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दर्शनाचारके आठ अङ्ग
जाने लगे तो उससे हानि है । जब हम किसी महात्माको अपना समझकर पूजते हैं तो उसे हमें कृतज्ञता कहना चाहिये न कि प्रभावना । अगर हम उसे प्रभावना बनाना चाहते हैं तो हमें उस महात्माके उपयुक्त स्थानका विचार करना पड़ेगा और दूसरे सम्प्रदाय के महात्माओं का भी यथोचित आदर करना पड़ेगा । मतलब यह कि इस प्रकारकी प्रभावना करनेवाला मनुष्य सच्चा प्रभावक तभी हो सकता है जब कि वह, स्वकीयत्वका पूजक नहीं किन्तु, गुणका पूजक हो । प्रभावना धर्मकी करनी चाहिये, न कि सम्प्रदायकी । अपने सम्प्रदायकी प्रभावना करना तो अपनी प्रभावना करना है । वह दूसरोंके लिये ईर्ष्याका कारण और अपने अभिमानका फल है । जिस प्रकार चंदनमें 1 लगी होनेपर भी आग ठंडी नहीं होती, उसी प्रकार धार्मिकताकी ओटमें छुपा हुआ अभिमान भी कल्याणकर नहीं होता । साम्प्रदायिक प्रभावना इस अभिमानकी पोषक होनेसें कल्याणकर नहीं है ।
सच्ची प्रभावना तो अपने जीवनको, सदाचार और जगत्सेवाके साथ, सुखी बनाकर दूसरोंके हृदयपर सदाचारादिकी दृढ़ छाप मारना है । सदाचारादि-गुणविशिष्ट लोगोंका आदर, सत्कार आदि करके. दूसरोंपर उसका प्रभाव डालना व्यावहारिक प्रभावना है ।
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मनुष्य, धर्मके विषयमें, बहुत अज्ञानी है। पंडित होकरके भी मनुष्य अज्ञानी रहता है, क्योंकि वह कर्तव्य - अकर्तव्यका विवेक नहीं कर पाता । इस अज्ञानको दूर हटाना, जिस प्रकार बने उस प्रकार उसे कल्याणका मार्ग दिखलाना, और उसकी खूबियाँ उसे समझाना, प्रभावना है । इसलिये इस प्रकार के साहित्यका प्रचार करना भी प्रभावना है । सन्मार्गके प्रचार में तन-मन-धन से हर तरह सहायता करना भी प्रभावना है ।
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