Book Title: Jain Gazal Gulchaman Bahar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . TER জল অসুল হল অন্থাই MAP सर्ज-या हसीना बस मदीना, करबला में तूं न जा। गजल ( चोवीस तीर्थंकरों की स्तुति)। दिल चमन तेरा रहे, जिनराज का स्मरण किया । संसार से तिर जायगा, जिनराज का स्मरण किया ॥ टेर ॥ अव्वल, ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन है जवर । नाम लेते पाक हो. जिनराज का स्मरणया ॥१॥ सुगति, पत्र. सुपाय, चंदाप्रभू की सेवा का आवागमन मिट जायगा, मिनराज का स्मरण किया।॥ २॥ सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपुज्य जग में भानु सम । पिथ्यात्व अंधेरा मिटे, जिनराज का स्मरण किया ॥३॥ विमल, अनत, धर्म, शांतिनाथ नित्य शांति करे । आनन्द ही आनन्द रहे, जिनराज का स्मरण किया ॥४॥ कंधु, अरं, मलि मुनिसुन्नत सदा हृदय बसे। आशा पूर्ण हो तेरी, जिनराज का स्मरण किया ॥ ५ ॥ लमो अरिष्ट नेपी, भभु पार्थ मापीर सार है । सुरनर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कर जोड़ के, जिनराज का स्मरण किया ॥६॥ इन्हा अवतार ले, सत्य धर्म को प्रगट किया। चौथमल होवे सुखी, - जिनराज का स्मरण किया ॥ ७ ॥ ___ तर्ज पूर्ववत् । गज़ल सत्संग की। लाखों पापी तिर गए, सत्संग के परताप से । छिन में वेड़ा पार है, सत्संग के परताप ले ॥ टेर ॥ सत्संग का दरिया भरा, कोइ न्हाले इस में जानके । कटजाय तन के पाप सब, सत्संग के परताप से ॥ १ ॥ लोह का सुवर्ण पने, पारस के परसंग से । लट की भंवरी होती है, सत्संग के परताप से ॥२॥ रजा परदेशी हुवा, कर खून में रहते भरे । उपदेश सुन ज्ञानीबा , सतरांग के परताप से ॥३॥ संयती राजा शिकारी, हिरन के मारा था तीर । राज्य तज साधू हुवा, सत्संग के परताप से ।। ४ ॥ अर्जुन माला कारने, मनुप्य की हत्या करी । छः मास में मुक्ति गया. सत्संग के परताप से ॥ ५ ॥ एलायची एक चोर था. श्रेणिक नामा भूपति । कार्य सिद्ध उनका हुवा, सत्संग के परताप से ॥६॥ सत्सग की महिमा बडी, हैं दीन दुनियां बीच में । चौथमल बहे हो भता, सत्सग के परताप से ।। ७१, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३) तर्ज पूर्ववत्. गज़ल नवयुवकों की। उठो बादर कस कमर, तुम धर्म की रक्षा करो । श्री पीर के तुम पुत्र होकर, गीदड़ों से क्यों डशे ॥ टेर ॥ दुर्गति पडते जो प्राणी, को धर्म का आधार है। यह स्वर्ग मुवि में रखेगा, धर्म की रक्षा करो ॥ १ ॥ धर्मी घुरूप को देख पापी, गज स्वान वत् निन्दा करे । हो सिंह सुग्राफिक जवाब दो, तुम धर्म की रक्षा करो ॥ २॥ धन को देकर तन रखो तन देके रखो लाज को ! धन लाज, तन अर्पण करो, तुम धर्य की रक्षा करो ॥ ३ ॥ माता पिता भाई, जंवाई, दोस्त फिर तो डर नहीं । प्रचार धर्म से मत इटो, तुम धर्म की रक्षा करो ' ॥४॥ धैर्य का धरो धनुष्य, और तीर मारो तर्क का । कुयुक्ति __ खटन करो. तुम धर्म की रक्षा करो ॥५॥ धर्मसिद मुनि, लवजी नपि लोकाशार संकट सहा । धर्म को फैला दिया, तुम धर्म की रक्षा करों ।। ६ ।। शुरू के परसाद से, संह चौथ__ मल उत्साहियों । मत घटो पीछे कभी, तुम धर्य की रक्षा पारो ॥ ७॥ तर्ज पूर्ववत्. मजल नोजवानों के जगाने की। अर जवानों देतो जल्दी करके कुछ दिखलाइयो । उटेर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) अव बांधो कमर तुप करके कुछ दिखलाइयो || टेर | किस नींद में सोते पड़े, क्या दिल में रखा सोच के, बेकार वक्त मल गमावो, करके कुछ दिखलाइयो || १ || यश का डंका बजा, इस भूमि को रोशन करो । ऐश में भूलो मती, तुम कर के कुछ दिखलाइयो || २ || हिम्मत विना दौलत नहीं दौलव विना ताकत कहां | फिर मर्द की हुर्मत कहां, करके तो कुछ दिखलाइयो || ३ || द्विकारत की नज़र से, सब देखते तुम को सही । मरना तुम्हें इस से बेहतर, करके कुछ दिखलाइयो || ४ || जापान यूरप देश ने, कीनी तरक्की किस कदर | वे भी तो इन्सान है, करके तो कुछ दिखलाइयो || ५ || उठ के गफलत का पढ्दा, सुधारलो हालत सभी । इन्सान को मुश्किल नहीं, करके तो कुछ दिखलाइयो || ६ || जो इरादा तुम करो तो, बीच में छोडो मती । मज़बूत रहों निज कोल पर, करके तो कुछ दिखलाइयों ॥ ७ ॥ नीति, रीति, शान्ति क्षमा कर्त्तव्य में मशगूल रहो | खुद और का चाहो भला, करके तो कुछ दिखलाइयो || ८ || काम अपना जो बजाना, तो लोकों से डरना नहीं । उत्साह से बढ़ते चलो करके तो कुछ दिखलाइयो ॥ ६ ॥ सन्तान का चाहो भता रंडी नचाना छोडदो । वृद्ध, वाल विवाह बंद करो, करके तो कुछ दिखलाइयो ॥ १०॥ फिजूल खर्ची दो मिटा, मुंह फूट का काला करो | धर्म जाति उन्नति, करके तो कुछ दिखलाइयो || ११ || दुनियां अ 4 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) वल सुधर जा तो दीन कोई मुश्किल नहीं । चौथमल कई इस लिये करके तो कुछ दिखलाइयो ॥ १२ ॥ तर्ज पूर्ववत् । गजल नेक नसीहत की। दिल सताना नहीं रवा, यह खुदा का फरमान है । खास इबादत के लिये, पैदा हुवा इन्सान है । टेर ॥ दिल वडी है चीज़ जहां में, खोल के देखो चशम | दिल गया तो क्या रहा, मुर्दा तो वह स्मशान हैं ।। १ ॥ जुल्म जो करता उसे, हाकिम भी यहां पर दे सज़ा । मुआफ हरगिज़ होता नहीं, कानून के दरम्यान ॥२॥ जैसे अपनी जान को शाराम तो प्यारा तगे। ऐसे गैरों को समझ तूं, क्यों वना नादान है ॥३॥ नेकी का बदला नेक है, यह कुरान में लिखा सफा | मत बदी पर कस कमर, तूं क्यों हुवा वेईमान है ॥ ४ ॥ वे गुफ्तगु दोजख में, गिरफ्तार तो होगा सही। नहीं गिनती है वहां पर, राजा या दीवान है ॥ ५ ॥ वैठ कर तू तख्त पर गरीबों की तूं नही सुनी । फरिश्ते वहां पीटते, होता बड़ा हैरान है॥६॥ गले कातिले के वहां फेरायगा लेके छुरा । इन्सान होके नहीं गिनी कहो यह भी कोई जान है ।। ७ ॥ रहम को लाक जरा तुं, सख्त दिल को छोडदे । चौथमल कहे हो भला, जो इस त. रफ कुछ प्यान है ॥८॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0. (६) तर्ज पूर्ववत् । गज़ल कोष (गुस्सा ) निपेध पर । मादत तेरी गई बिगड़, इस क्रोधके परताप से। अजीज़ों को बुरा लगे, इस क्रोध के परताप से ।। टेर ॥ दुश्मन से बढ़ कर है यही, मोहब्बत तुड़ावे मिनिट में ? सर्प मुसाफिक डरे तुझसे, क्रोध के परताप से ॥ १ ॥ सलवट पड़े मुंह पर तुरव कम्पे मानिन्द जिन्दके ! चश्म भी कैसे बने. इस क्रोध के परताप से ॥२॥ जहर या फांसीको खा, पानीपड़ कई मरगये। बतन कर गये तर्क कई, इस क्रोध के परताप से ॥ ३॥ बाल बच्चों को भी माता क्रोध के वश फैंकदे । कुछ सूझता उसमें नहीं, इस क्रोधके परतापसे ॥ ४ ॥ चंडरुद्र प्राचार्यकी, मिसाल पर करिये निगाह । सर्प चंडकोसा हुवा इस क्रोध के परताप से ॥ ५॥ दिल भी काबू नहीं रद्दे, नुकसान कर रोता वही । धर्म कर्म भी नहीं गिने, इस क्रोध के परताप से ॥६॥ खुद जले,परको जलाये विवेक की हानि करे । सूख जाने सन उसका, क्रोध के परताप से ॥ ७॥ जनके लिये हँसना बुरा, चिरागको जैसे हवा । ज्यों इन्सान के हकमें समझ, इस कोध के परताप से ॥ ॥शैतानका फरजन्द यह और जाहिलों का दोस्त है । बदकार का चाचा लगे, इस क्रोध के परतापसे ॥ इबादत फाका कसी, सब रखाक में देवे मिला । दो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) जसका मुंह देखेगा, इस कोष के परताप से ॥ १० ॥ चाडाल से बदतर यही, गुरसा वडा हराम है । कहे चौथमल - कव हा भला, इस क्रोध के परताप से ॥ ११ ॥ तर्ज़ पूर्ववत् । गज़ल गरूर (मान) निषेधपर । सदा यहां रहना नहीं तूं, मान करना छोडदे 1 शहनशाह भी नहीं रहे तू मान करना छोडदे ॥ टेर ॥ जैसे खिले हैं फूल गुलशन में, अज़ीज़ों देखलो । आखिर तो वह कुम्हलायगा, तूं मान करना छोडदे ॥ १ ॥ नूर से वे पूर थे, लाखों उठाते हुक्म को । सो ख़ाक में वे मिल गये, तू मान करना छोडदे || २ || परशु ने क्षत्री हने, शम्भूम ने मारा उसे । शम्भूम भी यहां नहीं रहा, तूं मान करना छोडदे ॥ ३ ॥ कस जरासिंध को, श्री कृष्ण ने मारा सही । फिर जर्द ने उनको हना, तूं मान करना छोडदे || ४ || रावण से इन्दर दवा, लक्ष्मण ने रावण को हना । न वह रहा न वह रहा, तूं मान करना छोडदे || ५ || रब का हुक्म माना नहीं, अजाजिल काफिर बन गया । शैतान सब उसको कडे, तूं मान करना छोडदे || ६ || गुरु के परसाद से कहे, चौथगल प्यारे सुनो। लाजिजी सब में दडी, तूं मान करना छोडदे ॥ ७ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) तर्ज पूर्ववत् । गज़ल दगाबाज़ी (कपट) निषेध पर ।। जीना तुझे यहां चार दिन तूं दगा करना छोडदे । पाक रख दिल को सदा तूं दगा करना छोडदे ॥ टेर ॥ दगा कहो या कपटजाल फरेब या तिरघट कहो । चीता चोर कवानवत, तूं दगा करना छोडदे ॥ १॥ चलते उठते देखते, बोलते हँसते दगा । तोलने और नापने में, दगा करना छोडदे ॥ २ ॥ माता कहीं बहनें कहीं, पर नार को छलता फिरे । क्यों जाल कर जाहिल वने, तूं दगा करना छोडदे ॥३॥ मर्द की औरत बने, औरत का ना पुरुष हो । लख चोरासी योनि भुगते, दगा करना छोडदे ॥ ४ ॥ दगा से आ पोतना ने, कृष्ण को लिया गोद में । नतीज़ा उसको मिला, तूं दगा करना छोडदे ॥ ५ ॥ कौरवों ने पांडवों से, दगा कर जूवा रमी। हार कौरवों की हुई, तूं दगा करना छोडदे ॥६॥ कुरान पुरान में है मना, कानून में लिखी सज़ा । महावीर का फरमान है, तूं दगा करना छोडदे ॥ ७ ॥ शिकारी करके दगा, जीवों की हिंसा वह करे । मंजार और बुग कपट से हो, दगा करना छोडदे ॥८॥ इज्जत में आता फरक, भरोसा कोई नहीं गिने । मित्रता भी टूट जाती, दगा करना छोडदे ॥६॥ । लेजायगा, तूं गौर कर इस पर जरा । चौथमल Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) कहे सरल हो, तूं दगा करना छोडदे ॥ १० ॥ तजे पूर्ववत् । गज़ल सबर (संतोष) की। सवर नर को आती नहीं, इस लोभ के परताप से । लाखों मनुष्य मारे गये, इस लोभ के परताप से ॥ टेर ॥ पाप का वालिद वडा, और जुल्म का सरताज़ है। वकील दाजख का वना, इस लोभ के परताप से॥१॥अगर शहनशाह बने, सर्व मुल्क ताये में रहे । तो भी ख्वाहिश नहीं मिटे, इस लोभ के. परताप से ॥२॥ जाल में पक्षी पड़े, और मच्छी कांटे से मरे । चोर जावे जेल में, इस लोभ के परताप से ॥ ३॥ ख्वाब में देखा न उसको, रोगी क्यों नहीं नीच हो । गुलामी उस की करे, इस लोभ के परताप से ॥४॥ काका भतीजा भाई माई, वालिद या वेटा सज्जन । वीच कोर्ट के लड़े, इस लोभ के परताप से ।। ५ ॥ शम्भूम चक्रवर्ती राना, सेठ सागर की सुनो। दरियाय में दोनों मरे, इस लोभ के परताप से ॥ ६ ॥ जहां के कुल माल का, मालिक बने तो कुछ नहीं। प्यारी तज परदेश जा इस लोभ के परताप से ॥ ७॥ वाल वच्चे वेच दे, दुख दुर्गुणों की खान है। सम्यक्त्व भी रहती नहीं, उस लोम के परताप से 10 कहे चौथमल सत्तुरू वचन, संनोप इसकी हैं वा । और नसीहत नहीं लगे, इस लोभ के परताप मे || Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) तर्ज पूर्ववत् । गजल कुव्यसन निषेध पर। लाखों व्यसनी पर गए, कुव्यसन के परसंग से। अय अज़ीज़ो वाज आओ, कुव्यसन के परसंग से ॥ टेर ॥ प्रथम जूबा है बुरा, इज्जव धन रहता कहां। महाराज नल वनवास गए, कव्यसन के परसंग से ॥१॥ मांस भक्षण जो करे, उसके दया रहती नहीं । मनुस्मृति में लिखा, कुव्यसन के परसंग से ॥ २ ॥शराव यह खराव है इन्सान को पागल करे । यादवों का क्या हुवा, कुव्यसन के परसंग से ॥३॥ रबडी बाजी है मना, तुम से सुता उन के हुवे । दामाद की इंगिनती करे, कुव्यसन के परसंग से ॥४॥ जीव सताना नहीं रवा, क्यों कत्ल कर कातिल बने । दोजख का मिजमान हो, कुव्यसन के परसंग से ॥ ५ ॥ माल जो पर का चुरावे, __ यहां भी हाकिम दे सजा । श्राराम वह पाता नहीं, कुव्यसन के परसंग से ॥६॥ इश्क दुरा परनार का, दिल में जरा तो गौर कर । कुछ नफा मिलता नहीं, कुव्यसन के परसंग से ॥७॥ गांना चड़स चण्डू अफीम, और भंग तमाखू छोडदो । चौथमल कद्दे नहीं भला, कुख्यरन के परसंग से ॥ ८ ॥ तर्ज पूर्ववत् ।। गजल द्यूत ( जूवा ) निषेध पर । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) कदर जो चाहे दिला तूं, जूदा वाजी छोडदे। सर्व व्यसन (बदकार) का सरदार है, तूं जूवा बाजी छोडदे ॥ टेर। इश्क इसका है नुरा, नापाक दिल रहता सदा । रंज़ो गम की खान है, तू जूवा वाजी छोडदे ॥१॥ द्रौपदी के चीर छीने, पाएडवों के देखते । राज्य भी गया हाथ से, तूं जूवा बाजी छोडदे ॥ २ ॥ महान् राजा नल से, वनवास मे फिरते फिरे और तो क्या चीज़ है, तूं जूवा बाजी छोडदे ॥३॥ अङ्गल तेरी गुम करे, सत्य धर्म से करती जुदा । धनवान को निर्धन करे, तूं जूवा वानी छोडदे ॥ ५॥ मकान और दुकान जेवर, रखे गिरवे जायके । मा बाप जोरू नहीं कहे, तूं जूबा बाजी छोडदे ॥ ६॥ कई बाचे वन गये, कई कम उमर में मर गये । फ़ायदा कुछ भी नहीं, तू जूवा वाजी छोडदे ॥ ७ ॥ दुनियां का रहे नहीं दीन का, गुरू का रहे नहीं पीर का । नर जन्म भी जारे निफल, तं ज्वा बाजी छोडदे ॥८॥ गुरू के परसाद से, कहे चौथमल सुन तो जरा । मान ले आराम दोगा, जुदा वाजी छोडदे ॥ ६ ॥ ___ तर्ज पूर्ववत् । गज़ल गोश्त (मांस) निषेध पर । सस्त दिल हो जायगा तूं, गोरत खाना बोदडे । रहम फिर रहता नही तूं, गोरत खाना छोडदे ॥ टेर ॥ :-' Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) दिल में न रहें, तो रहेमान फिर रहता है कैच । वह बशर फिर कुछ नहीं, तूं गोश्त खाना छोडदे ॥ १ ॥ जिस चीज़ से नफ़रत करे, वह ही गोश्त का पैदाश है । वह पाक फिर कैसे हुवा, तूं गोश्त खाना छोडदे ॥२॥ गौ बकरे बैल भैंसा, लाखों कई कट गए । दूध दही महँगा हुवा, तूं गोश्त खाना छोडदे ।। ३ ॥ दूध में ताकत वंडी, वह गोश्वमें हैमी नहीं । पूँबले कोई डाक्टरों से गोश्त खाना छोडदे ॥ ४ ॥ गोश्त खोर हैवान का चिन्ह, मिलता नहीं इन्सान में। नेक स्वादी मत बने तूं, गोश्त खाना छोडदे ॥ ५ ॥ कुरान के अन्दरलिखा, खुराक आदम के लिये । पैदा किया गेहूं मेवा, तूंगोश्त खाना छोडदे ॥ ६॥ कत्ल हैवानात के बिना, गोश्त कहो कैसे मिले । कातिल निजात पाता नहीं, तूं गोश्तखाना छोडदे ॥ ७॥ जैन सूत्र के बीच में, महावीर का फरमान है । मांस आहारी नर्क जा तूं, गोश्त खाना छोडदे॥८॥ जिसका मांस खाता यहां, वह उसको वहां पर खायगा। मनु ऋषि भी कहगए, तूं गोश्त खाना छोडदे ।।९।। नफस हरगिज़ नहीं मरे, फिर इबादत होती कहां । चौथमल की मान नसीहत, गोश्त खाना छोडदे ॥१०॥ तर्ज पूर्ववत् । गजल शराब निषेध पर। अकल भ्रष्ट होती पलक में, शराब के परताप से । लाखों Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) धर गारत हुवे ( वरवाद हुवे ), शराव के परताप से ॥ टेर १६ शराबी शोख महा युरा, युदकी खबर रहती नहीं। जाना कहां भावे कहां, शराब के परताप से ॥ १ ॥ इज्जत और दानिशमदी, जिस पर दे पानी फिरा। धनवान कई निर्धन बने, शराबके परताप से ॥ २॥ वकते २ हँस पड़े और, चौंक के फिर रो उटे । वेहोश दो हथियार ले, शराव के परताप से ॥३॥ चलते२ गिर पडे, कपड़ा हटा निर्लज्ज बने । पविख्य भिनक मुंह पर करे, शराव के परताप से ॥ ४ ॥ जेवर को लेवे खोल लुचे, ले र से पैसे निकाल ! कुत्ते देवे मृत मुह पर, शराब के परताप से ॥५॥ इन्साफ को करते बदल जो, हज़ार की रक्षा करें। खुद की रक्षा नहीं बने, शराब के परताप से ॥ ६॥ कम उमर में मर गये, कई राज्य सजों का गया । यादवों का क्या हुवा इस, शराब के परताप से ॥ ७ ॥ नशे से पागल वने, पुलिस भी लेरे पकड । कानून से मिलती सज़ा, शराब के परताप से ॥८॥ घाट साने वह कमाये, खर्च रुपये का करे । चोरी को फिर वह करे, शराब के परताप से 116 || जैन वैष्णव, मुसलमान, अंजील में भी है मना । कई रोगी वनगये, शराब फे परताप से ॥ १०॥ चौथमल कहे छोडदे तू , मान ल प्यार अज़ीज़ । माराम कोई पाता नहीं, शरार के परनाए से ॥ ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) तर्ज पूर्ववत् । गजल रण्डीबाजी निषेध पर । __ अय जवानों मानो मेरी, रण्डीबाजी छोड दो। कपर का भंडार है, तुम रण्डीवाजी छोड दो ॥ टेर ॥ पोशाक उम्दा जिस्म पर सज, पान से मुंह को रचा । टेढ़ी निगाह से देखती तुम्हें, रण्डीबाजी छोड दो ॥१॥ धन होने किस कदर, इस चिन्ता में मशगूल रहे । मतलब की पूरी यार है । तुम रण्डीवाजी छोड दो॥२॥ काम अन्ध पुरुष को, मकड़ी के मुआफिक फांसले । गुलाम अपना बर बनावे, रण्डीबाजी छोड दो ॥३॥ विपय अन्ध होके सभी, बाह माल घर का सौंप दे। मतलब बिना आने न दे, तुम रण्डीबाजी छोड़ दो ॥ ४ ॥ इस की सोहबत में बड़ों का, बडप्पन रहता नहीं। पानी फिरावे आबरू पर, रण्डीबाजी छोड दो ॥५॥ सुजाक नहीं से सड़े, सुंह पर दमक रहती नहीं । कमजोर हो कई भरगए, नुम रण्डीबाजी छोड दो ॥६॥ भरोसा कोई नहीं गिने, धर्म कर्म का होता है नाश । चौथमत कहे अस रफीको, रण्डीवाजी छोड दो ॥ ७॥ तर्ज पूर्ववत् । गजल शिकार निषेध पर । साह दिल होजायगा, शिकार करना छोडदे । कातिल , Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) वने मत अय दिला, शिकार करना छोडदे ।। देर ।। या जुल्म कर जालिम बने, पापों से घट को क्यों भरे । दिन चार का जीना तुरं, शिकार करना छोडद ।। १ ।। लभर सांभर रोज़ हिरन, खरगोश जङ्गल के पशू । इन्सान को देखी डरे, शिकार करना छोडदे ।। २ ।। तेरा तो एक खेल है, और उसके तो जाते हैं गाण । मत सून का प्यासा पने, शिकार करना छोडदे ॥३॥ कसूरों को सतावे, खोप तूं ताता नही । वदला फिर देना पडे, शिकार करना छोडदे ॥ ४ ॥ जैसी प्यारी जान तुझको, एसी गरों की भी जान । रहम ला दिल में जरा. शिकार करना छोडदे ॥ ५॥ जितने पशु के हाल है, उतने जन्म कातिल पर । मनुस्मृति देखले, शिकार करना बदं ॥ ६ ॥ देवान आपस में लड़ाना, निशाना लगाना जान पा । इदीस में लिखा मना, शिकार करना बोडदे ॥ ७ ॥ गर्भवती हिरनी को, श्रेणिक ने मारा तीर से । पद ना के अन्दर गया, शिकार करना छोडद ॥ ८॥न से हानी नरक, श्रीवीर का फरमान है। चौथमल बोटे समक लं, शिकार करना होडदे ॥ ६ ॥ तर्ज पूर्वक गजल चोरी निषेध पर। राजन तेरी ए जायगी चोरी करना चोदई । मान - - - + Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ले मसहित मेरी, तूं चोरी करना छोडदे || ढेर || माल देखी गैर का, दिल चोर का आशक हुवे । साफ नियत नहीं रहे, तूं चोरी करना छोडदे || १३| निगाह उसकी चौतरफ, रहती है मानिंद चील के । परतीत कोई नहीं गिने, तूं चोरी करना छोडदे || २ || पुलिस से छिपता रहे, एक दिन तो पकड़ा जायगा । बैंत से मारे तुझे, तूं चोरी करना छोडदे ॥ ३ ॥ नापने में सोलने में, चोरी महसूल की करे । रिशवत भी खाना है यही, तूं चोरी करना छोडदे || ४ || इराम सों से कभी, श्राराम तो मिलता नहीं । दीन दुनियां में मना, तू चोरी करना छोडदे | ५ || नुकसान गर किस के करे तो, श्राह लगती है ज़बर | ख़ाक में मिल जायगा, तूं चोरी करना छोडदे || ६ || सबर कर पर माल से, हक बात पर कायम रहे । मल कहता तुझे, तूं चोरी करना छोडदे ॥ ७ ॥ तर्ज़ पूर्ववत् गज़ल परनार निषेध पर । लाखों कामी पिट चुके, परनार के परसंग से । मुनिराज कहे सब बचो, परनार के परसंग से ।। ढेर || दीपक की लो ऊपर, पड पतंग परता है सही। ऐसे कामी कट मरे, परनार के रसग से || १ || पर वार का जो हुश्न है, मानो अग्नि के सा । तन धन सन को होमते, परनार के परसंग से ||२|| Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१७) - - - - झूठे निवाले पर लुभाना, इन्सान को लाज़िम नहीं । सुजाक गर्मी से सडे, परनार के परसंग से ॥ ३ ॥चौरसो सत्ताणुवां कानून मे, लिखा दफा । सज़ा हाकिम से मिले, परनार के परसंग से ॥ ४॥ जैन" सूत्रों में मना, मनुस्मृति देखलो, कुरान बाइबल में लिखा, परनार के परसंग से ।। ५ ।। रावण कीचक मारे गए, द्रौपदी सिया के वास्ते । मणीरथ भर नके गया, परनार के परसंग से ।। ६ || जहर बुझी तलवार से, अबन मुल्जिम बदकारने । हजरत अली पर वहार की, परनार के परसंग से ।। ७। कुत्ते को कुत्ता काटता, कत्ल नर नर को करे । पल में मोहब्बत टूटती, परनार के परसंग से ॥ ८॥ किसलिये पैदा हुवा, अय बेहया कुछ सोच तूं। कहे चौथमल अब सब कर, परनार के पर संग से ॥६॥ तज पूर्ववत् । गज़ल (बद सोबत निषेध पर)।' अगर चाहे आराम तो, जाहिल की सोबत छोडदे ! मान ले नसीहत मेरी, जाहिल की सोक्त छोडदे ॥ टेर ।। अगर अक्लमन्द है, होशियार जो है तूं दिला। भूल के अखत्यार मत कर, जाहिल की सोबत छोडदे ॥ १॥ जाहिल से मिलता मत रहे, मानिंद शक्कर सार के। भाग' मुआफिक तीर के जाहिल की सोवत छोडदे ॥२॥ दुश्मन भी अक्लमंद बेहतर, होवे जाहिल दोस्त के । परहेज़गारी है भली, जाहिल ' Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) सोबत छोडदे ॥३॥ फेल रद के जाहिलो स, नेकी तो मिलती नहीं । सिवा कोल बद के नहीं सुने, जाहिल की सोवत छोडदे॥४॥रहम दिल का पाक पन, इबादत भी न हो। ईमान भी जावे बिगड़, जाहिल की सोबत छोडदे ॥ ५ ॥ जाहिल तो आखिर ए दिला, दोजस के अन्दर जायगा । नेक आकरत कम बने, जाहिल की सोबत छोडद ॥६॥ नशा पीना जुल्म करना, लड़ना लेना नीद का । गरूर प्रा. दत जाहिलों की, जाहिल की सोवत छोडदे ।। ७ ।। जाहिलपन की दवा मियां, लुकमान के घर में नहीं । सिविल सर्जन के हाथ क्या, जाहिल की सोचत छोडदे ॥ ८॥ गुरु के परसाद से, कहे चौथमल तूं कर निगाह । आलिम की सोवन कर सदा, जाहिल की सोबत छोडदे ॥४॥ तर्ज पूर्ववत् । गज़ल (कुसंप) फूट निषेध पर। लाखों घर गारत हुए, इस फूट के परताप से । सम्म गया इस देश से, इस फूट के परताप से ॥ टेर ॥ इल्म हुनर ईमान इज्जत, हमदर्दी गई कर विदा । हिंसक धृत कामी बने. इस फूट के परताप से ।। १॥ जहां सम्प वही सम्पति, जहां पूट यहां सम्प कहां । अज़ब लीला होगई, इस पृट के प से॥२॥ मोहताज दौलतमन्द हुए, कई राज्य राजों का इंडिया बरबाद हुवा, इस फूट के परताप से ॥३॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीमद्वीरायनमः॥ अथ चौबीसी पद, लिख्यते ॥ . . Team हाल उमादै भटियाणी ऐ देशी ॥ श्री आ दीस्वर स्वामी हो प्रणम सिरनामी तुम भणी।। प्रभु अंतरजामी आप मेोपर म्हैर करी जै है। मटी जै चिंतामन तणीमांस काटो पुरङ्कित पा प॥श्री आदीस्वर स्वामी हो प्रणY सिरनामी तुम भणी।।टेर॥१॥ आदि धरम की कीधी हो भर्तषेत्र सर्पणी काल मैं प्रभु जुगला धरम नि बार पहिला नरवर १ मुनिबर हो २ तिर्थकर३ जिनहूवा ४ केवली प्रभु तीरथ थाप्या चार Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ と 1 २ श्री ||२|| मामरू दिव्या थारी हो गज होदे मु क्ति पधारिया तुम जनम्या ही परमाण पिता नाभ म्हाराजा हो भव देव तणो कर नर थया प्रभु पाम्यां पद निरखाण || श्री ||३|| भरतादिक सौ नँदन हो वे पुत्री ब्राह्मी सुंदरी || प्रभु ए थारा अंग जात सगला केबल पाया हो समा या अविचल जोत में केइ त्रिभुवन में विष्या Y 'त || || श्री ॥ इत्यादिक वहू तारया हो जिन - कुल में प्रभु तुम ऊपना केइ आगम में अधि 'कार और असंख्या तारया हो ऊधारया सेवक आपरा प्रभू सरणाही साधार॥ श्राश्री || असंरण सरण कही जैहो प्रभु बिरधे विचारो सार्यवा केइ अहो गरीब निबाज सरणं तुम्हारी आयो होहु चाकर निज चरना तणो म्हारी सुखिये अरज अवाज॥६॥ श्रतः करुणा कर ठाकुर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो ॥ प्रभु धरम दिवाकर जग गुरू केइ भव दुषद्कृतटालंबिनयचंदने आपोहोप्रभु निजगुण पतसासतीप्रभूदीनानाथदयाला७श्री।इति।१।। ढाल । कुविसन मारग माथैरे धिग २॥ऐ देशो श्री जिन अजित नमौ जयकारी तुम देवनको देवजी जय सत्रु राजा नै बिजिया राणा को आतम जात तुमेवजी ॥१॥श्री जिन अजित नमौ जयकारी । टेर ॥ दूजा देव अनेरा जग में ते मुझ दायन आवैजी॥ तहमन तह चित्त हमने एक तुहीज आधिक सुहाबैजी ॥श्री।२। सेव्या देव घणा भव २ मेंतो पिण गरज न साराजी ॥ अबके श्रीजिन राज मिल्यौ तू पू रण पर उपगारीजी श्री। त्रिभुवन में जस उज्वल तेरो फैल रहा जग जानेजी। बंदनीक पूजलीक सकल को आगम एम बखानजी ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ || श्री | तूजग जीवन अंतरजामी प्राग आधार पियारोजी || सब विधिलायक सँत सहायक भगत बछल वृध थारोजी ॥ ५ ॥ श्री ॥ अष्ट सिद्धि नव निद्धि को दाता तौ सम अवरन कोईजी ॥ बधै तेज सेवक कौ दिन २ जेथ तेथ जिम - होईजी ॥ श्री ॥ ६॥ अनंत ग्यान दर्शण संपति ले ईश भया अधिकारीजी || अविचल भक्ति विदेओ तो जाणू रिझवारीजी श्रीश्रागत||२||ढाल || आज सारा पासजी ने चालो बँदन जइए | प्रदेश || आज म्हारा संभव जिनकै हित चितसू गुणगासां ॥ मधुर २ खर राग अलापी गहरे साद गूँजा सां राज || आ ज म्हारा संभव जिनके हित चित गुण गा सां । नृप जितास्थ सैन्या राणी तासृत. सेवक थासा ॥ नवधा भक्त भाव सौ करने Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B i प्रेम मगन हुई जासों राजं || आगाशी मन बच काय लाय प्रभु सेती निस दिन सास उ सास संभव जिनकी मोहनी मूरति हिये नि रंतर ध्यास्यां राज | ३ || आ०॥ दान दयाल दीन बँधव के खाना जाद कहासांतनधन प्रान समरपी प्रभु को इन पर बेग रिझासां राज|| आ ||४|| अष्ट कर्म दल अति जोरावर ते जात्यां सुख पात्रां ॥ जालम मोहमार कौ जानें साहस करी भगासां राजं || आ०||५|| जब पँथ तजी दुरगति को सुभगति पंथ सँभासां ॥ आगम अरथ तणे अनुसार अनु भवदसा अभ्यासांराज़ | आ०॥६॥काम क्रोध O } 4 ! मद लोभ कपट तजि निजगुणसुं लवलासां ।। पिनचंद संभव जिन तूठौ आवा गवन मिटा सांराज आ७इति ३ ढाला आदरजीवषीम्या t A Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण आदर । एदेशी। श्री अभिनंदन दुःष निकॅदन बँदन पूजन योज्ञजी श्री ॥ संबर राय सिधास्था राणी जेहनौ आतम जातजी प्रान पियारो साहिब सांचौ तुही जो मात नै तातजी ॥श्री।। २ ॥ केई यक सेब कर शंक की' केइ यक भजै मुरारिजी। गन पति सूर्य उमाकेई सुमेरे हूं सुमरूँ अविकारजी। श्री।देव कृपा सू पाम लछमी सौ इन भव को सुख जी। तो तूठा इन भव पर भव में कदे इन व्यापै दुःखजी ।।श्री॥४॥ जदपी इन्द्र नरिन्द्र निबाजै तदपी करत निहारजी। पुजनीक नरिन्द्रं इन्द्र को दीनदयालकृपालजी॥श्री।।५।। जब लग आवागमन न छूटे. तब लग करां 'अरंदासजी ॥ संपति सहित ग्यान समकित गुण पाऊँ दृढ बिसवासजी ॥श्री॥६॥ अधम Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधारन वृरुद तिहारो जोवी इण संसारजी।। लाज बिनचंद की. अब तो. भव निधिपार उतारजी|श्री।।इति।४॥ढाला श्री सीतल जि. न साहिबाजी ।। एदेशी। सुमति जिणेसर सा हिबानी।। मेगग्थ नृप नौ नँद ॥ सू मंगलामा, ता तणौजी तनय सदां सुख कंद॥१॥ प्रभू त्रि भवन तिलोजी | . .. आकडी . . . __ सुमति मुमति दातार ॥ महा महिमानि लोजी ॥ प्रण बार हजार ॥ प्रभु त्रिभुवन तिलोजी ॥२॥प्रभू० ॥ मधुकर नौ मन मोहि यौ जी।मालती कुसम सुवास॥त्यु:मुजमनमोटो सही ॥ जिन महिमा कवि मांस।।३।। प्रभु०॥ ज्यूँ पंकज सूरज मुखीजी ।। बिकसै सूर्य प्रकाश । त्यु मुज मनडों गह गहै । कबि जिन चरित, हुलासा॥४ाप्रभू०॥ पपइयो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीउ पीउ करजी । जान कृषारितु नेह ॥त्यू: मोमन निस दिन रहै ।। जिन सुमरन सूनेह ॥५॥प्रभु।। काम भोगनी लालसाजी थिरता न धेरै मन्न ।। पिण तुम भजन प्रतापथी ।। दाझै दुरमति बन्न ।।प्रभु भवनिधि पार.. उतारियजीभगत बच्छल भगवान।। विन.. दकी बीनती मानौ किरपानिधानाप्रइति। ढाल ॥ साम कैसै गज को फँद छुडायो एदेशी । पदम प्रभु पाबन नाम तिहारोट जदपि झावर भाल कसाई । अति पापिष्ट ज मारो ॥ तदापि जीव हिंसा तज प्रभु मज ॥ पावैभवदधि पारो॥१॥पदम।।गौ.ब्राह्मण प्रमदा बालक की।मौटी हित्याच्यारो।। तेहनोःकरण हार प्रभु भजन ।। होत हिया सुन्यारो ।। . सो पदमा वेश्यां चुगल चंडाल जुवारी ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार महाभट मारो ॥ जो इत्यादि भजे प्रभु तौने । ती नृवृतै संसारो ॥शा पदम०॥ पाप पराल को पुज बन्यौं अति ॥ मानू मेरु अकारो ॥ त तुम नाम हुताशन सती ॥ सह ज्या प्रजलत सारो॥४पदम।। परम धर्म को मरम महारसासो तुम नाम उचाराया. सम मंत्र नहीं कोई दूजो ॥ त्रिभुवन मोहन गारो॥५॥ पदम ॥ तो सुमरणः बिन इण कलजुग में ।। अबरन को आधारोमि बलि जाऊ तो सुमरन परादिन २ प्रीत बधारौ।। ॥शापदमाकुसमा राणी को अंग जात तुं॥ श्रीधर राय कुमारौ ॥ बिनचंद कहे नाथं निरं. जन जीवन प्रान हमारौ ॥७॥पद इति।।६।। ढाल ।। प्रभुजी दीन दयाल सेबक सरणे आयो ।' ' ' एदेसी : Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रतिष्ट सैन नरेश्वर कौसत प्रथवी तुम मह ( , तारी ॥ सगुण सनेही साहिब, सांचौ ॥ सेबक नं सुखकारी ||१|| श्रीजित राज सुपास पूरी आस हमारी ॥ - आकंडी 1 धरम काम धन मुक्त इत्यादिक । मन बां छित सुखपूरो || बार२ मुझ बिनती ऐही । भव भव चिंता चूरो ||२|| श्री जिन ॥ जगत सिरोमणि भगत तिहारी ॥ कल्प वृक्ष सम जा णु पूरण ब्रह्म प्रभु परमेश्वर भव भव तु पि छाणुं ॥ ३ ॥ श्रीजिन ॥ हूं सेबक तुं साहब मेरो || पावन पुरुष बिग्यांनी ॥ जनम जनम जित थित जाऊं तौ पाली प्रीति पुरानी |४| श्रीजिन ॥ तारन तरन अरु असरन सरनको बिरदइसो, तुम सोहै ॥ तो सम दीन दयाल जगत में इन्द्र नरिन्द्र न को है ॥ ५॥ श्री ॥ ' Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सँभरमण बडौ समुद्रौ मैं ॥ सैल सुमेरू बि: राज ॥ तू ठाकुर त्रिभुवन में मोटा ।। भगतः कियादुष भाजे ॥ ६ ॥ श्री जिन: ॥ अगम अगाचर तूं अबिनासी अलष अषड अरुपी॥ चाहत दरस बिनचंद तरो। सत. चित. आनँद सरूपी ॥ ७॥ श्री जिनराज सुपास. पूरो आस हमारी ॥ इति ॥७॥ - . . ढाल || चौकनी देशी ॥ 'जय जय जगत सिरोमणी हूँ सेबकने हूँ धणी ॥ अब तोसू गाढी बणी प्रभु आसा पूरौ हमतणी।१।। मुझ म्हर करौ।। चंद प्रभू जग जीवन अंतरजामी ।भव दुःष हरौ।। सु णिये अरज हमारी ॥ त्रिभुवन स्वामी टेर।। चद पुरी नगरी हतीहासन नामा नरपती तमुराणो।। श्री लषमी सती । तराँ नंदन तू Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चढती रती || मुझ|| सरबज्ञ महाज्ञातां || आतम अनुभव को दाता ॥ तो तूां लही यै सुखाता | धनं २ जे जग में तुम ध्यात |३| मुझ व्हर || सिब सुख प्राथना करसँ उज्वल ध्यान हिये घर || रसना तुम महिमा। करयूँ "प्रभु इम भवसागर से तिरसूँ |४| मुझे || चंद चकोरन के यनमें ॥ गाज अवाजहू वेचन में ||पय अभिलाखा ज्यों त्रियतनमें।। त्यां बसियो तँ यो चितवन में || ९ || जो सुनजर साहिब तरी ॥ तौ यांनी विनंती मरी ॥ काटौ भरम करम बेरी || पशु पुनरपिनहि परूभव फेरो || 1 |||| मुझे हर || आतम ज्ञान दसा जागी - तुम सेती मेरी लौ लागी । अन्य देव भ्रमला भागी || बिनैवंद तिहारी अनुरागी || ॥ मुझ हेर ॥ चंद प्रभु जग जीवन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरजामी भव दुपहरो ॥ इति ॥८॥ . . ढालाबुढापौ बैरी आवायो हो।कादी नगरी मली हो ॥ श्री सुग्रीवः नृपाल ॥ रामा तमु पट रागनी हो ।। तस सुत परम कृपाल || श्री मुविध जिणेसर बंदिये हो । . .. आँकडी! . __त्यागी प्रभुता राजनी हो.। लीधो सँजम भार ॥ निज़ आतम अनुभावधी हो। पाम्या प्रभु पद अविकार श्रीराअष्ट कर्म नो राजबाहो ॥ मोह प्रथम क्षय कीन ॥ सुध सम कित चारित्रनो हो । परम क्षायक गुणलीन ॥२॥ श्री|| ज्ञानां बरणी दर्सना बरनी हो। डाँतराय के अंताज्ञान दरसन बल येत्रिहूँ प्रगव्या अनंता अनँत ॥श्रीअवा बाह मुस्व पामीयाहौ । बेदनी करम क्षपायः ॥ अव Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहण अटल लहाहो ॥ आउ : करन श्री जिन राय ॥९॥ श्री० ॥ नाम. करम नौ क्षे करीहौ ।। अमूर तिक कहाय ॥ अगुर लघुपण अनुभव्याही ।। गौत्र करम मुकाया।६।। श्री ॥ आठ गुणा कर आलष्याहो ॥ जात रूप भगवत॥ विनचंद के उरबसौ हौ ॥ अह निस प्रभु पुष्पदंत ॥ ७ ।। इति ॥९॥ . ढाल | जिंदवारी देशी॥ - श्री दृढस्थ नृपतो पितानिँदा-थारी माय। रोम रोम प्रभुमो भणी सीतल नाम सुहाय ||जय जय जिन त्रिभुवन धणा॥ करुणा निध करतार.।। सेव्यां सुर तरु जेहवो ॥ बछित सुख दातार ॥ २ ॥ जय० ॥ प्राण * पियारो तू प्रभु पति भरतापति जमालगन निरतर लगरही ॥ दिन दिन आधेको प्रेम Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "१५ || जय || ३|| सीतल चंदन नीपरें जपता तिस the दिन जाप || बिषै कषायना ऊपने ॥ मेटौ 1 भव दुखताप ॥ ४ ॥ जय० ॥ आरतं रुद्र प्रणाम थी उपजै चिंता अनेक।। ते दुख कापो मानसी || आप अचल बिबेक ||५|| जय || रोगादिक क्षुधा त्रिषा ॥ सब सत्र अख प्रहार सकल सरीरी दुखः हरौ ॥ दिलसँ बिरुद बिचार ॥ जय ॥ ६ ॥ सुप्रसन होय सीतल प्रभु तू आसा बिसराम || बिनेचंद कहै गो भणी दीजै मुक्ति मुकाम ॥ ७ ॥ जय जय जिन त्रिभुवन धणीः सेव्या सुरतरू जेहवौ ।। बँछत सुख दातार ॥ जय० ॥ इति ॥ १ ॥ ॥ इ ढाल || राग काफी देसी होरी की मा चेतन जाण, कल्यांण करन कौ ॥ आन मिल्यो अबसररे.. साख प्रमान पिछान प्रभू Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गुन || वन चंचल: थिर कररे ॥ १ ॥ श्री . अस जिनँद सुमररे ॥ . टेर सास उसास बिलास भजन की दृढ t विस्वास पकररे || अजपा म्यास प्रकाश हि ये बिच ॥ सो सुमग्न जिन बररे ॥२॥ श्री ॥ केंद्र कोध लोभ मद आया । ए. सबही पर हररे || सम्यक दृष्टि सहज ॥ सुख प्रगदै || ज्ञान दशा अनुसरर || ३ || श्री अँस || झूठ प्रएँच जीवन तन धन अरू " सजन सनेही घररे । छिनमें छाड चलें पर भव कूँ || बँध सुभा सुभ थिरेर || श्री ||४| मानस जनम पदा रथ जिनकी || आसा करत असररे । तें पूरब ● शुकृत करिणाय ॥ धरम मरम दिलधररे || ॥ श्री ॥ विश्नसेन नृप विस्नाराणी को नंदन तू न विसररे || सहजै मिटे अज्ञान अवधा t } J Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकत्त पंथ-पग भररे ॥६॥श्री।। तूं अधिकार विचार आतम गुन । भ्रम जंजाल मपररे॥ पुद्गल चाय मिटाय बिनचंद ॥ तुं जिन तैन अबररे ।। ७ ।। श्री ।।इति।।११ ॥ ढाल फूलसी देह पलक में पल ॥ एदेशी ॥ प्रण वास पूज्य जिन नायक।। सदां संहायक तूं मेरो ।। टेर ॥ विषमी बाट घाट भयथानक ॥ परमासय सरनो तेरो ।। खल दल प्रबल दुष्ट अति दारुण चौतरफ दियै धेरी ॥ तौ पिण कृपा तुम्हारी प्रभुजी ।। अरियनभी प्रगटै रौ । २ । प्रणमु० । बिकट पहार उजार बिचालै। बोर कुपात्र करै हेरो । तिण बिरियां करिये तो मुलरण ॥ कोई न छीन सकै डेरौ ॥३॥ मणमु ॥ राजा पात साह कोइ कोप अति तक करै छेरौ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तदपी तू अनुकूल हूवैतेो ॥ छिनमें छूट जाय केरा ॥ ४ ॥ प्रणसू० ॥ शकस भूत पिसाच 1 L डाकिनी ॥ संकनी भय नावें नेरौ ॥ दुष्ट मुष्ट छल छिद्र न लागे ॥ प्रभु तुम नाम भज्यां गहरौ || प्रणय ॥ ५ ॥ विस्फोटक कुष्टा दिक संकट | रोग असाध्य मिटै देहरौ ।। विष प्याला अमृत होय प्रगमें जो बिस बास जिनँद करौ ॥ ६ ॥ प्रणमु० ॥ मात जया वसु नृप के नंदन ॥ तत्व जथारथ बुध प्रेरौ कर जोरि बिनैचंद बिनबे ॥ बेग मिटै भुश भव फेरौ |७| प्रणमु बास पूज्य जिन नायक सदां सहायक तुम मेरौ ॥ १२ ॥ इति ॥ ढाल अहो शिवपुर नगर सुहावणौ । एदेश || विमल जिणेसर सेबिये ॥ थांरी बुध निर्मल जायरे ॥ जीवा विषय विकार बिसार नै ।। तूं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनी करम खपायरे ॥ १ ॥ जापा०॥ . . ऑकडी॥ : ,' मुषम साधारण पणौ ॥ परतेक बनास पती मायरे॥जीवा०॥ छैदन भेदन तैसही।। मर मर ऊपज्यौ तिण कायरे जीवा ॥२॥ काल अनंत तिहागम्यौ ॥ तेहना दुख आगमथी सँभालेरे ॥ जीबा० ॥ पृथ्वी अप्प तेउ वायुमें ॥ रह्यो. असण्या २ तो कालरे ।। जीवा० ॥३॥ एकेन्द्रा रौँ बैद्रीथयौ ॥ पुन्याइअनती बृधरे ।। जोवा० ॥ सनीपचेंद्री लग पुनबंध्या ।। भनँता अता प्रसिधरे जीवा। ॥४॥ देव नरक तिरजच में ॥ अथवा माणस भवनीचरें।जीवा।। दीन षणे दुप भोगव्या। इणपर चारों गति बोचरे ॥ जीवा ॥ ५ ॥ अबकै उत्तम कुल मिल्यो । मेव्या उत्तम Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरू साधुः ॥जीवा॥ सुण जिन बचन समेह सू ॥ समकित बन आराधरे ॥ जीवा ॥६॥ पृथ्वी पति कीरति भानु को ॥ सामाराणी को कुमाररे ॥ जीवा ॥ बिनचूँद कहेते प्रभूः। सिर सेहरौ हिबडारी हाररे । जीवा ॥१३॥ ढाल बिगा पधारे महलथी॥ एदेशी ।। अनॅत जिनेसर नित नमो ।। अक्षुत जोत अलेषमा कहिये ना देखिय जाके रूप न रेख ॥ १॥ अनंत ॥ सुखमा मुख्यम प्रभू चिदानंद चिद्रूप ॥ पवन सबद आकासथी। मुख्यम ज्ञान सरूपाशअनंत।। सकल पदारथ चिंतवू । जेजे सुक्षम जोय। तिणथी तु सुक्षम महा ॥ तो सम अबर न जय ॥३॥ अनंत ।। कवि पडित कह कह के। आलम अर्थ विचार !! तो पिण तुम Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव तिकौ ॥ न सके रसनां उवार ॥४॥ अनँत ॥ पभने श्री. सुख सरस्वती ॥ देवि. आपो आप ॥ कहि न सकै प्रभु तुम अस्तु ती ॥ अलख अजया, जाप ॥५॥ अनंत।। मन बुध बाणा तौबिखे ।। पहुचेनहीं लगा। साखी, लोका लोकनो । निरबिकलप निरा कार ॥६॥अनतामातु जसा सिंहस्थ पिता! तसु सृत अनंत, जिनदाबिनचंद अब ओ ख्यो साहिब सहजा नँदा७ अनंताइति॥१४॥ __दाल आज नहें जारे दोसै. नाहलौ ॥ - एदेशी ॥ धरम जिणेसर मुज, हिबढे बसो यारो प्राण, समान ॥ काहूं न बिसरूँ हो। चितारूँ नहीं ॥ सदा अरवडत ध्यान ॥१॥ घरम० ।। ज्यं पनिहारी कुंभ न बासरै ।। नट तो चरित्र निदान ॥ पलक न बिसरे ही पद Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरू साधुरे ॥जीवा॥ खुण जिन बचन समेह तू ॥ समकित बत आराधरे ॥ जीवा ॥६॥ पृथ्वी पति कीरति भानु को ॥ सामाराणी को कुमाररे । जीवा ॥ बिनचूँद कहेते प्रभु। सिर सेहरौ हिबडारी हाररे । जीवा ॥ १३॥ डाल बिगा पधारे शहलथी। एदेशी ॥ अनंत जिनेसर नित नमो ॥ अद्भुत जोत अलेष ॥ आ काहये ना देखिय जाके रूप न रख ॥१॥ अनंत ॥ सुखमथी मुख्यम प्रभू चिदानंद चिद्रूप ॥ पवन सबद आकासथी। सुरुयम ज्ञान सरूपाशअनंत।। सफल पदारथ चिंतवू ॥ जेजे सुक्षण जोय। तिणधी तु तुक्षम महा । तो सम अबर न कोय ॥३॥ अनंत ।। कवि पंडित कह काई * धक।। आभम अर्थ विचार ।। तो पिण तुम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव तिको ॥ न सके रसनां उवर ॥४॥ अनँत ॥ पभनें श्री. सुरव सरस्वती ॥ देवि आपो आप ।। कहि न सके प्रभु तुम अस्तु 'ती॥ अलख अजया जाप ॥ ५॥ अनत।। मन बुध बांणा तौबिखै।। पहुचनहीं लगार। साखी.लोका लोकनो । निराबिकलप निरा कार ॥६॥अनतामातु जसा सिंहरथ पिता।। तमु सुत अनंत जिनदाबिनचंद अब ओलख्यो साहिब सहजा नँदाअनंताइति॥१४॥ .. दाल आज, नहें जारे दोस नाहलौ ॥. . .. एदेशी ॥ धरम जिणेसर मुज, हिबडै बसो प्यारो प्राण समान ॥ कबहूं न विसरूँ हो.., चितारूँ नहीं ॥ सदा अरबडत, ध्यान ॥१॥ घरम० ।। ज्यू पनिहारी कुंभ न बासरै ।। नट को चरित्र निदान ॥ पलक न बिसरे ही पद Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मनि पिघुमणीचकति न विसरेरे भान॥२॥ घरम० ॥ ज्यूँ लोभी मन धनकी लालसा ॥ भोगी के मन भोग ॥ रोगी के मन माने औषधी । जोगी के मन जोग |शोधरम०॥ इणपर लागी हो पूरण प्रीतडी ॥ जाव जीव परियत ॥ भव भव चाहूँ हो न पडै आंतरो भय अँजन भगवंत ॥४॥ धरम ॥ काम क्रोध मद मच्छर लोभथी ।। कपटी कुटिल कठो।। इत्यादि अवगुण कर हूँ मस्यौ । उदै कर्मकेरे जोर ॥५॥ धस्म ।। तेज प्रताप तुमारों पर मटे ॥ भुज हिवड़ा में रे आय ॥ तो हूँ आ . तम निज गुण संभालनें।अनँत वली कहिवा। ॥६॥ धस्म ॥ भानू नृप सुबत्ता जननी तणौ ॥ अंग जात अमिराम ॥ बिनचंद नैरबल्लम तूं प्रभ ॥ सुध चेतन गुण धाम ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७॥ धरम जिणे० ॥ १५ ॥इति।। ढाल ॥ प्रभुभी पधारो हौ नगरी हमतणी एदेशी ॥ बासु सैन नृप अचला पटरागनी।। तमु सुत कुल सिणगार हो सोभागी जनमति सँति करी निजदेसमें ।। मरी मार निवार हौ ॥ १॥ सोभागी० ॥ त जिनेसर साहिब सोलमो० ॥ आंकडी सीत दायक तुम नाम हो॥ सोभागी॥तन मन वचन सुधकर ध्यावता ॥ पूरै सबली हामहो ।।२। सोभागो ॥ विवन नव्यापे तुम 'सुमन कीयां ।। नासै दारिद्र दुखहो ॥ सोभागी ॥ अष्ट सिद्ध नव निद मिले ॥ प्रगटै नबला सुक्ख है। ॥ ३॥ सामागी० ॥ अहने सहाइक सँत: जिनँद तु ॥ तेहनै क्रुमी . यन काय हो । सोभागी॥ जेजे कारन मन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ में ते बढे ते ते सफला थाय हो सामागी। ॥४॥ दूर दिसाबर देश प्रदेशयें ॥ भटके भोला लोक हौ । सोभागी!! सानिधकारी सुमरन आपरो । सहजे मिटै सो कहौ |५|| आगम साख सुणी छै एहवी ॥ जो जिण सेवक होय हो । तेहनिआसा पूरै देवता॥ चौसठ इन्द्रादिक सोय हो ॥ ६ । सोभागी। भव भव अंतरजागी तुम प्रभु ॥ हमनै छै आधार हो। बेकरजोर बिनचंद विन_आपौ सुख्ख भी कार हो। सोभागी॥७॥१६॥इति।। .. ढाल रेखतो॥ कुंथु जिण राज तु ऐसौ ।। ही कोई देवता जैसी ।। टेर ॥ त्रिलोकी नाथ तूं कहियै । हमारी ह दृढ गहिये ॥ १॥ कुंथु० ॥ भवो दधि वतौ तारौ ॥ कृपा निधि आसरो थारौ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरोसो आपको भारी ।। बिचारो बिरद उप गरीि ॥ २ ॥ कुथु० ॥ उमाहाँ मिलन को तौसे॥ नराखौ आतरो मौसै॥ जिसी सिधि अवस्था तेरी ॥ तिसी चेतन्यता मेरी॥ ३ ॥ कुंथु० ॥ करम भ्रम जाल को दपट्यौ । विष सुख ममत में ळपट्यौ । भ्रम्यै हूँ चिहूँ गति मांहीं । उदैकम भ्रमकी छांही ॥ ४ ॥ कुंथु ।। उदै कौ जोर है जोलूँ ॥ न छूटै विष सुख तोलू ॥ कृपा गुरु देवकी पाई ॥ निजातम भावना आई ॥ कुंथु ॥ ५॥ अजब अनुभूति उरजागी । सुरति निज- सूर्य में लागी । तुमाई, हम एकतो: जाणूं -4 : छते . प्रम कलपना मानूं ॥ ६॥ श्री देवी सूर नृप नँदा ॥ अहो सरवज्ञ सुखकंदा ॥ बिनचद लीन तुम गुन में ॥ न व्यापै. अविद्या उन 1 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२६ में ॥ ७ ॥ कुंशु जिन राज०॥इति॥१८॥ ढाल अलगी गिरानी ॥ ' एदेशी ॥ तु चेतन भज अरह नाथने ॥ ते पशु निभवन राय । तात सुदरसण देवी माता ॥ तेहनों पुत्र कहाय ॥ १॥ 'साहिब सीधौ ॥ अरह नाथ अबिनासी सिब सुख लोधौ ॥ बिमल विज्ञान बिलासी साहिब कोड जतन करता नहीं पामैं ॥ एहबी मोटा माय ॥ बिम भक्ति करि नै लहिये। सुक्ति अमोलक ठाम् ॥ ३ ॥ साहिब० ॥ सम कितसहित कार्या जिन भगती ॥ · ज्ञान दरसन चारित्र ॥ तप बीरज' उपियोग तिहांस ॥ पूगटे परम पवित्र ॥४ा साहिब । सो उपियोग सरूप चेतोनंद ॥ जिनवर ने तू एक ॥ द्वैत अविद्या विभ्रम मेंटो। वाधै Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुध बिबेक ॥५॥ साहिब ।। अलप अरूप अखंडित अबिचल । अगम अमोचर आपै।। निर बिकल्प निकलँक निरजना अदभुत जो तिअमापै।।६।साहिबाओलख अनुभव अमृत याको ॥ प्रेम सहित निज पीजै ।। हूँ तू छोड बिनैचद अंतस ।। आतम राम रमाने। साहिब सीधौ७ ॥ १८ ॥इति।। . ... 'ढालं लावणी 'मल्लि जिन बाल ब्रह्मचारी | कुंम पिता पर भावती मईया तिनकी कूमारी ॥ मल्लि• ।। ऑकी . . . . मानी ख कदरा मांहि॥उपना अबतारी।। मालती कुसुम मालनी बांछा ॥ जननी उर धारी ॥ १ ॥ म०॥ तिणथा नाम मल्लि जिन थाप्यो । त्रिभुवन पिय कारी॥ अद्भुत Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ ० चरित्र तुम्हारो प्रभुजी | बेड धरयो नारी ॥ मि० सपरणन काज जान राज आभूपति छैः मारी | मिहला पुरी घेरि चौतरफा सैना बिस्ताशि|| ||३| राजा कुँस प्रकासी तुमपे । बीतक बिधसारी ॥ छैहूँनूप जान करी तो पर नन || आया अहंकारी || म० ॥ ४ ॥ श्री सुख धीरप दधि पिताने ॥ राषै हुशियारी ॥ पुतली एक 'रची निज आकत ॥ थोथी ढकवारी ॥ म० ॥ ५ ॥ L भोजन सर्व भरसा पुतली ॥ श्रीजिण सिण गारी ॥ भूपति छहूँ बुलाया मंदिर वीच वहू नपारी । म० ।। ६ ।। पुतली देख छहूँ माह्या अवसर बीचारी ॥ ढाक उघार नौ पुतली को | भभक्यो अनवारी || म - दुस्सह दुर्गन्ध सही नहीं जाने || ' Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठ्यानृप हारी तब उपदेश दियो श्रीमुख ॥ माह इसाटारी ।। म० ॥ ८॥ महा असार उदारक देही । पुतली इब प्यारी ॥ संगकियां पटकें भव दुख में नारि नरक वारी ॥म०९॥ नृप हूँ प्रति बोधे मुनि होय ।। सिधगत सँभारी ।। बिनचंद चाहत भव भव में । भक्ति प्रक्षुथारी ।। १० । म० ॥ १९ ।।इति।। ढाल चेतरे चेतर मानवी । एदेशी ।। श्रीमुनि सुव्रत सायका दीन दयाल देवांतरणा देवके ।। तारण तरण प्रभू तो भणी उजाल चित सुमरूं । नितमे कै।। १ ।। श्री भूनि सूबल साहिबा ॥ हूँ - अपराधी अनादि को ।। जना र गुना किया भरपूर के। लूटिया प्राण छकायबा सेबिया पाप अठार करूरकै ॥श्री मुनि सुबत साहिबा . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २॥ पूरन अशुभकर्शव्यता । ते. हमना प्रभू तुम बिचारकै ॥ अधम उधारण बिरध छै।। सरल आयो अब कीजियै सार के।। श्री मुनि सुबत स बा ॥शा किंचित पुश्य प्रभावथा इणव आलखियोजिन धर्म के ।। नृवृत नरक निगादथी एहवी अनुग्रह करो पर ब्रह्म कै॥ ४ ॥ श्री ॥ साधूपणो नहिं सँग्रहा श्रावक बृत न कीया अमोकार के ॥ आदरया तौल अराधिया । तेहथी रुलाया हं अनंत संसार कै ॥ ५ ॥ श्री मुनि सुब्रत साहिबा । अब सम कित बत आदरयो । प आराधक उतरूपारके ।। जनम जीत लौ हुवै ॥ इणपर बीनवू बार हजार ॥६॥श्री मुनि सुनत साहिबा ।। सुमअभिपतुम पिताधिन धन श्रीपदयावतो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायकै ।। तस सुत त्रिभुवन तिलक हुँ । बंदत बिनैचँद सीस निबाय के ॥ श्री मुनि सुब्रत साहिबा०॥७॥ २० ॥इति॥ डाल ॥ मुणियोरे बाबा कुटिल मँजारी तोता लेगई। .. एदेशी ।। बिजैसैन नृप बिप्राराणी । नेमी नाथ जिन जायौ। चौसठ इन्द्र कियो मिल उत्सब सुरनर आनंद पायोरे॥ १॥ सुज्ञानी जाबा भजले किन इक बिसौभ० ॥ आँकडी भजन किया भवभवना दुकृत ॥ दुख दो भाग मिटजावै ॥ काम क्रोध मद मच्छर त्रिसना ॥ दुरमत निकट न ओवैरै ॥२॥ सुज्ञानी जीवा०॥ - जीवादिक नव तत्व हीयै धर।। गेय हेय Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્ समुझीने | तीजी उपादेव उलखाने || सम कित निरमल कीजेरे ॥ सुज्ञानी• ॥ ३ ॥ जीब अजीव बंध ऐतीनं ॥ गेय जयारथ जानौ ॥ पुन्य पाप आसव पर हरिये हेय पदारथमानोरे || सुवानो ०||४|| सँवर मोष नि जेरा ये निज गुण ॥ उपादेय आदरिये । कारन कारज समझ भली विधि || भिनभिन निरणो करियेरे ॥ ५ ॥ सुज्ञानी० || कारन ज्ञान सरूपी जीवको || कारज किया पसारो दानुंकी साखी मुत्रअनुभव आयोपौज जिहारोरे ॥ ६ ॥ सुज्ञानी॥ तू सो प्रभू प्रभू सो तू है देत कलपना मेटौ । सव चेतन आनन्द बिनै चंद परमातम प्रभू भेटोरे।। ॥सु०॥२१॥इति ॥ ढाल !! नगरी खूप बणी छैजो | देशी श्री जिन मोहन नारी जीवनप्राणहमारीछै ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समुद्र बिजै मुत श्री नेमासर ॥ जादब कुल को टीको ।। रतन कुँख धारनी सेवा ॥ देवी जैहना नंद नाकौ ॥१॥ . . . आक्रडी ' • सुन पुकार पसु की करुना कर जाण जगत सुखफीको ।। नव भव नेह तज्यो जोबन में ।। उग्रसैन नृप धीको ॥ २ ॥श्री।। सहस्र पुरुष सो सँजम लोधौ ।। प्रभुजी पर उपगारी धन धन नेम राजुल की जोड़ी। महाबाल ब्रह्मचारी ।। श्री ॥ ३ ॥बोधानंद सरूपानंद में। चित्त एकाग्र लगायो। आतम अनुभव दशा अत्यासी ॥ सुकल ध्यान जिन ध्यायौ ॥श्री ॥ ४॥ पूरणानंद केवलि प्रगटे परमानंद पदपायौ ॥ अष्ट कग्म छेदी अल बेसर सहजानंद समायौ॥ श्री॥५॥ नित्या। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंद निराश्रय निश्चल ॥निरबिकार निर्वाणी निरांतक निरलेप निरामय ।। निराकार वरणानी ॥ श्री ॥ ६ ॥ एहवौ ज्ञान समाधि संयुक्तो ॥ श्री नेमी सर स्वामी ।। पूरण कृपा बिनचंद प्रभु.की अबतै ओलखपामी ॥७॥ श्री नेमी ॥ २२ ॥इति॥ . , ढाल. जीबरे तूं सील तणौ कर संग ॥ एदेशी. .. अस्व सैननृप कुल तिलोरे । वामा देवी नौ नंद ॥ चिंतामणि चित में बसे ॥ तौदुर टेलै दुष द्वंदु ॥ १॥ जीबरै तु पार्श्व जिनै सरबँद ॥ जड चेतन मिश्रतपणैरे ॥ करम सुभा सुमथाय ॥ तै विभ्रम जग कल् अनारे आतम अनुभव न्याय ॥२॥जी॥ बैमी भय माने जथारै ।। सुनै घर वे ताल|| Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ザ ३५ त्युं मुरष आत्म बिषैरे ॥ मैट्यौं जंग भ्रम जाल ||३|| जीबरे० || सरप अंधारे राडीरै , रूपौ सीप मझार ॥ मृग तृसना अंबुज मृषारे । त्युं आतम में सँसार ||४|| जावरे० ॥ अग्नि बिषै जौ मणि नहींरे || सिंह सुसै सिरनाय ' कुसम न लागै व्योम मेरे || ज्युं जगः आतम 7 1 माहि ॥ ५ ॥ जीवरे० : ॥ अमर अजैौनी आतमारे || हूं निचे तिहूकाल || विनैचद अनुभव जगीरै तू निज रूप संभाल ॥ ६ ॥ नीवरे तु पार्श्व जिने सर बंद ||२३|| इति ॥ . P { * दाल श्री नव कारजपोमन रगें ॥. एदेशी तुम पितु जनक सिद्धारथं राजा ॥ तुम त्रस काडे मातरे प्राणी । ज्यांत जायो गोक } - f Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 खिलायौ।बर्धमान विख्यातरै प्राणी !?!! श्री महाबीर नमो बरणानी ॥ सासन जेहनो जांणरै ॥ प्रा०॥ प्रवचन सार विचारहीयामै कजि अरथ प्रमाणरे ॥ प्रा० ॥२ ॥ श्री महाबीर नमो बरणानी ॥ : सूत्र बिनय आचार तपस्या॥चार प्रकार समाधिरे ॥ प्रा० ॥ ते करिये भवसागर तिरिय ॥ आतम भाव अराधिरे ॥प्रा०॥३॥ श्री महाबीर नमो बरणानी॥ ज्यों कंचन तिहूँकाल कहीजै ॥ भूपन नाम अनेकरे । प्रा० ॥ त्यों जगनाम चराचर जानी ॥ है चेतन गुन एकरै ।।प्रा०॥४॥ श्री.॥ अपणो आप बिष थिर आतम ।। सोहं हंस कहायरे ॥ प्रा०॥ . केवळ ब्रह्म पदारथ परचे. पुदगल भरम - ... - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३७ मिटायरे || प्रा० ॥ श्री० ॥५॥ सवद रूप रस गंधन जामें ना सपरस तप छाहिरे ॥ प्रा० ॥ तिमर उद्योत प्रभा कछु नाहीं आतम अनुभव माहिरे || प्रा० ॥ श्री० ॥ सुष दुष जीवन मरन अवस्था || ऐ दस प्रान संगारे | प्रा० ॥ इनथी भिन्न बिचद रहिये || ज्यों जल में जल जातरे ॥ प्रा० ॥ ७ ॥ श्री महावीर नमो वरनाणी ॥ २४ ॥ इति ॥ f Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कलश ॥ चौबीस तीरथ नाम कीरति गावतां मन गह गहै ।। कुमट गोकुलचंद नन्दन बिन चंद इणपर कहैं । उपदेश पूज्य हमार मुनि को तत्व निज उर में धरी ॥ उगणीस सौ छ के छमच्छर चतुर्विंशति स्तुति इमकरी।। . *इति* Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना। विद्वज्जनों से सविनय यह प्रार्थना है कि मैंने इस पुस्तक में जैसा कि देखा, सुना पढा उसी अनुसार संग्रह किया। अतः यदि इसमें कोई काना, मात्रा, छन्दोभंग एवं ह्रस्व दीर्घादि जो कुछ अशुद्धियां रह गई हों उनको श्राप सज्जन कृपाकर स्वयं शुद्ध कर लेवें तथा उन अशुद्धियों से मुझे भी सूचित कर कृतार्थ करें, तदुपरान्त यह भी विनय है कि इस पुस्तक को खुले मुख तथा दीपक के सम्मुख नहीं पढें क्योंकि ऐसा करना जैनधर्म से विरुद्ध है । विनीत रतनलाल महता. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ श्री नवकार मंत्र॥ नमो अरिहन्ताणम्-अरिहन्त प्रभु को नमस्कार होवो।अरिहन्त प्रभु कैसे हैं के ज्ञाना वरणी-दर्शनावरणी मोहनी अन्तराय कर्म ये चार कर्म रूपी शत्रु को जीतकर केवल ज्ञान, केवल दर्शन सहित माहाविदेह क्षत्र में जीवन मुक्त बिराजमान हैं वे सर्व देख सर्व जाणे श्राप (प्रभु ) से कोई बात छिपी नहीं हैं ऐसे प्रभु को बारम्बार नमस्कार करता हूं। (सिद्ध) नमो सिद्धाणम्-सिद्ध प्रभु को नमस्कार होवो । सिद्ध प्रभु कैसे हैं के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय-वेदनीय,मोहनीय-श्रायुष्य-नाम गोत्र अन्तराय ये आठ कर्म क्षयकर केवल Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान, केवल दर्शन सहित मोक्ष नगर में विदेह मुक्त विराजमान है । श्राप सर्व देखते हैं सर्व जानते हैं। आप प्रभु से कोई बात छिपी नहीं है ऐसे सिद्ध परमात्मा को मेरा नमस्कार होवो। नमोपायरीयाणं-प्राचार्यजी को मेरा नमस्कार हो । प्राचार्य महाराज कैसे हैंज्ञानाचार्य-दर्शनाचार्य-तपाचार्य-चारिताचार्य बीयार्चाय ये पांच श्राचार्य श्राप पाले, श्रीराने पलावे, पालता हुबाने भला जाणे । प्राचार्य: मर्यादा में रहने वाले उन आचार्यजी को मेरा नमस्कार हो । __नमो उवझायाणं-उपाध्यायजी को मेरा नमस्कार हो । उपाध्यायजी कैसे हैं श्राप ज्ञान पड़े, दुसराने पढ़ावे, पढ़ता हुवाने भला जाणे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन उपाध्यायजी को मेरा नमस्कार हो । नमोलोय सव्व साहुणं-सब साधुजी को मेरा नमस्कार होवो साधुजी कैसे हैं । सतरा प्र. कार का सयंम पृथ्वी अप,तेऊ,वायु, वनस्पति काय, बेइन्द्री, तेइन्द्री,चौरन्द्री,पंचन्द्री,पीया, ऊपीया, पुजणीया,पठावणीया अजीवकाया, मनवचनकाया, संयम, ये १७ प्रकार का सयंम आप पाले, औरा ने पलाव, पालता हुवा ने भलों जाणे उन साधुजी को मेरा नमस्कार हो। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ | २ | ३ | ४ १ | २ ३ ५ १ | २ | ४ | ३ ५ ४ | ५ १ | २ | ४ | ५ | ३ १ २ ५ | ३ | ४ ५ | ४ | ३ Mo अनानुपूर्वी । ( १ ) इस अनादि अनन्त ससार में यह जीव अनादि काल से चौरासी लक्ष जीवयोनी में भ्रमण करता है तथा दुःख | १ १ १ ३ | २ ४ ३ । २ । ५ ३ ४ ५ 100 ४ 1 ४ २ ५ १ ३ | ४ | ५ | २ १ ३ ५ १ / ३ ५ । ४ । २ सहता है | दुःख से प्राप्त हुवा ऐसा चिन्तामणी रत्न समान मनुष्य जन्म पाकर यदि वि प्रमादवश होकर उत्तम वाहन को पय सुख, तृष्णा में लुप्त होकर धर्म नहीं करता है और उत्तम जन्म को वृथा गुमा देता है जैसे समुद्र में डूबता हुवा, छोड़ कर पत्थर को ग्रहण करता है तथा मुसीबत से प्राप्त किये हुवे चिन्तामणी रत्न को आलस्य से समुद्र में डालता है इस मनुष्य जन्म को शास्त्रकारों ने बहुत प्रकार से दुर्लभ बताया है । २४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानुपूर्वी । س ا » ا سہ ( ६ ) १/४/२ ३ ५। (२) जिनेश्वर देवकी भक्ति |१||२|३|४| |१४ २५ ३ | गुरू की सेवा, प्राणीपर दया, । | २४ ३२५ सुपात्रदान, गुणी पर प्रीति |१| ४ | ३ | ५ | २| और शास्त्र श्रवण यह छः । १५३४ २ ३] बातें मनुष्य जन्म रूप वृक्ष | १ ४/५। ३२ का फल है। इसवास्ते मनुष्य || २ | 8 | २ । को चाहिये कि ऐसा उत्तम योग पाकर अपना समय वृथा न गुमावें । (३) धर्म अर्थ तथा काम इन तीन वर्गों के साधन बिना मनुष्य का श्रायुष्य पशु के तुन्य निष्फल है । इन तीनों वर्गों में धर्म को श्रेष्ठ कहा है इसके बिना अर्थ तथा काम नहीं बन सकता । चौथा मोक्ष वर्ग है पुरुषार्थ से साधा जाता है। अनानु पूर्यो। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ३ | ४ २ | २ | २ | ३ | ५ ४ १ | ४ | ३ | ५ २ |१ |४ | ५ | ३ ४ אל ५ P | ४ १ | ५ | ३ २ १ ५ | ४ | ३ अनानु पूर्वी । (४) यह शरीर अनित्य है तथा वैभव 'धन' है सो भी अस्थिर है और हमेशा मृत्यु उपस्थित है इसवास्ते धर्म का संग्रह जरूर करना चाहिये (५) सचा देव वह है जो २ २ २ ३ ४ mmmmmm ४ ४ ४ ४ ३ १ १ ५ २ २ ४ २ ३ ५ r ororo 120 १ ५ WALLCO ५ ४ ५ १ ४ २ ३ | ५ ४ | १ १३ दुषण रहित १२ गुण सहित ३४ अतिशय ३५ वाणी गुण करके युक्त हों तथा ६४ इन्द्रों करके पूजित हो, सोही परमात्मा अरिहंत देव है, ऐसे चोवीस तीर्थकर प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल में होते हैं वे प्रवृति मार्ग को त्याग कर निवृति मार्ग को ग्रहण करते हैं और सदुपदेश देकर तीर्थ को प्रवर्ताते हैं । ( ७ ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानु पूर्वी। a laulm rawal १३ | ५। अष्ट कर्मों को क्षय करके | २ | ५ | | ५ ३ केवल ज्ञान केवल दर्शन | २| उत्पन्न करके अजर अमर । र| अविनाशी ऐसे सिद्ध मोक्ष २५ ३ | ४|१| |२४|५|१| - पद को प्राप्त होते हैं । (६) २ परमेश्वर की भाव युक्त पूजा - करने से पाप दूर होता है, और दुर्गति का निवारण, आपत्ति का विनाश, पुण्य की वृद्धि लक्ष्मी का विस्तार, आरोग्यता का पोषण, सर्वजनों के विपे प्रशंसा, प्रीति का प्रसूत होना, यश की वृद्धि, देवता की पदवी और परम्परा करके मोक्ष पद भी प्राप्त होता है। (८) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानुपूर्वी । ramme Imrmirmir c|ac| |३/१/२|४|५। (७) सच्चे गुरु वे हैं जो ( ३ | २ | १४ | १२५ ४ | पांच महाव्रत धारक हो ५ ३ २ १५ ३ १ ४२५ सुमति समित ३ गुप्ति, गुप्त, ३।१४ | ५ | २! पंचाचार पालन समथ. पांच |३२५|१४| २१ | ५ | २४] इन्द्रिय संवरक चतर्विध क४ | २| | ३ | २५|४|१| निग्रंथ गुरु हैं । ऐसे साधु इच्छा का निरोध कर संसार दशा से विरक्त रहते हैं और वे सम्यक्त्व सहित शुद्ध चारित्र ( संयम ) पालते हुए उच्चगति को प्राप्त होते हैं ऐसे मुनि को शुद्ध भाव से बदन वैयावच तथा भक्ति करना चाहिए । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानुपूर्वी । |mmrorm ran porn Iral or door | ४ | १ | २५ (८) सच्चा धर्म वह है जो | ३ |५| | ३ | ४|१/५/२] अनेकान्त स्याद्वाद करके |३५ १४ |३४२११/५ युक्त पक्षपात रहित, हिंसा | ३ | ५ | ४ २५ १ करके वर्जित और 8 तत्व |३| ५.२४|१| ११२ ७ नय ४ निक्षेप सप्तभगी, चार प्रमाण करते हो, हेय, ज्ञेय, उपादेय तथा उत्पादव्य ध्रुव सहित हो, सोही पर केवली भापित धर्म है। ऐसा उत्कृष्ट परम्परा का धर्म श्रद्धा सहित पाल कर प्राणी शुभगति को प्राप्त होते हैं। श्री जिन प्रणीत सिद्धान्त श्रवण करने का फल । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानुपूर्वी। m| Mammalam a 20 1200 rror orlar Timr xjorm | २ ३ ५। (६) जैनागम रूपी चक्षु २ | ५ | ३ | रहित न तो सुदेव को जा. ४ | १ | ३ | २ | ५ नते हैं न अधर्म को न गुणी को जानते हैं न निर्गुणी को न योग्यायोग्य कार्य को न सुख दुःखादि कारणों को । जानते हैं इसवास्ते जिनेन्द्र भगवान कथित शास्त्र श्रवण या स्वाध्याय कर अपना जन्म सफल करें ( ४ ) दान देने से लक्ष्मी प्राप्त होती है, शील से सुख सम्पत्ति मिलती है । तपश्चर्या करने से कमी का क्षय होता है और भावना भाने से - भव का नाश होता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | ३ ४ | ३ | १ ४ | ३ २ ૪ २ ५ १ ३ । २ । ५ ५ १ ४३५ ४ | ३ ५ L ५ २ ५ १ " ४ अनानुापूर्वी । (११) सर्व विरति साधु वह है जो १७ प्रकार का सं १ २० | 20 |20 8 ४ यम पालते हो ६ काय की रक्षा पट श्रावश्यकी क्रिया दश प्रकार का यति धर्म २२ परिषह सहन करते हो ४२ दुपण रहित आहार ग्रहण व १२ प्रकार के तप करते हो अठारह सहस्र शिलग के धारी तथा सर्वज्ञ प्रवचन प्ररूपणा प्रवीण हो सो ही सयमी साधु हैं । इस प्रकार साध्वी को भी समझ लेवें । ४ ४ হা।। া ४ 8 १ । २ । ३ । १ । ३ । २ ५ | २ । ५ | २ | १ । ३ ५ । ३ ३ | १ ३ । १ । २ ५ । ३ । २ । १ ( १२ ) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानुपूर्वी । - alala | ३|४| (१२) मनुष्य मात्र को |५२ १३ | ४ ४३ चाहिये कि न्याय, नीति ५ २ १/४ | ३|| १३ | २४ सत्य के साथ तथा पांच ५१ ३ | ४ | २ | प्रकार के विरोध टाल कर । ५ २ ३४|१ ५१४ २ ३ और द्रव्य, क्षेत्र, काल J५ | १ | ४ | ३ | २ | भाव देख कर द्रव्य को उपार्जन करे, न कि झूठ कपट दंगा धोखा तथा चालाकी के साथ करे। कहा है: ( १३ ) · Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) चौबीस तीर्थंकर का स्तवन। . ऋषभ अजित सम्भव श्राभिनंदन, निरंजन निराकार, सुमति पदमसुपार्श्व चन्दा प्रभु,मेट्या विषय विकार श्रीजिनमुझ ने पार उतारो प्रभु हूं चाकर चरणारो!!श्रीजिन०॥ सुविधिशीतल श्रेयासं वास पूज्य मुक्ति तणा दातारो विमल अनन्त धर्मनाथ शान्ति जिन साताकारी संसारो॥ श्री जिन०॥ कुंथु अरनाथ मल्ली मुनिसुव्रत पाम्या अवजल पारो, नमीए नेमनाथ पार्श्व महावीरजी शासन ना सिरदारो ॥ श्री जिन०॥ग्यारह गणधर बीस विरहमान सर्व साधु भणगारो अनंती चौबीस ने नित्य २ बन्दु करगया खेवा पारो ॥ श्री जिन० ॥ अधम उधारण, बिरद सुणी प्रभु शरण लियो चरणारो. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) अधम उधारण परम पदगामि अजर अमर अविकारो ॥ श्री जिन० ॥ रागद्वेषकर्म बीजजे बलिया बालीकिंधा सर्वेछारो, केवल ज्ञान ने केवल दर्शन, निज गुण लिनो लारों ॥श्री जिन०॥ दान शियल तप.भावना भावो, दया धर्म तत्व अराधो ऋषी लालचन्दजी एणीवद विनये, प्रभु मारो करोनी निस्तारोश्रीजिन मुझने पार उतारो॥इति॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) २० विहरमानों के नाम १ श्रीमंदिरस्वामीजी ११ श्रीवृजधरजी ३ श्रीजुगमंदिर स्वामीजी १२ श्रीचन्द्राननजी ३श्रीवास्वामीजी १३ श्रीचन्द्रवाहुजी ४ श्रीलुबाहुस्वामीजी १४ श्रीभुजंगजी ५ श्रीसुजातस्वामीजी १५ श्रीईश्वरजी ६ श्रीस्वयंप्रभुजी १६ श्रीनेमप्रभुजी ७ श्रीऋषभानन्दजी १७ श्रीवीरसेनजी ८ श्रीअनंतवीर्यजी १८ श्रीमहाभद्जी ६ श्रीसूर्यप्रभुजी १६ श्रीदेवयशजी 1 श्रीविशालजी २० श्रीअजितवीरज Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मन्दिर स्वामी विधि में बिराजे वर्तमान काले अमर धुन गाजे जिनों के चरण शीश धरू धरू शरणाअंग अठारेमिटे जन्म मरणा। ११ गणधर। १ श्रीइन्द्रभूतिजी ६ श्रीमंडीपुत्रजी २ श्रीअभिभूतिजी ७ श्रीमोरीपुत्रजी ३ श्रीवासुभूतिजी ८ श्रीप्रकम्पितजी १ श्रीविगतभूतिजी ६ श्रीअचलभूतिजी ५ श्रीसुधर्मजी १० श्रीमेतारजजी . __११ श्रीप्रभासजी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) १६ सतियां १ श्रीवामीजी श्रीसीताजी २ श्रीसुदरजिी १० श्रीलुभद्राजी ३ श्रीचन्दनवालाजी ११ श्रीसिवाजी ४ श्रीराजमतीजी १२ श्रीकुंताजी ५ श्रीद्रोपदीजी १३ चेलणाजी ६ श्रीकौशल्याजी १४ श्रीप्रभावतीजी ७ श्रीमृगावतीजी १५ श्रीदमयंतीजी ८ श्रीसुलसाजी १६ श्रीपद्मावतीजी अथ श्री सोल सतीनों छन्द . आदिनाथ श्रादे जिनवर वंदी सफल - मनोरथ कीजिये ॥ प्रभाते उठी मंगलिक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) कामे सोल सतिना नाम लीजये ॥१॥ बालकुमारी जगहितकारी ब्राह्मी भरतनी बनड़ीए ॥ घट घट व्यापक अक्षर उपे सोलसतिमां जे बडीए ॥ २॥ बाहुबल भगिनी सतिय शिरोमणी सुंदरी नाम ऋषभसुताए अंक स्वरुपी त्रिभुवन माहे जेह अनोपम गुण जुताए ॥ ३॥ चन्दन बाला बालप पेथी शीयलवंती शुद्ध श्राविकाए ॥ अड़दना बाकुला वीर प्रति लाभ्या केवल लहीव्रत भाविकाए ॥४॥ उग्रसेन धुया धारिणी नंदनी राजेमती नेम बल्लभाए, जोबन वेशे काम ने जीत्या संयम लइ देव दुल्लभाए॥५॥ पंच भरतारी पांडव नारी द्रुपद तनया वखाणिए एक सोपाठे चीर पुराणाशीयल महिमा तस जाणीए ॥ ६॥ दशरथ नृपनी नारी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) नीरूपम कौशल्या कुल चन्द्रिकाए शीयल सलुणी रामजनेता पुन्य तणी प्रनालीकाए ॥७॥कोसीवक ठामे संतानिक नामे राज्य करे रंग राजीयोए तसघर धरणी मृगावती सतीसुर भुवने जस गाजियोए ॥८॥ सुलसा साची शोयलन काची राची नहीं विपया रसए मुखर्दु जोतां पाप पलाए, नाम लेता मन उल्लासेए ॥ 8 ॥ राम रघुवंशी तेहनी कामीनि जनक सूती सीता सतीए जग सहु जाणे धीज करंता अनल शीतल थयो शीयलथीए ॥१०॥ सुरनर वंदित शीयल अखंडित शीवा शीव पदगामनी ऐ॥जेहने नामे निर्मल थइए, बलिहारी तस नामनीए ॥ ११ ॥ काचे तांतणे चालणी बांधी, कुपथकी जल काढीयुंए । कलंक उतारवा सतीय Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) सूभद्रा चंपा वार उघाड़ायुंए ॥ १२॥ हस्ती नागपुरे पांडुरायनी कुंता नामे कामिनीए॥ पांडव माता दसे दशारनी व्हेन पतीव्रता पद्मनाए ॥ १३ ॥ शीलवती नामे शीलव्रत धारणी त्रीविधे तेहने दियेए।नाम जपंता पातक जायें, दरीसणे दुरीत नीकंदीए ॥१४॥ नीषधानगरी नलह नरौंदनी दमयन्ती तसगेहनीए । शंकट पड़ता शीयलज राख्यू त्रीभुवन कीर्ति जेहनिए ॥ अनंग अजीता जग जन पुजीता पुफचुला ने प्रभावतीए ॥ विश्व वीरख्याता कामीत दाता, सोलमी सती पद्मावतीए ॥ १६ ॥ वीरे भाखी शास्त्र साखी, उदयरतन भाखे मुदाए ॥ व्हाणु बातां जे नरभणशे, ते लेशे सुख सम्पदाए। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) छथ श्री पांसठीयां यन्त्रनो छन्द ।। | २२ । ३ । । १५ । १६ | १४ । २० । २१ । २ ८ | १ ७ । १३ । १६२५ | १८ | २४ ५ ६ १२ | १० ११ । १७ । २३ । ४ । - श्रीनेमीश्वर संभवशाम, सुविधि धर्म, शान्ति अभिराम ॥ अनंत सुव्रत नमीनाथ सुजाण श्री जीनवर मुजकरो कल्यान ॥१॥ अजीतनाथ चन्द्रप्रभु धीर श्रादीश्वर सुपार्श्व गंभीर ॥ बीमलनाथ वीमलजग जाण श्री Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) जीनवर ॥२॥ मल्लीनाथ जिन मंगलरुप पचवीश धनुष सुन्दर स्वरुप ॥॥ श्री अरनाथ नमु वर्द्धमान श्री जीनवर॥३॥सुमती पद्मप्रभु अवतंस वासु पूज्य शीतल श्रेयांस , कुंथु पार्श्व अभीनन्दन भाण श्री जीनवर ॥ ४॥ इणी परे जीनवर संभारीय दुःख दारिद्र विघ्न निवारीये पच्चीस पांसठ परमाण श्री जीनवर ॥ ५ ॥ इम भणता -दुःख नावे कदा जो निज पासे राखो सदा ॥ धरीये पंच तणु मन ध्यान श्री जीनवर ॥ ५ ॥ श्री जीनवर नामे वंछित मले मन वांछित सहु श्राशा फले ॥ धर्मसिंह मुनी नाम निधान श्री जीनवर ॥ ७॥ इति Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) छथ श्री पांसठीयां यन्त्रनो छन्द । | २२ । ३ ६ १५ | १६ । १४ । २० २१ २ १ ७ । १३ । १६ १८ २४ ५ ६ । | १० । ११ । १७, २३ | ४ श्रीनेमश्विर संभवशाम, सुविधि धर्म, शान्ति अभिराम ॥ अनंत सुबत नमीनाथ सुजाण श्री जीनवर मुजकरो कल्यान ॥१॥ शनीननाथ चन्द्रप्रभु धीर शादीश्वर अनुपाव गनीर ॥ बीमलनाथ चीमन्नजग जाण श्री Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) जीनवर ॥२॥ मल्लीनाथ जिन मंगलरुप पचवीश धनुष सुन्दर स्वरुप ॥ ॥ श्री अरनाथ नमु वर्द्धमान श्री जीनवर ॥२॥सुमती पद्मप्रभु अवतंस वासु पूज्य शीतल श्रेयांस कुंथु पार्श्व अभीनन्दन भाण श्री जीनवर ॥ ४ ॥ इणी परे जीनवर संभारीय दुःख दारिद्र विघ्न निवारीये पच्चीस पांसठ परमाण श्री जीनवर ॥ ५॥ इम भणता - दुःख नावे कदा जो निज पासे राखो सदा ॥ धरीये पंच तणु मन ध्यान श्री जीनवर ॥ ५ ॥ नी जीनवर नामे वंछित मले मन वांछित सह प्राशा फले ॥ धर्मसिंह मुनी नाम निधान भी जीनवर ॥ ७॥ इति Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) धर्म शिक्षा । ( १ ) यदि समाज हित का भाव दृढ़ धार्मिकता से जागृत होतो वह समाज हित का भाव खूब अच्छी तरह चमक उठेगा । (२) जिसका परमात्मा के सिवाय और कोई अवलंब नहीं हैं वह जानता ही नही कि संसार में पराभाव भी कोई चीज है ! (३) मेरा विश्वास है कि विना धर्मका जीवन बिना सिद्धान्त का जीवन होता है । और बिना सिद्धान्त का जविन वैसा ही है जैसा कि बिना पतवारका जहाज इधर से उधर मारा २ फिरेगा और कभी अपने उदृष्ट स्थान Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तक नहीं पहुंचेगा, उसी तरह धर्म हीन मनुष्य भी संसार सागर में इधर उधर मारा मारा फिरेगा और कभी अपने ऊदृष्ट स्थान तक न पहुचेगा । (४) केवल एक ही विश्वव्यापी धर्म है और वह परमात्मा की भक्ति है । (५) आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना हमारा सबसे पहिला और श्रावश्यक कर्तव्य है । (६) धर्म की नाप तो प्रेम से दया से और सत्य से होती है | (७) मैंने जीवन का एक सिद्धान्त निश्चित किया है । वह सिद्धान्त यह है कि किसी मनुष्य का चाहे वह कितनाही महान Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) करें उससे कुछ भी सुधार न होवेगा, इसलिये धर्म के कार्य में उद्यम करें। लिन्न भिन्न धर्म एक ही स्थान पर पहुं. चने के मार्ग है हमने जुदा २ रास्ते पकड़े हैं तो क्या हुअा ? इसमें क्या आपत्ति है, कर्म क्षय किये विगेर मोक्षकिसी का नहीं होता, इसलिये कर्मक्षय का उद्योग करें। (१) श्री ठाणांगजी सूत्र में फरमाते हैं कि जो लोग स्वहाथ से उलास से लक्ष्मी का सहयोग नहीं करते हैं उसकी लक्ष्मी चोर, रा.... अग्नी, जल, देवता, कुटुम्ब या पृथ्वी ले जाती है। (२) लक्ष्मी अभयदान, ज्ञानदान में खर्च की उसने सर्वदान दिया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ क्या ईश्वर जगत्कर्त्ता है ? no c “पाठको, खोलो पलक, आंखें उघाड़ो देख लो | ज्ञानदिनकर का उजाला होगया है देख लो ॥ अंधश्रद्धा की कठिन जंजीर को अब तोड़ दो । ससकी कर खोज अपना पक्ष झूठा छोड़ दो ॥ ईश्वरको सृष्टिकर्त्ता माननेवाले महाशय अपने पक्षके समर्थन में यह कहा करते हैं कि मेज, कुरसी, वेंच, लेम्प, चारपाई, टोपी, जूता, कुरता, कागज, कलम, स्याही, लड्डू, पेडा, वूरा, खांड, मिठाई वगैरह जितनी चीजें हम देखते है, वे सब किसी न किसीकी बनाई हुई हैं, विना वनाये नहीं वनीं । इसी तरह इतने बडे जगत्का भी कोई न कोई बनानेवाला जरूर है, विना वनाये नही बन गया, इसका बनानेवाला सर्वव्यापक, सर्व - शक्तिमान, दयालु, परमात्मा है । इसके उत्तरमे निवेदन है कि यदि बिना बनानेवालेक कोई चीज़ नहीं बन सकती और हरएक चीजका बनानेवाला जरूर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई न कोई है तो जगत्कर्ता ईश्वरका कर्ता कौन है ? उसको किसने बनाया और फिर उसके बनानेवालेको ' किसने बनाया ? इस तरह कोई अन्त न आगया और किसी न किसीको मानना पडेगा जिसको किसीने नहीं बनाया । और यह मानते ही यह सिद्धांत कि बिना बनानेवालेके कोई चीज नहीं बन सकती, गलत हो जायगा। अगर थोड़ी देरके लिये, आपकी युक्ति मान भी ली जाय कि बिना किसीके बनाये हये कोई चीज नहीं बनती है, तो यह भी जरूर है कि उस चीजके वनानेका कोई न कोई वक्त जरूर होगा जब कारीगरने उसको बनाया । अब बतलाइये कि अगर ईश्वरने इस जगत्को बनाया तो कत्र बनाया और कितनी देरमें बनाया ? 'बनाने' शब्दसे यह ज्ञात होता है कि किसी चीजसे किसी चीजको बनाया । सो बतलाइये कि ईश्वरने जगत्को किससे और किस चीजका बनाया ? अगर यह कहो कि किसी औजार वगैरहसे प्रकृति वगैरह चीजोंको बनाया, तो उन औजार और प्रकृति वगैरहको किसने बनाया ? यदि स्वय ईश्वरने बनाया तो ईश्वर निराकार है या साकार ? यदि निराकार कहोगे तो निराकारसे साकार जात् कैसे बन गया ? साकारस साकार बनता है, निराकारसे साकार नहीं बन सकता। यदि ईश्वर साकार है तो उसमें ससारी जीवोंके समान हाथ, पैर, नाक, कान Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ), वगैरह होने चाहिये और इनके होनसे ईश्वर में और ससारी जीवोमें कुछ भी भेद न रहा और उन्होंके समान वह रागद्वेषयुक्त क्रियाचर्यावाला ठहरा, अतएव ईश्वर जगत्कर्त्ता नहीं है । । इसके पश्चात् यह प्रश्न उठता है कि सृष्टि बनाने से पहिले क्या हालत थी ? यदि कुछ भी नहीं थी तो यह जगत् कहासे बना दिया और कहा बना दिया 2 पशु, पक्षी, स्त्री, पुरुष, सूरज, नटी, पहाड वगैरह चीजें कहांसे आई और किस तरह आई और जहां इनको रक्खा वहा पर पहिले क्या था क्या शून्य था । यदि दयानन्दियोंकी तरह यह कहो कि प्रलयके बाद ईश्वर जगत्को जो प्रलयकालमे सूक्ष्म परमाओंकी हालत में रहता है, स्थूल रूपमे बनाता है, तो यह बतलाओ कि वे परमाणु किस हालत मे थे और कहा थे 2 यदि पृथ्वीपर थे तो ये परमाणु और पृथ्वी किमने वनाये और कत्र बनाये ? प्रलयकालमे ये परमाणु एकसे ही थे या छोटे वह ? मत्र समान गुणों के धारी थे या भिन्न २ १ जड या चैतन्य या कुछ asरूप और कुछ चैतन्यरूप ! चैतन्यका जसे सम्बन्ध या या नहीं ' चैतन्य सुखकी हालतमे था या दु ग्वकी सब जीवोकी दशा एकसी थी या पृथक २१ उनमें और मुक्त जीवोंने क्या भेट था ? फिर प्रलयके बाद ईश्वरने उनको कैसी शह दो चांद, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई न कोई है तो जगत्कर्ता ईश्वरका कर्ता कौन है ? उसको किसने बनाया और फिर उसके बनानेवालेको 'किसने बनाया ? इस तरह कोई अन्त न आगया और किसी न किसीको मानना पडेगों जिसको किसीने नहीं बनाया । और यह मानते ही यह सिद्धांत कि बिना बनानेवालेके कोई चीज नहीं बन सकती, गलत हो जायगा । अगर थोड़ी देरके लिये, आपकी युक्ति मान भी ली जाय कि बिना किसीके बनाये हुये कोई चीज नहीं बनती है, तो यह भी जरूर है कि उस चीजके वनानेका कोई न कोई वक्त जरूर होगा जब कारीगरने उसको बनाया । अब बतलाइये कि अगर ईश्वरने इस जगत्को बनाया तो कब वनाया और कितनी देरमें बनाया ? 'बनाने' शब्दसे यह ज्ञात होता है कि किसी चीजसे किसी चीजको बनाया । सो बतलाइये कि ईश्वरने जगत्को किससे और किस चीजका बनाया ? अगर यह कहो कि किसी औजार वगैरहसे प्रकृति वगैरह चीज़ोंको बनाया, तो उन औजार और प्रकृति वगैरहको किसने बनाया ? यदि स्वय ईश्वरने बनाया तो ईश्वर निराकार है या साकार ? यदि निराकार कहोगे तो निराकारसे साकार जात् कैसे बन गया ? साकारसे ., बनता है, निराकारसे 'साकार नहीं बन सकता। यदि ईश्वर । है तो उसमें संसारी जीवोंके समान हाथ, पैरे, नाक, कान Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७ ), वगैरह होने चाहिये और इनके होनेसे ईश्वरमें और ससारी जीवोंमें कुछ भी भेद न रहा और उन्होंके समान वह रागद्वेषयुक्त क्रियाचर्यावाला ठहरा, अतएव ईश्वर जगत्कर्ता नही है। . . इसके पश्चात् यह प्रश्न उठता है कि सृष्टि वनानेसे पहिले क्या हालत थी ? यदि कुछ भी नहीं थी तो यह जगत् कहासे बना-दिया और कहा बना दिया ? पशु, पक्षी, स्त्री, पुरुप, सूरज, चाद, नदी, पहाड वगैरह चीजें कहांसे आई और किस - तरह आई और जहा इनको , रक्खा वहा पर पहिले क्या था ? क्या शून्य था ? यदि दयानन्दियोंकी तरह यह कहो कि प्रलयके वाद ईश्वर जगत्को जो प्रलयकालमे सूक्ष्म परमाणुओंकी हालतमें रहता है,, स्थूल रूपमें बनाता है, तो यह बतलाओ कि वे परमाणु किस- हालतमें थे और कहां थे ? यदि पृथ्वीपर थे तो ये परमाणु और पृथ्वी किसने बनाये और कब बनाये ? प्रलयकालमें ये परमाणु एकसे ही थे या छोटे बहे ? सब समान गुणोंके धारी; थे या, भिन्न २ १ जड या चैतन्य ? या कुछ जडरूप और कुछ चैतन्यरूप ? चैतन्यका जडसे सम्बन्ध या या नहीं ? चैतन्य सुखकी हालतमें था या दुखकी ? सब जीवोंकी दशा एकसी थी, या पृथक् २ १ उनमे और मुक्त जीवोंमे क्या भेट, था ? फिर प्रलयके वाढ ईश्वरने उनको कैसी शक्ल दी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और किस तरह दी ? क्या हाथ पैर वगैरह इन्द्रियोंसे कुम्हार बढ़ईकी तरह बनाया या अपनी जवानसे केवल “ वन जाओ " वगैरह कोई शब्द कह दिया जिससे सब चीजे बन गई । पहाड भी बन गये, जानवर भी बन गये । यदि हाथ पैर वगैरहसे बनें, तो ईश्वर हाथ पैर वगैरह वाला साकार ठहरा और इतने बड़े ब्रह्माडके बनानेमे उसे कुछ वर्ष जरूर लगे होंगे । कारण कि हाथ पैर वगैरहकी शक्ति परिमित है । यदि किसी वचनसे जगत् बना दिया, तो वह शब्द कहासे निकला और किसने सुना ? क्या ईश्वरके जवान थी और सूक्ष्म परमाणुओंके कान थे कि उसने कहा और उन्होंने सुना ? ऐसा होना विलकुल असंभव और प्रत्यक्षविरुद्ध है। फिर सूक्ष्म परमाणुओंमें ऐसी शक्ति कैसे हो गई । यदि यह कहो कि प्रलयका समय पूर्ण होनेपर सव चीज़े अपने अपने स्वभावानुसार बन गई । सो प्रथम तो ऐसा स्वभाव होन ही असम्भव है, यदि मान भी लिया जावे तो फिर ईश्वरने क्या किया ? अपने आप ही हो गया । ईश्वरको जो प्रलयके वाद जगत्का बनानेवाला मानते हैं सो अव्वल तो ऐसा प्रलय ही नहीं हो सकता कि जब संसारकी सब चीजें सूक्ष्म परमाणुओंकी हालतमें हो जाये और इतने ही दिनों तक यह हालत रहे जितने दिनों तक सृष्टि रही। दूसरे अगर हो भी तो विना वर्षों लगाये, कल Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) एंजिनसे काम लिये, पचासों सैकड़ों इंजिनियर मजदूर लगाये, यह जगत् नहीं बन सकता, और इसमें भी स्त्री पुरुषके सयोग वगैर मनुष्य उत्पन्न नहीं हो सकते । सूक्ष्म परमाणुओंसे स्त्री पुरुषका होना नितांत असम्भव और प्रमाण बाधित है। यह बात कभी नये प्रमाणसे सिद्ध नहीं हो सकती और न बुद्धि ही इस बातको ग्रहण कर सकती है । सायस इस बातको. बतला रही है कि ऐसा होना प्रकृतिके नियम विरुद्ध है। इससे जाहिर होता है कि ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है। ___ अस्तु, इस वातको जाने दीजिये । यह कहिये कि ईश्वरने जगतको क्यों बनाया ? बिना इच्छा या आवश्यकताके कोई किसीको नही बनाता है। जब हमको भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं । जब ठंड लगती है तब कपडा ओढते हैं। इसी तरह बताइये कि ईश्वरको क्या इच्छा थी या क्या आवश्यकता थी कि उसने जगत् बनाया ? यदि उसे कुछ इच्छा थी तो क्या ? इच्छा तो रागीद्वेषियोंमें होती है । ईश्वर न रागी है न द्वेषी, फिर उसमें इच्छाका होना कैसे हो सकता है ? यदि ईश्वरमें इच्छा ही थी और वह इस बातकी थी कि लोग स्वतंत्रतापूर्वक कर्म करें और फिर उनका फल उनको दिया जावे तो इसमें ईश्वरने क्या भलाई सोची ? वह तो सर्वज्ञ था, जानता Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) था कि ये लोग नियस निद्य कर्म करेंगे, अतएव इनको स्वतंत्रता न देनी चाहिये और इनको पैदा करके बुर रास्ते पर न चलाना चाहिये। यदि इस अभिप्रायसे पैदा किया कि ये लोग मेरी भक्ति करेगे, स्तुति करेंगे, तो यह उद्देश्य भी ईश्वरपनमें धब्बा लगाता है। उसको स्तुति और भक्तिकी क्या परवा । और फिर उनसे जिनको उसने स्वयं बनाया। मान लो यही इच्छा थी, तो यह तो पूर्ण नहीं हुई। नित्य देखने में आता है कि वहुतसे लोग ईश्वरकी स्तुति तो क्या उल्टा उसको गालिया देते हैं और उसका नाम तक भी नही लते। क्या ईश्वर सर्वज्ञ न था ? क्या उसको ज्ञान न था ? यदि था तो ऐसा क्यों किया? यदि अपनी भक्तिकी तो उसे चाह न थी किन्तु वैसे ही सृष्टि बना दी कि देखे लोग क्या करते हैं, तो इससे तो कोई लाभ न निकला । यह तो तमाशा देखना हुआ। लोग तकलीफ उठावें, पीडा सहें, भूखसे मरे और ईश्वर चुपचाप तमाशा देखे । यह बिलकुल झूठ है और इससे जाहिर है कि ईश्वरने दुनियाको नहीं बनाया । उसको बनानेवाला माननेमें वह रागी द्वेपी ठहरता है और उसके सर्वज्ञपनेमें दूषण लगता है। ___ अस्तु, इसे भी जाने दीजिये । यह बतलाइये कि ईश्वरको यह इच्छा उसी समय क्यों हुई जब उसने यह सृष्टि बनाई' ससे पहले या पीछे क्यों न हुई ? इन प्रश्नोंका कुछ भी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) उत्तर नहीं। इससे मी जाहिर होता है कि ईश्वरने सूष्टि नहीं बनाई। इसको भी जाने दीजीये। यह बतलाइये कि सुष्टिकी आदिमे ईश्वरने प्रथम क्या चीज़ बनाई ? जीव बनाया या कर्म ? या दोनों 2 यदि एक बनाया तो उसका दूसरेसे ,सम्बन्ध कैसे किया और • क्यों कियो ? यदि दोनों साथ साथ बनाये, तो पहले शुभ कर्म बनायें या अशुभ और जीवका किसके साथ मेल किया ? पहिले जीव, किस दशामें और किस शरीरके धारण करनेवाले बनाये और शेष गरीरधारी कब और क्यों बनाये ? मनुष्य जैसा हम पहिले कह आये हैं विना पिताके वीर्य और माताके रजके संयोगके उत्पन्न ही नहीं हो सकते । अगर यह कहा जाय कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है उसने बना दिये तो यह बताओ कि ईश्वरने अपनी सर्वशक्तिसे बुरी बातोंको क्यों न रोक दिया ? क्यों जहरीले जानवर, कडवी बदबूदार दुख देनेवाली चीजें बनाई ? जो हिंसा, झूठ, चोरी वगैरह पापकर्म देखनेमें आते हैं इनको क्यों न मिटा दिया ? शराब वगैरह धर्म कर्मको नाश करनेवाली चीज़ोंको जाहिर ही क्यों होने दिया ? इन बातों में ईश्वर अपनी शक्तिको काममें क्यों न लाया ? यदि यह कहा जावे कि अगर ये चीजें न होती तो लोगोंको अच्छे बुरे कामोंकी क्या तमीज़ रहती ? ये तो इस __ ही लिये हैं कि लोग इनको छोडे, धर्मानुकूल चले और ईश्वरक Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) प्रसन्न करें। महाशयो, कैसी अनोखी बात है ! इससे तो यह सिद्ध हुआ कि ईश्वरने ही मनुष्योंसे बुरे काम कराये । जब बनाते समय जीव कर्म रहित थे और वे सत्र बरावर थे, तब उनको शरीरधारी बनाकर क्या लाभ निकाला उलटा उनको जीवन, मरण, रोग, शोक, दुःख, भयसे ग्रसित करके अच्छेसे बुरा बना दिया। फिर यदि बनाया भी था तो अच्छी २ बातोंको क्यों न रक्खा ? इसमें क्या हर्ज था ? बुरी बातोंसे सिवाय हानिके क्या लाभ हुआ और उसका जवाब देह ईश्वरके सिवा और कौन है ? आजकल देखनेमे आता है कि १०० में ८० आदमी बुरे काम करते हैं और ईश्वर की आज्ञाके विरुद्ध कार्य करते हैं । जिधर देखो भलाई के बदले बुराई ही बुराई हो रही है । ईश्वर तो आगेकी बात जानता था। उसने क्या जान बूझकर बुराई पैदा करके लोगोंको बुरे कामोंकी तरफ झुकाया या लोगोंने उसकी आज्ञाके विरुद्ध मनमानी की ? यदि जान बूझकर किया तो ईश्वर हितैषी नहीं और जब हितैवी ही नहीं तो फिर हमको उसपर श्रद्धा और उससे क्या आशा हो सकती है ? वह तो हमारा शत्रु ठहरा । यदि लोगोंने मनमानी की तो ईश्वरने ऐसा क्यों होने दिया ? अपनी क्तिका प्रयोग क्यों नहीं किया है. यदि प्रयोग करते हुये भी लोग ने तो ईश्वरकी शक्ति कहां रही ? ऐसा माननेसे वह सर्वशक्तिमान Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ने नहीं ठहर सकता । ईश्वरको हितैषी पूज्य पिता कहते हैं, परन्तु "सको कर्ता माननेसे वह कदापि हितैषी पिता नहीं हो सकता। सारी हितैषी पिता सदा अपने प्रिय पुत्रको बुरे कामोंसे हटाता , रात दिन उसके सुधारने का उद्योग करता है और उसमें अपनी क्त्यिनुसार बहुत कुछ सफलता देखता है। परंतु पूर्ण सफलता इस चरणसे नहीं होती कि उसकी शक्ति बहुत थोड़ी है । यदि उसमें वंशक्ति हो तो वह एक मिनट में अपने पुत्रको खोटे मार्गसे हटाकर चे मार्ग पर ले आवे किन्तु परमात्मा तो सर्वशक्तिमान हितैषी पेता है, वह तो अपनी शक्तिसे सब कुछ कर सकता है । फिर म लोगोंको क्यों एकदम ऐसी बुद्धि नहीं देता कि हम तुरत बुरी तोंको छोड दें ? लेकिन ऐसा देखनेमें नहीं आता । इससे यह सेद्ध हुआ कि वह इस कर्ताहर्तापनके झगड़े में नहीं है । यदि है सो वह अल्पशक्तिधारी और हमारा द्वेषी है, पिता नहीं कुपिता है कि शत्रु है। यदि यह कहा जावे कि ईश्वरने प्रारम्भसे ही जीवोंको कर्म रनेके लिए स्वतंत्र किंतु फल भोगनेके लिए परतंत्र बनाया है, तो ह बतलाइए कि जीवको जो ज्ञान शुरूमें दिया गया उससे जीव रे कामोंकी ओर झुका या बुरे काम और बुरी बातोंको देखकर रे काम करने लगा ? यदि ज्ञानसे, तो ऐसा ज्ञान जीवको क्यों Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) दिया ? इसका दोपी ज्ञानदाता अर्थात् ईश्वर है। यदि और चीज़ोंसे ऐमा हुआ, तो वे चीजें भी ईश्वरने बनाई हैं, अतएव इस दशामें भी ईश्वर ही दोषी ठहरता है । इससे भी जाहिर है कि ईश्वरने जगत्को नहीं बनाया। यदि यह कहा जाय कि जीव प्रकृति आदि हैं, ईश्वरने इनको नहीं बनाया, कितु कर्मानुमार जीवको अच्छा बुरा शरीर दिया और उमको सुख दुःख पहुंचाया, तो इससे स्वयं सिद्ध हे कि सृष्टि जो जीव, प्रकृति इन दो । चीजोका ही समुदाय है अनादिसे है, इसको किसी ईश्वरने नही बनाया । यदि यह कहा जाय कि प्रलयके बाद जीव प्रकृतिको शकल दी, तो फिर वही प्रश्न उठता है कि शकल देनेसे पहिले क्या दशा थी, वह शकल किस तरह दी और कैसे दी 2 ___यह भी जाने दीजिए, अब फल देनेको भी देखिये । यदि यह कहा जावं कि ईश्वर कर्मानुसार जीवोंको फल देता है तो यह बताया कि फट ठीक कर्मानुसार ही देता है या दया करके अथवा ऋध करके उससे कम नियादह भी कर सकता है और करता है। यदि कम या जियादह न करके ठीक कर्मानु पार ही देता है, तो वह कर्मक आधीन हुआ और उससे स्तुति, विनती, प्रार्थना वगैरह करना सब व्यर्थ ठहग । कारण कि ईश्वर तो वैता ही फल देगा, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) f जैसा कर्म करेंगे । फिर क्या जरूरत है कि प्रार्थना वगैरह करके अपने समयको नष्ट करें और चिन्ता करें। यदि ईश्वर कर्मफलको कम जियाह भी कर सकता है और करता है तो न्यायवान् न रहा । सत्र कुछ प्रार्थना वगैरह पर ही रहा । घोरसे घोर पाप करके प्रार्थना कर ली जाय, क्षमा हो जायगी और ऐसा होनेसे अच्छे बुरे कर्मों का कुछ भी विचार न रहेगा । इससे जाहिर है कि ईश्वर फलदाता नही है। ईश्वर मानना सर्वथा प्राण - बाधित और युक्ति-शून्य है । क्योंकि यदि ईश्वरको कर्मफलेढाता माना जाय, तो जीव कर्म करने में भी कदापि स्वतंत्र नहीं हो सकता । जैसे किसी जीवने कोई ऐसा कर्म किया कि जिसका फल यह होता है कि उसका धन नाश हो जाय, ऐसा होने मे कोई इश्वर साक्षात् तो कर्मफल देता ही नही कितु किसी दूसरेके ही द्वारा दिलाता है | मान लिया जाय कि ईश्वरने किसी चोरको भेजकर उसका धन चुरवा लिया और किसीके द्वारा कुछ कष्ट दिलवाया जिससे उस जीवको उसके कर्मोंका फल प्राप्त हुआ । अगरचे चोर या और कोई जिसके द्वारा कर्मका फल मिला ईश्वरकी आज्ञा पालनेसे सर्वथा निर्दोष हैं । परन्तु उसको भी दण्ड मिलता है और बुरा कर्म करनेके कारण ईश्वरका भी अपराधी ठहरता है । इस तरह डबल सजा मिलती है । संसार मे राजाके नौकरको राजाकी आज्ञानुसार अपराधीको दण्ड देने से किसी 3 1 1 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) प्रकारका कोई दण्ड नहीं मिलता, परंतु ईश्वरका काम करनेवालेको मिलता है । इससे भी सिद्ध हुआ कि जगत्कर्ता और कर्मफलढाता ईश्वर नहीं है। इसे भी जाने दीजिये। जगत्कर्ता माननेवाले महाशय ईश्वरको “सर्वव्यापक मानते हैं अर्थात् ईश्वर आकाशकी तरह सब जगह पर है। इस कथनमें पूर्वापर विरोध है । यदि ईश्वर सर्वव्यापक है तो वह जगत्कर्ता कभी नहीं हो सकता। क्योंकि विना हिलन-चलन किये कोई काम नही हो सकता और जो सर्वव्यापी होता है वह हिलनचलन कर नहीं सकता । जैसे आकाश । कारण कि हिलनचलनके लिये स्थानकी जरूरत होती है और सर्वव्यापक होनेसे स्थान कही रहता नहीं। या तो ईश्वरको कर्ता मानो और उसके सर्वव्यापकपनेसे इनकार करो, या ईश्वरको सर्वव्यापक मानो और जगत्कर्ता माननेको छोडो । दोनों एक दूसरेस विरोधी बातें ईश्वरमे नही रह सकतीं । इससे भी सिद्ध हुआ कि ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है । इसके अतिरिक्त जब ईश्वरको जगत्कर्ता और सर्वव्पायी दोनों मानते हो, तो दान पुण्य करनेवाला भी ईश्वर हुआ और लेनेवाला भी ईश्वर भी रहा । इस तरह लेने देनेमें भेद न हुआ । ईश्वरने अपना दान आप ले लिया । इससे तो दान वगैरह करना ही व्यर्थ . आ। ऐसे ही मारनेवाला मी ईश्वर है । और मरनेवाला मी ईश्वर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) है । अतः ईश्वरने ईश्वरको मारा। कोई किसीका शत्रु मित्र न रहा । चौर जत्र चोरी करता है, उसमे भी ईश्वर है, व्चमियारी ज व्यभिचार करता है उसमे भी ईश्वर है, यदि ऐसा ही है और एक ईश्वर सब जगह' है तो चांडाल, राजा वगैरेहको ऊंचा नीचा करनेसे क्या गरज "ये बातें निरी भद्दी है और इनसे जाहिर है कि ईश्वर जगत्कर्ता कदापि नही है और जब कर्ता नहीं तब हर्ता भी नहीं हो सकता । जहा तक विचार करके देखते हैं ईश्वरको जगत्कर्ता मानने में अनेक शंकाएं उठती है और सैकडों प्रश्न पैदा होते हैं । उसके सारे गुण नष्ट हो जाते हैं । न वह सर्वज्ञ रहता है न हितोपदेशी । और न सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी रहता है। किंतु रागी द्वेषी, संसारी मनुष्य के समान परिमित शक्ति और ज्ञानका धारी ठहरता है । ऐसा मानना एक प्रकार से ईश्वरका अविनय करना है और उसको गालियां सुनाना है । अतएव ईश्वर कभी जगत्कर्ता नही है और उसको जगत्कर्ता' न माननेमें कोई बाधा भी नही । विज्ञानशास्त्र इस बात को स्पष्टतया बतला रहे हैं और तजरवे कर करके दिखला रहे हैं कि संसार में जितनी चीजें बनती हैं वे सव' स्वयमेव एक दूसरेके मिलने बिरने और अपने वीर्यप्रभाव व स्वभावसे वनती रहती हैं। दो चीजोंके मिलनेसे तीसरी चीज बन जाती है और Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) __ समय समयपर उनकी शकल बदलती रहती है । न कोई चीन नाश होती और न कोई नवीन पैदा होती है। एक चीजकी हालतका विलकुल बदल जाना दूसरी चीजको पैदा करता है और उस बदलनेवाली चीजका नाश होना कहलाता है, परन्तु उम चीजका गुण चाहे उसकी कैसी ही हालन हो जाय कभी नहीं बदलता वह सब सदा ज्योंका त्यों रहता है, यह द्रव्यका लक्षण है और इसी लक्षणले धारी जीव, अजीवी, दो द्रव्य अनादि कालसे इस संसारमे पाये जाते हैं । जीव अनीव ( जड ) से मिला हुआ है और जिस तरह शराब वगैरह जड चीजोंके पीनसे स्वयं नशा हो जाता है अथवा ताकत देनेवाली चीजके खानेसे शरीरमें ताकत आती है, अगरचे शराब और तावत देनेवाली चीनोंकी यह इच्छा नही होती और न उनको इस बातका ज्ञान ही होता है, इसी तरह जीव जड (पुद्गल) से मिला हुआ अपने मनके शुभ अशुभ विचारों जवानसे निकले हुये कडवे मीठे शब्दोंसे और शरीरसे किए हुए या कराये हुये अच्छे बुरे कामोंकी वजहसे पुदलरूप कर्मोंको अपनी ओर खींचता है और कपायानुसार उनको उसी प्रकार परिणमाता है जैसे आगसे तपा हुवा लोहेका गोला उसपर ए पानीको अपनी तरफ खींचकर अपनेमें मिला लेता है। __ और कर्मरूप पुद्गलके इस एकमेक सम्बन्ध होनेको, बंध Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) . " कहते है। ये वधे हुए कर्म, कषायानुमार अच्छा बुरा फल देनेको समर्थ होते हैं। फल भोगने में किसी भी ईश्वरकी आवश्यकता नही। रहा पैठा , करनेकी निस्वत, सो जैसा हम पहिले कह आए हैं पैदा तो कभी कोई चीज़ इस तरह हुई ही नहीं कि पहिले उसका अभाव हो, अब सदभाव हो गया हो। जीव, अजीव जिनके सिवाय सप्तारमें कोई चीज नहीं, सदासे हैं और सदा रहेंगे। जीवका अनादि कालसे कर्मों के साथ सम्बन्ध है और इसी कारणसे संसारमें भ्रमण कर रहा है और जब तक कर्मोका बंधन दूर न होगा तब तक वह संसारमें संसरण करता रहेगा। बंधन दूर हो जानेपर आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रगट हो जायगा और परमात्मा पढको पहुच जायगा। उसी दशाको पहुंचना जीवमात्रका उद्देश है और उसीके लिए उपाय करना उसका कर्तव्य है। __ अब हम इस लेखको जियादह बढाना नहीं चाहते केवल इतना कहकर समाप्त करते हैं कि ईश्वरको सृष्टिकर्ता हर्ता मानना सर्वथा असत्य और उसके अनतर गुणोंको घटाना है। ईश्वरमें कर्ता हर्ताका जरा भी दूषण नहीं है, वह कर्मफल रहित शुद्ध आत्मा है अनता दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्यका धारी है, भूख, प्यास, जन्म, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, खेट, स्वेट, राग, द्वेष वगैरह दोषोसे रहित हैं । भावार्थ-सच्चा ईश्वर वही है, जोः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) न द्वेपी हो न रागी हो, सदानन्द वीतरागी हो। वह सब विषयोंका त्यागी हो, जो ईधर हो तो ऐसा हो ||टेक॥ न खुद घट २में जाता हो, मगर घट २ का ज्ञाता है। वह सत् उपदेश दाता हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ॥ न करता हो न हरता हो, नहीं अवतार घरता हो । न मारता हो न मरता हो, जो ईश्वर हो तो ऐमा हो । ज्ञानके नरसे पुरनर हो, जिसका नही सानी । सरासर नूर नृरानी, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ।। न क्रोधी हो न कामी हो, न दुश्मन हो न होमी हो । वह सारे जग का स्वामी हो, जो ईश्वर हो तो ऐना हो । वह ज़ाते पाक हो, दुनियाके झगडोंसे मुर्रा हो । आलिमुलगैच हो वेऐव, ईश्वर हो तो ऐसा हो ॥ दयामय हो शातिरस हो, परम वैराग्यमुद्रा हो । न जाबिर हो न काहिर हो, जो ईश्वर हो तो ऐमा हो॥ १ प्रकाश । २ बराबरका । ३ सहायक । ४ रहित । ५ सर्वज्ञ, गे पीछेकी छिपी हुई बातोंको जाननेवाला ६ । जुल्म करनेवाला, ।। ७ क्रोधी दुष्ट, अन्यायी। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) निरञ्जन निर्विकारी हो, 'निजानन्दरसविहारी हो। । सदा कल्याणकारी हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो । , न जगजंजाल रचता हो, करम फलका न दाता हो । वह सब बातों का ज्ञाता हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो।' वह सच्चिदानन्दरूपी हो, ज्ञानमय शिवसरूपी हो। आप कल्याणरूपी हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो। जिस ईश्वरके ध्यान सेती, बने ईश्वर कहै न्यामत ।, वही ईश्वर हमारा है, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed bisDloolchand Kasandas Kapadia at his " Jain Vijaya " Prišting Press, Dear Kbapatia Chakla, Laxmiparayan's Wadi-surat. T . Published byLala Chiranjilal Jain. Secretary Shree Atraanand Jain Tract Society, From AMBALA City. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना हे प्रभो आनन्दसिन्धो, बुद्धि मुझको दीजिये । हे दीनबन्ध पाप सब, मेरा निवारण कीजिये । इन्द्रियां यौ मन मेरा, वश में रहे मेरे सदा । आया शरण में आपके सुझपे कृपा न कीजिये । दुर्गुण मेरे में होय जो, कुछ याप शीघ्र नसाइये | शक्ति अपनी दीव्य अवतो, हे दयामय दीजिये । शूरता औ धीरता औ, तेज मुझमें हो सदा | हे दयानिधि न मेरी, यह प्रार्थना सुन लीजिये । संगति सदा हो सज्जनोंकी, श्रेष्ठ पुरुषों का चलन । अन्तःकरण में भावना, सुनियों की सुन्दर दीजिये । ऐसी दया हो जो मेरा, यह ब्रह्मचर्य बना रहे। शान्ति सुख जिसमें मिले, उस परस पदको दीजिये भावना प्रकटे हृदय में, मेरे समकित रत्न की । हे विभो निज भक्तको, अन आप अपना लीजिये । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शान्ति प्रभुजी का स्तवन । WU LM शान्ति प्रभुजी शान्तिताका स्वाद हमको दीजिये नष्ट करके कर्म सारे पार खेवा कीजिये ॥ भक्ति से तो शक्ति हमही हो प्रकट परमात्मा। सुधरे भारत की दशा होवे सभी धर्मात्मा ॥ है प्रभु अानन्द दाता ज्ञान हमको दीजिये । शीघ्र सारे सद्गुणों को पूर्ण हममें कीजिये। लीजिये हमको शरणमें हम सदाचारी बने । ब्रह्मचारी धर्मरक्षक शलिव्रत धारी बने । शान्ति प्रभुजी शान्तिताका स्वाद हमको दीजिये लष्ट करके कर्म सारे पार सेवा कीजिये ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलो श्रीमहावीर स्वामी की जय! बोलो जैन-धर्म की जय ! पहिला पाठ। -raiनमोकार मन्त्र। नमोअरिहंताणं अर्हन्तों को नमस्कार हो नमो सिद्धाएं सिद्धों को नमस्कार हो नमो श्रायरियाणं प्राचायाँको नमस्कार हो नमो उवज्झायाणं उपाध्यायों को नमस्कार नमो बोय सब साहूणं हो लोकमें सब साधुओं । को नमस्कार हो नमस्कार मंत्र के पड़ने का लाहाल्ल्छ । । ऐसो पंच नमोकारो। यह पांच पर नमस्कार के । सब्ब पावप्पणासणो। सर्व पापों के नाश करने वाले हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) मंगलाणं च सव्वे सिं। सर्व मांगलिक पदार्थों से वापढ़मं हवइ मंगलं । सर्व मंगलों में पहिला मंगल नमस्कार | मंत्र है। प्रश्नावली। १-नमोक्कार मंत्र को शुद्ध पढ़ा ? २-तीसरा पद पढ़ो ? ३-पांचवां पद पढ़ो ? ४-पहिले पद का अर्थ क्या है ? ५-पांचवें पद का अर्थ क्या है ? ६-इस मंत्र के पढ़ने का साहात्म्य क्या है ? ७-इस मंत्र में किन २ को नमस्कार किया है ? Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) दूसरा पाठ । प्रश्न उत्तर इस पाठशाला का | जैन ज्ञान पाठशाला क्या नाम है ? तुम्हारा धर्म क्या है ? जैन । तुम कौन हो ? स्थानकवासी श्वेताम्बरजैन । तुम्हारे गुरु कौन हैं ? जैन मुनि 'साधू' और आर्या 'साध्वी' उनके क्यार चिन्ह हैं ? | उनके मुख पर एक वस्त्र की मुखपत्ती बंधी हुई होती है एक उनके पास जीवरक्षा के लिये रजो हरण 'प्रोघा' होता है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) भोजन करने के लिये उनके पास काठ के पात्र होते हैं चौर उनके सफेद वस्त्र होते हैं, वे कोड़ी पैसा नहीं रखते मुखपत्ती वह किसलिये सुख पर बांधते हैं ? तुम्हारे गुरु कहां से खाते हैं ? तुम्हारे गुरु तुमको क्या शिक्षा देते हैं ? २२ और पैदल ही चलते हैं, नंगेशिर नंगे पांव रहते हैं। यह उनका धर्म चिन्ह है और जीव रक्षा के लिये भी बांधते हैं। वह निर्दोष भिक्षा घरों से मांग कर लाते हैं धौर वही खाते हैं । वह कहते हैं कि जूना मत खेलो, शराब न पीओ मांस न खाओ, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) | शिकार न खेलो, वैश्या संग न करो, परस्त्री संग न करो, चोरी न करो, सत्य बोलो इत्यादि वह ठहरते कहां पर हैं? उनका कोई स्थान नियत नहीं है किन्तु जहां पर वे ठहरते हैं उसी स्थान को स्थानक कहते हैं। तुम स्थानक में जाकर पहिले हम अपने गुरुत्रों क्या करते हो ? | को वन्दना नमस्कार करते हैं फिर सामयिकादि करके अात्मविचार करते तुम्हाराबडापर्व दिन कौनसा है ? सम्वत्सरी का दिन हमारा बडा पर्व दिन है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) प्रायः भादो शुदी पंचमीको सम्वत्सरी पर्व को । हम उस दिन विशेष हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और वह कब होता है ? तुम्हें छुट्टी कब होगी तुम अपने पर्व में क्या काम करते हो ? ? २ परिग्रह का त्याग करते और पोष करते हैं जीव रक्षा के लिए दानादि कार्य करते हैं, हैं अपने किये हुए अपराधों का पश्चात्ताप करते हैं, और सर्व जीवों से क्षमा की प्रार्थना करते हैं । प्रश्नावली १ - तुम्हारा धम क्या है ? २ - तुम्हारे गुरु कौन हैं ? -- ३- तुम्हारे गुरुयों के चिन्ह क्या हैं ? Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) ४-तुम्हारे गुरु तुमको क्या शिक्षादेतेहैं ? ५-तुम्हारे गुरु कहां पर ठहरते हैं ? ६-तुमस्थानकमें जाकर क्या कामकरते हो ? ७-तुम्हारा पर्व दिन कौनसा है ? तीसरा पाठ प्रश्न उत्तर तुह्मारे देव कौनसे हैं ? | तीर्थंकरदेव (अर्हन्तप्रभु) उनको कौनसा ज्ञान उनको केवल ज्ञान होता होता है ? है इसलिये वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। सर्वज्ञ किसे कहते हैं ? जो सब कुछ जानता हो? सर्वदर्शी किसे कहते हैं? जो सब कुछ देखता हो? इस काल में तीर्थंकर चौबीस २४ । देव कितने होचुके हैं ? उनके शुभ नाम कौन उनके शुभनाम यह हैं:कौन से हैं ? Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) १ श्रीऋषभदेव २ श्रीअजितनाथ ३ श्रीसंभवनाथ ४ श्रीअभिनन्दन देव ५ श्रीसुमतिनाथ ६ श्रीपझप्रम ७ श्रीलुपार्श्वनाथं ८ श्रीचन्द्रप्रभ श्रीविधिनाथ १० श्रीशीतलनाथ ११ श्रीश्रेयान्सनाथ ११ श्रीवासुपूज्य स्वामी १३ श्नीविमलनाथ १४ श्रीअनन्तनाथ १५ श्रीधर्मनाथ १६ श्रीशान्तिनाथ १७ श्रीकुन्थुनाथ १८ श्रीअरनाथ १६ श्रीमल्लिनाथ२० श्री मुनिसुव्रतस्वामी २१ श्री नमिनाथ २२ श्रीअरिष्टनेमिनाथ २३ श्रीपार्श्वनाथ , २४ श्रीमहावीर स्वामी। इनमें सें ऋषभदेव स्वामी को मादिनाथ, सुविधिनाथ को पुष्पदन्त और महावीर स्वामी को श्री वर्द्धमान स्वामी वीर प्रति वीर कहते हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) प्रश्नावली। १--तुम्हारे देव कौन से हैं ? २-सर्वज्ञ किसे कहते हैं ? ३-चौथीस तीर्थङ्करों के नाम बोलो ? ४-पहिले और पिछले तीर्थङ्करदेव का नाम बताओ? ५-कौन २ से तीर्थङ्करदेव के एकसे अधिक नाम हैं ? चोच पाह। श्रीमहावीर स्वामी के चौदा हजार । कितने हजार साधु थे? श्रीवर्द्धमान स्वामी के एकादश (इग्यारह) ११ मुख्य शिष्य कितनेथे ? मुख्य शिष्यों के नाम | १ इन्द्रभूति २ अग्निभूति क्या २ हैं ? ३वायुभूति ४ व्यक्तस्वामी ५ सुधर्मास्वामी मंडितपुत्र मौर्यपुत्र अकंपित Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) स्वामी ६ चलभ्राता १० मेताय स्वामी ११ प्रभास स्वामी । गौतम स्वामी कौन थे ? इन्द्रभूतिजी का ही नाम गौतम स्वामी था क्योंकि इनका गौतम गौत्र था । गणधर किसे कहते हैं ? जो गण (समूह) का पालक है वही गणधर होता है। जैसे गौतम स्वामी | छत्तीस हजार ३६००० श्रीमहावीर स्वामी की आर्यायें कितनीं थीं? • बत्तीस हजार भार्यायों श्रीचन्दनबालाजी 3 में मुख्य श्रार्या कौन थी W Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) प्रश्नावली । १ गणधर किसे कहते हैं ? २ एकादश गणधरों के नाम क्या हैं १ ३ गौतम स्वामी का दूसरा नाम क्या था ? ४ श्री महावीर स्वामी के शिष्य कितने थे ? ५ श्री महावीर स्वामी की आर्या कितनी थी ? ६ बढ़ी श्रार्या का नाम क्या था ? ७ श्री महावीर स्वामी का दूसरा नाम बताओ ? पांचवां पाठ | प्रातःकाल (सवेरे) उठते ही नवकार मंत्र को पढ़ना चाहिए और चौबोस श्रीतीर्थंकर देवो के नाम जपो । गुरु महाराज के पास स्थानक ( उपाश्रय) में जाकर वन्दना करके उनके उपदेश को सुनो, माता पिता भाई यादि को "जी" कहे बिना मत बोलो और जो कुछ पाठशाला में पढ़ो उसे याद रखो । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) प्रश्न उत्तर जैनी का दूसरा नाम | श्रावक । क्या है ? श्रावक किसे कहते हैं ? जो जैनशास्त्रोंको सुनतेहैं। तीर्थ कितने होते हैं ? तीर्थ चार है साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। जीव किसे कहते हैं ? जो जीवित हो जानवाला जीवों के कितने भेद हैं ? दो २ हैं। वे कौन २ हैं ? स और स्थावर । त्रस किसे कहते हैं ? जो चलता फिरता बढ़ता खातापिता हो जैसे मक्खी मच्छर गाय भैस त्रादि। स्थावर किसे कहते हैं ? एकोन्द्रिय जीव, जैसे मिट्टी पानी, अग्नि, वायु, | वनस्पति। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ ) प्रश्नावली। १ त्रस किसे कहते है ? २ स्थावर किसे कहते हैं ? ३ जीव किसे कहते हैं ? सिद्ध परमात्मा की स्तुतिः तुम तरण तारण दुख निवारण, भविक जीव आराधनं । श्री नाभिनन्दन जगत वंदन, नमो सिद्ध निरंजन !! १ ॥ जगत् भूषण विगत दुपण, प्रवण प्राण निरूपकं । ध्यान रूप अनोप उपम, नमो सिद्ध निरंजन ।। २ ।। गगन मंडल मुल्लिा पदवी, सर्व उर्व निवासनं ।। ज्ञान ज्योति अनन्त राजे, नमो सिद्ध निरजनं ॥ ३ ॥ अज्ञान निद्रा विगत वेदन, दलित मोह निरायुष । नाम गोत्र निरतराय, नमो सिद्ध निरजनं ॥ ४॥ विकट क्रोधा मान योधा, माया लोभ विसर्जन । राग द्वेष विमद अंकुर, नमो सिद्ध निरंजनं ॥ ५ ॥ विमल केवल ज्ञान लोचन, ध्यान शल समीरितं । : योगीनातिगम्य रूपं, नमो सिद्ध निरजनं ॥६॥ । योग ने समोसरण मुद्रा, परिपल्यं कासन । सर्व दीसे तेज रूप, नमो सिद्ध निरंजनं ॥ ७ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जगत् जिनके दास दासी, तास आस निराशनं । चन्द्रपे परमानन्द रूप, नमो सिद्ध निरंजनं ।। ८॥ स्वसमय सम्यग् दृष्टि जिनकी, सोए योगी अयोगिकं । देखतामां लीन होवे, नमो सिद्ध निरंजनं ।। ६ ॥ तीर्थ सिद्धा अतीर्थ सिद्धा, मेद पंच दशाधिकं । सर्व कर्म विमुक्त चेतन, नमो सिद्ध निरजनं ।। १० ।। चन्द्र सूय दीप मणिकी, ज्योति येन उलषितं । ते ज्योतिथी अपरम ज्योति जिनकी. नमो सिद्ध निरजन । ११॥ एक माह अनेक राजे, अनेक मांही एककं । एक अनेक की नाहिं संख्या, नमो सिद्ध निरंजनं ॥१२॥ अजर अमर अलक्ष अनंतर, निराकार निरंजनं । परिब्रह्म ज्ञान अनंत दर्शन, नमो सिद्ध निरंजनं ॥ १३ ॥ अतुल सुख की लहर में प्रश्नु, लीन रहे निरतरं । धर्म ध्यानधी सिद्ध दर्शन, नमो सिद्ध निरजन ।। १४ ।। ध्यान धूपं मन. पुष्प, पंचन्द्रिय हुताशन । क्षमा जाप संतोष पूजा, पूजो देव निरंजन ।। १५ ।। तुमे मुक्ति दाता कर्म घाता, दीन जानि दया करो । सिद्धार्थ नन्दन जगत् वन्दन, महवीर जिनश्वरं ।। १६ ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महामहोपाध्याय श्रीगंगाधर जी के, जैनदर्शन के विषय में, असत्य . • आक्षेपों के उत्तर। श्रीगिरिजापतये नमो नमः । मै पवित्र काशीपुरी में कितने वरसों से प्राचीन न्याय पढ़ रहा हूँ। पढ़ते पढ़ते मैंने आजतक प्राचीन न्याय में गौतमभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका, ' श्लोकवार्तिक, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, शाबरभाष्य, सांख्यदर्शन, और बौद्धका न्यायविन्दु, माध्यमिकावृत्ति प्रभृति ग्रन्थोमें श्रीगुरुदेवकी परमदया से यथाशक्ति नैपुण्य पाया है. मैं गवेषी, जिज्ञासु, आत्मा हूँ. मेरा कहीं पर मिथ्या आग्रह नहीं है. मैं जैनों के और चार्वाकों के दर्शनों को भी देखने के लिये पिपासु हूँ. थोड़े ही दिनों के पहिले श्रीमाधवाचार्य विरचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' मै पढता था, जब उसमें जैनमत आया तब मेरी बुद्धिको भी चक्कर आ गया याने जैनीयों के वास्तव मन्तव्य को मै जान नहीं सका. तब मुझे जैनतार्किकों के तर्कों को देखने की विशेष इच्छा हुई. उसकी परिपूर्णताके लिये मै शिवपुरी में घूमता था, इतने में परमसाग्य से एक जैनश्वेताम्वर पाठशाला मुझको मिल गई. वहा के Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) बड़े बड़े छात्र मेरे अच्छे स्नेही हो गये. वहां के अध्यक्ष को मैंने प्रार्थनापूर्वक अपनी पूर्वोक्त इच्छा प्रकट की तब उन्होंने बड़े हर्ष के साथ एक अध्यापक के पास मुझको परिपूर्ण समय दिया. वहा भी कम से कम मै दो. वर्ष पढा, और जैनन्याय के स्याद्वादमज्जरी, रलाकरावतारिका, अनेकान्तजयपताका, सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों को समाप्त कर दिया, और भी कई जैन के आगमग्रन्थ भी देख डाले, इससे मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हुआ कि जैनदर्शन में परस्पर जरासा भी विरोध नहीं है, और सब प्राचीन जैनग्रन्थ एक ही मन्तव्य पर चलते है. और वेदानुयायि, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक. वेदान्तादि दर्शनो में बहुतसा विरोध स्पष्ट दिखाई देता है याने जो वेदकी श्रुति का नैयायिक लोक अर्थ करते है, उससे विपरीत ही सांख्य लोक करते है, तात्पर्य यह है कि पूर्व आर्यावर्त में सदैव सुभिक्ष होने से निश्चिन्ततासे प्राचीन ऋषिओ ने बिचारे वेदकी मिट्टी को खराब कर दी है किसी कविने कहा है कि "श्रुतयश्च भिन्नाः स्मृत्तयश्च भिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः " ॥१॥ । यह ठीक २ सुघटित होता है. और जैन दर्शन पढ़ने से मुझ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी एक बड़ा लाभ हुआ की जो मेरा अटल निश्चय था की जैनलोग नास्तिक हैं, जैनलोग अस्पृश्य हैं, वह सब हवा में उड़ गया; और मनमें यह प्रतिभान हुआ की वेदानुयायि, कुमारिल, शकर, गौतम, वेदव्यास, वाचस्पति प्रभृतिने जैनीयों के विषय में जो कुच्छ भी लिखा है वह वादिप्रतिवादि की नीति से नहीं लिखा है, किन्तु छल से सब उटपटॉग घसीट मारा है, याने जैनीयों के सिद्धान्त दूसरे, और अपना खण्डन का बकवाद दूसरा, अब उसी निश्चय से मेरी लेखनी प्रवृत्त हुई है की सत्य सूर्य का उदय हो, असत्य घूकों का संहार हो. याने पूर्वोक्त ऋषि के और आधुनिकमहर्षिओं के झूठे आक्षेपोंका प्रत्युत्तर युक्तियुक्त लिखना चाहिये, परन्तु यहा तो मै 'प्रत्यासत्तिर्बलीयसी' इस न्याय से आधुनिक कविचक्रशक महामहापोध्याय गगाधर जी महाशय से निर्मित 'अलिविलासिसंलाप' नामक खण्डकाव्य की संक्षिप्त समालोचना करूंगा. इस महाशयजी ने भी 'बाप जैसा बेटा और वड तैसा टेटा' इस किंवदन्ती को सत्य की है याने पूर्वोक्त ऋषिओं की तरह इन्होंने भी जैनीयों के विषयमें मन कल्पित अपना अभिप्राय प्रकट किया है इस लिये पाठकोंको 'अलिविलासिसंलाप' का चौथा शतक देखना चाहिये. मै भी दिखलाता हूँ की महागयजी किस रीति से जैनीयों का झूठा पूर्व पक्ष खड़ा करते हैं और किस प्रकार उसका आपही आप उत्तर भी देते हैं. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) . "स्यादस्ति कार्यकरणेन समस्त वस्तु । स्यान्नास्ति तच विलयात् परतश्व वाधात् ॥ २५ ॥ यहां से २८ तकजैनदर्शन कार्य करनेसे ही सब वस्तु को सन् मानता है, और वस्तु नाश होने से यातो इतरज्ञान से बाघ होनेसे वस्तुओं को असत् मानता है इत्यादि । अब इस पूर्वपक्ष के खण्डन में महाशयजी अपनी न्यायप्रवीणता दिखलाते है की- "हा ! हन्त ! संतमससंततवासघूक ! - नानाविकल्पमयदुर्मतजञ्जपूक ! । प्रामाणिको न हि वदन् विरमेद् विकल्पेऽ प्रामाणिकोक्तिरपराध्यति वाढकाले ॥ ३६॥ वस्तुस्थितिप्रमितिरेव हि मानकृत्यं न त्वस्ति वस्तु युगपत् सदसद्विरूपम् । , वस्तुन्यसद्विविधरूपमतिभ्रमः स्यात् - तां दोष एव जनयेद् न कदापि मानम् ॥ ३७॥ अन्योऽन्यवाधकमसत्त्वमथापि सत्त्व मेकत्र वक्षि युगपद् यदि संशयः सः । यत्सर्वसंशयनिवर्ति तदेव शास्त्रं संशाययत्तदपि चेत् शरणं किमन्यत् १ ॥ ३८ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्णेतुमक्षमतया विविधागमार्थो च्छिष्टैकदेशलघुसंग्रहमात्रकारी। आचार्यलक्षणविहीनतया न मान्यः __ संशायकोच्युपनमजिनो जिनो नः ॥३९॥ स्याद्वादसिद्ध्युपगमे स्वमतस्य हानि- . स्तत्र प्रमाणकथनेऽपि स एव दोषः। । साध्यप्रमाणविषये तु कथं प्रवृत्तिः सेष्टा सदा मतिमतोऽध्यवसायपूर्वा ॥४०॥ . द्विवेतरेतरविरुद्धसशङ्कवाक्या वृत्येकसारमपि शास्त्रमिति प्रवक्तः । नीराजयन्तु वदनं कृतहस्तताला जैनागना बहुलगोमयदीपिकाभिः॥४१॥" प्रथम ३६ में श्लोकों तो पण्डितजी ने गेहेशूरता दिखलाई है याने डरपोक की तरह जैनतार्किकों को है । फिर आगे चल कर पण्डितनी अपनी पण्डिताई छांटते हुए कहते हैं की वस्तु याने पदार्थ की स्थिति की ठीक ठीक प्रमिति (ज्ञान ) करानी यही प्रमाण का कार्य है. और वस्तु सद् और असद, ऐसे दो स्वभाववाली नहीं है, तब भी जो तुम यह कहते हो कि वस्तु । सत् और असत् यह उभयखभावसहित है वह तुमको भ्रम है, तो ह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस भ्रमका जनक दोष ( अज्ञानादि ) है क्यों कि प्रमाण तो कमी दोषका कारण हो ही नहीं सकता ॥ ३७ ॥ आपसमें शत्रुतावाले सत्त्व और असत्त्व हैं, याने वह दोनो कभी साथ रही नहीं सकते तब भी तुम कहते हो की यह दोनों पदार्थ में साथ रहते हैं यह तुमारा संदेह है, और जो संशयका छेदन करनेवाला शास्त्र हैं वह भी जो संशयको पैदा करै, दूसरा कौन शरण है ? ॥ ३८ ॥ निर्णय करने में असमर्थता होने से विविधप्रकारके शास्त्रों का उच्छिष्ट जो एक देश उसका अल्पसग्रह करनेवाला, और आचार्य (निश्चायक) के लक्षणों से रहित होने से, जिन (अर्हन) हमको मान्य नहीं है ॥ ३९ ॥ और स्याद्वादकी सिद्धिको जो तुम निश्चित मानोगे तो तुमारा संशयपर्यवसायी सिद्धान्त नष्ट हो जायगा, और यदि उसमें प्रमाणकी प्रवृत्ति दिखलावोगे तब भी वही दोष आवेगा, और विद्वानों की प्रवृत्ति सदैव निश्चयपूर्वक होती है इस लिये तुमारे सिद्धान्त में कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता ॥ ४० ॥ जिसमें शक्कित और परस्पर विरुद्ध वाक्यों कि पुनः पुनः आवृत्ति हो वह भी शास्त्र है ऐसा कहनेवालेके मुखकी आरती जैनाङ्गना उतारे ॥४१॥ यहां तक. जो महाशयजी ने जैनियों का अभेद्य स्याद्वादका , आक्षेपण किया है उसका पाठक महाशय निम्न लिखित उत्तर से पढ़, "महाशयजी ने कहा है कि-जैनदर्शन कार्य करने से Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E . * हि वस्तु को सत् मानता है इत्यादि। . मै महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की - यदि आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते तो स्पष्ट मालूम. । होता, की जैनदर्शनका वह (पूर्वोक्त ) मन्तव्य नहीं है, परन्तु जैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही. सद्, । असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है. फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा की क्या एकही वस्त भावस्वरूप और अमावस्वरूप कभी होसक्ती है , तो मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व * नहीं है ? क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप नहीं है , आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष होकर एक वस्तु में अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़िये- "न हि भावैकरूप वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् । नाsप्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् । किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल भावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् मावाs- भावरूपं वस्तु । तथैव प्रमाणाना प्रवृत्तेः । यदाह"अयमेवेति यो खेप भावे भवति निर्णयः। म् साकी ...र. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२.), होते हैं और प्रथम हास्य मनोहर पीछे दुःखप्रद होता है और हासीयुक्त जीव सत्यकी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं होता है। इस लिये सत्य व्रतके धारण करनेवाले हास्यको कदापि भी आसेवन न करें । सो उपर लिखी पंच ही भावनाओं करके युक्त द्वितीय व्रतको धारण करना चाहिये। तृतीय महाव्रतकी पंच नावनायें। प्रथम भावना-निर्दोष वस्ती शुद्ध योगोंका स्थानजहांपर किसी प्रकारकी विकृति उत्पन्न नही होती,. और वह स्थान स्वाध्यायादि स्थानों करके भी युक्त है, स्त्री पशु क्लीबसे भी वर्जित है अर्थात् जिनाज्ञानुकूल है ऐसे स्थानकी विधिपूर्वक आज्ञा लेवे अर्थात् विनाज्ञा कहींपर न ठहरे, तब ही तृतीय व्रतकी रक्षा हो सक्ती है, क्योंकि व्रतकी रक्षा वास्ते ही यह भावनायें हैं ॥ द्वितीय भावना-यदि किसी स्थानोपरि प्रथम ही तृणादि पड़े हो वह भी विनाज्ञान आसेवन न करे ।। तृतीय भावना-पीठफलक-शय्या-संस्तारक इत्यादिकोंके वास्ते स्वयं आरंभ न करे अन्योंसे भी न करावे तथा अनुमोदन भी न करे और विषम स्थानको सम न करावे नाही किसी आत्माको पीड़ित करे ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३) चतुर्थ भावना-जो आहार पाणी सर्व साधुओंका भाग युक्त है वे गुरुकी विनाआज्ञा न आसेवन करे क्योंकि गुरु सर्वके स्वामी है वही आज्ञा दे सक्ते हैं अन्यत्र नही॥ पंचम भावना-गुरु तपस्वी स्थविर इत्यादि सर्वकी विनय करे और विनयसे ही सूत्रार्थ सीखे क्योंकि विनय ही परम तप है विनय ही परम धर्म है और विनयसे ही ज्ञान सीखा हुआ फलीभूत होता है और तृतीय व्रतकी रक्षा भी सुगमतासे हो जाती है, इसलिये तृतीय महाव्रत भावनायें युक्त ग्रहण करे ॥ चतुर्थ महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ प्रथम भावनां-ब्रह्मचर्यकी रक्षा वास्ते अलंकार वर्जित उ. पाश्रय सेवन करे क्योंकि जिस वस्तीमें अलंकारादि होते हैं उस वस्तीमें मनका विभ्रम हो जाना स्वाभाविक धर्म है, सो वस्ती वही आसेवन करे जिसमें मनको विभ्रम न उत्पन्न हो। द्वितीय भावना-स्त्रियोंकी सभामें विचित्र प्रकारकी कथा न करे तथा स्त्री कथा कामजन्य, मोहको उत्पन्न करनेवाली यथा स्त्रीके अवयवोंका वर्णन जिसके श्रवण करनेसे वक्ता श्रोत सर्व ही मोहसे आकुल हो जाये इस प्रकारकी कथा ब्रह्म__चारी कदापि न करे ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४ ) तृतीय भावना-नारीके रूपको भी अवलोकन न करे तथा अंगनाके हास्य लावण्यरूप यौवन कटाक्ष नेत्रोंसे देखना इत्यादि चेष्टाओंसे देखनेसे मन विकृतियुक्त हो जाता है, इसलिये मुनि योषिताके रूपको अवलोकन न करे ।। चतुर्थ भावना-पूर्वकृत क्रीडाओंकी भी स्मृति न करे क्योंकि पूर्वकृत काय क्रीडाओंके स्मृति करनसे मन आकुल व्याकुलता पर हो जाता है, क्योंकि पुनः २ स्मृतिका यही फल होता कि उसकी दृत्ति उसके वशमें नहीं रहती ।। ___ पंचम भावना-ब्रह्मचारी स्निग्ध आहार तथा कामजन्य पदार्थों को कदापि भी आसेवन न करे, जैसे बलयुक्त औषघियें मद्यको उत्पन्न करनेवाली औषधियें, क्योंकि इनके आसेवनसे विना तप ब्रह्मचर्य से पतित होनेका भय है, मनका विभ्रम हो जाना स्वाभाविक है । इसलिये ब्रह्मचर्यकी रक्षा वास्ते स्निग्ध भोजनका परित्याग करे और पांच ही भावनायें युक्त इस पवित्र महावतको आयुपर्यन्त धारण करे ॥ पंचम महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ प्रथम भावना-श्रोत्रंद्रियको वशमें करे अर्थात् मनोहर शब्दोंको सुनकर राग, दुष्ट शब्दोंको श्रवण करके द्वेष, यह काम Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) कदापि भी न करे क्योंकि शब्दों का इंद्रियमें प्रविष्ट होने का धर्म है | यदि रागद्वेष किया गया तो अवश्य ही कर्मोंका बंधन हो जायगा, इसलिये शब्दों को सुनकर शान्ति भाव रक्खे || द्वितीय भावना - मनोहर वा भयाणक रूपों को भी देखकर रागद्वेष न करे अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय वशमें करे || तृतीय भावना - सुगंध - दुर्गंध के भी स्पर्शमान होने पर रागद्वेष न करे अपितु घ्राणेन्द्रिय वशमें करे || चतुर्थ भावना - मधुर भोजन वा तिक्त रसादियुक्त भोजनके मिलनेपर रसेंद्रियको वशमें करे अर्थात् सुंदर रसके पिलनेसे राग कटुक आदि मिलने पर द्वेष मुनि न करे | पंचम भावना - स्पर्श वा दुःस्पर्श के होनेसे भी रागद्वेष न करे अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय वशमें करे || सो यह पंचवीस भावनाओं करके पंच महाव्रतोंको धारण करता हुआ दश प्रकारके मुनिधर्मको ग्रहण करे || यथादसविहे समय धम्मे पं तं खंत्ती * पंचवीस भावनाओंका पूर्ण स्वरूप श्री आचाराह सूत्र श्री समवायाङ्ग सूत्र वा श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रसे देख लेना ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) मुत्ती वे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तबे चियाए बंनचेरवासे | ठाणांग सूत्र स्थान १० ॥ अर्थ:-सब अर्थोंको सिद्ध करनेवाली आत्माको सदैव काल ही उज्ज्वलता देनेवाली अंतरंग क्रोधादि शत्रुओंका पराजय करनेवाली ऐसी परम पवित्र क्षमा मुनि धारण करे १|| फिर संसारबंधन से विमोचनता देनेवाली कष्टों से पृथक् ही रखनेवाली निराश्रय वृत्तिको पुष्ट करनेवाली निर्ममत्वता महात्मा ग्रहण करे २ ॥ और सदा ही कुटिल भावको त्याग कर ऋजुभावी होवे, क्योंकि माया ( छल ) सर्व पदार्थों का नाश करती है ३ || फिर सर्व जीवों के साथ सकोमळ भाव रक्खे अर्थात् अहंकार न करे परं मानसे विनयादि सुंदर नियमों का नाश हो जाता है ४ || साथ ही लघुभूत होकर विचरे अर्थात् किसी पदार्थके ममत्वके बंधन में न फंसे । जैसे वायु लघु होकर सर्वत्र विचरता है ऐसे मुनि परोपकार करसा हुआ विचरे ५ || पुनः सत्यव्रतको दृढतासे धारण करे अ. र्थात् पूर्ण सत्यवादी होवे ६ || संयम वृत्तिको निर्दोषता से पालण करे | यदि किसी प्रकार से परीषह पीड़ित करे तो भी संयमवृत्तिको कलंकित न करे ७ || और तपके द्वारा आत्माको निर्मल करे ८|| ज्ञानयुक्त होकर साधुओंको अन्नपाणीआदि ला Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) कर दान देवे अर्थात् साधुओंकी वैयावृत्य करे ९ ॥ और मन वचन कायासे शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करे जैसे कि पूर्वे लिखा जा चुका है १० || ब्रह्मचर्यकी रक्षा तपसे होती सो तप द्वादश प्रकार से वर्णन किया गया है || यथा (१) व्रतोपवासादि करने या आयुपर्यन्त अनशन करना, (२) स्वल्प आहार आसेवन करना, (३) भिक्षाचरीको जाना, (४) रसों का परित्याग करना, (५) केशलुंचनादि क्रियायें, ( ६ ) इन्द्रियें दमन करना, (७) दोप लगनेपर गुर्वादिके पास विधिपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त धारण करना, ( ८ ) और जिनाशानुकूल विनय करना, ( ९ ) वैयावृत्य (सेवा) करना, (१०) फिर स्वाध्याय ( पटनादि ) तप करना, ( ११ ) अपितु आर्तध्यान रौद्रध्यानका परित्याग करके धर्मध्यान शुक्लध्यानका आसेवन करना, ( १२ ) अपने शरीरका परित्याग करके ध्यानमें ही मग्न हो जाना || अपितु द्वादश प्रकारके तपको पालण करता हुआ द्वाविंशति परीपको शान्तिपूर्वक सहन करे || जैसेकि - - द्वादश प्रकार के तपका पूर्ण वर्ण श्री खवाइ आदि सूत्रोंसे देखो || Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८ ) बावीसं परीसहा पं. सं. दिगछा परीसहे ? पिवासा परीसहे सीय परीसहे ३ जसिण परी. - सहे ४ दसमसग परीसह ५ अचेल परीलहे ६ अरइ परीसरे ७ इत्थी परीसहे ८ चरिया परीसहे ए निसीहिया परीसहे १० सिजा परीसहे ११ आकोस परीसदे १२ वह परोसदे १३ जायणा परीसहे १४ अलान्न परीसहे १५ रोग परीसदे १६ तणफास परीसरे १७ जब परीसहे १७ सकार पुरकार परीसरे १ए पन्ना परीसरे २० अन्नाण परीसहे २१ दंसण परीसहे ॥ समवायाङ्ग सूत्रस्थान २२॥ भाषार्थः-महात्माको महा क्षुधातुर होनेपर भी सचित __ आहारादि वा अकल्पनीय पदार्थ लेने योग्य नहीं है अर्थात् क्षु. १ द्वाविंशति परीषहोंका पूर्ण स्वरूप श्री उतराध्ययन सूत्र' जीके द्वितीयाध्यायसे देखना चाहिये ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) धा परीपहको सम्यक् प्रकारसे सहन करे किन्तु जो वृत्तिसे विरुद्ध है ऐसे आहारको कदापि भी न आसेवन करे १ ।। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुके आने पर निर्दोष जलके न मिलने पर यदि महापिपास (सपा) भी लगी हो तो उसको शान्तिपूर्वक ही सहन करे, अपितु सचित जल वा वृत्ति विरुद्ध पाणी न ग्रहण करे, क्योंकि परीपहके सहन करनेसे अनंत कोंकी वर्गना क्षय हो जाती है २॥ और शीत परीषहको भी सहन करे क्योंकि सा. धुके पास प्रमाणयुक्त ही वस्त्र होता है सो यदि शीतसे फिर भी पीड़िन हो जाय तो अग्निका स्पर्श कदापि भी न आसेवन करे ३ ।। फिर ग्रीष्मके ताप होनेसे यदि शरीर परम आकुल। व्याकुल भी हो गया हो तद्यपि स्नानादि क्रियायें अथवा सुखदायक ऋतु शरीरकी क्षेमकुशलताकी न आकांक्षा करे ४॥ साथ ही ग्रीष्मताके महत्वसे मत्सरादिके दंश भी शान्तिपूर्वक सहन करे, उन क्षुद्र आत्माओंपर क्रोध न करे ५॥ वस्त्रोंके जीर्ण होनेपर तथा वस्त्र न होनेपर चिंता न करे तथा यह मेरे वस्त्र जीर्ण वा मलीन हो गये हैं अव मुजे नूतन कहांसे मिलेंगे वा अब जीर्ण वस्त्र परिष्ठापना करके नूतन लूंगा इस प्रकारसे हपं विपवाद न करे ६ ।। यदि संयममें किसी प्रकारकी चिंता उत्पन्न हुई हो तो उसको दूर करे ७॥ और मनसे स्त्रियोंका Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) राग भी चितवन न करे अर्थात् स्त्रियों को पंक (कीचड़ ) भूत जानके परित्याग करे ८ ॥ ग्रामों नगरोंमें विहार करते समय जो कष्ट उत्पन्न होता है उसको सम्यक् प्रकारसे सहन करे, ऐसे न कहे विहारसे बैठना ही अच्छा है ९॥ ऐसे ही बैठनेका भी परीषह सहन करे, क्योंकि जिस स्थान मुनि बैठा हो विना कारण वहांसे न ऊठे १० ॥ और सम विषम शय्या मिलनेसे भी शान्तिपूर्वक परिणाम रक्खे ११॥ यदि कोई आक्रोश देता हो वा दुर्वचनोंसे अलंकृत करता, हो- तो उसपर क्रोध न _करे क्योंकि ज्ञानसे विचारे इसके पास यही परितोषिक है १२॥ यदि कोई वध ( मारने ) ही करने लग जावे तो विचारे यह मेरे आत्माका तो नाश कर ही नही सक्ता अपितु शरीर मेरा है ही नही, इस प्रकारसे वध परीषहको सहन करे १३ ॥ फिर याचनाका भी परीषह सहन करे अर्थात याचना करता हुआ लज्जा न करे १४ ॥ यदि याचना करनेपर भी पदार्थ उपलब्ध नही हुआ है तो विषवाद न करेः १५॥ रोगों के आनेपर शान्तिभाव रक्खे तथा सावध औषधि भी न करे १६ ॥ और संस्तारकादिमें तोंका भी स्पर्श-सहन करे किन्तु तृणोंका परित्याग करके वस्त्रोंकी याचना न करे १७॥ स्वेदके आ जाने पर मलका परीषह सहन करे १८॥ इसी प्रकार सत्कार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१ ) अपमानको भी शान्तिसे ही आसेवन करे १९ ।। बुद्धि महान् होनेपर अहंकार न करे, यदि स्वल्प बुद्धि होवे तो शोक न करे २० ॥ फिर ऐसे भी न विचारे की मेरेको ज्ञान तो हुआ ही नही इस लिये जो कहते हैं मुनियोंको लब्धियें उत्पन्न हो जाती है वे सर्व कथन मिथ्या है, क्योंकि जेकर ज्ञान वा कब्धियें होती तो मुजे भी अवश्य ही होती २१ ॥ और पट् द्रव्य वा तीर्थंकरोंके होनेमें भी संदेह न करे अर्थात् सम्यक्त्वसे स्खलित न हो जावे २२ ।। इस प्रकारसे द्वाविंशति परीपहोंको सम्यक् प्रकारसे सहन करता हुआ धर्मध्यान वा शुक्लध्यानमें प्रवेश करता हुआ मुनि अष्ट कर्मोंकी वर्गनासे ही मुक्त हो जाता है; अष्ट काँसे ही संसारी जीव संसारके बंधनोंमें पड़े हुए हैं इनके ही त्यागनेसे जीवकी मुक्ति हो जाती है ॥ यथा-ज्ञानावर्णी १ दर्शनावर्णी २ वेदनी ३ मोहनी ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराप कर्म ८ ॥ इन कर्मोंकी अनेक प्रकृतियें है जिनके द्वारा जीव मुखों वा दुखोंका अनुभव करते हैं, जैसेकि-ज्ञानावर्णी कर्म ज्ञानको आवर्ण करता है अर्थात् ज्ञानको न आने देता सदैव काल माणियोंको अज्ञान दशामें ही रखता है, पाच प्रकारके दी शानोंको आवर्ण करता है और यह कर्म जीवोंको धर्म अधर्म की परीक्षासे भी पृथक् ही रखता है अर्थात् इस कर्मको बलसे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) पाणी तत्त्वविद्याको नही प्राप्त हो सक्ते हैं; किन्तु यह कर्म जीव षट् प्रकारसे बांधते हैं जैसेकि णाणावरणिज कम्मा सरीरपटग बंधेणं भंते कम्मस्स उदयणं गोयमा णाण पमिणीययाए १ णाणणिएहवणयाए श णाणंतराएणं ३ णाण प्पदोसणं ४ णाणञ्चासादयाए ५ णाणविसं. वादणा जोगेणं ६॥ भगवती सू० शतक ७ उद्देश ए॥ भाषार्थ:-श्री गौतम प्रभुनी श्री भगवान्से प्रश्न पूछते हैं कि हे भगवन् ! जीव ज्ञानावर्णी कर्म किस प्रकारसे बांधते हैं ॥ भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! षट् प्रकारसे जीव ज्ञानावणी कर्म बांधते हैं जैसेकि-ज्ञानकी शत्रुना करनेसे अर्थात् सदैव काल ज्ञानके विरोधि ही बने रहना और अज्ञानको श्रेष्ठ जानना, अन्य लोगोंको भी अज्ञान दशामें ही रखनेका परिश्रम करना १॥ तथा ज्ञानके निण्हव बनना अर्थात् सो वार्ता यथार्थ हो उसको मिथ्या सिद्ध करना था ज्ञानको गुप्त करना, जैसेकि किसीके पास ज्ञान है उसने Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) विचार किया कि यदि मैंने किसी औरको सिखला दिया तो मेरी प्रतिष्ठा भंग हो जायगी २ ॥ और ज्ञानके पठन करने में अंतराय देना अर्थात् ऐसे २ उपाय विचारने जिस करके लोग विद्वान् न बन जावे और पूर्ण सामग्री होनेपर भी ज्ञानमृद्धिका कोई भी उपाय न विचारना ३ || और ज्ञान देप फरना ४ ॥ ज्ञानकी आशातना करना ५ ॥ ज्ञानमें विपयाद करना तथा सत्य स्वरूपको परित्याग करके वितंडावादयं बगे रहना ६ ॥ इन कर्मोंसे जीव ज्ञानावर्णी फर्मको बांधते है जिसके प्रभावसे जाननेकी शक्तिसे भिन्न ही रह जाते हैं, और इन कर्मों ( कारणोंसे ) के परित्याग करनेसे जीव ज्ञानावर्णको दूर कर देते हैं, जिस करके उनको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति रो जाती है। और दर्शनावर्णी कर्म भी जीव उक्त ही कारणाने बांधते है जैसेकि-दर्शनमत्यूनीकना करनेसे १ दर्शननिण्डवता २ दर्शन अंतराय ३ दर्शन मद्वेषना ४ दर्शन आगातना ५ दर्शन विपवाद योग ६ ॥ इन कारणों से जीव दर्शनावणी कर्मको बांधकर चक्षुदर्शनादिका निरोध करने है २ ॥ और वेद नीय कर्म द्वि प्रकारसे वाधा जाता है जैसे कि सुख वेदनी ', : दुःखवेदनी २। अर्थात् जिसने किसी को भी पीड़ा नही दी, पर्व : रक्षा करता रहा, किसीको दुःखिन नहीं किया, वह जीव सदस्य ' वेदनी कर्म बांधता है और उसका सुखरूप ही फल भोगता है ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४ ) ___ और जिसने हिंसा की, जविको दुःखित किया कभी भी परोपकार नहीं किया वह जीव दुःखरूप वेदनीय कर्म बांधते हैं और दुःखरूप ही उसके फल भोगते हैं । और क्रोध मान माया लोभ तथा सम्यक्त्व मोहनी मिश्रमोहनी मिथ्यात्वमोहनी इनके द्वारा जीव मोहनी कर्मको बांधते हैं जिस करके जीव मोहमें ही लगे रहते हैं । प्रायः कोई २ धर्मकी बातको भी सुनना नही चाहते हैं, संसारके ही कामों में लगे रहते हैं तथा क्रोधादिमें ही लगे रहते हैं, और आयुर्कमकी प्रकृतियें चार गतियोंकी चार २ कारणों से ही जीव बांधते हैं, जैसेकि नरक गतिकी आयु जीव चार कारणोंसे बांधते हैंयथा महा आरंभ करने ( हिंसादि कर्म करनेसे ) से १ और महा परिग्रह (धनकी लालसा ) के कारणसे २ पंचिंद्रिय जीवोंके वध करनेसे अर्थात् शिकारादि कर्म ३ और मांसभक्षणसे ४॥ और चार ही कारणोंसे जीव तिर्यग् योनिके कर्मोंको बांधते हैं जैसेकि माया करने (छल) से १ मायामें माया करना २ असत्य भाषण करना ३ कूट तोला मापा करना अर्थात् कूड़ तोळना कूड़ ही मापना ४ || और चार ही कार। णोंसे जीव मनुष्य योनिके कर्म बांधते हैं, जैसेकि प्रकृतिसे ही भद्र होना १ प्रकृतिसे ही विनयवान होना २ दयायुक्त होना ३ मत्सरता वा ईष्या न करना ४ इन्ही कारणोंसे जीव मनुष्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) योनिके कर्म बांधते हैं । और चार ही कारणोंसे जीव देव आयुको बांधते हैं जैसेकि-सरांग संयम पाळण करना अर्थात् साधु वृत्ति राग सहित पाळण करना १ श्रावकटत्ति पाळनेसे १ और अज्ञान कष्ट सहन करनेसे ३ अकाम निर्जरासे अर्थात् जिस वस्तुकी इच्छा है वह मिलती नहीं है और वासना नष्ट मी नहीं हुई उस कारणसे भी आत्मा देव आयुको बांध लेते हैं, अपितु मृत्यु समय जेकर शुभ परिणाम हो जाये तो ४ ॥ नाम कर्म भी जीव चार ही कारणोंसे बांधते हैं, जैसेकि-कायाको ऋजुतामें रखना ? भावोंको भी ऋजु करना २ भापा भी ऋजु ही उच्चारण करनी ३ और मनमें कोई भी विपवाद न करना ४, इन कारणोंसे जीव शुभ नाम कर्मको वांधते हैं ॥ और यह धार ही वक्र करनेसे जीव अशुभ नाम कर्मको बांधते हैं और अष्ट कारणोंसे जीव उच्च गोत्र कर्मको बांधते हैं, जैमोकि-जातिका पद न करनेसे १ कुकका मद न करनेसे २ वलका मह न करनेसे ३ रूपका मद न करनेसे ४ तपका मद न करनेसे ५ साभका मद न करनेसे ६ श्रुतका मद न करनेसे ७ ऐश्वर्या पद न करनेसे ८ और आठ ही प्रकारके मद करनेसे जीव नीच गोत्रके कमाको बांधते हैं । और पांच ही प्रकारसे जीव अंतराय कर्माको रांधने हैं, जैसे कि-दानवी अंतरायसे ? लाभान्तरायमे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) और जिसने हिंसा की, जावोंको दुःखित किया कभी भी परोपकार नही किया वह जीव दुःखरूप वेदनीय कर्म बांधते हैं और दुःखरूप ही उसके फळ भोगते हैं ॥ और क्रोध मान माया लोभ तथा सम्यक्त्व मोहनी मिश्रमोहनी मिथ्यात्वमोहनी इनके द्वारा जीव मोहनी कर्मको बांधते हैं जिस करके जीव मोहमें ही लगे रहते हैं । प्रायः कोई २ धर्मकी वातको भी सुनना नहीं चाहते हैं, संसारके ही कामों में लगे रहते हैं तथा क्रोधादिमें ही लगे रहते हैं, और आयुकमकी प्रकृतिये चार गतियोंकी चार २ कारणों से ही जीव वांधते हैं, जैसेकि नरक गतिकी आयु जीव चार कारणोंसे बांधते हैंयथा महा आरंभ करने ( हिंसादि कर्म करनेसे ) से १ और महा परिग्रह (धनकी लालसा ) के कारणसे २ पचिद्रिय जीवोंके वध करनेसे अर्थात् शिकारादि कर्म ३ और मांसभक्षणसे ४॥ और चार ही कारणोंसे जीव तिर्यग् योनिके कर्मोंको बांधते हैं जैसेकि माया करने (छल) से १ मायामें माया करना २ असत्य भाषण करना ३ कूट तोला मापा करना अर्थात् कूड़ तोळना कूड़ ही मापना ४ ।। और चार ही कारणोंसे जीव मनुष्य योनिके कर्म बांधते है, जैसेकि प्रकृतिसे ही भद्र होना १ प्रकृतिसे ही विनयवान होना २ दयायुक्त होना ३ मत्सरता वा ईयां न करना ४ इन्ही कारणोंसे जीव मनुष्य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५ ) योनिके कर्म बांधते हैं । और चार ही कारणोंसे जीव देव आयुको बांधते हैं जैसेकि-सरांग संयम पालण करना अर्थात् साधु वृत्ति राग सहित पाळण करना १ श्रावकवृत्ति पालनेसे १ और अज्ञान कष्ट सहन करनेसे ३ अकाम निर्जरासे अर्थात जिस वस्तुकी इच्छा है वह मिळती नही है और वासना नष्ट भी नहीं हुई उस कारणसे भी आत्मा देव आयुको बांध लेते हैं, अपितु मृत्यु समय जेकर शुभ परिणाम हो जावे तो ४ ॥ नाम कर्म भी जीव चार ही कारणोंसे बांधते हैं, जैसेकि-कायाको ऋजुतामें रखना ? भावोंको भी ऋजु करना २ भापा भी ऋजु ही उच्चारण करनी ३ और मनमें कोई भी विषवाद न करना ४, इन कारणों से जीव शुभ नाम कर्मको वांधते हैं ॥ और यह चार ही वक्र करनेसे जीव अशुभ नाम कर्मकोबांधते हैं और अष्ट कारणासे जीव उच्च गोत्र कर्मको बांधते हैं, जैसेकि-जातिका मद न करनेसे १ कुलका मद न करनेसे २ वलका मद न करनेसे ३ रूपका मद न करनेसे ४ तपका मद न करनेसे ५ लाभका मद न करनेसे ६ श्रुतका मद न करनेसे ७ ऐश्वर्यका मद न करनेसे ८ और आठ ही प्रकारके मद करनेसे जीव नीच गोत्रके कर्मों को बांधते हैं । और पांच ही प्रकारसे जीव अंतराय कोको बांधते हैं, जैसेकि-दानकी अंतरायसे १ लाभान्तरायसे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) २ भोग अंतराय से ३ उपभोग अंतराय से ४ वल वीर्य अंतरायसे ५ । यह पांच ही अंतराय करनेसे जीव अंतराय कर्मोंको वांधवे हैं जैसेकि कोई पुरुष दान करने लगा तव अन्य पुरुष कोई दानका निषेध करने लग गया और वह दान करने से पराङ्सुख हो गया तो दानके निषेध करताने अंतराय कर्मको बांध लिया । इसी प्रकार अन्य अंतराय भी जान लेने || सो यह अष्ट कर्मो के बंधन भव्य जीवापेक्षा अनादि सान्त हैं, यदुक्तमागमे तदा जीवाणं कम्मो वचय पुहा गोयमा अत्थेगश्याएं जीवाण कम्मो वचय सादिए सपतवसिए अत्थे गश्याएं जीवाणं कम्मो वचय दिए सपवसिएत्थे श्याणं अणा दिए अप्पमव सिए नोचेवणं जीवाणं कम्मो वचय सादिए अप्पतवसिए से गोयमा इरिया वदिया बंधयस्स कम्मो वचय सादिय सपक्षवसिए नवसिद्धियस्स कम्मो वचय श्रादिए सपव सिए अनवसिद्धियस्स कम्मो वचय Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) प्रणादिय अप्पजवसिय से वत्थेणं नंते किं सादिए सपजवसिय चनभंगो गो वत्थे सादिय सपजावलिय अवसेस्य तिण्डिविपमिसेदियवा जहाणं ते पत्ये सादिय सपजावलिय नो श्रणादिय अप्प नो अणादिय सपनो यणादिय अप्पजा तहा जीवा किं सादिया सपज्जवसिया चोनंगो पुच्छा गोयना अत्थे सादियाअचत्तारि विनापियवा से गो नेर यतिरिक्खंजोणिय मणुस्स देवा गइरागई पडुच्च सादिया सपज्जवसीता सिद्धिगई पमुच्च सादिए थपज्जवसिया नवसिदील िपमुच्च श्रणादिया सपजावसिया अन्नवसिद्धिया संसारं पमुच्च अ-. पादिया अप्पजावसिया॥ नगवतो सूत्र शतक ६ उद्देश ३ ॥ ... भापार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवान्मे प्रश्न पूछने हैं कि हे भगवन् ! जीवोंके साथ काँका उपचय (सम्बन्ध ) क्या Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) सादि सान्त है अथवा अनादि सान्त है तथा सादि अनंत हैं वा अनादि अनंत है ? श्री भगवान् उत्तर देते है कि हे गौतम.! कतिपय जीवोंके साथ कर्मोंका उपचय सादि सांत भी है और कतिपय जीवोंके साथ अनादि सान्त भी है और कतिपय जीवोंके साथ काँका उपचय अनादि अनंत भी है किन्तु जीवोंके साथ काँका उपचय सादि अनंत नहीं होता है। तब गौतमजी पूर्वपक्ष करते हैं कि 'हे भगवन् ! यह वार्ता किस प्रकारले सिद्ध है ? श्री भगवान् उदाहरण देकर उक्त कथनको स्पष्टतया सिद्ध करते है कि हे गौतम ! इर्यावही क्रियाका बंध सादि सान्त है उपशम मोहमें वा क्षीण मोहनी कर्ममें ही इ. सका बंध है ॥ __और भव्य जीव अपेक्षा *काँका उपचय अनादि सान्त है अपितु अभव्य जीव अपेक्षा कर्मोंका उपचय अनादि अनंत * श्री पणवन्नाजी सूत्रमें अष्ट कर्मोंकी प्रकृतिये १४८ लिखी हैं जैसेकि-ज्ञानावर्णीकी ६ दर्शनावाँकी ९ वेदनीकी २ मोहनीकी २८ आयुकर्मकी ४ नामकर्मकी ९३ गोत्रकी २ अंतराय कर्मकी ५॥ और इनका बंध उदय" उदीरणा सत्ता इत्यादिका - रूप उक्त सूत्रमें वा श्री भगवती इत्यादि सूत्रोंसे ही देख लेना ।। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) है, इस कारणसे हे गौतम ! कतिपय जीवोंके साथ काँका सम्वन्ध सादि सान्तादि कहा जाता है। श्री गौतमजी पुनः पू. छते हैं कि हे भगवन् ! जो वस्त्र है क्या वे सादि सान्त है वा अनादि सान्त है तथा सादि अनंत है वा अनादि अनंत है ? श्री भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! वस्त्र सादि सान्त ही है किन्तु अन्य भंग वस्त्रमें नहीं है। __ श्री गौतमजी-यदि वस्त्र सादि सान्त पदवाला है और भंगोंसे वर्जित है तो हे भगवन् ! जीव क्या सादि सान्त हैं वा अनादि सान्त हैं तथा 'सादि अनंत हैं वा अनादि अनंत हैं ? श्री भगवान् कतिपय जीव सादि सान्त पदवाले हैं, और । अनादि सान्त पदवाळे है, अपितु कतिपय सादि अनंत पदवारे भी हैं और कतिपय अनादि अनंत पदवाले भी हैं । श्री गौतमजी-यह कथन किस प्रकारसे सिद्ध है अर्थात् इसमें उदाहरण क्या क्या हैं ? ___ श्री भगवान्हे गौतम ! नारकी तिर्यक् मनुष्य देव इन योनियों में जो जीव परिभ्रमण करते हैं उस अपेक्षा (गतागतिकी ) जीव सादि सान्त पदवाले हैं क्योंकि जैसे मनुष्य योनमें कोई जीव आया तो उसकी सादि है, अपितु जिस Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४० ) समय मृत्युको प्राप्त होगा उस समय मनुष्य योनिका उस जीव अपेक्षा अंत होगा । इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना । और सिद्ध गतिकी अपेक्षा जीव सादि अनंत हैं, किन्तु भव्य सिद्ध लब्धि अपेक्षा जीव अनादि सान्त है, अभव्य जीव अपेक्षा अनादि अनंत हैं ॥ सो भन्य जीवोंके कर्मोंका सम्बन्ध द्रव्यार्थिक नयापेक्षा अनादि अनंत है और पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त हैं ।। सो अष्ट कर्मोंके बंधनोंको छेदन करके जैसे अलावू (तूंवा) मृत्तिकाके वा रज्जुओंके बंधनोंको छेदन करके जलके उपरि भागमें आ जाता है इसी प्रकार आत्मा काँसे रहित हो कर मोक्षमें विराजमान हो जाता है। सो मुनिधर्मको सम्यग् प्रकारसे पालण करके सादि अनंत पदयुक्त होना चाहिये, इसका ही नाम सर्व चारित्र है ॥ १ इति तृतीय सर्ग समाप्त ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थ सर्गः॥ . . . ॥ अथ गृहस्थ धर्म विषय ॥ . और गृहस्थ लोगोंका देशवृत्ति धर्म है क्योंकि गृहस्थ लोग सर्वथा प्रकारसे तो वृत्ति हो ही नही सक्ते इस लिये श्री भगवान्ने गृहस्थ लोगोंके लिये देशत्तिरूप धर्म प्रतिपादन किया है । सो गृहस्थ धर्मका मूल सम्यक्त्व है जिसका अर्थ है कि शुद्ध देव शुद्ध गुरु शुद्ध धर्मकी परीक्षा करना, फिर परीक्षाओं द्वारा उनको धारण करना, फिर तीन रत्नोंको भी धारण करना, न्यायसे कभी भी पराङ्मुख न होना क्योंकि गृहस्य लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है, और अपने माता पिता भगिनी भार्या मात्र इत्यादि सम्बन्धियोंके कृत्योंको भी जानना, और कमी भी अन्यायसे वर्ताव न करना । देखिये श्री शान्तिनाथजी तीर्थंकर देव न्यायसे षट् खंडका राज्य पालन करके फिर तीर्थंकर पदको प्राप्त करके मोक्ष हो गये हैं। इसी प्रकार भरव चक्रवर्ती भी पद खंडका राज्य भोग कर फिर मोक्षगत हुए । इससे सिद्ध है कि गृहस्थ लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है भौर न्यायसे ही यश,संपत् ,लक्ष्मी इनकी प्राप्ति होती है। और Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२ ) __ जो पुरुष अन्याय करनेवाले होते हैं वे. दोनों लोगोंमें कष्ट सहन करते हैं जैसेकि इस लोगमें चौर्यादि कर्म करनेवाळे वध बंधनोंसे पीड़ित होते हैं और परलोकमें नरकादि गतिओंके कष्ट भोगते हैं ॥ और हेमचन्द्राचार्य अपने बनाये योगशास्त्रके प्रथम प्रकाशमें गृहस्य धर्य सम्बन्धि निम्न प्रकारसे श्लोक लिखते हैं: न्यायसम्पन्नविभवः शिष्टाचारप्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्द्ध कृतो द्वाहोऽन्यगोत्रजैः ।। १ ॥ पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन् । अवर्णवादी न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥ २ ॥ अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुमातिवेश्मिके । अनेकनिर्गमद्वारविवर्जितनिकेतनः ।। ३ ।। कृतसङ्गः सदाचारैर्मातापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥ ४ ॥ व्ययमायोचितं, कुर्वन् वेषं. वित्तानुसारतः ।। अष्टभिधीगुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्मसत्यहम् ॥ ५॥ अजीर्णे भोजनत्यागी. काले भोक्ता च सात्म्यतः । अन्योऽन्याप्रतिबंधेन-त्रिवर्गमपि साधयन् ॥ ६॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) यथावदतिथौ साधौ दीने च प्रतिपत्तिकृत् । सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ ७ ॥ अदेशाकाळयोश्चर्यं त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थ ज्ञानवृद्धानां पूज्यकः पोष्यपोषकः ॥ ८ ॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः ।। ९ ।। अंतरंगादिषड्वर्गपरिहारपरायणः । वर्श कृतेन्द्रियग्रामों गृहिधर्माय कल्पते ॥ १० ॥ भावार्थ:--न्याय से धन उपार्जन वा शिष्टाचार की प्रशंसा करनेवाला, वा जिनका कुल शील अपने सादृश्य है ऐसे अन्य गौत्रवाळके साथ, विवाह करनेवाला, वा पाप से डरनेवाला है, और प्रसिद्ध देशाचारको पालन करता हुआ किसी आत्माका भी कहीं पर अवर्णवाद नहीं बोलता, अपितु राजादिकों का विशेष करके अवर्णवाद वर्जता है और अति प्रगट वा अति गुप्त स्थानोंमें भी निवास नहीं करता किन्तु अच्छे पडोसीवाले घरमें रहनेवाला, और जिस स्थानके अनेक आने जानेके मार्ग होवे उस स्थानको वर्जता है । फिर सदाचारियोंसे संग करनेवाला, उपद्रव संयुक्त स्थानको वर्जनेवाला, और जो कर्म Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४ ) जगत्में निंदनीक हैं उनमें प्रवृत्ति नही करनेवाला, और अपने लाभके अनुसार व्यय करनेवाला तथा धनके अनुसार वेप रखनेवाला जो निरन्तर ही धर्मोपदेश श्रवण करनेवाला है, फिर अजीणेमें भोजनका त्यागी समयानुकूल आधार करनेवाला है, अपितु किसीकी हानि न करना ऐसी रीतिसे धर्म अर्थ काम मोक्षको सेवन करता है और यथायोग्य अतिथियों और दीनोंकी प्रतिपत्ति करनेवाला है, फिर सदैव काल आग्रहरहित, गुणोंका पक्षपाती, जो देशके विरुद्ध काम नहीं करता, सव कामोंमें अपने बलाबलके जानकरके काम करनेवाला है, तथा जो महात्मा पंच महाव्रतोंको पालते हैं, और जो ज्ञानकी वृद्धिमें सदैवकाल कटिबद्ध है, ऐसे महात्माओंकी भक्ति वा पोषणे योग्यका पोषण करनेवाला, दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवल्लभ, लज्जालु, दयालु, सौम्य, परोपकार करने में समर्थ, काम क्रोध लोभ मद हर्ष मान इन पट अंतरंग वैरियोंके त्याग करनेमें तत्पर, और पांच इन्द्रियोंके वश करनेवाला, इस प्रकारकी वृत्तिवाला पुरुष गृहस्थ धर्मके धारणके योग्य होता है । और फिर सम्य क्त्वयुक्त गृहस्थ प्रथम ही सप्त व्यसनोंका परित्याग करे क्योंकि ___ यह सात ही व्यसन दोनों लोगों में जीवोंको दुःखोंसे पीड़ित कर .. हैं और इनके वशमें पड़ा हुआ प्राणी अपने अमूल्य Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५ ) मनुष्य जन्मको हार देता है इस लिये सातोंका ही अवश्य त्याग करना चाहिये, जैसेकि-प्रथम व्यसन द्युतकर्म है । अर्थात् जूयका खेलना सब आपत्तियोंकी खानि है और जुया रीको सब ही अकार्य करने पड़ते हैं। यश संपत् मुनाम धैर्य सत्य संयम सुकर्म इत्यादि सर्वका ही यह द्युतकर्म नाश कर देता है इस लिये यह व्यसन त्यागनीय है। . द्वितीय व्यसन-मांसभक्षण कदापि न करे क्योंकि यह कर्म अति निंदित धर्मका ही नाश करनेवाला है और आर्यता. का नष्ट करनेवाला है। अनेक रोग इसके द्वारा उत्पन्न होते हैं। फिर यह ऋण है क्योंकि जिस प्राणीका जिस आत्माने मांस. भक्षण किया है उस प्राणीके मांसको भी वह अवश्य ही खायेंगे तथा विचारशील पुरुषोंका कथन है कि-जो पशु (सिंहादि.) मांसाहारी जब वे कुछ परोपकार नहीं कर सक्ते तो भला जो मनुष्य मांसाहारी हैं उनसे परोपकारकी क्या आशा हो सक्ती है ? इस लिये द्वितीय व्यसन मांसभक्षणका त्याग करना चाहिये । तृतीय व्यसनमुरापान है जो बुद्धिका विध्वंसक सत्य गुणाका नाशक है और धर्म कर्मसे पराङ्मुख करनेवाला है जिसकी उत्पत्ति भी परम घृणादायक है । और जो मद्यपान Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ करनेवालोंकी दुर्गति होती हैं वह भी लोगो के दृष्टिगोचर ही है । इस लिये यह परम निंदनीय कर्म अवश्य ही त्यागने योग्य है । चतुर्थ व्यसन - वेश्यासंग है । इसके द्वारा भी जो जो प्राणी कष्टोंका अनुभव करते हैं वे भी अकथनीय ही हैं क्योंकि यह स्वयं तो मलीन होती ही है अपितु संग करनेवाले मळीनतासे अतिरिक्त शरीरके नाश करनेवाले अनेक रोगोंका भी पारितोषिक ले आते हैं । फिर वे उन पारितोषिक रूप रोगोंका आयुभर अनुभव करते रहते हैं । वेश्यागामी के सत्य शीळ तप दया धर्म विद्या आदि सर्व सुगुण नाशताको प्राप्त हो जाते हैं । फिर जो उनकी गति होती है वे महा भयाणक लोगों के सन्मुख ही है, इस लिये गृहस्थ लोग वेश्या संगका अवश्य ही परिहार करे || पंचम व्यसन —आहेटक कर्म है । जो निर्दय आत्मा वनवासी निरापराधि तृणों आदिसे निर्वाह करनेवाले हैं उन प्राणियों का वध करते हैं, वे महा निर्दय और महा अन्याय करनेवाले हैं, क्योंकि अनाथ प्राणियों का वध करना यह कोई शूरवीरताका लक्षण नही है । बहुतसे अज्ञात जनोंने इस कर्मको अवश्यकीय ही मान लिया है, वे पुरुष सदैवकाल अपनी आ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) मोपरि पापों का भार एकत्र कर रहे हैं, इस लिये प्राणिवध ( शिकार ) का त्याग अवश्यमेव ही करना चाहिये || षष्टम व्यसन - परस्त्री संग है, जिसके ग्रहणसे अनेक राजाओंके भयाणक संग्राम हुए और उनको परम कष्ट भोगने पड़े । अपितु कतिपय के तो प्राण भी चले गये और परस्त्री संगसे अनेक दुःख जैसे कि - अपयश, मृत्युका भय, रोगों की वृद्धि, शरीरका नाश, राज्यदंड इत्यादि अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, इस लिये गृहस्थ लोग षष्टम व्यसनका भी परित्याग करें ॥ सप्तम व्यसन - चौर्य कर्म है, सो यह भी महा हानिकारक, -वध वैधादिका दाता, निंदनीय दुःखोंकी खानि, धर्मके वृक्षको काटने के लिये परशु, सुकृतिका नाश करता, जिसके आसेवन से 'देशमें अशान्ति इत्यादि अवगुणों का समूह है सो धर्मकी इच्छा करता हुआ गृहस्थ इस चौर्य कर्मका भी परिहार करे | फिर द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार धर्मका उदय करता हुआ गुरु मुखसे द्वादश व्रत धारण करे जो निम्न लिखितानुसार है || थुलात पाणाश्वायाज वेरमणं ॥ स्थूळ जीवहिंसा से निवृत्तिरूप प्रथम अनुव्रत है क्योंकि सर्वथा जीवहिंसाकी तो गृहस्थी निवृत्ति नही कर सक्ते, इस Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८ ) लिये उसके स्थूल जीवहिंसाका परित्याग होता है, जैसेकिजान करके वा देख करके निरपराधि जीवोंको न मारे । उसमें भी सगासम्बंधि आदिका आगार होता है और इस नियमसे न्यायमार्गकी प्रवृत्ति अतीव होती है। फिर इस नियमको राजोंसे लेकर सामान्य जीवों पर्यन्त सवी आत्मायें सुखपूर्वक धारण कर सक्ते हैं और इस नियमसे यह भी सिद्ध होता होता है कि जैन धर्म प्रजाका हितैषी राजे लोगोंका मुख्य धर्म है। निरपराधियोंको मत दुःख दो और न्यायमार्गसे बाहिर भी मत होवो और सिद्धार्थ आदि अनेक महाराजोंने इस नियमको पालन किया है । फिर भी जो जीव सअपराधि है उनको भी दंड अन्यायसे न दिया जाये, दंडके समय भी दयाको पृथक् न किया जाये, जिस प्रकार उक्त नियममें कोई दोष न लगे, उस प्रकारसे ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सूत्रोंमें यह वात देखी जाती है । जिस राजाने किसी अमुक व्यक्तिको दंड दिया तो साथ ही स्वनगरमें उद्घोषणासे यह भी प्रगट कर दिया किहे लोगो ! इस व्यक्तिको अमुक दंड दिया जाता है इसमें राजेका कोइ भी अपराध नहीं है, न प्रजाका, अपितु जिस प्रकार इसने यह काम किया है उसी प्रकार इसको यह दंड दिया गया है। • इस कथनसे भी न्यायधर्मकी ही पुष्टि होती है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९ ) सो प्रथम व्रतकी शुद्धयर्थे पांच अतिचारोंको भी वर्जित करे जोकि प्रथम व्रतमें दोषरूप है अर्थात् प्रथम व्रतको कलं. कित करनेवाले हैं, जैसेकि बंधे १ वहे ५ बविच्छेदे ३ अश्भारे । नत्तपाणिवु ए ५॥ ' अर्थः-क्रोधके वश होता हुआ कठिन बांधनोंसे जीवोंको बांधना १ और निर्दयके साथ उनको मारना २ तथा उनके अंगोपाङ्गको छेदन करना ३ अप्रमाण भारका लादना अर्थात् पशुकी शक्तिको न देखना ४ अन्न पाणीका व्यवच्छेद करना अर्थात् अन्न पाणी न देना ५ ॥ यह पांच ही दोष प्रथम व्रतको कलंकित करनेवाले हैं, इस लिये प्रथम व्रतको पालनेहारे जीव उक्त लिखे हुए पांच अतिचारोंको अवश्य ही त्यागें, तब ही व्रतकी शुद्धि हो सक्ती है । द्वितीय अनुव्रत विषय । थुलाउ मुसावायाउ वेरमणं ॥ स्थूल मृषावाद नितिरूप द्वितीय अनुव्रत है जैसेकि स्थूलमृवाचाद कन्याके लिये, गवादि पशुओंके लिये, भूम्यादिके लिये अय Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) वा स्थापनमृषा ( धरोड मारना) कूट शाक्षी तथा व्यापारमें स्थूल असत्य और अन्य २ कारणोंमें जिसके भाषण करने से प्रतीतका नाश होवे, राज्यसे दंडकी प्राप्ति होवे, और आत्मा पापसे कलंकित हो जाय इत्यादि कारणोंसे असत्यभाषी न होवे, अपितु यह ना समज लिजीये स्थूळ ही मृषावादका परित्याग है किन्तु सूक्ष्मकी आज्ञा है । मित्रवरो ! सूक्ष्मकी आज्ञा नहीं है किन्तु दोष न लग जानेपर स्थूल शब्द ग्रहण किया गया है अर्थात् व्रतमें दोष न लगे । अपितु असत्य सर्वथा ही त्यागनीय है और जीवको सदैव काल दुःखित रखनेवाला है, संसारचक्रमें परिवर्तन करानेवाला सुकर्मीका नाशक है, किन्तु सत्य व्रत ही आत्माकी रक्षा करनेवाला है । सो इस व्रतकी रक्षार्थे भी पांच ही अतिचारों वर्जे, जैसे कि सहस्सा जक्खाऐ रहस्सा भक्खाणे सदारमंतनेय मोसोवएसो कूड लेद करणे ॥ み अर्थः- :- अकस्मात् विना उपयोग भाषण करना १ । तथा गुप्त वार्ताओं को प्रगट करना अर्थात जिनके प्रगट करनेसे किसी आत्माको दुःख पहुंचता हो अथवा कामकथादि २ । अपने घरकी वातें वा स्त्रखीकी बातें प्रगट करना ३ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) ॥ और अन्य पुरुषौको असत्य उपदेश करना 8 । तथा असत्य ही लेख लिखने ५ । इन पांच ही अतिचारोंको त्याग करके द्वितीय व्रत शुद्ध ग्रहण करे || तृतीय अनुव्रत विषय ॥ थुलाउ दिन्नादापाओ वेरमणं ॥ तृतीय अनुव्रत स्थूल चोरीका परित्यागरूप है जैसेकि ताला पडि कूची, गांठ छेदन करना, किसीकी भित्ति तोड़ना, मागमें लूटना, डांके मारने; क्योंकि यह ऐसा निंदनीय कर्म है कि दोनों लोगों में भयाणक दशा करनेवाला है और इसके द्वारा वधकी प्राप्ति होना तो स्वाभाविक बात है । फिर इस कर्म कर्ताओं के दया तो रही नही सक्ति, सव मित्र उसीके ही शत्रु रूप बन जाते हैं और इस कॅर्मके द्वारा प्राणि अनेक कष्ट को भोगते हैं, इस लिये तृतीय व्रतके धारण करनेवाला गृहस्थ पांच अतिचारोंका भी परिहार करे जैसे कि तेषा मे १ तक्कर पडगे २ विरुद्ध रजाकम्मे ३ कूड़ तोले कूड़ माणि ४ तप्पमिरूवग ववहारे ५ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) भाषार्थ:--इस व्रतकी रक्षा अर्थे निम्न लिखित अतिचार अवश्य ही वर्जे, जैसेकि-चोरीकी वस्तु (माल) लेनी क्योंकि इस कर्मके द्वारा जो लोग फल भोगते हैं वह लोगोंके दृष्टिगोंचर ही हैं ?।और चोरोंकी रक्षा वा सहायता करना २ | राज्य विरुद्ध कार्य करने क्योंकि यह कार्य परम भयाणक दशा दि. खलानेवाला है और तृतीय व्रतको कलंकित करनेवाला है ३ । फिर कूट तोल कूट ही माप करना (घट देना, वृद्धि करके लेना) ४ । और शुद्ध वस्तुओंमें अशुद्ध वस्तु एकत्र करके विक्रय करना क्योंकि यह कर्म यश और सत्यका दोनोंका ही घातक है। इस लिये पांचो अतिचारोंको परित्याग करके तृतीय व्रत शुद्ध धारण करे ॥ चतुर्थ स्वदार संतोष व्रत ॥ __मित्रवरो! कामको वशी करना और इन्द्रियोंको अपने वशमें करना यही परम धर्म है जैसे इंधनसे अग्नि दृप्तिको प्राप्त ___ नही होती केवळ पाणा द्वारा ही उपशमताको प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार यह काम अग्नि संतोष द्वारा ही उपशम हो सक्ती * अन्य प्रकारसे नही, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य व्रत आत्मशक्ति, • अक्षय सुख, शरीरकी निरोगता, उत्साह, हर्ष, चित्तकी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) कारण वशात् लघु व्यवस्थामें ही विवाह हो गया तो लघु व्यवस्थायुक्त स्त्रीके साथ संभोग न करे, यदि करे तो प्रथम अतिचार है १ । अथवा यदि उपविवाह हुआ उसके साथ संग करना जिसको मांगना कहते हैं २ | कुचेष्टा करना अर्थात् कामके वशीभूत होकर कुचेष्टा द्वारा वीर्यपात करना ३ | तथा परका मांगना किया हुआ उसको आप ग्रहण करना ( उपविवाहको ) ४ । और कामभोगकी तिव्र अभिलाषा रखनी ५ | इन पांच ही अतिचारोंको त्यागके चतुर्थ स्वदार संतोषी तको शुद्धता के साथ धारण करे क्योंकि यह व्रत परम आल्हाद भावको उत्पन्न करनेहारा है । फिर पंचम अनुव्रतको धारण करे जैसे कि - इच्छा परिमाण व्रत विषय ॥ इवा परिमाणे ॥ मित्रवरो ! तृष्णा अनंती है, इसका कोई भी थाह नही मिळता | इच्छाके वशीभूत होते हुए प्राणी अनेक संकटों का सा मना करते हैं, रात्री दिन इसकी ही चिंतामें लगे रहते हैं, इसके ये कार्य अकार्य करते लज्जा नही पाते और अयोग्य कामोंलिये भी उद्यत हो जाते हैं, परंतु इच्छा फिर भी पूर्ण. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) नही होती । अनेक राजे महाराजे चक्रवर्ती आदि भी इस तृष्णा 1 रूपी नदी से पार न हुए और किसी के साथ भी यह लक्ष्मी न गइ । यदि यों कहा जाय तो अत्युक्ति न होगा कि तृष्णाके वंशसे ही प्राणी सर्व प्रकारसे और सर्व ओरसे दुःखोंका अनुभव करते हैं । इस लिये तृष्णा रूपी नदीसे पार होनेके लिये संतोष रूपी सेतु (शेतुपुळ ) बांधना चाहिये अर्थात् इच्छाका परिमाण होना चाहिये । जब परिमाण किया गया तब ही पंचम अनुव्रत सिद्ध हो गया । इसी वास्ते श्री सर्वज्ञ प्रभुने दुःखोंसे छुटने के वास्ते आत्माको सदैवकाळ आनंद रहेनेके वास्ते पंचम अनुव्रत इच्छा परिमाण प्रतिपादन किया है, जिसका अर्थ है कि इच्छाका परिमाण करे, आगे वृद्धि न करे | और इस व्रत के भी पांच ही अतिचार है, जैसेकि - खेत्त वत्थु पमाणातिक्कम्मे दिए सुवएण प्पमाणातिकम्मे डुप्पय चउप्पय प्पमाणातिकम्मे धरण धारण पमाणातिकम्मे कुविय धात प्पमाणातिक्कम्मे || भाषार्थ :- क्षेत्र, वस्तु ( घर हाट ) के परिमाणको अति Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) क्रम करना, हिरण्य सुवर्णके परिमाणको अतिक्रम करना, द्विपाद ( मनुष्यादि ) चतुष्पाद ( पशवादिके) के परिमाणको अतिक्रम करना, और धन धान्यके परिमाणको अतिक्रम करना, फिर घरके उपकर्णके परिमाणको अतिक्रम करना वही पंचम अनुव्रतके अतिचार हैं अर्थात् जितना जिस वस्तुका परिमाण किया हो उनको उल्लंघन करना वही अतिचार है; इस लिये अतिचारोंको वर्जके पंचम अनुव्रत शुद्ध पालन करे || और षष्टम, सप्तम, अष्टम इन तीनों व्रतोंको गुणवत कहते है क्योंकि यह तीन गुणत्रत पांच ही अनुव्रतोंको गुणकारी हैं, और पांच ही अनुव्रत इनके द्वारा सुरक्षित होते हैं | अथ प्रथम गुण व्रत विषय ॥ दिग्व्रत ॥ सुयोग्य पाठक गण ! प्रथम गुणत्रतका नाम दिग्वत है जिसका अर्थ यह है कि दिशाओं का परिमाण करना, जैसेकि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, उर्ध्व, अधो, इन दिशाओं में स्वकाया करके गमण करनेका परिमाण करना । और पांच आस्रव सेवनका परित्याग करना क्योंकि जितनी मर्यादा करेगा उतही आस्रव निरोध होगा । सो इस व्रत के भी पांच ही अतिहैं जैसे कि - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) उढ दिसि पमाणातिक्कमे अहो दिसि प्पमा इक्कमे तिरिय दिसि पमाणाइक्कमे खेत बुढि सांतरा । भाषार्थ:- उर्ध्वं दिशिका प्रमाण अतिक्रम करना ९ अधो दिशिका प्रमाण अतिक्रम करना २ तिर्यग् दिशिका प्रमाण अतिक्रम करना ३ क्षेत्रकी वृद्धि करना जैसेकेि कल्पना करो कि किसी गृहस्थने चारों ओर शत ( सौ २ ) योजन प्रमाण क्षेत्र रक्खा हुआ है । फिर ऐसे न करे कि पूर्व की ओर १५० योजन प्रमाण कर लूं और दक्षिणकी ओर ५० योजन ही रहने दुं क्योंकि दक्षिणमें मुजे काम नही पड़ता पूर्वमें अधिक काम रहता है; यह भी अतिचार है ४ । और पंचम अतिचार यह है कि जैसेकि प्रमाणयुक्त भूमिमें संदेह उत्पन्न हो गया कि स्यात् में इतना क्षेत्र प्रमाण युक्त आ गया हूं सो संशय में ही आगे गमण करना यही पांचमा अतिचार है अपितु पांचो ही अतिचारोंको वर्जके प्रथम गुणत्रत शुद्ध ग्रहण करना चाहिये ॥ जोग परिनोग परिमाणे । जो वस्तु एक वार भोगनेमें आवे तथा जो वस्तु वारम्वार Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-१५८ ) भोगने आवे उसका परिमाण करना सो ही द्वितीय गुणव्रत है, सो इस व्रतके अंतरगत ही पविशति वस्तुओंका परिमाण अवश्य करना चाहिये, जैसेकि १ उल्लणियाविहं-स्नान के पश्चात् शरीरके पूंछनेवाले वस्त्रका परिमाण करना तथा जितने वस्त्र रखने हों। २ दंतणविहं-दांत प्रक्षाळण अर्थे दांतुनका परिमाण करना। ३ फलविहं-केशादि धोवनके वास्ते फलोंका परिमाण करना। ४ अभंगणविहं-तैलादिका प्रमाण अर्थात् शरीरके मर्दन वास्ते । ५ उवट्टणविह-शरीरकी पुष्टि वास्ते उवट्टनका परिमाण । ६ मज्जनविहं-स्नानका परिमाण गणन संख्या वा पाणीका परिमाण । ७ वत्थविहं-वस्त्रोंका प्रमाण अर्थात् वस्त्रोंकी जाति संख्या , वा गणन संख्या। ८ विलेवणविहं-चंदनादि विलेपनका परिमाण । ३ ९ पुष्फविह-शरीरके परिभोगनार्थे पुष्पोंका परिमाण। । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) १० आभरणविहं-आभूषणोंका परिमाण । ११ धूवविहं-धूपविधिका परिमाण अर्थात् धूपयोग्य चस्तुओंके नाम स्मृति रखके अन्य वस्तुओंका परित्याग करना । १२ पिज्जाविह-पीनेवाली वस्तुओंका परिमाण करना । १३ भक्खणविहं-भक्षण ( खाने ) करनेवाली वस्तुओंका परिमाण। १४ उदनविह-शाल्यादि धानादिका परिमाण । १५ सूफविहं-शूपा (दाल) दिका परिमाण । १६ विगयविहं-दुग्ध, घृत, नवनीत, तैल, गुढ़, मधु, दधि, इनका परिमाण करना । १७ सागविहं-शाक विधिका परिमाण अर्थात् जो वनस्पतिये शाकादि परिपक करके ग्रहण की जाती हैं। १८ महुरविहं-फलोंका परिमाण । १९ जीमणाविहं-व्यञ्जनादिका परिमाण जैसेकि मसालादि। २० पाणीविहं-पाणीका परिमाण कूपादिका तथा अन्य जल। २१ मुखावासविह-ताम्बूलादिका परिमाण । २२ वाहणविह-वाहण विधिका परिमाण अर्थात् स्वारि का परिमाण । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६० ) २३ पाहणिविहं-पादरक्षकका परिमाण अर्थात् जूती आदिका परिमाण करना । ___ २४ सयणविह-शय्याका परिमाण अर्थात् वस्त्रोंकी गणन संख्या अथवा शय्यादि स्पर्श करना वा पल्यंकादिका परिमाण। ___२५ सचित्तविह-सचित्त वस्तुओंका परिमाण अर्थात् पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति इत्यादि सचित्त वस्तुओंका परिमाण। २६ दरवविहं-द्रव्योंका परिमाण अर्थात् भिन्न २ वस्तुओंका नाम लेकर परिमाण करना । जैसे किसीने ५ द्रव्य रक्खें तो जल १ पूपा ( रोटी ) २ दाल ३ शाक ४ दुग्ध ५ । इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका परिमाण भी जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि विना परिमाण कोई भी वस्तु ग्रहण करनी न चाहिये । सो इसके भी पांच ही अतिचार हैं, जैसेकि - सचित्ताहारे सचित्त पडिबद्धाहारे अप्पोलिउसही नक्खणया कुप्पोलसही नक्ख गया तुच्छोसही नक्खणया॥ . भाषार्थ:-सचित्त वस्तुका परित्याग होने पर यह अतिचार भी वर्जे, जैसेकि सचित्त वस्तुका आहार १ साचित प्रति-: MEDH.1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) बद्धका आहार २ अपक्क आहार ३ दुःपक आहार ४ तुच्छोपधिका आहार ५ ॥ इन पांच ही अतिचारोंको वर्नक फिर १५ कर्मादानको भी परित्याग करे क्योंकि पंचदश कर्म ऐसे हैं जिनके करनेसे महा काँका बंध होता है । सो गृहस्थोंको जानने योग्य है अपितु ग्रहण करने योग्य नहीं है, जैसे कि १ अङ्गारकम्मे-कौलादिका व्यापार ।। २ वणकम्मे-चन कटवाना क्योंकि यह कर्म महा निर्दयताका है। ३ साडीकम्मे-शकट ( गाड़े) करवाके वेचने । . ४ भाडीकम्मे-पशुओंको भाडेपर देना क्योंकि इस कर्म करनेवालोंको पशुओंपर दया नहीं रहती। ५ फोड़ीकम्मे-पृथ्वी आदिका स्फोटक कर्म जैसे कि शिलादि तोड़ना वा पर्वत आदिको। ६ दत्तवणिज्जे-हस्ती आदिके दांत्तोंका वणिज करना। ७ लख्खवणिज्जे-लाखका वणिज तथा मजीठाका व्यापार करना ।। ८ रसबाणिज्जे-रसोंका वनज करना जैसेकि घृत, नेल, गुड़, मदिरादि । . ९ केसवाणिज्जे-केशोंका वनज करना तथा केश शन्दके 5 अंतरगत ही मनुष्य विक्रियता सिद्ध होती है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) १० विसवणिज्जे-विषकी विक्रियता करनी क्योंकि यह कृत्य महा कर्मों के बंधका स्थान है और आशीर्वादका तो यह प्रायः नाश ही करनेवाला है ॥ . ११ जत्तपीलणियाकम्मे-यंत्र पीड़न कर्म जैसे कि कोल्हु ईख पीड़नादि कर्म हैं। १२ निलंच्छणियाकम्मे-पशुओंको नपुंसक करना वा अवयवोंका छेदन भेदन करना ॥ १३ दवग्गिदावणियाकम्मे-वनकों अग्नि लगाना तथा द्वेषके कारण अन्य स्थानोंको भी अग्निद्वारा दाह करना इत्यादि कृत्य सर्व उक्त कर्ममें ही गर्भित हैं। १४ सर दह तलाव सोसणियाकम्मे-जलाशयोंके जलको शोषित करना, इस कर्मसे जो जीव जलके आश्रयभूत हैं वा जो जीव जलसे निर्वाह करते हैं उन सबोंको दुःख पहोंचता है और निर्दयता बढ़ती है। १. असइजणपोसणियाकम्मे-हिंसक जीवोंकी पालना - ' करना हिंसाके लिये जैसेकि-मार्जारका पोषण करना मूषकों उंदर ) के लिये, श्वानोंकी प्रतिपालना करना जीववधके लिए । हिंसक जीवोंसे व्यापार करना वह भी इसी कर्ममें गर्भित , सो यह कर्म गृहस्थोंको अवश्य ही त्याज्य हैं । जो आर्यकम । 14 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) हैं उनमें जीवहिंसाका निरोध होनेसे हो जीवोंको निज ध्यानकी ओर शीघ्र ही आकर्षणता हो जाती है क्योंकि - आर्य कर्म के द्वारा आर्य मार्गकी भी शीघ्र प्राप्ति होती है । फिर इस द्वितीय गुणवतको धारण करके तृतीय गुणव्रतको ग्रहण करे । अथ तृतीय गुणत्रत विषय । सुज्ञ जनों ! तृतीय गुणव्रत अनर्थ दंड है । जो वस्तु स्वग्रहण करनेमें न आवे और किसीके उपकारार्थ भी न हों, निष्कारण जीवों का मर्दन भी हो जाए ऐसे निंदित कर्मोका अवश्यमेव ही परित्याग करना चाहिए | वे अनर्थ दंडके मुख्य कारण शास्त्रोंम चार वर्णन किये हैं जैसे कि - ( अवज्झाण चरियं पमायचरियं हिंसपयाणं पावकम्मोवएसं ) आर्त्त ध्यान करना क्योंकि इसके द्वारा महा कर्मों का बंध, चित्तकी अशान्ति, धर्मसे पराङ्मुखता इत्यादि कृत्य होते हैं इस लिए अपने संचित कमोंके द्वारा मुख दुःख जीवोंको प्राप्त होते हैं, इस प्रकारकी भावनाएं द्वारा आत्माको शान्ति करनी चाहिए । फिर कभी भी प्रमादाचरण न करना चाहिए जैसे घृत तैल जलादिको विना आच्छादन किये रखना, यदि उक्त वस्तुओंमें जीवोंका प्रवेश हो जाए तो फिर उनकी रक्षा होनी कठिन ही नही किन्तु असंभव ही है | फिर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) १० विसवणिज्जे-विषकी विक्रियता करनी क्योंकि यह कृत्य महा कर्मों के वंधका स्थान है और आशीर्वादका तो यह प्रायः नाश ही करनेवाला है। ११ जत्तपीलणियाकम्मे-यंत्र पीड़न कर्म जैसे कि कोल्हु ईख पीड़नादि कर्म है। १२ निलंच्छणियाकम्मे-पशुओंको नपुंसक करना वा अवयवोंका छेदन भेदन करना ।। १३ दवग्गिदावणियाकम्मे-चनको अग्नि लगाना तथा द्वेषके कारण अन्य स्थानोंको भी अग्निद्वारा दाह करना इत्यादि कृत्य सर्व उक्त कर्ममें ही गर्भित हैं ॥ १४ सर दह तलाव सोसणियाकम्मे-जलाशयोंके जलको शोषित करना, इस कर्मसे जो जीव जलके आश्रयभूत हैं वा जो जीव जलसे निर्वाह करते हैं उन सबोंको दुःख पहोंचता है और निर्दयता बढ़ती है ॥ १५ असइजणपोसणियाकम्मे-हिंसक जीवोंकी पालना करना हिंसाके लिये जैसेकि-मार्जारका पोषण करना मूषकों उंदर ) के लिये, श्वानोंकी प्रतिपालना करना जीववध के लिए और हिंसक जीवोंसे व्यापार करना वह भी इसी कर्ममें गर्भित ने ह, सो यह कमे गृहस्थोंको अवश्य ही त्याज्य हैं । जो आयकर्म । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) हैं उनमें जीवहिंसाका निरोध होनेसे हो जीवोंको निज ध्यानकी ओर शीघ्र ही आकर्षणता हो जाती है क्योंकि - आर्य कर्म के द्वारा आर्य मार्गकी भी शीघ्र प्राप्ति होती है । फिर इस द्वितीय गुणवतको धारण करके तृतीय गुणत्रतको ग्रहण करे । अथ तृतीय गुणत्रत विषय । सुज्ञ जनों ! तृतीय गुणत्रत अनर्थ दंड है । जो वस्तु स्वग्रहण करनेमें न आवे और किसीके उपकारार्थ भी न हों, निष्कारण जीवों का मर्दन भी हो जाए ऐसे निंदित कर्मोंका अवश्यमेव ही परित्याग करना चाहिए | वे अनर्थ दंडके मुख्य कारण शास्त्रों में चार वर्णन किये हैं जैसे कि - ( अवज्झाण चरियं पमायचरियं हिंसपयाणं पावकम्मोवएसं ) आर्त्त ध्यान करना क्योंकि इसके द्वारा महा कर्मों का बंध, चित्तकी अशान्ति, धर्मसे पराङ्मुखता इत्यादि कृत्य होते हैं इस लिए अपने संचित कर्मों के द्वारा सुख दुःख जीवों को प्राप्त होते हैं, इस प्रकारकी भावनाएं द्वारा आत्माको शान्ति करनी चाहिए । फिर कभी भी प्रमादाचरण न करना चाहिए जैसे घृत तैल जलादिको विना आच्छादन किये रखना, यदि उक्त वस्तुओं में जीवोंका प्रवेश हो जाए तो फिर उनकी रक्षा होनी कठिन ही नहीं किन्तु असंभव ही है । फिर Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) 1 हिंसाकारी पदार्थों का दान करना जैसे- शस्त्रदान, अग्निदान, और ऊखल मूसलदान इत्यादि दानोंसे हिंसा की प्रवृत्ति होती है, सुकर्मकी अरुचि हो जाती है । और चतुर्थ कर्म अन्य आत्माओं को पाप कर्म में नियुक्त करना, सो यह कर्म कदापि आसेवन न करने चाहिए। फिर इस तृतीय गुणव्रतकी रक्षा के लिए पांच अतिचारोंको भी छोड़ना चाहिए जो निम्न प्रकार से हैं | कंदप्पे १ कुकुर २ मोहरिए ३ संजुत्ताहि गरणे ४ नवजोग परिभोग अरि ५ || भाषार्थ — कामजन्य वार्त्ताओंका करना १ और कुचेष्टा करना तथा सॉग होरी आदिमें उपहास्यजन्य कार्य करने २ असंबद्ध वचन भाषण करने तथा धर्मयुक्त वचन बोलने ३ प्रमाणसे अधिक उपकरण वा शस्त्रादिका संचय करना ४ जो वस्तु एक वार आसेवन करनेमें आवे अथवा जो वस्तु पुनः २ ग्रहण करनेमें आवे उनका प्रमाणसे अधिक संचय करना अथवा प्रमाणयुक्त वस्तुमें अत्यन्त मूच्छित हो जाना। यह पांच अतिचार छोड़ने चाहिए, क्योंकि इन दोषोंके द्वारा व्रत 'कित हो जाते हैं और निर्जराका मार्ग ही बंध हो जाता सो विना निर्जराके मोक्ष नहीं अपितु मुक्तिके लिए श्री Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) अर्हन् देवने चार शिक्षाबत प्रतिपादन किए हैं जिनमें प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक है ॥ ___ अथ सामायिक प्रथम शिदाव्रत विषय ॥ जो जीवोंको अतीव पुण्योदयसे मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है उसको सफल करनेके लिये दोनों समय सामायिक करना चाहिए ॥ २सम-आय-इक-इन की संधि करनेसे १ नवविहे पुण्णे पं, तं. अन्नपुण्णे १ पाणपुण्णे २ वत्थपुण्णे ३ लेणपुण्णे ४ सयणपुण्णे ५ मणपुण्णे ६ वयपुण्णे ७ कायपुण्णे ८ नमोकारपुण्णे ९ ॥ ठाणाग सू० स्था० ९॥ माषार्थ--नव प्रकारसे जीव पुन्य प्रकृतिको बांधते हैं जैसे कि-अन्नके दानसे १ पानीके दानसे इसी प्रकारसे २ वस्त्रदान ३ शय्यादान ४ संस्तारकदानसे ५ । फिर शुभ मनके धारण करनेसे ६ और शुम वचनके बोलनेसे ७ शुभ कायाके धारण करनेसे ८ और सुयोग्य पुरुषोंको नमस्कार करनेसे ९। सो इन कारणोंसे जीव पुन्यरूप शुभ प्रकृतिका बंध कर लेता है। २ सम शब्दके सकारका अकार, ठण् प्रत्ययान्त होनेसे दीर्घ हो जाता है क्योंकि जिस प्रत्ययके ---इत्संज्ञक होते है उनके आदि अच्को आ-आर् और ऐच हो जाते हैं । इसी प्रकारसे सामायिक शब्दकी भी सिद्धि है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) सामायिक शब्द सिद्ध होता है जिसका अर्थ यह है कि आत्माको शान्ति मार्गमें आरूढ़ करना वा जिसके करने से शान्तिकी प्राप्ति होवे उसीका नाम सामायिक है । सो इस प्रकार से भाव सामायिकको दोनों काल करे । फिर प्रात:काळ, और सन्ध्याकालमें सामायिककी पूर्ण विधिको भलि भांतिसे करता हुआ सामायिक सूत्रको पठन करके इस प्रकारसे विचार करे कि यह मेरा आत्मा ज्ञानस्वरूप है, केवल कर्मों के अंतर से ही इसकी नाना प्रकारकी पर्याय हो रही है और अनादि काल के कम के संगसे इस प्राणीने अनंत जन्म मरण किये हैं । फिर पुनः दुःखरूपि दावानलमें इस प्राणीने परम कष्टोको सहन किया है, और तृष्णाके वशमें होता हुआ अतृप्त ही मृत्युको माप्त हो जाता है । सो ऐसे परम दुःखरूप संसार चक्र से विमुक्त होनेका मार्ग केवल सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन सम्यग् चारित्र ही है। सो जब प्राणी आस्रवके मार्गों को बंध करता है और आत्माको अपने वशमें कर लेता है, तब ही कर्मोंके बंधनों से विमुक्त हो जाता है । सो इस प्रकारके सद् विचारोंके द्वारा सामायिक परिपूर्ण करे । अपितु सामायिक रूप व्रत दो घटिका दोनों समय अवश्य ही करना चाहिये और इस व्रत के पांचों अतिचारोंको वर्जना चाहिये, जैसे कि a । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t 1 ( १६७ ) मण दुप्पषिदाणे वय दुप्पषिदाणे काय करण्याय सामा दुप्पणिहाणे सामायियस्स वियरसवद्वियस्स करण्याए ॥ २ ॥ ते भाषार्थः -- सामायिक व्रतके भी पांच ही अतिचार हैं, जैसे कि - मनसे दुष्ट ध्यान धारण करना १ वचन दुष्ट उच्चारण करना २ और कायाको भी वशमें न करना ३ शक्ति होहुए सामायिक न करना ४ और सामायिकके कालको विना ही पूर्ण किये पार लेना ५ ॥ यह पांच ही सामायिक व्रतके अतिचार हैं, सो इनका परित्याग करके शुद्ध सामायिक रूप नियम दोनों समय अर्थात् सन्ध्या समय और प्रातःकाल नियमपूर्वक आसेवन करे और अतिचारोंको कभी भी आसेवन करे नही, क्योंकि अतिचाररूप दोष व्रतको कलंकित कर देते हैं । सो यही सामायिक रूप प्रथम शिक्षाव्रत है | फिर द्वितीय शिक्षाव्रत ग्रहण करे, जैसे कि - देशावकाशिक || जो षष्टम व्रतमें पूवादि दिशाओंका प्रमाण किया था उस प्रमाणसे नित्यम् प्रति स्वल्प करते रहना उसीका ही नाम देशा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८ ) बकाशिक व्रत है और इसी व्रतमें चतुर्दश नियोका धारण किया जाता है । अपितु जिस प्रकारसे नियम करे उसी प्रकारसे पालन करे किन्तु परिमाणकी भूमिकासे वाहिर पांचास्रव सेवन का प्रत्याख्यान करे। अपितु इस व्रतके धारण करनेसे बहुत ही पापोंका प्रवाह बंध हो जाता है और इस व्रतका भी पांचो अतिचारोंसे रहित होकर पालण करे, जैसे कि आणवणप्पनग्गे पेसवणप्पजग्गे सदाणुवाय रूवाणुवाय वदियापोग्गल पक्खेवे ॥ भाषार्थ:-प्रमाणकी भूमिकासे वाहिरकी वस्तु आज्ञा करके मंगवाई हो १ तथा परिमाणसे बाहिर भेजी हो २ और शब्द करके अपनेको प्रगट कर दिया हो ३ वा रूप करके अपने आपको प्रसिद्ध कर दिया हा ४ अथवा किसी वस्तु पर पुद्गल क्षेप करके उस वस्तुका अन्य जीवोंको बोध करा दिया हो ५॥ सो इन पांच ही अतिचारोंको परित्याग करके दशवा देशावकाशिक व्रत शुद्ध धारण करे । और फिर पर्व दिनोंमें तथा मासमें पौषध करे क्योंकि पौषध व्रत अवश्य ही धारण करना चाजिसके धारण करनेसे कौकी निर्जरा वा तप कर्म दोनों सिद्ध हो जाते हैं ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) तृतीय पोषध शिक्षाबत विषय ॥ उपाश्रयमें वा पौषधशालामें तथा स्वच्छ स्थानमें अष्ट यामपर्यन्त एक स्थानमें रहकर उपवास व्रत धारण करना उसका ही नाम पौषध व्रत है । अपितु पौषधोपवासमें अन्न, पाणी, खाधम, स्वाद्यम, इन चारों ही आहारका प्रत्याख्यान होता है, आर ब्रह्मचर्य धारण करा जाता है। अपितु मणि स्वर्णादिका भी प्रत्याख्यान करना पड़ता है, शरीरके शंगारका भी त्याग होता है,अपितु शस्त्रादि भी पास रक्खे नही जा सक्ते और सावध योगोंका भी नियम होता है । इस प्रकारसे पौषधोपवास व्रत ग्रहण करा जाता है। प्रतिमासमें षट् पौषधोपवास करे तथा शक्ति प्रमाण अवश्य ही धारण करने चाहिये । और पांचो अतिचारोंको भी त्यागना चाहिये-जैसेकि शय्या संस्तारक न प्रतिलेखन किया हो, यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे प्रतिलेखन किया है १ । इसी प्रकार शय्या संस्तारक प्रमार्जित नहीं किया हो, यादे किया है तो दुष्ट प्रकारसे किया गया है २ । ऐसे ही पूरीषस्थान वा प्रसवनस्थान प्रतिलेखन न किया हो, यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे किया है ३ । और यदि प्रमार्जित न किया हो तथा किया हो तो दुष्ट प्रकारसे प्रमार्जित किया हो ४ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) फिर पौषधोपचास सम्यक् प्रकारसे पालन किया न हो ५ । इस प्रकारसे इन पांचों ही अतिचारोंको वर्जके तृतीय शिक्षाव्रत गृहस्थी लोग सम्यक् प्रकारसे धारण करें। फिर चतुर्थ शिक्षात्रभी सम्यक् प्रकारसे आराधन करे ।। चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविनाग॥ महोदयवर ! चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग है जिसका अर्थ ही यही है अतिथियोंको संविभाग करके देना अर्थात् जो कुछ अपने ग्रहण करनेके वास्ते रक्खा है उसमेंसे आतिथियोंका सत्कार करना ।। अपितु जो अतिथि ( साधु ) को दिया जाये वे आहारादि पदार्थ शुद्ध निर्दोष कल्पनीय हों किन्तु दोषयुक्त अशुद्ध अकल्पनीय आहारादि पदार्थ न देने अच्छे हैं क्योंकि नियमका भंग करना वा कराना यह महा पाप है। अपितु वृत्ति. के अनुसार आहारादिके देनेसे काँकी निर्जरा होती है, वृत्तिके विरुद्ध देनेसे पापका बंध होता है । इस लिये दोषोंसे रहित प्राशूक - एषनीय आहारादिके द्वारा अतिथि संविभाग नामक व्रतको __ क् प्रकारसे आराधन करे और पांचों ही अतिचारोंका भी पर करे, जैसेकि Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) सचित्त निक्खेवणया १ सचित्त पेहणिया २ कालाश्कम्मे ३परोवएसे ४ मच्छरियाए ५॥ भाषार्थः-न देनेकी बुद्धिसे निर्दोष वस्तुको सचित्त वस्तुपर रख दी हो १ वा निर्दोषको सचित्त वस्तु कारके ढांप दिया हो २ और कालके अतिक्रम हो जानेसे विज्ञप्ति करि हो तथा वस्तुका समय ही व्यतीत हो गया होवे ही वस्तु मुनियों को दे दी हो ३ और परको उपदेश दिया हो कि तुम ही आहारादि दे दो क्योंकि आप निदोष होने पर भी लाभ न ले सका ४ अथवा मत्सरतासे देना ५ ॥ इन पांचों ही आतचारोंको त्याग करके चतुर्थ शिक्षाबत पालण करना चाहिये । सो यह पांच अनुव्रत, तीन अनुगुणवत, चार शिक्षाव्रत एवं द्वादश व्रत गृहस्थी धारण करे, इसका नाम देशचारित्र है, क्योंकि सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्र, तीन ही मुक्तिके. मागे हैं । इन तीनोंको ही धारण करके जीव संसारसे पार १ द्वादश व्रत इस स्थलपे केवल दिग्दर्शन मात्र ही लिखे हैं किन्तु विस्तारपूर्वक श्री उपासक दशाङ्ग सूत्र वा श्री आव. श्यकादि सूत्रोंसे देखने चाहिये ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) हो जाते हैं । आपतु यथाशक्ति इनको धारण करके फिर रात्रीभोजनका भी परिहार करना चाहिये। इनमें अनेक दोषोंका समूह है। फिर श्रावक २१ गुण करके संयुक्त हो जावे, वे गुण उक्त नियमोंको विशेष लाभदायक हैं और सर्व प्रकारसे उपादेय है, सत् पथके दर्शक हैं, अनेक कुगतियोंके निरोध करनेवाले हैं, इनके आसेवनसे आत्मा शान्तिके मंदिरमें प्रवेश कर जाता है । अथ एकविंशति श्रावक गुण विषय ॥ धम्मरयणस्स जुग्गो अक्खुद्दो रूववं पगश्सोमो॥ लोअपियो अक्कूरो असहो सुदक्खिणो ॥१॥ खजानो दयाळू मन्नको सोमदिठ्ठो गुणरागी॥ सकह सपक्खजुत्तो सुदीहदंसी विसेसएणू ॥२॥ वाणुग्गो विणियो कयएणुओ परहियत्यकारोय॥ तहचेव लद्धलक्खो गवीस गुणो हव सट्ठो॥३।। . . भाषार्थ:-जो जीव धर्मके योग्य है वह २१ गुण अवश्य ही धारण करे क्योंकि गुणोंके धारणके ही प्रभावसे गृहस्थ सु Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३ ) योग्यताको प्राप्त हो जाता है, और यशको धारण करता है, तथा. गुणों के महत्वतासे जैसे चंद्र सूर्य राहुसे विमुक्त होकर मुंदरताको प्राप्त हो जाते हैं इसी प्रकार गुणोंके धारक जीव ___ पापोंसे छूट कर परमानंदको प्राप्त होते हैं । पुनः गुण ही सर्वको प्रिय होते हैं, गुणोंका ही आचरण करना लोग सीखते हैं, और गुणोंका विवर्ण निम्न प्रकारसे है, जैसेकि____ १ अक्खुद्दो-सदैव काल अक्षुद्र वृत्तियुक्त होना चाहिये क्योंकि क्षुद्र वृत्ति सर्व गुणोंका नाश कर देती है और क्षुद्र वृत्ति वाले के चित्तको शान्ति नही आती, न वे ऋजुताको ही माप्त हो सक्ता है, न किसीके श्रेष्ठ गुणोंको भी अवलोकन करके उनके चित्तको शान्ति रह सक्ति है, तथा सदा ही क्षुद्र वृत्तिवाला अकार्य करनेमें उद्यत रहता है, अपितु निर्लज्जताको ग्रहण कर लेता है, इस लिये अक्षुद्र वत्तियुक्त सदैवकाल होना चाहिये । २ रूववं-मित्रवरो ! रूपवान् होना किसी औषधीके द्वारा नही बन सक्ता तथा किसी मंत्रविद्यासे नहीं हो सक्ता, केवल सदाचार ही युक्त जीव रूपवान् कहा जाता है । इस लिये सदा. चार ब्रह्मचर्यादिको अवश्य ही धारण करना चाहिये जिसके द्वारा सर्व प्रकारकी शक्तिये उत्पन्न हो और सदैव काल चित्त प्रसन्नतामें रहे, लोगोंमें विश्वासनीय बन जाये, मन प्रफुल्लित रहे।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) ३ पगइ सोमो - सौम्य प्रकृति युक्त होना चाहिये अर्थात शान्ति स्वभाव क्षूद्र जनोंके किये हुए उपद्रवोंको माध्यस्थताके साथ सहन करने चाहिये, और मस्तकोपरि किसी कालमें भी अशान्ति लक्षण न होने चाहिये ॥ 8 लोअपिओ - लोकप्रिय होना चाहिये अर्थात् परोपकारादि द्वारा लोगोंमें प्रिय हो जाता है । परोपकारी जीव ऊच्च कोटि गणन किया जाता है । परोपकारियोंके सब ही जीव हितैषी होते हैं और उसकी रक्षामें उद्यत रहते हैं । परोपकारी जीव सर्व प्रकार से धम्र्मोन्नति करनेमें भी समर्थ हो जाते और अपने नामको अमर कर देते हैं । इस लिये लोगमें प्रिय कार्य करनेवाला लोगप्रिय बन जाता है || । ५ अक्कूरो- क्रूरता से रहित होवे - अर्थात् निर्दयता से रहित होवे । निर्दयता सत्य धर्मको इस प्रकारसे उखाड़ डालती है जैसे तीक्ष्ण परशुद्वारा लोग वृक्षोंको उत्पाटन करते हैं । निर्दयी पुरुष कभी भी ऊच्च कक्षाओंके योग्य नही हो सक्ता । क्रूर चित्तवाला पुरुष सदैव काळ क्षुद्र वृत्तियों में ही लगा रहता है | ६ असढो - अश्रद्धावाला न होवे - अर्थात् सम्यक् दर्शन युक्त हो जीव सम्यक् ज्ञानको धारण कर सक्ता है। अपितु इत Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) ना ही नहीं किन्तु श्रद्धायुक्त जीव मनोवांछित पदार्थोंको भी प्राप्त कर लेता है और देव गुरु धर्मका आराधिक बन जाता है। ७ सुदक्खिणो-सुदक्ष होवे-अर्थात् बुद्धिशील ही जीव सत्य असत्यके निर्णयमें समर्थ होता है और पदार्थोंका पूर्ण माता हो जाता है, अपितु बुद्धिसंपन्न ही जीव मिथ्यात्वके बंधनसे भी मुक्त हो जाता है । बुद्धिद्वारा अनेक वस्तुओंके स्वरूपको ज्ञात करके अनेक जीवोंको धर्म पथमें स्थापन करनेमें समर्थ हो जाता है, अपितु अपनी प्रतिभा द्वारा यशको भी प्राप्त होता है ॥ ८ लज्जाल्लूओ-लज्जायुक्त होना-वृद्धोंकी वा माता पिता गुरु आदिकी लज्जा करना, उनके सन्मुख उपहास्य युक्त वचन न बोलने चाहिये तथा उनके सन्मुख सदैव काल वि. नयमें ही रहना चाहिये तथा पाप कर्म करते समय लज्जायुक्त होना चाहिये अर्थात् अपने कुल धर्मको विचारके पाप कर्म न करने चाहिये। ९ दयाल्लू-दयायुक्त होना-अर्थात् करुणायुक्त होना, जो जीव दुःखोंसे पीड़ित हैं और सदैवकाल क्लेषमें ही आयु व्यतीत करते हैं वा अनाथ है वा रोगी है उनोपरि दया भाव प्रगट Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W ( १७६ ) करना और उनकी रक्षा करते हुए साथ ही उनोंको धर्मका उपदेश करते रहना, निर्दयता कभी भी चित्त न धारण करना, ( अपितु ) अहिंसा धर्मका ही नाद करते रहना || १० मन्भच्छो मध्यस्थ होना - अर्थात् स्तोक वार्ताओं परि ही क्रोधयुक्त न हो जाना चाहिये, अपितु किसीका पक्षपात भी न करना चाहिये, जो काम हो उसमें मध्यस्थता अवलंबन करके रहना चाहिये क्योंकि चंचलता कार्योंके सुधारनेमें समर्थ नहीं हो सक्ति अपितु मध्यस्थता ही काम सिद्ध करती है ॥ · ११ सोमदिट्ठी - सौम्य - दृष्टि युक्त' होना - अर्थात् किसी उपर भी दृष्टि विषम न करना तथा किसीके सुंदर पदार्थको देख कर उसकी मत्सरता न करना क्योंकि प्रत्येक २ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के फलोंको भोगते हैं । जो चित्तका विषम करना है वे ही कर्मोंका बंधन है || १२ गुणरागी - जिस जीवमें जो गुण हों उसीका ही राग करना अपितु अगुणी जीवमें मध्यस्थ भाव अवलंबन करे, अन्य जीवोंको गुणमें आरूढ़ करे, गुणों का ही प्रचारक होवे ।। १३ सक्कद - फिर सत्य कथक होवे क्योंकि सत्य वक्ताको a Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७ ) __ कहीं भी भय नहीं होता, सत्यवादी सर्व पदार्थों का ज्ञाता होता है, सत्यवादी ही जीव धर्मके अंगोको पालन कर सकता है, सत्य. वादीकी ही सब ही लोग प्रतिष्ठा करते है और सत्य व्रत सर्व जीवोंकी रक्षा करता है, इस लिये सत्यवादी बनना चाहिये। १४ सपक्खजुत्तो-और सच्चेका ही पक्ष करना क्योंकि न्याय धर्म इसीका ही नाम है कि जो सत्ययुक्त हैं, उनके ही पक्षमें रहना, सत्य और न्यायके साथ दस्तुओंका निर्णय करना, कभी भी असत्यमें वा अन्याय मार्गमें गमण न करना, न्याय बुद्धि सदैव काल रखनी ॥ १५ सुदीहदंसी-दीर्घदी होना अर्थात् जो कार्य करने उनके फलाफलको प्रथम ही विचार लेना चाहिये क्योंकि बहुतसे कार्य प्रारंभमें प्रिय लगते हैं पश्चात् उनका फल निकृष्ट होता है, जैसे विवाहादिमें वेश्यावृत प्रारंभमें प्रिय पीछे धन यश वीर्य सवीका नाश करनेवाला होता है क्योंकि जिन वालकोंको उस नृतमें वेश्याकी लग्न लग जाती है वे प्रायः फिर किसीके भी वशमें नही रहते । इसी प्रकार अन्य कार्योंको भी संयोजन कर लेना चाहिये ॥ १६ विसेसण्णू-विशेषज्ञ होना अर्थात् ज्ञानको विशेष करिके जानना । फिर पदार्थों के फलाफलको विचारना उसमें फिर Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) जो त्यागने योग्य कर्म हैं उनका परित्याग करना, जो जानने योग्य हैं उनको सम्यक् प्रकारसे जानना, अपितु जो आदरणे योग्य हैं उनको आसेवन करना तथा सामान्य पुरुषों में विशेषज्ञ होना, फिर ज्ञानको प्रकाशमें लाना जिस करके लोग अ. ज्ञान दशामें ही पड़े न रहें । १७ वडाणुग्गो-वृद्धानुगत होना अर्थात् जो वृद्ध सुंदर कार्य करते आये हैं उनके ही अनुयायी रहना, जैसेकि-सप्त व्यसनोंका परित्याग वृद्धोने किया था वही परम्पराय कुलमें चली आती होवे तो उसको उल्लंघन न करना तथा वृद्ध उभय काल प्रतिक्रमणादि क्रियायें करते हैं उनको उसी प्रकार आचरण कर लेना, जैसे वृद्धोंने अनेक प्रकारसे जीवोंकी रक्षा की सो उसी प्रकार आप भी जीवदयाका प्रचार करना अर्थात् धार्मिक मर्यादा जो वृद्धोंने बांधी हुई हैं उसको अतिक्रम न करना ॥ १८ विणियो-विनयवान् होना क्योंकि विनयसे ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं, विनय ही धर्मका मुख्याङ्ग है, विनयसे ही सर्व सुख उपलब्ध हो जाते हैं, विनय करनेवाले आत्मा सबको प्रिय लगते हैं, विनयवान्को धर्म भी प्राप्त हो जाता है, इस लिये यथायोग्य सर्वकी विनय करना चाहिये ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९ ) १९ कयण्णूओ-कृतज्ञ होना अर्थात् किये हुए परोपकार__का मानना क्योंकि कृतज्ञताके कारणसे सबी गुण जीवको प्राप्त __ हो जाते हैं जैसेकि-श्री स्थानांग सूत्रके चतुर्थ स्थानके चतुर्थ उद्देशमें लिखा है कि चतुर् कारणोंसे जीव स्वगुणोंका नाश कर बैठते हैं और चतुर् ही कारणों से स्वगुण दीप्त हो जाते हैं, यथा क्रोध करनेसे १ ईष्या करनेसे २ मिथ्यात्वमें प्रवेश करनेसे ३ और कृतघ्नता करनेसे ४ ।। अपितु चार ही कारणोंसे गुण दीप्त होते हैं, जैसेकि पुनः २ ज्ञानके अभ्यास करनेसे १ और गुर्वादिके छंदे वरतनेसे २ तथा गुर्वादिका आनंदपूर्वक कार्य करनेसे ३ और कृतज्ञ होनेसे ४ अर्थात् कृतज्ञता करनेसे सर्व प्रकारके सुख उपलब्ध होते हैं, इस लिये कृतज्ञ अवश्य ही होना चाहिये ।। २० परहियत्यकारीय-और सदैव काल ही परहितकारी __ होना चाहिये अर्थात् परोपकारी होना चाहिये, क्योंकि परोप कारी जीव सब ही का हितैपी होते हैं, परोपकारी ही जीव ध. मकी वृद्धि कर सक्ते हैं, परोपकारीसे सर्व जीव हित करते हैं तथा परहितकारी जीव ऊच श्रेणिको प्राप्त हो जाता है, इस लिये परोपकारता अवश्य ही आदरणीय हैं । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) २१ लद्धलक्खो - लब्धलक्षी होवे - अर्थात् उचित समयानुसार दान देनेवाला जैसे कि अभयदान, सुपात्र दान, शास्त्र दान, ओषधि दान, इत्यादि दानोंके अनेक भेद है किन्तु देशकालानुसार दानके द्वारा धर्मकी वृद्धि करनेवाला होवे, जैसे कि जीव (अभयदान) दान सर्व दानों में श्रेष्ठ है, यथागमे (दाणाण सेहं अभयं पयाणं) अर्थात् दानोंमें अभयदान परम श्रेष्ठ है । सो सूत्रानुसार दान करनेवाला होवे और दानके द्वारा जिन धर्म की उन्नति हो सक्ति है, दानसे ही जीव यश कर्मको प्राप्त हो जाते हैं । सो इस लिये श्रुत दान अवश्य ही करना चाहिये || फिर द्वादश भावनायें द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता रहे, जैसेकि - पढम मणिच्च मसरणं संसारे एगयाय अन्नत्तं ॥ असुतं यासव संवरोय तह निजरा नवमी १ ॥ लोग सहावोबोदी दुलहा धम्मस्स सावहगायरिह एया उन्नावणाउ नावेयन्वा पयते ॥ २ ॥ भाषार्थः – संसार में जो जो पदार्थ देखने में आते हैं वे सर्व अनित्यता प्रतिपादन कर रहे हैं । जो पदार्थोंका स्वरूप Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) प्रातःकालमें होता है वह मध्यान्ह कालमें नही रहता, अपितु जो मध्यान्ह कालमें देखा जाता है वह सन्ध्या कालमें दृष्टिगोचर नही होता । इस लिये निज आत्मा विना पुद्गल सम्बन्धि जो जो पदार्थ हैं वे सर्व क्षणभंगुर हैं, नाशवान् हैं, जितने पुद्गल के सम्बन्ध मिले हुए हैं वे सब विनाशी हैं | इस प्रकारसे पदार्थों की अनित्यता विचारना उसीका नाम अनित्य भावना है । अशरण भावना ॥ संसारमें जीवोंको दुखोंसे पीड़ित होते हुएको केवल एक धर्मका ही शरण होता है, अन्य माता पिता भार्यादि कोई भी रक्षा करनेमें समर्थ नही होते तथा जब मृत्यु आती है उस कालमें कोई भी साथी नही बनता किन्तु एक धर्म ही है जो आत्माकी रक्षा करता है । अन्य जीव तो मृत्युके आने पर पृथक् २ हो जाते हैं किन्तु जब इन्द्र महाराज मृत्यु धर्मको प्राप्त होते हैं उस कालमें उनका कोई भी रक्षा नही कर सक्ता तो भला अन्य जीवोंकी वात ही कौन पूछता है ? तथा जितने पासवर्ती धन धान्यादि हैं वे भी अंतकालमें सहायक नदी वनते केवल आत्मस्वरूप ही अपना है और सर्व अशरण हैं, इस लिये यह उत्तम सामग्री जो जीवोंको प्राप्त हुई है उसको व्यर्थ न खोना चाहिये || } Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) संसार नावना ॥ संसार भावना उसका नाम है जो इस प्रकारसे विचार करता है कि यही आत्मा अनंतवार एक योनिमें जन्म मरण कर चुका है आपितु इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येक २ जीवके साथ सर्व प्रकारसे सम्बन्ध भी हो चुके हैं, किन्तु शोक है फिर यह जीव धर्मके मार्गमें प्रवेश नहीं करता। अहो ! संसारकी कैसी विचित्रता है कि पुत्र मृत्यु होकर पिता बन जाता है और पिता मरकर पुत्र होता है । इस प्रकारसे भी परिवर्तन होनेपर इस जी. वने सम्यग् ज्ञानादिको न सेवन किया जिसके द्वारा इसकी मुक्ति हो जाती ॥ एकत्व नावना॥ फिर इस प्रकारसे अनुप्रेक्षण करे कि एकले ही जीव मृत्यु होते हैं और प्रत्येक २ ही जन्म धारण करते हैं किन्तु कोई भी किसी के साथ आता नहीं और न कोई किसीके साथ ही जाता है। केवल धर्म ही अपना है जो सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है अथवा मेरा निज आत्मा ही है इसके भिन्न न कोई मेरा है और न मैं किसीका हूं। यदि मैं किसी प्रकारके खोंसे पीड़ित होता हूं तो मेरे सम्बन्धी उससे मुजे मुक्त नहीं - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) कर सक्ते और नाही मैं उनको किसी प्रकारसे दुःखोंसे विमुक्त करनेमें समर्थ हूं। प्रत्येक २ प्राणी अपने २ किये हुए कोंके फलको अनुभव करते हैं इसका ही नाम एकत्व भावना है ॥ अन्यत्व भावना॥ हे आत्मन् ! तू और शरीर अन्य २ है, यह शरीर पुद्गलका संचय है अपितु चेतन स्वरूप है । तू अमूर्तिमान सर्व ज्ञानमय द्रव्य है । यह शरीर मूर्तिमान शून्यरूप द्रव्य है और तू अक्षय अव्ययरूप है, किन्तु यह शरीर विनाशरूप धर्मवाला है फिर तू क्यों इसमें मूञ्छित हो रहा है ? क्योंकि तू और शरीर भिन्न २ द्रव्य हैं । फिर तू इन कर्मोंके वशीभूत होता हुआ क्यों दुःखोंको सहन कर रहा है ? इस शरीरसे भिन्न होनेका उपाय कर और अपनेसे सर्व पुगळ द्रव्यको भिन्न मान फिर उससे विमुक्त हों क्योंकि तू अन्य हैं तेरेसे भिन्न पदार्थ अन्य हैं । अशुचि नावना॥ , फिर ऐसे विचारे कि यह जीव तो सदा ही पवित्र है किन्तु यह शरीर मलीनताका घर है । नव द्वार इसके सदा ही मलीन रहते हैं अपितु इतना ही नहीं किन्तु जो पवित्र पदार्थ इस गंधमय शरीरका स्पर्श भी कर लेते हैं वह भी अपनी पवित्रता खो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४) बैठते हैं, क्योंकि इसके अभ्यन्तर मलमूत्र, रुधिर राध, सर्व गंधमय पदार्थ हैं फिर मृत्युके पीछे इसका कोई भी अवयव काममें नहीं आता, परंतु देखनेको भी चित्त नहीं करता। फिर यह शरीर किसी प्रकारसे भी पवित्रताको धारण नही कर सक्ता, केवल एक धर्म ही सारभूत है अन्य इस शरीरमें कोई भी पदार्थ सारभूत नहीं है क्योंकि इसका अशुचि धर्म ही है। इस लिये हे जीव ! इस शरीरमें मूञ्छित मत हो, इससे पृथक् हो जिस करके तुमको मोक्षकी प्राप्ति होवे ॥ आस्रव भावना॥ राग द्वेष मिथ्यात्व अव्रत कषाययोग मोह इनके ही द्वारे शुभाशुभ कर्म आते है उसका ही नाम आस्रव है और आतंध्यान, रौद्रध्यान इनके द्वारा जीव अशुभ काँका संचय करते हैं तथा हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्म आनेके मार्ग है इनसे प्राणी गुरुताको प्राप्त हो रहे हैं और नाना प्रकारकी गतियोंमें सतत पर्यटन कर रहे हैं। आप ही, कर्म करते हैं आप ही उनके फलोंको भोग लेते हैं। शुभ भावोंसे शुभ कर्म एकत्र करते है अशुभ भावोंसे अशुभ, किन्तु अशुभ काँका फल जीवोंको दुःखरूप भोगना पड़ता है, शुभ कर्मोंका सुखरूप फल होता है । इस प्रकारसे विचार करना उसका ही नाम आस्रव भावना है ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) संवर भावना || जो जो कर्म आनेके मार्ग हैं उनको निरोध करना वे संवर भावना है तथा क्रोधको क्षमासे वशमें करना, मानको मार्दव वा मृदुतासे, मायाको ऋजु भावोंसे, लोभको संतोषसे, इसी प्रकार जिन मार्गों से कर्म आते हैं उन मार्गोका ही निरोध करना सो ही सम्वर भावना है जैसे कि अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सम्यक्त्व, व्रत, अयोग, समिति, गुप्ति, चारित्र, मन वचन कायाको वशमें करना वे ही संवर भावना है || निर्जरा भावना || निर्जरा उसका नाम है जिसके करनेसे कर्मोंके वीजका ही नाश हो जाये तब ही आत्मा मोक्षरूप होता है । वह निर्जरा 1 द्वादश प्रकारके तपसे होती है उसीका ही नाम सकाम निर्जरा है, नही तो अकाम निर्जरा जीव समय २ करते हैं किंतु अकाम निर्जरासे संसारकी क्षीणता नहीं होती। सकाम निर्जरा जीवको मुक्ति देती है अर्थात् ज्ञानके साथ सम्यग् चारित्रका आचरण करना उसके द्वारा जीव कर्मोके बीजको नाश कर देते और वही क्रिया जीवके कार्यसाधक होती है । सो यदि जीवने पूर्व सकाम निर्जरा की होती तो अब नाना प्रकार के कप्टें Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६ ) ___ को सहन न करता किन्तु अब वही उपाय किया जाये जि__सके द्वारा सकाम निर्जरा होकर मुक्तिकी प्राप्ति होवे ॥ लोकस्वभाव भावना ॥ लोकके स्वरूपको अनुप्रेक्षण करना जैसेकि यह लोग अनादि अनंत है और इसमें पुद्गल द्रव्यकी पर्याय सादि सातन्ता सिद्ध करती है और इसमें तीन लोग कहे जाते हैं जैसेकि मनुष्यलोक स्वर्गलोक पाताललोक नृत्य करते पुरुषके संस्थानमें हैं, इसमें असंख्यात द्वीप समुद्र है, अधोलोकमें सप्त नरक स्थान हैं तथा भवनपति व्यन्तर देवोंके भी स्थान हैं, उपरि ६ स्वर्ग हैं ईषत् प्रभा पृथिवी है सो ऐसे लोगों शुचीके अग्रभाग मात्र भी स्थान नहीं रहा कि जिसमें जीवने अनंत वार जन्म मरण न किये हो, अर्थात् जन्म मरण करके इस संसारको जीवने पूर्ण कर दिया है किंतु शोक है फिर भी इस जीवकी संसारसे तृप्ति न हुई, अपितु विषयके मागेमें लगा हुआ है । इस लिये लोकके स्वरूपको ज्ञात करके संसारसे निवृत्त होना चाहिये वे ही लोकस्वभाव भावना है । धर्म भावना ॥ इस संसारचक्रमें जीवने अनंत जन्म मरण नाना प्रकारकी योनियों में किये हैं किन्तु यदि मनुष्य भव प्राप्त हो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) गया तो देश आर्यका मिलना अतीव कठिन है क्योंकि बहुतसे देश ऐसे भी पड़े हैं जिन्होंने कभी श्रुत चारित्र रूप धर्मका नाम ही नही सुना। यदि आर्य देश भी मिल गया तो आर्य कुलका मिलना महान् कठिन है क्योंकि आये देशमें भी बहुतसे ऐसे कुल हैं जिनमें पशुवध होता है और मांसादि भक्षण करते हैं। यदि आय कुल भी मिल गया तो दीघायुका मिलना परम दुष्कर है क्योंकि स्वल्प आयुमें धार्मिक कार्य क्या हो सक्ते हैं ? भला यदि दीघोयुकी प्राप्ति हो गई तो पंचिंद्रिय पूर्ण मिलनी अतीव ही कठिन है क्योंकि चक्षुरादिके रहित होनेपर दयाका पूर्ण फल जीव प्राप्त नहीं कर सक्ते । भला यदि इन्द्रिय पूर्ण हों तो शरीरका नीरोग होना बड़ा ही कठिन है क्योंकि व्याधियुक्त जीव धर्मकी वात ही नहीं सुन सक्ता । सो यदि शरीर भी नीरोग मिल गया तो सुपुरुषाका संग होना महान् ही दुष्कर है क्योंकि कुसंग होना स्वाभाविक वात है । भला यदि सुमनोंका संग भी मिल गया तो सूत्रका श्रवण करना महान कठिन है। भला सूत्रको श्रवण भी कर लिया तो उसके उपरि श्रद्धानका होना अतीव दुष्कर है। भला यदि श्रद्धान भी ठीक प्राप्त हो गया तो धर्मका पालन करना परम कठिन है क्योंकि धर्मकी क्रिया आशावान् पुरुषोंसे नही पल सक्ती किन्तु धर्म अनाओंका नाय Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) है, अबांधवोंका वांधव है, दुःखियोंकी रक्षा करनेवाला है, अमित्रोंवालोंका मित्र है, सर्वकी रक्षा करनेवाला है, धर्मके प्रभावसे सर्व काम ठीक हो रहे हैं तथा धर्म ही यक्ष, राक्षस, सर्प, हाथी, सिंह, व्याघ्र, इनसे रक्षा करना है अर्थात् अनेक कष्टोंसे बचानेवाला एक धर्म ही है। इस लिये पूर्ण सामग्रीके मिलने पर धर्ममें आलस्य कदापि न करना चाहिये । हे जीव ! तेरेको उक्त सामग्री पूर्णतासे प्राप्त है इस लिये तू अव धर्म करनेमें प्रमाद न कर । यह समय यदि व्यतीत हो गया तो फिर मिलना असंभव है। इस प्रकारके भावोंको धर्म भावना कहते हैं ।। _बोधबीज नावना ॥ संसार रूपी अर्णवमें जीवोंको सर्व प्रकारकी ऋद्धियें प्राप्त हो जाती है किन्तु बोधबीजका मिलना बहुत ही कठिन है अर्थात् सम्यक्त्वका मिलना परम दुष्कर है। इस लिये पूर्वोक्त सामाग्रिये मिलनेपर सम्यक्त्वको अवश्य ही धारण करना चाहिये, अर्थात् आत्मस्वरूपको अवश्य ही जानना चाहिये । सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा शुद्ध देव गुरु ध. मकी निष्ठा करके आत्मस्वरूपको पूर्ण प्रकारसे ज्ञात करके __सम्यग् चारित्रको धारण करना चाहिये क्योंकि संसारमें माता - पिता भगिनी भ्राता भार्या पुत्र धन धान्य सर्व प्रकारके Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९) संयोग मिल जाते हैं परंतु बोधवीज ही प्राप्त होना कठिन है। इस लिये वोधवीजको अवश्य ही प्राप्त करना चाहिये । इस प्र. कारसे जो आत्मामें भाव धारण करता है उसीका नाम बोधवीज भावना है । सो यह द्वादश भावनायें आत्माको पवित्र करनेवाली हैं, कर्ममलके धोनेके लिये महान् पवित्र वारिरूप हैं, संसार रूपी समुद्र पोतके तुल्य हैं, द्वादश व्रतोंको निष्कलंक करनेवाली हैं और अतिचारोंको दूर करनेवाली हैं, सत्यरू. पके बतलानेवाली हैं, मुक्तिमार्गके लिये निश्रेणि रूप हैं । इस लिये प्राणीमात्रको इनके आश्रयभूत अवश्य ही होना चाहिये। फिर निम्नलिखित चार प्रकारकी भावनायें द्वारा लोगों से वर्ताव करना चाहिये। ____ मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु । तत्त्वार्थसूत्र थ० स० ११॥ इसका यह अर्थ है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ, यह चार ही भावनायें अनुक्रमतासे इस प्रकारसे करनी चाहिये जैसे कि सर्व जीवोंके साथ मैत्रीमाव, एकेन्द्रियसे पंचिंद्रिय पर्यन्त किसी भी जीवके साथ द्वेष भाव नहीं करना और यह Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) नाव रखनेसे कोई जीव पाप कर्म न करे, नाही दुःखों को प्राप्त होवे, यथाशक्ति जीवोंपर परोपकार करते रहना, अन्तःकरणसे रभावको त्याग देना उसका ही नाम मैत्री भावना है। और जो अपनेसे गुणोंमें वृद्ध हैं धर्मात्मा है परोपकारी हैं सत्यवक्ता हैं ब्रह्मचारी हैं दयारूप शान्तिसागर हैं इस प्रकारके जनोंको देखकर प्रमोद करना अर्थात् इयो न करना अपितु हर्ष प्रगट करना और उनके गुणों का अनुकरण करना प्रसन्न होना उनकी पथायोग्य भक्ति आदि करना उसीका नाय प्रमोद भावना है। चौर जो लोग रोगोंसे पीड़ित हैं दुःखित हैं दीन हैं वा राधीन हैं तथा सदैव काल दुःखोंको जो अनुभव कर रहे हैं न जीवों पर करुणा भाव रखना और उनको दुःखोंसे विमुक्त रनेका प्रयत्न करते रहना यथाशक्ति दुःखोंसे उनपीड़ित तीवोंकी रक्षा करना उसीका ही नाम कारुण्य भावना है अर्थात् वि जीवोपरि दयाभाव रखना किन्तु दुःखियोंको देखकर हर्ष । प्रगट करना सोई कारुण्य भावना है । और जो जीव अवियी हैं सदैवकाल देव गुरु धर्ममे प्रतिकूल कार्य करनेवाले हैं न जीवोंमें माध्यस्थ भाव रखना अर्थात् उनको यथायोग्य पेक्षा तो करनी किन्तु द्वेष न करना वही माध्यस्थ्य भावना है। यह चार ही भावनायें आत्मकल्याण करनेवाली हैं और Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) जीवोंको सुमार्गमें लगानेवाली हैं और सत्यपथकी दर्शक हैं। इनका अभ्यास प्राणी मात्रको करना चाहिये क्योंकि यह संसार अनित्य है, परलोकमें अवश्य ही गमन करना है, माता पिता भार्यादि सब ही रुदन करते हुए रह जाते हैं आरै फिर उसका अग्नि संस्कार कर देते हैं, और फिर जो कुछ उसका द्रव्य होता है वे सब लोग उसका विभाग कर लेते हैं किन्तु उसने जो कर्म किये थे वे उन्ही काँको लेकर परलोकको पहोंच जाता है र उन्ही काँके अनुसार दुःख सुख रूप फलको भोगता है, इस लिये जर मनुष्य भव प्राप्त हो गया है फिर जाति आर्य, कुल आर्य, क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य,भापा आर्य,शिल्पार्य जब इतने गुण आयताके भी प्राप्त हो गये फिर ज्ञानार्य, दर्शनार्य चारिवार्य, अवश्य ही बनना चाहिये । तत्त्वमार्ग के पूर्ण वेत्ता होकर परोपकारियोंके अग्रणी बनना चाहिये और सत्य मार्गके द्वारा सत्य पदार्थों का पूर्ण प्रकाश करना चाहिये । फिर सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रसे स्वआस्माको विभूपित करके मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होवे । फिर सिद्धपद जो सादि अनंत युक्त पदवाला है उसको प्राप्त होकर अजर अमर सिद् बुद्ध ऐसे करना चाहिये । ___ अनंतान, अनंतदर्शन, अनंतनुस, अनंतववलवीर्य युक्त होकर Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) जीव मोक्षमें विराजमान हो जाता है, संसारी बंधनोसे सर्वथा ही छूटकर जन्ममरणसे रहित हो जाता है और सदा ही सुखरूपमें निवास करता है अर्थात् उस आत्माको सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्रके प्रभावसे अक्षय सुखकी प्राप्ति हो जाती है। आशा है भव्य जन उक्त तीनों रत्नोंको ग्रहण करके इस प्रवाहरूप अनादि अनंत संसारचक्रस विमुक्त हाकर माक्षः रूपी लक्ष्मीके साधक बनेंगे और अन्य जीवोंपर परोपकार क. रके सत्य पथमें स्थापन करेंगे जिस करके उनकी आमाको सर्वथा शान्तिकी प्राप्ति होगी और जो त्रिपदी महामंत्र है जै) सेकि उत्पत्ति, नाश, ध्रुव, सो उत्पत्ति नाशसे रहित होकर धुन व्यवस्था जो निज स्वरूप है उसको ही प्राप्त होवेंगे कमोंकि उ. पत्ति नाश यह विभाविक पर्याय हैं किन्तु त्रिकालमें सवरूप रहना अर्थात् निज मुणमें रहना यह स्वाभाविक अर्थात् निजगुण है। सो कर्ममलसे रहित होकर शुद्धरूप निज गुणमें सर्वज्ञतामें वा सर्वदर्शितामें जीव उक्त तीनों रत्नों करके विगजमान हो जाते हैं। मैं आकांक्षा करता हूं कि भव्य जीव श्री अर्हन्देवके प्रतिपादन किये हुए तत्त्वोंद्वारा अपना कल्याण अवश्य ही करेंगे। ३ इति श्री अनेकान्त सिद्धान्त दपर्णस्य चतुर्थ सगे समाप्त । Page #206 --------------------------------------------------------------------------  Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) उस भ्रमका जनक दोष ( अज्ञानादि ) है क्यों कि प्रमाण तो कभी दोषका कारण हो ही नहीं सकता ॥ ३७ ॥ आपस में शत्रुतावाले सत्त्व और असत्त्व है, याने वह दोनो कभी साथ रही नहीं सकते तब भी तुम कहते हो की यह दोनों पदार्थ में साथ रहते हैं यह तुमारा संदेह है, और जो सशयका छेदन करनेवाला शास्त्र हैं वह भी जो संशयको पैदा करै, दूसरा कौन शरण है ? ॥ ३८ ॥ निर्णय करने में असमर्थता होने से विविधप्रकार के शास्त्रों का उच्छिष्ट जो एक देश उसका अल्पसंग्रह करनेवाला, और आचार्य (निश्चायक ) के लक्षणों से रहित होने से, जिन (अर्हन्) हमको मान्य नहीं है ॥ ३९ ॥ और स्याद्वादकी सिद्धिको जो तुम निश्चित मानोगे तो तुमारा संशयपर्यवसायी सिद्धान्त नष्ट हो जायगा, और यदि उसमें प्रमाणकी प्रवृत्ति दिखलावोगे तब भी वही दोष आवेगा, और विद्वानों की प्रवृत्ति सदैव निश्चयपूर्वक होती है इस लिये तुमारे सिद्धान्त' में कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता ॥ ४० ॥ जिसमें शङ्कित और परस्पर विरुद्ध वाक्यों कि पुनः पुनः आवृत्ति हो वह भी शास्त्र है ऐसा कहनेवालेके मुखकी आरती जैनाङ्गना उतारै ॥ ४१ ॥ यहां तक जो महाशयजी ने जैनियों का अभेद्य स्याद्वादका कुछ आक्षेपण किया है उसका पाठक महाशय निम्न लिखित उत्तर इसे पढ़ें, "महाशयजी ने कहा है कि- जैनदर्शन कार्य करने से Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - - हि'वस्तु को सत् मानता है, इत्यादि। ... मै महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की - यदि - आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते तो स्पष्ट मालम. होता की जैनदर्शनका वह ( पूर्वोक्त ) मन्तव्य नहीं है.. परन्तु जैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही, सद्, -असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है,, -फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा = की क्या एकही वस्तु भावस्वरूप और अमावस्वरूप कभी, होसक्ती, है , तो, मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व, - नहीं है ? क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप - नहीं है , आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष, होकर एक वस्तु में, अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार = का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़ियेE "न हि भावैकरूप वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् । नाs. प्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् । किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् भावाऽभावरूप वस्तु । तथैव प्रमाणानां प्रवृत्तः । यदाह "अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८) नैष वस्त्वन्तराऽभावसंवित्त्यनुगमाहते । १।" । जगत में वस्तु केवल भावरूपही नहीं है क्योंकि यदि भावरूप होती तो घट भी पटभावरूप, अश्वभावरूप, हस्तिभावरूप होता, और वस्तु केवल अभावरूप भी नहीं है- ऐसा माने तो सब का शून्यत्व का ही प्रसंग होगा, इस लिये सब वस्तु अपने रूप से याने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे तो सत् है और परकीयरूपसे याने पराया द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप से 'असत् है जैसे कि- द्रव्यसे घट पार्थिवरूपसे है, परन्तु जलरूपसे नहि है, क्षेत्र से काशी में बना हुआ घट काशी का है, किन्तु हरद्वार का नहीं है; काल से वसन्त ऋतु में बना हुआ घट वासन्तिक है किन्तु शैशिर नहीं है; भावसे श्याम घट श्याम है, किन्तु रक्त नहीं है; 'यदि सब रूपसे वस्तु को सत् मानने में आवे तो एक ही घट का बहुत रूपसे ( इतर पटादिरूपसे ) भी स्थिति होनी चाहिये, इस लिये जैन तार्किकों का यह तर्क ठीक २ वस्तुका निश्चय ज्ञान दिखलाता है कि वस्तु स्वभाव से ही स्वरूप से सत् है और पररूपसे असत् है. और यह बात तो आबाल गोपाल प्रसिद्ध है. और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "वस्तु में भावाऽभावरूप जो ज्ञान है वह भ्रमजन्य है" वह भी उनका कथन भ्रमविषयक है, क्योंकि भ्रमका जो 'अतस्मिन् तदध्यवसायो भ्रमः' याने जो घट में पटका ज्ञान होना Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह ही भ्रम है किन्तु घट में घटका ज्ञान होना तो भ्रम नहीं है. ऐसे ही वस्तु उभय रूप है उस में उभयरूपताज्ञान भ्रमात्मक कभी नहीं हो सकता. और जो शास्त्रीजी बावाने अपनी तूती चलाई है कि "यदि एक ही वस्तु में यह दो बात ( सद्-असद् रूपता ) माना जाय तो वह ज्ञान सशयात्मक है" इस से यह मालूम होता है कि शास्त्रीजी सशयके लक्षणको भूलगये- देखिये, संशयका लक्षण पूर्व ऋषियोंने इस प्रकार बतलाया है कि- 'अनुभयत्र उभयकोटिसंस्पर्शी प्रत्ययः संशयः; अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयपरिमर्शनशील ज्ञान संशयः । ___याने जिसमें दो स्वभाव नहीं है और उसमें दो स्वभावका जो ज्ञान होता है वह संशय है परन्तु यह बात वस्तुका सद्-असद् उभय ज्ञान में नहीं आसकती, क्योंकि पूर्वोक्त कई प्रमाणों से वस्तु उभयस्वभाव सिद्ध हो चुकी है और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "स्याद्वाद की और प्रमाण की सत्ता को निश्चित मानो तो तुमारा सिद्धान्त बाधित होगा" यह भी एक पुराण की तरह गप्प है क्योंकि जैनदर्शन तो सब वस्तु को निज रूपसे सत् और अन्यरूप से असत् मानता है. वैसे ही स्याद्वाद भी स्वरूपसे सत् और स्याद्वादाभासरूप से असत् है और प्रमाण भी प्रमाणरूप सत् और प्रमाणाभासरूप से असत् है. और शास्त्री जी यह समझते होंगे कि Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैनदर्शन का मन्तव्य अव्यवस्थित है तो यह नहीं है क्योंकि पूर्वोक्त रीतिसे जैनदर्शन कथित वस्तुस्वभाव कथन वास्तव वस्तुका निश्चायक है परन्तु उसमें अल्प भी अव्यवस्था नहीं है, जो कई लोग वस्तुका एकही रूप है याने वस्तु भावरूप ही है या अभावरूप है। ऐसा मानते हैं उनके सिद्धान्त में बड़ी भारी अव्यवस्था हो जायगी. और यदि शास्त्रीजी एकही पदार्थ में विरुद्ध धर्मद्वय के स्वीकार को विरोध समझै तो उनके पितामह प्रशस्तपादभाष्यकार के सिद्धान्त को भी विरुद्ध मानना चाहिये क्योंकि- भाष्यकार भी एक ही पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, उसमें नित्यता और अनित्यता मानते है उन्होंने कहा है कि- 'सा तु द्विविधा, नित्या अनित्या च, नित्या परमाणुरूपा कार्यरूपा तु अनित्या.' याने जो पृथ्वी परमाणुरूप है वह नित्य है और जो पृथ्वी कार्यरूप है वह अनित्य है. और नवीन तार्किकगण भी भाव और अभावका समानाधिकरण मानते है यह बात क्या शास्त्रीजी भूल गये ? इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि अलिविलासिसंलाप और. उसके निर्माता ये दोनों ही अनाप्त है । अव जैनसम्मत ईश्वर में जो शास्त्री जी के पूर्वपक्ष है उनको लिखते हैं ताल-भू-गगनसर्वपथीनजीवाः Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) खादृष्ट-यनसहिता निजभोग्यभागान् । उत्पादयन्त्वलमशेषकृतेश्वरेण क्लुप्तेन, सिध्यति फले न हि कल्प्यतेऽन्यत् ॥ सब जीव अपने अदृष्ट (भाग्य) और यत्न से सब चीज को पैदा करते हैं, इसलिये सृष्टि का बनानेवाला एक ईश्वर है ऐसी झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिये, सृष्टिकता ईश्वर के विना भी जब अपना इष्ट होता है तब उसकी कल्पना निष्फल है।" (शास्त्रिजी कृत उत्तरपक्ष) "दृष्ट्वैकचेतननिदेशवशां प्रवृत्ति कार्ये लघावपि गृहे बहुचेतनानाम् । ब्रह्माण्डनिर्मितमनेककृतामपीच्छ ने समस्तविभुमीश्वरमाश्रयस्व ॥४७॥ कुर्वन्तु काश्चन यथास्वरुचि प्रवृत्ती रेकाऽपि काऽपि परभीतिकृता प्रवृत्तिः । दृष्ट्वा कुटुम्बनगरस्थितचेतनेषु यदीतिजाखिलकृतिः परमेश्वरः सः॥४८॥ तनित्यमिष्टमुपपत्तिमदन्यथाऽस्य हेत्वन्तरानुसरणे त्वनवस्थितिः स्यात् । नित्यं गतातिशयमीश इदं दधानः Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) साधारणं सकलकार्यविधौ निदानम् ॥ ५० ॥ स्वस्वार्जिताशुभशुभावहकर्मभेदात् 'प्राप्नोति जीवनिवहः फलभेदमद्धा । आन्ध्येन पङ्गुसदृशाक्षमकर्मवृन्दाऽधिष्ठानतात निदानगुणो महेशः ॥ ५१ ॥ क्षेत्री लभेत यदि कर्षणवीजवाप दाक्ष्यप्रमादवशतः फलसिद्ध्यऽ-सिद्धी । दोषोऽत्र नैव जलदस्य तथेश्वरस्य वैषम्यनिर्घृणतयोर्न यतः प्रसङ्गः ॥ ५२ ॥ अन्येषु हेतुषु तु सत्स्वऽपि कर्ष्टचेष्टा स्यान्निष्फला जलधरो यदि न प्रवर्षेत् । साधारणो जलधरः किल तेन हेतुः सारीतिर प्रतिहता परमेश्वरेऽपि ॥ ५३ ॥ जीवो न वेत्ति सकलं स्वमपीह कर्म दूरे परस्य कथमेव ततोऽधितिष्ठेत् । सर्वज्ञतां तदुचितां हि वहन परेशोऽधिष्ठानताभर सहोऽल्पमतिर्न जीवः ॥ ५४ ॥ इत्युक्तयुक्तिनिवहैः परमेशसिद्धौ तस्य प्रपञ्च हितसाधनमार्गदर्शी । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , आदेश एव किल वेदपदाभिधेयो नोल्लङ्घ्य एष तदधीनहितार्थिजीवैः ॥ ५५॥ ___ इन सब श्लोकका रहस्य यह ही है, कि- इस जगत के रचयिता कोई एक ईश्वर है, यह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है. जैने की प्राणीओंके छोटेसे भी कार्य में कोईन कोई अधिष्ठाता रहता है, तो यह अनेक प्राणीसे बना हुवा जो ब्रह्माण्ड रूप कार्य उसमें अधिष्ठाता सर्वत्र व्यापक एक ईश्वर को मानना चाहिये ॥ ४७ ॥ जितनी प्रवृत्तियां यथारुचि जीवगण करता है, उन सब में एक प्रवृत्ति तो किसीका डर रखके कुटुम्ब और नगर में रहे हुवे जीव में दिखाई देता है, इसलिये जिसकी भीति से उस प्रवृत्तिको लोग कर रहे है, वह ही सर्वस्रष्टा ईश्वर है ॥ ४८ ॥ और उस ईश्वरका ज्ञान निल्य है याने न कभी नष्ट होता है, न कभी पैदा होता है; न कभी किकार को भी पाता है, सदा एक रूपही रहता है. यदि उसको अनित्य माना जाय तो उसका (ज्ञानका) कोइ हेत्वन्तर स्वीकारना पड़ेगा, तो जो हेतु स्वीकृत है वह नित्य, या अनित्य १, यदि नित्य, तों ज्ञानकोही नित्य मानकर व्यर्थ हेतु प्रकल्पन क्यों करना - चाहिये ? और अनित्य मानो तो उसका भी हेतु होना चाहिये. इस प्रकार माननेमें अनवस्था आती है. इसलिये ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है और सब कार्य में कारण रूपसे उसीको ही ईश्वर धारण करते है ॥५०॥ यदि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) जैन कहे की अपना २ शुभाशुभ कर्म सेही आत्मा शुभाशुभ फल पाता है तो भी यह उचित नहीं, क्योंकि कर्म तो जड होनेसे फल देने में असमर्थ है, इसलिये उसका (कर्मका) भी एक महेश भविष्ठाता होना चाहिये ॥५१॥ खेतीहर अपनी कर्षणकी और बोनेकी कुशलता और अकुशलता से फलसिद्धि यातो फलाऽसिद्धिको पाता है, जैसे इसमें मेघका दोष नहीं है, वैसेही जीवको सुख, दुःख पाने में ईश्वरका दोष नही है इसलिये ईश्वर रागी, द्वेषी नहीं कहा जा सकता है ॥ ५२ ॥ और भी सब हेतुगण विद्यमान होनेपर भी यदि वृष्टि न होवे तो जैसे खेतीहर की सब कर्षणादि चेष्टा निष्फल होती है, वैसेही यदि ईश्वरेच्छा न हो तो एक भी कार्य नही हो सकता ॥ ५३ ॥ जीव अपने कर्मको जानता नहीं है, और परकीय कर्म दूर है, इसलिये `स्व, पर कोई कर्मका अधिष्ठाता नही होसकता, अतः उसका अधिष्ठाता सर्वज्ञ महादेवजी ही है ॥ ५४ ॥ ऐसी अनेक युक्तिसे जगत्कर्ता ईश्वर 'सिद्ध होनेपर उसका सकलमार्गदर्शी वेदविहित जो आदेश उसको उल्लचित नही करना चाहिये || ५५ || और भी वह महाशय धर्मान्धतामें लिपट कर अपने महादेव बावाका जूठाही निष्पक्षपात बतलातें है - माद्येत् खलो गुरुतरार्चनया, कुलीनो दण्डे महीयसि कृते भृशमुद्विजेत । यायाद् विपर्ययमनेन च लोकयात्रा I 1 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) ___ऽऽयत्यां शुभं विदधदेष न पक्षपातः ॥ ६१॥ ___ बड़ी पूजा से खल-दुष्ट मत्त होता है, और बडा दण्ड करनेसे कुलीन अच्छा मनुष्य उद्विग्न होता है और ऐसा करनेसे लोकयात्रा व्यवस्थिति में रह नहीं सकती, और उचित पूजा, दण्ड करनेसे यह पक्षपात नहीं कहलाता है। ___अब शास्त्रीजीने जो उपरोक्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष सृष्टिकर्ता के बारेमे दिखलाये है, वे सब मिथ्या प्रलाप है और ईश्वरको कलकित बनानेके उपाय है, देखिये-वीतराग ईश्वर इस जगतको किस लिये बनावेगा . तथाहि-शशभृन्मौलेस्त्रैलोक्यघटने भवेत् । यथारुचिप्रवृत्तिः किम् १, कर्मतन्त्रतयाऽथवा ॥१॥ धर्माद्यर्थमथोद्दिश्य ?, यद्वा क्रीडाकुतूहलात् ।। निग्रहाऽनुग्रहाय वा ? सुखस्योत्पत्तयेऽथवा ॥२॥ यद्वा दुःखविनोदार्थम् ?, प्रत्यवायक्षयाय वा । भविष्यत्पत्यवायस्य परीहारकृते किमु ॥३॥ अपारकरुणापूरात् किं वा ?, किंवा स्वभावतः । एकादशैवमेते स्युः प्रकाराः परदुस्सहाः ॥ ४ ॥ अर्थात् क्या महादेवजी जो सृष्टि बनाते है सो अपनी यथारुचि बनाते है ? । या कर्म से परतन्त्र होकर बनाते है । वा अपने Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को धर्म हो इसलिये ? या अपनी क्रीडा के लिये ? या प्राणियोंको निग्रह और अनुग्रह करने के लिये या अपने को सुख होवे इसलिये, या अपने दुःखका नाश करनेके लिये ? या अपने पापका क्षयके लिये ? या अपने स्वभाव से इस सृष्टिका रचना करते हैं १. यह हमारा एकादश विकल्प शास्त्रिजीका अलिविलासिको विलापि बना देगा-- जायेत पौरस्त्यविकल्पनायां कदाचिदन्यागपि त्रिलोकी । न नाम नैयत्यनिमित्तमस्य किंचिद् विरूपाक्षरुचेः समस्ति ॥ १ ॥ करोत्ययं वां यदि कर्मतन्त्रः स्वतन्त्रतैवास्य तदा कथं स्यात् । सखे ! स्वतन्त्रत्वमिदं हि येषां । परानपेक्षैव सदा प्रवृत्तिः ॥२॥ कर्मव्यपेक्षस्य च कर्तृताया मीशस्य युक्ता न खलु प्रवृत्तिः। कर्मैव यस्मादखिलत्रिलोकी __ करिष्यते चित्रविपाकपात्रम् ॥ ३ ॥ नाऽचेतनं कर्म करोति कार्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७) मप्रेरितं चेदिह चेतनेन । यथा मृदित्येतदपास्यमान माकर्णनीयं पुरतः सकर्णैः ॥ ४ ॥ तृतीयकल्पे कृतकृत्यभावः कथं भवेद् भूतपतेः कथंचित् । भयोजनं तस्य तथाविधस्य धर्मादिकं हन्त ! विरुध्यते यत् ॥ ५॥ अथाऽपि शम्भुर्जगतां विधाने प्रवर्तते क्रीडनकौतुकेन । कथं भवेत् तर्हि स वीतरागः ___ सखे ! प्रमत्ताभकमण्डलीव १ ॥६॥ विनिग्रहाऽनुग्रहसाधनाय प्रवर्तते चेद् गिरिशस्तदानीम् । . विरागता द्वेषविमुक्तता वा तथाविधवामिवदस्य न स्यात् ॥७॥ उत्पत्तये न च सुखस्य तथा प्रवृत्तिः शम्भोर्यतः सुखगुणोऽत्र न सम्मतस्ते । स स्वीकृतो दशगुणेश्वरवादिभिर्यै स्तैरप्यसावुपगतो वत ! नित्य एव ।।८ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) एतस्य दुःखं न भवद्भिरिष्टं न प्रत्यवायोऽपि कदाचनाऽपि । दुःखादिभेदत्रितयं न वक्तुं युक्तं ततो यौगधुरन्धरस्य ॥९॥ पुण्यकारुण्यपीयूषपूरेणाऽत्यन्तपूरितः। प्रवर्तते जगत्सर्गे भर्ग इत्यपि भङ्गुरम् ॥ १० ॥ यत:क्षुद्रग्रामे निवासः कचिदपि सदने रौद्रदारिद्रयमुद्रा जाया दुर्दर्शकाया कटुरटनपटुः पुत्रिकाणां सवित्री। दुःस्वामिप्रेष्यभावो भवति भवभृतामत्र येषां वतैतान् शम्भुर्दुःखैकदग्धान् सृजति यदि तदा स्यात्कृपा कीगस्य । अथ धर्ममधर्ममङ्गभाजां सचिवं कार्यविधावपेक्षमाणः सुखमसुखमिहार्पयद् गिरीशस्त दवरमुपरि निषेधनादमुष्य ॥ १२ ॥ स्वभाव एवैष पिनाकपाणे: प्रवर्तते विश्वविधौ यदेवम् । खभाव एवैष रविर्जगन्ति प्रकाशयत्येष यदित्ययुक्तम् ॥ १३॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( १९ ) एवं दीश्वरसंविदो विफलता तस्माद् निसर्गाद् निजात् किं मा भूद् जगतां प्रवर्तन विधिर्निश्चेतनानामपि । तत्तेषां परिकल्पयन्ति किमधिष्ठातारमेते शिवं व्यर्थे वस्तुनि युज्यते मतिमतां किं पक्षपातः क्वचित् १ ॥ १४ ॥ निश्चेतनानां जगतां प्रवृत्तौ कार्य कथं स्याद् नियतप्रदेशे ? | जातेऽपि कार्ये विरतिश्च न स्याद् इत्येतदप्येति न युक्तिवीथीम् ॥ १५ ॥ स्वभाववादाश्रयणप्रसादादेवंविधानां कुविकल्पनानाम् । नास्ति प्रसङ्गः कथमन्यथा स्याद् नायं सुधादीधितिशेखरे ऽपि ॥ १६ ॥ यह हमारे एकादश विकल्प में से यदि शास्त्रीजी प्रथम विकल्प को स्वीकृत करें, तो सृष्टि कभी न कभी दूसरी रीति से होनी चाहिये, याने ब्राह्मणकी स्त्रीको मूछ और डाढी आनी चाहिये, और ब्राह्मणको स्तन भी होना चाहिये, क्योंकि हमेशा समान, नियमित सृष्टि होने में महादेवजी को कोई निमित्त नहीं है ॥१॥ यदि मी० गंगाधरजी कहै की महादेवजी कर्मसे परतन्त्र होकर सृष्टिको रचते है. पाठकगण ! देखिये महादेवजीकी स्वतन्त्रता, कोई तो चेतन से पराधीन होता है, 1 · Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jupyt ( २० ) परन्तु महादेवजी तो जडरूप जो कर्मसमूह, उसके वश होकर कार्य करते है, तब भी स्वतन्त्र कहलाते है, यह स्वतन्त्रता दक्षिण देशकी हैं. मैं मी० गंगाधरजी से कहता हूँ की सखे ! उसका ही नाम स्वातन्त्र्य है कि जहा कोई की भी अपेक्षा न की जावे, और भी हमारे शाखीजी ईश्वर को कर्मपरतन्त्र न मानकर केवल सकर्मक आत्मा ही यह सब सृष्टिका प्रवाहरूप से रचयिता है, ऐसा माने तो कोई भी दूपण देखने नहीं आता है, फिर क्यों ईश्वर को बीच में अन्तर्ग कि तरह गाग्रीजी मानते है ' यदि शास्त्रीजी इस दलील को पेश करें, की कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा एक भी सपूर्ण नियमित कार्य नहीं कर सकता है, तो यह बात सविस्तर सयुक्तिक आगे राण्डित की जावेगी इसलिये पाठक महाशय सावधानता से देख लें, और भी पटसन चेतन नियमित कार्य नहि करसकता है, यह नात कहना सर्व वर्तमान व्यवहार का अपलाप करना है || ३ | यदि शासन करें कि 'अपने को धर्म हो' इस लिये शिशिर ऋतु में भी प्रा.काल महादेवी अपनी प्रिया पार्वती की शय्या को छोडकर कुम्भकार की तरह यह समार की रचना में लगते है, तो यह बात श्री नाम के श्री श्री ममान है. क्योंकि आप (न्यायदर्शन) श्रीमहा देवी को मानते हैं, और वह ही कृतकृत्य कहा जा सकता कार्य करने में प्रवृत्त न होने, परन्तु आपके गिरि ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) , जापति की तो कृतकृत्यता भी विलक्षण है जब महादेव बाबा कृत. कृत्य ठहरे तो उनको धर्म करने से क्या मतलब ॥४॥ यदि पण्डितजी कहें की महादेवजी पार्वती के मान से खिन्न होकर अपनी मौजके - लिये यह सब कारवाई करते है तो धन्य है आपके महादेवजी को, जो | पार्वती के पैरोमें भी अपना सिर झुकाने को भी तत्पर हैं और यदि । महादेव इस ससार को क्रीडासे करते है तो फिर उसकी वीतरागता कहां रही ?, वीतरागी होकर सामान्य जीव भी क्रीडा नहि करता है तो वीतराग होने पर भी महादेवजी छोटे बच्चे की तरह खेल करने लगे । तब तो महादेव की तरह क्रीडा करने पर भी सब वीतराग कहलावैगे | ॥५॥ और यदि शास्त्रीजी कहै की प्राणियों को निग्रह और अनुग्रह ; करने के लिये यह सब तकलीफ महादेवजी उठाते है, तब भी महादेव । जी प्रजापालक राजा की तरह कभी वीतराग और वीतद्वेष नहीं हो ___ सकते, और यह नियम तो खानुभवसिद्ध है कि जो कार्य करने में | आता है उसके आगे कर्ता को भी उस कार्य की तरह परिणत होना 1 चाहिये, तो जब महादेवजी कहीं भी अनुग्रह करेंगे तब वे सरागी { कहे जायेंगे और कहीं निग्रह करें तो वे सद्वेष होजाते है, यदि निग्रह ३ अग्रनुह करने पर भी जो महादेवजी को ईश्वर का टाइटल दिया जावे तो । हमारे निग्रह, अनुग्रह के कर्ता महाराजा पञ्चम जार्ज को भी साक्षात् । ईश्वर माननेमें क्या हरज है ? ॥६॥ यदि पण्डितजी फरमा कि अपने Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) को सुख हो इस लिये, अपना प्रत्यवाय ( पाप ) नष्ट हो इस लिये, और अपना होनहार जो प्रत्यवाय उसके नाश के लिये भी महादेवजी इस जगतको पैदा करते है तो यह कथन भी शपथश्रद्धेय है, क्योंकि ईश्वर में तो नित्य ही सुख रहता है तो फिर महादेव क्यों सुख के लिये यत्न करेंगे, और विचारे भोले महादेव को प्रत्यवाय भी माननेमें नहीं आता है तो फिर वे अपना प्रत्यवायके नाश के लिये क्यों उद्यत होंगे ॥७॥ यदि शास्त्रीजी कहै कि अपूर्व अनुकम्पा से महादेवजीने यह जगत बनाया है, यह कथन भी वृथा है, यदि महादेव करुणासे जगत बनाते तो यह कभी न होता कि एक दरिद्री, एक धनी, एक सुरूपी एक कुरूपी, एक विद्वान् , एक पागल, एक देव, और एक दानव होता, यदि शास्त्रीजी कहै कि प्राणियोंके धर्म और अधर्म के बराबर उनको महादेवजी फल देते है, महाशय ! देखिये ऐसा मानने में द्वितीय श्लोक में दिखाई हुई बरावर ईश्वर की स्वतन्त्रता नष्ट हो जायगी और एक मामूली कलीकी श्रेणिमें महादेवजी का नम्बर लग जायगा. जैसे कि ( सापेक्षोऽसमर्थः ) याने जो कोई भी कार्य में किसी का अपेक्षा रक्खे तो वह असमर्थ, पराधीन कहलाता है वैसे ही धर्म और अधर्म सापेक्ष कार्य करनेवाला महादव कहां से स्वतन्त्र होगा ? ॥ ८॥ अब शास्त्रीजी परेशान होकर अन्तिम पक्षको स्वीकारते हैं की महा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) देवजीका जगन् बनानेका स्वभाव ही है, यदि केवल महादेवका स्वभाव मानने पर यह सब संसार हो सकता है तब महादेवजीको सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न मानना चाहिये, क्योंकि सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न होनेपर भी महादेव अपने स्वभाव से ही इस संसार चक्रको घुमावेगा, हम तो बिचारे के सुख के लिये मी. गंगाधर जी को कहते है की महादेवजी की तरह सकर्मक आत्मा में अपने कर्म का फल पाने का, और यह सृष्टिको चलाने का स्वभाव मान ले और महादेवजी को तो पार्वती के चरणरेणुका स्पर्शसुख लेनेमें अन्तराय न करें, और मी० गंगाधरजीने जो पूर्वमें कुतर्क दिखलाये हैं कि कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा कुच्छभी नहीं कर सकता है, तो वह कुविकल्प स्वभाववादमें नहीं चल सकता. जैसे लोहचुम्बक जड होनेपर भी निज स्वभावसे दूरस्थितभी लोहाको, खींचता है, दूरबीन और खुरवीन यह दोनो यन्त्र जड कांचके वने हुए है तब भी उससे सहकृत पुरुष दूरकी बस्तुको और सूक्ष्म पदार्थ को भी प्रत्यक्ष करलेता है, फोनोग्राफ जडहोने पर भी सब तरहके शब्द, सवतरहकी भाषाको बोल सकता है, ज्यादा क्या कहैं, परन्तु सकर्मक जीव, विना जड एक कदम भी नहीं दे सकता है. इसलिये सकर्मक आत्माका पूर्वोक्त स्वभाव मानने में कोई भी हानि नहीं आती, तो बिचारे बूढे महादेवजी को क्यों सताते हो? और जैन Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) दर्शन केवल सकर्मक जीवको ही कर्ता मानता है वैसाही नहीं है, परन्तु हर कोई कार्य करनेमें पुरुषार्थ, कर्म काल नियति, स्वभाव यह पांच कारणों की भी जरूरत मानता है यदि इस पाच कारणों में से एक भी न हो तो पुरुष अपनी अङ्गुली तक को भी हिला नहीं सकता. इसलिये स्वभाववादमें इन पांचो कारणोंसे सृष्टि प्रवाह होना असंभवित नहीं है, परन्तु यह पांच कारणभी विना जीव, कुछ नहि करसकते इसलिये जैनदर्शन में जीवको ही कतों, भोक्ता मानत हैं. बस, इससे पाठक गणको जरूर विदित हुआ होगा कि मी-गंगाधरजीका सृष्टिकर्ताके विषयमें जो जो कुच्छ वक्तव्य था वह सब कैसा नियुक्तिक और तुच्छ था. अभी तो इस विषयको में यहा ही खतम करता हुआ आगे मी-गंगाधरजी की खबर लेता हुँ ॥ और भी वे साहब अपनी महामहोपाध्यायता प्रकट करते हुए आत्म व्यापकत्वमें पूर्वपक्ष दिखलाते है-- (पूर्वपक्ष) देहाद् बहिर्नहि सुखादि कदापि दृष्टं तेनाऽस्तु देहपरिमाणक एव जीवः । बन्धोऽस्य सम्भवति देहमितत्व एव 'मोक्षोऽपि वा स्वतनुयोगवियोगभेदात् ॥ ३१ ॥ तस्मिन् विभौ तु सतताऽखिलकाययोगा दापद्यते सततबन्धनदुष्प्रसङ्गः। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मा- --- - (,२५) देहान् मृति मनुषे यदि तर्हि मोक्षे सिद्धे मुधा किमनुतिष्ठसि साधनानि ? ॥ ३२ ॥ अस्मन्मते तनुमितो निजपुण्य-पाप देहादिभारभृदपारभवाब्धिमग्नः । सम्यक्चरित्र-मति-दर्शनलुप्तभारो जीवः प्रयात्यनिशमूवमियं विमुक्तिः ॥ ३३ ॥ सुख, दुख, ज्ञान प्रभृति आत्मीयगुण शरीर में ही दिखाई पड़ते है. और किसीने भी पूर्वोक्त गुण देह के बहार नहीं - देखे, इसलिये यह बात साफ सबूत होती है कि जिसका गुण जहां है, वह भी वहा ही रहता है, याने आत्मा सर्वव्यापी नहीं है किन्तु देहव्यापी याने जितना बडा शरीर है, उत्तना ही परिणाम आत्माका है, और जिस शरीर में आत्मसंयोग, है उसीसे उसका बन्ध और मुक्ति है ॥ ३१ ॥ यदि कोई आत्माको सर्वव्यापी माने तो वह आत्मा सर्व शरीर से संयुक्त होनेसे उसको सदैव बन्धन प्रसङ्ग होगा और यदि सब शरीरको मिथ्या माने तो मोक्ष स्वयं सिद्ध है, फिर मोक्ष के लिये कोइ भी अनुष्ठान क्यों करना ? ॥३२॥ हमारें मतसे आत्मा शरीरपरिमाणी है, और पुण्य पापके भारसे लिप्त है. जब वह सम्यग् ज्ञान, दशर्न, चारित्र को पाता है तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है वहही विमुक्ति ( मोक्ष ) है ॥ ३३ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अब आपही उत्तर पक्षको प्रकट करते हैंजीवस्त्वयैव कृतहान्य-ऽकृतागमाभ्यां भीतेन नित्य उदितोऽस्य तनूमितत्वे । मातङ्ग-कीटवपुषोरनयोः शरीर___ व्यत्यास आपतति संभवपूर्त्यभावः ॥ ४२ ॥ संकोच-विस्तृतिकथाऽत्र वृथा तथात्वे ऽस्यापद्यतेऽवयाविताऽथ विनाशिता च । कापीक्ष्यतेऽवयविनोरुभयोर्न चैक देशस्थितिस्तदलमेभिरसमलापैः ॥ ४३ ॥ कस्मात् तपःक्षतसवासनकर्मजालो जीवः प्रयात्युपरि किं भयमत्र वासे १ । कर्मस्वसत्स्विह परत्र च नास्ति बन्धः कर्मस्थितौ तु गगनेऽप्यनिवार्य एषः ॥४४॥ तुमने (जैनोने ) कृतहानि, अकृतागम दोषोंसे भय पाकर आत्माको नित्य माना है, और यदि उसको तुम तनुमात्र ( शरीर परिमाणी ) मानोगे तो हाथीका और कीटका शरीरका व्यत्यास होगा याने हस्तिका शरीर में रहा हुआ जीव कीटके शरीर में कैसे जायगा !, कीटके शरीरमें रहा हुआ जीव हस्ति के शरीर में कैसे गा ! ॥४२॥ यदि तुम (जैन) सकोच ( समेटना) और विकाश । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) (फैलना) आत्मा में मानोगे, तो वह अवयवि होनेसे विनाशी मानना पडेगा, और दो अवयवि तो कभी एक देशमे ठहर नहीं सकते, इसलिये ऐसा झूठा प्रलाप मत करो कि आत्मा व्यापक नहीं है ॥४३॥ और जब आत्मा निष्कर्मा होता है तब जैनीयोंके मत में वह उंचा चला जाता है, क्या इधर रहने में उसको कुच्छ भय है !, जो आत्मा निष्कर्मा है तो उसको कहिं भी रहने में हरज नहीं हैं, और आत्मा सकर्मक है तो ऊपर जानेसे भी क्या हुआ ? ॥ ४४ ॥ इस उत्तर पक्ष में जो शास्त्रीजीने आत्मा का शरीर परिमाणत्वका खण्डन, आत्मव्यापकत्वका मण्डन किया है वह भी भ्रममूलक है, क्योंकि शास्त्रीजीने जो आपत्तियाँ आत्माका शरीर परिमाणमें दी है वे सब झूठी है, जो शास्त्रीजी कहते है कि जीव अपरिणामी कूटस्थ नित्य है यह अनुभव, प्रमाण और वर्तमान विज्ञान से विरुद्ध है. वर्तमान विज्ञान ( सायन्स ) यह ही सिद्ध करता है कि दुनिया में कोई भी चीज केवल नित्य या अनित्य नहीं है. किन्तु सब पदार्थ नित्य, अनित्य उभय स्वरूप हैं यदि आत्मा को या कोई पदार्थको अपरिणामी नित्य माना जाय तो वह अपरिणामी कूटस्थ नित्य पदार्थ कभी एक भी क्रिया नहीं कर सकता. देखिये-- वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम् , तचैकान्तनित्यानित्यपक्षयोर्न घटते, अपच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) स च क्रमेणार्थक्रियां कुर्वीत, अक्रमेण वा ?, अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणां प्रकारान्तरासम्भवात् । तत्र न तावत् क्रमेण, स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् ; समर्थस्य कालक्षेपाऽयोगात् । कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः । समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थ करोतीति चेत् । न तर्हि तस्य सामर्थ्यम् ; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् ; सापेक्षमसमर्थम् , इति न्यायात् । न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्तेः अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वभवत् तानपेक्षत इति चेत् । तत् किं स भावोऽसमर्थः समर्थो वा ? । समर्थश्चेत् , किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते ?, न पुनर्झटिति घटयति । ननु समर्थमपि वीजम्इलाजलानिलादिसहकारिसहितमेवाङ्कुरं करोति, नान्यथा । वत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत, न वा ? । यदि 'नोपक्रियेत, तदा सहकारिसनिधानात् प्रागिव, किं न तदाऽप्यर्थक्रियायामुदास्ते ? । उपक्रियेत चेत् सः, तर्हि तैरुपकारोऽभिन्नो भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यम् ? । अभेदे स एव क्रियते । इति लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता, कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वाऽऽपत्तेः।। - भेदे तु स कथं तस्योपकारः ?, किं न सह्य-विन्ध्यानेर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) पि ? । तत्संबन्धात् तस्यायमिति चेत् । उपकार्योपकारयोः कः सम्बन्धः । न तावत् संयोगः; द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु उपकार्य द्रव्यम् , उपकारश्च क्रियति न संयोगः । नापि समवायः; तस्यैकत्वात्-व्यापकत्वाज प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वाद् न नियतैः सम्बन्धिभिः सम्बन्धो युक्तः । नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः । तथा च सति उपकारस्य भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायादभेदे, समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे, पुनरपि समवायस्य न नि. यतसम्बन्धिसंबन्धत्वम् । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते। सब दर्शनकारोने वस्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व माना है, यह लक्षण कूटस्थ और अपरिणामि आत्मा में जा नहीं सकता. कूटस्थ और अपरिणामि वह कहा जा सकता है जो कभी नष्ट नहीं होता हो, जो कभी उत्पन्न नहीं होता हो, और जिसका एकही स्थिर ही रूप हो, यद्यपि ऐसा पदार्थ जगत में एक भी नहीं है यह वात आजकाल के नये विज्ञान ( सायन्स ) विद्याविशारदोने भी जगत को प्रत्यक्ष कराई है तब भी "तुष्यतु दुर्जनः" इस न्याय से एक आत्मा को हम ऐसा कूटस्थ अपरिणामी नित्य माने तो वह एक Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) भी व्यापार को नहीं कर सकता. मैं पूछता हूँ कि कूटस्थ अपरिणामी आत्मा अपने व्यापार को क्रम से करेगा ?, या युगपत् करे - गा १,, क्योंकि विना क्रम और अक्रम दूसरा कोई भी उपाय नहीं है कि जिससे क्रिया हो सके. यदि महाशयजी कहें की क्रम से व्यापार करता है, तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह आत्मा कूटस्थ, अपरिणामी नित्य है तो उसको व्यापार करने में किसी की अपेक्षा नहीं है याने वह स्वयं समर्थ है, तो कालान्तर में होनेवाली जो क्रियाए है उनको भी एक ही काल में करने में समर्थ होना चाहिये, अन्यथा वह असमर्थ होनेपर अनित्य हो जायगा. अब शास्त्रिी यदि फिर कहें की वह आत्मा किसीकी अपेक्षा नहीं रखता किन्तु होनेवाला जो कार्य है सो विना सहकारी नहीं होता है, 1 तब मुझे कहना चाहिये की वह आत्मा पदार्थ समर्थ है ?, या असमर्थ है ?, यदि समर्थ है, तो वह उस कार्य को क्यों सहकारी की अपेक्षा रखने देता है ?, क्यों शीघ्र पैदा नहीं करता है, फिर शाखिजी उच्चारे की क्या समर्थ भी सहकारी की अपेक्षा नहि रखता है ?, अवश्य रखता है, जैसे वृक्ष को पैदा करनेवाला बीज समर्थ होनेपर भी पृथ्वी, जल, वायु और तापकी अपेक्षा रखता है, इसी तरह यह समर्थ भी आत्मा व्यापार करने में सहकारी की अपेक्षा है, उससे वह उस वीजकी तरह असमर्थ नहीं कहा जायगा. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब हम यह पूछते हैं कि क्या वह सहकारीगण उस आत्मा का कुछ उपकार करते है, या नहि करते हैं 2. यदि नहि करते है, तो जब वह सहकारी हाजिर नहीं था तब वह आत्मा अर्थक्रिया नहीं करता था, वैसे ही सहकारीगण सेवा में उपस्थित होने पर भी क्यों अर्थक्रिया करेगा 2. अब शास्त्रिजी कहें की सहकारी उसको उपकार करते हैं, तो वह सहकारी कृत उपकार आत्मासे भिन्न है, या अभिन्न है ?, यदि वह उपकार को अभिन्न माना जाय तो जैसे क्रियमाण उपकार अनित्य है, उसी तरह तदभिन्न आत्मा भी अनित्य हो जायगा, इसीसे लाभ होनेकी चेष्टा करते हुए भी आपने अपने लाभ को नष्ट किया. यदि क्रियमाण उपकार और उपकार्य आत्माको भेद माने तो वह उपकार उसी आत्मा को है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?. वह उपकार और किसीका क्यों नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ?, यदि शास्त्रीजी कहें की उपकार और उपकार्य को परस्पर समवाय नामक संवन्ध है, जिससे 'तस्यैवायमुपकारः'' यह ज्ञान स्पष्ट होगा, तब मैं यही कहता हूं की समवाय मानने पर भी वह ही दोष आवेगा, क्योंकि समवाय भी एक खयुप्प तुल्य पदार्थ है, और वह एक, व्यापक होने से ( उसीसे ) उसका संबन्ध सर्वत्र होने से यह नियम नहीं हो सकता है कि यह उसका ही उपकार है. और कोई समवाय पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि जैसे समवायत्व समवाय में स्व Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) रूप संबन्ध से रहता है वेसैही पृथिवी में पृथ्वीत्व, घट में नील वगैरह को भी स्वरूप संबन्ध से रहने वाले मानो, क्यों निष्फल समवाय की जूठी कल्पना करते है ?, भला यह क्या बात है कि पृथिवीका धर्म पृथ्वीत्व तो पृथ्वी में समवाय से रहे, और समवाय का धर्म समवायत्व समवाय में स्वरूप संबन्ध से रहे ?, हम तो यह कहते है कि दोनों धर्म एकही संबन्ध से मानना चाहिये, तो जो समवाय से मानों तो समवाय का एकत्व नष्ट होजायगा, और स्वरूप सबन्ध से मानो तो यह बात सर्वाभेद्य है, इस लिये समवाय कोई भी प्रकार से पदार्थ की गिनती में नहीं आ सकता, और पूर्वोक्त प्रकार से नित्य पदार्थ क्रमसे अर्थ क्रिया नहीं कर सकता है. यदि शास्त्रीजी कहें कि अक्रम से अर्थक्रिया करता है, तो फिर जरा शास्त्रीजी स्वय सोचे की वह जब अक्रम से ( युगपत् ) साथही एक क्षण में सब क्रिया कर देगा तो फिर दूसरे क्षण में क्या बनावेगा ?, यदि कुछ न करे तो फिर अर्थक्रिया शून्य होने से पदार्थ की गणना में कैसे आ सकता है ? . और यदि कुछ क्रिया करे तो फिर क्रम ही हो गया, और शास्त्रीजी का अक्रम पक्ष तो गंगास्नान करने को गया, और भी यह बात अनुभव से विरुद्ध है की एक ही पदार्थ सब क्रियाओं को एक क्षण में कर देवें, इसलिये कभी अक्रम से भी अर्थक्रिया नहीं हो है. तब जब कूटस्थ अपरिणामि नित्य मानने पर कोई चीज Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३ ) क्रम, अक्रम से एक भी क्रिया नहीं कर सकती है तब पदार्थ की श्रेणी में तार्किक लोग कैसे मान सकते हैं ?. पाठक ! अब तक शास्त्रीजी का एक भी पक्ष नहीं ठहर सका है, तब भी सब से अधिक अनुकम्प्य ब्राह्मण वर्गस्थ शास्त्रीजी को एक बात मै सिखलाता हूं, कि जिससे शीघ्र ही शास्त्रीजी विजयी बनें. शास्त्रीजी महाशय ! अब अपने यशकी रक्षा के लिये जो आपने धर्मान्धता का वेष पहिना है उसको उतारिये और निष्पक्षपातिका ड्रेसको अपने दिल पर लगा __ लीजिये याने आप आकाश से लेकर परमाणु तक छोटा मोटा सव पदार्थ को नित्यानित्य मानें तो आपके यह मत में बृहस्पति भी दूषण नहीं डाल सकता है. जैसे उदाहरण में आप आत्मा को ही समझिये की आत्मा जब गमन क्रिया में प्रवृत्त होता है तब उस क्रिया के पूर्व आत्मा की शयन क्रिया में जो प्रवृत्ति थी वह नष्ट होती है, अर्थात् सब पदार्थ क्रिया करते समय अपने पूर्व का आ कार ( पर्याय ) को त्यजते हैं, और उत्तर के आकार को स्वीकारते _ हैं. जैसे एक वस्त्र पर काला रङ्ग है. उसको धोने से वह चला जाता - है, और वस्त्र भी लाल हो सकता है, उससे वस्त्र नष्ट होता है यह में बात नहीं है, वैसेही यह आत्मा भी अपना पूर्व रङ्ग को छोड़ता है, - उत्तर रङ्ग को खीकारता है इससे वह परिणामी है किन्तु नष्ट नहीं - होता है. और भी आज कल के नये विज्ञान से यह साफ सिद्ध Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) होती है की मूल द्रव्य, वह तो नित्य है. परंतु वह मूल द्रव्य में समय समय में परिणाम हुवा ही करता है. किन्तु वह मूल द्रव्य नष्ट नहीं होता है और वास्तवमें वस्तुका सत्य स्वरूप तो यह ही है की जिसमें उत्पाद, व्यय, धौव्य यह तीन रहता है वह ही पदार्थ है और इससे अन्य सब ब्राह्मणपुच्छ की तरह है. पाठकगण ! खूब सोच के पढे, इस समय मे पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का स्वरूप दिखलाता हूँ. जो पदार्थ उत्पन्न होता है, बदलता भी है, और स्थिर रहता है वह ही पदार्थ है, यह बात अनुभव से सिद्ध भी है, परन्तु शोक है की शास्त्रीजी की वृद्धावस्था होने से उनको पक्ष पातका चश्मा आगया है. देखिये- आपका ही ( शास्त्रीजी का) उदाहरण- आपका नाम गगाधर है जो बहुत छोटी अवस्था में रखा गया था, जब वह नाम रक्खा गया तब आपकी शरीराकृति और ही थी और अब आपका शरीरसौन्दर्य उस आकृति से विल. कुंठ विपरीत है. जिस मारुति की विद्यमानता में आपका नाम गमावर रखा गया था वह आकृति न होने पर भी इस समय सर लोग आपको गंगाधर ही क्यों कहते है ?, जरा बुद्धि लगाकर विचा रने में स्पष्ट सिद्ध होता है की जो पूर्वका गंगाधर था, वह काला परिणाम से विकृत होकर इस समय एक नया ही गंगाधर बना है " नो नया बना है, जो विकृत हुआ था, यह दोनों में गंगाध Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (३५) धारक एक चीज स्थिर है उसीसे अब भी आप गंगाधर शब्द वाच्य है. जब आपमें भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यह तीन शक्ति है, तो आपको यह शक्ति सब पदार्थ, में मानने में क्या हानि है ? और पूर्वोक्त युक्तिसे आत्मा में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य मानने पर एक भी दूषण गौतमगुरु भी नहीं दे सकते. इससे यह ही फलितार्थ हुआ की आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं है, तब भी जो शास्त्रिजी को आग्रह है की आत्मा कूटस्थ नित्य है, उससे वह पक्ष में और भी दूषण बतलाता हूँ-- · नैकान्तवादे सुख-दुःखभोगौ न पुण्य-पापे न च वन्ध-मोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं ___ परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥ जो युक्तिया मैने पदार्थकी अर्थक्रियाके बारेमें दिखलाई है, उसी ही तर्को से कूटस्थ नित्य आत्मा कभी सुख, दुःखको अनुभव में नहीं का सकता, वैसे जीवको पुण्य, पाप भी लग नहीं सकता, वह आत्मा कभी बद्ध, मुक्त नहीं होसकता, हैं, इसलिये सापेक्ष आत्मा नित्यानित्य है यह सिद्धान्त अवश्य स्वीकारना पड़ेगा. और जैनदर्शन से, नव्य विज्ञान से भी यह बात सिद्ध की गई है कि सव पदार्थ मात्र नित्यानित्य हैं तब भी, शास्त्रिजी! आपकी यह पुरा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) णगप्प आपका भालचन्द्र ही सुनेगा और कोई प्रामाणिक न मानेगा, और जो शास्त्रिजी ने कहा की हाथी का आत्मा कीट में कैसे जायगा और कीटस्थ जीव हाथी में कैसे जायगा यह भी शास्त्रीजी की शङ्का गलत है. क्योंकि सब लोग आवालगोपाल यह अनुभव करते हैं की एक बड़ा भारी दीपक जिसमे बहुत प्रकाश हो, उसको लाकर बड़े कमरे में रखिये तो उसका सारा प्रकाश सारे कमरे में फैल जायगा, और उसी बडा भारी दीपक को एक छोटी पर्णकुटी में रखिये तो वह प्रकाश का दृश्य और कुछ हो जायगा याने इससे यह सिद्ध होता है की प्रकाश तो दोनों स्थल में समान ही है किन्तु जिसको जितना फैलने के लिये स्थान मिलता है उतनाही फैलता है इसी तरह आत्मा का कोई भी मान नहीं है, किन्तु उसमें यह एक प्रकार की शक्ति है की जहां जितना स्थल वहां उसका उतनाहा पसरना होता है इसलिये शरीरी आत्मा का प्रमाण जिस शरीर में वह है उतनाही है ऐसे सिद्धान्त में कुछ बाधाही नहीं होती है. मुझे हँसी आती है कि जो लोग, जो ऋषी यह कहते हैं कि आत्मा का परिमाण महत् है तो वे ऋषी महाशय कणाद, गौतम, गङ्गाधरजी प्रभृति गज लेकर क्या आत्मा को नापने गये थे? हरगिज नहीं, परन्तु यह झूठा जाल पसार कर बिचारे अज्ञानी प्राणिओं को दुर्मार्ग दिखला-ए वे गृहविजयी बनते है. पाठकगण ! और भी इसी विषय में कुछ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) युक्तियां दिखलाता हूंयत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत् । " तथाऽपि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतच्चवादोपहताः पठन्ति ॥ भव, यह बात सबको ही मालूम है कि जहां जो गुण रहता है, वहां ही उस गुण का आधार भी अवश्य रहता है. जैसे जहां घट का रूप की स्थिति है उसी स्थल में घट की भी स्थिति चार आखों से देखने में आती है. उसी तरह आत्मा का गुण ज्ञान, स्मरण, अनुचैतन्य प्रभृति जहां रहते है, जहां देखने में आते है वहा आत्मा की स्थिति भी होनी चाहिये. इस सिद्धान्त का विरोधक और कोई भी सिद्धान्त न होने पर भी हमारे अविद्या से उपहत शास्त्रीजी वावा अपनी सच्ची करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर बात को भी नहीं मानकर प्रज्ञाचक्षु की गिनती में आना चाहते हैं. पाठक महोदय ! यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर की गई है कि आत्मा का ज्ञानादि गुण केवल स्थूल शरीर में ही उपलब्ध होते है. तब भी आत्मा सर्व व्यापक है यह कहना केवल अपने पाण्डित्य को कलfa करने को उद्यत होना है. भला ऐसा कोई कह सकता है कि अभि ( आग ) तो सर्वव्यापक है परन्तु उसका दाह गुण तो सिर्फ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) चूहा में ही मालूम होता है ? ब्राह्मण तो सर्वव्यापक है किन्तु ब्राह्मण का धर्म तो अमूक गल्ली में ही मिल सकते है. ऐसी ऐसी ब्रामणपुच्छ समान बातों को कहनेवाले बड़े प्राऽज्ञ समझे जाते हैं, और भी आत्मा व्यापक मानने में बडी २ आफत का सामना करना पड़ता है, जैसे यदि कोई शास्त्रीजी बावा को पूछे की जो आत्मा व्यापक है तो वह अमूक अमूक स्थल में ही क्यों भोगादि करता है , सर्वत्र अपना भोगादि क्यों नहीं करता है ?, तब तो शास्त्रीजी कापते कांपते कहेंगे की यह बात तो उपाधि भेदसे मालूम होती है, वास्तव में आत्मा सर्वत्र है. फिर कोई शास्त्रीजी से पूछे की क्या उपाधि से जो भेद मालूम पड़ता है वह सच्चा है की झूठा', यदि शास्त्रिजी कहै कि झूठा तब तो वे सारे संसार के व्यवहारके, नाशक भये क्योंकि आत्मा पुरुष नहीं है, आत्मा स्त्री नहीं है, आत्मा क्लीब नहीं है आत्मा ब्राह्मण नहीं है, आत्मा शूद्र नहीं है, आत्मा माता नहीं है ऐसे प्रकार से जो जो जगत् में व्यवहार चले आते हैं, वे सब का कारण फक्त उपाधि ही है. यानं अपनी २ कर्मस्थिति ( उपाधि ) भिन्न होने से समान स्वरूप आत्मा भी भिन्न प्रकार से व्यवहृत होता है, यदि यह सब व्यवहार उपाधि अन्य होनेसे जूठा माना जाय तो जगत ही नहीं चल सकता, इस उपाधि जन्य व्यवहार में भी प्रामाण्य रहा हुवा है. इसलिये Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) शास्त्रिजी सर्वज्ञ होने पर भी यह कभी नहीं कहसकते है कि उपाधि नन्य व्यवहार असत्य, मिथ्या है, यदि शास्त्रिजी कहें की यह सब भ्रान्त है जैसे स्फटिक निर्मल होने पर भी यदि कोई लाल, काला पदार्थ उसके पास रक्खा जाय कि तुरन्त उसका रंग बदलके लाल, काला, हो जायगा, इसलिये स्फटिक का मूल श्वेतवर्ण तो सत्य है और दूसरे पार्श्वस्य पदार्थ से भये हुये स्फटिक यर्ण प्रान्त है, तो ___ यह भी बाबाजी कि झूठी बात है, क्योंकि आप महामहोपाध्याय तो हुए है परन्तु अफसोस है कि आपने आज काल की नयी साइन्स विद्या कुछ भी न देखी, यदि आप पूर्वोक्त बात कोई साइन्स विद्या विशारदको कहते तो वे जरूर हॅसता और आपकी महामहोपाध्यायता पर मुग्ध हो जाता, प्यारे महाशय ! एक पदार्थ से जो दूसरे पदार्थ में परिणाम होता है सो कभी मिथ्या, भ्रान्त नहीं है, जैसे कोई रंगसाज ने लाल रग से एक श्वेत कपडा को लाल बनाया, तो क्या उस कपडे का लाल रंग झूठा कहा जावेगा ?, और श्वेतरग सच्चा कहा जावेगा ?, यह कभी होही नहीं सकता, क्योंकि दोनों रग सच्चे है. यदि दोनों में से एक भी झूठा होता तो वजाज से और रंगरेज से कोई वस्त्र ही नहीं खरीदता, और रंग की दुकान पर जो लाखों रुपये कि आमदनी है सो भी नहीं होती, इसलिये वल रंग की तरह स्फटिक का रंग भी जो भिन्न भिन्न पार्श्ववर्ति प Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) दार्थों से होता है सो भ्रान्त, मिथ्या नहीं है, उसी तरह आपका व्यापक आत्मा भी उपाधि से जो शरीर में ही प्रमाणित होता है सो भी असत्य नहीं है। अब तो आपका आत्मा व्यापक है, और उपाधि से छोटा है यह. दोनों बात आपके अभिप्राय से सिद्ध हो चुकी तब भला आपके मत में एक आत्मा में दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सकता है ? क्योंकि मी० व्यासजी ने लिखा है कि "नैकस्मिन्नसभवात्" याने असंभव होने से एकही पदार्थ में प्रकाश और अन्धकार कि तरह दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते है, तब भला आप क्या करियेगा ? क्योंकि आपने पूर्वोक्त युक्ति से दोनों बात ( उपाधि जन्य लधुत्व, व्यापकत्व ) सिद्ध किया है, यदि दोनों ही एक ही आत्मा में आप मानें तो आपके प्रपितामह के वचन पर पोचा फेर जायगा, और यदि एकही आत्मा में यह दोनो बात को आप न माने तो आप प्रमाणसिद्ध वस्तु के अपलापी की पदवी से विभूषित किये जायगे. पाठकगण | अब यह बूढे ब्राह्मण को "इतो नदी इतो व्यात." यह दशा हुई है, अब भी जो वे माने की जड़ चेतन सब पदार्थों में परिणाम हुआ ही करता है और कोई भी कूटस्थ नित्य नहीं है सब वस्तु सापेक्ष नित्यानित्य है. और आत्मा का कोई भी नियत परिमाण नहीं है तब तो ये बच सकते है, अन्यथा प्रामा और सायन्सवेत्ता यह ब्राहण की हसी उडायेंगे पाठक महाशय ! Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४१) मैं कहां तक लिख , यदि आत्मा व्यापक माना जाय तो आत्मा का शरीर के बाहर का जो अश है सो तमाम निकम्मा ( निष्फल ) है, क्योंकि वह अश, कुछ नहीं जानता है, न स्मति कर सकता है, और न कोइ भी क्रिया वह कर सकता है, ठीक ठीक वह अश और जड पदार्थ समान हो जाते है, इसलिये यही कहना ठीक है कि आत्मा स्वशरीर परिमित है, और यदि आत्मा को व्यापक मानें तो फिर उपासना क्यों करनी, उपासना किसकी करनी यह सब प्रश्न उपस्थित होते है, जिसका उत्तर श्रीब्रह्माजी, सी. आई. इ. भी नहीं दे सकते हैं, इसलिये शास्त्रीजी से मैं नम्र प्रार्थना करता हू की आप सत्य के पक्षपाती बनकर अपने ब्राह्मण जन्म को सफल कीजिये, और कुछ कृपाकर सायन्स भी पढ लीजिये जिससे पाश्चात्य लोग आपकी हंसी न करै । ____ जो शास्त्रीजीने लिखा है कि मुक्तजीव उपर क्यों जाते हैं , यह शास्त्रीजीकी शङ्का शास्त्रीजीकी सब पोलको खोल देती है, क्योंकि जड, चेतन यह दोनों पदार्थ में क्या क्या शक्तिया हैं उससे शास्त्रीजी अप. रिचित है. देखिये, और सावधानी से विचारिये पूर्वप्रयोगाद , असङ्गत्वात् , बन्धच्छेदात् , तथागतिपरिणामाच तद्गतिः।।। अर्थात् यह चार प्रकार से जीवकी ऊर्ध्वगति होती है. शास्त्रीजी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) महाशय ! जैसे एक कुम्भारने अपने हस्त, दण्डका प्रयोग से चक को चलाया, फिर वह कुम्भार अपना हस्त, दण्डका प्रयोग नहीं करता है तब भी वह चक्र बहुत समय तक चला करता है अर्थात् वेगसे यह चक्र चलता है वैसेही कर्म (पुण्यपाप) रूप कुलाल से यह आत्म चक्र घूमाया जाता है, जब वह कर्म कुलालका समूल नाश हो गया, तब भी पूर्व के वेगसे वह मुक्तजीव उपरही जाता है. दूसरा प्रकार यह है कि जीव में हमेशा ऊपर जानेकी ही शक्ति नियत है, जड़में हमेशा अधोगमन की शक्ति नियत है, परन्तु जब तक जीव और पुद्गल किसी के अधीन रहते हैं तब तक उसकी सब तरफ गति होती है, और जब जीव, पुद्गल असङ्ग, स्वतन्त्र होते है तब उसकी गति अपने नियमानुसार ऊपर और नीचेही होती है, तीसरा प्रकार तो खेतिहर भी जानता है. जैसे एरण्ड की सिङ्गका बन्धच्छेद करने से एरण्डकी ऊर्ध्वगति होती है वैसेही जीव के कर्मबन्धका छेद होने से उसकी उच्चगति होती है, और चौथा प्रकार तो स्पष्ट ही है कि जैसे तुम्बको जब पङ्कलगता है तब जल के नीचे जाता है, और जब पक्क नष्ट होता है तब वह तुम्ब उपर चला आता है, उसी तरह कर्मपङ्क, नष्ट होने से वह जीवमें उच्चगमन का परिणाम होता है और वह ऊंचे लोकान्त तक जाता है, इसी से ही शास्त्रीजी समजे होंगे की मुक्तजीव क्यों जाता है यदि और भी कोई शङ्का शास्त्रीजी की होवे तो Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) उसको भी विनीतता से पूछने से उत्तर दे सकता हूँ. __अब शास्त्रीजी के शब्दार्थ कोश ज्ञान की मीमांसा की जाती है, मै सुनता हूँ कि शास्त्रीजी साहित्य के बड़े नामी विद्वान है किन्तु यह बात इस 'अलिविलासी' को देखकर सदिग्ध हो जाती है, क्योंकि शास्त्रीजीने इस 'अलिविलासी' में कई श्लोको में जहा जैनो का खण्डन हो रहा है उसमें जैनके स्थान पर बौद्धसूचक शब्द रक्खा है, याने कौन शब्द बौद्धका वाचक और कौन शब्द जैनका वाचक है यह चात शास्त्रीजी से अपरिचित है, देखिये 'इत्थं तथागतपथागतवेदनिन्दासर्वेश्वरादरविरोधवचो निशम्य ॥ ३५॥ तथागतपथागताहितकथा वितीर्णप्रथा ॥१०३ ।। चतुर्थशतक. ऐसे बहुत से श्लोक में अर्हन् का पर्याय तथागत को रक्खा गया है, पाठक ! आपही कहिये की इस वृद्धावस्थामें भी शास्त्रीजी को कोश कण्ठस्थ करने की आवश्यकता है या नहीं ? शास्त्रीजी महाशय ! तथागत नाम अर्हन् (जैनधर्मप्रकाशक ) का नहीं है किन्तु वह नाम आपके बुद्धावतार, युद्धदेव को बतलाता है, परन्तु अईन् का नाम तो यह है कि अर्हन् जिनः पारगतस्विकालवित् Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भुर्भगवान् जगत्पतिस्तीर्थकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः || ( इत्यादि ) अब मै अपनी लेखनी को विश्रान्ति देता हुआ आपसे (शास्त्री - जी से) प्रार्थना करता हॅू कि 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' इस वाar को आप वरावर याद रखिये, याने जिस सिद्धान्त का खण्डन करना उसका मण्डन बराबर देख लेना, परन्तु गडरिका प्रवाह की तरह प्राचीन बुड्ढोकी माफक अण्ड वण्ड नहीं घसेटना. समय आनेपर वे सब बुड्ढों की ( कुमारिल, गौतमादि की ) भी मनीपा मीमांसा करूँगा. अब जिस वेद में हिंसा भरी हुई है, और जिस वेद की भाषा का भी कुछ ठिकाना नहीं है, क्योंकि ऋषी पाणिनीय ने भी अपनी प्राकृतमञ्जरी में छ भाषा की गिनती की है जो संस्कृत, प्राकृत शौरसेनी, पैशाची, मागधी और अपभ्रंश है, उसमें की कोई भी भाषा वेद में नहीं है, किन्तु वेद में विचित्रही भाषा है, उस वेद को भी वर्मान्वशात्रीजी ईश्वर तुल्यमान रहे है, अहो ! क्या श्रद्धा का चमत्कार की गधे को भी सींग मानना, बस लेख में जो कुछ शाबीजी की हित शिक्षा के लिये कटु शब्द लिखे गये हों सो शास्त्री - क्षमा करें। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नम ॥ ॥ नमो समणस्स भगवतो महावीरस्सणं ।। ॥ श्री जैन सिद्धान्त ॥ ( श्री अनेकान्त सिद्धान्त दर्पण) SN ॥प्रथम सर्गः॥ । प्रिय सुज्ञ पुरुषो ! मनुष्यभवको प्राप्त करके तत्त्व विद्याका विचार करना योग्य है, क्योंकि सिद्धान्तसे निर्णय किये विना कोई भी आत्मा पूर्ण दर्शनारूढ़ व चारित्रारूढ़ नहीं हो सकता है। सिद्धान्त शब्दका अर्थ ही वही है, जो सर्व प्रमाणाद्वारा सिद्ध हो चुका हो, अपितु फिर वह सिद्धान्त ग्रहण करने योग्य होता है। तथा सिद्धान्त शब्द पूर्ण सम्यक् दर्शनका ही वाचक है, इसी वास्ते उमास्वातिजी तत्त्वार्थसूत्रकी आदिमें मुक्ति मार्गका वर्णन करते हुए यह सूत्र देने हैं: Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ सो इस सूत्रमें यह सिद्ध किया है कि सम्यग् दर्शनसे सम्यग् ज्ञान होता है, फिर सम्यग् ज्ञानसे सम्यग् चारित्र प्रगट हो जाता है, किन्तु तीनोंके एकत्व होनेपर जीव मोक्षको प्राप्त होते हैं, तथा यह तीनों ही मोक्षके मार्ग हैं । इससे सिद्ध हुआ कि विना दर्शनके जीव मोक्षमें नहीं जा सक्ते हैं, क्योकि दर्शनके विना अन्य गुण भी सम्यक् प्रकारसे प्रादुर्भूत नहीं होते हैं ॥ यथा मूल सूत्रम् ॥ नादसणिस्त नाणं नाणेण विना न हुँति चरणगुणा अगुणिल्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निवाणं ॥ उत्तराध्ययन सू० अ० २७ गाथा ३०॥ संस्कृत टीका-अदर्शनिनः सम्यक्तराहितस्य ज्ञानं नास्ति इत्यनेन सम्यक्तं विना सम्यक् ज्ञानं न स्यादित्यर्थः । ज्ञानविना चारित्रगुणाश्चारित्रं पञ्चमहाव्रतरूपं तस्य गुणाः पिण्डविशुद्धया.: करण चरण सप्ततिरूपाः न भवति । अगुणिनः चारित्र Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) गुणैः रहितस्य मोक्षः कर्मक्षयो नास्ति अमोक्षस्य कर्मक्षयरहितस्य निर्वाणं मुक्तिसुखप्राप्तिर्नास्ति || भावार्थ:- उक्त सूत्रमें शृंखलाबद्ध लेख हैं जैसे कि सम्यक् दर्शन के विना सम्यग् ज्ञान नहीं, सम्यक् ज्ञान के विना सम्यक् चारित्र नहीं, सम्यक् चारित्रके विना सकल गुण नहीं, गुणों के विना मोक्ष नहीं, मोक्षके विना पूर्ण सुख नहीं अर्थात् आत्मिक आनंद नहीं || सो मिय बंधुओ ! सम्यक् दर्शन सम्यक् सिद्धान्तका ही नाम है, क्योंकि सिद्धान्त के जाने बिना कोई भी आत्मा आत्मिक गुणोंमें प्रवेश नहीं कर सकता; अपितु सम्यक् दर्शन अर्हन् देवने जो प्रतिपादन किया है वही जीवोंको कल्याणरूप है । सो अर्हत् देवके कथन किये हुए पदार्थको माननेसे सम्यक् दर्शन होता है, सम्यक् दर्शनको आईत मत कहो वा जैन दर्शन कहो किन्तु दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है || प्रश्नः - जिन शब्द किस प्रकार बनता है, फिर जैन शब्द किस अर्थ व्यवहृत होता है ? उत्तर:- 'जि' जये धातु को नक् प्रत्ययान्त होकर जिन शब्द वन जाता है । यथा 'जि' जये धातु जय अर्थमें व्यवहृत है तच Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥ सो इस सूत्रमें यह सिद्ध किया है कि सम्यग् दर्शनसे सम्यग् ज्ञान होता है, फिर सम्यग् ज्ञानसे सम्यग् चारित्र प्रगट हो जाता है, किन्तु तीनोंके एकत्व होनेपर जीव मोक्षको प्राप्त होते हैं, तथा यह तीनों ही मोसके मार्ग हैं । इससे सिद्ध हुआ कि विना दर्शनके जीव मोक्षमें नहीं जा सक्ते हैं, क्योंकि दर्शनके विना अन्य गुण भी सम्यक् प्रकारसे मादुर्भूत नहीं होते हैं। यथा मूल सूत्रम् ॥ नादंसणिस्त नाणं नाणेण विना न दुति चरणगुणा अगुणिस्त नत्थि मोक्खो नत्थि अ. मोक्खस्स निवाणं ॥ उत्तराध्ययन सू० अ० २७ गाथा ३०॥ संस्कृत टीका-अदर्शनिनः सम्यक्तराहितस्य ज्ञानं नासि इत्यनेन सम्यक्तं विना सम्यक् ज्ञानं न स्यादित्यर्थः । ज्ञानविन चारित्रगुणाश्चारित्रं पञ्चमहाव्रतरूपं तस्य गुणाः पिण्डविशुद्धया - दयः करण चरण सप्ततिरूपाः न भवति । अगुणिनः चार Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणैः रहितस्य मोक्षः कर्मक्षयो नास्ति अमोक्षस्य कर्मक्षयरहितस्य निर्वाणं मुक्तिसुखप्राप्तिर्नास्ति ॥ ___ भावार्थ:-उक्त सूत्रमें शृंखलाबद्ध लेख हैं जैसे कि सम्यक् दर्शन के बिना सम्यग् ज्ञान नहीं, सम्यक् ज्ञानके विना सम्यक् चारित्र नहीं, सम्यक् चारित्रके विना सकल गुण नहीं, गुणोंके विना मोक्ष नहीं, मोक्षके विना पूर्ण सुख नहीं अर्थात् आत्मिक आनंद नहीं। __सो प्रिय बंधुओ ! सम्यक् दर्शन सम्यक् सिद्धान्तका ही नाम है, क्योंकि सिद्धान्तके जाने विना कोई भी आत्मा आत्मिक गुणों में प्रवेश नहीं कर सकता; अपितु सम्यक् दर्शन अर्हन् देवने जो प्रतिपादन किया है वही जीवोंको कल्याणरूप है। सो अहंत देवके कथन किये हुए पदार्थको माननेसे सम्यक् दर्शन होता है, सम्यक् दर्शनको आहेत मत कहो वा जैन दर्शन कहो किन्तु दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ है ॥ प्रश्न:-जिन शब्द किस प्रकार बनता है, फिर जैन शब्द किस अर्थमें व्यवहृत होता है ? उत्तरः-'जि' जये धातु को नक् प्रत्ययान्त होकर जिन शब्द बन जाता है । यथा 'जि' जये धातु जय अर्थमें व्यवहत है तब Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स ( ४ ) जि-ऐसे धातु रखा है। फिर उणादि सूत्रसे जिन शब्द इस मकारसे वना, जैसे कि इषिञ्जिदीकुष्य विभ्योनक् । उणादि प्रकरण पाद ३ सू० २॥ अथ उज्ज्वलदत्त टीका-इण्गतौ । पिञ्बंधने । जि जये। दीङ् क्षये । उप दाहे । अवर क्षणे । एभ्यो नक् स्यात् ॥ इनो. राज्ञिमभौसूर्ये ॥ इनः सूर्येनृपेपत्यौ । नान्ते ॥१॥ इति विश्वः॥ सह इनेन वर्तत इति सेना ॥ सेनयाभियात्यभिपेणयति ॥ सिनः काणः ॥ जिनो बुद्धः। जिनः स्यादतिद्धेऽपि बुद्धेचार्हति जित्वरे विश्वनान्त ॥ १ ॥ दीनोदुर्गतः ॥ उष्णमीपत्तप्तम् ॥ ज्वरत्वरेत्यूठ । ऊनमसम्पूर्णम् ॥ सर्वस्वे तु जनयतेख्नमिति साधितम् ॥ इतिवृत्ति ॥ इस सूत्रसे 'जि' धातुको नक् प्रत्यय हो गया तब जिन शब्द सिद्ध हुआ, अपितु हैमचन्द्राचार्य नाममाला वृत्तिमें लिखते हैं कि जयत्यन्निनवतिरागद्वेषादिशत्रून् इति जिनः।। ___ इसमें यह वर्णन है कि जो विशेष करके रागद्वेषादि अं. रंग शत्रुओंको जीतता है वही जिन है, अर्थात् जिसने राग Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) पादि शत्रुओं को जीत लिया है वही जिन है | फिर, देवता ॥ शा० अ० २ पा० ४ | सू० २०६ ॥ प्रथमान्तात् साऽस्यदेवतेत्यस्मिन्नर्थे - यादयो जवंति ॥ इत्यण् ॥ श्राईतः ॥ एवं जैनः सौगतः शैवः वैष्णवः इत्यादि ॥ भाषार्थ :- इस तद्धितके सूत्रका यह आशय है कि प्रथमातसे देवार्थमें अनादि प्रत्यय होजाते हैं यथा अर्हन् देवता अस्य आईतः । जिनो देवताऽस्य जैनः ( आरैचोऽक्ष्वादेः । शा० अ० २ । ३ । ८४ ) इस सूत्र से आदि अच्को आ-ऐ-औ- आर येह हो जाते | तब यह अर्थ हुआ कि जिन है जिनका देव वही हैं जैन अथवा ( जिनं वेत्तीति जैन: ) अर्थात् जो जिनके स्वरूपको जानता है वही जैन है || तथा जिनानां राजः जिनराजः यह षष्ठीतत्पुरूष समास है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सामान्य जिन है उनका जो राजा है वही जिनराज है अर्थात् तीर्थंकर देव || इसी प्रकार जिनेन्द्र शब्द भी सिद्ध होता है । सो जो श्री जिनेन्द्र देवने Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) द्रव्योंका स्वरूप कथन किया है उसको जो सम्यक् प्रकारसे जानता है वा मानता है वही जैन है || प्रश्न - जिनेन्द्र देवने द्रव्य कितने प्रकारके वर्णन किये हैं ? उत्तर-पद् प्रकार के द्रव्य वर्णन किये हैं | प्रश्न - वे कौन कौनसे हैं ? 1 उत्तर - जीव पुद्गल धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि । सद् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद् व्यय धौव्य युक्तं सत् इति द्रव्याः । किन्तु सत् जो है यह द्रव्यका लक्षण है क्योंकि, सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत् || अपने गुणपर्यायको जो व्याप्त होवे सो सत् है अथवा उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् | यह जो पूर्व वचन है अर्थात् उत्पत्ति विनाश और स्थिरता, इन तीनों करी संयुक्त होवे सो सत् है अथवा अर्थक्रियाकारि रात् जो अर्थ क्रिया करनेवाला है सो सत् है ॥ यथा गुणा मास दवं एगदवस्सिया गुणा लक्खपजवाणंतु उभयो अस्सियाभवे ॥ ० ० २८ गाथा ६ ॥ वृत्ति ॥ गुणानां रूपरसस्पर्शादीनां आश्रयः स्थानं यत्र गुणा उत्पद्यन्तेऽवतिष्ठते विलीयन्ते तत् द्रव्यं इत्यनेन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) रूपादि वस्तु द्रव्यात् सर्वथा अतिरिक्तं अपि नास्ति द्रव्ये एव रूपादि गुणा लभ्यन्ते इत्यर्थः ।। गुणा हि एक द्रव्याश्रिताः एकस्मिन् द्रव्ये आधारभूते आधेयत्वेनाश्रिता एक द्रव्याश्रितास्ते गुणा उच्यन्ते इत्यनेन ये केचित् द्रव्यं एव इच्छंति तद्व्यक्ति रिक्तान रूपादीन् इच्छति तेषां मतं निराकृतं तस्माद् रूपादीनां गुणानां मध्येभ्यो भेदोप्यस्ति तु पुनः पर्यायाणां नव पुरातनादि रूपाणां भावानां एतल्लक्षणं ज्ञेयं एतत् लक्षणं किं पर्याया हि उभयाश्रिता भवेयुः उभयोर्द्रव्यगुणयोराश्रिताः उभयाश्रिताः द्रव्येषु नवीन पर्यायाः नाम्ना आकृत्या च भवंति गुणेष्वपि नव पुराणादि पयोयाः प्रत्यक्षं दृश्यन्ते एव ॥ भाषार्थः-उक्त सूत्रमें यह वर्णन है कि द्रव्यके आश्रित गुण होते हैं, जैसे अग्निका प्रकाश वा उष्ण गुण है । अग्नि द्रव्य है तथा सूर्य द्रव्य प्रकाश गुण, जीव द्रव्य ज्ञान गुण, किन्तु नित्य गुणका आत्मासे अनादि अनंत सम्बन्ध है । यथा श्री आचारांगे " जे आया से विन्नाया जे विनाया से आया जेणविजाणइ से थाया" इति वचनात् । अर्थात् जो आत्मा है वही ज्ञान है, जो Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८) ज्ञान है वही आत्मा है तथा जिस करके जाना जाये वही ज्ञान है। क्योंकि यह अनादि अनंत सम्बन्ध है जो परगुण सम्बन्ध है, कोई + अनादि सान्त है, कोई सादि सान्त है, अपितु पर___ गुणका सम्बन्ध सादि अनंत नही होता है, सो जव द्रव्य गुण एकत्व हुए फिर उस द्रव्यका लक्षण पर्याय भी हो जाता है, दीपकके प्रकाशवत्, अपितु स्वगुणों में सर्व द्रव्य अनादि अनंत हैं, परगुणोंमें पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, यथा उत्पाद् व्यय ध्रौव्य युक्तं सत, अर्थात् जो उक्त लक्षण करके युक्त है वही सद् द्रव्य है ॥ पुनः द्रव्य विषय धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो एसलोगोत्ति पणत्तो जिणेहिंवर दंसिहिं । उ० अ० २७ गाथा ॥ वृत्ति-धर्म इति धर्मास्तिकाय १ अधर्म इति अधर्मास्तिकाय २ आकाशमिति आकाशास्तिकायः ३ कालः समयादि: ४ पुग्गलत्ति पुद्गलास्तिकाय: ५ जन्तव इति जीवाः "+ अमव्य आत्माओंका कमौके साथ अनादि अनंत सम्ब Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ । एतानि षट् द्रव्याणि ज्ञेयानीति अन्वयः एषा इति सामान्य प्रकारेण इत्येवं रूपाः उक्त षद् द्रव्यात्मको लोको जिनैः प्रज्ञप्तः कथितः कीदृशैजिनवरदर्शिभिः सम्यक् यथास्थित वस्तुरूपज्ञैः ७ । जंतको जीवा अप्यनन्ता एव ८॥ भावार्थ:-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिका. य, और जीवास्तिकाय, काल (समय, ) पुद्गलास्तिकाय-यह षट् द्रव्यात्मक रूप यह लोक है अपितु इन द्रव्यों में कालकी अस्ति नही हैं क्योंकि समयका स्थिर गुण स्वभाव नहीं है और आकाश अस्तिकाय लोगालोग प्रमाण है इस लिये यही षद द्रव्यात्मक रूप लोक है ॥७॥ पुनः द्रव्य विषय धम्मो अहम्मो आगासं दव्वं इकिक माहियं अताणिय दव्वाणि कालोपुग्गल जं. तवो ॥ उत्त० अ० २७ गा० ७॥ त्ति-धर्मादि भेदानाह धर्म १ अधर्म २ आकाश ३ द्रव्यं इति प्रत्येकं योज्यं धर्मेद्रव्यं अधर्मद्रव्यं आकाशद्रव्यं इत्यर्थः एतत् द्रव्यं त्रयं एकेकं इति एकत्वं युक्तं एव तीर्थकरैः आख्यातं अग्रे तनानि त्रीणि द्रव्याणि अनंतानि स्वकीय स्व Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कीयानन्त भेदयुक्तानि भवति तानि त्रीणि द्रव्याणि कानि कालः समयादिरनंतः अतीतानागताद्यपेक्षया पुद्गला अपि अनंताः ॥ ___ भावार्थ:-धर्म अधर्म आकाश यह तीन ही द्रव्य असंख्यात् प्रदेशरूप एकेक है अपितु आकाश द्रव्य लोकालोक अपेक्षा अनंत द्रव्य है, यह द्रव्य पूर्ण लोगमें व्याप्त है, अखंड रूप है, निज गुणापेक्षा और कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य यह तीन ही अनंत हैं; क्योंकि कालद्रव्य इस लिये अनंत है कि पुद्गलकी अनंत पर्याय कालापेक्षा करके ही सद्रूप है तथा अनंते कालचक्र भूत भविष्यत काल अपेक्षा भी कालद्रव्य अनंत है और समय आस्थिर , रूपमें है। फिर असंख्यात शुद्ध प्रदेशरूप जीव द्रव्य है अर्थात् असंख्यात शुद्ध ज्ञानमय जो आत्मपदेश हैं वे ही जीवरूप हैं इसी प्रकार अनंत आत्मा है और उनके भी प्रदेश पूर्ववत् ही हैं, अपितु निज गुणापेक्षा शुद्धरूप हैं। कर्म मलापेक्षा व्यवहार नयके मतमें शुद्धआत्मा अशुद्धआत्मा इस प्रकारसे आत्म द्रव्यके दो भेद हैं अपि तु संग्रह नयके मतमें जीव ही है, जैसे श्री स्थानांग सूत्रके प्रथम स्थानमें यह (एगे आया) अर्थात् संग्रह नयके मतमै आत्म ही है क्योंकि अनंत आत्माका गुण एक है जैसे सहस्र Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) दीपकोंका प्रकाश रूप गुण एक है अपितु व्यवहार नयके - तमें सहस्र दीपक रूप द्रव्य है क्योंकि जिस दीपकको तो कोई उठाता है तब वह दीपक प्रकाश रूप स्वगुण नारी जाता है । इस हेतुसे यही सिद्ध हुआ कि आम व्यपर. भी है और अनंत भी है। ___ अथ षट् द्रव्य लक्षण विषय गश् लक्खणोउ धम्मो अहम्मो ठाण लवकणो नायणं सव्व व्वाणं नहं श्रोग्गह लक्खणं ॥ उत्त० अ० २८ गाथा ए॥ वृत्ति-धर्मों धर्मास्तिकायो गति लक्षणो यः लक्ष्यते ज्ञायते अनेनेति लक्षणं एकस्मादेशात् जीवपद्लयोदेशान्तर प्रतिगमनं गतिर्गतिरेव लक्षणं यस्य स गतिलक्षणः अधों अधर्मास्तिकायः स्थितिलक्षणो ज्ञेयः स्थितिः स्थानं गति निवृत्तिः सैव लक्षणं अस्यैति स्थानलक्षणोऽधमास्तिकागो शेयः स्थिति परिणतानां जीव पुद्गलानां स्थिति लक्षण कार्य नायते स अधर्मास्तिकायः यत्पुनः सर्वव्याणां जीवादीनां भाननं आधाररूपं नमः आकाशं उच्यते तत् च नभः अवगाइलक्षणं भ. वगाढं प्रवृत्तानां जीवानां पुद्गलानां आलम्बो भवति पनि ना. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) गाहः अवकाशः स एव लक्षणं यस्य तत् अवगाहलक्षणं नम उच्यते ॥९॥ भावार्थ:-धर्मास्तिकायका गमणरूप लक्षण है और जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी गतिमें यह द्रव्य साहायक भूत है; जैसे राजमार्ग चलने वालोंके लिये माहायक है क्योकि, यदि पं. थीराज मार्गमें स्थित हो जावे तो मार्ग स्वयं उसको चलाने समर्थ नही होता है, किन्तु उदासीनता पूर्वक पंथीके चलते समय मागे साहायक है तथा जैसे मत्सको जल साहायक है। वा अंधेको यष्टि ( लाठी ) आधारभूत है इसी प्रकार जीव द्रव्य अजीव द्रव्यको गति करते समय धर्म द्रव्य साहायक है । और अधर्म द्रव्य जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी स्थिति करनेमें साहायक भूत होता है, जैसे उष्ण कालमें पंथीको वृक्षकी छाया आधारभूत है, तथा जैसे मही आधारभूत है इसी प्रकार जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी स्थिति करनेमें अधर्म है ॥ ओर सर्व द्रव्योंका भाजनरूप एक आकाश द्रव्य है क्योंकि सर्व द्रव्योंका आधार भूत एक अंतरीक्ष ही है जैसे एक कोष्टको एक दीपक के प्रका दीपकोंका प्रकाश भी बीचमें ही लीन हो जाता र आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीव द्रव्य स्थिति जैसे एक कलश है जोकि पूर्ण दुग्धसे पूरित है, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) __ यदि फिर भी उस कलशमें मत्संड्यादि द्रव्य प्रविष्ट करें तो प्रवेश हो जाते हैं उसी प्रकार आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीव ठहरे हुए हैं। अपितु जैसे भूमिकामें नागदंत (कीला) __ को स्थान प्राप्त हो जाता है तद्वत् ही आकाश प्रदेशों में अनंत प्रदेशी स्कंध स्थिति करते हैं क्योंकि आकाश द्रव्यका लक्षण ही अवकाश रूप है। __ अथ काल व जीवका लक्षण कहते हैं: वत्तणा लक्खणो कालो जीवो उवयोग लक्खणो नाणेणं दंसणेणंच सुदेणय दुहेणय ॥ उत्त० अ० २७ गाथा १०॥ वृत्ति-वर्तते अनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवति इति वर्त सा वर्त्तना एव लक्षणं लिङ्गं यस्येति वर्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगो मतिज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स पयोगलक्षणो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवो इक्ष्यते उक्त लक्षणत्वात् पुनर्विशेष लक्षणमाह ज्ञानेन विशेषाव धेन च पुनदर्शनेन सामान्याववोधरूपेण च पुनः मुखेन च पु. दुखेन च ज्ञायते स जीव उच्यते ॥ १० ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) भावार्थ:--समयका वर्तना लक्षण है इसी करके समय समय पर्याय उत्पन्न होता है, जैसेकि उपचारक नयके मत जीवकी व्यवस्थाका कारणभूत काल द्रव्य ही है । यथा-चाल ? युवा २ वृद्ध ३ अथवा उत्पन्न १ नाश २ ध्रुव ३ यह तीनों ही व्यवस्थाका कर्ता काल द्रव्य है और जो कुछ समय २ उत्पत्ति वा नाश पदार्थोंका है वे सर्व काल द्रव्यके ही स्वभावसे है अपितु द्रव्यांका उत्पन्न वा नाश यह उपचारक नयका वचन है किन्तु द्रव्यार्थिक नयापेक्षा सर्व द्रव्य नित्यरूप हैं । और पायोंका का काल द्रव्य है । जैसे सुवर्ण द्रव्यके नाना प्रकारके आभूषणादि बनते है। फिर उनही आभूपणादिको ढाल कर अन्य मुद्रादि बनाये जाते हैं, इसी प्रकार जो जो द्रव्यका पर्याय परिवर्तन होता है उसका कर्ता काल द्रव्य ही है । इसी वास्ते सूत्रमें लिखा है 'वत्तणा लक्खणो कालो' अर्थात् कालका लक्षण वर्तना ही है सो कालके परिवर्तन से ही जीव द्रव्य अजीव द्रव्यका पर्याय उत्पन्न हो जाता है और जीव द्रव्यका उपयोगरूप लक्षण है सो उपयोग ज्ञान दर्शनमें ही होता है अर्थात् जीव द्रव्यका लक्षण ज्ञान दर्शनमें उपयोगरूप है सो यह तो सामान्य प्रकारसे सर्व जीव द्रव्यमें यह लक्षण सतत विद्यन है। अपितु विशेष लक्षण यह है कि सुख वा दुःखका अनुभव Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ना क्योंकि सुख दुःखका अनुभव जीव द्रव्यको ही है न तु __ य द्रव्यको ॥ । पुनः सूत्र इस कथनको इस प्रकारसे लिखते है । नाणं च दसणं चेव चरित्तं च तवो तहा रियं जवओगोय एयं जीवस्स लक्खणं ॥ 70 सू० अ० २७ गा० ११॥ ___वृत्ति--ज्ञानं ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं च पुनदृश्यते अनेनेति र्शनं च पुनश्चरित्रं क्रियाचेष्टादिकं तथा तपो द्वादशविधं तथा र्य वीर्यान्तराय क्षयोपशमात् उत्पन्नं सामर्थ्य पुनरुपयोगो ज्ञादिषु एकाग्रत्वं एतत् सर्व जीवस्य लक्षणं ॥ ११ ॥ भावार्थ:-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, तथा उपयोग पही जीवके लक्षण है, क्याकि ज्ञान दर्शनमय आत्मा अनंत -शक्ति संपन्न है । पुनः चरित्र और तप यह भी आत्माके साध्य धर्म है क्योंकि आत्मा ही तपादि करके युक्त हो सकता है, न तु अनात्मा । प्रश्न--जब आत्मा द्रव्य अनंत वीर्य करके युक्त है तब सिद्धात्मा भी अनंत वीर्य करके युक्त हुए तो फिर उनक वीर्य सफलताको कैसे प्राप्त होता है ? Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-अंतराय कर्मके क्षय हो जानेके कारणसे सिद्धात्मा भी अनंत शक्ति युक्त हैं अपितु अकृतवीर्य है क्योंकि सि. द्धात्माके सर्व कार्य सिद्ध है ॥ पुनः संसारी जीवोंका दो प्रकारका वीर्य है। जैसेकिबाल (अज्ञान) वीर्य १और पंडित वीर्य २ । बाल वीर्य उसका नाम है जो अज्ञानतापूर्वक उद्यम किया जाय । और पण्डित वीर्य उसको कहते हैं जो ज्ञानपूर्वक परिश्रम हो । सो जिस समय आत्मा अकर्मक होता है तब अकृतवीर्य हो जाता है सो सिद्ध प्रभु अकृतवीर्य हैं॥ पूर्वपक्ष:-जिस समय आत्मा सिद्ध गतिको प्राप्त होता है तब ही अकृतवीर्य हो जाता है सो इस कथनसे सिद्ध पद सादि ही सिद्ध हुआ।जब ऐसे है तब जैन मतकी मोक्ष अनादि न रही, अपितु सादि पद युक्त सिद्ध हुई ॥ उत्तरपक्षः-हे भव्य ! यह आपका कथन युक्ति वा सि. द्धान्त बाधित है क्योंकि जैन मतका नाम अनेकान्त मत है सो जब जैन मत संसारको अनादि मानता है तो भला मोक्षपद सादि युक्त कैसे मानेगा ? अर्थात् कदापि नहीं, क्योंकि संसार अनादि अनंत है उसी ही प्रकार मोक्षपद भी अनादि अनंत हैं, __ अपितु सिद्धापेक्षा सूत्रकार ऐसे कहते हैं । यथा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) एगत्तेयसाइया अपज्जव सियाविय । पुहते पाईया पज्जव सियाविय ॥ उत्त० अ० ३६ गाथा ६७ ॥ वृत्ति - ते सिद्धा एकत्वेन एकस्य कस्यचित् नाम ग्रहणापेक्षया सादिकाः अमुको मुनिस्तदा सिद्धः इत्यादि सहिताः सिद्धाः भवंति च पुनस्ते सिद्धाः अपर्यवसिताः अन्तरहिताः मोक्षगमनादनन्तरं अत्रागमनाभावात् अन्तरहिताः ते सिद्धाः पृथक्त्वेन बहु: केन सामस्त्यापेक्षया अनादयो अनन्ताश्च || भावार्थ:- एक सिद्ध अपेक्षा सादि अनंत है और बहुतों की अपेक्षा अनादि अनंत है, अर्थात् जिस समय कोई जीव मोक्षगत हुआ उस समयकी अपेक्षा सादि है अपुनरावृत्तिकी अपेक्षा अनंत है, फिर बहुत सिद्धोंकी अपेक्षा अनादि अनंत है, क्योंकि कालचक्र अनादि अनंत होनेसे तथा जैसे चेतनशक्ति अनादि है वैसे ही जड़ शक्ति भी अनादि है अपितु जड़ शक्तिकी अपेक्षा चेतन शक्ति रूप शब्द व्यवहृत है, ऐसे ही जड़ शक्ति चेतन शक्तिकी अपेक्षा सिद्ध है । इसी प्रकार संसार अपेक्षा सिद्ध पद है और सिद्धपद अपेक्षा संसारपद है, किन्तु यह दोनों अनादि अनंत है ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) तथा पुद्गलका स्वरूप इस प्रकारसे है ॥ सद्धंधयार जजोओ पहा गया तवेइया। वएण रस गंध फासा पुग्ण लाणंतु लक्खणं ॥ उत्त० अ० २७ गाथा १३ ॥ वृत्ति-शब्दो ध्वनि रूप पौगलिकस्तथान्धकार सदपि पुद्गल रूपं तथा उद्योतोरत्नादीनां प्रकाशस्तथा ममा चन्द्रादीनां प्रकाशः तथा छाया वृक्षादीनां छाया शैत्यगुणा तथा आतपो रवरुष्णप्रकाशा इति पुद्गलस्वरूपं वा शब्दः समुच्चये वर्णगंधरस स्पर्शाः पुद्गलानां लक्षणं ज्ञेयं वर्णाः शुक्लपीतहरितरक्तकृष्णादयो गंधो दुर्गन्धसुगधात्मको गुणः रसा षद् तीक्ष्ण कटुक कषायाम्ल मधुर लवणाया स्पोः शीतोष्ण खर मृदु स्निग्ध रुक्ष लधुगुर्वादयः एते सर्वेपि पुद्गलास्तिकाय स्कन्ध लक्षण वाच्या ज्ञेयाः इत्यर्थः एभिलक्षणरेष पुद्गला लक्ष्यन्ते इति भावः ॥ १२॥ भावार्थः-शब्दका होना, अन्धकारका होना, उद्योत, प्रभाग छाया (साया) वा तप्त, अथवा कृष्ण, नील, पीत, रक्त, श्वेत, यह वर्ण और छ ही रस जैसेकि, कटुक, कषाय, तिक्त,खट्टा, मधुर और लवण, तथा दो गंध जैसेकि सुगंध, दुगंध, और अष्ट ही स्पश Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) जैसेकि कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, यह आठ ही स्पर्श इत्यादि सर्व पुद्गल द्रव्यके लक्षण हैं,क्योंकि पुद्गल द्रव्य एक है उसके वर्ण गंध रस स्पर्श यह सर्व लक्षण हैं, इन्हींके द्वारा पुद्गल द्रव्यकी अस्तिरूप है ॥ अथ पुद्गल द्रव्यके पर्यायका वर्णन करते हैं:एगत्तं च पुत्तं च संखा संठाण सेवय । संजोगाय विन्नागाय पजवाणंतु लक्खणं ॥ उत्त० अ० २ गाथा १३ ॥ ___ वृत्ति-एतत् पर्यायाणां लक्षणं एतत् किं एकत्वं भिन्नेष्यपि यरमाण्वादिषु यत् एकोयं इति बुद्धया घटोयं इति प्रतीति हेतु: च पुनः पृथक्त्व अयं अस्मात् पृथक् घटः पटात् भिन्नः पटो घटाद्भिन्नः इति प्रतीति हेतुः संख्या एको द्वौ बहव इत्यादि प्रतीति हेतुः च पुनः संस्थानं एव वस्तूनां संस्थानं आकारश्चतुरस्र वत्तुलतिस्रादि प्रतीति हेतुः च पुनः संयोगा अयं अङ्गल्याः संयोग इत्यादि व्युपदेशहेतवो विभागा अयं अतो विभक्त इति बुद्धि हेतवः एतत्पर्यायाणां लक्षणं ज्ञेयं संयोगा विभागा बहुवचनात् नव पुराणत्वाद्यवस्था ज्ञेयाः लक्षणं त्वसाधारण रूप गुणानां लक्षणं रूपादि प्रतीतत्वान्नोक्तं ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) भावार्थ:-पुद्गल द्रव्यका यह स्वभाव है कि एकत्व हो जाना तथा पृथक् २ अर्थात् भिन्न होना तथा संख्यावद्ध वा संस्थान रूपमें रहना। संस्थानके ५ भेद है जैसेकि परिमंडल अर्थात् गो. लाकार १. वृत्ताकार २. साकार ३. चतुरंसाकार ४. दीर्घाकार ५. और परस्पर पुद्गलोंका संयोग हो जाना, फिर वियोग होना, यह पुद्गल द्रव्यके स्वाभाविक लक्षण हैं । फिर संयोग वि. योगके होने पर जो आकृति होती है उसको पर्याय कहते हैं । अपितु पृथक् वा एकत्व होनेके मुख्यतया दो कारण हैं, स्वाभाविक वा कृत्रिम । सो यह दो कारण ही मुख्यतया जगत्म विद्यमान हैं, जैसेकि जो कृत्रिम पुद्गल सम्बन्ध है उसके लिये सदैव काल जीव स्वः परिश्रमसे प्रायः यही कार्य करता दी. खता है । तथा काल स्वभाव नियति ३ कर्म, पुरुषार्थ अर्थात् समयके अनुसार स्वभाव होनहार कर्म पुरुषार्थका होना और उसके द्वारा अशुभ पुद्गलोंका वियोग शुभ पुद्गलोंका संयोग होता रहे और मोक्षका साधक जीव तो सदैव काल यही परिश्रम करता है कि मैं पुद्गलके बंधनसे ही मुक्त हो जाऊँ। जो स्वाभाविक पुद्गलका संयोग वियोग होता है, वह तो स्वः स्थितिके अनुसार ही होता है । तथा जो वस्त्र, भाजन, तथा ___दि जो जो पदार्थ ग्रहण करनेमें आते हैं तथा जो जो प. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) दार्थ छोडने में आते हैं वह सब परिणामिक द्रव्य हैं, इस लिये उन्हें पर्याय कहते हैं ।॥ तथा बहुत से अनभिज्ञ लोगोंने पुद्गलद्रव्य के स्वरूपको न जानते हुओंने ईश्वरकृत जगत् कल्पन कर लिया है अपितु उन लोगोंकी कल्पना युक्तिवाधित ही है । जैसे कि जब परमात्मामें सृष्टिकर्तृत्व गुण है, तब परलय कर्तृत्व गुण असंभव हो जायगा, क्योंकि एक पदार्थमें पक्ष प्रतिपक्ष रूप युग पत् समूह ठहरना न्याय विरुद्ध है । जैसे कि अग्निमें उष्ण वा प्रकाश गुण सदैव काळसे हैं वैसे ही शीत वा अन्धकार यह गुण अनि सर्वथा असंभव हैं, इसी प्रकार इश्वरमें भी नित्य गुण एक ही होना चाहिये परस्पर विरुद्ध होने के कारणसे || यदि यह कहोगे कि जैसे पुगलकी समय २ पर्याय परिवर्त्तना के कारण से पुद्गल द्रव्य दो गुण भी रखनें समर्थ है, इसी प्रकार इश्वरमें भी दो गुण ठहर सक्ते हैं, सो यह भी कथन समीचीन नही हैं क्योंकि पुद्गल द्रव्यका जन पर्याय परिवर्तन होता है तब उसमें सादि सान्तपद कहा जाता है । फिर प्रथम पर्यायकी जो संज्ञा (नाम) है उसका नाश जो नूतन संज्ञा है उसकी उत्पत्ति हो जाती है तो क्या ईश्वरकी भी यही दशा है ? तथा जब परलय हूइ फिर आकाशका भी अभाव हो गया तब परमात्मा सर्व व्यापक रहा किम्वा न रहा । यदि रहा तब परळय Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) क्योंकि व्यापक शब्द ही सिद्ध करता है कि प्रथम कोई वस्तु व्याप्य है जिसमें वह व्यापक हो रहा है । यदि परमात्मा की भी परळय मानी जाये तब ईश्वरपद ही खंडित हो गया तो भला सृष्टिकर्तृत्व गुण कैसे सिद्ध होगा ?. सो इस विषयको मैं यहां पर इसलिये विस्तारपूर्वक लिखना नही चाहता हूं कि मैं सिद्धान्तको ही लिख रहा हूं न तु खंडन मंडन ॥ अब नच तत्वका विवर्ण किञ्चित् मात्र लिखता हूं:जीवाजीवाय बंधोय पुएां पावा सवोतहा । संवरो निजरा मोक्खो संतेएतहिया नव ॥ उत्त० अ० २० गाथा १४ ॥ वृत्ति - जीवाश्चेतनालक्षणा: अजीवा धर्माधर्माकाशकालपुद्गलरूपाः बन्धो जीच कर्मणोः संश्लेषः पुण्यं शुभप्रकृति रूपं पापं अशुभं मिथ्यात्वादि आस्रवः कर्मबंधहेतुः हिंसा मृपाऽदत्तैमथुन परिग्रहरूपः तथा संवराः समिति गुप्त्यादिभिरास्रवद्वारनिरोधः निर्जरा तपसा पूर्वार्जितानां कर्मणां परि नं मोक्षः सकलकर्मक्षयात् आत्मस्वरूपेण आत्मनोऽव Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानं एते नव संख्याकास्तथ्याः अवितथाः भाषाः संति इति सम्बन्धः नव संख्यात्वं हि एतेषां भावानां मध्यमापेक्षं जघन्यतो हि जीवाजीवयोरेव बन्धादीनां अन्तभावात् द्वयोरेव संख्यास्ति उत्कृष्टतस्तु तेषां उत्तरोत्तर भेदविवक्षया अनन्तत्वं स्यात् ॥ भावार्थ:-तत्व नब ही है जैसे कि जीवतत्त्व १ अजीवतव २ पुण्यत्तत्त्व ३ पापतत्त्व ४ आस्रवतत्व ५ संवरतत्त्व ६ निजरातत्व ७ बंधतत्व ८ मोक्षतत्त्व ९ । सो जीवतत्व ही इन तत्त्वोंका ज्ञाता है न तु अन्य ॥ जीवतत्त्वमें चेतनशक्ति इस प्रकार अभिन्न भावसे विराजमान है कि जैसे सूर्य प्रकाश मत्संडीमें मधुरभाव ॥ अजीवतत्त्वमें जडशक्ति भी प्राग्वत् ही विद्यमान है किन्तु वह शून्यरूप शक्ति है। जैसे बहुतसे वादिन गाना भी गाते हैं किन्तु स्वयम् उस गीतके ज्ञानशून्य ही हैं । पुण्यतत्त्व जीवको पथ्य आहारके समान सुखरूप है जैसे कि रोगीको पथ्याहारसे नीरोगता होती है, और रोग नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार आत्मामें जब शुभ पुण्यरूप परमाणु उदय होते हैं उस समय पापरूप अशुभ परमाणु आत्मामें उदयमें न्यून होते हैं किन्तु सर्वथा पापरूप परमाणु आत्मासे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) संसारावस्था में भिन्न नही होते क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नही है कि जिसके एक ही प्रकृति सर्वथा रही हो ॥ पापतत्त्व रोगीको अपथ्य आहारकी नांइ है जैसे रोगीको अपथ्य भोजन बढ़ जाता है, उसी प्रकार उसकी नीरोगता भी घटती जाती है | इसी प्रकार आत्मा जब अशुभ परमाणुओं से व्याप्त होता है तब इसके पुण्यरूप परमाणु भी मंद दशाको प्राप्त हो जाते हैं ॥ आके दो भेद हैं । द्रव्यास्रव १ भावास्रव २ । द्रव्य आसव उसका नाम है जैसे कुंभकार चक्र करके घट उत्पन्न करता है, इसी प्रकार आत्मा मिथ्यात्वादि करके कर्मरूप आस्रव ग्रहण करता है । भावास्रव उसका नाम है जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं इसी प्रकार जीवके आस्रव है, तथा जैसे मंदिरका द्वार नावाका छिद्र है इसी प्रकार जीवको आस्रव है | किन्तु हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्मोंके प्रवेश करनेके मार्ग हैं सो इन्हीं के द्वारा कर्म आते हैं, इस लिये इन्हीं मार्गों का ही नाम भाव आस्रव है अपितु आस्रव जीव नही है जीवमें कर्म आनेके मार्ग हैं | सम्वरतत्व उसका नाम है जो जो कर्म आनेके मार्ग हैं उन्हीं के वशमें करे जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं उनको Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) ___ बंद किया जावे तब नूतन जलका आना बंद होजाता है। __ इसी प्रकार जो जो आस्रवके मार्ग हैं जब वह बंध हो गये तब नूतन की आने भी बंद हुए क्योंकि शुद्धात्मा आस्रवरहित स. म्वररूप है ॥ निर्जरातत्त्व उसको कहते है जब संवर करके कोंके आनेके मार्ग बंद किए जावें फिर पूर्व कर्म जो है उनको तपादि द्वारा शुष्क करना कर्मोंसे आत्माको रहित करना उसकाही नाम निर्जरा है ।। जैसे तड़ागके जलादिको दूर करना तथा मंदिरके द्वारादिके मार्गसे रजादिका निकालना अथवा नावाके जलको नावासे बाहिर करना । इसी प्रकार आत्मासे कर्मोंका भिन्न करना उसका नाम निर्जरा है ॥ तप द्वादश प्रकारका निम्न सूत्रानुसार है। ____ अनशनावमौदर्य बत्तिपरिसङ्ख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः॥ तत्त्वार्थ सूत्र अ० सू० १५॥अर्थः-अनशन १ उनोदरी २ भिक्षाचरी ३ रसपारत्याग ४ विविक्त शय्यासन ५ कायक्लेश ६ यह षट् प्रकारसे वाघ । तप है ॥ तथा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६) प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सगध्यानान्युत्तरम् ॥ तक सू० अ० सु०२०॥ ___ अर्थ:-प्रायश्चित ७ विनय ८ वैयावृत्य ९ स्वाध्याय १० व्युत्सर्ग ११ ध्यान १२ यह षट् प्रकारके अभ्यन्तर तप हैं। इनका उच्वाइ सूत्र, विवाहमज्ञप्ति सूत्र, प्रश्न व्याकरण सूत्र तथा नव तत्वादि ग्रंथोंसे पूर्ण स्वरूप जानना योग्य है ॥ बंधतत्त्वका यह स्वरूप है कि यात्माके साथ कर्मोंका द्रव्यार्थिक नयापेक्षा अनादि सान्त सम्बन्ध है और अनादि अनंत भी है, क्योंकि जीवतत्त्व अहनके ज्ञानमें दो प्रकारके है, जैसेकि-भव्य१ अभव्य २। सो यह.भव्य अभव्य स्वाभाविक ही जीव द्रव्यके दो भेद है किन्तु परिणामिक भाव नहीं हैं, अपितु जीव द्रव्यमें काँका सम्बन्ध पयायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, किन्तु इनकी एकत्वता ऐसे हो रही है जैसेकि-तिलोंमें तैल? दुग्धमें घृत २ सुवर्णमें रज ३ इसी प्रकार जीव द्रव्यमें कमौका सम्बन्ध है, जिसके प्रकृतिबंध१ स्थितिबंधरअनुभागवंध३ प्रदेशबंध ४ इत्यादि अनेक भेद हैं, अपितु यह काँका बंध आत्माके भावों पर ही निर्भर है ॥ मोक्षतत्त्व उसको कहते हैं, जैसे तिलोंसे तैल पृथक् हो Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) जाता है १ दुग्धसे घृत भिन्न होता है २ सुवर्णसे रज पृथक् हो जाती है ३ इसी प्रकार जीव कर्मोंसे अलग हो जाता है अपितु फिर कर्मोंसे स्पर्शमान नहीं होता जैसे तिलोंसे तैल पृथक हो कर फिर वह तैल तिलरूप नही बनता एसे ही घृत सुवर्ण इत्यादि || इसी प्रकार जीव द्रव्य जब कर्मोंसे मुक्त हो गया फिर उसका कर्मोंसे स्पर्श नही होता, किन्तु फिर वह सादि अनंत पदवाला हो जाता हैं || सो यह नव तत्त्व पदार्थ हैं | तथा च जीवाजीवास्रवबन्धसंवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् | तत्त्वार्थ के इस सूत्र से सप्त तत्व सिद्ध है, जैसेकि जीवतत्त्व १ अजी - वतत्त्व २ आस्रवतत्त्व ३ बन्धतत्व ४ सम्वरतत्त्व ५ निर्जरातत्त्व ६ मोक्षतच्च ७ ॥ किन्तु पुण्यतत्व, पापतच्च, यह दोनों ही तत्त्व आस्रवतच्च केही अन्तरभूत हैं, क्योंकि वास्तवमें पुण्य पाप यह दोनो ही आस्रवसे आते हैं अपितु पुण्य शुभ प्रकृतिरूप आस्रव हैं, पाप अशुभ प्रकृतिरूप आस्रव है । कर्मोंका बंध जीवाजीवके एकत्व होने पर ही निर्भर है क्योंकि जीवाजीवके एकत्व होने पर ही योगोत्पत्ति है, सो योगों से ही कर्मोंका बंद है और पुण्य पापसे ही आसव है अर्थात् पुण्य पापका जो आवागमण है, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) आस्रव है। संवर निर्जरासे ही मोक्ष है, क्योंकि जब नूतन काँका संवर हो गया तब तपादि द्वारा प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा हुई। जब आत्मा कर्मलेपसे सर्वथा रहित हो गया, सो तिस सम• यकी पर्यायको मोक्ष कहते हैं । सो इस प्रकारसे श्रीजिनेन्द्र देवने तत्त्वोंका स्वरूप पतिपादन किया है तथा मुख्यतामें अद् देवने दो ही द्रव्य कथन किये हैं जैसेकि, जीवद्रव्य १ अजीव २; किन्तु अजीव द्रव्यमें पंचद्रव्य गर्भित हैं जैसेकि-धर्मद्रव्य १ अधर्मद्रव्य २ आकाश द्रव्य ३ कालद्रव्य ४ पुद्गलद्रव्य ५। सो यह पांच ही द्रव्य जड़ रूप है किन्तु जीवद्रव्य ही चेतनालक्षणयुक्त है ।। और इनके ही अनेक लक्षण हैं जैसेकि-अस्तित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वम् , चेतनत्वं, अचेतनत्वं, मूर्तत्वं, अमूर्तत्व।। यह दश समान गुण सर्व द्रव्योंके बीचमें है, किन्तु एकैक द्रव्य अष्टावष्टौ गुणा भवंति जीव द्रव्ये अचेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति पुद्गल द्रव्ये चेतनत्वम् मूर्नत्वं च नास्ति।धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चेतनत्वं मूर्त्तत्वं च नास्ति ॥ एवं द्विद्विगुणवर्जिते अष्टावष्टौगुणाः प्रत्येक द्रव्ये भवंति ॥ दश मान्य गुणों का यह अर्थ है:-तीन कालमें जो स्वः चतुष्टय करि विद्यमान द्रव्य है जैसेकि स्वद्रव्य १ स्वःक्षेत्र र Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) स्वाकाल ३ स्वाभाव ४ । उसका अस्ति स्वभाव है, जैसेकि चेसनका तीन कालमें ज्ञानस्वरूप रहना, और पुद्गल द्रव्यमें अनादि कालसे जड़ता इत्यादि । ___ सो इसी प्रकार वस्तु द्रव्यके प्रमेय, अगुरुलघु, प्रदेश, चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त इत्यादि यह दश सामान्य गुण एक एक द्रव्यमें आठ २ सामान्य गुण हैं जैसेकि जीव द्रव्यमें अचे. तनता और मूर्तिभाव नहीं है; और पुद्गल द्रव्यमें चेतनता अमत्तिभाव नहीं है ॥धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्यमें चेतनता मूर्तिभाव नहीं है । इसी प्रकार दो दो गुण वर्जके शेष अष्ट अष्ट गुण सर्व द्रव्यों में हैं,और विशेष षोडश गुण हैं जैसेकि ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्याणि, स्पर्श, रस, गंध, वर्णाः, गतिहेतुत्वं, स्थितिहेतुत्वं, अवगाहनहेतुत्वम्, वर्तनाहेतुत्वं चेतनहेतुत्वं,अचेतन हेतुत्वं, मूर्त्तत्वं, अमूर्तत्वं द्रव्याणां विशेषगुणाः पोडश विशेषगुणेषु जीव पुद्गलयोः षडिति॥ जीवस्य ज्ञान दर्शन मुख वीर्याणि चेतनत्व ममूर्तमिति षट् ॥ पुद्गलस्य स्पर्श रस गंध वर्णाः मूर्त्तत्वमचेतन मिति षट् । इतरेषां धर्माधर्माकाशकालानां प्रत्येकं त्रयो गुणाः धर्म द्रव्ये गतिहेतुममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणाः । अधर्म द्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । आकाश द्रव्ये अवगाइन Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) हेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । काल द्रव्ये वर्तना हेतुत्वमम् तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्व. जात्यपेक्षया सामान्यविजात्यपेक्षया तएव विशेष गुणाः ॥ इति गुणाधिकारः ॥ ___ भावार्थ:-इन पोडश गुणोमसे जीव द्रव्यमें पड् विशेष गुण हैं, जैसेकि जीव द्रव्यमें ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य, चेतनता, अमूर्तिभाव यह षड् गुण हैं; और पुद्गल द्रव्यमें भी पड़ गुण हैं जैसेफि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तिभाव, अचेतन भाव || अ पितु अन्य द्रव्यों में उक्त विशेष गुणों से तीन तीन गुण विद्य भान हैं जैसेकि धर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व (चळण लक्षण), अ मूर्तत्व (मूर्ति रहित ), अचेनत्व (जड़ता), यह तीन गुण हैं ॥ और अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व (स्थिर लक्षण), अमूर्ति त्व, ( मूर्ति रहित ), अचेतनत्व (जड़ ) यह तीन गुण हैं ।। और आकाश द्रव्यमें अवगाहनहेतुत्व ( अवकाश लक्षण), अः मूर्त्तत्व ( मूर्ति रहित ), अचेतनत्व (शून्य )॥ काल द्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व अमृतत्व अचेनत्व यह विशेष गुणों से तीन १ गुण पति द्रव्य में हैं, क्योंकि द्रव्यत्व, क्षेत्रत्व, कालत्व, भावत्व, यह चारोंकी स्वजात्यपेक्षया विशेष गुण हैं और परगुणापेक्षा सा मान्य गुण हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) फिर स्वभाव इस प्रकारसे जानने चाहिये: यथा-स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः नास्तिस्वभावः नित्य स्वभावः अनित्य स्वभाव; एक स्वभावः अनेक स्वभावः भेद स्वभावःअभेदस्वभावामव्य स्वभावाअभव्य स्वभावापरम स्वभावः द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः चेतन स्वभावः अचेतन स्वभावः मूर्त स्वभावः अमूर्त स्वभावः एकप्रदेशस्वभावः अनेक प्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः शुद्ध स्वभावः अशुद्ध स्वभावः उपचरित स्वभावः एते द्रव्याणां दशविशेषस्वभावाः । जीव पुद्गलयोरेकविंशतिः चेतन स्वभावः मूर्त स्वभावः विभाव स्वभावः एकप्रदेशस्वभावः शुद्ध स्वभाव एतैः पंचाभिः स्वभावैर्विनाधर्मादित्रयाणां षोडशस्वभावाः संति ।। तत्र वहु प्रदेश विना कालस्य पञ्चदश स्वभावाः एकविंशति भावाः स्युर्जीवपुद्गलयोमताः । धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः ॥ १ ॥ अर्थः-जो तीन कालमें विद्यमान पदार्थ हैं और अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करके अस्तिरूप हैं तिनका नाम अस्ति स्वभाव है । और जो परगुण करके नास्तिरूप है सो नास्ति स्वभाव है । जैसेकि घट अपने गुण करके अस्ति स्वभाववाला है और पट अपेक्षा घट नास्तिरूप है ऐसे ही पट; क्योंकि घट Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) अपने गुणमें अस्तिरूप है, पट अपने गुणमें विद्यमान हैं, परंतु परगुणापेक्षा दोनों नास्तिरूप हैं सो नास्ति स्वभाव है | जो द्रव्य गुण करके नित्यरूप है सो नित्य स्वभाव है जैसे चेतन स्वभाव ॥ ३ ॥ जो नाना प्रकारकी पर्यायों करके नाना प्रकार के रूप धारण करे सो अनित्य स्वभाव है जैसे पुद्गलका स्वभाव सं योग वियोग है | ४ || जो एक स्वभावमें रहे सो एक स्वभाव जैसे सिद्ध प्रभु एक अपने निज गुण शुद्ध स्वभावमें हैं, क्योंकि कर्मों की अपेक्षा जीव मलीनता है, अपितु निजगुणापेक्षा जीव एक शुद्ध स्वभाववाला है || ५ || जो अनेक पर्यायों करि अनेक रूप धारण करता है सो अनेक स्वभाविक है जैसे सुवर्णके आभूषणादि || ६ || जहां परगुण गुणीका भेद हो उसका नाम भेद स्वभाव है, अर्थात् जो द्रव्य विरुद्ध गुण धारण करे तिसका नाम भेद स्वभाव है ||७|| और गुण गुणीका भेद न होना सत्य गुण वा नित्य गुणयुक्त रहना तिसका नाम अभेद स्वभाव है || ८ || जिसकी भविष्यत कालमें स्वरूपाकार होनेकी शक्ति है, वा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्रद्वारा अपने निज स्वभाव प्रगट करनेकी शक्ति रखता है तिसका नाम भव्य स्व भाव है || ९ || जो तीन कालमें भी अपने निज स्वरूपको प्रगट करनेमें असमर्थ है, अनादि कालसे मिथ्यात्वमें ही मगन Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) है उसका नाम अभव्य स्वभाव है ॥ १०॥ जो गुणों में ही विराजमान हैं अर्थात् जो निज भावोंद्वारा निज सत्तामें स्थिति करता है उसका नाम परम स्वभाव है ॥ ११॥ ___ यह तो ११ प्रकारके सामान्य स्वभाव हैं। विशेष भावों का अर्थ लिखता हूं। जो चेतना लक्षण करके युक्त है सुखदुःख___ का अनुभव करता है, ज्ञाता है, सो चेतन स्वभाव है ॥ १॥ जिसमें उक्त शक्तिये नहीं हैं शून्य रूप है उसका नाम अचेतन स्वभाव है ॥ २ ॥ और जिसमें रूप रस गंध स्पर्श है उसका ही ___ नाम मूर्तिमान् है, क्योंकि मूर्तिमान पदार्थ रूपादिकरके युक्त हो___ता है ।। ३ ॥ जिसमें रूपरसगंधस्पर्श न होवे उसका नाम अमूतिमान है जैसे जीव ॥ ४ ॥ जैसे परमाणु पुद्गल आकाशादिकके एक प्रदेशमें ठहरता है सो एक प्रदेश स्वभाव है अर्थात् स्कंध देश मदेश परमाणु पुद्गल इस प्रकारसे पुद्गलास्तिकायके चार भेद किए हैं ॥ ५॥ जो धर्मास्ति आदिकाय हैं वह अनेक प्रदेशी कही जाती है तिनका नाम अनेक प्रदेशी स्वभाव है ॥ ६ ॥ जो रूपसे रूपान्तर हो जावे जैसे पुद्गल द्रव्यके भेद है उसका नाम विभाव स्वभाव है ॥ ७॥ और जो अपने अनादि कालसे शुद्ध स्वभावमें पदार्थ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) ठहरे हुए हैं जैसे षट् द्रव्य क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभा वको नहीं छोडता है और नाही किसीको अपना गुण देता है। अपने गुणों अपेक्षा वह शुद्ध स्वभाववाले है तथा जैसे सिद्ध॥८॥ जो शुद्ध स्वभावमें न रहे पर गुण अपेक्षा सो अशुद्ध स्वभाव है जैसे कर्मयुक्त जीव ॥९॥ उपचरित स्वभावके दो भेद हैं। जैसे जीवको मूर्तिमान् कहना सो कर्मों की अपेक्षा करके उपचरित स्वभावके मतसे जीवको मूर्तिमान् कह सक्ते हैं अपितु जीव अमूर्तिमान पदार्थ है क्योंकि शरीरका धारण करना काँसे सो शरीरधारी मूर्तिमान अवश्य होता है तथा जीवको जड़बुद्धि युक्त कहना सो भी कौकी अपेक्षा है, इसका नाम उपचरित स्वभाव है ॥ द्वितीय । सिद्धोंको सर्वदर्शी मानना वा सर्वज्ञ अनंत शक्ति युक्त कहना सो निज गुणापेक्षा कर्मोंसे रहित होनेके कारणसे है यह भी उपचरित स्वभाव ही है ॥ १०॥ इस प्रकार अनेकान्त मतमें परस्परापेक्षा २१ स्वभाव हुए ॥ उक्त स्वभावों से जीव पुद्गलके द्रव्याथिक नयापेक्षा और पर्यायार्थिक नयापेक्षा २१ स्वभाव हैं जैसेकि-चेतन स्वभाव १ मूर्त स्वभाव २ विभाव स्वभाव ३ एक प्रदेश स्वभाव ४ अशुद्ध स्वभाव ५ इन पांचोंके विना धर्मादि तीन द्रव्योंके षोडश स्व. | Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) भाव हैं। और बहु प्रदेश विना कालके १५ स्वभाव हैं, सो यह सर्व स्वभाव वा द्रव्योंका वर्णन प्रमाण द्वारा सापित है ।। प्रश्न-जैन मतमें प्रमाण कितने माने हैं ? उत्तर-चार॥ पूर्वपक्षः-सूत्रोक्त प्रमाण सह चार प्रमाणोंका स्वरूप दिखलाईए॥ उत्तरपक्ष:-हे भव्य इसका स्वरूप द्वितीय सर्गमें सूत्रपाठयुक्त लिखता हूं सो पढिए ॥ । प्रथम सर्ग समाप्त, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ॥ द्वितीय सर्गः ॥ Neion ॥ अथ प्रमाण विवर्ण ॥ मूलसूत्रम् ॥ सेकिंतं जीव गुणप्पमाणे ५ तिविहे पएणते तं. नाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे सकिंतं नाणगुणप्यमाणे ५ चजविहे पं.तं. पञ्चक्खे अणुमाणे जवमे आगमे॥ भावार्थः-श्री गौतमप्रभुजी श्री भगवान्से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् वह जीव गुण प्रमाणकौनसा है ? क्योंकि प्रमाण उसे कहते हैं जिसके द्वारा वस्तुके स्वरूपको जाना जाये । तब श्री भगवान् उत्तर देते है कि हे गौतम ! जीव गुणप्रमाण तीन प्रकारसे कथन किया गया है जैसे कि-ज्ञान गुण प्रमाण १ दर्शन गुण प्रमाण २ चारित्र गुण प्रमाण ३॥ फिर श्री गौतमजीने प्रश्न किया कि हे भगवन् ज्ञान गुण प्रमाण कितने प्रकारस वर्णन किया गया है ? भगवान्ने फिर उत्तर दिया कि-हे गौतम !ज्ञान गुण प्रमाण चार प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कि- प्रत्यक्ष प्रमाण १ अनुमान प्रमाण २ उपमान प्रमाण ३ आगम प्रमाण ( शास्त्र प्रमाण ) ४ ॥ मूल || किंतं पच्चक्खे २ दुविहे पं. तं. इंदिय पञ्चकखे नोइंदिय पञ्चक्खे सेकिंतं इंदिय पच्चक्खे२ पंचविहे पं. तं. सोइंदिये पच्चक्खे चक्खुई। दय पचक्खे घाणिदिय पञ्चवखे जिनिंदिय पञ्चकखे फासिंदिय पच्चक्खे सेतं इंदिय पञ्चक्खे || भाषार्थ :- हे भगवन् प्रत्यक्ष प्रमाण कितने प्रकारसे वर्णन किया है ? तव श्री भगवान्ने उत्तर दिया कि - हे गौतम ! पंच प्रकार से कहा गया है जैसे कि श्रोतेंद्रिय प्रत्यक्ष १ चक्षुरेिंद्रिय प्रत्यक्ष २ घ्राणेंद्रिय प्रत्यक्ष ३ जिह्वाइंद्रिय प्रत्यक्ष ४ स्पर्शइंद्रिय प्रत्यक्ष ५ ।। यह इंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु निश्चय नयके मतमें यह परोक्ष ज्ञान हैं अपितु व्यवहारनयके मत से यह इंद्रिय जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष माने हैं जैसे कि - नयचक्र में लिखा है कि सम्यग् ज्ञानं प्रमाणम् । तद्विधा प्रत्यक्षतर भेदात् । अवधि मनःपर्याय वेकदेश प्रत्यक्षौ केवलं सकल प्रत्यक्षं । मतिश्रुति परोदे इति वचनात् ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) इसमें यह कथन है कि-सम्यग्ज्ञान प्रमाणभूत है किन्तु सम्यान द्वि प्रकार से है, प्रत्यक्ष और इतर । अपितु अवधि मनःपर्यवज्ञान यह देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष हैं, किन्तु मतिश्रुत परोक्ष ज्ञान हैं । इसी प्रकार श्री नंदीजी सूत्रमें भी कथन है कि मतिश्रुति परोक्ष ज्ञान हैं और अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान यह प्रत्यक्षज्ञानहै किन्तु व्यवहारनयके मतमे इंन्द्रियजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है ॥ प्रश्नः - नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान कौनसा है ? उत्तरः- नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप लिखता हूँ, पढ़िये मूल ॥ सेकिंतं नोइंदिय पच्चक्खे २ तिविहे पं. तं. उहिना पच्चक्खे मण वनाए पच्चक्खे केवलनाण पञ्चक्खे सेतं नोइंदिय पच्चक्खे || भाषार्थः-हे भगवन् ! नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान कौनसा है ' भगवान् कहते हैं कि—हे गौतम ! नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान तीन प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे कि अवधिज्ञान, मनः पर्य ज्ञान, केवलज्ञान । यह तीन ही ज्ञान नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि यह तीन ही ज्ञान इंद्रियजन्य पदार्थों के आश्रित नहीं हैं, पितु अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान यह दोनों देशप्रत्यक्ष हैं और Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९) केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है ॥ अवधि ज्ञानके षट्भेद हैं जैसेकि अनुग्रामिक १ (साथही रहनेवाला), अनानुग्रामिक २ (साथ न रहनेवाला), वर्तमान३ (वृद्धि होनेवाला),हायमान ४ (हीन होने. वाला), प्रतिपातिक ५(गिरनेवाला),अपतिपातिक६ (न गिरनेवाला); और मनःपर्यवज्ञानके दो भेद हैं जैसे कि-ऋजुमति १ और विपुलमति २ । केवलज्ञानका एक ही भेद है क्योंकि यह सकल प्रत्यक्ष है । इसी वास्ते इस ज्ञानवालेको सर्वज्ञ वा सर्वदशी कहते हैं । इनका पूर्ण विवर्ण श्री नंदीजी सूत्रसें देखो ॥ यह प्रत्यक्ष प्रमाणके भेद हुए अव अनुमान प्रमाणका स्वरूप लिखता हूं। मूल ॥ सेकिंतं अणुमाणे ५ तिविहे पं. तं. पुववं सेसवं दिठि साहम्मवं सेकिंतं पुत्ववंश मायापुत्तं जहाण8 जुवाणं पुणरागयंकाई प. चभि जाणिज्जा पुवलिंगेण केणइतरक्खइयणवा वएणेणवा मसेणवा लंबणेणवा तिलएणवा सेतं पुत्वं ॥ भाषार्थ:-शिप्यने गुरुसे प्रश्न कियाकि हे भगवन् अनु Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) मान प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है ? तब गुरु पृछकको उत्तर देते हैं कि हे धर्ममिय ! अनुमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि पूर्ववत् १ शेषवत् २ दृष्टिसाधीवत् ३ || शिष्यने पुनः प्रश्न किया कि हे भगवन् पूर्ववत्का क्या लक्षण है ? तव गुरु इस प्रकारसे उत्तर देते हैं कि हे शिष्य जैसे किसी माताका पुत्र बालावस्थासे ही प्रदेशको चला गया किन्तु जुवान होकर वह वालक फिर उसी नगरमें आ गया तव उसकी माता पूर्व लक्षणो करके जोकि उसको निश्चित हो रहे है उन्हों लक्षणों करके जैसेकि जन्म समय पुत्रके शरीरमें क्षति किसी प्रकारसे हो गई हो उस करके अथवा वर्ण करके मघादि करके वा स्वस्तिकादि लक्षणो करके तथा शरीरमें पूर्व दृष्ट तिलादि करके अपने पुत्र होने का निश्चय करती है। जबकि उसका पूर्व लक्षणों करके निश्चय हो गया तब वे अपने पुत्रसे प्रेम करती है सो यह पूर्ववत् अनुमान प्रमाण है । पुनः शेषवत् इस प्रकारसे है जौसकि मूल ॥ सेकिंतं सेसवं २ पंचविहे पं. तं. कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसयणं से- कंतं कज्जेणं २ संक्खसदेणं नेरितालियणं वसन्न Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) ढकिएणं मोरंकंकाइएणं हयहसिएणं हस्थिगुलगुलाश्एणं रहंघणघणाश्एण सेतं कजेणं ॥ ___ भापार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवानसे पूछते हैं कि, हे भगवन् ! वे कौनसा है शेपवत् अनुमान प्रमाण । तव भगवान् प्रतिपादन करते हैं कि हे गौतम ! शेपक्त् अनुमान प्रमाण पंच प्रकारसे कहा गया है जैसेकि कार्य करके १ कारण करके २ गुण करके ३ अवयव करके ४ आश्रय करके ५॥ फिर गौतमजीने प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! वे कौनसा है शेपवत् अनुमान प्रमाण जो कार्य करके जाना जाता है ? तब भगवान्ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! जैसे शंख (संख) शब्द करके जाना जाता है अर्थात् शंखके शब्द को सुनकर संखका ज्ञान हो जाता है कि यह शब्द शंखका हो रहा है, इसी प्रकार भेरी ताडने करके, पभ शब्द करके, मयूर ( मोर) कंकारव करके, अश्व शब्द करके अर्थात् हिंपन करके, हस्ति , गुलगुलाट करके, रथ घण घण करके, यह कार्याधीन अनुमान प्रमाण है, क्योंकि उक्त वस्तुयें कार्य होने पर सिद्ध होती है अ२ यर्थात् कार्य होने पर उनका अनुमान प्रमाण द्वारा यथार्थ ज्ञान सा हो जाता है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०) मान प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया हैं ? तव गुरु पृछकको उत्तर देते हैं कि हे धर्मप्रिय ! अनुमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि पूर्ववत् १ शेषवत् २ दृष्टिसाधम्मींवत् ३ ॥ शिष्यने पुनः प्रश्न किया कि हे भगवन् पूर्ववत्का क्या लक्षण है? तब गुरु इस प्रकारसे उत्तर देते हैं कि हे शिष्य जैसे किसी माताका पुत्र बालावस्थासे ही प्रदेशको चला गया किन्तु जुबान होकर वह बालक फिर उसी नगरमें आ गया तब उसकी माता पूर्व लक्षणों करके जोकि उसको निश्चित हो रहे है उन्हों लक्षणों करके जैसेकि जन्म समय पुत्रके शरीरमें क्षति किसी प्रकारसे हो गई हो उस करके अथवा वर्ग करके मषादि करके वा स्वस्तिकादि लक्षणों करके तथा शरीरमें पूर्व दृष्ट तिलादि करके अपने पुत्र होने का निश्चय करती है । जवकि उसका पूर्व लक्षणों करके निश्चय हो गया तब वे अपने पुत्रसे प्रेम करती है सो यह पूर्ववत् अनुमान प्रमाण है । पुनः शेषवत् इस प्रकारसे है जौसकि मूल ॥ सेकिंतं सेसवं २ पंचविहे पं. तं. कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसयणं से जेणं २ संक्खसदेणं नेरितालियणं वसन्न Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) ढकिएणं मोरंकंकाइएणं हयहसिएणं हत्यिगुलगुलाश्एणं रहंघणघणाश्एण सेतं कजेणं ॥ ____ भापार्थः-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवान्से पूछते हैं कि, हे भगवन् ! वे कौनसा है शेषवत् अनुमान प्रमाण { तव भगवान् प्रतिपादन करते हैं कि हे गौतम ! शेषक्त् अनुमान प्रमाण पंच प्रकारसे कहा गया है जैसेकि कार्य करके १ कारण करके २ गुण करके ३ अवयव करके ४ आश्रय करके ५॥ फिर गौतमजीने प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! वे कौनसा है शेषवत् अनुमान प्रमाण जो कार्य करके जाना जाता है ? तब भगवान्ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! जैसे शंख ( संख) शब्द करके जाना जाता है अर्थात् शंखके शब्द को सुनकर संखका ज्ञान हो जाता है कि यह शब्द शंखका हो रहा है, इसी प्रकार भेरी ताडने करके, पभ शब्द करके, मयूर ( मोर ) कंकारव करके, अश्व शब्द करके अर्थात् हिंपन करके, हस्ति गुलगुलाट करके, रथ घण घण करके, यह कार्याधीन अनुमान प्रमाण है, क्योंकि उक्त वस्तुये कार्य होने पर सिद्ध होती हैं अ. यात् कार्य होने पर उनका अनुमान प्रमाण द्वारा यथार्थ ज्ञान हो जाता है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) मान प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया हैं ? तय गुरु पृछकको उत्तर देते हैं कि हे धर्मप्रिय ! अनुमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि पूर्ववत् १ शेषवत् २ दृष्टिसाधीवत् ३ ॥ शिष्यने पुनः प्रश्न किया कि हे भगवन् पूर्ववत्का क्या लक्षण है ? तव गुरु इस प्रकारसे उत्तर देते हैं कि हे शिष्य जैसे किसी माताका पुत्र बालावस्थासे ही प्रदेशको चला गया किन्तु जुबान होकर वह वालक फिर उसी नगरमें आ गया तब उसकी माता पूर्व लक्षणों करके जोकि उसको निश्चित हो रहे है उन्हों लक्षणों करके जैसेकि जन्म समय पुत्रके शरीर क्षति किसी प्रकारसे हो गई हो उस करके अथवा वर्ण करके अपादि करके वा स्वस्तिकादि लक्षणों करके तथा शरीरमें पूर्व दृष्ट तिलादि करके अपने पुत्र होने का निश्चय करती है। जबकि उसका पूर्व लक्षणों करके निश्चय हो गया तब वे अपने पुत्रसे प्रेम करती है सो यह पूर्ववत् अनुमान प्रमाण है । पुनः शेषवत् इस प्रकारसे है जौसकि मूल । सेकिंतं लेसवं २ पंचविहे पं. तं. कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसयणं से. किंतं कज्जेणं २ संक्खसदेणं नेरितालियणं वसन्न Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) ढकिए मोरंकंकाइए हयहसिएणं हत्थिगुलगुलाइएणं रघणघणाइए सेतं कजेणं ॥ ! भाषार्थ :- श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवान् से पूछते हैं कि, हे भगवन् ! वे कौनसा है शेषवत् अनुमान प्रमाण ! तब भगवान् प्रतिपादन करते हैं कि हे गौतम ! शेषवत् अनुमान प्रमाण पंच प्रकार से कहा गया है जैसे कि कार्य करके १ कारण करके २ गुण करके १ अवयव करके 8 आश्रय करके ५ ॥ फिर गौतमजीने प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! वे कौनसा है शेषवत् अनुमान प्रमाण जो कार्य करके जाना जाता है ? तब भगवान् ने उत्तर दिया कि हे गौतम! जैसे शंख ( संख ) शब्द करके जाना जाता है अर्थात् शंखके शब्द को सुनकर संखका ज्ञान हो जाता है कि यह शब्द शंखका हो रहा है, इसी प्रकार भेरी ताडने करके, वृषभ शब्द करके, मयूर ( मोर ) कंकारव करके, अश्व शब्द करके अर्थात् हिंषन करके, हस्ति गुलगुलाट करके, रथ घण घण करके, यह कार्याधीन अनुमान प्रमाण है, क्योंकि उक्त वस्तुयें कार्य होने पर सिद्ध होती हैं अर्थात् कार्य होने पर उनका अनुमान प्रमाण द्वारा यथार्थ ज्ञान हो जाता है | Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) अथ कारण अनुमान प्रमाणका वर्णन करते हैं:-- मूल ॥ लोकतं कारणेणं तंतवो पमस्त कारणं नपो तंतुकारणं एवं वीरणा कडस्स कारणं नकमो वीरणा कारणं मयपिंडो घडस्स कारणं नघमो मयपिंडस्स कारणं सेतं कारणेणं ॥ भापार्थः-पूर्वपक्षः-कारणका क्या लक्षण है ? उत्तर पक्ष:जैसे तंतु पटके कारण है किन्तु पट तंतुओंका कारण नहीहै तथा जैसे तृण पल्यंकादिका कारण है अपितु पल्यंक तृणादिका कारण नही है तथा मृत्तपिंड घटका कारण है न तु घट मृत्तपिंडका कारण, इसका नाम कारण अनुमान प्रमाण है, क्योंकि इस भेदके द्वारा कार्य कारणका पूर्ण ज्ञान हो जाता है और कारण के सदृश्य ही कार्य रहता है। जैसे मृत्तिकासे घट अपितु वह घट सद्रूप मृत्तिकाही है न तु पटमय; इसी प्रकार अन्य भी कारण कार्य जान लेने ॥ अथ गुण अनुमान प्रमाणका वर्णन किया जाता है मूल ॥ सकिंतं गुणेणं २ । सुवन्नं निकसेणं मगंधेणं लवणं रसेणं मरंथासाणं वत्थंफा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) सेणं सेतं गुणेणं ॥ भाषार्थः-प्रश्न:-गुण अनुमान प्रमाणका क्या लक्षण है ? उत्तर:-जैसे सुवर्ण पाषाणोपरि संघर्षण करनेसे शुद्ध प्रतीत होता है अर्थात् सुवर्णकी परीक्षा कसोटीपर होती है, पुष्प गंध करके देखे जाते हैं, लवण रस करके वा मदिरा आस्वादन करके, वस्त्र स्पर्श करके निर्णय किए जाते हैं, तिसका नाम गुण अनुमान प्रमाण है, क्योंकि गुणके निर्णय होनेसे प. दार्थोंके शुद्ध वा अशुद्धका शीघ्र ही ज्ञान हो जाता है ।। अथ अवयव अनुमान प्रमाणके स्वरूपको लिखता हूं मूल ॥ सेकिंतं अवयवेणं २ महिसं सिंगणं कुक्कुडसिहायणं दत्थिविसाणेणं वाराहदाढाणं मोरंपिजेणं थासंकखुरेणं वग्धंनहेणं चमरिवालग्गेणं वानरंनंगूखणं दुप्पयमणुस्समादि चप्पयंगवमादि बहुप्पयंगोमियामादि सीहंकेसरणं वसहंकुकुहेणं महिलंवलयबाहाहिं परियारबंधेणं नडंजाणेजा महिलियं निवसणेणं सित्थेणं दोणपागं कविंचएकाएगाहाए सेतं अवयवेणं॥१॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) भाषार्थ : - ( प्रश्नः ) अवयव अनुमान प्रमाणके उदाहरण कौन २ से है अर्थात् जिन उदाहरणों के द्वारा अवयव अनुमान प्रमाणका बोध हो, क्योंकि अवयव अनुमान प्रमाण उसे कहते हैं जिस पदार्थके एक अवयव मात्रके देखने से पूर्ण उस पदार्थके स्वरूपका ज्ञान हो जाये || ( उत्तरः ) जैसे महिप शृंग क रके, कुर्कुट शिखा करके, हस्ति दांतों करके, शूकर दाढ़ी करके, अश्व खुरकरके, मयूर पूछ करके, वाघ नख करके, चमरी गायचालों करके, वानर लांगुल ( पूछ ) करके, मनुष्य द्विपद क रके, गवादि पशु चार पद करके, कानखरजुरादि बहुपदकरके, सिंह केसरकरके, वृषभ स्कंध करके, सी भुजाओंके आभूषण करके शुभट राजचिन्हादि करके तथा स्त्री वेष करके, एक सित्थ मात्रके देखनेसें हांडी के तंडुलादिकी परीक्षा हो जाती है, कविकी परीक्षा एक गाथाके उच्चारणसे हो जाती है, इसका नाम, अवयव अनुमान प्रमाण है, क्योंकि एक अंश करके वोध हुआ सर्व अशोका बोध हो जाता है जेसे कि, आगम में कहा है कि (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सव्र्व्वं जाणइ से एगं जाणइ ) जो एकको जानता है वह सर्वको जानता है जो सर्वको जानता है वह एकको भी जानता है ॥ अथ आश्रय अनुमान प्रमाण स्वरूप इस प्रकार से किया जाता है जैसे कि— Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) मूल ॥सेकिंतं आसयणं २ अग्गि धूमेणं सलिलं बलागेणं वुठि अन्न विकारेणं कुल पुत्तसील समायारेणं । सेतं आसयणं सेतं सेसवं॥ __ भाषार्थ:-श्री गौतमजीने पुनः प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! आश्रय अनुमान प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? भगवान् उत्तर देते है कि हे गौतम ! आश्रय अनुमान प्रमाण इस प्रकारसे कथन किया गया है कि जैसे अग्नि धूम करके जाना जाता है, जल वगलों करके निश्चय किया जाता है, दृष्टि बादलोंके विकारसे निर्णय की जाती है, कुल पुत्र शील समाचरणसे जाना जाता है, इसका नाम आश्रय अनुमान प्रमाण है और इसकेही द्वारा साध्य, सिद्ध, पक्ष, इत्यादि सिद्ध होते हैं। सो यह शेषवत् अनुमान प्रमाण पूर्ण हुआ ॥ __ अब दृष्टि साधर्म्यता का वर्णन किया जाता है मूल॥सेकिंतं दिहिसाहम्मवं २ सुविहे पं. तं. सामान दिलुच विसेस दिडंच सेकिंतं सामा. नदिडं २ जहा एगो पुरिसो तहा वन Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६ ) जहा वहवे पुरिसा तहा एगे पुरिसे जहा एगो करिसावणो तहा वहवे करिसावणो जहा व. हवे करिसावणो तहा एगे करिसावणो सेतं सामान्न दिलं॥ भापार्थः-(प्रश्नः) दृष्ट साधर्म्यता किस प्रकारसे वर्णित है ?(उत्तर) दृष्ट साधर्म्यता द्वि प्रकारसे वर्णन की गइ है जैसेकिसामान्यदृष्ट १ विशेषदृष्ट २॥ (पूर्वपक्ष) सामान्य दृष्टके क्या २ लक्षण हैं ?( उत्तरपक्षः ) जैसे किसीने एक पुरुषको देखा तो उसने अनुमान कियाकि अन्य पुरुष भी इसी प्रकारके होते हैं तथा जैसे किसीने पूर्वीय पुरुषके कृष्ण वर्णको देखकर अनुमान किया अन्य भी पूर्वीय प्रायः इसी वर्णके होंगे। इसी प्रकार युरोपमें गौर वर्णताका अनुमान करना ।। ऐसे ही सुवर्ण मुद्रादिका विचार करना क्योंकि जैसे एक मुद्रा होती है प्रायः अन्यभी उसी प्रकारकी होंगी, इस अनुमानका नाम सामान्य दृष्ट है ।। प्रायः शब्द इस लिये ग्रहण है कि आकृतिमें कुछ भिन्नता हो परंतु वास्तवमें भिन्नता न होवे, उसका नाम सामान्य दृष्ट है ।। "पू विशेष दृष्टका लक्षण वर्णन करते हैं। है Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७) मूल॥ सेकिंतं विसेसदिठं २से जहा नामए केश पुरिस्से बहुणं मज्केपुवं दिलु पुरिसं पञ्चन्नि जाणेजा अयं पुरिसे एवं करिसावणे ॥ ___भाषा:-श्री गौतम प्रभुजी भगवान से पृच्छा करते हैं कि-हे भगवन् ! विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाण किस प्रकारस है ? भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाण इस प्रकारसे है जैसेकि-किसी पुरुषने किसी अमुक व्यक्ति को किसी अमुक सभामें बैठे हुएको देखा तो मनमें वि. चार किया कि यह पुरुष मेरे पूर्वदृष्ट है अर्थात् मैंने इसे कहीं पर देखा हुआ है, इस प्रकारसे विचार करते हुएने किसी लक्षणद्वारा निर्णय ही करलिया कि यह वही पुरुष है जिसको मैंने अमुक स्थानोपरि देखा था। इसी प्रकार मुद्राकी भी परीक्षा करली अर्थात् बहुत मुद्राओं से एक मुद्रा जो उसके पूर्व ह. ष्ट थी उसको जान लिया उसका ही नाम विशेप दृष्ट अनुमान प्रमाण है ॥ अपितु मूल ॥ तंसमासन तिविहं गहणं नवइ तं. तोयकालग्गहणं पमुप्पणकालग्गहणं अ. णागयकालग्गदणं ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) भाषार्थ:-विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाणहारा तीन काल ग्रहण होते हैं अर्थात् उक्त प्रमाणद्वारा तीन ही काळकी वातोंका नि. र्णय किया जाता है जैसेकि भूत कालकी वाती १ वर्तमान कालकी २ और भविष्यत कालमें होनेवाला भाव, यह तीन कालके भाव भी अनुमान प्रमाणद्वारा सिद्ध हो जाते हैं ।। मूल ॥ संकित्तीयकालग्गहणं । जत्तिणाई वणाई निष्फनसबसस्संवा मेईणि पुन्नाणि कुंभ सर नदि दहसरण तलागाणि पालित्ता तेणं सादिजाइ जहा सुवुठ्ठी आसीसेतं तीयकालग्गहणं ॥ भाषार्थ-( पूर्वपक्ष ) अनुमान प्रमाणके द्वाग भूतकालके पदार्थों का बोध कैसे होता है । ( उत्तरपक्ष ) जैसे उत्पन्न हुए हैं वनोंमें तृणादि, और पूर्ण प्रकारसे निष्पन्न है धान्न, फिर पृथि वीमें भली प्रकारसे सुंदरताको प्राप्त हो रहे हैं और जलसे पूर्ण __ भरे हुए हैं कुंड, सरोवर, नदी, द्रह, पानीके निज्झरण, सो इस प्रकारसे भरे हुए तड़ागादिको देखकर अनुमान प्रमाणसे कहा जाता है कि इस स्थानोपरि पूर्व सुदृष्टि हुईथी क्योंकि Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) मुष्टिके होनेपर ही यह लक्षण हो सक्ते हैं सो इसका नाम भूत अनुमान प्रमाण है क्योंकि इसके द्वारा भूत पदार्थों का बोध भली प्रकारसे हो जाता है । मूल ॥ सेकित्तं पमुप्पण कालग्गहणं २ साहु गोयरग्गगयं विलमिय पजर भत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिडाइ जहा सुन्निक्खं वदृश् सेतं पमुप्पन्न कालग्गदणं ॥ ___ भाषार्थ:- ( प्रश्न ) किस प्रकारसे वर्तमान कालके पदायौँका अनुमान प्रमाणके द्वारा बोध होता है ? ( उत्तर ) जैसे कोई साधु गौचरी (भिक्षा) के वास्ते घरोंमें गया तब साधुने घरोंमें मचुर अन्नपानीको देखा अपितु इतना ही किन्तु अन्नादि बहुतसा परिष्टापना करते हुओंको अवलोकन किया तब साधु अनुमान प्रमाणके आश्रय होकर कहने लगाकि जहां पर मुभिक्ष (मुकाळ ) वर्तता है, सो यह वर्तमानके पदार्थोंका बोध करानेवाला है-अनुमान प्रमाण है ॥ मूल ॥ सेकिंतं अणागय कालग्गहणं २ अभ्नस्स निम्मलतं कसिणाय गिरिस विज्जु मे । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) थणियंवानज्माणं संज्झानिछापरताय बारुणं वामाहिंदंवा अन्नयरं पसत्य मुप्पायं पासित्ता तेणं साहिझाइ जहा सुवुष्टि नविस्सइ सेतं अणागय कालग्गहणं ॥ __भाषार्थः-(पूर्वपक्ष) अनुमान प्रमाणके द्वारा अनागत (भविष्यत ) कालके पदार्थोंका बोध किस प्रकारसे हो सक्ता है ? ( उत्तरपक्ष ) जैसे आकाश अत्यन्त निर्मल है, संपूर्ण पर्वत कृष्ण वर्णताको प्राप्त हो रहा है अर्थात् पर्वत रजादिकरके युक्त नही है, और विद्युत् (विजुली) के साथ ही मेघ है अर्थात् यदि वृष्टि होती है तब साथ ही विजुली होती है, वर्षाके अनुकुल ही वायु है, और सन्ध्या स्निग्ध है, वारुणी मंडलके नक्षत्रोंमें बहुत ही सुंदर उत्पात उत्पन्न हुए हैं, क्या चन्द्रादिका योग माहिन्द्र मंडलके नक्षत्रोंके साथ हो रहा है, इसी प्रकार अन्य भी सुंदर उत्सातोंको देखकर और अनुमान प्रमाणके आ. श्रय होकर कह सक्ते हैं कि सुदृष्टि होनेके चिन्ह दीखते हैं अर्थात् सुदृष्टी होगी ॥ यह भविष्यत कालके पदार्थोके ज्ञान होनेबाला अनुमाण प्रमाण है क्योंकि इनके द्वारा अनागत कालके पदार्थोंका बोध हो जाता है ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) मूल ।। एएसिंविवजासेणंति विहंगहणं नघइतं. तीयकालग्गहणं पप्पण कालग्गहणं अणागय कालग्गहणं सेकिंतं तीयकालग्गहणं णितएणवणाई अनिष्फणसरसंवा मेश्णी सुक्काणिय कुंड सर णदि दह तलागाणि पासित्ता तेणं साहिजइ जहा कुवुष्टिासी सेतं तोयकालग्गहणं॥ भाषार्थ:-जो पूर्व तीन कालके पदार्थोंका अनुमान प्रमा. णके द्वारा ज्ञान होना लिखा गया है उससे विपरीत भी तीन कालके पदार्थों का बोध निम्न कथनानुसार हो जाता है। जैसेकि सृणसे रहित वर्ण है, पृथ्वीमं धान्नादि भी उत्पन्न नहीं हुए हैं, और कुंड, सर, नदी, द्रह, तडागादि भी सर्व जलाशय शुष्क हुए दीखते है अर्थात् जलाशय शुक्के हुए हैं, तब अनुमान प्रमाणके द्वारा निश्चय किया जाता है कि जहापर कुदृष्टी है मुवृष्टी नहीं हैं, क्योंकि यदि सुदृष्टी होती तो यह जलाशय क्यों शुष्क होते सो इसका नाम भूतकाल अनुमान प्रमाण है ।। मूल ॥ सेकित्तं पमुप्पन्न कालग्गहणं २ सा-. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) हु गोयरग्गगयं निक्खं अलभ्भमाणं पासित्ता तेणं साहिऊजहादुनिखं वदृश् सेतं पमुप्पन्न कालग्गहणं ॥ ___ भाषार्थः-(पूर्वपक्षः) वर्तमानके पदार्थोंका वोध करानेवाला अनुमान प्रमाणका क्या लक्षण है?(उत्तरपक्ष)जैसे सावु गोचरीको ग्राम वा नगरादिमें गया तब भिक्षाके न प्राप्त होनेपर वा घरोंमें प्रचुर अन्नादि न होनेपर अनुमान प्रमाणके द्वारा कहा जाता है कि जहांपर दुर्भिक्ष वतेता है, इसलिये इसका नाम वर्तमान अनुमान प्रमाण ग्रहण है ।। ___ मूल ॥ लेकित्तं अणागय कालग्गहणं धुमाउ तिदिसाज संविय मेईणीअप्पमिबछा वाया नेरया खलु कुवुष्ठि मेवं निवेयंति अग्गेयं वा वायवं वा अन्नयरं वा अप्पसत्थं जप्यायं पासित्ता तेणं साहिजर कुवुष्टि नविस्सइ सेतं अणागय कालग्गहणं सेत्तं विसेस दिठं से दिठि साहम्मवं सेत्तं अनुमाणे ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) भाषार्थ : - ( पूर्वपक्ष: ) अनागत कालके पदार्थोंका बोधजन्य अनुमान प्रमाण किस प्रकार से वर्णन किया गया है ? ( उत्तरपक्षः) जैसेकि धूमसे दिशाओं आच्छादित हो रही हैं और रजादि करके मेदनी युक्त है अर्थात् पृथ्वीमें रज बहुत ही हो रही हैं, पुद्गल परस्पर अप्रतिबद्ध भावको प्राप्त हैं अर्थात् वर्षा के अनुकूल नही है, वायु नैरतादि कूणों में विद्यमान है और x अग्निमंडलके नक्षत्र वा व्यायवमंडल के नक्षत्रोंका योग हो रहा है, इसी प्रकार अन्य कोई प्रशस्त उत्पातको देखकर अनुमान होता कि कुदृष्टि होनेके चिन्ह दीखते हैं अर्थात् कुदृष्टि होवेगी ॥ यही अनागतकाल ग्रहण अनुमान प्रमाण है; इसीके द्वारा भविष्यत कालके पदार्थों का × अग्निमंडलके नक्षत्रोंके निम्नलिखित नाम है ॥ कृतिका १ विशाखा २ पूर्वभाद्रपद ३ मघा ४ पुष्य ५ पूर्वाफाल्गुणी ६ भरणी ७ ॥ अथ व्यायव मंडल के नक्षत्र लिखते हैं । जैसेकि - चित्रा १ हस्त २ स्वाति ३ मृगशिर 8 पुनर्वसु १ उत्तराफाल्गुणी ६ अश्वनी ७ ॥ अपितु वारुणी मंडलके नक्षत्र यह हैं - अश्लेषा १ मूल २ पूर्वाषाड़ा ३ रेवती ४ शतभिशा १ आर्द्रा ६ उत्तराभाद्रवपद ७ ॥ अथ माहेन्द्र मंडलके निम्न हैं- ज्येष्टा १ रोहणी २ अनुराधा २ श्रवण ४ धनेष्टा ५ उतराषाड़ा ६ अभिजित ७ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) हु गोयरग्गगयं निक्खं अलभ्भमाणं पासित्ता तेणं साहिऊजहा दुनिक्खं वदृश् सेतं पमुप्पन्न कालग्गहणं ॥ भाषार्थः-(पूर्वपक्षः) वर्तमानके पदार्थों का बोध करानेवाला अनुमान प्रमाणका क्या लक्षण है?(उत्तरपक्षः)जैसे साधु गोचरीको. ग्राम वा नगरादिमें गया तब भिक्षाके न प्राप्त होनेपर वा घरों में प्रचुर अन्नादि न होनेपर अनुमान प्रमाणके द्वारा कहा जाता है कि जहाँपर दुर्भिक्ष वर्तता है, इसलिये इसका नाम वर्तमान अनुमान प्रमाण ग्रहण है ।। ___ मूल ॥ लेकित्तं अणागय कालग्गहणं धुमाउ तिदिसाउ संविय मेईणी अप्पमिबहा वाया नेरया खलु कुवुष्टि मेवं निवेयंति अग्गेयं वा वायवं वा अन्नयरं वा अप्पसत्थं उपायं पासित्ता तेणं साहिजार कुवुष्टि नविस्सइ सेतं अणागय कालग्गहणं सेत्तं विसेस दिलु सेत्तं दिछि साहम्मवं सेत्तं अनुमाणे ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) आषार्थः-(पूर्वपक्षः) अनागत कालके पदार्थोंका बोधजन्य न प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? (उत्तरपक्षः) 'धूमसे दिशाओं आच्छादित हो रही हैं और रजादि मेदनी युक्त है अर्थात् पृथ्वीमें रज बहुत ही हो रही हैं, पुद्गल : अप्रतिबद्ध भावको प्राप्त है अर्थात् वर्षाके अनुकूल नही नैरतादि कूणोंमें विद्यमान है और xआग्निमंडलके नक्षत्र यवमंडळके नक्षत्रोंका योग हो रहा है, इसी प्रकार अन्य अप्रशस्त उत्पातको देखकर अनुमान होता कि कुदृष्टि 'चिन्ह दीखते हैं अर्थात् कुदृष्टि होवेगी। यही अनागतकाल अनुमान प्रमाण है; इसीके द्वारा भविष्यत कालके पदार्थोंका - अग्निमंडलके नक्षत्रोंके निम्नलिखित नाम है ॥ कृतिका शाखा २ पूर्वभाद्रवपद ३ मघा ४ पुष्य ५ पूर्वाफाल्गुणी ६ ७॥अथ व्यायव मंडलके नक्षत्र लिखते हैं । जैसेकि-चित्रा त २ स्वाति ३ मृगशिर ४ पुनर्वसु ५ उतराफाल्गुणी ६ ॥७॥ अपितु वारुणी मंडलके नक्षत्र यह हैं-अश्लेषा १ मूल पाड़ा ३ रेवती ४ शतभिशा ५ आद्रा ६ उत्तराभाद्रवपद अथ माहेन्द्र मंडलके निम्न है-ज्येष्टा १ रोहणी २ अनुराधा २ ४ धनेष्टा ५ उतराषाड़ा ६ आभिजित ७॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) बोध हो सक्ता है । सो यह विशेष दृष्ट है और यही दृष्टि साधम्य अनुमान प्रमाण है सो यह अनुमान प्रमाणका स्वरूप संपूर्ण हुआ || मूल || सेकिंत्तं वमे २ डुविदे पं. तं. साइम्मोवणीयए वेदम्मोवणीयए सोकंत्तं साहम्मो वणीयए तिविढे पं तं किंचिसाहम्मोवणीए पायसाहम्मोवणीए सबसाहम्मोवणीए ॥ भाषार्थ :- श्री गौतमप्रभुजी भगवान् से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् उपमान प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! उपमान प्रमाण द्वि प्रकार से वर्णन किया गया है जैसेकि साधम्योंपनीत १ वैधम्र्योपनीत २ ॥ गौतमजीने पुनः पूर्वपक्ष कियाकि हे भगवन् साधम्र्योपनीत कितने प्रकारसे कथन किया गया है ? भगवान् ने फिर उत्तर दिया कि हे गौतम ! साधम्र्योपनीत अनुमान प्रमाण तीन प्रकार से कथन किया गया है जैसे कि किञ्चित् साधर्म्यापनीत अनुमान प्रमाण १ प्रायः साधर्म्यपनीत अनुमान प्रमाण २ सर्व साधम्र्योपनीत अनुमान ३ || इसी प्रकार गौतमजीने पूर्वपक्ष फिर किया || Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) मूल ॥ सेकित्तं किंचि साहम्मोवणोए २ जहा मंदिरो तहा सरिसवो जहा सरिसवो तहा मंदिरो एवं समुदो २ गोप्पयं आश्चोखज्जोत्तो चंदोकुमुद्दो सेत्त किंचि साहम्मे ॥ ___भाषार्थः- पूर्वपक्षः ) किंचित् साधोपनीत किस प्रकार प्रतिपादन किया है ? ( उत्तरपक्षः) जैसे मेरुपर्वत वृत्त (गोल) है इसी प्रकार सरसवका बीज भी गोल है, सो यह किञ्चित् मात्र साधर्म्यता है क्योंकि वृत्ताकारमें दोनोंकी साम्यता है परंतु अन्य प्रकारसे नहीं है। ऐसे ही अन्य भी उदाहरण जान लेनेजैसेकि समुद्र गोपाद, आदित्य ( सूर्य) और खद्योत, चंद्र और कुमुद, सो यह किंचित् साधर्म्यता है ॥ मूल ॥सेकित्तं पाय साहम्मोवणीय २ जहा गो तदा गवउ जहा गवज तहा गो सेत्तं पायपाय साहम्मे ॥ भाषार्थः-(प्रश्नः ) वह कौनसा है प्रायः साधोपनीत उपमान प्रमाण ? ( उत्तरः) जैसे गो है वैसी ही आकृतियुक्त Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह (५६) नीलगाय है, केवल सास्नादि वर्जित है किन्तु शेष अवयव प्रायः साधर्म्यतामें तुल्य हैं; इसी वास्ते इसका नाम प्रायः साधम्र्योपनीत अनुमान प्रमाण है ॥ अथ सर्व साधोपनीतका वर्णन किया जाता है ॥ मूल ॥सेकित्तं सव साहम्मोवमं नत्थि तहा वितस्स तेणेव उवमं कीर तंजहा अरिहंतेहिं अरिहंत सरिसं कयं एवं चकवहिणा चकवटी सरिसं कयं बलदेवेणं बलदेव सरिसं कयं वासुदेवेणं वासुदेव सरिसं कयं साहुणा साहु सरिसं कयं सेत्तं सब साहम्मे सेत्तं सब साहम्मोवणीय ॥ भापार्थः-(प्रश्नः) वह कौनसा है सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाण ? ( उत्तरः) सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाणकी कोई भी उपमा नही होती है परंतु तद्यपि उदाहरण मात्र उपमा करके दिखलाते हैं । जैसेकि अरिहंत (अर्हन)ने अरिहंतके सामान ही कृत किया है इसी प्रकार चक्रवर्तीने चक्रवत्तींके तुल्य ही Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) कार्य कीया है, बलदेवने बलदेवके सामान, वासुदेवने वासुदेवके सामान कृत किये हैं तथा साधु साधुके सामान व्रतादिको पालन करता है, यह सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाण है ॥ मूल ॥ सेकित्तं वेहम्मोवणीय २ तिविहे पं. तं. किंचिवेहम्मे पायवेहम्मे सबवेहम्मे सेकित्तं किंचिदम्मे जहा सामलेरो न तहा वाहुलेरो जहा वाहुलेरो न तहा सामलेरो सेतं किंचिवेहम्मे ॥ भाषार्थ:-(प्रश्नः ) वह कौनसा है वैधोपनीत उपमान प्रमाण ? (उत्तरः ) वैधोपनीत उपमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि-किंचित् वैधोपनीत उपमान प्रमाण १ प्रायः वैधय॑त्व २ सर्व वैधयंत्व ३ ॥ (पूर्वपक्षः) किचित् वैधये उपमान प्रमाणका क्या उदाहरण है? ( उतरपक्षः) जैसे श्याम गोका अपत्य है वैसी ही श्वेत गोका अपत्य नहीं है अर्थात जैसे श्याम वर्णकी गोका वत्स है वैसे ही श्वेत गोका वत्स नहीं है, क्योंकि वर्णमें भिन्नता है इसका ही नाम किंचित् वैधर्म्यत्व - उपमान है ।। सर्व अवयवादिमें एकत्वता सिद्ध होनेपर केवल वर्णकी विभिन्नतामें किंचित् वैधर्म्यत्व उपमान प्रमाण सिद्ध हो गया। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) - भूल ॥ सेकित्तं पायवेहम्मे जहा वायसो न तहा पायसो जहा पायसो न तहा वायसो से पाय वेहम्मे ॥ भाषार्थः-(पूर्वपक्षः ) प्रायः वैधर्म्यताका भी उदाहरण दिखलाइये । (उत्तरपक्षः) जैसे काग है तैसे ही हंस नहीं है और जैसे हंस है वैसे काग नहीं है, क्योंकि काक-हंसकी पक्षी होनेपर ही साम्यता है किन्तु गुण कर्म स्वभाव एक नहीं है, इसीलिये मायः वैधय॑त्व उपमान प्रमाण सिद्ध हुआ है ॥ मूल ॥ सेकित्तं सबवेहम्मे २ नत्थि तस्स उवमं तहावितस्स तेणेव उवमं कीरइतं. नोचणं नीचसरिसं कयं दासेणं दास सरिसं कयं कागेणं कागसरिसं कयं साणेणं साण सरिसं कयं पाणेणं पाणं सरिसं कयं सेत्तं सव्व वेहम्मे सेत्तं विहम्मोवणीय सेत्तं उवमे ॥ १ वृत्तिमे वैधयेकी उपमा-क्षीर और काकसे लिखी है कि आदिकी वैधर्म्यता है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) भाषार्थः-( पूर्वपक्षः ) सर्व वैधर्म्यताके उदाहरण फिल प्रकारसे होते हैं ? ( उत्तरपक्षः ) सर्व वैधयंताके उदाहरण नहीं होते हैं किन्तु फिर भी सुगमताके कारणसे दिखलाये जाते हैं, जैसे कि-नीचने नीचके सामान ही कार्य किया है, दासने दासके ही तुल्य काम कीया है, काकने काकवतही कृत किया है वा चांडालने चांडाल तुल्य ही क्रिया की है सो यह सर्व वैधर्म्यताके ही उदारण हैं । इसलिये जहांपर ही सर्व वैधोपनीत उपमान प्रमाण पूर्ण होता है इसका ही नाम उपमान प्रमाण है। इसके ही आधारसे सर्व पदार्थोंका यथायोग्य उपमान किया जाता है ।। अब आगम प्रमाणका वर्णन करते हैं । मूल ॥ सेकिंतं आगमे दुविहे पं. तं. लोश्य लोगुत्तरिय सेकित्तं लोइय २ जनइमं अन्नाणीहि मिच्छादिट्ठीहिं सबंद बुद्धिमइ विगप्पियं तं नारदं रामायणं जाव चत्तारि वेया संगोवंगा सेत्तं लोश्य आगमे॥ ____भाषार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी भगवानसे प्रश्न करते हैं कि हे प्रभो ! आगम प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) तव श्री भगवान् उत्तर देते हैं कि. हे गौतम ! आगम प्रमाण द्विविधसे प्रतिपादन किया है जैसेकि लौकीक आगम १ लोको. त्तर आगम २॥ श्री गौतमजी पुनः पूछते है कि हे भगवन् लोकीक आगम कौनसे हैं ? भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! जैसोक मिथ्यादृष्टि लोगोंने अज्ञानताक प्रयोगसे स्वछंदतासे कल्पना करलिये है भारत रामायण यावत् चतुर वेद सांगोपांग पूर्वक, यह सर्व लौकीक आगम है, क्योंकि इन आगमोंमें पदायाँका सत्य २ स्वरूप प्रतिपादन नही किया है अपितु परस्पर विरोधजन्य कथन है, इस लिये ही इनका नाम लौकीक आगम है । मूल ॥सेकिंतं लोगुत्तरिय आगमे २ जश्म अरिहंतेहिं नगवंतेहिं जावपणीय दुवालसंगं तंजहा आयारो जावदिठिवाओ सेत्तं लोगुत्तरिय आगमे॥ ___ भाषार्थ:-(प्रश्नः ) लोकोत्तर आगम कौनसे हैं ? (उत्तरः) __ जो यह प्रत्यक्ष अरिहंत भगवंत कर करके प्रतिपादन किये - हैं, द्वादशांग आगमरूप सूत्र समूह जैसेकि आचारांगसे Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१ ) हुआ दृष्टिवाद प्रयन्त आगम है, यह सर्व लोकोत्तर आगम हैं क्यों कि पदार्थोंका सत्य २ स्वरूप, द्वादशांगरूप आगममें प्रतिपादन किया हुआ है, क्योंकि स्याद्वाद मतमें पदार्थों का सप्त नयोंके द्वारा यथावत् माना गया है जोकि एकान्त नय न माननेवाले उक्त सिद्धान्तसे स्खलित हो जाते हैं । ___ मूल ॥ अहवा आगमे तिविहे पं. तं. सु. त्तागमेय अस्थागमेय तऽभयागमे ॥ भाषार्थः-अथवा आगम तीन प्रकारसे कथन किया गया है । जैसेकि-सूत्रागम १ अर्थागम २ तदुभयागम ३ अर्थात् सूत्ररूप आगम १ अर्थरूप आगम २ सूत्र और अर्थरूप आगम ३ ॥ मूल॥ अहवा आगमे तिविहे पं. तं. अ ____ * द्वादशाङ आगमोंके निम्नलिखित नाम हैं । आचाराग सूत्र १ सूयगडाग सूत्र २ ठाणागसूत्र ३ स्थानाग सूत्र ४ विवाह प्रज्ञप्ति सूत्र ५ ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र ६ उपासक दशाग सूत्र ७ मंतठत सूत्र ८ अनुत्रोववाइ सूत्र ९ प्रश्नव्याकरण सूत्र १० विपाकसूत्र ११ दृष्टिवाद सूत्र १२ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२ ) त्तागमे अणंत्तरागमे परंपरागमे तित्थगराणं अस्थस्स अत्तागमे गणदराणं सुत्तस्स अत्तागमे अस्थस्स अणंतरागमे गणहर सीस्ताणं सत्तस्स अणंत्तरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेण परं सुत्तस्सावि अत्यस्सा।व नोअत्तागमे नोअणंतरागमे परंपरागमे सेत्तं लोगुत्तरिय सेत्तं आगमे सेत्तं नाण गुणप्पमाणे ॥ भाषार्थः-अथवा आगम तीन प्रकारसे और भी कथन किया गया है जैसे कि आत्मागम १ अनंतरागम २ परंपरागम ३। किन्तु तीर्थंकर देवको अर्थ करके आत्मागम है और गणधरों को सूत्र करके आत्मागम है अपितु अर्थ करके अनंतरागम है २ ॥ परंतु गणधरके शिष्योंको सूत्र अनंतरागम है अर्थपरंपरागम है उसके पश्चात् सूत्रागम भी अर्थागम भी नही है आमागम नहीं है अनंतरागम केवल परंपरागम ही है। यही लोगोस्तर आगमके भेद है । इसका ही नाम ज्ञान गुण प्रमाण है ॥ ___ अथ दर्शन गुण प्रमाणका स्वरूप लिखता हूं। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) मूल ॥ सेकित्तं दसण गुणप्पमाणे २ चउविहे पं, तं. चक्खु देसण गुणप्पमाणे अचक्खु दसण गुणप्पमाणे नहि देसण गुणप्पमाणे केवल दसण गुणप्पमाणे ॥ __ भाषार्थः-(प्रश्नः) दर्शन गुण प्रमाण किस प्रकारसे है ! (उत्तर) दर्शन गुण प्रमाण चतुर्विधसे प्रतिपादन किया गया है जैसेकि चक्षुः दर्शन गुण प्रमाण १ अचक्षुः दर्शन गुण प्रमाण २ अवधि दर्शन गुण प्रमाण ३ केवळ दर्शन गुण प्रमाण ४ ॥ अव चार ही दर्शनोंके लक्षण वा साधनताको लिखते हैं ।। __मल ॥ चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घमपममाईसु अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स पायनावे जहिदसणं जहिदंसणिस्स सबरूविवेचन पुण सव्वपजवेसु केवल दसणं केवल दंसणिस्स सब दवेहिं सब पजवेहिंसेतं दंसणगुणप्पमाणे॥ ___ भाषार्थः-दर्शनावी कर्मके क्षयोपशम होनेसे जीवको चक्षु दर्शन घटपटादि पदार्थों में होता है, अर्थात् जब आत्मा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) का दर्शनावर्णी कर्म क्षयोपशम हो जाता है तब आत्मामें घट पट पदार्थोंको देखनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसीका ही चक्षु दर्शन है क्योंकि चक्षुर्दशी जीव घटादि पदार्थोंको चक्षुओं द्वारा भली प्रकारसे देख सकता है दूरवर्ती होने पर भी। अचक्षु दर्शन जीवके आत्मा भाव रहेता है क्योंकि चक्षुओंसे भिन्न श्रोतेंद्रियादि चतुरिंद्रियों द्वारा जो पदार्थोंका बोध होता है अथवा मनके द्वारा जो स्वप्नादि दर्शनोंका निर्णय कि___ या जाता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है और अवधि दर्शन युक्त जीवकी प्रवृत्ति सर्व रूपि द्रव्यों में होती है किन्तु सर्व पर्यायों में नही हैं क्योंकि अवधि दर्शन रूपि द्रव्योंको ही देख नेकी शक्ति रखता है न तु सर्व पर्यायोंकी, सो इसका नाम ___ अवधि दर्शन है। अपितु केवल दर्शन सर्व द्रव्योंमें और सर्व पर्यायोंमें स्थित है क्योंकि सर्वज्ञ होने पर सर्व द्रव्योंको और सर्व पर्यायोंको केवल दर्शन युक्त जीव सम्यक् प्रकारसे देखता है सो इसका ही नाम दर्शन गुण प्रमाण है ॥ अथ चारित्र गुण प्रमाण वर्णनः॥ मूल । सेकित्तं चरित्त गुणप्पमाणे २ पंचविहे पं. तं, सामाइय चरित्त गुणप्पमाणे बेउवठाव Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) णिय चरित्त गुणप्पमाणे परिहार विसुद्धिय चरित्त गुणप्पमाणे सुहुमसंपराय चरित्त गुणप्पमाणे अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे ॥ __ भाषार्थः-(शंका) चारित्र गुण प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है ? (समाधान ) पंचप्रकारसे प्रतिपादन किया गया है-जैसेकि सामायिक चारित्र गुण प्रमाण । क्योंकि चारित्र उसे कहते हैं जो आचरण किया जाये सो सामायिक आत्मिक गुण है जैसेकि सम, आय, इक, संधि करनेसे होता है सामा. यिक, जिसका अर्थ है कि सर्व जीवोंसे समभाव करनेसे जो आत्माको लाभ होता है उसका ही नाम सामायिक है । इसके द्वि भेद हैं स्तोक काल मुहूर्तादि प्रमाण आयु पर्यन्त साधुवृत्ति रूप, सावद्य योगोंका त्यागरूप सामायिक चारित्र प्रमाण है। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण है जो कि पूर्व पर्यायको छेदन करके संयममें स्थापन करना। परिहार विशुद्धि चारित्र गुण प्रमाण उसका नाम है जो संयममें बाधा करनेवाले परिणाम हैं, उनका परित्याग करके सुंदर भावोंका धारण करना तथा नव मुनि गछसे वाहिर होकर १८ मास पर्यन्त तप करते हैं परिहार विशुद्धिके अर्थे उसका नाम " Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) विशुद्धि है । सूक्ष्म संपराय चारित्र गुण प्रमाणका यह लक्षण है कि यह चारित्र दशम गुणस्थानवी जीवको होता है क्यों. कि सूक्ष्म नाम तुच्छ मात्र संपराय नाम संसारका अर्थात् जिसका स्तोक मात्र रह गया है लोभ, उसका ही नाम सूक्ष्म संपराय चारित्र गुण प्रमाण है। यथाख्यात चारित्र उसका नाम है जो सर्व लोकमें प्रसिद्ध है कि यथावादी हैं वैसे ही करता है अर्थात् जिसका कथन जैसे होता है वैसे ही क्रिया करता है जोकि ११ गुणस्थानसे १४ गुणस्थानवत्ती जीवोंको होता है, अपितु जो क्षपक श्रेणी वत्ती जीव है वे दशम स्थानसे द्वादशमें गुणस्थानमें होता हुआ १३ वें गुणस्थानमें केवल ज्ञान करके युक्त हो जाता है फिर चतुर्दशवें गुणस्थानमें प्रवेश करके मोक्ष पदको ही प्राप्त हो जाता है । मूल ॥ सामाश्य चरित्त गुणप्पमाणे दु. विहे पं. तं. स्तरियए आवकहियए डेवगवणे सुविहे पं. तं. साश्यारेय निरश्यारेय परिहारे ___ १ पंच चारित्रोंके मेद विवाहप्रज्ञप्ति इत्यादि सूत्रोंसे जानने । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) दुविहे पं. तं. निविस्समाणेय णिविठकाइय सुहुमसंपरायए दुविहे पं. तं. पमिवाश्य अप्पा भिवाश्य अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे सुविहे पं.तं. जनमत्थेय केवलीय सेत्तं चरित्त गुणप्पमाणे सेत्तं जीव गुणप्पमाणे सेत्तं गुणप्पमाणे ॥ भाषार्थः-(प्रश्नः ) सामायिक चारित्र गुणप्रमाण कितने भकारसे वर्णन किया गया है ? ( उत्तरः) द्वि प्रकारसे, जैसे कि इत्वर् काल १ यावज्जीवपर्यन्त २ । ( प्रश्नः) छेदोपस्थापनी चारित्रके कितने भेद है ? ( उत्तरः ) द्वि भेद है, जैसेकि सातिचार १ निरतिचार २ । ( प्रश्नः ) परिहार विशुद्धि चारित्र भी कितने वर्णन किया गया है ? (उत्तरः ) इसके भी द्वि भेद है जैसेकि प्रवेशरूप १ निवृत्तिरूप २ ॥ (प्रश्नः ) सूक्ष्म संपराय चारित्रके कितने भेद हैं ? ( उत्तरः ) दो भेद हैं, जैसेकि प्रतिपाति १ अप्रतिपाति २। (मश्नः ) यथाख्यात चारित्र भी कितने प्रकार वर्णन किया गया है ? Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) (उत्तरः) दो प्रकारसे कथन किया गया है, जैसेकि छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र १ केवली यथाख्यात चारित्र २॥ सो यह चारित्र गुणप्रमाण पूर्ण होता हुआ जीव गुणप्रमाण भी पूर्ण हो गया, इसका ही नाम गुणप्रमाण है ॥ सो प्रमाणपूवर्क जो पदार्ण सिद्ध हो गये हैं वे नययुक्त भी होते हैं क्योंकि अर्हन् देवका सिद्धान्त अनेक नयात्मिक हैं ॥ ॥ अथ नय विवर्णः॥ अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः ॥ १॥ सद्रूपताऽनतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः ॥२॥ व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिनः ।। ३ ॥ तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याद् शुद्धपर्यायसंश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः ॥ ४॥ विरोधिलिङ्गसंख्यादि भेदा भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥५॥ तथाविधस्य तस्याऽपि वस्तुनः क्षणवर्तिनः । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ६ ॥ एकस्याऽपि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते ॥ ७ ॥ तथा हि नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिक-वैशेषिको । संग्रहाभिपायप्रवृत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादाः । सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति मायश्चार्वाकदर्शनम्। ऋजुसूत्राऽऽकूतप्रवृत्तबुद्धयस्तथागताः। शब्दादिनयावलम्बिनौ चैयाकरणादयः॥ प्रश्नः-अईन् देवने नय कितने प्रकारसे वर्णन किये है, क्योंकि नय उसका नाम है जो वस्तुके स्वरूपको भली प्रकारसे प्राप्त करे ? अर्थात् पदार्थों के स्वरूपको पूर्ण प्रकारसे प्रगट करे। उत्तरः-अईन देवने सप्त प्रकारसे नय वर्णन किये हैं । प्रश्नः-वे कौन २ से हैं ? उत्तरः-सुनिये ॥ नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ ६ एवंभूत ७ ॥ इनके स्वरूपको भी देखिये। नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकाल भेदात् । अतीवे वर्तमानारोपणं यत्र सभूत नैगमो यथा-अद्य दीपोत्सवदिने श्री वर्द्धमा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) नस्वामी मोक्षं गतः । भाविनिभूतवत्कथनं यत्र स भावि नैगमो यथा अर्हन् सिद्ध एव कर्तुमारब्धमीपन्निष्पन्नमनिष्पन्नं वा. वस्तुनिष्पन्नवत् कथ्यते यत्र स वर्तमाननगमो यथा ओदन पच्यते ।। इति नैगमस्त्रेधा ॥ ____ भाषार्थः-नैगम नय तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है, जैसेकि भूतनैगम ? भाविनैगम २ वर्तमाननगम ३। अतीत कालकी वार्ताको वर्तमान कालमें स्थापन करके कथन करना जैसेकि आज दीपमालाकी रात्रीको श्री भगवान् वर्द्धमानस्वामी मोक्षगत हुए हैं इसका नाम भूत नैगमनय है। अपितु भावि नैगम इस प्रकारसे है जैसेकि अर्हन् सिद्ध ही है क्योंकि वे निश्चय ही सिद्ध होंगे सो यह भावि नैगम है। और वर्तमान नैगम यह है कि जो वस्तु निष्पन्न हुई है वा नहीं हुई उसको वर्तमान नैगमऽपेक्षा इस प्रकारसे कहना जैसेकि तंडुल पक्कते है अर्थात् (ओदन: पच्यते ) चावल पक्क रहे हैं, सो इसीका नाम वर्तमान नैगम नय हैं। ॥ अथ संग्रह नय वर्णन ॥ संग्रहोपि द्विविधः सामान्यसंग्रहो यथा सर्वाणि द्रव्याणि परस्परमविराधीनि । विशेषसंग्रहो यथा-सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः इति सङ्ग्रहोऽपि द्विधा ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१ ) __ भाषार्थ:--संग्रह नय भी द्वि प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसे कि-सामान्य संग्रह विशेष संग्रह; अपितु सामान्य संग्रह इस प्रकारसे है, जैसेकि सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी भावमें हैं अर्थात् सर्व द्रव्योंका परस्पर विरोध भाव नहीं हैं, अपितु विशेष संग्रहमें, यह विशेष है कि जैसेकि जीव द्रव्य परस्पर अविरोधी भावमें है क्योंकि जीव द्रव्यमें उपयोग लक्षण वा चेतन शक्ति एक सामान्य ही है सो सामान्य द्रव्योंमेंसे एक विशेष द्रव्यका वर्णन करना उसीका ही नाम संग्रह नय है ॥ ॥ अथ व्यवहार नय वर्णन ॥ व्यवहारोऽपि द्विधा सामान्यसङ्ग्रहभेदको व्यवहारो यथा द्रव्याण जीवाजीवाः । विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च इति व्यवहारोऽपि द्विधा ॥ भाषार्थः--व्यवहार नय भी द्वि प्रकारसे ही कथन किया गया है जैसेकि सामान्य संग्रहरूप व्यवहार नय जैसेकि द्रव्य भी द्वि प्रकारका है यथा जीव द्रव्य अजीव द्रव्य || अपितु विशेष संग्रहरूप व्यवहार इस प्रकारसे है जैसेकि जीव संसारी १ और मोक्ष २ क्योंकि संसारी आत्मा काँसे युक्त हैं और मोक्ष आत्मा काँसे रहित हैं, इस लिये ही के Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) नाम अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परंपरागत, मुक्त इत्यादि है । जीव द्रव्यकें द्वि भेद यह व्यवहार नयके मत से ही है इसी प्रकार अन्य द्रव्योंके भी भेद जान लेने || ॥ अथ ऋजुसत्र नय ॥ ऋजुसूत्रोऽपि द्विधा सूक्ष्मर्जु सूत्रो यथा- एक समयास्थायी पर्यायः । स्थूलर्जु सूत्रो यथा मनुष्यादि पर्यायास्तदायुः प्रमाण काळं तिष्ठति इति ऋजुसूत्रोऽपि द्विधा ॥ भाषार्थः :- ऋजु सूत्र नय भी द्वि भेदसे कहा गया है यथा जो समय २ पदार्थोंका नूतन पर्याय होता है और पूर्व पर्याय व्यवच्छेद हो जाता है उसीका ही नाम सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय हैं अपितु जो एक पर्याय आयु पर्य्यन्त रहता हैं उस पर्यायकी संज्ञाको लेकर शब्द ग्रहण करे जाते हैं उसका नाम स्थूल ऋजुसूत्र नय है जैसे कि - नर भव १ देव भव २ नारकी भव ३ तिर्यग् भव ४ | यह भव यथा आयुप्रमाण रहते हैं इसी वास्ते मनुष्य १ देव २ तियग् ३ नारकी ४ यह शब्द व्यवहृत करमें आते हैं | ॥ अथ शब्द समभिरूढ एवंभूत नय विवर्णः ॥ शब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः प्रत्येकमकैका नयाः शब्दनयो यथा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) दारा भायाँ कलत्रं जलं आपः । समभिरूढ नयो यथा गौः पशु: एवंभूतनयो यथा इंदतीति इन्द्रः ॥ इति नयभेदाः ॥ भापार्थ--शब्द, समाभिरूढ, एवंभूत, यह तीन ही नय शुद्ध पदार्थोंका ही स्वीकार करते हैं यथा शब्द नयके मतमें एकार्थी हो वा अनेकार्थी हो, शब्द शुद्ध होने चाहिये, जैसेकि- दारा, भार्या, कलत्र, अथवा जल, आप, यह सर्व शब्द एकार्थी पंचम नयके मतसे सिद्ध होते हैं अर्थात् शुद्ध शब्दोंका उच्चारण करना इस नयका मुख्य कर्तव्य है। ___ और समभिरूढ नय विशेष शुद्ध वस्तुपर ही स्थित है जैसोक गौ अथवा पशु । जो पदार्थ जिस गुणवाला है उसको वैसे ही मानना यह समभिरूढ नयका मत है तथा जिस पदार्थमें जिस वस्तुकी सत्ता है उसके गुण कार्य ठीक २ मानने वे ही समभिरूढ है । और एवंभूत नयके मतमें जो पदार्थ शुद्ध गुण कर्म स्वभावको प्राप्त हो गये हैं उसको उसी प्रकारसे मानना उसीका ही नाम एवंभूत नय है जैसेकि--इन्दतीति इन्द्रः अर्थात् ऐश्वर्य करके जो युक्त है वही इन्द्र है, यही एवंभूत नय है । ॥ अथ सप्त नयोंका मुख्योदेश ॥ नैकं गलतीति निगमः निगमो विकल्पस्तत्र भवो Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) नैगमः अनेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रहः । संग्रहेण गृहीतार्थस्य नेदरूपतया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहारः । ऋजुप्रांजलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । शब्दात् व्याकरणात् प्रकृति प्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः शब्दनयः । परस्परेयादि रूढाः समनिरूढाः । शब्दभेदेऽप्यर्थभेदो नास्ति यथा शक्र इन्द्रः पुरन्दर इत्यादयः समनिरूढाः । एवं क्रियाप्रधानत्वेन भूयत इत्येवंभूतः ॥ इति नयाः ॥ भाषार्थ:-नैगम नयका एक प्रकार गमण नहीं है अपितु तीन प्रकारका विकल्प पूर्वे कहा गया है वे ही नैगम नय है १ । जो पदार्थों को अभेदरूपसे ग्रहण किया जाता है वही संग्रह नय है २ । जो अभेद रूपमें पदार्थों हैं उनको फिर भेदरूप से वर्णन करना जैसे कि गृहस्थ धर्म १ मुनिधर्म २ उसका ही नाम व्यवहार नय है ३ | जो समय २ पर्याय परिवर्तन होता है उस पर्यायको ही मुख्य रख पदार्थों का वर्णन करना उसका ही नाम ३। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) ऋजु सूत्र है क्योंकि यह नय सांपति कालको ही मानता है ४॥ ___ शब्द नयसे शब्दोंकी व्याकरण द्वारा शुद्धि की जाती है जैसेकि प्रकृति, प्रत्यय, यथा धर्म शब्द प्रकृतिरूप है इसको स्वौजश अमौर शस् इत्यादि प्रत्ययों द्वारा सिद्ध करना तथा भू सत्तायां वर्त्तते इस धातुके रूप दश लकारोंसे वर्णन करने यह सर्व शब्द नयसे बनते हैं ५ । जो पदार्थ स्वगुणोंमें आरूढ है वही समभिरूढ नय हैं तथा शब्दभेद हो अपितु अर्थभेद न हों जैसेकि शक इन्द्रः पुरंदर मघवन् इत्यादि । यह सर्व शब्द समभिरूढ नयके मतसे बनते हैं ६ । क्रिया प्रधान करके जो द्रव्य अभेद रूप हैं उनका उसी प्रकारसे वर्णन करना वही एवंभूत नय हैं ७॥ सो सम्यग्दृष्टि जीवोंको सप्त नय ही ग्राह्य है किन्तु मुख्यतया करके दोइ नय हैं ॥ यथा पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ छौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयो अन्नेदविषयो व्यवहारत्नेदविषयः॥ भाषार्थ:-अपितु अध्यात्म भाषा करके नय दो ही हैं जैसे कि निश्चय नय १ व्यवहार,नय २। सो निश्चय अभेद विषय है, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) व्यवहार भेद विषय है, किन्तु फिर भी निश्चय नय द्वि प्रकारसे है जैसेकि शुद्ध निश्चय नय १ अशुद्ध निश्चय नय २। सो शुद्ध निश्चय नय निरुपाधि गुण करके अभेद विषय विषयक है जैसेकि केवल ज्ञान करके युक्त जीवको जीव मानना यह शुद्ध निश्चय एवंभूत नय है १ । सोपाधिक विषय अशुद्ध निश्चय जैसे मतिज्ञानादि करके युक्त है जीव २ ॥ इसी प्रकार व्यवहार नय भी द्वि प्रकारसे प्रतिपादित है जैसेकि-एक वस्तु विषय सद्भूत व्यवहार, भिन्न वस्तु विषय असद्भूत व्यवहार किन्तु स भूत व्यवहार भी द्वि विधसे ही कहा गया है जैसेकि-उपचरित १। अनुपचरित २। फिर सोपाधि गुण गुणिका भेद विषय उपचरित सद्भूत व्यवहार इस प्रकारसे है जैसेकि जीवका मतिज्ञानादि गुण है ॥ अपितु निरुपाधि गुणगुणिका भेद विषय अनुपचरित सद्भूत व्यवहारका यह लक्षण है कि-जीव के चल ज्ञानयुक्त है क्योंकि निज गण जीवकी पूर्ण निर्मलता ही है तथा असद्भूत व्यवहार भी द्वि प्रकारसे ही वर्णन किया गया है जैसेकि उपचरित, अनुपचरित । फिर संश्लेषरहित व. स्तु विषय उपचरित असद्भूत व्यवहार जैसेकि देवदत्तका है, और संश्लेषरहित वस्तु संबन्ध विषय अनुपचरित - Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) असद्भूत व्यवहार जैसे कि जीवका शरीर है यह अनुपचरित __ असद्भूत व्यवहार नय है सो यह नय सर्व पदार्थों में संघट्टित है इनके ही द्वारा वस्तुओंका यथार्थ बोध हो सक्ता है क्योंकि यह नय प्रमाण पदार्थोके सद्भावको प्रगट कर देता है। ॥अथ सप्त नय दृष्टान्त वर्णनः॥ अव सात ही नयोंको दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध करते हैं, जैसेकि किसीने प्रश्न किया कि सात नयके मतसे जीव किस प्रकारसे सिद्ध होता है तो उसका उत्तर यह है कि सप्त नय जीव द्रव्यको निम्न प्रकारसे मानते हैं, जैसेकि-नैगम नयके मतमें गुणपर्याय युक्त जीव माना है और शरीरमें जो धर्मादि द्रव्य है वे भी जीव संज्ञक ही है १ ॥ संग्रह नयके मतमें असंख्यात प्रदेशरूप जीव द्रव्य माना गया है जिसमें आकाश द्रव्यको वर्जके शेष द्रव्य जीव रूपमें ही माने गये हैं २ ॥ व्यवहार नयके मतसे जिसमें अभिलापा तृष्णा वासना है उसका ही नाम जीव है, इस नयने लेशा योग इन्द्रियें धर्म इत्यादि जो जीवसे भिन्न है इनको भी जीव माना है क्योंकि जीवके सहचारि होनेसे ३ ॥ और ऋजु सूत्र नयके मतमें उपयोगयुक्त जीव माना गया है, इसने लेशा योगादिको दूर कर दिया है Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) किन्तु उपयोग शुद्ध (ज्ञानरूप) अशुद्ध ( अज्ञान ) दोनोंको ही जीव मान लिया है क्योंकि मिथ्यात्व मोहनी कर्म पूर्वक जीव सिद्ध कर दिया है ४॥ और शब्द नयके मतमें जो तीन कालमें शुद्ध उपयोग पूर्वक है वही जीव है अपितु सम्यक्त्व मोहनी कर्मकी वर्गना इस नयने ग्रहण कर ली शुद्ध उपयोग अर्थे ५ ।। समभिरूढ नयके मतमें जिसकी शुद्धरूप सत्ता है और स्वगुणमें ही मग्न है क्षायक सम्यक्त्व पूर्वक जिसने आत्माको जान लिया है उसका नाम जीव है, इस नयके मतमें कर्म संयुक्त ही जीव है ६॥ एवंभूत नयके मतमें शुद्ध आत्मा केवल ज्ञान केवल दर्शन संयुक्त सर्वथा कर्मरहित अजर अमर सिद्ध बुद्ध पारगत इत्यादि नाम युक्त सिद्ध आत्माको ही जीव माना है ७ ।। इस प्रकार सप्त नय जीवको मानते हैं ॥ द्वितीय दृष्टान्तसे सप्त नयोंका माना हुआ धर्म शब्द सिद्ध करते हैं ।। नैगम नय एक अंश मात्र वस्तुके स्वरूपको देखकर सर्व वस्तुको ही स्वीकार करता है जैसेकि नैगम नय सर्व मतोंके धर्मोको ठीक मानता है क्योंकि नैगम नयका मत है कि सर्व धर्म मुक्तिके साधन वास्ते ही है अपितु संग्रह नय जो पूर्वज पुरुषोंकी रूढि चली आती हैं उसको ही मैं कहता है क्योंकि उसका मन्तव्य है कि पूर्व पुरुष हमारे Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) अज्ञात नही थे इस लिये उन ही की परम्पराय उपर चलना हमारा धर्म है । इस नयके मतमें कुलाचारको ही धर्म माना गया है २ || व्यवहार नयके मतमें धर्मसे ही सुख उपलब्ध होते हैं और धर्म ही सुख करनेदारा है इस प्रकार से धर्म माना है क्योंकि व्यवहारनय बाहिर सुख पुन्यरूप करणीको धर्म मानता है - ३ | और ऋजुसूत्र नय वैराग्यरूप भावको ही धर्म कहता है सो यह भाव मिथ्यात्वीको भी हो सक्ते हैं अभव्यवत् ४ ॥ अपितु शब्द नय शुद्ध धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही मानता है क्योंकि सम्यक्त्व हो धर्मका मूल है सो यह चतुर्थ गुणस्थानवत्र्त्ती जीवों को धर्मी कहता है ५ ॥ समभिरूढ नयके मतमें जो आत्मा सभ्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र युक्त उपादेय वस्तुओं ग्रहण और हेय ( त्यागने योग्य पदार्थों का परिहार, ज्ञेय ( जानने योग्य ) पदार्थोंको भली प्रकार से जानता है, परगुणसे सदैव काल ही भिन्न रहनेवाला ऐसा आत्मा जो मुक्तिका साधक है उसको ही धर्मी कहता ६ || और एवंभूत नयके मतमें जो शुद्ध आत्मा कर्मोंसे रहित शुक्ल ध्यानपूर्वक जहां पर घातियें कर्मोंसे रहित आत्मा ऐसे जानना जोकि अघातियें कर्म नष्ट हो रहे हैं उसका ही नाम धर्म है ७ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सप्त नयों द्वारा सिद्ध शब्दका वर्णन ॥ नैगम नयके मतमें जो आत्मा भव्य है वे सर्व ही सिद्ध है क्योंकि उनमें सिद्ध होनेकी सत्ता है १ ॥ संग्रह नयके मतमें सिद्ध संसारी जीवों में कुछ भी भेद नही हैं, केवल सिद्ध आत्मा कर्मोंसे रहित हैं, संसारी आत्मा कर्मोंसे युक्त हैं २ ॥ व्यवहार नयके मतमें जो विद्या सिद्ध हैं वा लब्धियुक्त हैं और लब्धि द्वारा अनेक कार्य सिद्ध करते हैं वे ही सिद्ध हैं ३ ।। ऋजु सूत्र नय जिसो सम्यक्त्व प्राप्त हैं ओर अपनी आत्मा के स्वरूपको समयक् प्रकार से देखता है उसका ही नाम सिद्ध है ४ || शब्द नयके मतमें जो शुक्ल ध्यानमें आरूढ़ है ओर कष्टको सम्यक् प्रकारसे सहन करना गजसुखमालवत् उसका ही नाम सिद्ध है ५ ॥ समभिरूढ़ नयके मतमें जो केवल ज्ञान केवल दर्शन संपन्न १३ वें वा १४ वें गुणस्थानवर्ती जीव है उनका ही नाम सिद्ध है ६ ॥ एवंभूत नयके मतमें जिसने सर्व कर्मों को दूर कर दिया है केवल ज्ञान केवल दर्शन संयुक्त लोकाग्रमें विराजमान है ऐसे सिद्ध आत्माको ही सिद्ध माना गया हैं क्योंकि सकल कार्य उसी आत्मा सिद्ध हैं ७ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) अथ वस्तीके दृष्टान्त द्वारा सप्त नयोंका वर्णन ॥ फिर यह सप्त नय सर्व पदार्थों पर संघटित हैं जैसेकि किसी पुरुषने अमुक व्यक्तिको प्रश्न किया कि आप कहां पर वसते हैं ? तो उसने प्रत्युत्तरमें निवेदन किया कि मैं लोगों वसता हूं। __ यह अशुद्ध नैगम नयका वचन है। इसी प्रकार प्रश्नोत्तर नीचे पढियें ॥ पुरुषः-मिय महोदयवर ! लोक तो तीन हैं जैसेकि स्वर्ग मृत्य पाताल; आप कहां पर रहते है ? क्यों तीनों लोकोंमें ही वसते हैं ? व्यक्तिः-नहीजी, मैं तो मनुष्य लोगमें वसता हूं ( यह शुद्ध नैगम नय है)॥ ____पुरुषः-मनुष्य लोगमें असंख्यात द्वीप समुद्र है, आप कौनसे द्वीपमें वसते हैं ? व्याक्तः-बूद्वीप नामक द्वीपमें वसता हूं ( यह विशुद्धतर नैगम नय है)। पुरुषः-महाशयजी ! जंबूद्वीपमें तो महाविदेह आदि अनेक क्षेत्र हैं, आप कौनसे क्षेत्रमें निवास करते हैं ? व्यक्तिः-मैं भरतक्षेत्रमें वसता हूं ( यह अति शुद्ध नैगम नय है)। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८२ ) पुरुषः-प्रियवर ! भरतक्षेत्रमें पट् खंड हैं, आप कौनसे खंडमें निवास करते हैं ? व्यक्तिः-मैं मध्य खंडमें वसता हूं ( यह विशुद्ध नैगम नय पुरुषः-मध्य खंडमें अनेक देश हैं, आप कौनसे देश में ठहरते हैं ? . व्यक्तिः-मैं मागध देशमें वसता हूं ( यह अतिविशुद्ध नैगम नय है)॥ पुरुषः-मागध देशमें अनेक ग्राम नगर हैं, आप कौनसे ग्राम वा नगरमें वसते हैं ? __व्यक्तिः-मैं पाटलिपुत्रमें वसता हूं ( यह अतिविशुद्धतर नैगम नय है)। पुरुषः-महाशयजी ! पाटलिपुत्रमें अनेक रथ्या हैं (मुहल्ले ) तो आप कौनसी प्रतोलीम वसते हैं ? ____ व्यक्ति:-मैं अमुक प्रतोलीमें वसता हूं ( यह वहुलतर -विशुद्ध नैगम नय है ) ॥ पुरुषः-एक प्रतोलीमें अनेक घर होते हैं, तो आप कौनसे घरमें वसते हैं ( एक मुहल्ले में ) ? व्यक्तिः-मैं मध्य घर ( गर्भ घर ) में वसता हूं ? ( यह Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) विशुद्ध नय है ) || यह सर्व उत्तरोत्तर शुद्धरूप नैगम नयके ही वचन हैं | पुरुषः- मध्य घर में तो महान् स्थान है, आप कौनसे स्थानमें वसते हैं ? व्यक्तिः- मैं स्वः शय्यामें वसता हूं ( यह संग्रह नय है ) विछावने प्रमाण || पुरुषः- शय्या में भी महान् स्थान है, आप कहांपर रहते हैं ? व्यक्तिः - असंख्यात प्रदेश अवगाह रूपमें वसता हूं यह व्यवहार नय है ) | पुरुष :- असंख्यात प्रदेश अवगाह रूपमें धर्म अधर्म आकाश पुद्गल इनके भी महान् प्रदेश हैं, आप क्या सर्वमें ही वसते हैं ? व्यक्ति:- नहीजी, मैं तो चेतनगुण ( स्वभाव ) में वसता हूँ | यह ऋजुसूत्र नयका वचन है | पुरुषः- चेतन गुणकी पर्याय अनंती है जैसो के ज्ञान चेतना अज्ञान चेतना, आप कौनसे पर्याय में वसते हैं ? व्यक्तिः - मैं तो ज्ञान चेतना में वसता हूं ( यह शब्द नय है ) ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पुरुषः- ज्ञान चेतनाकी भी अनंत पर्याय हैं, आप कहाँ पर वसते हैं ? व्यक्ति:- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक ऐसी निर्मल ज्ञान स्वरूप पर्यायमें वसता हूं ( यह समभिरूढ नय है ) || पुरुषः- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक पर्याय में वर्धमान भावापेक्षा अनेक स्थान हैं, तो आप कहां पर वसते हैं ? व्यक्ति:- अनंत ज्ञान अनंत दर्शन शुद्ध स्वरूप निजरूपमें वसता हूं || यह एवंभूत नयका वचन है || इस प्रकार यह सात ही नय वस्ती पर श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें वर्णन किए गये हैं और श्री आवश्यक सूत्रमें सामायिक शब्दोपरि सप्त नय निम्न प्रकार से लिखे हैं, जैसे किनैगम नयके मत में सामायिक करनेके जब परिणाम हुए तवी. ही सामायिक हो गई || अपितु संग्रह नयके मत में सामायिकका उपकरण लेकर स्थान प्रतिलेखन जब किया गया तब ही सामायिक हुई || और व्यवहार नयके मत में सावध योगका जब परित्याग किया तब ही सामायिक हूई ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) और ऋजु नयके मतमें जब मन वचन कायाके योग शुभ वर्तने लगे तब ही सामायिक हूई ऐसे माना जाता है ॥ शब्द नयके मतमें जब जीवको वा अजीवको सम्यक् प्रकारसे जान लिया फिर अजीवसे ममत्व भावको दूर कर दीया तव सामायिक होती है ॥ एवंभूत नयके मतमें शुद्ध आत्माका नाम ही सामायिक है ।। यदुक्तं आया सामाइय आया सामाश्यस्स अठे। इति वचनात् अर्थात्, आत्मा सामायिक है और आत्मा ही सामायिकका अर्थ है, सो एवंभूत नयके मतसे शुद्ध आत्मा शुद्ध उपयोगयुक्त सामायिकवाला होता है । सो इसी प्रकार जो पदार्थ हैं वे सप्त नयोंद्वारा भिन्न २ प्रकारसे सिद्ध होते हैं और उनको उसी प्रकार माना जाये तब आत्मा सम्यक्त्वयुक्त हो , सक्ता है, क्योंक एकान्त नयके माननेसे मिथ्या ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है अपितु अनेकान्त मतका और एकान्त मतका ही. और भी का ही विशेष है, जैसेकि-एकान्त नयवाले जब किहो सी पदार्थोंका वर्णन करते हैं तब-'ही'-का ही प्रयोग करते च है जैसेकि, यह पदार्थ ऐसे ही है । किन्तु अनेकान्त मत जब ॥ किसी पदार्थका वर्णन करता है तब 'भी' का ही प्रयोग Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६) करता है जैसे कि - यह पदार्थ ऐसे 'भी' है । सो यह कथन अविसंवादित है अर्थात् इसमें किसीको भी विवाद नहीं है जैसेकि - जीव सान्त भी है - अनंत भी है | यदुक्तमागमे जेवियते खंदया जाव सते जीवे अते जीवे तस्सवियां अयमहे एवं खलु जाव दवओणं एगे जीवे सांते १ खेत्तनृणं जीवे असंक्खेऊ पयसिए असंक्खेऊ पयसो गाढे अस्थि पुसे ते २ कालणं जीवेण क्यानासि निचे त्थि पुसे ते ३ जावजीवे तायाण पड़वा अत्ता दंसण पजावा अांत चरित पड़वा अता गुरुय लहुय पड़वा अत्ता अगुरुय लहुय पज्जवा पत्थि पुसे ते ४ सेत्तं दद्द जीवे सांते खेत जीवे सांते कालर्ड जीवे वर्ड जीवे उद्देश १ ॥ ते नाशतक २ ते ॥ भगवती सूत्र Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) __ भापार्थः-श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामी स्कंधक संन्यासीको जीवका निम्न प्रकारसे स्वरूप वर्णन करते हैं कि हे स्कंधक ! द्रव्यसे एक जीव सान्त है १ । क्षेत्रसे असंख्यात प्रदेशरूप जीव असंख्यात प्रदशों पर ही अवगहण हुआ आकाशापेक्षा सान्त है २ । कालसे अनादि अनंत है क्योंकि उत्पत्तिसे रहित है इस लिये कालापेक्षा जीव नित्य है ३ । भावसे जीव नित्य अनंत ज्ञान पर्याय, अनंत दर्शन पर्याय, अनंत चारित्र पर्याय, अनंत गुरु लघु पर्याय, अनंत अगुरु लघु पर्याय युक्त अनंत है ४ । सो हे स्कंधक! द्रव्यसे जीव सान्त, क्षेत्रसे भी सान्त, अपितु काल भावसे जीव अनंत है, तथा द्रव्यार्थिक नयापेक्षा जीव अनादि अनंत है, पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, जैसेकि-जीव द्रव्य अनादि अनंत है पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि मान्त है क्योंकि कभी नरक योनिमें जीव चला जाता है, कभी तिर्यग् योनिमें, कभी मनुष्य योनिमें, कभी देव योनिमें । जब पूर्व पर्याय व्यवच्छेद होता है तव नूतन पर्याय उत्पन्न हो जाता है । इसी अपेक्षासे जीव सादि सान्त है तथा जीव चतुर्भगके भी युक्त है, यथा जीव द्रव्य स्वगुणापेक्षा वा द्रव्या Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) र्थिक नयापेक्षा अनादि अनंत है | और भव्यजीव कर्मापेक्षा अनादि सान्त है क्योंकि कर्मोकी आदि नहीं किस समय जीव कर्मों से बद्ध हुआ, इस लिये कर्म भव्य अपेक्षा अनादि सान्त है २ । और जो आत्मा मुक्त हुआ वे सादि अनंत है, क्योंकि वे संसारचक्रसे ही मुक्त हो गया है और अपुनरावृत्ति करके युक्त है जैसे दग्धवीज अंकूर देनेमें समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार वे मुक्त आत्माओं के भी कमरूपि वीज दग्ध हो गये हैं | और प्रवाह अपेक्षा कर्म अनादि, पयार्यापेक्षा कर्म सादि सान्त है, जैसे कि पूर्व किये हुए भोगे गये अर्पितु नूतन और किये गये सो करने के समय से भोगने के समय पर्य्यन्त सादि सान्त भंग वन जाता है, परंतु प्रवाहसे कर्म अनादि ही चले आते हैं, जैसेकि घट उत्पत्तिमें सादि सान्त है, मृत्तिका रूपमें अनादि है क्योंकि पृथ्वी अनादि है । इसी प्रकार सर्व पदार्थों के स्वरूपको भी जानना चाहिये, वे पदार्थ द्रव्यसे अनादि अनंत है पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त भी है सादि अनंत भी है अथवा सर्व पदार्थों के जानने के वास्ते सप्त भंग १ मुक्त आत्मा एक जीव अपेक्षा सादि अनंत है और बहुत जीर्वोकी अपेक्षा अनादि अनंत है, क्योंकि मुक्ति भी अनादि है | Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ भी लिखे हैं जिनको लोग जैनोंका सप्तभंगी न्याय कहते हैं, जैसेकि,-- १ स्यादस्त्येव घट:-कथंचित् घट है स्वगुणोंकी अपेक्षा घट अस्तिरूप है। २ स्यानास्त्येव घट:-कथंचित घट नहीं है। ३ स्यादस्ति नास्ति च घट:-कथंचित् घट है और कथंचित् __ घट नहीं है। ४ स्यादवक्तव्य एव घट:-कथंचित् घट अवक्तव्य है । ५ स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटः-कथंचित् घट है और अ___ वक्तव्य है। ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घट:-कथंचित् नहीं है तथा अवक्तव्य घट है। ७ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घटः-कंथचित् है नहीं है ___ इस रूपसे अवक्तव्य घट है । मित्रवरो! यह सप्त भंग हैं । यह घटपटादि पदार्थों में पक्ष प्रतिपक्ष रूपसे सप्त ही सिद्ध होते हैं जैसेकि घट द्रव्य स्वगुण युक्त अस्तिरूपमें है । प्रत्येक द्रव्यमें स्वगुण चार चार होते हैं द्रव्यत्व क्षेत्रत्व कालत्व भावत्व । घटका द्रव्य मृत्तिका है, क्षेत्र जैसे ATU Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) पाटलिपुत्रका बना हुआ, कालसे वसंत ऋतुका, भावसे नील घट है, सो यह स्वगुणमें अस्तिरूपमें है । वे ही घट परद्रव्य (पटादि ) अपेक्षा नास्तिरूप है क्योंकि पटका द्रव्य तंतु हैं, क्षेत्रसे वे कुशपुरका बना हुआ है, कालसे हेमेंत ऋतु में बना हुआ, भाव से श्वेत वर्ण है, सो पटके गुण घटमें न होने से घट पटापेक्षा नास्तिरूप है । तृतीय भंग वे ही घट एक समय में दोनों गुणों करके युक्त है, स्वगुणमें अस्तिभावमें है, और परगुणकी अपेक्षा नास्ति रूपमें है, जैसे कोई पुरुष जिस समय उदात्त स्वर से उच्चारण करता है उस समय मौन भावमें नही है, अपितु जिस समय मौन भावमें है उसी समय उदात्त स्वरयुक्त नही है, सो प्रत्येक २ पदार्थ में अस्ति नास्तिरूप तृतीय भंग है । जबके एक समयम दोनों गुण घटमें हैं तब घर अवक्तव्य रूप हो गया क्योंकि वचन योगके उच्चारण करनेमें असंख्यात समय व्यतीत होते हैं और वह गुण एक समय में प्रतिपादन किये गये है इस लिये घट अवक्तव्य है, अर्थात् वचन मात्र से कहा नहीं जाता । यदि एक गुण कथन करके फिर द्वितीय गुण कथन करेंगे तो जिस समय हम अस्ति भावका वर्णन करेंगे वही समय उसी घटमें नास्ति भावका है, तो हमने विद्यमान भावको अविद्यमान सिद्ध दिया जैसे जिस समय कोई पुरुष खड़ा है ऐसे हमने उच्चारण Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) किया तो वही समय उस पुरुषकी वैठनेकी क्रियाके निपेधका भी है इस लिये यह अवक्तव्य धर्म है । इसी प्रकार अस्ति अवक्तव्य रूप पंचम भंग भी घटमें सिद्ध है क्योंकि वे घट पर गुणकी अपेक्षा नास्तिरूप भी है इस लिये एक समयमें अस्ति अवक्तव्य धर्मवाला है । इसी प्रकार स्यात् नास्ति अवक्तव्यरूप पष्टम भंग भी एक समयकी अपेक्षा सिद्ध है । और स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्य रूप सप्तम भंग भी एक समयमें सिद्धरूप है किन्तु वचनगोचर नही है क्योंकि एक समयमें अस्ति नास्ति रूप दोनों भाव विद्यमान हैं परंतु वचनसे अगोचर है अर्थात् कथन मात्र नहीं है ।। इसी प्रकार सर्व द्रव्य अनेकान्त मतमें माने गये हैं और नित्यअनित्य भी भंग इसी प्रकार वन जाते है । यथा-१ स्यात् नित्य २ स्यात् अनित्य ३ स्यात् नित्यमनित्यम् ४ स्यात् अवक्तव्य ५ स्यात् नित्य अवक्तव्यम् ६ स्यात् अनित्य अवक्तव्यम् ७ स्यात् नित्यमनित्य युगपत् अवक्तव्यम् इत्यादि ।। इन पदार्थों का पूर्ण स्वरूप जैन सूत्र वा जैन न्यायग्रंथोंसे देख लेवें । और संसारको भी जैन सूत्रों में सान्त और अनंत निम्न प्रकारसे लिखा है । यदुक्तमागमे एवं खलु मए खंधया चनविहे लोए पं. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) तंजहा दवयो खेत्तयो कालो जावयो दवओणं एगे लोय सत्ते खेत्तओणं लोए अ. संखेज्जा ओजोयण कोमाकोमीओ आयामविक्खं नेणं असंखेज्जा ओजोयण कोमाकोमीओ परिखेवेणं पं, अस्थि पुणसे अंत्ते कालोणं लोयण कयायिनासि न कदायि न भवति न कदायि न भविस्सति जुविसुय नवतिय नविस्सति धुवेणित्तियसासए अक्खए अबए अवठिए णिच्चे णत्थि पुणसे अंते नावओणं लोय अणंत्ता वएण पज्जवा गंध पजवा रस फास अणंता पज्जवा संगण पज्जवा अणंता गुरु लहुय पजवा अणंता अगुरु लहुय पज्जवा णत्थि पुणसे अंत्ते सेतं खंधगा दवतो लोगे सअंत १ खेततो लोय सअंते २ कालो लोय अणंते ३ नावओ लोय अणंते ४ ॥ भगवती सू० श० २ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) भाषार्थः - श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामी स्कंधक संन्यासीको लोगका स्वरूप निम्न प्रकारसे प्रतिपादन करते हैं कि हे स्कंधक ! द्रव्यसे लोक एक है इस लिये सान्त है १ । क्षेत्रसे लोक असंख्यात योजनों का दीर्घ वा विस्तीर्ण है और असं ख्यात योजनोंकी परिधिवाला है इस लीये क्षेत्र से भी लोक सान्त है २ । कालसे लोग अनादि है अर्थात् किसी समय में भी लोगका अभाव नहि था, अब नही है, नाही होगा अर्थात् उत्पत्ति रहित है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, किन्तु पंच भरत पंच ऐरवय क्षेत्रोंमें उत्सपिणि काल अवसर्पिणि काल दो प्रकारका समय परिवर्तन होता रहता है और एक एक कालमें पद् पद समय होते हैं जिसमें पट् वृद्धिरूप पट हानीरूप होते हैं अपितु पदाधौका अभाव किसी भी समयमें नहीं होता, किन्तु पिसी वस्तुकी वृद्धि किसीकी न्यूनता यह अवश्य ही दुआ करती है । इनका स्वरूप श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्तिसे जानना । अपितु काळसे लोग अनादि अनंत है क्योंकि जो लोग जीव प्रकृति ईश्वर यह तीनों को अनादि मानते हैं और आकाशादिकी उत्पत्ति वा प्रलय सिद्ध करते हैं तो भला आधार के विना पदार्थ कैसे ठहर सकते हैं । इस लिये लोग अनादि माननेमें कोई भी बाधा नही पड़ती Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) और भावसे लोकमें अनंत वर्गों की पर्याय अनंत ही गंध, रस, स्पर्शकी पर्यायें और अनंत ही संस्थानकी पर्याय, अनंत ही गुरु लघु पर्याय, अनंत ही अगुरु लधु पर्याय हैं इस वास्ते भावसे भी लोक अनंत हैं। सो द्रव्यसे लोक सान्त १ क्षेत्रसे भी सान्त २ काळसे लोक अनंत ३ भावसे भी लोक अनंत है ४ ॥ सो उक्त लोको अनंत आत्मायें स्थिति करते हैं और स्वः स्वः कर्मानुसार जन्म मरण मुख वा दुःख पा रहे हैं। अपितु लोक शब्द तीन प्रकारसे व्यवहृत होता है जैसेकि-उर्व लोक १ तिर्यग् लोग २ अधोलोक ३ ॥ सो उर्ध्व लोकमें २६ स्वर्ग हैं, उपरि इषत प्रभा पृथ्वी है और लोकाग्रमें सिद्ध भगवान् विरजमान है।। और तिर्यग् लोकमें असंख्यात द्वीप समुद्र है और पाताल लोकमें सप्त नरक स्थान है वा भवनपत्यादि देव भी है किन्तु मोक्षके साधनके लिये केवल मनुष्य जाति ही है क्योंकि जाति शब्द पंच प्रकारसे ग्रहण किया गया है जैसेकि इकेंद्रिय ज्ञाति जिसके एक ही इन्द्रिय हो जैसेकि पृथ्वीकाय १ आपकाय २ तेयुःकाय ३ वायुकाय ४ वनस्पतिकाय ५। इनके केवल एक स्पर्श ही इन्द्रिय होती है । और द्विइन्द्रिय जीव जैसेकि शीप शंखादि इनके केवल शरीर और जिहा यह दोई Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) इन्द्रियें होती हैं । और तेईन्द्रिय जाति कुंथु वा पिप्पलकादि इनके शरीर, मुख, घ्राण यह तीन इन्द्रिय होती हैं । और चतुरिन्द्रिय जातिके चार इन्द्रिय होती है जैसेकि-शरीर, मुख, घ्राण, चक्षु, मक्षिकादिये चतुरिंद्रिय जीव होते हैं। और पंचिन्द्रिय जातिके पांच ही इन्द्रिय होती है जैसेकि शरीर; मुख, घ्राण, । जीहा, चक्षु, श्रोत्र यह पांच ही इन्द्रिय नारकी, देव, मनुष्य, । तिर्यंचोंके होते हैं. जैसे जलचर, स्थलचर, खेचर अर्थात् जो । संज्ञि होते हैं वे सर्व जीव पंचिंद्रियें होते हैं। अपितु मुक्तिके लिये केवल मनुष्य जाति ही कार्यसाधक है और कर्मानुसार ही । मनुष्योंका वर्णभद माना जाता है, यदुक्तमागमेकम्मुणा बनणो होइ कम्मुणा होश् खत्तियो। वइस्सो कम्मुणा हो। सुदो हवश् कम्मुणा ॥ । कि उत्तराध्यायन सूत्र अ० २५ ॥ गाथा ३३ ॥ कवि भाषा:-ब्रह्मचर्यादि व्रतोंके धारण करनेसे ब्राह्मण होता। है, और प्रजाकी न्यायसे रक्षा करनेसे क्षत्रिय वर्णयुक्त हो जाता है, व्यापारादि क्रियाओं द्वारा वैश्य होता है, सेवादि क्रियाओंके करनेसे शूद्र हो जाता है, अपितु कर्मसे ब्राह्मण १ १. सनि जीव मनवालोंका नाम हैं तथा जो गर्मसे उत्पन्न हों। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) कर्म से क्षत्रिय २ कर्मसे वैश्य ३ कर्मसे शूद्र ४ जीव हो जाता है । किन्तु मनुष्य जाति एक ही है, क्रियाभेद होनेसे वर्णभेद हो जाते हैं || सर्व योनियोंमें मनुष्य भव परम श्रेष्ठ है जिसमें सत्यासत्यका भली भांतिसे ज्ञान हो सक्ता है और सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा मुक्तिका कार्य सिद्ध कर सक्ता है | किन्तु सम्यग् ज्ञान के पंच भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकि - मतिज्ञान १ श्रुत ज्ञान २ अवधि ज्ञान ३ मनःपर्यव ज्ञान ४ केवल ज्ञान ५, अपितु मति ज्ञानके चतुर भेद है जैसे किअवग्रह १ ईहा ३ अवाय ३ धारणा ४ || ( १ ) इन्द्रिय और अर्थकी योग्य क्षेत्रमें प्राप्ति होने पर उत्पन्न होनेवाले महा सत्ता विषयक दर्शनके अनन्तर अवान्तर सत्ता जातिसे युक्त वस्तुको ग्रहण करनेवाला ज्ञानविशेष अग्रवह कहलाता है || (२) अवग्रहके द्वारा जाने हुए पदार्थमें होनेवाले संशयको दूर करनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं, जैसेकि अवग्रहसे निश्चित पुरुष रूप अर्थमें इस प्रकार संशय होने पर कि " यह पुरुष दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य ( उत्तरमें रहनेवाला ) " इस संशय दूर करनेके लिये उत्पन्न होनेवाले ' यह दाक्षिणात्य होना चाहिये ' इस प्रकार के ज्ञानको ईहा कहते हैं ॥ (३) भाषा आदिकका विशेष ज्ञान होने पर उसके यथार्थ स्वरूपको । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) पूर्व ज्ञान ( ईहा ) की अपेक्षा विशेष रूपसे दृढ़ करनेवाले ज्ञानको अवाय कहते हैं जैसेकि " यह दाक्षिणात्य ही है " इस प्रकारका ज्ञान होना ॥ ( ४ ) उसी पदार्थका इस योग्यतासे (दृढ़ रूपसे ) ज्ञान होना कि जिससे कालान्तरमें भी उस विपयका विस्मरण न हो उसको धारणा कहते है। अर्थात् जिसके निमित्तसे उत्तर काळमें भी “वह" ऐसा स्मरण हो सके उसको धारणा कहते हैं ॥ और मतिज्ञानसे ही चार प्रकारकी बुद्धि उत्पन्न होती है, जैसेकि उत्पत्तिया १ विणइया २ कम्मिया ३ परिणामिया ४॥ उत्पत्तिया बुद्धि उसका नाम है जो वाती कभी सुनी न हो और नाही कभी उसका अनुभव भी किया हो, परंतु प्रश्नोत्तर करते समय वह वातों शीघ्र ही उत्पन्न हो जाये और अन्य पुरुपोंको उस वार्तामें शंकाका स्थान भी प्राप्त न होवे ऐसी बुद्धिका नाम उत्पत्तिका है १। और जो निनय करनेसे बुद्धि उत्पन्न हो उसका नाम विनयिका है २ । अपितु जो कर्म करनेसे प्रतिभा उत्पन्न होवे और वह पुरुप कार्यमें कौशल्पताको शीघ्र ही प्राप्त हो जावे उसका नाम कम्किा बुद्धि है ३ । नो अवस्थाके परिवर्तनसे बुद्धिका भी परिवर्तन हो जाता है जैसे वालावस्था युवावस्था वृदावस्थाओंफा अनुक्रमतासे परिवर्तन होता है उसी प्रकार बुद्धिका भी परिवर्तन हो Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) जाता है क्योंकि इन्द्रिय निर्बल होनेपर इन्द्रियजन्य ज्ञान भी प्रायः परिवर्तन हो जाता है, अपितु ऐसे न ज्ञात कर लिजीये इन्द्रियें शून्य होनेपर ज्ञान भी शून्य हो जायगा । आत्मा ज्ञान एक ही है किन्तु कर्मोंसे शरीर की दशा परिवर्तन होती है, साथ ही ज्ञानावर्णी आदि कर्म भी परिवर्तन होते रहते है परंतु यह वार्त्ता मतिज्ञानादि अपेक्षा ही है न तु केवलज्ञान अपेक्षा । सो इसको परिणामिका बुद्धि कहते हैं ४ । सो यह सर्व बुद्धियें मतिज्ञानके निर्मल होनेपर ही प्रगट होती हैं, किन्तु सम्यग् दृष्टि जीवोंकी सम्यग् बुद्धि होती है मिथ्यादृष्टेि जीवों की बुद्धि भी मिथ्यारूप ही होती है अर्थात् सम्यग् दर्शीको मतिज्ञान होता है मिथ्यादशको मतिअज्ञान होता है, इसका नाम मतिज्ञान है || और श्रुतज्ञानके चतुर्दश भेद हैं जैसे कि - अक्षरश्रुत १, अनक्षरश्रुत २, संज्ञिश्रुत ३, असंशिश्रुत ४, सम्यग्श्रुत ५, मिथ्यात्व श्रुत ६, सादिश्रुत ७, अनादिश्रुत ८, सान्तश्रुत (सपर्यवसानश्रुत) ९, अनंतन १०, गमिकश्रुत ११, अगमिकश्रुत १२, अंगम - विष्टश्रुत १३, अनंगप्रविष्टश्रुत १४ ॥ . भाषार्थ :- अक्षरश्रुत उसका नाम है जो अक्षरोंके द्वारा नकर ज्ञान प्राप्त हो, उसका नाम अक्षरश्रुत है | (२) अनक्षर Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) श्रुत उसका नाम है जो शब्द सुनकर पदार्थका ज्ञान तो पूर्ण हो जाये अपितु वह शब्द उस भांति लिखनमें न आवे जैसे छीक, मोरका शब्द इत्यादि ॥ (३) सतिश्रुत उसे कहते हैं निसको कालिक उपदेश (सुनके विचारनेकी शक्ति) हितोपदेश (सुनकर धारणेकी शक्ति) दृष्टिवादोपदेश (क्षयोपशम भावसे वस्तुके जाननेकी शक्तिका होना तथा क्षयोपशम भावसे संशि भावका प्राप्त होना) यह तीन ही प्रकार शक्ति प्राप्त हो उसका नाम संजिश्रुत है ॥ (४)असंज्ञिश्रुत उसका नाम है जिन आत्माओंमें कालिक उपदेश और हितोपदेश नहीं है केवळ दृष्टिवादोपदेश ही है अर्थात् क्षयोपशमके प्रभाव से असंज्ञि भावको ही प्राप्त हो रहे है । (५) सम्यग्श्रुत-जो द्वादशाङ्ग सूत्र सर्वज्ञ प्रणीत हैं अथवा आप्त प्रणीत जो वाणी है वे सर्व सम्यग्श्रुत है ।। (६) मिथ्यात्वश्रुत-जो सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन सम्पन् चारित्रसे वर्जित ग्रंथ हैं जिनमें पदार्थों का यथावत् वर्णन नही किया गया है और अनाप्त प्रणीत होनेसे वे ग्रंथ मिथ्यात्वयुन है ॥ (७) सादिश्रुत उसको कहते हैं जिस समय कोई पुरुप युत अध्ययन करने लगे उस कालकी अपेक्षा वे सादिश्रुत है। क्षेत्रकी अपेक्षासे पंच भरत पंच ऐरवत क्षेत्रोंमे द्वादशांग सादि, तीर्यकरोशा विरह आदिका होना कालसे उत्सपिणि अवसर्षिणिका Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) वर्तना इस अपेक्षा से भी सादिश्रुत है भावसे अर्दन के मुख से पदार्थों का श्रवण करना वे भी एक अपेक्षा सादिश्रुत है ॥ (८) अनादिश्रुत उसका नाम है जो द्रव्यसें बहुतसे पुरुष परंपरागत श्रत पढ़ते आये हैं । क्षेत्रसे द्वादशाङ्गरूप श्रुत महाविदेहोंमें अनादि हैं क्योंकि महाविदेहोंमें तीर्थंकरोंका अभाव नही होता और द्वादशाङ्गरूप श्रुत व्यवच्छेद नही होते । कालसे जहांपर उत्सर्पिण आदि काळचक्रोंका वर्तना नही है वहां भी अनादिश्रुत है जैसे महाविदेहों में ही । भावसे क्षयोपशम भावकी अपेक्षा अनादिश्रुत है अर्थात् क्षयोपशम भाव सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है (चेतनगुण) ॥ (९) सान्तश्रुत पूर्ववत् ही जान लेना; जैसे एक पुरुषने श्रुताध्ययन आरंभ किया, जब वे श्रुत अध्ययन कर चुका तब वे सान्तश्रुत हो गया ? क्षेत्र से पंचभरतादि सान्तश्रुत है २ कालसे उत्सर्पिणी आदि कालसे भी सान्तश्रुत है ३ भावसे जो अर्हन् भगवान् के मुख से श्रुत प्रतिपादन किया हुआ है वे व्यवच्छेदादि अपेक्षा सान्तश्रुत है ४ ॥ (१०) अनंत श्रुत - द्रव्यसे बहुतसे आत्मा श्रुत पढ़ेथे वा पढ़ेगे । अनादि अनंत संसार होने से श्रुत भी अपर्यवसान है १ क्षेत्र से ५ महाविदेहोंकी अपेक्षा से भी श्रुत अपर्यवसान ही है २ कालसे उत्सर्पिणि आदिके न होनेसे अनंत है ३ भावसे क्षयोपशम भावकी Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) अपेक्षा श्रुत अनंत ही है क्योंकि क्षयोपशम भाव आत्मगुण है इस लिये श्रुत भी अपर्यवसान है ४ ॥ (११) गमिकश्रुत दृष्टिवाद है ।। (१२) अगमिकश्रुत आचारांगादि श्रुत है ॥ (१३) अंगप्रविष्टश्रुत द्वादशाङ्ग सूत्र हैं ।। (१४) अनंगपविष्ट श्रुत अंगोंसे व्यतिरिक्त आवश्यकादि सूत्र है ॥ इनका पूर्ण वृत्तान्त नंदी आदि सिद्धान्तों से जानना ॥ __ अवधि ज्ञानका यह लक्षण है कि जो प्रमाणवर्ती पदार्थोंको देखता है वा जो रूपि द्रव्य है उनके देखनेकी शक्ति रखता है जिसके सूत्रमें पट भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकि आनु. गामिक ( सदैव काल ही जीवके साथ रहनेवाले ) अनानु. गामिक ( जिस स्थानपे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है यदि वहां ही बैठा रहें तो जो इच्छा हो वही ज्ञानमें देख सकता है, जब वे ऊठ गया फिर कुछ नहीं देखता ) वृद्धिमान ( जो दिनप्रतिदिन रद्धि होता है ) हायमान (जो हीन होनेवाला है ) मतिपाति (जो होकर चला जाता है) अप्रतिपाति ( जो होकर नहीं जाता है) यह भेद अवधिज्ञानके हैं। और मनःपर्यवज्ञान उ. सका नाम है जो मनकी पर्यायका भी ज्ञाता हो। इसके दो भेद है जैसेकि-ऋजुमति अर्थात् साई द्वीपमें जो संक्षिपंचिंद्रिय जीर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) वर्तना इस अपेक्षासे भी सादिश्रुत है भावसे अहन्के मुखसे पदार्थों का श्रवण करना वे भी एक अपेक्षा सादिश्रुत है ॥ (८) अनादिश्रुत उसका नाम है जो द्रव्यसें बहुतसे पुरुष परंपरागत श्रत पढ़ते आये हैं । क्षेत्रसे द्वादशाक्षरूप श्रुत महाविदेहोंमें अनादि हैं क्योंकि महाविदेहोंमें तीर्थंकरोंका अभाव नहीं होता और द्वादशाङ्गरूप श्रुत व्यवच्छेद नहीं होते । कालसे जहांपर उत्सप्पिणि आदि कालचक्रोंका वर्तना नही है वहां भी अनादिश्रत है जैसे महाविदेहोमें ही। भावसे क्षयोपशम भावकी अपेक्षा अनादिश्रुत है अर्थात् क्षयोपशम भाव सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है (चेतनगुण) ॥ (९) सान्तश्रुत पूर्ववत् ही जान लेना; जैसे एक पुरुषने श्रुताध्ययन आरंभ किया, जब वे श्रुत अध्ययन कर चुका तब वे सान्तश्रुत हो गया ? क्षेत्रसे पंचभरतादि सान्तश्रुत है २ कालसे उत्सर्पिणी आदि कालसे भी सान्तश्रुत है ३ भावसे जो अर्हन् भगवान के मुखसे श्रुत प्रतिपादन किया हुआ है वे व्यवच्छेदादि अपेक्षा सान्तश्रुत है ४॥ (१०) अनंत श्रुत-द्रव्यसे बहुतसे आत्मा श्रुत पढ़ेथे वा पढ़ेगे । अनादि अनंत संसार होनेसे श्रुत भी अपर्यवसान है १ क्षेत्रसे ५ महाविदेहोंकी अपेक्षासे भी श्रुत अपर्यवसान ही है २ कालसे उत्सापिणि _ आदिके न होनेसे अनंत है ३ भावसे क्षयोपशम भावकी Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१) __ अपेक्षा श्रुत अनंत ही है क्योंकि क्षयोपशम भाव आत्मगुण है इस लिये श्रुत भी अपर्यवसान है ४ ॥ (११) गमिकश्रुत दृष्टिवाद है ।। (१२) अगमिकश्रुत आचारांगादि श्रुत हैं । (१३) अंगाविष्टश्रुत द्वादशाङ्ग सूत्र हैं ।। (१४) अनंगपविष्ट श्रुत अंगोंसे व्यतिरिक्त आवश्यकादि सूत्र है ॥ इनका पूर्ण वृत्तान्त नंदी आदि सिद्धान्तोंमेंसे जानना ॥ अवधि ज्ञानका यह लक्षण है कि जो प्रमाणवर्ती पदार्थोंको देखता है वा जो रूपि द्रव्य है उनके देखनेकी शक्ति रखता है जिसके सूत्रमें षट् भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकि आनुगामिक ( सदैव काल ही जीवके साथ रहनेवाले ) अनानुगामिक ( जिस स्थानपे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है यदि वहां ही बैठा रहें तो जो इच्छा हो वही ज्ञानमें देख सक्ता है, जब वे ऊठ गया फिर कुछ नही देखता ) वृद्धिमान ( जो दिनप्रतिदिन वृद्धि होता है ) हायमान (जो हीन होनेवाला है ) प्रतिपाति (जो होकर चला जाता है) अप्रतिपाति ( जो होकर नहीं जाता है) यह भेद अवधिज्ञानके हैं । और मनःपर्यवज्ञान उ. सका नाम है जो मनकी पर्यायका भी ज्ञाता हो। इसके दो भेद है जैसेकि-ऋजुमति अर्थात् सार्द्ध द्वीपमें जो संज्ञि पंचिंद्रिय ज . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) हैं सार्द्ध द्वि अंगुल न्यून प्रमाण क्षेत्रवत्ती उन जीवोंके मनके पर्यायोंका ज्ञाता होना उसका ही नाम ऋजुमति है । और विपुलमति 1 | उसे कहते हैं जो समय क्षेत्र प्रमाण ही उन जीवोंके पर्यायोंका ज्ञाता होना उसका ही नाम विपुलमति है; और केवलज्ञानका एक ही भेद है क्योंकि वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे सब कुछ जानता है और सब कुछ ही देखता है, उसका ही नाम केवलज्ञान है । किन्तु यह सम्यग्दर्शीको ही होते हैं अपितु मिथ्यादर्शीको तीन अज्ञान होते हैं जैसेकि - मतिअज्ञान १ श्रुतअज्ञान २ विभंगज्ञान ३ । ज्ञानसे जो विपरीत होवे उसका ही नाम अज्ञान है | और सम्यग्दर्शन भी द्वि प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है जैसेकि - वीतराग सम्यग्दर्शन १ और छद्मस्थ सम्यग्दर्शन २ । अपितु दर्शनके अंतरगत ही दश प्रकारकी रुचि है जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है | जीवाजीवके पूर्ण स्वरूपको जानकर आस्रवके मार्गों का वेत्ता होना, जो कुछ अर्हन् भगवान्ने स्वज्ञानमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे पदार्थोंके स्वरूपको देखा है वे कदापि अन्यथा नही है ऐसी जिसकी श्रद्धा है उसका ही नाम निसर्गरुचि है १ ॥ जिने उक्त स्वरूप गुर्वादिके उपदेशद्वारा ग्रहण किया हो उसका Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३ ) ही नाम उपदेशरुचि है २।। फिर जिसका राग द्वेष मोह अज्ञान अवगत हो गया हो उस आत्माको आज्ञारुचि हो जाती है ३ ॥ जिसको अंगसूत्रों वा अनंगसूत्रोंके पठन करनेसे सम्यक्त्व रत्न उपलब्ध होवे उसको सूत्ररुचि होती है अर्थाद सूत्रों के पठन करनेसे जो सम्यक्त्व रत्न प्राप्त हो जावे उसका ही नाम सूत्ररुचि है ४ ॥ एक पदसे जिसको अनेक पदोंका बोध हो जावे और सम्यक्त्व करके संयुक्त होवे पुनः जलमें तैलबिंदु. वत् जिसकी बुद्धिका विस्तार है उसका ही नाम बीजरुचि है ५॥ जिसने श्रुतज्ञानको अंग सूत्रोंसे वा प्रकीर्णोसे अथवा दृष्टिवादके अध्ययन करनेसे भली भांति जान लिया है अर्थात् श्रुतज्ञानके पूर्ण आशयको प्राप्त हो गया है तिसका नाम अभिगम्यरुचि है ६ ॥ फिर सर्व द्रव्योंके जो भाव है वह सर्व प्रमाणों द्वारा उपलब्ध हो गये हैं और सर्व नयोंके मार्ग भी जिसने * जान लिये हैं उसका ही नाम विस्ताररुचि है ७ ।। और ज्ञान दर्शन चारित्र तप विनय सत्य समित गुप्तिमें जिसकी आत्मा स्थित है सदाचारमें मन है उसका ही नाम क्रियारूचि है ८ ॥ जिसने परमतकी श्रद्धा नहीं ग्रहण की अपितु जिन शास्त्रोंमें ' भी विशारद नही हैं किन्तु भद्रपरिणामयुक्त ऐसे जीवको । संक्षेपरुचि होती है ९ ।। षट् द्रव्योंका स्वरूप जिसने भलिभा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) तिसे जान लिया है और श्रुतधर्म चारित्रधर्ममें जिसकी पूर्ण निष्टा है जो कुछ अईन् देवने पदार्थोंका वर्णन किया है वे सर्व यथार्थ हैं ऐसी जिसकी श्रद्धा है उसका ही नाम धर्मरुचि है १० ॥ और परमार्थको सेवन करना, फिर जो परमार्थी जन है उन्हीकी सेवा सुश्रुषा करके ज्ञान प्राप्त करना और कुदर्शनोंकी संगत वा जिन्होंने सम्यक्त्वको परित्यक्त कर दिया है उनका संसर्ग न करना यह सम्यक्त्वका श्रद्धान है अर्थात् सम्यक्त्व. का यही लक्षण है । सो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्चारित्र अवश्य ही धारण करना चाहिये ।। द्वितीय सर्ग समाप्त ।। mammmmmmand Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) ॥ तृतीय सर्गः॥ ॥ अथ चारित्र वर्णन ॥ ___ आत्माको पवित्र करनेवाला, कर्ममलके दूर करनेके लिये क्षारवत्, मुक्तिरूपि मंदिरके आरूढ़ होनेके लिये निःश्रेणि समान, आभूषणोंके तुल्य आत्माको अलंकृत करनेवाला, पापककाँके निरोध करनेके वास्ते अर्गल, निर्मल जल सदृश्य जीवको शीतल करनेवाला, नेत्रोंके समान मुक्तिमार्गके पथमें आधारभूत, समस्त माणी मात्रका हितैषी श्री अर्हन् देवका प्रतिपादन किया हुआ तृतीय रत्न सम्यग् चारित्र है। मित्रवरो! यह रत्न जीवको अक्षय सुखकी प्राप्ति कर देता है । इसके आधारसे प्राणी अपना कल्याण कर लेते हैं सो भगवान्न उक्त चारित्र मुनियों वा गृहस्थों दोनों के लिये अत्युपयोगी प्रतिपादन किया है। मुनि धर्ममें चारित्रको सर्ववृत्ति माना गया है गृहस्थ धर्ममें देशतिके नामसे प्रतिपादन किया है। सो मुनियोंके मुख्य पांच महाव्रत है जिनका स्वरूप किंचित् मात्र निम्न प्रकारसे लिखा जाता है, जैसेकि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) (१) सवाउ पाणाश्वायाज वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे प्राणातिपातसे निर्दृत्ति करना अर्थात् स. र्वथा प्रकारसे जीवहिंसा निर्वर्तना जैसेकि मनसे १ वचनसे २ कायासे ३, करणेसे १ करानसे २ अनुमोदनसे ३ क्योंकि यह अहिंसा व्रत पाणी मात्रका हितैषी है और दया सर्व जीवोंको शान्ति देनेवाली है ॥ फिर दया तप और संयमका मूल है, सत्य और ऋजु भावको उत्पन्न करनेवाली है, दुर्गतिके दुःखोंसे जीवकी रक्षा करनेवाली है अपितु इतना ही नहीं कितु कर्मरूपि रज जो है, उससे भी आत्माको विमुक्ति कर देती है, शत स. हस्रों दुःखोंसे आत्माको यह दया विमोचन करती है, महर्षि. यों करके सेवित है, स्वर्ग और मोक्षके पथकी दया दर्शक है, ऋधि, सिद्धि, शान्ति, मुक्ति इनके दया देनेवाली है। पुनःप्राणियोंको दया आधारभूत है जैसे क्षुधातुरको भोजनका आधार है, पिपासेको जलका, समुद्रमें पोतका, रोगीको ओषधिका, भयभीतको शूरमेका आधार होता है । इसी प्रकार सर्व प्राणि को दयाका आधार है, फिर सर्व प्राणि अभयदानकी प्रार्थना .ते रहते हैं, जो सुख है वे सर्व दयासे ही उपलब्ध होते हैं ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) यथा मातेव सर्वभूतानां अहिंसा हितकारिणी । अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः ॥ १ ॥ अहिंसा दुःखदावाग्नि प्रावृषेण्य घनावळी । भवभ्रमिरुगार्त्तानाम हिंसा परमौषधी || २ || दीर्घमायुः परंरूपमारोग्यं श्लाघनीयता । अहिंसा याः फलं सर्व किमन्यत्कामदैवसा || ३ || भाषार्थ:- सज्जनों ! अहिंसा माताके समान सर्व जीवोंसे हित करनेवाली है और अमृत के समान आत्माको तृप्ति देनेवा - की है और जो संसार में दुःखरूपि दावाग्नि प्रचंड हो रही है उसके उपशम करने वास्ते मेघमालाके समान है । फिर जो भवभ्रमणरूपि महान् रोग है उसके लिये यह अहिंसा परमौषधी है तथा मित्रो ! जो दीर्घ आयु, नीरोग शरीर, यशका प्राप्त होना सौम्यभावका रहना अर्थात् जितने संसारी सुख हैं वे सर्व अहिंसा ही द्वारा प्राप्त होते हैं । इस वास्ते सर्वज्ञ सर्वदर्शी के अर्हन् भगवान्ने मुनियोंके लिये प्रथम व्रत अहिंसा ही वर्णन किया है, सो सर्व वृत्तिवाला जीव सर्वथा प्रकारसे हिंसाका परित्याग करे इसका नाम अहिंसा महाव्रत है || Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) (२) सबाज मुसावायाउ वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे मृपावादसे निति करना जैसेकि आप असत्य भाषण न करे औरोंसे न करावे असत्य भाषण करता. ओंका अनुमोदन भी न करे, मन करके, वचन करके, काया करके, क्योंकि असत्य भाषण करनेसे विश्वासताका नाश हो जाता है और असत्य वचन जीवोंकी लघुता करनेवाला होता है, अधोगतिमें पहोंचा देता है, वैर विरोधके करनेवाला है तथा कौनसे कष्ट हैं जिसका असत्यवादीको सामना नहीं करना पड़ता ॥इस लिये सत्य ही सेवन योग्य है । सत्यके ही महात्म्यसे सर्व विद्या सिद्ध हो जाती हैं । तप नियम संयम व्रतोंका सत्य मूल हैं परमश्रेष्ठ पुरुषोंका धर्म है, सुगतिके पथका दर्शक है, लोगमें उत्तम व्रत है। सत्यवादीको कोई भी पराभव नही कर सक्ता, यथार्थ अर्थोंका ही सत्यवादी प्रतिपादक होता है और सत्य आत्मामें प्रकाश करता है, परिणामोंके विषवादको हरण करने वाला है और अनेक विकट कष्टोंसे जीवकों विमुक्त करके मुखके मार्गमें स्थापन करता है तथा देव सदृश शक्तिये खानेमें भी सत्यवादी समर्थ हो जाता है । और में सारभूत है । सर्व विद्या सत्यमें निवास करती Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९) है और सत्यके द्वारा ही पदार्थों का निर्णय ठीक हो जाता है। अ. पितु सत्य द्रव्य गुण पर्यायों करके युक्त होना चाहिये । पूर्वपट् द्रव्योंका स्वरूप वा सत्य असत्य नित्यानित्य स्यादस्ति नास्ति आदि पदार्थोंका स्वरूप लिखा गया है उनके अनुसार भाषण करे तो भाव सत्य होता है, अन्यत्र द्रव्य सत्य है, सो महात्मा भाव सत्य वा द्रव्य सत्य अर्थात् सर्वथा प्रकारे ही सत्य भाषण करे यही महात्माओंका द्वितीय महावत है ।। (३) सवाउ अदिन्नादाणा वेरमणं ॥ तृतीय महाव्रत चौर्य कर्मका तीन करणों तीन योगोंसे परित्याग करना है जैसेकि आप चोरी करे नही ( विना दीए लेना ), औरोंसे करावे नही, चौर्यकर्म करताओंका अनुमोदन भी न करे, मन करके वचन करके काया करके, क्योंकि इस महाव्रतके धारण करनेवालोंको सदैव काल शान्ति, तृष्णाका निरोध, संतोष, आत्मज्ञान निरास्रव पदार्थों गतिकी इन पदार्थों का भलिभान्तिसे बोध हो जाता है। और जो चौर्य कर्म करनेवालोंकी दशा होती है जैसेकि अंगोका छेदन वध दोभाग्य दीनदशा निर्लज्जता असंतोष परवस्तुओंको देखकर मनमें कलुषित भावोंका होना दोनों लोगोंमें दुःखोंका भोगना अविश्वासपात्र बनना Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) सज्जनों करके धिक्कारपात्र होना अनंत कौकी प्रकृतिको एकत्र करना संसारचक्रमें परिभ्रमण करना कारागृहोंमें विहार अनेक दुर्वचनोंका सहन करना शस्त्रोंके सन्मुख होना इत्यादि कष्टोंसे जीव विमुक्त होते हैं जो तृतीय महाव्रतको धारण करते हैं, क्योंकि योगशास्त्रमें लिखा है कि वरं वन्हिशिखा पीता सर्पास्यं चुम्बितं वरम् । वरं हालाहलं लीढं परस्य हरणं न तु ॥ १॥ अर्थात् अग्निकी शिखाका पान करना, सर्पके मुखका स्पर्श, घुनः विषका भक्षण सुंदर है किन्तु परद्रव्यको हरण करना सुंदर नही है क्योंकि इन क्रियाओंसे एकवार ही मृत्यु होती है अपितु चौर्यकर्म अनंतकाल पर्यन्त जीवको दुःखी करता है, इस लिये सर्व दुःखोंसे छुटनेके लिये मुनि तृतीय महाव्रत धारण करे ॥ (४) सवाउ मेहुणाउ वेरमणं ॥ सर्वथा मैथुनका परित्याग करे तीन करणों तीन ही योगोंसे, क्योंकि यह मैथुन कर्म तप संयम ब्रह्मचर्य इनको विघ्न करनेवाला है, चारित्ररूपी ग्रहको भेदन करनेवाला है, प्रमादोंका है, बालपुरुषोंको आनंदित करनेवाला है, सज्जनों करके . गनीय है और शीघ्र ही जराके देनेवाला है, क्योंकि का Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) मीको वृद्ध अवस्था भी शीघ्र ही घेर लेती है; मृत्युका मूल है कामी जन शीघ्र ही मृत्यु के मुखमें प्राप्त हो जाते हैं तथा कामियोंकी संतति भी (संतान) शीघ्र ही नाश हो जाती है, क्योंकि जिनके मातापिता ब्रह्मचर्य से पतित हुए गर्भाधान संस्कारमें प्रवृत्त होते है वे अपने पुत्रों के प्रायः जन्म संसारके साथ ही मृत्यु संस्कार भी कर देते हैं तथा यदि मृत्यु संस्कार न हुआ तो वे पुत्र शक्तिहीन दौर्भाग्य मुख कान्तिहीन आलस्य करके युक्त दुष्ट कर्मोंमें विशेष करके प्रवृत्तमान होते हैं । यह सर्व मैथुनकर्मके ही महात्म्य है तथा इस कर्मके द्वारा विशेष रोगोंकी प्राप्ति होती है जैसे कि राजयक्ष्मादि रोग हैं वे अतीन विषयसे ही प्रादुरभूत होते हैं और कास श्वास ज्वर नेत्रपीडा कर्णपीडा हृदयशूल निर्बलता अजीर्णता इत्यादि रोगों द्वारा इस परम पवित्र शरीर विषयी लोग नाश कर बैठते हैं । कइयोंको तो इसकी कृपासे अंग छेदनादि कर्म भी करने पड़ते हैं । पुनः यह कर्म लोग निंदनीय वध वैधका मूल है परम अधर्म है चित्तको भ्रममें करनेवाला है दर्शन चारित्ररूपि घरको ताला लगानेवाला है वैरके करने - वाला है अपमानके देनेवाला है दुर्नामके स्थापन करनेवाला है । अपितु इस कामरूपि जलसे आजपर्यन्त इन्द्र, देव, चक्रवतीं वासु Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) देव राजे महाराजे शेठ सेनापति जिनको पूर्ण सामान मिळे हुए थे वे भी तृप्तिको प्राप्त न हुए और उन्होंने इसके वशमें होकर अनेक कष्टको भोगन सहन किया । कतिपय जनाने तो इसके वश होकर प्राण भी दे दिये । हा कैसा यह कर्म दुःखदायक है और शोकका स्थान है क्योंकि विषय के चित्तमें सदा ही शोकका निवास रहता है, इसलिये इन कष्ट से विमुक्त होनेका मार्ग एक ब्रह्मचर्य ही है । ब्रह्मचर्य से ही उत्तम तप नियम ज्ञान दर्शन चारित्र समस्त विनयादि पदार्थों प्राप्त होते हैं | और यमनियमकी वृद्धि करनेवाला है, साधुजनों करके आसेवित है, मुक्तिमार्ग के पथको विशुद्ध करनेहारा है और मोक्षके अक्षय सुखोंका दाता है, शरीरकी कांति सौम्यता प्रगट करनेवाला है, यतियों करके सुरक्षित है, महापुरिसों करके आचरित है, भव्य जनोंके अनुमत है, शान्तिके देनेवाला है, पंचमहाव्रतों का मूल है, समित गुप्तियोंका रक्षक है, संयमरूपि घरके कपाट तुल्य है, मुक्तिके सोपान है, दुर्गतिके मार्गको निरोध करनेवाला है, लोगमें उत्तम व्रत है, जैसे तड़ागकी रक्षा करनेवाली वा तड़ागको सुशोभित करनेवाली सोपान होती है, इसी प्रकार संयमकी रक्षा करनेवाला ब्रह्मचर्य है तथा जैसे शकटके चक्रकी तूंबी होती है, महानगरकी रक्षाके लिये Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) कपाट होते हैं तथावत् ब्रह्मचर्य आत्मज्ञानकी रक्षा करनेवाला है। अपितु जिस प्रकार शिरके छेदन हो जानेपर कटि भूजादि अवयव कार्यसाधक नहीं हो सक्ते इसी प्रकार ब्रह्मचर्यके भग्न होनेपर और व्रत भी भग्न हो जाते हैं। फिर ब्रह्मचर्य सर्व गुणोंको उत्पादन करता है। अन्य व्रतोंको इसी प्रकारसे सुशोभित करता है जैसे तारोंको चन्द्र आभूषणोंको मुकुट वस्त्रोंको कपासका वस्त्र पुष्पोंको अरविंद पुष्प वृक्षोको चं. दन सभाओंको स्वधर्मीसभा दानोंको अभयदान ज्ञानोंको केवल ज्ञान मुनियोंको तीर्थकर वनोंको नंदनवन । जैसे यह वस्तुयें अन्य वस्तुयोंको सुशोभित करती हैं इसी प्रकार अन्य नियमोंको ब्रह्मचर्य भी सुशोभित करता है क्योंकि एक ब्रह्मचर्यके पूर्ण आसेवन करनेसे अन्य नियम भी मुखपूर्वक सेवन किए जा सक्ते हैं। फिर जिसने इसको धारण किया वे ही ब्राह्मण है मुनि है ऋषि है साधु है भिक्षु है और इसीके द्वारा सर्व प्रकारकी मु. खोंकी प्राप्ति है। यथाप्राणभूतं चरित्रस्य परब्रह्मक कारणम् ॥ समाचरन् ब्रह्मचर्य पूजितैरपि पूज्यते ॥ १॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) • वृत्ति-प्राणभूतं जीवितभूतं चरित्रस्य देशचारित्रस्य सर्व चारित्रस्य च परब्रह्मणो मोक्षस्य एकमद्वितीयं कारणं समाचरन् पाळयन् ब्रह्मचर्य जितेन्द्रियस्योपस्थनिरोधलक्षणं पूजितैरपि सुरासुरमनुजेन्द्रैः न केवलमन्यैःपूज्यते मनोवाक्कायोपचारपूजाभिः॥ भाषार्थ:-यह ब्रह्मचर्य व्रत चारित्रका जीवितभूत है, मोक्षका कारण है, जितेन्द्रियता इसका लक्षण है, देवों करके 'पूज्यनीय है। चिरायुषः सुसंस्थाना दृढ़ संहनना नरा ॥ तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः॥२॥ वृत्ति-चिरायुषो दीर्घायुपोऽनुत्तरसुरादिघूत्पादात् शोभनं संस्थानं समचतुरस्रलक्षणं येषां ते सुसंस्थानाः अनुत्तरसुरादि. घूत्पादादेव दृढं बलवत् संहनमस्थिसंचयरूपं वज्रऋषभनाराचाख्यं येषां ते दृढ संहननाः एतच्च मनुजभवेत्पद्यमानानां देवेषु संहननाभावात् तेजः शरीरकांन्तिः प्रभावो वा विद्यते येषां ते तेजस्विनः महावीर्या बलवत्तमाः तीर्थकरचक्रवादित्वेनोत्पादात् भवेयुर्जायेरन ब्रह्मचर्यतो ब्रह्मचर्यानुभावात् ॥ __ भाषार्थः-दीर्घआयु सुसंस्थान दृढ संहनन ( पूर्ण शक्ति ) रीरकी कान्ति महा पराक्रम यह सर्व ब्रह्मचर्यके वारणपे ही Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५ ) होते हैं, तथा जो इस पवित्र ब्रह्मचर्य रत्नको प्रीतिपूर्वक आ. सेवन नहीं करते हैं तथा इससे पराङ्मुख रहते हैं, उनकी नित प्रकारसे गति होती है ॥ यथाकम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, भ्रमिलानियलक्षयः ॥ राजयक्ष्मादि रोगाश्च, भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥१॥ अर्थः-कम्प स्वेदै (पसीना ) थकावट मूर्छ भ्र। ग्लानि वलका क्षय राजयक्ष्मादि रोग यह सर्व मैथुनी पुरुषोंको ही उत्पन्न होते हैं, इस लिये सत्य विद्याके ग्रहण करनेके लिये आत्मतत्त्वको प्रगट करनेके वास्ते और समाधिकी इच्छा रखतों हुआ इस ब्रह्मचर्य महाव्रतको धारण करे यही मुनियोंका चतुर्थ महावत है, और सर्व प्रकारके सुख देनेवाला है ।। सवाज परिग्गदाज वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे परिग्रहसे नित्ति करना तीन करणों तीन योगोंसे वही पंचम महावत है, क्योंकि इस परिग्रहके ही प्रतापसे आत्मा सदैवकाल दुःखित शोकाकुल रहता है, और संसारचक्रमें नाना प्रकारकी पीड़ाओंको प्राप्त होता है । पुनः Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) इसके वशवर्तियोंको किसी प्रकारकी भी शान्ति नही रहती अपितु क्लेशभाव, वैरभाव, ईष्यो, मत्सरता इत्यादि अवगुण धनसे ही उत्पन्न होते हैं और चित्तको दाह उत्पन्न करता है। प्रत्युतः कोई २ तो इसके वियोगसे मृत्युके' मुखमें जा बैठते हैं और असह्य दुःखोंको सहन करते हैं और जितने सम्बन्धि हैं वे भी इसके वियोगसे पराङ्मुख हो जाते हैं, और इसके ही महात्म्यसे मित्रोंसे शत्रुरूप बन जाते हैं, तथा जितने पापकर्म हैं वे भी इस धनके एकत्र करनेके लिये किये जा रहे हैं ।ध. नसे पतित हुए पाणि दुष्टकर्मों में जा लगते हैं। फिर यह परिग्रह रागद्वेपके करनेवाला है, क्रोध मान माया लोभकी तो यह वृद्धि करता ही रहता है, धर्मसे भी जीवोंको पाराङ्मुख रखता है। और धनके लालचियोंके मनमें दयाका भी प्रायः अभाव रहता है, क्योंकि न्याय वा अन्याय धनके संचय करनेवाले नहीं देखते हैं, वह तो केवल धनका ही संचय करना जानते हैं, और इसके लिये अनेक कष्टोको सहन करते हैं। किन्तु इस धनकी यह गति है कि यह किप्तीके भी पास स्थिर नही रहता । चोर इसको लूट ले जाते हैं, राजे लोग छीन लेते हैं, अग्नि और जलके द्वारा भी इसका नाश हो जाता है, सम्बधि वांट देते हैं तथा व्यापारादि क्रियायोंमें भी विना इच्छा Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) इसकी हानी हो जाती है अर्थात् लाभकी इच्छा करता हुआ व्यय हो जाता है, और इसके वास्ते दीन वचन बोलते हैं, नीचौकी सेवा की जाती है अर्थात् ऐसा कौनसा दुःख है जो परिग्रहकी आशावान्को नहीं प्राप्त होता ? चित्तके संक्लेष मनकी पीड़ाओंको भी येही उत्पन्न करता है, इसलिये सूत्रों में लिखा है कि ( मुच्छा परिग्गहो वुतो) मूर्छाका नाम ही परिग्रह है। सो मुनि किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव न करे और शुद्ध भावोंके साथ पंचम महाव्रतको धारण करे, और अपरिग्रह होकर पापोंसे मुक्त होवे, माण मोती आदि पदार्थोंको वा तृणादिको सम ज्ञात करे और मान अपमा. नको भी सम्यक् प्रकारसे सहन करे, सर्व जीवोंमें समभाव रक्खे, अपितु सर्व जीवोंका हितैषी होता हुआ संसारसे विमुक्त होवे । और अष्ट प्रकारके काँके क्षय करनेमें कुशल जिसके मन वचन काया गुप्त है, मुख दुःखमें हर्ष विपवाद रहिन है, शान्ति __ करके युक्त है, वा दान्त है, जिसको शंखकी नाइ राग द्वेप रूपि रंग अपना फल प्रगट नहीं कर सक्ता, जिसके चन्द्रवत् सौम्य भाव है और दर्पणवत् हृदय पवित्र है, और शून्य स्थानों में जिसका निवास है, इत्यादि गुणयुक्त ही मुनि इस व्रतको धा. रण कर सक्ते हैं। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) और षष्टम रात्रीभोजन त्यागरूप व्रत है, यथा सवाल राउन्नोयणाज वेरमणं ।। सर्वथा रात्रीभोजनका त्यागरूप षष्टम व्रत है जैसेकि ___ अन्न १ पाणी २ खाधम' ३ स्वाधम ४ यह चार ही प्रका रका आहार तीनों करणों और तीनों योगोंसे परिहार करे,, क्योंकि रात्रीभोजनमें अनेक दोष दृष्टिगोचर होते हैं। जीवोंकी रक्षा वा किसी कारणसे जूं आदि यदि आहारमें भक्षण हो जाये तो जलोदरादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। फिर जिस दिनसे रात्रीभोजन त्यागरूप व्रत ग्रहण किया जाता है, उसी दिनसे शेष आयुमेंसे अर्द्ध आयु तपमें ही लग जाती है तथा रात्रीभोजनके त्यागियोंको रोगादि दुःख भी विशेष पराभव नही करसक्ते क्योंकि रात्रीमें दिनका किया हुआ भोजन मुखपूर्वक परिणत हो जाता है और गत्रीको विशेष आलस्य भी उत्पन्न नही होता। जीवोंकी रक्षा, आत्माको शान्ति, ज्ञान ध्यानकी वृद्धि इत्यादि अ नेक लाभ रात्रीभोजनके त्यागियोंको प्राप्त होते हैं, इस लिये यह __ व्रत भी अवश्य ही आदरणीय है । इसका ही नाम षष्टम व्रत है, सो १ खानेवाले पदार्थ जैसे मिष्टान्नादि । २ आस्वादनेवाले पदार्थ जैसे चूर्णादि । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) : मुनि * पांच महाव्रत पटम रात्रीभोजनरूप व्रतको धारण करे || अपितु भावनाओं द्वारा भी महाव्रतों को शुद्ध करता रहे क्योंकि प्रत्येक २ महाव्रतकी पांच २ भावनायें हैं । भावना उसे कहते हैं जिनके द्वारा पांच महाव्रत सुखपूर्वक निर्वाह होते हैं, कोई भी विघ्न उपस्थित नही होता, सदैव काल ही चित्तके भाव व्रतोंके पालने में लगे रहते हैं || सो भावनाओंका स्वरूप निम्न प्रकार से है ॥ प्रथम महाव्रतकी पंच जावनायें ॥ प्रथम भावना - महाव्रत के धारक मुनि जीवरक्षाके वास्ते विना यत्न ऊठ बैठ गमनागमण कदापि न करें और नाहि किसी आत्माकी निंदा करें क्योंकि निंदादि करनेसे उन आत्माओंको पीड़ा होती है, पीड़ा होनेसे महाव्रतका शुद्ध रहना कठिन हो जाता है | द्वितीय भावना - मनको वशमें रखना और हिंसादि युक्त मन कदापि भी धारण न करना अर्थात् मनके द्वारा किसीकी * पाच महाव्रतोंका षष्टम रात्रीभोजन त्यागरूप व्रतका स्वरूप श्री दशवैकालिक सूत्र, श्री आचाराग सूत्र, श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र इत्यादि सूत्रोंसे जान लेना ॥ • Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) __ भी हानि न चितवन करना क्योंकि मनका शुभ धारण करना __ ही महावतोंकी रक्षा है ॥ तृतीय भावना-वचनको भी वशमें करना । जो कटुक, दुःखप्रद वचन है उसका न उच्चारण करना, सदा हितापदेशी रहना ।। चतुर्थ भावना-निर्दोष ४२ दोषरहित अन्न पाणी सेवन करना, अपितु निर्दोषोपरि भी मूञ्छित न होना, गुरुकी आज्ञानुसार भोजनादि क्रियायोंमें प्रवृत्ति रखना ॥ पंचम भावना-पीठफळक, संस्तारक, शय्या, वस्त्र, पात्र, कंवल, रजोहरण, चोल, पट्टक (कटिबंधन), मुहपात्त, आसनादि जो उपकरण संयमके निर्वाह अर्थे धारण किया हुआ है उस उपकरणको नित्यम् प्रति प्रतिलेखन करता रहे और प्रमादसे रहित हो कर प्रमार्जन करे, उक्त उपकरणोंको यत्नसे ही रक्खे, यत्नसे ही धारण करे, यत्नपूर्वक सर्व कार्य करे, सो यही पंचमी भावना है। प्रथम महाव्रतको पंचभावनायों करके पवित्र करता रहे क्योंकि इनके ग्रहणसे जीव अनास्त्रवी हो जाता है, और यह भावना सर्व जीवोंको शिक्षाप्रद हैं ।।। द्वितीय महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ - प्रथम भावना-सत्य व्रतकी रक्षा वास्ते शीघ्र, वा कटक, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 121 ) सावध, कुतुहलयुक्त वचन कदापि भी भाषण न करे क्योंकि इन वचनोंके भाषण करनेसे सत्य व्रतका रहना कठिन हो जाता है और यह नाही वचनव्रतियोंको भाषण करनेयोग्य है // द्वितीय भावना-क्रोधयुक्त वचन भी न भाषण करे क्योंकि क्रोधसे वैर, वैरसे पैशुनता, पैशुनतासे क्लेष, क्लेषसे सत्य शील विनय सवका ही नाश हो जाता है, क्योंकि क्रोधरूपि अग्नि किस पदार्थको भस्म नहीं करता अर्थात क्रोधरूपि अग्नि सर्व सत्यादिका नाश कर देता है // तृतीय भावना-सत्यवादी लोभका भी परिहार करे क्योंकि लोभके वशीभूत होता हुआ जीव असत्यवादी वन जाता है, तो फिर व्रतोंकी रक्षा केसे हो ? इस लिये लोभको भी त्यागे // __चतुर्थ भावना-भयका भी परित्याग करे क्योंकि भययुक्त जीव संयमको भी त्याग देता है, सत्य और शीलसे भी मुक्त हो जाता है, अपितु भययुक्त आत्माके भाव कभी भी स्थिर नही रहते // पंचम भावना-सत्यवादी हास्यका भी परित्याग करे / हास्यसे ही विरोध, क्लेप, संग्राम, नाना प्रकारके कष्ट उत्पन्न