Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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तो उसने मल गुणों की शोभा को बढ़ाया। यद्यपि साध्वी को पुरुष के तथा साध को स्त्री के स्पर्शादि का सर्वथा निषेध है तथापि नदी से निकालने पर साधु को साध्वी का तथा साध्वी को साधु का परस्पर स्पर्श भी हुआ और सचित पानी का भी स्पर्श हुआ। यह बात स्पष्ट तथा प्रत्यक्ष है।
जरा इस की गहराई में जाइए-पहली आज्ञा में जो स्पर्श का निषेध किया गया है वहाँ मन में विकार आदि प्रमादाचरण से साधु के बचने का आशय है और दूसरी आज्ञा में साध्वी के प्राणों की रक्षा का कारण है । इस में न तो स्त्री के प्रति राग की उत्पत्ति का अवकाश है न पानी के जीवों की हिंसा की भावना । ठाणांग सूत्र में साध्वी को बचाना धर्म कहा है। दया तो प्रभु की आज्ञा के पालन में है।
(2) साधु को नदी उतरने का विधान भी है । विहार में ग्रामांतर जाते हए यदि मार्ग में नदी आ जावे तो कैसे पार उतरे ? विधि का स्पृष्ट उल्लेख है।
(3) एक दृष्टग्न्त और लीजिए-साधु को वनस्पति के स्पर्श का भी निषेध किया गया है परन्तु कोई साधु किसी ऐसी पगडंडी पर जा रहा हो जिसके आस-पास गहरी खाई हो यदि उसका पांव फिसल जाने से वह खाई में गिर रहा हो तो वह पास में खड़े वृक्ष को, घास अथवा लता बेल को पकड़कर अपने आप को खाई में गिरने से बचा ले, ऐसी आगम की आज्ञा है । खाई में गिर जाने से वहां भरे हुए पानी में पड़ने से जलचर पंचेन्द्रिय आदि प्राणियों की विराधना, अप्काय की विराधना और अपनी जान जाने का भी खतरा है। इतनी बड़ी होने वाली हानि से बचने के लिये वृक्ष को पकड़कर सहारा लेने से वृक्ष की डाली को खींचने से तथा उसका स्पर्श करने से जो उसे किलामना हुई वह होने वाली हानि और विराधना के सामने नगण्य है । इसकी शुद्धि भी पूर्ववत आलोचना ईविहीय पूर्वक कायोत्सर्ग करने से हो जाती है (आचारांग द्वितीय-श्रुतस्कन्ध)।
(4) कुछ साधु एक नगर से विहार कर ग्रामांतर जा रहे थे। रास्ते में एक भयंकर अटवी पड़ती थी। उन्हें रात हो गई इसलिये उस अटवी में ही रात्री विश्राम के लिये रुकना पड़ा। उस अटवी में एक नरभक्षी सिंह रहता.था और वह घात लगाकर मनुष्यों को खा जाता था। लोगों ने साधुओं को रात में जंगल में रहने के लिये मना किया। परन्तु जैन साधु को रात में विहार करने की आज्ञा न होने से आचार्य ने सब साधुओं के साथ जंगल में ही रात को ठहरना उचित समझा और दो-दो घण्टे के लिये प्रत्येक साधु को साधुसंघ की नरंभक्षी सिंह से रक्षा करने के लिये पहरा देने का आदेश दिया। एक साधु पहरा दे रहा था। सिंह ने आकर साधुओं पर आक्रमण करने केलिये छलांग लगाई । पहरेदार साधु ने उस नरभक्षी को डराने के लिये अपने हाथ में लिये हुए डंडे को इतने ज़ोर से घुमाया कि डण्डा उसके हाथ से छूटकर सिंह के मर्म स्थल में जा लगा और वह मरकर ठार हो गया। प्रातः काल जब सब साधु प्रतिक्रमण
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