Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 536
________________ ४६४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन धनी और निर्धन भले बंस को पुरुष सो निहुरै बहुधन पाय । . . नवे धनुष सदवंश को जिहिं द्वै कोटि दिखाय॥ -वृन्द सतसई ६२१ निज सदनहँ नहिं मान हीं, निरधन जन को कोय । धनी जाय पर घर तऊ, सुर सम पूजा होय ।। -दृष्टान्त तरंगिणी ३६ जाके अनुदिन अनुसरत जन मन विकसत जात । वर विचार उर विमलता विलसि विलसि अधिकाय ।। पावत जाते मनुज हैं भूत प्रेत को पंथ । कहत धर्म ताको विबुध निरखि सकल सद्ग्रन्थ ।। -सदाचार सोपान ११६-१२० रतनावलि धरमहिं रखत, ताहि रखावत धर्म । धरमहिं पातति सो पतति, जेहि धर्म को मर्म ।। ___--रत्नावली दोहावली ८० नम्रता . नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोय । जेतो नीचो ह चले तेतो ऊँचो होय ।। -बिहारी सतसई, पृ. ६४२ नारी नारी निन्दा मत करो, नारि स्वर्ग की खानि । नारी ही ते होत हैं, ध्र व प्रहलाद समान ।। __-अज्ञात कवि नारी की निन्दा करो, नारि नरक की खान। . .. नारी ही से होत हैं, रावण कंस समान ॥ -अज्ञात कवि नारी है सद्रत्न ध्यान से देखिए। वीरांगना है उसे शक्तिमय लेखिए । -रामचरित उपाध्याय, सरस्वती, भाग १८, संख्या ६ १ स्वर्ग आदि उच्च योनि में जन्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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