Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 541
________________ परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य को सूक्तियां | ४६६ लाज नर भूषन सब दिन क्षमा, विक्रम अरि घनघेर । त्यों तिय भूषन लाज है, निलज सुरत की बेर ।। -वृन्द सतसई, पृ० २१२ लोभ लोभ सरिस अवगुण नहीं, तप नहीं सत्य समान । -गिरिधर दास, कविता कौमुदी, भाग १, पृ० ४६३ लोभ लगै जग में सुप्रिय, धरम न तैसे होय । महिषी पालत छीर हित, तथा न कपिला होय ।। .. -दीनदयाल, दृष्टान्त तरंगिणी, ४६ वक्र टेढ़ देख संका सब काहू, वक्र चंद्रमहिं ग्रसै न राहू । -तुलसी : रामचरित मानस बसै बुराई जासु तन, ताही को सन्मानु । भले भले कह छाँड़िये, खोटे ग्रह जप-दानु ।। --बिहारी सतसई विद्या विद्या बिनु सोहे नहीं, छबि जोबन कुल मूल । रहित सुगन्ध सजै न वन जैसे सेमल फूल ।। -दृष्टान्त तरंगिणी १२० विश्वास सिद्ध होत कारज सबै, जाके जिय विश्वास । -वृन्द सतसई, पृ० ५२७ जग परतीत बढ़ाइये, रहिए साँचे होय । झूठे नर की साँच हू, साख न मानै कोय । ___-वृन्द सतसई ५८० वृद्धावस्था श्वेत बाल बतला रहे कितनी उज्ज्वल बुद्धि । रगड़ रगड़ हमने करी वर्षों इसकी शुद्धि ।। -नीति के दोहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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