Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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जीवन की अपेक्षा भी जैन श्रमण का त्यागी जीवन विशेष नियत्रित रखने का आग्रह रखता है। चौथा यह कि वह जैन परंपरा के ही अवान्तर फिरकों मे उत्पन्न होनेवाले पारस्परिक विरोध के प्रश्नो के निराकरण का भी प्रयत्न करता है। ___नवकोटिक-पूर्ण अहिसा के पालन का आग्रह भी रखना और सयम या सद्गुणविकास की दृष्टि से जीवननिर्वाह का समर्थन भी करना-इस विरोध मे से हिंसा के द्रव्य, भाव आदि भेदो का ऊहापोह फलित हुआ और अन्त में एक मात्र निश्चय सिद्धान्त यही स्थापित हुआ कि आखिर को प्रमाद ही हिंसा है। अप्रमत्त जीवनव्यवहार देखने मे हिसात्मक हो तब भी वह वस्तुतः अहिंसक ही है। जहाँ तक इस आखरी नतीजे का सबध है वहाँ तक श्वेताम्बरदिगम्बर आदि किसी भी जैन फिरके का इसमे थोडा भी मतभेद नही है। सब फिरको की विचारसरणी, परिभाषा और दलीले एक-सी है।'
वैदिक हिंसा का विरोध वैदिक परंपरा मे यज्ञ, अतिथि श्राद्ध आदि अनेक निमित्तो मे होने वाली जो हिंसा धार्मिक मानकर प्रतिष्ठित करार दी जाती थी उसका विरोध सांख्य, बौद्ध और जैन परपरा ने एक-सा किया है, फिर भी आगे जाकर इस विरोध मे मुख्य भाग बौद्ध और जैन का ही रहा है । जैन वाङमयगत अहिंसा के ऊहापोह मे उक्त विरोध की गहरी छाप और प्रतिक्रिया भी है। पदपद पर जैन साहित्य मे वैदिक हिसा का खण्डन देखा जाता है। साथ ही जब वैदिक लोग जैनो के प्रति यह आशंका करते है कि अगर धार्मिक हिंसा भी अकर्तव्य है, तो तुम जैन लोग अपनी समाज रचना मे मन्दिरनिर्माण, देवपूजा आदि धार्मिक कृत्यों का समावेश अहिसक रूप से कैसे कर सकोगे इत्यादि। इस प्रश्न का खुलासा भी जैन वाडमय के अहिसा सबधी ऊहापोह मे सविस्तर पाया जाता है।
जैन और बौद्धों के बीच विरोध का कारण प्रमाद-मानसिक दोष ही मुख्यतया हिंसा है और उस दोष में से १. देखो 'ज्ञानबिन्दु' मे टिप्पण पृ० ७९ से ।