Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 527
________________ परिशिष्ट : वैदिक साहित्य की सूक्तियां | ४८५ वैदिक साहित्य की सूक्तियां आज और कल अद्धा हि तत यदद्य । अनद्धा हि यद् तच्छवः । -शतपथ ब्राह्मण २/३/१/२८ 'आज' तो निश्चित है और 'कल' अनिश्चित है । उद्योगशीलता उत्थानेनैधमेत्सर्वमिन्धनेनैव पावकम् । श्रियं हि सततोत्थायी दुर्बलोपि समश्नुते ।। -कामन्दकीय नीतिसार १३/8 जैसे ईंधन डालने से अग्नि की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ करने से ही सबकी उन्नति होती है । निरन्तर उद्योगशील मनुष्य निर्बल होने पर भी लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है। कर्म यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि । -तैत्तिरीयोपनिषद् १/११ दोषरहित कर्मों का ही आचरण करना चाहिए, अन्यों का नहीं। कार्यनाश नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थं, न क्लीवा न च मानिनः । न च लोकापवादभीताः, न च शश्वत् प्रतीक्षिणः ।। आलसी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते, न क्लीव (साहसहीन) और न अभिमानी ही । लोकापवाद से भयभीत और दीर्घसूत्री (लम्बे समय तक सोचने और प्रतीक्षा करने वाले) भी लक्ष्य प्राप्ति में विफल हो जाते हैं। निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति, व्यसनं चाधिगच्छति ॥ -वा. रा. सु. कां. २/६ __ निरुत्साही, दीन और शोक से व्याकुल मनुष्य के सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं और वह आपत्ति में पड़ जाता है। दोष सर्वमतिमात्रं दोषाय । -उत्तरामचरित ६ सभी वस्तुओं की अति दोष उत्पन्न करती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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