Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 144
________________ 140 बन दर्शन अनस्तित्व की अवस्थाओं का एकसाथ दावा किया जाता है, तो वह वस्तु अनिर्वचनीय रह जाती है । दो पर्यायों को इस प्रकार एक साथ प्रस्तुत करने को गुणों का सह-प्रस्तुतीकरण कहा गया है। आरंभिक चार कथनों का विवेचन करने के बाद एम. हिरियन्ना लिखते है : "यहां पहुंचकर शायद यह लगे कि सूत्र यहीं समाप्त हो जायगा। परन्तु अभी कुछ अन्य तरीके बाकी हैं जिनसे उक्त विकल्पों को संयुक्त किया जा सकता है। अतः तीन कथन और जोड़े गये हैं, ताकि यह न लगे कि वे विषय छोड़ दिये गये हैं। फलस्वरूप जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह सर्वांगपूर्ण बन जाता है, और वह असैद्धांतिक भी नहीं रह जाता।" 5. पांचवा कथन "घट है और अनिर्वचनीय है" इस तथ्य का घोतक है कि अस्तित्व रूप की दृष्टि से देखा जाय तो घट वर्णनीय है, परन्तु इसके अस्तित्व तपा अनस्तित्व दोनों ही रूपों पर एक साथ विचार किया जाय तो यह अनिर्वचनीय हो जाता है। 6. छठा कथन "घट नहीं है और अनिर्वचनीय है", पांचवें कथन की तरह, घट की वर्णनीयता तथा अनिर्वचनीयता दोनों का दावा करता है। बस्तु में मौजूद गुणों के अलावा जिन गुणों का अनस्तित्व है वे भी इसे अनिर्वचनीय नहीं बनाते; निषेधात्मक वर्णन तब भी संभव होता है। लेकिन यदि नकारात्मक और सकारात्मक वर्णनों का प्रयत्ल एकसाथ हो, तो अनिर्वचनीयता की स्थिति उत्पन्न होती है। 7. सातवां कथन "घट है, नहीं है और अनिर्वचनीय है" इस तथ्य का खोतक है कि दो अवस्थाओं-सकारात्मक और नकारात्मक -का क्रमिक प्रतिपादन वर्णनीयता की ओर निर्देश करता है, और एकसाथ प्रतिपादन घट की अनिर्वचनीयता की ओर। किसी भी वस्तु की शाश्वतता, अशाश्वतता, तादात्म्यता तथा भिन्नता आदि के संदर्भ में इन सात तर्कवाक्यों को सूवित किया जा सकता है। जैन दार्शनिकों का विश्वास है कि विधेय के ये सात पर्याय हमें वस्तु-जगत् के बारे में पर्याप्त जानकारी देने में समर्थ हैं। ___ स्यादवाद के अपने इस विवेचन को हम ईलियट के एक उबरण से समाप्त करेंगे। इलियट ने एक वाक्य में ही इस सिद्धांत का सार प्रस्तुत कर दिया है। वह लिखते हैं : "स्यादवाद का सारतत्व, इसे इसकी शास्त्रीय मान्दावली से बाहर निकालने के बाद, यह प्रतीत होता है कि, अनुभव की स्थिति में संपूर्ण एमेन एण्ड मनविन लि. 2. 'आउटलाइन्स ऑफ बियन फिलॉसफी' (मंदन : मा 1957),१. 165

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