Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वट न० १३ जैनधर्म और विधवा-विवाह ( दूसरा भाग ) এथमवार ६००० -- श्रीयुत् " सव्यसाची" প্রकाशक--- मंत्री जैन बालविधवा- सहायक सभा दरीया कलॉ, ढेडली 20 मुद्रक - "चैतन्य" प्रिन्टिङ प्रेस. बिजनौर (यू०पी०) } सन १६३११० { मूल्य 1=J Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অস্কায়া ला० जौहरीमल जैन सर्राफ़ मन्त्री जैन बाल विधवासहायक सभा, दरीबा कलॉ, देहली U TERRATHI मुद्रशान्तिचन्द्र जैन, "चैतन्य" प्रिन्टिङ्ग प्रेस, विजनौर (यू० पी०) : Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्र पृष्ठ २० २० शुद्ध ङोप टाप २८ यदत्रायं वे पुरुषत्व-मदोन्मत्त के लिये वृषल नियम सिंहो ४१ ४१ ४१ पक्ति अशद्ध १६ डीप १६ टीए २६ पदत्रायं १३ वह पुरुष मदोन्मत्त . में १७ वृषाल ४ निमय १६ सिंहो २० यात्यानश्च २२ सएप २१ खद ही १७ चाहिये ११ चेट्टक १८ भोकी ४ युक्ति से जीतने पर १५ सन्धेर २५ क - नावी यात्यनिश्च स पर ७१ चाहिये छेदक भोक्त्री युक्ति से नजीतने पर अन्धेर १७६ १८० नवाबी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति अशुद्ध १८२ २३ मूलाकार १८२ ૭ मुलापार १८३ ६ मूलापार १८५ ७ कुभि १८८ ५ आदि १६३ २०४ २०६ १ २११ १ व्याख्याम्यायः २१३ २० सुखावस्थैविमुक्ता २१४ १२ चिसका २२७ १२ सद्धा २२६ निरोग २२६ 8 निरोग १ १३ 15 व्यभिचार नहीं है श्रपतिरन्या प्रप्रोग शुद्ध मूलाचार मूलाचाग मुलाचार फुभि अनादि व्यभिचार भी नहीं है अपनिरभ्यां प्रयोग व्याख्यास्यामः सुखावम्वैर्विमुक्ता जिसका रुद्रा नीरोग नीरोग Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आवश्यक निवेदन * - - जैन ममाज और हिन्द ममाज की घटी का मुरय कारण विधवाविवाह से घृणा करना व उसको व्यभिचार या पाप मममना है। लाखों ही संतान बिन विवाहे कुमारे रह जाते है, क्योंकि उनको न्याय नहीं मिलती। इसलिये वे जय मरते हैं नय अपने घरों में सटा के लिये ताले लगा जाते हैं। उधर विधुर पुरुर अपने पक जीवन में कई २ यार शादियां करते हैं, वृद्ध होने पर भी नहीं चूकते है, जिसका फल यह होता है कि बहुत मी युवान विधवाएँ बिना सनान रह जाती है। कोई जो धनवान होनी है वे गांद ले लेनी है शेष अनेक निःसंतान मरकर अपने घरमें नाला दे जाती हैं। इस तरह कुवारे पुरुषों के कारण व बहुसंन्यक विधवाओं के कारण जैन समाज तथा हिन्दू ममाज बड़े वेग से घट रहा है। जहां २५ वर्ष पहले १०० घर थे वहां अब ४०-५० ही घर पाए जाने हैं। जैपुर में २५ व ३० वर्ष पहले जैनियों के ३००० घर थे, अब मात्र १८०० ही रह गप है। उधर युवान विधवाओं को अनेकों गुप्त पापों में फंसकर घोर व्यभिचार व हिंसा के पाप में सनना पड़ता है। वे ब्रह्मचर्य फ भार को न मह सकने के कारण पतित हो जानी हैं। यह सब वृथा ही कष्ट व हानि उठाई जा रही है, केवल Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] इस ही विचार से कि विधवाविवाह की इज़ाज़त जैन सिद्धांत व हिन्दू शास्त्र नहीं देता । हिन्दु शास्त्रों में तो अथर्ववेद व म्मृतियों में पुनर्विवाह का स्पष्ट कथन है । जैन सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध है या श्रसिद्ध इस प्रश्न को माननीय वैरिपुर चम्पतराय जी ने उठाया था । उसका समाधान 'सव्यसाची' महोदय ने चडी ही अकाट्य व प्रौढ युक्तियों के द्वारा देकर यह सिद्ध कर दिया था कि विधवाविवाह कन्या विवाह के समान है व इससे गृहधर्म में कोई बाधा नहीं आती है। यह सब समा धान 'जैनधर्म और विधवाविवाह' नामक ट्रक में प्रकाशित हो चुका है । इस समाधान पर पण्डित श्रीलालजी पाटनी अलीगढ तथा पं० विद्यानन्द शर्मा ने श्राक्षेप उठाए थे - उनका भी समाधान उक्त सव्यसाचीजी ने 'जैन जगत' में प्रकाशित कर दिया है | वही सब समाधान इस पुस्तक में दिया जाता है, जिसे पढकर पाठकगण निःशक हो जायेंगे कि विधवाविवाह न तो व्यभिचार है और न पाप है - मात्र कन्याविवाह व विधुरविवाह के समान एक नीति पूर्ण लौकिक कार्य है इतना ही 'नहीं - यह उस अबला को व्यभिचार व हिंसा के घोर पापों से बचाने वाला है । सर्व ही जैन व हिंदू भाइयों को उचित है कि इस पुस्तक को आदि से अन्त तक पढ़ें । उनका चित्त बिलकुल मानलेगा कि विधवाविवाह निषिद्ध नहीं है किन्तु विधेय है । पाठकों को उचित है कि भारत में जो गुप्त व्यभिचार व - हिंसा विधवाओं के कारण हो रही है उसको दूर करावे - L Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] उसका उपाय यही है कि हर एक कुटुम्य अपने २ घर में जो को विधया हो जाय उससे एकान्त में यान करें। यदि उम को बानत्रीत में व उसके रहन सहन के ढग से प्रतीत हो कि यह ब्राह्मवयं व्रत को पाल लेगी नय तो उसे वैराग्य के साधनों में रख देना चाहिये और जो कोई कहें कि वह पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं पाल मानी है नय जो उमऊ मरक्षक हो-चाहे पिता घर वाले चाहे श्रसुर घर वाले उनका यह पवित्र कर्तव्य है कि उमका कन्या के ममान मानकर उसका विवाह योग्य पुरुष के माय कर दे । यो लज्जा के कारण अपने मनका हाल स्पष्ट नहीं कहनी है। उनके मंग्नकों का कर्तव्य है कि उसकी शक्ति के अनुमार उसके जीवन का निर्णय करदें। समाज की रक्षा चाहने वाला मन्त्री - - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * इस हैक के छपवाने के लिये निम्नलिखित महानुभावों ! ने सहायता प्रदान की है, जिनको सभा हार्दिक धन्यवाद देती है, साथ ही समाज के अन्य स्त्री पुरुषों से निवेदन करती है कि व भी निम्न श्रीमानों का अनुकरण करके और अपनी दुखित बहिनों पर तरस खाकर इसी प्रकार सहायता प्रदान करने की उदारता दिखला : २५) ला० धनकुमार जी जैन कानपुर । २१) गुप्तदान ( एक जैन ) कानपुर । २०) गुप्तदान (एक वकील) लखनऊ। १० ला० रामजीदास सटर बाजार देहली। १०) चा० उलफतराय इंजीनियर देहली। १०) वा० महावीर प्रसाद देहली । १०) ला० किशनलाल देहली। १०) ला० गुलाबसिंह वजीरीमल देहली। १० ला० भोलानाथ मुखतार वुलन्दशहर। १०) वा० माईदयाल ची० ए० आनर्स अम्बाला । १० ला० केशरीमल श्रीराम देहली । १०) ला० ललताप्रसाद जैन अमरोहा। १०) बा० पचमलाल जैन तहमीलदार जबलपुर । १०) ला० विशम्भर दास गार्गीय झांसी। १०) गुप्तदान (एक बाबू साहब ) देहली। १०) गुप्तदान (एक बावू साहब ) केराना । १०) गुप्तदान ( एक ठेकेदार साहब ) देहली। १०) गुप्तदान ( एक रईस साहव ) विजनौर । ५)गुप्तदान (एक सर्राफ़) देहली। ५) गुप्तदान ( एक जैन ) गोहाना । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाविवाह और जैनधर्म! -restarctor.. आक्षेपों का मुंह तोड़ उत्तर सबसे पहिली और मुद्दे की यात में पाठकों से यह कह देना चाहता हूँ कि मेरे खयाल से जैनधर्म पारलौकिक उन्नति के लिये जितना सर्वोत्तम है उनना ही लौकिक उन्नति के लिये सुविधाजनक है। समाज की उन्नति के लिये और समाज की रक्षा के लिये ऐसा कोई भी रीतिरिवाज नहीं है जोकि जैनधर्म के प्रतिकूल हो । जैनधर्म किसी घूसखोर व अन्यायी मजिस्ट्रेट की तरह पक्षपात नहीं करता जिससे पुरुषों के साथ वह रियायत करे और त्रियों को पीस डाले । त्रियों के लिये और शूद्रों के लिये उसने वही सुविधा दी है जो कि पुरुषां के लिये और द्विजों के लिये । जैनधर्म की अनेक खबियों में ये + इस पैगमाफ के प्रत्येक वाक्य का में अच्छी तरह विचार कर लिख रहा हूँ। इसमें मैंने उत्तेजना या अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। इसके किसी चाय या शब्द के लिये अगर कोई नया आन्दोलन उठाना पड़े तो मैं उसके लिये भी नैयार है। अगर कोई महाशय श्राक्षेप करने का कए करें तो बडी कृपा होगी, क्योंकि इस बहाने से एक आन्दोलन को खड़ा करने का मौका मिल जायगा। -लेखक Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों खवियाँ बहुत बड़ी खत्रियाँ हैं । सामाजिक-रक्षा और उन्नतिके साथ भात्मिक-रक्षा और उन्नतिके लिये सुविधा देना और किसीके अधिकारको न छीनना, ये दोनों बाते अगर जैन. धर्म में न होगी तो किस धर्म में होगी? अगर किसी धर्म में ये दोनों बातें नहीं है तो यह इन दोनों बातों का दुर्भाग्य नहीं है, किन्तु उसधर्मका हीदुर्भाग्य है । यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्मग्रन्थों में'न लिखी होने से अच्छी बातों की कीमत नहीं घटती, किन्तु अच्छी बातें न लिखी होने से धर्मग्रन्थों की कीमत घटती है। प्रत्येक स्त्री पुरुष को किशोर अवस्था से लेकर युवा अवस्था के अन्त तक विवाह करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुप इस अधिकार का उपयोग मात्रा से अधिक करता रहे और स्त्रियों को जरूरत होने पर भी न करने दे; इतना ही नहीं किन्तु वह अपनी यह नादिरशाही धर्म के नाम पर उसमें भी जैनधर्म के नाम पर--चलावे, इस अन्धेर का कुछ ठिकाना है ! मुझे तो उनकी निर्लजता पर आश्चर्य होता है कि जो पुरुष अपने दो दो चार चार विवाह कर लेने पर भी विधवाओं के पुनर्विवाहको धर्मविरुद्ध कहने की धृष्टता करते है। जिस कामदेव के श्रागे वे नङ्गे नाचते हैं, वृद्धावस्थामें भी विवाह करते है, एक कसाई की तरह कन्याएँ खरीदते हैं, उसी 'काम' के आकमणले जव एक युवती विधवा दुखी होती है और अपना विवाह करना चाहती है तो ये करता और निर्लज्जता के अवतार धर्मविरुद्धता का डर दिखलाते हैं। यह कैसी बेशरमो है ! , विधवाविवाह के विरोधी कहते हैं कि पुरुषों को पुनविवाह का अधिकार है और स्त्रियों को नहीं । ऐसे अत्याचार. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण अहवार के ये लोग शिकार हो रहे हैं, जब कि विधवा. विवाह के समर्थक इस विषय में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देना चाहते हैं। विधवाविवाह के समर्थक, पुरुष होने पर भी अपने विशेषाधिकार, विना स्त्रियों की प्रेरणा के छोडना चाहते है। स्त्रियों के दुःख से उनका हृदय द्रवित है; इमीलिये स्वार्थी पुरुषों के विरोध करने पर भी वे इस काम में लगे हैं। अपमान तिरस्कार श्रादि की बिलकुल पर्वाह नहीं करते। विधवाविवाह-समर्थकों की इस निस्वार्थता, उदारता, त्याग, दया, महनशीलता, वर्तव्यपगयणना और धार्मिकता को विधवाविवाह के विरोधी काटजन्म तप तपने पर भी नहीं पा मक्ते । ये स्वार्थ के पुतले जब विधवाविवाह समर्थकों को म्वार्थी कह कर "उल्टा चार कानवाल को डॉटे" की कहावत चरितार्थ करते है तब इनकी धृष्टता की पराकाष्ठा हो जानी है। शैतान जय उलट कर ईश्वर से ही शैतान कहने लगता है तब उस की शैतानियत की सीमा प्राजाती है। विधवाविवाह केविगेधी शैतानियन की ऐसी ही सीमा पर पहुंचे है। समाल के भीतर छिपी हुई इस शैतानियत को दूर करने के लिये,मैंने विधवाविवाह के समर्थन में वैरिएर चपत. गयजी के प्रश्नों के उत्तर दिये थे। उसके खडन का प्रयास जैन गज़ट द्वारा दो महाशयों ने किया है एक तो पं० श्रीलाल जी अलीगढ़, दूसरे प०विद्यानन्दजी गमपुर, । उन दोनों लेखों को अनावश्यक रूपसे बढाया गया है। लेख में व्यक्तित्व के अपर बडी असभ्यता के साथ आक्रमण किया गया है । अस. भ्यता से पेश थाने में कोई बहादुरी नहीं है। इसलिए असभ्य शब्दों का उत्तर में इस लेख में न दूंगा। उन दोनों लेखकों से जहां कुछ भी खडन नहीं बन पडा है वहाँ उन्होंने "छिछि.", "धिक धिक", "यह तो घृणित है", Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) आदि शब्दों की भरमार की है। ऐसे शब्दों का मी उत्तर न दिया जायगा । विद्यानन्दजी ने मेरे लेग्न के उद्धरण श्रधरे अधूरे लिये हैं और कहीं कहीं अत्यावश्यक उद्धरण छोड दिया है । इस विषय में तो मैं पं० श्रीलाल जी को धन्यवाद दंगा जिन्होंने मेरे पूरे उद्धरण लेने में उदारता दिखलाई । उद्धरण अधरा होने पर भी ऐसा अवश्य होना चाहिये जिमसे पाठक उलटा न समझलें। दोनो लेख लम्बे लम्बे हैं। उनमें बहुत सी ऐमी पाने भी है जिनका विधवाविवाह के प्रश्न से सम्बन्ध नहीं है, परन्तु दोनों महाशयों के सन्तोषार्थ मैं उन बातों पर भी विचार करूंगा। इससे पाठकों को भी इतना लाभ जरूर होगा कि वे जैनधर्म की अन्यान्य वातो से भी परिचित हो जायेंगे । मेग विश्वास है कि वह परिचय अनावश्यक न होगा। चम्पतरायजी के ३१ प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मेने लिखा था उसके खण्डन में दोनों महाशयोंने जो कुछ लिखा है, उसका सार मैने निकाल लिया है। नीचे उनके एक एक आक्षेप का अलग अलग समाधान किया जाता है। पहिले श्रीलालजी के प्राक्षेपों का, फिर विद्यानन्दजी क आक्षेपों का समाधान फिया गया है ! मैं विरोधियों से निवेदन करता हूँ या चैलेज देता हूँ कि उनसे जितना भी आक्षेप करते बने, खुशीसे करें। मैं उत्तर देने को तैयार हूँ। पहला प्रश्न आक्षेप (अ)-सम्यक्त्व की धातक सात प्रकृतियों में चार अनन्तानुबन्धी कषायें भी शामिल हैं। विधवाविवाह के लिये जितनी तीव्र कषाय की जरूरत है वह अनन्तानुबन्धी के , उदय के बिना नहीं हो सकती। जैसे परस्त्रीसेवन अनन्तानुबधी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उदय के बिना नहीं हो सकना । इमलिये जब विधवाविवाह में अनन्तानुबन्धी का उदय मा गया तो सम्यत्व नष्ट होगया। समाधान (अ)-जय स्त्री के मर जाने पर, पुरुष दसरा विवाह करता है नी तीन रागी नहीं कहलाता, तब पुरुष के मर जाने पर स्त्री अगर दूमग विवाह करे तो उसके नीन राग कामान्धता क्यों मानी जायगी? यदि कोई पुरुष एक स्त्री के रहते हुए भी ६६ हजार विवाह करे या स्त्रियाँ रक्पे तो उस का यह काम यिना नोत्र गगनहीं होलाना। लेकिन ६६४ज़ार पत्रियों के तोवगग ले भी सम्यक्त्वका नाश नहीं होता, बल्कि वह ब्रह्मचर्याशुवती भी रह सस्ता है । जब इतना नीव्र गग मी मम्यक्त्व का नाश नहीं कर सकता तय पनि मर जाने पर एक पुरुष से शादी करने वाली विधवा का सम्यक्त्व या श्रा व्रत कैसे नष्ट होगा? और अणुव्रत धारण करने वाली विधवा ऐमी पनित क्यों मानी जायगी कि जिमसे उसे ग्रहण करने वाले का भी नम्यत्व नष्ट हो जावे? विधवाविवाह से व्यभिचार उतना ही दूर है, जितना कि कुमारी विवाह से । जैसे विवाह होने के पहिले कुमार और कुमारियों का मभोग भी व्यभिचार है, किन्तु विवाह होने के बाद उन दोनों का सभोग व्यभिचार नहीं कहलाता, उसी तरह विवाह होने के पहिले अगर विधवा सम्मांग करे तो व्यभिचार है, परन्तु विवाह के बाद होने वाला सम्भोग व्यभिचार नहीं है । गृहस्थों के लिये व्यभिचार की परिभाषा यही है कि-"जिसके साथ विवाह न दुमा हो उसके साथ सम्भोग करना"। यदि विवाह हो जाने पर भी व्यभिचार माना जायगा तो विवाह की प्रथा बिलकुल निकम्मी हो जायगी और श्राजन्म ब्रह्मचारियों को छोड कर ममी व्यभिचारी साबित होंगे। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्रता मन्दता की दृष्टि से सक्याय प्रवृत्ति छः भागों में बॉटी गई है, जिन्हें हमण, नील, कापोत, पीत, पद्म, एक शब्दों से कहते है। इनमें सबसे ज्यादा तीव्र कृष्ण लेश्या है। लेक्नि कृष्ण लेश्या के हो जाने पर भी सम्यत्व का नाश नहीं होता। इसीलिये गोम्मटसार में लिखा है "अयदोति छ लेस्सानी" अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तक छहों लेश्याएँ होती है। अगर विधवाविवाह में कृष्ण लेश्यारूप परिणाम भी होते तो भी सस्यत्व का नाश नहीं हो सकता था। फिर तो विधवाविवाह में शुभ लेश्या रहती है, तब सम्यक्तत्व का नाश कैसे होगा? आक्षेपक ने परस्त्रीसेवन अनन्तानुबन्धी के उदय से बतलाया है । यह बात भी अनुचित है। मैं परस्त्रीसेवन का समर्थन नहीं करता, किन्तु आक्षेपक की शास्त्रीय नाम: मझी को दूर कर देना उचित है । परस्त्री सेवन अप्रत्याख्या. नावरण कपायके उदयसे होता है। क्योंकि अप्रत्यारयानावरण कपाय देशवत-अणुव्रत की घातक है और अणुवत के घात होने पर ही परस्त्री सेवन होता है । आक्षेपक को यह जानना चाहिये कि अणुवती, पांच पापों का त्यागी होता है न कि अविरत सम्यग्दृष्टि। खैर ! मुझे व्यभिचार की पुष्टि नहीं करना हैं। व्यभिचार और विधवाविवाह में वड़ा अन्तर है। व्यभि. चार अप्रत्याख्यानावरण और विधवा विवाह प्रत्यारयानाबरण कषाय के उदय से होता है। ऐसी हालत में विधवा मेरे पहिले लेख में इस जगह अप्रत्याख्यानावरण रूप गया है। पाठक सुधारकर प्रत्याख्यानावरण करले।-लेखक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाहको अनन्तानुवन्धीके उदयसे मानना और उससे सम्य. पत्व नाश की बात कहना बिलकुल मिथ्या है। आक्षेप (आ)-परस्त्री सेवन सप्त व्यसनों में है। सभ्यक्वी सप्त व्यसन सेबी नहीं होता। विधवाविवाह परस्त्रीसेवन है। इसलिये त्रिकालमें सम्यक्त्वोके नहीं हो सकता। समाधान--परस्त्री-सेवन व्यसनों में शामिल जरूर है, परन्तु परस्त्री सेवी होने से ही कोर्ड परस्त्री व्यसनी नहीं हो जाता। परस्त्री सेवन व्यसन का त्याग पहिली प्रतिमा माना जाता है, परन्तु परस्त्री लेवन पहिली प्रतिमा भी हो सकता है, क्योंकि परस्त्रीसेवन का त्याग दुसरी प्रतिमा में माना गया है। यहां पापक को व्यसन और पाप का अन्तर समझना चाहिये। अविरत सम्यग्दृष्टि को पहिलो प्रतिमा का धारण करना अनिवार्य नहीं है। इस लिये सप्तव्यसन का त्याग भी अनिवार्य न कहलाया । हाँ, अभ्यास के रूप में वह बहुत सी बातों का त्याग कर सकता है, परन्तु इस से वह त्यागी या वती नहीं कहला सकता । और, सम्यस्त्वी परस्त्री-सेवी रहे । या परस्त्री-त्यागी, परन्तु सम्यक्त्व का विधवा विवाहसे कोई विरोध नहीं होसकता, क्योंकि विधवा विवाह परस्त्री सेवन नहीं है। यह बात में "अ" नम्बर के समाधान में सिद्ध कर चुका है। . प्राक्षेप (इ) यह नियम करना कि सातवें नरक में , सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता, लेखक की अक्षता है। क्या वहाँ । सायिक सम्यक्त्व हो जाता है ? नरकों में नारकी अपने किये । हुए पापों का फल भोगते हैं। यदि वहां मी चे विधवाविवाह से अधिक पाप-करने वाले ठहर जायें तो उस किए हुए पाप का फल कहाँ भोगे? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-सातये नरक में सम्यक्त्व नष्ट न होने की वात में नियम करने की बात आक्षेपकने अपने मनसे घुसेड दी है। सातये नरक के नारकी के न तो सम्यक्त्व होने का नियम है न सदा स्थिर रहनेका । यात इतनी ही है कि सात नरक का नारकी श्रीपशमिक और वायोपशमिक सम्यक्त्व पैदाकर सकता है और वह सम्यक्त्व (बायोपशमिक) कुछ कम तेतीस सागर तक रह सकता है । तात्पर्य यह कि वहाँ की परमकृष्ण लेश्या और रोगपरिणामो से इतने समय तक उसके सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। उसके सम्य. स्वका कभी नाश ही नहीं होता-यह मैंने नहीं कहा। सानवे नरक के नारकी एक दूसरे को पानी में पेल देते है, माड में भूज देते है, आरे से चीर डालते है, गरम कडाही में पका डालते हैं ! क्या ऐसे कर कामों से भी विधवाविवाह का काम बुरा है ? क्या उनके इन कामों से पाप बन्ध नहीं होता ? सातवें नरक के नारकी यदि पापी न होते तो वे तिर्यञ्चगतिमें ही क्यों जाते ? और उनका वह पाप इतना जबर्दस्त क्यों होता. कि उन्हें एक बार फिर किसी न किसी नरक में आने के लिये बाध्य करता? तत्वार्थसारके इस श्लोक पर विचार कीजिये न लभन्ते मनुष्यत्व सप्तम्या निर्गताः क्षितेः। तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः ॥१४॥ अर्थात्-सातवे नरक से निकला हुआ जीव मनुष्य नहीं हो सकता । तिर्यञ्च गति में पैदा होकर उसे फिर नरक में ही जाना पड़ता है। क्या विधवाविवाह करने वालों के लिये भी शास्त्र में ऐसा कहीं विधान है ? आक्षेपक की यह बात पढ़ कर हँसी श्राती है कि सातवें नरक के नारकी यदि ज़्यादा पाप करेंगे तो फल कहाँ भोगेंगे १ तत्वार्थसार के उपयुक्त श्लोक में बत Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) लाया हुया विधान या फल भोगने के लिप कम है ? हां तो सान नरक के नाग्थी जीवन भर मार काट करते है और उनका पाप यहाँ तक यह जाना है कि नियम से उन्हें निर्यञ्च गति में ही जाना पड़ता है और फिर नियम से उन्ह नरक में ही लौटना पडता है । मे पापियों में भी सम्यक्त्व कुछ कम नेतीम सागर अर्थात पनि होने के बाद ने मांगा के कुछ समय पहिले नर सदा रह सकता है। बर "मम्यन्य विधवाविचार करने वाले के नहीं रह सकता। बलिहारी है इस ममझदारी की। प्रारंप ()-नारक्रिया सतव्यसन की सामग्री नहीं हिमशिन मध्यनयन हो योर होकर भी हट जाये। লঃ ঘ শাসন না গান দ্বিগ্নান্নিা ঈ নিয়ম कुद भी मूल्य नहीं रखता। समाधान----यापक के बहानेसे या तात्पर्य निकलता है कि अगर नरकों में मत व्यसन की मामग्री होती तो मम्य पत्य न होता और टूट जाता (नए होजाता)। वहां मन व्यसन की सामग्री नहीं है इसलिए मन्यक्त होता है और होकर नहीं घटता है (नष्ट नहीं होता है नरक में मम्यक्त्व के नष्ट न होने की यान जब हमने कही थी, तब श्राप विगडे थे। यहाँ यही थान प्रापने स्वीकार करली है। कैसी अगत सन. कंना है। मान नरम दृष्यांन ने यह बात अच्छी तरह मिद्ध हो जाती है कि जय परम कृपा लेण्या घाला कर कर्मा, घोर पापी नारकी सम्यक्त्वी रह सकता है तो विधवा-विवाह वाला-जो कि अग्गुननी भी हो सकता है-सम्यक्त्वी क्यों नहीं रह सकता? प्रारंप (3)-पाँचों पापों में एक है साल्पी हिंसा, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) सो संकल्पी हिंसा करने वाला श्रासेट वालों की तरह सप्त व्यसनी है। उसके कभी सम्यक्त्व नहीं होसकता । भला जहाँ प्रशम- सवेग हो गये हाँ वहाँ संकल्पी हिंसा होना त्रिकाल में मी सम्भव नहीं है । - समाधान — यहाँ पर प्रक्षेपक व्यसन और पापके भेद को भूल गया है । प्रत्येक व्यसन पाप है, परन्तु प्रत्येक पाप व्यलन नहीं है । इसलिये पाप के सद्भाव से व्यसन के सद्भाव की कल्पना करना श्राचार शास्त्र से अनभिज्ञता प्रगट करना है | श्रक्षेपक अगर अपनी पार्टी के विद्वानों से भी इस व्याप्य व्यापक सम्बन्धको समझने की वेश करेगा तो समझ सकेगा । प्रक्षेपक के मतानुसार सप्तव्यसन का त्याग दर्शन प्रतिमा के पहिले है, जब कि संकल्पी हिंसा का त्याग दूसरी प्रतिमा में हैं । इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन प्रतिमा के पहले और सातिचार होने से दर्शन प्रतिमा में भी सप्तभ्यसन के न होने पर भी संकल्पी हिंसा है। क्या आक्षेपक इतनी मोटी बात भी नहीं समझता ? 'प्रशम सवेग होजाने से संकल्पी हिंसा नहीं होती' यह भी श्रातपक की समझ की भूल है । प्रशम संवेगादि तो चतुर्थ गुणस्थान में हो जाते हैं, जबकि मंकल्पी त्रस हिंसा का त्याग पाँचवें गुणस्थानमें होता है। इससे सिद्ध हुआ कि चतुर्थ गुणस्थान में - जहाँ कि जीव सम्यक्त्वी होता है- प्रशम सवेगादि होने पर भी सङ्कल्पी त्रस हिंसा होती है । ख़ैर, प्रक्षेपक यहॉ पर बहुत भूला है । उसे गोम्मटसार आदि ग्रन्थों से श्रविरतसम्यग्दष्टि और देशविरत के अन्तर को समझ लेना चाहिये । आक्षेप (ऊ) - जब पुरुष के स्त्री वेद का उदय होता है, तब विवाहादि की सूझती है । मला अप्रत्यास्थानावरण कषाय वेदनीय से क्या सम्बन्ध है ? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-स्त्रीवेट के उदय से विवाहादि की मृझती है-मानेपक की यह बात पाठक ध्यान में रस्व क्योंकि भागे इसी वाक्य के विरोध में स्वयं धानेपक ने वकवाद किया है। और, स्त्रीवेटे के उदय से विवाह की नहीं, सम्भोग की इच्छा होती है। सम्भोग की इच्छा होने पर अगर अप्रत्यारयाना. वरण का उदयाभावी क्षय होता है तो वह अणुव्रत धारण कर क्सिी कुमारी से या विधवा से विवाह कर लेता है। अगर अप्रत्याख्यानाघरा का उदयामावी क्षय न होकर उदय ही होता है तो वह व्यभिचारी होने की भी पर्वाह नहीं करता । बेट का उदय तो विवाह और व्यभिचार दोनों के लिये समान कारण है, परन्तु अप्रत्यारयानावरण का उदयनय, अथवा प्रन्याख्यानावरण का उदय, व्यभिचार से दूर रख कर उसे विवाह के बन्धन में रखता है। इसलिये विवाह के लिये अप्रन्या. ख्यानावरणके उदयाभावी नाय का नाम विशेष रूप में लिया जाता है। वेत्राग आक्षेपर इतना भी नहीं समझना शिविम कर्म प्रकृतिका कार्य क्या है ? फिर भी सामना करना चाहता है ! आश्चर्य! पाप (ऋ-गजवातिय विवाह लक्षण मजैसेशन्या का नाम नहीं है वैसे ही स्त्री पुल्पका नाम नहीं है। फिर स्त्री पुरुष का विवाह क्या लिखा? स्त्री स्त्री का क्यों न लिखा? समाधान-राजघातिक के विवाह लक्षणमें चारित्रमोह के उदय का उल्लेख है ! चारित्र माह में स्त्रीवेद पुल्यवेट भी है । स्त्रीवेद के उदय से स्त्री, स्त्री को नहीं चाहती-पुरुष की चाहती है। और पुरुपद के उदय से पुरुष,पुरुप को नहीं चाहता-स्त्रीको चाहता है । इसलिये विवाह के लिये स्त्री और पुरुष का होना अनिवार्य है। योग्यता की दुहाई देकर यह नहीं कहा जासकताकि स्त्रीवेद के उदय से कुमार केही साथ रमण Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ । करने की इच्छा होती है और वह कुमारी को हो होनी है। 'इली तरह पुरुषवेद के उदय मे यह नहीं कहा जा सकता कि पुरुप को कुमारी के साथ ही रमण करने की इच्छा होती हैविधवा के साथ नहीं होती। मतलब यह कि स्त्रीपुरुष वेदो. दय के कार्य में स्त्री पुरुष का होना आवश्यक है, कुमार कुमारी का होना आवश्यक नहीं है। इसीलिये गजवानिक के लक्षण के अर्थ में स्त्रोपुरुष का नाम लिया-कुमार कुमारी का नाम नहीं लिया। आक्षेप (ल)-न्त्री वेद के उदय से नो स्त्री मात्र से भोग करने की निरर्गल प्रवृत्ति होनी है। यह विवाह नहीं हैव्यभिचार है। जहाँ मर्यादा रूप कन्या पुरुप में स्वीकारता है वही विवाह है । कामसेवन के लिये दोनों बद्ध होते है । 'मैं कन्या तुम ही पुरुष से मैथुन करूंगी और मैं पुरुष तुम ही कन्या से मैथुन करूंगा ग्रह स्वीकारना किस की है? जवनक कि कुमार अवस्थामें दोनों ब्रह्मचारी हैं। यहाँ समयकी अवधि नहीं है, अतः यह कन्या पुरुष की स्वीकारता यावज्जीव है। समाधान-सिर्फ स्त्रीवेद के उदय को कोई विवाह नहीं कहता । उससे तो काम लालसा होती है । उस काम लालसा को मर्यादित करने के लिये विवाह है । इसलिये स्त्रीवेद के उदय के विना विवाह नही कहला सकना और स्त्रोवेदके उदय होने पर भी काम लालसा का मर्यादित न किया जाय तो भी विवाह नहीं कहला सकता । काम लालसा को मर्यादित करने का मतलब यह है कि संसारको समस्त स्त्रियोंसे काम लालसा हटाकर किसी एक स्त्री में नियत करना। वह स्त्री चाहे कुमारी हो या विधवा, अगर काम लालसा वहीं बद्ध हो गई है तो मर्यादा की रक्षा हो गई । सैकडी कन्याओं के साथ विवाह करते रहने पर भी काम लालसा मर्यादित कहलाती रहे और Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ममम्न स्त्रियों का त्याग करके एक विधवा में काम लालसा को बद्ध करने से भी काम लालसा मर्यादित न मानी जावे, हम नासमझी का कुछ ठिकाना भी है ? 'प्राक्षेपक के कथनानुसार जैसे कन्या 'तुम ही पुरुष' स मैथुन करने की प्रतिमा करनी, उमी नरह पुरुष भी तो "तुमही कन्या" ले मैथुन करने की प्रतिमा करना है। पुरुप ना विधुर हो जाने पर या मपनोक होने पर भी अनेक स्त्रियों क साथ विवाह करता रहे-फिर भी उसको 'नम ही कन्या की प्रनिशा बनी रहे और स्त्री, पति के मर जाने के बाद भी किसी एक पुरुप से विवाह करे ना उनने में ही 'तुम ही पुरुष वाली प्रनिना नष्ट हो जाये ! यादरे 'तुमाही! या 'तुमी ' का 'ही' नी यडा विचित्र है जो एक तरफ नो मैकडॉ बार मारे जाने पर भी बना रहता है और दूसरी नरफ़ज़गमा का लगते हो समाप्त हो जाता है ! क्या श्राक्षे. पक इस यान पर विचार करेगा कि जब उसके शब्दों के अनु मार ही स्त्री और पुरुष दोनों की प्रतिमा यावज्जीव थी तो पुनर्विवाह में स्त्री, प्रनिताच्युत क्यों कही जाती है और पुरुष क्यों नहीं मना जाना ? यहाँ बानेपक को अपने 'यावज्जीव' और 'दी का बिलकुल न्याल ही नहीं रहा। इसीलिये अपनी धुन में मग्न होकर यह कतरफा टिगरी देना हुआ कहता है आक्षेप (0)-जय यायजीव की प्रतिमा कन्या करती है तो फिर पनि फे मरजाने पर वह विधवा हुई तो यदि पुरुपा. न्नर ग्रहण करनी है नो अकालइटेच प्रगीत लक्षण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता। वह व्यभिचार है। मपाधान-ठीक हनी नगर श्राक्षेपक के शन्दानुसार कहा जा सकता है कि जय यावज्जीव की प्रनिशा पुरुष करता है तो फिर पत्नी के मर जान पर वह विधुर हुश्रा । सो यदि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह दूसरी कन्या ग्रहण करता है तो प्रश्नक देव प्रणीत लक्षण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता । वह व्यभिचार है। यदि इतने पर भी पुरुष का पुनर्विवाह विवाह है, व्य. भिचार नहीं है, तोरीका पुनर्विवाद भी विवाह है, व्यभिचार नहीं है। श्राक्षेपक के शब्द ही पूर्वापरविरुद्ध होने से उसके वक्तव्य का खडन करते है । चकाने की दृष्टि के समान हक तरफा तो है ही। श्राक्षेप (ऐ)-राजवार्तिक के माध्यमें विवाह के लिए कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। यह बात लेग्नक स्वयं मानते है। समाधान-कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह योग्य स्त्री हैविवाह के प्रकरण में दूसरा अर्थ हो हो नहीं सकता । यह यात हम पहिले लेख में लिद्धकर चुके है, यहाँ भी श्रागे सिद्ध करेंगे। परन्तु "तुभ्यतु दुर्जनः" इस न्याय का अवलम्बन करके हमने कहा था कि कन्या शब्द, कन्या के अन्य विशेषणों की भॉति आदर्श या बहुलता को लेकर ग्रहण किया गया है। इसीलिए वात्तिक में जो विवाह का लक्षण किया है उन में कन्या शब्द नहीं है । टीका में कन्या विवाह का दृष्टान्त दिया गया है, इस से कन्या का ही वरण विवाह कहलायेगा, यह बात नहीं है। अकलङ्क देव ने अन्यत्र भी इसी शैली से काम लिया है। वे वार्तिक में लक्षण करते हैं और उसकी टीका में बहुलता को लेकर किसी दृष्टान्तका इस तरह मिला देते हैं जैसे वह लक्षण ही हो। अकलङ्क देव की इस शैली का एक उदाहरण और देखिये सवृत्तस्य प्रकाशनम् रहोभ्याख्यान (वार्तिक ) स्त्री पुसाभ्यां एकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशन यत् रहो. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५ ) भ्याल्यानं नटेटिनव्यं (भाप्य )। वार्निक में रहोभ्याख्यान' का अर्थ किया गया है किसी की गुप्त पान प्रगट करना' परन्तु भाज्य में यदुलना की अपेक्षा लिखा गया है कि 'स्त्री पुरुप ने जो एकांत में कार्य किया हो उसका प्रकाशित करना' रहोभ्याख्यान है। भाष्य के अनुमार 'स्त्री पुरुष' का उल्लेख नाचार्य प्रभाचन्द्रने रत्नकरगडकी टोकाम,श्राशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत में भी किया है । श्राचार्य पूज्यपाद भी इसी तरह लिख चुके हैं। इस विवेचनले भान पक नरीखे लोग तो यही अर्थ निकालेंगे कि 'स्त्री-पुरुष की गुप्त बान प्रगट करना रहोभ्यारयान है। अन्य लोगों की गुप्त बात प्रगट करना रहोभ्याख्यान नहीं है। परन्तु विद्यानन्टि ग्वामी ने श्लोक वार्तिक में जो कुछ लिखा है उससे यात दूसरी ही हो जाती है। "मंवृतम्य प्रकाशनं होम्यारयानं, स्त्री पुरुषानुष्ठित गुप्त क्रिया विशेष प्रकाशनवत्' अर्थात् गुप्त क्रिया का प्रकाशन, रहोभ्यारयान है । जैसे कि स्त्री-पुरुष की गुप्त बात का प्रकाशन । यहाँ स्त्री पुरुष का नाम उदाहरण रूपमें लिया गया है। इससे सगे की गुप्त यान का प्रकाशन करना भी रहोभ्यास्यान कहलाया। यही बात गयचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित नत्वार्थ भाष्य में भी मिलती हैं-"स्त्री पुसयो परस्परेणान्यस्यवा" मेरे कहने का सार यह है कि जैसे रहोभ्याख्यान की परिभाषा में बहुलता के कारण दृष्टांत रूप में 'स्त्री पुरुष' का उम्मेण कर दिया है उसी तरह विवाह की परिभाषा में मूलमें कन्या-शब्द न होने पर भी, यहुलना के कारण उदाहरण रूप में कन्या-शब्दका उल्लेख हुश्रा है। जिसका अनुकरण रहोभ्या. ख्यान की परिभाषा के 'स्त्री पुरुष' शब्द की तरह दूसरों ने भी किया है। परन्तु विद्यानन्दि स्वामी के शब्दोंसे यह बात साफ़ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहिर होती है कि रहोम्यास्यान का 'रहः' स्त्री पुरुष में ही कैद नहीं है और न विवाह का 'वरण' कन्या में ही कैद है। इसीलिये श्लोक वानिक में विवाहशी परिभाषा में 'न्या'शब्द का उल्लेख ही नहीं है। इस जगसी बात को समझाने के लिये हमें इननी पक्तियाँ लिखनी पड़ी है। पर करें धया ? ये याने पक लोग इतना भी नहीं समझते कि किस ग्रन्थ की लेखन शैली किस ढग की है । ये लोग 'धर्म-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध' चिल्लाने में जितना समय बरबाद करते हैं उतना अगर शास्त्रों के मनन करने में लगावे तो योग्यता प्राप्त होने के साथ सत्य की प्राप्ति भी हो । परन्तु इन्हें सत्य की परवाह हो तब तो! आक्षेप--(श्री) जो देने के अधिकारी हे वे सब उप. लक्षणले पितृ सदृश है । उनके ममान कन्याके स्थानमें विधवा जोडना सर्वथा असंगत है। क्योंकि विधवा के दान करने का अधिकार किसी को नहीं है। अगर पुरुष किसी के नाम वसीयत कर जाय तो यह कल्पना स्थान पा सस्ती हैं। पिता ने कन्या जामाता को दी, अगर जामाता फिर किसी दूसरे पुरुषको देना चाहे तो नहीं दसकता है.फिर दूारा कौन दे सकता है? ' समाधान-जिस प्रकार देने के अधिकारी उपलनण से पितृ सदृश है उसी प्रकार विवाह याग्य सभी स्त्रियाँ कुमारी सदृश है, इस में न कोई विषमता है न असहनता । श्रापक का हृदय इतना पतित है कि वह स्त्रियों को गाय, भैंस यादि की तरह सम्पत्ति या देने लेने की चीज समझता है। इसीलिए वह लिखता है "कन्या पिता की है, पिता न हो तोजो कुटुम्बी हो वेही उसके खामी है" लेकिन जैन शास्त्रों के अनुसार पिता वगैरह उसके संरक्षक है-खामी नही। स्त्री कोई सम्पत्ति नहीं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) है यहाँ तक कि वह पति की भी सम्पत्ति नहीं है । सम्पत्ति, इच्छानुसार स्वामी को नहीं छोड़ सकती, जयकि स्त्री अपने 'पति' को छोड सकती है। यही कारण है कि अग्निपरीक्षा के बाद सीताजी ने राम को छोडकर दीना लेली । गमचन्द्र प्रार्थना करते ही रहगये। क्या सम्पत्ति इस तरह मालिक की उपेक्षा कर सकती है ? स्त्रियों को सम्पत्ति कहकर अपनी मां बहिनों का घोर अपमान करने वाले मी जैनी कहलाते है, यह आश्चर्य की यात है। यदि स्त्रिया सम्पत्ति है तो स्वामी के मरने पर उनका दूसरा स्वामी होना ही चाहिये, क्योंकि सम्पत्ति लावारिस नहीं रहती है। त्रियों को सम्पत्ति मान लेने पर तो विधवाविवाह की आवश्यकता और भी ज्यादा हो जाती है । हम पूरते हैं कि पति के मर जाने पर विधवा, लावारिस सम्पत्ति बनती है या उसका कोई स्वामी भी होता है। यदि आक्षेपक उसे लावारिस सम्पत्ति मानता है तब तो गवर्नमेन्ट उन विध. वानाको हथिया लेगी, क्योंकि 'अस्वामिक्रस्य द्रव्यस्य दायादो मेदिनी पतिः' अर्थात् लावारिस सम्पत्ति का उत्तराधिकारी राजा होता है। क्या धानेपक की यह मन्शा है कि जैनसमाज की विधवाएँ अग्रेजोको देढी जायें ? यदि वे किसीकी संपत्ति हैं तो प्रक्षेपक बतलाये कि वे किसकी सम्पत्ति है ? जैसे वाप की अन्य सम्पत्ति का स्वामी उसका बेटा होता है, क्या उसी प्रकार वह अपनी मां का मी स्वामी बने ? कुछ भी हो, स्त्रियों को सम्पत्ति मानने पर उनका कोई न कोई म्वामी अवश्य सिद्ध होता है और उसी को अधिकार है कि वह उस विधवा को किसी योग्य पुरुष के लिये देदे। इस तरह त्रियोंको सम्पत्ति मानने का सिद्धांत जगली. पन से भरा होने के साथ विधवाविवाह-विरोधियों के लिये Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ } आत्मघातक है। पक तरफ तो प्राक्षेपक कहना है कि पिनाको दी कन्या जामाता की सम्पत्ति है, दूसरी तरफ कहता है कि जामाना भी किसी को देना चाहे तो नहीं दे सकता । जय कि सम्पत्ति है तब क्यों नहीं दे सकता ? क्या इमसे यह नहीं सिद्ध होता कि स्त्री किसी की लम्पत्ति नहीं है ? स्त्रियों को सम्पत्ति मानने वाले कन्या विक्रय के साथ भार्या विक्रय, मातृ-विक्रय की कुप्रथाओं का भी मृत्रपान करने है। प्रेर, स्नियाँ किसी की सम्पत्ति हो चाहे न हो, दोनों ही श्रवन्याओं में विधवाओं को विवाह का अधिकार रहता है । इस नरह विवाह योग्य समं स्त्रियाँ उपलक्षणसे कुमारी सहश है। जैसे कन्या के सभी सरक्षक उपलक्षण से पितृसदश। आक्षेप (श्री)-पन्या नाम स्त्री सामान्य का भी है, हम मी इसे स्वीकार करते हैं । विश्वलोचन कोष हो क्या, हेम और मेटिनी कोष भी ऐसा लिखते है, परन्तु जहाँ जमा सम्बन्ध होगा, शब्द का अर्थ भी वहाँ वैमा मानना होगा। समाधान-जब पापक कन्या का अर्थ स्त्री-मामान्य स्वीकार करता है और विवाह के प्रकरण में में कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह योग्य स्त्री' करता हूँ तो इसमें सम्बन्ध विरुद्धता या प्रकरणविरुद्धता कैले हो गई ? विवाह के प्रकरण में विवाह योग्य स्त्री को प्रकरण-विरुद्ध कहना बुद्धि का अद्भुत परिचय देना है। भोजन करते समय सैन्धव शब्दका अर्थ घोडा करना प्रकरण-विरुद्ध है, क्योंकि घोडा खाने की चीज़ नहीं है, परन्तु विवाहयोग्य स्त्री तो विवाह की चीज है । वह विवाह के प्रका रण में प्रकरण-विरुद्ध कैसे हो सकती है ? आक्षेपक कहेगा कि विवाह तो कुमारी का ही होता है, इसलिये कन्या का कुमारी अर्थ ही प्रकरण-सगत है । परन्तु यह तो श्राक्षेपफ की मनगर्दत बात है, जैनधर्म के अनुसार तो कुमारी और विधवा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) दोनों का विवाह हो सकता है। इसलिये सुधारकों के लिये "विवाह योग्य स्त्री अर्थ" ही प्रकरण-सहत है। श्राक्षेपक के समान सुधारक लोग तो जैनधर्म को तिलाञ्जलि दे नहीं सकते। आक्षेप (श्र)-साहलगति ई मुह से सुताराको कन्या कहलाकर कवि ने साहित्य की छटा दिखलाई है । उसको दृष्टि में वह न्या समान ही थी । साहसगति के भावों में सुताग की कामवासना सूचित करने के लिये कवि ने नारी भार्या यादि न लिकर कन्या शब्द लिखा । यदि ऐसा भाव न होता तो कन्या न लिनकर रगडा लिप देना। समाधान-कविने रगडा इसलिये न लिखा कि सुतारा तब गैड नहीं हुयो । साहरागति सुग्रीवसे लडकर या उसे मार कर सुनाग नहीं छीनना चाहता था-यह धोखा देकर छीनना चाहता था । इमीलिये उसनं रूप-परिवर्तिनी विद्या सिस की आवश्यकता होने पर लड़ना पड़ा यह बात दूसरी है। सर ! जनक सुग्रीव मरा नहीं तब तक सुनारा को रॉड कसे कहा जा सकता था। दध्याचेतमि शमामिदग्धी निःसार मानसः। क्नोपायेनतां कन्यालप्स्ये निवृतिदायिनी ॥१०॥१४॥ यह श्लोक धमने यह सिद्ध करने के लिये उद्धत किया था कि कन्याशब्द का 'स्त्री सामान्य' अर्थ भी है और इसके उदाहरण माहित्यमे मिलते है । प्राक्षेपक ने हमारे दोनों प्रों को स्वीकार कर लिया है, तब समझमें नहीं आता कि वह उस अर्थ के समर्थन को क्यों अस्वीकार करता है । यह श्लोक विधवाविवाह के समर्थन के लिये नहीं दिया है। सिर्फ कन्या.शम्द के अर्थ का खुलासा करने के लिये दिया है, जो अर्थ आक्षेपक को मान्य है। नारी, भार्या न लिखकर कन्या लिखने से कामवासना Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) कैसे सूचित हुई ? र कन्या का अर्थ कुमारी वा जावे तब तो मार्याहरण की अपेक्षा वन्याहरण में कामवासना कम ही मालूम होती है । असली बात यह है कि सहमति विद्यावर हो पुत्री की माता हो जाने पर भी लुतारा की प्रौदा नहीं मानना था। उसकी दृष्टि उस समय भी वह परम सुन्दरी थी. उस मैं विवाह योग्य मी के सब गुण मौजूद थे। इसीलिये उसने सुतारा को कन्या कहा । लुनाग में इस समय भी विवाहयोग्य स्त्री के समान नोंदर्यादि थे, इसलिये कविने उसे कन्या कहला कर यह बात और मी माफ करदी है कि विवाहयोग्य स्त्रीशी कन्या कहते है | अगर कवि की यह श्रर्थ श्रभिमत न होता तो इस जगह वह 'वाला शब्द का प्रयोग करना जिसमे माहसगति की कामातुरता का चित्र और अधिक खिल जाना । खैर, जरा व्याकरण की दृष्टिले मी हमें कन्या शन्द्र पर विचार करना है | व्याकरण में पुल्लिंग शुन्द्रों से स्त्रीलिंग बनाने के कई तरीके है । कहीं डीप्, कहीं टीपू, कहीं न ( हिंदी में) आदि प्रत्यय लगाये जाते हैं तो कहीं शब्द रूप बिलकुल बदल जाता है। जैसे पुत्र पुत्री श्रादि शब्दों में प्रत्यय लगाये जाते हैं जबकि माता पिता, भाई बहिन में शब्द ही बदल दिया जाना है। भाई और बहिन दोनों शब्दों का एक अर्थ है: श्रन्तर इतना है कि भाई शब्द से पुरुष जातीय का बोध होता है जबकि बहिन शब्द से स्त्री जातीय का। इसी तरह वर और कन्या शब्द हैं। दोनों का अर्थ एक ही है; अन्तर इतना ही हे कि एक से पुरुष का बोध होता है दूसरे से स्त्री का । अपने विवाह के समय प्रत्येक पुरुष वर कहा जाता है, चाहे उसका Ho - पहिला चित्राह हो, चाहे दूसरा । ऐसा नहीं है कि पहिले विवाह के समय 'वर' कहा जाय और दूसरे विवाह के समय घर न Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २६ } कहा जाय । नथा हर एक कुमार को वर नहीं वह सकते । इसी प्रकार अपने विवाह के समय प्रत्येक मी 'eat' कही जाती है, चाहे वह उसका पहिला विवाह हो चाहे दुसरा ऐसा नहीं हो सकता कि पहिले विवाह के समय वह क्या कही जाय और दूसरे विवाह के समय न कही जाय । मतलब यह कि विवाह कराने वानी प्रत्येक स्त्री क्या है और विवाह न कराने वाली कुमारी भी कन्या नहीं है । ग्रन्य प्रकरण में स् के भले ही दूसरे अर्थ हो, परन्तु विवाह के प्रकरण में अर्धान वरण केक में का विवाह कराने वाली स्त्री' श्रर्थ ही हो सकता है । इसी अर्थ को ध्यान में रख कर कवि ने सहमति के मुंह से सुनाग का क्या कहलाया है। इसी प्रयोग से कवि ने बना दिया है कि कवि की वाच्य वाचक सम्बन्ध का कैसा सून परिचय है । efore ने अपने इस सूक्ष्म ज्ञान का परिचय अन्यत्र मी दिया है कि जिस से सिद्ध होता है कि विवर, क्या शद का अर्थ 'विवाह करने वाली स्त्री' या 'ग्रहण को जाने वाली त्री' करते है | यहाँ पर for ने का प्रयोग किसी साधारण पात्र के मुंह से नाके एक व विज्ञानी मुनि के मुँह से कराया है। राजा कुण्डलमगिडत ने पिंगल ब्राह्मण की स्त्री का हरा कर लिया था | जन्मान्तर की कथा सुनाते समय श्रवविज्ञानी मुनिराज इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में करते है हरसिंगलात् कन्यां तथा कुडल मडितः । पदत्रायं पुरा वृत्तः सम्बन्ध परिकीर्तितः ॥ ३०-१३३ ॥ मधन्- कुडलमण्डित ने पिल ब्राह्मण की स्त्री Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) का हरण किया । यह वात पहिले ही ( पन्नपुगण में) कही (कुण्डलमण्डित ने पिंगल की स्त्री का ही हरण किया था, किसी कुमारी का नहीं। यह बात पाठक पनपुगण में देख सकते है । यहां भी वह श्लोक दिया जाता है --- भरतस्थे विदग्धारये पुरे कुण्डलमण्डितः । अधार्मिकोऽहरकांनां पिंगलस्यमनः प्रियां ॥ ॥३०॥६६॥ इस श्लोक में जिस का उल्लेख कान्ता शब्द से किया गया है, उसी का १३३ वे श्लोक में कन्या शब्द सं किया गया है। इन घटनाओं की अन्य बातों से हमें कोई मतलय नहीं । हमें तो आक्षेपक के हठ के कारण इन का उल्लेख करना पड़ा है। इस से हमें सिर्फ यही सिद्ध करना है कि कन्या शब्द का अर्थ 'ग्रहण-वरण करने योग्य स्त्री' है। इस लिए "कन्यावरणं विवाहा" ऐसा कह कर जो विधवाविवाह का निषेध करना चाहते हैं, वे भूलते हैं। __ आक्षेप-(अ) कन्या शब्द का अर्थ नारी भी है, इसलिये देवागनाओं के लिये 'देव-कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है । यह नहीं हो सकता कि जो स्त्री दूसग पति करे, वही कन्या कहलावे । विधवा होकर दूसरा पति ग्रहण करने वाली भी कन्या कहलाती हो सो सारे सम्मान में कहीं नहीं देखा जाता । जिन योरोप श्रादि देशो में या जिन जातियों में विधवा-विवाह चालू है, उन में भी विवाह के पूर्व लडकियों को कन्या माना जाता है और विवाह के बाद बधू आदि। समाधान-कुमारी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों (सधवा, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) विधवा) को भी कन्या कह सकते हैं, यह बात थाप पहिले स्वीकार कर चुके हैं और यहाँ भी स्वीकार कर रहे हैं । यही यात हम सिद्ध करना चाहते हैं । 'जो दूसरा पति ग्रहण करे वही कन्या है' यह तो हमारा कहना नहीं है। हम तो यह कहना चाहते हैं कि वह भी कन्या है; इस अर्थ को आप भी स्वीकार करते हैं। डॉ साहसगति विद्याधर और कुण्डलमण्डित के दृशन्न से यह बात अवश्य मालूम होती है कि जब कोई पुरुष किसी स्त्री को ग्रहण करना चाहता है, तभी प्रायः वह कन्या कही जाती है। अन्य अवस्थाओं में अकुमारी को कन्या कहने के उदाहरण प्रायः नहीं मिलते। इन उदाह रणों से तथा वर और कन्या शब्द की समानार्थकता से यह बात साफ़ मालूम होती हैं कि कन्या का अर्थ विवाह कराने वाली या विवाह-योग्य स्त्री है। योगेप का उदाहरण देकर तो थाप ने अपना ही विरोध किया है। आप ने कन्या शब्द का अर्थ कुमारी स्त्री भी किया है, जब कि योगेप का उदाहरण देकर श्राप ग्रह सिद्ध करना चाहते हैं कि अविवाहिता को ही कन्या कहते हैं । परन्तु आप ने शुध्दों का प्रयोग ऐसा किया है, जिस से हमारी बात सिद्ध होती है। आप का कहना है कि - योरोप में विवाह के पहिले लड़कियों को कन्या माना जाता है। इस पर हमारा कहना है कि अगर कोई बालविधवा दूसरा विवाह करे तो उस विवाह के पहिले भी वह कन्या कहलायेगी | यह तो श्राप बिलकुल हमारे सरीखी बात कह गये | आपने यह तो कहा नहीं है कि प्रथम विवाहक पहिले कन्या कहलाती हैं और दूसरे विवाह के पहिले कन्या नहीं फहलानी ! ख़ैर । य इस तर्क वितर्क के बाद सीधी बात पर आइये । योरोप में भारतीय भाषा के कन्या श्रादि शब्दों का प्रयोग नहीं होता । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) इरेजी में कन्या के बदले M14s ( मिस ) शब्द का प्रयोग होता है, परन्तु कन्या शब्द का अर्थ जब कुमारी किया जायगा तभी उसका पर्याय शब्द Miss ( मिस ) होगा, जब नारी अर्थ किया जायगा तत्र Miss ( मिल ) शब्द उसका पर्यायवाची नहीं बन सकता । असली बात तो यह है कि 'वर' श्रीर 'कन्या' इसका ठीक हिंदी अनुवाद होगा 'दूल्हा' और 'दुल्हन' | जिस प्रकार 'दुल्हा' को 'वर' कहते है उसी प्रकार दुल्हिन को 'कन्या' कहते हैं । वर शब्द का घरेजी अनुवाद हैं Bride. groom ( ब्राइडनम); इसलिये कन्या शब्द का अनुवाद होगा Buide (ब्राइड) । विवाह के प्रकरण में कन्या शब्द का दुल्हिन अर्थात् Bride अर्थ लगाना ही उचित है । जिस प्रकार भोजन के समय सैन्धव शब्द का घोड़ा अर्थ करना पागलपन है, उसी प्रकार विवाह के प्रकरण में कन्या शब्द का कुमारी अर्थ करना पागलपन है । उस समय तो कन्या शब्दका दुल्हिन अर्थ ही होना चाहिये । वह दुल्हिन कुमारी भी हो सकती है और विधवा भी हो सकती है। इसलिये कन्या शव्दके कारण विधवाविवाह का निषेध नहीं किया जा सकता । आक्षेप - (क) सभी देवियों को दूसरे देवों के साथ नहीं रहना पड़ता । देवी जिसे चाहे उसी देव को अपना पति नहीं वना सकती, परन्तु अपने नियोगी को ही पति बना सकती है। देवियों के दृष्टान्त से विधवाविवाह की पुष्टि न करना चाहिये । दृष्टान्त जिस विषय का है पुष्टि भी वैसी करेगा । देवाङ्गना दूसरी गति है । वे रजस्वला नहीं होतीं, गर्भधारण नहीं करतीं, उन के पलक नहीं गिरते, जब कि मनुष्यनी की ये बातें होती है । 1 I समाधान-सभी देवियों को दूसरा पति नहीं करना पडता, परन्तु जिन देवियों का पति मर जाता है वे पति के Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) स्थान पर पैदा होने वाले अन्य देव को पनि बना लेती है, यह यात नो बिलकुल नत्य है। जैसा कि प्रादिपुगण के निम्न लिखित लोगों से मालम होता है :भीमः माधुः पुरे पडगेकिंगयां चातियातनान् । ___-पर्व०४ालो० ३४ः । गन्ये शिकरोद्याने पंचममान पूजित । तस्थिवाँस्नं ममागन्य चतबो देवयापितः ॥ ४६॥ ३४६ बंदित्वाधर्ममावगर्य पापाढम्मत्पनिमतः। त्रिलोकेशवदाम्माकं पनिः कोन्या भविष्यति ॥४३५०॥ पुण्डरीकपुर के शियंकर नामक बगीचे में मीम नामक साधु को घानिया की के नाश करने से कंबल बान हुआ। उन के पास चार देवाइनाएं आई। यन्दना की, धर्म सुना। फिर पूछा-हे त्रिलोकेश! पापकर्म के उदय मे हमाग पनि मर गया है, इसलिये कहिये कि हमाग दमग पनि कौन होगा? ग्रह वान टुमरी है कि बहुनसो देवानाओं को विधवा नहीं होना पडना, इममे दुसरा पति नहीं करना पड़ता। परन्तु जिन्हें करने की जरुरत होती है वे दूसरे पनि का त्याग नहीं कर देती। हाँ, देवाननाएँ दूसरे देव को नहीं पकडती, अपने नियोगी का ही पड़ती हैं: सो यह बात कर्मभूमि में भी है । मध्यलोक में भी नियोगी के साथ ही दाम्पत्यलम्बन्ध होता है। हाँ, देवगति में नियोगी पुरुष और नियोगिनी स्त्री का चुनाव (नियोग= नियुक्ति) व ही कर देता है जबकि कर्म. भृमि में नियोगी और नियोगिनी के लिये पुरुषार्थ करना पडना हैं। सो इस प्रकार का पुरुषार्थ विधवाओंके लिये ही नहीं करना पड़ता, कुमारियों के लिये भी करना पड़ता है। देवकृत और प्रयत्नकृत नियोग की बात से हमें कुछ मतलब नहीं। देखना यह है कि देवगति में देवियाँ एक देव के मरने पर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) दूमरा देय प्राप्त कर लेती है। इनना ही नहीं, दूसरे देव को प्राप्त काम की लालमा इतनी बढ़ जाती है कि वे थोडी देर मी शान्त न बैठ कर केवली भगवान के पास पूछने जाती है। केवली भगवान भी दूसरे पति के विषय में उत्तर देते हैं। अगर दूसरे पति को ग्रहण करना पाप हाना नो वे देवियाँ धर्म श्रवण करने के बाद केवली भगवान में ऐसा प्रश्न न करती । और न केवली भगवान् के पाम से इस का उत्तर मिलता । जब केवली भगवान् ने उन्हें धर्म मुनाया तो उसमें यह बात क्यों न सुनाई कि दूसग पति करना पाप है ? क्या इससे यह बात साफ नहीं हो जाती कि जैनधर्म में विधवा. विवाह को वही स्थान प्राप्त है जो कुमारीविवाह को प्राप्त है। इतने पर भी जो लोग विधवाविवाह को धर्मविरुद्ध समझते हैं वह पुरुप मदोन्मत्त, मिथ्यादृष्टि नहीं तो क्या है ? देवांगना दूसरी गति में हैं और उनके शरीर में ग्स रक्तादि नहीं है, तो क्या हुभा ? जैनधर्म ना सब जगह है। मिथ्यात्व और दुगचार शरीर के विकार नहीं, आत्मा के विकार हैं। इस लिये शरीर की गुणगाथा से अधर्म, धर्म नहीं बन सकता । यहाँ धर्म अधर्म की मीमांसा करना है, हाड मॉस की नहीं। हाड मांस तो सदा अपवित्र है, वह न तो पुनर्विवाह से अप. वित्र होता है और न पुनर्विवाह के बिना पवित्र। अगर यह कहा जाय कि देवगति में ऐसा ही रिवाज है, इसलिये वहाँ पाप नहीं माना जाता; विधवा देवियों को ग्रहण करने वाले भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं और दूसरे देव को ग्रहण करने वाली देवियों, स्त्री होने से क्षायिक सम्यक्त्व तो नहीं पा लकनी, परन्तुवाकी दोनों प्रकार के सम्यक्त्व प्राप्तकर सकती है। यदि रिवाज होने से देवगति में यह पाप नहीं है तो यहाँ भी पुनः विवाह के रिवाज हो जाने पर पाप नहीं कहला सकता। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) आक्षेप-(ख) दीक्षान्वय क्रिया में जो पुरुष दीक्षा ले रहा है, उसका विवाह उमी की स्त्री के साथ होता है। इससे विधवाविवाह कैसे सिद्ध होगया? समाधान-जो लोग कन्या शब्द का अर्थ कुमारी करते हैं और कुमारी के मिवाय किसी दूसरी स्त्री का विवाह होनहीं मानने, उनको मुंहतोड उत्तर देने के लिये हमने दीक्षा. न्वय क्रिया का वह श्लोक उधत किया है । दीक्षित मनुष्य भने ही अपनी स्त्री के साथ विवाह करता हो, परन्तु उस की स्त्री कन्या है कि नहीं? यदि कन्या नहीं है तो 'कन्यावरणं विवाहः' इस परिभाषा के अनुसार वह विवाह ही कैसे कहा जा सकता है ? लेकिन जिनसेनाचार्य ने उसे विवाह कहा है। अगर वह स्त्री, विवाह होने के कारण कन्या मानी जासकती है नो विधवा भी कन्या मानी जा सकती है। सवा तो कन्या कहना सके और विधवा कन्या न कहला सके यह नहीं हो सस्ता । श्राक्षेप (ग)-न्याएँ जिस प्रकार शहिनी पद्मिनी आदि होती है, उसी प्रकार पुरुष भी। जब स्त्री पुरुष समान गुणवाले नहीं होने तय मनम्य, मन्नानादि का अभाव होता है। इसलिये मागारधर्मामृत में कन्या के लिये निर्दीप विशेषण दिया है। तम इन महत्वपूर्ण शब्दों का भाव ही नहीं समझ। समाधान-समान गुणवाले स्त्री पुरुष होने से लाभ है। परन्तु हमाग कहना यह है कि अगर शालिनी श्रादि भेदों की समानना नहीं पाई जाय तो विवाह धर्मविरुद्ध कहलायगा या नहीं ? यदि धर्मविरुद्ध कहलायगा नव आजकल के फी सदी १०विवाह धर्मविरुद्ध ठहरेंगे, क्योंकि इन भेदों का विचार ही नहीं किया जाता। अन्य प्रकार के वृदविवाहादि अनमेलविवाह मी धर्मविरुद्ध उहरेंगे । फिर केवल विधवाविवाह के पीछे Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) इतना तूफान मचाना किस काम का ? यदि श्रनमेल श्रादि विवाह धर्मविरुद्ध नही है तो विधवाविवाह भो धर्मविरुद्ध नहीं है । इसलिये जिस प्रकार 'निर्दोष' विशेषण सदपा के विवाह को धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता, उसी प्रकार 'कन्या' विशेषण विधवा के विवाह का धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता । इसके लिये हमने पहिले लेख में खुलासा कर दिया है कि 'कन्या और विधवा में करुणानुयोग की दृष्टि में कुछ अन्तर नहीं है जिससे कन्या और विधवा में जुदी जुदी दा श्रामाएँ बनाई जायें' । इस अनुयोग सम्बन्धी प्रश्न का श्राप कुछ उत्तर नहीं दे सके । आक्षेप (घ ) - जैन सिद्धान्त में कन्या का विवाह होना है, यह स्पष्ट लिखा है । विधवा को आर्यिका होने का या वैधव्य दीक्षा धारण करने का स्पष्ट विधान है । इसलिये विधवाविवाह का विधान व्यभिचार को पुष्टि है । समाधान – कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह कराने वाली स्त्री' या 'दुल्हिन' है ( स्त्री सामान्य आपने भी माना है । ) । दुल्हिन कुमारी भी हो सकती है और विधवा भी हो सकती है, इसलिये जैन सिद्धान्त की आज्ञा से विधवाविवाह का कुछ विरोध नहीं । शास्त्रों में तो अनेक तरह की दीक्षाओं के विधान हैं, परन्तु जो लोग दीक्षा ग्रहण नहीं करते. वे धर्मभ्रष्ट नहीं कहलाते । जिनमें विरक्ति के भाव पैदा हुए हो, कपायें शांत होगई हों, वे कभी भी दीक्षा ले सकती है। परन्तु जब विरक्ति नहीं हैं, कपायें शान्त नहीं है, तब जबर्दस्ती उनस दीक्षा नहीं लिवाई जा सकती । 'ज्यों ज्यों उपशमत कपाया, त्यों त्यो तिन त्याग बताया ' का सिद्धान्त श्रापको ध्यान में रखना चाहिये । इस विषय की प्राय सभी बातें पहिले कही जा चुकी है। आक्षेप (ङ) - प्रबोधसार में लिखा है कि 'कन्या का Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) दुवारा विवाह नहीं होता । यशस्ति में लिखा है कि एकबार जो क्या स्त्री बनाई जानी है वह विवाह द्वारा फिर दुबारा स्त्री नहीं बनाई जानी' । श्रादिपुराण में कीर्ति कहते हैं 'कि मैं उन विववा सुलोचना का क्या करूँगा' । नीतिवाक्यामुन में श्रेष्ट ग्रहों में भी कन्या का पकचार विवाह माना जाता है । समाधान - जैनगज़ट में श्लोक नहीं छपने इस की श्रांट लेकर पडित लोग खूब मनमानी गर्ने हाँक लिया करते हैं । अगर श्लोक देने लगे तो सारी पोल खुल जाय । र, प्रबोध मार में तो किसी भी जगह के २४ नम्बर के श्लोक में हमें fararfarane का निषेध नहीं मिला । यशस्तिलक के लोक के अर्थ करने में श्रापक ने जान बूझकर धोखा दिया है । ज़रा वहाँ का प्रकरण श्री व श्लोक देखिये । किस तरह की मूर्ति में देवकी स्थापना करना चाहिये, इसके उत्तर में सोमदेव लिखते हैं कि विष्णु श्रादिकी मूर्ति में श्रहन्न की स्थापना न करना चाहिये। जैसे—जब तक कोई स्त्री किसी की पत्नी है तब तक उस में ( पम्परिग्रहे ) स्वस्त्री का महत्व नहीं किया जा सकता । कन्याजन में स्वन्त्री का मल्प करना चाहिये । गुत्रन्तृनिकला. न्याजन इवोचितः । नवागन्तर संक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ॥ मतलब यह कि मूर्ति का श्राकार दूसरा हो और न्यापना किसी अन्य की की जाय तो वह ठीक नहीं । हनुमान की मूर्ति में गणेश की व्यापता और गणेश की मूर्ति में जिनेन्द्र को स्थापना अनुचित है । परन्तु मूर्ति का आकार बदलकर अगर स्थापना के अनुरूप बना दिया जाय तय वह स्थापना के प्रतिकुल नहीं रहतीं । श्रन्य मलवियों में तो पत्थरों के ढेर और पहाड़ों तक की देवता की पूर्ति मान लेने हैं । इसलिये क्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) पत्थरों के ढेर में से या पहाड में से किसी पत्थर की जिनेन्द्रमूर्ति बना लेना अनुचित हो जायगा ? स्थापना में सिर्फ इतना ही देखना चाहिये कि वर्तमान में यह पत्थर श्राकारान्तरसंक्रान्न तो नहीं है । पहिले सि श्राकारमें था, इसके विचार की कोई जरूरत नहीं है । इसी प्रकार वर्तमान में जो किसी दूसरे पुरुष की स्त्री है उसे स्वस्त्री नहीं बनाना चाहिये, जैसे कि निघ्यन में अनेक पुरुष एक ही स्त्री को अपनी अपनी पत्नी बनाते हैं या जैसे कि हिंदू शास्त्रों में द्रोपदी के विषय में प्रसिद्ध है । परन्तु जो श्री विधवा हो गई है वह तो कुमारी के समान किसी की पत्नी नहीं हे । वह आकारन्तिरसक्रान्त अर्थात् किसी की पत्नी भी ज़रूर, परन्तु अब नहीं है । इसलिये उसमें स्वपत्नीत्वका सङ्कल्प अनु. चित नहीं है । श्रक्षेपक ने प्रकरण को छिपाकर, कन्या शब्दका अर्थ भुलाकर, ज़बरदस्ती भूतकाल के रूपको वर्तमान का रूप देकर या तो खुद धोखा खाया है या दूसरों को धोखा दिया है । श्राचार्य सोमदेव के वाक्यों से विधवाविवाह का विरोध करना दुःसाहस है । जो श्राचार्य श्रणुवती को वेश्यासेवन तक की खुलासी देते है वे विधवाविवाह का नया विरोध करेंगे ? बल्कि दूसरी जगह खुद उन्होंने स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में वे लिखते है कि- 'विकृत पत्यू द्वापि पुनर्विवाहमर्हतीति स्मृतिकाराः' अर्थात् शास्त्रकार कहते हैं कि जिस स्त्री का पति विकारी अर्थात् सदोष हो, वह स्त्री भी पुनर्विवाह की अधिकारिणी है। इस वाक्य के उत्तर में कुछ लोग कहा करते हैं कि यह तो दूसरों की स्मृतियों का हवाला हैसोमदेव जी इससे सहमत नहीं है । परन्तु सोमदेव जी अगर सहमत न होते तो उन्हें इस हवाले की जरूरत क्या थी ? यदि सोमदेवजी ने विधवाविवाह का खंडन किया होता और खंडन के लिये यह वाक्य लिखा होता तब तो कह सकते थे कि वे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाविवाह से सहमत न थे, परन्तु जब विधवाविवाह का वे खण्डन नहीं करते और विधवाविवाह आदि के समर्थक वाक्य को उद्धत करते हैं तो मूर्ख से मर्ख भी कह सकता है कि सोमदेव जी विधवाविवाह के पक्षपाती थे। दूसरी बात यह है किस्मृति शब्द से अर्जनों के धर्मशास्त्र ही ग्रहण नहीं किये जा सकते । जैनशाग्य भी श्रति स्मृति श्रादि शब्दों से कहे गये हैं, जैमाकि नादिपुगण के ४४ वे पर्व में कहा गया है मनातनोऽस्ति मार्गोऽयम् श्रतिस्मृतिप भापितः। विवाहविधि भेटेषु बरिष्टोहि त्रयवरः ॥४॥३२॥ यहाँ पर जैन शास्त्रों का उल्लेख अनि स्मृति शब्द ने दुआ है । और भी अनेक स्थानों पर ऐमा ही शब्द व्यवहार देखा जाता है। मनलब यह कि नीतिवाक्यामृत में जो स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थक वाक्य पाया जाता है उससे लोमदेव जी तो पुनर्विवाह समर्थक ठहरते ही है. साथ ही अन्य जैनाचार्यों के द्वागमी इसका ममर्थन होता है। ऐसे सोमदेवाचार्य के यशस्तिलक के श्लोक से विधवाविवाह का विरोध सिद्ध करने की कुचेष्टा करना दुनाहम नहीं तो क्या है ? पाठक अब जरा अकीनि के वाक्य पर विचार करें। जय मुलीचगाने जयकुमार को वर लिया तब अर्ककीर्तिके मित्र दुर्मर्पण ने अर्कक्रीन को समझाया रत्न ग्लेप कन्यैव तत्राप्येच कन्यका ।। तत्त्वां स्वगृहमानीय दौष्ट्य पश्यास्य दुर्मतेः ॥४४॥५॥ रत्नों में कन्यारत्न ही श्रेष्ठ है; उसमें भी यह कन्या (पाठक यह भी खयाल रक्खे कि जयकुमार को वर लेने पर भी सुलोचना कन्या काही जा रही है) और भी अधिक श्रेष्ठ है। इसलिये तुम उसे अपने घर लाकर उस दुर्बुद्धि की दुटता देखो (बदला लो)। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) दुर्मर्पण की बातो में श्राकर अर्कीर्ति जयकुमार को मार कर उसकी वरमाला छीनने को उतारू हो गया । इसी. लिये वह कहता है कि द्विधा भवतु वा मा वा वलं तेन किमाशुगाः। माला प्रत्यानयिष्यति जयवक्षो विभिद्यमे ॥ ४४। ६४ ॥ अर्थात् सेना दो भागों में बट जाय चाहे नहीं, मेग उस से क्या ? मेरे तो वाण जयकुमार का वक्षस्थल चीरकर वरमाला लौटा लायेंगे । पाठक विचार करें कि वरमाला को छीन लेना सुलोचना को ग्रहण कर लेना था, जिसके लिये अर्ककीर्ति तैयार हुआ था। निःसन्देह यह काम वह जयकुमारसे ईध्याके कारण कर रहा था । परन्तु अर्ककीर्ति का अनवद्यमति नामका मन्त्री जानता था कि सुलोचना सरीखी गजकुमारी अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी को नहीं वर सकती । इसीलिये तथा अन्य प्राप. त्तियों की आशङ्का से उसने अर्ककीर्ति को समझाया कि 'तुम चक्रवर्ती के पुत्र होकर के भी क्या अनर्थ कर रहे हो? तुम्ही से न्याय की रक्षा है और तम्ही ऐसे अन्याय कर रहे हो! तुम इस यग के परस्त्रीगामियों में पहिले नम्बर के परस्त्रीगामी मत वनो'। परदारामिलापस्य प्राथम्यं मा वृथा कृथाः। अवश्यमाहताप्येपान कन्याते भविष्यति ॥४४॥४७॥ अनवद्यमति कीवाते सुनकर अर्ककीर्ति लजित तो हुआ. परन्तु जयकुमार से बदला लेने का और सुलोचना छीनने का उसने पक्का निश्चय कर लिया था, इसलिये युद्ध का प्रोग्राम न बदला । हाँ, अपनी नैतिक सफाई देने के लिये उसने अपने मन्त्री को निम्नलिखित वाक्य बोल कर झॉसा अवश्य दिया - . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) नाह सुलोचनार्थ्यामि मत्री मकरैग्यम् । परासुर धुनैवस्यात्कि मे विधाता ॥ मुझे सुलोचनामे कुछ मतलब नहीं, यह घमण्डी जयकुमार मेरे बाणों से मर जाय । मुझे उस विधवा से क्या लेना है ? + बस, अत्याचारी अर्कीर्तिकी यह यान ही श्रीलालजी के लिए श्रागम बन बैठी है । श्रक्षेपक प्रकरण को छिपा कर इस प्रकार समाज को धोखा देना चाहता है । दुर्मण ने जब सुलोचना की, कन्यारत्न कहकर प्रशन्सा की, तव श्रर्ककीर्ति से नहीं कहा गया कि मैं उस विधवा का क्या करूँगा ? उस समय तो मुँह में पानी श्रा गया था। अनवद्यमति की फटकार से कहने लगा कि मैं विधवा सुलोचना को ग्रहण न करूँगा- मैं तो सिर्फ बदला लेना चाहता है । अर्ककीर्ति की यह कांगे चाल थी तथा उससे यह नहीं मालूम होता कि वह विधवा होने के कारण उसको ग्रहण नहीं करना चाहता था । उसने तो परस्त्रीहरण के अन्याय से निर्लिप्त रहने की सफाई दी थी । प्रकरण को देखकर कोई भी समझदार कह सकता है कि इससे विधवाविवाह का खण्डन नहीं होता । नीतिवाक्यामृत के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध करना बडी भारी धोखेबाजी है । नीतिवाक्यामृत उन्हीं सांम देव का बनाया हुआ है जो विधवाविवाह का अनुमोदन करते है । तब सोमदेव के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध कैसे हो सकता है ? जिम वाक्य से विधवाविवाह का विरोध किया जाता है उसे श्रक्षेिपक ने समझा ही नहीं है, या समझ कर छिपाया है। यह वाक्य यह है-. सकृत्परिणयन व्यवहाराः सच्छूद्राः । अर्थात् अच्छे शुद्ध वे हैं जो एक ही बार विवाह करते Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) हैं, अर्थात् एक ही स्त्री रखते है । यह नियम उस समय के लिये था जब अनुलोम विवाह की पृथा जोर पर थी। उच्चवर्णी, शुद्र की कन्याएँ लेते थे, लेकिन शूद्रों को देते न थे। ऐसी हालत में शुद्र पुरुष भी अगर बहुपत्ती रखने लगते तब तो शुद्धों के लिये कन्याऍ मिलना भी मुश्किल हो जाता। इसलिये उन्हें अनेक पत्नी रखने की मनाई की गई। जो शुद्र अनेक स्त्रियाँ रखते थे वे अच्छूद्र कहे जाते थे । एक प्रकार से यह नियम भङ्ग करने का दण्ड था । श्राक्षेपक ने स्त्रियोंके पुनर्विवाह न करने की बान न मालूम कहाँ से खींच ली ? उस वाक्य की सम्कून टीका से श्रक्षेपक की यह चालाकी स्पष्ट हो जाती है टीका - "ये सच्छूद्राः शोभनशुद्रा भवन्ति ते सकृत्परि रायनाः एकवारं कृतविवाहाः, द्वितीय न कुर्वन्नीत्यर्थः । तथा च हारीतः द्विभार्योयोत्रशद्रः स्यावृपालः स दिवि श्रुतः । महत्वं तस्य नो मावि शूद्र जाति समुद्भवं ।" अर्थात् - जो अच्छे शूद्र होते है वे एक ही बार विवाह करते हैं, दूसरा नहीं करते हैं । यही बात कही भी है कि दो पत्नी रखने वाला शूद्र वृषाल कहलाता है-- उसे शूद्र जाति का महत्व प्राप्त नहीं होता । 'शूद्रों को बहुत पत्नी न रखना चाहिये', ऐले श्रर्थवाले वाक्य का 'किसी को विधवाविवाह न करना चाहिये' ऐसा अर्थ करना सरासर धोखेबाजी है । यह नहीं कहा जा सकता कि श्रक्षेपक को इसका पता नहीं है, क्योंकि त्रिवर्णचार की परीक्षा में श्रीयुत जुगल किशोर जी मुस्तार ने इसका खूब खुलासा किया है । इस प्रकार पहिले प्रक्षेपक के समस्त आक्षेप बिलकुल निर्बल हैं । 'अब दूसरे आक्षेपक के आक्षेपों पर विचार किया जाता है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) श्राप (च)-यटि विवाह शादी से मन्यव का कोई मन्यन्त्र नहीं तो क्या पारसी, अंग्रेज लेडी. यवनन्या आदि के साथ विवाह करने पर भी मम्यक्त्व का नाश नहीं होता? यदि नहीं होता तो शास्त्रों में विहित समदत्तिका क्या अर्थ होगा? समाधान - पारसी अगरेज आदिनोआर्य है. सम्यक्त्व का नाश नो छ महिनामाक माथ शादी करने परभी नहीं होना । चक्रवर्ती की ३२ हजार म्लेच्छ पत्नियों के दृष्टान्त से यह वान बिलकुल स्पष्ट है । चक्रवनियों में शालिनाथ, कुन्यु नाथ, अग्नाथ. इन तीन तीर्थदगें का भी समावेश है। अन्य अनेक जैनी गजाओं ने भी म्लेच्छ और अनार्य त्रियों के साथ विवाह किया है। हां विवाह में इननी बात का विवार यथानाध्य अवश्य करना चाहिये कि स्त्री जैन. धर्म पालने वाली हो अथवा जैनधर्म पालन गने लगे । इस से धर्मपालन में मुमोता होता है। इसीलिये समदति में साधर्मी के साथ रोटी बेटी व्यवहार का उपदेश दिया गया है । अगर कोई पारसी, अतुज या यवन महिला जैनधर्म धारण करले तो उसके साथ विवाह करने में कोई दोष नहीं है। पुराने जमाने में ना ऐसी अजैन कन्याओके माथ मी गाठी होनी थी, फिर जेनशी तो बात ही क्या है ? आचार शास्त्रों में लौक्ति और पारलौकिक श्राचार्ग का विधान रहता है। उन का पालन करना सम्यग्दृष्टि की योग्यता और इच्छा पर निर्भर है। उन श्राचार नियमों के पालन करने से सम्य. पन्त श्राता नहीं है और पालन न करनेसे जाता नहीं है। इस लिए प्राचार नियमों के अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी महि. लास शादी करने से मम्यक्त्र का नाश नहीं होता। आक्षेप (द)-सराग सम्यक्त्व की अपेक्षा बीनगग सम्यत्त्व विशेष ग्राह है। फिर भी वीनगग सम्यक्त्वी में प्रशम Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवेग अनुकम्पा आस्तिक्य गुण जरूर प्रकट होने चाहिये। निश्चय और व्यवहार दोनों का खयाल रखना चाहिये । व्यवहार, निश्चयका निमित्त कारण नहीं-उपादान कारण है। समाधान-सम्यग्दृष्टि में प्रशम सम्वेगादि होना चाहिये तो रहें । सम्यग्दृष्टि विधवाविवाह करते हुप भी प्रशम मम्वेग अनुकम्पा आस्तिक्यादि गुण रख सकता है। प्रशम से गग, द्वेष कम हो जाते हैं, सम्वेग से समार से भय हो जाना है। इतने परभी वह हजागे म्लेच्छ कन्याश्रोसे विवाह कर सकता है,वडे २युद्धकर सकता है और नरकम हो तो परम कृष्णा लेश्या वालारौद्रपरिणामी बनकर हजारो नारकियोंसे लडसकता है ! तवभी उस के सम्यक्त्वका नाश नहीं होता। उसके प्रशम संवे. गादि बन सकते है, तो विधवाविवाह वाले के क्यों नहीं बन सकते ? व्यवहार निश्चय का कारण है। परन्तु विधवाविवाह भी तो व्यवहार है । जिस प्रकार कुमारी विवाह धर्म से दृढ रहने का कारण है उसी प्रकार विधवाविवाह भी है। व्यवहार तो द्रव्य क्षेत्र काल भाव के भेद से अनेक भेद रूप है। व्यवहार के एक भेद से उसी के दूसरे भेद की जॉच करना व्यवहारकान्तवादी वन जाना है । निश्चय को कसौटी वना कर व्यवहार की परीक्षा करना चाहिये । जो व्यवहार निश्चय अनुकूल हो वह व्यवहार है, जो प्रतिकूल हो वह व्यवहाराभास है। विधवा-विवाह निश्चय सम्यक्त्व के अनुकूल अथवा अवि. रुद्ध है। इसलिये वह सच्चा व्यवहार है । व्यवहार सम्यक्त्व के अन्य चिन्हों के साथ भी उस का कोई विरोध नहीं है। व्यवहार को निश्चय का उपादान कारण कहना कार्य कारण भाव के ज्ञान का दिवाला निकाल देना है। व्यवहार पराश्रित है और निश्चय वाश्रित । ज्या पगश्रित, स्वाश्रित का उपादान हो सकता है ? यदि व्यवहार निश्चय का उपादान Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कारण है तो वह मिद्धों में भी होना चाहिये, क्योंकि उनके भी निश्चय-सम्यक्त्व है। परन्तु मिद्धों में रागादि परिणति न होने से सराग सम्यक्त्व हो नहीं सकता। तब वह उपादान कारण कैसे कहलाया ? यदि व्यवहार निश्चय को पूर्वोत्तर पर्याय मान कर उपादान उपादेय भाव माना हो तो दोनों का साहचर्य ( साथ रहना ) बतलाना व्यर्थ है । नथा इस दृष्टि से तो सम्यक्त्व के पहिले रहने वाली मिथ्यात्व पर्याय भी उपादान कारण कहलायगी। तब सम्यक्त्व की उपादानता में महत्व ही क्या रह जायगा? खैर, हमारा कहना नो यही है कि विधवाविवाह निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्व के प्रशमादि गुणों के विरुद्ध नहीं है । इमलिये व्यवहार सम्यक्त्व की दुहाई देकर भी उस का विरोध नहीं किया जा सकता। माक्षेप (ज)-विवाहों की अष्ट प्रकार की संख्या से वाह्य होने के कारण और इसीलिये भगवत् प्रतिपादित न होने के कारण क्या प्रास्तिक्य सम्यग्दृष्टि विधवाविवाह को मान्य ठहरा सकता है? समाधान-विवाह के पाठ भेदों में तो बालविवाह, वृद्ध विवाह, युवतीविवाह, सजातीयविवाह, विजातीयविवाह, अनुलोमविवाह, प्रतिलोमविवाह, सगोत्रविवाह, विगोत्र विवाह, कुमारीविवाह, विधवाविवाह, श्रादि किसी नाम का उल्लेख नहीं है तब क्या ये लव आस्तिक्य के विरुद्ध है ? तब तो कुमारी विवाह भी आस्तिक्य के विरुद्ध कहलाया, क्योंकि पाठ भेदों में कुमारी विवाह का भी नाम नहीं है। अगर कहा जाय कि कुमारीविवाह, सजातीय विवाह आदि विवाहों के उपर्युक्त पाठ आठ भेद है तो बल, विधवाविवाह के भी उपर्युक्त आठ भेद सिद्ध हुए। जेसे कुमारीविवाह Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाठ तरह का हो सकता है उसी प्रकार विधवाविवाह भी पाठ तरह का दानकता है। आक्षेप (झ)-सम्यग्दृष्टि जीव में गग दंप को उत्स्टता का क्षयोपशम हो गया है। उम के वन निमय न मही, परन्तु म्बस्पाचरण चारित्र तो है, जो समार से भयभीत, मद्यमांम श्रादि से विरक्त, विधवाविवाह शादि गग-प्रवृति से पचाना है । यदि उस स्वरपाचरण चारित्र न माना जाय तो घार दुनिया भर के सभी रो कर्म करके भी सम्यमयी बना रहेगा। समाधान-म्वरूपाचरण तो नारक्यिों में भी होता है, पॉचों पाप करने वालों के भी होता है, कृपालेण्या वालों के भी होता है। तब विधवाविवाह से ही उम्प का पया विगंध हैं । सम्यग्दर्शन, भेट विज्ञान, स्वरूपाचरण चारित्र, ये महनर है ? इसलिये जो बात एक के लिए कही गई है वही तीनों लिये समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी उदय क्षय से स्व. रूपाचरण होता है। इस विषय में लेन के प्रारम्भ में पानप नम्बर '' का समाधान देखना चाहिये। प्राक्षेप (न)-सानवे नरक में सम्यस्त्व नष्ट न होने की बात आप ने कहाँ से लिखी ? समाधान-इसका समाधान पहिले कर चुके है। देवी आक्षेप नम्वर 'ई' का समाधान। आक्षेप (2)-सम्यग्दृष्टि जीव पञ्च पापोपसेवी नहीं होता, किन्तु उपभोगी होता है अर्थात् उसको रुचिपूर्वक पञ्च पापों में प्रवृत्ति नहीं होती।"पाप तो सदा सर्वथा घोर पाप. बन्धन का ही कारण है । फिर तो सम्यच्ची को भी घोर पाप बन्ध सिद्ध हो जायगा और सम्यक्त्वीको बन्धका होना करने पर अमृतचन्द्र सूरि के "जिस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि है उस दृष्टि से बन्ध नहीं होता" इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) ममाघान-हमने सम्यक्त्वी को पञ्चपापोपसेवी नहीं लिखा है, पॉत्र पार करने वाल लिखा है । भले ही वह उपभोग हो।उसकी रुचिपूर्वक प्रवृत्तितो पार में ही क्या, पुण्य में भी नहीं होती। वह नो दोनों को हेय और शुद्ध परिणति को उपादेय मानता है। उसकी रुचि न नो कुमारी-विवाह में है न विधवाविवाह में, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कपायों के उदय मे वह अरुचिपूर्वक जैसे कुमारीविवाह करता है उसी प्रकार विधवाविवाह भी करता है। उसकी अरुचि विधवाविवाहको गंके और कुमारी विवाह को न रोके, यह कैसे हा सकता है ? आक्षेपक का कहना है कि "पाप तो सदा सर्वथा घोर पापबन्धका कारण है", नत्र तो सम्यग्दृष्टि को भी घोर पापबन्ध का कारण होगा; क्योंकि वह भी पापोपभोगो है। लेकिन आक्षेपक सम्यग्दृएिको घोर पाप यन्ध नहीं मानता। न उस का 'सदा सर्वथा' शब्द आपही पण्डित हो जाता है। अमृत. चन्द्र का हवाला देकर तो श्राक्ष'पक ने बिलकुल ऊटपटॉग बका है, जिस से विधवाविवाह विरोध का कोई ताल्लक नहीं। सम्यक्त्व तो यन्ध का कारण है ही नहीं, किन्तु उसके साथ रहने वाली कपाय बन्ध का कारण जरूर है। यही कारण है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ७७ प्रकृतियों का बन्ध करता है जिन में यहभाग पाप प्रकृतियों का है। मम्यक्त्व और स्वरूपाचरण होने से उस के १६+ २५४१ प्रकृतियों का बन्ध रुकता है। सम्यग्दृष्टि जीव अगर विधवाविवाह करे तो उसके इन ४१ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होगा। हां, बाकी प्रकृतियोंका बन्धहो सकेगा । सो वह नो कुमारी विवाह करने पर भी हो सकेगा और विवाह न करने पर भी हो सकेगा । हमारा कहना तो यही है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव-अरुचि पूर्वक ही सही Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) पॉचा पाप कर सकता है, कुमारीविवाह कर सकता है, तब विधवाविवाह भी कर सकता है। आक्षेप (8)-विधवाविवाह इसीलिए अधर्म नहीं है कि वह विवाह है बल्कि इस लिए अधर्म है कि श्रागम विरुद्ध है। "कोई प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है' यह लिखना सर्वथा असद्गत और अज्ञानतापूर्ण है। विवाहको निवृत्त्यात्मक मानना भी व्यर्थ है । अगर निवृत्यात्मक होता तो पॉच गुणस्थान के भेटों में निवृत्तिस्प ब्रह्मचर्य प्रतिमाकी श्रावश्यकताही क्या थी ? समाधान-विधवाविवाह भागमविरुद्ध नहीं है, यह हम सिद्ध कर चुके है और आगे भी करेंगे। यहाँ हमारा कहना यही है कि अगर विवाह अधर्म नहीं है तो विधवाविवाह भी अधर्म नहीं है। अगर विधवाविवाह अधर्म है तो विवाह भी अधर्म हैं। सच पूछा जाय तो जैनधर्म के अनुसार कोई भी प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म का मतलब है रत्नत्रय या सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्रका लक्षण शास्त्रकारों ने "वाह्याभ्यन्तर क्रियाओं की निवृत्ति" किया है। जैसे कि"संसार कारण निवृत्तिम्प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः वाहाभ्यन्तर क्रिया विशेषो परमः सम्यक्चारित्रम् (गजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि) भवहेतु प्रहाणाय वहिरभ्यन्तरक्रियाविनिवृत्तिः परं सम्यक् चारित्रम् मानिनो मतम् । -श्लोक वार्तिक । वहिरमंतर रिया रोहो भवकारण पणासट्ठम् । गाणिस्स ज जिणुत्त तं परमम् सम्मचारित्तम् ॥ द्रव्यसंग्रह। चरणानुयोग शास्त्रों में भी इसी तरह का लक्षण है Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा नृतीयभ्यो मैथनसंवा परिग्रहाभ्यांत्र । पापप्रपालिकाभ्यो विगतिः संजस्य चारित्रम् ॥ ४६॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार । यादा प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं । प्रायः सर्वत्र चारित्र का लक्षण निवृत्यान्मक ही किया है । हाँ!व्यवहानिय से प्रवृत्यात्मक लनण का भी उल्लेख मिलता है। जैसे असुहाटो विगिवित्ती मुह पबित्तीय जाण चारि । वदसमिटि गुत्तिनय ववहारगयाटुजिए मणिय ॥ -द्रव्यसंग्रह । यहाँ पर अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को व्य. वहारनय से चारित्र कहा गया है। परन्तु व्यवहारनय से कहा गया चारित्र, वास्तविक चारित्र नहीं है । क्योंकि व्यवहानिय का विषय अभूतार्थ (अवास्तविक) है । अमृतचन्द्राचार्य ने इस का बहुत ही अच्छा खुलासा किया है निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्य भूतार्थम् । भूतार्थ बोधविमुखः प्रायः मत्रोंऽपि संसारः॥ अबुधम्य बोधनार्थ मुनीश्वग वर्णयन्त्य भृनार्थम् । व्यवहारमेव चलमवैति यस्तम्य देशना नास्ति ॥ माणवक एव सिंहों यथा भयत्यनवगीत मिहम्य । व्यवहार एवाहि तथा निश्चयनां पात्यानश्चयक्षम्य ॥ व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्यतत्वेन मवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः सएपफलमविकलशिष्यः ॥ अर्थान-वास्तविक्ता का विषय करने वाला निश्चयनय है और वास्तविकताको विषय करने वाला व्यवहारनय है । प्रायः समस्त संमार चाम्तविकता के मान से रहित है। अल्पबुद्धि वाले जीवों को समझाने के लिये व्यवहारनय का कथन किया जाता है । जो व्यवहारनय को ही पक्के रह जाता है Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) उसका उपदेश देना व्यर्थ है। जैसे जिमने सिह नहीं देखा वह करता शूरता वाले व्यक्ति को ही सिंह समझ जाता है, उसी प्रकार जो निश्चय ( वास्तविक ) को नहीं जानता वह व्यवहार (अवास्तविक ) को ही निश्चय समझ जाता है । जो व्यवहार और निश्चय उन दोनों को समझकर मध्यस्य होना है, वही उपदेश का पूर्ण फल प्राप्त करता है। मतलब यह कि व्यवहार चारित्र, वास्तव में चारित्र नहीं है वह तो चारित्र के प्राप्त करने का एक जरिया है, जो कि अल्पबुद्धि वालों को समझाने के लिये कहा गया है। हाँ, यहाँ पर प्राचार्य यह भी कहते हैं कि मनुष्य को एकान्तवादी न बनना चाहिये। यही कारण है कि हमने अनेकान्त रूप में विवाह का विवेचन किया है। अर्थात् वारतविकता की दृष्टि से (निश्चयनय से) विवाह धर्म नहीं है, क्योंकि वह प्रवृत्तिरूप है और उपचार से धर्म है । परन्तु यह उपचरित धार्मिकता सिर्फ कुमारी विवाह में ही नहीं है विधवाविवाह में भी है । क्योंकि दोनों में परस्त्री अर्थात् अविवाहित स्त्री से निवृत्ति पाई जाती है । पाठक देखेंगे कि हमारा विषेचन कितना शास्त्रसम्मत और अनेकान्त से पूर्ण है, जबकि आक्षेपक बिल्कुल व्यवहारैकान्तवादी बनगया है। इसीलिये "प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है" निश्चयनय के इस कथन को यह सर्वथा (१) असगत समझता है? हमने विवाह को उपचरित धर्म सिद्ध करने के लिये कथचिनिवृत्यात्मक सिद्ध किया था। जिस प्रकार किसी मनुज्य को शेर कहने से वह शेर नहीं होजाता, किन्तु शेर के कुछ गुणों की कुछ समानता उसमें मानी जाती है, उसी प्रकार व्यवहार चारित्र, चारित्र न होने पर भी उनमें चारित्रको कल समानता पायी जाती हैं। चारित्रमें तो शुभ और अशुभ दोनों Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निवृत्ति पायी जाती है और व्यवहार चारित्र में अशुभ से ही निवृत्ति पायी जाती हैं । व्यवहार चारित्र की चारित्र के साथ यही अांशिक समानता है । यही कारण है कि व्यवहार चारित्र भी चारित्र कहा गया | जय विवाह, व्यवहार धर्म है तो उसमें किसी न किसी रूपमें निवत्यात्मकता होना चाहिये। इसीलिये हमने कहा है कि विवाह से परस्त्रीसेवन रूप अशुभ परिणति से निवृत्ति होती है। यह निवृत्ति कुमारीविवाह से भी होती है और विधवाविवाह से भी होती है। "विवाह अगर निवृत्यात्मक है नो ब्रह्मचर्य प्रतिमाक्यों बनाई!"-आने पकका यह कथन तो बडा विचित्र है। अरे भाई विवाह में जितनी निवृत्ति है उस से ज्यादः निवत्ति ब्रह्मचर्य में है । पहली क्लास में भी शिक्षा दी जाती और दूसरी में भी दी जाती है तो क्या यह कहा जासकता है कि पहिली क्लास में शिक्षा दी जाती है तो दूसरी श्यों बनाई ? अगर कोई पूछे कि मुनि तो छठ गुणस्थान में बन जाता है, फिर सातवॉ क्यों बनाया ? पाँच पापों का त्याग तो अणुव्रतों में हो जाता है फिर महानत क्यों बनाये ? सामायिक और प्रांषधोपवास नो दूसरी प्रतिमा में धारण किये जाने है फिर इन नामों की तीमगे चौथी प्रतिमा क्यों बनाई ? व्यभिचार और परिग्रह का त्याग तो ब्रह्मवर्गणुव्रत और परिग्रह परिमाण बन में हो जाता है फिर सातवीं और दशमी प्रतिमा क्यों बनाई ? नो इन सब प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जायगा? उत्तर यही दिया जायगा कि पहिली अवस्याओं में थोडा त्याग है और धागे की अवस्थाओं में ज्यादः त्याग है। यही उत्तर विवाह के विषय में है । विवाह में थोडा त्याग है-ब्रह्मचर्य में ज्याट त्याग है। देव पूजा आदि प्रवृत्यान्मक है परन्तु जब वे धर्म कहे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) जाते है नब निवृत्यात्मक भी होते है। उन में कुदेवपूजा तथा अन्य अशम परिणतियों में नित्ति पायी जाती है। इसी से वे मी व्यवहार धर्म कहे गये है। इस विवेचन स पाठक समझ गये होंगे कि विधवाविवाह में कुमारीविवाह के बगयर निवृत्ति का प्रण पाया जाता है। इमलिये दानों एक ही नगह क व्यवहार धर्म है । अाप (ड) यह लिखना महाझूठ है कि विवाह के सामान्य लक्षण में कन्या शब्द का उल्लेख नहीं है । 'कन्या का ही विवाह होता है क्या इस दलील को झूठ बोलकर यो ही उडा देना चाहिये ? समाधान-हमने कन्या शब्द को उडाया नहीं है, बल्कि इस शब्द के ऊपर तो हमने बहुन जोरदार विचार किया है। गजवानिक नथा अन्य प्रों में जो कन्या गब्दका प्रयोग किया गया है, उसके विषय में हम श्रीलालजो के आक्षेपों के उत्तर देते समय लिख चुके है। इसके लिये आक्षेप नम्बर '' का समाधान पढ लेना चाहिये। आक्षेप (ढ)-श्राप त्रिवर्णाचार को प्रमाण मानकर के भी उसी के प्रमाण देते है, लेकिन जिम त्रिवर्णाचार में टट्रो पेशाव जाने की क्रिया पर भी कडी निगरानी रखी गई है, उसी में विधवाविवाह की सिद्धि कैसे हो सकती है? समाधान-त्रिवर्णाचार को हम अप्रमाण मानते है, परन्तु विधवाविवाह के विरोधी तो प्रमाण मानते हैं, इसलिये उन्हें समझाने के लिये उसका उल्लेख किया है। किसी ईसाई को समझाने के लिये बाइबिल का उपयोग करना, मुसलमान को समझाने के लिये कुगन का उपयोग करना, हिन्दू का समझाने के लिये वेद का उपयोग करना जिस प्रकार उचित है, उसी मार स्थितिपालकों को समझाने के लिये त्रिवर्णाचार का Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५ ) उपयोग करना उचित है। 'ट्टी पेशाब की निगरानी रखने वाला विधवाविवाह का समर्थन नहीं कर सकता' यह नो बिलकुल हास्यास्पद युक्ति है। आज भी दक्षिण प्रान्त में टट्टी पेशाव तथा अन्य क्रिया-कांड पर उत्तर प्रान्त की अपेक्षा कर्ड गुणी निगरानी रखी जाती है। फिर भी वहाँ विधवाविवाह और तलाक का श्राम रिवाज है। खैर, त्रिवर्णाचाग्में विधवाविवाह का विधान है, यह वात २७ वें प्रश्न के उत्तर में सिद्ध की गई है । उसी प्रश्नके श्राप समाधानों में इस पर विचार किया जायगा। आक्षेप (ग)-कन्या शब्द का अर्थ "विवाह योग्य स्त्री" क्यों किया जाय ? पिता शब्द का अर्थ नी 'गुरुजन' होता है जैमा कि श्रमरकोप में लिखा है 'स्थानिपेकादिकृद्गुरु, पर न्तु कुमारी के अतिरिक्त कन्या शब्द का प्रयोग न तो हमारे कहीं देखने में आया है न सुना ही है। धनक्षय नाममाला में 'कन्या पनिर्वगः' लिखा है, 'स्त्री पतिर्वर क्यों नहीं ? समाधान--कन्या शब्द का 'विवाह योग्य स्त्री' अर्थ क्यों किया जाय, इस का समाधान प्राक्षेप 'ओ' के समाधान में देखिये । कन्या शब्द का कुमारी के अतिरिक्त अर्थ श्राप ने नहीं देखा सुना नो इस में हमारा क्या अपराध है ? यह आप के ज्ञान की कमी है। श्राप के सहयोगी प० श्रीलाल जी ने नो यह अर्थ देखा है। उन के कथनानुसार ही श्राप विश्ललोचन, हेम और मेदिनी कोप देख डालिये। परन्तु इसके पहिले कोप देखने की कला सीख लीजिये, क्योंकि इसी प्रकरण में अमरकोप देखने में आप ने घडी गलती की है। अमरकोप में लिखा है कि 'पित्रादिर्गरु' अर्थात् पिता, माता, माता, मामा आदि गुरु है, परन्तु आप अर्थ करते है कि पिता माता, भ्राता श्रादि पिता है। आप को समझना चाहिये कि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) पिता ज्यादि को गुरु कह सकते हैं, परन्तु सब तरह के गुरुओं को पिता नहीं कह सकते । कन्या का विशेषण 'पितृदत्ता' हैं न कि 'गुरुदत्ता' जिससे कि अमरकोष के अनुसार श्राप विस्तृत अर्थ कर सकें। इसलिये यहाँ पितृशब्द उपलक्षण है । इसी प्रकार कन्या शब्द भी उपलक्षण है । नाममाला में 'स्त्री पतिवरः' न कहने का कारण यह है कि प्रत्येक स्त्री का पति घर नहीं कहलाता, किन्तु जो कन्या अर्थात् जो विवाह योग्य स्त्री ( दुल्हिन ) होती हैं उसी के पति को वर ( दुल्हा ) कहते है । 'स्त्री पतिर्वः' कह देने से सभी मस्त्रीक पुरुष जीवन भर के लिये वर अर्थात् दूल्हा कहलाने लगते । आक्षेप (त) - श्रमरकोप में 'पुनभू' शब्द का अर्थ किया है 'दुबारा विवाह करने वाली स्त्री' और कवि सम्राट् धनञ्जय ने पुनर्भू शब्द को व्यभिचारिणी स्त्रियों के नामों में डाला है। धनञ्जय, अकलङ्क और पूज्यपाद की काटि के है, क्योंकि नाममाला में लिखा है " प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणं । द्विसन्धान कवेः काव्यम् रत्नत्रयम पश्चिमम् ” नाममाला के प्रमाण से सिद्ध है कि स्त्री का पुनर्विवाह व्यभिचार है । समाधान - धनञ्जयजी कवि थे, परन्तु उनका कोष संस्कृत साहित्य के सब कोषों से छोटा और नीचे के दर्जे का है । ऊपर जो इन की प्रशंसा में श्लोक उद्धृत किया गया है वह खुद ही इन्हीं का बनाया है। इस तरह अपने मुँह से प्रशंसा करने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता। धनञ्जय को पूज्यपाद या अकलङ्क की कोटि का कहना उन दोनों श्राचार्यों का अपमान करना है । धनञ्जय यदि सर्वश्रेष्ठ कवि भी होते तो भी क्या कलङ्कादि के समान मान्य हो सकते थे ? गाँधी जी सब से बड़े नेता है, गामा सब से बडा पहलवान है और गौहर सर्व श्रेष्ठ गायिका है तो क्या गाँधीजी गामा और गौहर की इज्जत Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) बरावर हो गई ? मान्यता के लिये सिर्फ सर्वश्रेष्टना नहीं देखो जाती, परन्तु यह भी देखा जाता है कि वह श्रेष्ठता किम विषय में है। धनञ्जय एक अच्छे परिडन या कवि थे तो क्या वे पूज्यपाद और अकलर के समान प्राचार्य और तत्व भी थे, जिस से सिद्धान्त के विषय में उन का निर्णय माना जाय ? खैर! अब हम मूल विषय पर आते हैं। अमरकोपकारने पून शब्द का अर्थ किया है "दुबाग विवाह करने वाली स्त्री" | पूनर्भ का इसग नाम दिधिपू भी है। जिस ब्राह्मण नत्रिय या वैश्य की स्त्री, पुनर्भ होनी है उसे अग्नेदिधिषु कहते है ( इस से यह भी सिद्ध होता है कि पहिले ज़माने में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य में भी स्त्री पुनर्विवाह होता था )। अमरकोपकार ने पूनर्भ का 'दुवाग विवाह करने वाली स्त्री' अर्थ तो क्रिया, परन्तु उसे व्यभिचारिणी नहीं माना। व्यभिचारिणी के उन्होंने पुश्चली, धर्पिणी, बन्धकी, सनी, कुलटा, इत्वरी श्रादि नाम ता बताये परन्तु पुनर्भ नाम नहीं बताया। जो कोपकार पुनर्भ शब्द का उपर्यत अर्थ करता है वह तो व्यभिचारिणो उसे लिखता नहीं, किन्तु जिमने (धनअय ने ) पुनर्भ शब्द का अर्थ ही नहीं बताया वह उसे व्यभिचारिणी कहना है ! इससे मालूम होता है कि अमरकोपकार के अर्थ से धनञ्जय का अर्थ विलकुल जुदा है। अमरकोषकार के मनसे पुनर्भु शब्द का अर्थ है 'दुवाग विवाह करने वाली स्त्री' और धनञ्जय के मत से पुनर्भू शब्द का अर्थ है व्यभिचारिणी । ये नो एक शब्द के दो जुदे दे अर्थ हुए । इससे दुवारा विवाह करने वाली स्त्री व्यभिचारिणी कैसे सिद्ध हुई ? गो शब्द का अर्थ गाय भी है, स्वर्ग भी है, पृथ्वी भी है, इत्यादि और भी अनेक अर्थ है । अब कोई कहे कि अमुक श्रादमी मर कर वर्ग गया, तो क्या इस का यह अर्थ होगा कि वह गाय में गया ? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि स्वर्ग को गो कहते है और गो का अर्थ गाय है । जिग्न प्रकार गो शब्द के 'गाय' और 'स्वर्ग' ये दोनों अर्थ होने पर भी 'गाय' को स्वर्ग नहीं कह सकते उसी प्रकार पुन शन्ट के 'दुवाग विवाह करने वाली' और 'व्यभिचारिणी' ये दोनों अर्थ होने पर भी दुवारा विवाह करने वाली को व्यभिचारिणी नहीं कह सक्ते । दो अन्धकारों की दृष्टि में पुन शब्द के ये जुदे सुढे अर्थ है । इन जुद सुदं श्रों को पर्यायवाची समझ जाना अक्ल की खबी है ।हा, अगर श्रमरकोप में लिखा हुना पुनभू शब्द का अर्थ नाममाला में होता और फिर वहाँ उमं व्यभिचारिणी का पर्यायवाची बतलाया होता नो धनञ्जय के मत से पुनर्विवाह व्यभिचार सिद्ध होता । अथवा श्रमरोशकार ने ही अगर पुन शब्द को व्यभिचारिणी शन्द का पर्याय. वाची लिखा होता तो भी पुनर्विवाह को व्यभिचार कहने की गुजाइश होती। परन्तु न तो अमरकोशकार पुनर्भ को न्यभिचारिणी लिखते है, न नाममालाकार अमरकोश सरीखा पुनभू का अर्थ ही करते हैं । इसलिये पुनभू शब्द के विषय में दोनों लेखकों के जुदे जुढे अर्थ ही समझना चाहिये। दूसरी बात यह है कि 'पुनर्भू तीन तरह की होती है१ अक्षतयोनि,२. क्षतयोनि, ३. व्यभिचारिणी (टेखो मिनाक्षरा शब्द फ्ल्प म, या हिन्दी शब्दसागर )। हो सकता है कि धनञ्जय कवि ने तीसरे भेद को ध्यान में रख कर पुनर्भ को व्यभिचारिणी का पर्यायवाची लिखा हो । इस प्रकार छोटी छोटी गलतियों नाममाला में बहुत पाई जाती है । जसे-धानु. फका अर्थ है धनुष चलाने वाला, परन्तु नाममालामें धानुक को भील का पर्यायवाची शब्द लिखा है । लेकिन न तो सभी भील, धानुष्क हो सकते हैं और न सभी धनुष चलाने वाले भील हो सकते हैं। अगर नाममालाकार के अर्थ के अनुसार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) प्रयोग किया जाय तो धनुष चलाने वाले तीर्थङ्कर चक्रवर्ती श्रादि सभी राजा महाराजा मील कहलायेंगे | इसी प्रकार नौकर के पर्यायवाची शब्दों में शुत्र-जीवी लिखा है । लेकिन सभी नौकर शस्त्रजीवी नहीं होते । शुत्रजीवी तो सिर्फ सिपा हियों ओर सैनिकों को कह सकते है परन्तु सैनिक और नौकर का एक ही अर्थ करना नाममाला की ही विचित्रता है । दूसरे कोषों में न तो पुनर्भू का पर्याय शब्द व्यभिचारिणी लिखा हैं, न धानुष्क का पर्याय शब्द भील लिखा है और न सैनिक का पर्याय शब्द सेवक लिखा है । इस प्रकार की छोटी मोटी भूत * नाममालामें दर्जनों उदाहरण मिल सकते है । जो नाममाला की इन त्रुटियों पर ध्यान न देना चाहते हों वे उपर्युक्त छेट्टक ( पैराग्राफ) के कथनानुसार पुनर्भू शब्द के अर्थ करने में अमरकोशकार और नाममालाकार का मतभेद सम । इसलिये पुनर्विवाहिता को व्यभिचारिणी नहीं कहा जा सकता । इसके बाद क्षेपक ने साहसगति विद्याधर नथा 'धर्म संग्रह श्रावकाचार' के कन्या शब्द पर अज्ञानता पूर्ण विवेवन किया है, जिसका विस्तृत उत्तर थाक्षेप 'श्रं' 'अ' और "क" में दिया जाचुका है। इसी तरह दीक्षान्वय क्रिया के पुनविवाह का विवेचन श्राक्षेप नं० 'ख' में किया गया है। श्राक्षेपक ने वकवाद तो बहुत किया, परन्तु वह इतनी भी बात नहीं समझ पाया कि दीक्षान्त्रय क्रिया के पुनर्विवाह का उल्लेख क्यों किया गया था। दीक्षान्वय क्रियाके पुनर्विवाह से हम विधवाविवाह सिद्ध नहीं करना चाहते, किन्तु यह बतलाना चाहते है कि विवाहिता स्त्री भी, अगर उसका फिर विवाह हो तो (भले ही अपने पति के ही साथ हो) कन्या कहलाती है। अगर कन्या शब्द का अर्थ कुमारी ही किया जायगा तो दीक्षान्चय क्रियामें 1 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) दीक्षिता स्त्रीका अपने पति के साथ पुनर्विवाह कैसे हो सकेगा, क्योंकि प्राक्ष पक कन्या का ही विवाह मानता है। आक्षेप (थ)-जैनाचार्यों की सम्पूर्ण कथनी नय विवक्षा पर है। उन्होंने (१) विश्वलोचन में "कन्या कुमारिका नार्यः" लिखा है । यद्यपि यह बिल्कुल सीधा सादा है और इसमें नय प्रमाणके वारों की कुछ आवश्यकता नहीं है फिर भी नीतिकार ने कहा है-'अर्थी दोपं न पश्यनि'। जो हो ! जानि अपेक्षा (गशि भेटौषधीभिदा ) नारि (?) के साथ कन्या, कुमारी का प्रयोग किया गया है। हमारे अर्थ को मिद्ध करने वाला अश 'जगत् में बडे (१) वारीक टाइप में छापा गया है । इतना छल ! कुछ खौफ है ? समाधान-कोप के स्त्री वाची कन्या शब्द का जब कुछ भी खण्डन न हो सका नो उपर्यन प्रलाप किया गया है । श्राक्षेपक का कहना है कि कन्या और स्त्री की जानि एक है, इसलिये दोनों को साथ लिख दिया है। ठीक है, मगर भार्या और भगिनी भी तो सजातीय है, वाप और बेटा भी तो सजातीय है, नो इन सबके विषय में घुटाला कर देना चाहिये। इस बकवाद से श्राक्षेपक ने अपने कोप देखने की कला के अज्ञान का पुनः प्रदर्शन किया है । विश्वलोचन, एक अनेकार्थ कोश है। अन्य कोशों के समान उसमें पर्यायवाची शब्दों की लाइन खड़ी नहीं की जाती है। उसमें तो यह बताया जाना है कि एक शब्द के जुढे जुदे कितने अर्थ है । कन्या शब्दके कुमारी, नारी, राशिभेद आदि जुदे जुदे अर्थ हैं। अगर आक्षेपक को कोश देखने का ज़रा भी मान होता तो वह इतनी भूल न करता । टाइप की बात तो वही विचित्र है । लेखक, जिस बान पर पाठको का ध्यान ज़्यादः आकर्षित करना चाहता है उसे वह अन्डर लाइन कर देना है और प्रेस वाले उसे ब्लाक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) [ मोटे ] टाइप में छापते है। इस बात में आक्षेपक को छल गफ दिने भूत नजर आ रहे है । यह पागलपन नही तो या है ? नारा आक्षेपक ऐम ऐस जबरदस्त ( १ ) से विधवाविवाह का गठन करने चला है । नर्क (!) कन्या के विषय में इतना लिखा जाचुका है कि व और लिखने की जरूरत नहीं है। सागान्धर्मामृत के निर्दोषा विशेषण पर जो श्राप ने लिया है उसका समाधान 'ग' में किया गया है। आक्षेप (द) - शायद यात्री करुणानुयोग का लक्षण भी नहीं मालूम है। कही करुणानुयाग में गृहस्य चारित्र की आप भी देखने में भाई है। वरुणानुयाग में तो लोकातो विभाग आदि का वर्णन रहता है। करुणानुयोग श्रीर आगा गा गा ? * समाधान- इस श्राप से मालुम होता है कि शाक्षेपक श्री शास्त्रमान श्रम और है । पाठशालाश्री के छोटे २ तुन्द्र जितना ज्ञान रखते है उतना ज्ञान वेचारे श्रापकका मिला है और उसी के बल पर वह अपने कान समझता है ! शासक हम मलाह देते है कि वह मात्रमार्गप्रकाश क आठये अधिकार में करुणानुयोग का प्रयोजन" और "करुणा नुयोग के व्याग्यान की पद्धति' नामक विवेचनों का स्वाध्याय वर जाय । वहाँ के कुन उद्धरण हम यहाँ नीचे देत है :-- $ f "बहुरि करुणानुयोग विषे जीवन की वा कर्मनि की विशेषता वा त्रिलोकादि की रचना निरूपण करि जीवन का धर्मविष लगाये है । जे जीव धर्मविषै उपयोग लगाया चाहें, ते जीवन का गुणस्थान मार्गणा आदि विशेष पर कर्मनि का कारण अवस्था फल कौन कौन क कैसे कैसे पाइये, इत्यादि 1 i Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) विशेष भर त्रिलोक विष नरक स्वर्गादिक ठिकाने पहिचानि पाप ने विमुख होय धर्म विपे लागे हैं । "बहुरि करणानुयोग विपे छद्मस्थान की प्रवृत्ति के अनु. सार (आचारण) वर्णन नाही । केवलज्ञान गम्य (श्रात्म परि. णाम) पदार्थनिका निरूपण है। जैसे-कोई जीव नो द्रव्यादिक का विचार करें है वा व्रतादिक पाले हैं, परन्तु अंतरंग सम्यक चारित्र नहीं तातै उनको मिथ्यादृष्टि अवती कहिये है । बहुरि कैई जीव द्रव्याटिक का वा व्रतादिक का विचार-रहित है अन्य कार्यानि विषै प्रवते हैं वा निद्रादि करि निर्विचार होय रहे हैं, परन्तु उनके नम्यक्तादि शक्ति का सद्भाव है नाते उन को सम्यक्ती वा व्रती कहिये है । बहुरि कोई जीव के कपायनि की प्रवृत्ति नो धनी है पर वाकै अन्तरङ्ग कपाय-शक्ति थारी है नोवाको मन्दकषाई कहिये हैं। पर कोई जीव के कपायनि की प्रवृत्ति तो थोरी है पर वाकै अन्तरङ्ग कपाय-शक्ति धनी है नो वाको तीव्र कषायी कहिये है। "बहुरि कहीं जाकी व्यक्ति तो किछु न भासै नो भी सूक्ष्म शक्ति के सद्भावते ताका तहाँ अस्तित्व कह्या । जैसे मनि के अब्रह्म कार्य किछू नाहीं तो भी नवम गुणस्थान पर्यन्त मैथुन सज्ञा कही"। "बहुरि करणानुयोग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादिक धर्म का निरूपण कर्म प्रकृतीनिका उपशमादिक्र की अपेक्षा लिये सूक्ष्म शक्ति जैसे पाइये तैसे गुणस्थानादि विनिरूपण कर है"। इन उद्धरणों से पाठक समझ जायेंगे कि करणानुयोग में चारित्रादिक का भी निरूपण रहता है । हॉ, करणानुयोगका + जैसे दक्षिण के शान्तिसागरजी। -सम्पादक - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) विवेचन भावों के अनुसार है और चरणानुयोग का विवेचन वायक्रिया के अनुमार । बरणानुयोग का मुनि व पायक करणानुयोग का मिथ्याधि हो सकता है । भावों के मुधार के लिये किया है प्रधान करणानुयोग के धर्म के लिये नरणानुयोग का धर्म । विवाह में पुरुयको कामलालसा भन्य त्रियों से घट कर एक हीमो में केन्द्रीभूत होजाती है । इस प्रकार का फन्द्रीभृन होना कुमागे-विवाह से भी हैं और विधवा-विवाह से भी है, इमलिये करणानुयोग की गंपेक्षा कुमारी-विवाह योर विधवाविवाद में कुछ फर्क नहीं हैं। इमलिये कुमारी विवाह और विधवाविवाह के लिये जुदी जुदी पात्राएं नहीं मनाई जामनी न बनाई गई है । अगर पानेपक करणानुयांग कम्बाप को समझने की चेष्टा करेगा तो उसे सच्ची का यह बात समझ में भाजायगी। सानप (घ)-विधया के लिये भाचार-शास्त्र में स्पष्ट बंधय दीजा का विधान है। समाधान-साक्षेप का उत्तर नम्बर 'ब' में दिया गया है। एमबाट पानेगा ने मम्यत्य अन्ध का कारण है या नदीम विषय पर अनावश्यक विवंचन किया है, जिसका विधवाविवाहम कोई नामक नहीं है। हाँ, यह बात हम पहिले निम्नार में कार चुके कि सम्यनवी विधवा विवाह कर सकना। दूसरा प्रश्न दुमा प्रश्न के उत्तर में कोई ऐसी धान नहीं है जिसका उत्तर पहिले प्रश्न के उत्तर मेंन आगया हो । इसलिये यहाँ पर विशेष न लिखा जायगा । पुनर्विवाह करने वाला सम्यकवी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) होने पर स्वर्ग जाराक्ता है या नहीं-हम पर श्रीलालजी तो कहते हैं कि वह सीधा नरक निगोदका पात्र है. जबकि विद्या नन्द लिखते हैं कि उदानीन वृत्ति रखने पर रवर्ग जा सकता हैं। इस तरह दानी श्रापक पक दुग्नरे को काटते है। दोनों श्रान पकोंके श्रान पी पर निम्न में विचार किया जाता है : आक्षेप ( क )-पुनर्विवाह करने वाला मोक्ष तो नव जाय, जव वह रॉड पीछा छोडे । भाव ही मुनिव्रत नहीं होते। विधवाविवाद से संतान होगी वह गँड का मॉड फिर किसी का डग वनगा। (श्रीलाल) । विधवाविवाह सतान मोन की अधिकारिणी नहीं है । (विद्यानन्द) समाधान- गॅड, सॉड, लंडग शादि शब्दों का उत्तर देना वृथा है । विधवाविवाह की सन्तान मोक्ष जा सकती हैं। जव व्यभिचार जात सुदृष्टि मोक्ष जा सकता है, तब और की वात ही क्या है ? विधवाविवाह करने के बाद मुनिव्रत धारण कर सकता है और मोक्ष भी जा सकता है । इसम तो विवाद ही नहीं है। आक्षेप ( ख )-पुनर्विवाह करने वाले असच्छद है। (विद्यानन्द) समाधान-पहिले प्रश्न के उत्तर में इसका समाधान कर चुके हैं। देखो न०-(ङ) आक्षेप (ग) सागारधर्मामृत में लिखा है कि स्व. दार-सतोषी पर स्त्री का कभी ग्रहण नहीं करता। विधवा का परस्त्रीत्व किस प्रमाण से हटेगा। (विद्यानन्द) समाधान-इस का समाधान उसी सागारधर्मामृत में है। वहाँ लिखा है कि खदार-सतोपी परस्त्री-गमन और वेश्यागमन नहीं करता । यहाँ पर ग्रन्थकार ने कन्या (कुमारी) को भी परस्त्री में शामिल किया है (कन्यातु माविकात्वा. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) पित्रादि परनन्प्रत्याहामनायेन्यन्यम्त्री ना न विशिष्यते) । जब श्या भी परम्बी है श्रार विवाह द्वारा उप का परस्त्रीय दूर कर दिया जाता है नर कन्या के समान विधवा का भी पर म्त्रीव दर कर दिया जावेगा। शथवा जैग्ने विधुर का परपुरु'पन्च दर होता है इसी प्रकार विधवा का परस्त्रीय दूर हो जायगा। गैर, जर मागारधर्मामृत की बान चल पडी है नब हम भी कुछ निग्न देना चाहते हैं। विधवाविवाहविरोधी, अपने श्रमान तिमिर को इटा कर जग देखें। नागारधर्मामृत में वेश्यामेची को भी ब्राह्मचर्याणुवती माना है, वोरिप्रन्यकार के मन से वेश्या, पर-खी नहीं है। उनका कहना है कि "यस्तु बदाग्बसाधारण स्त्रियोऽपि वनयितुमशक्तः पग्दागन्य चयनि सोऽपि ब्रह्माणुवनीप्यने" अथांन जो वस्त्रों के समान वेश्या को भी छोडने में असमर्थ मि परस्त्री काही त्याग करता है वह भी ब्रह्मचयांणुवती नका मतलब यह है कि वेश्या, परस्त्री नहीं है, क्योंकि उस का कोई नामी मौजूद नहीं है । यदि ऐसी वेश्या का मंघन करने वाला पावती हो सकता है तो विधवासे विवाह फरने वाला प्या टाणवनी नहीं हो सकता ? वेश्या, परस्त्री नहीं है, किन्तु यह पूर्णरूप मे म्बस्त्री भी ना नहीं है। परन्तु जिम विधवा के साथ विवाह कर लिया जाना है, वह नो पूर्णपणे बरती है। कानून वेश्याम्बस्त्री नहीं कहलानी, जबकि पुनर्विवाहिना म्यस्त्री कहलानी है। इनने पर भी अगर वेश्यानी द्विनीर श्रेणी का अपव्रती कहला सकना है तो विधवाविवाह करने वाला प्रथम श्रेणी का अणुवती कहलो सकता है। मागारधर्मामृन में जहॉइत्वरिफागमन को ब्रह्मचर्याणुव्रत Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) का अतिचार सिद्ध किया है वहाँ लिखा है कि "चास्य मार्यादिना परेण किञ्चित्काल पग्गृिहीनां वेश्यां गच्छतो भगः कथ. चित्परदारत्वात्तस्याः । लोकतु परदारवास्टेर्न भंगः इति भगाभग रूपोतिचारः" । इस वाक्य पर विचार कीजिये। जहाँ भग ही भंग है वहाँ अनाचार माना जाता है। जहाँ अभग ही है वहाँ व्रत माना जाता है । जहाँ भग और लाभग दोनों है वहाँ अतिचार माना जाता है। ऊपर के वाक्य में वेश्या-सेवन को भंग और अमरूप मान कर अतिचार सिद्ध किया गया है । यहाँ देखना इतना ही है कि भन्न अंश क्या है और अमन अंश क्या है ? और उनमें से कौनमा प्रश विधवाविवाह में पाया जाता है ? ग्रन्थकार कहते है कि वेश्यासंवन में चूत का भग इसलिये होना है कि वह दूसरों के द्वारा ग्रहण की जाती है। मतलब यह कि वेश्या के पास बहुत से पुरुप जाते है और सभी पैसा दे देकर उसे अपनी अपनी स्त्री बनाते है । इसलिये वह परपरिगृहोता हुई और उसके सेवन से चूत का भङ्ग हुश्रा । लेकिन लोक में वह परन्त्री नहीं मानी जाती (क्योंकि पैसा लेने पर भी पूर्णरूप से वह किसी की स्त्री नहीं बनती) । इसलिये उस के सेवन में व्रत का अभङ्ग (रक्षा) हुा । पाठक देखें कि विधवाविवाह में वन का अभङ्ग (रक्षा) ही है, भङ्ग बिलकुल नहीं है । लोक व्यवहार ले, कानून की दृष्टि से, तथा परस्त्री सेवन में जो सक्लेश होता है वह सक्लेश न होने से पुनर्विवाहिता स्वस्त्री ही है, इसलिये इस लेवन में वेश्यालेवन की अपेक्षा कई गणी वत. रक्षा (अभहांश ) है । साथ ही वेश्या में तो परपरिग्रही. तता है किन्तु इस में नाममात्र को भी परपरिगृहीतता नहीं है। जब कोई मनुष्य वेश्या के पास जाता है तब वह उस का पूर्ण अधिकारी नहीं बन सकता, क्योंकि उतना Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) अधिकार मरे पुण्यों को भी प्राप्त है । लेकिन पुनर्विवाहिता के ऊपर दूसरे का शिलकुल अधिकार नहीं रहता। इसलिये वेश्यामवन में तो प्रभा के साथ में मन है, लेकिन पुनर्विवाहिता में अमन की अनद है। इसलिये वेश्या सेवन अति. चार है और पुनर्विवाह बन है। अनाचार दोनों ही नहीं है। मागारधर्मामृत का यह कथन विधवाविवाह का पूर्ण समर्थन करना है। हम पाठकों से रद्धनासाथ कहते है कि अगले सागार. धर्मामृन में ही क्या, रिनी भी जैनमन्ध में-जो कि भगवान महावीर के परम पवित्र और उश सिद्धान्तों के अनुसार बना हो-विधवाविवाद का समर्थन ही मिलेगा। किन्तु उसे सम. झने के लिये विवेक और नि:पक्षना की जरूरत है। श्राक्षेप (घ)-चन्द्रामा अपने निंद्य सत्य की जीवन भर निन्दा करती रही ( विद्यानन्द ) जय उस दुष्ट का साथ छुट गया तय श्रेष्ठमार्ग धारण करने से स्वर्ग गई । वह वच्छा से व्यभिचार न करती थी, किन्तु उस पर मधु बलात्कार करता था1 (श्रीलाल) समाधान-मधु ने चन्द्रामा के साथ बलात्कार किया था या दोनों ही इससे प्रसन्न थे, यह बात प्रद्युम्नचरित के निम्नलिखित श्लोकों से मालूम हो जाती है :चामिम्मपरिहासपचामिन तथा ममनुनीय स रेमे । जानमम्य च यथा चरितार्थ यौवनं च मदनो विमवश्च |७६६॥ लोचनान्तक निरीक्षणमन्तःकृजितं च हसिनं च नढम्याः। चुम्वितंत्र धितुतञ्च रत व्याजहार नुग्तोत्मघगगम् ॥७७०॥ गीतनृत्यपरिहास्यकथामिचिंकाजलवनान्ल विहारः। तप्रती रतिमुन्नार्णव मग्नी जमतर्न समय' समतीतम् ॥७॥१७॥ मधु ने चन्द्रामा को मीठी मीठी और हंसीली बातों Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ys ) से खुश करके रमण किया जिससे उसका यौवन मटन और विभव सफल हो गया । चन्द्राभा का देखना, किलोर्ले करना, हंसना, चूमा लेना, काम क्रीडा करना श्रादि से उनका सुरतो. त्सव रंग जमने लगा । गाना, नाचना, हॅसी दिल्लगी करना, वापिका के जल में और वनों में बिहार करना श्रादि से वे सुख में मग्न हो गये । उन्हें जाना हुआ समय मालूम भी न पडा । 虽 समुद्र पाठक देखें कि क्या वह चलात्कार था ? खैर, मधु को वान चाई है तो एक बात और सुनिये । मधु था तो परस्त्री सेवक और उसका यह पाप विख्यात भी हो गया था । फिर भी उसके यहाँ एक दिन विमलवाहन मुनिराज श्राहार लेने के लिये शाये - स्मरण रहे कि इस समय भी मधु चन्द्राभा के साथ रहता था तो उसने मुनि को दान दिया । प्रातुकं नृपतिना विधिपूर्व सयताय वरदानमदायि । तेन चान्नफलतः सहसैव चित्रपञ्चक मवापि दुगपम् ॥७॥६५॥ राजा मधु ने मुनिराज के लिये आहार दान दिया, जिससे तुरन्त ही पंच श्राश्चर्य हुए। पाठक देखें कि एक परस्त्रीसेवी, मुनि को आहार देता है जिसको श्राचार्य महाराज वरदान (उत्कृष्टदान) कहते हैं और उससे तुरन्त पंच आश्चर्य भी होते है । इससे न तो मुनि को पाप लगता है न मधु को । पञ्च श्राचर्य इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, बल्कि उस परस्त्रीसेवी का न खाने के बाद ही विमलवाहन मुनिको केवल ज्ञान पैदा हुआ। अगर आजकलके ढोंगी मुनियोंके साथ ऐसीघटना हो जावे तो वे दुरभिमान के पुतले शुद्धि के नाम पर अॅडिया तक निकाल निकाल कर धोने की चेष्टा करेंगे और बेचारे दाताको तो नरक निगोद के सिवाय दूसरी जगह भेजेंगे ही नहीं । ख़ैर, अब आगे देखिये । राजा मधु नौर चन्द्राभा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) दोनों मरका सोलह वर्ग में देव हुए. (इस घटना से नरक के ठेकेदार पंडितों वडाकट होना होगा। इस पर श्राक्षे. पक का कहना है कि वह स्वर्ग गई मां श्रेष्ट-मार्ग के अवलंबन से गई.परन्तु इममे इतना तो मालूम होगया कि परस्त्रीसवी को श्रेष्ठमार्ग अवलम्बन करने का अधिकार है-व्यभिचारिणी म्त्री भी पार्यिका के व्रत ले सकती है। उसका यह कार्य धर्मः विरुद्ध नहीं है । अन्यथा उसे अच्युन वर्ग में देवत्व कैसे प्राप्त होता? हमारा यह कहना नहीं है कि विवाह करने से ही कोई स्वर्ग जाता है। स्वर्ग के लिये तो नदनुरूप श्रेष्ठ मार्ग धारण करना पडेगा । हमारा कहना तो यही है कि विधवाविवाह कर लेने से श्रेष्ठ मार्ग धारण करने का अधिकार या योग्यता नहीं छिन जाती। अापकों का कहना तो यह है कि पुनर्विवाह वाला मम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, परन्तु मधु के दृष्टान्त से तो यह सिद्ध होगया कि पुनर्विवाह वाला तो क्या, परस्त्रीसेवी भी सम्पत्ती ही नहीं, मुनि तक बन सकता है। प्रश्न तीसरा "विधवाविवाह से निर्यञ्च और नरकगतिका वध होना है या नहीं"-इस तीसरे प्रश्न के उत्तर में हमने जो कुछ कहा था उस पर आक्षेपकों ने कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिसका उत्तर दिया जाय ? श्रापकों ने यार बार यही दुहाई दी है कि विधवाविवाह धर्म विरुद्ध है, व्यभिचार है, इसलिये उस से विसंघाद कुटिलता है, उससे नरक तिर्यञ्चगति का बन्ध है। लेकिन इस कधनमें अन्योन्याश्रय दोप है। क्योंकि जब विधवा. विवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो तब उससे विसंवादादि सिद्ध हो । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब विनवादादि सिद्ध ही, नव वह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । र नाममात्र के श्राक्षयों का उत्तर देना भी हम उचित समझते है। आक्षेप ( क ) गजुल शादिक्रीनपश्चर्यात्रा के दृष्टान्न शास्त्रों में पाये जाते है । अगर उन्हें कोई विवाद का उपदेश देना तो उनकी उन्नति में मन्देह था। (विद्यानन्द) ममाधान-गनुल आदि के समान याल ब्रह्मचारिणी ब्राह्मोढवी, सुन्दरी देवी, नीलीबाई श्रादि के दृष्टान्त भी तो शास्त्रों में पाये जाते हैं। इसलिये पया यह नहीं कहा जासकता कि अगर कुमारीविवाह का उपदेश होता तो ब्राह्मी आदि की तरक्की कैसे होती? अगर कुमागविवाह के उपदेश रहने पर भी बालब्रह्मचारिणी मिल लकती है ना पुनर्विवाह का उपदेश रहने पर भी वैवव्य-दीक्षा लेने वाली श्रीर प्रायिका मन कर घोर तपश्चर्या करने वाली क्यों न मिलेंगी? श्राक्षेपक को राजुलदेवी की कथाका पूरा पता ही नहीं है । जैनियों का बच्चा बच्चा जानता है कि नेमिनाथके दोना लेने पर राजुल के माता, पिता, सखियाँ तथा अन्य कुटुम्बियों ने उन्हें किसी दूसरे राजकुमार के साथ विवाह कर लेने को ग्वूव ही समझाया था। फिर भी उननं विवाह न किया । आनेपक को समझना चाहिये कि रातुल सोनी दृढ़मनस्विनी देवियाँ किसी के उपदेश अनुपदेश की पर्वाह नहीं करती । अगर उन्हें विवाह करना होता तो सब लोग रोकने रहते, फिर भी वे विवाह कर लेती । और उन्हें विवाह नहीं करना था नो सब लोग भाग्रह करते रहे फिर भी उनने किसी के कहने की पर्वाह नहीं की। आक्षेप (ख)-पडित लोग श्रेष्ठमार्ग का उपदेश देते है, इसलिये विसवादी नहीं हैं । जबरन व्यभिचार की शिक्षा देने वाले कुछ अपडेट लीडर्स विसंवादी है । (विद्यानन्द) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) ममाघान-श्रेष्ठ मार्ग का उपदेश देना बुग नहीं है, परन्तु जो उस श्रेष्ठमार्ग का अवलम्बन नहीं कर सकते उनको उससे उनम्ती श्रेणी के मार्ग में मी न चलने देना मत के नाम पर मनवाला हो जाना है । यया विधवाविवाह का उपदेश ब्रह्म चर्यका घातक है ? यदि हाँ, नो गृहस्थधर्म का विधान भी मनिधर्म का घातक कहलायगा । पहिली आदि प्रतिमाओं का विधान भी दूसरी शादि प्रतिमाओं का चातक कहलायगा । यदि गाम्धधर्म आदि का उपदेश देने वाले, बञ्चक. नास्तिक, पाखंटी, पापोपटेष्टा, पाप पंथ में फैमाने वाले यादि नहीं है नो विधवाविवाह के प्रचारक मी वञ्चक यादि नहीं हैं। क्योंकि जिम प्रकार पूर्ण संगम के अभाव में अविरनि ने हटाने के लिये गृहस्थधर्म (विरताविरन) का उपदेश है उसी प्रकार पूर्ण ब्रह्मचर्य के अभाव में, व्यभिचार से दूर रखने के लिये विधवा. विवाद का उपदेश है। जब विधवा-विवाह श्रागमविरुद्ध ही नहींहै नय उममें विसवाद फैसा ? और उसका उपटेश भी व्यभिचार की शिक्षा क्यों? विधवाविवाह के उपदेशक ज़बर. दस्ती आदि कभी नहीं करते न घे बहिष्कार प्रादि की धमकियाँ देने हैं। ये सब पाप नो विधवाविवाह-विरोधी पगिडतों के ही मिर पर सवार है। आप (ग)-विधवाविवाह में वेश्या-सेवन की तरह प्रारम्भ गले ही कम हो, परन्तु परिग्रह-ममत्वपरिणामकुमारी विवाद से अनरयान गुणा है। (श्रीलाल) ममाधान-यदि विधवाविवाहमें असंख्यात गुणा ममव है नो विधुरविवाद में भी असंरयातगुणा ममत्व मानना पडेगा। क्योंकि जिस प्रकार विधया पर यह दोषारोपण किया जाना है कि उसे एक पुरुष से सन्तोष नहीं दुश्रा, उसी प्रकार विधुर को मी एक रत्री से मन्तोष नहीं हुश्रा; इसीलिये वह Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी दोषी कहलाया । वास्तविक बात तो यह है कि न पिधुर विवाह में ज्यादः ममत्य परिणाम है और न विधवाविवाह में। हॉ, अगर कोई स्त्री पक ही समय में दो पति रक्खे अथवा कोई पुरुष एक ही समय में दो स्त्रियाँ रम्ये ती ममन्य परिणाम (राग परिणति ) ज्यादः बहलायगा । अगर किसी ने यह प्रतिज्ञा ली कि मैं २००) रुपये ज्यादा न रम्वेगा और अब यदि वह २०१) रवये नो उस की गगपरिणति में वृद्धि मानी जायगी । लेकिन अगर वह २००) में से एक रुपया सर्च करदे फिर दुसरा एक रुपया पेटा करके २००) करले तो यह नहीं कहा जायगा कि तू दुसरा नया रुपया लाया है, इमलिये तेरी प्रतिज्ञा भह हो गई और ममत्व परिणाम बढ गया। किसी ने एक घोडा रखने की प्रतिमा ली, दुर्भाग्य से वह मर गया: इसलिये उसने दूसग घोडासरीदा । यहाँ पर भी वह प्रतिमा च्युत या अधिक रागी (परिग्रही ) नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार एक पति के मर जाने पर दूसग विवाह करना, या एक पत्नी के मरजाने पर दूसग विवाह करना अधिक राग (परिग्रह ) नहीं कहा जा सकता । हाँ, पति के या पत्नी के जीवित रहते दूसग विवाह करना, अवश्य ही अधिक रागी होना है । परन्तु पण्डितों के अंधेर नगरी के न्याया नुसार पुरुप तो एक साथ हजारों स्त्रियों के रखने पर भी अधिक परिग्रही नहीं है और स्त्री, एक पति के मर जाने पर दूसरा विवाह करने से, ही, असंख्यात गुणी परिग्रहशालिनी हैं ! कैसा अद्भुत न्याय है ? विधवाविवाह में प्रारम्भ कम है, परन्तु इसका कारण गुण्डों का तमाशा नहीं है । तमाशे के लिये तो ज्यादः प्रारम्भ की जरूरत है । विधवाविवाह तमाशा नहीं है इसलिये आरम्भ कम है। असली बात तो यह है कि विधवाविवाह में शामिल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) होने वाले पुरुष धर्म, दयालु, विवेकी और द्रव्य क्षेत्र काल भाव के माना होते है, इसलिये उसमें किसी भी तरह के ढोंग और कुरूढियों को स्थान नहीं मिलता। इसीलिये उसमें आरम्भ कम होता है। इस तरह विधवाविवाहमें विवादरूपता है, अल्प आरम्भ है, अधिक परिग्रह नहीं है, वेश्यासेवन जैसा नहीं है । वेश्या सेवन या परस्त्री-सेवन से विधवाविवाह में क्या फरक है, यह बान हम पहिले पतला चुके है । श्राक्षेप (घ) --जय विधवाविवाह होने लगेंगे, तब बडे बडे मोटे मोटे पुरुषत्वहीन पुरुषों की हत्याएँ होंगी ओर तलाक़ का बाजार गर्म होगा । (श्रीलाल ) समाधान - श्रक्षेपक के कथन से मालूम होता हैं कि समाज में बहुत से बड़े बड़े मोटे मोटे पुरुष ऐसे हैं जो नपुन्सक होकर भी स्त्री रखने का शौक रखते हैं। अगर यह बात सच है तो एक ऐसे क़ानून की बडी आवश्यक्ता है जिससे पैसे धृष्ट, बेईमान, निर्लज और धोखेबाज नपुंसकों की आजन्म काले पानी की सजा दी जा सकें, जो नपुन्सक होते हुए भी एक स्त्री के जीवन को बर्बाद कर देते हैं, उसे जीते जी जीवन भर जलाते हैं-उनका अपराध तो मृत्युदण्ड के लायक हैं । चिप देना पाप है, परन्तु ऐसे पापियोंको विष देना ऐसा पाप है जो सम्मव्य कहा जासकता है। नि सन्देह ऐसे पापी, श्रीमानों में ही होते हैं। क्योंकि पहिले तो गरीबों में ऐसे नपुन्सक होते हो नहीं है । अगर कोई हुआ मी, तो जब पुरुषत्व होने पर भी गरीबों के विवाह में कठिनाई है तो पुरुषत्वहीन होने पर तो विवाह ही कैसे होगा ? श्रीमान् लोग तो पैसे के बल पर विवाह करा लेते है | अगर वे विवाह न करावे ना लोग योही कहने लगे कि क्या मैासाहिव नपुन्सक है ? इसलिये वे feere गते हे और अपने घर में दर्जी, सुनार, लोदी 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) श्रादि किसी भी जाति का गुन्डा नौकर रख लेते है जिससे श्रीमतीजी की कामवासना शान्त होती रहती है, तथा उन के तो नहीं उनके नाम के बच्चे पैदा होते रहते है । ऐसी हालत में विप देने की भी क्या जरूरत हैं ? अगर श्रीमती जी पतिव्रता निकली तो वे विष ही क्यों देंगी? विधवाविवाह होने पर तलाक का रिवाज चलाना न चलाना अपने हाथ में है । शताब्दियों से स्त्री जाति के ऊपर हम नारकीय अत्याचार करते भारहे हैं। श्राये दिन कौटुम्विक अत्याचारों से स्त्रियों की आत्महत्या के समाचार मिलते हैं। उनके ऊपर इतने अत्याचार किये जाते है जितने पशुओं पर भी नहीं क्येि जाते । कसाई के पास जाने वाली गाय तो दस पन्द्रह मिनट कष्ट सहती है और उस समय उसे ज़्यादा नहीं तो चिल्लाने का अधिकार अवश्य रहता है। लेकिन नारीरूपी गायको तो जीवनभर यन्त्रणाएँ सहना पड़ती है और उसे चिल्लाने का भी अधिकार नहीं होता। पुरुप तो रात रातभर रडी और परस्त्रियोंक यहाँ पडा रहे, वर्षों तक अपनी पत्नीका मुंह न देखे, फिरभी अपनी पत्नीको जीवनभर गुलाम रखना चाहे, यह अन्धेर कवतक चलेगा? हमारा कहना तो यही है कि अगर पुरुष, अपने अत्याचारों का त्याग नही करता तो तलाक प्रथा जरूर चलेगी । अगर पुरुष इनका त्याग करता है तो तलाक प्रथा न चलेगी। आक्षेप (ङ)-विधवाविवाह वालों को विधवा का विवाह करके भी शङ्का लगी हुई है तो पहिले से ही विधवा से क्यों नहीं पूछलिया जाता कि तेरी तृप्ति कितने मनुष्यों से होगी? समाधान-हमने कहा था कि विधवाविवाह कोई पाप नहीं है। हॉ, विधवाविवाह के बाद कोई दूसरा (हिंसा झूठ चोरी कुशील आदि) पाप करे तो उसे पाप बन्ध होगा । सो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) तो कुमारी विवाहक वाद और मनिवेप लेने के बाद भी होता है । हमारे इस वक्तव्य के ऊपर आक्षेपक ने ऊपर का (3) बेहदा और अप्रामहिक श्राक्षेप किया है । खैर, उसपर हमाग कहना है कि स्त्री तो यही चाहती है कि एक ही पति के साथ जीवन व्यतीत हो जाय । परन्तु जब वह मरजाता है तो विवश होकर उसे दूसरे विवाद के लिये तैयार होना पड़ता है । विवाह के समय वह विचारी क्या बतलाए कि कितने पुरुषों से तृप्ति होगी १ वह तो एक ही पुरुष चाहती है। हाँ, यह प्रश तो उन निर्लजों से पूछो, जो कि एक तरफ तो विधवाविवाह का विरोध करते है और दूसरी तरफ जब पहिली स्त्रीको जलाने के लिये मरघट में जाते हैं तो वहीं दूसरे विवाह की चर्चा करने लगते है और इसी तरह चार चार पाँच पाँच स्त्रियाँ हडप करके कन्याकुरंगी केसरी की उपाधि प्राप्त करते है । अथवा उन धृष्ठों से पूछो जो विधवाविवाहवालों का बहिष्कार करने के लिये तो बडा गर्जन तर्जन करते हैं, परन्तु खुद एक मंत्री के रखते हुए भी दुमरी स्त्री का हाथ पकडने में लज्जित नहीं होते। देव की सतायी हुई विचारी विधवा से क्या पूछते हो ? शगचियों को भी मात करने वाली असभ्यता और कसाइयों को भी मात करने वाली करता के बल पर विचारी विधवाओं का हृदय ययों जलाते हो। चोथा प्रश्न चौथे प्रश्न के उत्तर में तो दोनों ही आक्षेपक बहुत बुरी नरह से लडखडाते है । इस प्रश्न के उत्तर में हमने कहा था कि परस्त्रीसेवन, वेश्यासेवन और बिना विवाह के पत्ती बना लेना, ये व्यभिचार की तीन श्रेणियाँ है। विधवाविवाह किसी में भी शामिल नहीं हो सकता । कुमारी भी परस्त्री है, लेकिन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह से म्यम्त्री बन जाती है । उनी प्रकार विधवा भी विवाह से वस्त्री बन जाती है । श्रीलाल जी ने व्यभिचार की उपर्युक्त तीन श्रेणियाँ स्वीकार की, जव कि विद्यानन्द उस के विरुद्ध है । हर बात के उत्तर में दोनों प्रक्षेपक यही कहते हैं कि "विधवाविवाह धर्मविरुद्ध है, कन्या का ही विवाह होना , हैं आदि" । इन सब बातों का वध विवेचन हो चुका है। आक्षेप (क)-विधवा कभी भी दमग पनि नहीं करेगी जबतक कामाधिक्य न हो । लोकलज्ञा श्रादि को तिलाञ्जली दे जो दूसरे पति को करने में नहीं हिचकती, वह उस दुसरे करे हुए पति में सन्तोष रक्खे, असम्भव है। अन. उसका नीमग चोथा और जार पुरुष भी होना सम्भव है। अतएव वह भी एक प्रकार वेश्यासंगम जैसा हुआ। (श्रीलाल) समाधान-एक मनुष्य अगर प्रतिदिन प्राध सेर अनाज खाता है, इस तरह महीने में १५ सेर अनाज खाने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह बड़ा अगोरी है, पन्द्रह पन्द्रह सेर अनाज खा जाता है। इसी प्रकार एक स्त्री अगर एक समयमें एक पति रखती है और उसके स्वर्गवास होने पर अपना दूसरा विवाह कर लेती है तो उसे अनेक पति वाली नहीं कह सकते जिससे उसमें कामाविश्य माना जावे । एक साथ दो पति रखने में या एक साथ दो पत्नी रखने में कामा. धिक्य कहा जा सकता है । इस दृष्टिसे पुरुषों में ही कामाधि. . क्य पाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि आक्षेपक कामाधिक्य का अर्थ ही नहीं समझा । मानलीजिये कि एक स्त्री ने यह प्रतिज्ञा ली कि महीने में सिर्फ एक दिन (ऋतु काल के बाद ) काम सेवन कलगी । वह इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ रही। ऐसी हालत में अगर वह विधवा हो जावे और फिर विवाह करले और इसके बाद Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) मी वह पूर्व प्रतिज्ञा पर दृढ रहे तो उसमें कामाधिक्य ( काम की अधिकता ) नहीं कहा जा सकता । और दूसरी स्त्री जो सवा ही वनी रही और प्रतिदिन या दो दो चार चार दिन में कम सेवन करती है उसमें कामाधिक्य है। काम की अधिकता कामाधिक्य है, न कि काम के साधनों का परिवर्तन । इसलिये पति या पत्नी के बदल जाने से कामाधिक्य नहीं कहा जा सकता। लोकलजा के नाम पर अन्याय या अत्याचार सहना पाप है । धर्मविरुद्ध कार्य में लोकलला से डरना चाहिये, लेकिन श्रख मूँदकर लोक की बानों को धर्मसंगत मानना मूर्खता है । जो काम यहाँ लोकलजा का कारण है वही अन्यत्र लोकलज्ञा का कारण नहीं है । कहीं कहीं तो धर्मानुकूल काम भी लोकलजा के कारण होजाते हैं जैसे, श्रन्तर्जातीय विवाह, चाग्लॉक में विवाह, स्त्रियों के द्वारा भगवान की पूजा, प्रज्ञाल, गाँवो धर्मोपदेश देना पर्दा न करना, वस्त्राभूषणोंमें परिवर्तन करना, निर्भीकता से बोलना, स्त्रीशिक्षा, अत्याचारी शासक या पच i free tear दि । किस किस यात में लोकलजा का विचार किया जायगा ? ज़माना तो ऐसा गुज़र चुका है कि जैनधर्म धारण करने से ही लोकनिन्द्रा होती थी, दिगम्बर वेप धारण करने से निन्दा होती थी । ता क्या उसे छोड देना चाहिये ? और श्राजकल भी ऐसे लोग पडे हुए है-जिनमें श्रक्षेपक का भी समावेश है - जो कि भगवान महावीर की जयन्ती मानना भी निन्दनीय समझते है । जब ऐसे धर्मानुकूल कार्यों की निन्दा करने वाले मौजूद है तब लोकनिन्दा की कहाँ तक पर्वाह की जाय ? इसके अतिरिक्त धर्मविरुद्ध कार्य भी लोक-प्रशंसा के कारण हो जाते हैं या लोक- निन्दा के कारण नहीं होते। जैसे- सीथियन जाति में प्रत्येक पुरुष का प्रत्येक Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री पर और प्रत्येक स्त्री का प्रत्येक पुरुष पर समान अधिकार रहता है, इससे वहाँ सब पुरुष अपने को माई २ समझते हैं। चीन में भी फूवी के राजत्वकाल नक ऐसा ही नियम था। इसी तरह आयर्लेण्ड की केल्टिक जाति के बारे में भी है। फेलिक्स अरेविया में और कोरम्बा जाति में भी ऐसा ही नियम था | ऑस्ट्रेलिया में विवाह के पहिले ममागम करना बुरा नहीं समझा जाता था।वैविलोन में प्रत्येक स्त्रीको विवाह के वाद व्हीनस के मन्दिर में बैठकर किसी अपरिचित आदमी के साथ सहवास करना पडता था । जव नक वह ऐसा न करे, तव नक वह घर नहीं जा सकती थी । अर्मीनियन जाति में कुमारी स्त्रियाँ विवाह के पहिले वेश्यावृत्ति तक करती हैं पर. न्तु इसमें लोकलज्जा नहीं समझी जाती । प्राचीन गेम में विवाह के पहिले यदि कोई लडकी व्यभिचारवृत्ति से पैसा पैदा नहीं कर पाती थी तो उसे बहुत लज्जित होना पड़ता था। चिपचा जाति में अगर किसी पुरुष को यह मालूम हो कि उसकी स्त्री का अभी तक किसी पुरुष से समागम नहीं हुआ तो वह अपने को प्रभागा समझता था और अपनी स्त्री को इसलिये तुच्छ समझता था कि वह एक भी पुरुष का चित्ताकर्पण न कर सकी। वोटियाक लोगों में अगर किसी कुमारी के पीछे नवयुवको का दल न चले तो उसके लिये यह बड़े अपमान की बात समझी जाती है। वहाँ पर कुमारावस्था में ही माता बनजाना बडे सौभाग्य और सन्मान की बात मानी जाती है। इस विषय में इसी प्रकार के अद्भुत नियम चियेवे, केमैग्मट, ककी, किचनक, रेड इन्डियन, चुकची, एस्किमो, डकोटा, मौंगोलकारेन, डोडा; रेड कारेन, टेहिटियन, आदि जातियों में तथा इसके अतिरिक्त कमेस्क डैल, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) अलीटस, उत्तरी एशिया, टहीटी, मैकरोनेशिया, कैण्डोन आदि देश और द्वीपों के निवासियों में भी पाये जाते हैं। इसलिये जो लोग लोकलजा और लोकाचार की दुहाई देकर कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करना चाहते हैं वे मुर्ख है। हमारे कृपमराहक पण्डित बार बार चिल्लाया करते हैं-"क्योजी, ऐसा भी कहीं होता है ?" उन्हें जानना चाहिये कि यह "कहीं" और 'लोक' तुम्हारे घर में ही सीमित नहीं हैं। 'कहीं का क्षेत्र व 'लोक' बहुन बडे और विचित्र है, और उन्हें जानने के लिये विस्तृत अध्ययन की जरूरत है। लोकाचार, क्षेत्र काल की अपना विविध और परिवर्तनशील है, इसलिये उस को कसोटी बनाना मुर्खता है। हम तो कहते है कि अगर विधवाविवाह धर्मविरुद्ध है नो वह लोकलजा का विषय हो या न हा, वह त्यागने योग्य है और अगर वह धर्मविरुद्ध नहीं है नो लोगों के चकवाद की चिन्ता न करके उसे अपनाना चाहिये। धर्मानुकल समाजरना और न्याय के लिये अगर लोकलजा का सामना करना पडे तो उसको जीतना परिपह विजय के समान श्रेयस्कर है। इसके बाद पुनर्विवाहिताओं के विषय में आक्षेपक ने जो शब्द लिखे हैं वे धृपता के सूत्रक हैं। अगर पुनर्विवाहिता के तीसरा चौथा और जार पुरुष होना भी सम्भव है तो पुनविवाहित पुरुष के तीसरी चौथी पॉची तथा अनेक रखैल माशूका होना सम्भव है। इस नगह पुनर्विवाह करने वालाआक्षेपकके कथनानुसार मॅडया है । श्राक्षेपक की सम्भावना का कुछ ठिकाना भी है । एक साथ हज़ारों स्त्रियॉ रखने वाला पुरुष तो सन्तोषी माना जाय और पुनर्विवाह करके एक ही पुरुष के साथ रहने वाली स्त्री असन्तुष्ट मानी जाय, यह आक्षेपक की अन्धेर नगरी का न्याय है । पाठक देखें कि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) आक्षेपक से जब विधवाविवाह के विरोध में कुछ कहते नहीं बन पडा तब उसने यह बेहूदा बक्रवाद शुरू कर दिया है। आक्षेप (ख)-विवाह तो कन्या का होता है सो भी कन्यादान पूर्वक । वह विधवा न कन्या है न उसका कोई देने वाला । जिसकी थी वह चल बसा."वह किसी के लिये वसीयत कर गया नहीं, अब देने का अधिकारी कौन ? (श्रीलाल) समाधान-इन श्राक्षपों का समाधान प्रथम प्रश्न के उत्तर में कर चुके हैं । देखो, 'ए' 'पे'ओ' 'घ'। हमारे विवे. चन से सिद्ध है कि स्त्री सम्पत्ति नहीं है। जय सम्पत्ति नहीं है तो उसकी वसीयत करने का अधिकार किसे है । कन्या. दान भी अनुचित है । यह जबर्दस्ती का दान है; अत कुदान है। इसलिये प्राचार्य सोमदेव ने कुदानों की निन्दा करते हुए लिखा है : हिरण्यपशु भूमीनाम्कन्याशय्यानवाससाम् । दानवहुविधैश्चान्यैर्न पाप मुपशाम्यति ॥ चॉदी, पशु, जमीन, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र आदि दानों से पाप शान्त नहीं होता। अगर विवाह का लक्षण कन्यादान होता तो वह कुदान में शामिल कभी न किया जाता । यह बात पण्डिनों के महामान्य त्रिवर्णाचार में भी पायी जाती है : कन्यादस्ति सुवर्ण वाजि कपिला दासी तिलास्यन्दन । 'क्ष्मा गेहे प्रतिवद्धमत्र दशधा दानं दरिद्रप्सितम् ॥ तीर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्वकार स्वयं । लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्म तनयो-सौमुण्डशालायनः ॥ कन्या, हाथी, सुवर्ण, घोड़ा, गाय, दासी, तिल, रथ, ज़मीन, ये दरिद्रों को इष्ट दश प्रकार के दान हैं, जिन का, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ७१ ) गीतलनाथ के तीर्थ के अन्त में भृतिशर्मा के पुत्र मुण्डशालायन ने भाविष्कार किया था। समें सिद्ध है कि न्यादान, जैन धर्म में नहीं है। शीतलनाथ न्यामी के पहिले कन्यादान का रिवाज ही नहीं था। तो क्या उमरे पहिने विवाह न होता था ? तय तो ऋषभदेव, भग्न, जयकुमार सुनोयना आदि का विवाह न मानना पडेगा। न्यादान को विवाह मानने से गान्धर्व श्रादि विवाह, विवाह न बहलायेंगे। श्रीकृष्ण का रुकाणी माय जो विवाह हुश्रा था उसमें कन्यादान कहाँ था? क्या वह विवाद नाजायज़ था? स्मरण रहे किसी विवाह के फलम्बनप, रुक्मणी जी के गर्भ में नन्नयमानगामी प्रयम्न का जन्म हुआ था । र, इस विषय में दम पहिले यहुन कुश लिन चुके है । मुरय यान यह किन्यादान विवाद का लक्षण नहीं है। भासप (ग)-पुरुष भोता है, स्त्री भोज्य है। पुरुष जय अनेक भाज्यों के मांगने की शक्ति रखना है नय क्यों नहीं पक भोव्य में अमाघ में मरे भोज्य को भोगे । (श्रीलाल) ममाघान-पुरुष माता है परन्तु वह मोज्य भी है। इसी प्रकार स्त्री गोव्यदै परन्तु यह भोक्ती ( भोगने वाली) भी है। इसलिये भाज्यास्त्रों के अभाव में, पम्प को अधिकार है कि यह दमगे भाग्यश्री प्राप्त करे, इसी प्रकार भोल्य. पाप के अभाव में स्त्री को अधिकार है कि वह दमरा भाज्य. पुरुष प्राप्त करे । शक्ति का विचार किया जाय तो पुरुप में जिननी स्त्रियों को भोगने की ताकत है उससे भी ज्यादः परयों की मांगने की नाकन स्त्री में है। जहां भाज्यभोजक सम्बन्ध होता है वहाँ यह यात देखी जाती है कि मांग से मोजक को सुखानुभव होता है और भोज्य को नहीं होता। रथी पमय के भीग में तो दोनों को Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) सुखानुभव होता है, इसलिये उनमें से किसी एक को भोज्य या किसी एक को मोजक नहीं कह सकते । असल में दोनों ही भोजक हैं। अगर स्त्री को भोजक न माना जायगा तो स्त्रियों के लिये कुशील नाम का पाप ही नहीं रहेगा, क्योंकि कुशील करने वाला ( भोजक) तो पुरुष है न कि स्त्री । इस लिये स्त्री का क्या दोष है ? हिंसा करने वाला हिंसक कहलाता है न कि जिसकी हिंसा की जाय वह । चोरी करने वाला चोर कहलाता है न कि जिसकी चोरी की जाय वह । इसलिये जो व्यभिचार करने वाला होगा वही व्यभिचारी कहलायगा न कि जिसके साथ व्यभिचार किया जाय वह । इसलिये स्त्रियाँ सैकडो पुरुषों के साथ सम्भोग करने पर भी व्यभिचार पाप करने वाली न कहलायेंगी, क्योंकि वे भोजक (भोग करने वाली) नहीं है। अगर स्त्रियों को व्यभिचार का दोप लगता है तो कहना चाहिये कि उनमें भी भोक्तृत्व है। भोक्तृत्व के लक्षण पर विचार करने से भी स्त्रियों में भोक्तृत्व मानना पडता है। दूसरी वस्तु की ताकत को ग्रहण करने की शक्ति को भोक्तृत्व कहते है (पर द्रव्यवीर्यादान. सामथ्यं भोक्तृत्वलक्षणम्-राजवार्तिक)। स्त्री पुरुष के भोगमें हमें विचारना चाहिये कि कौन किसकी ताकत ग्रहण करता है और कौन अपनी शक्तियों को ज्यादा वर्वाद करता है। विवार करते ही हमें मालूम होगा कि भोक्तृत्व स्त्री में है न कि पुरुष में, क्योंकि सम्भोग कार्य में पुरुष की ज़्याद शक्ति नष्ट होती है। दसरी चात यह है कि स्त्रीके रजको पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता बल्कि पुरुष के वीर्य को स्त्री ग्रहण करलेती है । राजवार्तिक के लक्षणानुसार, ग्रहण करना ही भोक्तृत्व है। स्त्रीको जूंठी थालीक समान बतलाकर भोज्य ठहराना अवचित हैं, क्योंकि पुरुष को भी गन्ने के समान ठहग कर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) भोज्य सिद्ध कर दिया जायगा । यदि एक पुरुष के सगम से म्त्री गूंठी हो जाती है तो एक स्त्रीके सगम से पुरुष भी गूंठा हो जाता है । इसलिये अगर गूंठी स्त्री को सेवन करने वाला चांडाल या कुत्ता है तो जूंठे पुरुषको सेवन करने वाली चांडालिन या कुतिया है । अगर दुमरी बात ठीक नहीं तो पहिली बात भी ठीक नहीं है। भोज्य भोजकक सम्बन्ध में यह ध्यान में रखना चाहिये फियह उपभोग का प्रकरण है। भोजन वगैरह तो मोग हैं और वस्त्र वगैरह उपभोग हैं । स्त्री के लिये पुरुष उपभोग सामग्री है और पुरुष के लिये स्त्री उपभोग सामग्री है। इसलिये यहाँ घुटी थाली श्रादि भोग सामग्री का उदाहरण ठीक नहीं हो सफ्ता है। उपभोग में यह नियम नहीं है कि एक सामग्री का एक ही व्यक्ति उपभोग करे । जिस विस्तर पर एक आदमी सो लेता है उसी पर अगर दूसरा लेटजावे तो वह गूंठा खानेवाला या उसके समान न कहलायेगा। एक सावुन की चट्टी का चार श्रादमी उपयोग कर सकते हैं । इसी प्रकार कुर्सी, टेबुल, पलंग, चौकी, मोटरगाड़ी, रेलगाडी, चटाई, साइकिल, मोती, माणिक आदि वस्तुओका अनेक श्रादमी उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इससे कोई जूंठन खाने वाले के समान नहीं कहलाता। इसलिये अगर थोड़ी देर के लिये स्त्री को भोज्य (उपभोगसामग्री) मान लिया जाय तो भी उसके पुनर्विवाह को घृणित नहीं कहा जा सकता। जिस समय माता. अपने बच्चे की सेवा करती है, उस समय माता बच्चे की उपभोग सामग्री है, इसलिये क्या माता अब दूसरे बच्चे की सेवा नहीं कर सकती? क्या वह जूंठी हो गई ? एक नौकर अपने मालिक के हाथ पैर आदि दवाता (सवाहन करता) है तो क्या वह जूंठा होगया ? भोग सामग्री Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) और उपभोग सामग्रीमें बड़ा फरक है, यह सदा म्मरण रखना चाहिये । उपभोग सामग्री दूसरे के लिये घृणित नहीं होजाती। हॉ, अगर एकाध चीज थोडी बहुत घृणित कहलावे भी, तो यह नियम कदापि नहीं कराया जा सकता कि उपभोग सामग्री हो जाने से घृणित हो ही गई । क्योंकि ऐसा मानने से कुर्सी चौकी श्रादि का दुवारा उपयोग करना भी घृणित कहलाने लगेगा। आक्षेप (घ)-ऐना कहीं न देखा सुना होगा कि एक स्त्री के अनेक पुरुष हो, जिस प्रकार एक पुरुष के अनेक स्त्रियाँ होती है यह सिद्धान्त कितना अटल है ? (श्रीलाल) समाधान-आक्षेपक के सिद्धान्त की अटलता का तिब्बत में-जिसे प्राचीनकालमें त्रिविष्टप या स्वर्ग कहते थेदिवाला निकला हुआ है । वहाँ पर एक स्त्रीके एक साथ चार चार छ छः पति होते है । और अमेरिका, इग्लेड आदि देशों में एक पुरुष को एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नहीं है । प्राकृतिक बात यह है कि एक पुरुष और एक स्त्री का दाम्पत्य सम्बन्ध हो । हाँ, अगर शक्तिका दुरुपयोग करना हो तो एक पुरुष अनेक स्त्री रख सकता है और एक स्त्री अनेक पुरुष रख सकती है । अटल नियम कुछ भी नही है । अगर थोडी देर के लिये आक्षेपक की बात मानली जाय कि एक स्त्री एक ही पुरुष रख सकती है तोमी उसके पुनर्विवाह का अधि. कार छिन नहीं जाता । एक श्राभूषण एक समय में एक ही आदमी के काम में आ सकता है । क्या इसीलिये फिर कोई उसका उपयोग नहीं कर सकता ? स्त्री तो रत्न है । रत्न एक समय में एक ही आदमी की शोभा बढ़ाता है, लेकिन समयान्तर में दूसरे के काम में भी आता है। आक्षेप()-एक पुरुष अनेक स्त्रियों से एक वर्ष में Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक मन्लान उत्पन्न कर सकता है परन्तु पर स्त्री, अनेक पुरुषों को भी रखकर एक मन्तान में अधिक पैदा नहीं कर मस्ती। (श्रीलात) ममायान-यदि ऐसा है तो ब्धियोग पुनर्विवाह तुरत चालु कर देना चाहिये, भले ही पुरुषों का पनर्यिवाह रोक दिया जाय । ययोंकि अनेक मन्नान पैदा करने के लिये नो पक पुरुष ही काफी है: इमलिये यहुन पुरुष कुमार या विधुर रहें तो सन्तान संख्या की दृष्टि में कोई हानि नहीं है, किन्त स्त्री तो एक भी कुमारी या विधया न रह जाना चाहिये क्योंकि उन वैधव्य या कौमार्य से संन्या घट जायगी। यह कहाँ का न्याय है कि जिसकी हमें अधिक ज़रूरत है यह नो व्यर्थ पडी रहे और जिमकी थोड़ी जरूग्न है उम्मको ड्याटः कदर की जाय। प्रकृति ने जो स्त्री पुरुष के बीच में अन्तर उत्पन्न कर दिया है, उमसे मालूम होता है कि विधुरविवार को अपना विधवाविवाह का गुणा आवश्यक है। श्राप (च)-पत्र विषय ममान नहीं हुआ करते । एक ही सम्भोग क्रिया से घी को गर्भधारण श्रादि अनेक कए मरने पढने दे और पुरुष को कुछ नहीं । अब कहाँ गये ममान बनाने वाले न्यायतीर्थ जी? (श्रीलाल) समाधान-स्त्री पुरुषों में शारीरिक ममानता नहीं है इसलिये उनके अधिकारों में भी विषमता होना चाहिये और उम विषमता में परयों को अधिक अधिकार मिलना चाहिये यह नहीं कहा जासकता। अगर कोई कहे कि स्त्री पुरुष में शारीरिक विषमना है. इसलिये पुरुप के मरने पर म्धी की भोजन करने का भी अधिकार नहीं है ( उमे भूखा रह कर मर जाना ही उचित है), तो क्या यह टनिन है ? प्रकृतिविरुद्ध विषमता पैदा करने का हमे क्या अधिकार है ? हाँ, अगर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) प्रकृति ने कोई ऐसी धिपमता पैदा की होनी जिससे पुनर्विवाह का निषेध मालूम होता तो कहने को गुंजाइश थी । अगर विधवा हो जाने से स्त्री का मासिकधर्म रुक जाता, स्त्रीत्व के चिन्ह नष्ट हो जाते या विगड जाते तो कुछ श्रवश्य ही स्त्री के पुनर्विवाह का अधिकार छीना जाता । आक्षेपक ने जो विषमता बनलाई है उससे तो स्त्रियों कोही विशेष अधिकार मिलने चाहियें, क्योंकि कर्तव्य और अधिकार ये एक ही सिक्के के दो पृष्ठ (बाजू) है । इसलिये न्यायोचित बात यह है कि जहाँ कर्तव्य अधिक है वहाँ श्रधिकार भी अधिक है सन्तानोत्पत्ति में स्त्रियों का जितना कर्तव्य है उसका शतांश कर्तव्य भी पुरुषों का नहीं है; इसलिये स्त्रियों को ज्यादः अधिकार मिलना चाहिये । स्त्री सम्पत्ति है, इसके खण्डन के लिये देखो प्रश्न पहिला समाधान 'थ्रो' । स्त्री यावजीव प्रतिक्षा करती है और पुरुष भी करता हैं। खुलासे के लिये देखो प्रश्न पहिला समाधान ए (१- प ) | श्रमरकोष और धनञ्जयनाममाला के पुनर्भू शब्द का खुलासा '१ - त' में देखिये । विवाह ग्राठ प्रकार के है; उनमें विधवाविवाह नहीं है - इसका उत्तर श्राक्षप " १ - ज " में देखिये ! श्राक्षेप (छ) — व्यभिचार की तीन श्रेणियाँ ठीक नहीं हैं । रखैल के साथ सम्भोग करना परस्त्रीसेवन की कोटि का ही पाप है । रखैल और विधवाविवाह में कुछ भेद नहीं है । परस्त्रीसेवन को व्यभिचार मान लेने से विधवाविवाह भी पाप सिद्ध हो गया; इसलिये सव्यसाची निग्रहस्थान पात्र है । ( विद्यानन्द ) समाधान — व्यभिचार की तीन श्रेणियों श्रीलाल जी ने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) मानी है. विद्यानन्द नहीं मानते है । सौर, परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन से अधिक पाप है जबक्रि ग्वैल स्त्री के साथ सम्भोग वेश्यालेधन से छोटा पाप है। इसका कारण संक्लेश की न्यूनता है। परस्त्रीसेवन में वेश्यालेषन की अपेक्षा इसलिये ज़्यादा सशता है कि उसमें परस्त्री के कुटुम्बियों का तथा पड़ोसियों का भय रहता है, और ज्याद. मायानगर करना पड़ता है । वेश्यासेवन में ये दोनों बातें कम रहती हैं । रखैल स्त्री में ये दोनों पाते बिलकुल नहीं रहती है । व्यभिचार को उन दोनों श्रेणियों से यह श्रेणी बहुत छोटी है, यह यात बिलकुल स्पष्ट है। इस नीसरी श्रेणीको व्यभिचार इसलिये कहा है कि ऐसी स्त्री से पैदा होने वाली सन्तान अपनी सन्तान नहीं कहलाती; और इनका परस्पर सम्बन्ध समाज की अनुमनि के बिना ही होता है और समाज की अनुमति के बिना ही छूट जाता है । विधवाविवाह में ये दोष भी नहीं पाये जाते। इससे मन्तान अपनी कहलाती है। बिना समाज को सम्मति के न यह सम्बन्ध होता है न टना है। व्यभिचार का इससे कोई ताल्लुक नहीं। विवाह के समय जैसे अन्य कुमारियाँ कन्या (दुलहिन) कहा नाती है, उसी प्रकार विवाह के समय विधवा भी कन्या कहा लाती है। व्यभिचार की नीन श्रेणियाँ और विधवाविवाह का उनसे याहर रहना इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की ज़रूरत नहीं है । जब विधवाविवाह परस्त्रीसेवन नहीं है नव परस्त्री. सेवनको व्यभिचार मान लेनेसे व्यभिचार कैसे सिद्ध होगया ? भाक्षेपक, यहाँ पर अनिग्रह में निग्रह का प्रयोग करके म्बय निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान में गिर गया है। आक्षेप (ज)-जहाँ कन्या और वर का विवाहविधि के पूर्व सम्बन्ध हो जाता है वह गांधर्व-विवाह है । इसमें कन्या के साथ प्रवीचार होता है; इसलिये व्यभिचार श्रेणी से हलका Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) है । कुन्ती का पारड के साथ पहिले गान्धर्वविवाह हो चुका था। बाद में उस अधर्मदोष को दूर करने के लिये नहीं, किंतु अपनी कुमारी कन्या का विवाह करना माता पिता का धर्म है इल नीति वाक्य को पालने के लिये उनने अपनी कुमारीकन्या कुन्ती का विवाह किया। गान्धर्व विवाह के अधर्म के दोष को दूर करने के लिये उन्हें कुन्ती का विवाह नहीं करना पड़ा, किन्तु पाराडु को पान चुनना पडा । इसलिये विवाह व्यभिचार-दोष को दूर करने का अभ्यर्थ साधन नहीं है । (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपक ने यहाँ पर बडा विचित्र प्रलाप किया है । इमने कहा था कि विवाह के पहिले अगर किसी क्मारी से सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार कहलायगा. अगर विवाह के बाद सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार न कहा जायगा। मतलब यह कि विवाह से व्यभिचार दोष दूर होता है । इस वक्तव्य का उत्तर आक्षेपक से न बना । इसलिये उनने कहा कि विवाह के पहिले किसी कमारी के साथ संभोग करना व्यभिचार ही नहीं है। तब तो पडित लोग जिस चाहे कुमारी लडकी के साथ सभोग कर सकते है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह व्यभिचार नहीं है। तारीफ़ यह है कि व्यभिचार न मानने पर भी इसे अधर्म मानते हैं। व्यभिचार तो यह है नहीं, बाकी चार पापों में यह शामिल किया नहीं जा सकता, इसलिये अब कौनसा अधर्म कहलाया ? आक्षेपक ने गान्धर्व विवाह के लक्षण में भूल की है । प्रवीचार करना विवाह का अन्यतम फल है, न कि विवाह । गांधर्व विवाह में वर कन्या एक दूसरे से प्रतिज्ञाबद्ध होजाते हैं, तव प्रवीचार होता है । विवाह के पहिले पाण्ड और कुन्ती का जो संसर्ग हुआ था वह व्यभिचार ही था। अगर वह व्यभिचार न होता तो उस संसर्ग से पैदा होने Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) 1 वाली सन्तान ( क ) छिपाकर नदी में न बहावी जाती। हम कह चुके हैं कि व्यभिचार से जो सन्तान पैदा होती है वह नाजायज़ कहलाती हैं और विवाह से जो सन्तान पैदा होती हैं वह जायज कहलाती है । कर्णं नाजायज सन्तान थे, इसलिये वे बहादिये गये । और इसीलिये पाण्डु कुन्ती का प्रथम संयोग व्यभिचार कहलाया न कि गान्धर्व विवाह । श्रय हमें देखना चाहिये कि वह कौनसा कारण हैं जिससे कुन्नी के गर्भ से उत्पन्न कर्ण तो नाजायज कहलाये, किन्तु युद्धिष्ठिर श्रादि जायज़ कहलाये, श्रर्थात् जिस ससर्ग से कर्ण पैदा हुए वह व्यभिचार कहलाया श्रीर जिससे युद्धिष्ठिर पैदा हुए वह व्य विचार न कहलाया । कारण स्पष्ट है कि प्रथम संसर्ग के समय विवाह नहीं हुआ था और द्वितीय ससर्ग के समय विवाह हो गया था । इससे बिलकुल स्पष्ट है कि विवाह से व्यभिचार का दोष दूर होता है । इसलिये विवाह के पहिले किसी विधवा से संसर्ग करना व्यभिचार है और विवाह के वाद (विधवाविवाह होने पर) संसर्ग करना व्यभिचार नहीं है । श्राक्षेपक के कथनानुसार अगर पागडु कुन्ती का प्रथम सयोग गान्धर्व विवाह था तो कर्ण नाजायज़ संतान क्यों माने गये ? उनको छिपाने की कोशिश क्यों की गई ? कृष्णजी ने भी रुक्मणी का हरण करके देवनक पर्वत के ऊपर उनके साथ गान्धर्व विवाह किया था, परन्तु रुक्मणीपुत्र प्रद्युम्न तो नहीं छिपाये गये। दूसरी बात यह है कि जब पाण्डु कुन्तीका गांधर्वविवाह हो गया था तो उनके माता पिता ने कुन्ती का दूसरी are faare ( पुनर्विवाह ) क्यों किया ? क्या विवाहिता का विवाह करना भी माना पिता का धर्म है ? और क्या तत्र भी वह कन्या बनी रही ? यदि हाँ, तो विधवा का विवाह करना Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) माता पिता या,समाज का धर्म क्यों नहीं? और वह कन्या भी क्यों नहीं? प्राक्षेपक के होशहवाल तो यहाँ तक विगड हुप है कि एक बच्चा पैदा कर देने के बाद भी कुन्ती को कुमारी कन्या बतला रहे हैं। जब एक बच्चे की मां कुमारी कन्या हो सकती है तव वेचारी विधवा, कुमारी कन्या नहीं, सिर्फ 'कन्या' क्यों नहीं हो सकती १ पन्या के साथ कुमारी विशेषण लगा कर आक्षेपक ने यह स्वीकार कर लिया है कि कन्या कुमारी भी होती है और अकुमारी (विधवा) भी होती है। आक्षेप (झ)-कुमारी जैसे स्वस्त्री बनायी जा सकती है उस प्रकार विधवा नहीं बनायी जा सकती। क्योंकि कुमारी परस्त्री नहीं है। आप कुमारी को परस्त्री कहने का साहस क्यों कर गये ? वह तो स्त्री भी नहीं है । भावी न्त्री है। समाधान-कुमारी, स्त्री तो अवश्य है, क्योंकि वह पुरुष अथवा नपुसक नहीं है । परन्तु श्रान पक ने स्त्री शब्द का भार्या अर्थ किया है । इसलिये उसी पर विचार किया जाता है । आचार शास्त्रों में ब्रह्मचर्याणुवती को कुमारी के साथ सम्भोग करने की मनाई है, इसलिये कुमारी परस्त्री है। अपनी स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को परस्त्री कहते हैं। इस लिये भी कुमारी परस्त्री है । कुन्ती को अपनी सतान छिपाना पडी; इसलिये भी सिद्ध होता है कि कुमारी परम्त्री है। राज. नियमों के अनुसार भी कुमारी परस्त्री है । कल्पना कर लो, अगर पाण्डु अणुवती होते तो विवाह के बिना कुन्ती के साथ सम्भोग करने से उनका अणुव्रत क्या नष्ट न होता? जैनशास्त्रो के अनुसार उनका अणुव्रत अवश्य नष्ट होता । लेकिन विवाह करके अगर सम्भोग करते तो उनका अणुवत नष्ट नहीं होता। क्या इससे यह नहीं मालूम होता कि विवाह के द्वारा परस्त्री, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १) स्वम्त्री बन गई है। खैर ! अगर आक्षेपक की यही मंशा है कि कुमारी को परस्त्री न माना जाय, क्योंकि वर्तमान में वह किमी की स्त्री नहीं है-भावी स्त्री है, तो इनमें भी हमें कोई ऐतगज नहीं है। परन्तु ऐसी हालत में विधवा मी परस्त्री न कहला. यगी, क्योंकि वर्तमान में वह किनी की स्त्री नहीं है । जिसकी थी वह तो मर गया, इसलिये वह तो भृत-स्त्री हैं। इसलिये कुमारी के समान वह खम्त्री बनाई जा सकती है। श्राक्षेप (अ)-विवाह किसी अपेक्षा से व्यभिचार को दूर करने का कारण कहा भी जा सकता है। किन्तु कहा जा सकता है विवाह ही। विधवा सम्बन्ध भी विवाह सना ही नहीं। समाधान-शास्त्रों में जो विवाह का लक्षण किया गया है यह विधवाविवाह में जाता है। यह बात हम प्रथम प्रश्न में कन्या शब्द का अर्थ करते समय लिख पाये है। लोक में भी विधवाविवाह शब्द का प्रचार है, इसलिये संज्ञा का प्रश्न निरर्थक है । इम आक्षेप को लिखने की जरूरत ही नहीं थी, परन्तु यह इसलिये लिख दिया है कि श्राक्षेपक ने यहाँ पर विवाह को व्यभिचार दूर करने का कारण मान लिया है । इसलिये विधवाविवाह व्यभिचार नहीं है। आक्षेप (2)-विवाह तो व्यभिचार की ओर रुजू कगने वाला है, अन्यथा भगवान महावीर को क्या सूझी थी जो उन्हों ने ब्रह्मचर्यव्रत पाला? समाधान-विवाह तो व्यभिचार की ओर रुजू कराने वाला नहीं है, अन्यथा श्रीऋषमटेव श्रादि तीथंकरों को क्या सूझी थी जो विवाह कगया ? सभी तीर्थंकरों को क्या सूझी थी जो ब्रह्मचर्याणुव्रत का उपदेश दिया? प्राचार्यों को क्या सूझी थी कि पुगणों को विवाह की घटनाओं से भर दिया और Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) विवाहविधि के विषय में प्रकरण के प्रकरण लिखे ? विवाह पूर्णब्रह्मचर्य का विरोधी है, ब्रह्मचर्याणुव्रत का वाधक या व्य. भिचार का साधक नहीं है। अगर यह बात मानली जाय तो अकेला विधवाविवाह ही क्या, कुमारी विवाह भी व्यभिचार कहलायगा। अगर व्यभिचार होने पर भी कुमारी विवाह विधेय है नो विधवाविवाह भी विधेय है। आक्षेप (8)-पुरुप इसी भव से मोक्ष जा सकते हैं, पुरुषों के उच्च सस्थान संहनन होते है, उनके शिश्न मूछे होती है । स्त्रियों में ये बातें नहीं हैं, इसलिये उन्हें पुरुषों के समान पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है । लक्षण, प्राकृति, स्वभाव, शक्ति की अपेक्षा भी महान् अन्तर है। समाधान-आजकल के पुरुष न नो मोक्ष जा सकते हैं, न स्त्रियों से अधिक सहनन रख सकते है। इसलिये इन्हें भी पुनर्विवाह का अधिकार नहीं होना चाहिये । संस्थान तो स्त्रियों के भी पुरुषों के समान सभी हो सकते है (देखो गोम्मटसार कर्मकांड)। पुरुषों के शिश्न मूछे होती हैं और स्त्रियों के योनि और स्तन होते हैं । आक्षेपक के समान कोई यह भी कह सकता है कि पुरुषों को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके योनि और स्तन नहीं होते। लिङ्ग और मूछे ऐसी चीज नहीं हैं जिनके ऊपर पुनर्विवाह की छाप खुदी रहती हो । देवों के और तीर्थंकरादिको के मूछे नहीं होती, फिर भी उनके अधिकार नहीं छिनते । दाढ़ी के बाल और में छे तो सौन्दर्य की विघातक और उतने स्थान की मलीनता का कारण हैं। उनसे विशेषाधिकार मिलने का क्या सम्बन्ध ? खैर, विषमता को लेकर स्त्रियों के अधिकार नहीं छीने जा सकते । संसार का प्रत्येक व्यक्ति विषम है । सूक्ष्म विषमता को अलग करदें तो स्थूल विषमता भी बहुत हैं । परन्तु विषमता Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण अधिकार छीनना अन्याय है । अगर यह नियम बनाया जाय कि जो इतना विद्वान हो उसे इतने विवाह करने का अधिकार है और जो विद्वान नहीं है उसे विवाह का अधिकार नहीं है, तो क्या यह ठीक होगा ? दूसरी बात यह है कि जिस विषय का अधिकार है उनी विषय की समता, विपमना, योग्यता, अयोग्यता का विचार करना चाहिये । किसी के पैर में चोट धागई है तो बहुत से बहुत वह जूना नहीं पहिनेगा, परन्तु वह कपड़ भी न पहिने, यह कहाँ का न्याय है ? किसी भी अधिकार के विषय में प्राय चार बातों का विचार किया जाता है । योग्यता, आवश्यक्ता, मामाजिक लाभ, स्वार्थत्याग। पुनर्विवाह के विषय में भी हम इन्हीं बातों पर विचार करेंगे। स्त्रियों में पुनर्विवाह की योग्यता तो है ही, क्योंकि पुनर्विवाह में भी वे सन्तान पैदा कर सकती है । संभोगशक्ति. रजोधर्म तथा गार्हस्थ्यजीवन के अन्य कर्तव्य करने की क्षमता उन में पाई जाती है । श्रावश्यक्ता मी है, क्योंकि विधवा हो जाने पर भी उनकी कामवासना जाग्रत रहती है, जिसके सीमित करने के लिये विवाह करने की ज़रत है। इसी तरह सन्तान की इच्छा भी रहती है, जिनके लिये विवाह करना चाहिये । वैध. व्यजीवन बहुन पगश्रित, अार्थिक कष्ट, शोक, चिन्ता और संक्लेशमय तथा निगधिकार होता है, इसलिये भी उन को पुनर्विवाह की श्रावश्यक्ता है। कुछ इनीगिनी विधवाओं को छोड़ कर बाकी विधवात्रों का जीवन समाज के लिये मार सरीखा होता है । वैधव्यजीवन के भीतर कैट हो जाने से बहुत से पुरुषों को स्त्रियाँ नहीं मिलती। इसलिये उनका जीवन दुःखमय या पतित हो जाता है । समाज की संरया घटती है । विधवाविवाह से ये समस्याएं अधिक अंशो में हल हो जाती है. इसन्निये विधवाविवाह से सामाजिक लाम Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) है । स्वार्थत्याग तो ज़्यादा है ही, क्योंकि स्त्रियाँ सेवाधर्म का पालन ज्यादह करती है। सन्तानोत्पत्ति मे स्त्रियों को जितना कए सहना पडता है, उसका शतांश भी पुरुषों को नहीं सहना पडता । विवाह होते ही स्त्री अपने पितृगृह का त्याग कर देती है । मतलब यह कि चाहे विवाह के विषय में विचार कीजिये, चाहे विवाहके फल के बारे में विचार कीजिये, स्त्रियों का स्वार्थत्याग पुरुषों के स्वार्थत्याग से कई गुणा ज्यादह है। स्त्रियों में पुरुषों से विपमता जरूर है, परन्तु वह विषमता उन बातों में कोई त्रुटि उपस्थित नहीं करती, जो कि पुनर्विवाह के अधिकार के लिये श्रावश्यक है, बल्कि वह विषमता अधिकार बढाने वाली ही है । क्योंकि पुरुष विधुर हो जाने पर तो किसी तरह गार्हस्थ्यजीवन गौरव के साथ बिता सकता है, साथ ही आर्थिक स्वातन्त्र्य और सुविधा भी रख सकता है, परन्तु विधवा का तो सामाजिक स्थान गिर जाता है और उसका आर्थिक कष्ट बढ़ जाता है। इसलिये विधुरविवाह की अपेक्षा विधवाविवाह की ज्याद आवश्यक्ता है। और स्वार्थत्याग में स्त्रियाँ ज्यादा है ही, इसलिये विधुरों को विवाह का अधिकार भले ही न हो, परन्तु विधवाओं को तो अवश्य होना चाहिये। आक्षेप (ड)-स्त्री पर्याय निंद्य है। इसलिये उच्चपर्याय (पुरुषपर्याय) प्राप्त करने के लिये त्याग करना चाहिये । (विद्यानन्द) समाधान-स्त्रीपर्याय निंद्य है, अथवा अत्याचारी पुरुष समाज ने सहस्राब्दियों के अत्याचारों से उसे निंद्य बनाडाला है. इसकी मीमांसा हम विचारशील पाठको पर छोड़ देते है । अगर आक्षेपक की बात मानली जाय तो पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को पुनर्विवाह की सुविधा ज्यादः मिलना चाहिये, क्यों. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) कि पुरुषों को अपनी उच्चना के लिहाज़ से ज्यादः त्याग करना चाहिये । मुनिपद श्रेष्ठ है और श्रावकपद नीचा । अब कोई कहे कि मुनि उच्च है, इसलिये उन्हें रण्डीवाज़ी करने का भी अधिकार हैं ! गृहस्थ को तो मुनिपद प्राप्त करना है, इसलिये उसे रगडीवाजी न करना चाहिये ? क्या उच्चता के नामपर मुनियों को ऐसे अधिकार देना उचित है ? यदि नहीं, तो पुरुषों को भी उच्चता के नाम पर पुनर्विवाह का अधिकार न रखना चाहिये । अथवा स्त्रियों का अधिकार न छीनना चाहिये। इसी युक्ति के बल पर हम यह भी कह सकते है कि त्रियाँ अधिक निर्वल और निःसहाय है, इसलिये स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा सुविधा देना चाहिये । आप (द)-विषय-मोगों की स्वच्छन्दना हरएक को टेढी जाय तो वैराग्यका कारण बहुत ही कम मिला कर छोटो अवस्था की विधवा का दर्शन होना कर्मवैचित्र्य का सूचक है, इससे उदासीनता आती है । (विद्यानन्द) ममाधान-पुरुष नो एक साथ या क्रम से हज़ारों स्त्रियाँ रक्खे, फिर भी वैराग्य के कारणों में कमी न हो और स्त्री के पुनर्विवाह मात्र से वैगग्य के कारण बहुत कम रह जायेंयह नो विचित्र बात है ! क्या संसार में दुखों की कमी है जो वैराग्य उत्पन्न करने के लिये नये दुःन्न बनाये जाते हैं ? क्या अनेक तरह की यीमारियाँ देखकर वैराग्य नहीं हो सकता ? फिर चिकित्सा का प्रवन्ध क्यों किया जाता है ? यदि आज जेनियों के वैगग्य के लिये संसार को दुश्नी बनाने की जरूरत है तो जैनधर्ममें और बासुरीलीलामें क्या अंतर रह जायगा? यह तो गैद्रध्यान की प्रकर्पता है। जिनको वैराग्य पैदा करना है उन्हें, संसार वैराग्य के कारणों से भरा पड़ा है। मेघों और विज्ञलियों की क्षणभंगुरता, दिन रान मृत्यु का दौरा, अनेक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) तरह की बीमारियों आदि वैराग्य की ओर झुकाने वाली हैं । पुराणों में ऐसे कितने मनुष्यों का उल्लेख है जिन्हें बालविध वाओं को देखकर वैराग्य पैदा हुआ हो ? कर्मवैचित्रय की सूचना पुराय और पाप दोनों से मिलती हैं। विधवा के देखने से जहाँ पाप कर्म की विचित्रता मालूम होती है वहाँ विधवाविवाह से पुण्य कर्म की विचित्रता मालूम होती है । जिस प्रकार एक स्त्री मर जाने पर पुण्योदय से दूसरी स्त्री मिल जाती है, उसी प्रकार एक पुरुष के मर जाने पर भी पुरायोदय से दूसरा पुरुष मिल जाता है। वैराग्य के लिये बालविधवाश्री की स्थिति चाहना ऐसी निर्दयता, क्र रता और रुद्रता है कि जिसकी उपमा नहीं मिलती। पाँचवाँ प्रश्न इस प्रश्न का सम्बन्ध विधवाविवाह से बहुत कम है । इस विषय में हमने लिखा था कि वेश्या और कुशीला विधवा के मायाचार में अन्तर है । कुशीता विधवा का मायाचार बहुत है । हॉ, व्यक्तिगत दृष्टि से किसी के अन्तरङ्ग भावों का निर्णय होना कठिन है । इस विषय में श्राक्षेपकों को कोई ज्याद ऐतराज़ नहीं है, परन्तु 'विरोध तो करना ही चाहिये' यह सोच कर उनने विरोध किया है । आक्षेप ( क ) - वेश्या, माया-मूर्ति है । व्यभिचार ही उसका कार्य है । वह अहर्निश माया मूर्ति है । किन्तु यह नियम नहीं है कि कुशीला जन्मभर कुशीला रहे । ( विद्यानन्द ) समाधान - यहाँ यह प्रश्न नहीं है कि पाप किसका ज्याद है ? प्रश्न मायाचार का है। जो कार्य जितना किया जाता है उसमें उतना ही ज्याद: मायाचार है । वेश्या छुपाकर इस कार्य को छुपाकर नहीं करती, जबकि कुशीला को छुपाकर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) करना पड़ता है। व्यभिचार के लिये नहीं, किन्तु पैसों के लिये वेश्या कृत्रिम प्रेम करके किसी श्रादमी के साथ मायाचार करती है जबकि कुशीला विधवा अपने पाप को सुरक्षित रखने के लिये सारी समाज के साथ मायाचार करती है । अपने व्यभिचार को छुपाने के लिये ऐसी नाग्यिा मुनियों को सेवा सुश्रूषा में आगे आगे रहती है, देव पूजा आदि के कार्यों में अग्रेसर बनती हैं, नप श्रादि के ढोंग करती हैं जिससे लोग उन्हें धर्मात्माबाई कहें और उनका पापाचार भूले रहें । स्मरण रहे कि व्याघ्र से गोमुखव्याघ्र भयानक होता है । वेश्या अगर व्यात्री है तो कुशीला गोमुखव्यात्री है। सम्भव है कोई स्त्री जन्मभर कुशीला न रहे । परन्तु यह भी मम्भव है कि कोई श्री जन्ममर वेश्या न रहे । जब तक कोई कुशीला या वेश्या है, तभी तक उसकी आत्मा का विचार करना है। आक्षेप (ख)-प्रश्न में मायाचार की दृष्टि से अन्तर पूछा गया है अतः पाप-कार्य की दृष्टि से अन्तर बतलाना प्रश्न के बाहर का विषय है । ( विद्यानन्द) समाधान-हमने कहा था कि, "जब हम वेश्यासेवन और परस्त्रीसेवन के पाप में अन्तर यतला सकते हैं तब दोनों के मायाचार में भी अन्तरवतला सकने हैं।" इसमें अन्य पाप से मायाचार का पता नहीं लगाया है. परन्तु अन्य पाप के समान मायाचार को भी अपने ज्ञान का विषय बनलाया है। यह भूल तो श्राक्षेपक ने स्वयं की है। उनने लिखा है-"व्यभिचार एक पाप-पथ है । उसपर जो जितना आगे बढगया वह उतना ही अधिक सर्व दृष्टि से पापी एवं महामायावी है।' पाप के अन्तर से माया का अन्तर दिखला कर धानेपक वय विषय के बाहर गये हैं। श्राप (ग)-सव्यसाची ने श्रान्तरिक मावों का निर्णय Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > कठिन लिया है फिर मी मायाचार की तुलना की है। ये पर स्पर विरुद्ध वान कैसी ? मन का हाल तो मनःपर्ययज्ञानी ही जान सकते है | ( विद्यानन्त्र ) समाधान- मन:पर्ययज्ञानी की मन की यात्रा प्रत्यक्ष होता है लेकिन परीक्ष प्राप्ति तो मन से भी हो सकती है। वचन, श्राचरण तथा मुखाकृति श्रादि से मानसिक भावों का अनुमान किया जाना है। शाक्षेपकने स्वयं लिखा है कि "किस. का मायाचार किस समय विक है मां भगवान ही जाने, परन्तु वेश्या से अधिक कभी कुशीला का मायाचार बुनि प्रमाण से सिद्ध नहीं होता ।" क्या यह वाक्य लिखते समय आक्षेपक को मन:पर्ययज्ञान था ? यदि नहीं तो भगवान के ज्ञान की बात उनने कैसे जानती ? आक्षेप (घ) - कुशीला, पतिव्रता के चैप में पाप नहीं करती । जहाँ पति पानियत होगा वहाँ तो कुशीतभाव हो ही नही सकते | ( विद्यानन्द ) समाधान - श्रक्षेपक पतिव्रता के वेष और पावित के अन्तर को भी न समझ सके । वेश्याएँ भी सीता सावित्री आदि का पार्ट लेकर पतिव्रता का वेष धारण करती हैं, परन्तु क्या वे इसी से पतिव्रता होती है ? क्या कुशीलाओं का कोई जुदा वेष होता है ? आक्षेप (ङ) - कुशीला हज़ार गुप्त पाप रती है, परन्तु जिन-मार्ग को दूषित नहीं करती । इसलिये विवाहित विधवा और वेश्या से कुशीला की कक्षा ऊँची कही गई हैं। ( विद्यानन्द ) समाधान - विवाहितविधवा और वेश्याले कुशीला की 'कक्षा किस शास्त्र में ऊँची कही गई है ? जरा प्रमाण दीजिये ! Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) हमने विधवाविवाद को धार्मिक मिद्ध कर दिया है. इसलिये विवाहित विधवा जिनमार्ग पिन करने वाली नहीं कही जा सकती। प्रथया जय तक विधवाविवाह पर यह वादविवाद चल रहा है तय तक विधवाविवाद की धार्मिकता या अधार्मिकता की दुहाई न देना चाहिये । नहीं नो अन्योन्याश्रय श्रादि दार पायेंगे। इस श्राक्षेप से यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पण्डिनाऊ जैनधर्म के अनुसार कोई स्त्री रण्डी बन जाय या हजार गुप्त पाप करें तो जिनमार्ग दूपिन नाही होता और छिनाल यनजाय तो भी नहीं होता. नवजात बच्चों के प्राण नेले नी भी नहीं होता, लेकिन अगर यह किसी एक पुरुष के साथ दाम्पत्य बन्धन स्थापित करले तो बेचारे पडि. ताऊ जैनधर्म की मौत हो समझिये । वास्तव में ऐसे जैनधर्म को व्यभिचार पन्थ समझना चाहिये । भालेप (च)-इन्द्रियतृप्ति करने में ही प्रसन्नता मानते हो तो आप शीक्से चार्वाक हो जाश्री ! (विद्यानन्द्र) समाधान-रगडो यनाने के लिये, हजारों गुप्त पाप करने के लिये धर्मधुरन्धर कहताकर लोडेयाज़ी करने के लिये, न पाहत्या करने के लिये अगर कोई चार्वाक नहीं घनता तो विधवाविवाह के लिये चार्वाक बनने की क्या ज़रूरत है ? यदि जैनधर्म में इन्द्रियतृप्ति को बिलकुल स्थान नहीं है तो अविरत सम्यग्दृष्टि के लिये "णो इन्द्रियेसु विरदो" अर्थात् 'अविरत सम्यग्दृष्टि जीव पाँच इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं होता क्यों लिखा है ? जैनी लोग कोमल विस्तर पर क्यों सोते है ? स्वादिष्ट भोजन क्यों करते हैं? लडको वयों के होने पर भी विवाह क्यों करते है ? क्या यह इन्द्रिय विषय नहीं है ? अथवा क्या ऐसे सब जैनी चार्वाक है ? पुरुष जय दुसरा विवाह करता है तो क्या वैराग्य की भावना के Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) लिये स्त्री लाता है ? या पण्डितों के वेद त्रिवर्णाचार के अनु. सार योनि पूजा के लिये लाता है ? क्या यह इन्द्रिय-विषय नहीं है ? क्या विधवाविवाह में ही अनन्त इन्द्रिय-विषय एकत्रित हो गये हैं ? क्या तुम्हारा जैनधर्म यही कहता है कि पुरुष तो मनमाने भोग भोगे, मनमाने विवाह करें, उससे वीतरागता को धक्का नहीं लगता, परन्तु विधवाविवाह से लग जाता है ? इमी को क्या "छोडो छोडो की धुन" कहते है ? आक्षेप (छ)-कुशीला अपने पापों को मार्ग-प्रेम के कारण छिपाती है। · 'वह भ्रूणहत्या करती है फिर भी विवाहित विधवा या वेश्या से अच्छी है । (विद्यानन्द) समाधान-अगर मार्ग-प्रेम होता तो गुप्त पाप क्यों करती? भ्रणहत्याएँ क्यों करती? क्या इनसे जिनमार्ग पित नहीं होता ? या ये भी जैनमार्ग के अङ्ग है ? चोर छिपाकर धन हरण करता है, यह भी मार्गप्रेम कहलाया। अनेक धर्म: धुरन्धर लौडेवाज़ी करते हैं, परस्त्री सेवन करते हैं, यह भी मार्गप्रेम का ही फल समझना चाहिये ! मतलब यह कि जो मनुष्य समाज को जितना अधिक धोखा देकर पाप कर लेता है वह उतना ही अधिक मार्गप्रेमी कहलाया ! वाहरे मार्ग! और बाहरे मार्गप्रेमी! व्यभिचारिणी स्त्री वेश्या क्यों नहीं बनजाती ? इसका उत्तर यह है कि वेश्याजीवन सिर्फ व्यभिचार से ही नहीं श्राजाता । उसके लिये अनेक कलाएँ चाहिये, जिनका कि दुरुपयोग किया जा सके अथवा जिन कलाओं के जाल में अनेक शिकार फंसाए जासके । कुछ दुःसाहस भी चाहिये, कुछ निमित्त भी चाहिये, कुछ स्वावलम्बन और निर्भयता भी चाहिये। जिनमें ये बातें होती हैं वे वेश्याएँ बन ही जाती हैं । आज जो भारतवर्ष में लाखो वेश्यायें पाई जाती हैं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) उनमें से श्राधी से अधिक वेश्याएँ ऐसी है जो एक समय कुल-वधुएँ थीं । वे समाज के धर्मढोगी नरपिशाचों के धक्क खाकर वेश्याएँ वनी हैं। व्यभिचारिणी स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं करती? इसका कारण यह है कि पुनर्विवाह तो वह तय करे जब उममें ब्रह्मचर्याणुवत की भावना हो, जैनधर्म का सथा ज्ञान हो । जो स्त्री नये नये यार चाहती हो, उसे पुनः विवाह कैसे अच्छा लग सकता है ? अथवा वह तैयार भी हो तो जिन धर्मात्माओं ने उसे अपना शिकार बना रखा है वे क्व उसका पिंड छोडेंगे? पुनर्विवाह से तो शिकार ही निकल जायगा। स्त्रियों की अमानता और पुरुषों का स्वार्थ ही स्त्रियों को विधवाविवाह के पवित्र मार्ग से हटाकर व्यभिचार की तरफ ले जाता है। छठा प्रश्न कुशीला भ्रणहत्याकारिणी को और कृतकारित अनुमोटना से उसके सहयोगियों को पाप-बन्ध होता है या नहीं ? हमके उत्तरमें हमने कहा था कि होता है और जो लोग विधवा. विवाह का विरोध करके ऐसी परिस्थति पैदा करते है उन को भी पाप का बन्ध होता है । इसके उत्तर में आने पकों ने जो यह लिखा है कि "विधवाविवाह व्यभिचार है, उसमें अकलकदेव प्रणीत लक्षण नहीं जाता, श्रादि" इसका उत्तर प्रथम प्रश्न के उत्तर में अच्छी तरह दिया जा चुका है। प्राक्षेप (क)-विधवाविवाह के विरोधी व्यभिचार को पाप कहते है तो पाप करने वाले चाहे स्त्रियाँ हो चाहे पुरुष, वह सवे ही पापी है । (श्रीलाल ) समाधान-ऐसी हालत में जब विधवाविवाह पाप हे तो विधुरविवाह भी होना चाहिये या दोनों ही न होना Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) चाहिये। क्योंकि जब पाप है तो 'सर्व ही पापी हूँ । व्यभिचार में तो श्राप सर्व ही पापी वनलावे श्रीर पुनविवाह में विधुविवाह को धर्म बतलावे और विधवाविवाह को पाप, यह कहाँ का न्याय है ? 1 आक्षेप (ज) र चोरी करता है । गवर्नमेन्ट दगड देती है इसमें गवर्नमेन्ट का क्या अपराध ? ( श्रीमान ) समाधान वर्नमेन्ट ने अर्थोपार्जन का अधिकार नहीं छीना है । व्यापार से श्रीर नौकरी या मिक्षा से मनुष्य अपना पेट भर सकता है । गवर्नमेन्ट अगर अर्थोपार्जन के रास्ते तो अवश्य ही उसे चोरी का पाप लगेगा | विधवाविवाह के विरोधी, विधवा को पति प्राप्त करने के मार्ग के विरोधी हैं, इसलिये उन्हें व्यभिचार या नृणहत्या का पाप अवश्य लगता है । यदि स्थितिपालक लोग बनलावे कि अमुक उपाय से विधवा पनि प्राप्त करले और वह उपाय सुसाध्य हो, फिर भी कोई व्यभिचार करे तो अवश्य स्थितिपालकों को वह पाप न लगेगा | परन्तु जब ये लोग किसी भी तरह से पति प्राप्त नहीं करने देते तो इससे सिद्ध है कि ये लोग भ्रूणहत्या और व्यभिचार के पोषक हैं। अगर कोई लग्कार व्यापार न करने दे. नौकरी न करने दे, भीख न माँगने दे और फिर कहे कि - "तुम चोरी भी मत करो, उपवास करके ही जीवन निकाल ढो" तो प्रत्येक आदमी कहेगा कि यह सरकार बदमाश है, इसकी मन्शा चोरी कराने की है। ऐसी ही बदमाश सरकार के समान श्राजकल की पचायते तथा स्थितिपालक लोग हैं । इसमें इतनी बात और विचारना चाहिये कि अगर कोई सर कार चोरी की अपेक्षा व्यापारादि करने में ज्याद दण्ड दे तो उस सरकार की बदमाशी बिल्कुल नंगी हो जायगी। उसी प्रकार स्थितिपालकों की चालाकी भी नंगी हो जाती है. -- Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) क्योंकि ये लोग कहते है कि व्यभिचार भले ही करलो, परन्तु विधवाविवाह मत कगे ! विधवाविवाह करने के पहिले पंडिन उदयलाल जो मे एक बुजुर्ग पण्डित जी ने कहा था कि-"तुम उसे स्त्री के रूप में यों ही रखलो, उमफे माथ विवाह क्यों करते हो?" श्राप के महयोगी विद्यानन्द जी ने पाँच प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि'यपि कुशीला नणहत्या करनी है किन्तु फिर भी जिनमार्ग मे भय जाती है । उममें स्वाभिमान लजा है। इसलिये वह विधवाविवाहित या घेण्या में अच्छी है"-क्या अब भी स्थिनिपालक लोग व्यभिचारपांगकता का कलक छिपा सकते है? उम सरकार को क्या कहा जाय जो चोरों को प्रशंसा करती है और व्यापारियों को निन्दा ? आक्षेप (ग) यदि किसी को स्त्री नहीं मिलती तो क्या व्या धर्म के नाम पर मर दे दें? विधवाविवाह के प्रचार हो जाने पर भी सभी पुल्यों को स्त्रियाँ न मिल जायँगो तो क्या स्त्री वाले लोग एक एक वगटे को स्त्रियाँ दे देंगे। ममाधान-सुधारकों के धर्मानुसार स्त्रियों का देना लेना नहीं बन सकता, क्योंकि स्त्रिया सम्पत्ति नहीं है । हॉ, म्पिनिपातक पगिदनों के मनानुसार घटे दो घटे या महीनों वर्षों लिये स्त्री दी जानकनी है, प्योंकि उनके मतानुसार यह टेन लेने की वस्तु है, मोज्य है, सम्पत्ति हे । पुरुष की इच्छा के अनुसार नाचने के सिवाय उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। र, लोगों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे स्त्रियाँ दे दें, परन्तु उनका इतना कर्तव्य अवश्य है कि कोई पुरुप स्त्री प्राप्न करता हो या कोर्ड म्यो पनि प्राप्त करती हो तो उनके मार्ग में गड़े न अटकावें । यह कहना कि "विनया अपने भाग्योदय से पनिदान हुई, कोई श्या करें" मूर्खता पार पक्षपात है। माग्यो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) दय से तो विधुर भी बनता है और सभी विपत्तियाँ आती है। उनका इलाज किया जाता है। विधुर का दुसरा विवाह किया जाता है । इसी तरह विधवा का भी करना चाहिये । इसका उत्तर हम पहिले भी विस्तार से दे चुके है । "पुरुषत्वहीन पुरुपों की सिकार होगी" इस श्राक्षप के समाधान के लिये देखो "३ घ"। आक्षेप (घ)-विधवाविवाह के विरोधियों को पापियों की कक्षा में किस श्रागम युक्तितर्क के आधार पर श्रापने घसीट लिया ? (विद्यानन्द) समाधान-इसका उत्तर ऊपर के ( ख ) नम्बर में है। उससे सिद्ध है कि कारित और अनुमोदन के सम्बन्ध सं विधवाविवाह के विरोधी भ्रूणहत्यारे है। आक्षेप (ड)-पण्डित लोग पागम का अवर्णवाद नहीं करना चाहते । वे तो कहते है कि परलोक की भी सुध लिया करो। समाधान-जिन पण्डितों के विषय में यह बात कही जारही है, वे वेचारे अज्ञानतमसावृन जीव श्रागम को समझने ही नहीं। वे तो रूढियों को ही धर्म या श्रागम समझते हैं और रूढ़ियों के भडाफोड को आगम का अवर्णवाद । परलोक की सुध दिलाने की बात तो विचित्र है। जो लोग खुद तो चार २ पॉच पॉच औरने हजम कर जाते है और बालविधवाओं से कहते है कि परलोक की सुध लिया करो! उन धृष्ठोस क्या कहा जाय ? जो खुद तो हँस हँस कर खाते हो और दूसरों से कहते हो कि "भगवान् का नाम लो? इस शरीर के पोपने में क्या रक्खा है ? यह तो पुद्गल है"-उनकी धरता प्रदर्शनी की वस्तु है । वे इस धृष्टता से उपदेश नहीं देते, आदेश करते हैं, जबर्दस्ती दूसरों को भूखों रखते है । क्या यह परलोक की Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) सुध स्त्रियों के लिये ही है ? मदों के लिये नहीं? फिर जैनधर्म ज़बर्दस्ती त्याग कगने की बात कहाँ कहता है ? उसका नो कहना है कि "ज्या ज्यों उपशमन पाया। त्यो त्यो तिन त्याग बनाया।' आक्षेप (च)-पण्डितों के कठोरतापूर्ण शासन और पक्षपातपूर्ण उपदेशों के कारण स्त्रियाँ न राहत्या नहीं करता, परन्तु जो उनके उपदेश से निकल भागती हैं ये व्यभिचारि. रिणयाँ ही यह पाप करती हैं। समाधान-इस बात के निर्णय के लिये एक दृष्टान्त रखना चाहिये । चार विधवाएँ हैं । दो सुधारक और दो स्थिनिपालक । एक सुधारक और एक स्थितिपालक विधवा नो पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सकती है और बाकी की एक एक नहीं पाल सकती । पहिली से सुधारक कहते हैं कि 'यहिन! अगर तुम पवित्रता के साथ ब्रह्मचर्य पालन करने को तैयार हो तो एक ब्रह्मचारीके समान हम आपकी पूजा करते हैं और अगर तुम नहीं पाल सकती हो तो श्राना दो कि हम अापके विवाह का आयोजन कर दें।" वह बहिन कहती है कि अभी में ब्रह्मचर्य पालन कर सकती है, इसलिए अपना पुनर्विवाह नहीं चाहती। जब मैं अपने मनको वश में न रख सकेंगी नो पुनविवाह का विचार प्रगट कर दूंगी। दूसरी बहिनसे यही बान कही जाती है तो वह विवाह के लिये तैयार हो जाती है और उसका विवाह कर दिया जाता है। उसके विवाह को पण्डित लोग ठीक नहीं समझते-सुधारक ठीक समझते हैं। परन्तु जब वह वहिन विवाह कग लेनी है तो उसे संतान को छिपाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती जिसमे वह प्रणहत्या करे । इस नरह सुधारक पक्ष में नो दोनों तरह की विधवाओं का पूर्ण निर्वाह है। अब स्थितिपालका में देखिये ! उनका कहना Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) है कि 'विधवा विवाह घोर पाप है, क्योंकि स्त्रियाँ जूठी थाली के समान है। अब वे किसी के काम की नहीं'। दोनों बहनों को यह अपमान चुपचाप महलेना पडता है, जिस में पहिली बहिन तो ब्रह्मचर्य से जीवन बिताती है और दूसरी वैधव्यका ढोंग करती है। उसकी वासनाएँ प्रगट न हो जायें, इसलिये वह विधवा विवाह वालोंको गान्तियों देती है। इसलिये पंडित लोग उसकी बडी प्रशंसा करते है । परन्तु वह बेचारी अपनी वासनाओं को दमन नहीं कर पाती, इसलिये व्यभिचार के मार्ग मैं चली जाती है। फिर गर्भ रह जाता है । श्रव वह सोचती है कि विधवाविवाहवालों को मैंने आज तक गालियाँ दी हैं, इसलिये जब मेरे बच्चा पैदा होगा तो कोई क्या कहेगा ? इस लिये वह गर्भ गिराने की चेष्टा करती है। गिर जाता है तो ठीक, नहीं गिरता है तो वह पैदा होते ही बच्चे को मारडालती है । वह बीच बीच में पुनर्विवाह का विचार करती है, लेकिन परिडतो का यह वक्तव्य याद श्राजाता है कि "विधवाविवाह से तो जिनमार्ग दूषित होता है लेकिन व्यभिचार या भ्रूणहत्या से जिनमार्ग दूषित नहीं होता", इसलिये वह व्यभिचार और भ्रूणहत्या की तरफ झुक जाती है । सुधारक बहिन को तो ऐसा मौका ही नहीं है जिससे उसे अपना दाम्पत्य छिपाना पढ़े और भ्रूणहत्या करना पडे । उसके अगर सन्तान पैदा होगी तो वह हर्ष मनायगी जबकि स्थिनिपालक बहिन हाय २ करेगी और उसकी हत्या करने की तरकीब सोचेगी। इससे पाठक समझ सकते है कि हत्यारा मार्ग कौन है और दया का मार्ग कौन है ? हम यहाँ एक ही बात रखते है कि कोई स्त्री विधवाविवाह और गुप्त व्यभिचार में से किस मार्ग का अवलम्वन करना चाहती है । सुधारक लोग विधवाविवाह की सलाह Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७) दत है। अब परिडतों से हम पूछते हैं कि उनकी क्या सलाह है ? अगर वे गुप्त व्यभिचार की सलाह देते है, तो उसके भीतर भ्रूणहत्या की मलाह भी शामिल है क्योंकि भ्रूणहत्या न करने पर व्यभिचार गुप्त न रह मकमा । इसलिये इस सलाह स पण्डितों को भ्रणहत्या का दोपो होना ही पड़ेगा। अगर व विधवाविवाह की सलाह देते है ना भ्रूणहत्या के पाप से बच सकते है। यदि घेइम पाप से बचना चाहते है तो उन्हें विधवाविवाह का व्यभिचार और भ्रणहत्या से भी वुग कहने की बान प्रायश्चित्त के साथ वापिस लेना चाहिये । ऐसी हालत में ये पण्डित सुधारकों से जुटे नहीं रह सकते। क्योंकि सुधारक लांग भी व्यभिचार प्रादि की अपेक्षा विधवाविवाह को अच्छा समझते है, पूर्णब्रह्मचर्य में विधवाविवाह को अच्छा नहीं समझते । उस वक्तव्य से सिद्ध हो जाता है कि पण्डित लोग भ्रणहत्या आदि का प्रचार बुल्लमखुल्ला भले ही न करते हो परन्तु उनके सिद्धान्त ही ऐसे है कि जिम्मस भ्रणहत्या का समर्थन ता होता ही है साथ ही उसको उत्तेजन भी मिलता है। और यह पाप विधवाविवाह करने वाली बहिनों को नहीं करना पडता, बल्कि उन्हें करना पडना है जो पण्डिनों के कथनानुसार विधवाविवाह को गालियाँ देती है या उससे दूर रहती हैं। आक्षेप (छ)-श्राप लिग्नते है कि स्थितिपालको में सभी भ्रूणहत्या पसन्द नहीं करते परन्तु फीसदी नब्वे करते हैं । इस परम्पर विगंधी वाक्य का क्या मतलब ? समाधान-इस आक्षेप में आक्षेपक ने अपने भाषाविमान का ही नहीं, माषामान का भी दिवाला निकाल दिया है। पूणांश के निषेध में अल्पांश की विधि भी उन्हें परस्पर विरुद्ध मालूम होनी है। अगर कार्ड कहें कि मेरे पास पृग रुपया तो नहीं है, चौदह श्राने है । नी भी आक्षेपक यही Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8 ) कहेंगे कि जब तुमने रुपये का निषेध कर दिया तो चौदह श्रआन की विधि क्यों करते हो ? श्योंकि चौदह पाने ना रुपये के भीतर हो है। यह विराध नहीं. विरोध प्रदर्शन को बोमागे है। 'एक के हाने पर दो नहीं हैं' (सत्त्वेऽपि द्वयं नास्ति) के समान 'दोन हाने पर एक है' को यान भी परम्पर विरुद्ध नहीं है । खेद है कि आक्षेपक को इनना सा भी भाषाज्ञान नहीं है। आक्षेप (ज)-मछली की अपेक्षा बकरा ग्राह्य है या बकरा की अपेक्षा मछली ? निद्धान्तदृष्टि से दानों ही नहीं। (विद्यानन्द) समाधान-विधवाविवाह और भ्रूणहत्या इन दानों में समानता नहीं है किन्तु नर-तमता है। और ऐसी नरतमना है जैसी कि विधुरविवाह और नरहत्या में है। इसलिये मछली और बकरे का दृष्टान्त विषम है । जहाँ तरतमना नहीं वहाँ चुनाव नहीं हो सकता । त्रसहिमा और स्थावर हिला, अंगु. व्रत और महावन के समान व्यभिचार और विधवाविवाह में चुनाव हो सकता है जैसा कि विधुगविवाह और व्यभिचार में होता है। आक्षेप (झ) चाणक्य ने कहा है कि गजा और पण्डित एक ही बार बोलते हैं कन्या एक ही बार दी जानी है। (विद्यानन्द) समाधान-हमने विधवाविवाह को न्यायोचित कहा है। उसका विरोध करने के लिये ऊपर का नीतिवाक्य उद्धत किया गया है। आक्षेपक ने भूल से न्याय और नीति का एक ही अर्थ समझ लिया है । असल में नीति शब्द के, न्याय से अतिरिक्त तीन अर्थ हैं । (१) कानून, (२) चाल, ढग, पॉलिसी. (३)रीनि विराज । ये तीनों ही बाते न्याय के विरुद्ध भी हो सकती है। दक्षिण के एक राज्य में ऐसा कानन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) है कि लड़का बाप की सम्पत्ति का मालिक नहीं होता। यह कानून है परन्तु न्याय नहीं । प्रजा में फूट डालकर मनमाना शासन करने की पॉलिसी, नीति है, परन्तु यह न्याय नहीं है। इसी तरह "मिलजुल कर पञ्चों में रहिये, प्राण जॉय साँची नहीं कहिये' की नीति है परन्तु यह न्याय नहीं है । योरोप में ड्यूअल का रिवाज था और कहीं कहीं अब भी है, परन्तु यह न्याय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें सबल का ही न्याय कहलाता है । 'जिसकी लाठी उसकी भैस' यह भी एक नीति है परन्तु न्याय नहीं । इसलिये नीतिवाक्य का उद्धरण देकर न्यायोचितता का विरोध करना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि चाणक्य ने खुद स्त्रियों के पुनविवाह के कानून बनाये हैं जिनका उल्लेख २७ वे प्रश्न में किया गया था। इस लेख में भी आगे किया जायगा। यहाँ सिर्फ एक वाक्य उधृत किया जाता है-'कुटुम्बद्धिलोपे वा सुखावस्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देन जीविनार्थम् । अर्थात् कुटुम्ब की सम्पत्ति का नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुवाँधयों से छाई जाने पर काई त्री, जीवननिर्वाह के लिये अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। चाणक्यनीति का उल्लेख करने वाला जग इस वाक्य पर भी विचार करे । साथ ही यह भी ख्याल में रक्खे कि ऐस ऐसे दर्जनों वाक्य चाणक्य ने लिखे हैं । जब हम दोनों वाक्यों का समन्वय करते हैं तब चाणक्यनीति के श्लोक से पुनर्विवाह का ज़रा भी विरोध नहीं होता। उम श्लोक से इतना ही मालूम होता है कि वाप को चाहिये कि वह अपनी पुत्री एक ही बार देवे । विधवा होने पर या कुटुम्बियों के नाश होने पर देने की ज़रूरत नहीं है । उस समय तक उसे इतना अनुभव हो जाता है कि वह स्वयं अपना पुनर्विवाह कर सकती है। इसलिये पिता को Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) फिर कौटुम्बक अधिकार न बनाना चाहिये। अगर चाणक्य नीति के उस चाय का यह अर्थ न होता तो चाणक्य के अन्य वाक्यों से समन्वय ही न हो पाता। आक्षेप (ब)-आपने कहा कि 'अगर हम खूब स्वा. दिष्ट भोजन करें और दूसरों को एक टुकडा भी न खाने हैं नो उन्हें स्वाद के लिये नहीं तो क्षुधाशांति के लिये चोरी करनी ही पडेगी । और इसका पाप हमें भी लगेगा। इसी तरह भ्रूणहत्या का पाप विधवाविवाह के विरोधियों को लगता है" परन्तु कौन किस को क्या नहीं जाने देता? कानिफेयानु. प्रेक्षा में लिखा है कि 'उपकार नथा अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है। (विद्यानन्द) समाधान-उपकार अपकार नो कर्म करने है परन्तु कर्मों का उदय नोकर्मों के बिना नहीं पाता । बाह्यनिमित्तों को नोकर्म कहते हैं (देखो गाम्मट सार कर्मकाण्ड)। अशुभ कर्मों क नोकर्म बनना पाप है। पशु तो अपने कर्मोदय से माग जाना है परन्तु कर्मोदय के नोकर्म कुलाई को पाप का बन्ध होता है या नहीं ? विधवा को पापकर्म क उदय से पति नहीं मिलता, परन्तु जो लोग पति नहीं मिलन देने त्रे नो उसी कसाई के समान उस पाप कर्म के नोकर्म है। यदि कार्तिकयानुप्रेक्षा का ऐसा ही उपयोग किया जाय तो पण्डित लोग गुट्ट बाँध कर डाका डालना, त्रियों के साथ बलात्कार करना आदि का श्रीगणेश करदे और जब कोई पूछे कि ऐसा क्यों करते हो? तो कह दे-"हमने क्या किया ? उपकार तथा अपकार तो शुभाशुभ कर्म ही करे हे'। इस तरह से राजदराड आदि की भी कोई जरूरत नहीं रहेगी क्योंकि "उपकार अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है" । खैर साहिब ! ऐसाही सही। तब तो जिस विधवा का कोदय आयगा उसका पनमा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) हो जायगा । न श्रायगा न हो जायगा । इसमें उन दम्पति को तथा सुधारकों को कोसने की क्या जरूरत ? क्योंकि यह सब तो "शुभाशुभ कर्म ही करे है" । वाह रे ! 'करे है' | आक्षेप ( ट ) - कर्म की विचित्रता ही तो वैराग्य का कारण है। उन धानों पर तरस आना है इसलिये हम उन्हें शान्ति से इस कर्मकृत विधिविडम्बना को सहलेने का उपदेश देते हैं ।" ( विद्यानन्द ) - समाधान — जी हाँ, और जब यह विधिविडम्बना उपदेशदाताओं के सिर पर आती है तब वे स्वयं कामदेव के श्रागे नंगे नाचते है, मरघट में ही नये विवाह की बातचीत करते है ! यह विधिविडम्बना सिर्फ स्त्रियों को सहना चाहिये । न सही जाय तो गुप्त पाप करके ऊपर से महने का ढोंग करना चाहिये । परन्तु पुरुषों को इसके महने की जरूरत नहीं । क्योंकि धर्म पुरुषों के लिये नहीं है। वे तो पाप से भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । अथवा यहाँ की श्रादन के अनुसार मुक्ति का झाँटा पकड़ कर उसे वश में कर सकते हैं । उन्हें पाप-पुण्य के विचार की जरूरत क्या है ? वैराग्य के लिए कर्मविचित्रता की ज़रूरत है। इसलिये आवश्यक है कि सैकडों मनुष्य भूखों मारे जॉय, गरम कडाहाँ में पकाए जॉय, बीमारों की चिकित्सा बन्द कर दी जाय । इस से असुरकुमारों के अवतार पण्डितों को और पञ्चों को वैराग्य पैदा होगा। अच्छा हो, ये लोग एक कसाईखाना खोल है जिस में कमाई का काम ये स्वयं करें। जब इनकी दुरी खाकर बेचारे दीन पशु चिल्लायेंगे और तड़पेंगे, तब श्रवश्य ही उनके खून में से वैराग्य का सत्व खींचा जासकेगा। अगर किसी जगह विधवाओं की कमी हो तो पुरुषों की हत्या करके विधवाएँ पैदा की जॉय | क्योंकि उनके करुण क्रन्दन और Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) आँसुओं में से वैराग्य का दोहन बहुत अच्छा होता है । यह वैराग्य न मालूम कैसा अडियल टट्टू है कि श्राता ही नहीं है ! इधर जैनसमाज में मुफ्तखोरों की इतनी कमी है और जैन समाज के पास इतना धन है कि सूझना ही नहीं कि किसे खिलायें या कैसे खर्च करें ! सातवाँ प्रश्न इसमें पूछा गया था कि श्राजकल कितनी विधवाए पूर्ण पवित्रता के साथ वैधव्यव्रत पालन कर सकती हैं । इसका उत्तर हमने दिया था कि वृद्धविधवाओं को छोडकर बाकी विधवाओं में से फी सदी पाँच । यहाँ पूर्ण पवित्रता के साथ वैधव्य पालने की बात है । रो धोकर वेराग्य पालन करने वाली तो श्राधी या आधी से भी कुछ ज्यादा निकल सकती है । श्रक्षेपकों ने उत्तर का मतलब न समझकर वकवाद शुरु कर दिया। श्रीलाल जी हमसे पूछते हैं कि : आक्षेपक - श्राप को व्यभिचारिणियों का ज्ञान कहाँ से हुआ ? क्या व्यभिचारियों का कोई अड्डा है जो ख़बर देता है या गवर्नमेण्ट रिपोर्ट निकलती है ? समाधान - मालूम होता है श्रक्षेपक भूगर्भ में से विलकुल ताज़े निकले हैं । अन्यथा आप किसी भी शहर के किसी भी मोहल्ले में चले जाइये और जरा भी गौर से जाँच कीजिये, आपकी बुद्धि आपको रिपोर्ट देदेगी। इस रिपोर्ट की जॉच का हमने एक अच्छा तरीका बतलाया था-विधुरों की जॉच । स्त्रियों में काम की अधिकता बतलाई जाती है । अगर हम समानता ही मानले तो विधुरों की कमजोरियों से हम विध वाओं की कमज़ोरियों का ठीक अनुमान कर सकते हैं । वृद्ध विधुरों को छोडकर ऐसे कितने विधुर है जो पुनर्विवाह की J Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) कोशिश न करते हो ? किसी प्रान्त में या शहर में जाँच करनी जाय तो मालूम होगा कि चालीस पैतालिस वर्ष से कम उमर में विधुर होकर थपने पुनर्विवाह की कोशिश न करने वाले विधुर फीसदी पाँच से भी कम हैं। जहाँ पर विधुरविवाह के समान विधवाविवाह का भी पूर्ण प्रचार है वहाँ की रिपोर्ट से भी इस बात का समर्थन होगा। क्या ऐसी स्पष्ट जाँच की वृष्टता कहते हैं ? इस वक्तव्य से विद्यानन्दजी के श्रापों का भी उत्तर हो जाता है। हाँ ! उनके बहुत से श्राक्षेप प्रकरण के बाहर होगये है, परन्तु उनका भी उत्तर दिया जाता है जिसमे कहने की भी गुंजाइश न रह जाये । श्राक्षेप ( ख ) - क्या मध्य में मोक्ष जाने की नाकृत नहीं है ? तानावरण का सद्भाव कैम घटिन होगा ? राजचार्तिक देखिये ! (विद्यानन्द) --- समाधान - श्रक्षेपक ने गजवार्तिक गौर से नहीं देखा। गजवानिक में लिखा है कि द्रव्यार्थिनय से तो अभव्य मैं aante की शक्ति है, परन्तु पर्यायार्थिकनय से नहीं है | इसलिये व्यार्थिकनय से तो स्त्रियों में वैधव्य पालन श्री तो क्या, ज्ञानादिक श्री भी शक्ति कहलायी । ऐसी हालन मैं तो प्रश्न की कार्ड ज़रूरत ही नहीं रहती । और जब प्रश्न किया गया है तो सिद्ध है कि पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा है, और उस नय से श्रमव्य में मुक्तियोग्यता नहीं है । जरा राजवार्तिक के इस वाक्य पर भी विचार के जिये - "सम्यक्वादिपर्यायव्यक्तियोगाहों यः स भव्यः तद्विपरीतोऽव्यः" श्रर्थात् जिसमें सम्यक्त्वादि की प्रगट करने की योग्यता हो उसे भव्य कहते हैं उससे विपरीत को श्रमव्य । मतलब यह है कि करने की शक्ति अशक्ति की अपेक्षा से भव्य श्रम Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) व्य का भेद है। हमने मोक्ष जाने तक की बात कही है, शक्ति रूप में मौजूद रहने की नहीं। खैर, यहाँ इस चर्चा में कुछ मतलब नहीं है। अगर आक्षेपक को इस विषय की विशेषता का अमिमान है तो वे स्वतन्त्र चर्चा करें। हम उनका समा. धान कर देंगे। आक्षेप (ग)-आजकल मी स्त्रीजानि को पचम गुण स्थान हो सकता है और पुरुषों को सप्तम गुणस्थान । इसलिये अवस्था का बहाना बनाना अधमना सं भी अधम है। समाधान-गुणस्थानों की चर्चा उठाकर आक्षेपक ने अपने पैरों पर आप ही कुल्हाडी मारी है । क्या प्रानपक ने विचार किया है कि मनुष्यों में पञ्चम गुणस्थान के मनुष्य कितने है ? कुल मनुष्य २६ अङ्क प्रमाण है और पञ्चम गुण. स्थानवाले मनुष्यों की संख्या ६ अङ्कप्रमाण । वीस अङ्क ज्यादा है । १६ अङ्क के दम सह होते हैं बीस अङ्कक १०० सल हुए। अर्थात् पॉचवे गुणस्थान के मनुष्यों से कुल मनुष्य सी सह गुणे है । सौ सह मनुष्यों में एक मनुष्य पञ्चम गुणस्थानवर्ती है । इस चर्चा से तो सौ में पाँच तो क्या एक या आधा भी नहीं बैठता ! फिर समझ में नहीं आता कि पॉत्र गुणस्थान में जीव होने से दुराचारियों का निषेध कैसे हो गया ? अनन्त सिद्धों के होने पर भी उनसे अनन्तगुणे ससारी है। असंख्य सम्यग्दृष्टियों के होने पर भी अनन्तानन्त मिथ्यादृष्टि हे । इसलिये पाँच सदाचारिणी स्त्रियों के होने से क्या ६५ दुग. चारिणी नहीं हो सकती १. फिर हमने ता वृद्धाओं को अलग रक्खा है और युवती विधवाओं में भी ६५ को दुराचारिणी नहीं, किन्तु पूर्ण वैधव्य न पालने वाली बतलाया है। सीताराजुल आदि सतियों के दृष्टान्त से आक्षेपक की नहीं, किन्तु हमारी बात सिद्ध होती है । सतीत्व के गीत गाने Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) धाले बतलायें कि आज कितनी स्त्रियाँ अग्नि में बैठकर अपने सनीत्व की पगेना दे सकती है ? सीता और राजुल आज नो असाधारण है ही, परन्त उस जमाने में भी अनाधारण थीं। आक्षेपकने ज्योतिःप्रसाद जी आदि का उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि विधुर भी ब्रह्मचर्य से रहते हैं । इस सिद्ध करने की धुन में आप अपने असली पन को खो बैठे । अगर ज्योतिःप्रसादजी आदि विधुरो के रहने पर भी फी सदी ६५ विधुर अपने पुनर्विवाह की कोशिश करते हैं अर्थात् निढोष वैधुर्य का पालन नहीं कर पाते तो शुद्ध वैधव्य पालन करने वाली अनेक विधवाओं के रहने पर भी फी सदी ५ विधवाएँ शुद्ध वैधव्य पालन नहीं कर पाती। आक्षेप (1)-विधुगंक ममान विधवाओं के विवाह को पाना कौन दे? क्या हम छमम्य लोग? शास्त्रों में बहुविवाह का उल्लेख पाया जाना है। शास्त्रका पुरुष होने से पक्षपाती नहीं कह जासकते, क्योंकि न्याय और सिद्धान्त की रचनाएँ गुरुपरम्पग से है । यदि उन्हें पुरुषत्व का अभिमान होता तो शुद्रों का पूजनप्रवाल, महावत ग्रहण आदि से वंचित क्यों रखते ? यदि ब्राह्मणत्वका पक्षपान बनाया जाय ता उनने हीना. चारी ब्राह्मण का गुहा में भी बुग क्या कहा ? इसलिये पक्ष. पान का इल्जाम लगाना पशुना और दमनीय अविचारता है। (विद्यानन्द) समाधान-हमारे उत्तरमें हम विषयका पक अक्षर भी नहीं है और न घुमा फिगकर हमने किसी पर पक्षपात का रजाम लगाया है। यह हरिण का मांत शेर को जगाना है । प्रारम्भ में हम यह कह देना चाहते है कि आपकने जैन शास्त्रों की जैसी बाजाएँ समझी है वैसी नहीं है । जैन शास्त्र तो पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्रामा देते है, लेकिन जो लोग पूर्ण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकने उनके लिये कुछ नीची श्रेणी का (विवाह श्रादि का) उपदंश देते हैं । इन नीची श्रेणियों में किस जमाने के अधिकांश मनुष्य किम श्रेणी का किम रूप में पालन कर सकते हैं इस बात का भी विचार रखा जाता है। भाग्नवर्प, तिच्चन और वर्तमान योगय की परिस्थितियों में यहा फर्क है। भारतवर्ष में एक पनि, अनेक पनियाँ रख सकना है । तिब्बत में एक पनी अनेक पनि रस मकनी है। योगप में पनि, अनेक पत्नियों नहीं रख सकता, न पन्नी अनेक पति रख सकती है। आरोप में अगर एक पत्नी क रहने हुए कोई दूसरी पत्नी से विवाह करले नो वह जेल में भेज दिया जायगा। क्या ऐसी परिस्थिति में प्राचार्य, यागंपियन पुरुषों को बहुविवाहकी आज्ञा देंगे ? जेनाचायों की दृष्टिम भी वहाँ का बहुविवाह अना. चार कहलायगा । परन्तु भारत के लिये पुरुषों का बहुविवाह अनिचार ही हागा। नियत के लिये नियोका बहुविवाह अतिचार हागा। नातपर्य यह है कि पूर्ण ब्रह्मवयं में उतर कर ममाज का नैतिक माध्यम' ( ifidium) जिम श्रेणी का रहता है उसी का प्राचार्य ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं। यही कारण है कि सोमदेव और आशाघरजी ने वेश्यासंवो को भी अणुवती मान लिया है। इसमें आश्चर्य की कुछ वान नहीं है क्योंकि यह ना जुदे जुदे समय और जुदे स्थानों के समाज का माध्यम है । इस विषय में इननी बात ध्यान में रखने की है कि माध्यम चाहे जो कुछ रहा हो परन्तु उनका लक्ष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य रहा है। इस लिये बहुपत्नीक मनुष्य को उनने अनिचारी कहा है । देखिये सागारधर्मामृत टीका "यदा तु खदारसन्तुष्टो विशिष्टसन्तो. पाभावात् अन्यत्कलन परिणयति तदाऽप्यस्यायमतिचाग स्यात" अर्थात विशिष्ट सन्तोष न होने के कारण जो दसरी स्त्री साथ विवाह करता है उसको ब्रह्मचर्याणुवन में दोष लगता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) अमल चान तो यह है कि ब्रह्मचर्याणुव्रत भी पक तरह का परिग्रहपरिमाणन है. परिग्रह परिमाण में सम्पत्ति तथा अन्य भागापमांग को वनाओं की मर्यादा की जाती है। ब्रह्म चर्य में काम सेबन मम्बन्धी उपभोगमामग्री की मगंदी की जाती है । परन्तु जिम प्रकार अहिमा के भीतर चागं चन शामिल होने पर भी पटना के लिये उनका अन्नग व्याख्यान किया जाना है उसी प्रकार ब्रह्मनांगुवन में परिग्रह परिमाण बत में अलग ज्याग्यान किया गया है। परिग्रह परिमाणवनमें परिग्रह की मांटा की जाती है, परन्त वह परिग्रह क्तिना होना चाहिये यह बान प्रत्यक व्यनि में उन्य नेत्रकालगाव पर निर्भर है । मर्यादा बाँध लेने पर सम्राट भी अपरिग्रहाणुव्रती है और मोटाशुन्य माधार निमगा भो पूर्ण परिग्रही है । ब्रह्मचयांवन के लिये प्राचार्य ने कह दिया कि अपनी काम. वासना की मीमित गऔर विवाह को कामवासना सीमामा नियन कर दिया । जो वैवाहिक बन्धन के भीतर रहकर काम. मेवन करना चद घायचर्यारणवनी है । यह बन्धन कितना दीना या गाढा हो यह सामाजिर परिस्थिति और वैयक्तिक माधनों के ऊपर निर्भर है । यहाँ पर एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के माथ विवाह हो सकता है और विवाह ही मर्यादा है इसलिये वह ब्रह्मचर्याणुवी कहलाया। तिघ्यत में एक स्त्री अनेक पुरुषों के साथ एक साथ ही विवाह कर मरती है और विवाह ही मयांदा है इसनिय वहाँ पर अनेक पति वाती स्त्री भी अगुब्रह्मचारिणी है। श्रगुब्रह्मचर्य का भंग वही हागा जहाँ अविवाहित के माथामादि मेघन किया जायगा। इससे साफ मालूम होता है कि अायत के लिये प्राचार्य एक अनेक का बन्धन नहीं डालने, वे विवाद का बन्धन डालते है । मामाजिक परिस्थिति और साधन मामग्री में जो जिनने विवाह कर सक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) उमे वही अणुवन की सीमा है। एक पति या अनेक पति का प्रश्न सामाजिक या राजकीय परिस्थिति का प्रश्न है न कि धार्मिक प्रश्न। ऊपर, निच्चन का उदाहरण देकर बहुपतित्व का उल्लेख कर चुका है। और भी अनेक छाटी छोटी जातियों में यह रिवाज है । अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो एक दिन ससार के अधिकांश देशों में बहुपतित्व की प्रथा प्रचलित थी। बात यह है कि माता का महत्व पिना से अधिक है। माना को ही लेकर कुटुम्ब की रचना होनी है। इसलिये एक समय मातृवश अर्थात् माना के ही शासन की विधि प्रचलिन थी। उस ममय बहुपनिविवाह अर्थात् एक स्त्री के कई पति होने की प्रथा भी शुरू हो गई । एशिया की कुछ प्राचीन जातियों में अब भी इस प्रथा के चिन्ह पाये जाते हैं। कई पतियों में से जो सबसे बलवान और रक्षा करने में समर्थ होता था धीरे धीरे उसका श्रादर अधिक होने लगा अर्थात् पट्टरानी के समान पट्टपति का रिवाज चला। जो बलवान और पत्नी का ज़्यादा प्यारा होना था वही अच्छी तरह घरमै रह पाना था। यही रिवाज अगरेज़ो के हसवेड Husband शब्द का मूल है। इस शब्द का असली रूप हैं Hus buandi अर्थात् घर में रहने वाला। सब पतियों में जो पत्नी के साथ घर पर रहता था वही धीरे धीरे गृहपति या हसबैंड कहलाने लगा, और शक्ति होने स धीरे धीरे घर का पूर्ग प्राधिपत्य उस के हाथ में आगया । घर की मालिकी के बाद जब किसी पुरुष को जानि की सरदारी मिली तो पुरुषों का शासन शुरू हुआ, और बहुपतित्व के स्थान पर बहुपत्नीत्व की प्रथा चल पडी। हिन्दु शास्त्रों में द्रौपदी को पॉच पति वाली कहाँ है और उसे महासती भी माना है । मले ही यह कथा कल्पित Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) हो परन्तु मारनवर्ष में भी एक समय बहुपतित्व के साथ सतीस्व का निर्वाह होता था, इस बात की सूचक अवश्य हैं। जैनसमाज में थी कि नहीं, यह जुदा प्रश्न है परन्तु भारतवर्ष में अवश्य थी। मतलब यह है कि बहुपनित्व और बहुपत्नीत्व की प्रथा सामयिक है। धर्म का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं। धर्म नो अणुव्रती का अविवाहित के साथ सभोग करने की मनाई करता है। विवाहित पुरुष या स्त्री, एक हो या अनेक, धर्म की दृष्टि में अणुव्रतनाशक नहीं है । हाँ, धर्म नो मनुष्य को पूर्णब्रह्मचर्य की नरफ झुकाता है इसलिये बहुपत्नीत्व और यहुपतित्व के स्थान में एक पतित्व, ओर एक पत्नीत्व का अच्छा समझना है और जिसका प्रचार अधिक सम्भव हा उसी पर अधिक जोर देना है। इनना ही नहीं, एक पत्नीत्व के बाद भी वह सभोग की गेकथाम करता है। जैसे पर्व के दिन में विषय सेवन मत करो ! ऋतुस्नान दिवस के सिवाय अन्य दिवसों में मन कगे! आदि। मुनियों के लिये जैसा ब्रह्मचर्य है आर्थिकाओं के लिये भी वैसा है। ब्रह्मचारियों के लिये जैसा है, ब्रह्मचारिणियों के लिये भी वैसा है । बाको पुरुषों के लिये जैसा है, बाकी स्त्रियों के लिये भी वैसा है । सामयिक परिस्थिति के अनुमार पुरुषों और स्त्रियों ने जिस प्रकार पालन किया आचार्यों ने उनी प्रकार उसका उल्लेख किया। प्राचार्य नो बहुपत्नीत्व और बहुपतित्व दोनों नहीं चाहते थे। वे तो पूर्णब्रह्मचर्य के पोषक थे। अगर वह न हो सके तो एकपतित्व और एकपत्नीत्व चाहते थे। ज़बरदस्ती से हो या और किसी नरह से हो, त्रियों में बहुपतित्व की प्रथा जव नहीं थी नव वे उसका उल्लेख करके पीछे खिसकने का मार्ग क्यों बतलाते ? पिछले Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) जमाने में जब विधवाविवाद की प्रथा न रही या कम हो गई तब इस प्रथा का उल्लेख भी न किया गया। यदि इसी तरह बहुपत्नीत्व की प्रथा नष्ट हो जाती तो श्राचार्य इस प्रथा का भी उल्लेख न करते । माध्यम जितना ऊँचा होजाय उतना ही अच्छा है । अगर परिस्थितियों ने स्त्रियों का ब्रह्मचर्यविषयक माध्यम पुरुषों से ऊँचा कर दिया था तो इससे स्त्रियों के अधिकार नहीं छिन जाते । कम से कम धर्म तो उनके वि कारों में बाधा नहीं डालना । पुरुष समाज का माध्यम तो स्त्री समाज से नीचा है। इसलिये पुरुषों को तो स्त्रियों से कुछ कहने का अधिकार ही नहीं हैं । श्रव यहाँ एक प्रश्न यह खड़ा होता है कि fasarfaवाह का प्रचार करके स्त्रियों का वर्तमान माध्यम क्यों गिराया जाता है ? इसके कारण निम्नलिखित है । ( १ ) यह माध्यम स्त्रियों के ऊपर जबरदस्ती लादा गया हे, और लादने वाले पुरुष है जो कि इस दृष्टि से बहुत गं‍ हुए है | इसलिये यह त्याग का परिचायक नहीं किन्तु दासता का परिचायक है । इसलिये जब तक पुरुष ममाज इस माध्यम पर चलने को तैयार नहीं है तब तक स्त्रियों से जबर्दस्ती इस माध्यम का पलवाना अन्याय है, और अन्याय का नाश करना धर्म है । " ( २ ) माध्यम वही रखना चाहिये जिसका पालन सहूलियत के साथ हो सके । प्रतिदिन होने वाली भ्रूणहत्याएँ और प्रति समय होने वाले गुप्त व्यभिचार आदि से पता लगता है कि स्त्रियाँ इस माध्यम में नहीं रह सकतीं । 1 4 ( ३ ) आर्थिक कष्ट ; घोर अपमान, तथा अन्य अनेक पत्तियों से वैधव्य जीवन में धर्मध्यान के बदले श्रार्तध्यान की ही प्रचुरता है । (४) स्त्री और पुरुष के माध्यम में इतनी विषमता है J H Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) कि पुरुषसमाज का और स्त्रीसमाज का अधःपतन हो रहा है । इस समय दोनों का माध्यम समान होना चाहिये । इसके लिये पुरुषों को बहुपत्नीत्व की प्रथा का त्याग करने की और त्रियों का विधवाविवाह की जरूरत है। 1 (५) जनसंख्या की दृष्टि से समाज का माध्यम हानिकारी है । भारतवर्ष में स्त्रियों की सरया कम है, पुरुषों में बहुविवाह होता है, फिर फीसदी १७ स्त्रियाँ असमय में विधवा हो जाती है. इसलिये अनेक पुरुषों को, विना स्त्री के रहना पडता है। उनमें से अधिकांश कुमार्गगामी हो जाते हैं। अगर विधवाविवाह का प्रचार हो ता यह कमी पूरी हो सकती हैं तथा अनक कुटुम्यों का सर्वनाश होने से भी बचाव हो सकता है । (६) बहुपतित्व र बहुपत्नीत्व की प्रथा, सीमित हाने पर इतनी विस्तृत है कि उसमें विषय वासनाओं का नाण्डव हो सकता है। सामूहिक रूपमें इसका पालन ही नहीं होसकना इसलिये ये दोनों प्रथाएँ त्याज्य हैं । किन्तु श्रपतित्व और अपस्नीत्व की प्रथा इतनी सकुचित है कि मनुष्य उनमें पैर भी नहीं पसार सकता । और सामूहिक रूपमें इसका पालन भी नहीं हांसकता | इसलिये कुमार और कुमारियों का विवाह कर दिया जाता है । अपतित्व की प्रथा से जिस प्रकार कुमारियों की हानि हो सकती है वही हानि विधवाथों की हा रही है इसलिये उनके लिये भी कुमारियां के समान एकपतित्व प्रथा की आवश्यकता है । जब कि बहुपत्नीत्व और बहुपतित्व तक ब्रह्मचर्याशुवृत की सीमा है तब एक पनित्वरूप विधवाविवाह की प्रथा, न तो अणुवनकी विरोधिनी होसकती है और न आचायों की श्रानाश्री शाशा प्रतिकुल हो सकती है । यहाँ पाठक विधवा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) विवाह को बहुपतित्व की प्रथा न समझे । एक साथ अनेक पतियों का रखना बहुपतित्व है । पक की मृत्यु हो जाने पर दुसग पति रखना पक पतित्व ही है क्योंकि इसमें एक साथ बहुपति नहीं होते। पाठक इस लम्बे विवेचन से ऊब तो गये होग, परन्तु इससे "विधवाविवाह की श्राशा कौन दे?", "पुगणों में बहुविवाह का उल्लेख पाया जाना है" आदि आक्षेपों का पूरा समाधान हो जाता है। शास्त्रोंके कथन की अनेकान्तना मालूम हो जाती है। साथ ही ब्रह्मचर्याणुवत का रहस्य मालुम हो जाता है । आक्षेपकने पक्षपात के इल्ज़ाम का पशुता और दमनीय अविचारता लिखा है । खेर, जैनधर्म तो इतना उदार है कि उसपर विना इल्जाम लगाये विधवाविवाह का समर्थन हो जाता है । परन्तु जो लोग जैनशास्त्रों को विधवाविवाह का विरोधी समझते है या जैनशास्त्रों के नाम पर बने हुए. जैन धर्म के विरुद्ध कुछ ग्रन्थों को जैनशास्त्र समझते है उनसे हम दो दो बातें कर लेना चाहते हैं। ये दो बातें हम अपनी तरफ स नहीं, किन्तु उनके वकील की हैसियत से कहते है जिनको आक्षेपकने पशु बतलाया है। श्राक्षेपक का कहना है कि "न्याय और सिद्धान्तकी रच. नाएँ गुरु.परम्पग से है', परन्तु उनमें स्वकल्पित विचारों का सम्मिश्रण नहीं हुआ, यह नहीं कहा जा सकता।माणिक्यनदि आदि प्राचार्योने प्रमाण को अपूर्वाग्राही माना है और धारा. वाहिक ज्ञानको अप्रमाण । परन्तु प्राचार्य विद्यानन्दीने गृहीत. मगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति, तत्र लोक न शास्त्रेषु विज. हाति प्रमाणताम्-कहकर धारावाहिक को अप्रमाण नहीं माना है । ऐसा ही अकलङ्कदेवने लिखा है (देखो श्लोकवार्तिक. लघीयस्त्रय, या न्यायप्रदीप) धर्मशास्त्रमें तो और भी ज्यादा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३) अन्धेर है। रविषेण कहते हैं कि सीता जनक की पुत्री थी । गमको वनवास मिला था। वे अयोध्या में रहते थे। गुणभद्र कहते हैं सीता गवण की पुत्री थी । राम को वनवास नहीं मिला था। वे बनारस में रहते थे। दोनों कथानकों के स्थूल सूक्ष्म अंशामें पूर्व पश्चिम का सा फरक है। क्या यह गुरुपरम्परा का फल है ? कोई लेखक कहना है कि मैं भगवान महा. वीर का ही उपदेश कहता है तो क्या इसीसे गुरुपरम्पग सिद्ध होगई ? यदि गुरुपरम्पग सुरक्षित रही ती कथानकों में इतना भेद क्यों ? श्रावकों के मूलगुण कई तरह के क्यों ? क्या इस से यह नहीं मालूम होता है कि अनेक लेखकाने द्रव्य क्षेत्र का. लादि की दृष्टिसे अनेक तरह का कथन किया है। अनेकों ने जैनधर्म विरुद्ध अनेक लोकाचारों को जिनवाणी के नाम से लिस माग है, जैसे सामसेन श्रादि भट्टारकाने योनिपूजा आदि की घृणित घातें लिखी है । इसीलिये तो मोक्षमार्गप्रकाश में लिखा है कि "काऊ सत्यार्थ पदनिक समूहरूप जैन शास्त्रनि विषे अमत्यार्थपद मिलावै परन्तु जिन शास्त्र के पदनिविय ता पाय मिटावने का घालोकिक कार्य घटायने का प्रयोजन है। और उम पापी ने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं तिनि विपै कपाय पोपने का वा नोविक कार्य साधने का प्रयोजन है । पेसे प्रया. जन मिलता नाही, नातें परीक्षा करि शानी ठिगावते भी नाही, कोई मर्स होय सोही जैन शाख नाम करि ठिगा है।" कहिये ! अगर गुरु परम्पग में ऐसा कचरा या विष न मिल गया होता तो क्यों लिखा जाता कि मूर्ख ही जैन शास्त्र के नाम से उगाये जाते है । तात्पर्य यह है कि गुरु परम्परा के नाम पर बैठे रहना मृखता है। जेनी को तो कोई शास्त्र तभी प्रमाण मानना चाहिये जब वह जैन सिद्धान्त से मिलान खाता है । अगर वह मिलान न खाने तो श्रृत Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) केवनी के नाम में ही क्या न लिखा गया हो, उन कचरे में डाल देना चाहिये । धृतों की धृतना का छिपाना घोर मिथ्यात्व का प्रचार करना है । जैन सिहान्तों के विरुद्ध जाने पर भी ऐसे शास्त्रों का मानना घार मिथ्यात्वी यनज्ञाना हैं। गरु परम्पग है कहाँ ? श्वेताम्बर यह है कि हमारे मूत्र भगवान महावीर क कहे हुए है । दिगम्बर कहते हैं कि कुन्द कुन्द से लेकर भट्टारको और अन्य अनेक पांगापन्धियों नक के बनाये हुए अन्य बीरभगवान की वाणी है। अब कहिये ! किसकी गुरु परम्पग ठीक है ? यो ना सभी अपने बाप के गीत गाते हैं परन्तु इनने सही सन्यासत्य का निर्णय नहीं हो जाता । यहाँ तो गुरुपरम्पग के नाम पर मक्खी हॉकने बैठा न रहना पड़ेगा । समस्त माहित्य को माक्षी लेकर अपनी बुद्धि से जैनधर्म के मूल सिद्धान्न स्वाजने पडेंगे और उन्हों सिद्धान्तों का कलौटी बनाकर स्वर्ण और पीनल की परीना करना पडेगी, और धृतो नथा पक्षपानियों का भगडाफोड करना पडेगा। यह कहना कि "प्राचीन लेखकों में पक्षपाती धूर्त नहीं हुए" बिलकुल धोखेबाजी या अमानता है। माना कि बहुत से लेखकों ने प्रापेक्षिक कथन किया है जैसाकि इमी प्रकरण में ऊपर कहा जा चुका है परन्तु धोडे बहुत निरे पक्ष. पाती, उत्सूत्रवादी और कुलजानि मद के प्रचारक घोर मिथ्यात्वी भी हुए हैं। अगर किसी लेखक ने यह लिया हो कि "पुरुष तो एक साथ हजागें स्त्रियाँ रखने पर भी अणुव्रती है परन्तु स्त्री, पक पनि के मर जाने पर भी दूसरा पनि रखे नो घोर व्यभिचारिणी है उसको पुनर्विवाह का अधिकार ही-नहीं है" तो क्या पक्षपान न कहलायगा ? पक्षपात के क्या सींग होते हैं ? यह पुरुषत्व की उन्मत्तता का तांडव नहीं तो क्या है ? पुरुषों ने शूद्र पुरुषों को भी कुचला है, इससे तो Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५ ) सिर्फ यही मिड होता है कि उनमें पुरुषच की उन्मत्तता के साथ द्वितन्त्र की उन्मत्तना भी थी। "उननं पुरुषों को भी कुचला इमलिय स्त्रियों को नहीं कुचला" यह नहीं कहा जामकना । मुमन्नमान श्रापम में भी लड़नं है, क्या इमलिग उनका हिन्दुओं में न लड़ना मिद हो जाना है ? कहा जाता है कि "उनने दुगवारी द्विजों की भी तो निन्दा की है, इसलिये व विदुगवार में ही निन्दा है"। यदि ऐसा है ना दुगचार्गहा की और दुगचारिणी स्त्रियों की ही निन्दा करना चाहिये । स्त्रीमात्र की और शुट मात्र को नीचा क्यों दिवाया जाता है ? अमेरिका में अपगधी लाग दगड पाने है और चंहुन सं इसी नाममात्र के प्रागय पर इमलिये जला दिये जात है कि शी है, ना या यह उचिन है ? अपगत्रियों को दगह देने से क्या निरपराधियों का समाना जायज़ हा जाना है ? प्राचीन लेखकों ने अगर दुगनागियों का कुचला है ना सिर्फ इसीलिए उनका शोक और स्त्रियों की कुत्र. लना जायज़ नहीं पहला मकना। यह पनपान पिशाच, उम ममय बिलकुल नगा हो जाता है जब दुराचारी द्विज के अधिकार, सदाचारी शुद्ध और मदानारिणी महिला से ज्यादा समझ जान है । दुग. वारी दिन अगर जीन पालकॉकी मार मारकर वाजाय नो मी उमर मुनि बनने का श्रीर मान जाने का अधिकार नहीं छिनना (देखा पद्मपुराण मोटान की कथा ) । परन्तु गढ़ स्निना मी मदाचार्ग क्यों न हो, उनका श्रामविकास कितना ही क्यों न हो गया हा यह मुगि भी नहीं बन सकता। झूठा, चाहा, व्यभित्रार्ग और लुभा द्विज अगर भगवान की पूजा करे ना कोई हानि नहीं. परन्तु शुद्ध श्रारम्मत्यागी या उद्दिष्ट त्यागी ही क्यों न हो, वह जिन पूजा करने का अधिकारी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) नहीं | क्या सदाचार या चारित्र की यही प्रशसा है ? क्या इसी का नाम नि पक्षना है ? स्त्री हा या शूद्र हो प्रत्येक जीव को ऊचा से ऊँचा धर्म पालने का अधिकार है। जो उनके अधिकारों को छीनते हैं वे सिर्फ पक्षपानी ही नहीं डाकू है । मनुष्य जाति के दुश्मन है । वे चाहे पूर्व पुरुषों के वेप में हां, चाहे श्राचार्य के प म हाँ, चाहे और किमी रंग में रंगे हो, उनका नाम सिर्फ़ उनके नाम पर थूकने के लिये ही लेना चाहिये । पाठक देखें कि पक्षपात का दोष लगाना सत्य है या नहीं ! हमें यह वकालत इसलिये करनी पडी है कि श्राज वुद्धि और विवेक से काम लेने वालों का भ्रम पशु कहा जाता है । कौन श्रम पशु है, इसका निर्णय पाठक ही करेंगे । नवमा प्रश्न । "विवाह के बिना, कामलालसा के कारण जो सक्लेश परिणाम होते है, उन में विवाह होने से कुछ न्यूनता श्राती हे या नहीं ?" इस प्रश्न के उत्तर में हमने कहा था कि संक्लेश परिणामों को कम करने के लिये विवाह किया जाता है और इस में बड़ी भारी सफलता मिलती है। हमने सागारधर्म्मा. मृत और पुरुषार्थसिद्धयुपाय के श्लोकोंसे अपने पक्ष का सम र्धन किया था । श्रक्षेपक कई जगह तो हमारे भाव को समझ नहीं पाये और बाकी जगह उन से उत्तर नहीं बन पड़ा । आक्षेप (क) — जब वृह्मचर्याश्रम पूर्ण कर युवा १६ वर्ष का होता है तब पितादि उस का विवाह करते है । ऐसी अवस्था में न किसी के विवाहक बिना संक्लेश परिणाम होते है न कुछ होता है । (श्रीलाल ) समाधान - कामलालसा रूप सक्लेशके बिना किसी का Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७ ) विवाह करना गजवार्तिक के लक्षण के अनुसार विवाह ही नहीं कहला मकता । जैसे ज्वर न होने पर घर की औषधि देना हानिकारक है, उसी प्रकार काम वासनाके बिना उसका विवाह कर देना हानिकारक है । उस से नो नत्रीन कामज्वर पैदा हो जायगा। खैर, अगर १६ वर्ष के यवा में कामवासना नहीं है तो क्या २०-३० वर्ष के उस विधुर में भी नहीं है, जा विवाह के लिये अपनी सारी शकि लगा रहा है ? विवाह के होजाने पर यह थोड़ी बहुत निश्चिन्तना का अनुभव करता है या नहीं? यही निश्चिन्तना ना सक्लेश परिणामोंकी न्यूनता है। जिम प्रकार विधुरविवाहसे मंजेश परिणामों में न्यूनता होनी है उस प्रकार विधवाविवाहसे भी मक्कैश परिणामों में न्यूनता होनी है, इसलिये विधवाविवाह गे विधेय है । आक्षेप (ख)-जिन पुरुपों के सर्वशा विवाह होने की श्राशा नहीं है, उन का काम नष्ट जैसा होजाना है। उन की इच्छा भी नहीं होनी । जैसे किसी ने बालू खाना छाड दिया नो उनका मन पालुप्रों पर नहीं चलना । गत्रिमें जलत्यागियों को प्यास नहीं लगती । पुनः पुनः काम न सेवन करने स काम नए हो जाता है । जिम विधवा का पुरुषमा की आशा नहीं हानी, उसका मन विकृन नहीं होता। समाधान--पाक्षेप क्या है, पागल के प्रलाप है। नपु. मक को विवाह और कामभांगकी पाशा तो नहीं होती परन्तु उसकी कामवेदना को शास्त्रकारों ने सब से अधिक तीव्र बनलाया है। यदि साधन न मिलने से यह्मचर्य होने लगता नी विधुर और विधवाओं में व्यभिचार क्या होता ? आलू बाह देना एक बात है और भालू न मिलना दूसरी बात है । बृह्म चर्य एक बात है और दुर्भाग्यवश विधवा या विधुर हो जाना, मरी यान है । रात्रि में जलत्यागियों को प्यास नहीं लगती, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) इसका कारण यह है कि वे संध्या को ही लोटे दो लोटे पानी गटक जाया करते है । र ! विधवा होने से जिनकी कामवासना नष्ट हो जाये उनमें विवाह का अनुरोध नहीं किया जाना परन्तु जो कामवासना पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती है उन्हें अवश्य ही विवाह कर लेना चाहिये । श्राप ( ग ) - काम शान्ति को विवाह का मुख्य उदे श्य बताना मूर्खता है । शुद्ध सन्मानोत्पत्ति व गृहस्थ धर्म का दानादिकार्य यही मुख्य उद्देश्य है । श्रनपत्र काम गौण है, मुख्य धर्म ही है । (श्रीलान्त ) ..... समाधान पिक यहाँ इतना पागल होगया है कि उसे काम में और कामवासना की निवृत्ति में कुछ नही नहीं मालूम होता | हमने कामवासना श्री निवृत्ति को मुख्य फल कहा है न कि काम का । श्रर कामवासना की निवृत्तित्रां धर्मरूप कहा है | धर्म अगर मुख्य फल है तो कामवासना की निवृत्ति ही मुख्य फल कहलायी । इसमें विरोध क्या है ? पुत्रां त्पत्ति आदि को मुख्यफल कहने के पहिले प्रक्षेपक गर हमारे इन शब्दों पर ध्यान देता तो उसे इस तरह निर्गत ---- प्रलाप न करना पडता f मान लीजिये कि किसी मनुष्य में मुनिवृत धारण करने की पूर्ण योग्यता है । ऐसी हालत में अगर वह किसी श्राचार्य के पास जावे ता वे उसे मुनि बनने की सलाह देंगे या श्रावक बन कर पुत्रोत्पत्ति की सलाह देंगे" ? यह कह कर हमने अमृतचन्द्र श्राचार्य के तीन श्लोक उद्धृत करके बतलाया था कि ऐसी अवस्था में आचार्य मुनि चूत का ही उपदेश देंगे । मुनिवृत्त धारण करने से बच्चे पैदा नहीं हो सकते, परन्तु कामलालसा की पूर्ण निवृत्ति होती है। इससे मालूम होता है कि जैनधर्म बच्चे पैदा करने पर जोर नहीं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) देना, किन्तु कामलालमा की निवृत्ति पर जोर देता है। पूर्ण निवृत्ति में असमर्थ होने पर प्रांशिक निवृत्ति के नियं विवाह है । उलम सन्तान प्रादि को भी पूर्ति हो जाती है । परन्तु मुख्य उद्देश्य नी कामवासना की निवृत्ति ही रहा । अमृतचंद्र क पद्याने गह विषय बिलकुल स्पष्ट कर दिया है। फिर भी श्राप को पद्यों की उपयोगिता समझ में नहीं पानी । ठीक है, समझने की अम्ल मी तो चाहिये । आक्षेप (घ)-विवाहको गृहम्पाश्रमका मूल कर धर्म, अर्थ, काम रूप नो नियत कर दिया, परन्तु इसमे श्राप हा शप्पड खाली । जय काम गृहस्थाश्रम रूप है नय उम की शान्ति क्णे? पाम शान्ति स नो गृहस्थाश्रम उढना है । काम निवृत्ति धर्म ग्रोर प्रवृत्तिको काम कहना कैसा? पविषय में यह कल्पना क्या? और अर्थ इम का माधक क्या ? फल नां विवाह के तीन है, उनटा अर्थ मायक्ष क्या पहा? माध्य को सायक यनाटिया? (श्रीलाल) समाधान-यहाँ नो श्रापक बिलकुल एकावरका हो गया है। इसलिये हमारे न कहने पर भी उमने काम को गृहम्याश्रमकप समझ लिया है। काम को पूर्णरूप में शान्ति हो जाय ना गृहम्याश्रम उह जायगा और मुनियाधम पाजायगा। अगर काम की निवृत्ति जग भी न हो नां भी गृहस्थाश्रम उड जायगा, क्योति प्रेमी हालन में वहाँ व्यभिचारादि दोषों का दोग्दोग हो जायगा । अगर काम की आंशिक नियत्ति हो अर्थात् पादार विषयक काम की, निवृत्तिरुप म्यहार मन्नाप हो ना गृहस्थाश्रम बना रहता है। श्रापक पेमा जड्युदिका धानेपकने पेने ही कटक और एक वचनात्म शब्दों का जहाँ नहाँ प्रयोग किया है। इसलिये हमें भी "शटम् प्रति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) है कि यह अभी तक यह नहीं समझ पाया है कि कामवासना की भांशिक निवृत्तिका मतलब खदारसन्तोप या स्वपनिसन्ताप है। जो लोग स्वदाग्सन्तोष को विवाह का मुख्य फल नहीं मानते वे जैनधर्म से बिलकुल अनमिश निरे वुद्ध है । वेचारा । श्रीलाल, काम निवृत्ति अर्थात् परदार निवृत्ति या परपुरुषनिवृतिको धर्म, और स्वदारप्रवृत्तिको काम कहनेमें चकित होता है। बाहरे श्रीलाल के पाण्डित्य ! गृहस्थाश्रम, धर्म अर्थ काम तीनों का साधक है, परन्तु उन तीनों में भी परस्पर साध्य साधकता हो सकती है। जैसे- धर्म, अर्थ काम का साधक है, अर्थ, कामका साधक है श्रादि । खैर, हमाग कहना इतना ही है कि कुमारी विवाह के जो जो फल है वे सब विधवा विवाहसे भी मिलते हैं, इसलिये विधवाविवाह भी विधेय है । आक्षेप (ङ)-जो पुरुष विषयों को न छोड सके वह गृहस्थधर्म धारण करे । यहाँ विषय शब्द से केवल काम की ही सूझी! (श्रीलाल) समाधान-विषय तो पाँचौ इन्द्रियों के होते है, परन्तु उन सब में यह प्रधान है। क्योंकि इसका जीतना सबसे अधिक कठिन है। जिसने काम को जीत लिया उसे अन्य विषयों को जीतने में कठिनाई नहीं पड़ती। इसलिये काम की मर्यादा करने वाला एक स्वतन्त्र अणुव्रत कहा गया है। अन्य मागोपभोग सामग्रियों के व्रत को तो गुणव्रत या शिक्षावत में डाल दिया है । उसका सातिचार पालन करते हुए भी वती रह सकता है, परन्तु ब्रह्मचर्याणुव्रत में अतिचार लगने से खून प्रतिमा नष्ट हो जाती है । क्या इससे सब विषयों में काम विषय की प्रधानता नहीं मालूम होती ? ग्रन्धकारों ने इस शाध्यमाचरेत्" इस नीति के अनुसार ऐसा ही प्रयोग करना पड़ा है। -सव्यसाची। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) प्रधानता का स्पष्ट उल्लेख किया है 'विषयान् इष्टकामिन्यादीन् ' - सागारधर्मामृत टीका । क्या इससे काम की प्रधानता नहीं मालूम होती ? विवाह के प्रकरण में तो यह प्रधानता और भी अधिक माननीय है, क्योंकि काम विषय को सीमित करने (श्रांशिक निवृत्ति) के लिये ही विवाह की श्यावश्यकता | रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय श्रादि के विषयों को सीमित करने के लिये विवाह की जरूरत नहीं है। विवाह के बिना अन्य इन्द्रियाँ उच्च खल नहीं होतीं, सिर्फ यही इन्द्रिय उच्छृंख होती है । इसलिये मागान्धर्मामृत टीका में परविवाह करण नाम के अतिचार की व्याख्या में पत्र पत्रों के विवाह की आव श्यकता लाते हुए कहा है कि 'यदि कन्यानिवादा न कार्यते तदा स्वन्दचारिणो स्यात् ततश्च कुलसमग्रत्तोकविरोधः स्यात् विनिविवाहातु पतिनियतस्त्रीत्वेन न तथा स्यात् । पप न्यायः पुत्रेऽपि विकल्पनीयः' अर्थात् 'अगर अपनी पुत्री का विवाह न किया जायगा तो वह स्वच्छन्दचारिणा हो जायगी, परन्तु विवाह कर देने से वह एक पति में नियत हो जायगी । इसलिये स्वच्छन्दचारिणी न होगी । यही बात पुत्र के लिये भी समझ लेना चाहिये अर्थात् विवाह से वह स्वच्छन्दनारी न होगा' । यहाँ पुत्र पुत्री के लिये बात कही गई है वह विधवा पुत्रीके लिये भी लागू है । श्रक्षेपक में अगर थोडी जो कल होगी तो वह इन प्रमाणों से समझ सकेगा कि विवाह का मुख्य उद्देश्य क्या है, और वह विधवाविवाह से भी पूर्ण रूपमें सिद्ध होता है । सागारधर्मामृत के इस उल्लेख से श्राक्षेप नम्बर 'क' का भी समाधान होता है । आक्षेप (च ) -- समाज की अपेक्षा से सन्तानोत्पत्ति को मुख्य बतलाना भूल है । समाज में १-२ लटके न हुए न Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) सही, परन्तु विवाह वाले के न हुए नो टमका नो घर हो चौपट है। समाधान-त्याग के गौन गाने वालों की यहाँ पाल ग्वुल गई। उनके ढांगा का भगडाफोड होगया। अरे माई! घर, गृहिणी को कहते हे गृहं हि गृहिणीमा:-मागारधर्मामृन । लडका न होने से न गृहिणी मरेगी, न गृही मरेगा, न दानों के ब्रह्मचर्याणुवन में बाधा श्रायगी, न महावन धारण करने का अधिकार छिन जायगा । मनुष्य जीवन के जो वास्तविक उद्देश्य हैं उनका पफ भी माधन नष्ट न होगा। क्या इमी का नाम चौपट हो जाना है ? यनावटी धर्म के वेष में ग्गे दए ढोंगियों ! क्या यही तुम्हाग जीवन मर्यस्व है? हाँ, मन्नान के न होने से समाज की हानि है. क्योंकि समाज मोक्ष नहीं जाती न मुनि बनती है । अगर वह मुनि बन जाय तो नष्ट हो जाय । एक एक दो दो मिलकर ही तो समाज है । सन्तान के अभाव में समाज नट हो सकती है, परन्तु सन्तान के प्रभाव में व्यक्ति तो मोक्ष तक जामकता है। श्रय समझो कि मन्लान किसके लिये मुख्य फल कहलाया ? क्या इनने म्पट प्रमाण के रहते हुए भी तुम्हारा मुख्य गौण का प्रश्न बना हुआ है ? आक्षेप (छ)-कुमारी और विधवा को स्त्री समान समझकर ममान कर्त्तव्य बननाना भूल है । माता यहिन वधू सभी स्त्री है, परन्तु वहिन माता अभाज्य है, वधू भोज्य है। (श्रीलाल) समाधान-भोज्य-भोजक सम्बन्ध की नीच और बर्वर कल्पनाका हम समाधानकर चुके हैं। जो हमारी बहिन है वह हमारे बहिनेउ की वहिन नहीं है । जो हमारी माता है वह हमारे पिता को माना नहीं है । हमारी वधृ दूसरे की वधू नहीं है । इसलिये यह भोज्याभोज्यता आपेक्षिक है । सर्वथा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) अभाज्यता किसी में नही है । बहिन माता आदि ये नातेदारी के शब्द है, इसलिये नातेदारी को अपेता से इनकी भोज्याभा. ज्यता की कल्पना की है। कुमारी और विधवा ये अवस्था. विशेष के शब्द है, इमलिये इनकी भाज्याभाज्यता अवस्था के ऊपर निर्भर है। जयना कुमारी या विधवा है तब तक अमोज्य हे जय उस कमारी या विधवा का विवाह हो जायगा तब वह भोज्य होजायगी । भोज्य तो बधू है, फिर भले ही वह कुमारी रही हो या विधवा । मातृत्व और भगनीत्व सम्बन्ध जन्म से मगण तक स्थायी है । कौमार्य और वैधव्य ऐसे सम्बन्ध नहीं हैं। उनको बदलकर वधू कामम्बन्ध स्थापित किया जाता है। स्त्री होने से ही कोई भोज्य नहीं होजाती, वधू होने से भोज्य होती हैं। मातृत्व, भगनीत्व अमिट है, कौमार्य और वैधव्य श्रमिट नहीं है । इमलिये माता और भगिनी के साथ विवाह नहीं किया जासकता किन्तु कुमारी या विधवा के माथ किया जा सकता है । आपक के भाक्षेपको अगर हम विधुर. विवाह निषेत्र के लिये लगावे तो आपक क्या उत्तर ढंगा ? देखिये-पातप-"कुमार और विधुर को पुरुष ममान ममझकर समान कर्तव्य बतलाना भूल है । पिता, भाई, पनि सभी पुरुष है, परन्तु भाई और पिना अभोज्य है, पनि माज्य है"। श्रानपक के पास इसका क्या उत्तर है ? वही उत्तर उसे विधवाओं के लिये लगा लेना चाहिये । आक्षेप (ज)-विधवाविवाह के पक्षपाती भी अपने घर की विधवाओं के नाम पर मुंह सकोड लेते है। समाधान-यह कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक विधवा का विवाह जरूर करना चाहिये। अगर कोई विधवा विवाह नहीं करना चाहती तो सुधारक का यह कर्तव्य नहीं है कि वह ज़बर्दस्ती विवाह करदें । जबर्दस्ती विवाह करने का Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) रिवाज तो नादिरशाह के अवतार स्थितिपालकी के घर में होता है। अगर वास्तव में किसी सुधारक में अपने घर में प्रात्रश्यक होने पर भी विधवाविवाह को कार्यरूप में परिणत करने की शक्ति नहीं है तो उसकी यह कमजोरी है । वह नैष्टिक सुधा. ग्क नहीं है, सिर्फ पाक्षिक सुधारक है । जिम प्रकार पानिक श्रावकों के होने से नैष्टिक श्रावकों का प्रभाव नहीं कहा जा सकता और न वेनिटनीय हो सकते हैं, उमी नरह पाक्षिक सुधारकों के होने स नैष्ठिक सुधारकों का प्रभाव नहीं कहा जासकता और न उनकी निंदा की जासकती है। आक्षेप (झ)-विधवाविवाह यूरुपियनो एव मोहमडनों (मुसलमानों) में भी अनिवार्य नहीं है, क्योंकि यह नीच प्रथा हैं। (श्रीलाल) समाधान योरोप में नो कुमारी और कुमारों का विवाह भी अनिवार्य नहीं है । फ्रॉस में तो इस कौमार्य का रिवाज इतना बढ़ गया है कि वहाँ जनसंख्या घट रही है। दूसरे देशों में भी कौमार्य का काफी रिवाज है। इसलिये विवाह भी एक नीच प्रथा कहलाई । श्राक्षपक को अभी कुछ मालम ही नहीं है । विधवाविवाह अनिवार्य न होने के कई कारण है । एक कारण यह है कि विधवा और विधुर होते होते किसी का आधा जीवन निकल जाता है व किसी का तीन चतुर्थांश या इससे भी ज्यादा जीवन निकल जाता है, ऐसे लोगों को इसकी आवश्यक्ता का कम अनुभव होता है। इसलिये वे लोग विवाह नहीं करते। नीचता के डर से वहाँ विधवाविवाह नहीं रुकते। अगर किसी जगह विधरविवाह नीच प्रथा नहीं कहलाता और विधवाविवाह नीच प्रथा कहलाता है तो इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५ ) होता है कि वहाँ के लोग नीव मिथ्यात्वी, घोर अत्याचारी, महान् पक्षपाती और अत्यन्त मढांच हैं। इन दुर्गणों का अनुकरण करके जैनियों को ऐले मदांध पापी क्यों बनना चाहिये? आप (ञ) लॉर्ड घगनों में कनई विधवाविवाह नहीं होता । विधवाविवाह से उच्च नीच का भेद न रहेगा। ममाधान-लॉर्ड घगने का मतलब श्रीमन्त धगने मे है । लॉर्ड कोई जाति नहीं है। साधारण श्रादमी भी श्रीमन्न और महर्द्धिक बनकर लॉर्ड बन सकते है । इन भव में विधवा विवाह होता है। हाँ साधारण विधवाओं को अपना लॉर्ड घगने की विधवाएँ कुछ कम सख्या में विवाह कराती हैं। यह उच्चता नीचना का प्रश्न नहीं, किन्तु साम्पत्तिक प्रश्न है । लॉर्ड घगने की अपार सम्पत्ति छोड़कर विवाह कगना उन्हें उचिन नहीं जॅचना । जिन्हें जेंचना है वे विवाह कग ही लेनी है। दक्षिण के डेढ लाख जैनियों में, आर्यसमाजियों में, ब्रह्मसमा. जियों में, विधवाविवाह होना है परन्तु वे भंगी चमार नहीं कहलाते । । आक्षेप (ट)-सूरजमान का जीवदया की पुकार मचा. कर विधवाविवाह को कर्तव्य बनलाना अनुचित है । जीवदया धर्म है, न कि शरीर दया । मन्दिर बनवाना धर्म है और प्याऊ लगवाने से अधर्म है। अगर कोई व्यभिचारिणी कामभिक्षा माँगे तो वह नहीं दी जासकती। जो दया धर्मवद्धि का कारण है, वहीं वास्तविक दया है। (श्रीलाल) ममाधान-बेचारा आक्षेपक दान के भेदों को भी न समझा । उसे जानना चाहिये कि आत्मगुणों की उन्नति को लक्ष्य में लेकर जो दान दिया जाता है वह पात्रदान है, न कि दयादान । ढयादान नो शरीर को लक्ष्य में लेकर हो दिया' Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) जाता है. फिर भले ही उससे धर्म किया जाय या न किया जाय । श्रापक प्याऊ लगवाने को अधर्म कहता है, परन्तु सागारधर्मामृत में प्याऊ और सत्र को स्थापित करने का उप. देश दिया गया है "सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनुजिघृक्षया । सत्रमत्रप्रदानस्थानं, अपिशब्दात्प्रपांच" ॥ अर्थात्-दीन प्राणियों के उपकार की इच्छा से सत्र (भोजनशाला जहाँ गरीवों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है ) और प्याऊ खोले । दान, गृहस्थों का मुख्य कर्तव्य है । जब आक्षेपक दान के विषय का साधारण ज्ञान भी नहीं रखता तो गृहस्थधर्म कैसे निमाता होगा ? जो गृहस्थ प्यासों को पानी पिलाने में भी अधर्म समझता है वह निर्दय तथा कर जीव जैनी कैसे कहला सकता है ? । व्यभिचारिणि को कामभिक्षा नहीं दी जासकती, परन्तु श्राक्षेपक के मतानुसार व्यभिचारियों को काममिक्षा दी जा सकती है, क्योंकि अगर द्वितीय विवाह कराने वाली स्त्री व्यभिचारिणी है, तो द्वितीय विवाह कराने वाला पुरुष भी व्यभिचारी है ! क्या पुरुष का दूसरा विवाह धर्मवृद्धि का कारण है ? यदि हाँ, तो स्त्री का दूसरा विवाह मी धर्मवृद्धि का कारण है, जिसकी सिद्धि पहिले विस्तार से की जा चुकी है। जो चार चार स्त्रियों को निगलजाने वाले को तो धर्मा. स्मा समझता हो, किन्तु पुनर्विवाह करने वाली स्त्रियों को व्यभिचारिणी कहता हो, उसकी धृष्टतापूर्ण नीचता का कुछ ठिकाना भी है ! आक्षेपक स्वीकार करता है और हम भी कह चुके हैं कि विवाहका लक्ष्य कामशान्ति, खदारसन्तोष, स्व-पतिसन्तोष ' अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रत है। विवाह कामभिक्षा नहीं है। क्या Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७ ) आक्षेपक अपनी बहिन बेटियों के विवाह को कामभिक्षा समझता है ? यदि नहीं, तो विधवाश्री के विवाह को कामभिक्षा नहीं कह सकते । विधवानी का विवाह धर्मवृद्धि का कारण है, यह बात हम पहिले सिद्ध कर चुके हैं। आक्षेप (ठ)-विवाह से कामलालसा घटती है, इस का एक भी प्रमाण नहीं दिया । विवाह होने पर भी कामलालसा नट नहीं हुई, उल्टो बढ़ी है, जैसे रावणादिक की। (विद्यानन्द) समाधान-पावालगोपाल प्रसिद्ध वातको शास्त्र प्रमाणों की ज़रूरत नहीं होनी । फिर भी प्रमाण चाहिये तो आशाधर जी के इन शब्दों पर ध्यान दीजिये कि अगर पुत्र पुत्री का विवाह न किया जायगा ता वे स्वच्छन्दचारी हा जायेंगे (देखो प्राक्षप 'ङ) । विवाह से अगर कुलसमयलाकविरोधी यह म्वच्छन्दाचार घटता है तो यह क्या कामलालसा का घटना न कहलाया? विवाह होने पर मी अगर किसी की कामलालसा नष्ट नहीं होती तो इसके लिये हम कह चुके हैं कि उपाय १०० में दस जगह असफल भी होता है। तीर्थदरों के उपदेश रहने पर भी अगर अभव्य का उद्धार न हो, सूर्य के रहने पर भी अगर उल्लू को न दिखे तो इसमें तीर्थङ्कर की या सूर्य की उपयोगिता नट नहीं होती है। इसी तरह विवाह के होने पर अगर किसी का दुराचार न रुके तो इससे उसकी उपयोगिता का प्रभाव नहीं कहा जा सकता । आक्षपक ने यहाँ व्यभिचार दोष दिखलाकर न्यायनभिज्ञता का परिचय दिया है। इस दृष्टि से तो तीर्थदर और सूर्य की उपयोगिता भी व्यमिचरिन कहलाई । श्राक्षेपक को जानना चाहिये कि कारण के सद्भाव में कार्य के प्रभाव होने पर व्यभिचार नहीं होता, किन्तु कार्य के सद्भावमें कारण के प्रभाव होने पर व्यभि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) चार होता है । अनि कारण है, परन्तु उसके होने पर भी अगर sa निकले तो नि और धुनों का कार्य कारणभाव व्यभिafत नहीं कहलाता | हमने इसी बात के समर्थन में कहा था कि "चिकित्सा करने पर भी लोग मरते है, शास्त्री होने पर भी लोग धर्म नहीं समझते" । इस पर आप कहते है कि "वह चिकित्सा नहीं, चिकित्साभास है, वह शास्त्री, शास्त्री नहीं है" । बहुत ठीक, हम भी कहते है कि जिस विवाह के बाद काम लालसा शान्त नहीं हुई, किन्तु बढी है, वह विवाह नहीं, चित्राहाभास है | वास्तविक विवाह तो कामलालसा को अवश्य शांत करेगा। इसलिये विधवाविवाह से भी कामलालसा की शांति होती है । आक्षेप (ड) - यह कोई नियम नहीं कि विवाह के बिना प्रत्येक व्यक्ति को देखकर पापवासना जागृत हो जाय । वासुपूज्य कलङ्क आदि के विवाह नहीं हुए। क्या सभी श्रसयमी थे ? - समाधान - कामलालसा की अांशिक शांति के लिए विवाह एक औषधि है । वासुपूज्य यादि ब्रह्मचारी थे। उनमें कामलालसा थी ही नहीं, इसलिये उन्हें विवाह की भी जरू रत नहीं थी । "अमुक श्रादमी सख़्त बीमार है। अगर उसकी चिकित्सा न होगी तो मरजायगा " - इस के उत्तर में अगर यह कहा जाय कि - वैद्य के पास तो सौ दोसौ आदमी जाते हैं, बाक़ी क्यों नहीं मरजाते ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? अरे भाई ! बीमार को श्रौषधि चाहिये, नीरोगको औषधि नहीं चाहिये | इसी तरह कामलालसा वाले मनुष्य को उस की श्रांशिक शांति के लिए विवाह की आवश्यकता है, न कि ब्रह्म• चारी को । इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि विवाह का मुख्य उद्देश्य लडके बच्चे नहीं हैं । बालब्रह्मचारियों के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९) सन्तान नहीं होती, फिर भी वे विवाह नहीं करते। क्योंकि उन्होंने विवाह का मुख्य उद्देश्य विवाह के बिना ही पूर्ण कर लिया है। मुख्य उद्देश्य की पूर्ति होने पर गौण उद्देश्य की पूर्ति के लिये कार्य नहीं किया जाता। आक्षेप (8)-कामवासना के शान्त न होने के कारण विधवाविवाह के विरोधी, विधवाविवाहका विरोध नहीं करते, किन्तु उनसे विगंध कराने का कारण है भगवान महावीर का पागम | आप उत्तर दे। आपके प्रमाण हमें जॅचे तो हम प्राप के आन्दोलन में आपका हाथ बटायेंगे। ममाधान-नवमॉ प्रश्न भगवान के आगम के विचार का नहीं था। उसका विचार तो पहिले प्रश्नों में अच्छी तरह होगया। इसमें तो यह पछागया है कि विवाहसे कामलालसा के परिणामों में न्यूनता पाती है या नहीं ? यदि पाती है तो विधवाविवाह श्रावश्यक और उचित है । यदि नहीं आती तो विधवाविवाह अनावश्यक है। इसीलिये हमने युक्ति और शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध किया है कि विवाह से सक्लेशता कमती होती है। युक्ति और तर्क के चलपर हमारे अान्दोलन में वही शामिल होगा जो मत्यप्रिय हांगा, प्रात्मोद्धार का इच्छुक होगा, देशसमाज का रक्षक होगा । सव्यसाची, टके के गुलामों की पर्वाह नहीं करता। जिस प्रकार प्राचीन सव्यसाची ने कृष्ण का बल पाकर अपने गागडीव धनुप से निकले हुए वाणा से कौरव दल का अवसान किया था उसी प्रकार आधुनिक सव्यसाची भगवान महावीर का चल पाकर अपन शान गागडीव से निकले हुए तरूपो वाणों से स्थितिपालक दल का अवसान करेगा। आक्षेप (ण) सन्यसाची महोदय की दृष्टि में व्यमिचार को रोकने का उपाय विवाहमार्ग को उड़ाना है । आपको Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) कुछ होश भी है कि श्राप ऊपर पपा कुछ लिख पाय ! पहिले उस जलाकर ग्याक पर डालो नय मरी थान करना। समाधान-हमने कहा था कि "यमि विवाह होने पर भी किन्हीं लोगों की कामयामना शान्न नाहींनी ना समे विधवाविवाद का निषेध कमेको माना फिरनी विवाह मात्र फा निषेध होना चाहिये।' पाटक, दे दिमागमा वक्तव्य या विवाह मार्ग को उडाने का है ?मनी विधवा. विवाह और कुमागे विवाद दोनों के समर्थ है। परन्तु जो लोग जिस कारण से विधवाविवाद अनावश्यक समझते है, उन्हें उमी कारण R कुमार्गनियाद भी अनावश्यक मानना पडेगा । श्रमली यात तो यह मिशगर शिमी जगह विवाद (कुमारीविद्याह या विधवाविवार) का फन्न न मिले तो क्या विवाहप्रथा उडा देना चाहिये ? हमारा कहना है कि नहीं उडाना चाहिये । जब कि शाक्षपकाना है, कि उडा देना चाहिये, क्योंकि श्राक्षेपक ने विधवाविवाह की प्रथा उडा देने के लिये उसकी निम्फालना का जिकर किया है । ऐसी निष्फलता कुमारी विवाह में में हो सकती है, इसलिये आक्षेपक क कथनानुसार वह प्रथा भी उडा देने लायक हरी। आक्षेप (त)- आदिपुगण, मागारधर्मामृत, प० मेधावी, पं० उदयलालजी, शीतलप्रसादजी, दयाचन्द गायलीय आदि ने पुत्रोत्पत्ति के लिये ही, विवाह कामभोग का विधान किया है, कामवासना की पूर्ति को कामुकता बतलाया है। समाधान-कामलालसा की पूर्ति कामुकता भले ही हो परन्तु कामलालसा की निवृत्ति कामुकता नहीं है । म्वनीरमण को कामकता भले ही कहा जाय. परन्तु परस्त्रीत्याग कामकता नहीं है। यह कामलालसा की निवृत्ति है। हमने शाखप्रमाणों से सिद्ध कर दिया है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रस. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१) मर्थना में ही गृहस्य धर्म अङ्गीकार करना चाहिये । अमृतचंद्र जी और पाशाधरजी के श्लोक हम लिख चुके है । फिर भी आदपक का पूछना है कि प्रमाण बताओ ! खैर, और भी प्रमाण लीजिये। सागारधर्मामृन के द्वितीय अध्याय का प्रथम श्लोक"त्याज्यानजन" प्रादि पहिले ही लिखा जा चुका है । 'यदि कन्या विवाहो न कार्यते' आदि उद्धरण श्राक्षप (ड) में देखा। 'विषयसुखोपभोगेनैव चारित्रमोहोदयोदेस्य शक्यप्रतीकारत्वात् तद्वारेणैव तम्माढवात्मानमिव साधर्मिकमपि विषयेभ्यो न्युपरमयेत् । विषयेषु सुखभ्रान्तिकर्माभिमुनपाकजाम् । हित्वातदुपगोगेन त्वाजयेत्ताम्बवत्परान् ।' अर्थात्-चारित्रमोह का जय तीव उदय होता है तो विषयसुम्न के उपभोग से ही उसका प्रतीकार (निवृत्ति) हो सकता है, इसलिये उनका उपभोग करक निवृत्त हो और दूसरे को निवृत्त करे। सुखभ्रान्ति हटाने का यह वक्तव्य विवाह की आवश्यकता के लिये कहा गया है । र, और भी ऐसे प्रमाण दिये जासकते हैं । निवृत्तिमार्गप्रधान जैनधर्ममें निवृत्तिपरक प्रमाणों की कमी नहीं है । यहाँ पर मुख्य बात है ममन्वय की, अर्थात् जब विवाह का उद्देश्य कामलालसा की निवृत्ति अर्थात् प्रांशिक ब्रह्मचर्य है तब पुत्रोत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन लेखकों ने क्यों किया ? नासमझ लोगों से तो क्या कहा जाय, परन्तु समझदार समझते हैं कि पुत्रोत्पत्तिका उल्लेख भी कामलालसा की निवृत्ति के लिये है । जैनधर्म प्रथम तो कहता है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालो। अगर इतना न हो सके तो विवाह करके आंशिक निवृत्ति (पग्दारनिवृत्ति) करी । परन्तु लक्ष्य तो पूर्ण निवृत्ति है इसलिये धीरे धीरे उसके निवृत्ति-अंश बढ़ाये जाते Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) हैं और उससे कहा जाना है कि तुम्हें सन्तान के लिये ही सम्भोग करना चाहिये । जब उसका यह बात समझ में श्रा जाती है तब वह ऋतुस्नान के दिन ही काम सेवन करता है । इस तरह प्रति मास २६ दिन उसक ब्रह्मचर्य से श्रीनने लगते हैं । श्राचार्यों ने परदारनिवृत्ति के बाद स्वस्त्री-सम्भोग-निवृत्ति का भी यथासाध्य विधान बनलाया है। इसलिये कहा है " सन्ता नार्थमृतावेव" । अर्थात् सन्तान के लिये ऋतुकालम हो सेवन करे । इससे पाठक समझ गये होंगे कि सन्तान की बात भी कामलालसा की निवृत्ति को बढाने के लिये है । श्राचार्यों ने जहां सन्तान के उत्पादन, लालन, पालन श्रादि की बातें लिखी है उसका प्रयोजन यही है कि "जब तुम आंशिक प्रवृत्ति और प्रांशिक निवृत्ति के मार्ग में आये हो तो परोपकार आदि गौण उद्देशों का भी खयाल रखो, क्योंकि ये कामलालसा की निवृत्ति रूप मुख्य उद्देश को बढ़ाने वाले हैं, साथ ही परोपकार रूप भी है ।" यदि अन्नप्राप्ति का मुख्य उद्देश्य सिद्ध हो गया है ता भी भूसा की प्राप्ति का गौण उहेश्य भी छोडने योग्य नहीं है । आक्षेप (थ) - कामलालसा की निवृत्ति तो वेश्यासेवन, परस्त्रीसेवन से भी हो सकती है, फिर विवाह की आवश्यकता ही क्या ? समाधान --- कामलालसा के जिस अंशकी निवृत्ति करना है, वह वेश्या सेवन और परस्त्रीसेवन ही हैं। इसी कामलालसा से बचने के लिये तो विवाह होता है। इससे विवाह का लक्ष्य श्रांशिक ब्रह्मचर्य या स्वदारसन्नोप कैसे सिद्ध हो सकता है ? इससे पाठक समझेंगे कि हमारे कथनानुसार विवाह मजे के लिये नहीं है, परन्तु तीव्र चारित्र मोह के उदय को शांत करने के लिये पेयोपधि के समान कुछ भोग भोगने पडते है जैसा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) कि अमृनचन्द्र श्राचार्य और आशाधरजी ने कहा है, जो कि हम लिख चुक है । स्त्रीपुरुष क अधिकार भेट के विषय में कहा जा चुका है। विधवाविवाह को जहर आदि कहना यक्ति से जीनने पर गालियों पर श्राजाना है। आक्षेप (द)-यदि विवाह से ही कामलालसा की निवृत्ति मानली जाय तो ब्रह्मचर्य प्रादि व्रतों की क्या आवश्यकता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य का भो नी काम की नियुत्ति के लिये उपदेश है? समाधान-अभी तक भार कामलालमा की निवृत्ति को बुरा समझने थे। इसके समर्थकों को आपने पागल, मोही, नित्यनिगांदिया (निगोदिया), ज्ञानी, रह, नाते पाटि लिख मारा था । यहाँ आपने इसे ब्रह्मचर्य का साध्य बना दिया है। संग, कुछ तो ठिकाने पर श्राए । अब उनना और समझ लीजिये कि विवाह, ब्रह्मचर्य मावत का मुख्य साधक है। इमलिये विवाह और ब्रह्मचर्यत्रत के लक्ष्य में कोई विरोध नहीं है । ब्रह्मचर्यवन अन्तरजसाधक है, विवाह वाघमाधक, इस लिये कोई निरर्थक नहीं है। एक साध्य के अनेक साधक होते है। आक्षेप (घ)-जिनकी कामलालसा प्रयल है, वे बिना उपदेश के ही स्वयमेव इस पथ को पकड लेनी हैं। फिर आप क्यों अपना अहित करते है ? समाधान-जिनकी कामलालसा प्रबल है, वे अभी खय. मेव विधवाविवाह के मार्ग को नहीं पकड़ती, वे व्यभिचार के मार्ग को पकडती है । उसको निवृत्ति के लिये विधवाविवाह के अान्दोलन की जरूरत है। विवाह न किया जाये नो कुमारियाँ भी अपना मार्ग हुँढ लेंगी, लेकिन वह व्यभिचार का मार्ग होगा । इसलिये लोग उनका विवाह कर देने हैं । फल यह Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) होता है कि व्यभिचार मार्ग बहुत कुछ रुक जाता हैं । ठीक यही बात विधवाओं के लिये है। दसवाँ प्रश्न 'क्या विधवा हो जाने से ही आजन्म ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति आजाती है ? इसके उत्तर में हमने कहा था कि 'नहीं'। दूसरे आक्षेपक (विद्यानन्द) ने भी हमारी यह बात स्वीकार करली है परन्तु पहिले आने पक कहते है कि यह धृष्टता है। इसका मतलब यह निकला कि संसार में जितनी विधवा हुई है वे सब व्यभिचारिणी है। श्राक्षपक की इस मूर्खता के लिये क्या कहा जाय ? प्रत्येक विधवा ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकती है-इसका तो यही अर्थ है कि कोई कोई पाल सकती है, जिनके परिणाम चिरक्तिरूप हो। इसलिये हमने लिखा था कि यह वात परिणामों के ऊपर निर्भर है । परन्तु श्रीलाल, न तो परिणामों की बात समझा, न उस वाक्य का मतलव । श्रीलाल यह भी कहता है-'सरागता से मुनि में भ्रष्टता नहीं आती, न पर पुरुष से रमणरूप भाव से विधवा भ्रष्ट होती है। हम अपने शब्दों में इसका उत्तर न देकर आक्षपक के परम सहयोगी प० मक्खनलाल के वाक्यों में लिखते हैं:. “सरागता से विधवाएं शीलभ्रष्ट जरूर कहलायेंगी। मुनि भी सरागता से भ्रष्ट माना जाता है ।" अब ये दोनों दोस्त आपस में निबट लें। दोनों ही श्राक्ष पकों ने एक ही बात पर विशेष जोर दिया है। "विधवाविवाह अधर्म है; उसको कोई तीसरा मार्ग नहीं है, विधवा का विवाह नहीं हो सकता, उसे विवाह नहीं, कराव या धरेजा कहते हैं । आप के पास क्या यक्ति प्रमाण है ? आप अपनी इच्छा से ही विधवाविवाह का उपदेश क्यों Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) करने हो?" श्रादि । इन सब बानों का उत्तर पहिले अच्छी नरह दिया जा चुका है। अब वारबार उत्तर देने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, अब दो श्राप रह जाते हैं जिनका उत्तर देना है। इनमें अन्य प्राक्षेपों का भी समावेश हो जाता है। आक्षेप (क) प्रत्येक मनुष्य में तो शराब के त्यागने की शक्ति का प्रगट होना भी अनिवार्य नहीं है नब क्या शराय पी लेना चाहिये ? समाधान-विधवाविवाह की जैसी और जिननी उपयो. गिता है वैसी यदि शगव की भी हो तो पी लेना चाहिये। (१) विधवाविवाह परस्त्रीसेवन या परपुरुषसेवन से बचाता है। इसलिये अणुवन का साधक है। क्या शराब अणुवन का साधक हैं ? (२) विधवाविवाह से भ्र राहत्या रुकती है। क्या शराब से भ्रण या कोई हत्या रुकनी है ? (३) जैनशास्त्रों में जैसे विधवाविवाह का निषेध नहीं पाया जाता, क्या वैमा शगव का निषेध नहीं पाया जाता? (४) पुरुषसमाज अपना पुनर्विवाह करती है और स्त्रियों को नहीं करने देना चाहती । क्या इसी तरह पुरुष समाज शराब पीती है और क्या स्त्रियों को नहीं पीने देना चाहती? (५) जिस विधवा के सन्तान न हो और उसे सन्तान की आवश्यकता हो तो उसे विधवाविवाह अनिवार्य है । क्या इसी तरह शराब भी किसी ऐसे कार्य के लिये अनिवार्य है ? (६) किसी को वैधव्य जीवन में आर्थिक कष्ट है, इसलिये विधवाविवाह करना चाहती है, क्या शराब भी आर्थिक कष्ट को दूर कर सकती है ? Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) (७) विधवाविवाह से जो सामाजिक और धार्मिक लाभ हमने सिद्ध किये हैं, क्या शगय से भी वे या वैसे लाम आप सिद्ध कर सकते हैं? . (0) विधवा जिस तरह हीन दृष्टि से देखी जाती है, क्या उसी तरह शगय न पीने वाले देखे जाते है ? यदि मद्यपान में लाभ हो तो जिसमें उसके त्याग करने की शक्ति नहीं है उसको उसश विधान किया जासकता है, अन्यथा नहीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रगट न होना विधवाविवाह का एक कारण है । जब तक अन्य कारण न मिले तब तक विधवाविवाह का विधान नहीं किया जाता है। उसके अन्य कारण मौजूद नहीं है इसीलिये उसका विधान किया गया है । आक्षेप (ख)-कार्यों की बहुतसी जातियाँ हैं-(१) मुनिधर्मविरुद्ध श्रावकानुरूप (२) गृहस्थविरुद्ध मुनिअनुरूप (३) उभयविरुद्ध (४) उभयअनुरूप । विवाह प्रथम भेद समाधान-विधवाविवाह भी विवाह है इसलिये वह मुनिधर्म के विरुद्ध होने पर भी श्रावकानुरूप है । श्राप विधुरविवाह को विवाह मानते और विधवाविवाह को विवाह नहीं मानते-यह बिलकुल पक्षपात और मिथ्यात्व है । हम पहिले विधवाविवाह को विवाह सिद्ध कर चुके हैं। बलाद्वैधव्य की शिक्षा जैनधर्म की शिक्षा नहीं हो सकती। आचार्यों ने विधवाविवाहका कहीं निषेध नहीं किया। हाँ, धूर्तता और मूर्खता पुराने जमाने में भी थी। सम्भव है आजकल के पण्डितों के समान कोई अज्ञानी और धूर्त हुश्रा हो और उसने जैनधर्म के विरुद्ध, जैनधर्म के नाम पर ही कुछ अंट संट लिख मारा हो। परन्तु ऐसी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) कुपुस्तकों को पुराने जमाने का जैनगज़ट ही समझना चाहिये। वास्तव में कोई जैन ग्रन्थ विधवाविवाह का विरोधी नहीं हो सकता और न कोई प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ है ही। नाना तरह की दीक्षाएँ जो शास्त्रों में पाई जाती है वे विशेष चूतियों के लिये ही है-माधारण अणुवतियों के लिये नहीं। वृद्धों को मुनि बनते न देखकर हम में चलमलिन आदि दोष कैसे पैदा होंगे? इससे तो यही सिद्ध होता है कि जब वृद्ध लोग बह्मचर्य से नहीं रह पाते और उनका ब्रह्मचर्य से न रहना इनना निश्चित है कि भठ्याहु ने पहिले से ही कह दिया है. तब विषयाएँ ब्रह्मचर्य से कैसे रहेंगी? मदयाहु श्रुतकेवली ने वृद्धों के मुनि न होने की विशेष बान तो कही, परन्तु विधवाओं के विवाह की विशेष वान न कही , इससे मालूम होता है कि विधवाविवाद प्राचीनकाल सं चला पाता है। यह काई ऐसी विशेष और अनुचित बान न थी जिसका कि चन्द्रगुप्त को दुस्वप्न होता और मढ़वाहु श्रुतफेवली उसका फल कहते । जो चाहे, जैसे चाहे, विचार करले, उसे स्वीकार करना पडेगा कि गृहस्यों के लिये जैनधर्म में विधवाविवाह विरोध की परमाणु बगवर मी गुमायश नहीं है। इस प्रश्न में यह पूछा गया है कि धर्मविरुद्ध कार्य किसी हालत में ( उमस बढ़कर धर्मविरुद्ध कार्य अनिवार्य होने पर) कर्तव्य हो सकता है या नहीं ? इसके उत्तर में हमने कहा था कि हो सकता है । यह यात अनेक उदाहरणों से भी समझाई थी। विधवाविवाह व्यभिचार है आदि बातों का उत्तर हम दे चुके है। आक्षेप (क)-जो कार्य धर्मविरुद्ध है, वह त्रिकाल में मी (कदापि) धर्मानुकूल नहीं हो सकता । पाँच पापों को धर्मानुकूल सिद्ध कीजिये । (श्रीलाल, विद्यानन्द) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) समाधान-यदि इस विषय में शास्त्रार्थ की दृष्टि से लिखा जाय नच तो जैसे को तैसा ही उत्तर दिया जासकता है। जेनशास्त्रों में नो किसी अपेक्षा से गधे के सींग का भी अस्तित्व सिद्ध किया गया है । परन्तु हमें पाठकों की जिज्ञासा का भी खयाल है इसलिये तदनुकूल ही उत्तर दिया जाना है। पॉच पापा में हिंसा मुख्य है । परन्तु द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा स वह धानुकून अर्थात् कर्तव्य हो जानो है । जैसे-युद्ध में हिंसा हाती है, परन्तु सीता की धर्मरक्षा के लिये रामचन्द्र ने अगणित प्राणियों की हिंमा गई । अणु. वती युद्ध में जाते है, ऐसा शास्त्रों में स्पष्ट कयन है । शूकरन मुनिको रक्षा करने के लिये सिंह को मार डाला और खुद भी मरा, पुण्यवय किया और स्वर्ग गया । मन्दिर बनवाने में नधा अन्य बहुत से परापकार के साम्म कार्यों में हिंसा हानी है परन्तु वह पुण्यबन्ध का कारण कही गई है। जिन अमृतचन्द्र श्राचार्य की दुहाई आक्षेपक ने दी है, वे ही कहते हैं अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजन भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजन न स्यात् ॥ कम्यापि दिशति हिना, हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यम्य सैव हिंसा दिशयहिंसाफल विफलम् ॥ हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिमा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा दिशयहिंसाफल नान्यत् ॥ एक आदमी हिंसा न करके भी हिंसामागी हाना है, दूसरा हिंसा करके भी हिंसाभागी नहीं होता । किसी की हिंसा, हिंसाफल देनी है, किसी की हिंसा, अहिंसाफत देती है। किसी की अहिंसा, हिंसा फल देती है किसी कि अहिंसा अहिंसाफल देती है। क्या इससे यह बात नहीं सिद्ध होनी कि कहीं हिंसा भी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) कर्तव्य हो जाती है और कहीं अहिंसा भी अनन्य हो जाती है ? अगछेदन पाप है परन्तु पालकों के कर्णलेट आदि में पाप नहीं माना जाता । किसी मती के पीछे कुछ मदमाश पड़े हों तो उसके सतीत्व की रक्षा के लिये झूठ बोलना या उसं छिपा लेना (चारी) भी अनुचित नहीं है । परविवाहकरण अणुव्रत का दूपण है परन्तु अपनी सन्तान का विवाह करना या व्यभिचार की तरफ झुक्ने वालों को विवाह का उपदेश देना पण नहीं है। परिग्रह पाप है परन्तु धोपकरणों का रखना पाप नहीं है । इस तरह पाँची ही पाप अपेक्षा भेद से कर्तव्याकर्तव्य रूप है। प्राक्षेपक एक तरफ तो यह कहते है कि धर्मविरुद्ध कार्य त्रिकाल में भी धर्मानुकुल नहीं हो सकता परन्तु मरी तरफ, त्रिकाल की बान जाने दीजिये एक ही काल में, कहने है कि पुनर्विवाह विधवा के लिये धर्मविरुद्ध है और विधुर के लिये धर्मानुकल है । क्या यहाँ पर एक ही कार्य द्रव्यादि चतुष्टय में से दृश्यअपेक्षा विविधरूप नहीं कहा गया है । ये ही लोग कहते है कि अष्टद्रव्य से जिनपूजन धर्म है, परन्तु भगी अगर: ऐना करे तो धर्म इव जायगा । यदि जिन पूजन किसी भी तरह श्रधर्म नहीं हो सकता तो भंगी के लिये धर्म क्यों हा जायगा ? मतलब यह है कि द्रव्य क्षेत्र काल मात्र की अपेक्षा लेकर एक कार्य को विविधरूप में ये खुद मानते हैं। इसीलिय सप्तम प्रतिमा के नीचे विवाह (मले ही वह विधवाविवाह हो) धर्मानुकूल है । बह्मचर्य प्रतिमा से लेकर यह धर्मविरुद्ध है। प्राक्षेप (ख)-विवाह क्रिया स्वय सदा सर्वदा सर्वथा धार्मिक ही है । हाँ! पात्र अपात्र के भेद से उसे धर्मः विरुद्ध कह दिया जाता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) समाधान-----जहाँ पात्र (द्रव्य ) अपान की अपेक्षा है वहाँ सर्वथा शब्द का प्रयोग नहीं होना है । सुधारक यही नो कहते है कि द्रव्य (पात्र) क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से किमी कार्य की धर्मानुकूलता या धर्मविरुद्धना का निर्णय करना चाहिये । इसलिये एक पात्र के लिये जो धर्मविरुद्ध है दूमरे के लिये वही धर्मानुकूल हो सकता है। ब्रह्मचर्य प्रनिमा धारण करने वाली विधवा का विवाह धर्मविरुद्ध है, अन्य विधवाओं को धर्मानुकूल है । यही तो पात्रादि की अपेक्षा है। आक्षेप (ग)- सव्यसाची ने विवाह को धर्मानुकूल अर्थात् धार्मिक तो मान लिया । सालभर पहिले तो उसे मामाजिक, सामाजिक चिल्लाते थे। समाधान-ब्रह्मचर्य प्रतिमा से नीचे कुमार कुमारी और विधवा विधुर के लिये विवाह धर्मानुकूल है-यह मैं सदा से कहता हूँ। परन्तु धर्मानुकुल और धार्मिक एक ही बात नहीं है । व्यापार करना, घूमना, भोजन करना, पेशाब करना आदि कार्य धर्मानुकूल ता है परन्तु धार्मिक नहीं है। धर्म का अङ्ग होना एक बात है और धर्ममार्ग में बाधक न होना दूसरी बात है। आक्षेप (घ)-बहुन अनर्थ को रोकने के लिये थोड़ा अनर्थ करने की आज्ञा जैनधर्म नहीं देता। + समाधान-मैं पहिले ही लिख चुका हूँ कि एक अनर्थ को रोकने के लिये दूसरा अनर्थ मत करो परन्तु महान अनर्थ रोकने के लिये अल्प अनर्थ कर सकते हो । व्यभिचार अनर्थ रोकने के लिये ही तो विवाह अनर्थ किया जाता है । जिनने प्रवृत्यात्मक कार्य है वे सब अनर्थ या पाप के अंश है। जब वे कार्य अधिक अनर्थों को रोकने वाले होते हे तय वे अनर्थ या पाप शब्द से नहीं कहे जाते । परन्तु है तो वे पाप Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) ही । साधारण पाप की नो बात ही क्या है परन्तु अणुव्रत नक पाप कहा जासकता है (अणुवन अर्थात् थोडा वन अर्थात् वाकी पाप) जब अणुवन की यह बात है नय श्रोगें की तो वान ही क्या है ? प्राणदण्ड सरीखा कार्य भी जैनसम्राटों ने अधिक अनर्थों को रोकने के लिये किया है । निर्विकल्प अवस्था के पहिले जितने कार्य है वे मब बहु अनधों को रोकने वाले थोडे अनर्थ ही है । प्रकृतवान यह है कि विधवाविवाह से व्यमि चार आदि अनर्थी का निगेध होता है इसलिये वह ग्राह्य है। आक्षेप (ङ)-जो पुण्य है वह मदा पुरय है। जो पाप है वह सदा पाप है। ममाधान-नव नो पुनर्विवाह, विधुगे के लिये अगर पुण्य है नो विधवाओं के लिये भो पुण्य कहलाया। आक्षेप (च)-वस्त्रीसेवन पाप नहीं, पुराय है । इसी. लिये वह खदारसंतोष अणुवन कहलाता है। समाधान-~म्बदारसंचन और स्वदारसंतोष में बड़ा अन्तर है । वदारसेवन में अम्बदारनिवृत्ति का भाव है। सेवन में सिर्फ प्रवृत्ति है । स्वदारसतोष, अणुव्रती का ही होगा। म्बदारलेवन नो अविग्न और मिथ्यात्वी भी कर सकता है। आक्षेप (छ)-पेनाभेट लगाकर तो श्राप सिद्धा की अपेक्षा स्नातकों (बहनों) को भी पापी कहेंगे। । समाधान–कुल श्रादि की अपेक्षा पुलाक आदि पापी कहे जासकते हैं क्योंकि पुलाक श्रादि में पाये हैं । कोई जीव तभी पापी कहला सकता है जब कि उसके कपाय हो। कपायरहिन जीव पापी नहीं कहलाता । अहन कषायानीत है। प्राक्षेप (ज)-यदि धर्मविरुद्ध कार्य भी ग्राह्य स्वीकार किये जॉय तब त्याज्य कौन से होंगे ? समाधान-धर्मविरुद्ध कार्य, जिस अपेक्षा से धर्मानु Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२) कुल सिद्ध होंगे उनी अपेक्षा से ग्राहा है। बाकी अपेक्षाओं से अग्राह्य । प्रत्येक पदार्थ के साथ सप्तभगी लगाई जामकती हैं। अगर नास्तिभंग लगाते समय कोई कहे कि प्रत्येक पदार्थ को यदि नास्तिरूप कहोगे तो अमितरूप किसे कहोगे? तव इसका उत्तर यही होगा कि अपेक्षान्तर से यही पदार्थ अग्निरूप भी होगा। इसी प्रकार एक कार्य किमी अपेक्षा से ग्राह्य, किसी अपेक्षा से अग्राहा है। जो लोग पूर्णब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते उनकी विधवाविवाह ग्राह्य है। पूर्ण ब्रह्मचारियों को अग्राह्य। बारहवाँ प्रश्न __ "छोटे छोटे दुधमुंहे बच्चों का विवाह धर्मविरुद्ध है या नहीं" ? इस प्रश्न के उत्तर में हमने ऐसे विवाह को धर्मविरुद्ध कहा था, क्योंकि उसमें विवाह का लक्षण नहीं जाना । जब वह विवाह ही नहीं तो उससे पैदा हुई सन्तान कर्ण के समान नाजायज कहलाई । इसलिये ऐसे नाममात्र के विवाह के हो जाने पर भी वास्तविक विवाह की आवश्यकता है। आक्षेप (क)-गद्गबाहुसहितामें लिखा है कि कन्या १२ की और वर सोलह वर्ष का होना चाहिये। इससे कम और अधिक विकार है । ( श्रीलाल ) समाधान-मद्रबाहु श्रुतक्वली थे । दिगम्बर सम्प्र. दाय में उनका बनाया हुआ कोई ग्रन्थ नहीं है। उनके दो हजार वर्ष बाद एक अज्ञानी धूर्त ने उनके नाम से एक जाली ग्रन्थ बनाया और उसपर भद्रबाहु की छाप लगादी । सैर, पुराणों में शायद ही कोई विवाह १२ वर्ष की उमर में किया हुआ मिलेगा। धर्मशास्त्र तो यह कहता है कि जितनी अधिक उमर तक ब्रह्मचर्य रहे उतना ही अच्छा । दूसरी बात यह है कि ठीक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) बारह वर्ष पूरे होने का नियम पल नहीं माना । ये पण्डित लोग शारदा बिल के विरोध में कहा करते हैं कि १४ वर्ष की उमर रक्खी जायगी ना साइन न मिलने से १७ वर्ष की उमर होजायगी । परन्तु चारह वर्षके नियम के अनुसार भी तो साइत न मिलने पर १५ वर्षकी उमर होजायगी। पुरुषों के लिये १६ वर्ष से ज़्यादा उमर में विवाह न करने का विधान किया जाय नो विधुर विवाह ओर बहुविवाह बन्द ही हाजायें, जिसके कि ये पण्डित हिमायनी है।। आक्षेप (ख) बालविवाह को धर्मविरुद्ध और नाजा. यज कगर देने से स्त्रियाँ छीनी जायेंगी (श्रीलाल) समाधान-त्रियाँ छीनी न जायँगी परन्तु उन दोनों को फिर सचा विवाह करना पड़ेगा। इससे कोई नाजायज विवाह (वालविवाह) के लिये प्रायोजन न करेगा। आक्षेप, ग)-अगर भूल से माता पिता ने बालविवाह कर दिया तो वह टूट नहीं सकता। भूल स विष दे दिया जाय नो भी मरना पड़ेगा, धन चोरी चला जाय तो बह गया ही कहलायगा (श्रीलाल) ममाधान-विप देने पर चिकित्सा के द्वाग उसे हटाने की चेता की जाती है। चोरी होने पर चोर को दण्ड देन की और माल बरामद करने की कोशिश की जाती है। बालविवाह हो जाने पर फिर विवाह करना मानो चोरी का माल बरामद करना है। आक्षेपक के उदाहरण हमारा ही पक्ष समर्थन करते हैं। आक्षेप (घ)-गांधर्व विवाह का उदाहरण यहां लागू नहीं होना क्योंकि यहाँ ब्राह्मविवाह का प्रकरण है । (श्रीलाल) समाधान-हमने कहा था कि विवाह में किसी खास विधिको आवश्यकता नहीं । गांधर्व विवाह में शास्त्रीय विधि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है फिर भी वह विवाह है । इस दाय का निवारण प्रान. पक न कर सका तो कहना है कि यह ब्राह्मविवाह का प्रकरण है । परन्तु हमाग कहना यह है कि ब्राह्मविवाह के अतिरिक्त बाकी विवाह, साक्षेपक के मतानुसार विवाह है कि नहीं? यदि वे विवाह हे और उनमें फिमी खाम विधिकी आवश्यकता नहीं है तो हमारा यह वक्तव्य निद्ध हो जाता है कि विवाह में किसी खास विधि की श्रावश्यकता नहीं है। आक्षेप (ड)-छोटी पायवाली. विवाहिता स्त्री से उत्पन्न सन्तान को वर्ण के नमान कहना उन्मत्त प्रलाप है। (श्रीलाल) ममाधान न्यायशास्त्र की वर्णमाला से शुन्य आक्षेपक को यहाँ समानता नहीं दीनती । यह उनकी मूर्खता केही अनुरूप है। कर्ण के जन्म में यदि कोई दोष था तो यही कि वे अविवाहिता की सन्तान थे। बालविवाह जब विवाद ही नहीं है तब उससे पैदा होने वाली सन्तान अविवाहिता की सन्तान कहलाई इसमें विषमता क्या है ? आक्षेष (च)-दुधमुहे का अर्थ विवाद के विषय में नासमझ करने से तो शङ्कराचार्य भी दुधमुहे व हलाये क्योंकि इसी चर्चा में वे मण्डन मिश्र की स्त्री से हार थे। अगर तत्कालीन समाज उनका विवाह कर देता तो श्रापकी नजर में नाजा यज होता। (विद्यानन्द) समाधान-अगर शङ्कराचार्य विवाह के विषय में कुछ नहीं जानते थे तो उनका विवाह हो ही नहीं सकता था। समाज जबर्दस्ती उनका विवाह कराने की चेष्टा करती तो वह विवाह तो नाजायज होता ही, साथ ही समाज को भी पाप लगता । विवाह के विषय में शङ्कराचार्य को दुधमुहा कहना अनुचित नहीं है। न्यायशास्त्र में 'वालानाम् बोधाय' को टीका Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५ ) में शाल शन्न का यही अर्थ किया जाता है कि जिसने व्याकरण काव्य कोपाटि नो पढ लिये परन्तु न्याय न पढा हो। इसी तरह विवाह के प्रकरण में मो समझना चाहिये । इस विषय में श्रानेपक ने शुरू में भी भूल खाई है । वास्तव में शङ्कराचार्य विवाह के विषय में अनमिन नहीं थे। वे कामशास्त्र में अनभित थे और इसी विषय में वे पराजित हुग थे। विवाह में कामवासना में और कामशास्त्र में घडा अंतर है। यह बान पाने एक को समझ लेना चाहिये। आक्षेप (छ)-पहिले गर्भस्य पुत्रपत्रियों के भी विवाह होते थे और वे नाजायज न माने जाते थे। विद्यानन्द) समाधान-उम आक्षेप से तीन याने ध्वनित होती है-(१) पुराने जमाने में आजकल की मानी हु विवाहविधि प्रचलित नहीं थी क्योंकि इन विवाहविधि में कन्या के द्वाग सिद्धमंत्र की स्थापना की जानी है, सप्तपदी होती है, तथा वर कन्या को और भी किया करनी पड़ती हे जो गर्भस्थ वरकन्या नहीं कर सस्ते । (२) गर्भ में अगर दोनों तरफ पुत्र हो और माता पिता के बचन ही विवाह माने जॉय और वे नाजायज़ न होन के नो पुत्र पुत्रों में भी विवाह कहलाया। अथवा यही कहना चाहिये कि वह विवाह नहीं था। माता पिना ने सिर्फ सम्भव होने पर विवाह होने की बात कही थी। (3) जब गर्भ में विवाह हो जाना था तय गर्भ में ही लडकी सधवा कहलायी। दुर्योधन और कृष्ण में भी ऐसी बात चीत हुई थी। दुर्योधन के पुत्री उदधिकुमागे हुई जो गर्भ में ही प्रद्युम्न की पत्नी कहलायी । परन्तु प्रद्युम्न का हरण हो गया था इसलिये मानुकुमार के साथ विवाह का आयोजन हुा । गर्भस्य विवाह को श्राक्षेपक नाजायज मानते नहीं है इसलिये यह उदधिकुमारी के पुनर्विवाह का आयोजन कह Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाया। इसलिये अब श्राक्षेपक को या नो बालविवाह नाजा. यज मानना चाहिये या स्त्री पुनर्विवाह जायज । चालविवाह को नाजायज सिद्ध करने में किमी ग्वाम प्रमाण के देने की जरुरत नहीं है । विवाह का लक्षण न जाने से ही वह नाजायज हो जाता है। प्राक्षप (ज)-श्राश्चर्य है कि कर्ण को श्राप वालविवाह की सन्तान कह कर नाजायज कह रहे है । वह नो गान्धर्व विवाह की सन्तान होने से नाजायज माना गया है। समाधान-कुछ उत्तर न सूझने पर अपनी तरफ से झूटी वात लिखकर उसका खण्डन करने लगना श्राक्षेपक की श्रादत मालुम होनी है, या आक्षेपक में हमारे वाश्य को समभने की योग्यता नहीं है। हमने कर्ण को अविवाहिता की सन्तान कहा है और बालविवाह में विवाह का लक्षण नहीं जाता इसलिये उसकी सन्तान भी अविवाहिता की सन्तान कहलायी । कर्ण में और बालविवाह की मन्तान में अविवा. हितजन्यना की अपेक्षा समानना हुई । इससे कर्ण को चाल. विवाह को सन्तान समझ लेना श्रादेषक की अक्ल की खूबी है। आक्षेपक को उपमा, उपमेय, उपमान समान धर्म का बिलकुल ज्ञान नहीं मालूम होता। कर्ण अगर. गान्धर्व विवाह की सन्तान होते तो उन्हें छिपाकर बहा देने की ज़रूरत न होती, अथवा पाँचों पॉडव भी नाजायज़ होते । अगर यह कहा जाय कि कर्ण जन्म के बाद कुन्ती का विवाह किया गया था तो मानना पड़ेगा कि कर्ण-जन्म के पहिले कुन्ती का गान्धर्वत्रिवाह नहीं हुआ, अथवा कर्ण जन्म के बाद उसका पुनर्विवाह हुश्रा और एक बच्चा पैदा करने पर भी वह कन्या कहलाई । अगर कन्या नहीं कहलाई तो विवाह कैसे हुआ? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) आक्षेप ( झ ) - विवाह का चारित्र मोहनीय के उदय के साथ न तो श्रन्वय हैं न व्यतिरेक । समाधान - यह वाक्य लिखकर श्राक्ष पक ने अकलङ्काचार्य का विरोध तो किया ही है साथ ही न्यायशास्त्र में प्रसा धारण अज्ञानता का परिचय भी दिया है । श्रक्ष ेपक अन्वय व्यतिरेक का स्वरूप ही नहीं समझता । कार्य कारण का जहाँ श्रविनागाव बतलाया जाता है वहाँ कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव नहीं बताया जाता किन्तु कार्य के सद्भाव में कारण का सद्भाव बतलाया जाता है । कारण मैं कार्य का सद्भाव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है | चारित्र 示 सद्भाव मोह के उदय ( कारण ) रहने पर विवाह ( कार्य ) हो सकता है और नहीं भी हो सकता। अर्थात् व्यभिचार वग़ैरह भी हो सकता है | परन्तु विवाह ( कार्य ) के सद्भाव में चारित्र मोह का उदय (कारण) तां अनिवार्य है । अगर वह न हो तो विवाह नहीं हो सकता । यह व्यतिरेक भी स्पष्ट ខ្ញុំ I 1 चारित्रमोह के उदय का फल सभोग क्रिया का ज्ञान नहीं है | ज्ञान तो ज्ञानावरण के क्षयोपशम का फल है | चारित्र मोहोदय तो कामलालसा पैदा करता है। अगर उसे परिमित करने के निमित्त मिल जाते है तो विवाह हो जाता है, अन्यथा व्यभिचार होता है। श्राक्ष पक ने यहाँ अपनी श्रादत के अनु सार अपनी तरफ से 'हो' जोड दिया है । अर्थात् 'चारित्र मोह का उदय ही' कहकर खण्डन किया है, जब कि हमने 'ही' का प्रयोग ही नहीं किया है। जब चारित्रमोह के उदय के साथ सद्य की बात भी कही है तब 'ही' शब्द को जबर्दस्ती घुसेडना बडी मागे धूर्तता हूँ । rasta ने सद्य और चारित्रमोह लिखा है । आक्षेपक ने उसका श्रमिप्राय निकाला है 'उपभोगान्तराय' । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८ ) क्या गजब का अभिप्राय है ! श्राक्षपक के ये शब्द बिलकुल उन्मत्त प्रलाप है -"विवाह साता-वेदनीय श्रोर उपमागान्त. राय के नयोपशम से होता है-चारित्रमाह के उदय से नहीं, इसीलिये उन्होंने चारित्रमोहोदयात् के पहिले सद्वेद्य पद डाल दिया है।" चारित्रमोह के पहिले सद्वेद्य पद डाल दिया, इससे एक के बदले में दो कारण होगये परन्तु चारित्रमोह का निषेध कैसे हो गया और उसका अर्थ उपभोगान्तगय कैस बन गया ? आक्षेप (अ)-विवाह का उपादान कारण चारित्रमोह का उदय नहीं है किन्तु वर वधु है । समाधान हमने वहाँ"चारित्रमोह के उदय से होने वाले रागपरिणाम" कहा है। यह परिणाम ही तो विवाह की पूर्व अवस्था है और पूर्व अवस्था को श्राप स्वयं उपादान कारण मानते हैं। विस्तृत कामवासना का परिचित कामवासना हो जाना ही विवाह है। आपने उपचार से परिणामी (घर कन्या) को उपादान कारण कह दिया है, परन्तु परिणाम के विना परिणामी वर कन्या नहीं हो सकते । बालविवाह में वर कन्या होते ही नहीं, दो बच्चे होते है 1 जब परिणाम नहीं तव परि. णामी कैसे ? यहाँ आक्षेपक अनिग्रह में अप्रतिमा नामक निग्रह कहकर निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान में जागिरा है। आक्षेप (2)-जब आप विवाह के लिये नियत विधि मानते हैं तब उसके बिना विवाह कैसा ? नियत विधि शब्दका कुछ ख़याल भी है या नहीं? समाधान-गांधर्वविवाह को श्राप विवाह मानते हो । श्रापकी दृष्टि में भले ही वह अधर्म विवाह हो, परन्तु है तो विवाह ही। इस विवाह में श्राप भी नियत विधि नहीं मानते फिर भी विवाह कहते हैं। दूसरी बात यह है कि किसी नियत Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) विधि का उपयोग करना न करना इच्छा के ऊपर निर्भर है। किसी एक नगर मे दमा नगर को यात्रा करने के लिये रेलगाड़ी चलती है । इस तरह यात्रियों के लिये रेलगाडी नियत करटी गई है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है । कि वहाँ मोटर से,घोड़ से या अपने पैगल यात्रा नहीं हो सकती। रेलगाडी को यात्रा के साधनों में मुख्यता मले ही देदी जाय परन्तु उन अनिवार्य नहीं कह सकते। इसी तरह नियत शास्त्रविधिको मले ही कोई मुख्य समझे परन्तु अनिवार्य नहीं कह सकते । अनिवार्य नो बारित्रमोह श्रादि ही है। रेलगाडी के अभाव में यात्रा के समान विवाह विधि के अभाव में भी विवाह हो सकता है। आक्षेप (8)-प्रद्युम्न को गांधर्व विवाह से पैदा हुआ कहना धृष्टता है। गांधर्व विवाहजान है कर्ण, इस से वे नाजायज़ है। समाधान-कर्ण के विषय में हम पहिले लिख चुके हैं और इस प्रश्न के श्राक्षप'च' के समाधान में भी लिख चुके है। कर्ण व्यभिचारजात हे गाधर्व विवाहोत्पन्न नहीं। रुक्मिणी का अगर गांधविवाह नहीं था तो बतलाना चाहिये कि कौन मा विवाह था । प्रारम्भ के चार विवाहों में श्राप लोग कन्या दान मानते है। रैवतकगिरि के ऊपर कन्यादान किसने किया था? वहाँ तो रुकमणो, कृष्ण और बलदेव के सिवाय और कोई नहीं था। गांधर्व विवाह में "स्वेच्छया अन्योन्यसम्बन्ध" होता है । रुक्मणी ने मी माता पिता आदि की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से सम्बन्ध किया था। गांधर्व विवाह व्यभिचार नहीं है जिससे प्रद्युम्न व्यभिचारजान कहला सके । यहाँ पर आक्षेपक अपने साथी आक्षेपक के साथ भी भिड़ गया है। विद्यानन्द कहते हैं---गांबविवाह, विवाहविधि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) शून्य अधर्म विवाह है इस से उत्पन्न संतान मोक्ष नही जा. सकती । जवकि श्रीलाल जी कहते है-"गांधर्व विवाह भी शास्त्रीय है अतः उससे उत्पन्न संतान क्यों न मोक्ष जाय। जय दो झूठे मिलते हैं तब इसी तरह परम्पर विरुद्ध वक्ते है। तेरहवाँ प्रश्न क्या सुधारक और क्या बिगाडक आजतक सभी घाल. विवाह को गुडा गुडी का खेल कहते रहे है । हमने ऐसे वर वधू को नाटकीय कहा है । ऐसी हालत में उसका वैधव्य भी नाटकीय रहेगा । वास्तव में तो वह कुमारी ही रहेगी। इस. लिये पत्नीत्व का जबतक अनुभव न हो तब तक वह पत्नी या विधवा नहीं कहला सकती। आपकों में इतनी अक्ल कहाँ कि वे पत्नीत्व के अनुभव में और लम्भाग के अनुभव में भेट समझ सके । पहिला साक्षेपक (श्रीलाल) कहता है कि सप्त. पदी हो जाने से ही विवाह होजाता है। परन्तु किसी बालिका से तोते की तरह सप्तपदी रटवा कर कहला देना या उस की तरफ से बोल देना ही तो सप्तपदी नहीं है। सप्तपदी का क्या मतलब है और उससे क्या जिम्मेदारी पा रही है इसका अनु. भव तो होना चाहिये । यही तो पत्नीत्व का अनुभव है । बालविवाह में यह बात ( यही सप्तपदी) नहीं हो सकती इसलिये उसके हो जाने पर भी न कोई पति पत्नी बनता है न विधवा विधुर । उपर्युक्त पत्नीत्व के अनुभव के बाद और सम्भोग के पहिले वर मर जाय तो वधू विधवा हो जायगी, और उसका विवाह पुनर्विवाह ही कहा जायगा। परन्तु नासमझ अवस्था में जो विवाहानाटक होता है उससे कोई पत्नी नहीं बनती। आक्षेप (क)-विवाह को स्थापना निक्षेपका विषय कहना सचमुच विद्वत्ता का नगा नाच है । तय तो व्यभिचार भी विवाह कहलायगा। (विद्यानन्द ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (१५१ ) समाधान--जहाँ विवाह का लक्षण नहीं जाना और फिर भी लोग विवाह की कल्पना करते हैं नो कहना ही पडेगा कि वह विवाह स्थापना निक्षेप से है, जैसे कि नाटक में स्थापना की जाती है। श्राक्ष पक का कहना है कि व्यमिचार में भी स्थापनानिक्षेप से परस्त्रो में म्बस्त्री की स्थापना करली जायगी। परन्तु यही वान नो हमाग पक्ष हैं । स्था. पना नो व्यभिचार में भी हो सकती हैं परन्तु व्यभिचारी वर बधू नहीं कहला सकते । इस तरह नासमझ बालक बालिकाओं में भी वर वधू की स्थापना हो सकती है परन्तु वे बाम्नव में वर वधू नहीं कहला मकने । चौदहवाँ प्रश्न इस प्रश्न में यह पूछा गया है कि पत्नी बनने के पहिले क्या कोई विधवा हो सकती है और व्रत ग्रहण करने में व्रती के भावों की ज़रूरत है या नहीं ? इसका मतलब यह है कि अाजकल विवाह नाटक के द्वाग बहुनसी बालिकाएँ पत्नी बना दी जाती है परन्तु वास्तव में वे पत्नी नहीं होनी । उनको (उम नाटकीय पति के मर जाने पर विधवा न कहना चाहिये । वन ग्रहण करने में भावों की जरूरत है। बालविवाह में विवाहानुकूल भाव ही नहीं होते। इसलिये उम विवाह से कोई किसी तरह की प्रतिक्षा में नहीं बँधता। श्रीलाल ने वे ही पुगनी याने ही है, जिसका धव (पनि) मर गया है वह विधवा अवश्य कही जायगी आदि । परन्तु यहाँ तो यह कहा गया है कि वह नाटकीय पनि वास्तविक पनि ही नहीं है। फिर उसका मग्ना क्या और जीना क्या ? उसका पनि क्या और पत्यन्नर क्या? आक्षेप (क)-आठ वर्ष की उमर में जब बन लिया Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२) जा सकता है तब ॥ या वर्ष की उमर में भावपूर्वक विवाह क्यो न माना जाने ? (श्रीलाल) समाधान-इमले मालूम होता है कि श्रापक आठ वर्ष से कम उमर के विवाह को अवश्य ही नाजायज समझना है। खैर, अब हम पूछते है कि जब पाठ वर्ष में व्रत ग्रहण किया जा सकता है तब पाने पक के मनगढन्त शान्त्रकारों ने विवाह के लिये बारह वर्ष की उमर क्यों रक्सी ? पाठ वर्ष की क्यों नहीं रखी ? इमले मालूम होता है कि माधारण व्रत ग्रहण करने की अपेक्षा वैवाहिक बन ग्रहण करने में विशेष योग्यता की आवश्यकता है। प्रार्थान् परिपुष्ट शरीर, गार्हस्थ्य जीवन के भार सम्हालने की योग्यता और हृदय में उठती हुई वह कामवासना जिसके नियमित करने के लिये विवाह श्राव. श्यक है, अवश्य होना चाहिये । अगर किसी अलाधारण व्यक्ति में आठवर्ष की उमर में ही ये बातें पाई जॉय तो वह चालविवाह न कहलायगा, और इन बातों न होने पर शिननी भी उमर में वह विवाह हो, वह नाजायज कहलायगा । भले ही तुम्हारे मनगढन्त शास्त्रकार १२ वर्प का गग प्रतापते रहें। एक बात यह भी है कि शास्त्रों में श्राठ वर्ष की उमर में व्रत ग्रहण करने की योग्यता का निर्देश है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि प्रत्येक अाठ वर्ष का चालक, मुनि या श्रावक के व्रत ग्रहण कर सकता है, या आठ वर्ष से अधिक उमर में व्रत ग्रहण करने वाला मनुष्य पापी हो जायगा। आठ वर्ष की उमर में केवलज्ञान तक बतलाया है परन्तु क्या इसी लिए हरएक आदमी का इस उमर में केवलज्ञानीत्व मनाया जाने लगे ? कहा जायगा कि अली उमर हो जाने से क्या होता है ? अन्य अन्तरङ्ग पहिरह निमित्त तो मिलना चाहिये । वसी विवाह के विषय में भी हमारा यही कहना Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) है कि अकेली उमर हो जाने से क्या होता है, उसके लिये अन्य अन्तरङ्ग eिrद्र निमित्त तो मिलना चाहिये । यदि विवाह के लिये वे निमित्त १४ वर्ष की उमर के पहिले नहीं मिलते तो उसक पहिले होने वाले विवाह ( नाटक) नाजायज है । इसलिये उन विवाहों के निमित्त से सवा विधवा शब्द का प्रयोग न करना चाहिये । आनंद ( ख ) - श्रमरोपकार ने पाणिगृहीती को पत्नी कहा है, इसलिये पाणिगृहोता बालिका चाहे वह १ वर्ष की न हो अवश्य ही पतिवियोग होने पर विवा कहलायगी | ( विद्यानन्द ) समाधान - पाणिगृहीती का अगर शब्दार्थ ही लिया जाय तब तो विवाह नाटक के पहिले ही वे वा विधवा कहलाने लगेगी क्योंकि छोटी २ वास्तिकाओं के हाथ चार्य, भाई और पड़ोसियों के द्वारा पकड़े ही जाया करते हैं। अगर पाणिगृहीनी का मतलय विवाहिता है तो माता पिता के द्वारा किसी से हाथ पकडा देने ही से बालविवाहिता नहीं कही जामस्ती है। इसीलिये एक वर्ष की बालिका किसी भी हालत में विधवा या सधवा नहीं कहला सकती । विधवाविवाह, धार्मिक दृष्टि से व्यभिचार है-इस बात का उत्तर पहिले अच्छी तरह अनेक बार दिया जा चुका है । श्रक्षेप ( ग ) - ग्रहण करने में व्रतीके भावोंकी जरू रत है भी और नहीं भी है। छः वर्ष के बच्चे को पानी छान कर पीने का न दिला दिया श्रीर तीस वर्ष के आदमी ने बन नहीं लिया। इनमें कौन अच्छा है ? क्या उस बच्चे का पुरायबन्ध न होगा ? समाधान - श्राक्ष पक ने 'धनग्रहण करने में भावों की Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) जरुरत नहीं है। इसके लिये काई शास्त्रीय प्रमाण नहीं दिया । छः वर्ष का बच्चा अगर कोई अच्छी क्रिया करना है तो क्या श्राक्षेपक के मनानुनार वह बनी है ? क्या प्राचार्यों का यह लिखना कि आठ वर्ष से कम उम्र में व्रत नहीं हो सकता झूठ है ? या प्रक्षेपक ही जैनधर्म में अनभिजा है ? छोटे यो में भी कुछ भाव तो होने ही है जिसमें वह पुरायवन्ध या . पापबन्ध करता है । जब पकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय श्रादि जोत्र भावरहित नहीं हैं नव यह नो मनुष्य है । परन्तु यहाँ प्रश्न तो यह है कि उसके भाव, व्रनग्रहण करने के लायक होने हैं या नहीं? अर्थात् उसके वे कार्य नरूप है या नहीं ? हो सकता है कि बह नीम वर्ष के श्रादमी से भी अच्छा हो, परन्तु इममें वह वती नहीं कहला मकता । कल्याणमन्दिर का जो वाक्य ( यस्माक्रिया प्रनिफलन्ति न मावशन्याः ) हमने उधृत किया है उसके पीछे समस्त जनशाला का बल है। वह हर नगह की परीक्षा से सोरञ्च का उतरना है । श्राक्षपक हमें सिद्धसन के सदभिप्राय से अनभिन बतलाने है परन्तु वास्तव में श्राक्ष पक ने म्बय कल्याणमन्दिर और विधापहार के श्लोकों का भाव नहीं समझा है । दोनों श्लोकों के मार्मिक विवेचन से एक स्वतन्त्र लख हो जायगा। वास्तव में सिद्ध. सेन का श्लोक भक्तिमार्ग की नग्फ प्ररणा नहीं करता किन्नु पण्डित धनञ्जय का श्लोक भक्तिमार्ग की तरफ़ प्रेरणा करता है । उनका मतलब है कि बिना भाव के भी अगर लोग भगवान को नमस्कार करेंगे तो सुधर जायेंगे । मिद्धसेन का श्लोक ऐसी मक्ति को निरर्थक बतलाता है। सिद्धसेन कहते हैं ऐसी भावशून्य भक्ति तो हज़ारो बार की है परन्तु उसका कुछ फल नहीं हश्रा। सिद्धसेन के श्लोक में तथ्य है, वह समझदागे के लिये है और धनञ्जय के श्लोक में फुसलाना है । वह Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) ( अज्ञानी) के लिये है। बच्चों को फुसलाने की बातों को जैन सिद्धान्त के समझने की कुञ्जी समझना मूर्खना है । श्राजकल शायद ही किसी ने भावशून्य क्रिया को व्रत कहने की धृष्टता की हो। जो धर्म शुल्कलेश्याधारी नवमचेयक जाने वाले मुनि को भी ( मावशुन्य होने से ) मिथ्यादृप्रि कहता है, उसमें भावशून्य क्रिया से नून बतलाना श्रन्नव्य अपराध है 1 आक्षेप (व) - यद्यपि समन्तभद्र स्वामी ने श्रभिप्राय पूर्वक त्याग करना व्रत कहा है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि बाल्यावस्था में दिलाए गये नियम उपनियम सब शास्त्रविरुद्ध है । बाल्यावस्था में दिये गये वूत की अक्लङ्क ने जीवन भर पाना । ( विद्यानन्द ) समाधान -- समन्तभद्र के द्वारा कहे गये वून का लक्षण जानते हुए भी श्रक्षेपक समझते हैं कि बिना भाव के चून ग्रहण हो सकता है। इसका मतलब यह है कि वे जाति स्वभाव के अनुसार जैनधर्म और समन्तभद्र के विद्रोही है या अपना काम बनाने के लिये जैनी वेष धारण किया है। खैर, बाल्यावस्या के नियम शास्त्रविरुद्ध मले ही न हो परन्तु वे चूतरूप अवश्य ही नहीं है । कलङ्क के उदाहरण पर तो श्राक्षे पक ने जग भी विचार नहीं किया । श्रकलङ्क अपने पिता से कहने है कि जब भापने व्रन लेने की बात कही थी तब वह वृत आठ दिन के लिये थोडे ही लिया था, हमने तो जन्मभर के लिये लिया था । इससे साफ मालूम होता है कि व्रत लेते समय कतक की उमर इतनी छोटी नहीं थी कि वून न लिया जा सके | उनने भावपूर्वक वून लिया था और उसके महत्व की और उत्तरदायित्व को समझा था । क्या यही भावशून्य घुन का उदाहरण है ? 1 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) आक्षेप (3)-धून हा प्रकार के है-निवृत्तिरूप, प्रय. त्तिरूप । शुभकर्म में प्रवृत्ति करना भी चूत है । यद्यपि यश्चों की शुभकर्म की प्रवृत्ति में काई भाव नहीं रहता. फिर भी वे वती कहे जा सकते है । (विद्यानन्द) समाधान-जब कि वून भावपूर्वक होने है तब वनों के भेद भावशून्य नहीं हो सकते । जीव का लक्षण चेतना, उसके सव भेट प्रभेदों में अवश्य जायगा । जीव के प्रभेद यदि जलचर, थलचर, नभचर है तो इससे नौका, रेलगाही या वायुयान, जीव नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें जीव का लक्षण नहीं जाता । इसलिये भावशून्य कोई कार्य वून का भेद नहीं कहला सकना । जो फल फूल या जल भगवान को चढ़ाया जाता है क्या वह व्रती कहलाता है ? यदि नहीं, तो इसका कारण क्या भावशन्यता नहीं है ? क्या भावशन्य जिनदर्शनादि कार्यों को न कहन वाला एकाध प्रमाण भी आप दे सकते हैं? आक्षेप (च)-सम्कारों को अनावश्यक कहना जैन सिद्धान्त के मर्म को नहीं समझना है । इधर आप संस्कारों से योग्यता पैदा करने की बात भी कहते हैं। ऐसा परस्पर विरुद्ध क्यों कहते हैं ? (विद्यानन्द) __ समाधान-बूत और सस्कारों को एक समझ कर श्राक्षेपक के गुरु ने घार मूर्खता का परिचय दिया था। हमने दोनों का भेद समझाया था जो कि अब शिष्य ने स्वीकार कर लिया है। व्रत और सस्कार जुदे जुदे हैं इसलिये वे 'संस्कार अनावश्यक हैं। यह अर्थ कहाँ से निकल आया, जिससे पर• स्परविरोध कहा जासके ? श्रापक या उसके गुरु का कहना नो यह है कि "कि बाल्यावस्था में भी सस्कार होते है इसलिये वत कहलाया" । इसो मूर्खता को हटाने के लिये हमने Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७) कहा था कि "सम्कार से हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव प्रायः दमरों के द्वाग डाला जाता है, परन्तु चून दूमगे के द्वारा नहीं लिया जा सकता। संस्कार नो पात्र में श्रद्धा, समझ और त्याग के बिना भी डाले जासकते है परन्तु वन में इन तीनों को अत्यन्त आवश्यकता रहनी है" । जब चूत और संस्कार का भेद इतना स्पष्ट है नव बाल्यावस्था में स. कारो अस्तित्व बनलाकर वन का अस्तित्व बतलाना मूर्यता और धोखा नहीं ना क्या है ? सरकार श्रावश्यक भले ही हो परन्तु वे वन के भेद नहीं हैं। आक्षेप(छ)-शुभ कार्य दसगे के द्वारा भी कराये जा सकते हैं, और उनका फल भी पूरा पूरी होता है । शुभ कार्य में जयग्न प्रवृत्ति कगना अधर्म नहीं है। हाँ, यदि कोई विधवा कह कि मैं नो वैधव्य नहीं लूंगी तब उस पर जबर्दस्तो वैधव्य का 'टीका' मढ़ना भी उचित नहीं है । यदि कोई विधवा कहे कि मेग विवाह ग दो नो वह भी श्रागमविरुद्ध है। समाधान-शुभ कार्य कराये जा सकते है । जो करा. यगा उसे कदाचित् पुण्ययन्ध भी हो सकता है। परन्तु इससे यह कहाँ सिद्ध हुआ कि जिमसे क्रिया कराई जा रही है वह भावपूर्वक नहीं कर रहा है। यदि कोई कगना है और कोई भावपूर्वक करता है तो उसे पुरायबन्ध क्यों न होगा ? परन्तु यह पुग्यबन्ध भावपूर्वकना का है। ऊपर भी इस प्रश्नका उत्तर दिया जा चुका है। आप स्वीकार करते है कि अनिच्छापूर्वक वैधव्य का टीका न मढना चाहिये । सुधारक भी इससे ज्यादा और क्या कहते हैं ? जब उसे वैधव्य का टोका नहीं लगा तो वह आगमविरुद्ध क्यों ? Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) पन्द्रहवाँ प्रश्न | १२, १३, १४ र १५ प्रश्न बालविवाहचिपक है । इस में वालविवाह का नाजायज विवाह सिद्ध किया गया है। जो लोग सम्यग्दृष्टि है तो विधवाविवाह के विरोधी क्यों होंगे, परन्तु जो लोग मिथ्यात्व के कारण से विधवाविवाहा ठीक नहीं समझते उन्हें चाहिये कि बालविधवा कहलाती हुई स्त्रियों के विवाह को स्वीकार करें क्योंकि बालविधवा वास्तविक विधवा नहीं है। पकवार न्यायशास्त्र के एक सुप्र सिद्ध आचार्य ने ( जो कि दिगम्बर जैन कहलाने पर भी तीव्र मिथ्यात्व के उदयसे या अन्य किसी लौकिक कारणले विधवाfare के विरोधी बन गये हैं) कहा था कि तुम बड़े मूर्ख हो जो बालविधवाओं को भी विधवा कहते हो। इसी तरह एकवार गोपालदास जी के मुख्य शिष्य और धर्मशास्त्र के बडे भारी विद्वान् कहलाने वाले परिडन जी ने भी कहा था कि 'अक्षतयोनि विधवाओं के विवाह में ना कोई दोष नहीं है' | यहाँ पर भी वालविवाह के विषय में चम्पतराय जी साहब ने जो तनकियों उठाई है उनके उत्तरों से यही बात साबित होती है । विवाह का सम्बन्ध ब्रह्मचर्याशुवत से है। जिनका चाल्यावस्था में विवाह होगया वे ब्रह्मचर्याशुव्रत वाली कैसे कहला सकती हैं ? इसलिये उनका विवाहाधिकार तो कुमारी के समान ही रक्षित है । अगर वे महावून या सप्तम प्रतिमा धारण करें तब तो ठीक, नहीं तो उन्हें विवाह कर लेना चाहिये । यद्यपि हम कह चुके हैं कि बालविधवाएँ विधवा नहीं हैं परन्तु कोई विधवा हो या विधुर, कुमार हो या कुमारी, अगर वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा या महाव्रत ग्रहण नहीं करता तो विवाह की इच्छा करने पर विवाह कर लेना अधर्म नहीं है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) आक्षेप (क) प्रश्नकर्त्ता का प्रश्न समझ कर तो उत्तर देते। जो मनुष्य प्रवर्गावन धारण नहीं करना उसका विवाह करके क्या ? वह तो माता बहिन को स्त्रो समझता है । (श्रीलाल ) समाधान- हमारे उपयुक्त वक्तव्यको पढ़कर पाठक दी विचारों कि प्रश्न कौन नहीं समझा है। जिसने ब्रह्मचर्यणुबन नहीं लिया है, उसे श्रवून देने के लिये ही ती विवाह है। इस यापक ने विवाद को ब्रह्मचर्यधून रूप माना है । यहाँ कहना है कि ब्रह्मचर्यवून रहिन का विवाह क्यों करना श्रर्थात् ब्रह्मचर्यवून क्यों देना ? मतलब यह कि प्रवृतीको चुन देना निरर्थक है ! कैसा पागलपन है ! · आक्षेप (ख) क्या दीक्षा और विवाह यही दो श्रव साएँ हो सकती है । ( विद्यानन्द ) समाधान - जो दीक्षा नहीं लेता और विवाह भी नहीं करना उससे कोई जबर्दस्ती नहीं करना । परन्तु उसे विवाह करने का अधिकार है। अधिकार का उपयोग करना न करना उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। उपयोग करने से वह पापी न कहा जायगा । आक्षेप (ग) जब श्राप विबुर विधवा श्रादि जिल किसी को विवाह करने का अधिकार देने है तब तो एक वर्ष की अबोध बच्ची भी विवाह करावें । आपने नी बाल, वृद्ध, अनमेल विवाह की भी पीठ ठोकी । ( विद्यानन्द ) समाधान - उससे तो यह बात कही गई है कि वैधव्य, विवाह में बाधक नहीं है ११ वर्ष की बची का विवाह तो हा ही नहीं सकता यह हम अनेक बार कह चुके है । बालविवाह का जैनधर्म और हम विवाह ही नहीं मानते हैं । विवाह के अन्य अन्तर बहिर निमित्त मिल जाने पर कोई भी विवाह कर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) सकता है। हमाग कहना तो यह है कि वैधव्य उसका बाधक नहीं है। सोलहवाँ प्रश्न "जिसका गर्भाशय गर्भधारण के योग्य नहीं हुआ उम को गर्भ रह जाने से प्रायः मृत्यु का कारण होजाता है या नहीं ?" इस प्रश्न के उत्तर में वैद्यक शास्त्र के अनुसार उत्तर दिया गया था। पाक्षेपकों को भी यह बात मंजूर है । परन्तु उसके लिये १६ वर्ष की अवस्था की बात नहीं कहते । आक्षेपकों ने इसपर ज़ोर नहीं दिया। हम अपने मूल लेख में जो कुछ लिख चुके है उससे ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं है। आक्षेप (क)-सन्तानोत्पादन के लिये हरपुष्टना की । आवश्यकता है, उमर की नहीं। (श्रीलाल, विद्यानन्द) समाधान-सन्तानोत्पादन के लिये हरपुस्ताकी आव. श्यकता है और हण्पुरता के लिये उमर की श्रावश्यकता है। हॉ, यह बात ठीक है कि उमर के साथ अन्य कारण भी चाहिये। जिनके अन्य कारण बहुत प्रबल हो जाते हैं उनके एक दो वर्ष पहिले भी गर्भ रह जाता है, परन्तु इससे उमर का बन्धन अनावश्यक नहीं होना, क्योंकि ऐसी घटनाएँ लाख में एकाध ही होती है। श्रीलाल स्वीकार करते है कि कई लोग २०-२४ वर्ष तक भी सन्तानोत्पत्ति के योग्य नहीं होते । यदि यह ठीक है तो श्रीलाल को स्वीकार करना चाहिये कि १२ वर्ष की उमर में विवाह का नियम बनाना या रजस्वला होने के पहिले विवाह कर देना अनुचित है । यदि विवाह और सन्तानोत्पा. दन के लिये हृष्टपुटता का नियम रक्खा जाय तव १२ वर्ष का नियम टूट जाता है और बालविवाह मृत्यु का कारण है यह बात सिद्ध हो जाती है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१) सत्रहवाँ प्रश्न "पाँच लाग्न औरतों में एक लान नेतालीस हजार विधवा या शोमा का कारण है ?" इसके उत्तर में हमन कहा था कि--"वैधव्य में जहाँ त्याग है वहाँ शोभा है अन्यथा नहीं। जहाँ पुनर्विवाहका अधिकार नहीं, वहाँ उमका त्याग हो क्या?" इस प्रश्न का उत्तर प्राक्षा नहीं दे सके हैं। श्री लालजी नो नगाक की बात उठा कर गुगेप के नायदान मूंघने लग लय है। 'विधवाविवाह घाली ऊँची नहीं हो सकती' उम आर्यिका बनने का अधिकार नहीं, आदि वाक्यों में कोई प्रमाण नहीं है। हम इसका पहिले विवेचन कर चुके है । आगे भो करेंगे। आक्षेप (क)-विधवा गृहस्थ है, इमलिये यह सौभाग्यवतियों से पूज्य नहीं हो पाती। समाधान-गृहम्य तो प्रत्मचर्यप्रतिमाधारी भी है। फिर भी माधारण लोगों की अपेक्षा उम्मका विशेष सन्मान होता है। इसी प्रकार विधवाओं का भी होना चाहिये, परन्तु नहीं होनामका कारण यही है कि उनका वैव्य त्यागरूप नहीं है। अगर कोई विधुर विवाहयोग्य होने और विवाह के निमित्त मिलने पर भी विवाह नहीं करता तो वह प्रशमनीय होता है। इसी प्रकार पुनर्विवाह न करने वालो विधवा भी प्रशं. मापात्र हो सकती है अगर उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार हो और वे विवाह योग्य हो तो । हाँ, उन, विधुगें की प्रशसा नहीं होती जो चार पॉच बार नक विवाद कग चुकं दे अथवा विवाह की कोशिश करते २.अन्नमें 'अगूर रहे है' की कहाचत चरितार्थ करते हुए, अन्त में ब्रह्मचारी परिग्रहत्यागी श्रादि चन गये है । विवाह की पूर्ण सामग्री मिल जाने पर भी जो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) विवाह नहीं करते वे ही प्रशसनीय हैं चाहे वे विधुर हो या विधवा। आक्षेप (ख)-पुनर्विवाह वाली जातियों में वैधव्य शोभा का कारण है। क्या इससे सिद्ध नहीं होना कि पुनर्विवाह न करने वाली शोभा का कारण और करने वाली अशाभा का कारण है, ? (विद्यानन्द) समाधान-उपवास और भूखे मरने का वाह्यरूप एकसा मालूम होता है, परन्तु दोनों में महान् अन्तर हैं । उपवाम स्वेच्छापूर्वक है, इसलिये त्याग है, तप है । भूखों मरना. विवशता से है इसलिये वह नारको नोखा सक्लेश है। एक समाज ऐसी हैं जहाँ खान की स्वतन्त्रता है। एक ऐसी है जहाँ सभी को भूखों मरना पड़ता है । पहिलो समाज में जो उप वास करते हैं वे प्रशमनीय होते हैं, परन्तु इमीलिये भूखों मरने वाली समाज प्रशमनीय नहीं कही जासकती, फिर ऐसी हालत में जव कि भूखों मरने वाले चुग चुग कर खाते हो। पुनर्विवाह करने वाली जातिमें वैधव्य प्रशंसनीय है क्योंकि उस में प्राप्य भागोंका त्याग किया जाना है. पुनर्विवाहशुन्य समाज में ऐमी चीज़ों का त्याग कहा जाता है जा अप्राप्य हैं। तब तो गधे के सींग का त्यागी भी वडा त्यागी कहा जायगा । जिन जातियों में पुनर्विवाह नहीं होना उनकी सभी स्त्रियाँ (भले ही वे विधवा हो) पुनर्विवाह कराने वाली स्त्रियों से नीची हैं क्योंकि नपुसक के वाह्य ब्रह्मचर्य के समान उनके वैधव्य का काई मूल्य नहीं है। सारांश यह कि पुनर्विवाह वाली जातियों की विधवाओं का स्थान पहिला हैं (उपवासी के समान); पनर्विवाहिताओं का स्थान दूसग है ( सयताहारी के समान) पुनर्विवाहशून्य जाति की विधवाओं का स्थान तीसरा है (भूतों मरने वालों के समान)। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १.६३) आक्षेप (ग)-विधुर और विधवानों का अगर एकसा इलाज हो तो दोनों को शास्त्रकारों ने ममान प्राशा क्यों नहीं दी ? (विद्यानन्द) समाधान-जैनधर्म ने दोनों को समान प्रामा दी है। इस विषय पहिले चिन्ताग्मे लिखा जा चुका है। देखो''। आलेप (घ)-त्रीपर्याय पुरुषपर्याय से निध है। इस लिये जो विधवाएं पुरुषों के नमान पुनर्विवाह का अधिकार चाहती हैं, वे पहिले पुरुष यनने के कार्य मंयमादिक पालन पुरुष बनलें। बाद में पुरुषों के ममान पुनर्विवाह की अधिकारी बने । (विद्यानन्द) ममाधान-अगर यह कहा जाय कि "भाग्नवामी निंद्य हैं इसलिये अगर ये बगस्य चाहते हैं नो अग्रेजों की निम्बार्थ सेवा करके पुगय कमायें और मरकर अग्रेजों के घर जन्म न" तो यह जैसी मूर्खना कहलायगी इसी तरह की मीना पानेरक बनाव्य में है । वनमान विधवा अगर मर के पुरुष न जायेंगी तो क्या परलोक में विधवा बनने के लिये पण्डित लोग अवतार लेंगे? क्या फिर विधवा न रहेंगी ? क्या इममे विधवानों की ममम्या हान हो जायेगी ? क्या भ्रूणहन्याएँ न होगी ? क्या विपत्तिग्रस्त लोगों की चिपत्ति दूर करने का यही उपाय है कि पारलौकिक सम्पत्ति की झूठी श्राशा से उन्हें मग्नं दिया जाय?वर, जिन विधवाओं में ब्रह्म चर्य परिणाम है वे तो पुगयोपार्जन करेंगी परन्तु जो विधचा मटा मानमिक मोर शारीरिक व्यभिचार करती रहती है, भागों के अभाव में दिनगन गनी है और हाय हाय करती है, वे क्या पुगयांपार्जन करेंगी? दुःत्री जीवन व्यतीत करने से ही क्या पुगयबन्ध हो जाता है ? यदि हाँ, नव मानवे नरक के नारकी को सय से बडा नएम्बी कहना चाहिये । यदि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) नहीं, तो वर्तमान का वैधव्य जीवन पुरायोपार्जक नहीं कहला मकता । अठारहवाँ प्रश्न इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि जैनसमाज की सख्या घटने से समाज की हानि है या लाभ ? हमने संख्याघटी की बात का समर्थन करके समाज की हानि बनलाई थी। श्री लाल तो गवर्नमेन्ट की रिपोर्ट का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते । किम्वदन्ती के अनुसार कुम्भकर्ण ६ महीने सोना था, परन्तु हमारा यह प्रक्षेपक कुम्भकर्ण का भी कुम्भकर्ण निकत्ता । यह जन्म से लेकर वुढापे तक मो ही रहा है। खैर, विद्यानन्द ने सख्याघटी की बात स्वीकार करती है । दोनों श्राक्षेपकों का कहना है कि सख्या घटती है घटने दो, जानि रसातल जाती है जाने दो, परन्तु धर्म को बचाओ ! विधवाविवाह धर्म है कि अधर्म - इस बात की यहाँ चर्चा नहीं है। प्रश्न यह है कि संख्या घटने से हानि है या नहीं ? यदि है तो उसे हटाना चाहिये या नहीं ? हरएक विचारशील आदमी कहेगा कि सख्याघटी रोकना चाहिये। जब विधवाविवाह धर्मानुकुल है और उससे सख्या बढ़ सकती है तो उस उपाय को काम में लाना चाहिये | आक्षेप ( क ) - जैनी लोग पापी होगये इसलिये उनकी सख्या घट रही है । समाधान-बान बिलकुल ठीक हैं। सैकड़ों वर्षों से जैनियों में पुरुषत्व का मद बढ रहा है । इस समाज के पुरुष स्वय तो पुनर्विवाह करते हैं, और स्त्रियों को रोकते हैं, यह श्रत्याचार, पक्षपात क्या कम पाप है ? इसी पाप के फल से इनकी संख्या घट रही है । पूजा न करने आदि से सख्या घटती तो म्लेच्छों की सख्या न बढना चाहिये थी । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) आक्षेप (प)-मुसलमान लोग तो इमलिये यढ रहे हैं कि उन्हें नरक जाना है। और इस निकृष्ट काल में नरक जाने वालों की अधिकता होगी। ( श्रीलाल ) ममाधान-श्राप कह चुके हैं कि जैनियों में पापी हो गये इमलिये सरया घटी। परन्तु इस घनत्य से नो ग्रह मालूम होना है कि जैनियों की सरया पाप में बढ़ना चाहिये जिममें नरमगामी श्रादमी मिल मके। इस नरक केन ने यह भी स्वीकार किया है कि "नीच काम करने से नीत्र को जिनना पाप लगता है उसमें कई गुणा पाप उच्च को लगता है", अर्थात् जैनियों को ज्यादा पाप लगता है। इस सिद्धान्त के अनुमार भी जैनियों की संरया पढना चाहिये क्योंकि इस ममाज में पैदा होने में न पाप लगेगा और नरक जल्दी भरेगा। एक नरफ पाप में मंग्या की घटो बनलाना और दूसरी तरफ पार म संख्या की वृद्धि पतलाना विचित्र पागलपन है। श्राक्षेप (ग)-विधवाविवाह आदि ने, लंग हैजा आदि में समाज का सफाचट हो जायगा । (श्रीलाल) समाधान-विधवाविवाह में मफाचट होगा इसका उत्तर नो यारोप अमेरिका आदि की परिधिनि दंगो । परन्तु विधवाविवाह न होन म जनममाज मफाचट हो रही है यह तो प्रगट ही है। याक्षेप (घ)--समाज न रहने का डर वृथा है। जेन. धर्म तो पंचमकाल के अन्त तक रहेगा। (श्रीलाल) समाधान-विधवाविवाह के न होने में सख्या घट रही है । जैनियों को जिन जातियों में पुनर्विवाह है उनमें संरया नहीं घट रही है। अगर पुनर्विवाह का रिवाज चाल न होगा तो संख्या नष्ट हो जायगी। परन्तु जैनधर्म का इतना हाम नो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) नहीं हो सकता इमसे सिद्ध है कि विधवाविवाह का प्रचार जरूर होकर रहेगा । अथवा जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है वे ही जातियाँ अन्त तक रहेंगी रही चिन्ता की बात सो जो पुरुष है उसे तो पुरुषार्थ पर ही नजर रखना चाहिये । कोगे भवितव्यता के भरोसे पर बैठकर प्रयत्न से उदासीन न होना चाहिये। तीर्थकर अवश्य मोक्षगामी होते हैं फिर भी उन्हें मोक्ष के लिये प्रयत्न करना पड़ता है। इसी तरह जैनधर्म पंचमकाल के अन्त तक अवश्य रहेगा परन्तु उसे तब तक रहने के लिये विधवाविवाह का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। यह छूताछूतविचार का प्रकरण नहीं है । इसका विवे. चन कुछ हो चुका है। बहुत कुछ आगे भी होगा। आक्षेप (ङ)-विधवाविवाह से तो बचे खुचे जैनी नास्तिक हो जायेंगे, कौडी के तीन तीन विकेंगे। जैनधर्म यह नहीं चाहता कि उसमें संख्यावृद्धि के नाम पर कूडाकचरा भर जाय । (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपक कूड़ाकचग का विरोधी है परन्तु विधवाविवाह वालों को कूडाकचरा तभी कहा जासकता है जब विधवाविवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । पूर्वोक्त प्रमाणों से विधवाविवाह धर्मानुकूल सिद्ध है इसलिये आक्षेपक की ये गालियाँ निरर्थक हैं। विधवाविवाहोत्पन्न तो व्यभिचारजात है ही नहीं, परन्तु व्यभिचारजातता से भी कोई हानि नहीं है। व्यभिचार पाप है (विधवाविवाह व्यभिचार नहीं है) व्यभिचारजातता पाप नहीं है अन्यथा रविषेणाचार्य ऐसा क्यों लिखते चिन्हानि विटजातस्य सन्ति नांगेष कानिचित् । अनार्यमाचरन् किश्चिनायते नीचगोचर ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) व्यभिचारजानता के काई चिन्ह नहीं होते। दुराचार से ही मनुष्य नीच कहलाता है। यदि व्यभिचारजान शूट ही कहलाता है तो रुद्र भी शुद्र कहलाये। जब रुद्र मुनि बनते हैं तब आपको शह मुनि का विधान भी मानना पडंगा । तद्भवमोक्षगामी व्यभिचार जात सुदृष्टि सुनार पर विवंचन नो पागे होगा ही। आक्षेप (३)जैनधर्म नहीं चाहता कि उममें सख्या. वृद्धि के नाम पर कूडा कचरा भर जाय । यदि ६० बढते हैं ना ६०% मुक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं । जैनधर्म स्वयं अपने में बढा हुई संख्या ६० को सिद्धशिला पर सदा के लिये स्थापन कर देता है। (विद्यानन्द) समाधान-उदाहरण देने के लिये जिस बुद्धिको आव. श्यकता है उस तरह को साधारण बुद्धि भो श्राक्षेपक में नहीं मालूम होती । श्राक्षेपक सख्यावृद्धि के नाम पर कूडा मचग न मरने की बात कहते है और उदाहरण कूडा वग भरने का दे रहे है । व्यवहारराशि में मं छः महीने पाठ समय में ६०० जीव माक्ष जाने है और नित्यनिगोद ले इतने ही जीव बाहर निकलते है । जैन धर्म अगर ६०८ जीव सिद्धालय की मेजना है तो उसकी पूर्ति निगोदियों से कर लेना है । अगर जैनधर्म की संख्या घटने की पर्वाह न होती तो वह सिद्धालय जाने वाले जीवों को संख्यापूर्ति निगोटियों सगैग्वे तुच्छ जीवों में करने को उनारू न हो जाना। इम उदाहरण से यह वान भी सिद्ध होती है कि जैन. धर्म में कडे कचरे को भी फलफूल बनाने की शक्ति है । वह कूड़े कचरे के समान जीवों को भी मुक्त बनाने की हिम्मत रखता है। जैनधर्म उस चतुर किसान के ममान हे जो गॉत्र भर के कूड़े कचरे का खाद बनाता है और उससे सफल खेती करता Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) है । वह मोक्ष भेजने के लिये देवलोक में से प्राणियों को नहीं चुनता वल्कि उस समूह में से चुनता है जिस का अधिक भाग कूडे कचरे के समान है। खेत में जितनी मिट्टी है उतना अनाज पैदा नहीं होता परन्तु इसीलिये यदि कोई मुर्ख किसान यह कहे कि जितना अनाज पैदा होता है उतनी ही मिट्टो रक्खा बाकी फेंकदो तो वह पागल विफल प्रयत्न करेगा। अगर हम चाहने है कि दस लाख सच्चे जैनी हो तो हमें जैन ममाज में १०-१२ करोड भले बुरे जैनी तैयार रखना पडेंगे। उनमें ले १० लाख सच्च जैनी तैयार हो सकेंगे । जैनधर्म तो सिद्धालय भेजने पर भी सख्या की त्रुटि नहीं सहता और हम कुगति और कुधर्म में भेज करके भी संख्यात्रुटि का विचार न करें तो कितनी मर्खता होगी। उन्नीसवाँ प्रश्न जैन समाज में अविवाहितों की काफी संख्या है। इसका कारण बलाद्वैधव्य की कुप्रथा है। जैन समाज में कुमारियों की भंख्या १ लाख ८५ हजार ५१४ है जब कि कुमारों की संख्या ३ लाख १ हजार २६५ है । इनमें से ६३२४६ कुमार तो ऐसे हैं जिनकी उमर वीस वर्ष से ज्यादा है । इस उमर के इने गिने कुमारों को छोड कर बाकी कुमार अविवाहित रहने वाले ही हैं। एक तो कुमारियों की संख्या यों ही कम है परन्तु तीन चार वर्ष तक के लड़कों के लिये विवाहयोग्य लडक्यिाँ आगे पैदा होगी इस आशा से कुमारियों की संख्या सन्तोषप्रद मानली जाय तो ६१३७१ विधुर मौजूद हैं। ये भी अपना विवाह कुमारियों से ही करते हैं। फल इसका यह होता है कि ६३२४६ पुरुष बीस वर्ष की उमर के बाद भी कुमार रहते हैं। यदि ये ६१३७१ विधुर विधवाओं से शादी करें तो २० वर्ष से Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६) अधिक उमर के कुमारों की संख्या ६३ हजार से अधिक के स्थान में दो हजार से भी कम रह जाय । जब तक विधवाविवाह की सुप्रथा का प्रचार न होगा तब तक यह विषमता दूर नहीं हो सकती। अन्तजातीय विवाह से भी कुछ सुभीता हो माता है क्योंकि करीव ४२०० कुमारियाँ ऐसी है जिनकी उमर २० वर्ष से ज्यादा होगई है परन्तु उनका विवाह नहीं हुआ । छोटी जातियों में योग्य वर न मिलने से यह परिस्थिति पैदा हो गई है । वडी जानियों को भी इस कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अन्तर्जातीय विवाह का प्रचार करने के साथ विधवा विवाह के प्रचार की मी ज़रूरत है क्योंकि विधवाविवाह के बिना अविवाहितों की समस्या हल नहीं होसकती।। श्रीलालजी यह स्वीकार करते है कि 'लडका लडकी समान होते हैं परन्तु लोग अविवाहित इमलिये रहते है कि वं गरीव है। इस भले आदमी को यह नहीं सूझता कि जब लडका लडकी समान है नी गर्गयों को मिलने वाली लड. कियाँ कहाँ चली जाती है ? भले श्रादमी के लडके भी तो एक स्त्री रखते हैं। हाँ, इसका कारण यह स्पष्ट है कि विधुर लोग कुमारियों को हजम कर जाते है । ऐसे अविवाहित कुमारों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनके पास पच्चीस पचास हजार रुपये की जायदाद भले ही न हो या जो हजार दो हजार रुपये देकर कन्या खरीदने की हिम्मत न रखते हों फिर भी जा चार प्रादमियों की गुजर लायक पैदा कर लेते हैं। लडकियों को लखपति लेजॉय या करोड़पति ले जॉय परन्तु यह स्पष्ट है कि विवाहयोग्य उमर के ६३ हजार कुमारों की लडकियों नहीं मिल रही है। जब इनके लिये लड़कियों है ही नहीं तव ये लखपति भले ही बन जॉय परन्तु इन्हें अविवाहित रहना Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) हो पडेगा । अगर इनमें से कोई विवाहित हो जायगा तो इसके बदले में किसी दूसरे को अविवाहित रहना पड़ेगा। धन से लडकियाँ मिल सकती है परन्तु धन से लडकियाँ बन तो नहीं सकतीं । इसलिये जब तक विधवाविवाह की सुप्रथा का प्रचार नहीं होता तब तक यह समस्या हल नहीं हो सकती । आक्षेप ( क ) - विवाहित रहने का कारण तो हमने कर्मोदय समझ रक्खा है । यह ( बलाघव्य ) नया कारण तो आपने खूब ही निकाला। ( विद्यानन्द ) - समाधान — कर्मोदय तो अन्तर कारण है और वह तो ऐसे हर एक कार्य का निमित्त है । परन्तु यहाँ तो बाह्यकारणों पर विचार करना है । विधवाविवाद का प्रचार भी अपने अपने कर्मोदय के कारण है फिर श्राप लोग क्यों उसके विरोध में हो हल्ला मचाते है ? चोरी करना, खन करना, बलाकार करना आदि अनेक अन्याय और अत्याचारों का निमित्त *र्मोदय है फिर शासनव्यवस्था की क्या आवश्यकता ? कमदय' से बीमारी हुआ करती है फिर चिकित्सा और सेवा की कुछ जरूरत हैं कि नहीं ? कर्मोदय से लक्ष्मी मिलती है किर व्यापारादि की श्रावश्यकता है कि नहीं ? मनुष्यभव दैव की गुलामी के लिये नहीं है प्रयत्न के लिये है । इसलिये भले ही कर्म अपनी शक्ति श्राजमावे परन्तु हमें तो अपने प्रयत्न से काम लेना चाहिये । 'विधवाविवाह कर लेने पर भी कोई विवाहित न कहलायगा क्योंकि विधवाविवाह में विवाह का लक्षण नहीं जाता ' इसका उत्तर हम दे चुके है, और विधवाविवाह को feare सिद्ध कर चुके हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) वीसवाँ प्रश्न यहाँ यह पूछा गया है कि ये विधाएँ न होती तो संख्यावृद्धि होती या नहीं। बहुत जातियों में विधवाविवाह होता है और सन्तान भी पैदा होती है इसलिये संख्यावृद्धि को बान नो निश्चित है। जहाँ विधवाविवाह नहीं होता वहाँ भ्रणहत्या प्राठि से नथा दम्मा विनैकया आदि कहलाने वाली सन्तान पैदा होने में विधवाओं के जननीत्व का पता लगता है। विद्यानन्द जी का यह कहना निरर्थक प्रलाप है कि अगर वे बन्ध्या होती नो ? बन्ध्या होनी नो सन्तान न बढनी सिर्फ ब्रह्मचर्याणुवन का पालन होना । परन्त जैनसमाज की सव विधवाएँ बन्ध्या है इसका कोई प्रमाण नहीं है बल्कि उनके प्रबन्ध्यापन के बहुत से प्रमाण हैं। श्रीलाल का यह कोग भ्रम है कि विधवाविवाह वाली जातियों की संख्या घट रही है। कोई भी आदमी-जिसके ऑखे हैं-विधवाविवाह और सन्तानवृद्धि की कार्यकारणव्याप्ति का विरोध नहीं कर सकता । रोग से, भूखों मर कर या अन्य किसी कारण से कहीं की मृत्युसंख्या अगर वह जाय तो इस में विधवाविवाह का कोई अपराध नहीं है। उससे तो यथासाध्य संख्या की पूर्ति ही होगी। परन्तु बलाद्वैधव्य से तो संख्या हानि ही होगी। विधवाविवाह से व्यभिचारनिवृत्ति नहीं होती, इसका खण्डन हम पहिले कई बार कर चुके है। सुदृष्टि की चर्चा के लिये अलग प्रश्न है । वहीं विचार किया जायगा । आक्षेप (क)-माता बहिन प्राटि से मांग करने में भी सन्तान हो सकती है । (श्रीलाल) समाधान-जिस दिन माताओं और वहिनों का पुत्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२) और भाई को छोड कर दुनिया में और कोई पुरुष न मिलेगा और पुरुषों को मॉ वहिन छोडकर और काई स्त्री न मिलेगी, । भाई बहिन में और माँ बेटे में गुप्त व्यभिचार की मात्रा चढ जावेगी,भ्रूणहत्याएँ हाने लगेंगी, उनकी कामवामना को सीमित करने के लिये और कोई स्थान न रहेगा, उस दिन माँ बेटे और बहिन भाई के विवाह की समस्या पर विचार किया जा सकता है । आक्षेपक विधवाविवाह से बढ़ने वाली सख्या के ऊपर मॉ बहिन के साथ शादी करने की बात कह कर जिस घार निर्लजता का परिचय दे रहा है, क्या यह परिचय विधुरविर्गह के विषय में नहीं दिया जासकता ? सन्तान के बहाने से अपना पुनर्विवाह करने वाले विधुर, अपनी माँ बहिन से शादियाँ क्यों नहीं करते ? जो उत्तर विधुविवाह के लिये है वही उत्तर विधवाविवाह के लिये है। इस प्रश्न में यह आक्षेपक अन्य प्रश्नों से अधिक लड. खडाया है, इसलिये कुछ भी न लिखकर यह असभ्य कथन तथा लेंडरा आदि शब्दों का प्रयोग किया है। आक्षेप-(ख) अठारहवे प्रश्न में आपने कहा था कि प्रतिवर्ष जैनियों की संख्या ७ हजार घट रही है। अब कहते हैं कि बढ़ रही है। ऐसे हग्जाई (रिपाई) का हम विचार नहीं करते । (विद्यानन्द) समाधान-आपके विश्वास न करने से रिपोर्ट को उपयोगिता नष्ट नहीं होती, न वस्तुस्थिति बदल जाती है। पशु के आँख मींचने से शिकारी का अस्तित्व नहीं मिट जाता। जैनियों की जनसख्या प्रतिवर्प सात हजार घट रही है परन्तु इसको यह मतलब नहीं है कि जैनियों के किसी घर में जन. सख्या बढ़ती नहीं है । ऐसे भी घर हैं जिनमें दा से दस श्रादमी हो गये होंगे परन्तु वे घर कई गुणे है जिनमें दस से Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) दो यादमी ही रह गये हैं। वहीं वृद्धि और कहीं हानि ना होती ही है परन्तु प्रोमुत लान हज़ार हानि का है । किती किमी जातिम संख्या बढ़ने से जैन समाज को संवाहानि का निषेध नहीं किया जा सकता। जिन जातियों में विवाविवाह का रिवाज है उनमें संख्या नहीं घटती है, या बढ़ती है। साथ ही जिन जानियों में विधवाविवाह का रिवाज नहीं है उनमें इतनी मरया बटनी है कि विधवाविवाह वाली जानियों की सख्या. वृद्धि उस घटी को पूरा नहीं कर पाती। आक्षेप (ग) हमारी दृष्टि में तो विधवाविवाह में बढ़ने वाली संख्या निर्जीव है। (विद्यानन्द) ममायान-उसका उत्तर ता युगप अमेरिका आदि देशों के नागरिकों की श्रवन्सा से मिल जाता है। प्राचीनकान के व्यमित्रारजान सुदृष्टि आदि महापुरुष भी ऐसे धानेपों का मुंहनोड उत्तर देते रहे हैं। विशेष के लिये देनी (१८) आक्षेप (घ)-विधुग्न्त्र के दूर करने का उपाय शास्त्रा में है। मार के लिये औषध विधान है अमाध्य के लिए नहीं। पर ही कार्य कहीं कत्र्य और सफन होता है, कहीं अकर्नव्य और निष्फल । ममाघान-विधुरत्व पोर वैवव्यतिरे एक ही विधान है. इस विषय में इस लश में अनेकयार लिखा जा चुका है। असाध्य के लिये औषध का विधान नहीं है परन्तु असाध्य उमे कहते है जो विकिसा करने पर भी दूर न हो सके । वैधव्य नो विधुरस्त्र के समान पुनर्विवाह से दूर हो सकता है, इसलिये घह असाध्य नहीं कहा जा सरना । एक ही कार्य कहीं श्र्तव्य और कहीं अकर्तव्य हो जाता है इसलिये कुमार कुमारियों के लिये विवाह कर्तव्य और विधुर विधानों के लिये अकर्तव्य होना चाहिये । पुनर्विवाह यदि विधुगे के लिये अपनव्य नहीं है Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) तो विधवाओं के लिये भी अपर्तव्य नहीं कहा जा सकता। आक्षेप (ड)-गोन जाने वाले ६०८,जीवों की संख्या में कमी न पाजाय इसलिये हम विधवाविवाह का विरोध करते है । (विद्यानन्द) समाधान-जैनधर्मानुमाछः महीन पाठ समय में ६० जीव मोक्ष जाने का नियम अटल है। उम्मकी रक्षा के लिये आक्षेपक का प्रयत्न हास्याम्पद है। फिर आक्षेपक जहाँ (भरत. क्षेत्र में) प्रयत्न करता है वहाँ तो मोक्षद्वार अभी बन्द ही है। तीसरी बात यह है कि विधवाविवाह से मोक्ष का मार्ग वन्द नहीं होता । शास्त्रों की आशाएँ जो पहिले लिखी जा चुकी हैं और सुदृष्टि का जीवन इस बात के प्रबल प्रमाण हैं। आक्षेप (च) सव्यमाची, तुम औरतों की भॉति बिलख विलख कर क्यों गेरहे हो ? तुम्हें औरत कौन कहता है ? तुम अपने आप औरत बनना चाहो ता ११ डबल के बताशेभेनदो। यहाँ से एक ताबीज भेजदिया जायगा। तुम नोन औरत हो न मर्द । सव्यसाची (अर्जुन ) नपुंसक हो । (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपकों को जहाँ अपनी प्रधानता का मात्राधिक परिचय होगया है वहाँ उनने इसी प्रकार गालियाँ दी है । ये गालियाँ हमने इनके भडपन की पोल खोलने के लिये नहीं लिखी है परन्तु इनके टुकडखोरपन को दिखाने के लिये लिखी हैं। आक्षेपक १। पैसे के बताशों में मुझे स्त्री बना देने को या दुनिया में प्रसिद्ध कर देने को तैयार है। जो लोग शपैसे में मर्द को स्त्री बनाने के लिये तैयार हैं वे भरपेट रोटियाँ मिलने पर धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म कहने के लिये तैयार हो जाये तो इसमें क्या आश्चर्य है ! जो लोग इन पंडितों को टुकड़ों का गुलाम कहते है वे लोग कुछ नरम शब्दों का Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५) ही प्रयोग करने है। आक्षेपक ने ताबीज वॉधने की बात कह. कर अपने गुप्त जीवन का परिचय दिया है । तावीज़ वाँयने वाले बगलाभक्त ठगों से पाठक अपरिचित न होंगे । रही नपुसकता की बात सो यदि कोरबदल को पाप का फल चखाने वाला और उसी भव से मोक्ष जाने वाला अर्जुन नपुंसक है तो पेसी नपुंसकता गौरव की वस्तु है। उस पर अनन्तपांगापथियों का पुरुषत्व न्याछायर किया जा सकता है। हमने एक जगह लिखा है कि "हमने विधवाविवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुपाचिन अधिकारों को हडपा इमलिये आज हमें दुनिया के सामने औरत बनके रहना पड़ता है। कमी २ एक आदमी के द्वारा 'हम' शब्द का प्रयोग समाज के लिये किया जाता है । यहाँ 'हम' शब्द का अर्थ 'जैनसमाज' म्पष्ट है । परन्तु जब कुछ न बना तो आक्षेपक ने इमी पर गालियाँ देना शुरू कर दी। इस तरह के वाक्य ता हम भी श्रापक के वक्तव्य में में उद्धृत कर सकते है। १८ चे प्रश्न में श्राक्षपक ने एक जगह लिखा है कि "हम विधवाओं के लिये तड़प रहे हैं, उन्हें अपनी बनाने के लिये छटपटा रहे है।" अब इस श्राक्षेपक से कोई पूछे कि 'जनाय ! श्राप ऐसी बदमाशी क्यों कर रहे है। आक्षेप (छ)-यदि जैनधर्म का सम्बन्ध रक्त मांस से नहीं है तो उसके भक्षण करने में क्या हानि ? (विद्यानन्द) समाधान-हानि तो मलमूत्र मधुमद्य यादि के भक्षण करने में भी है तो क्या जैनधर्म के लिये इन सय चीज़ों के उपयोग की भी आवश्यकता होगी? जिसके भक्षण करने में भी हानि है उसको जैनधर्म का प्राधार स्तम्भ कहना ग़ज़ब का पाण्डित्य है । यहाँ नो श्राक्षपक के ऊपर ही एक प्रश्न Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) खडा होता है कि जब आप रक्त मांस में शुद्धि समझते हैं तो उसके भक्षण करने में क्या दोष ? आक्षेप (ज) - द्रव्यवेद (स्त्री) पाँचवें तक क्यों ? भाववेद नवमे तक क्यों ? क्या यह सब विचार रक्त माँस का नहीं है | ( विद्यानन्द ) समाधान —- वेद को रक्तमांस समझना भी अद्भुत पाण्डित्य है । खैर, वह प्रश्न भी प्रक्षेपक के ऊपर पडता है कि एक ही माता पिता से पैदा होने वाले भाई बहिन की रक्तशुद्धि तो समान है फिर स्त्री पाँचवें गुणस्थान तक ही क्यों ? यदि स्त्रियों में रक्त माँस की शुद्धि का श्रभाव माना जाय तो क्या उनके सहोदर भाइयों से उनकी कुल जाति जुदी मानी जायगी ? और क्या सभी स्त्रियाँ जारज मानी जायँगी ? १ आक्षेप ( झ ) - बिना वज्र वृपभनाराच संहनन के मुक्ति प्राप्त नहीं होती । कहिये शरीर शुद्धि में धर्म है या नहीं ? समाधान - सहनन को भी रक्त मांस शुद्धि समझना विचित्र पाण्डित्य है | क्या व्यभिचारजातों के वज्र वृषभना राच संहनन नहीं होता ? क्या मच्छों के वज्र वृषभनाराच सहनन नहीं होता ? यदि होता है तो इन जीवों का शरीर ब्राह्मी सुन्दरी सीता श्रादि देवियों और पञ्चमकाल के श्रतवली तथा अनेक श्राचार्यों के शरीर से भी शुद्ध कहलाया क्योंकि इनके वज्रवृषमनाराच संहनन नहीं था । कहीं रक्त शुद्धि का अर्थ कुलशुद्धि जातिशुद्धि करना, कहीं सहनन करना विक्षिप्तता नहीं तो क्या ? आक्षेप (ञ) - सुभग आदि प्रकृतियों के उदय से पुण्यात्मा जीवों के सहनन सस्थान आदि इतने प्रिय होते हैं कि उन्हें छाती से चिपटाने की लालसा होती है। ( विद्यानन्द ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) समाधान-इम्मीलिये तो शरीर के साथ जैनधर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं है । शरीर के अच्छे होने से उसे छाती से चिपटाने की लालसा होती है परन्तु किसी को छाती से चिपटाने से मोक्ष नहीं मिलता, मोक्ष दूर भागता है। धर्म और मोन के लिये तो यह विचार करना पड़ता है कि "पल रुधिर गधमल थैली, कीकस बसादि ते मैली । नवद्वार बहे घिनकारी, अस देह करें किम यारी॥" आक्षेप (2)-जहाँ रक्त मांस की शुद्धि नहीं है, वहाँ धर्मसाधन भी नहीं है, यथा वर्ग श्रादि । (विद्यानन्द) समाधान–देवों के शरीर में रक्तमांस की शुद्धि नहीं है परन्तु अशुद्धि भी तो नहीं है। यदि शरीर का धर्मसे सम्बन्ध होता तो देवों को मोन बहुत जल्दी मिलती। समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में तीर्थकर भगवान को लक्ष्य करके कहा है कि "भगवन् ! शारीरिक महत्व तो आपके समान देवों में भी है इसलिये श्राप महान * नहीं हैं"। इससे दो वाते सिद्ध होती है । पहिली तो यह है कि परमात्मा बनने के लिये या परमात्मा कहलाने के लिये शरीर शुद्धि की बात कहना मर्खता है। दूसरी यह कि देवा का शरीर मी शुद्ध होता है फिर भी वे धर्म नहीं कर पाते। अगर 'रक्त मांस की शुद्धि' शब्द को हो पकडा जाय तो भोगभूमिजों के यह शुद्धि होती है, फिर भी वे धर्म नहीं कर पाते है । पशुओं के यह शुद्धि नहीं होती किन्तु फिर भी वे इन सबसे अधिक धर्म पंचमगुणस्थान और शुक्ल लेश्या धारण कर लेते है। शरीरशुद्धिधारी मांगभूमिज तो सिर्फ चौथा गुणस्थान और पीत लेश्या तक ही धारण करपाते हैं। *अध्यात्म पहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु लः। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) स्लेच्छ और सुदृष्टि के मोक्षगमन तथा पूज्यपाद श्रीर विषेण श्रादि श्राचायों के प्रमाणां म व्यभिचारजान श्रादि भी मोक्ष जा सकते हैं यह बात लिखी जा चुकी है । इक्कीसवाँ प्रश्न | अल्पसख्या होने से मुनियों को श्राहार में कठिनाई होनी हैं । यद्यपि आजकल मुनि नहीं है, फिर भी अगर मुनि हाँ तो वे सब जगह विहार नहीं कर सक्से क्योंकि अनेक प्रान्तों में जैनी है ही नहीं थोर जहां है भी वहां प्रायः नगरों में ही है । मुनियों में अगर इतनी शक्ति हो कि वे जहाँ चाहे जाकर नये जैनी बनावें और समाज के ऊपर प्रभाव डालकर उन नये जैनियों को समाज का श्रह स्वीकार करावें तो यह समस्या हल हो सकती है । परन्तु हर जगह तुरन्त ही नये जैनी बनाना और उद्दिष्टत्यागपूर्वक उनसे आहार लेना मुश्किल है, इसलिये जैन समाज को बहुसख्यक होने की आवश्यकता है। विधवाविवाह सख्यावृद्धि में कारण है, इसलिये विधवाविवाह मुनिधर्म के अस्तित्व के लिये भी श्रन्यतम साधन है । आक्षेप ( क ) - जब मार्ग में जैन जनता नहीं तब जो भक्त गृहस्थ अपना काम धन्धा छोडकर मुनिसेवामें लगे उम के समान दूसग पुराय नहीं । मुनियों को हाथ से रोटी बनाकर खाने की सलाह देना धृष्टता है । समाधान --मुनियों को ऐसी सलाह देना धृष्टता होगी परन्तु ढोंगियों को ऐसी सलाह देना परम पुण्य है । जैनशास्त्रों के अनुसार उद्दिष्टत्याग के बिना कोई मुनि नहीं हो सकता और उद्दिष्टत्याग इसलिये कराया जाता है कि वे श्रारम्भजन्य हिंसा के पाप से बचें। निमन्त्रण करने में विशेषारम्भ करना पडता है । उद्दिष्टत्याग में सामान्य श्रारम्भ ही रहता है Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) मामान्य श्रोरम्भ के अतिरिक्त जितना प्रारम्भ होता था उससे बचने के लिये उद्दिष्टत्याग का विधान है। इस जगसे प्रारम्भ के बचाने के लिये अगर श्रावकों को घर बटोर कर मुनियों के पीछे चलना पडे और नये नये स्थानों में नये तरह से नया श्रारम्भ करना पड़े तो यह कीडी की रक्षा के नाम पर हाथी की हत्या करना है । दर्जनों कुटुम्बी परदेश में जाकर मुनियों के लिये इनना ज्यादा प्रारम्भ करें तो इस कार्य को कोई महामह मियादृष्टि ही पुण्य ममझ सकता है । इसकी अपेना नो मुनि कहलाने वाला व्यक्ति हाथ में पका ग्वाले तो ही अच्छा है। आक्षेप (ब)-अछूनों के हाथ लगने से जल अपेय हो यह अन्धेर नहीं है। · · उपदेश शक्यानुष्ठान का ही होता है। गेहें खाद्य है और खात अनाय । ..... ...."जिनके हृदय में भी चमार ब्राह्मण सब पक हाँ इस मुए की दृष्टि में मत्र सन्धे ही रहेगा । (श्रीलाल) समाधान-पगिडतटल की मढतापूर्ण मिथ्यात्ववर्धक मान्यता के अनुसार शुद्ध के स्पर्श में जलाशय का जल भी अपय होजाता है । इसपर हमने कहा था कि जलाशयों में तो नयं शूद्रों से भी नीच जलचर रहते है। इसपर आक्षेपक का कहना है कि वह अशषयानुष्ठान है । खैर! जलाशयों को जल चगे के स्पर्श मे यत्राना अशष्यानुष्ठान मही परन्तु स्थलचर पशुओं म्पर्श से बचाना तो गश्य है । फिर थलचर पशुओं कं म्पर्श मे जलाशयों का जल अपय क्यों नहीं मानते ? पशुओं के म्पर्शले पेय न मानना और मनुष्यों के स्पर्श स अपय मानना घार धृष्टता नहीं तो क्या है ? इसका स्पष्ट कारण तो यही है कि जिनके पागे तुम जातिमद का नगा नाच कराना चाहते हो उन्हीं के विषय में श्रम्पृश्यता की घात निकालते हो । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) खात का स्पर्श ग्म गन्ध वर्ण ममी घृणित है। उसमें कृमि आदि भी रहते है इसलिये वह अणाध है । गेहूँ में ये बुगाइयाँ नहीं है इसलिय खाद्य है। क्या नाक्षेपक बतलायगा कि जीवित प्राणियों को निगल जाने वाले मगर मच्छों में तथा अन्य अशुचिमाजी पशुत्रों में ऐसी कौनसी विशेषता है जिससे वेशद्रों से भी अच्छे समझे जाते है। हमारे सामन ता ब्राह्मण और शुद्ध दोनों यगावर है। जा सदाचारी है वही उच्च है। तुम मरीख सदाचारशत्रुश्री और धर्मध्वसियों में ही सटाचार का कुछ मूल्य नहीं है । तुम लोग शैतान के पुजारी हो इसलिये दुराचार्ग को इतना धुणिन नहीं समझते जितना शुद्र का । हम लोग भगवान महावीर के उपासक है इसलिये हमारी दृष्टि में शद भी भाई के समान है । सिर्फ दुराचारी निंद्य है। आक्षेप (ग)-जब तक शरीर में जीव है नब तक वह हाड मांस नहीं गिना जाना । (श्रीलाल) समाधान-तब तो शुद्र का शरीर भी हाड मांस न गिना जायगा । फिर उसके हाथ के जल ले और उससे छुए हुए जलाशय के जल तक से इतनी घृणा षयों ? विद्यानन्द ने हमारे लेख में भाषा की गल्लियाँ निकालने की असफल चेष्टा की है। हिन्दी में विमक्ति चिन्ह कहाँ लगाना चाहिये, कहाँ नहीं, इसक समझने के लिये आक्षेपक को कुछ अध्ययन करना पड़ेगा । 'खाने नहीं मिलता'-यहाँ'को' लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है । अगर 'को' लगाना ऐसा अनिवार्य हो तो 'मैं जान भी न पाया कि उसने पकड लिया' इम वाक्य में जाने के साथ 'को' लगाना चाहिये और 'जाने क भी न पाया' लिखना चाहिये । 'ज़्यादा' 'ज़्यादह' 'ज्यादह, ज्यादा इनमें से कौनसा प्रयोग ठोक है इस की मीमांसा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१) का यह स्थल नहीं है। ऐसी अप्रस्तुत बातों को उठाकर आक्षे. पक, अर्थान्तर नामक निग्रहस्थान में गिर गया है । आक्षेप (घ)-नोटिसबाजी करते करते किसका दम निकला जाता है। गर्मी की बीमारी मुम्बई में हो सकती है। यहाँ ता नपायी ठाठ है । (विद्यानन्द) __ समाधान-नोटिसबाजी का गर्मी की बीमारी से क्या मम्बन्ध ? और गर्मी की बीमारी के अभाव का नवाबीठाठ से क्या सम्बन्ध ? ये बीमारियाँ तो नवायी ठाठ वालों को ही दुआ करती हैं। हाँ, इस वक्तव्य से यह यान जरूर सिद्ध हो जाती है कि आपक, समाजसेवा की श्रोट में नवाची ठाठ से खर मोज उडा रहा है सो जब तक समाज अन्धी और मूढ हे नय तक कोई भी उसके माल में मौज उडा सकता है। प्राक्षेप (ट)-दुनियाँ दूसरों के दोष देखनी है परन्तु दिल खोजा जाय तो अपने से बुग कार्ड नहीं है। (विद्यानन्द) ममाधान-क्या इस बात का ख़याल श्राक्षेपक ने सुधारकों का सते समय भी किया है ? मुनिषियों के विरुद्ध जो हमने लिखा है वह इसलिये नहीं कि हमें कुछ उन गरीय दीन जन्तुओं से द्वेष है। वे चेचारे तो भूख और मान कपाय के सताये हुए अपना पेट पाल रहे है और कषाय की पूर्ति कर रहे है। ऐसे निकृष्ट जीव दुनिया में अगणित है। हमाग तो उन सब सं माध्यम्थ्य भाव है । यहाँ जो इन ढोंगियों की ममालोचना की है वह सिर्फ इसलिये कि इन ढोंगियों के पोछे मया मुनिधर्म बदनाम न हो जाय । अनाद्यविद्या को बीमार्ग से लोग यों ही मर रहे है। इस अपथ्य सेवन से उनकी योमारी और न चढ जाय। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) आक्षेप (च (-मुनियों के साथ श्रावक समूह का चलना नाजायज़ मजमा नहीं है। समाधान-केवली को छोडकर और किसी के साथ श्रावकसमूह नहीं चलना। हाँ, जब भट्टारकों की सृष्टि हुई और उनमें से जब पिछले भट्टारकों ने धर्मसंवा के स्थान में, समाज से पूजा कराना और नवाची ठाठ से रहना ही जीवन का ध्येय बनाया तय अवश्य ही उनने ऐसी आशाएँ गह डाली जिससे उन्हें नाववी ठाठ से रहने में सुभीता हो । प्राचीन लोगों के महत्व बढाने के बहाने उनने अपने स्वार्थ की पुष्टि की । पीछे भोले मनुष्यों ने उसे अपना लिया। आक्षेप (छ)-गटी तो श्राठवीं प्रतिमा धारी भी नहीं बनाता। फिर मुनियों से ऐसी बात कहना तो असभ्य जोशकी चरम सीमा है । (विद्यानन्द) ___ समाधान-जिन असभ्य ढोंगियों के लिये रोटी बनाने की बात कही गई है वे मुनि, शाठची प्रतिमाधारी या पहिली प्रतिमाधारी तो दूर, जैनी भी नहीं है, निकृष्ट मिध्यादृष्टि है । दूसरी बात यह है कि प्रारम्भ त्याग में प्रारम्भत्याग तो होना चाहिये । परन्तु ये लोग पेटपूजा के लिये जैसा घोर प्रारम्भ कराते हैं उसे देखकर एक उद्दिष्टत्यागी तो क्या आरम्मत्यागी भी शरमिन्दा हो जायगा। विशेष के लिये देखो २१-क । शान्त के विषय में २१-ख में विचार किया गया है। आक्षेप (ज)-मुनियों के लिये अगर केवल अप्रासुक भोजन का ही विचार किया जाता तो मृलाधार आदि में १६ उद्गम दोष और ४६ अन्तराय टालने का विधान क्यों है ? (विद्यानन्द) समाधान-दोष और अन्तराय के भेद प्रभेद जो मता. धार आदि में गिनाये गये हैं वे तीन बातों को लक्ष्य करके । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३) १ भोजन अप्रासुक नो नहीं है, २ मुनि को कोई कपाय भोगा. कांक्षा श्रादि नो उत्पन्न नहीं होती है, उदाता में दाता के योग्य गुण हैं कि नहीं। भोजन के विषय में तो प्रासुकता के सिवाय और कोई विशेषण डालने की ज़रूरत नहीं है । शुद्ध जल मे प्रासुकना का भङ्ग होजाता है या कोई और दोष उपस्थित हो जाना है, इस बात का विधान भी मूलाधार में नहीं है। भोज्य के विषय में जिनने दोप लिखे गये है वे सिर्फ इसीलिये कि किसी नरह से वह अप्रामुक तो नहीं है । जानिमद का नगा नाच दिखाने के लिये जल के विषय में अविचारयन्य शर्ते तो इन मटान्ध ढोंगियों की ही है । जैनधर्म का उनके साथ कुछ भी मम्बन्ध नहीं है। वाईसवाँ प्रश्न । इस प्रश्नका सम्बन्ध भी बालविवाह से है । इस विषयमें पहिले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस विषयमें प्रानपका का लिखना बिलकुल हाम्यास्पद है। श्रन्तु आक्षेप (क)-विवाह करके जो ब्रह्मचर्य पालन करें वह अवश्य पुण्य का हेतु है। (श्रीलाल) ममाधान-ज्या विवाह के पहिले ब्रह्मचर्य पाप का हेतु है ? ब्रह्मचर्य को किसी ममय पाप कहना कामकीटना का परिचय देना है। आक्षेप(ख) जिनेन्द्र की प्राचाका मग करना पाप है। बारहवर्ष में विवाह करने की जिनेन्द्राहा है। (श्रीलाल) ममाधान-जिनेन्द्र, विवाह के लिये कम से कम उमर का विधान कर सकते है, परन्तु ज्यादा से ज्यादा उमर का नहीं। १२ वर्ष का विधान जिनेन्द्र की प्राथा नहीं है । कुछ लेखकों ने ममय देखकर ऐसे नियम बनाये है, और ये क्रम से Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४) कम उमर के विधान है। अन्यथा १६ वर्ष से अधिक उमर के कुमार का विवाह भी पाप होना चाहिये । ऐसी तुच्छ और ब्रह्मचर्चविरुद्ध प्रामात्रओं को जिनेन्द्र की प्रामा बतलाना जिनन्द्रका अवर्णवाद करना है। आक्षेप (ग)-जो ब्रह्मचर्य भी न ले और संस्कार भी समय पर न करे वह अवश्य पापी है । बाह्मी आदिने तो जीवन भर विवाह नहीं किया इसलिये उन का ब्रह्मचर्य पाप नहीं है। (श्रीलाल) समाधान-संस्कार, बूतादि की योग्यता प्राप्त कगने लिये है। जब मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता तब अांशिक व्रह्मचर्य के पालन कगने के लिये विवाहकी श्राव. श्यकता होती है। विवाह सम्झार पूर्णब्रह्मचर्य की योग्यता प्राप्त नहीं कराता इसलिये जबतक कोई पूर्णब्रह्मचर्य पालन करना चाहता है तबतक उसे विवाह संस्कार की आवश्यकता नहीं है। शास्त्रों में ऐसी सैकडॉ कुमारियों के उल्लेख है जिनने वडी उमर में, युवती हो जाने पर विवाह किया है। विशल्या-विवाह के समय 'शातोढरी दिग्गजकुम्भशो. भिस्तनद्वयानूतनयौवनस्था' अर्थात् गजकुम्भके समान स्तनवाली थी। पद्मपुराण ६५-७४।। जयचन्द्रा-सूर्यपुरके राजा शक्रधनुकी पुत्री जयचन्द्रा को अपने आप और गुणों का वडा घमण्ड था। इसलिये पिता के कहने पर भी उस ने किसी के साथ शादी न कराई । अन्त में वह हरिषेण के ऊपर रीझी और अपनी सखोके द्वारा सोतं समय हरिषेण का हरण करा लिया। फिर हरिषेण से विवाह कराया । वैवाहिक खातव्य और उमर के बन्धन को न मानने का यह अच्छा उदाहरण है । पद्मपुराण - पर्व । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २=५ ) पद्मा- -गाना, बजाना सील रही थी। श्रीगट देखा नां मोहित होगई और माना विनादि की चोरी से श्रीकण्ठ के साथ चल दी। पिता ने श्रीकण्ठका पीछा किया किन्तु लडाई के अवसर पर पद्मा ने कहा दिया कि मैं अपनी उच्छा ले आई है, मैं इन्हीं के साथ विवाह करुँगी । श्रन्तमें पिता चला गया और इसने श्रीकण्ठसे विवाह कर लिया। पर्व पद्मपुराण । अञ्जना — विवाह के समय 'कुमकुम्भनि मस्तनी' गज कुम्भके समान स्तन वाली अर्थात् पूर्ण युवती श्री । पद्मपुरा १५-१७ । - केकया—गाना नाचना श्रादि अनेक कलाओं में प्रवीण, दशरथ की युद्ध में सहायता देनेवाली केकया का वर्णन जैसा पद्मपुराण २४ में पर्व में विस्तार से मिलता है वह १२ वर्ष की लड़की के लिए श्रसम्भव है । कुमारियाँ - चन्द्रवर्धन विद्याधर की आठ तडकियाँ । सीता स्वयस्र के समय इनने लक्ष्मण का मन ही मन वर लिया था परन्तु विवाह उस समय न हो पाया। जब लक्ष्मण गवण से युद्ध कर रहे थे उस समय मी ये लक्ष्मण को देखने पहुंची। युद्ध के बाद विवाह हुआ | ये एक ही माना से पैदाईश्री इसलिये अगर छोटी की उमर १२ वर्ष की हो नी बडी की उमर १६ की जरुर होगी। फिर सीता स्वयम्वर के समय जिनने मन ही मन लक्ष्मण का वग्य किया उसका उस समय विवाह न हुआ, कई वर्ष बाद aria के वाह हुआ, उस समय तक उनकी उमर और भी ज्यादा यह गई । आठ गन्धर्व कन्याएँ — एक ही माना में पैदा हुई इस लिये इनकी उमर में अन्तर था । परन्तु ये एक साथ रामचन्द्र Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) से विवाही गई । विवाह के योग्य उमर हो जाने पर इच्छित वर के न मिलने से इन्हें वाट देखते रुकना पड़ा। लडासन्दरी-हनुमान के साथ इमने घोर युद्ध किया। पमपुराण के ५३ पर्व में उमका चरित्र पढ़ने में इसकी प्रोढता का पता लगता है। पुराणों में ऐसे सैकड़ों उल्लेख मिलते है जिनमे चुवनी. विवाह का पूर्ण समर्थन हाता है। कन्याएँ कार्ड प्रनिशा कर लेती या किसी ख़ास पुरुष को चुन लेती जिसके कारण उन्हें वर्षों बाट देखनी पडती थी । ऐसी अवस्था में १२ वर्ष की उमर का नियम नहीं हो सकता। कन्याओं के जैसे वर्णन मिलते है उनसे भी उनके यौवन और परिपक्वबुद्धिता का परिचय मिलता है जा १२ वर्ष की उमर में असम्भव है। इन उदाहरणों से यह वान भी सिद्ध हो जाती है कि पुगने समय में कन्या को स्वतन्त्रता थी और उन्हें पति पसंद करने का अधिकार था । उस स्वतन्त्रता और पसन्दगी का विगंध करने वाले शास्त्रविराधी और धर्मलोपी है। आक्षेप (घ)-यदि ब्रह्मचर्य की इतनी हिमायत करमा है ना विधवा के लिये ब्रह्मचर्य का ही विधान क्यों नहीं बनाया जाता? समाधान-चाहे कुमारियाँ हो या विधवाएँ हो हम दोनों के लिये वलाद् ब्रह्मचर्य और बलाविवाह बुरा समझते है। जो विधवाएँ ब्रह्मचर्य से रहना चाह, रहे । जो विवाह करना चाहे, विवाह करें। कुमारियों के लिये भी हमारा यही कहना है । कुमारी और विधवा जय तक ब्रह्मचर्य से रहेंगी नव नक पुण्यबन्ध होगा। आक्षेप (ङ)- जो लोग यह कहते है कि जितना ब्रह्मचर्य पल सके उतना ही अच्छा है वे ब्रह्मचर्य का अर्थ हो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १=७ ) नहीं समझते । ब्रह्मचर्य का अर्थ मजबूरी से मैथुन का श्रभाव नहीं है किन्तु श्रात्मा की थोर ऋजु होने को ब्रह्मचर्य कहते हैं । कोई कन्या मनमें किसी सुन्दर व्यक्ति का चितवन कर रही है। क्या आप उसे ब्रह्मचारिणी समझते हैं ? I ( विद्यानन्द समाधान - कितनी अच्छी बात है ! मालूम होता है छिपी हुई सुधारकता असावधानी से छलक पडी है । यही बात तो सुधारक कहते हैं कि विधवाओं के मैथुनाभाव को वे ब्रह्मचर्य नहीं मानते क्योंकि यह विधवाओं को मजबूरी से करना पडता है और यह मजबूरी निरुपाय है । कुमारियों के लिये यह बात नहीं है । उन्हें मजबूरी से ब्रह्मचर्य पालन नहीं करना पड़ता। फिर उनके लिये विवाह का मार्ग खुला हुआ हैं । विवाह सामग्री रहने पर भी अगर कोई कुमारी विवाह नहीं करती तो उसका कारण ब्रह्मचर्य ही कहा जासकता है। विधवाओं को अगर विवाह का पूर्ण अधिकार हो और फिर भी अगर वे विवाह न करें तो उनका वैधव्य ब्रह्मचर्य कहलायगा | आक्षेप (च) सबको एक घाट पानी पिलाना -- एक उडे से हॉकना नीतिविरुद्ध है । समाधान-एक घाट से पानी पिलाया जाता है और एक डण्डे से बहुत से पशु हांके जाते है। जब एक घाट श्रीर एक डराड़े से काम चलता है तब उसका विरोध करना फिजूल है। कुमार कुमारी और विधुरों को जिन परिस्थितियों के कारण विवाह करना पडता है वे परिस्थितियों यदि विधवा के लिये भी मौजूद है तो वे भी विवाहघाट से पानी पी सकती हैं। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नईसवाँ प्रश्न । रस प्रश्न रासम्बन्ध विजानीय विचार अधि। बिजानी र विग्राह प विषय में रनमालिमा ना चल है कि पत्र जो कुछ लिखा जाय बदम पिपयग होगा। आक्षेप (4)-मामय पहने है कि जानियाँ यादि है । (श्रीलाल विद्यानन्द) समाधान-जातियाँ दा नाद भी है-मलिरन, अकल्पिन । पन्द्रिय प्रादि शास्पिन जानियाँ इ । बाकी ब्राह्मण क्षप्रियाः कल्पिन तानिगं है। पन्द्रिय शादि अकल्पित नानि अनादि है। करिग्न जानियां अनादि नहीं है अन्यथा इनको रचना ऋषमदेव ने की या भग्न नकीयह बात शास्त्रों में क्यों निग्नी होती ? अाप (ग्न नामजन्द्र मिदान्तवनानी ने १२ बरय जातियाँ कही है। (श्रीलाल ) ममाधान-यातेवक अगर किसी पाठशाला म जाकर गोम्मटमार पढले ना वह नेमिचन्द्रका नमकने लगेगा। नमि. चन्द्र ने मिर्फ पॉत्र ही जातियों का उलंन किया। १२ खग्य जातियों का उल्लेख बनाने के लिये हम श्रानेएक को चुनौती देने है । ३२ लन्न कोटी कुलों का उल्लग्न नेमिचन्द्र ने ज़रूर किया है परन्तु उन कुलों को जानि समझ लेना घोर मूर्खता का परिचय देना है। गोम्मटमार टीका में ही कुल भेटी का अर्थ शरीगन्पादक वर्गणाप्रकार किया गया है । अर्थात् शरीर बनने के लिये जितनी तरह की वर्गणाएं लगती है उतने ही कुल है । एक हो योनिसे पैदा होने वाले शार्गगें कुल लाखों होते हैं क्योंकि योनिभेडसे कुलके भेट लाग्दो गुणे हे और एक ही जानि-में चाहे वह कल्पिन हा या अकल्पित-लाखों Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) नरह की योनियाँ होनी है। इसलिये योनि या कुन्न को जानियाँ कहना बिलकुल मुर्खना है। शास्त्रमाग ने भी यानिभेन और कुनभेटी भ जानि नहीं कहा । नाकियों में जातिभेद नहीं है फिर भी लाजो योनियों और मनुष्य को अपना दुगुन में भी "प्रधिक कुल है। याक्षेप (ग)-कालकी पलटना अनुमार जातियोंकी समागी यदल गई । (विद्यानन्द ) ममाधान-ना पुगने नाम मिलना चाहिये या अन्य वि.सीप में इनका उल्लंन्द्र झाना चाहिये । आक्षेप (घ)-जानि एक शब्द है, उसका वाच्य शुगर गुणम्प नो सनादि अनन्त है। अगर पर्यायसपना ध्रौव्य क्या है । जो धोव्य है वही जानियां का जीवन है। (विद्यानन्द) ममाधान-नशना का जाति कहते हैं। सदृशना गुण पर्याय दि ममी में हो सकती है। द्रव्य गुण की मरशना अनादि हैं और पर्याय की मदशना सादि है । वर्तमान जानियाँ (जिनमें विवाह की चर्चा है)ता न गुणम्प है न पर्याया। वनां बिलकुल लिान है। नामनित प में अधिक इनका महत्व नहीं है । यदि इनका पर्यायका माना जाय तो इनका मूल जीव मानना पडेगा । हमालय आने पक के शब्दानुमार 'जीवन्य जानि कहलायगी । जीय को एक जाति मान कर उम्मका पुद्गल धर्म अधर्म म विवाह करने का निषेध किया जाय ता कार्ड आपत्ति नहीं है। जिम प्रचार कलानिया, अगाली, बिहाग, लखनवी, कानपुरी आदि में अनादित्व नहीं है उसी प्रकार ये जातियाँ हैं। यदि आक्षेपक का उल इन उपजानियां को अनादि Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) अनन्त मानता है, छठे काल में भी ये जातियाँ बनी रहती है तो यह मानना ही पड़ेगा कि विजातीय विवाह आदि से इन जातियों का नाश नहीं हो सकता । जब जाति का नाश करना असम्भव है तो उसकी रक्षा करने की चिन्ता मूर्खता है। आक्षेप (ङ)-अनुमानतः इन जातियों का नवीनत्व प्रसिद्ध है। (विद्यानन्द) समाधान-मोगभूमियों में जातिभेद नहीं था। ऋषमदेव ने तीन जातियाँ बनाई। भरत ने चौथी । इससे इतना तो सिद्ध हो गया कि ये भरत के पीछे की है। इनके याद किसी अन्य तीर्थकरादि ने इनकी रचना की हो ऐमा उल्लेख्न कहीं नहीं है। हाँ, ऐतिहासिक प्रमाण इतना अवश्य मिलता है कि हुएनसंग के जमाने में भारत में सिर्फ ३६ जानियाँ थी और भाज करीव ४ हजार है। इससे मालूम होता है कि पिछले डेढ दो हजार वर्षों में जातियों का ज्वार प्राता रहा है उसी से ये जातियाँ बनी है। जब तक जैनियों का सामाजिक चल रहा तब तक इन जातियों की सृष्टि करने की जरूरत हो ही नहीं सकती थी। बाद में इनकी सृष्टि हुई है। चौबीसवाँ प्रश्न। इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि विधवाविवाह से इनके कौन कौन अधिकार छिनते हैं। यह बात हमने अनेक प्रमाणों से सिद्ध की है कि इनके कोई अधिकार नहीं छिनते । परन्तु श्रीलाल ने तो बिलकुल पागलपन का परिचय दिया है। यह बात उसके आक्षेपो से मालूम हो जायगी। आक्षेप (क)-जो अधिकारी होकर अधिकार सम्बन्धी क्रिया नहीं करता वह धिक्कारी बन जाता है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१) समाधान-कोई इस आक्षेपक से पूछे कि तुझे मुनि बनने का अधिकार है या नहीं? यदि है, नो नू मुनि क्यों नहीं बनता ? अव तुझे धिक्कारी कहना चाहिये ? क्या आपक इनना भी नहीं समझता कि मनुष्य को धर्म करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु धर्म उतना ही किया जासकता है कि जितनी शक्ति होती है । (विशेष के लिये जैनजगत् वर्ष ४ अङ्क ७ में 'योग्यता और अधिकार' शीर्षक लेख देखना चाहिये ।) "यारुपवाले मांसभक्षी है इसलिये जो हिन्दुस्थानी योरुप जाते हैं उनका वे अपमान करने है क्योंकि योरुप जाने वाले भारतीय धर्मकर्मशून्य है"। श्रीलाल के इन शब्दों के विषय में कुछ कहना वृथा है । भारतीय छूनाळून छोड देते हैं या पोप पण्डिनों की श्राक्षा में नहीं चलते इसलिये उनका विलायत के लोग अपमान करते है, ऐसा कहना जय. दस्त पागलपन के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? आलेप (ब)-सुमुख आदि के दृष्टान्त से व्यभिचार की पुष्टि नहीं होती । वे नो त्याग करके उत्तम गति गये। दानादि करके उत्तमगति पाई । इसमें कोनसा आश्चर्य है ? (श्रीलाल) समाधान-धर्म से ही उत्तम गति मिलती है, परन्तु इस सिद्धान्त को तुम लोग कहाँ मानते हो। तुम्हारा तो कहना है कि ऐसा आदमी मुनि नहीं बन सकता. दान नहीं दे सकता, यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता । अब तुम यह स्वीकार करते हो कि व्यभिचारी भी दान दे सकता है, मनि या आर्यिका के व्रत ले सकता है। यही तो हम कहते हैं। विवाह से या व्यभिचार से मोक्ष काई नहीं मानता। तुम्हारे कहने से भी यह सिद्ध हो जाता है । जैनधर्म के अनु Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) मार भी उन जातियों के कोई अधिकार नहीं छिन सकते। सुटि के लिये अलग प्रश्न हैं । विद्यानन्दजी की बहुतसी बातों की शालोचना प्रथम प्रश्न में हो चुकी है । आक्षेप ( ग ) - विधवाविवाह की सन्तान कभी मोक्षा. विकारिणी नहीं हो सकती। विष का बीज इसलिये भयङ्कर नहीं है कि वह विष वीज हे परन्तु विपबीजोत्पादक होने से भयङ्कर है | ( विद्यानन्द ) समाधान- यह विचित्र वान है । विपवोज अगर स्वतः मयर नहीं है तो उस के खाने में कार्ड हानि न होनी चाहिये, क्योंकि पेट में जाकर as farata पैदा नहीं कर सकता । व्यभिचारी तो वास्तविक अपराधी है। उस के ना अधिकार छिने नहीं और उस की निरपराध सन्तान का अधिकार छिन जाय यह अन्धेर नगरी का न्याय नहीं तो क्या है ? खै । रविषेण आचार्य के कथनानुसार व्यभिचारजान में कोई दूषण नहीं होता । यह हम पहिले लिख चुके है। सुदृष्टि के उदाहरण से भी यह बात सिद्ध होती है । आक्षेप (घ) - सव्यसाची का यह कहना कि "विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है। उससे किसी के अधिकार कैसे छिन सकते है" १ यह बात सिद्ध करती है कि व्यभिचार से अधिकार छिनते है । समाधान- हमारी पूरी बात उद्धृत न करके श्रक्षेपक ने पूरी धूर्तता की है। समाज की आँखों में धून भोकना चाहा है। पूरी बात यह है 'व्यभिचारजात सुदृष्टि सुनार ने मुनि दीक्षा ली और मोक्ष गया। यह बात प्रसिदूध ही है। इससे मालूम होता है कि व्यभिचार से या व्यभिचारजात होने से Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) किसी के अधिकार नहीं छिनने । विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है । उससे क्रिमी के अधिकार कैस छिन सकते हैं ?' पच्चीसवाँ प्रश्न । जिन जानियों में विधवाविवाह होता है उन में कोई मुनि बन सकता है या नहीं? इसके उत्तर में दक्षिण की जातियाँ प्रसिद्ध है। शांतिसागर की जाति में विधवाविवाह का श्रामतौर पर रिवाज है। माक्षेप (क)-जिन घरानों में विधवाविवाह होताद उन घगनेके पुरुष दीक्षा नहीं लेते ! पटेल घराना विधवाविवाह बिलकुल नहीं होता। कोई खंडेलवाल अगर विधवा विवाह करले तो समग खंडेलवाल जाति दपिन नहीं हो सकती। समाधान-~-शांतिसागरका झुठापन अच्छी तरह सिह किया जाचुका है। सामना हो जाने पर जैमा व मुंह छिपाते है उमगे उनकी कलाई बिलकुल खुल जाती है । पटेल धगनेके विषय में लिखा जा चुका है । बुट शान्तिसागर के मनीजे ने विधवाविवाह किया है । यह बात जैनजगत् में सप्रमाण निकन चुकी हैं। यह ठीक है कि एक जण्डेलवाल के कार्यसे वह जातीय रिवाज नहीं बन जाता है। परन्तु अगर मैकडों वर्षोंसे हजाग जण्डेलवाल विधवा-विवाह करते हो, वे जाति में भी शामिल रहते हो, उनका गेटी बेटी व्यवहार सब जगह होता हा, नव वह रिवाज ही माना जायगा । शान्तिसागर जी की जाति में विधवाविवाह पेसा ही प्रचलित है। श्राक्षेप ( ख ) यदि अनधिकारी होकर भी कोई दस्सामनि वनजाय ती मनिमार्ग का वह विकृत रूप उपादेय कदापि नहीं हो सकता। (विद्यानन्द) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) समाधान - शान्तिसागर का मुनि बनना अगर विरुन रूप है तो दलों का मुनि न बनने देने वाले शान्तिसागर को मुनि क्यों मानते है ? अगर मुनि मानते हे तो किसी का मुनि बनने का अधिकार नही छिन सकता । होना और सना में कार्य कारणभाव है। जहाँ होना है वहाँ सकना श्रवश्य हैं। अगर कोई स्वर्ग जाना है तो इससे यह बात आप ही सिद्ध हो जाती है कि वह स्वर्ग जा सकता है । जब शास्त्रां में ऐस मुनियों के बनने का उस न हैं, उन्हें मोक्ष तक प्राप्त हुआ है तब उन्हें मुनि बनन का अधिकार नहीं हैं ऐसा कहना मूर्खता है । सच्चे शास्त्रों में कहीं किसीका कोई अधिकार नहीं छीना गया । अच्छे काम करने का अधिकार कभी नहीं छीना जा सकता । अथवा नरपिशाच गक्षस ही ऐसे अधिकारों को छीनने की गुस्ताखी कर सकते है । कब्बीसवाँ प्रश्न | विधवाविवाह के विराधियों का यह कहना है कि उससे पैदा हुई सन्तान मोक्षाविकारिणी नहीं होती । हमाग कथन यह है कि विधवाविवाह से पैदा हुई सन्तान व्यभिचारजात नहीं है और मोक्षाधिकारी तो व्यभिचारजान भी होने हे । श्राराधना कथा कोष में व्यभिचारजात सुद्दष्टि का चरित्र इसका जबर्दस्त प्रमाण है । आक्षेप ( क ) - सुदृष्टि स्वय अपने वीर्य से पैदा हुये थे । ( श्रीमाल ) विवाहित पुरुष से भिन्नवीर्य द्वारा जां लम्ताम हो वह व्यभिचारजात सन्तति हैं । ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य इन तीन वर्णों की कोई स्त्री यदि परपुरुषगामिनी हां जाय तो परपुरुषोत्पन्न सन्तान मोक्ष की अधिकारिणी नहीं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५ ) है क्योंकि वहाँ कुलशुद्धि का अभाव है । यदि उसी स्त्री के व्यभिचारिणी होने के पहिले स्वपति से कोई सन्तान हो तो वह सन्तति त्रिविध कर्मों का क्षय करने पर मुक्ति प्राप्त कर सकती है । ( विद्यानन्द) समाधान-कोई अपने वीर्य में पटा हो जाय तो उसकी व्यभिचारजानता नष्ट नहीं हो जानी। कोई मनुष्य वेश्या के साथ व्यभिचार करे और शीघ्र ही मर कर अपने ही वीर्य से उसी वेश्या के गर्भ से उत्पन्न हो जाय तो क्या यह व्यभिचारजान न कहलायगा। विद्यानन्द का कहना है कि परपुरुषगामिनी होने के पहिलं उत्पन्न हुई सन्तति का मोक्षाधि. कार है परन्तु सुदृष्टि की पत्ती ता उमकं मग्न के पहिले ही परपुरुषगामिनी हो चुकी थी। तब वह मोक्ष क्यों गया ? निम्नलिखित श्लोकों सं यह बात बिलकुल सिद्ध है कि वह पहिले ही व्यभिचारिणी हो गई थी वक्राण्यां दुपधीस्तस्या गृहे छात्रःप्रवर्तते । तेन साई दुगवार सा कगेनि स्म पापिना ॥५॥ एकटा विमलायाश्च वाक्यतः सोऽपि वक्रकः । सुप्रिं माग्यगमाम कुर्वन्त कामसंवनम् ॥ ६॥ अर्थात् विमला के घर में वक्र नाम का एक बदमाश छात्र रहता था, उस पापी के साथ वह व्यभिचार करती थी। एक दिन विमला के कहने से कामसेवन करते समय उम वक्र ने सुदृष्टि को मार डाला। ___ इससे मालूम होता है कि सुदृष्टि के मरने के पहिले उसकी स्त्री व्यभिचारिणी हो चुकी थी, मुदृष्टि अपनी व्यभिचारिणी स्त्री के गर्भ से पैदा होकर मान गया था। उनके लिय लजा आना चाहिये जो हाड मॉस में शुद्धि अशुद्धि का विचार करते है और जब उन विचारों की पुष्टि शास्त्रों से Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) नहीं होती तो शास्त्रों की बाता को छिपाकर लोगों को पाखा में धूल झोंकते है। ग्राक्षेप (ख)-सुपि सुनार नहीं था । ( श्रीलाल, विद्यानन्द)। समाधान-पुराने समय में प्रायः जाति के अनुमार ही लोग आजीविका करते थे, इसलिये पानीविका के उल्लेख सं उसकी जाति का पता लग जाता है। अगर किसी को चर्मकार न लिखा गया हो परन्तु जूते बनाने का बात लिखी हो, साथ ही प्रेग्नी काई बात न लिनी हा जिसस बह चमार सिद्ध न हो तो यह मानना ही पड़ेगा कि वह चमार था । यही बात सुदृष्टि की है। उसने रानी का हार बनाया था और मरने के बाद दूसरे जन्म में भी उसने हार बनाया। अगर वह सुनार नहीं था तो (१) पहिले जन्म में वह हार क्यों बनाता था ? (२) ब्रह्मचारी नेमिदत्त ने यह क्यों न लिखा कि वह था तो वेश्य परन्तु सुनार का यन्धा करता था ? (३) दुसरे जन्म में जब राजकर्मचारी मर सुनागे के यहाँ चक्कर लगा रहे थे तब अगर वह सुनार नहीं था ता उसके यहाँ क्यों आये। सुदृष्टि के सुनार होने के काफी प्रमाण हे । आज से १६ वर्ष पहिले जो इस कथा का अनुवाद प्रकाशित हुया था और जो स्थितिपालको के गुरु प० धन्नालालजी को समर्पित किया गया था उसमें भी सुदृष्टि को सुनार लिखा है। उसकी व्यभिचारजातता पर नो किसी का सन्देह हो ही नहीं सकता। हॉ, धोखा देने वालों की बात दूसरी है। सत्ताईसवाँ प्रश्न । सोमसेन त्रिवर्णाचार का हम प्रमाण नहीं मानते परन्तु Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) विधवाविवाह के विगी पण्डिन दमको पूर्ण प्रमाण मानते है, यहाँ नक कि उम पक्ष के मुनिवेपो लाग भी उसे पूर्ण प्रमाण मानने है । जिस प्रकार कुगन पर अपनी श्रद्वा न हाने पर भी किसी मुसलमान को समझाने के लिये कुगन के प्रमाण देना अनुचित नहीं है उसी प्रकार त्रिवर्णाचार का न मानते हुये भी म्पितिपालकों को समझाने के लिये उसक प्रमाण देना अनुचित नहीं है। विवर्णाचार मंदा जगह विधवाविवाह का विधान है और दोनों ही स्पष्ट है गर्भाधाने पुमवन नीमन्तोन्नयन तथा । वधुप्रयशने ग्राडापुनर्विवाहमंडने ॥ --११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादाने नथैव च । कर्मवतेप वै भायां दक्षिणे नृपवेषयेत् ॥ --११७ ।। गर्भाधान पुमवन नीमन्तोन्नयन बधृप्रवेश, विधवाविवाह, कुलदेवीपूजा और कन्यादान के समय स्त्री को दाहिनी पार बैठाये। इस प्रकरण से यह बात बिलकुल मिद्ध हो जाती है कि सोमसेनजी को स्त्री पुनर्विवाह स्वीकृत था। पीछे के लिपिकाग या लिपिकारका को यह बात पसन्द नहीं आई इमलिये उनने 'पगडा' की जगह 'शुद्रा' पाठ कर दिया है । ६० पन्ना. लालजी सोनी ने दोनों पाठों का उल्लन अपने अनुवाद में किया था परन्तु पाछे ल किमी क बहकान में लाकर छपा हुआ पत्र फडवा डाला और उसके बदले दूसग पत्र लगवा दिया। अब वह फटा हुवा पत्र मिल गया है जिससे वास्त. विक बात प्रकट हो गई है। दूसरी बात यह है कि इन श्लोकों में मुनिदान, पूजन, आगिक, प्रनिष्ठा तथा गर्भाधानादि सस्कारों की बात आई है इसलिय यहाँ शह की बात नहीं Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) आसकती क्योंकि ग्रन्थकार के मनानुमार श्रद्रो को इन कार्यों का अधिकार नहीं है । इसलिये वास्तव में यहाँ रण्डा पुन. विवाह' पाठ ही है जैसा कि प्राचीन प्रतियों से सिद्ध है। अब ग्यारहवें अध्याय के पुनर्विवाह विधायक श्लोकों को भी देख लेना चाहिये । १७१ व श्लोक में साधारण विवाह विधि समाप्त हो गई है परन्तु ग्रन्थकार को कुछ विशेष कहना था सो उनने १७२ वें श्लोक से लगाकर १७७ चे श्लोक तक कहा है । परन्तु दूसरी आवृत्ति में पण्डितों ने १७४ वे श्लोक्मे "श्रथ पग्मतम्मृतिवचनम्" ऐसा वाक्य और जांड दिया जो कि प्रथमावृत्ति में नहीं था । खैर, वे कहीं के हो परन्तु सोमसेनजी उन्हें जैनधर्म के अनुकूल समझते है इसलिये उन को उधृत करके भी उनका खण्डन नहीं करते । इसीलिये पन्नालाल जी ने १७२ चे श्लोक की उत्थानिका में लिखा है कि "परमतके अनुसार उस विषयका विशेष कथन करते है जिस • का जैनमत के साथ कोई विरोध नहीं है।' इसलिये यहाँ जो पाँच श्लोक उद्धृत किये जाते है उनके विषयमें कोई यह नहीं कह सकता कि ये तो यहाँ वहाँ के है इनसे हमें क्या सम्बन्ध ? दूसरी बात यह है कि सोमसेन जी ने यहाँ वहाँ के श्लोकों से यो तो गन्थका प्राधा कलेवर भर रक्खा है, इमलिये यहाँवहाँ के श्लोकों के विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि यह रचना दूसरों की है परन्तु मत तो उन्हीं का कहलायगा। और, उन श्लोकों को देखिये. विवाहे दम्पती स्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारिणौ। अलंकृता बधूश्चैव सह शय्यासनाशनौ ॥११-१७२ ॥ विवाह होजाने के बाद पति पत्नी तीन रात्रि तक ब्रह्मचर्य से रहे। इस के बाद वधू अलकृत की. जाय और वे दोनों साथ सोवे साथ बैठे और साथ भोजन करें। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) ध्वा सहैव कुर्वीत निवास श्वशुरालये । चतुर्थदिन केचिदेवं वदन्ति हि ॥ 9 वर वधू के साथ ससुराल में हो निवास करे परन्तु कोई कोई कहते है कि चौथे दिन तक ही निवास करे । चतुर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दावा यदि वरस्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यात् पिनान्यमै विदुर्बुधाः ॥ ११-१७२ चौधी रात्रि को यदि वरके दीप (नपुंसकत्वादि) मालूम हो जायें तो पिता को चाहिये कि ही हुई- विवाही हुई-कन्या फिर से किसी दूसरे घर को दे दे अर्थात् उस का पुनर्विवाह ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है । प्रवरैक्यादिदोषाः स्युः पतिमहादधी यदि । saraf हरेद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ ११-१७५ अगर पतिसगम के बाद मालूम पढ़े कि पति पत्नि के प्रवर गात्रादि की एकता है तो पिता अपनी दी हुई कन्या किसी दूसरे को देदे | कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गान्तवः । कम्मिंश्चिदेश इच्छन्ति न तु सर्वत्र कंचन ॥११- १७६ परन्तु गान्तव ऋषि कहते है कि कलिकाल में पुनर्विवाह न करे और कोई कोई यह चाहते है कि कहीं कहीं पुनर्विवाह किया जाय सब जगह न किया जाय | दक्षिण प्रांनमें पुनर्विवाहका रिवाज होने से भट्टारक जी ने उस प्रान्त के लिये यह छूट चाही है । यो तो उनने पुनर्वि वाह को श्रावश्यक माना है परन्तु यदि दूसरे प्रांत के लोग पुनर्विवाहन चलाना चाहें तो मट्टारक जी किसी किसी प्रान्त के लिये खासकर दक्षिण प्रान्तकं लिये श्रावश्यक समझते है । पाटक देखे इन श्लोकों में स्त्रीपुनर्विवाह का कैसा ज़बर्दस्न समर्थन हैं । यहाँ पर यह कहना कि वह पुरुषों के पुनर्विवाह Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) का निषेधक है घोर अज्ञानता है। १७४-२७१ वे श्लोकों में कन्या के पुनर्दान या पुनर्विवाह का प्रकरण है । १७६३ श्लोक में पुनः विवाह के विषय में कुछ विशेष विधि वनलाई गई है। विशेष विधि सामान्यविधि की अपेक्षा रपती है इसलिये उसका नवन्ध ऊपर के टोनो श्लोकों से हो जाता है जिनम कि स्त्रीपुनविवाह का विधान है। 'कलौ तु पुनरुद्वाह' 'कलिकाल में तो पुनर्विवाह' यहाँ पर जा 'तु' शब्द पडा है वह भी बतलाता है कि इसकं ऊपर पुनर्विवाह का प्रकरण रहा है जिसका नांशिक निषेध गालव करते हैं। यह 'तु' शब्द भी इतना जयस्त है कि १७६ वे लोक का सम्बन्ध १७५ व श्लोक से कर देता है और ऐसी हालनमें पुरुष के पुनर्विवाह की बात ही नहीं पाती। दूसरी बात यह है कि पुरुपा के पुनर्विवाह का निषेध किसी काल के लिये किसी प्राचीन ऋषि ने नहीं किया। हाँ एक पत्नीके रहते हुए दूसरी पत्नीका निषेध दिया है। परन्तु विधुर होजाने पर दूसरी पत्नीका निषेध नहीं किया है न ऐमी पत्नी को मोगपत्नी कहा है । इसलिये भोगपत्नी के निषेध को पुनर्विवाहका निषेध समझ लेना अक्षन्तव्य शाब्दिक श्रदान है। मतलब यह कि न तो पुरुषों का पुनर्विवाह निरिद्ध है न यहाँ उस का प्रकरण है, जिससे १७६ वे लोकका अर्थ बदला जा सके । यह कहना कि हिन्दु ग्रन्थकारों ने विधवाविवाह का कहीं विधान नहीं किया है बिलकुल भूल है। नियोग और विधवाविवाह के विधानोंसे हिन्दू स्मृतियाँ भरी पडी है । इस का लेख अमितगति श्रादि जैन ग्रन्थकारों ने भी किया है। स्थितिपालक पण्डित १७५ वें श्लोक के पतिसगाधों' शब्दों का भी मिथ्या अर्थ करते हैं । पतिसग शब्द का पाणिपीडन अर्थ करना हद दर्जे की धोखेबाज़ी है । पतिसर-पति Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) "सम्मांग" यह मीया सच्चा अर्थ हरेक आदमी समझता है। १७४ चे श्लाक के चतुर्थी शट का मी पाणिपीडन अर्थ किया है ओर इधर पतिसह शन्ट का भी पाणिपीडन अर्थ किया जाय ना १७५ वॉ श्लोक विलकुल निरर्थक होजाता है इमलिये यहाँ पर पाणिपोहन अर्थ लोक, शास्त्र और ग्रन्थग्चमा की दृष्टि से बिलकुल झूठा है। अधः शन्द का अर्थ है 'पोछे', परन्तु ये पण्डित करतं है पहिलं': परन्तु न तो किसी कांप का-प्रमाण देते है और न साहित्यिक प्रयोग बतलाते है । परन्तु अधः शब्द का अर्थ पीछे या बाट हाना है. इसके उदाहरण ना जितनं चाहे मिलेंगे। जैम अधोमक्तं अर्थात् गांजनान्ते पीयमान जलाटिकम्-भोजन के अन्त में पिया गया जलाटिक । इसी तरह "अधालिखित लोक" शब्द का अर्थ है 'इसके बाद लिखा गया श्लोक' न कि 'इम पहिले लिखा गया श्लोक' । इमलिये 'पनिसहादधः शट का अर्थ दुवा 'सम्भाग के बाद जब सम्भाग के बाद कन्या दुमरे को दो जामकती है तब स्त्रीपुनर्विवाह के विधान की स्पष्टता और क्या होगी? अगर 'प्रधा' शब्द का अर्थ 'पहिले' भी कर लिया जाय नां भी १७५२ शनाक से स्त्रीपुनर्यिवाह का समर्थन ही होता है। 'सम्मांग के पहिले' शब्द का मतलब हुआ सप्तपदी के बाद' क्योंकि सम्माग सप्तपदी के बाद हाता है। यदि सप्तपदी के पहिले तक ही पुनर्दान की वान उन्हें स्वीकृत होती तो वे पतिसग शन्ट क्यों डालने ? मतपटी शब्द ही डालने । सप्तपढी के हाजाने पर विवाह पूर्ण हो जाता है और जब सप्तपदी के बाद पुनान किया जा सकता है तो स्त्रीपलिवाह सिद्ध हो गया। त्रिवर्णाचार में यदि एकाध शब्द ही स्त्रीपुनर्विवाह Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) साधक होता तो बात दूरी थी, परन्तु उनने तो अनेक प्रकरणों में अनेक तरह से स्त्रीपुनर्विवाह का समर्थन किया है । इस त्रिवर्णाचार में ऐसी बहुत कम वाते हे जो जैन धर्म के अनुकूल हो । उन बहुत थोडी बातों में एक बात यह भी है । इसलिये त्रिवर्णाचार के भक्तो का कम से कम विधवाविवाह का ता पूर्ण समर्थक होना चाहिये। इतना लिखने के बाद जो कुछ आक्षेपकों के श्राक्षेप रह गये हैं उनका समाधन किया जाता है। आक्षेप (क)-गालव ऋषि तो पुनर्विवाह का निषेध कर रहे हैं । आप विधान क्यों समझ बैठे ? (श्रीलाल, विद्यानन्द) समाधान-गालव ऋषि ने सिर्फ कलिकाल के लिये पुनर्विवाद का निषेध किया है। इसलिये उनके शब्दों से ही पहिले के युगों में पुनर्विवाह का विधान सिद्ध हुआ । तथा इसी श्लोक के उत्तरार्ध से यह भी सिद्ध होता है कि कोई श्राचार्य किसी किसी देश के लिये कलिकाल में भी पुनर्विवाह चाहते हैं । इसलिये यह श्लोक विधवाविवाह का समर्थक है। __ भोगपत्नी आदि की बातों का खण्डन किया जा चुका है। श्रीलालजी ने जो १७२ वें श्रादि श्लोकों का अर्थ किया है वह बिलकुल बेबुनियाद तथा उनकी ही पार्टी के पंडित पन्नालाल जी सोनी के भी विरुद्ध है। इन श्लोकों में रजस्वला होने की बात तो एक बच्चा भी न कहेगा। आक्षेप (ख)-मनुस्मृति में भी विधवाविवाह का निषेध है। समाधान-आक्षेपक यह बात तो मानते ही है कि हिन्दु शास्त्रों में परस्पर विरोधी कथन बहुन है। इसलिये वहां विधवाविवाह और नियोग का एक जगह जोरदार समर्थन Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) पाया जाता है तो दूसरी जगह ब्रह्मचर्य की महत्ता के लिये दोनों का निषेध भी पाया जाता है। नगर परिस्थिति की दृष्टि में विचार किया जाय तो इन मवका समन्वय हो जाता है। खैर, मनुम्मृति तथा अन्य स्मृनियों में विधवाविवाह या स्त्री पुनर्विवाह के काफी प्रमाण पाये जाते हैं। उनमें से कुछ ये है या पन्या वा परित्यक्ता विधवा स्त्रयेच्छ्या। उत्पादयत्पुन न्वा स पौनर्भव उच्यते ॥ मनुम्मति:-२७५ ॥ मा नेटक्षनयोनिः म्याद् गनप्रत्यागतापि वा। पौनर्भवन भी सा पुन संस्कारमर्हति ॥ ६-१७६॥ पति के द्वागछोडी गई या वियत्रा, अपनी इच्छा से दूमरे की भार्या हो जाय और जो पुत्र पैदा करे वह पोनर्भव कहला. यग। यदि वह स्त्री अक्षतयांनि हो और दूसरे पति के साथ विवाह करे तो उनका पुनर्विवाह सम्झार होगा। (पोनर्भवन भर्ना पुनर्विवाहास्यं संस्कारमहति ) अथवा अपने कोमार पति को छोडकर दूसरे पति के माथ चली जाय और फिर लोटकर उसी कौमार पति के साथ बाजाय नो उनका पुनर्विवाह सस्कार होगा । ( यहा कौमारं पतिमुत्सृज्यान्यमाश्रिन्य पुनस्तमेव प्रत्यागता भवति तदा नेन कौमारेण भापुनविवाहा. स्यं संस्कारमहति)। यहां पुनर्विवाह को सम्कार कहा हे इसलिये यह सिद्ध है कि वह व्यभिचाररूप या निधनीय नहीं है। हिन्दुशास्त्रों के अनुसार कलिकाल में पागशम्मृति मुख्य है। 'कलो पाराशगः स्मृताः' । पाराशरस्मृति में तो पुनर्विवाह मिनकुल स्पष्ट है नष्टे मृते प्रवजित क्लीवे च पतिते पती। पचखापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते 1 ४-३० ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४) पति के खो जाने पर, मर जाने, मन्यामी होजान, नपु. मक होने तथा पनित हाजाने पर स्त्रियों को दुमग पनि कर लने का विधान है। पनि शब्द का 'पनौ' रूप नहीं होना-यह यहाना निकाल कर श्रोलालजी नया अन्य लोग 'अपतो' शब्द निका लते है और अपनि का अर्थ करते हैं-जिमकी सिर्फ गार्ड हुई हा । परन्तु यह शंग भ्रम है । श्योंकि हम श्लोक को जनाचार्य श्रीअमित गनि न विधवाविवाह के समर्थन में ही उद्धत किया है । देखिये धर्मपरीक्षा - पत्यो प्रजिते लोये प्रनप्टे पतिते मृत। पचम्बापत्सु नारीणां पनिग्न्या विधीयते ॥ ११-१२॥ मरी बात यह है कि अगर यहाँ 'अपनो' निकलना होता तो 'अपतिरन्या विधीयन ऐमा पाठ रखना पडना जा कि यहाँ नहीं है और न छन्दोमग के कारण यहाँ प्रकार निकाला जा सकता है। नीसरी वान यह है कि अपनि शब्द का अर्थ जिसकी सिर्फ सगाई हुई हो ऐमा पति' नहीं होना। अपनि शब्द के इस अर्थ के लिये काई नमना पेश करना चाहिये ।। चौथी बात यह है कि पनि शब्द के रुप हरि लगेखे भी चलने है । क्योंकि पति का अर्थ जहाँ साधारणतः स्वामी, मानिक यह होता है वहाँ ममाम में ही घि सना होती है इसलिये वहाँ 'पतौ' ऐसा रूप नहीं बन सकना । परन्तु जहाँ पति शब्द का लाक्षणिक अर्थ पति अर्थात् 'विवाहित पुरुष' अर्थ लिया जाय वहाँ असमास में भी घि संज्ञा हो जाती है जिससे पतो यह रूप भी बनता है। 'पति समास पर्व' इस मत्र की तत्वबोधिनी टीका में ग्वुलासा तौर पर यह बात लिख दी गई है और उसमें पाराशरस्मृनि का "पनिते पनो" Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) घाला श्लोक भी उद्धन किया गया है जिनसे भी मालूम होता है कि यहाँ 'अपनों' नहीं है 'पतो' है । “अथ कथ सीताया पतये नमः" इति, 'न मृते प्रवजिने क्लीवं च पतिनं पतो। पत्रम्बापननु नारीणां पनिग्न्या विधीयते' इनि पाराशरश्च । अत्राहुः पतिरिति आख्यातः पतिः नत्कगति नटाचष्टे इनि णिचि टिलोपे अन्न इः इत्यौणादिकप्रत्यये णेरनिटि इनि णिलापे च निष्पन्नाऽयं पतिः "पनि समासः एव इत्यत्र न गृह्यते, लाक्षणिकत्वादिति"। पनि शब्द के घिसंशिक रूपों के और भी नमन मिलते हे नथा वैदिक संस्कृत में ऐम प्रयोग बहुलता से पाये जाते हे । पहिले हम यजुर्वेद के उदाहरण देते है नमो रुद्रायाननायिने क्षेत्राणां पतये नमः, नमः सूनास इन्न्य बनानां पतये नमः । १६ । १८ । इसी तरह 'कक्षाणां पनये नमः' 'पत्तीनां पतये नमः श्रादि बटुन से प्रयोग पाये जाते हैं। स्वयं पाराशर नं-जिनके श्लाफ पर यह विवाद चल रहा है-अन्यत्र भी ''तो' प्रयोग किया है । यथा जागेण जनयंदूगर्भ मृत त्यक्त गते पतो। नां त्यजेदपर राष्ट्र पनितां पापकारिणीम् ॥ १०-३१ ॥ अर्थात् पति के मर जाने पर या पनि स छोडी जाने पर जो स्त्री व्यभिचार से गर्भ धारण करे उस पापिनी को देश में निकाल देना चाहिये । अर्थात् पागशरजी यह नहीं चाहते कि कोई स्त्री व्यभिचार करे। विधवा या पतिहीन स्त्री का कर्त. न्य है कि वह पुनर्विवाह करले या ब्रह्मचर्य से रहे, परन्तु व्यभिचार कमी न करे । जा स्त्रियाँ ऊपर से ना विधवाविगाहको या उनके प्रचारकों को गालियाँ देती और भीतर ही भीतर व्यभिचार करती है वे सचमुच महापापिनी है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) हेमकोप में भी पती शब्द का प्रपोग हुया है । 'धयां धृत नरे पतो' । यहाँ पर धव और पति शब्द का पर्यायवाची कहा है और पति शब्दका पता रूप लिखा है। व्यास स्मृति में भी पतये प्रयोग है । 'दामीवादिएकार्येषु भार्या भर्तुः सदा भवेत् । ततोन्नसाधनं कृत्वा पनयं विनिवेद्य तत् ॥ २-२७ ॥ यहाँ पतिके प्रति भाकि कर्तव्य बतलाये है । यहाँ भी सगाई वाला पति अर्थ नहीं किया जा सकता है। शशिनीव हिमाानां घर्मानानां ग्वाविव । मनोन रमते स्त्रीणां जग जीर्णेन्द्रिये पता॥ मित्रलाभ-हितोपदेश । इस श्लोक के अर्थ में अपनी निकालने की चेष्टा करके श्रीलालजी ने धोखा देने की चेष्टा की है । इतना ही नहीं यहाँ पर भी अपनी आदत के अनुसार उलटा चोर कोतवाल को डॉटे की कहावत चारतार्थ की है । आप कहते है कि 'यहाँ भी सगाई वाले (अपति) बूढ़े दूल्हे की बात है। ताज्जुब यह है कि यहीं पर यह बात भी कहते जाते है कि विवाह ती १२-१६ की उम्र में हुअा होगा । जब विवाह के समय वर की उम्र पाए १६ वतताते हैं तब क्या वह जन्म भर तो पति बना रहा और वुढापे में अपति बन गया ? बलिहारी है इस क्लाना की! खैर, ज़रा यह भी देखिये कि श्लोक किस प्रकरण का है। कौशाम्बी में चन्दनदास सेठ रहता था। उसने बुढापे में धनके बलसे लीलावती नामकी एक वणिक्पुत्री से शादी करली, परन्तु नीलावती को उस बूढे से सन्तोप न हुआ, इस. लिये वह व्यभिचारिणी होकर गुप्त पाप करने लगी । इसी मौके पर यह श्लोक कहा गया है जिसमें 'पतौ' रूप का प्रयोग । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७) है । अब पाठक ही मोचें कि क्या वह बुट्टा लगाई वाला दूल्हा था? श्रीलालजी धोत्रा नो देते ही है परन्तु उसके भीतर कुछ मर्यादा रहे तो अच्छा है। खेर, ये मय प्रमाला इतने ज्यादा जबर्दस्त है कि 'पतो' रूप में किसी को सन्देह नहीं रह सकता। इसलिये पागशर ने विधवाविवाह का विधान किया है, यह स्पष्ट है । इसक अतिरिक्त मनुस्मृति के प्रमाण दिये गये है । आवश्यकता होने पर और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं। जैन विद्वान यह कह सकते है कि हम हिन्द स्मृतियाँ नहीं मानते परन्तु उन्हें यह कभी भूलकर भी न कहना चाहिये कि उनमें विधवाविवाहका विधान नहीं है । हिन्द पुगण और हिन्दू स्मृनियाँ विधवा. विवाह की पूर्ण समर्थक है। आक्षेप (ग)नान्यम्मिन् विधवा नारी नियातव्या द्विजातिभिः । अन्यन्मिन् हि नियुजाना धर्म हन्यु सनातनः ।। नोहाहि मन्त्रेप नियोगः काय॑ते क्वचित् । न विवाहविधायुक्त विधवावेटन पुनः ।। मनुस्मृतिक ये दोनों श्लोक विधवाविवाहक विरुद्ध है। (श्रीलाल) समाधान-हम कह चुके हे परिस्थिति के अनुसार अनेक तरह की प्रामा पक ही स्मृतिमें पाई जाती है । इसलिये अगर एक पुस्तक में एक विषय में विधि निपेध है तो उसका समन्वय करने के लिये अपेक्षा इंॉढ़ना चाहिये । अन्यथा जिस मनुस्मृति में स्त्री पुनर्विवाह की आज्ञा है और उसे संस्कार कहा है उसी में उसका विगंव कैसा? स्मृतियों में समन्वय और मुख्यगौणनाका बहा मूल्य है । खेर, परन्तु इन श्लोकों कांनां श्रीलालजीनं ठीक ठीक नहीं समझा है अन्यथा ये श्लोक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) कमी उद्धृत न किये जाने । पाठक इनके अर्थ पर विचार करे, पूर्वापर सम्बन्ध देखे और नियोग तथा विधवाविवाह के भेट का समझे। ये श्लोक नियोगप्रकरण के है। नियांग में सन्तानोत्पत्ति के लिये सिर्फ पक बार सभांग करने की आज्ञा है। नियोग के समय दोनों में सम्मांग क्रिया बिलकुल निर्मित होकर करना पहनी है तथा किसी भी तरह की रसिकता से दूर रहना पड़ता है । देविय ज्येष्ठो यवीयसी मार्यों यवीमान्वाग्रजस्त्रियम् । पतितो भवतो गत्या नियुक्तावप्यनापदि ||६-५८॥ अगर विधवा के मन्तान हो (अनापदि-सन्तानाभाव बिना) तो उसका ज्येष्ठ या देवर नियाग करे तो पनि हा जाते हैं। देवराहा सपिंडाहा स्त्रिया सम्पनियुक्तया। प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये ॥४-१६॥ सन्तान के नाश हाजाने पर गुरुजनों को प्राशाम विधिपूर्वक देवर से या और सपिंड से (कुटुम्बी से) इच्छित सतान पैदा करना चाहिये। (श्रावश्यकता हाने पर एक में अधिक सन्तान पैदा की जाती है । हिन्दु पुराणां क अनुमार धृतराष्ट्र पांडु और विदुर नियोगज सन्तान है)। विधनायां नियुक्तम्तु घृतातो घान्यतो निशि। एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथचन ॥६-६०॥ विधवा में (आवश्यकता होने पर सघत्रामें भी) सतान के लिये नियुक्त पुरुष, सारे शरीर में घी का लेप कर मौन रक्खे और एक ही पुत्र पैदा करे। विधवायां नियोगार्थे निवृत्ते तु यथाविधि । गुरुवश स्नुषावञ्च वर्तयातां परम्परम् ॥ ६-६२॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) नियोग कार्य पूरा हो जाने पर फिर भौजाई या बहू के ममान पवित्र सम्बन्ध रक्खे । नियक्ती ती विधि हित्वा वर्तयातां तु कामतः । तावुमी पतिती म्यातां स्नुपागगरुतल्पगी ।।६-६३॥ यदि नियोग के समय शामवासना से वह सम्भोग करे तो उसे मौजाई या भ्रातृवधू के साथ सम्भोग करने का पाप लगता है, वह पनित हो जाता है। पाठक देखें कि यह नियोग कितना कठिन है । साधारण मनुष्य इस विधिका पालन नहीं कर सकते । इसलिये आगे चलकर मनुस्मृति में इस नियोगका निषेध भी किया गया है। वही निषेधपरक श्लोक पंडित लोग उधृत करते हैं और विधिपरक श्लोकों को.साफ छोड जाते है।। हिन्दू शास्त्र न ना नियोग विरोधी है, न विधवाविवाह के । उनमें सिर्फ नियोग का निषेध, कलिकाल के लिये किया है क्योंकि कलियुग में नियोग के योग्य पुरुषों का मिलना दुर्लभ है। यही बान टीकाकारन कही है-"अयं च स्वोक्तनियोग. निषेधः कलिकालविपया" । वृहस्पनि ने तीन श्लोकों में तो और भी अधिक खुलासा कर दिया है । इसलिये हिन्दशास्त्रांस विधवाविवाह का निषेध करना सर्वथा भूल है । आक्षेप (घ) चाणिषयने पुनर्विवाह की प्राधा नहीं दी परन्तु पनि के पास जाने की प्रामा दी है । विदुल लाभे का अर्थ छोड़कर दुसरा पति करने का अर्थ तो इस अन्धेरी दरवार को ही सूझा। समाधान-श्रीलाल जी जान बूझकर बात को छिपाते है अन्यथा "यथादत्तमादाय प्रमुञ्चेयुः" श्रादि वाक्यों से पूर्व विवाह सम्बन्ध के टूट जानेका साफ़ विधान है। खैर, पहिली बात तो यह है कि उन वाक्योंका अनुवाद छपी हुई पुस्तक में Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) से लिया गया है। हमारे विषय में अर्थ बदलने की कुकल्पना आप भले ही करें, परन्तु अनुवादक के विषय में इस कल्पना की कोई ज़रूरत नहीं है । इसके अनुवादक वेदरत विद्याभास्कर, न्यायतीर्थ, सांख्यतीर्थ और वेदान्त विशारद है।। दूसरी बात यह है कि 'विदलु लाभे' धातु का प्रयोग विवाह अर्थ में होता है। मनुस्मृति में विन्देन देवरः का पर्याय वाक्य भर्तुः सोदर भ्राता परिणयेत् किया है। इसी तरह श्लोक 8-६० में 'विन्देत सदृश पति' का 'वर स्वयं वृणीन' पर्याय वाक्य दिया है। खुद कौटिलीय अर्थशास्त्र में विदल धातु का प्रयोग वरण के अर्थ में हुआ है। जैसे-ततः पुत्रार्थी द्वितीया विन्देत अर्थात् पहिली स्त्री से अगर १२ वर्ष तक पुत्र पैदा न हो तो पुत्रार्थी दूसरी शादी करले । यहाँ विन्देत का अर्थ शादी करे ही है । इसी तरह और भी बहुत से प्रयोग है । पहिले हमने थोडे से प्रमाण दिये थे, अब हम जरा अधिक देंगे। उन में ऐसे प्रमाण भी होंगे जिनमें विदुल का अर्थ पास जाना न हो सकेगा। "मृते भतरिधर्मकामातदानीमेवास्थाप्याभरणं शुल्क शेषं च लभेत ॥ २५ ॥ लब्ध्वा वा विन्दमाना सवृद्धिकमुभय दाप्येत ॥ २६ ॥ अर्थात् पति के मरने पर ब्रह्मचर्य से रहने वाली स्त्री, अपना स्त्री धन और अवशिष्ट शुल्क (विवाह के समय प्राप्त धन ) ले ले । अगर इस धन को प्राप्त कर वह (विधवा ) विवाह करे तो उससे व्याज सहित वापिस ले लिया जाय। पाठक विचार कि यहाँ"विन्दमाना" का अर्थ विवाह करने वाली है न कि पति के पास जाने वाली क्योकि पति तो मर चुका है। और भी देखिये 'कुटुम्बकामातु श्वसुरपतिदत्त निवेशकाले लभेत ॥२७॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) निवेशकालं हि दीर्घप्रवासे व्याख्याम्यायः ||२६|| यदि विधवा दूसरा घर बसाना चाहे अर्थात् पुनर्विवाह करना चाहे तो श्व सुर और पति द्वारा दी हुई सम्पत्ति को वह विवाद समय में ही सकती है। विवाह का समय हम दीर्घ प्रवास के प्रक रण में कहेंगे। इसी दीर्घप्रवास प्रकरण के वाक्य हमने प्रथम लेब में उद्धृत किये थे। इससे मालूम होता है कि वहाँ पुनर्विवाह का ही जिकर है न कि पनि के पास जाने का ' "श्वसुर प्रातिलोम्येन वा निविष्टा श्वसुर पतिदत्तं जीयेन" ॥ २६ ॥ सुरकी इच्छा के विरुद्ध विवाह करने वान्ती वधू से श्वसुर और पति से दिया गया धन से लिया जाय । इससे मालूम होता है कि महाराजा चन्द्रगुप्त के गल्य में सुर अपनी विधवा वधू का पुनर्विवाह कर देना था । अगर सुर उसका पुनर्विवाह नहीं करता था तो वह बधू ही अपना स्त्रीधन छोड़कर पुनर्विवाद कर लेती थी । शातिहस्तादभिप्राया ज्ञातयां यथागृहीतं दद्युः ॥ ३० ॥ न्यायोपगतायाः प्रतिपत्ता स्त्रीधनं गोपायेत् ॥ ३१ ॥ अगर उसके पीहर वाले ( पिता भ्राता आदि ) उसके पुनर्विवाह का प्रबन्ध करें तो वे उसके लिये हुए धन को दे दें, क्योंकि न्यायपूर्वक रक्षार्थ प्राप्त हुई स्त्री की रक्षा करने वास्ता पुरुष उसके धन की भी रक्षा करे । पतिद्वायं विन्दमाना जीयेन ॥ ३२ ॥ धर्मकामाभुञ्जीत ॥ ३३ ॥ दूसरे पति की कामना वाली स्त्री पतिका हिस्सा नहीं पा सकती और ब्रह्मचर्य से रहने वाली पासकती है। पुत्रवती विन्दमानास्त्रीधनं जीयेत ॥ ३४ ॥ नत्त स्त्रीधन पुत्रा हरेपुः || ३५ || पुत्रमरणार्थ वा घिन्टमाना पुत्रार्थं स्फाती कुर्यात् ||३६|| कोई स्त्री पुत्र वाली होकरकंभी अगर पुनर्विवाद Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२) करे तो वह स्त्री धन नहीं पासकनी । उसका स्त्री धन उसके पुत्र ले लें। अगर पुत्रोंके भरण पोषण के लिये ही वह पुनविवाह करे तो वह अपनी सम्पत्ति पुत्रोंके नाम लिख दे। हम नहीं समझते कि इन प्रकरणों में कोई पुनर्विवाहका विधान न देखकर पति के पास जाने का विधान देख सकेगा। इस ग्रन्थ में परदेश में गये हुए दीर्घप्रवासी पति को तो छोड देने का विधान है, उसके पास जाने की तो बात दूसरी है । नीचत्व परदेश वा प्रस्थितो राजकिल्बिपी। प्राणाभिहन्ता पतितस्त्याज्यः क्लीयोऽपित्रा पनि । नीच, दीर्घप्रवासी, राजद्रोही, घातक, पनित और नपुं सक पतिको स्त्री छोड़ सकती है । हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि श्रीलालजी या उनके साथी किसी भी विषय का न तो गहग अध्ययन करते हैं न पूर्वापर सम्बन्ध देखते हैं और मनमाना बिलकुल वेबुनियाद लिख मारते हैं । खैर, अब हम हखप्रवास और दीर्घप्रवास के उद्धरण देते है जिनके कुछ अंश पहिले लेख में दिये जा चुके है। 'हखप्रवासिनशूद्र वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः सवत्सगेत्तर कालमारनप्रजाता, सवत्सराधिकंप्रजाताः॥२६॥ प्रतिविहिताद्विगुणं कालं ॥२७॥अप्रतिविहिता सुखावस्था विभूपुः पर चत्वारिवर्षाण्यष्टौ वाज्ञातयः। ततो यथादत्तमादाय प्रमुञ्चेयुः ॥ २६॥ थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मणों की स्त्रियाँ अगर पुत्रहीन हो तो एक वर्ष और पुत्रवती इससे अधिक समय तक प्रतीक्षा करें । यदि पति आजीविका का प्रवन्ध्र कर गया हो तो इससे दूने समय तक प्रतीक्षा करें। जिनकी आजीविका का प्रबन्ध नहीं है, उनके वंधु बाँधव चार वर्ष या आठ वर्ष तक उनका भरण पोषण करें । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३) इसके बाद प्रथम विवाह के समय में दिया हुआ धन वापिस लेकर दुसरी गाटोके लिये प्राधा दे। पाठक देख्ने कि यहाँ 'प्रमुच्चय किया है । इसका अर्थ 'छोड है ऐसा होता है। पति के पास भेज दें ऐमा अर्थ नहीं होता । पनि के पास से पिता के पास, या पिता के पास से पति के पाम माने जाने में मुञ्च या छोड देने का व्यवहार नहीं होना । इसलिये सम्बन्ध विच्छेद के लिये ही इस शब्द का व्यवहार हुश है। ब्राह्मणमधीयानं दश वर्षाण्यप्रजाना, द्वादश प्रजाता गजपुरुषमायु तयाटाकाड्नेन ॥३०॥ सवर्णतश्च प्रजाना नाप चार्ट लभेत ॥३१॥ पढने के लिये विदेश गये ब्राह्मण को मन्तानहीन ग्त्री दशवर्प नक. मनान घाली १२ वर्ष तक और गजकार्यप्रवामी की जीवनपर्यन्त प्रतीक्षा करे । हाँ, अगर किनी समान वर्ग के पुरुष से वह गर्भवती होजाय तो वह निन्दनीय नहीं है । यहाँ पर प्रतीक्षा करने क बाट पनि के पास जाने की बात नहीं लग सकती। जब ऐसी हालत में परपुरुष से गर्मवती होजाने की यात मी निन्दनीय नहीं है तब उनके पुनर्विवाह की बात का तो कहना ही क्या है। कुटुम्बादिलोपे वा सुखावम्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देत जीवितार्थम् ।। ३२॥ कुटुम्पकी सम्पत्ति नष्ट होने पर या उनके डाग छोड़े जाने पर जीवन निर्वाह के लिये इच्छानुसार विवाह करे। श्रीलालजी विन्देत का अर्थ करते है पति के पास जावे। हम सिद्धकर चुके है कि विन्देत का अर्थ विवाह करें है। साथ ही इस ग्रन्थ का साग प्रकरण ही स्त्री पुनर्विवाह का है यह पात पहिले उद्धरणों से भी सिद्ध है । 'यथे' शब्द से भी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह करने की बान मिड होनी ! इच्छानुसार पति के पाम जाये यहाँ इच्छानुमार गट का कुछ प्रयोजन ही नहीं मालूम होना, जब कि, इच्छानुमार विवाद करे-दम वाक्य में इच्छानुमार शन्ट पावश्यक मालूम होता है । श्रापद्गतावाधर्मविवाहकुमारी परिगृहीनारमनान्याय प्रोपित अयमा माननीय न्यावाट्लेन ॥ सबसयमा रामायाय ॥३४॥ प्रोपिनमयमाणं पञ्चनीन्यार इनन ॥५॥ दश मयाणम् ॥ ३० ॥ एक देशदत्त गुरुकंत्रीणीनीन्ययमाराम् ||२७धृयमाराम् सप्तनीयान्यसादनंत ॥३॥ दत्त शुल्क पञ्चनीन्यथ्यमाणम् ॥३६दश अगमाराम् ।।४०॥ ननः परं धर्मस्थैर्विमृष्टा यथेष्टम् बिन्देन ॥४॥ निर्धनता में आपद्ग्रस्त कुमारी (अननयोनि) चिमा चार धर्मविवाहों में से कोई विवाह हुआ और उसका पनि बिना कहे परदेश चन्ना गया हो तो वह सात मासिकधर्म पयंत प्रतीक्षा करें। कहकर गया हो तो एक वर्ष नका प्रवासी पति की बयर न मिलने पर पाँच मासिकधर्म तक । बयर मिलने पर दश मासिकधर्म तक प्रतीक्षा करें। विवाह के समय प्रनिमात धन का एक भाग ही जिसने दिया हो ऐसा पनि विदेश जानेपर अगर उसकी मार न मिले नो नीन मासिकधर्म नक और खबर मिलने पर साल मासिक धर्म तक उसकी प्रतीक्षा करे अगर प्रतिज्ञान धन साग देटिया हो तो खबर न मिलने पर तीन और खबर मिलने पर सान मासिकधर्म तक प्रतीना करे । इसके याद धर्माधिकारी को श्राना लेकर इच्छानुसार दूसरा विवाह कर ले (यहाँ भी यथेट शब्द पड़ा हुआ है ।)। साथ ही धर्माधिकारीसे प्राक्षा लेने की बात कही गई है। पुनर्विवाह के लिये ही धर्माधिकारी की आशा की ज़रूरत है न कि पति के पास जाने के लिये। फिर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५ ) जिस पनि की खबर ही नहीं मिली है उसके शाम वह कैमे जा सकती है? दीर्घप्रवामिन प्रवजितस्य प्रेतम्य या मार्गमनतीर्थान्याकांक्षत ॥४३॥ संवत्सर प्रजाता॥४४॥ नन पतिमांदयं गच्छेत् ।। ४५ ।। बहुप प्रत्यासत्र धार्मिकं गर्म समय कनिष्पमभायं वा । नदभावेऽप्यमांढय सपिगडं कुल्यं वासत्रम् ।। ४७॥ एतेषां पर एव क्रमः ॥ ४॥ दीर्घप्रवामी, संन्यामो या मर गया हो तो उसको स्त्री मत मासिकधर्म तक उसकी प्रतीक्षा करे। अगर मन्नान वाली हो तो एक वर्ष तक प्रतीक्षा करे. इसके बाद पति के भाई के साथ शादी करले। जो भाई पतिका नजदीकी दो, धार्मिक हो, पानन पोषण कर मके और पत्नी रहिन हो। अगर सगा भाई न हो तो पनि के वश का हो या गांव का हो। यहाँ तो श्रीलाल जी पति के पास जाने की बात न कहेंगे? क्योंकि पनि ना संन्यामी हो गया है या मर गया है। फिर पति के भाई के पास जाने की प्रामा क्यों है ? अपने भाई या पिता या श्वसुर के पास जाने की या नहीं? फिर पनि का भाई भी कैमा ? जिसके पनी न हो। क्या अब भी श्रीलाल जी यहाँ विवाह की बात न समझेगे।। आक्षेप (3)-प्राचार्य सोमदेवजी ने जिन म्मृतिकागे के विषय में लिखा है वह सब चर्चा मगाई बाद की है। वैष्णवों के किसी अन्य में भी विधवाविवाह की आमा नहीं है। (श्रीलाल) समाधान-"विकृनपत्यूदापि पुनर्विवाहमहतीति स्मृ. तिकाग" विकृतपति के साथ विवाही गई स्त्री भी पुनर्विवाह कर सकती है। स्मृतिकारों के इस वक्तव्य में सगाई की ही धुन लगाये रहने वाले श्रीलाल जी का साहस धन्य है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) 'तावद्विवाहो नैवस्याद्यायवन्सप्तपदी भवेत्' नय नक विवाह नहीं होना जव नक सप्तपदी न हो जाय । इमलिये जिम स्त्री को विवाही गई कहा है यह अभी तक वाग्दत्ता ही बनी हुई है, ऐसी बात श्रीलाल जी ही कह सकते है। फिर पुनर्विवाह शब्द भी पड़ा हुआ है। यह पुनर्विवाह शब्द ही इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की जरूरत नहीं है । मंग, श्रीलाल जी हम वाक्य का जो चाहे अर्थ करें परन्तु उनने यह गान मानली है कि सोमदेव जी को इस वाक्य में कुछ आपत्ति नहीं है। अन्यथा उन्हें इस वाक्य के उद्धन करने की क्या ज़रूरत थी, जब कि खण्डन नहीं करना था। वैपणवों के ग्रन्थों में पुन. विवाह की कैसी आशा है यह बात हम इमी लेख में विस्तार से सिद्ध कर चुके हैं। प्रश्न अट्ठाईसवाँ इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि अगर किसी अयोध कन्या के साथ कोई बलात्कार करे तो फिर उसका विवाह करना चाहिये या नहीं। हमने उत्तर में कहा था कि ऐसी हालन में कन्या निरपराध है। इमलिये विधवा-विवाह के विरोधी भी ऐसी कन्या का विवाह करने में सहमत होंगे, क्योंकि उसका विवाह पुनर्विवाह नहीं है, श्रादि । श्रीलाल जी का कहना है कि 'उसी पुरुप के साथ उसका विवाह करना चाहिये या वह ब्रह्मचारिणी रहे, तीसरा मार्ग नहीं जॅचता ।' जब तक मिथ्यात्व का उदय है तब तक श्रीलालजी को कुछ जॅच भी नहीं सकता। परन्तु श्रीलालजी, न जॅचने का कारण कुछ भी नहीं बतला सके हैं इसलिये उनका यह वक्तव्य दुगग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है। श्राक्षेप (क)-ऐसी कन्या का विवाह बलात्कार करने Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७) वाले पुरुष के साथ ही करना चाहिये । पागडु और कुन्ती के चारित्र से इस प्रश्न पर प्रकाश पडता है। (विद्यानन्द) ममाधान-पाण्डु और कुन्नी का सम्बन्ध बलात्कार नहीं था जिससे हम पागडु को नीच और गनसी प्रकृति का मनुष्य कह सके। और ऐसी हालत में पागहु अपात्र नहीं कहा जा सकता । बलात्कार तो शैतानियत का उग्र और बीभत्सरूप है । बलात्कार सिर्फ कुशीन ही नहीं है, किन्तु वह घोर रानसी हिंमा भी है । इसलिये बलात्कार के उटा हरण में पारडु कुन्नी का नाम लेना भूल है। हम पलते है कि बलात्कार, विवाद है या नहीं? यदि विवाह है तो फिर विवाह करने की श्रावश्यकता क्या है ? अगर विवाह नहीं है तो वह कन्या अविवाहिना कहलाई. इसलिये उसका विवाद होना चाहिये। माक्षेप (ब)-मिला। अगर दूध को जूठा करदं ता वह अपेय हो जाता है, यद्यपि इसमें दूध का अपराध नही है । इसी प्रकार बलात्कार मे दृषित कन्या भी समझना चाहिये । (विद्यानन्द) समाधान-इम एमांत में अनेक पेसी विषमता है जो दूध के समान कन्या को त्याज्य सिद्ध नहीं करनी । पहिली तो यह है कि दूध जह है । १६ अगर नाली में फेंक दिया जाय तो दूध को कुछ दुःख्न न होगा। उमलिये हम दूध के निग्पगध होने पर भी उसकी तरफ से लापर्वाह गह सकते है । परन्तु कन्या में सुख दुःख है। उसकी पर्याद करना समाज का कर्तव्य है। इसलिये कन्या के निरपराध होने पर हम ऐसा कोई विधान नहीं बना सकते, जिससे उसको दुःख या उसका अपमान हो। दूमरी विषमता भाज्य भांजक की है। स्त्री को हम Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१= ) 1 भोज्य कहे और पुरुष की भोजक, यह बात सर्वथा श्रनुचिन है । क्योंकि जिस प्रकार स्त्री, पुरुष के लिये मोज्य है उसी प्रकार पुरुष, स्त्री के लिये भांज्य है । इसीलिये स्त्री जूठी हां और पुरुष जूठा न हो, यह नहीं कहा जा सकना | जय पुरुष जूठा होकर के भी स्त्री के लिये गांज्य रहता है ना स्त्री भी क्यों न रहेगी ? तीसरी बात यह है कि स्त्री पुरुष के सम्बन्ध को श्रक्षेपक ने योग मान लिया है जबकि वह उपभोग हूं । गांग का विषय एक बार ही गोगा जाना है, इसलिये उसमें जूठापन श्राजाता है परन्तु उपभोग अनकवार भोगा जाता है । सभ्य श्रादमी अपना ही झूठा गोजन दूसरे दिन नहीं खाता जबकि एक ही वस्त्र का अनेकवार काम में लाना रहना है। अगर स्त्री को भोज्य माना जाय तो जिस स्त्री को श्राज मोगा गया उसको फिर कभी न भागना चाहिये । तब नां हर एक पुरुषको महीने में चार चार छः छः स्त्रियों की श्रावश्य कता पडेगी अन्यथा उन्हें जूठी स्त्री से ही काम चलाना पढ़ेगा । स्त्री और पुरुष के सम्बन्धमें तो दोनोंही सुखानुभव करते है, इसलिऐ कौन किसका जूठा है यह नहीं कहा जा सकता । फिर भी जो लोग स्त्रियों में जूठेपन का व्यवहार करते है वे माता को भी जूठा कहेंगे, क्योंकि एक बच्चे ने एक दिन जिस माता का दूध पीलिया वह दूसरे दिन के लिये जूठी हो गई । और दूसरे बच्चे के लिये और भी अधिक जूठी हो गई । इतना ही नहीं इस दृष्टि से पृथ्वी, जल, वायु आदि जूठे कहलायेंगे, सारा संसार उच्छिष्टमय हो जायगा, क्योंकि किसी भी इन्द्रिय का विषय होने से जब पदार्थ उच्छिष्ट माना जायगा तो स्पर्श करने से पृथ्वी, जल और वायु जूठी कहलायेगी और ऑखों से देख लेने पर सारा संसार जूठा कहलायगा । यदि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) रसना इन्द्रिय के विषय में ही उच्छिए अनुच्छिए का व्यवहार किया जाय तो कन्याको हम उच्छिष्ट नहीं कह सकते, क्योंकि वह चचाने खाने की वस्तु नहीं है, जिससे वह जूटे दूध के समान समझी जाय । उन्तीसवाँ प्रश्न | "जैवर्णिकाचार से तलाक के रिवाज का समर्थन होता हैं । "यह बात हमने संक्षेप में सिद्ध की थी । परन्तु ये दोनों आक्षेपक कहते है कि उसमें तलाक की बात नहीं है। भले ही तलाक या ( Divorce ) श्रादि प्रचलित भाषाओं के शब्द उस ग्रन्थ में न हो परन्तु वैवाहिक सम्बन्ध के त्याग का विधान अवश्य हैं और इसी को तलाक कहते है अजां दशमे वर्षे स्त्री प्रजां द्वादशं त्यजेत् । मृनप्रजां पचदर्श सद्यस्त्वप्रियवादिनीम् ॥११- १६७॥ व्याधिता स्त्रीप्रजा वन्ध्या उन्मत्ता विगतार्तया । श्रदुष्टा लमते त्याग तीर्थो न तु धर्मतः ॥११- १६८ ॥ अगर दस वर्ष तक कोई सतान न हा ना दसवें वर्ष में, अगर कन्याएँ ही पैदा होती डॉ ना बारहवें वर्ष में, अगर सतान जीवित न रहती हो ता १५ वें वर्ष में स्त्री का छोड देना चाहिये और कठोर भाषिणी हो ना तुरत छोड देना चाहिये ॥ १६७ ॥ रोगिणी, जिसके केवल कन्याएँ ही पैदा होती हो, बन्ध्या पागल, जा रजस्वला न होती हा ऐसी स्त्री अगर दुष्ट न हो तो उसके साथ सभोग का ही त्याग करना चाहिए; बाकी पत्नीत्व का व्यवहार रखना चाहिए || १८ || इसस मालूम होता है कि १६७ वें श्लोक में जो त्याग बतलाया है उसमें स्त्री का पतीत्व सम्बन्ध मी अलग कर दिया गया है । यह तलाक़ नहीं तो क्या है ? Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) श्रीलाल जी कहते है कि दक्षिण में तलाक का रिवाज ही नहीं है । सौभाग्य से दक्षिणप्रान्त अाज भी बना हुआ है। कोई भी आदमी वहाँ जाकर देख सकता है कि चतुर्थ पचम सेनवाल श्रादि दिगम्बर जैनियों में विधवाविवाह और तलाक का रिवाज आमतौर पर चालू है या नहीं। बल्कि वहाँ पर विधुर कुमारियों के साथ शादी नहीं करने । इमलिये कुमारियों के साथ पहिले किसी अन्य पुरुष की शादी करदी जानी है इसके बाद नलाक दिलाया जाना है फिर उस विधुर के नाथ उस नलाफ वाली स्त्री की शादी होनी है। इसके अनिरिक्त अन्य स्त्रियाँ भी तलाक देती है, पुनर्विवाह करनी है। दक्षिणप्रान्त में नलाक का अभाव बनला कर श्रीलाल जी या नो कूपमण्डकता का परिचय दे रहे हैं या समाज को धोखा दे रहे है। तीसवाँ प्रश्न । पुराणों में विधवा-विवाह का उल्लेख क्यों नहीं मिलता, इसके कारणोंका सप्रमाण दिग्दर्शन किया था। दोनोंही आक्षे. पको से यहां पर भी कुछ खण्डन नहीं बन सका है। परन्तु इस प्रश्नमें विद्यानन्द जीने तो सिर्फ अपनी अनिच्छाही ज़ाहिर की है, परन्तु पण्डित श्रीलालजी ने अण्ड बण्ड लिन माग है। बल्कि धृष्टताका भी पूर्ण परिचय दिया । जैनजगत् आदि पत्रों का काला मुंह करने का उपदेश दिया है । खैर, यहाँ हम . संक्षेप में अपना वक्तव्य देकर आक्षेपोंका उत्तर देंगे। अ-पुराणों में विधवा-विवाह का उल्लेख नहीं है और विधुर विवाह का उल्लेख नहीं है । परन्तु यह नहीं कहा जास. कता कि पहिले जमाने में विधुर विवाह नहीं होते थे। न यह कहा जासकता है कि विधवाविवाह नहीं होते थे। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) श्रा-आजकल भी प्रथम विवाह के समय ही विशेष समारोह किया जाता है। द्वितीय विवाह समय विशेष समा. गह नहीं किया जाना । इमी तरह पहिले जमाने में भी स्त्री पुरुषों के प्रथम विवाह के समय विशेष समारोह हाता था; हिनीयादि विवाहों के समय नहीं । रामचन्द्र श्रादि के प्रथम विवाह का जैसा उल्लेख मिलता है वैसा हिनीयादि विवाहाँका नहीं मिलता। इमी तरह स्त्रियोंक भी प्रथम विधाहका उल्लेख मिलता है द्वितीय विवाहों का नहीं। -पुरुषों के द्वितीयादि विवाहोका जा साधारण उल्लेख मिलता है वह उन के बहुपत्नीत्व का महत्व बतलाने के लिए है। पुराने जमाने में जो मनुष्य जितना बडा वेमयशाली होना था वह उननी ही अधिक स्त्रियाँ रखना था। इसीलिए चक्रवर्ती के १६ हजार,अर्द्धचक्रोफे १६०००, बलभद्रके :००था साधाग्ण गजाओक सैकडी स्त्रियाँ होती थीं । स्त्रियाँ अपना पुनर्वि. वाह तो करती थी, परन्तु उनका एक समय में एक ही पति होना था, इमलिये उनके बहुपमित्व का महत्व नहीं पतलाया जासकता था। तब उनके दूसरे विवाहका उल्लेख क्यों होता? ई-आजकल लोग अपनी लडकियो का विवाह जहाँ तक घनता है कुमार के साथ करते है, विधुरके माध नहीं । वासकर श्रीमान् लोग तो अपनी लरकी का विवाह विधुरोके साथ कदापि नहीं करते। परन्तु इस परसे यह नहीं कहा जासकता कि आज विधुरविवाह नहीं होता, या विवाह करने वाले विधुर जातिच्यत समझ जाते है। इसी प्रकार पुगने समय में लांग यथाशक्ति कुमारियों के साथ शादी करते थे और श्रीमान् लोग नो विधवाओं के साथ शादी करना ही नहीं चाहते थे। परन्तु इससे विधुर विवाह के समान विधवाविवाह का भी निषेध नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि स्त्रियों को विवाह के Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२) बाद पक कुटुम्ब छोडकर दुख कुटुम्ब में जाना पड़ता है । इसलिये भी श्रीमन्त धगनों की स्त्रियाँ पुनर्विवाह नहीं करती थीं, क्योंकि ऐसी अवस्थामै उन्हें गरीव घग्में जाकर रहना पडता था । चूँकि श्रीमान लोगों को तो कुमारियाँ ही मिल जाती थीं इसलिये वे विधवाओं में विवाह नहीं करते थे। गरीव घगनों में होने वाले वैवाहिक सम्बन्धों का महत्व न होने से शालों में उनका उल्लेख नहीं है। उ-प्रायः कुमारियाँ हो म्वयम्बर करती थीं और स्व. यम्बर बडे २ विग्रहोंक तथा महत्वपूर्ण घटनाओं के न्यान थे इसलिए शास्त्रों में स्वयम्बर का जिकर शाता है । विधवाओं का स्वयम्बर न होने से विधवाविवाह का जिकर नहीं आता। ऊ-हिन्दू पुगणों में द्रौपदी के पात्र पनि माने गये हैं। दिगम्बर जैन लेखकान द्रौपदीक प्रकरण में इस बातका खण्डन किया है। हिन्द शास्त्रों के अनुसार मन्दोदरीका भी पुनर्विवाह हुआ था, परन्तु मन्दोदरी के प्रकरण में उसके पुनर्विवाह का खण्डन नहीं किया गया. इससे मालूम होता है कि दिगम्बर जैन लेखक बहुपतित्व (एक साथ बहुत पनि रखना) की प्रथा के विरोधी थे, परन्तु विधवाविवाह के विरोधी नहीं थे। ऋ-हमारे पुराण जिस युग के बने हैं उस युग में भारत में सतीप्रथा ज़ोर पकड रही थी, विधवाविवाहकी प्रथा लुप्त होरही थी। ऐसी अवस्था में दिगम्बर जैन लेखकाने जमाने का रुख देखकर विधवाविवाह वाली घटनाओंको अलग कर दिया, परन्तु कोई आदमी विधवाविनाह को जैनधर्म के विरुद्ध न समझले, इसलिये उनने विधवाविवाहका विरोध नहीं किया। ल-हिन्द पुराणों से और स्मृतियों से चैदिक धर्माव. लम्बियों में विधवाविवाह का रिवाज सिद्ध है। गौतम गणधर ने हिन्दू पुराणों की बहुतसी बातोंका खण्डन किया, परन्तु Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) विधवाविवाहका खण्डन नहीं किया। इससे भी विधवाविवाह की जैनधर्मानुकूलता मालूम होती है । एप्रथमानुयोग, पुण्य और पापका फल बतलाने के लिये है, इसलिये उसमें गतिरिवाजों का उल्लेख नहीं होता है। इसलिये उसमें प्रेम किसी भी विवाहका उल्लेख नहीं है जो समाधारण पुराय या पुराय फल का योनक न हो । ऊपर हम कह चुके हैं कि विधवाविवाह में ऐसी असाधारणता न होने में उसका उल्लेख नहीं हुआ। ऐ-ऐसी बहुन बाते है जो जैनधर्म के अनुकूल है, शास्त्रोक्त है, परन्तु पुराणों में जिनका उल्लेख नहीं है-जैसे विवाह में होनेवाली सप्तपदी, वेंधव्यदीता, दीक्षान्वय क्रियाण पादि। ओ-परस्त्रीमेवन आदि का जिम प्रकार निन्दा करने के लिये उल्लेख है, उस तरह शास्त्रमें विधवाविवाहका खण्डन करने के लिए उनख नहीं है। श्रो-गगवान महावीर के द्वारा जितना प्रथमानुयांग कहा गया था उमना आजकल उपलब्ध नहीं है। सिर्फ मोटी मोटी घटनाएँ रह गई है इसलिए गी विधवावियाह सरीखी माधारण घटनाओं का उल्लेख नहीं है । ___ उपर्युक्त बारह छदकों में मेरे बक्तव्य का सागंश आगया है और श्रादेषों का पगडन भी हो गया है। फिर भी कुछ याकी न रह जाय, इसलिये आक्षेपकोंक निःसार आक्षपोंका भी ममापान किया जाता है । लेखनशैली की अनभिज्ञता से श्रीलालजी ने जो श्राप किये हैं उन पर उपेक्षा दृष्टि रक्खी जायगी। आक्षेप (क)- दमयन्तीने अपने पति नलको हूँढने क Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) लिये स्वयम्बर रच दिया तो क्या हिन्द शास्त्रों में पुनर्विवाह सिद्ध होगया? [श्रीलाल समाधान-दमयन्ती पुनर्विवाह चाहती थी, यह हम नहीं कहने. परन्तु उस समय हिन्दुओं में उसका रिवाज था यह घात मिद्ध होजाती है । दमयन्ती के व्ययम्बर का निमन्त्रण पाकर किमीने इसका विरोध नहीं किया-मिर्फ दमयन्ती पति नल को छोड़कर और किमी को इसमें आश्चर्य भी न हुया। सब राजा महागजा म्वयम्बर के लिये श्राये । यदि विधवा. विवाहका रिवाज न होता तो राजा महागजा क्यों आने ? आक्षेप (ख) अन्तगल में चाहे धर्म कर्म उठ जाय परन्तु सजातीयधिवाह नष्ट नहीं हुश्रा करना है। श्रीलाल समाधान-अन्तगालमें धर्मकर्म उठ जाने पर भी अगर सजातीय विवाह नष्ट नहीं हुआ करता तो इससे सिद्ध हो जाता है कि सजातीय विवाह से धर्मधर्म का कुछ मम्बन्ध नहीं है। ऐसी हालत में सजानीय विवाह का कुछ महत्व नहीं रहता। - सजातीय विवाह का बन्धन तो पौराणिक युग में कमी रहा ही नहीं । जातियों तो सिर्फ व्यापारिक क्षेत्र के लिये थीं। भगवान् ऋपभदेव के समय से जानियाँ है और उनके पुत्र सम्राट भरतने ३२००० विवाह म्लेच्छ कन्याओं के साथ श्यि थे। तीर्थडगे ने भी म्लेच्छों के नाथ वैवाहिक सम्बन्ध किये थे । अनुलोम और प्रतिलोम दोनों तरह के उदाहरणांसे जैन. पगण भरे पड़े हैं। विजातीयविवाह और म्लेच्छ कन्याओं से होने वाले विवाहके फलस्वरूप होने वाली सन्तान मुक्तिगामी हुई है इसकेभी उदाहरण और प्रमाण बहुतसे है। यहाँ विजा. तीय विवाह का प्रकरण नहीं है । विजातीय विवाह की चर्चा उठाकर श्रीलाल जी धूप के डरसे भट्टी में कूट रहे हैं । अन्त. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) गल में विजातीय विवाह रहे चाहे जाय परन्तु जर उस समय जैनधर्म की प्रवृत्ति नहीं थी तव वैदिकधर्म के अनुमार विधवाविवाह का रिवाज अवश्य था और पीछे के जैनी भी उन्हीं की सन्तान थे। आक्षेप (ग)--मुमतमानों में भी सैय्यद का सैय्यद के साथ और मुगल का मुगल के साथ विवाह होता है। (श्रीलाल) ममाधान-विधया विवाह के विगंध के लिये ऐम ऐसे आक्षेप करने वाले के होश हवास दुरुस्त है इस घान पर मुश्किल से ही विश्वाम किया जा सकता है। सैय्यद सैयद से विवाह कर इसमें विधवाविवाह का पगडा क्या हो गया बल्कि इससे तो यही सिद्ध हुआ कि जैसे मुसलमान लांग (श्रीलाल जी के मनानुसार) सजातीय विवाह करने यं मी विधवाविवाह करते हैं तो अन्यत्र गी मजातीय विवाह होने पर भी विधवाविवाह हो सकता है। समलिये अन्तराल में सजातीय विवाह के घने रहने से विधवाविवाह का प्रभाव सिद्ध नहीं होता । फिर मुमलमानों में विजातीय विवाह में होने की बात तो धृष्टता के माथ धोखा देने की बात है। जहाँगीर बादशाह की मॉ हिन्दु और थाप मुसलमान था। मुसलमानों में आधे से अधिक हिन्दरक्तमिश्रित है। प्राज गौ मुसलमान लोग चाहे जिस जाति की स्त्री से शादी कर लेते है। आक्षेप (घ)-विजातीय विवाह से एक दो सन्तान के बाद विनाश हो जाता है । वनस्पतियों के उदाहरण से यह बात सिद्ध है। समाधान-आक्षेपक को बनम्पति शारत्र या प्राणि शास्त्र का ज़रा अध्ययन करना चाहिये । प्राणिशास्त्रियों ने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) विजातीय सम्बन्धों से कैसी विचित्र जातियों का निर्माण किया है और उनकी कैसी वशपरम्परा चल रही है, इस बात का पता आपको थोड़े अध्ययन से ही ला जाना । किसी मूर्ख माली की अधूरी बात क श्राबार पर सिद्धान्त गढ़ लेना आप ही सरीखे कृपमंडूक का काम हो सकता है । खैर, मान लीजिये कि विजातीय सम्पर्क की वश परम्परा नहीं चलती, परन्तु मनुष्य में नो विजातीय विवाह की वशपरम्पग चलती है। जहाँगीर हिन्दू माँ और मुसलमान बाप से पैदा हुआ था। इसके बाद के भी अनेक बादशाह इमी नरह पैदा हुए जिनकी परम्परा आज तक है। कई शताब्दियों तक तो वह वश गज्य ही करता रहा। बाद में (५७ के खातन्त्र्य-युद्ध के बाद भी उसी वंश के बहुत से मनुष्य गरीबी की हालन में गुजार करते थे और उनमें बहुत से आज भी बने हुए है। यदि यह सिद्धान्त मान लिया जाय कि विजोनीयविवाह की सन्तान परम्पग अधिक नहीं चलती तो इससे विजातीय विवाह का निपेध नहीं होगा किन्तु मनुष्यों में होने वाला विजानीय-विवाह, विजातीय नहीं है अर्थात् मनुष्यमात्र एक जाति के है यही बात सिद्ध होगी, क्योंकि मनुष्यों में विजा. तीय सम्बन्ध से भी वश परम्परा चलती रहती है। आक्षेप (ङ)-क्या श्रेणिक के समय में रामायण आदि ग्रन्थ बन गये थे? समाधान-ये ग्रन्थ बहुत प्राचीन है यह वात ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है। साथ ही अपने पद्मपुराण में भी यह लिखा है। देखिये पद्मपुराण द्वितीय पर्व. श्रूयंते लौकिके ग्रन्थे राक्षसा रावणादयः ॥ २३०॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२७) पवविध क्लिनन्धं गमायणमुदाहत ॥ २३७ ॥ अश्रद्धेयमिदं सर्व वियुक्तमुपपत्तिमिः ॥ २४ ॥ ये मव श्रेणिक के मुंह में निकले हुप वाक्य हैं। रामा. यण का नाम तक पाया है। श्रेणिक ने गमायण की अन्य बातों की तो निन्दा की, परन्तु विधवाविवाह की काहीं भी निन्दा न की, न गौतम ने ही निन्दा की, इममे विधवाविवाह की जैनधर्मानुकुलता सिद्ध होती है। आक्षेप (च)-जब कुछ न बना तो एक लांकी बना कर लिग दिया। इस मायाचार का कुल ठिकाना है ! (श्रीनाल) समाधानयथा च जायते दुःखं सदायामात्मयापिनि । नगन्तरेण सर्वेशमियमेव व्याम्पितिः ॥ १४-१६२॥ इम श्लोक में यह बताया गया है, कि परम्त्री रमण से परस्त्री के पनि का कट होता है इसलिये परमी मेवन नहीं करना चाहिये । यह श्लोक पद्मपुराण का निस श्रीलाल जी ने मेग कह कर मझे मनमानी गालियों दी है। इतना ही नहीं ऐसे अच्छे ग्लोक के खगडन करने की भी असफल चेष्टा की है। परन्तु इसम हमाग नहीं पनपुगण का खण्डन और प्राचार्य रविण का अपमान होता है। इस श्लोक से ग्रह बान सिद्ध होती है, कि परस्त्री रमण से पनि को कम होता है, इसलिये वह पागनी आधार पर यह कहा जाता है कि विधवाविवाह से पति को कम नहीं होता, क्योंकि पति मर गया है इसलिये विधवाविवाह पाए नहीं है। ऐसी सीधी पान भी श्रीलाल जीन समझे ना बलिहारी इस समभ की। श्रीलाल जी ने यह स्वीकार किया है कि अपनी धिवा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) हिना को छोड़ कर शेष सब में व्यभिचार है चाहे वह कुमारी हो सधवा हो या विधवा हो' । श्रीलालजी के इस वक्तव्य का हम पूर्ण समर्थन करते हैं और इसीसे विधवा-विवाह का समर्थन भी हो जाता है। जिस प्रकार कुमारी के साथ रमण करना व्यभिचार है, किन्तु कुमारी की विवाहिता बना कर रमण करना व्यभिचार नहीं है । उसी प्रकार विधवा के साथ रमण करना व्यभिचार है परन्तु विधवा के साथ विवाह कर लेने पर उसके साथ रमण करना व्यभिचार नहीं है । विधवा के साथ विवाह करने पर उसे अविवाहिता नहीं कहा जा सकता, जिनसे यहाँ व्यभिचार माना जावे। इस तरह श्रीलाल जी के वक्तव्य के अनुसार भी विधवा विवाह उचित ठहरता है । आक्षेप (छ) - महर्षिगण आठ विवाह बताने वालों की हम माने या नौमी प्रकार का ये विधवा-विवाह बनाने वाले तुम्हारी मानें। - समाधान —– विधवा विवाह नवमा भेद नहीं है किन्तु जिस प्रकार कुमारीविवाह के आठ भेद हैं उसी प्रकार विधवा विवाह के भी आठ भेद है। इस विषय में पहिले विस्तार से लिखा जा चुका है। आक्षेप ( ज ) - प्राचीन समय में लोग विधवा होना अच्छा नहीं समझते थे । यदि पहिले समय में विधवाविवाह का रिवाज होता तो फिर विधवा शब्द से इतने डरने की कोई आवश्यकता नहीं थी । ( विद्यानन्द ) समाधान - आज मुसलमानों में ईसाइयों में या अन्य किसी समुदाय में, जिसमें कि विधवाविवाह होता है, क्या विधवा होना अच्छा समझा जाता है ? यदि नहीं तो क्या वहाँ भी विधवा विवाह का प्रभाव सिद्ध हो जायगा ? आजकल या Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) प्राचीन जमाने में क्या लोग अपनी स्त्री का मरजाना अच्छा समझते थे ? यदि नहीं तो विधुर होना भी बुरा कहलाया । तब तो विधुर - विवाह का भी अभाव सिद्ध हो जाना चाहिये । प्राचीन ज़माने में विधवा को अच्छा नहीं समझते थे, इससे विधवाविवाह का अभाव सिद्ध नहीं होता बल्कि सद्भाव सिद्ध होता है । विधवा होना अच्छा नहीं था, इसलिये विधवा विवाहके द्वारा उसे सधवा बनाते थे। क्योंकि जो चीज़ अच्छी नहीं होती उसे हटाने की कोशिश होती हैं । निरोग अगर रोगी हो जाय तो उसे फिर निरोग बनाने की कोशिश की जाती है । इसी प्रकार सधवा नगर विधवा हो जाय तो उसे फिर सधवा बनाने की कोशिश की जाती थी । इस तरह विद्यानन्द का तर्क भी विधवा विवाह का समर्थन हो करता है । इस प्रश्न में कुछ श्राप ऐसे भी हैं जो कि पहिले भी किये जा चुके है और जिनका उत्तर मी विस्तार से दिया जा चुका है। इसलिये अब उनकी पुनरुक्ति नहीं की जाती । इकतीसवाँ प्रश्न | 'सामाजिक नियम या व्यवहार धर्म बदल सकते है या नहीं' इसके उत्तर में हमने कहा था कि बदल सकते हैं, क्योंकि व्यवहार धर्म साधक है। जिस कार्य से हमें निश्चय धर्म की प्राप्ति होगी वही कार्य व्यवहार धर्म कहलायगा । प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता और प्रत्येक समय की परिस्थिति एकसी नहीं होती। इसलिये सदा और सब के लिये एकसा व्यवहार धर्म नहीं हो सकता । अनेक प्रकार के मूलगुण, कभी चार संयम, कभी पांच संयम, किसी को कमण्डलु रखना, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३०) किसी को नहीं रखना यादि शायान विधान व्यवहार धर्म की विविधता बतलाते है। सामाजिक नियमों के विषय में विद्यानन्द कहते है कि "सामाजिक नियम व्यवहार बम के सावक है अतः उनमें तबदीली करना मान मार्ग की ही तबदीनो , "सामाजिक नियमों में रहोवत करने और मानमार्ग में रहाबदल करने का एक ही अर्थ है।" परन्तु इनके महयोगो पगिडत श्रीलाल जी कहते है कि "सामाजिक नियम भिन्न भिन्न देशों में और मिन्न भिन्न कालों में और भिन्न भिन्न जानियों में प्रायः गिन गिन हुश्रा करते हैं।... • लौकिक विधि उनी रूप में करना चाहिये जैसी कि जहाँ हो" । इस तरह ये दोनो श्रापक श्रापम में ही भिड गये है। यह कहने की जन्नत नहीं कि विद्यानन्दजी ने सामाजिक नियम का कुछ अर्थ ही नहीं समझा और वे प्रलापमात्र कर गये है । सामाजिक नियमां के विषय में श्रीलालजी का कहना ठीक है और वह हमारे वक्तव्य की टोका मात्र है । श्रीलालजी कहते है कि नामाजिक नियम धर्म की छाया में ही रहते है। हमने भी लिग्ना था कि सामाजिक नियम धर्मपोषक होना चाहिये । अव व्यवहार धर्मविष यक मतभेद रह जाता है, इसलिये उसकानेपों का नगाधान किया जाता है। आक्षेप (क)-व्यवहार धर्म निश्चय का साधक है। न ससारी आत्मा की अवस्था पलटती है न निश्चय वर्म की, न उसके साधक व्यवहार धर्म की । (श्रीलाल) समाधान-किसी भी द्रव्य की शुद्धावस्था दो तरह की नहीं होती परन्तु अशुद्धावस्था अनेक तरह की होती है, क्योंकि शुद्धावस्था स्वापेक्ष है और अशुद्धावस्था परापेक्ष है। पर द्रव्य अनन्त है इसलिये उनके निमित्त से होने वाली Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) शुद्धि भी अनन्त तरह की है। इसलिये उनका उपचार भी अन्तर का होगा । लोक और शास्त्र दोनों ही जगह साध्य की एकता होने पर भी साधन में भिन्नता हुथा करनी है | श्रीलालजी का यह कहना बिलकुल झूठ है कि संसारी श्रात्माओं की श्रवम्या नहीं पलटती । अगर संसारी श्रात्मा की अवस्था ने पलटे तो सब मसारियों का एक ही गुणस्थान, एक ही जीवसमास और एक ही मार्गणा होना चाहिये | निम्नलिखित बानों पर दानों श्राक्षेपकों को विचार करना चाहिये । १- मनुष्य अगर अणुवन पाले तो वह पानी छानकर और गर्म करक पियेगा, जब कि श्रणुवती पशु ऐसा न कर सकेगा। वह बहता हुआ पानी पीकर कभी श्रणुवनी बना रहेगा । व्यवहार धर्म अगर एक है तो पशु और मनुष्य की प्रवृत्ति में अन्तर क्यों ? २ - कोई कमण्डलु श्रवश्य रक्पंगा, कोई न रखेगा, यह अन्तर यो ? 3- किसी के अनुसार तीन मकार और पांच फल का न्याग करके ही [ विना श्रवनों के ] मूलगुण धारण किये जा सकते है, किसी मत के अनुसार मधु सेवन करते हुएभी मूलगुण पालन किये जा सकते है क्योंकि उसमें मधु के स्थान पर द्यूत का त्याग बतलाया है । इस तरह के अनेक विधान क्यों हैं ? अगर कहा जाय कि इस में सामान्य विशेष अपेक्षा का मेट है तो कौनमा सामान्य श्रर कौनसा विशेष है ? औरइस अपेक्षा भेद का कारण क्या है ? ४-२२ तीर्थकरों के तीर्थ में चार संयमों का विधान क्यों रहा ? और दो ने पाँच का विधान क्यों किया ? [ कोई सामायिकका पालन करें, कोई छेदोपस्थापना का यह एक ; Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) बात है, परन्तु छेदोपस्थान का विधान न होना दुमरी बात है । ] ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते है । परन्तु इन सबके उत्तर में यही कहा जासकता है कि जिस व्यक्ति में जितनी योग्यता होती है या जिस युग में जैने व्यक्तियों की बहुलता रहती हैं व्यवहार धर्म का रूपभी वैसा ही होता है। हॉ, व्यवहार धर्म हो कैसा भी, किंतु उस की दिशा निश्चय धर्म की ओर रहती है। अगर निश्चय साधकता सामान्य की दृष्टि व्यवहार धम्मं पक कहाजाय तो किसीकी विवाद नहीं है परन्तु वाह्यरूप की दृष्टि से व्यवहार धर्म में विविधता अवश्य होगी। इस कसौटी पर हम विधवाविवाह को कसते हैं। धार्मिक दृष्टि से विवाह का प्रयोजन यह है कि मनुष्य की कामवासना सीमित हो जाय । इस प्रयोजनकी सिद्धि कुमारी विवाह से भी है और विधवाविवाह से भी है । निधय साधकता दोनों में एक समान है । अगर दोनों श्राक्षेपक निश्चर साधकता सामान्य की दृष्टि में रखकर व्यवहार धर्म को एक तरह का माने तो कुमारीविवाह और विधवाविवाह दोनों एक सरीखे ही रहेंगे। दोनों की समानता के विषय में हम पहिले भी बहुत कुछ कह चुके है । आक्षेप ( ख ) - जो लोग श्रजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के शासन में छेदोपस्थापनाका अभाव बतलाते है उनकी विद्वता दयनीय है | ( विद्यानन्द ) समाधान मेरी विद्वत्ता पर दया न कीजिये, दया कीजिये उन बट्टकेर स्वामी की विद्वत्ता पर जिनने मूलाचार में यह बात लिखी है। देखिये - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीस तित्ययग सामाइग मंजम उचटिमन्ति । छेटुव ठावणियंपुण भयवं उसहो य वीगंय ॥ ५३३ ।। 'अर्थात् याईस तीर्थकर मामायिक संयम का उपदेश देते हैं और भगवान ऋषभ और महावीर छटोपाधापना । अगर आप बहकेर म्वामी श्री विद्वत्ता पर दया न यतला सके नो अपनी विद्वत्ता को दयनीय बनलाय, जो कृप मगड़क की नरह हंस के विशाल अनुभव को दयनीय बतला रही है। आक्षेप (ग)-विना व्यवहारका पालम्बन लिय मोक्ष मार्ग के निकट पहुंच नहीं हो सकती। (विद्यानन्द) समाधान व्यवहार का निषेध मैं नहीं करना, न कहीं किया है। यहाँ नो प्रश्न व्यवहारके विविध रूपों परई। कुमा रीविवाह में जैसी व्यवहार धर्मता है वैसी ही विधवाविवाह में गी है। यहाँ व्यवहार के दो रुप यतलाये दे-व्यवहार का श्रभाव नहीं किया गया। आक्षेप (घ)-जर पथ भ्रष्टता हाचुकी नो लक्ष्य तक पहुंच ही कैसे होगी? समाधान-मार्ग की विविधता या यान की विविधता पथम्रपना नहीं है। कोई वी० बी० मी० आई० लाइनसे देहली जाता है, कोई जी० आई० पी० लाइन से, कोई ऐक्सप्रेस से, कोई मामूली गाडी से, कोई फर्टकास में, कोई पई. क्लास में, परन्तु इन सब में पर्याप्त विविधता होने पर भी कोई पथभ्रष्ट नहीं है क्योंकि समय-भेद मार्ग मेद होने पर भी दिशाभेद नहीं है। विधवाविवाह, कुमारीविवाह के समान निरगल कामवासनाका दूर करता है। इसलिये दोनांकी दिशा पक है, दोनों ही लक्ष्यके अनकूल है, इसलिये उसे पथ. अष्टता नहीं कह सकते। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) इस तरह विधवाविवाह जैनधर्म के अनुकूल सिद्ध हो गया। मैं विधवाविवाह के प्रत्येक विरोधी को निमन्त्रण देना है कि उसे विधवाविवाह के विषय में अगर किसीभी नही शङ्का हो तो वह जरूर पूछे। मैं उसका अन्त तक समा धान करूँगा । इति Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रावश्यक सूचना * देहली में एक जैनवाल विधवा-विवाहयक सभा स्थापित है ।" वे सज्जन जो शिविवाह के सिद्धान्त से सहमत हों या सभा के मेम्बर होना चाहे या जिन्हें लड़के या लड़की का ऐसा सम्बन्ध ना स्वीकार हो, वह नीचे लिखे पते पर " व्यवहार करें: मन्त्री- जैन बाल विधवाविवाह सहायक सभा दरीबा फलों, ढेडली | t उस पुस्तक के प्रकाशन में श्रन्यत्र प्रकाशित महानुभाव रिक, श्रीमान बाबू राजकृष्ण प्रेमचन्द्र कोल मरचेन्ट (b) प्रदान किये है- धन्यवाद । -मन्त्री Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *अन्य उपयोगी पुस्तकें १ शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण-संबक-श्रीमान् पण्डित जुगल किशोर जी मुख्तार मूल्य २. विवाह क्षेत्र प्रकाश , " " मूल्य ३. जनजाति सुदशा प्रवर्तक-लेखक-श्रीमान बाबू सूरजमान जी ४, मंगला देवी- , " " ५ कुवारों की दुर्दशा . " " । " • ६ गृहस धर्म ७ राजदुलारी ' ' ८. विधवा विवाह और उन के संरक्षकों से अपील ' लेखक-त्र. शीतल प्रसाद जी , है. उजलेपोश बदमाश-लेखक-पं० अयोध्याप्रसाद गोयलीय देहली ... .. १० अवताओं के आँसू ११. पुनर्लन मीमांसा-ले-बाबू भोलानाथ मुख्तार बुलन्दशहर १२. विधवा-विवाह समाधान ले-श्री० सव्यसाची १३ सुधारसंगीतमाला-ले०-६० भूरामल : मुशरफ जैपुर ... ... १४. जैन-धर्म और विधवा-विवाह (पहिला भाग),. १५. जैन धर्म और विधवा विवाह (दूसरा भाग), मिलने का पता:- . लाजौहरीमल जैन सर्राफ, दरीबा कलाँ,दे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- _