुन्ड जान । दोनों तट मंदिर बने मान ॥ ४ ॥ वहां वैरागी वैष्णव रहाय । भिक्षा कारण तीरथ करांय || इक कोस तहां यह मचो ख्याक | आगे इक वरनदी नाल ॥५॥ वहां श्रावकजन करते स्नान । घो द्रव्य चळत मागे सुजान ॥ फिर मृगीकुंड इक नाम जान । तहां वैरागिनके बने थान ॥ ६ ॥ वैष्णव तीरथ जहाँ रचो सोई । विष्णुः पूजत आनंद होई ॥ - मागे चल डेढ़ झु कोश जाव । फिर छोटे पर्वतको चढ़ाव ॥ ७ ॥ तहां तीन कुंड सोहैं महान | श्रीजिनके युग मंदिर बखान ||८|| मंदिर "दिगम्बरके दुजान । श्वेताम्बरके बहुते प्रमाण ॥ जहां बनी धर्मशाला सु जोगं । जलकुंड तहां निर्मळ सुतोय ॥९॥ " : Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। फिर आगे पर्वतपर चढ़ाव। चढ़ प्रथम कूटको चले नाव ॥ तहां दर्शनकर भागे सुनाय । तहां द्वितिय टोंकका दर्श पाय॥१०॥ वहां नेमनाथके चरण मान । फिर है उतार भारी महांन । वहां चढ़कर पंचम टोंक जाय । अति कठिन चढ़ाव तहां लखाय॥११ श्रीनेमनापका मुक्ति थान | देखत नयनों मति हर्ष मान ॥ .. इक विम्ब चाणयुग वहां नान । मवि करत वंदना हर्ष ठान ॥१२ कोई करते भय जय भक्ति लाय | कोई स्तुति पढ़ते तहं बनाय॥ तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्य पाल । मम दुःख दूर कीने दयाल ॥१शा तुम रान ऋद्धि भुगती न कोई । यह मथिररूप संसार भोई ॥ तम मावपिता घर कुटुमद्वार । तज राजमतीसी सती नार ॥१॥ द्वादश भावना भाई निदान । पशुपंदि छोड़ दे अभय दान । शेसावनमें दिक्षा सुधार । तप कर तहां कर्म किये सुक्षार ॥११॥ वाही वन केवल ऋद्धि पाय । इन्द्रादिक पूजे चरण माय | वहां समोशरणरचियो विशाल । मणिपंच वर्णकर मतिं रसाल ॥१६ वहां वेदी कोट समा अनुप । दरवाजे भूमि बनी मुरूप ।। बसु प्रतिहार्य छत्रादि सार । बर द्वादश समा बनी मपार ॥१॥ करके विहार देशों मंझार । भवि नीव करे भवसिंधु पार ॥ पुनः रोंक पंचमीको सुमाय । शिव थान लहो मानंद पाय || सो पूजनीक वह थान नान | वंदत मन तिनके पाप हान । तहांसे सुबहत्तर कोड़ि और । मुनि सात शतक सब कहे मोर ॥१९ उस पर्वतसे शिवनाथ पाय | सब भूमि पूनने योग्य थाय ॥ वहां देश देशके भम्प भाय । वंदन कर बहु भानंद पाय ॥२०॥ पूजन कर कीनो पाप नाश । बहु पुण्य बंध कीनो प्रकाश ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह | [ २६७ यह ऐसा क्षेत्र महान जान । हम करी वंदना हर्ष ठान ॥२१॥ उनईस शतक उनतीस जान | सम्वत अष्टमि सित फाग मान ॥ सब संग सहित वंदन कराय । पूजा कीनी आनंद पाय ॥२२॥ मन दुःख दूर कीने दयाल | कहें चद्र कृपा क जे कृपाल || मैं अल्प बुद्धि जयमाक गाय । भवि जीव शुद्ध लीने बनाय ॥२३ धत्ता- तुम दया विशाला सब क्षितिपाळा तुम गुणमाला कण्ठवरी । ते भव्य विशाला तम जगजाला नावत भाका मुक्तिवरी ॥ इत्याशीर्वादः ॥ (२१) सोनारे पूजा । अडिल्ल - जम्बू द्वीप मंझार भरत शुभ क्षेत्र है । आर्यखंड सुभाना भद्रत देश है || सोनागिरि अभिगम सुपर्वत है वहां । पंचकोड़ि रु अई गये मुनि शिव जहां ॥ १ ॥ दोहा- सोनागिरिके शीसपर, वहुत जिनालय जान । चन्द्रपभू जिन आदिदे, पूजों सब भगवान ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धक्षेत्र सोनागिर अत्र अवतर अवतर संवौषटाह्वाननं । मत्र विष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥ अत्र ममसन्निहितो भव भव अव सन्निधिकरणं । सारंग छंद । पद्मद्रहको नीर ल्याय गंगासे भरके । कनक कटोरी माहिं हेम झारिन में घर के || सोनागिरिके शीत भूमि निर्वाण सुहाई । पंचकोड़ि भरु भई मुक्ति पहुंचे मुनिराई ॥ - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] MANMAL जैनमिद्धांतसंग्रह। चन्द्र प्रभु जिन मादि सकल जिनवर पद पूनों। स्वर्ग मुक्ति फल पाय नाव अविचक पद हूमों॥ दोहा-सोनागिरिके शीमपर, जेने पत्र निनराय । तिनपद धारा तीन दे, विविध रोग नश जाय ॥ ॐही श्रीमोनागिरि निर्वाणक्षेत्रेभ्यो ।। जर्क ॥ १ ॥ केशर मादि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परमल अधिकी तास और मय दाह निधन्दन । दोहा-सोनागिरिके शीमपर | जेने पर जिनराम । ते सुगन्ध पूनिये, दाह निकन्दन कान | सुगंधं ॥२॥ तंदुन धवन सुगन्ध गाय नल घोय पखारो। अक्षय पदक हेतु पुन हदा तहां पारो ॥ दोहा-सोनागिरिक शीपर | जेने सर मिनराज । तिन पद पूना कीनिये । अक्षय पदके कान अक्षman वेला और गुलाब मालती कमल मंगाये । पारिजातके पुप्प ल्याय जिनचरण चढ़ाये ॥ दोहा-सोनागिरके शीसपर । नेते सब जिनराज । ते सव पूनों पुष्प ले । मदन विनाशन कान [पुष्पा॥ विमन जो जगमाहि खांड घृत मांहि पकाये। मीठे तुरत वनाय हेम थारी भर पाये ॥ दोहा-सोनागिरिके शीसपर । जेते सब जिनराम । .. ते पृनों नैवेध ले । क्षुषा हरणके कान ॥ नैवेद्यं ॥५॥ मणिमय दीप प्रनाल धरौं पंकति भरथारी। निन मंदिर तमहार करहु दर्शन नरनारी ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनासद्धान मंग्रह | दोहा- सोनागिरिके श्रीसपर । जेते सब जिनराज | [ २६९. करों दीपले भारती । ज्ञान प्रकाशन कान || दीपं ॥६॥ - दशविधि धूप अनूप अग्नि भाननमें ढालों । जाकी धूम सुगन्ध रहे भर सर्व दिशाकों ॥ दोहा- सोनागिरिके शीसपर । जेते सब मिनराज ॥ धूप कुम्भ भागे घरों । कर्म दहनके काम ॥ धूपं ॥ उत्तम फक जगमाहिं बहुत मीठे अरु पाके । भमित अनार अचार मादि अमृत रस छाके ॥ दोहा- सोनागिरिके शीसपर । जेते सत्र जिनराज | उत्तम फल तिन ले मिळो । कर्म विनाशन कान ॥ फलं ॥ ८ ॥ नक आदिक व द्रव्य अर्ध करके घर नाचो । बाजे बहुत बजाय पाठ पढके सुख सांचो ॥ दोहा- सोनागिरिके शीसपर नेते सब जिनराज । ते हम पू अ ले । मुक्ति रमणके कान ॥ मर्ध ॥९॥ अडिल - श्री जिनवरकी भक्ति सो जे नर करत हैं । फलवांछां कुछ नाहिं प्रेम उर घरत हैं | ज्यों जगमाहिं किसानसु खेतीको करें । नाम कान जिय जान सुशुम आपही झरें ॥ ऐसे' पूमा दान भक्ति वा कीजिये । सुख सम्पति गति मुक्ति सहनकर लीजिये !! ॐ श्री सोनागिरिसिद्धक्षेत्रम्यो पूर्णार्थ ॥१०॥ अथ जयमाला | दोहा - सोना गिरिके शीसपर । जिन मंदिर अभिराम | तिन गुणकी जयमालिका । वर्णत आशाराम ॥ १ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७०] जैन सिद्धांतसंग्रह। गिरि नीचे मिन मंदिर सुचार । ते यतिन रचे शोमा अपार ॥ तिनके पति दी घ चौक नान । तिनमें यात्री मे तु मान ॥२॥ गुमठी छज्जे शोभिन अनुर | बन पंनि मोहें दिविषरूप ॥ बनु प्रातिहार्य वहां घरे भान । सब मंगद्रव्यनि की मुखान ॥३॥ दरवानॉपर नशा निहार । नेर नुनय जय बनि उचार ॥ भर पर्वतको चढ़ चलो जान | दग्वानो तहां इक शेममान In तिस पर निन प्रतिमा निहार । तिन वंद्य पून मागे सिधार ॥ वहां दुःखित मुतिनको देव दान । याचक मन नहीं मानाण ॥ मागे जिन मंदिर दुहु और । निन गान होत वामित्र शोर ॥ दरबानो वहां दृगो विशाल । दहा क्षेत्रपाल दोड जोर लालंपा दरवाजे भीतर चौक माहि। मिन भवन रचे प्राचीन आई। तिनकी महिमा चरणी न जाय । दो कुंड सुजलकर मतिनुहाय ॥ निन मंदिराची वेदी विशाल । दरवानो तीने बहुमुवाका ना दरवाजे पर द्वारपाल । लेनुट खड़े मत हाय माउ ॥ ८॥ जे दुर्जनको नहीं जान देय ! ते निंदकको ना दरश देय ॥ च: चंद्ररमृर चौधमाहि । दाहाने तहां चौ त माहि ॥९॥ वहां भव्य समानंहप निहार । विसची रचना नाना प्रकार रहा जामु दश पाय । फल नात लहो नरमन्न भाय ॥१.. प्रतिमा विसत नहां हाथ सात । कायोततर्ग मुद्रा नुहान । व पर्ने न्हा दय दान ! जनतृत्व मननकर मर गान ॥११॥ ताई येई ई कानन सितार । मृदंग वीन मुहवंग सार ॥ जिनकी ध्वनि जुन मवि होर प्रेमानपकार मरतनाचत एम ॥१२ वे स्वति कर फिर नाय शील । मवि च मनोकर कर्न खी। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनसिद्धांतसंग्रह। [२७१ यह सोनागिरि रचना अपार । वरणन कर को कवि लहै पार ॥१२॥ मति तनक बुद्धि आशासुपायं | वश भक्ति कही इतनो सुगाय॥ मैं मन्दबुद्धि किम कहों पार । बुद्धिवान चूक लीजो सुधार ॥१६॥ दोहा-सोनागिरि नय मालिंका, लघु मति कही बनाय । पढ़े सुने जो प्रीतिसे, सो नर शिवपुर जाय ॥ १७॥ . __ इत्याशीर्वादः । इजिश्री सोनागिरि पूना सम्पूर्ण । " (२३) विवतपूजा । अडिल्ल-यह भवजन हितकार, मु रविव्रत मिन कही। करहु भव्यजन लोग, सुमनदेके सही। पूनो पार्थ जिनेन्द्र त्रियोग लगाय। मिट सकल संताप मिले निध मायके ॥ मतिमागर इक सेठ कथा ग्रन्थन .कही । उनही ने यह पूजा कर आनन्द नही। ताते रविव्रत सार, सो मविनन कीजिये । सुग्व संपति · मन्तान, मतुल निघ लीजिये ।। . दोहा-प्रणमो पार्थ जिनेशको, हाथ जोड़ सिर ‘नाय |. परभव सुखके कारने, पुना करूं बनाय ॥ एतवार व्रतके दिना, एही पूजन ठान | ता फल सुर सम्पति कहें, अनुक्रमतें निर्वाण ॥ ॐड्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र भत्र अवतर अवता संवौषट् । पत्र तिष्ठ तिष्ठ :: । मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टक-उज्जल जल भरके मति लायो रतन कटोरन माहीं। घार देत मति हर्ष बढ़ावत जन्म नरा मिट नाहीं ॥ पारसनाथ मिनेश्वर पूनों रविवतके दिन भाई । सुख सम्पति बहु होय तुरत Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] जैनमिद्धांतसंग्रह । ही, आनंद मंगळदाई ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा || मलयागिर केशर मंति सुंदर कुमकुम रंग बनाई । घार देव जिन चरनन आगे भक् माताप नसाई || पारसनाथ • || सुगंध || मोती सम मति उनक तन्दुरु ल्यावो नीर पखारो । अक्षय पदके हेतु भावसो श्री जिनवर ढिग धारो || पारस० ॥ अक्षनं ॥ वेळा भर मचकुन्द चमेली पारभासके ल्यावो । चुन चुन श्री जिन मग्र चढ़ाऊं मनवांछित फल पावो || पाम्म० ॥ पुत्रं ॥ वावर फेनी गोमा भादिक घूतमें लेत पकाई कंचन थार मनोहर भरके चरनन देऊ चढ़ाई || पारस • || नैवेरं || मन्मय दीप रतनमय लेकर नगमग जोत जगाई । निक आगे भारति करके मोह तिमिर नश नाई ॥ पारस || दीप || चुग्न का गळयागिर चन्दन धूपदशांग बनाई तट पावकम खेय भावसों कर्म नाश हो जाई ॥ पारसनाथ • ॥ धूपं ॥ श्र फल आदि दम सुपारी भांत भांतके कावो । श्री जिन चरन चढ़न्य राशि फल पावो ॥ पारस० ॥ फलं ॥ जल गवादिष्ट द ले अर्ध बनावो भाई । नाचत गावत हर्ष भावसो कंचन था अब ई ॥ पास० ॥ १६ ॥ गीतका छंद ॥ मन वचन क य त्रिशुद्ध पश्वनाथ सुपुत्रिये । मल मादि अर्ध बनाय विमन मक्ति • सुजये ॥ पूज्य पारस नाथ जिनवर सकल सुख दातारमी । जे १२ हैं नरनार पुमा कहत सुःख नपारभी || पूर्णाध ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२७३ अथ जयमाला। .. दोहा। यह जगमें विख्यात हैं, पारसनाथ महान | मिनगुनकी जयमालका, भाषा करों वखान ॥ पद्धरी छंद ॥ जय जय प्रणमो श्री पार्श्व देव । इन्द्रादिक तिनकी करत सेव ॥ जयं जय सु बनारस जन्मलीन । तिहुँ लोक विषे उद्योत कीन || जय जिनके पितु श्री विश्वसेन । तिनके घर भये सुख चैन एन ।। जयं वामादेवी, माय जान । तिनके उपने पारस महान ॥१॥ जय तीन लोक आनन्द देन । भविजनके दाता भये हैं पेन ॥ जय जिनने प्रभुका शरन लीन । तिनकी सहाय प्रभुनी सो कीन ॥ ३ ॥ जय नाग नागनी भये अधीन । प्रभु चरणन लाग रहे प्रवीन ॥ तजके सो देत. स्वर्ग सुनाय । धरनेंद्र पद्मावति भये आय ॥ ४ ॥ जे चोर अंजना अधम जान । चोरी तन प्रभुको घरों ध्यान ॥ मृत्यु भयें स्वर्ग सु जाय । रिद्ध अनेक उनने स पाय ॥ ५ ॥ ने मतिसागर इक सेठ जान । जिन रविवृत पूजा करी ठान । तिनके सुत थे परदेशमाहिं । मिन अशुभ कर्म काटे सु ताहि ॥ ६ ॥ जे रविवृत पूजन करी शेठ । नाफलकरं सबसे भई भेठ । जिन जिनने प्रभुका शरन लीन । तिन रिद्धि'सिद्धि पाई नवीन ।॥ ७ ॥ जे रविवृत पूना करहिं जेय । ते. सुख्य अनंतानन्त लेय ॥ धरने द्र पद्मावति हुय सहाय। प्रभु भात जोन तत्काल आय ॥ पूना विधान इहिं विध रचाय । मन वचन काय तीनों लगाय || नो भक्तिभाव जमाल गाय । सोही सख सम्पति अतुल पाय ॥ ९ ॥ बानत मृदंग वीनादि सार । गावत नाचत नाना प्रकार ॥ तन नन नन नन नन ताल देत । सन ૧૦ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ 1 जैनसिद्धांतसंग्रह। नन नन सुर भर सुलेत ॥ •॥ ता थेइ थइ थेइ पग धरत जाय। छम छम छम घुघरू बजाय ॥ जे करहिं निरत इहिं मांत मांत । ते लहहिं मुख्य शिवपुर सुभत ॥ ११ ॥ दोहा-रविव्रत पूजा पाश्चकी, करें भवक जन कोय । सुख सम्पति इहिं मन लहै, तुरत सुरग पद होय ॥ अडिल । रविव्रत पाच मिनेन्द्र पूज्य भव मन घरे । भव भवके मानाप सकल छिनमें टरें। होय सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि पदवी लहै । सुख सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी रहै। फेर सर्व विषं पाय भक्ति प्रभु अनुसरें। नानाविष सुख भोग बहुर शिव त्रियवरै ।। इत्याशीवायः॥ [२४] फाकापुर सिद्धक्षेत्र पूजा। दोहा-निह पावापुर छिति अपति हत सन्मत नगदीश । भये सिद्ध शुभ पानसो, जनों नाय निज शीश ॥ ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर: अत्र तिष्ठ २ स्थापनं । अत्रममसन्निहितो भवभववषट सन्निधिकरणं परि पुप्पाञ्जलिं क्षिपेत् । अथ अष्टक | गीतका छद ॥ शुचि सलिल शीतो कलिल रीती अमन चोतो ले जिसो । मर, कनक झारी त्रिगद हारी दै त्रिधारी मित तृषौ ॥ पर पद्मवन भर..पद्मसरवर वहिर पावापामही । शिव घाम सन्मत स्वाम पायो जजों, सो सुखदामही ही श्री पावापुर क्षेत्रे वीरनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥जल। भव भ्रमत भ्रमत अशर्मा तपकी तपन कर तप ताईयो। उसु वलय कंदन मलय Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२७५ चंदन उदय संग घिस ल्याइयो । वरपद्मः ॥ सुगंधं ॥ तंदुल नवीन अखंड लीने लै महीने ऊनरे। मणि कुन्दइन्दु तुषारधुत जित कण रकावीमें घरे ॥ वरपद्म० ॥ अक्षत || मकरंद लोमन सुमन शोमन सुरभ चोभन लेयनी । मद समर हरवर अमर तरके प्रान डग हरक्यनी ॥ वरपम० ॥ पुष्पं ॥ नवेद्य गवन छुधा मिटावन सेव्य भावन युत किया। रस मिष्ट पूरत इष्ट सूरत लेय कर प्रभु हिंत हिया ॥ परपम० ॥ नैवेद्य ॥ तम अज्ञ नाशक स्वपर भाशक ज्ञेय परकाशक सही | हिम पात्र में घर मौल्य विनवर घोत घर मणि दीपही ॥ वरपा० ॥ दीपं ॥ आमोदकारी वस्तु सारी विध दुचारी नारनी । तसु तूप कर कर धूप ले दश दिश सुरम विस्तारनी ॥ परपद्म ॥ धूपं ॥ फल भक्क पक्क सुचक्क सोहन सुक्क जनमन मोहने । वर रस पुरत लख तुरत मधुरत लेय कर अत सोहने । वरपा० ॥ फलं || जल गंध आदि मिलाय वसु विध थार स्वर्ण मरांयके । मनं प्रमुद भाव उपाय कर । लै आय अर्घ वनायके । परपद्म० ॥ अर्घ ॥ अथ जयमाला। दोहा-चरम तीर्थ करतार श्री, वर्द्धमान जगपाल । कल मल दल विध विकल हुय, गाऊ तिन जयमाल ॥१॥ पद्धडि छंद। जय जय सुवीर. जिन मुक्ति थान । पावापुर वन सर.शोभवान ॥.. ने शित असाई छर स्वर्गे धाम । तज पुष्पोचर सु विमान ठाम॥ कुंडलपुर सिद्धारथ नृपेश । आये त्रिशला जननी उरेश ॥ शित चैत्र त्रियोदश युत विज्ञान | जन्म तम अज्ञ निवार भान ॥२॥. - पूर्वान्ह धवल चतु दशि दिनेश । किय नव्हन कनकगिरि शिरं Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] जनसिदांतसंग्रह। सुरेश । वय वर्ष तीस पद कुमर काल | सुख द्रव्य भोग भुगते विशाल ॥३॥ मारगशिर अलि दशमी पवित्र । चढ़ चंद्रप्रमु शिवका विचित्र ॥ चलपुरसे सिद्धन शशि नाय । धारो संयम वर शर्मदाय ॥ ४ ॥ गत वर्ष दुदश कर तप विधान । दिन शित वैशाख दशैं महान । रिजुक्ला सरिता वट स्व सोध । उपनायो जिनवर चरम वोध ॥ ५॥ तवही हरि आज्ञा शिर चढ़ाय ! रचियो समवाश्रित धनद राय । चनुसंघ प्रमृत गौतम गनेश । युत तीस वरप विहरे निनेश ॥ ६ ॥ मवि जीवन देशना विविध - देत।आये वर पावानप्र खेत ॥ कार्तिक अलि अन्तिम दिवस ईश। कर योग निरोध अघातिपीश ॥ ७ ॥ है अकल अमल इक समय माहि। पंचम गति पाई श्री जिनाह ॥ तव सुरपति निन.. . रवि अस्त जान । आये तुरंत चढ़ स्व विमान ॥ ८ ॥ कर वपु .. अरचा थुति विविध भांत । लै विविध द्रव्य परमल विख्यात । तव ही अगनींद्र नवाय शशि । संस्कार देहकी त्रिजगदीश || कर भस्म वंदना स्व महीय | निवसे प्रभु गुन चितवन स्वहीय। पुन नर मुनि गनपति आय आय | वंदी सो रम सिर ल्याय ल्याय ॥१०॥ तवहीसे सो दिन पूज्यमान | पूजत मिनग्रह जन हर्ष मान । मैं पुन पुन तिस मुवि शीश धार । वंदो तिन गुणधर उरु मझार ॥ ११ ॥ जिनहीका अब भी तीर्थ एह । वर्तत दायक अति शर्म गेह ।। अरु दुपम काल अवसान वाहि। वत गोमव थित हर सदाहि ॥ १२॥ कुसमलता छंद ॥ श्री सन्मत जिन अंघ्रि पद्म युग जनै भव्य जो मन वच काय । ताके जन्म जन्म संतत, अघ नावहिं इक छिन माहिं पलाय॥ धनधा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। न्यादि शर्म इन्द्रीजन लहँ सो शम्म अतेन्द्री पाय। अजर अमर अविनाशी शिवंथल वर्णी ' दौल रहै शिर नाय ॥ इत्यादि आशीर्वादः ॥ (२५) चंकापुर सिद्धक्षेत्र पूजा। • ॥ दोहा ॥ उत्सव किय पनवार जह, सुरगन युत हरि आय | जो सुथल वसपूज्य सुत, चम्पापुर हर्षाय ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री चंपापुर सिद्धक्षेत्रभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् इत्याहाननं ॥ १ ॥ अत्र तिष्ठतिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥२॥ अत्र मम सनि: हितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं परिपुष्पांजलिं क्षपेत् ॥ ॥ अष्टक || सम अमिय विगत त्रस वारि, लै हिम कुंभ भरा। लख दुखद त्रिगद हरतार, दैत्रय धार धरा ।। श्री वासुपूज्य जिनराय, निवृत थान प्रिया । चंपापुर थल सुखदाय, पूनों हर्षे हिया ॥ ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं.॥ काश्मीर नीर मधगार, अती पवित्र खरी। शीतलचन्दन संगसार, ले भत्र तापहरी ॥ श्री वासुपूज्य० ॥ सुगंधं ॥ २॥ मणिद्युत समखंड विहीन, तंदुल लै नीके, सौरम युत नववर वीन, शाल महानीके || श्री वासुपूज्य० ॥ अक्षतं ॥३॥ अलि लुमन शुभन हग घ्राण, सुमन सुरन हुमके। लैवाहिम अर्जुनवान, सुमन दमन झुमके ॥ श्री वासुपूज्य ॥ पुष्प ॥ ४ ॥ रस पुरत तुरत पकवान, पक्व यथोक घृती। क्षुध गदमंद प्रदमन जान, लैविध युक्तकृती॥ श्री वासुपूज्य० ॥ नैवेधं ५॥ तमंअज्ञ प्रनाशक सूर शिव मग परकाशी। लै रत्नदीप Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] नैनसिद्धांतसंग्रह। युत पूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्री वासु. ॥ दीपं ॥१॥ वर परमल द्रव्य बनूप, सोध पवित्र करी। सुचूरण कर कर धूप, लैविध कनहरी ॥ श्री वासु० ॥ धूपं ॥ ७ ॥ फल पश्व मधुररस वान, प्रामुक बहुविधके । ख मुखद रसन हग धान, लेपद पद सिधके । श्रीवासु० ॥ फलं ॥ ८ ॥ जल फल वा द्रव्य मिलाय, हेमर हिमधारी | वसु अंग धरा पर ल्याय, प्रमुद व चितधारी॥ श्री वासु. ॥ अर्थ ॥ अथ जयमाला ॥ दोहा ।। भये द्वादशम तीर्थपति, चंपापुर निर्वाण | तिन गुणकी जयमाल कछु, कहों श्रवण सुख दान | पद्धडिछन्द । जय जय श्री चम्पापुर सु धाम। जहां राजत नृप चपून नाम ।। जनपान पल्यसे धर्महीन । भवभ्रमन दुःखमय लख प्रवीन ॥१॥ उर करुणाघर सो तम विडार । उपज किरणावलि घर अपार॥ श्रीवासुपूज्य तिन तने वाल। द्वादशम तीर्थ का विशाल ॥२॥ भवमाग देहसें विरत, होय । वय वाल माहिं ही नाथ सोय ॥ सिद्धन नम महंत भार लीन । तप द्वादश विध उग्रोम कीन ॥ तह मोह सप्तत्रय आयु येह । दशप्रकृति पूर्व ही क्षय करेह ॥ श्रेणी क्षपक आरूढ़ होय गुण नवम भाग,नव माहि सोय ॥ ४॥ सोलह वसु इक इक पट इकेय । इक इक इक इम इन क्रम सहेय ॥ पुन दशम थान इक लोमटार । द्वादशम थान सोलह विडार ॥ ५॥ है अनंत चतुष्टय युक्त स्वाम । पायों सब . · सुखद-संयोग ठाम ।। तहं काल निगोचर सर्व गेय । युगपत हि. . . समय इक महि लखेय ॥ ६ ॥.क्छु. काल दुविध वृष अमिय. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२७९ वृष्टि । कर पो भव भवि धान्य श्रेष्टि । इक मांसं आयु अवशेष जान । जिन योगनकी सुप्रवर्त हान ॥ ७ ॥ ताही थल तृतिशित ध्यान ध्याय । चतुदशम थान निवसे जिनाय ॥ तह. दुचरम समय मझार ईश । प्रकृति जुबहत्तर तिनहि पशि ॥ तेरहनठ चरम समय मझार । करके श्री जगतेश्वर प्रहार ॥ अष्टमि अवनी इक समयमद्ध | निवसे पाकर निन अचल रिद्ध ॥ ९॥ युत गुण वसु प्रमुख अमित गुणेश । हेरहे सदाही इमहिं वेश ॥ तबहीसे सो थानक पवित्र । त्रैलोक्य पूज्य गायों विचित्र ॥ मैं तसु रज निन मस्तक लगाय । बन्दी पुन पुन मुवि शाशनाय || ताही पद वांछा उर मझार । घर अन्य चाह वुद्धि विडार ॥११॥ दोहा।' श्री चम्पापुर जो पुरुष, पूजै मनवच काय । वणि "दौल " सो पायही, सुख संपति अधिकाय ॥ इत्याशीर्वादः ॥ — इति श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूना समाप्तम् । (२६) महावीर जिनपूजा (कवि वृन्दावनजीकृत) श्रीमत बीर है। भवपरि, भरै सुखसीर अनाकुलताई। . केहरि अंक अरीकरदक, नये हरिपकतमौलि सुहाई ॥ मैं तुमी इत थापतु हौं प्रभु, भक्तिसमेत हिये हरषाई । हे करुणाधनधारक देव, इहां अब तिष्टहु शीनहि आई ।। ॐ ह्रीं श्रींवर्द्धमानजिनेन्द्र अत्र 'अवतर अवतर। संवौषट् । . अत्र तिष्ठ विष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो मव भव । वषट् । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०1 जैन सिद्धांतसंग्रह। अथाष्टक । छन्द अष्टपदी। क्षीरोदधिसम शुचि नीर, कंचनमृग मरौ । प्रमु वेग हरौ भवपीर, यात धार करौं । श्रीवीर महा अतिवार, सन्मतिनायक हो । जय बर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो। ॐ ह्रीं श्रीमहावीर जिनेन्द्राय जन्मारामृत्युविनाशनाय नलं ॥१ मलयागिरचन्दन सार, केसरसंग घसौं । प्रनु मच आताप निवार, पूजत हिय हुलसौं । श्रीवीर० ॥ जय वर्द्धमान ॥ ॐ हीं श्रीमहावीरमिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदन नि० ॥२ तंदुलसित शशिसम शुद्ध, लीने थारभरी । तमु पुन घरौं अविरुद्ध, पाऊं शिवनगरी ॥ श्रीतीर०, जय बर्द्धमानः ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० ॥३॥ तुरतरुके सुमनसमेत सुमन सुमन प्यारे । सो मनमथमंजन हेत, पूंजूं पद थारे ।। श्रीवीर० ॥ जय वर्द्धमान ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविवंशनाय पुप्पं नि ? रसरजत सनत सध, मजत थार मरी। पद जज्जत रज्जत अध, भजत भूख भरी॥ श्रीवीर ॥ जयवद्धमान !! ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय वैध नि० ॥५॥ तमखंडित मंडित.नेह, दीपक जोवत हूं। तुम पदतर हे सुखगेह, अमतम खोबत हूं। श्रीधीर० ॥ नय वर्धमान ॥ . ॐ श्रीमहावीरीजनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि०१६) __ हरिचंदन अगर कपूर, चूरि सुगन्ध करे। तुम पदतर खवत भूरि, आठौं कर्म जरे ।। श्री वीर• ॥ जय वर्द्धमान ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरनिनेन्द्राय अटफर्मावध्वंसनाय धूपं नि० ॥७॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAV जिनीसद्धांतसंग्रह। [२८१. रितुफल कलवर्मित लाय, कंचनथार भरौं । शिव फलहित हे जिनराय, तुमढिग भेट घरौं ॥ श्रीवीर० ॥ जय वर्द्धमान० ॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि० ॥६॥ जलफल वसु सजि हिमथार, तनमन मोद घरों । गुण गाऊं भवदाधितार, पूजत पाप हरौं ॥ श्रीवीर. जयवर्द्धमान ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अय नि० ॥९॥ पंचल्याणक-राग टप्पा । मोहि राखौ हो सरना, श्रीवर्धमान जिनरायजी, मोहि राखौ हो सरना ।टेक!! गरम सादसित छह लियौ तिथि, त्रिशला उर अघहरना । सुर सुरपति तित सेव करत नित, मैं पूजूं भवतरना ॥ माहि राखौ. ॥१॥ __ . ॐ ही आषाढशुक्लषष्ठिदिने गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीमहावीरजिनन्द्राय अध्ये निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ ___जनम चैत सित तेरसके दिन, कुंडलपुर कनवरना । सुरगिर सुरगुरु पूज रचायौ, मैं पूजू भवहरना || मोहिराखो० ॥ ॐ हीं चैत्रशुक्लत्रयोदशीदिने जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ ' मगशिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना । नृप कुमारघर पारन कीना, मैं पूजू तुम चरना । मोहि राखौ. ॐ हीं मार्गशीर्ष कृष्णदशम्यां तपोमङ्गलमांडताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ शुकलदशै वैशाखदिवस अरि, धात चतुक क्षय करना । केवल लहि मवि भवसर तारे, जजू चरन सुख भरना ॥ मोहि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] जनातभा जैनांसद्धांतसंग्रह। ॐ ही वैशाखशुरुदशम्यां ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्रीमहावीर- . जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुरते वरना । गनफनिवृंद जबै तित बहु विधि, मैं पूजू मयहरना । मोहि राखौ ॥९ ॐ ही कार्तिककृष्णामावास्यायांमोक्षमङ्गलमंडिताय श्रीमहावरिजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ अथ जयमाला। गन्धर असनियर चक्रपर, हरघर गदाधर वरवदा। अरु चापधर विद्यानुवर, तिरसूलधर सेवहिं सदा । दुखहरन आनंदमरन तारन, तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुन मणिमाल उन्नत,मालकी जयमाल है ॥ १॥ पत्ता-जय त्रिशलानंदन हरिलतवंदन, नगदानंदनचंद वरं । ___ भवतापनिकंदन तनमनवंदन, रहितसपंदन नयन घरं ॥२॥ तोटक-नय केवलमानुकलासदनं । मविकोकविकाशन कंजवनं ॥ जगजीत महरिपु मोहहरं । रजज्ञानहगांवरचूरकरं ॥ १ ॥ गर्मादिक मंगल मंडित हो । दुख दारिदको नित खंडित हो। . नगमाहि तुमी सत पंडित हो। तुम हीभक्मावविहंडित हो ॥२॥ हरिवंश सरोजनकों रवि हो । बलवंत महंत तुमी कवि हो। लहि केवल धर्मप्रकाश कियो । अवलौं सोई मारग राजति यौ ॥॥ पुनि आपतने गुणमाहिं सही । सुर मग्न हैं जितने सब ही। विनकी वनिता गुण गावत हैं। लय ताननिसौं मनमाबत हैं ॥४॥ ': पुनि नाचत रंग अनेक भरी । तुव भक्तिविष पग एम घरी। ... ::., अननं झननं शननं शननं । सुर लेन वहां तननं:तननं ॥ ५ ॥.. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनासिद्ध तिसंग्रह [ २८३ घननं घननं घनघट जैं। हमदं हमदं मिरदंग सनैं। गगनांगणगर्भगता सुंगतों । ततता ततता अतता वितता ॥ ६ ॥ धृगतां घृगतां गति बाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सननं सननं नभर्मे । इकरूप अनेक जु धार भनेँ ॥ ७ ॥ कइ नारि सुबीन बजावतु हैं । तुमरौ जस उज्जल गावतु I करतालविर्षे करताल घरें । सुरताल विशाल जु नाद करें ॥ ८ ॥ इन आदि अनेक उछाहभरी । सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी । तुमही जगजीवनके पितु हो। तुमही विनकारनके हितु हो ॥९॥ तुमही सब विघ्न विनाशन हो । तुमही निज आनंदभासन हो । तुम्ही चितचितितदायक हो । नगमाहिं तुमी सब लायक हो ॥ तुमरे पनमंगलमाहिं सही । जिय उत्तम पुण्य लियौ सब ही । हमको तुमरी सरनागत है । तुमरे गुनमें मन पागत है ॥ ११ ॥ प्रभु मो हिय आप सदा वसिये। जबलौं वसुकर्म नहीं नसिये । तबलौं तुम ध्यान हिये वरतो । तबलौं श्रुतचिंतन चित्तरतो ॥१२॥ तबलौं व्रत चारित चाहत हौं। तबलौं शुभ भाव सुगाहत हौं । तबलौं सतसंगति नित्य रहौ । तबलौं मम संजम चित गहौ ॥१३ जब नंहि नाश करौं अरिको । शिवनारि बरौं समताधरिको । यह द्यो तब हमको जिनजी। हम जाचत हैं इतनी सुननी ॥१४॥ घत्ता - श्रीवीर जिनेशा नमितसुरेशा, नागनरेशा भगतिभरा । वृंदावन ध्यावै भक्ति बढ़ावै वांछित पावै शर्मवरा ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय पूर्णार्थ्यं निर्वपामीति स्वाहा || दोहा - श्री सनमतिके जुगलपद, जो पूजहिं वर-प्रीत " - वृन्दावन सो चतुरनर, लहें मुक्त नवनीतः ॥ १.६ ॥ · · : Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह | [ २९१ सिद्धक्षेत्रेभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ तंदुल धवल सु उज्वल खासे धोयके । हेम वरनके थार भरौं शुचि होय ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये मक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ फूल सुगंध सु ल्याय हरषसों आन चढ़ायौ । रोग शोक मिट नाय मदन सब दूर पायौ ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्रीं सम्मेद - शिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ||४|| षट् रस कर नैवेद्य कनक थारी भर ल्यायो ॥ क्षुषां निवारण हेतु सु पूजौ मन हरषायो || पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेद - 1 शिखर सिद्धक्षेत्रम्यो सुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा || ५ || लेकर मणिमय दीप सुज्योति उद्योत हो । पुनत होत स्वज्ञान मोह तम नाश हो || पुनो शिखिर० । ॐ ह्रीं श्रीं सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेम्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दस विधि धूप अनूप अग्नि मैं खेबहूं | भष्ट कर्मको नाश होतं सुख पाहूं ॥ पुमो शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर - सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ||७|| केला लोंग · सुपारी श्रीफक ल्याइये । फल चढ़ाय मनवांछित फल सु पाइये ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्ताय फर्क निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जलगंधाक्षित फूल सु नेवन कीजिये । दीप धूर फळ : अ चढ़ाइये ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मनपदप्राप्ताय अर्ध निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ परडी छन्द - श्रीवीस तीर्थंकर हैं जिनेन्द्र । मरु हैं असंख्य . · Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] जैनसिदांतसंग्रह । बहुते मुनेंद्र ॥ विनकौं करनोर करों प्रणाम | हिनको पूनों उन सकल काम ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेन्यों मनपद प्राप्ताय म । टार योगीरायसा-श्री सम्मेदशिखिर गिर उन्नत शोभा अधिक प्रमानों । विशति सिंहपर कूट मनोहर भद्भुत रचना मानौ ॥ श्री तीर्थकर बीस तहाँते शिवपुर पहुंचे नाई। तिनके पद पंकन युग पूजों वर्ष प्रत्येक चढ़ाई। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेम्यो म निर्वपामीति स्वाहा ॥ प्रथम सिद्धवर कूट · मनोहर मानंद मंगलदाई । भनित प्रभु नह ते शिव पहुंचे पनौ मनवचकाई । कोड़ि जु मसी एक पर्व मुनि चौवन काल मुंगाई। कर्म काट निर्वाण पधारे तिनको भर्घ चढ़ाई। ॐ ह्रीं श्री सम्मेद- . शिखर सिद्धकूटते श्री अनितनाथ निन्द्रादि एक अर्व मत्सी कोड़ि चौवन लाख मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो म निर्व पामीति स्वाहा ॥२॥ धवळ कूट सो नाम दुसरो है सबकौं सुखदाई । संभव प्रभुसो मुकि पधारे पाप तिमिर मिटमाई । धवलदत्त हैं मादि मुनीश्वर नव कोडाकोडि जानौ । दक्ष बहत्तर सहस बयाकिस पंच शतक ऋषि मानौ कर्म नाश कर अमरपुरी गए बंदी सीस नवाई । तिनके पद युग नजों भावसों हपहप चितलाई॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर धवव कूटते संभवनाथ जिनेन्द्रादि नव बेड़ाकोड़ि बहत्तर लाख व्यालिस हजार पांचवे मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥३॥ चौपाई-मानंद कूट महा सुखदाय । प्रभु.अभिनंदन शिवपुर जाय । कोडाकोडि बहत्तर जानौ। . सत्तर कोडि लाख छत्तीस मानौ ॥ सहस बयालीस शतक जु सात । कहें जिनागम में इस माता ए ऋषि कर्म काट शिव गये, Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [ २९३ तिनके पद युग पूजत भये ॥ ॐ ह्रीं श्री मानन्दकूटतें अभिनन्दननाथ जिनेन्द्रादि मुनि बहत्तर कोड़ाकोड़ि अरु सत्तर कोड़ि छत्तीस लाख व्यालीस हजार सातसैं मुनि सिद्धपद प्राप्ताय अर्ध निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ अडिल छंद - भवचल चौथौ कूट महां सुख घाम जी ! जई ते सुमति जिनेश गये निर्वानजी ॥ कोड़ाकोड़ि एक मुनीश्वर जानिये । कोड़ि चौरासी लाख बहत्तर मानिये ॥ सहस इक्यासी और सातसे गाईये । कर्म काट शिव गये तिन्हें सिर नाईये ॥ सो थानक मैं पूजौ मन वच काय जू । पाप दूर हो जाय अचल पद पायजू ॥ ॐ ह्रीं श्री नवचल . कूटतें श्री सुमति मिनेन्द्रादि सुनि एक कोढाकोड़ि चौरासी कोड़ि बहत्तर लाख इक्यासी हजार सातसे सुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो मई ॥ ९ ॥ भडिल छंद - मोहन कूट महान परम सुंदर कहौ । पद्मप्रभु जिनराय नहीं शिवपद कहौ ॥ कोड़ि निन्यानवे लाख सतासी जानिये । सहस तेताकिस और मुनीश्वर मानिये ॥ सप्त सैकड़ा सत्तर ऊपर बीस जू । कहैं जवाहरदाससु दोय कर नोरेनू ॥ ॐ ह्रीं श्री मोहन कूटर्ते श्री पद्मसु सुनि निन्यानवे कोड़ि सतासी लाख तेतालिस हजार सातसे संताउन मुनि निर्वा पदप्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्ध ॥ ६ ॥ सोरठा-कूट प्रमास महान । सुंदर जग मणि मोहनौ । श्री सुपार्श्व भगवान, सुक्ति गये अघ नाश कर ॥ कोड़ा कोड़ी उनचास कोड़ि चौरासी जानिये । लाख़ बहत्तर जान सात सहस अरु सावसे | और कहे व्यालीस हतें सुनि सुक्तिहि गये । तिनकौं नमुं -बित सीस दास जवाहर जोरकर || ॐ ह्रीं ममासकूटतें श्री सुपार्श्वनाथ जि " Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARA २९४] जैनसिद्धांतसंग्रह। नद्रादि उनचास कोडाकोडी बहत्तर लाख सात हजार सातसे ब्यालीस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो मध ॥ ७॥ दोहा पावन परम उतंग हैं ललित कूट है नाम || चंद्र प्रभु मुक्त गये, वंदो माठी नाम || नवसे अरु वसु नानियो, चौरासी ऋपि मान। क्रौडि बहत्तर रिषि कहे। असी लाख परवान || सहस चौरासी पंच शत | पचवन कहे मुनीश । वसु कर्मनको नाशकर ॥ गये लोकके शीस ॥ ललितकूट शिव गये । वेदों सीस नवाय ॥ तिनपद पूनों भाव सौ, निन हित अर्ब चढ़ाय ॥ ॐ ही • नलितकूटते श्री चंद्रप्रभु मिनेन्द्रादि नवस चौरासी मरब बहत्तर क्रोड भस्सीलाख चौरासी हनार पांचसै पचवन मुनि सिद्धपद प्राप्ताय मर्ष निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥ पद्धडी छन्द-सुवरणभद्र सो कूट जान । नहं पुष्पदंतको मुक्त थान ॥ मुनि कोडाकोड़ी कहै जु माख । अरु कहे निन्यानवै चार लाख ॥१॥ सौ सात सतक मुनि कहे सात । रिपि मसी और कहे विख्यात ॥ मुनि मुक्ति गये वसु कर्म काट | वंदी कर जोर नवाय माथ ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री सुपभुकूटवै पुष्पदंत जिनन्द्रादि एक कोडाकोडी निन्यानवे काख सात हनार चारसे मस्सीमुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्ष ॥९॥ सुन्दरी छंद-मुभग विद्युतकूत सु मानियै । परम महुवता परमानिये ॥ गये शिवपुर शीतलनाथनी। नमहं तिनपद करी परि मायनी ॥ मुनिवसु कोड़ाफोड़ी प्रमानिये । और नो लाख ब्यालिस नानिये ॥ कहे और जु लाख बत्तीस 'नू । सहस व्यालिस कहे यतीष जू | और वहस नौसे . ' .पांच सुनानिये गये मुनि शिवपुरकों जु मानिये ॥ करहिं पूजा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । I [ २९५ जे मनकायकें । घरहि जन्म न भवमें मायके ॥ ॐ ह्रीं सुभग विद्युठकूटते श्री शीतलनाथ जितेंद्रादि मष्ट कोड़ाकोड़ी व्याळीस लाख बत्तीस हमार नौ से पांच मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अ ॥ १० ॥ ढार योगीराता- कूटजु संकुल परम मनोहर श्री श्रीयांस जिनराई । कर्म नाश कर अमरपुरी गये, बंदों शीस नवाई | कोड़ा कोड़ जु है क्यानवे, छयानवे कोड़ प्रमानौ || लाख क्ष्यानचे साढ़े नबसै, इकसठ मुनीश्वर जानो । ताऊपर व्यालीस रहे हैं श्री सुनिके गुन गावै । त्रिविध योग कर जो कोई पूनै सहजानंद पद पावै ॥ ॐ ह्रीं संकुल कूटतें श्रीयांसनाथ जिनेन्द्रादि क्ष्यानवें कोड़ाकोड़ी क्ष्यानवे क्रोड़ श्यानवे लाख साढ़ेनौ हजार उशालीस-मुनि सिद्ध पद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्धं ॥ ११ ॥ कुसुमलता छंद -श्री मुनि संकुल कूट परम सुंदर सुखदाई | विमलनाथ भगवान जहां पंचमगति पाई || सात शतक सुनि और व्यालिस जानिये । सत्तर कोड़ सत काख हजार है मानिये | दोहा-अष्ट कर्मको नाश कर, सुनि अष्टम क्षिति पाय || तिनको मैं वंदन करों, जन्ममरण दुख जाय ॥ ॐ ह्रीं श्री संकुलकूटतें श्री विमलनाथ जिनेंद्रादि सत्तर क्रोड़ सात लाख छैः हजार सातसे व्यालीस सुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रभ्यो अर्षे ॥ १२ ॥ अड्डिल- कूट स्वयंभू नाम परम - सुंदर कहौ । प्रभु अनंत जिननाथ जहां शिवपद कहौ ॥ सुनि जु कोड़ाकोड़ी क्ष्पानवै जानिये । सत्तर कोड़ जु सत्तर लाख वखानिये || सत्तर सहस नु और सातसे गाइये । मुक्ति गये सुनि तिन पद शीस नवाईये ॥ कहे जवाहरदास सुनौ मन लायकेँ । गिरवरकों नित पूजौ मन हरषायकै ॥ ॐ ह्रीं स्वयंभूकूटतें श्री अनंतनाथ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] जैनसिद्धांतसंग्रह। जिनेंद्रादि क्ष्यानवै कोड़ाके ही सत्तर लाख सात हजार सास मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिख क्षेत्रम्यो अर्घ ॥१॥चौपाई-कृट सुदत्त महां शुभ मानों । श्री जिनधर्म नायकों थानौं ॥ मुनि जु कोड़ाकोड़ उनतीस । और पहे ऋप कोड़ उनी ॥ न लाख नौ सहम सुजानों । सात शतक पंचानव मानों मोक्ष गये वसु कमन चुरे । दिवस रैन तुमही मम्परे ।। ॐ हाँ श्री सुदत्त कुटले श्री धर्मनाथ निन्द्रादि नतीस कोडाफोड़ी उनीस कोड नव्य लाख नौ हमर सानसे पंचानव मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षे म्यो अर्घ निर्वामीति स्वाहा ॥१४॥ प्रभासी कूट मुंदर पति पवित्र सो नानिये। सातनाथ जिनेन्द्र जहांत परम धाम प्रमानिये। ॐ ह्रो प्रभास कूटतें श्री शांतिनाय निन्द्रादि नौ कोडाकोड़ी नौ लाख नौ इमार नौसे निन्यानवे मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्ध क्षेत्रम्यो अर्घ ॥१५॥ गीतका छन्द-ज्ञानघर शुम कुट सुंदर परम मनको मोहनो । जहते श्री मुकुंयु स्वामी गये शिवपुरको गनो ॥ फोड़ाकोड़ी श्यानवे मुनि कोहि क्यानवे नानिये । लाख बत्तीस म्हप क्यनवे अरु सौ सात प्रमानिये ॥ दोहा-और कहे व्यालीस. सुमरोहिये मझार । जिनवर पृनो भाव सों, घर भवदधि ते पार ॥ ॐ ह्री ज्ञानघरकूट ते श्रीकुंयुनाथ स्वामी और क्यानवे कोहराकोड़ी क्ष्यानवे कोड़ि बत्तीस लाख क्यानवे हजार बरु सातसो शलीस मुनि सिद्धपदपाताय सिद्ध क्षेत्रेभ्यो पर्व ॥ १६ ॥ दोहा-कूट जु नाटक परम शुभ, शोमा अपरम्पार । नईते भरह मिनेन्द्रनी, पहुंचे मुक्त मझार । कोड़ि निन्यानवे मानि मुनि, लाख निन्यानवे और । कहे सहस निन्यानवे, वंदौ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२९७ कर जुग नोर || मष्ट कर्मको नाश कर, अविनाशी पद पाय । ते गुरु मम हृदये वसौ, भवदधि पार लगाय ॥ ॐ हीं नाटककूट श्री अरहनाथ जिनेन्द्रादि निन्वानवे कोड़ि निन्यानवै लाख निन्यानवै हमार मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१७॥ अडिल्ल छन्द-कूट संवल परम पवित्र नू ॥ गये शिवपुर मरिक जिनेश जु ॥ मुनि जु क्ष्यानवै कोडि प्रमानिये, पद मनत हृदयें सुख मानिये ॥ ॐ ही संबल कूट- श्री मल्लिनाथ जिनेंद्रादि क्यानवे कोडाकोड़ी मुनि सिद्धपदमाप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१८ ढार परमादीको चालमें-मुनिमुव्रत निनराम सदा आनंदके दाई । सुंदर निर्जर कूट जहां ते शिवपुर पाई ॥ निन्यानव कोड़ा कोड़ कहे मुनि कोड़ सत्याना। नो लख जोर सुनेन्द्र कहे नौसे निन्याना । सोरठा-कर्मनाश ऋषिरान, पंचमगतिके सुख लहे। तारन तरन जिहाज, मो दुख दूर करौ सकल ॥ ॐ हीं श्री निर्नर कूटते श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्रादि निन्यानवे कोड़ाकोड़ी संतावन कोड़ नौ लाख नौ शतक निन्यानवे मुनि सिद्धपद प्राप्ताय अध ॥१९॥ ढारजोगरासा-एह मित्रधर कूट मनोहर सुंदर अतिछरछाई । श्री नमिनाथ जिनेश्वर जहां शिवपुर पहुँचे जाई॥ नौसे कोडाकोड़ी मुनीवर एक अरब ऋषि जानौ । बाख सैतालिस सात सहप्स अरु नौसे व्यालिस मानौ। दोहा-वसु कर्मनको नाशकर, अविनाशी पद पाय । पूनौ चरन सरोन ज्यों, मनवांछित फल पाय ॥ ॐ ह्री श्री मित्रधर कूटते श्री नमिनाथ जिनेंद्रादि मुनि नौसे कोडाकोड़ी एक अर्थ सेवालिस लाख सात हजार नौसे व्यालिस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्ष ॥२०॥ जोडाकोई यालिस चाव सराजिनद्राक्ष Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANANAMEVAAAAAAAAAR २९८] नासदांतसंग्रह। दोहा-सुवर्ण मद जु कूट, श्री प्रभु पारसनाथ । जही शिवपुरको गये, नमों नोड़ि जुग हाथ ॥ ॐ हो सुवर्णभद्र कूटते श्री पार्श्वनाथ स्वामी सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रभ्यो बघ निर्वपामीति स्वाहा ॥२१॥ या विधि वीस निद्र, वीसी शिखिर महान ॥ और असंख्य मुनि सहनही । पहुंचे शिवपुर थान | ॐ ह्रीं श्री वीस फूट सहित अनंन मुनि सिहपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो मर्ष ॥२२॥ ढारकातिककी-प्राणी हो मादीश्वर महाराजमी, मष्टापद शिव थान हो । वास्पून जिनराननी चंपापुर शिवपद नान हो ॥ प्राणी नेम प्रभु गिरनारत, पावापुर श्री महावीर हो। प्राणी पनौ अर्घ चढ़ाय के, इह नाथै भयभीत हो । पाणी पुनौ मनवच क्रायके ॥ हो श्री ऋषभनाथ कैलाशगिर, श्री महा. वीरस्वामी पावापुर , श्री वासुपूम चम्पापुर , नेमिनाथ गिरनार ते सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥ २३ ॥ दोहा-सिद्धक्षेत्र ने और हैं, भरत क्षेत्रके मांहि ॥ और जु अतिशय क्षेत्र हैं, कहे जिनागम मांहि । तिनको नाम जु लेतही, पाप दूर हो नाय । ते सब पूनौ भघ ले, भव भववं मुखदाय । ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र सम्बन्धी अतिशय क्षेत्रेभ्यो अर्घ । सोरठा-दीप मढ़ाई माहि सिद्धक्षेत्र जे और हैं । नौ अर्घ चढ़ाय भवभवके अघ नाश ह॥ ॐही मढाई द्वीप सम्बन्धी सिद्धक्षेत्रम्यो मर्च ॥ १४ ॥ अथ जयमाला चौपाई-मन मोहन तीरथ शुभ नानौ । पावन परम मु . क्षेत्र प्रमानौ । उनतीस शिखिर अनूपम सोहे । देखत ताहि मुरासुर मोहे । दोहा-तीरथ परम सुहावनौ, शिखिर सम्मेद Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसिद्धांतसंग्रहा . [२९९ विशाल ॥ कहत अल्प बुध उकसो, सुखदायक जयमाल ॥२॥चोपाई-सिद्धक्षेत्र तीरथ सुखदाई । वंदत पाप दूर हो नाई। शिखिर शीसपर कूट मनोग। कहे वीस अतिशय संयोग ॥ ३ ॥ प्रथम सिद्ध शुभ कूट सुनाम | अनितनाथ कौं मुक्ति सु घाम 1. कूट तनौ दर्शन फल कहौ । कोडि बत्तीस उपास फल. लहौ ॥ १ ॥ दुनो धवल कूट है नाम । संभव प्रभु नहते. निर्वाण ।। कूट दरश फल प्रोषध मानौ । लाख पालिस कहै वखानौ ॥ ५॥ मानंद कूट महां सुखदाई । जहं ते अमिनन्दन शिव नाई ।। कूट तनौ वंदन हम जानौ । लाख उपास तनौ फलमानौ ॥ ६ ॥ अवचल कूट महामुख वेश । मुक्ति गए तह मुमति जिनेश । कूट भावधर पूजे कोई। एक कोड़ प्रोषध फल. होई ॥ ७ ॥ मोहन कूट मनोहर नान | पद्मासु जहते निर्वाण ॥ कूट पुन्य फल लहै सुजान | कोड़ उपास कहै भगवान ॥ ८॥ मन मोहन शुभ कूट प्रभास । मुक्ति गये जहत श्रीयांस || पून कूट महां फळ होय। कोड़ बत्तीस उपवास जु सोय ॥९॥ चन्द्रप्रभु को मुक्तिमु धाम | परम विशाल ललित घट नाम । दर्शन कूट तनौ इम मानौ । प्रोषध सोला लाख बखानौ ॥१०॥ सुप्रभ कूट महा सुखदाई । जहते पुष्पदंत शिव नाई ॥ पूर्भ कूट महा फक होय । कोड़ उपास कहौ मिनदेव ॥ ११ ॥ सो .विद्युतवर कूट महान । मोक्ष गये शीतल घर ध्यान । पूनै त्रिविध · योग कर कोई । कोड़ उपास तनौ फल होई ॥ १२ ॥ संकुल कूट महां शुभ जानौ । जंहते श्री श्रीयांत भगवानों ।। कूटतनी र दर्शन सुनी। कोड उपाप्त.मिनेश्वर भनौ ॥ १३॥ संकुल : कूट Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ]. जैनसिद्धांतसंग्रह। परम सुखदायि । विषक मिनेश जहां शिव नाई ॥ मनवच दर्श करै नो कोई, कोई उपास वनौ फल होई ॥ १४ ॥ कूट स्वयंभू सुभगसु ठाम । गये अनंत अमरपुर धाम | यही कूट को दर्शन करै । कोड उपास तनौ फ घरै ॥ १५ ॥ है मुदत्तवर कूट महान । नहते धर्मनाथ निर्वाण | परम विशाल कूट है सोई, कोड उपवास दर्श फळ होई ॥ १६ ॥ कूट प्रमाप्त परम शुम. कहौ । शांति प्रभु जहते शिव लहो | कूट तनौ दर्शन है सोई। एक क्रेड प्रोषध फल होई ॥ १७ ॥ परम ज्ञानघर है शुभ कूट। शिवपुर कुंथु गये अघ छूट ॥ इनको पून दोई केर जोर । फल उपवास कहो इक कोड़ ॥ १८ नाटक कूट महां शुम जान । म्हते परह मोक्ष भगवान ॥ दर्शन कर कूटको नोई । क्ष्यानवै कोड़ उपास फल होई ॥ १९॥ संवलकूट मल्लि मिनराय । जहते मोक्ष गये निम काय || कूट दरश फल कही जिनेश । कोड़ि एक प्रोषध फर वेस ॥ २० ॥ निर्नर कूट महा सुखदाई । मुनिसुव्रत जह से शिव जाई ॥ कूट तनौ दर्शन है सोई । एक कोड़ प्रोषध 'फळ होई ॥ २१॥ कूट मित्रघर नमि मोक्ष । पूमत पाय सुरा सुर जक्ष | कूट तनौ फक है सुखदाई । कोड़ उपास कहौ जिनराई ना२९॥ श्रीप्रभु पार्श्वनाथ जिनराय, दुरगति त छूटे महाराज || सुवर्णमद्र कूट को नाम । नहं ते मोक्ष गये जिन धाम ॥ ३३ ॥ तीन लोक हित करत अनुप | मंगल मय जगमैं चिद्रूपः॥ चिंता. मणि स्वर वृक्ष समान । रिद्ध सिद्ध मंगल मुख दान ॥ २४ ॥ पारस और काम सुर धेनु । नानाविष भानंदकौं देनु । व्याधि विकार नाहिं सब मान । मन चिंते पुरै सब काम ॥२५॥ भव. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। | ३०१ दपि रोंग विनाशक होई मो पंद नगमैं और न कोई॥ निर्मळ. परम धाम उत्कष्टः । वन्दत पाप भने मरि दुष्टः ॥ २६ ॥ नों नर ध्यावत पुन्य कमाय। जंश गावत ऐ कर्म नशाय करें 'अनादि कर्मके पाप । भने सकल छिनमें संताप ॥२॥'सुर नर इन्द्र फणिन्द्र जुसवे और खगेन्द्र महेन्द्र जु नर्म, नित मुर सुरी करै उच्चार । नाचत गावत विविध प्रकार ॥ २८ ॥ बहु विष भक्ति कर मन काय । विविध प्रकार वाजिंत्र बजाय ॥ २९ ॥ . द्रुम द्रुम दुम बाने मृदंग । धन धना धंट बने मुहचंग ॥ झन झन झनिया करै उच्चार । सरसारंगी धुन उच्चार ॥ ३०॥ मुरली बीन बने धन मिष्टः। पटहांतुरी स्वरान्वत पुष्ट || नित सुरगुण थुति गावत सार । सुरगण नाचत बहुत प्रकार ॥ ३१॥ झननन झननन नूपुर तान । तननन तननन टोरंत तान । ता येई. थेई थेई थेई थेई चाल । सुर नाचत निन नावत सुमाल ॥३२ गावत नाचत नाना रंग लेत जहां सुर मानंद संम ॥ नित प्रति मुर जहां वंदन जाय ॥ नाना विध मंगल कौं गाय ॥३३॥ मनहद धुन सुन मोद जु सोय । प्रापत व्रतकी मत ही होय ॥ ताते हमकू है सुख सोई। गिरवर वंदों कर घर दोई ॥३४॥ मारुत मंद सुगंध चलेय । गंधोदक वहां वर सोय ॥ जियकी जात विरोध न होई । गिरवर वैदै कर धर दोई। ॥ ३५ ॥ ज्ञान चरित तपसाधन होई, निन अनुभौको ध्यान घरेई॥ शिव मंदिरको हारौ सोई, गिरवर वैदै कर घर दोई ॥ ३६ ।। नो भव वन्दै एक जुबार, नरक निगोद पशु गति यर ॥ सुर शिकपदकं पावै सोय । गिरवर वंदै कर घर दोय ॥ ३७ ॥ ताकी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ३०२] जैनसिद्धांतसंग्रह ।.. महिमा अगम अपार । गणधर ध्यन न पा पार। तुम मद्धत मैं -मति कर हीन । कही भक्तिवश केवल लीन ॥ ३८ ॥ पत्ता-श्री 'सिपक्षेत्र भति:मुख देतं ॥ सेवन नासौ विघ्न हरा ॥ मरु कर्म . विनाश सुख-पयासै फेवल भासै सुःख करा ॥ १९॥ ॐ ही श्री . सम्मेदशिखिर सिद्धपद प्राप्ताय सिरक्षेत्रेभ्यो महा। दोहाशिखिरसम्मेद पूजो सदा, मन वच तन नर नारि ॥ सुर शिवके जे फल लहैं । कहते दास नवारी ॥१०॥ इत्यादि माशीर्वादः। . चतुर्थ खंड। (१) शांतिपाठः (शांतिपाठ बोलते समय दोनों हाथोंसे पुष्पवृष्टि करना चाहिये। दोषकवृत्तम ।। शान्तिनिनं शशिनिर्मलवक्त्रं शीलगुणवतसंयमपात्रम् । माष्टशतातिरक्षणगात्रं नौमि जिनोत्तममम्बुननेत्रम् ॥ १॥ पश्चममीसितचक्रधराणां पृमितमिन्द्रनरेन्द्रगणेश्च । शान्तिकरं गणशांतिममीप्सुः षोड़शतीर्थकर प्रणमामि ॥२॥ - दिव्यतरू सुरपुष्पवृष्टिदुन्दुमिरासनयोजनघोषौ ।। भातपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च मण्डकतेनः ॥ ३ ॥ नगदर्चितशांतिनिनेंद्र शान्तिकर शिरसा प्रणमामि ? सर्वगणाय तु यच्छतु शान्ति महामरं पठते परमां च ॥४॥ . . ........ ... Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwww W जैनसिद्धांतसंग्रह। वसन्ततिलका। येऽभ्यचिंता मुकुटकुण्डलहाररत्तैःशक्रादिभिः सुरगणैःस्तुतपादपद्माः। ते मे मिना: प्रवरवंशजगत्पदीपास्तीर्थकरा:सततयांतिकरा भवातु॥ इन्द्रवज्रा। . ." संपूनकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रमामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवान् मिनद्रः ॥६॥ स्रग्धरावृत्तम् । क्षेमं सर्वप्रमानां प्रभवतु बलवान धार्मिको भूमिपालः । काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधियो यान्तु नाशम् ।। दुर्मिक्ष पौरमारी क्षणमपि जगतां मास्ममूजीवलोके । मैनंद्र धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यपदायि ॥ ७ ॥ अनुष्टुप-प्रध्वस्तपातिकर्माणः केवलज्ञानभास्कराः। कुर्वन्तु जगतः शान्ति वृषभाधा जिनेश्वराः ॥ ८॥ 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । __ अयेष्ट प्रार्थना। शास्त्राभ्यासो मिनपतिनुतिः सङ्गति सर्वदाय: सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्वे सम्पधन्तां मम भवमने यावदेतेऽपवर्गः ॥९॥ १ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदियधनिश्चामरमासनं च ॥ मामण्डलं दुन्दुमिरातपत्रं सत्यातिहार्याणि मिनेश्वराणाम् ॥ ( यह श्लोक क्षेपक है, इसे बोलना न चाहिये।) - - - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N HARA ३०४] जनसिद्धांतसंग्रह। आवित्तम् । तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । " लिष्टतु जिनेन्द्र तावद्यावनिर्वाणसम्प्राप्तिः ॥ १० ॥ आर्या-मक्खरपयत्यहीणं मत्ताहीणं च में मए भणिय ! तं खमठ गाणदेव य मन्झवि दुक्खक्खयं दितु ॥११॥ दुक्खखओ कम्मखमो समाहिमरणं च वोहिकाहो य । मम होठ भगवंधव तब जिणवर चरणरणेण ॥१२॥ (परिपुष्पांजलिं क्षिपेत) (२) विसर्जन पाठ। ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्त न कृतं मया । तत्सर्व पूर्णमेवास्तु त्वलसादाजिनेश्वर ॥ १ ॥ आव्हानं नैव भानामि नैव नानामि पूजनम् । विसम्नं न नानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥२॥. मंत्रहीन क्रियाहीनं द्रव्यहीन तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ ३॥ माता ये पुरा देवा लब्धम गा यथाक्रमम् । ते मयाम्पपिता मक्या सर्षे यान्तु यथास्थितिम् ||४|| Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [३०९ (३) मापा स्तुतिपाठ। 'म तरणतारण भवनिवारण, भविकमन आनंदनों । श्रीनाभिनंदन नगलवंदन, आदिनाथ. निरंजनो ॥॥ तुम भादिनाथ अनानि सेऊं, सेय पद पूना करूं। . कैलासगिरिपर रिषभनिनवर, पदकमल हिरदै धरूं ॥ २ ॥ तुम अंजितनाथ अनीत जीते, अष्टकर्म महाबली । यह विरद मुनकर शरण आयो, कपां कीजे नाथनी ||३|| तुम चंद्रवदन सुं चंद्रकच्छन, चंद्रपुरि परमेश्वरो । महांसेननंदन, जगंतवेदन, चंद्रनाथ निनेश्वरों ॥ ४ ॥ तुम शांति पांच वल्याण पूनों, शुद्ध मनवंचायजू। दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन, विघा नाय पलायन ॥१॥ तुमबाल ब्रह्म विवेकसागर, भव्यकमक विकाशनो। श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो ॥६ भिंन तनी राजुल रॉजरन्या, कामसैन्या वश करो। चारित्र थ चदि भये दुलह, नाय शिरमणी वरी ॥ ७ ॥ कंदर्प दर्प नसर्पलच्छन, कमठ शठ निर्मल कियो। अश्वसेननन्दन जगतबदन, सकलसंध मंगल कियो ॥ ८॥ जिन घरी बालकपणे दीक्षा, कमठान विदार। ..। श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्रक पद, मैं नमो शिधारक ॥९॥ तुम कर्मधाता मोसदाता, दीन जानि दया करो। सिद्धार्थनन्दन जगतवन्दन, महावीर जिनेश्वरी ॥१॥ छत्र तीन सोई सुग्नु मोहे, वीनती अवधारिये । कर जोडि सेवक वीनवे प्रमु, भावागमन निवारिये ॥११॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत संग्रह । अब होट भव भवं स्वाभी मेरे, मैं सदा सेवक रहो । कर जोड़ यो वरदान मांगो, मोक्षफल जावत हों ॥ १२ ॥ जो एकमहिं एक राजे, एकमांहि अनेकनो । इक अनेकको नहीं संख्या, नमो॑ सिद्ध निरंजनो ॥ ॥ चौपाई | ३०६ ] मैं तुम चरणकमलगुणगाय । बहुविध भक्ति करो मन लाय || जनम जनम प्रभु पाऊं तोहि । यह सेवाफल दीने मोहि ॥१॥ कृपा तिहारी ऐसी होय । जामन मरन मिटावो मोय । बारवार मैं विनती करूं । तुम सेये भवसागर तरूं ॥ ११ ॥ नाम लेत सब दुख मिट बाय । तुम दर्शन देख्यो प्रभु आय । तुम हो प्रभु देवनके देव । मैं तो करूं चरण तव सेव ॥१६॥ मैं आये। पूजन के काज | मेरो जन्म सफल भयो आज || पूजा करके नार्ट शीस | सुझ अपराध क्षमहु जगदीश ॥ १७ ॥ दोहा - सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी चान ! मो गरीबकी चीनी, लुन लोज्यो भगवान ॥ १८ ॥ दर्शन करते देवका, यदि मध्य अवसान | स्वर्ग सुख भोगकर, पावै मोक्ष निदान ॥ १९ ॥ जैसी ममतुमविषै ओर घरे नहिं कोय, 3 जो सुनने ज्यांत है, तारनमें नहिं सोय ॥ १० ॥ नाथ निहारे नामतें, अघ छिनमः पलाय | ज्यों दियर परकाशते, अंधकार विनशाय ॥ २१ ॥ बहुत प्रशंसा क्या करूं, मैं प्रभु बहुत मजान पूजविधि जनूं नहीं, शरण राखि भगवान ! इनि भाषास्तुतिपाठ सात | , Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N जनसिद्धांतसंग्रह । .... [३१७ (४) श्रीजिनसहरनामस्तोत्रम् । . .. (भगवजिनसेनाचार्यकृत) .. ... प्रसिद्धाष्टसहनेडलक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नामेष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽमीष्टसिद्धये ॥ १ ॥ श्रीमान्स्वयंभूर्वृषभः शंभवः शंभुरासमूः ।.स्वयंप्रमः प्रभुोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥ २ ॥ विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः। विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनीश्वरः-।। ३॥ विश्वश्वा विमुर्षाता विधेशो विश्वलोचनः । विश्चन्यापी विधिर्वेषाः शाश्वतो विश्वतोमुखः ॥ ४॥ विश्वकर्मा 'जगज्ज्येष्ठो विश्वमूतिजिनेश्वरः । विश्वविश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥ ५ ॥ निनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तचिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरवन्धनः ॥ ९॥ युगादिपुरुषो ब्रह्मा-पञ्चब्रह्ममयः शिवः परः परतरःसूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः॥७॥ स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिनः । मोहारिविनयी नेता धर्मचक्री दयाध्वनः ॥ ८॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चितः । बझविद्ब्रह्मवत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः ॥ ९ ॥ शुद्धो बुद्धः प्रबुदात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः। सिद्धः सिद्धांतावडेयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ॥ १० ॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्तः प्रम.: विष्णुर्भवोद्भवः। प्रभूष्णुरजरोऽजों भ्रानिष्णुश्विरोऽव्ययः ॥११॥ विभावसुरसंभूष्णुः स्वयंभूष्णुः पुरातनः । परमात्मा परंज्योतिस्निनगत्परमेश्वरः ॥ १२॥ . . .' इति श्रीमदादिशतम् ॥ १॥ दिव्यमाषापतिदिव्यः पूतवारपूतशासनः । पूतात्मा परमज्यो. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] जैनसिद्धांतसंग्रह । • तिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥ १ ॥ श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरना विरंजाशुचिः । तीर्थकृत्केवलीशानः पूनाः खातकोऽमलः ॥ १ ॥ अनन्वदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुद्धः प्रजापतिः । मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः॥१॥ निरञ्जनो नगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिनिरामयः। अचल स्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः ॥ ४ ॥ अग्रणीर्मामणीनेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिर्धम्य धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ १ ॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः वृषो वृषपतिभर्ता वृषभाको वृषोद्भवः ॥ ६॥ हिरण्यनाभिभूतात्मा भूतभृद्भूतभावनः । प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तकः ॥७॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोद्भवः । स्वयंप्रभुः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभुः । सर्वादिः सर्वदृक् सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । - सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् ॥ ९ ॥ सुगतिः सुश्रुतः सुश्रुक् सुवाक सुविहुश्रुतः । विश्रुतो विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिधवाः ॥१०॥ सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्यामहेश्वरः ॥ ११ ॥ ; इति दिव्यादिशतम् ॥ २ ॥ स्थविष्ठः स्थविरो ज्येष्ठः पृष्ठः प्रेष्ठो वरिष्ठधीः । स्येष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठः श्रेष्टो निष्ठो गरिष्ठगीः ॥ १ ॥ विश्वमृद्विश्वसृट् विश्वेट् विश्वभुग्विश्वनायकः । विश्वाशीर्विश्वरूपात्मा विश्वनिद्विजितान्तकः ॥२॥ विभवो विभयो वीरो विशोको बिजरो नरनं । विरागो विरतोसको विविक्तो वीतमत्सरः ॥२॥ विनेयजनताबन्धुर्बिलोनाशेषकल्मषः । वियोगो योगविधिद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥४॥ क्षान्तिभाक्पृथिवी मूर्तिः शान्तिभाक्स लिलात्मकः, वायुमूर्तिरसङ्गात्मा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह.। वहिमूर्तिरधर्मधृक् ॥५॥ सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतिर्यज्ञो यज्ञाझममृतं हविः ॥ ॥ व्योममूर्तिमूर्तात्मा निलपो निर्मलोऽचलः । सोममूर्तिः मुसौम्यात्मा सूर्यमूर्तिमहाप्रमः ॥७॥ मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तकः । स्वतन्त्रस्तन्त्रछत्स्वान्तः रुतान्तान्तः कृतान्तस्त् ॥ ८|| रुती कतार्थ: सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः । नित्या मृत्युंजयो मृयुरमृतात्मामृतोद्भवः ॥ ९ ॥ ब्रह्मनिष्ठः परंब्रा ब्रह्मात्मा ब्रह्ममम्मवः । महानवपतिब्रटेट महाब्रह्मपदेश्वरः ॥१०॥ सुप्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभुः। प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तमः ॥ ६॥ इति स्थविष्ठादिशतम् ॥३॥ महाशोकध्वजो शोकः कः स्रष्टा पद्मविष्टरः । पद्मशः पद्मसम्भूतिः पद्मनाभिरंनुत्तरः॥ १ ॥ पद्मयोनिगद्योनिरित्यः स्तुत्यः स्तुनीश्वरः । खवनाही हृषीकेशो नितजेयः । कृतक्रियः ॥ २ ॥ गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्यः पुण्यो गाग्रणी गुगकरो गुणाम्भोघिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥३॥ गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीगुणः । शरण्यः पुण्यवाक्पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥४॥ अगण्यः पुण्यधार्गण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः धर्मागमो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥५॥ पापापेतो विपापात्मा विप्मा पीतकल्मषः। निर्द्वन्द्वो निर्भदः शान्तो निर्मोही निरुपद्रवः ॥६॥ निनिमेषो निराहारो निःक्रियो निरुपप्लवः । निष्कलको निरस्तैना निधूताको निराखकः ॥ ७॥ विशालो विपुलज्योतिरतुलोचिन्त्यवैभवः । सुसंवृत्तः सुगुप्तात्मा.सुभृत्सुनयतत्त्ववित् ॥८॥ एऋविद्यो महाविद्यो मुनिः परिदृढः पतिः। धीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विश्वान्तकः Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L जैनसिद्धांतसंग्रह । [ ३१७ द्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन पर्य्ययोः ॥ २५ ॥ मतिश्रुतयोनिबन्धी द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ॥ २६॥ रूपिण्ववधेः ॥ ७॥ तदनन्तभागेमनः पर्ययस्य ॥ २८ ॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्यः ॥ २९ ॥ एकादीनि भाज्यांनि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ २० ॥ मतिश्रुतावघयोः विपर्ययश्च. ॥। ३-१ ॥ - सदसतोरविशेषाद्यढच्छोपव्वे रुन्मचवत् ॥ १.२॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः ॥ ३२ ॥ ". इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमादयिक, पारिणमिकौ च ॥ १॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ सम्यक्तचारित्रे ॥ ३॥ ज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ 'ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्षयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यच्चचास्त्रिसंयमासेय. माश्च ॥ ५ ॥ गतिकषायलिङ्गमिध्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धले :: श्याश्चतुश्चतुरुभ्ये केके के कषड्मेदाः || ६ || नविभव्याऽभव्यत्वानि च ॥७॥ उपयोगो लक्षणम् ॥८॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्वेदः ॥९॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ समनस्काऽमनस्काः ॥ ११ ॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १.२ ॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥१२॥. द्वीन्द्रियादयस्त्रंसाः ॥ १४ ॥ पंचेन्द्रियाणि ॥ ११ ॥ द्विवि'धानि ॥ १६ ॥ निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७॥ लब्व्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ ' स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ १९ ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥१०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ ११ ॥ वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥ २२ ॥ कृमि पिपीलिकाश्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि । २३ ॥ संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ विग्रहगतौं कर्मयोगः ॥२९॥ अनुश्रेणि गतिः ॥ १६. | अविग्रहा जीवस्य ॥१७ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] जैनसिद्धांत संग्रह ।. `विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः । १८ ॥ एकसमयाऽविमहाः ।। १९ एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ सम्मूर्छनगमपः पादाङनन्म ॥ ११॥ सचितशीत संवृताः सेवरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥१२॥ जरायुजाण्डजपोतांनां गर्मः ॥३३॥ देवनारकाणामुपपादः ॥ १४ ॥ शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥ १५ ॥ औदारिकवैक्रियकांहारक"तेजसकार्मणानि शरीराणि ॥ २६ ॥ परं परं सूक्ष्मम् ॥ १७ ॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैमसात् ॥ ३८ ॥ अनन्तगुणे परे ॥ ३९ ॥ अप्रतीघाते ॥ अनादिसम्बन्धे च ॥११॥ सर्वस्य ॥ ४ ॥ - तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिनां चतुर्भ्यः ॥ ४३ ॥ निरुपमोगमन्त्यम् ॥ ४ ॥ ॥ गर्भ सम्मूर्छननमाद्यम् ॥ ४९ ॥ औपपादिकं किम् ॥ ४१ ॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥ ४७ ॥ तैंमसमपि ॥ ४८ ॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४९ ॥ नारकस-न्मूर्किनो नपुंसकानि ॥५०॥ नं देवाः ॥११॥ शेषाविवेदाः ॥९२॥ औपपादिक चरमोत्तमदेहा संख्ये यवर्पायुषो ऽनपवर्त्यायुषः ॥ ५३ ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ . रत्नशर्करा बालुकापङ्कघूमतमो महातमः प्रभायूँमयो घनाम्बु'याताकाशप्रतिष्ठाः सप्तांऽघोषः ॥ १ ॥ तासुः त्रिंशत्पच विंशतिपंचदशदशत्रिपंचो ने कनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् ॥ २ ॥ "नारका नित्याऽनुमतरलेश्यांपरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३ ॥ - परस्परोदीरितदुःखाः ॥ 8 ॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुखाश्च प्राक चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सा गरोपमासत्वानां परां स्थितिः ॥ ६ ॥ जम्बूद्वीपलवगोशदयः शुमनामानो द्वीपसमुद्राः ॥ ७ ॥ द्विह्निर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षे विणो · " Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। वलयाकृतयः ॥ ८॥ मन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्मो जम्बूद्वीपः ॥९॥ मरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षा क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायताः हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥१॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरनतहेममयाः ॥१२॥ मणिविचित्रपाश्चो उपरि मूले च-तुल्यविस्ताराः ॥१३॥ पद्ममहापद्मतिगिच्छकेसरिमहापुण्डरीक पुण्डरीका दास्तेषामुपरि ॥१॥ प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्मो ह्रदः ॥१५||दशयोजनावगाहः ॥ १६ ॥ तन्मध्ये योननं पुष्करम् ॥१७॥ तद्विगुणाद्वगुणा इदाः पुष्कराणि च ॥ १८ ॥ तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥१९॥ गंगासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धार कान्तासातासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारकोदाःसरितस्तन्मध्यगाः॥१०॥ द्वयोदयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१॥ शेषास्त्वपरगा: ॥२॥ चतुर्दशनदीसहस्त्रपरिवृत्ता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः ॥२॥ भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट्चकोनविंशतिभागा योजनस्य।२४॥ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहांता॥२५ उत्तरा दक्षिणतुल्याः॥२६॥ भरतरावतयोधिहासौषट्समयाभ्यामु त्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२ाताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥१८ एकाहीत्रिपल्यापमास्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरुवकाः ॥२९॥ तथोत्तराः॥३०॥ विदेहेषु संख्येयकालाः॥३१॥ भरतस्य विष्कम्मो. जम्बूद्वीपस्य नवतिशतंभागः ॥ ३१ ॥ द्वितकीखण्डे ॥ १३ ॥ पुष्कराच ॥३४॥ प्रामानुषोचरान्मनुष्याः ।। ३५ ॥ आयाम्ले-. च्छाश्च ॥५६. भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूचरकु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धावसंग्रह। रुभ्यः ॥ ३०॥ स्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्महर्वे ।।८।। तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३९॥ इति तत्त्वार्याधिगमे मोक्षशाने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ . देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ आदितस्त्रिषु पातान्तलेश्याः ॥२॥ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥४॥ इन्द्रप्सामानिकत्रायस्त्रिंशपारिपदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकामियोग्यकिल्विपिकाचैकशः ॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवाव्यन्वरज्योतिष्काः ॥५॥ पूर्वयोन्द्रिाः ॥६॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७॥ शेषाः स्पर्शरूपशव्दमनःपवीचाराः ॥ परेऽपवीचाराः ॥ ९॥ भवनवासिनोऽपुरनागविद्युत्सुपर्णाभिवास्तनितोदधिद्वोपदिकुमाराः ॥१० व्यन्तराः किनकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥११ ज्योतिप्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१॥ तत्कृतः कालविभागः ॥१॥ बहिरवस्थिताः ॥ १९॥ वैमानिकाः ॥ १६ ॥ कल्पोंपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१७॥ उपर्युपरि ।। १८ ॥ सौधर्मशानसा नत्कुमारगहन्द्रब्रमब्रह्मोत्तरलान्तवकापिटशुक्रमहाशुक्रशनारसहस्त्रारेवानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसुवेयकेपु विजयवैजयन्तजयन्तापरामितेषु सर्वार्थसिता च ॥ १९ ॥ स्थितिप्रभावमुखद्युतिलेश्याविशुद्धन्द्रियावविविषयनाऽधिकाः ॥१०॥ गतिशरीरपरिग्रहाऽमिमानतोहीनाः ।। २१ ॥ पीतपद्मशुक्लेदयाद्वित्रिशेषेषु ॥ १२॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥१३ ब्रह्मलोकालयालौकान्तिकाः ॥२७॥ सारस्वतादित्यवयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥ १५॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [३२* विनयादिषु हिचरमाः ॥ २६ ॥ औपंपादिमनुष्येभ्यः शेषास्तियम्योनयः ॥ २७॥ स्थितिरमुरेनागसुपर्णद्वीपशेष.णां सांगरोपम- . त्रिपल्यापमाईहीनमितः ॥२८॥ सौधर्मेशानयोः सांगरोपमे अधिक ॥ १९॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशमिरविवानि तु ॥३१॥ मारणाच्युतादूर्घकन नवमं अवेयवेषु विनंयादिपु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२ ॥ अपरा 'पल्योपममधिषम् ॥ ३३ ॥ परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तराः ॥३॥ नाराणां च द्वितीयाहिंषु ॥ ३५ ॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ३६ ॥ भवन्षु च ॥ १७ ॥ व्यन्तराणां च ।। १८ ॥ परा पल्योपममधिकम् ॥ ३९ ॥ ज्योतिष्काणां च ॥ १०॥ तदष्टभागोरा ॥४१॥ लौकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥४॥ इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥::: अजीवकाया धमाधम्र्माकाशपुद्गलाः ॥ १ ॥ द्रव्याणि ॥२॥ - जीवाश्व ॥ ३ ॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥ रूपिगः पदलाः ॥६॥ आमाकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ निस्कियाणि च ॥४॥ असंख्येयाः प्रदेशाः धर्मधर्मकजीवानाम् ॥ ८ ॥ आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ संख्येयासंख्येयाश्च पदलानाम् ॥१०॥ नाणोः ॥ ११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्मावर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदे. शादिपु भाज्यः पुद्गलाने.म् ॥१४॥ असंख्येयमागादिषु जीवानाम् ॥१५॥ प्रदेशसंहारविहाभ्यां प्रदीपत ॥ १६ ॥ गतिस्थित्यु पग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१७॥ आकाशस्यावगाहः ॥ १८ ॥ शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पद्मनाम् ॥१९॥ सुखदुःखजीवितमर. णोपमहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो नीवानाम् ॥२॥ वर्तनापरिणा इ . Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] N जैनसिद्धांतसंग्रह। उमड़ रहे वार । वनमोर पपीहा कोयल बोलें दादुर ॥ मति मच्छर मिन ५ करें, सर्व फुर, कुंछो थलचर । बहु सिंह स्याल गम घूमें बनके अंदर ।। मुनिरान ध्यानगुन पुरे, तब काटें कम अंकूरे। तन लिपटत कानखजूरे, मधुमच्छि ततइये गरे । चिर्टियोंने बिल तनारे, मापानि खरे हाथ लटकाके | जिन अथिर लखा संसार बसे वन जाके ॥६॥ पाश्विनमें वर्षा गई, समय नहि रही दशहरा पाया। नहीं रही वृष्टि अरु कागदेव कहराया || कामी नर करें किलोल बनाव ढोल, करें मन माया धन्य साधु जिन भातम. ध्यान लगाया । वयाम योगमै भीने, पुनि अष्टकम छय कीने । उपदेश सबनको दीने, भविननको नित्य नवीने ॥ हैं धन्य धन्य मुनिरान, ज्ञानके तान, नमू शिरनाके । जिन मथिर लखा संसार बसे बन जाके ॥णा कातिकमे आया शीत भई विपरीति अधिक शरदाई । संसारी खेलें जुवा कर्म दुखदाई ॥ नग नर नारीका मेल, मिथुन मुख फेल करें मन भाई | शीतल अनु कामी मनको है मुखदाई ॥ नव कामी काम कमा । मुनिराज ध्यान शुभ घ्यावें । सरवर तट ध्यान लगाई, सो मोक्ष भवन सुख पावे ॥ मुनि महिमा अपरम्पार, न पावै पार, कोई नर गाके । निन' अथिर लखा संसार बसे बन जाके ॥ ८॥ मगहनमें टपके शीत यही नगरीति सेन मन भावै । अति शीतल चले समीर देह थरावै ॥ श्रृंगार करे कामिनी रूपरस ठनी साम्हने भावै । उस समय कुमति बश सबका मन ललचावै ।। योगोश्वा ध्यान घरे हैं, सरिताके निकट खरे हैं। जहां मोले मषिक पर हैं, मुनि कर्मका नाश करें हैं। जब पड़े बर्फ घनघोर, करें नहीं शोर नयी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत संग्रह | [ ३३१ I दृढ़ता । जिन अथिर लखा संसार बसे बन जाके ॥ ९ ॥ यह पौष महीना भला, शीतमें घुला कांपती काया । वे धन्य गुरू जिन इसऋतु ध्यान लगाया || घर वारी घरमें छिपे वस्त्रतन लिपें रहैं जड़ियाया । तजि वस्त्र दिगम्बर हो मुनि कर्म खिपाया ॥ जलके तट जग सुखदाई, महिमा सागर मुनिगई । घरघीर खड़े हैं भाई, निज आतमसे लबलाई || है यह संसार असार वे तारणहार सकल वसुधाके । जिन अथिर कखा संसार बसे बन जाके ॥ १० ॥ ऋतु आई माघ वसंत नारि अरु कंत युगल सुख पाते । वे पहिने वस्त्र बसन्त फिरें मदमाते || जव चढ़े मैनकी सैन पड़े नहीं चैन कुमति उपजाते हैं बड़े धीर मन बहुषा वे डिग जाते || तिस समय जु हैं मुनि ज्ञानी, जिन काया लखी पयानी । भवि डूबत बोधे प्रानो, जिन ये बसंत जियजानी ॥ चेतनसे खेलें होरी ज्ञानरंगघोरी, जोग जल काके । जिन अथिर कखा संसार बसे बन जाके ॥ ११ ॥ जब लगा महीना फाग, करें अनुराग सभी नरनारी । ले फिरें कुमकुम फेंट हाथ विचकारी ॥ जब श्री सुनिवर गुणखान, अचल घरध्यान करें तप भारी । कर शीलसुधारस कर्मन ऊपर डारी ॥ कीरति कुमकुमे बनावें, कर्मोसे फांग रचावें । जो बारहमासा गाँवें, सो अजर अमर पद पावें ॥. यह भाखै नीयालाल, धरम गुणमाल, योग दरशाके । जिन मथिर कखा संसार बसे बन नाके ॥ १२ ॥ Page #306 --------------------------------------------------------------------------  Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [३३३ सिडाः भुपमा दिने दिने ॥११॥ सुपमतं तकस्य वृषभत्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थ भव्यसत्वसुखावहम् ।१३. सुर. भात जिनंद्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम् । मज्ञानतिमिरान्धानां नित्यमस्वमितो रविः ॥१॥ सुपमा निनेद्रस्य वीरः कमललोचनः येन कर्माटवी दग्या शुक्यानोप्रवहिना ।।१५॥ मुपमा सुनक्षत्र मुल्याणं सुमंगलम् । कोश्यहितकर्तृणां जिनानामेन शासनम् ।। २६ ॥ इति सुषमातस्तोत्रं समाप्तम् ॥ (C)दृष्टाष्टकस्तोखन्। दृष्टं मिनेन्द्रमवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभवसम्मनभरि । हेतुः। दुग्धाब्धिफेनघवलोज्वलकटकोटीनधनप्रकारानिमिरान.. मानम् ॥ १ ॥ दृष्टं जिनेंद्रभवनं भुक्नकलक्ष्मीधामविहितमहामुनिसेव्यमानम् । विद्यापरामरवधूननमुक्तदिव्यपुग्नलिपारशोभितभूमिभागम् ॥२॥ दृष्टं जिनेन्द्रमवनं भवनादिवासविख्यातनागणिकागणगीयमानम् । नानामणिपचयमासुरश्मिनालव्यालीढनिर्मल विशालगवाक्षनालम् ॥ ३ ॥ दृष्टं मिनेन्द्रमवनं सुरसिद्धयक्षगन्धर्ष किरकराषितवेणुवीणा। सङ्गीतमिश्रितनमस्लवधीरनादरापूरिताम्बरतकोरुदिगन्तरालम् ||४॥ दृष्टं जिनेन्द्रगवनं विकसहिनोलमालाकु. लालिललितालाविभ्रमाणम् ॥ माधुर्यवाघलयनृत्यविज्ञासिनीनां लीलाचलहलयनूपुरनादरम्यम् ॥१॥ दृष्टं मिनेन्द्रमवन मणिरत्नहेमसारोज्ज्वलः कलशचामरदर्पण द्यः। सन्मङ्गोः सततमष्टशवप्रभेदैवि. भ्रनितं विमलमोतिकदामशोमम् ॥६॥ दृष्टं मिनेन्द्रभवनं वरदेव Page #308 --------------------------------------------------------------------------  Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र तव दर्शनात ॥२॥ माह सुरुती भूतो निर्धूतशेषकरमषः भुवनत्रयपूज्योइं मिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥१०॥ अद्याष्टकं पठेद्यस्तु गुणानन्दितमानसः । तस्य सर्वार्थससिद्धिर्मिनेन्द्र तव दर्शनात ॥ १॥ इति अद्याष्टक स्तोत्र संपूर्णम् ।। (१०) सूतक निर्णय। । सुतकमें देव शास्त्र गुरुका पूनन प्रक्षालादि तथा मंदिरजीके वस्त्राभूषणादिके स्पर्शनकी मना है तथा पात्रशन भी वनित है। सुतक पूर्ण होने के बाद प्रथम दिन पूजन पक्षाल तथा पात्रदान करके पवित्र होवे । सूनका विवरण इस प्रकार है। १ जन्मका सुतक दश दिनका, तथा २. स्त्रीका गर्म जितने महका पतन हुवा हो, उतने दिनका सुतक मानना चाहिये । विशेष यह है कि यदि तीन माहसे धमका हो तो तीन दिनका सुतक मानना चाहिये। ३. प्रसुती स्त्रीको ४५ दिनका सूतक होता है, उसके परिवारवालोंको नहीं, इसके पश्चात वह स्नान दर्शन करके पवित्र हो । कही २ चालीस दिनका भी माना जाता है । ४. प्रसूतिस्थान एक माह तक अशुद्ध है समस्त घर नहीं। ५. रजस्वला स्त्री पांचवें दिन शुद्ध होती है । ६. व्यभिचारिणी स्त्रीके सश ही सुतक रहता है, कभी भी शुद्ध नहीं होती ।। ७. मृत्युका सूतक १२ दिनका माना जाता है । तीन पीड़ी तक १२ दिन, चौथी पीड़ी ६ दिन, छठी पीड़ीमें दिन, सातवी पीड़ीमें दिन, आठवों पीड़ में एक दिन रात, नवी पीड़ीमें दो पहर, और दशौं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] जैनसिद्धांतसंग्रह। पीड़ीमें स्नान मात्रसे शुद्धता कही है। ८. जन्म तथा मृत्युका सूतक कुटुम्बी मनुष्योंको मो न्यारे रहते हैं । दिनका होता हैं। १.. माठ वर्ष तक के बालकको मृत्युका ३ दिनका और तीन दिनके बालकका सूतक १ दिनका भानो । ११. अपने कुमका कोई गृह त्यागी हो, उसका सन्यासमरण अथवा किसी कुटुंबीका संग्राममें मरण हो नाय, तो १ दिनका सुतक होता है। यदि अपने कुलका देशांतर, मरण करे और १२ दिन पूरे होने के पहले मालम हो तो शेष दिनोंका सुतक मानना चाहिये । यदि दिन पूरे हो गये होवें, तो नग्न मात्र सुतक नानो। १९. घड़ी, भैंस, गौ आदि पशु तथा दासी अपने गृहमें मने अथवा मांगनमें मने तो १ दिनका सूनक होता है। गृह बाहर भने तो सूतक नहीं होता । १३. दासी दास तथा पुत्रीके अपने घरमै प्रसूति होय या मरे, नो । दिनका सुतक होता है। यदि गृह बाहर हो तो सूतक नहीं । यहाँपर मृत्युकी मुख्यतासे ३ दिनका कहा है। प्रसूताका १ ही दिनका नानो। ११. अपनेको मग्निमें मलाकर (सती हो कर ) मरे तितका छह माहका तथा और २ इत्याभोंका यथायोग्य पाप मानना । ११. जने पीछे भैसका दूध १५ दिन तक, गायका दुध १० दिन तक और वक रीका दूध आठ दिन तक अशुद्ध है। पश्चात खानेयोग्य है। प्रगट रहे कि कहीं देशभेदसे सूतकविधानमें भी भेद होता है इसलिये देशपद्धति तथा शाखपद्धतिका मिलानकर पालन करना चाहिये । (श्रावकधर्मसंग्रहसे उडत)। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mewwwwwwwww - - जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३३७ [११] विनती संग्रह। गुरुविनती। वन्दौं दिगम्बरगुरुचरन, जग तरन तारन जान। भे भरम भारी. रोगको, हैं राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी, नहि करें कर्म नीर । ते साधु मेरे उर वसों, मेरी हरौ पातक पार ॥ १॥ यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये भोग विषपकवानसे इस भांति सोच विचार ॥ तप विरचि श्रीमुनि वन वसे, सब त्याग, परिग्रहभीर । ते साधु मेरे उरु. वसी मेरी हरौ पातक पीर ॥ १ ॥ जे काच कंचन सम गिनें, गरि मित्र.एकस्वरूप निंदा: बढ़ाई सारिखी; बनखंड शहद अनुश । सुख दुःख जीवन मरनमें, नहिं खुशी नहिं . दिलगीरी ते साधु-मेरे उरु वसौ, मेरी हगै पतक पीर ॥ ३ ॥ जे वह परवत वन बसें, गिरि गुहा महल मनोग । सिल सेन समता सहचरी, शशिकिरण दीपकजोग । मृग मित्र भोजन तप मई. विज्ञान निरमल नीर । ते साधु मेरे मन वसौ, मेरी हरी पातक : वीर ॥॥ सूख सरोवर जल भरे, सूखें तरंगनि तोय । वाट वटोही ना चलें, जहं घाम गरमी होय । तिस काल मुनिवर तप तपें,. गिरिशिखर ठाड़े धीर । ते साधु मेर मन वसौ, मरी हरौ पातक पीर ॥५॥ धनघोर गरले धनघटा, जल प. पावसकाल.। चहुंआर चमकै वीजुरी, अति चलै शीतल व्याक (र) | तरुहेट तिष्ठं तब जती, एकांत अचल शरीर । ते साधु मेरे मन वसौ, मेरी हरौ पातक पीर ॥६॥ जब शतम.स तुमारनौं, दाहै सकल वनराय। २२ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | जब मै पानी पंखरां थरहरे सबकी काय । तव नगन निवर्से चोटें अथवा नदी तीर । ते साधु मेरे मन वर्षे मेरी हरों पाठक पीर ॥७॥ कर जोर भूघर' चीनवें कब मिलें वे मुनिराम । यह आस मनकी कब फलै, अरु सरे सगरे कान । ससार विषम विदेशमें जे विनाकारण वीर ने साधु मेरे मन चसो, मेरी इरा } पातक पीर ॥ ८ ॥ ( १ ) त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुनानिधि नामी जी । सुनि अंरजाभी मेरी वीनती जी ॥ १ ॥ मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया अति भाराजी । दुख मेटनहारा, तुम जादोपती जी ॥ - ॥ श्रम्यौ संसारा जी, चिर विपति भण्डारा जी कहिं सारा न सार चहूंगति डोलिया जी ॥ ३ ॥ दुख मेरु समाना ओ. सुख सरसा दाना भी, अब जान घर ज्ञान, तराजू तोलिया जी ॥ ४ ॥ थावर तन पाया बी, त्रसनाम घराया नी ॥ कृनि कुन्यु कहाया, मरि-मंत्ररा भया जी ॥ - ॥ पशुकाया सारी जी, नारा विधि घारी जी - जलचारी · थलचारी. उड़न पखेरुवा जी ॥६॥ नरकनके माही जो, दुखधोर 'महां है जी । पुनि और जहां है, सरिता खारकी जी ॥७॥ जहां असुर संघारें जी, निन चैर विचारें जी | मिठ बांधे अरु मा, निर्दयी नारकी जी ॥ ८ ॥ मानुप अवतारै भी, रह्यो गर्ममंझार जी - रहि रोयौ जहां जनमत, बारे मैं घनों जी ॥ ९॥ भेवन तन रोगी बी, भयो विरहवियोगी भी । फिर भोगी बहु वृद्धापनकी वेदना जी ॥ • ॥ सुरपदवी पाईजी, रम्भा उर बाई जी । तहां देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥१-१॥ माला मुरझानी भी, नत्र आरति Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [३३९ ठानी जी । थिति पूरन जानी, मरन विसूरियौ जी ॥ ११॥ यौ दुख भवकरांनी, भुगतो बहुतेरा जी। प्रभु! मेरा कुछ कहत, पार नं पाईये जी | मिथ्यांमदमाताजी, चाही नित साता नी। सुखदातां जगत्राता, तुम जाने नहीं जी ॥ १४ ॥ प्रभु भागनि पायें जी, गुन श्रवण सुहाये जी, तट आयौ सेवककी विपदा हरी जी ॥१५॥ भववास वसेरा जी, कब होय निवेराजी । सुख पावे जन बेरा, स्वामी ! सो करी जी ॥ ६॥ तुम शरनसहाई जी, तुम सज्जन भोई जी । तुम भाई तुम बाप, दया- मुझ लीनिये भी ॥ १७॥ 'भूधर कर मेरे जी, गड़ो प्रमुओर नी। निनदास "निहारौं, निरमय कीजिये जी ॥१८॥ . . . ढाल-परमादी। ... अहो! जगत गुरु देव सुनिये अरज हमारी | तुम हो दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥१॥ इस भव वनमें वादि, कार अनादि गमायौ। भ्रमत चहूंगतिमाहि, सुख नहिं दुख बहु पायो गरि॥ कर्म महारिपु नोर, एक न कान करें जी । मनमाने दुख 'देहि काइसौं न डरे नी ॥॥ कबहूं इतर निगोद, कबहू नरक दिखावें । सुंर नरं पशुगतिमाहिं, वहुविधि नाच नचा प्रभु! · इनके परसंग, भव भवमाहि बुरोनी ने दुख देखे देव !, तुमसौं नाहि दुरे नी । एक जन्मकी बात, कहि न सको मुनि स्वामी। तुम अनन्त पर्माय, मानत अंतरजामी ॥६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरें। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥9॥ ज्ञान महानिधि लंटि, रंक निकल करिडारचो। हनही तुम Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसग्रह। मुझनाहि, हे जिन! अंतर पारयो पाप पुन्यकी दोय, पायनि रीडारी । उनकाराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख मारी ॥९॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। विनकारन जगवंद्य !, बहुविधि र लियो बी ॥१०॥ अत्र आयो तुम पास, मुन कर सुजस तिहारो। नीति निपुन जगराय ! कोने न्याव हमारों ॥ ११ ॥ दुष्टन देहु निकास, साधुनकौं राति लीन । विनवै 'भूरदास, हे प्रभु ढील न कीने ॥१२॥ दोहा (राग-भरथरी)। ते गुरू मेरे उरु बसौ, ने भव-गलधि-मिहान : माप तिर पर तारहीं, ऐसे श्री ऋपिरान ॥ ते गुरु गा रोगउरग-विल वधु गिप्यो, भोग भुजंग समान । कदलीतरु संसार है, त्यागी सम यह जान ॥ ते गुरुः ॥ ३॥ रतनत्रय निधि र धरै, अरु निग्रंथ निकाल : मारयो काम स्वीसको, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु० ॥ ४ ॥ पंत्र महावन आदर, पांचौ मुमति-समेत । तीन गुपति पा सदा, भारअमर पदहेत ना ते गु० ॥२॥ धर्म घौं दशलक्षमी, भर्वि भावना सारासह परसिह वीस ह, चारित-: रतन भडार । ते गु० ॥६॥ जेठ तपे रवि आकरो, सूखै सरवर नौरशैल-शिखर मुनि तप तपे, दाझै नगन शरीर ॥ ते गु०. 15. पाक्स रैन डरावनी, वरसै जलपर धार । तस्वल.निवसें. साहसी, बाबै झझावार ॥ ते गु• ॥ ८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाह सब वनराय । ताल तरंगानिक तटै, ढाढ़े ध्यान लगाय - ॥ गु० ॥९॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमझार । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३४१. लागे सहन सरूपमें, तनौं ममत निवार ॥ ते गु० ॥१०॥ पूरख भोंग न चिंत३, आगम वांछा नाहिं । चहुंगतिके दुखसौं डरें, सुरत लगी शिवमाहि ॥ ते गुः ॥ ११ ॥ रंगमहलमें पौड़ते, कोमल सेन विछाय । ते. पच्छिम निशि भूमिमें, सोवें सवरि काय तें गु० ॥१॥ गज चढ़ि चलते गरबसौं, सेना सनि चतुरंग। निरखि निरखि पग वे धरै, पॉल करुणा अंग ॥ ते गु० ॥१॥ वे गुरु चरण जहां घर, जगमें तीरथ नेह । सो रन मम मस्तक चढ़ो, 'भूधर' मांगे तेह ।। ते गुः ॥१४॥ . प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरन आयौ शरनजी । यौ विरद आप निहार स्वामी. मैंट जामन मरनजी ॥ तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकारनी । या बुद्धिसेती निज न जाण्या, श्रम गिण्या हितकारजी - ॥ १॥ भवविकटवनमें करम वैरी, ज्ञानधन मेरो हरयो.। तब इष्ट भूल्यो प्रष्ट होय, अनिष्टगति धरतो फिरयो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस यौ ही, धन जनम मेरो भयो । अब भाग मेरो उक्ष्य आयो दरश प्रभुको लख लयो ।॥ २॥ छबि वीतरागी नगनमुद्रा दृष्टि नासापै धेरै। वसु प्रातिहार्य अनन्तगुणयुत, कोटिरविछविको हरें ।। मिट गयौ तिमिर मिथ्यात मेरौ, उदय रवि आतम भयौ । मो उर हरख ऐसो भयो, मनु रंक चिंतामाणि लयौ ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वानऊं तव चरणनी। सर्वोतकृष्ट त्रिलोकपति मिन, सुनो तारन तरनजी। जांचूं नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथजी! 'बुध ' जांचहूं तुव भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथनी ॥४॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। Www.wwe श्रीपति मिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुम्हारा बाना है। मत मेरी वार अवार करौ, मोहि देहु विमल कल्याना है ।टेका ॥१॥ त्रैकालिक वस्तु प्रतच्छ लखो, तुमसों कछु बात न छाना है। मेरे उर आरत जो वर्ते, निह सब तुम जाना है | अवलोकि विथा मत मौन गहाँ, नहीं मेरा कही ठिकाणा है। हो राजिवलोचन, सोचविमोचन, मैं तुमसों हित मना है ॥ श्री. ॥२॥ सब ग्रन्थनिमें निर्भयनने, निरवार वही गणधार कही। जिननायक नी सब लायक है, सुखदायक छायकज्ञानमही। यह बात हमारे कान परी, तब मान तुम्हारी सरन गही। क्यों मेरी धार विलंब करी, जिन नाथ कहो यह बात सही ॥ श्री. ॥३॥ काहको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्ग विमाना है। काहूको नाग नरेशपती, काहूको ऋद्धिनिधाना है । अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर नमाना है । इन्साफ करो मत देर करो, सुखद भरो भगवाना है श्री. ॥४॥ खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों मान पुकारा है । तुम हो, समरस्थ, न न्याव करो, तब वंदेका क्या चारा है ।। खलपालक पालक बालकका, नृप नीति यही नग सारा है। तुम नीतिनिपुण त्रैलोकपती, तुम ही लग दौर हमारा है। श्री०। ५॥ नबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमहीको माना है । तुमरे ही शासनका स्वामी!, हमको शरना सरधाना है। जिनको तुमरी शरनागत-है, तिनसों नमरान डरना है । यह सुमस तुम्हारे साचेका, जस गावत वेद पुराना है ॥ श्री. ॥६॥ जिसने तुमसे Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। [ ३४३ दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुःख हाना है। अध छोटा मोटा नाश तुरत. सुख दिया तिन्हें मनमाना है। पाबको शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है। भोजन था जिसके पास नहीं सो किया, कुबेर समाना है। श्री ७॥ चिंतामणि पारस कल्पतरू सुखदायक ये परवाना है। तुत्र दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना है । तुव भक्तनको सुरहंद्रपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है। क्या बात कहों विस्तार बड़ो वे पाव मुक्ति ठिकाना है ॥ श्री॥ ८ ॥ गति चार चौरासी लाखविर्षे चिन्मूरति मेरा भटका है । हो दीन बंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है । जब जोग मिला शिवसाधनका, तब विधन कर्मने हटका है ।। तुम विघन हमारा दूर करो, प्रभु मोकों आश 'तुमारा है ॥ श्री. ॥९॥ गज ग्राहप्रसित उद्धार लिया. ज्यों भनन तस्कर तारा है । ज्यों सागर गोपदरूप किया मैनाका संकट टारा है ॥ ज्यों सुलीते सिंहासन औ वेडीको काट विडारा हैं । त्यो मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोको आश तुमारा है ॥ श्री. ॥ १० ॥ ज्यों फाटत टेकत पांय खुला, औ सांप सुमन करि डारा है । ज्यों खड्न कुसुमका माल किया, बालकका जहर उतारा है । ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लछभी सुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दुर करो प्रभु, मोको आश तुमारा है ॥११॥ नद्दपि तुमको रागादि नहीं. यह सत्य सर्वथा जाना है। चिनमूरत आप अनंत गुनी, नित शुद्ध दंशा शिवथाना है। तद्दपि भक्तनकी भीति हरो, सुख देत तिन्हें जू सुहाना है । यह शक्ति अचिंत Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] जैनसिद्धांतसंग्रह। तुम्हारीका. क्या पाच पार सयाना है । श्री॥१२॥ दुखखण्डन श्रीमुखमण्डनका, तुमरा प्रन परम प्रमाना है। वरदान दया नसकीरतिका तिहुंलोक धुजा फहराना है || कमलाघरी कम लाकरनी ! करिये कमला अमलाना है । अव मेरी विथा अविलोक रमाति, रंच न वार लगाना है ।। श्री० ॥१॥ हो दीनानाथ अनाथस्तूि. जिन दीन अनाथ पुकारी है। उदयागत कर्म विपाक हलाहल, मोह विधा विस्तारी है । ज्यों आप और भवि जीवनकी तत्काल विथा निरवारी है । त्यों" वृन्दावन " यह अर्ज करे, प्रभु आन हमारी बारी है ॥ श्री. ॥१४॥ शेर। . हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधाननी। यह मेरी विथा क्यों न हो बार क्या लगी ।। टेक ।। मालिक हो दो नहानके जिनरान आपही। ऐवो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । वेनानमें गुनाह मुझसे बन गया सही। करके चोरको कटार मारिये नहीं ।। हो दीनबंधु ॥ दुखद दिलका आपसे जिसने कही । सही। मुश्किल कहर वहरसे लई है मुना गही | जस वेद औ पुरानमें प्रमान है यही । आनंदकन्द श्रीजिनंद देव है तुही ।। हो दीनबंधु ॥ हाथीप चढ़ी जाती थी सुलोचना सी ! गंगामें ग्राहने गही गरानकी गती । उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती ! भय रारके उवार लिया हे कृपापती ॥ हो दीनबंधु ॥ पावक प्रचंड कुन्डमें उमंड जब रहा । सीतासे शपथ लेनेको तब रामने कहा ॥ तुम ध्यानधार जानकी पग धारती तहां । तत्काल Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [ ३४५ ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ॥ हो दी. ॥ जब चीर द्रोपदीका दुशासनने था गहा । सब ही सभाके लोग कहते थे महा हहा । उस वक्त भीर पीरमें तुमने करी सहा । परदा ढका सतीका सुजस जक्तमें रहा ॥ हो दी। ॥ श्रीपालको सांगरविष जब सेठ.गिराया। उनकी रमासे रमनेको आया वो बेहया। उस वतके संकटमें सती तुमको जो ध्याया। दुखदर फद मेटके आनंद बढ़ाया ! हो दीनबंधु ॥ हरिपेनकी माताको जहां सौत सताया। रथ नैनका तेरा चले पछि यों बताया। उस वक्तके अनसनमें सती तुमको जो ध्याया । चक्रेश हो सुत उसकेने रथ जैन चलाया । हो० ॥ सम्यक्तशुद्ध शीलवती चंदना सती। निसके नगीच लगती थी नाहिर रती रती ॥ बेडीमें परी थी तुम्हें जब ध्यावती हेती। तब वीर धीरने हरी दुखद्वंदकी गती। जब अंजना सतीको हुआ गर्भ उजारा । तब सासने कलंक लगा घरसे निकारा ॥ वन वर्गके उपसर्गमें तब तुमको चितारा । प्रमुभक्त व्यक. जानिके भय देव निवारा हो ॥ सोमासें कहा जो तूं सती शील विशाला . तो कुंमतें निकाल मला नाग जुकाला || उस वक्त तुम्हें ध्यायके सती हाथ जुडाला ।। तत्काल ही वह नाग हुमा फूलकी माला ।हो ॥ ॥ जब रानरोग था हुआ श्रीपालरानको । मैना सती तब आपको पूजा इलामको ।। तत्काल ही सुंदर किया श्रीपालराजको। वह राजभोग भोग गया मुक्तराजको || हो० ॥ ११॥ जब सेठ सुदर्शनको मृषा दोष लगाया ! रानीके कहे भूपने सूलीप चढ़ाया । उस वक्त तुम्हें सेठने निज ध्यानमें ध्याया।सुलीसे उतार उको सिंहासनपै बिठाया Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R १४६ 1. जैनसिद्धांतसंग्रह। ॥ हो० ॥१२॥ नब सेठ सुषन्नाजीको वापीमें गिराया । ऊपरसे दुष्ट था उसे वह मारने आया । उस वक्त तुम्हें सेठने दिल अपनेमें ध्याया । तत्काल ही जनालसे तब उसको बचाया हो. ॥१३॥ एक सेठके घरमें किया दारिद्रने डेरा । मोननका ठिकाना भी न था सांझ सवेरा । उस वक्त तुम्हें सेठने जब ध्यानमें घेरा। घर उसकेमें तब कर दिया लक्ष्मीका बसेरा हो.॥ १॥ बलि वादमें मुनिराजसों नवं पार न पाया । तब रातको तलवार ले शठ मारने आया । मुनिराजने निमध्यानमें मन लीन लगाया। उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहां देव बचाया । हो ॥१५॥ जब रामने हनुमंतको गढ़ लक पठायो । सीताकी खबर लेनेको सह सैन्य सिधाया । मग बीच दो मुनिराजकी लख मागमें काया । झट वार मुसलधारसे उपसर्ग बुझाया | हो. ॥ ६॥ जिननाथहीको माथ निवाता था उदारा । रेमें पड़ा था वह कुलिशकरण बिचारा । उस वक्त तुम्हें प्रेमसे संकटमें उचारा । रघुवीरने सब पौर तहां तुरत निवारा ॥ हो ॥१७. रणपाल कुँवरके पड़ी थी पांवमें बेरी । उस वक तुम्हें ध्यानमें ध्याया था सोरी ॥ तत्काल ही सुकुमारकी सब झड़ पड़ी बैरी । तुम रायकुंवरकी सभी दुखदन्द निवरी ॥ हो. ॥ १८ ॥ नब सेठके नन्दनको डसा नाग जु कारा । उस वक्त तुम्हें पारमें घरधीर पुकारा || ततकाल ही उस बालका विष मूर उतारा । वह भाग उठा सोके मानों सेन सकारा ॥ हो ॥१९॥ मुनि मानतुङ्गको दई मब भूपने पीरा ॥ तालेमें किया बन्द भरी लोह जैनीरा ।। मुनि ईशने आदीशकी स्तुति का है गंभीरा । चक्रेश्वरी तब आनके झट् दुरकी पीरा ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। हो ॥ २०॥ शिवकोटने हट था किया सामंतभद्रसों । शिव. पिंडकी बन्दन करौ शंको अभद्रसों। उस वक्त स्वयम्भू रचा गुरु भाव भद्रसों । जिनचन्दकी प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों ।। हो. ॥ ११॥ सूवेने तुम्हें आनके फल आम चढ़ाया । मेंढक ले चला फूल भरा भक्तिका भाया । तुम दोनोंको अमिराम • स्वर्गधाम बसाया । हम आपसे दातारको लख आज ही पाया ।। हो० ॥ ३२ ॥ कपि स्वान सिंह नकुल अना बैल विचारे । तिर्यंच मिन्हें रंच न था बोध चितारे ॥ इत्यादिको सुरधाम दे शिव धाममें धारे । हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे ।। हो. ॥ २३ ॥ तुम ही अनन्त जन्तुका भय भीर निवारा । वेदों पुराणमें गुरू गणधरने उचारा | हम आपकी शरणागतीमें आके पुकारा । तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छिताकारा ॥ हो. ।। २१ । प्रभु भक्त व्यक्त जक्त भक्त मुक्तके दानी । आनन्दकन्द वृन्दको हो मुक्तके दानी ॥ मोह दीन जान दीनबन्धु पातक मानी | संसार विषम खार तार अन्तरजामी । हो। २५ ।। करुणानिधानवानको अब क्यों न निहारो। दानी अनन्तदानके दाता हो समारो ।। वृषचन्दनन्द वृन्दका उपसर्ग निवारो। संसार विषम खारसे प्रभु पार उतारौ । हो दीनबन्धु श्रीपति करुणानिधाननी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरौ वार क्या लगी।.६॥ दोहा। जासु धर्म परमावसौं. संकट कटत अनंत । मंगलमूरति देवसो, जवता मरहन्त ॥१॥ हे करुणानिधि सुजनको कष्टविर्षे लखि । लेत । तनि विलंब दुख नष्ट किय, अब विलंब किंह हैत ॥२॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] जनासद्धांतसंग्रह। षट्पः । तब विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रनताचल | तब विलंब नहिं कियो. मेघवाहन लंकाथल || तब विलंब नहिं कियो शेठ सुत दारिद भने । तब विलंब नहिं कियो, नाग जुन सुरपद रंजे ॥ इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय रमन । प्रभु मोर दुःखनाशनवि, अब विलंबकारन कवन ॥३॥ तब विलंब नहिं कियो, सिया पावक नल कीन्हौं । तब विलंब नहि कियो, चंदना शृंखल छीन्हौं । तब विलंब नहिं कियो, चीर दुपदीको बाढ्यौ । तब विलंब नहिं कियो, सुलोचन गंगा काट्यौ । इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूर शिवतियरवन । प्रमु मोर दुःख नाशनविर्षे अब विलंब कारन कवन || ४ || तब विलंब नहि कियो सांप किय कुसुम सु माला । तब विलंब नहिं कियो, उर्मिला सुरथ निकाला। तब विलंब नहिं कियो, शीलबल फाटक खुल्ले । तब विलंब नहिं कियो, अंजना वन मन फुल्ले ॥ चूरि भूरि दुख मक्तके. सुख पूरे शिवतियरवन । प्रभु भोर दुःखनाशनविष, अव विलंब कारन कवन ॥ ९ ॥ तब विलंब नहिं कियों, शेठ सिंहासन दीन्हौं । तब विलंब नाह कियो, सिंधु श्रीपाल कदीन्हौं। तब विल्ब नहिं कियो, प्रतिज्ञा वज्रर्ण पल । तब विलंब नहिं कियो, सुधन्ना काढ़ि वापि थल ॥ इम चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतियरवन । प्रमु मोर दुःखनाशनविर्षे, अब विलंब कारन कवन ॥ ६॥ तंब विलंब नहिं कियो, कंस भय त्रिजुग उचारे । तब विलंब नहिं कियो, कृष्णसुत शिला उतारे। तब विलंब नहिं कियो खड्ग मुनिरान बचायो । तब विलंब नहिं कियो, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [३४९ नौरमातंग उचायो । इमि० ॥ टेक |॥ ७ ॥ तब विलंब नईि कियो, शेठ सुत निरविष कीन्हौं । तब विलंब. नहिं कियो, मानतुंगबंध हरीन्हौं। तब विलंब नहिं फियो, वादिमुनिकोढ़ मिटायो। तब विलंब नहिं कियो कुमुद निन पास मिटायौ ॥ इमिः ॥ टेक । ८॥ तब विलंब नहि. कियो, अंजनाचोर उबारे । तब विलंब नहिं कियो, पुररवा मील सुधारे ।। तब विलंब नहि कियो, गृद्धपक्षी सुंदर तन । तब विलंब नहिं कियो, भेक दिय सुर अद्भुत तन ॥ इमिः ॥ टेक ॥९॥ इहविधि दुखनिवारन, सारसुख प्रापति कीन्हीं अपनो दास निहारे भक्तवत्सल गुन चीन्हौं। अब विलंब किहिं हेत, कृपा कर इहां लगाई। कहा सुनो अरदास नाहि, त्रिभुवनके राई ॥. जनद सुमनवचतन अब .. गही नाथ तव पद शरन । हो दयाल- ममाहालपे, कर मंगल मंगलकरन 11301 - जिनवचनस्तुति। हो करुणासागर देव तुमी निर्दोष तुमारा वाचा है। तुमरे वांचा हे स्वामी, मेरा मन सांचा राचा है ॥ टेक ॥१॥ बुधि केवल अप्रतिछेदवि, सब लोकालोक समाना है। मनु ज्ञेय गरास विकास अटक, झलाझल जोत जगाना है। सर्वज्ञ तुमी संब व्यापक हो निरदोष दशा अमलाना है । यह लच्छन श्री अरहंत विना, नहिं और कहीं ठहराना है । हो करु.॥१॥ धर्मादिक पंच वसै नहँ लौं, वह . लोकाकाश कहा है । विस आगें केवल एक अनंत, अलोकाकाश रहा है | अवकाश Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। प्रकाशविय गति भो, थिति धर्म अधर्म सुमाव है । परिवर्तन लच्छन काल घरै, गुणद्रव्य मिनागम गाँव है । हो कहा । इक बीव अरु धर्मधर्म, दरव ये मध्य असंख्यप्रदेशी है । आकाश अनंतप्रदेशी है, ब्रह्ममंड अखंड अलेशी है ॥ पुग्गलकी एक प्रमाणू सो यद्यपि वह एकप्रदेशी है । मिलनेकी सकति ग्वमावीसौं होता बहु खंध मुलेशी है ।। हो करु ॥४॥ कालाणु मिन्न असंख भणू मिलनेकी शान घारा है। तिस कायाकी गिनतीमें, नहिं काल दरवको धारा है हैं स्वयंसिद्ध पदन्य यही इनहींका सर्व पसारा है। निर्वाष नथारथ लच्छन इनका, जिनशासनमें सारा है | हो कर ॥॥ सब जीव अनंत प्रमान कहे, गुन लच्छन ज्ञायकवंता है । तिसते जड़ पुगल मूरतकी, हैं वर्गणरास अनन्ता है ॥ तिसत सब भावियकाल समयकी, रास अनन्त मनता है। यह भेद सुमेदविज्ञान विना क्या औरन को दरसंता है । हो।।६। इक पुग्गलकी अविमाग अणू कितने नममें थिति कीना नी । तितनेमहँ पुग्गल जीव अनंत बसें धर्मादि अछीना बी ॥ अवगाहन शक्ति विचित्र यही, नमकी वरनी परवीनानी। इसही विधिसों सब द्रव्यनिमें गुन शक्ति बसै अनकोना भी हो. ॥७॥ इक कालं अणूपरते दुतिगेपर नाति जवै गत मंदी है । इक पुग्गलकी अविभाग मणू, सो समय कही निरहंदी है । इसत नहि सूच्छमकाल कोई, निरमंश समय यह छंदी है । याते सब कालप्रमान बंधा, वरनी श्रुति नैति.निनंदी हैं । हो। जब पुग्गलकी अवि. भाग अणू, अतिशीघ्र उताल चलानी हक समयमाहि सो Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww जैनसिद्धांतसंग्रह । [.३२१ चौदह राजू, जात चली परमानी है । परस तह सर्वपदारथको, क्रमसौं यह भेद विधाना है || नहि अंश समयका होत तहाँ, यह गतिकी शकि बखानी है | हो. ॥१॥ गुन द्रव्यानक आधार रहें, गुन गुन आर न रान ह । न किसी गुणसों गुण और मिलें, यह और विलच्छन तान ह । ध्रुव व उनपाद सुभाव लिये, तिरकाल अवाधित छान है । पट हानिरु वृद्धि सदीक करै, जिनवन सुनै भ्रम भान है ।। हो० ॥१०॥ निम सागरबीच कलोल उठी सो सागरमांहि समानो है। परनै करि सर्व पदार्थ में तिमि हानिरु वृद्धि उठानी है ।। जब शुद्ध दरबार दृष्टि धरै तब • भेदविका नशानी है । नयन्यासनतें बहुं भेद संतो परमान लिये परमांनी है | हो। ॥ ११॥ नितने निजवेनके मारग हैं, तितने नयभेद विमाखा है। एकांतकी पच्छ, मिथ्यात वही, अनेकांत गहें सुखसाखा है || परमागम है सवंग पदारथ, नय इक्रदेशी भाषा है । यह नय परमान गिनागम साधित, सिद्ध करे अभिलाषा है.॥ हो..॥१२॥ चिन्मरतके परदेशपती, गुन हंसु अनंत अनंतानी । न.मिल गुन आपुसमें कबई सत्ता निन भिन्न धरता भी ॥ सूचा चिनमूरतकी सबमें सब काल सदा वरतंता · नी। यह.वस्तु सुभाव जथारथको, न्यि सम्यकवंत लखंता जी। हो ॥१॥ सविरोध-विरोधविवर्जित धर्म, घर सब वस्तु विरान है। बह भाव. तहांसु अमाव वसे इन आदि अनंत सु छान है। निरपेक्षित सो न सधै कबई, सापेक्षा सिद्ध समान है। यह .. अनेकांतसों कथन मथन करी, स्यादवादः धुनि गाने है ।। हो. ॥१४॥.जिस काल कथंचित अस्ति कही, तिस काल कथंचित Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] जैनसिद्धावसंग्रह। नहीं है । उमयातमरूप कथंचित सो, निरवाच कथंचित ता है ।। पुनि अस्ति अवाच्य कथंचित त्यों, वह नास्ति अवाच्य कथा ही है । उभयातमरूप अकथ्य कथंचित, एक ही. काल सुमाही है | हो ॥ १५ ॥ यह सात अभंग सुमाव भयो, 'सव यस्तु अभंग सुसाधा है। परवादिविनय करिवे कहँ 'श्रीगुरु. स्यादहिवाद अराधा है ।। सर्वज्ञप्रवच्छ परोच्छ यही, इतना इंत मेद भवाधा है। 'वृन्दावन ' सेवत स्यादहिवाद घटै जिससे भववाधा है। हो करुणासागर देव तुमी, निर्दोष तुमारा वाचा है। तुमरे वाचामें हे स्वामी, मेरा मन सांचा राचा है। हो ॥१॥ - (१२) समाधिशतक माया। (लाला गुमानीलालजी कृत) दाहा-श्री आदीश्वर चरणयुग, प्रथम नमों पित ल्याय। प्रगट कियो युग आदि वृष, भनत सुमंगल याय ॥ १॥ सन्मति प्रमुसन्मति करण, बन्दत विन बिलात । पुनः पंच परमेष्टिको, नमो त्रिनग विख्यात ॥२॥ गौतम गुरु फिर शारदा, स्याहाद निस चिन्ह । मंगल कारण तासको, नमों कुमति हो भिन्न ॥२॥ मंगलहित नमि देव श्री, अरिहंत गुरु निग्रंथ । दयारूप वृष पोत भव, वारिधि शिवपुर पंथ ॥ ४ ॥ इस विधि मंगल करनसे, रहत उदगछ दूर । विघ्न कोटि तत्क्षण टर, वम नाशत ज्यों सूर ॥५॥ श्री सर्वज्ञ सहाय मम, सुवुद्धि प्रकाशो आनि । तो कवित्त दोहानमें, रचों समाधि चखानि ॥ ६ ॥ मरण समाधि Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । करे सु.जो, सो नर जग गुण खान । इन्द्र चक्रगति हो पुनः भनुक्रम में निर्वाण ॥ ७ ॥ देख गुमानीरामका, वचन रूप सुप्रबन्ध | लघुमति ता संकोचिके, रचे सु दोहा छंद ॥ ८ ॥ पिंगल व्याकरणादि कुछ, खो नहीं मति बाल । कंठ राखनेके लिये, रच बालवत ख्याल |॥ ९ ॥ रघु धी तथा प्रमादसे, शद मर्थ लख हीन | बुधमन सोधि उचारियो, हंसो न लख मतिक्षीण ॥१. मंद कषायोंसे जु हों, शांति रूप परणाम । तब समाधिविषि आदरे, मरण समाधिसु नाम ॥ ११ ॥ सो मैं अब दृष्टान्तयुत, कहो त्रियोग सम्हार। भवि अहिनिशि पढियो सु यह, कर परणाम उदार ॥ १२ ॥ छप्पय छंद । सुता ज्यों गृह सिंहताहि इक पुरुष विचक्षण | जानत किय ललकार सिंह उठ देख ततक्षण। - हतन वृन्द रिपु तोहि निकट भायो यह तेरे ।। सावधान हो चे. करो पुरुषारथनेरे । नबलों रिपु कुछ दूर हैं, कर सम्हाल मीतो तिन्हें ॥ यह महत्पुरुषकी रीति ई,ढोल किये मावन कनें ॥१२॥ वचन सुनत यों सिंह गुफासे बाहर आयो । गर्ने धन निमि सुनो शत्रु हिय थिर न रहायो । जीवनको असमर्थ लान हस्ती सब कांपे। निर्भय हरि पौरुष सम्हाल नहीं सके नो नापे । त्यो समयज्ञानी नर सुधी मरणसमय विधिसेन कख । विहि जीवन निमपौरुष जे सकाउपाधिक भावनख ॥ १४ ॥ मावतकाल तटस्थ देख तत्र साहस ठाने ॥ कर्म संयोग संदेह इती थिति पूरण जाने । ताहीसे मम योग्य कार्य अब ढोल न कीजे । जो चूको यह दाब घोर संसार पड़ीजे॥ अतिकठिन काकतालीयज्यों मनुनमन्म शुभवश लहा। .:..सो वृथा गमाया धर्मविन दौड़दौड़ चहुंगतिवहा ॥१५॥ र कषाय २३ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] जैनसिद्धांतसंग्रह। मति मन्द क्षमादिक दशवृष ध्यावे । अन्तर भातम मांहि शुद्ध उपयोग समावे॥ को राग रुप मोह शिथि मति हो सो ज्ञानी । तिराव चिप ध्यान घर बहु गुण खानी । तब रन रम स्वाद आवे घनो मनुल मिन पांचों दाब| इस निश्चषष्टि विनोकता है सुश्ख जो मध्य भव ॥१६॥ मानंद रत नित रहे ज्ञान मय ज्योति उमारी । पुरुषाकार भमूर्ति चेतना बहु गुण धारी ॥ ऐसा आतमदेव भाप मानन बुधि प.गो । पर द्रव्योंस किसी भांति ना होवे रागी ॥ निम वीतराग ज्ञाता मुथिर अविनाशी परमड़ लखा। वपु पूग्न गलन अपास्वता हम नख तिन निमरस चख समष्टी नर सहा माणका भय ना माने | भायु अंत नब लखे स्वहित तब याविधि ठाने ॥ मायु अल्प इस देह तनी अब रही दिखावे। अब करना मम चेत सावधानी यह दावे | निम रणभेरीके सुनतही सुमट जाय रिपुपर झुके । त्यों कालवलोके भीतने पाहप ठाने भव चुके ॥१८॥ सब जिय सोच विचार लखो पुल परनायी। देखत उत्पति भई देखने पर खिर जायो । मैं सरूप इस लखो विनाशिप पहिले याको । सो अव अवसर पाय विले नासी यह ताको || मम ज्ञायक टारूप निम ताहि विधि भादरों। अब किसविधि देह नशे जू यह मैं तमाशगोरी कों ॥ १९ ॥ मम सरूप द्रग ज्ञान सुशख वीरन अनन्त मय । नर नारक पर्याय मेइ बहु भये मृषानम् ॥ जो पदार्थ लोक सुते तिन ही के कती। में चित अमल अड़ोल नहीं तिन कर्ता हत्तो ॥ वे आपहिं विटुडे मिळे पूरे गळे मचित सा । तो देह रखाया क्यों रहे मूल मर्म न पड़ों कदा ॥ २० ॥ संवैया २३॥ काल अनादि भरो दुःख मैं Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनासद्धांतसंग्रह। पर द्रव्योंसे एकहि नानो । कालवली दृढगढ़ असौ कहि जन्म नरामरण फिर ठानो ॥ खेद कहो वश मोहतने सु विचार सने अब मूल दिखानो। मैं निन ज्ञायक भावनको कर्ता. मरु मुक्त सदा थिर मानो ॥२१॥ मो सत्संगसे देहपुने नग मो निकसे.तनको सब जारें। मानत देह रु जीव एकत्र नशे यह तो शठ रोय पुकारें। हाय पिता त्रिय पुत्र कलत्र सुमात हितू कहां जाय पधारें। और भनेक विलाप करें मति खेद कलेश वियोग पसारें ॥२२॥ एम विचार करें सु विचक्षण मक्षण देख चको जग जाई । कौन पिता त्रिय पुत्र हितू सो कलत्र यहां किन कौनकी माई । को गृह माल कहा धन भूषण नात चली किनकी ठकुराई । ये सब वस्तु विनस्वर ज्यों स्वप्न में राज्य करे नर माई ॥२३॥ देखत इष्ट लगे यह वस्तु विचारत ही कुछ नाहिं दिखावे । सो इम जान ममत्व सुभान त्रिलोक पुदल जो दृढ़ भावे ॥ देह स्नेह तमो तिस ही विधि रश्चक खेद न मो चित्त पावे || जा उर हो यह देह प्रतक्ष विगार सुधार न मोह लखावे ॥१॥ देखहु मोहतनी महिमा पर द्रव्य प्रत्यक्ष विनाशिक ढेरी। है दुख मूल उभय मवमें जगनीव सवे इसमाहिं फंसेरी ॥ मूरख प्रीतिकरे मतिही अपना तन नान रखावन हेरी । मैं हकज्ञायक भाव धेरै सो लखों इस काल शरीरको वेरी ॥२५॥ दोहा । माखी वैठे खांड पर, मग्नि देख भगनाय। काल देहको त्यों भले, मो लख थिर न रहाव ॥२६॥ मरण योग्य पहिले मुभा, नीया मृतक न होय । मरण दिखावत नाहि मम, मर्म गया सब खोय ॥२७॥ सवैया २३॥ चेतनके मरणादिक व्याधि लखी न त्रिलोक त्रिकाल मंझारे। तो अब सोच करो किस कान. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] जैनसिद्धांतसंग्रह । अनंत हगादिक भावको धारे ॥ ता अवलोक्त दुःख नशे ममता पियूषमु परितसारे। ज्ञायक ज्ञेयनको यह नीव पै ज्ञेयसे मिन्न अनाकुल न्यारे ॥ १८ ॥ व्यापक चेतन ठहरीठौर यथा इकलौन ढलीरस पागी । त्यों मैं ज्ञानका पिंडहूं पे व्यवहारसे देहप्रमाणसो मागी । निश्चय लोक प्रमाणाधार अनंत मुखामृतसे अनुरागी। मूसमही गल मोमगयो नम युक्त तदाकति देखहु सागी ॥ २९॥ दोहा । मैं अकलंक अर्वक थिर, मिलत न काहू मांहि । नशो देह भावे रहो, हमें न किहि विधि चाहि ॥३०॥ छप्पय छन्द । कहै एक नर सोच देह तुम्हरी तो नाही । पर याके संग ध्यान शुद्ध उपयोग व्हाही । एता वपु उपकार कहो सुन थिर चित भाई ॥ रत्न द्वीप नर माय एक झोपड़ी बनाई। बहुरत्न एपठावरे अग्निलगी बुझावे तव सुदर। जब बुझत न माने झोपडी रत्न लेय भागे मुनर ॥११॥ दोहा। त्यो मम संयम गुण सहित,रहो देह ना वैर। नशत उभय तो भानिये, संयम खो घेर ॥ ३२ ॥ संयम रहता देह बहु, क्षेत्र विदेहा नाय । तप कर चक्री इंद्र हो, अनुक्रम शिव थक पाय ॥२॥ मोह गयो माकुळ गई, ध्यान दिगाने कौन । इन्द्र चक्र धन्द्रसुर, विष्णु महेश्वर जौन ॥ ३४ ॥ सवैया-देह स्नेह करी किस कारण यह वपु ज्यों चपला चमकाई। नाहिं उपाय रखवनको बहु, औषधि मंत्र तंत्र बनाई। भो थिविपुण होई तवे सुर इन्द्र नरन्द्र हरा मृत्व थाई। दाव बनो हितसाधनको बहुलोग चिगावहि मैं न चिगाई ॥ ३५ ॥ (कुटुम्बादि ममत्व त्याग) उप्रय छन्द । अव कुटुम्बके लोग सुनो हित सीख . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [३५७ हमारी। एताही सम्बन्ध देह तुम्हरो अबधारी । तुम राखत ना रहै सोच अपना कर भाई । यह गति सनकी होई चेत देखो पितु भाई । मो करुणा भावत तुम तनी खेद पार क्यों दुःखमनो। वृषधार योग नित सुधिर हो ममत्वनसो अवतनो ॥६६॥ सवैयाजो दृढ़ व्याधि प्रसे तन भन्त सुवेदना दुर्जय भावत तेरी। कारण तास तने परणाम चिगे लख साहससे बुद्धि फेरी। पूरव संचित कर्म उदय फल आय कगो गद ने वपुरी। भिन्न सदा मम रूप निराकुल है शरणा निज मातमफेरी ॥३७॥ छप्पय छन्द । शरण पंच परमेष्टि बाह्य निन वृष जिनवाणी । रत्नत्रय दशधर्म शरण सुनहो चिद ज्ञानी । और शरण कोई नाहिं नेम हमने यह धारो। इस विधिसे उपयोग थाम कर एम विचारो । मरिहन्त देवगुरुद्रव्य गुण, पर्यायन निर्णय करै । तब निन सुरूपमें आयकर साहससे हदथिति धेरै ॥३८॥ सवैया १३ । वपु मानपिता तुम एम सुनो ममदेह स्नेह वृथा तुम धारो। को तुम को मैं हाटतनी गति प्रात पयानकरें जन सारो। रीति भरें घटाहट तनी तुम अन्तरके डगखोल विचारो । मापतनो हद सोच करो तुम मातम द्रव्य अनाकुल न्यारो ॥२९॥ छप्पय छन्द । यह सव मक्षी काल कालसे बचे न कोई। देव इन्द्र थिति पूर्णदेख सुख रहे जु सोई। यम किंकर ले नाय आपनी कथा कौन है । तन धारे सो मरे वृथा कर खेद जो न है। यह आजकाल मुवा मनुन सुन प्रति जिनवृष आदरो यह निरोपाय नगरीति है जिनवृषमन साहस घरो ॥ (स्त्री ममत्व त्याग ।) सवैया २३ । हे त्रिय देहतनी सुनसीख स्नेह तनो वपुसे Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। भव प्यारी। देहरुको सम्बंध इतो अब पूर्ण हुऔ नहीं खेद पसारी। कार्यसरे नहीं या उनसे तुम राखहु नाहि रहै तन नारी। पुद्गलकी पर्याय त्रिया नर सोच लखो हग खोक निहारी ॥४॥ छप्पय छंद । भोग बुरे भव रोग बढ़ावत वैरीनीके । होवे विरस विपाक समय लगें सेवत नीके ॥ एकेंद्री वश होई विपति अतिसे , दुख पायो । कुंभर झलमलि सलम हिरण इन प्राण गमायो ॥ पंच करन वश होई नो जुगति घोर दुःखपावहि । इन त्याग त्रिया संतोष मन, जो मम नार कहावही ॥ ४२ ॥ भोग किये चिकाल धने त्रियकार्य सरोन कछू मुख पायो । इष्ट वियोग भनिष्ठ संयोग निरन्तर माकुलताप तपायो । दुर्लभ जन्म मुबीत गयो अब कालके गालहि में वपु मायो । सो त्रिय राखन कौन समर्थ वृथा कर खेद सो जन्म नशायो ॥४३॥ उप्पय छंद । जो प्यारी मम नारि सीख हित चित्त धरीको । शीलरत्न हद राख तत्व श्रद्धान सुकीजो ॥ धर्म विना भव भ्रमे काल बहु हम तुम सवही। गति चारों दुःखरूप घरी वृष गहो न कही। भव मम मुख वांछे नार तु, वृष दृढ़ाव तज भासतें । तुम भावनको फलभोग ही, शीघ माहु मो पास ॥४॥ दोहा । नारि बुलाय सम्बोषि इम सीख दई हितसान | अब निज पुत्र बुलाइयो, ममत्व निवारण कान ॥ १५॥ पुत्रादि ममत्व त्याग । छप्पय छंद । पुत्र विचक्षण मुनो भायु पुरण मब म्हारी । .: तुम ममत्व बुद्धि तनो खेद दुखको . करतारी। श्री निनवर कर . . धर्म भलीविधि पालन कीजो। पूजा नप तप दान शीलसम्यक्त्व Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत संग्रह | [ ३५१ गहीनो । फिर लोक निंद्य कारन तनो, साधर्मिनसे हित करो । तुमयुग भव सुख हो है सु सुख, सीख हमारी उर घरो ॥ ४६ ॥ सवैया २३ | देह अगवन वस्तु जगत्रयकी या संगसे मैली । कर्म गढ़ों घंन अस्थि जड़ी चर्म मढ़ी मल मूत्र की थैली ! नव मक द्वार सर्वे वसु जाम कुबाप घिनावनकी वपु गेली । पोषन हो दुःखदोषरे सुत सोखत याहि मिले शिव सेली ॥४७॥ दोहा । जो तुम राखें देह यह, रहे तो राखे घोर । मैं बरजो ना तोहि झुठ, करो सोच निन वीर ||१८|| सुन अनुक्रमसे गति सबनि, यहीं होयगी मीत। जिन वृष नवका बैठके, भव जल तर तन भीति ॥ ४७ ॥ दया बुद्धिसे सीख मैं देई तोहि कख पीर । होनहार तुम होइनो, रुचे सो कीजो धीर ॥ ५० ॥ यों कह सब परिवार त्रिय, सुत मित्रादिक भूर । मरण बिगाड़न लख तिन्हें किये पाससे दूर ॥ ५१ ॥ जो भ्राता सुत आदि गृहभार चलावन योग | सोंप ताहि हित सीख दे, ॥ १२ ॥ और मनुष्योंसे कछू, बतलानेको बतलाय कुछ, सल्प न रखे कोई ॥ ५६ ॥ दया दान मरु पुण्यको, जो कुछ मनमें होई । सो अपने कर से करे, करे विलंब न कोई ॥ ५४ ॥ साधर्मी पंडित निकट राखे इम बतलाय मो परणाम लखो चिगे, तुम दृढ़ कीजो माय ||१५|| छप्पय छंद । अब समदृष्टी पुरुष काळ निन निकट सुजाने । तत्र सम्हाल पुरुष थे सल्य तन साहस ठाने । शक्ति सार घर नेम एम मर्यादा कीजे । कर परिग्रह परिणाम रूप निज अनुभव कीजे । यह संशप मन होई जो, पूरण आयु न हो कदा | तो निज शक्ति प्रमाण वजे जगतका रोग होई । ते बुलाय Page #334 --------------------------------------------------------------------------  Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN V जैनसिद्धांतसंग्रह। [ ३६१ यह जीव भ्रम भवयोग चलाचलसे उपमेंगे । दुःख लहों चिरकाल धनोरचि जो बुधिवन्त तिन्हें सु तमंगे ! पुण्य रु पाप दुहू तनके निज मातमकी अनुभूति सजेगे। भावत कर्मनको वरजें तब सस भाव सुधी तु भनेंगे । ॥६॥ कर्म झड़े निनकालहि पायन कार्य सरे तिनसे जिय केरो । जो तपसे विधि हानि करें कर निरासे शिवमाहि बसेरो । जो पद्व्य मई यह लोक अनादिको है न करो किहि केरो। एक निया भ्रम तो चिरको दुःख भोगत नाहि तजे भव फेरो ॥६॥ अंतिम ग्रीवक हद्द लहो पद सम्यकज्ञान नहीं कहुं पायो । मातमबोध कहो न कभी अति दुर्लभ जो नगमें मुनि गायो । मोहसे भाव जुदे लखके दृगज्ञान व्रतादिक भाव बतायो। धर्म वही कहिए परमारथ या विधि द्वादश भावना मायो ॥६५॥ दारुण वेदना आयुके अंतमें देहरुरूप अनित्य विचारो। दुःख रु सुक्ख तो कर्मनकी गति देह बधो विधिके संग सारो । निश्चयसे ममरूप हगादिक देह रु कर्मनसे नित न्यारो। तो मुझे दुःख कहा वपुके संग पुरव कर्म विपाक चितारो ॥६॥ देहनशी बहुवार को मन इसी विधि अन्त मुकष्ट लहायो । पैन लखो निज आतमरूप नहीं पहुं जन्म समाधिहि पायो । या भवमें सब योग बनो निन कार्य सुधारनको मुनि गायो। कर्म भरी हरि मोक्षत्रिया वर पुग्ण सुश्ख लहो सु सवायो ॥६॥ काल अनादि में जिय एकहि पंच परावर्तन कर फेरी । द्रव्य रु क्षेत्र सुकाक तथा भवभाव कथा तिनकी बहुतेरी | वार अनंत किये तहां पूरण अन्त लहो भवका न कदेरी । को वरने दुःखकी जु कथा गुण राज थके बुधि अल्पजू मेरी ॥६॥ नित्य निगोद मुभौन मिया Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] जैनसिद्धांतसंग्रह। तज जो कहुं राशि व्यवहारमें मायो । भाग्य उदय प्रसकाय धरी विनय रू खेद व्हायो । वा पंचेन्द्रिय होई पशु समलान हतो निवचा हत खायो । मूल तृषा हिमनाप त अतिभार बहो हद बन्धन पायो ॥ १९ ॥ देह वनी अति संघट भावनसे तब सुभ्रतनी गति पायो । मृमितहा दुखरूर इसी मनुकोटिन विच्छु. नने डम खायो । देह वहां रुमिरोगन पूरित कंटक सेननसेतु घिसायो । घातकरे दल सेंमलके निन र मनो अमुगन मिड़ायो ॥ ७० ॥ मेरु प्रमाण गले वहां लोह हिमा तप याविधिको मुनि गायो। नान मखें सब लोक तनो न मिटे गद एक कणा न नहायो। सागर नीर पिये न बुझे तृषा जल बूंद न दृष्टि लखायो । को वरणे थिति सागरकी कहुं भाग्य उदय नरकी गति मायो । बास कियो नव मास मधोनुख मात जने दुःखसे जु पनेरो । बालपने गददन्त पलादिक ज्ञान विना न मने बचनेरो। यौवन भामिन संग रचे जु षाय जली गृह भार बड़ेरो। पुत्र उछाह सु हर्ष बढ़ी मु वियोग माल ताप तपेरो ॥ ७२ ॥ द्रव्य उपाभन र सहे अब यों करनो यह तो हम कीनो । संतत जोग न तो दुःख मोग कुपुत्र कुनार तने दुःख भीनो। पीड़ित रोग दरिद्र फंसे अति माकुलसे कर बंध नवीनो । भारति ठान भली सिल मान सो मूद कमी सन्संग न कीनो ॥७३॥ वृद्ध भयो तृष्णाजु वहो मुख कार बहै उन हालत सारो । वस्त्र सम्हाल नहीं तनकी वृषकी हु कथा तहां कौन उचारो। काल मचानक ठ दवे तब खाय विना वृष यों तन प्यारो । चेतन कूच कियो तनसे मुटुम्बके इन्धनसे वपू भरो॥ निरा कीन मकाम कमी नहि स्वर्ग तनी गति मुख Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जनसिद्धांतसंग्रह। AAAAAAANI सुमानो । हो विषया रस मत्त तहां पति भातुर भोग न चाह दहानो । देख विभव पर झूर डसो जम माल लखी चयते विललानो भारतिसे मर कर्म ठगो मिय फेर भवार्णवमें भरमानो ॥७॥ यों जु भ्रमो चिरकाल निया बिन सम्यक सुक्ख समान न पायो । जन्म जरा मरणादिक रोग कलेश नो कहुं अंत न भायो। माप स्वरूप विसार रचे पर दुःख चितारत फाटत कायो । तो अब यो दुःख,नाहि छू लख सम्यककी दृढ़ चेतनरायो ॥७६॥ दोहा ।। इम चिंतन कर वेदना, सर्व निवारे सुर । फिर निर्भय नरसिंहवत कहा करै हितपूर ॥७॥ छप्पयछंद । शकि वचनकी रहे जैनश्रुत मुखसे गावे । या बिन बचन न कई नेम धर ममत नशावे ॥ निकट गायु कख पहर चार हे इक दिनकेरी। चउ विषि तन माहार परिग्रह है विधिटेरी पुन शक्ति देख तन जीव बहु जुदी जुदी शक्तिः धरें । इम नेम नाव जिय त्यागहित, न साधनमें मत परे ॥७८॥ अंत सल्लेखना मांड़ आराधन चउ विधि ध्यावे । क्षण २ करे सम्हाल भाव कहूं डिगन न पावे । कर हद तत्व प्रतीति धार सम्यक निरखेदे । वेदन तीक्ष्ण निपट ताहि मन्तर नहीं वेदे ।। नव बचन बंद होता लखे, तब सुबचनसे यों कहव । तुम जिनवानीः पढ़ियो जु बहु, मसत काल यह देह अब ॥७९॥ दोहा । परमेष्टी पांचीनको, रूप सु उर में धार । नमस्कार हित युत करे, फिर फिर कर शिरधार ॥... ॥ जनधर्भ जिन विव भरु, निन वाणी मिनधाम । शुद्ध मावसे देव नव, तिनको करे प्रणाम ॥ ८१ ॥ कन्यारत्यम जिन भवन, सिद्ध क्षेत्र भवतार । तितको बंदो भावसे, युगल पान शिरधार ॥ ८२ ॥ उत्तम क्षमा समस्तसे, कर हित. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] जैनसिद्धांतसंग्रह। मित बतलाय । पाप क्षमा करवायके, वैर न राखे भाय ॥ ३ ॥ मौन लहै तब धीर सो, अन्तरके हग खोक । तजे राग रुष मोह सब, कर परणाम मडोल ॥ ८४॥ जपली शिथिल न होई वन, इंद्रिय वल मन दौर | तबलौ अनुभव कीनिये, प्रभु मातम गुण और ॥ ८५ ॥ शिथिल पड़ी जब जानिये, इंद्रिय तन मन द्वार | तव नवकार उचारिये, महामंत्र जग सार ॥८६॥ सवैया ॥२३॥ ज्ञानविना नर नारि पशु है योग मिले बड़ भाग सम्हारे । प्राण तजे नवकार उचारत तो गति नीच तनी नहिं पारे। अंजनचोर करी मृगरान अजामुत भादि जपे नवकारे । स्वर्ग तनो सुख वेग लयो शुभ वीनसे वृक्ष यथा शुभलारे ॥८७॥ दोहा ॥ मरण समय औषधि निपुण, दुःख नाशक मुखमूल | बार वार मंत्राहि अपे, उजे जगति दुःख शुल॥८८॥ मैटे वांछा सकल पुन, परेन बन्ध निदान । रत्नछोड़ कांच न है, त्यों समाधि फल भान ॥ ८९ ॥ सवैया २३ । नीव प्रदेश खिंच उनसे दुःखसे नहीं भ'कुल ताप उपेंगे। जीति परीपह हो सुखरूप निरंतर सो नवकार जपेंगे। भासन को शुचि होइ निया शुम ध्यान घर वह कर्म छिपेगे । कंठ लगे कफ ान नवे शुम भूलसे वे दश प्राण चपेंगे ॥ ९ ॥ दोहा । या विधि अधिक सम्हालसे, तजे देह सुख भौन । शुमगति सन्मुख होह कर, जीप करें गति गौन ॥ ११ ॥ छप्पयछंद । नो समाधि मादरे तासु वांक्षा मन चावे । कर उदार परमाण ताहि निशिदिन ही ध्यावे ॥ कब आवे वह घड़ी समाधि सु मरण करोंगो । अंत सल्लेखण माड़ कर्मरिपुसे जु कहोंगो ॥ यह चाह रहे निशिदिन नवे, कुगति बन्ध नाही Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३६५ करे । सम्यक्त्ववान नग पूज्य हो, निश्चयसे शिवत्रिय रे ॥९ पंचमकाल करालमें न संयम जो गाई । पर, समाधि आदरे तास महिमा अधिकाई | ताफल पुर गति कह इन्द्र चक्रो नर राई । हो सब जग भोग विदेहां जन्म लहाई । सुखभोगधार तपकर्महर, शिव सुन्दरि परणे मुजन । मुख एक थकी वरणों मुकिम, धन्य समाधि महिमा सुमन ॥ ९ ॥ दोहा । देह अशुचि शुचिको यहां कुछ न विचार करेह । पढ़े पाठ मंत्रहि जपे, अशुचि सदा यह देह ॥१४॥ श्री कास्यप क्रम यमलको, नम विक्रम आन | द्वादायग दोषा सुधर, मूर्द्धन क्षनद विहान ॥ ९५ ॥ नरक कला भ्रत तास रुच, रस्मिन उदय रहंत । शतक समाधि सु विस्तरो। तव लग जय जयवन्तः ॥.९६ ॥ सवैया २३ 4. मंगळसे-बहु ... विघ्न-नयें यह पाठ:सुपूरण मंगल, क्रीने | है निमित्त वड वीर-दई. शिख श्रावक प्रेर उदासिय भीने । राखन कंठ सुहेत रचे सब जीव पढ़े सुसमाधिहि चीन्हे | तास प्रमाण श्लोकनका युगसे जु पचास कहै जु नवीने ॥ ९७ ॥ नाम समाधि शतक यथा इकसे इक छन्द ऋवित्त सु कीने । कर्ता मूल जिनेश गणी क्रमसे सो राम गुमानीकीने । ता अनुसार सो प्राण पुरामह छंद रचे लघु धी बदलीने । लक्ष्मणदास सो भ्रात बड़े तिनने यह सोधि समापति कीने ॥९८॥ दोहा । इस नव युग पर युग धरै, शुभ सम्वत्सर जान भाद्रव धवक सु तीन गुरु पुरण किया। विधान ॥ ९९ ॥ याने छद रचे इते, दोहा पैंतालीस | पुन छप्पय इकवीस हैं, कवित रचे पैतीस ॥ १.० ॥ संख्या सव श्लोक मिल, युगशत और पचास । मल्प बुद्धि वरणो सु यह, बुधमन सोधो मासु ॥१०१॥ . ॥ इति समाधिशतक छन्दबद्ध सम्पूर्णम् ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www ३६६ जैनसिद्धांतसंग्रह। पांचवां खंड। (१) एकीमावस्तोत्रम्। (श्रीवादिराजप्रणीतम्) एकीमा गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो घोरं दुःख भवभवगतो दुनिवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि निनवरे भक्तिरुन्मुक्तये चेज्जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥ १ ॥ ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वन्तिविध्वंसहेतुं, त्वामेवाहुनिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः । चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्तस्मिनहः कथमिव तमो वस्तुनो वस्तुमीष्टे ॥ २ ॥ मानन्दानुन.. 'पितवदनं गद्गद चामिजल्सन्यश्चायेत त्वयि हड़मनाः स्वोत्रमन्त्रभवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिर देहवल्मीकमध्यानिष्कास्यन्ते विविधविषमव्याधयः कावेयाः ॥२॥ प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यापृथ्वीचक्र कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । 'ध्यानद्वार मम रुचिकर स्वान्तगेहं प्रविष्टस्तति त्रि निन वपुरिद यत्सुवर्णी करोषि ॥ ४ ॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगवनिर्मित्तेन बंधुस्त्वय्येवासौ सकलविषया शक्तिमत्वनीका । भक्तिस्फीतां चिरमधि बसन्मामिशं चित्तशय्यां मय्युत्सन्नं कथमिव ततः क्लेशयुथं सहेयाः ... ...५ ॥ जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ भ्रमित्वा प्राप्तवेयं तव नयकथा स्मारपीयूषधापी । तस्या मध्ये हिमकरहिमव्यूइशीते 'नितान्तं निमग्नं मां न नहति कथं दुःखदावोपतांपाः ॥ ६॥ पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकी हेमामासो भवति सुरमिः Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [ ३६७ श्रीनिवासश्च पन्नः । सर्वाङ्गेण स्टशति भगवस्त्वय्यशेषं मनो में श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन्नमामभ्युपैति ॥ ७ ॥ पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपाया पिबन्तं कर्मारण्यात्पुरुषपतमानंदधाम प्रविष्टम् । त्वां दुर्वारस्मरमदारं त्वत्मसादैकभूमि क्रूराकाराः कथमिव रुनाकण्टका निलुंठति ॥ ८॥ पाषाणात्मा तदितरममः केवळ रत्नमूर्ति मानस्तम्मो भवति च परस्ताहशो रत्नवर्गः । दृष्टप्राप्तो हरति स कथं मानरोग नराणां प्रत्यासत्तियदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ॥९॥ हृधः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्तिशलोपवाही सद्यः पुंसां निरव. धिरुनाधूलिंबंध धुनोति। ध्यानाहूतो हृदयकमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट. स्तस्याशश्यः क इह भुवने देवलोकोपकारः ॥१०॥ नानासि त्वं मम भवभवे यच्च याच दुःख नातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवनिपिनटसं सर्वशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या यत् कर्तव्यं तदिह विषये देव एवं प्रमाणम् ॥१॥ पाप तव नुतिपदै नींवकेनोपदिष्टः पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽप सौख्यम् । क: संदेहो यदुपळमते वासवश्रीपभुत्वं जल्पजाप्यमणिभिरमस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥ १२ ॥ शुद्ध ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि ताप. नीचा भक्तिों चेदनवषिमुखा वञ्चिका कुञ्चिशेयम् । शक्योद्धार्ट भवति हि कथं मुक्तिकामस्म पुंसो मुक्तिद्वारं परिदृढ़महामोहमुदाकवाटम् ॥ १३॥ प्रच्छन्नः खल्वयमयैरन्धकारः समन्तात् पस्था मुक्तः स्थपुटितपदः लेशगरंगाधैः । तत्करतेन प्रति मुखतो देव तत्वावभासी यद्यप्रेऽने न भवति भवद्भारतीरत्नदोपः ॥ १४ ॥ आत्मज्योतिनिधिरनवषिर्दष्टुरानन्दहेतुः कर्मक्षोणीपटकपिहितो याऽनवाप्यः परेषाम् । हस्ते कुर्वन्त्यनति चिरसस्त भवन Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] जैनसिद्धांतसंग्रह । क्तिमानः स्तोत्रैर्बन्धप्रकृतिपुरुषोदामधात्री खनित्रैः ॥ १९६ प्रत्युत्पन्नानय हिमगिरेशयता चामृतान्धेर्या देव त्वत्पदकमलयोः सङ्गता भक्तिगङ्गा । चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लु क्षालिताः कल्माषं यद्भवति किमियं देव संदेहभूमिः || १३|| प्रादुर्मुन स्थिरपदसुख त्वामनुध्यायतो मे त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विदहा | मिथ्यैत्रेयं तदपि उनुने तृप्तिमभ्रेषरूप दोष त्मानोऽप्यमिमदफा स्वत्प्रसादाद्भवन्ति ॥ १७ ॥ मिथ्यावादं मलमपनुदः सप्तमं गीतर गैर्वागम्मो धिर्भुवनमखिलं देव पयति यस्ते । तस्यावृति सपदि विदुष, ज्वेत सेवा चलेन व्यातन्वन्तः तुचिरममृतासेवया तृप्नुवन्ति ॥ १८ ॥ अहार्येभ्यः स्टहयति परं यः स्वभावादयः शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां तत् किं भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्ररुदस्त्रैः ॥ १९ ॥ इन्द्रः सेवां तब सुकुरुतां कि तया काघनं ते तस्यैवेयं भवलश्करी ध्यतामातनोति । त्वं निस्त री जनननळधेः सिद्धिन्तापतिरत्वं त्वं लोकानां प्रभुरिति तव शमाध्यते स्तोत्रमित्थम् ॥१०॥ वृत्तिर्वाचः मररसदृशी न त्वमन्ये न तुरुषस्तुत्युद्द्वार कथमित्र तत रत्दय्यमी नः क्रमन्ते । मैवं भूवंस्तदपि भगवन्मतिपत्र पृष्टास्ते भव्यानामभिमतफकाः पारिजाता भवति ॥११॥ कोपावेशो न तव न त करि देवप्रसादो व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयेवानपेक्षम् । आज्ञावश्यं तदपि भुवनं संनिधिर्देहारी देवं भूतं भुवनतिलक ! प्राभवं त्वत्परेषु ||२२|| देव स्तोतुं त्रिदिवगणिकामण्डलीगीतकीर्ति वोतूर्ति स्वां सकलमिषयज्ञानमूर्ति जनो यः सम्य क्षेमं न पदमटतो मातु जोहति पन्थास्तत्त्वग्रन्थस्मरणविषये नप मोमूर्ति मर्त्यः॥ २३ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [१६९ चित्ते कुर्वनिरवधिमुखज्ञानहग्वीर्य रूपं देव त्वां य: समयनियमादादरेण स्तवीति । श्रेयोमाग स खलु सुकृति तावता पूरयित्वा कल्याणानां भवति विषयः पञ्चधा पञ्चितानाम् ॥२४॥ भक्तिप्रहमहेन्द्रपूजितपद त्वत्कीर्तने न क्षमाः, सूक्ष्मज्ञानडशोऽपि संयमभृतः के हन्त मन्दा वयम् । अस्माभिः स्तवनच्छलन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते स्वात्माधीनसुखषिणां स खलु नः कल्याणकल्पद्रुमः॥१५॥ वादिराजमनु शन्दिकलोको वादिरानमनु तार्किकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥ १६ ॥ ___इति श्रीवादिराजकृतमकीमावस्तोत्रम् : " : । {२] स्वयंभूस्तोत्रमा राजविष जुगलनि. सुख किया। रान त्याज भवि शिवपद लिया। स्वयंवोध स्वंभू भगवान | वनों आदिनाथ गुणखान ॥ १ ॥ इन्द्र क्षीरसागरमल लाय । मेरु न्हवाये गाय बनाय | मदन विनाशक सुख करंतार । बंदी अमित अजितपदकार ॥२॥ शुक्लध्यानकरि करम विनाशि | घात अघाति सकल दुखराशि । लह्यो मुकतिपद सुख अविकार । वंदौ शंमव भवदुख दार ॥३॥ माता पच्छिम रयनमंझार । सुपने सोलह देख सार । भूप पूछि फल मुनि हरषाय । वंदौं अभिनंदन मनलाय ॥४॥ सब कुवादबादी सरदार । भीते स्यादवाद धुनिधार ।। जैनधरम परकाशक स्वाम ! सुमतिदेवपद करहुँ प्रनाम ॥१॥ गर्भअगाऊ धनपति आय । करी नगरशोमा अधिकाय ॥ वर्षे रतन पंचदश मास | नौं पदंमप्रभु-सुखकी रास ॥ ६॥ Page #344 --------------------------------------------------------------------------  Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। जाकी निनथुति कबहुं न होय। वंदौं अंरजिनवर, पद होय ॥८॥ परभव रतनत्रय अनुराग । इस भव व्याहसमय वैराग ॥ बालब्रह्म पूरन व्रत, धार । वंदौं मेलिनाथ जिनसार ॥ १९॥ विन उपदेशं स्वयं बैराग । थुति लौकांत करें पग लाग ॥ नमः सिद्ध कहि सव व्रत लेहिं । वेदों मुनिसुव्रत व्रत देहि ॥२०॥ श्रावक विद्यावत निहार । भगतिभावसौं दियो अहार ॥ . बरसे रतनराशि ततकाल | वंदी नमिप्रभु दीनदयाल ॥११॥ सब जीवनकी वंदी छोर । रागंदोष दो वंदन तोर ॥ रज मति तन शिवंतियसों मिले । नेमिनाथ वंदौं सुखनिले ॥२२ दैत्य कियो उपसर्ग अपार । ध्यान देख आयो फणिधार ॥ गयो कमठ शठ मुखकर श्याम । नमों मेरुसम पारसस्वाम ॥१॥ भवसागरते जीव अपार । घरमगोतमें घरे निहार ॥ डूबत काढ़े दया विचार । वर्द्धमान वंदी बहुवार ॥ २४ ॥ दोहा-चोवीसौं पदकमलजुग, वंदी मनवचनकाय । 'द्यानत' पढ़े सुनै सदा, सो प्रमु क्यों न सुहाय ॥१५॥ (३) वृहत्वयं मुस्तोत्र। . . . (श्रीमद्भगवद्वादिगजकेसरी स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित ). स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समञ्जसज्ञानविभूतिचक्षुषा। विरामितं येन विधुन्वतां तमः क्षपाकरेणेव गुणात्करैः करैः ॥॥ 'प्रभापतियः प्रथम जिनीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयों ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥ २ ॥ विहाय यः सागरंवारिवांसंस वधूमिवमा वसुंधावंधू संताम् ।। Page #346 --------------------------------------------------------------------------  Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। वंधश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतुः बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः । स्याहादिनो नाथ ! तवैव युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता॥१४ शक्रोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीतः स्तुत्यां प्रवृत्तः किमु मादशोऽज्ञः । तथापि भत्त्या स्तुतपादपद्मो ममार्य ! देयाः शिववातिमुच्चैः ॥१५॥ . इति संभवजिनस्तोत्रम् । गुणामिनन्दादमिनन्दनो भवान् दयावधूं क्षांतिसखीमशिश्रयत् । समाधितन्त्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैन्थ्यगुणेन चायुनत् ॥१६॥ मचेतने तत्कृतबन्धनेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशकमहात् । . प्रभंगुरे स्थावरनिश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥१७॥ क्षुदादिदुःखप्रतिकारतः स्थितिर्न चेन्द्रियार्थप्रमवाल्पसौख्यतः । ततो गुणो नास्ति च देह देहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् ॥१८ जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकाविह न प्रवर्तते । इहाप्यमुत्राप्यनुबन्धदोषवित्कथं सुखे संसनतीति चाब्रवीत् ॥१९॥ स चानुवन्धोऽस्यजनस्य तापकृत्तृषोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः इति प्रभो! लोकहितं यतो मतं ततो भवानेव गतिः सतां मत: २० इत्यभिनंदनजिनस्तोत्रम् । अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मनिस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् । यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति सर्वक्रियाकारकतत्वमिद्धिः ॥२१॥ अनेकमेकं च तदेव तत्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥२२ सतः कथञ्चित्तदसत्वशक्तिः खे नास्ति पुष्प तरुषु प्रसिद्धम् । सर्वस्वमावच्युतमप्रमाण स्ववाविरुद्ध तव दृष्टितोऽन्यत् ॥२३॥ न सर्वथा नित्यमुदत्यपैति न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । । । नैवासतो जन्म सतो न.नाशो दीपस्वमःपुदलभावतोऽस्ति ॥२॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४1 जैनसिद्धांतसंग्रह। विधिनिषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था । इति प्रणीतिः मुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥१६॥ इति मुमतिजिनस्तोत्रम् । पद्मप्रभः पद्मपलाशलेश्यः पद्मालयालिङ्गितचारुमूर्तिः । वमौ भवान् भन्यपयोरुहाणां पद्माकराणामिव पद्मबंधुः ॥२६॥ वभार पद्मा च सरस्वती च भवान्पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समप्रशोमा सर्वजलक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ॥२७॥ शरीररश्भिपसरः प्रभोस्वे बालार्करश्मिच्छविरालिलेप। नरामराकर्णिसभा प्रभावच्छैलस्य पद्माममणेः स्वसानुम् ॥२८॥ नमस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्रात्रुनगर्मचारः । पादान्बुजैः पातितमारदो भूमौ प्रमानां विजहर्ष भूत्यै ॥१९॥ गुणाम्बुषिमुषमप्यमलं नाखण्डलातोतुमलं तवः। प्रागेव माइकिमु तातिमक्तिी वालमालापयतीदमित्यम् ॥३०॥ इति पनामस्तोत्रम् । स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भागः परिभंगुरात्मा । तृषोऽनुषाहान्न च तापशांतिरितीदमाख्यद्धगवान् सुपार्श्वः ॥३१॥ अनङ्गमं जङ्गमनेययन्त्र यथा तथा नीवधूतं शरीरम् । बीभत्स प्रति क्षयि तापकं च खेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः॥३२ अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेय हेतुहयाषिप्रतकालिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः संहत्य कार्यविति साध्ववादीः ॥१३ विमति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वान्छीत नास्य लामः। तथापि वालो भयकामवश्यो वृपा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥३॥ सर्वस्य तत्त्वस्य भवान्ममाता मातेव बालस्य हितानुशाखा । गुणावलोकस्य ननस्य नेता मयापि मच्या परिणूयसेऽद्य ॥१५॥ इति अपार्वजिनस्तोत्रम् । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A जनसिद्धांतसंग्रह। चन्द्रप्रमं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्र द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वंदेऽभिवन्धं महतामृषीन्दं जिनं जितवान्तकषायबन्धम् ॥३६॥ यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेपभिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश वा बहुमानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥१७॥ स्वपक्षसोस्थित्यमदावलिप्ता वाकसिंहनादेविमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदादंगण्डा गना यथा केशरिणो निनादैः। ३८॥ यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवादभुतकर्मतेनाः । अनन्तधामाक्षरविश्वचक्षुः समेतदुःखक्षयशासनश्च ।। ३९ ॥ स चन्द्रमा मव्यकुमुदतीनां विपनदोषाप्रकलङ्कलेपः । व्याकोशवाङ्न्यायमयूखमाल: पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥ ४०॥ ___ इति चंद्रप्रमजिनस्तोत्रम् । एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि तत्त्वं प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभावम् । त्वया प्रणीत सुविधे स्वधाना नैतत्समालीदपदं त्वदन्यैः ।। ४१॥ तदेव च स्यान्न. तदेव च स्यात्तथा प्रतीतेस्तव तत्कथञ्चित् । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विघनिषेधस्य च शून्यदोषात् ॥१२॥ नित्यं तदेवदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः। न तबिरुद्धं वहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते ॥ १३ ॥ अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकाक्षिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः ॥१४ गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् । ' ततोऽभिवन्धं जगदीश्वराणां ममापि साघोस्तव पादपद्मम् ॥१५॥ इति मुविधिजिनस्तोत्रम् । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] जैनसिद्धांतसंग्रह । इति निरुपमयुक्तिशासनः प्रियहितयोगगुणानुशासनः। अरनिनदमतीर्थनायकस्त्वमिव सतां प्रतिबोधनायकः । १.४॥ मतिगुणविमवानुरूपतस्त्वयि वरदागमष्टिरूपतः । गुणकशमपि किचनोदितं मम भवता दुरिताशनोदितम् ॥१०॥ ___ इत्यरजिनस्तोत्रम् । यम्य महर्षेः सकलपदार्थप्रत्यवदोषः समननि साक्षात् । सामरमर्त्य नगदपि सर्व प्राञ्जलिमूत्वा प्राणपतति स ॥१०॥ यस्य च मूर्तिः कनकमयीव खस्फुरदामास्तपरिवेषा। वागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पदपूर्वा रमयति साधून् ॥१०॥ यस्य पुरस्ताद्विगलितमाना न प्रतितीर्थ्या मुवि विवदन्ते । भरपि रम्या प्रतिपदमासीन्नातविकोशाम्बुजमूदुहासा ॥ १.८॥ यस्य समन्ताज्जिनशिशिरांशोः शिप्यकसाधुग्रहविमवोऽमूत्.। तीर्थमपि स्वं जननसमुद्रत्रासितसत्त्वोचरणपयोऽयम् ॥ १०९ ॥ यस्य च शुक्वं परमतोऽग्निनिमनन्तं.दुरितमधाक्षीत् । तं जिनसिंह कतकरणीय मल्लिमशल्यं शरणमिवोऽमि ॥.११०॥ इति मल्लिजिनस्तोत्रम् । . अधिगतमुनिसुव्रतसितिनिवृपभो मुनिसुव्रतोऽनधः । मुनिपरिषदि निर्वमौ भवानुड्डपरिपत्परिवीतसोमवत् ॥ १११ ॥ परिणतशिखिकण्ठरागया कतमदनिग्रहविग्रहामया। भवनिनतपसः प्रसूतया ग्रहपरिवपरुचेव शोमितम् ॥ १११॥ शशिरुचिशुषिशुक्तलोहित सुरभितरं विरनो निज़ वपुः । - . • तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसोऽयमीहितम् ॥११॥ स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणंम् । इति निनसकलजलान्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ ११ ॥ वपुः ।। स्थितिजननायते यदपि Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनांसद्धानसंग्रह । [३८३ दुरितमलफलमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । अभवदमवसौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥११॥ इति मुनिसुव्रतजिनस्तोत्रम् ।. स्तुतिस्तोतुः साघोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं खाधीनाज्जगति सुलमे श्रायसपथे. स्तुयानत्वा विद्वान्सततमपि पूज्यं नमिजिनम् ॥ ११ ॥ त्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्मनिगलं समूलं निर्मिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी। त्वयि ज्ञानज्योतिर्विमवकिरणांति भगवनभूवन् खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥ ११७ ॥ विधेय बार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत् विशेषः प्रत्येक नियमविषयैश्चापरिमितः । सदान्योन्यापेक्षः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ।। ११८ ॥ अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं नसांवत्रारम्मोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधी । ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुमयं भवानेवात्याक्षीन्न च विस्तवेषोपधिरतः ॥ ११९ ॥ वपुर्भूषावेषव्यवाधिरहित शान्तिकरणं यतस्ते संचष्टे स्मरशरविषातकविज़यम् । विना भीमः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलय' । ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्तिनिलयः॥ १२० ॥ . .. इति नमिनिनस्तोत्रम् । . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांत संग्रह | ३८४.] भगवानृषिः परमयोगदहनहुतकल्म पन्धनम् । ज्ञानविपुल किरणः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धः कमलायतेक्षणः ॥ १२१ ॥ हरिवंशकेतुरन वद्य विनयदमतीर्थनायकः । शीलजलधिरभवो विभवत्त्वमरिष्टनेमिनिनकुंजरोऽमरः ॥ ९२२ ॥ त्रिदशेन्द्रमोलिमा गरत्न किरणविसरोपचुम्बितम् । पादयुगलममलं भवतो विकसतकुशेशयदलारुणोदरम् ॥ १२३ ॥ नखचन्द्ररश्मिकवचातिरुचिरगिम्बराङ्गुलिस्थलम् । स्वार्थनियतमनसः सुधियः प्रमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः ॥ १२४ ॥ द्युतिमद्रथाङ्गविविम्वकिरणना:लांशुमण्डलः । नीलजलनदला शिवपु सह बन्धुभिर्गरुडकेतुरीश्वरः ॥ १५५ ॥ हलच ते स्वजनमक्तिमुदित हृदये। विनेश्वरी । धर्मविनयर सिकौ सुतरां चरणारविन्दयुगलं प्रणेमतुः ॥ १५६ ॥ ककुदं भुत्रः खचरयोषिदुपित शिखररलङ्कृतः । मेघपटल रवीवस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥१२७॥ वहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च । प्रीतिविततहृदयैः परितो भृशमूर्ज्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः॥ १२८ ॥ वहिरन्तर प्युभयथा च करणमविघाति नार्थकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिय ॥ ११९॥ अतएव ते बुधनुवस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधाय जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयं ॥ १२० ॥ इत्यरिष्टनेमिजिनस्तोत्रम् । तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणः प्रकीर्णभीमाश निवायुवृष्टिभिः । बलाहकैर्वैरिवशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः ॥ १३१ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [१८५. बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिलिङ्गरुचोपसर्गिणाम् । जुगृह नागो धरणो धरापरं बिरागसनयातडिदम्बु यथा ॥१३॥ स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशात्य यो दुर्नयमोहविद्विषम् । भवापदाईन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपुनातिशूयास्पदं पदम् ॥१५॥ यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं. तपोषनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥१३॥ . स सत्यविधातपा प्रणायकः समप्रधीरुपकुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पार्थनिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः ॥११५ इति पविजिनस्तोत्रम् । कीया भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुच्छ्रया मालितया। भासोडुसभासितया मोम इव योनिकुंदंशोमासितया ॥११॥ तब जिनशासनविभवो नयति कलावपि गुणानुशासनविमवः। -- दोषकशासनविभवः स्तुति चैन प्रभाकशासनविभवः ॥ १७ ॥ अनवद्यः स्याद्वादस्तब दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादो सहितयविरोधामुनीश्वराऽस्याहादः ॥१३८॥ ; त्वमसि मुरासुरमहितो अंथिकसत्वाशयप्रणामामहितः । लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुवकद्धामहितः ॥ १३९ ॥ सम्योनामभिरुचिंत दधासि गुणभूषणं श्रिया चारुचितम् । मग्नं स्वयां रुचिरं जयति च मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥३. • त्वं जिन ! गतमदमायस्तव,मावानां मुमुक्षुकाममदमायः । . .. श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥ १४॥ . गिरिमित्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः अवदानवतः। . . तव शमवादानवतो गठमूनितमपगतप्रमादानवतः ॥ १४.३ ॥ . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६] जैनसिद्धांतसंग्रह। बहुगुणसंपदसक पामतमपि मधुरवचनविन्यासंकटम् । नयमत्यवतंसकलं तब देव ! मतं समन्तभदं सकलम् ॥ १११॥ यो निःशेषनिनोक्तधर्मविषयः श्रीगौतमायः कृतः मुक्तारमलैः स्तवोयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नः पदैः। . सहय रूपानमदो यथायवगतः किञ्चित लेशतः स्येयाश्चन्द्रदिवाकरावषि बुषप्रहादचेतस्यतम् ॥ (४) द्रव्यसंग्रह। (श्रीमन्नेमिचन्द्र सि• चक्रवर्ती विरचित) चीवमनीवं दवं निणवरवसहेण जेण गिट्टि । देविंदविदवंद देत सव्वदा सिरसा ॥१॥ नीवो उपभोगममो ममुत्ति क्त्ता सदेहपरिवाणी। भोत्ता संसारत्यो सिदो सो विस्ससोडगई ॥२॥ विकाले चदुपाणा इंदिप कमाउ माणाणो.य। बवहारा तो जीवो णिञ्चयणपदो दु चेदणा नंस ॥१॥ उपभोगो दुवियप्पो दसणं गाणं च दंपणं चदुयो । चक्खु मचाख मोही दसणमष चल णेयं ॥ १ ॥ णाणं अवियप्पं मदिसुदमोही अणाणणामाणि । मणपञ्जय केवलमावि पञ्चसंपरोक्खमेयं ॥५॥ भट्टबदुणाणवंसंण सामण्ण नीवलक्खणं भणियं । ववहारा मुरणया मुन्ड पूण दसणं गं.णं ॥६॥ .. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धतिसंग्रह। . . [३८७ वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्या जीवे ।। णो संति ममुत्ति उदो ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७॥ . पुग्गनकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दुणिञ्चयदो। . . . चेदणकम्माणादा मुद्धणया सुंदभावाणं ॥ ८॥ बवहारा मुहदुक्ख पुगलकम्मष्फळ पमुंजे दे । भादा णिच्चयणयदो चेइणमा खुमादरस ॥ ९॥ मणुगुरुदेहपमाणो उपसंहारप्पसप्पदो चेदा । असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो मसंखदेसो वा ॥१०॥ पुढविमलतेउवाऊवणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा तसनीवा होति संखादी ॥ ११॥ समणा ममणा णेया पंचेदिय जिम्मणों परे सव्वे । बादरमुहमेइंदी सव्वे पजन इंदरा य ॥ १२ ॥ मग्गणगुणठाणेहिं व चउंदसहि हवंति तह मसुद्धगया। विष्णेया संसारी सव्वे मुद्धा हु मुद्धणयों ॥ १३ ॥ णिकम्मा भट्टगुणा किंचूणां चरमदेहदों सिदा। कोषग्गठिदा णिच्चा 'उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥ १५ ॥ मजीवो पुण णेभो पुग्गलं पम्मो भषम्म मायास । कालो पुग्गक मुत्तो रुवादिगुणो ममुत्ति सेता दु ॥ १५॥ सदो बंधो मुहुमो थूलो संठाणभेदतमछाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदबरस पनाया ॥ १६॥ गइपरिणयाण धम्मो पुगंळजीवाण गमणसंहमारी। तोयं मह मच्छाणं मच्छंचा णेव सो णेई ॥ १० ॥ ठाणजुदाण मषम्मो पुग्गल नीवाण ठाणसइयारी। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जैनसिद्धांतसंग्रह। वतयितुं प्रभवति परशः क्षत्रीलिशेखरचरणाः ॥२८॥ ममरामुरनापतिमिर्यगरपतिभित्र नागदा मोनाः। दृष्टया सुनिशिक्षार्थ पचक्रपरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥ ३९॥ शिवममरमहममक्षयमव्याया विशोकमयशम् । काठागतसुखविधायिभव विमलं भजति दर्शनशरणाः ॥ १० ॥ देवेन्दचक्रमहिमानममेयमानम् राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोनीयम् । धमेन्द्रनक्रमपरीस्वसर्वलोकम् । नन्ध्या शिव च मिनभक्तिहीति भव्यः॥ ११ ॥ भन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसंदेहं वेद यदाटुम्तम्ज्ञानमागमिनः ॥ १२ ॥ प्रयमानुयोगमाख्यानं चरितं पुगणमपि पुण्यम् । बोषिक्षमाधिनिधानं पोषति पोषः समीचीनः ॥१३॥ लोकालोकविमक्तयुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । भादमिव तमामतिरवैति करणानुयोगं च ॥ १४ ॥ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षागम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विनानावि ॥ ४५ ॥ जीवानीवातत्वे पुण्यापुण्ये च बषमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः शुतविद्यानोकमावनुते ॥ ४६॥ मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागहेपनिवृत्य चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ १७ ॥ रागढेपनिवृत्तेहिमानिनिवर्तना कता भवति । मनपेक्षिवार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥ १८ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। हिंसानृतचीयेभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाम्यां च। पापप्रणालिकाम्यो विरति: संज्ञस्य चारित्रम् ॥ १९ ॥ : सकळ विकलं चरण तत्सकलं सर्वसंगविरवानाम् । . मनगाराणां विकलं मागाराणां ससंगानाम् ।। १: ।। . गृहिणां वेषा विछत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुमदं त्रयं यथासङ्ख्यमाख्यातम् ॥ ११ ॥ प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूच्छेभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥ १२ ॥ संकल्पात्छतकारितमननाघोगत्रयस्य चरसत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूळवधाद्विरमणं निपुणाः ॥९॥ छेदनवन्धनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः । माहारवारणापि च स्थुलवधादव्युपरतेः पञ्च ॥ ५ ॥ स्थूलमनीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । पत्तद्वदंति सन्तः स्थूलमृषावादरमणम् ॥ १५ ॥ परिवादरहोम्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च ।. .. न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमाः पञ्च सत्यस्य ॥ १६ ॥ निहित वा पतित वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं । न हरति यन च दत्ते तदकशचौर्यादुपारमणम् ॥६५॥ चौरपयोगचौगदानविलोपमहशसन्मिश्राः । हीनाविकविनिमानं पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥ १८ ॥ सा तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति व पापभीतयेत। सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥ १९॥ भन्यविवाहाकरणानकाक्रोडाविटत्वविपुलतृषाः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [३९७ इत्परिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥ ६ ॥ धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽषिकेषु निररहता। परिमितपरिग्रहः स्पादिच्छापरिमाणनामापि ॥ ११ ॥ भतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोमातिमारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ॥ ११॥ पञ्चाश्वतनिषयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोका यत्रावपिरष्टगुणा दिव्यशरीरं च लम्यन्ते ॥ ६॥ मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः। . नीली जयश्च संपाता पूमातिशयमुत्तमम् 'धनश्रीसत्यघोषौ च तापसा रक्षकावपि ! :उपाख्येयास्तथा श्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ॥१५॥ मधमांसमधुत्यागः सहाशुव्रतपञ्चकम् । .. भष्टौ मूलमूलगुणानाहुऐहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ ६ ॥ दिव्रतमनर्थदण्डव्रतं च मोगोपमोगपरिमाणम् । अनुवृंहणादगुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्याः ॥ ६७ ॥ दिग्वलयं परिगणित कृत्वातोऽई बहिन यास्मामि । इति सङ्कल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥ ६८॥ मकराकरसरिदटंवीगिरिमनपदयोजनानि मर्यादाः । प्राहुर्दिश दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ ६९ ॥ भवहिर[पापप्रतिविरतेर्दिग्नतानि धारयताम् । पञ्चमहावतपरिणतिमणुंब्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ ७० ॥ प्रत्याख्यानतत्वान्मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥ ७१ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवाकायैः।। कृतकारितानुमोदैत्यागस्तु महावतं महताम् ॥ २॥ अपित्तातिर्यग्व्यतिपाता क्षेत्रवृदिरवधीनाम् । विस्मरण दिग्विरतरत्याशः पञ्च मन्यन्ते ॥ ७ ॥ मम्पन्तरं दिगवघेरपापिडम्यः सपापयोगेन्यः ।। विरमणमनर्थदण्डव्र विदुर्बतधरामण्यः । पापोपदेशहिसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च । पाहुः प्रमादचामनर्थदण्डानदण्डपराः ॥ ७ ॥ तिर्यक्क्लेशवाणिज्याहिंसारम्भमनम्मनादीनाम् । कथापसगाप्रसवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः ॥ ६ ॥ परशुरूपाणखनित्रज्वलनायुपशृङ्गलादीनाम् । पहेतूनां दानं हिंसादानं ध्रुवन्ति दुः॥७॥ बन्यवपच्छेदादेषादागाचे परकनांदेः। भाध्यानमपध्यानं शासति मिनशासने. विशदाः ॥ ७८ ।। भारम्मसजसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनः । । चेतकलुषपतां श्रुविवरधीनां दुःश्रुतिमवति ।। ७९ ॥ क्षितिमलिकवानपवनारम्भ विफलं वनस्सविच्छेदं । . सरणं सारणमपि च प्रमादचयों प्रमाषन्ते ॥ ८ ॥ कन्दप कौत्कुच्य मौखयमविप्रसाधनं पञ्च । मसमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनयंदण्डकृतिरतेः ॥८॥ अक्षार्थानां परिसंख्यानं मोगोपमोगपरिमाणम् । . भवतामध्यवधौ रागरतीनां तनूकत्ये॥८९ ॥ .. . मुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुवस्वा पुनश्च मोकन्यः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - " जैनसिद्धांतसंग्रह ।। उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥ ८॥ सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहतये । मधं च वर्जनीयं मिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ ८४ ॥ अस्पफमबहुविधातान्मूलकमाणि शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्बसुम तकमित्येनमवहेयम् ॥ ८ ॥ बदनिष्टं तदव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात । भमिसविता विरतिविषयायोग्यावतं भवति ॥८६॥ नियमो यमश्च विहिती द्वेषा भोगोपमोगसंहारात्। नियमः परिमितकाको यावज्जीव यमो प्रियते ॥ १७॥ भोमनवाहनशयनस्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु । वाम्बूलवसन मूषणमन्मथसंगीतगीतेषु ॥ ८॥ मद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथतुरयनं वा । इति कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः ॥ ९ ॥ विषयविषऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषाऽनुभयौ। . भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पंच थ्यन्ते ॥ १०॥ देशावकाशिक वा सामायिक प्रोषधोपवासो वा! .. वैयावृत्यं शिक्षाववानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ९॥ देशावकाशिक.स्याकालपरिच्छेदनेन देशस्य । . प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥ ९१॥ गृहारिमामाण क्षेत्रनदीदारयोजनानां च। .... देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥९॥ संवत्सरमृतरयन मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च ।..: . .देशावकाशिकस्म माहुः कालावर्षि माज्ञाः ॥९॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ४००] जनासदांवसंग्रह । सीमान्तानां परतः स्युलेतरपंचपापसत्यागात । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते ॥ ९ ॥ प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यकिपुद्गलक्षेपौ। देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पंच ॥ ९ ॥ भासमयमुक्तिमुकं पंचाधानामशेषमावेन ।। सर्वत्र च सामयिकाः सामयिक नाम शंसति ॥ ९७ ॥ मुरुहमुष्टिवासोबंध पर्वबंधनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा ममयं भानंति समयज्ञाः ॥ १८ ॥ एकति सामयिक निक्षेपे बनेषु वास्तुपु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नषिया ॥ ९९॥ व्यापारवैमनस्याद्विनिवृत्त्यामंतरात्मविनिवृत्या। सामायिक बनीषादुपवासे चैकमुक्के वा॥ १० ॥ सामयिक प्रतिदिवस यथावदप्यनकसेन चेतव्यं । व्रतपचकपरिपूरणकारणमवधानयुक्तेन ॥ १०१।। सामायिके सारम्माः परिप्रहा नैव संति सर्वेऽपि । चेलोपमुष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावं ॥१०२॥ शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनघराः । . सामयिक प्रतिपन्ना मधिकुरिनचलयोगाः ॥१.३॥ मशरणमशुममनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षतविपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥१०॥ वाकायमानसानां दुःषणिधानान्यनादरास्मरणे ।। सामायिकस्यातिगमा व्यज्यन्ते पंचमावेन ॥१०५॥ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [४०१ चतुरम्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥१०॥ पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । सानाअननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥१७॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिरतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो.वा. भवतूपवसन्नतन्द्रालु ॥.१०८॥ चतुराहारविसर्जनमुपवासः मोषधः सद्भक्तिः। स प्रोषधोपवासा यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥ १०९ ॥ ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरगे। योषधोपवासव्यतिलकनपञ्चकं तदिदम् ॥११॥ दान वयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। . अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विमवेन ॥११॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ ११२॥ नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन ।' अपसूनारम्भाणामायाणामिप्यते दानम् ॥ ११॥ . गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम् । अतिथीनां प्रतिपूना रुधिरमलं धावते वारि ॥ ११ ॥ उच्चेोत्रं प्रणतेभोंगो दानादुपासनात्यूग। भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥ ११५॥ क्षितिगतमिव वटवीभ पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरमृता.॥११॥ आहारोषधयोरप्युपकरणावासयाश्च दानेन । वैयावृष्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरसाः-॥ ११७॥ २६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२.] जैनसिद्धतिसंग्रह। श्रीषेणवृषभसेनौं कौण्डेशः शूकरच दृष्टान्ताः। वैयावृत्त्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मन्तव्याः ॥१८॥ देवाधिदेवचरण परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि परिचि यादोंढतों नित्यं ॥१९॥ अर्हचरणसपर्यामहोनुमावं महात्मनामवदत् । । मेकः प्रमोदमत्तः कुसुमैनफेन राजगृहे । १.०॥ हरितपिधाननिषाने धनादरीस्मरणमत्सरवानि वैयावृत्त्यस्यैते व्यविक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ २१ ॥ उपसर्गे दुर्भिक्ष नरसि रुमायां च निष्प्रतीकारे। . धर्माय तनुविमोचनमाः सल्लेखनामाः ॥११॥ अन्तःक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलंदर्शिनः स्तुवते । तस्माधाद्विमवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं ॥ १२॥ स्नेहं वैर सङ्गं परिग्रहं चपिहाय शुद्धमनाः ।। स्वननं परिननमपि च क्षान्खा क्षमयालयबचनः ॥१२॥ आलोच्य सर्वमेन कृतकारितमनुमतं च नियान । मारोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेष ॥ २५ ॥ शोकं भयमवसादं कालुप्यमरतिमपि हिवा.! सत्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाचं श्रुतरंभूतः ॥१९॥ आहार परिहाप्य क्रमशः निग्धं विवर्द्धयेत्यानम्।. . निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ॥ १२ ॥ खरपानहापनामपि रुत्वा कृत्वोपवासमपि शक्या । पञ्चनमस्कारमनास्तर्नु त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥१८॥ जीवितमरणाशंसामयमित्रस्मृतिनिदाननामानः ।. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैनासिद्धर्विसंग्रह' । -1 [×Ò§** सल्लेखनातिचारों पञ्च जिनेन्द्रैः समादिष्टः ॥ १५३ ॥ निःश्रेयसंमभ्युदयं निस्तीर दुस्तर सुखाम्बुनिधिम् ।' निःष्पिवति पातधर्मा सर्वैर्दु खरनालोटः ॥ १३० ॥ · जन्मजरा मैयमरणः शोकेदुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम् । L निर्वाण शुद्धसुख निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥१ विद्योदर्शनशां स्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुनः । निरतिशयां निरखधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुख ॥१२१॥ कालें कल्पशतेऽपिच गर्ते शिवाना ने विक्रिया लक्ष्या । उत्पांतोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकर्सभ्रान्तिकरणपटुः ॥१॥ निःश्रेयसेमधिपन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रिय देवते । निष्किट्टिकालिकाच्छर्विचामीकरमा सुरत्मिनिः ॥१३ पूजार्थाज्ञेधयैर्नलेपरिजन काममेगिंभूयिष्ठैः । अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदय फलति सद्धर्मः ॥१३॥ श्रावर्कपदानिं देवेरेकादश देर्शितानि येषु खेल स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धीः ॥१६६॥ सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीर भोगनिर्विण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणों दर्शनिकस्तत्वपथगृह्णः ॥ १५७ ॥ निरतिक्रमण मणुत्रेतपञ्चकमपि शीलसक चापि । धारयते निःशल्या योऽसौ व्रतिना मतो व्रतिकः ॥१३८॥ चतुरावर्त्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथांनातः । .. सामयिको द्विनिपर्यत्रियोगशुद्ध खिसन्प्यमभिवन्दी ॥ ११९ पर्वदिनेषु चतुष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिर्गुण । प्रोषधनियमविधायी प्रणविपरः प्रीषघानशनः ॥ १४०॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] नैनसिद्धांतसंग्रह। मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनवीबानि ।। नामानि योऽपिसोऽयं सचितविरतो दयामूर्तिः ॥१४॥ अन्नं पानं खाद्य लेख नानाति यो विमावर्याम् । सच गनिमुक्तिविरतः सत्वेप्वनुकम्पमानमनाः ॥१९॥ मलबीजं मलयोनि गलन्मलं पूतगन्धिवीमत्सम् । पश्यनामनाहिरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ १३॥ सेवाकषिवाणिज्यप्रमुखादारम्मतो व्युपारमति। प्राणातिपातहतोयोऽसावारम्मविनिवृत्तः॥ १०॥ बापु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वसः सन्तोषपरः परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः ॥ ११॥ अनुमतिरारम्भ वा परिग्रहे वेहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मंतव्यः ॥१४॥ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह । मैक्ष्याशनतपस्यन्नुत्कृष्टश्वेलखण्डवरः ॥ १७ ॥ पापमरातिधर्मो वन्धु वस्य चेति निश्चिन्वन् । समय यदि नानीते श्रेयो ज्ञावा ध्रुवं भवति ॥११८॥ येन स्वयं बीतकलङ्कविद्या दृष्टिः क्रियारत्नकरण्डमा । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिविपु विष्टपेषु॥१४९ सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव ।। सुतमिव जननी मां शुद्धशीला मुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीता-- जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥ १५०।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । (६) आलापपदति! ( श्रीमद्देवमेनविरचिता ) गुणानां विस्तरं वक्ष्ये स्वभावानां तथैव च । पर्यायाणां विशेषेण नत्वा वीरं जिनेश्वरम् ॥ १ ॥ आलापपद्धतिबंचनरचनाऽनुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्यते । [ ४०५ PRESVE सा च किमर्थम् ? द्रव्यलक्षण सिद्धयर्थं स्वभावसिद्धयर्थञ्च । द्रव्याणि कानि ? जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि । सद्दव्यलक्षणम्, उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् इति द्रव्याधिकारः ॥ लक्षणानि कानि ! अस्तित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं, अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तस्वममूर्तत्वं द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः प्रत्येकमष्टावष्टौ सर्वेषाम् । ( एकैकद्रव्ये अष्टौ अष्टौ गुणां मंत्रन्ति । नीवद्रव्ये अचेनत्वं मूर्त्तत्वं च नास्ति, पुद्गलद्रव्ये चेतनत्वममूर्तत्वं च नास्ति, धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति । एवं द्विद्विगुणवर्जिते अष्टौ अष्टौ गुणाः प्रत्येकद्रव्ये भवन्ति ।) ज्ञानदर्शन सुखवीर्याणि स्पर्शरसगन्धवर्णाः गतिहेतुत्वं स्थितिहेतुत्वमवगाहन हेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं द्रव्याणां षोडश विशेषगुणाः। षोडषविशेषगुणेपु नीवपुद्गलयोः षडिति । जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट् । पुद्गलस्य स्पर्शरंसगन्धवर्णाः मूर्त्तत्वमचेनत्वमिति षट् । १ सुक्ष्मा अग्गोचरा प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रामाण्यदभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः। २ क्षेत्रत्वम् अविभागि पूहळपरमाणुनावष्टब्धम् । ३ इति खपुस्तकेऽधिकपाठः । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] जैनमिद्धांतसंग्रह । इतरेषां धर्माधर्माकाशकालानां प्रत्येकं त्रयो गुणः। धर्मद्रव्ये गविहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणः । अधर्मद्रव्ये स्थिविहेतुत्वममूर्तस्यमचंतनत्वमिति । आकाशद्रव्ये अवगाहनहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । कालद्रव्ये वनाहेतुत्वममूतत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणाः । अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्वनात्येपेक्षया सामान्य. गुणा, विनात्यपेक्षया त एव विशेषगुणाः । इति गुणाधिकारः। गुणविकाराः पर्यायास्ते द्वेषा, स्वभावीवभावपर्यायभेदात् । अगुरुलघधिकाराः स्वभावपर्यायास्वे द्वादशधा पद्धिरूपाः पट्टा:निरूपाः । अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यातमागवृद्धिः, संख्यातमाग. वृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिः, एवं षड्वृद्धिरूपास्तथा अनन्तमागहानिः, असंख्यातमागहानिः, संख्यातमागहानिः, संख्यातगुणहानिः, असंख्यातगुणहानिः, अनन्तगुणहानिः, एवं षडानिरूपा ज्ञेयाः। विभावद्रव्यव्यानपर्याथाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्यायाः अथवा चतुरशीविलक्षा योनयः । विभावगुणव्यन्ननपर्याया मत्यादयः । स्वभावद्रव्यव्यानपर्यायाश्वरमशरीरात्किञ्चिन्यूनसिद्धपर्यायाः । स्वभावगुणव्यन्जनपर्याया अनन्तचतुष्टयस्वरूपानीवस्य । पुद्गलस्य तु व्यणुकादयो विभावद्रव्यन्यन्जनपर्यायाः । रसरसान्तरंगन्धगन्धान्तरादिविभावगुणव्यअनपर्यायाः। भविभागिपरलपरमाणुः स्वभावद्रव्यव्यन्जनपर्यायः । वर्णगन्धरसकेकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणव्यजंनपर्यायाः। अनाधनिपने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । १. प्रत्यक्षेत्रकाकमाषापेक्षया । २ स्वभावपर्यायाः सर्वदव्येषु विमाअपर्याया बीपपुल्योष ३ भायन्तरहिते । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतमंग्रह। [.४०७ उन्मज्जान्ति निमज्नन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥ ॥ धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः । .. व्यन्जनेन तु.संबद्धौ द्वाचन्यौ जीवपुद्गलौ ॥२॥ इति पर्यायाधिकारः । गुणपर्ययवहव्यम् । स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः, नौस्तिस्वभाव, नित्यस्वभावः, अनित्यस्वभावः, ऐकस्वभाव, अनेकस्वभावः, भेदस्वभावः, अभेदस्वमावा, भव्यस्वभावः, अभन्यस्वभावः, परमस्वभाव: द्वन्या. णामकादश सामान्यस्वभावाः, चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः, मुस्वभावः, अमूर्तस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अनेकप्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः, शुद्धस्त्रमावः, अशुद्धस्वभावः, उपचरितस्वभाव एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः । नीवपुद्लयोरेकविंशतिः चेतनस्वभावः, मूर्तस्वभावः, विभावस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अशुद्धस्वभाव एतः पञ्चमिः स्वभावविना धर्मादित्रयाणां षोडश स्वभावाः सन्ति । नत्र बहुप्रदेश विना कालस्य पञ्चदश स्वभावा:-1. एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मताः । धर्मादीनां षोडश स्युःकाले पञ्चदश स्मृताः ॥३॥ १ स्वभावलाभादच्युतवादग्निदाहवदस्तिस्वभावः । २ परस्वरूपेणाभावानास्तिस्वमाषः 3 निज निज नानापर्यायेषु तदेवेदमिति इव्यस्योपलम्मानित्यस्वभाषः । ४ तस्याप्यनेकपर्यायपरिणामित्वादनित्यस्वभावः । ५ स्वभावानामेकाधारवादेवस्वभावः । ६ गुणगुण्यादिसंज्ञाभेदानेदस्वभावः । .. पांरिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः। ८ असद्मृतव्यवहारेण कर्मनो. कर्मणोरपि चेतनस्वभावः। ९ जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभावः । १० जीपस्याप्यसद्धृतव्यवहारेण भूस्वभावः । ११ “तत्कालपर्ययाक्रान्त वस्तुमावो विधीयते” १२ तस्य एकप्रदेशसम्भवाद । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] . जैनसिद्धांतसंग्रह । ते कुतो ज्ञेयाः प्रमाणनयविवक्षातः । सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । वहधा प्रत्यक्षतरमेदात् । अवधिमनःपर्ययविकदेशप्रत्यक्षौ । केवलं सकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुने परोक्ष । प्रमाणमुक्त । तदवयवा नयाः। नयभेता उच्यन्ते, णिच्छयववहारणया मूलमभेयाण याण सव्वाणं । जिच्छय साहणहेओ दव्वयपज्जास्थिया मुणह ॥ ४ ॥ द्रव्याथिका पर्यायार्थिक: नैगमः, संग्रहः व्यवहारः, ऋजुसूत्रः, शब्दः, समभिरुढ. एवंभूत इति नव नयाः स्मृताः । उपनयाश्च कथ्यन्ते । नयानां समीपा उपनयाः । सद्भतव्यवहारः असद्धृतव्यवहारः उपचरितासद्भतव्यवहारश्चेत्युपनयास्त्रेधा! ' इदानीमेतेषां भेदा उच्यन्ते। द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः। कर्मोपाघिनिरपेक्षाः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा मंसारी जीवः सिद्धसडक्शुद्धात्मा । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा द्रव्यं नित्यम् । भेदकल्पनानिरपेक्षः शुद्धो द्रव्यार्थको यथा निजगुः पर्यायस्वभावाव्यममिन्नम् । कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिको यथा क्रोधादिकर्मजमाव आत्मा उत्पादव्यय-विक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन् . समये द्रव्यमुत्पादव्ययाव्यात्मकम् भेदकल्पनासापेक्षाशुद्धद्रव्याथिको यथात्मनो दर्शनज्ञानादयो गुणाः अन्वयद्रव्यार्थिको यथा-गुणपर्यायस्वभावं व्यम् स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा-स्वद्रव्या निधन व्यस्थिताः व्यवहारनयाः गर्यायस्थितः । २ नयाई एहीत्या वस्तुनोऽनेकविश्ल्पत्वेन कथनमुपनयः । ३ आदिशब्देन स्वक्षेत्रस्वकालस्यमावा प्रायाः । - - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धातसग्रह। [ ४०९ दिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति । परदन्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा'परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति । परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा-ज्ञानस्वरूप आत्मा । अनानेकस्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीतः। ... इति द्रव्याधिकस्य दश मेदाः । . __ अथ पर्यायार्थिकस्य पड्मेदा उच्यन्ते, अनादि नित्यपर्यायार्थिको यथा पुद्गलपर्यायो नित्यो मेर्वादिः सादिनित्यपयोयार्थिको यथा-सिद्धपर्यायो नित्यः । सत्तागौणत्वेनोत्पादव्ययग्राहकस्वभावो 5 नित्यशुद्धपर्यायाथिको यथा-समय समयं प्रति पर्याया विनाशिनः । सत्तासापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्वपर्यायार्थिको यथा-एकस्मिन् समये त्रयात्मकः पर्यायः । कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावो नित्यशुद्धपर्यायार्थिको यथा-सिद्धपर्यायसरशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः। कर्मोपाधिसापेक्षम्वभावोsनित्याशुद्धपर्यायार्थिको यथा-संसारिणामुत्पत्तिमरणे स्तः । इति पर्यायाधिकस्य षड्भेदाः। नगमलेषा भूतमाविवर्तमानकालभेदात् । अतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूननगमो यथा-भद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः भाविनि भूतवकथनं यत्र स भाविनगमो यथाअर्हन् सिद्ध ए। कर्तुमारब्धमीपनिष्पन्नमनिप्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कश्यते यत्र स वर्तमाननैगमो यथा-आदनः पच्यते इति नैगमनेधा। १ सुवर्ण हि रजतातिरूपतया नास्ति रजतक्षेत्रेण .ग्जतकालेन रजतपर्यायेण च नास्ति । २ पूर्वपर्यायस्य विनाशः, उत्तरायस्योत्सादा, द्रव्यत्वेन ध्रुवत्वम् । - - - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Imwww mM ४१०] जैनसिद्धांतसंग्रह। संग्रहो द्विविधः । सामान्यसंग्रहो यथा सर्वाणि द्रव्याणि परस्परमविरोधीनि । विशेषसंग्रहो यथा-सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः इति संपहोऽपि द्विधा। व्यवहारोऽपि द्वेषा । सामान्यसंग्रहमेदको व्यवहारो यथा. द्रव्याणि जीवानीवाः । विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा-जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च इति व्यवहारोऽपि द्वेषा।। ऋजुसूत्रो हिविधः । सूक्ष्मर्नुसूत्रो यथा-एकसमयावस्थायी पर्यायः । स्थूलर्जुसूत्रो यथा-मनुष्यादिपर्यायास्तदायुःप्रमाणकालं तिष्ठन्ति इति काजुसूत्रोऽपि द्वेषा। . शब्दसममिरुदैवभूता नयाः प्रत्येकमेकैका नया शब्दनयो यथा दारा भार्या कलत्रं जलं भापः । समभिरूढनयो यथा गौः 1 पशुः । एवंभूतनयो यथा-इन्दतीति इन्द्रः । उक्ता अष्टाविंशतिनिपभेदाः। उपनयभेदा उच्यन्ते-समृतव्यवहारो विधा। शुद्धसमूतनवहारो यथा-शुद्धगुणशुद्धगुणिनोः शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणो वकथनम् । अशुद्धसद्भुतव्यवहारो यथाऽशुडगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्ध । पर्यायाऽशुद्धपर्यायिणोर्मेदकथनम् इति सद्धतव्यवहारोऽपि वेषा। । असद्भूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वमालसद्धतव्यवहारो यथा-परमा'णुर्वहुमदेशीति कथनमित्यादि । बिजात्यसद्धतव्यवहारो यथा मूत मतिज्ञानं चतोमूर्तद्रव्येण भनितम् । स्वनाविविजात्यसमूतव्यव'हारो यथा ज्ञेये जीवेऽजीवे ज्ञानमिति कथनं ज्ञानस्य विषयात् । इत्यसनव्यवहारनेषा। सिद्धपर्यायनिवजीवयोः । - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [ ४११ उपचरितासद्भूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा- पुत्रदारादि मम । विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथावस्त्राभरणडे मरत्नादि मम । स्वजातिविजात्युपचरिता सद्भूतव्यवहारो यथा - देशराज्यदुर्गादि मम इत्युपचरिता सद्भूतव्यवहारखेषा । www सहभावा गुणोः क्रमवर्तिनः पर्यायाः गुण्यन्ते पृथक क्रिय न्ते द्रव्यं द्रव्याद्यैस्ते गुणाः । अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम् । वस्तुनो भावो वस्तुत्वम्, सामान्यविशेषात्मकं वस्तु द्रव्य -: स्वभावो द्रव्यत्वम् निजनिनप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्या स्वभावविभावपर्यायात् द्रवति द्रोप्यति अदुद्रवदिति द्रव्यम् | सद्द्रव्यलक्षणम्. सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत् उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् । प्रमेयस्य भावः प्रमेयत्वम् प्रमाणेन स्वपरस्वरूपपरिच्छेयं प्रमेयम् अगुरुलघुर्भावोऽगुरुलरुलघुत्वम् सूक्ष्मा वाग- ' गोचराः प्रतिक्षण वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणा !!सुक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्देव हन्यते । ... आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना : " ॥ १ ॥ प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुनावैष्टव्यम् | चेतनस्य भावश्चेतनत्वम् चैतन्यमनुभवनम् । चैतन्यमनुभूतिः स्यात् सा क्रियारूपमेव च । क्रिया मनोवचः काये वन्विता वर्तते ध्रुवम् ॥ ६ ॥ अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वमचैतन्य मननुभवनम् । मूर्तस्य भावो मृर्तत्वं रूपादिमत्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहित . htt १ अन्धयिनः । २ प्राप्नोति । ज्ञातुं योग्यं । ४ व्याप्तं । ५ अतुभूतिर्जीवाजीवादिपदार्थानां चेतनमात्रम् । ६ रूपरसगन्धस्पर्शवत्वम् । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] नैनसिद्धांतसंग्रह। त्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः । स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्ति. । स्वभावलाभादच्युतत्वाइस्तिस्वभावः परस्वरूपेणाभावान्नास्तिस्दमावःनिननिज- नानापर्यायेषु तदेवेदमिति द्रव्यस्योपलम्भान्नित्यस्वभावः । तस्याप्यनेकपयायपरिणामितत्गदनित्यस्वभावः। स्वभवानामकाषारत्वादेकत्वमावा । एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्मादनेकस्वभावः । गुणगुण्यादिसंज्ञाभेदादू भेदस्वभावः । संज्ञासंख्यालक्षणप्रयोजनानि) गुणगुण्याघेकन्दमावादभेदस्वभावः । माविकाले परस्वरूपाकारमबनाद् भव्यस्वभावः । कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकाराभवनादमन्यस्वभावः । उकञ्च,1" अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गसमण्णमण्णस्स । मेलंतावि य णिचं सगसगमावं ण विजहंति " ॥ ७ ॥ पारिणामिकमावप्रधानत्वेन परमस्वभावः । इति सामान्यस्वमावानां व्युत्पत्तिः । प्रदेशादिगुणानां व्युत्पत्तिश्चतनादिविशेषम्वभावानां च व्युत्पत्तिनिगदिता । धर्म पेक्षया स्वभावा गुणा न भवति । स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया परस्परं गुणाः स्वभावा मयति । द्रव्याण्यपि भवति । स्वभाषादन्य थामवन विभावः। शुद्धं केवरभावमशुद्धं तस्यापि विपरीतम् । स्व. मावस्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितम्वभावः । स द्वेधा कर्मजस्वाभावि कमेदात् यथा नीवस्य मुर्तत्वमचेतनत्वं यथा सिद्धानां परज्ञता परदशफलं च । एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासंभवो ज्ञेयः। 1 गुणगुणीति संक्षा नाम । गुणा अनेक गुणी वेक इति संख्या भेदः । सद्रव्यलक्षणं । द्रव्यानया निगुणा गुणाः । २ स्वभावापेक्षया । - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यव जैनसिद्धांतसंग्रह । [४१३ "दुर्नयैकान्तमारूढा भावानां स्वार्थिका हि ते॥ . स्वाषिकाच विपर्यस्ताः सकलका नया यतः .८॥ तत्कथं तथाहि-सर्वथैकान्तेन सदुपस्य न नियतार्थव्यवस्थासंकरादिदोषत्वाना त्या सद्रूपस्य,सकलशून्यताप्रसङ्गात् / नित्यस्यैकरूपत्वादेकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वामावे. द्रव्यस्याप्यभावः । अनित्यपक्षेऽपि अनित्यरूपत्वादयक्रियाकारित्वामावः, अक्रियाकारित्वभावे द्रव्यस्याप्यमावः । एकस्वरूपस्या, कांतेन विशेषाभावः, सर्वथकरूपत्वात् विशेषाभावे सामान्यम्या.. प्यंभावः। - "निर्विशेष हि.सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ॥९॥ ' इति ज्ञेयः। । अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावो निराधारत्वात् आधाराषेयाभावाच । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारवादर्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यमावः । अभेदपक्षेऽपिसर्वेषामेकत्वम् सर्वेषामेकत्वेऽर्थक्रियाकारित्वाभाव अर्थक्रियाकारित्वामावे द्रव्यस्याप्यभावः । भव्यस्यैकांतेन पारिणामिकत्वात द्रव्यस्य द्रव्यांतरत्वप्रसङ्गात् । सकरादिदोषसम्भवात् सङ्करव्यतिकरविरोधवैधिकरण्यानवस्थासंशयाप्रतिपत्त्यमावाश्चेति । सर्वथाऽम व्यस्यैकान्तेऽपि तथा शून्यताप्रसङ्गात् स्वभावस्वरूपस्यैकान्तेन संसाराभावः । विभावपक्षेऽपि मोक्षस्याप्यमावः । सर्वथा चैतन्य. १ यया सिंहो माणवकः (माणवको मारिः) । २ निरन्वयत्वादित्यपि पाठः । ३ भन्यामन्यजीवत्वानि । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धावसंग्रह। मेवेत्युक्त सर्वेषां शुद्धज्ञानचैतन्यावाप्तिः स्यात्, तथा सति ध्यान ध्येयं ज्ञानं ज्ञेयं गुरुशिष्याधर्मावः । सर्वथाशब्द: सर्वपरिवाची अथवा सर्वकालवांची, अथवा नियमवाची, अथवां मनेकान्तसापेक्षी वा ? यदि सर्वप्रकारवाची सर्वकालवाची अनेकान्तवाची बों सर्वादिगणे पठनात् सर्वशब्द एवंविधश्चेहि सिद्ध नः समाहितम् । अथवा नियमवाची चेचहि संकलर्थािनी तवं प्रतीतिः कय स्यात् । नित्यः, अनित्यः, एकः, अनेकः,मेदः, अभेदः कयं प्रतीतिः स्यात् नित्यमितपक्षत्वात्। तथाचतन्यपक्षेऽपि संकलंचेतन्याच्छेदः स्यात् मूर्तस्यैकान्वेनात्मनो मोक्षल्यावाप्तिः स्यात् । सर्वथाऽभूतस्यापि स्थात्मनः संसारविलोप: स्यात् । एकपदेशस्यैकान्तेनाखण्डपरिपूर्ण स्यात्मनोऽनेककार्यकारित्व एवं हानिः स्यात् । सर्वोऽनकप्रदेशस्वऽपि तथा तस्यानर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशन्यताप्रसनात् । शुद्धस्यैकान्तनात्मनो न कर्ममलकरांवलेपः सर्वया निरखनत्वात्। सर्वयाऽशुद्धकान्तेऽपि तथात्मनो न कदापि शृंदस्वभावप्रसङ्ग: स्यात् तन्मयत्वात् । उपचरितकान्तपक्षेऽपि नामज्ञता सम्भवति नियमितपक्षत्वात् । तथात्मनोऽनुपचरितपक्षेऽपि परनतादीनां विरोधः स्यात् । " नानास्वंमावंसंयुकं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । । तञ्च सापेक्षसिद्धयर्थ स्यान्नयमिश्रितं कुरु " .in स्वद्रव्यादिप्राहकणास्तिस्वमावः परद्रव्यादिग्राहकण नातिस्वभावः । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकेंण नित्यस्वभावः। १ भदस्यमाषमंयवाद । २ मुख्यामाचे प्रति प्रयोजने निर्मित चोपचारस अवतते। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M AM .:: .. १.. . AN .. In H i . . . . " : एपना दर ५. जैन सिद्धांतसंग्रह। । ४१५ नाच पयायोचिकनानित्यस्वभावः । भदकल्पनानिरीक्षणेकस्वभावः । अन्वयद्रव्याथिकनैकस्याप्यनेकद्रव्यस्वभावत्वम् । सद्भूतव्यवहारण गुणगुण्यादिभिभदस्वभावः । भेदकल्पना निरपेक्षेण गुणगुण्यादिभिरभेदस्वभावः । परममावग्राहकेण भव्यामव्यपारिणामिक स्वभावः । शुद्धाशुद्धपरमभावाहिकण चेतनस्वभावो जीवस्य । असस्तव्यवहारेण कमनोकर्मणोरपि चैतनस्वभावः । परमभावप्राहकण कर्मनोकर्मणोरतनस्वभावः ।। जौवस्थाप्यसद्भतव्यवहरिणाचतनस्वभाव sksenam MEE कर्मनांकमणामुत्तेस्वभावः जीवस्याप्यसंमृतव्यवहारेण मंचस्वभावः। MINTERais .. ........ परमभावग्राहकणं पुंगलं विहाय इतरषाममूत्तेस्वभावः · पुगलस्योपचारदीप नास्त्यमुतत्वम् । परमभावग्राहकेण कालपुद्गलाणूनामेक प्रदेशस्वभावत्वम् भेदकल्पनानिरपेक्षणेतरेषा धर्माधर्माकोशनीवाना . .चाखण्डवादकप्रदेशत्वम् । भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नाना प्रदेशस्वभावत्वम्। पुद्गलाणोरुपचारतो नानाप्रदेशत्वं न. कालाणी स्निग्धरुक्षत्वाभावात् । अरूक्षत्वाच्चाणोरमूर्चपुद्गलस्यैकविंशतितमो भावो न स्यात् । परोक्षप्रमाणापक्षयाऽसंदर्भूतव्यवहारेणाप्युपरिणा मुर्तत्वं । पुद्गलस्य शुद्धाशुद्धद्रव्याथिकेनं विभावस्वभावत्वम् । शुद्ध द्रव्याथिकेन शुद्धस्वभावः । अशुद्धद्रव्याकिनाशुद्धसमावः । असदभूतव्यवहारेणोंपंचरितस्वभावः । . . 'द्रव्याणां तु यथारूपं तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथा ज्ञानेनं संज्ञात नयोऽपि हि तथाविध ॥ ११॥ . . .. .इति 'नर्ययोजनिकां । नयेन । २ जीवधर्माधर्माकाशकालानःम । ३ जीवपुद्रलयो । ६ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिदांतसंग्रह। सकलवस्तुप्राहकं प्रमाण, प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतचं येन ज्ञानेन तत्प्रमाणम् । तद्वेषा सविकल्पेतरभेदात् । सविकल्प मानसं, तचतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमनःपर्ययरूपम्। निर्विकल्पं मनोरहित केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पतिः । प्रमाणेन वस्तु संगृहीतार्थकांशो नयः श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः,. नानास्व... भावेभ्यो व्यावृत्य एकास्मन्स्वमावे वस्तु नयति प्रांमोतीति.वा. नयः। स द्वेषा सविकल्पनिर्विकल्पमेदादिति नयस्य व्युत्पतिः। प्रमाणनययोनिक्षेप आरोपगं स नामस्थापनादिभेदेन चतुर्विध इति निक्षेपस्य व्युत्पत्तिः। द्रव्यमेवार्थः प्रयोननमस्येति द्रव्याथिकः1. शुद्धद्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिकः अशुबद्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति अशुद्धद्रव्यार्थिक सामान्यगुणादयोऽन्वयरू. पेण द्रव्य व्यमिति द्रवति व्यवस्थापयतीत्यन्वयद्रव्यार्थिकः । स्वद्रव्यादिग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति स्वद्रव्यादिग्राहकः, परद्रव्या. ग्रहणमर्थः। प्रयोजनमस्येति परद्रव्यादिग्राहकः, परमभावग्रहणमर्थः । प्रयोजनमस्येति परमभाव-राहकः ।। इति द्रष्यायिकस्य व्युत्पत्ति । पर्याय एवार्यः प्रयोजनमस्येति पयोयार्थिकः । अनादिनित्य. पर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यनादिनित्यपर्यायार्थिकः । सादिनित्य पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति सादिनित्यपर्यायार्थिकः । शुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धपयार्थिकः । अशुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमत्येत्यशुद्धपर्यायार्थिकः । इते पर्यायार्थिकस्य व्युत्पत्तिः । नियायते । २ भादिशब्देन द्रव्यमावो गृोते । ३ सामान्य जीवत्वादि गुणा ज्ञानादयः । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [४१७ नक गच्छनीति निगमः, निगमो विस्तास्तत्रभवो नैगमः ।' भमेदरूपतया वस्तुनातं संगृहातीति । सङ्ग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः । ऋजु मानलं सुत्रयतीति ऋजुसूत्रः । शब्दात व्याकरणात प्रतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः शन्दनयः | परस्परेणादिरूढाः सममिरूढाः । शब्दभेदेऽप्यर्थभेदो नास्ति । यथा शक इन्द्रः पुरन्दर इत्यादयः समभिरूढाः। एवं क्रिया प्रधानत्वेन भूयत इत्येवंभूतः । शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकाय भेदी । मभेदानुपचरितया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । भेदोपचारतया वातु व्यवहियत इति व्यवहारः । गुणगुणिनो: संज्ञादिभेदात् । भेदकः समृतव्यवहारः। अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भुतम्यवहारः। मसनव्यवहार एवोपचार: उपचाराइप्युपचारं यः करोति स उपचरितासदभूतव्यवहारः । गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः स्वभावस्वमाविनोः कारकका• रविणोदः सद्भतव्यवहारस्यार्थः, द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्याये पर्यायोपचार:. गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुणे द्रव्योपचारः, गुणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽ दूनव्यवहारस्याओं द्रष्टव्यः । उपचारः पृथग नयो नास्तीति न पृथक् कतः। मुख्यामाचे सति प्रयोजने निमित्त चोपचारः प्रवर्तने सोऽपि सम्बन्धाविनामावः ।। संकेतः सम्बन्धः । परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धेयसम्बन्धः, १ घस्तुसमूह । २ एवमित्युक्ते कोऽर्थः क्रियाप्रधानलेनेति विशेषणम् । . ३ पुद्गलादौ । ४ स्वमावस्य । ५ जीपादौ । २७ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] जैनसिद्धांतसंग्रह । ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः, चारित्रचर्यासम्बन्धश्वत्यादिसत्यार्थः, मसत्यार्थः सत्यासत्यार्थश्वेत्युपचरिताऽसदभूतव्यवहारनयस्यार्थः । 1 पुनरप्यध्यात्ममाषपा नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ-नि श्रयो व्यवहारश्च । तत्र निश्रपनयोऽभेरविषयो, उपवहारो मे - ' विषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः शुदनियोऽशुद्धनिश्चयश्च । तत्र . निरुपाधिगुणगुण्यमेदविषयकोऽशुदनिश्चयो यथा-केवानानादयो - जीवें इति। . सोपाधिक्रविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा-मविज्ञानादयो जीव इति । व्यवहारो द्विविधः सनव्यवहारोऽदितव्यवहारश्च । स्वैमातुविषपः सर्भूतरुपबहारः, भिन्नवस्तुविषयोऽसमूतव्यव. हार सदभूतव्यवहारो द्विविध उपचरितानुपचरितमेदात् । तत्र सोपाधिगुणगुणिनोभेदविषयः उपचरितामृतव्यवहारो यथानीवश्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुणाषिगुणगुणिनोमदविषयोऽ नुपचरितसमवहारो यधर-जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असमूतव्यवहारो द्विविष: उपचरितानुपचरितमेदात । उन संरहितवस्तुसम्वविषय उपचरितामृगव्यवहारो। ययादेव. दत्तस्य घनमिति । संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयेऽनुश्चरितास.. व्यवहारो यथां-जीवस्य शरीरमिति। इति सुखदोषार्थमालापपतिः । .१ भेदेन ज्ञातुं योग्यः। उपाधिना कर्मानितविकारेण सह पर्वते इति सोपाधि । ३ यथा वृक्ष एक एस तल्लग्ना शाखा मिनाः पान्नु वृक्ष एष नपा अद्भूतध्यवाहारी गुणगुणिनोमिकथनम् । ४ देवदत्तहा इतिचं पाठः । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww जैन सिद्धांतसंग्रह। [४१९: ... [७] बारहमाना। [रत्नचंद्रजीकृत। .. सवैया ३१॥ भोग उपभोग जे कहे हैं .संसाररूप रमा धन पुत्र. भो . कलत्र मादि जानिये ॥ ज्यूही नक बुदबुद प्रत्यक्ष है लखाव तनु. विधुतचमत्कार थिर न रहानिये । त्यूं ही नग.अथिर विलासको मसार मान. थिर नहीं दीसे सो अनादि अनुमानिये ॥ यह नो विचारे सो मनित्य अनुपेक्षा कहे प्रथम ही भेद मिनरान नो वखानिये.॥ १॥ निर्जन भरण्य माहि आहे मृग सिंह शरण न दीसे मशरण ताहि कहिये ॥ हरिहरादि चक्राति पद त्यों मथिर.. गिनो जन्ममरण-सो अनादि ही ते लहिये ।। याहिको विचारियो मसार संसार :मान एक भवलंब जिनधर्म ताहि गहिये । दृढ़ हिये. धार निन भात्मको कर विचार तनके विकार सब निश्चल हो रहिये ॥ १॥ कर्म काण्ड दाही थकी मात्मा भ्रमणकरे नट जैसो नाटक. अनन्तकाक करे है। पिता हुने पुत्र होय जनक. होय मुत.. हू ते, स्वामी हू ते दास भृत्य स्वामी पद धरे है।माता हू ते,निया.. , होय कामिनी ते माय होय भवन माहि.नीव यूंही संसरे है ॥२॥ मैंह नो एकाकी सदा देखिये अनंत काल जन्म मृत्यु बहु दुःख सहो है। रोगनासो है एकैपाप फल मुंजे घनो एकै शोकवन्तको उदुतीनाहिं सहो है। स्वनन नतात.मातःसाथी नहिं कोय यह रलत्रय साथि निन ताहि नहिं गहो है। एकै यह भात्मघ्यावे, एक तपसा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२..] जनसिदांतसंग्रह। 'करावे होय शुद्ध भावे तव मुक्ति पद कहो है॥१॥ भात्म है मन्य और पद्दल हूं मन्य लखो अन्य मात वात पुत्र त्रिपा सब जानरे । जैसे निशिमाहि वरूहुपै खग भेलें होय, पात उड नाय औरठौर तिमि मानरे ॥ वैसे विनाशीक यह सकल पदार्थ हैं हाटमध्या नन भनेक होय मेले मानरे । इनहुने कान कछु सर न नेगो नाहिं भैया, मन्यत्वानुप्रेक्षरूप यह पहचानरे ॥ ५॥ त्वचा पळ मस्तनसानाकमलमूत्र घाम शुक्रमल रुधिर कुधातु सप्तमई है, ऐसो तन पशुचि भनेक दुर्गप भरो श्रयै नव द्वार तामें मूढ़ मतिदई है । ऐसी यह देह नाहिं नसके उदास रहो मानो जीव एक शुद्ध बुद्ध परणई हैं । पशुचि अनुप्रेक्षा यह धारे नो इसी ही भांति तनके विकार तिन मुक्तरमा गई है ॥ ६॥ . चौपाई। मानवमनुपेक्षा हियधार | सत्तावन आश्रवके द्वार कर्माअव ये कैसे होय । ताको मेद कहुं अब सोय ॥ मिथ्यामविरतयोगकवाय । यह सत्तावन भेद कखायं बंधो फिरे इनके पाश नीव। भरसागरमें रुले सदीव । विकल्परहित ध्यान भव होय।शुभभावको कारण सोय ॥ कर्मशत्रुको करसंहार । तब पावे पंचमगति सार||}} मानवको निरोष नो ठान | सोईसम्बर करे बखान ॥ सम्बरकरसुनिरमरा होय । सोहै हय परकारहि जोय ॥ इक स्वयमेव निर्म-. रापेख । दूनी निर्भरा तपहि विशेष ॥ ८ पूर्व सकळ अवस्थाकही । संवर करमो निर्नरातही ॥ सोय निर्जरा दोपरकार | सविपाकी अविपाकीसार || सविपाकी सबनीवन होय। भविपाकी Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धातसंग्रह । [४२१ मुनिवरके नोय ॥:तपके बलकर मुनि भोगाय । सोई भाव निरा माय । बंधे कर्म छुटै निह घरी। सोई द्रव्य निरा खरी ॥९॥ भयो मध्य अरु उरष नान । लोकत्रय यह कहे बखान || चौदह राजू सवे उतंग । वातत्रय बेढे सरवंग || घनाकार राजू गण ईसा कहैं तीनसै तैतालीस ॥ अधोलोक चौखूटो जान | मध्यकोक झालरी समान ॥ उद्धलोक मृदंगाकार । पुरुषाकार त्रिलोक निहार ॥ ऐसो निजघट लखे जुकोय। सो लोकानुप्रेक्ष यह होय॥१०॥ दुर्लभ ज्ञान चतुरगतिमाहि । भ्रमतभ्रमत मानुषगति पाहि ॥ जैसे जन्म दरिद्री कोय। मिलो रत्ननिधिताको सोय ॥ त्यू मिलियो यह नर पर्याय | आर्यखंड ऊंच कुल पाय॥ मायुपूर्ण पंचइन्द्री भोग । मंदकषाय धर्मसंयोग ।। यह दुर्लभ है या नगमाहिं। इन विन मिले मुक्तिपद नाहिं ॥ ऐसी भावना भावे सार । दुर्लभ अनुप्रेक्षा सु विचार ॥ ११ ॥ पालै धर्म यत्नकर नोय । शिव मंदिर ते कहेजुसोई ॥ धर्म भेद दशविधि निरधार | उत्तमक्षमा मार्दवसार ।। मार्जव सत्ये शौच पुन जान ॥ संयमतप त्यागहि पहिचान ।। माकिंचन ब्रह्मचर्य गनेवं ॥ यह दश भेद कहे जिनदेव ॥ धर्महि ते तीर्थकरगति । धर्महि ते होवे सुरपति । धर्महि ते चक्रेश्वर जान । धर्महिं ते हरि प्रतिहरि मान । धर्महि ते मनोन अवतार। धर्महिते हो भवधि पार | रत्नचंद्र यह को बखान | धर्महिते • पावे निर्वान । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२२] जैनसिद्धांतसंग्रह। (e) द आरतियें। प्रथम आरती। यह विधि मंगल भारती कीने । पञ्च परमपद भनि मुख लीने ।। टेक ॥ प्रथम भारती श्रीमिनराजा । भवनळ पार उतार निहाना १॥ दुनी भारती सिद्धन केरी। मुमरण करत मिटै भव फेरी ॥२॥ तीनी आरती सुर मुनिन्दा । जन्म मरण दुःख दूर करिन्दा ॥३ बौधी भारती श्री उबवाया। दर्शन देखत पाप पलायां ॥१॥ पांचमी भारती साधु तम्हारी ! कुमति विनाशन शिव अधिकारी ॥५॥ छट्ठी ग्यारहप्रतिमा धारी। श्रावक बन्दों मानन्दकारी ॥१॥ सातमी भारती श्री जिनवाणी ! चानव स्वर्ग मुक्त मुख दानी। द्वितीय आरती। ... . भारती श्री जिनराम तुम्हारी । कर्मदकन सन्तन हितकारी ॥ टेक-सुर नर मसुर करत तव सेवा तुम ही सब देवनके देवा ॥ १ ॥ पंचमहाव्रत दुबर पारे । 'राग दोष परिणाम विडारे ॥ १॥ भव भयभीत शरण जे आये| ते परमारथ पन्थ लगाये ॥२॥ नो तुम नाम जपै मन माहिं। जन्म मरण भय ताको नाहि ॥ ४॥ समोशरण सम्पुरण सोमा। नीते क्रोष मान मद कोमा ॥५॥ तुम गुण हम कैसे कर गा। गणपर कहत पार नहिं पाई ॥ ६॥ करुणासागर करुणा की । धानत सेवकको सुख दीजै ॥ ७॥ . तीसरी आरती। . भारती कीने श्रीमुनिराजकी अषम उधारण मातमकामकी । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [४२३ ॥ टेक ॥ ना लक्ष्मीके सब भमिलाषी । सो साधनि कर्दम वतनाषी ॥१॥ सब जग जीव लियो जिननारी। सोसापनि नागनिवत छारी ॥९॥ विषयनि सब जियको चप्सकीने। ते सापनि विषवत तन दीनें ॥ ३ ॥ भुन्नों राज चहत संब प्राणी । जीरण तृणवत सागो ध्यानी ॥४॥ शत्रुमित्र सुख दुःख सम माने। लाभ भलाभ नरावर माने |॥ ५ ॥ छहों काय पीहर व्रत धारें। सबको माप समान निहारें ॥ ६ ॥ यह भारती पढ़े जो गावै । धानत मनवांछित फल पावै ॥ ७॥ चौथी आरती। किसविधि भारती करौं प्रभु तेरी । अगम अकथनस बुध नहिं मेरी ॥ टेक ॥ समुद्रविगै सुत रनमतिकारी । यौँ कहि थुति नहि होय तुम्हारी । कोटि स्वम्म वेदी छवि सारी । समोशरण युति तुमसे न्यारी ॥२॥ चारि ज्ञानयुत जिनकेस्वामी। सेवकके प्रभु अन्तरयामी ॥३॥ सुनिक वचन भविक शिव नाहि । सो पुदगल 'मैं तुमगुण मांहि ॥ ४ ॥ मातम नोति समान बताऊं । रविशशिदीपक मूढ कहावं. ॥ ६ ॥ नमत त्रिनगपति शोमा उनकी। तुम शोभा तुममें निन गुणकी ॥ मान सिंह महाराजा गावै । तुम महिमा तुमही बनि भावै॥ पांचमी आरती। यह विधि भारती करुं प्रभु तेरी । ममक अवाधित निन गुण केरी ॥ टेक ॥ अचक अखंड मतुल अविनाशी । लोकालोक सकल परकाशी ॥१॥ ज्ञान दरश मुख बक गुणधारी । परमातम मविकल अविकारी ॥२॥ क्रोष मादि रागादिक तेरे । जन्म Page #385 --------------------------------------------------------------------------  Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन सिद्धांतसंग्रह | [ ४२५ सो थिरता नहिं चंपक कहावें ॥ ६ ॥ धानत प्रीति सहित सिर नावें । जनम जनम यह भक्ति कमावें ॥ ७ ॥ T अष्टम आरती । -करो भारती वर्द्धमानकी । पावापुर निवारण थानकी ॥ टेक ॥ राग विना सब जगमन तारे । दोष बिना सब कर्म विदारे ॥ १॥ सील धुरन्धर शिव तिय भोगी । मन वच काय न कहिये योगी ॥१॥ रत्नत्रय निधि परिग्रहहारी । ज्ञानसुषा भोजन व्रतवारी शा लोक अलोक व्याप निनमाहीं । सुखमैं इन्द्री सुख दुःख नाहीं ॥ ४ ॥ पञ्च कल्याणक पूज्य विरागी । विमल दिगम्बर अम्बरत्यागी ||५|| गुणपुनि भूषण भूषण त्वामी । तीन लोकके अंतरयामी ॥ ६ कहैं कहां लो तुम सब जानो । द्यानतका अभिलाष प्रमानो ||७|| नवमी आरती | क्या ले आरती भगति करेंगी । तुम लायक नहि हाथ परैजी ॥टेक॥ क्षीर उदधिको नीर चढायौ । कहा भयो मैं भी . जलः लायो ॥१॥ उज्जल - मुक्ताफलसों पूनें । हमपै तन्दुक और न दूजे ॥ ९ ॥ कल्पवृक्ष फनफूल तुम्हारे । सेवक क्या ले भगति विथारे ॥ २ ॥ तनसु चंदन नगर न लागे । कौन सुगन्ध धेरें तुम आगे ॥ ४ ॥ नख सम कोटि चन्द्र रवि नाहीं । दीपक जोति कहो किह माहीं || ९ || ज्ञान सुधा भोजन वृतधारी । नेवद कहा करे संसारीं ॥ ६ ॥ चानत शक्ति समान चढावै । कृपा तुम्हारीसे सुख पावे ॥ ७ ॥ दशम आरती ! मंगळ मारती आतमराम । तन मंदिर मन - उत्तम ठाम Page #387 --------------------------------------------------------------------------  Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [४२७ जीव बचैया तुमही तो हो । अघव्याही राजुलको छोडी गिरके चढ़या तुमही तो हो । मात पिताकी कही न मानी तपके तपैया तुमही तो हो । राजुल रानी मन अकृशानी धीयवधैया तुमही तो हो ॥२॥ पार्सनाथ भगवान कमठके मान घटैया तुमही तो हो । जरत मगनसे नाग नागनीके उवरैया तुमही तो हो। -महावीर निन धीर. बीर भव पीर हरैया तुमही तो हो । चौबीसों भगवान महो भयकंद मिटैया तुमही तो हो । जैन धर्म प्रचार चलाया सृष्टि तरैया तुमही वो हो । अनंगनंते प्राणी भवसे पार करैया तुम ही तो हो ॥ मंत्र महान महान जगतमें या बतलैया तुमही तो हो ।णमोकार इस जगमें स्वामीजू पचरैया तुमही तो हो ॥३॥ कोड़ा. कोड़ी यही मंत्रसे पार तरैया तुमही तो हो । मागे मोल गये जप तपकर स्वर्ग दिवैया तुमही तो हो । भव सीझत निरधार प्रभू माधार वदैया तुमही तो हो। देस विदेस विहार कीन उपदेश करैया तुम ही तो हो ॥ शिव मारग दर्शाया तुमने धर्म बतैया तुमही.तो हो। पंथ कगाकर जग जीवनपर करुणा धेरैमा तुमही तोहो ॥ णमोकारका नोका करके मंत्र वतैया तुमही तोहो। जिन उद्धारक त्रिभुवन नारक रंक रखैया तुमही तो हो ॥॥ दोष मठारा त्यागके वारागुणके घरैया तुमही तो हो । मतिशय चौतिस दीखें न्यारे कर्म खिपैया तुमही तोहो ॥ कुमत रही जग छायः नवे तुम सुमत वतैया तुमही तोहो । कुमति नार पाखंड किया परचंड हटैया तुमही तोहो ॥ जग अज्ञान मिटाया तुमनें ज्ञान दिवया तुमही तो हो । तीर्थकर पदवीके धारी ज्ञान उपैया तुमही वो हो।नवर परी भीर भक्तनपैवाह गहेया तुमही वो हो। महाघोर Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८] जनसिद्धांतसंग्रह। उपसर्ग निताये छिनरके रखेया तुमही तोहो ॥५॥ कपी सिखरंसम्मेदके ऊपर मंत्र दिया तुमही वोहो| चम्पापुरमें ग्वालि वालको सेट करेया नुमही तोहो ॥ वैल नीव संघोष सुग्रीव ने भूप बनैया तुमही तोहो ॥ चहलेमें हथनी फंसी वाह उवरैया तुमही तोहो॥ . मानतुंग उपसर्ग बचाये वेड़ी कटैया तुमही तो हो । सीता प्रवसी अगनकुंडमें नीर करैया तुमही तोहो । मनोरमा पर विपदा भारी सील रखैया तुमही तो हो। सती अंगना नृत्य करत में स्वर्गदिवैया तुमही तो हो ॥६॥ अषम अंजना व्यसन कीनंपर चोर सरया तुमही तो हो । स्वान जीवको सेठ संबोधो पेन रखया तुमही तो हो । महाकुटिल चडाल मीनकू स्वर्ग दिवया तुमही तो हो । सती द्रोपदी धातु द्वीपमें पेन रखैया तुमही तो हो ॥ कोटीमट श्रीपाक सेठके कुट कटैया तुमही तो हो । धर्मचक्रके फलसे काया स्वर्ण करैया तुम ही तो हो ॥ सखा सातसौकी मसाबसन व्याध हटैया तुमही तो हो । जो यह मंत्र जपे तन मनसे पार करैया तुम ही तो हो || तन मनसे नर जो कोई ध्यावे ताह रैया तुमही तो हो । तेरा तीन हुए सब जैनी घोर्य वयातुमही तो हो। पांचों मेरे सोय अज्ञानी इन्है नगैया तुमही तो हो । घोरघटा मिध्यात छाय रव ताह हटैया तुमही तो हो। मूलत भटकत फिरत भुकानों राह लगैया तुमही तो हो || भामहं वारी नाथ हमारी विनय सुनैया तुमही तो हो ॥ यानगमे नहिं कोई सुनया वाह गहैया तुमही तो हो। फूलचंद जिन रंक धर्मका वंक दिया तुपही को हो ॥६॥ चोवीसों मिनरान प्रमूजी मरन सुनैया तुमही तो हो । भव सागर बिच नरकी नैया पार, लगैया, तुमही तो हो ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [ ४२९ (१०) भोजनोंकी प्रार्थनाएं | । ( सबेरेके भोजन समयकी इष्ट प्रार्थना ) परमेष्टी सुमरण कर हम सब बालकगण नित उठा करें। स्वस्थ होय फिर देव धर्म गुरुकी स्तुति सब किया करें | करना हमें. आज क्या क्या है यह विचार निज काज करें। कायिक शुद्धि क्रिया करके फिर जिन दर्शन स्वाध्याय करें ॥१॥ मौन धारकर तोषित मनसे क्षुधा वेदना उपशम हित । विकर्मके क्षयोपशम से भोजन प्राप्त करें परमित | हे जिन हो हित कर यह भोजन तनमन हमरे स्वस्थ रहें । मानस तमकर "दीप" उमंगसे निज परहितमें मगन रहें ॥ २ ॥ ( सांझ के भोजन समयकी इष्ट प्रार्थना ) जय श्री महावीर प्रभुकी कह अरु निम कर्तव पूरण कर । संध्या प्रथम मौन धारणकर भोजन करें शांत मनकर || परमित भोजन करें ताकि नहिं मालस अरु दुःस्वप्न दिखें । "दीप" समयपर प्रभु सुमरण कर सोधें जर्गे स्वकार्य लखें ॥ (११) नरकोंके दोहे | 'जनम थान सब: नरकमें, अन्ध अधोमुख जौन । घंटाकार योनावनी, दुसहवासदुख मौन ॥ १ ॥ तिनमें उप नारकी, तळं सिर ऊँपर पांव । विषमवज्ञ कंटकमई, परे भूमिपर आय ॥ २ ॥ जो विषैक बीळूसहंस, लगे देह दुख होय । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] जैनसिद्धांतसंग्रह। नरकघराके परसतें, सरस वेदना सोय ॥३॥ वहां परम पर वान भति, हाहा करते एम । ऊंचे उछलें नारकी, उपे तवा तिल जैन ॥ ४॥ . सोरठा-नरक सातवें माहि, उछलत योजन पांचसे । __ और मिनागम माहि, यथायोग सब मानिये ।।५।। दोहा-फेर भान भूपर परे, और कहाँ उडि नाहिं। छिन्नमिन्न तन मति दुखित, लोट कोट विकलाहि ॥ ६ ॥ सब दिश देख अपूर्व थल, चक्रित चित भगवान । मन सोचे मैं कौन ई. परो कहां मैं मान ॥ ७॥ कौन भयानक भूमि यह, सब दुख थानक निन्द । रुद्र रूपये कौन है, नितुर नारकी बन्द ॥४॥ काले वरण कराक मुख, गुंगालोचन धार। हुंडक डीक डरावने, करें मार ही मार ॥९॥ मुमन न कोई दिठिपरे, शरण न सेवक कोष । । ऐसो कछु मुझे नहीं, नासो छिन मुख होय ॥ १० ॥ होत विमंगा भवधि तब, निन परको दुखकार । नरक कूपमें भापको, परोनान निरधार ॥ ११ ॥ पुरव-पाप कलाप सब, भाप नाप कर लेयं । . तब विलापकी ताप तब, पश्चाताप करेय ॥ १२ ॥ मैं मानुष पर्याय परि, धन यौवन मदलीन। . अषम कान ऐसे किये, नरकवास मिन कीन ॥ १३ ॥ सरसों सम मुख हेतु, तब भयो लंपटी मान । वाहीको भब फल लगो, यह दुख मेरु समान ॥ १॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह ।.: [४३१ कंदमूल:मदमांस मधु, और अभक्ष्य अनेक | . मक्षनवश मक्षन किये, भटक न मानी एक ॥ १५॥ जल थल नम निलचर विविष, विलवासी बहु जीव । मैं पापी अपराध विन, मारो दीन मतीव ॥१६॥ नगर दाह कीनो निठुर, गांव नलाये जान । . मठवीमें दींनी भगिन, हिंसाकर सुख. मान ॥ १७ ॥ * अपनी इन्द्री लोभको, बोकी मृषा मलीन । कलपित अन्य बनायके, वहकाये बहु दीन ॥ १८ ॥ दाव घात परपंच सों, पर लक्ष्मी हरि लीन। .. छलवक हठरल द्रव्यबक, पर वनिता वश कीन ॥ १९॥ बड़त परिग्रह पोट सिर, घटो न घनकी चाह । ज्यों ईधनके योगसे, भगिन करे अति दाह ॥ १० ॥ विन छानो पानी पियो, निशि भुनी भविचार । देवद्रव्य खायो सही, रुद्र ध्यान उरधार ॥.९१ ।।.. कीनी सेव कुदेवकी, कुगुरुनिको गुरु मान । सिनहीके उपदेश सों, पशु हो मोहित मान ||२१॥ दियो.न उत्तम दान मैं, जियो न संयम भारः। पियो मूढ मिथ्यात मद, कियो न तप नग सार ॥ १३ ॥ नो घरनी ननदयाकरि, दीनी सखी निहोर। . .. मैं तिनसों रिस करि भषम, भाषे वचन कठोर ॥२४॥ करी कमाई पर जनम, सो भाई मुझ तीर। .. . हा हा भर कैसे धरों नरक घरामे धोर. ॥ २५ ॥ दुर्लभ नरमव पायके कोई पुरुष प्रधान।. : . Page #393 --------------------------------------------------------------------------  Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमिद्धांतसंग्रह। सब क्रोधी कलही सकल, सबके नत्र फुलिंग। दुख देनेको अधि निपुण, निठुर नपुंमक किंग ॥ ३८ ॥ कुंत कुषाण कमान शर, शकती मुगदर दंड । इत्यादिक आयुष विविध, लिये हाथ परचंड ॥ ३९ ॥ कहि कठोर दुरबचन बहु, तिल९ खडे काय | सो तबही ततकाल तनु. पारावत मिल जाय ॥ ४० ॥ फाटे कर छेर्ने चरण, भेदें परम बिचार । अस्थि बाल चूरण करें, कुचले चाम उपार ॥ १६ ॥ चीरें करवत काठ ज्यों, फार परि कुठार । । तोड़ें अन्तरमालिका, अन्तर उदर विदार ॥ ४ ॥ पर केल मेलके, पीसें घंटी घाल। तावें ताने तेलमें, दहे दहन पर जाल |॥ १३ ॥ परि पाप पटके पुइमि, झटक परस्पर लेहि । कंटक सेन मुवावहि, सूली पर दहि ॥ १४ ॥ घिस माटक रूखसो, वैतरणी ले जाहिं। धायक घेरं वसीटिये, किंचित करुणा नाहि ॥ .. || कई क्त चुचात तन, विह्व: भाजे ताम | परमत अन्तर नायके, करो बैठि विश्राम ॥ ४ ॥ तहां भयानक नारकी, घारि विक्रिया मेष । वाघ सिंह माहि रूपसों, दारे देह विशे॥ ४ ॥ अ सो .गाय गहि, गिरिसों ने गिराय । परे अनि दुमिपै, खण्ड २ खण्ड हो जाय ||८|| दुख मो कायर चित्त कर; हें शरण सहाय। . २० Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। वे मति निर्दय घात ही, यह अति दीनविषाय ॥१९॥ वण वेदननीकी करें, ऐसे कर विश्वास । सींचे खारे क्षार सों, ज्यों मति उपने त्रास ||५|| बेई जकड़ मनीर सो, खेचि खभते वाधि। . . सुधि कराय अघ मारिये, ताना भायुध साधि ॥ ५॥ मिन उद्धत अभिमान सों, कीने परमव पाप । तपत लोह भासन विष, त्रास दिखा थाप ॥ १२ ॥ वाती पुतली कोहकी, काय लगावें अंग। प्रीति करी मिन पूर्व भव, परकामिनके संग ॥ ५ ॥ कोचन दोषी नानिक, लोचन हिं निशक। मदिरा पानी पुरुषकों, प्यावे वो गाळ ॥ ५ ॥ 'मिन मंगन सों मघ किये, तेई छेदे नाहिं। पल भक्षण के पाप ने, नोड़ २ कर खाहिं ॥ १५ ॥ केई पाव वरकों, याद दिवावे नाम । कहि दुर्वचन अनेक विधि पर कोय संग्राम ।। ५६ । भये विक्रिया देह सों, बहु विधि मायुध जात । तिनही सो अतिरिस भरे, करें परस्पर घात ॥ १७॥ . सिथिल होय चिर युद्धते, दीन नारकी नामि । हिंसानंदी असुर दुठ, मान करावे ताम ||६८॥ सोरा-त्रिसिय नरक परयंत, मसुरो दीरघ दुःख है। . म.पो नैन सिद्धान्त, अमर गमन आगे नहीं ॥ १९ ॥ दोहा-इहि विधि नरक निवासमें, चैन एक पल नाहिं। सपै निरन्तर नारकी, दुख दावानल माहि ॥ ६॥ . Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। मार २.सुनिये सदा क्षेत्र महां दुर्ग। पहें व्यार ममुहावनी, भशुभ क्षेत्र सम्बन्ध ॥ ६ ॥ तीन नोकको नाज सब, नो भक्षण कर लेय । . . जो भी भूख न उपशमे, कौन एक कण देय ॥ ६ ॥ • सागरके जलसों नहां, पीवत प्यास न जाय | . लहे न पानी बूंद सम, दहे निरंतर काय ॥ ६ ॥ वात पित्त कफ भनित जे, रोग नात या बन्त । तिनके सदा शरीरमें, उदै मायु पर यंत्र ॥ ६ ॥ कटु तुंबीसों कटुक रस, करवतकी सम फांस। : निनकी मृतक मझार सो, मधिक देह दुर्वास ॥६५॥ योजन काख प्रमाण नहं, कोह पिंह गल जाय । ऐसी है पति उष्णता, ऐसी शीत मुभाय ॥ ६६ ॥ भडिल्ल-पंक प्रभा पर्यंत उष्णता भतिकही, धूम प्रभामें शीत उष्ण दोनों सही ॥ .. छटी सातवीं भूमिनि केवल शीत है, . ___ ताकी उपमा नाहिं महाविपरीत है ॥ ६७ ॥ दोहा-स्वान स्पार मंनारकी, परी कलेवर राम । मासनसा अरु रूधिरकी, कदौ नहाँ. कुवास ॥१८॥ ठाम १ अमुहावने, सेवक सेतरु मूर। • पैने दुख देने कठिन, कंटक कलि तक शूर ॥ ६९ ॥ और जहां मसि पत्रवन, भीम तरोधा खेत । जिनके दलं तरवारसे, लगत घावकर देत ।। ७.० ॥ वैतरणी सरिता समल, लोहित लहर भयान । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६] जैनसिद्धांतसंग्रह। वह क्षार श्रोणित भरी, मांस कीच पिन थान ॥७॥ पक्षी वायस गीष गण, लोहतुंड सोजेह । मरम विदारे दुख करें, चौथे चहुंदिश देह ॥७२॥ पंचेन्द्री मनको महा, जो दुखदायक जोग । ते सब नर्क निकेतमें, एक निन्द ममनोग ॥ ७३ ॥ कथा मपार कलेशकी, कहै कहालौ कोय । . कोटि नीमसे बरनिये, 1ऊ न पूरी होय ॥ ७ ॥ सागरगन्ध प्रमाण थिति, क्षण क्षण तीक्षण त्रास। ए दुख देखे नारकी, परवश परो निरास || ७५ ॥ नसी परवश वेदना, सहे नोय बहु भाय । सुवश सहे जो मंस भी, वो भवनक तरि नाय ॥७॥ ऐसे नरक नारकी, भयो भील दुठ भाव । सागर सत्ताईसकी, धारी मध्यम भाव ॥ ७७ ॥ सागर काल प्रमाण भव, वरणों औसर पाय । जिनसों नर्क निवासकी, थित वरनी जिनराय ॥७॥ (१२) जन्मकल्याणक पूजा। दोहा-दोष मठारह रहित प्रसु, सहित मुगुण छयालीस। तिन सबकी पूजा करों, माय तिष्ठ जगदीश ॥१॥ ॐ ह्रीं मष्टादशदोषरहितं षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईत्परमेष्टिन् ! मन मवंवर ! अवतर | संवौषट् । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनांसद्धांतसंग्रह। [४३७ ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईतपरमेष्टिन् । मत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदईपरमेष्टिन् ! भत्रममसन्निहितो भव भव वषट् । (धानतगयकृत नन्दीश्वर दीपाष्टककी चाल।) शुचिक्षीरउदधिको नीर, हाटक भृङ्गमरा । तुमपदपूनों गुणधीर, मेटो जन्मजरा ॥ हरि मेरुसुदर्शन नाय, निनवर न्हौन करें । हम पूनै इनगुण गाय, मंगल मोद धेरै ॥ १॥ ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुगसहित श्रीमद. इत्परमेष्टिने जन्मनरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।। केसर घनसार मिलाय, शीत सुगंधषनी । जुगचरनन चर्चा लाय, भव आतापहनी ॥ हरि मेरु मुदर्शन जाय, निनवर न्हौन करें। हम पूमैं इतगुण गाय, मंगल मोद धेरै ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणमहित श्रीमदहत्परमेष्टिने संसारातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।। मक्षत मोती उनहार, स्वेत सुगन्ध भरे। पाउं अक्षयपदसार, ले तुम भेंट धेरै ॥ ३ ॥ हरि० ॐहीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदइत्परमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।। वेल्हा जूही गुलाव, सुमन अनेक भरे।। तुम भेट घरों जिनराम, काम कलंक हरे॥, . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M Nam ४३८] जैन सिद्धांतसंग्रह। हरि मेरु मुदर्शन नाय, निनवर न्हौन करें। हम पून इतगुण गाय मंगल मोद घर ॥१॥ ॐ ह्रीं मष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदइत्परमेष्टिने कामबाण विध्वंशनाय पुप्पं निवपामीति स्वाहा। फेनी गोझा पकवान, सुंदर ले ताजे।। तुम मम धरों गुण खान, रोग छुधा भाजे । हरि मेक सुदर्शन जाय, मिनवर न्हौन करें। हम पूमैं इस गुण गाय, मंगल मोद धरै ॥५॥ ॐ ह्रीं मप्टादशदोपहित पट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईस्परमेष्टिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा। कंचन मय दीपक वार, तुम भागे लाऊ । मम तिमिरमोह छैकार, केवल पद पाउं॥ हरि मेरु सुदर्शन नाय, मिनवर न्हौन करें। हम पुनै इत गुण गाय, मंगळ मोद घरे ॥६॥ ॐ ही महादशदोषरहित षट्चत्वारिंशाणसहित श्रीमदहत्परमेष्टिने मोहधिकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । कृष्णागर तगरु कपुर, चूरसुगंध करों। तुम आगे खेवत मूर, वसुविष कर्म हरों। हरि मेरु सुदरशन नाय, जिनवर न्हौन करें। हम पूर्फ इत गुण गाय, मङ्गळ मोद धेरै ॥ ७॥ ॐ ही मष्टादशदोषरहित पटचत्वारिंशद्गुण सहित श्रीमद ईत्परमेष्टिने भष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीफल मंगरं मनार, खारक थार मरों। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [४३९ तुम चरन चढाऊ सार, ताफक मुक्ति वरों ॥ हरि मेरु सुदर्शन नाय, जिनवर न्हौन करें। हम पून इत गुण गाय, मङ्गल मोद धरै ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं भष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुण सहित श्रीमदईपरमेष्टिने मोक्षफलपाप्तये फलं निर्वपापीति स्वाहा । जल मादिक माठ भदोष, तिनका अर्घ करों। तुम पद पूनों गुण कोप, पुरन पद मु धरों ॥ हरि मेरु सुदरशन नाय, जिनवर न्हौन करें। हम पूजे इत गुण गाय, वदरी मोद धेरै ॥ ९॥ ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदईत्परमेष्टिने अनध्यपदपाप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । जयमाल। (जोगीरासा) जन्मसमय उच्छत्र करने को. इन्द्र शचीयुत पायो। विहको कछु वरणन करवेको, मेरो मन उमगायो। बुधि जन मोकों दोष न दीनो, थोरी बुद्धि मुकायो। साधू दोष क्षमै सबहीके, मेरी करौ सहायौ॥ १॥ (छन्द कामिनी-मोहन-मात्रा २०।) जन्म जिनरानको नहिं निन नानियों। • इन्द्र परनिंद्र सुर सकल भकुनानियों ॥ देव देवाङ्गना चालिय जयकारतीं। . शचिय मुरपति सहित करति मिन भारती ॥१॥ Page #401 --------------------------------------------------------------------------  Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। W Ite सप्त सुर वानीं । नृत्य तांडव करत इन्द्र पति छानहीं ॥ करत उच्छाहसों निनसु पद धारती । शचिय सुरपति सहित कर. ॥ १२॥ भव्य जन माय जिन जन्म उत्सव करें। आपने जन्मके सकल पातिक हर ॥ भक्ति गुरुदेवकी. पार उत्तारती । शचिय सुरपति सहित करति मिन भारती ॥ १३ ॥ धत्ता-निनवर पद पुमा भावसु हूना, पूरण नित आनँद भया । जयवंत सुहासा पूजौ, लाल विनोदी भाल नया ।। ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशगुणसहित श्रीमद. ईपरमेष्टिने पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा। चौपाई-मंगल गर्म समयमें जोय । मंगल भयो जन्ममें जोष । मंगल दीक्षा धारत जोय । मंगळ ज्ञान प्राप्तिमें जोय ॥ मंगल मोक्ष गमनमें नोय । इन्द्रन कीनौ हर्षित होय । जावू वार वारहौं सोय । हे प्रभु ! दीने मंगल मोय ॥ - इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलि क्षिपेत्) -202000 (१३) लघु पंचपरमेष्टी विधान। स्व० कवि चन्द्रनी कृत दोहा-श्रीधर श्रीकर श्रीपती, भव्यनि श्रीदातार । श्रीसर्वज्ञ नमों सदा, पार उतारन हार ॥१॥ अडिल्ल छंद-चार घातिया कर्म नाशि केवल लयो। . समोशरण तहां धनद भाय सुंदर ठयो । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] जैनसिद्धांतसंग्रह। चौतिस पतिज्ञय भष्ट पातहारन मये । चार चतुष्टय सहित सुगुण छयालिम लये ॥ ९ ॥ कर विहार मवि जीवन पार लगाइये। नथ अघातिय चार सो शिवपुर भाइये ॥ निनके गुण सु अनंत कहां वर्णन करों। वसु गुण हैं व्यवहार सिड युति उच्चरों ॥३॥ सोरठा-श्रीमाचारज जान, धात सदा माचारको । छत्तिस गुण पावान, बन्दों मन बच कायकर ॥ १ ॥ दोहा-पचिस गुण उवझायके, ते धारे वर वीर। पढ़ें पढ़ावें पाठ वर, निर्मक गुण गम्भीर ॥ ५ ॥ वीस पाठ गुण धारका, साधे साधु महन्त । नीवदया पालें सदा, नहीं विराचे नन्त ॥ ६ ॥ चौपाई-ये ही पंच परमगुरु नानो । या नगमें मन्य न मानो। जिन जीवन इन सुमरन कियो । सुर शिवथान नाय तिन लियो। जो प्राणी मन वच तन ध्यावें । सिंह व्याघ्र गम नाहिं सतावे । जो मनमें इन सुमरन लावे । ताहि मप्त भय नाहिं सतावें ॥९॥ दोहा-यही इष्ट उत्कृष्ट अति, पूजों मन रच काय । थापत हों त्रय वारकर, विष्ठ विष्ठ इत माय ॥१०॥ ॐ ह्री पंचपरमेष्टिनोऽत्रागच्छगच्छ संवौषट (माहाननं ) ॐ ही पंचपरमेष्टिनोऽत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (पतिष्ठापन) ॐ ही पंचपरमेष्ठिनोऽत्र मम संनिहितो भव भव वषट् स्वाहा (सन्निधापनम् ) Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRNA जैनसिद्धांतसंग्रह । [.४४३ गीता छंद। नक सरस गंग संगको, शुचि रंग सुन्दर लाइये । कंचन कटोरी माहि भर, जिनराम चरन चढ़ाहये । ये पंच इष्ट अनिष्ट हाता, दृष्टि लगत सुहावने । मैं जनों आनंदकन्द, लखकर, दन्द फ द मिटवने ॥ ॐ ही पंचपरमेष्ठिम्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ लै गारि मलयागिरि सु चन्दन, मति सुगंध मिलायके । मैं हर्षकर जिनचरण चरचों, गाय साज बजायके ये पंच०॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिम्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ ले सरम तंदुल खंड विनसित, सालिके वर मानिये । मल घोय थार सँजोय पूनों, मखयपदको ठानिये ॥०॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपामेष्ठिम्योऽसतानिपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ वेला चमेली केवड़ा, मचकुन्द सुमन सुहावने । ले केतकी कमलादि अर्ची कामवान नसावने ॥ ये० ॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिम्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ • लाडू पुभा पेड़ा रु मिश्री, खोपरा खाना बने। घर हेमथाक मझार पुनों, क्षुधारोग निवारने ॥ ये॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिम्यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ ले दीप मणिमय ज्योति जगमग, होत मधिक प्रकाशनी। कर आरती गुण गाय नाचों, मोह तिमिर विनाशनी ये॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिम्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कर चूर अगर कपूर ले, भरपूर जास सुवासकी I . खेळ सु अगन मझार होकरके सु सन्मुख नासकी नाये॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | ८ ॥ ॐ ह्रीं श्रमेष्टम्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥] फलसम्म सुख दातार, तन मन धोय नळसे लीजिये । घर थल मध्य सु भक्ति, जिनगन चाण जर्ज निये ॥ये ० ॥ ॐ ह्रीं पंचमेष्ठभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ले नीर निर्मल गन्ध अक्षत सुमन अरु नैवेद्य जी । मिक दीप धू' सु फळ भले, घर भाघ परम उम्मेदनी ॥ | ये ० ॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेम्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ रोड़क छंद - विधि अरब संजोय जोय जे पंच दृष्ट वर । पूजों मन हुन्साय, पांय जिन प्रीति हृदय घर || तुम सम अन्य न ज्ञान, नानि तुम्हरे गुण गाऊ । घर थात्रीक मध्य सो, पूरण भरघ बनाऊं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपचपरमेष्ठिम्यो पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥१०॥ श्री अरहंत गुण पूजा । सोरठा छयालिस गुण समुदाय, दोष अठारह तारते । मरिहत शिवसुखदाय, मुझ तारो पूजों सदा ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अस्परमेष्ठिने पट्चत्वारिंशद्गुणविभूषिताय अष्टादशदोषरहिताय श्रीजिनाय अर्ध निवणमीति स्वाहा || - TOP छंद मोतियदाम | जिनके नहि खेद न स्वेद कहा | तन श्रोणित दुग्ध समान महा ॥ प्रथमा संस्थान विराजत है । वर वज्र शरीर सु रामत हैं ॥ १ ॥ छवि देखत भानु प्रताप नसे। उनसे सु सुगन्ध महा निकसे ॥ शव लक्षण अष्ट विराजत हैं । प्रिय चैन सबै हित छाजत हैं ॥२॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सिद्धातसंग्रह । [ ४४५ दोहा - तन मल रहित मतुल्य बळ, भारत हैं मिनराज ॥ ये दश अतिशय जनमके, भाषे श्रीगणराज ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं सहनदशातिशयप्राप्ताय श्रीजिनाय वर्ध नि० ॥ पडरी छंद । केवल उपजे अतिशय सुजान । सो सुनो भव्य जन चित्त मान ॥ शत योजन चारों दिशा माहिं । दुर्भिक्ष तहां दीखे सो नाहिं ॥४॥ माकाशगमन करते जिनेश । प्राणीका घात न होय लेश ॥ कवला महार नाहीं करात । उपसर्ग विना दीखे सो गात ॥ १ ॥ चतुरानन चारों दिशा जान । सब विद्याके ईश्वर महान || छाया उनकी नाहीं सो होय । टिमकार पर्कक लागे न कोय ॥१॥ नख केश वृद्धि ना होंय जास। ये दश मतिशय केवळ प्रकाश ॥ तिनको हम बन्दें शीसनाय । भव भवके अघ छिनमें पलाय ||७|| ॐ ह्रीं केवलज्ञान जन्मदशा तिशय सुशोभिताय श्रीजिनाय अर्ध ॥ चौबोला- जब देवनकृत चौदह अतिशय, सो सुन लीने भाई । सकल परथमय मागधि भाषा, सब जीवन सुखदाई ॥ मैत्रीभाव सकल नीवनके, होत महां सुखकारी । 'निर्मल दिशा उसें सब ओरी, उपजे आनंद भारी ॥८॥ अरु निर्मल आकाश विराजत, नीळवरन तन घारी । . ! 3 षट्ऋतुके फल फूल मनोहर, लगे दुमकी डारी ॥ दर्पण सम सो धरनि तहाँकी, अति जिय आनंद पावे । निष्कंटक मेदनि विराने, क्यों कवि उपमा गावे ॥९॥ मन्द सुगन्ध वयारि वृष्टि, गन्धोदककी चहुँपाई । हरषमई सत्र सृष्टि विराजे, आनंद मंगलदाई ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w ४४६] जैनसिन्दांतसंग्रह। चरण कमळ तक रचत कमक सुर, चले जात मिनराई। मेषकुमारोंकृत गंधोदक, वरसे पति सुखदाई ॥१०॥ चड प्रकार सुर नय नय करते, सब जीवन मन भावे । धर्मचक्र चक भागे प्रमुके, देखत भानु लनावे ॥ वसु विधि मंगलद्रव्य धरी, वहाँ देखत मनको मोहे । विपुल पुण्यका उदय भयो है, सब विभूतियुत सोहे ॥११॥ दोहा-ये चौदह देवन सु कत, भतिशय कहे वखान । इन युत श्रीभरहंतपद, पूनों पद सुख मान ॥ १२ ॥ ॐ ही सुरकृतचतुर्दशातिशयसंयुक्ताय श्रीनिनाय मध नि०॥ लक्ष्मीधरा-पातिहार्य बसु मान, वृक्ष सोहे अशोक नहीं। पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, सुर ढोरें सु चमर तहां ॥ छत्र तीन सिंहासन, भामण्डल छवि छाने । बनत दुदुमी शब्द श्रवण, सुख हो दुख भाजे ॥१६॥ ॐ ही मष्टविधिप्राविहार्यसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घ नि.॥ चौपाई-ज्ञानावणी करम निवारा, ज्ञान मनन्त तवै जिन धारा। नाश दर्शनावरणी सुरा । दरशन भयो अनन्त सु पूरा ॥ १४ ॥ दोहा-मोह फर्मको नाशकर, पायो सुक्ख अनन्त । . अन्तरायको नाशकर, बल अनन्तं प्रगटन्त ॥ १५ ॥ ॐ ह्रीं-मनन्तचतुष्टयविराजमानश्रीजिनाय अब नि० ॥ पाईता छंद-मतिशय चौतीस बखाने वसु पातहान शुभ जाने। पुन चार चतुष्टय लेवा । इन छयालिस गुण युत देवा ॥ १६॥ . ॐ हीं षट्चत्वारिंशदगुणसहिताय श्रीनिनाय अर्घ नि.॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह | श्री सिद्धगुण पूजा । अड़िल - दर्शन ज्ञानानन्त, अनन्ता बक कहो । सुख अनन्त विलसंत, सु सम्यकू गुण- कहो ॥ अवगाहन सु अगुरुघु अव्यावाघ है । इन वसु गुण युत सिद्ध, नजों यह साध है ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणविशिष्टाय सिद्धपरमेष्ठि ऽर्घ नि० ॥ श्रीआचार्य पूजा । दोहा - आचारन आचारयुत, निज पर मेद लखन्त । तिनके गुण षट्तीस हैं, सो जानो इमि सन्त ॥ १ ॥ बेसरी छंद । उत्तम क्षमा धरे मन माहीं । मारदव घरम मान निहिं नाहीं ॥ आरजव सरल स्वभाव तु नानो। झूठ न कहें सत्य परमानो । निर्मक चित्त शौच गुण घारी। संम गुण घारै सुखकारी ॥ द्वादश विधि तप तपत महंता । त्याग करें मन वच तन संता ॥ तन ममत्व आकिंचन पालें 1 ब्रह्मचर्य घर कर्मन टालें ॥ ये दश धरम घरें गुण भारी । माचारज पुत्रों सुखकारी ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं दशलाक्षणिकघर्मधारकाचार्य परमेष्ठिने. अर्ध नि० ॥ बेसरी छंद । . · अब द्वादश तप सुनिये भाई, अनशन ऊनोदर सुखदाई ॥ व्रतपरिसंख्पा रस नहिं चाहें। विविक्तभैध्यापन अवगाहें ॥ १ ॥ कायक्लेश सहें दुख भारी, ये छह तप बारह गुण धारी ॥प्रायश्चित्त लेवें गुरु शाखें । विनयभाव निशिदिन चित राखें ॥६॥ [ : ४४७ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | दोहा - वैयावृत्य स्वाध्यायकर, कायोत्सर्ग सु मान । ध्यान करें निम रूपको, ये बारह तप मान ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं द्वादशविचितपोयुक्ताय आचार्य परमेष्ठिने अर्थ नि० ॥ लक्ष्मीधरा छंद । प्रतिक्रमण ये करें सो कायोत्सर्ग ये ठाने । समताभाव समेत, बंदना नित मन माने ॥ स्तुति करें बनाय गाय, स्वाध्याय सुनीको । • षटू आवश्यक क्रिया, पापमळ घोय यतीको ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं षडावश्यगुणविभूषिताचार्य परमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ ज्ञानाचार सुधार, दर्शनाचार सु घारें । घर चारित्राचार, उपाचाहिं विस्तारें ॥ वीर्याचार विचार पंच आचार ये धारी । मन वच तन कर, बार बार वंदना हमारी ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं पंचाचार गुणविभूषिताया चार्य परमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ दोहा - श्री गुप्त पार्के पदा, मन अरु वचन सु काय 1 सो व द्रव्य सँजोयके, पूमों मन हुलशाय ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं त्रिगुप्तिगुणविभूषितायाचार्यपरमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ सोरठा - दश विधि धर्म सुजान, द्वन्दश तप षटू क्रिया घर । पंचाचार प्रमाण, तीन गुप्ति छत्तीस गुण ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य परमेष्ठिने पूर्णार्थं निर्वपामः ति स्वाहा ॥ श्रीउपाध्याय गुण पूंजा । दोहा - उपाध्याय गुण -चाणऊँ, पंच अरु बीस प्रमान | एकादश वर अग अरु, चौदह पूरव जान ॥ १ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । . सुन्दरी छंद । : प्रथम आचारांग सु जानिये । द्वितिय सुत्रकृतांग - वखानिये || तीसरा स्थानांग सो अंग जू । सूर्य समवायांग अभंग जू ॥ २ ॥ पंचमो व्याख्याप्रज्ञप्ति जू | उठ्ठम ज्ञातृध्या गुण युक्त ज़ू ॥ उपासकाध्यन अंग सो सप्तमो । अंग अंतकृतांग सु मष्टमो ॥३॥ दोहा - नवम अनुत्तर दशम पुन, प्रश्नव्याकरण जान | विपाकसूत्र सु ग्यारमो, धारें गुरु गण खान ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं एकादशांगपठनयुक्ताय उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ गीता छंद-जब चार दश पूरव प्रथम उत्पाद नाम सु मानिये । माग्रायणी बीर्यानुवाद सु, अस्तिनास्ति बखानिये ॥ ज्ञानःपवाद सु पंचमो, कर्मपवाद छट्टों कहो । सत्यमवाद सु संप्तमो, आत्मपवाद वसु कहो ॥ ९ ॥ पुनः नाम प्रत्याख्यान अरु, विद्यानुवाद प्रमाणिये । कल्याणवाद महन्त पूरव, क्रियाविशाल बखानिये ॥ वरलोकविंद मिलाय चौदह, सार ये पूरव कहे । , [ ४४९ ते घरें श्रीवाय तिनके, पूंमते शिवमग कहे ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश पूर्व पठनपाठन संलंग्नाथ उपाध्याय परमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ दोहा - ऐसे ग्यारह अंग अरु, चौदह पूरब मान । उपाध्याय मानें सुघी, सो पूजों रुचि ठान ॥ ७ ॥ श्री साधुगुण पूजा । दोहा - साधु तने मठवीसगुणं, सो घारें सुनिराज । मतीचार कागे नहीं, साधें मातम कान ॥ १ ॥ ૧ = - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनसिंह छंद । करें नादियानन्धर नीतिभिREFRI महाशी प्रारमहसुभकामही चमारी महासह ॐ हायव महानवधानाय साधुपामा REGITAL IF II fiss F TH E R FPIRHIPB AFE STREATERI RPF-T इपिय सोच, जिम जातियोकि तो nि सांचे मन जारी हे विधान को मारा मनमा शेषका - Thtm दोहा वर्णन पुराना सामान लिम माजी HTTE PR g IDEAR हिFP FER TEJणा ॐ चेद्रिययापारहिवास साधुममेशिकानि० ॥ ॥ अविकुमणा जादो मार्ग IIHIN F • HTA PHATHIYANKERMITTALPANE विकार मोति करना है, जो जमिन॥ सायाय नित pिध, अरुणानामानिमा ते ॐ ही पडाय परमेषित म नि०॥ I पडी मंदमFिE OF TAS सिर केशा ढुंचाकरमालान कारूविलवृति सिनापान ।. मलान नहीं करते सु वीर । म शयन करत ते महावीर ||७|| Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाशिबालापही सनदतनिस यानानमाहारा खड़े करने जान I हक वारसासन ला को जाननये सातको गुणा अविमहानता ही सप्तगणयुक्ताय साधुपस्मेलिने साधा नि | Fg दोपत्रमिहान समिति पिन इन्द्रीन्दपञ्चEPEE II FIP FINोणावश्यक सप्तभर भिष्ट बीस शुम सच FIFE {{ PIP F-ही सीधुपरमेष्टिने पुणधि निर्वामीसिवाहामा PE 11 FIP fH VEF जयमाला FEN Rai : Os पाहायची परमिट कार जी, ऋद्धि सिद्धिदात ARE "PEन गुणको ममालिका, नो भव्य चित धारी हा II EITE FIEEE FREE जिन HE TOPHET Es Asir Ek TIPREETIME EFFIF AF माहत मिल पाचार्य ज्ञान उहाहाय सिलमानों खाल्लाना नगर्ने इजा सम जहि औड कोयना देखें सम हराकर जगत सोय ॥१॥ शिजलायक शिवकायला आमसो कर्म नाशि शिवलोकना। शिवमग दस्थावत माप म यान मन वचन काय ॥ इक वार सुमरि शिम आगो ला ची बनाया जल एक कानुनमें ना जोमा संकट नाशेगानंहहोममाडीमा 8 महामंत्री नवकार मान । या सम न जगतमें मंत्र मान ॥ जग न मंत्र मंत्री हिलकासरियाना काय ॥५॥ रसकूप पड़ो इक पुरुषादी संचित्ति उपकार कीन ॥ यह मंत्र सुमरि मुस्कीकट कसकथाजगत विभावकीसा मनपुत्र कंकातामह महामंत्री अनार HAPP FR तन देह देव उपनो सुनाय । यह चारुदत्त उपकानाया ॥ - - Page #413 --------------------------------------------------------------------------  Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धांतसंग्रह। [ ४५३ याके सु फल धन धान्य सम्पत्ति. रूप गुण शुम पाइये। सुरपद सहन ही मिलत हैं, वतु कर्म हर शिव जाइये ॥ १९ ॥ (१४) श्री अहत पूजा । छप्पय-जय मरहंत महंत, त्रिनग-वन्दित अमिरामी। दोष गठारह रहित, सहित छयालिस गुणनामी । जगत चराचर लखत, हस्तरेखावत ज्ञानी । युक्तिशास्त्र भविरोधि बचन जिन परम प्रमानी ॥ हे महेन् । भव्य परमशरण ! पूज्य प्रमो! इत भाइये। मैं पूजन-हित उत्सुक खड़ो, दर्शन दे हर्षाहये । ॐ ह्री भष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुण सहित श्रीं महत्परमेष्टिन ! अत्र अवतर अवतर, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः । मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । द्रव्याष्टक। तुम परम पावन सुख सदन मन वन भ्रमत जगनन-शरण । तुम जन्म मरण नरा हरण नग जलधि-भवि तारण तरण ।। यह विरद सुन मायो शरण ले ममल मळ मवमल हरण । त्रयधार दे बहुभक्तिसे पूनों चरण मन शुचिकरण ॥ ॐ ह्रीं श्री महत्परमेष्टिने नन्मनरामृत्युंविनाशनाय नलं ॥१॥ तुम देव-इन्द्र नरेन्द्र कर वन्दित प्रभो ! मुखकन्द हो । भव पाप ताप निवारवेको तम्हीं अनुपम चन्द हो। Page #415 --------------------------------------------------------------------------  Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनादातसंग्रह तुम मम भाव मामला जायो AFTE : • IFFERHIR दर्शना जानसुख-विस्मयो जिपद न्यूटला, यह चित्त्या निर्मल निज होकर घुपखेऊ, एख: करन FPY PR शक्तिको मनो चरणमा कर्म जारि ईषत जल FE ॐ ह्रीं श्रीपसोधिने माटाकर्मदहनाम: Me !!rypt ETE मैं पुत्र लालमित्राला वाचा फलवाहत अमोDISPF PE II DATE जिसका नाम मोक्षामल चिसो ॥ तुमसालदार सुन बरामफल प्रायोशण DिI AR HINE का शिला चहाबहुमति She * मेलि मोक्षाफलमानायू, फुलं IAF FE तुमानात विषा होखिम परमुबहालवाला हो REET सुमिशालिक किरातुम्ही माहंत सत महान होना: Fr मैंपिकादमामिलायाध बताया- तुम चरण - Fr PRATE हो जाण शिवमुख क NEEFF . मी लाईनमोकिमुदमानाय sale ARRE INF FIयमानुEEP Firs Pr If अहित महासाकीममयो नहीं संतोFE ताते रचालयमा मा सुमो FTTET PE नालासंवारनहिला महल सहभा जय भावंड ख माली म सगरम- मामी जय इतिहासका चिहामना चन्द्र बंदिन जा पावन जय ईश्वरसमाजास भीतिलाश मखदासक, PF जय कुता विनियम-गण-विपिन निहायो Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। जय अरषस्वभाव शिवगामी, ऊहापोह विगत गुणवोमी ॥ . जय ऋषम शक्लेश विहीना, ऋषिगण नपत सुपद निन चना। जय एकान्त कुनय तमहारी, एक अनेकरूप अविकारी ॥ नय भोनस्विन तत्वकाशक, ओङ्कारतुव ध्वनि भ्रम नाशक। जय अंबरवत शुद्ध विरागी, अंतरवाह्य परिग्रह त्यागी । नय कल्याण कल्पतरु घोरा, कर्मसुभट बक नाशक वीरा । जय खगपति वंदितनिननामी, खकविधि हरण शरण नगस्वामी। जय गणेश तुम मुगुण अनंता, गणित न सुर गुर पाहिं अंता। जय धनहर्षसुधा वर्षावन, धनरस नग मष बाप नशावन ॥ नय चहुँगति दुख नाशक स्वामी, चमर दुरत चौसठ अभिरामी। जय छत्रत्रय शोभित ईशा, छरित होत गुण कहत मुनीशा ।। जय जगदीश जयति मिनदेवा, जन्मजलधि वारक स्वयमेवा । नय शपकेतु दलन मन भावन, शटित कर्म हन शिवपुर जावन ॥ नय टोत्कीर्ण सम ध्यानी, दरत दुःखपद नमत सुज्ञानी । जय ठहरत निमपद अविनाशी, उग्यो जगढ विस मोह विनासी । जय डरनेह मोह मद हीना, डगन मरत नम चलत मदीना। मय हन नन्म समय नगपाली, उरत सहसमठ कळस विशाली । नय तत्वार्थकोष दातारी, तरन तरंड भवोदधि वारी। जय थल मल नम मक्कि सहायक, थम्भ मुहद वृषके मुखदायक। जय दयाल दुख दकन अपारी, दर्शनीय अनुपम छबिधारी। भय धर्मेश भषम उद्धारी, धन्य साम्य वर्द्धन धन पारी॥ नय नब केवल कधि सुमोगी, नयनानंद नग्न संयोगी। नव परमातम परम प्रमानी, परमानंद प्रथम मुख दानी ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। । [४५७ जय फणिपति वंदित गुणमंडित, फन्द हरण मुखकरन अखंडित ॥ जय बलवीर विभाव विहीना, बर्द्धमान वद्धित गुण लीना जय भगवन्त संत मन रंजन, भव्य कमक रवि भ्रमतम भनन ॥ जय मङ्गलमयमंगल कारी, अगन मात्म निन निधि मुखकारी। नय यतिपति यश घर सुखरासी, यथाख्यात चारित्र प्रकाशी ।। जय रमेश रमणीय स्वरूपा, रत्नत्रयनिषिदायक भूपा। जय ललाम गुण धाम अनुपा, लक्ष्मीपति लक्षित चिद्रूपा ॥ जय यमुषा वत्सल मुनि भावन, वस्तु स्वभाव धर्म दर्शावन । जय शशिभविजन कुमुदविकाशी, शमकर मोह महातम नाशी ॥ जय षटभेदभाव विज्ञानी, षट्कर्तव्य निरूपक ज्ञानी । नय सर्वज्ञ सफल हितकारी, सन्शय विभ्रम मोह निवारी॥ नय हरिहर्षन साधु प्रवीना, हलघर हर गुण जपत नवीना। दोहा-क्षेमंकर त्रिपुरारि तुम, ज्ञायक त्रिजग महान । ___ गुण अनन्त गणधर अगम, "मणि" किम करै बखान || जे भव्य नित्य पवित्र होकर मष्ट द्रव्य मुल्यायकें । भगवन्त श्री मरहंतकी पूजा करें हरपायके । ते पुन्यनिधि संचय करें इस लोक यश मुख पायके । तप धार पुन सबकम हन निज थक वर्षे शिव मायकें। इत्याशीर्वादः। इति श्री पं० मुन्नालालजी महरोनी छत परहंत पूना संपूर्ण । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . th Fls रविवृतधाम चोपाई-श्री संखडायक पाजिलेय मुमति र दाता, परमेश। सुमरी, शारई ऐड परिवृन्दु । दिनकर वृत्त प्रगटी सांसद । जानारस नगरी र विशाल प्रनामाल पाटो मा !hair pre भतिसागर तहों के जान जालो मा को सामान : सामुत्रियां गणासुन्दरनाम सातपुत्र हा अमियम PTS FE पदाच गोग को पूरणीत बालरूप पूणा सविनीत HEN FR सहसा होमित जिनधाय । मापे पति पति इंडिल मा सुन मुनि आगम इपित भये । सई लोग इन्दनको, गये गुरु वाणी सुनके गुणवत्ती दिन वह जो की विनतो छ का करणानिधि भाष-मुनिराय। सुनो सुप तम चित्त लगायतका नई आमा सित वाडीले अतिम रविलाई ॥६॥ अनुशन अथवा घुहार। सुवादिलो हो परिहार Fort नव फल्युत पंचामृतमा । उस प्रकार हम MOHITE उत्तम फल यासीनान ना आवर दी writings याविधि, को नव का प्रमाण या होय माने कल्याण अयवा एक वर्षे इक सार । कीने रविवत मनहि विचार । सुन साहुन निन धाको महाकामिया निन्दित मई ॥९॥ वृतानिदासे ,निन भये साजन योजनाये वहां मिनदत्त सेठ गृह रहें । पूर्व दुःतका फल कहें ॥१०॥ मातपिता गृह दुःखित सदा अवधि सहित मुनि पूछे तदा। IFFBE D . 2 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAG AAAAAN ANMAA AAAAAA N wwwwww दयावंत मुनि दुकाही का मुंन (रुपचम बार प्रित जीव (ग्य विमान योडि भवि जन मुनी वा स हरहत विसदाशा एक दिवस मुवकिमीनियास कटिबाय र IS क्षुधावंत भावन पै गयो ।-दंत विना भोजन नहीं दयो ॥ १३ ॥ बहुरि, गये जहां मूलो दंत । देखों ताप्सों महि लिपटत ॥ फणिपतिकी तहं विनती करी । पद्मावती प्रगटी सुन्दरी ॥१४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ । प्रतिमा पंचरत्न शुम हाथ ॥ देकर करो कुंवर कर भोग । करो क्षणक पूना संयोग ।। १५ ॥ मानविंव निज घरमें घरो। तिहकर तिनको दारिद्र हरो॥ मुख विलसत सेवे सब जाति पनि पूनों पार्श्व मिनेन्द्र ॥१६॥ साकेता नगरी ममिरामालिसाचा शुम धाम || करि प्रतिष्ठा पुण्य संयोग मिलेर संग सो लोग ||१७|| संगचतुर्विधिको सम्मान | वियो याछित दान ॥ देख सेठ तिनकी सम्पदा मान तो तदा ॥ १८ ॥ भूपति तव पूंछो वृतान्त. या कामावर गुणवन्त ॥ देख सुलक्षण ताको रूप मायानन्द भयो सो भूप ॥ १९ ॥ भूपति ग्रह तनुना सुन्दरी | गुणधरको दीनी गुणभरी ॥ कर विवाह मंगल सानन्द । हय गन पुरजन परमानन्द ॥ २० ॥ मनवांछित पाये सुख भोग । विस्मित भये सकल पुर लोग ॥ सुखसे.रहत बहुत दिन भये । तब सब बन्धु बनारस गये ॥२१॥ : मात पिताके परसे पाय । अत्यानन्द हृदय न समाय ।। ' विगटो विषम विषय वियोग | भयो सकल पुरजन संयोग ॥१२॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जनसिद्धांतसंग्रह। माठ सात सोलहके मेक । रविवत कथा रची मकक थोड़े अर्थ अन्य विस्तार । कहें कवीश्वर नो गुण सार ॥२३॥ यह व्रत नोनर नारी करें । सो कबहुं दुर्गति नहिं परें। भाव सहित सो सब सुख नहें। मानुकीर्ति मुनिवर इमको ॥९॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- _