Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(1) सत् व असत् दोनों का निषेध करना ।
(2) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना ।
(3) सत्, असत् सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय) चारों का निषेध करना ।
(4) वस्तुतत्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना अर्थात् यह कि वस्तुतत्व अनुभव तो आ सकता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता।
(5) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द होने के कारण अवक्तव्य कहना ।
( 6 ) वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है । अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना ।
यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं । सामान्यता जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं । उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् ओर असत् दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्व अवक्तव्य है किन्तु यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा सकता है । आचारांग सूत्र में आत्मा के स्वरूप को जिस रूप में वचनगोचर कहा गया है वह विचारणीय है। वहां कहा गया है कि आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है, वहां वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्तावान है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्व की अनन्तधर्मात्मकता और शब्द संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्व को अवक्तव्य माना गया है, आचार्य नेमीचन्द्र ने गोमट्टसार में अनभिलाप्य भाव का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में आये वक्तव्य भावों का अनंतवां भाग ही कथन किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है ।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान