Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 49
________________ । (४५) है दर्शन ज्ञान गुण तेरा इसे भूला है क्यों मूरख । अरे अब तो समझले त चला संसार जाता है ॥६॥ तू चेतन सबसे न्यारा है भूलसे देह धारा है। तूहै जड़में न जड़ तुझमें तु क्या धोखेमें आता है।।७।। जगत में तूने चित लाया कि इन्द्री भोग मन माया। कभी दिल में नहीं आया तेरा क्या जगसे नाता है ॥ ८॥ तेरे में और परमातम में कुछ नहीं भेद अय चेतन। रतन आतमको मूरख काँच बदले क्यों बिकाता है ॥९॥ मोह के फंद में फंसकर क्यों अपनी न्यायमत खोई । कर्म जंजीर को काटो इसी से मोक्ष पाता है॥१०॥ - वर्ज॥ इन्दरममा ॥ राजा हूँ मैं क़ौमका और इन्दर मेरा नाम ॥ सुनो जगत गुरु बीनती अरज करू महाराज । तुमतो दीन दयाल हो सभी जगत की लाज ॥ १ ॥ कर्म रित पुर जोर हैं डरें कहसे नाय । मन माना दुख देत हैं कीजे कौन उपाय ।।२।। कभू नर्क ले जात है बिकट निगोद मंझार । । कभु सुरनर पशूगति करें जानत सब संसार ॥३॥ मैं तो एक अनाथ हूं यह बैरी अगिनंत। बहुत किया बेहाल मैं सुनो गुरू निर्ग्रन्थ ॥४॥ इनका नेक बिगाड़ में किया नहीं जिनराज । बिन कारण जग बंध से बैर भयो महाराज ॥५॥ - - -

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