Book Title: Jain Gazal Gulchaman Bahar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ ( ११६ ) इसके वशवर्तियोंको किसी प्रकारकी भी शान्ति नही रहती अपितु क्लेशभाव, वैरभाव, ईष्यो, मत्सरता इत्यादि अवगुण धनसे ही उत्पन्न होते हैं और चित्तको दाह उत्पन्न करता है। प्रत्युतः कोई २ तो इसके वियोगसे मृत्युके' मुखमें जा बैठते हैं और असह्य दुःखोंको सहन करते हैं और जितने सम्बन्धि हैं वे भी इसके वियोगसे पराङ्मुख हो जाते हैं, और इसके ही महात्म्यसे मित्रोंसे शत्रुरूप बन जाते हैं, तथा जितने पापकर्म हैं वे भी इस धनके एकत्र करनेके लिये किये जा रहे हैं ।ध. नसे पतित हुए पाणि दुष्टकर्मों में जा लगते हैं। फिर यह परिग्रह रागद्वेपके करनेवाला है, क्रोध मान माया लोभकी तो यह वृद्धि करता ही रहता है, धर्मसे भी जीवोंको पाराङ्मुख रखता है। और धनके लालचियोंके मनमें दयाका भी प्रायः अभाव रहता है, क्योंकि न्याय वा अन्याय धनके संचय करनेवाले नहीं देखते हैं, वह तो केवल धनका ही संचय करना जानते हैं, और इसके लिये अनेक कष्टोको सहन करते हैं। किन्तु इस धनकी यह गति है कि यह किप्तीके भी पास स्थिर नही रहता । चोर इसको लूट ले जाते हैं, राजे लोग छीन लेते हैं, अग्नि और जलके द्वारा भी इसका नाश हो जाता है, सम्बधि वांट देते हैं तथा व्यापारादि क्रियायोंमें भी विना इच्छा

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375 376