Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 193
________________ ( १८३) १ भोजन अप्रासुक नो नहीं है, २ मुनि को कोई कपाय भोगा. कांक्षा श्रादि नो उत्पन्न नहीं होती है, उदाता में दाता के योग्य गुण हैं कि नहीं। भोजन के विषय में तो प्रासुकता के सिवाय और कोई विशेषण डालने की ज़रूरत नहीं है । शुद्ध जल मे प्रासुकना का भङ्ग होजाता है या कोई और दोष उपस्थित हो जाना है, इस बात का विधान भी मूलाधार में नहीं है। भोज्य के विषय में जिनने दोप लिखे गये है वे सिर्फ इसीलिये कि किसी नरह से वह अप्रामुक तो नहीं है । जानिमद का नगा नाच दिखाने के लिये जल के विषय में अविचारयन्य शर्ते तो इन मटान्ध ढोंगियों की ही है । जैनधर्म का उनके साथ कुछ भी मम्बन्ध नहीं है। वाईसवाँ प्रश्न । इस प्रश्नका सम्बन्ध भी बालविवाह से है । इस विषयमें पहिले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस विषयमें प्रानपका का लिखना बिलकुल हाम्यास्पद है। श्रन्तु आक्षेप (क)-विवाह करके जो ब्रह्मचर्य पालन करें वह अवश्य पुण्य का हेतु है। (श्रीलाल) ममाधान-ज्या विवाह के पहिले ब्रह्मचर्य पाप का हेतु है ? ब्रह्मचर्य को किसी ममय पाप कहना कामकीटना का परिचय देना है। आक्षेप(ख) जिनेन्द्र की प्राचाका मग करना पाप है। बारहवर्ष में विवाह करने की जिनेन्द्राहा है। (श्रीलाल) ममाधान-जिनेन्द्र, विवाह के लिये कम से कम उमर का विधान कर सकते है, परन्तु ज्यादा से ज्यादा उमर का नहीं। १२ वर्ष का विधान जिनेन्द्र की प्राथा नहीं है । कुछ लेखकों ने ममय देखकर ऐसे नियम बनाये है, और ये क्रम से

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