Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 328
________________ जैनधर्म:मीमांसा ~~rr ....... तथा उसके साधक सम्पत्ति, विद्या, कला आदिको ही महत्ता प्राप्त होना चाहिये न कि उसके बाधक तप-धनादिको । . . प्रत्येक मनुष्य महान् बनना चाहता है। अगर तुम श्रीमान्को महान् मानते हो तो जैसे बनेगा वैसे लोग श्रीमान् बननेकी कोशिश करेंगे और इस प्रलोभनमें पड़कर कल्याणमार्गसे भ्रष्ट होंगे। उनके स्थितिकरणके लिये किसे महान् मानना, किसे न मानना, इसका विवेक अत्यावश्यक है। स्थितिकरणके लिये, आपत्ति और प्रलोभनोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये, अपनी पूरी शक्ति तो लगाना ही चाहिये किन्तु इतनेसे ही स्थितिकरणका पालन नहीं होता । आपत्ति और प्रलोभन, खास कर प्रलोभन, (क्योंकि आपत्तिकी अपेक्षा प्रलोभनसे बहुत मनुष्य भ्रष्ट होते हैं-आपत्तिविजयकी अपेक्षा प्रलोभन-विजय कठिन है।) पैदा न होने पावें इसके लिये पूर्ण उद्योग करना स्थितिकरणके लिये आवश्यक है। वात्सल्य अंग-कल्याणमार्गमें स्थित प्राणियोंसे कुटुम्बीसरीखा प्रेम करना वात्सल्य-अंग है । जो परोपकारको कर्तव्य समझता है, समष्टिगत उन्नतिके साथ अपनी उन्नति करता है, कष्ट-सहिष्णु है, वह मनुष्य जगद्वन्धु है । उसके साथ बन्धुता रखना प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य है । फिर सम्यग्दृष्टि इस कर्तव्यसे कैसे चूक सकता है ? . . सम्यग्दृष्टिः माता, पिता, पत्नी, पुन, आदि कुटुम्बियोंके प्रति कर्तव्यका पालन करता है. परन्तु इस प्रकारकी कुटुम्बबुद्धि वह लौकिक उत्तरदायित्व पूर्ण करनेके लिये ही रखता है; अन्यथा उसकी दृष्टिमें

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