Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान में प्रवर्तकधर्म के पुरस्कर्ताओ ने पहले तो वानप्रस्थ सहित तीन और पीछे सन्यास सहित चार आश्रमो को जीवन मे स्थान दिया । निवर्तक-धर्म की अनेक सस्थाओ के बढते हुए जनव्यापी प्रभाव के कारण अन्त मे तो यहाँ तक प्रवर्तक-धर्मानुयायी ब्राह्मणो ने विधान मान लिया कि गृहस्थाश्रम के बाद जैसे सन्यास न्यायप्राप्त है वैसे ही अगर तीव्र वैराग्य हो तो गृहस्थाश्रम बिना किये भी सीधे ही ब्रह्मचर्याश्रम से प्रव्रज्यामार्ग न्यायप्राप्त है । इस तरह जो प्रवर्तक-धर्म का जीवन मे समन्वय स्थिर हुआ उसका फल हम दार्शनिक साहित्य और प्रजाजीवन मे आज भी देखते है ।
___ समन्वय और संघर्षण जो तत्त्वज्ञ ऋषि प्रवतक-धर्म के अनुयायी ब्राह्मणो के वशज होकर भी निवर्तक-धर्म को पूरे तोर से अपना चुके थे उन्होने चिन्तन और जीवन मे निवर्तक-धर्म का महत्त्व व्यक्त किया। फिर भी उन्होने अपनी पैतृक सपत्तिरूप प्रवर्तक-धर्म और उसके आधारभूत वेदो का प्रामाण्य मान्य रखा । न्यायवैशेषिक दर्शन के और औपनिषद दर्शन के आद्य द्रष्टा ऐसे ही तत्त्वज्ञ ऋषि थे। निवर्तक-धर्म के कोई-कोई पुरस्कर्ता ऐसे भी हुए, जिन्होने तप, ध्यान और आत्मसाक्षात्कार के बाधक क्रियाकाड का तो आत्यतिक विरोध किया, पर उस क्रियाकाण्ड की आधारभूत श्रुति का सर्वथा विरोध नहीं किया। ऐसे व्यक्तियो मे साख्यदर्शन के आदिपुरुष कपिल आदि ऋषि थे । यही कारण है कि मूल मे साख्य-योग दर्शन प्रवर्तकधर्म का विरोधी होने पर भी अन्त मे वैदिक दर्शनो मे समा गया।
समन्वय की ऐसी प्रक्रिया इस देश मे शताब्दियो तक चली। फिर कुछ ऐसे आत्यन्तिकवादी दोनो धर्मो मे होते रहे जो अपने-अपने प्रवर्तक या निवर्तक-धर्म के अलावा दूसरे पक्ष को न मानते थे और न युक्त बतलाते थे । भगवान् महावीर और बुद्ध के पहले भी ऐसे अनेक निवर्तक-धर्म के "पुरस्कर्ता हुए है, फिर भी महावीर और बुद्ध के समय मे तो इस देश मे निवर्तक-धर्म की पोषक अनेक सस्थाएँ थी और दूसरी अनेक नई 'पैदा हो रही थी, जो प्रवर्तक-धर्म का उग्रता से विरोध करती थी।