Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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माहात्म्य के लिए श्री सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र सूरि, उपाध्याय यशोविजय तथा महान योगी आनन्दघन, श्रीमानतुंग आचार्य जैसो ने कल्याणमंदिर और भक्तामर आदि जैसे अनेक स्तोत्रों द्वारा अपने भक्ति भावों को कितना सुन्दर व्यक्त किया है । इसी प्रकार जो भव्य प्राणी जिनप्रतिमा की भक्ति द्वारा श्री तीर्थंकर भगवन्नों की आराधना करता है वह अवश्य मुक्ति को भी प्राप्त कर सकता है । जब श्री जिनमंदिर में दर्शन करने
है तब श्री जनप्रतिमा के सन्मुख "नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवन्ताणं । नमो जिणाणं नमो अरिहंताणं आदि कह कर तीर्थंकर भगवन्तों की भक्ति की जाती है । न कि नमो परिमाणं कहकर किया जाता है । जैसे अनानुपूर्वी के अंकों पर से अंक 1 से नमो अरिहंताणं, अंक 2 से नमो सिद्धाणं, अंक 3 से नमो आयरियाणं, अंक 4 से नमो उवज्झायाणं और अंक 5 से नमो लोए सव्व साहूणं को नामोच्चारण सहित नमस्कार करके पंचपरमेष्ठी की भक्ति और उपासना की जाती है । यहां पर पंचपरमेष्ठियों की अंकों के रूप में स्थापना की गई है। वैसे ही जिनप्रतिमा के रूप में परमात्मा की - स्थापना करके तीर्थंकर प्रभु की उपासना करते हैं । न कि एक, दो, तीन, चार पांच का उच्चारण करते हैं ।
तीर्थ का महत्व और उसकी उपासना से लाभ
जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति 'तीर्यंते संसार सागरों येन तत् तीर्थम् ।' इस प्रकार से की गई है। जिस का अर्थ है - 'जो संसार सागर से तारे उसे तीर्थं कहते हैं । "
तीर्थ दो प्रकार के हैं - 1 -जंगम तीर्थ, 2 - स्थावर तीर्थं ।
जंगम तीर्थ - चलते फिरते तीर्थ को कहते हैं । इसमें साक्षात् जीवित तीर्थंकर - सामन्य केवली, गणधर देव, साधु साध्वी श्रावक-श्राविका आदि का समावेश होता है । ये स्वयं स्थान-स्थान पर जाकर अपने पवित्र चरित्र तथा सम्यग्ज्ञान-दर्शन द्वारा 'वस्तु के वास्तविक स्वरूप की जानकारी कराकर विश्व के प्राणियों को संसार से तारने का मार्ग दर्शन कराते हैं । इसलिए जंगम तीर्थ हैं ।
2. स्थावर तीर्थ - जो एक स्थान पर स्थिति हों उसे स्थावर तीर्थ कहते हैं । जैनों के प्राचीन आगम ग्रंथों में तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों, विहार भूमियों, उपसर्ग -स्थानों, एवं तपस्थलों आदि को स्थावर तीर्थ कहा है
ये जिनमूर्तियां जिनमंदिर आदि तीर्थों के दर्शन सम्यवक्त्व की शुद्धि, प्राप्ति, तथा दृढ़ता का कारण माने गये हैं । इन स्थावर तीर्थों का निर्देश आचारांग, आवश्यक • आदि आगमों (सूत्रों) नियुक्तियों आदि में मिलता है । जो मौर्यकाल से भी प्राचीन है । इससे स्पष्ट है जिनतीयों का नाम इन आगमों की नियुक्तियों में विद्यमान है वे - मौर्यकाल से भी पहले से विद्यमान हैं ।
जिन तीर्थों के नाम आगमों, नियुक्तियों तथा भाष्यों में मिलते हैं उन्हें हम आगमोक्त तीर्थ कहेंगे। उनके नाम इस प्रकार हैं
1- हस्तिनापुर, 2 - शोरीपुर, 3 - मथुरा, 4- अयोध्या, 5 - काम्पिल्य, 6- बनारस
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