Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सहस्त्राधिक विश्वविद्यालयों के होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। भौतिक सुख-सुविधा का यह अम्बार आज भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है। आज शीघ्रगामी आवागमन के साधनों से विश्व की दूरी कम हो गई है, किन्तु हृदय की दूरी तो बढ़ रही है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी मानव मन में अभय का विकास नहीं कर सकी है। आज भी मनुष्य उतना ही आशंकित, आतंकित, आक्रामक और स्वार्थी है जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज तो जीवन की सहजता और स्वाभविकता भी उससे छिन गई है। आज जीवन में छद्मों का बाहुल्य है। भीतर वासना की उद्दाम ज्वालायें और बाहर सचरित्रता और सदाशयता का ढोंग; यही आज के मानव की त्रासदी है। इसे प्रगति कहें या प्रतिगति? आज हमें यह निश्चित करना है कि हमारे मूल्य-परिवर्तन की दिशा क्या हो? हमें मनुष्य को दोहरे जीवन की त्रासदी से बचाना है, किन्तु यह ध्यान भी रखना होगा कि कहीं इस बहाने हम उसे पशुत्व की ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं।
संदर्भ ------- 1. Lectures in the youth League - उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. 344-345 । 2. Ethical Stucdies-p. 223. 3. देखिये-विषय और आत्मा (यशदेव शल्य) पृ. 88-891 4. महाभारत शान्ति पर्व 33/32। 5. अधूक प्रकरण (हरिभद्र) 27/5 की टीका में उद्धृत। 6. माहभारत शान्ति पर्व 63/11 7. आचारांग 1/4/2/1301 8. Contemporary Ethical Theories p. 163. 9. देखिये-नीति के सापेक्ष और निरपेक्ष तत्व-डा. सागरमल दार्शनिक अप्रैल 76। 10. महाभारत आदि पर्व 122/4-51
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान