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वनवास कारण
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सभी यह महल सुख शय्या, मुझे शूलो के मानिन्द है। फिरू बन बन पिया सग तन, सुखाना ही मुनासिव है ॥३॥ पति बन जाय दुख भोगे मै, कैसे महल सुख भोग। पति के संग जी सुख, दुख उठाना ही मुनासिब है ।।४।।
दोहा उसको भय कैसे लगे, शीलवत जिस पास । जिस शक्ति से आ बने, देवन पति भी दास ॥ नमस्कार करके हुई, सीता झट तैयार महारानी पर मानो गिरा, आपत्ति का भार ।
आशा निराशा होय रानी शोक सागर मे पड़ी। नेत्रों मे आँसू बरसते जैसे कि श्रावण की झड़ी। देख कर यह दृश्य सखियाँ भी सभी रोने लगीं। परिचारिका आंसुओं से, अपना मुह धोने लगीं। बोली सभी कि प्रम भी ऐसा ही होना चाहिए । सब को आगे ऐसा ही पुण्य वीज बोना चाहिए ।। जैसा हर्ष था विवाह मे, वैसा हर्ष बनवास है। है सती पूरी नहीं छोड़ा, पति का साथ है ॥ सुख अवध के सब तज दिए एकदम से ठोकर मार के। सेवा करन को साथ ही वन मे चली भर्तार के ।
दोहा सीता का है पति से निश्चय प्रम अपार । दुनियाँ मे ऐसी सती विरली है दो चार ॥ धन्य जन्म इसका हुआ, धन्य मात और तात । धन्य जिसे व्याही उसे, धन्य विदेही मात ॥