Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 39
________________ す ( २१ ) 1 2 45 "डिल्यकी आज्ञा से पर्वतभी, लोकोंकों अच्छा करने लगा। इस तरेसें उपकार करके लोकोंकों अपने मतमें मिलाता जाताथा: तब तिस असुरने सगर राजाकों, तथा तिसकी राणीयोंकों बहुत भारी रोगादिकका उपद्रव करा, तबतो राजाभी पर्वतका सेवक बना पर्वतने शांडिल्य के साथ मिलकर तिसका रोग शांत करा, और पर्वतने राजाको उपदेश कराकि, हे राजन् ! सौत्रामणिनामा यज्ञ करके मद्यपान, अर्थात् ' शराब पीनेमें दोष नही है. तथा गोसवनामा यज्ञमें अगम्य स्त्री चांडाली आदि तथा माता, बहिन, बेटी आदिसें विषय सेवन करना चाहिये. - मातृ मेधमें माताका, और पितृमेधमें पिताका, वध, अंतर्वेदी कुरुक्षेत्रादिकमें करे तो दोष नही. तथा कच्छुकी पीठ ऊपर अग्नि स्थापन करके तर्पण करे, कदाचित् कच्छु न मिले तो, शुद्ध ब्राह्मणके मस्तककी टटरी ऊपर अग्नि स्थापन करके होम करे, क्यों: कि, टटरीभी कच्छुकी तरें होती है. तथा इस बात में हिंसा नही है. क्योंकि वेदोंमें लिखा है. “सर्ववै पुरुष वेदं यद्भूतं यद्भविष्यति ईशानोयं सृतत्वस्य यदन्नेना तिरोहति" इसका भावार्थ यह है कि, जो कुछ है, + 4 J ६ M

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