Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
शास्त्र कहता है कि प्रयत्नसाध्य होने के कारण हर कोई योग्य साधक ईश्वरत्व लाभ करता है और सभी मुक्त समान भाव से ईश्वर रूप से उपास्य है ।
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विद्या और प्रमाणविद्या
पुराने और अपने समय तक मे ज्ञात ऐसे अन्य विचारको के विचारो का तथा स्वानुभवमूलक अपने विचारो का सत्यलक्षी संग्रह ही श्रुतविद्या है । विद्या का ध्येय यह है कि सत्यस्पर्शी किसी भी विचार या विचारसरणी की अवगणना या उपेक्षा न हो। इसी कारण से जैन- परपरा की
विद्या नव-नव विद्याओ के विकास के साथ विकसित होती रही है । यही कारण है कि श्रुतविद्या मे सग्रहनयरूप से जहाँ प्रथम साख्यसम्मत सदद्वैत लिया गया वही ब्रह्माद्वैत के विचारविकास के वाद संग्रहनय रूप से ब्रह्माद्वैत के विचार ने भी स्थान प्राप्त किया है । इसी तरह जहाँ ऋजुसूत्र नयरूप से प्राचीन बौद्ध क्षणिकवाद सगृहीत हुआ है वही आगे के महायानी विकास के बाद ऋजुसूत्र नयरूप से वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन चारो प्रसिद्ध बौद्ध शाखाओ का संग्रह हुआ है ।
अनेकान्तदृष्टि का कार्यप्रदेश इतना अधिक व्यापक है कि इसमे मानवजीवन की हितावह ऐसी सभी लौकिक - लोकोत्तर विद्याएँ अपना-अपना योग्य स्थान प्राप्त कर लेती है । यही कारण है कि जैन श्रुतविद्या मे लोकोत्तर विद्याओ के अलावा लौकिक विद्याओ ने भी स्थान प्राप्त किया है ।
प्रमाणविद्या मे प्रत्यक्ष, अनुमिति आदि ज्ञान के सब प्रकारो का, उनके साधनों का तथा उनके बलाबल का विस्तृत विवरण आता है । इसमे भी अनेकान्तदृष्टि का ऐसा उपयोग किया गया है कि जिससे किसी भी तत्त्वचितक के यथार्थ विचार की अवगणना या उपेक्षा नही होती, प्रत्युत ज्ञान और उसके साधन से सबंध रखनेवाले सभी ज्ञान- विचारो का यथावत् विनियोग किया गया है ।
यहाँतक का वर्णन जैन परपरा के प्राणभूत अहिसा और अनेकान्त संबंध रखता है । जैसे शरीर के बिना प्राण की स्थिति असभव है वैसें ही