Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 312
________________ जैनधर्म-मीमांसा स्वयं परीक्षा करता है । इस प्रकार दोनों ही परीक्षक हैं और दोनोमें अन्तर भी है । २९८ सम्यग्दृष्टिमें देवमूढ़ता भी नहीं होती । तीर्थंकर अवतार आदि नामोंसे प्रसिद्ध महापुरुष तथा गुणोंके रूपक देव हैं । सम्यग्दृष्टि जीव न तो इनसे अनुचित आकांक्षा करता है न देवके नामपर भूत पिशाच आदिकी उपासना करता है । उसकी उपासनाका ध्येय किसी आदर्शको यथाशक्ति अपने जीवन में उतारना होता है । देवोंके विषय में भी वह किसी प्रकार के अन्धविश्वास को स्थान नहीं देता है कल्याणके मार्गमें जो हमसे आगे बढ़ा हुआ है वह गुरु है । दुःख - रूपी समुद्रको वह स्वयं पार करता है और दूसरोंको पार ले जाता है । गुरुका स्थान बहुत महत्वका है । वह जितना महत्वका है उतनी ही सावधानी से उसका चुनाव करना पड़ता है । देवसे भी अधिक सावधानीकी यहाँ ज़रूरत है क्योंकि गुरु भी अन्य पुरुषोंकी तरह होता है । वह हमारे बीचमें रहता है । उसके असाधारण गुणोंको पहिचान 'जाना कठिन होता है । दूसरी बाधा यह है कि एक गुरुके स्थानमें हज़ारों कुगुरु और अगुरु, गुरुत्वका मिध्या दावा करते हुए, आ जाते हैं । उनमें यदि हम सच्चे गुरुकी खोज न कर सकें तो 1 अनर्थ हो जाता है । 1 गुरुकी जाँच के लिये सबसे पहिले वेषका आग्रह छोड़ देना चाहिये । वेषकी ओटमें अनेक निम्न श्रेणी के मनुष्य गुरुत्वके नामपर दुनियाँको ठगने लगते हैं । सच्चा गुरुत्व किसी भी वेषमें, यहाँ तक कि गृहस्थवेष में भी, मिल सकता है । जैन शास्त्रोंके अनुसार कूर्मापुत्र घरमें रहते हुए भी केवली हो

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