________________
रावण - दिग्विजय
कुछ ऐसे होते है स्वभाव, कुछ होती बेपरवाही है ॥ यह काम सदा ऐसे वैसे, बनते है औरो के द्वारा । निर्भय अब यहां पर जावां, और समझो अपना पौबारा ||
ह
दोहा
विभीषण की जब सुनी, रावण ने यह बात ! मानो स्वकुल के हुवा, गौरव का आघात ॥ रावण - स्वावलम्बी होते सदा, शूरवीर अवतार |
फिर योग्य अयोग्य का चाहिये जरा विचार || चाहिये जरा विचार लिया, क्यो तैने नीच सहारा । क्षत्रापन के गौरव को, यह है एक धब्बा भारा ॥ यदि वह सचमुच ही गई, तो कट जाय नाक हमारा ! शक्ति होते हुए धूर्त, जन की संख्या मे डारा || दोहा (विभीषण)
ना हमे नीच विचार है, ना कुछ गौरव हार । एक लाभ दूजे मिले, करना पर उपकार | शरणागत को शरणा देकर, कष्ट सदा हरजा चाहिये । जो स्वयं मिले लक्ष्मी आकर, तो उसे नहीं तजना चाहिये ॥ इसके प्रारो की रक्षा के, रक्षक हम कहलायेगे । फिर करवा देगे मेल परस्पर, दम्पति हिल मिल जायेगे || चक्र सुदर्शन आशाली, विद्या की हमको चाहना यदि चूक गये तो लाभ, अपूरब फेर हाथ नहीं आना है ॥ मरते विष के खाने चाले, व्यापारी कभी ना मरते है । द्रव्य काल अनुसार सदा, वह सभी कार्य करते है || इक लक्ष्य को सन्मुख रखते हुए, यहां हुआ हमारा आना है । अब साम दाम और दण्ड भेद, युक्ति से काम बनाना है ।