Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विलक्षण स्वरूप एक ओर उसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से भिन्न एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करता है । दूसरी ओर उसे आगमन और निगमन के बीच एक योजक कड़ी के रूप में प्रस्तुत करता है । सम्भवतः यह न्याय शास्त्र के इतिहास में जैन तार्किकों का स्याद्वाद और सप्तभंगी के सिद्धान्तों के बाद एक और मौलिक योगदान है। जैन दार्शनिकों के इस योगदान का सम्यक् प्रकार से मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न भारतीय दर्शनों में प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की समीक्षा करके यह देखें कि जैन दर्शन के द्वारा प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की उनसे किस अर्थ में विशेषता है ।
अन्य भारतीय दर्शनों में तर्क का स्वरूप
भारतीय दर्शनों में 'तर्क' की प्रमाणिकता को स्वीकार करने वालों में जैन दर्शन के साथ-साथ सांख्य योग एवं मीमांसा दर्शन का भी नाम आता है, किन्तु इन दर्शनों ने जिन प्रसंगों में तर्क की प्रमाणिकता को स्वीकार किया वे प्रसंग बिल्कुल भिन्न हैं । सांख्य दर्शन के लिए ऊह या तर्क, वाक्यों के अर्थ निर्धारण में भाषागत नियमों की उपयोग की प्रक्रिया है । डा. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्ता लिखते हैं- 'सांख्य के लिए ऊह शब्दों अथवा वाक्यों के अर्थ को निर्धारित करने के लिए मान्य भाषागत नियमों के प्रयोग की प्रक्रिया है (युक्त्या प्रयोग निरूपणमूहः - न्याय मंजरी, पृ. 588)° पंतजलि ने भी व्याकरण शास्त्र के प्रयोजन हेतु ऊह की प्रमाणिकता को स्वीकार किया है क्योंकि वेदादि में सभी लिंगों और विभक्तियों में मंत्रों का कथन हुआ है । अतः देवता द्रव्य का ध्यान रखकर उनमें परिणमन कर लेना चाहिए ( महाभाष्य 1/111) यहाँ ऊह भाषायी विवेक और भाषायी नियमों के पालन से अधिक कुछ नहीं है। भाषायी नियमों के आधार पर स्वरूप एवं अर्थ को निर्धारित करने की प्रक्रिया वस्तुतः अनुमान का ही एक रूप है, अतः तर्क अनुमान के ही अन्तर्गत है उसका स्वतन्त्र स्थान नहीं है । इस प्रकार इन दोनों दर्शनों में ही तर्क का प्रसंग ज्ञान मीमांसीय न होकर भाषा शास्त्रीय ही है । मीमांसा दर्शन में भी तर्क की प्रामाणिकता को स्वीकार किया गया है किन्तु उसका सन्दर्भ भी प्रमाण मीमांसा का न होकर विशुद्ध रूप से कर्मकाण्ड सम्बन्धी भाषा का ही है। मीमांसा कोष में ऊह के स्वरूप के सम्बन्ध में लिखा है- अन्यथा श्रुतस्य शब्दस्य अन्यथा लिंग वचनादिभेदेन विपरिणभनम् ऊहः अर्थात् मंत्र आदि में दिये गये मूल पाठ में विनियोग के अनुसार लिंग, वचन आदि में परिवर्तन करना ऊह कहा जाता है । मीमांसा शास्त्र के सम्पूर्ण नवम अध्याय के चार पादों के 224 सूत्रों में ऊह पर विस्तार से विचार किया गया है, किन्तु सारा प्रसंग कर्मकाण्डीय भाषाशास्त्र काही है। उनमें तीन प्रकार के ऊह माने गये है : 1. मंत्र विषयक ऊह, 2. साम विषयक जैन ज्ञानदर्शन
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