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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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न्यामत सिंह रचित जैन ग्रंथ माला ।
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संबी मोतीता मास्टर
सोमनाला
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न्यामत सिंह जैनी सेक्रेटरी डिस्टरिक्ट वोर्ड, हिसार
NIAMAT SINGH JAIN, Secretary, District Board, Hissar.
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. श्री बीर निर्वाण सम्बत् २४४९ (१९२३ ई०)
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छटीवार १००० कापी
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सर्वाधिकार अन्ध रचयिता ने खाधीन रखखा है।
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श्री जिनेन्द्रायनमः जैन भजन शतक (अर्थात जैनपद वाटिका)
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तर्ज ॥ रघुबर कौशल्या के लाल मुनी को यज्ञ रचाने वाले ॥ भगवन मरुदेवी के लाल मुक्ति की राह बताने वाले ॥ राह बताने वाले सबका भ्रम मिटाने वाले । भगवन० ॥ टेक लीना अवधपुरी अवतार, छागयो जगमें आनन्दकार। बोले सुरनर जय जयकार, सारे जिन गुण गाने वाले ॥१|| जगमें था अज्ञान महान, तुमने दिया सबों को ज्ञान । करके मिथ्यामत को भान, केवल ज्ञान उपाने वाले ॥ २॥ तुमने दिया धरम उपदेश, जामें राग द्वेष नहीं लेश। तुम सतब्रह्मा विष्णु महेश, शिव मारग दर्शाने वाले ॥३॥ जग जीवन पे करुणाधार, तुमने दिया मंत्र नवकार । जिससे होगये भवदधि पार, लाखों निश्चय लाने वाले ॥४॥
(१)
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बैरी कर्म बड़े बल बीर, देते सब जीवों को पीर । न्यामत हो रहा अधम अधीर, तुमहीं धीर बँधाने वाले ॥५॥
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तर्ज ॥ अमोलक मनुष्य जनम प्यारे ॥ दया दिल में धारो प्यारे । दया बिन बृथा जतन सारे॥टेक दया धरम का मूल है प्यारे कहते वेद पुराण । कहीं जीव का मारना नहीं आता बीच कुरान ।। किसी को पढ़ देखो प्यारे ॥ १ ॥ सुबुकतगी को रहम था एक हरनी पे आया। रहमदिली से राज जाय गढ़ गजनी का पाया ।। दया का फल देखो प्यारे ॥२॥ दान शील तप भावना प्यारे संजम ज्ञान बिचार । एक दया बिन जानियो प्यारे हैं निर्फल बेकार ॥ नीर बिन ज्यों सरवर प्यारे ॥३॥ प्राण सबों के जानियो प्यारे अपने प्राण समान । प्राण हतेगा और के प्यारे होगी तेरी हान ॥ सहेगा दुख लाखों प्यारे ॥ ४ ॥ दया करत संसार सुख प्यारे दया देत निर्वाण । न्यामत दया न छोड़ियो चाहे छूट जांय सब प्राण ॥ दया दुख सागर से तारे ॥ ५॥
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तर्ज ॥ पहलू में यार है मुझे उसकी खबर नहीं ॥ | जब हंस तेरे तनका कहीं उड़के जायगा।
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अयदिल बता दो किस से तू नाता रखायगा ।। टेक ॥ यह भाई बन्धु जो तुझे करते हैं आज प्यार । जब आन बने कोई नहीं काम आयगा ॥१॥ यह याद रख कि सब है तेरे जीते जीके यार । : आखिर तु अकेलाही मरण दुख उठायगा ॥२॥ सब मिलके जलादेंगे तुझे जाके आगमे। एक छिनकी छिन में तेरा पता भी न पायगा ।। ३ ।। कर घात आठ कर्मों का निज शत्रु जानकर। बे नाश किये इनके तू मुक्ती न पायगा ॥ ४ ॥ अवसर यही है जो तुझे करना है आज कर । फिर क्या करेगा काल जो मुंह बाके आयगा ॥ ५॥
अय न्यायमत उठ चेत क्यों मिथ्यात में पड़ा। जिन धर्म तेरे हाथ यह मुश्किल से आयगा ॥६॥
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तर्ज़ नाटक ॥ सुनले बीवी वाते मेरो कान लगाकर तू भटपट ॥ क्या सोते हो मोह नींद में रेल मौत की आती है। लाइन किलयर आ पहुंचा है घंटी शब्द सुनाती है। टेक ॥ नेक चलन का टिकट खरीदो, कहां जाना है मुखसे कहदो। प्लैटफार्म पर जल्दी आवो, टिकट अब काटी जाती है ॥ १॥ धरम सार सामान उठावो, शिवपुर की बिल्टी करवावो । न्यामत मतना देर लगाओ, गाड़ी छोड़ी जाती है ॥ २ ॥
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तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ हुआ जनम जनम में ख्यार कुमति तेरी बातों में आके टेका। हुआ जैन धरम से विमुख. स्वर्ग और शिवपद का दाता । सहे दुस्ख अनंती बार तेरे वश नऊ में जाके ॥ १ ॥ जिन बाणी नहीं सुनी कुगति का सह डर मिट जाता। खोया विषय भोग सागर में नरभव चिंतामणि पाके ॥ २ ॥ न्यामत प्रीत करी सुमता से छोड़ मेरा दामन । आक धतूरे नहीं खावे कोई अमृत फल खाके ॥३॥
दर्ज नाटक ॥ प्यारी काहे सर धुने कलपा ना जिया ॥ स्वामि तू है हितकारी सबका जगमें। तारे बिन कौन बतलावे साँचि जिन बाणि स्वामि० ॥ टेक ।। तूही है सबको सुखदाई, नगरि नगरि में तोरी प्रभुताई। आवो आवो आवो स्वामि, शिवमग को दर्शाओ स्वामि ।। तेरा ज्ञान, है पहान, तुझ समान, है नहीं आन, भगवान । उपकारि दुखहारि, सुखकारि जग तारि ॥ तू है हितकारी०॥१
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of ॥ इन्दरसभा ॥ मरे लालदेव इस तरफ़ जल्द आ ॥ अरे प्यारे सुन तू जरा देके कान । कि जिनवाणि से जीव पाता है ज्ञान ॥.टेक ॥. | मिटाती हैं संशय यही जीव की।
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अगर कोई दे इसपे टुक अपना ध्यान ॥ १ ॥ नहीं ठहरे अनमत कोई सामने । करे जब यह परमाण नय का बयान ॥ २ ॥ दिखाती है निक्षेप सत भंग को। स्यादवाद इसका निराला निशान ॥ ३॥ बनावे यह परमात्मा जीव को। जो निश्चय करे देवे शिव बेगुमान ॥ ४॥ परीक्षा से सिद्धी करे वस्तु की। बताती नहीं यूही लाना ईमान ॥५॥ धर्म अर्थ शिव काम चारों मिले। जो न्यामत कोई इसकाले ठीक जानः ॥ ६ ॥
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___ तर्ज ॥ तोरि वाली मी उमर तिरछे नैना ॥ | जिनबाणी की कही तूने नहीं मानी। नहीं मानी तूने अभिमानी । जिन० ॥टेक ॥ लख चौरासी योनि में भटका, दुख सहे तूने अभिमानी ॥ १ ॥ जिनवाणी को हृदय धरिये, जो तू है चेतन ज्ञानी ॥२॥ जनम जनम के पाप कटेंगे, न्यामत,सुन बच सुखदानी ॥३॥
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___ तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ सुनो जैन ऋषी मुनि राज धर्म उपदेश सुनाते हैं। 'भूले फिरते जीवों को मुक्ति की राह बताते हैं | टेक ॥
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ना काह से द्वेष राग चित में नहीं लाते हैं। तन धन की ममता छोड़ ध्यान आपे में लगाते हैं ॥१॥ शत्रु मित्र एक सार नहीं कुछ भेद रखाते हैं। आते हैं जो जो शरण सभी को पार लँघात हैं ॥२॥ तिलतुश परिग्रह छोड़ दिगम्बर वेष बनाते हैं। इस बिन मुक्ति नहीं होय जीव को यूं दर्शाते हैं ॥३॥ ग्रीषम वर्षा शीत वेदना सारी उठाते हैं। दो वीस परीपह सहें कर्म का नाश कराते हैं ॥ ४ ॥ तीन काल सामायक कर निज आतम ध्याते हैं।
और सांझ सवेरे पर जीवन हित शास्त्र सुनाते हैं ।। ५ ।। मिथ्या मत को नाश शुद्ध सम्यक्त दिलाते हैं।
और मोह नींद में सोय पड़ों को आन जगाते हैं ॥६॥ लख मोह अभि से तप्त जीव करुणा मन लाते हैं। कर जिनवाणी उपदेश धर्म अमृत बरसाते हैं ॥७॥ जीव दया का रूप तत्व का स्वरूप दिखाते हैं। जिसको जो संशय होय कहो सव भ्रम मिटाते हैं ॥ ८॥ अंजुल जल ज्यों आयु सदा दिन बीते जाते हैं। न्यामत सुकृत करना सो करलो गुरु समझाते हैं ।। ९॥
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तर्ज ॥ किस विधि कीने करम चकचूर । उत्तम छिमापे जिया चम्मा मोहे
आवे॥ किस०॥ जागो मुसाफिर प्यारे जाना है दूर ॥
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| राह विषे मत सोवो रे अनारी । जागो०॥ टेक ॥
लख विषयन सुख मन बौरायो, मोह विषय में हुआ चकचूर। सम्यक दर्शन ज्ञान गठरिया, लुट जावेगी देखो यहां पे जरूर ॥ १ पाँचों इन्द्री चोर अनादी, संग रहँ होना एक छिन दूर। क्रोध लोभ माया मद चारों, डारेंगे आँखों में कर्मों की धूर ॥२॥ यह संसार असार चलाचल, दुक्ख कुचाचल से भरपूर । न्यामत तज आलस्य भज पारश, काटो यह आगे कर्म करूर ॥३॥
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तर्ज ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ।। देव अरिहंत गुर निर्ग्रन्थ आगम स्यादाद अपना । यही सत और असत सब आजमाए जिसका जी चाहे ॥ टेका। बना जिन धर्म का मंडल हितैषी देश हरियाना। बजे है धर्म नक्कारा बजाए जिसका जी चाहे ॥१॥ कुमारग से हटा शिवमग दिखाना काम है इसका। फरक इसमें नहीं ईमान लायें जिसका जी चाहे २॥ | धरम देश उन्नति करना यही है काम मदों का।
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परोपकारी में हाथ अपने दिखाये जिसका जी चाहे ॥३॥ खड़ा झंडा निशांकित का पनाह लेते हैं जो आकर। नहीं डरते किसी से हैं डराए जिसका जी चाहे ॥ ४ ॥ लगा है पोदा उलफत का झुकी है शाख हमदर्दी। अजब एकताई फल फूला है खाये जिसका जी चाहे ॥५॥ सभासद इसका हो सकता है हर जिन धर्म श्रद्धानी । खुला दरबार है यहां पे तो आए जिसको जी चाहे ॥ ६ ॥ इरादा है यह मंडल का करें उद्धार भारत का। तमन्ना सबकी बरलाए सुनाए जिसका जी चाहे ॥७॥ सरे बाजार पंडित जल धर्म उपदेश देते हैं। दिलों में जो शकूक हो- मिटाऐ जिसका जी चाहे ॥ ८॥ न पर खंडन से मतलब है न मंडन मुद्दआ अपना। सतासत निर्णय करते हैं कराए जिसका जी चाहे ॥ ९ ॥ धरम प्रभावना मंडल तनोमन धनसे करता है। सरेमू भी फरक होवे दिखाये जिसका जी चाहे ॥१०॥ कान देकर सुनो न्यामत पुकार हम सबसे कहते हैं। पड़ा बेड़ा मँवर में है बचाए जिसका जी चाहे ॥ ११ ॥
- १२ तर्ज ॥ सोरठ अधिक खरूप रूपका दिया न जागा.मोल ॥
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कर सकल विभाव अभाव मिटादो बिकलंपता मनकी ॥ टेका आप लखे आपमें आपा गत ब्योहारन की।
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तर्क वितर्क तजो इसकी और भेद बिज्ञानन की॥१॥ यह परमातम यह मम आतम, बात बिभावन की ॥ हरो हरो बुधनय प्रमाण की और निक्षेपन की ॥२॥ ज्ञान चरण की बिकलप छोड़ो छोड़ो दर्शन की। न्यामत पुद्गल हो पुद्गल चेतन शक्ती चेतन की ॥३॥
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तर्ज ॥ मेरोआह का तुम असर देख लेना । वह आयेंगे
थाँव जिगर देख लेना॥
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करम का तुम अपने यह फल देख लेना। करोगे जो कुछ आज कल देख लेना ।। टेक ।। विषर्षों में लगे रहते हो रात दिन पर । मिलेगा न सुख एक पल देख लेना ॥१॥ सताओगे जगमें जो तुम जी किसी का। पड़ेगी न तुमको भी कल देख लेना ॥ २ ॥ फिरोगे चहूं गति में हिंसा से न्यामत । है कहना हमारा अटल देख लेना ॥३॥
तर्ज ॥ ज़माना तेरा मुवतला होरहा है । तुझे भी खबर है कि क्या होरहा है। अनारी जिया तुझको यह भी खबर है। । किधर तुझको जाना कहाँ तेरा घर है ।। टेक ।। | मुसाफिर है दो चार दिनका यहाँ पे।
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(१०) न यह तेरा दर है न यह तेरा घर है।॥१॥ कहो कौन से शह जाना है तुझको । तेरे साथ में भी कोई राहबर है ।। २ ।। है अफसोस न्यामत तू गाफिल है इतना । न यहाँ की खबर है न व्हां की खबर है ।। ३ ।।
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तर्ज । मेरी शाह का तुम असर देख लेना । वह आयेंगे था जिगर देख लेना ।। सिया हरने का यह असर देख लेना। कि तनसे जुदा अपना सर देख लेना ।। टेक ।। सती को चुराते हो वनमें अकेली। नझा टोटा अपना मगर देख लेना ॥ १ ॥ मेरे हाथ लाना है बस जहर कातिल । बुरा है मुझे बद नजर देख लेना ॥२॥ अरे मानले कहना मेरा तू रावण । वगरना नरक अपना घर देख लेना ॥३॥ बदी वीज बोवेगा जो कोई न्यामत । मुसीवत के उसमें समर देख लेना ॥४॥
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तर्जा लोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा,मोल ॥
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जय जय श्री अरिहंत आज हम पूजन को आए । टेक॥ | काम सरा सब मोमन का जब तुम दर्शन पाए ।
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(११) मेघ सुधाक हो बरसे हम बहु आनन्द पाए ॥१॥ यही भई पस्तीत मेरे तुम देवन के देवा । जनम जनम के अघकट गए मेरे तुम दर्शन पाए ॥२॥ नारद ब्रह्मा और सभी मिल तुमरे गुण गाए । नरपति सुरपति नित तुम ध्यावे बंछित फल पाए ॥३॥ इन्द्र धनेन्द्र सभी मिल आए सिर चरणन लाए। न्यामत जनम सुफल कर मानों तुम दर्शन पाए ॥४॥
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तर्ज ॥ इताजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ॥ प्रभू की भक्ति काफी है शिवा सुन्दर मिलाने को ॥ टेक ।। छुड़ा दामन कुमत से जो तू शिव सुन्दर को चाहे है। तुझे आई है अय चेतन सखी सुमता बुलाने को ॥ १ ॥ जगामत मोह राजा का पड़ा है ख्वाब गालत में। बनाले ध्यान की नवका भवोदधि पार जाने को ॥ २॥ तुझे अय न्यायमत कोई अगर रहबर नहीं मिलता। तो ले चल संग जिन बाणी तुझे रस्ता बताने को ॥३॥
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तर्जा खातीका खूनला तेरी मामी लागरे । चरखा तु घड़दे राँगलोरे खूवा
पीढी लाल गुलाल, खातीका खूरला (यह गोत हरयानेमें जमीदार गाते हैं) ज्ञानीरा चेतना पर नारी त्यागोरे ॥ टेक । या पर नारी देखतारे मरो धवल सेठ गँवार ज्ञानी० ॥१॥ या पर नारी बांछतारे परी कीचक मार अपार ज्ञानी० ॥२॥
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या परनारी छूवतारे गयो रावण नरक मंझार ज्ञानी० ॥३॥ न्यामत पर त्रिय त्यागिये, जैसे चौथ को चंद विकार ज्ञानी० ४
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तर्ज ॥ जावो जावोजी शाम जहाँ रात रहे । हमारे ॥ कैसे आये भोर भये ॥ सुनो सुनोजी बात जरा ध्यान करी। सुमारग क्यों ना लागे एक घड़ी॥ कुमता घर काल अनादि रहे। वह काम किये जो कुमति कहे !! हमरी नहीं एक सुनी । सुनो० ॥ १ ॥ गुरु वार वार हित बात कही। तुम नेक नहीं चितमाही धरी ।। मन माना सोही करी । सुनो० ॥२॥ जब विपति पड़ी सुमता सूझे । धनराज मिले कुमता बुझे । न्यामत नहीं बात मली । सुनो० ॥३॥
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वर्ज ॥ सदा नहीं रहने का मेरी जान हुसनपर यही अकड़ते हो। मिले तुमको भी नहीं आराम।जो तुम औरों को सताते हो । टेक दया धरम को छोड़ पापमें जिया लगाते हो । दुख देते हो औरों को खुद भी दुख पाते हो। क्यों होकर चेतन चतुर सुजान । निपट मूरख बन जाते हो ॥१॥ क्रोध लोभ मद माया के बशमें आजाते हो। दयाभाव को त्याग प्राण प्राणी के गमाते हो। तुम्हारा हो कैसे कल्याण । जीव औरों का दुखाते हो ॥२॥ तप संजम और पूजा भक्ती ज्ञान ध्यान अस्नान ।
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(१३) जिनके दया हृदय नहीं है सब झूठा तूफान ।। निमाज औररोजा और ईमान । यूंही करके दुख पाते हो॥३॥ सबके जीव जान अपनी सम और करुनामन धार । वेद कुरान पुराण सबों का समझो यह ही सार ।। | दया बिन नहीं होगा कल्याण जनम बिर्थाही गमाते हो ॥४॥ कर पूजा मंदिर में घड़ी घड़ियाल बजाते हो। जो दिलमें नहीं दया यू ही पाखंड रचाते हो ॥ प्रभू को है सबही का ज्ञान । उसे क्या धोका दिखाते हो ॥५॥ हिंसाही से होता है इस दुनियां में दुख पाप । काल फूट और प्लेग समझ लो हिंसा का परताप ॥ रसातल जाता हिन्दुस्तान । दया चितमें नहीं लाते हो ॥६॥ राग द्वेषं को छोड़ न्यायमत तज दो हिंसक भाव। . दया धरम मनमें भजो सब क्या जोगी क्या राव ।। दया से हो सबका कल्याण । जो भारत सुत कहलाते हो ॥७॥
. ॥ इति प्रथम बाटिका समाप्तम् ॥
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॥ श्रीजिनेन्द्रायनमः॥
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तई। यह कैसे बाल बिखर यह क्यों सूरत बनी गमको । तुम्हारा चंद मुख निरखे सुपद रुचि मुझको आई है। ज्ञान चमका परापर की मुझे पहिचान आई है ।। टंक ।। . कला बढ़ती है दिन दिन कामकी रजनी बिलाई है। अमृत आनंद शासन ने शोक तृष्णा बुझाई है ॥ १ ॥ जो इष्टानिष्ट में मेरी कल्पना थी नशाई है। मैने निज साध्य को साधा उपाधी सब मिटाई है ॥ २॥ धन्य दिन आज का न्यामत छबी जिन देख पाई है। सुधर गई आज सब विगड़ी अचल ऋधि हाथ आई है।।३।।
२२ ___ तर्ज ॥ नाटक ( इसपर थ्येटर में नाच होता है ) ॥ अरि आवो शुभघड़ियां, मनावो शुभघड़ियां, मनावो शुभ
घड़ियां, मनावोरी ॥ टेक ।। घर घर में आनंद छाय रह्यो हैं। श्री जी ये वारो, बनाय गुल कलियां,
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(१५) बनाय गुल कलियां, बनाय गुल कलियां, मनावोरी अरि० ॥१॥ गावो बजावो हाव भाव दिखायो। जय जय जिनेन्द्र, सुनावो रल मिलियां, सुनावोरल मिलियां, सुनावो रल मिलियां, मनावोरी अरि०॥२॥ छम छम छम छम, नाच नचावो। '' तालि बजावो, बजावो मन भरियां । बजावो मनभरियां बजावो मनभरियां, मनावोरी अरि० ॥३॥ मुक्ति,चिदानन्द नाटक रचायो । . कर्मों की धूल, उड़ावो गलि गलियां। . उड़ाओगलिंगलियां उड़ाओगलिगलियां, मनावोरी अरि०४|| अमृत प्रभावना, दिया जैन बाणी। . पीवो पिलावो, दिखायं छल बलियां । | दिखाय छल बलियां, दिखायं छल बलियां मनावोरी अरि० ॥५॥
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तर्ज ॥ सोरठ'अधिक स्वरूप रूपका दिया म जागा मोल ॥ | अरे हिंसा का है फल भारी तेरे से सहा नजागा भार ॥ टेक।
चोरी झूठ कुशील परिग्रह हिंसा अंग बिचार। इनसे दुर्गति होवे नर्क में पड़े अनंती बार ॥ १ ॥ सारे जीव जान अपनी सम और करुणा मन धार। जाकी हिंसा तू करे वह तो अपनी आप निहार ॥२॥ हो हिंसा से निर्धन निर्बल नित दुख सबै अपार। न्यामत तज हिंसक भाव भावसे करले पर उपकार ॥३॥
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तर्ज ॥ राजा हू मैं कौम का और इन्दर मेरा नाम चाल इन्दर सभा को ॥ चेतन आनंद रूपजी, सुनो हमारी बात तू राजा तिहूं लोक का, है जगमें विख्यात ॥१॥ जिनवाणी माता तेरी, गहो चरण चित लाय । पद जाके से सदा, इन्द्र चन्द्र शिरनाय ॥ २ ॥ करुणा सब पर कीजिए, दिलमें दया बिचार । दया धर्म का मूल है, यह निश्चय मनधार ॥ ३॥ इक संबर दो निर्जरा, शुभ आश्रव मिलचार । यह चतुरंग सेना बनी, जिसका वार न पार ॥ ४॥ समकित है सेनापती, मंत्री ज्ञान निहार । ज्ञान सुता सुमता सती, है तेरी पटनार ॥ ५॥ गुण अनंत है कोशमें, कोषाध्यक्ष सुदान । अन्न औषधि नित दीजिए, अभय दान और ज्ञान ॥६॥ ज्ञान सुमत की सीखमें, रहना चतुर सुजान। यहही हितकारी तेरे, सुखकारी दुख भान ॥७॥ सत्यारथ उपदेश यह, दियो श्री जिनराज । न्यामत मन निश्चय करो, मिले. मोक्ष का राज ॥॥
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तर्ज ॥ लेता जाइयोरे साँवरिया चौड़ी पान पानको ॥ . पीजो पीजोरे चेतनवा पानी छान छानके ॥ टेक॥ निरख. निरख कर पग धर चलना.।
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(१७) जैन बैन सत मान मान के ।। १ ॥ हित मित बचन कहो मेरे प्यारे । क्रोध लोभमद भान भान के ॥२॥ निश भोजन भूले नहीं करना। जीव पड़ेंगे वामें आन आन के ॥३॥ न्यामत हलन चलन जो करना।. करना सुमति हिए ठान गनके ।। ४.॥
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__ तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा मोला . || जिया घर में सुमति तेरे नार कुमति पर क्यों ललचातेहो ॥टेक । कुमति मोह की सुता मोह की लाग लगाते हो । इक विषय बासनाकार नारके धोके में आते हो ॥१॥ कल्पतरू को तोड़ पेड़ बम्बूल लगाते हो । काँच खंडले चिंतामणि सिंध में लगाते हो॥२॥ सुमति सुहागन त्याग कुमति को घरमें बुलाते हो। न्यामत शिव मारग छोड़ कुमारग को क्यों जाते हो ॥३॥
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तर्ज | सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ सुन कुमति दुहागन नार मेरे घर अब क्यों आती है ।। टेक॥ काल अनन्त चतुर गतिमें जीको भ्रमाती है। तू जो जो दुख देती है बात वह कही नहीं जाती है ॥१॥ तू कुलटा धोका देकर नौं ले जाती है ।।
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| फिर वह गत करती है तेरी जो पार बसाती है ।।२।। न्यामत पीत तजी अब तेरी बू नहीं भाती है। चौथ चान्द सम मुख तेरा मुझे क्यों दिखलाती है ॥३॥
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तर्ज़ ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ घर आवो सुमति बरनार तेरी सूरत मन भाती है ॥ टेक ॥ कुमति दुहाग दिया तुझ कारण जो तू चाहती है। पूनम चन्द्र तेरा मुख है क्यों नहीं दिखलाती है ॥ १॥ मुनि जन इन्द्रबली नारायण सब मन भाती है । स्वर्ग चन्द्र सूरज तु अंतको शिवले जाती है ॥२॥ तुझको पाकर परमाद मोहकी थिति घट जाती है। न्यामत प्रीति करी तेरेसे अव नहीं जाती है ॥३॥
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तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा मोल ॥ अरे यह क्या किया नादान तेरी क्या समझपे पड़गई धूलोटेक आंब हेत ते बाग लगायो बो दिये पेड़ बम्बूल । अरे फल चाखेगा रोवेगा क्या रहा है मन में फूल ॥१॥ हाथ सुमरनी बाँह कतरनी निज पद को गया भूल। मिथ्या दर्शन ज्ञान लिया रहा समाकित से प्रतिकूल ॥२॥ कंचन भाजन कीच उठाया भरी रजाई शूल । न्यामत सौदा ऐसा किया जामें ब्याज रहा नहीं मूल ॥३॥
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तर्ज ॥ जल कैसे भरू नदिया गहरी ॥ | अब कैसे करूं निद्रा गहरी।
निद्रा गहरी निद्री गहरी ॥ अब० ॥टेक॥ | नाद करूं सुनने नहीं पाये। हाथ गहूं परमत* बैरी ॥१॥ चाल कुमति समझी नहीं जावे। सुध बुध आज गई मेरी ॥२॥ न्यामत सीख सुनो सुमता की। सब सुधरे बिगड़ी तेरी ॥३॥
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राग खमाच (ठुमरी) तर्ज ॥ माज आली श्रीमती जननी सुत जायोरी ॥ आज प्रभू समकित मेरे मन आई जी ॥ टेक ॥ भूला फिरा भव बन बन मैं तो। कबहुना सुध बुध आई जी ॥ आज०॥१॥
आज सुनी जिनवाणी मैंने।। मिटगई बिकल पताई जी। आज० ॥२॥ तुमहो महा उपकारी सबके। नींद अनादि हटाई जी॥ आज०॥३॥ जिनवाणी बसियो उर मेरे। ज्ञान कला उर छाई जी। आज०॥४॥
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(२०) भव भव में प्रभु दर्शन दीजो। न्यामत यही चित लाई जी। आज० ॥ ५॥
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तर्ज ॥ सर्वे सब सुरनर जुनी तेरा द्वार ॥ सेऊं नित नित एक चित चरण चार ।। टेके ।। चारों मंगल चारों उत्तम। यह ही अशरण शरण चार ।। सेकं० ॥ १ ॥ सिद्ध अरिहंत मुनी जिन शासन । सुमति सुगति नितकरन चार ॥ सेऊ० ॥२॥ सब मंगल में आदि मंगल। सब जग जन अघ हरण चार ॥ सेऊ० ॥ ३ ॥ न्यामत यह निश्चय मन लायो। जग में तारण तरण चार ।। सेकं० ॥ ४ ॥
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सर्ज़ ॥ कहां लेजाऊ दिल दोनों जहां में इसकी मुश्किल है । तुम्हारे दर्श बिन स्वामी मुझे नहीं चैन पड़ती है। छबी वैराग तेरी सामने आंखों के फिरती है ।। टेक ॥ निराभूषण विगत दूपण पदम आसन मधुर भाषण । नज़र नैनों की नासाकी अनीपर से गुजरतीहै ॥ १ ॥ नहीं कर्मों का डर हमको है जब लग ध्यान चरणों में। तेरे दर्शन से सुनते हैं करम रेखा बदलती है।॥ २॥ मिलेगर स्वर्ग की सम्पत अचंभा कौन है इसमें ।
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( २१ ) तुम्हें जो नैनें भर देखे गती दुर्गत की टरती है || ३ || हज़ारों मूरतें हमने बहुत सा गौरकर देखी । शांत मूरत तुम्हारी सी नहीं नज़रों में चढ़ती है ॥ ४ ॥ झुकाते हैं जो सर चरणों में उनके फूल बर माला । गले में सुन्दरी शिवनार के हाथों से पढ़ती है ॥ ५ ॥ . जगत सरताज हे जिनराज न्यामत को दरश दीजे । तुम्हारा क्या बिगड़ता है मेरी बिगड़ी संवरती है ॥ ६ ॥
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तर्ज || आज श्राली श्रीमती जननी सुत जायारी ॥
आज जिन चरण शरण मन लायो जी ॥ टेक ॥।
तुम भव तारक कलमल हारक । मुनि जन गण गुण गायो जी || आज० ॥ १ ॥ शिव मग नेता अघगिरि भेता ।
सब ज्ञेय ज्ञान उपायो जी ॥ आज० ॥ २ ॥ अब मैं नरभव का फल पायो । समकित मेरे मन आयो जी ॥ आज० ॥ ३ ॥
जनम जनम की तृष्णा भागी । किल्विष कलुष नशायो जी ॥ आज० ॥ ४ ॥ - जिन जन भक्ती घरी चित तेरी | छिन में आप अपनायो जी ॥ आज० ॥ ५ ॥ न्यामत जिन सन्मुख सुख देखा । विमुख भए दुख पायो जी || आज० ॥ ६ ॥
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(२२)
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तर्ज ॥ एजो हम आए हैं दर्शन काज मिटावो प्रभु यीथा हमारी जी॥ एजी प्रभु भवजलपतित उधार तुम बिन कोई नहीं ऐसाजी। टेक
और देव सब रागी द्वेषी। कैसे उतरें पार हमें है भारी अंदेशा जी ॥ एजी० ॥१॥ तारत तरण तुमही हम जानी। तेरेहि गुण उरधार । हरेंगे कर्म कलेशा जी ॥ एजी० ॥२॥ जीव अनन्त प्रभु तुम तारे। अबके हमारी बार यही न्यामत को भरोसा जी ।। एजी० ॥३॥
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तर्ज ॥ यह कैसे बाल हैं विखरे यह क्या सूरत बनी गम को ।। अहो जग बंधु जग नायक अर्ज इतनी हमारी है। कि कर्मों ने मेरी इस जगमें आ हुरमत बिगारी है ।। टेक ।। मैं इस भव बनमें फिर हारा चतुर गति दुख सहे भारी।। कहूं मैं अपने मूह से क्या बिपति जानो हो तुम सारी ॥१॥ कर्म बैरी मुझे हर आन मन माना सताते हैं । मनुष तिर्यंच सुर नारक में अरहट जूं फिराते हैं ॥२॥ लुटेरे सारी दुनियां के ज्ञान धन हर लिया सारा । पाप पुन पांव में बेड़ी लगा तन बंध में डारा ।।३।। सिंघ बानर सर्प शुकर नवल सब तुमने तारे हैं। ऊंच और नीच नहीं देखाशरण आए उभारे हैं।॥ ४ ॥
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सुयश तेरा सुना तुमहो हितू सबके बिना कारण । शरण आकरगहीन्यामत उतारो हे तरण तारण ॥ ५॥
तर्ज ॥ हमारे प्रभु मुकत वरण गएरी। पाकी बात मोहे भाई जान जीवों
की वचाई जी ॥ हमारे॥
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आली आज सारे विघन हरण भएरी। सबका भरम मिटाया। शिव मग दर्शाया ॥ आली आज सारे बिघन हरण भएरी ॥ टेक ॥
दोहा। आए जिन जब गर्भ में, माता पिछली रैन। अकस्मात स्वप्ने लखे, सोला सब सुख देन ॥
झड़ी। बात पीया को सुनाई । सुन फल हर्षाई ॥ सारे नगर में रतन बरसन भएरी॥आली०॥१॥
दोहा। जनम भया जिनराज का, सुर नर खग हर्षाय । गिर सुमेरु पे लेगए, जय जयकार कराय॥
__ झड़ी। क्षीरो दधि मरलाए । भुज सहस बनाए । कर न्हवन जिनेन्द्र के भवन गयेरी आली० ॥२॥
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(२४)
दोहा। छिन भंगुर संसार लख, छोड़ दिया परिवार। लोकांतिक सुर आयके, करी अस्तुती सार।।
झड़ी।
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राज पाट तज दीनो । बीतराग वित कीनो ।। बन मांही दीक्षा जैन की धरण गयेरी ॥ आली० ॥३॥
दोहा।.. . घात घातिया करम को, लीनो केवल ज्ञान । सकल ज्ञेय ज्ञायक भए, सब दी भगवान ॥
झड़ी। सात तत्व षट द्रव्य । इनकी पर्यायं सर्व । प्रभु दिव्य ध्वनि मांही बरणन कियेरी ॥ आली० ॥ ४ ॥
दोहा।
शेटर नो कर्म थिति जब घटी, भये आप शिवरूप । निरआकुल आनंदमय, अतुल शक्ति चिदरूप ।।
झड़ी . परमातम कहाये । मुनि जन गुण गाए । लख न्यामत जिनेन्द्र के चरण गहेरी ॥ आली० ॥ ५॥
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३८.
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. तन ॥ यह कैसेवा
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तर्ज ॥ यह कैसे वाल हैं विखरे यह क्या सूरत वनों गम की ॥' सुनो सिद्धार्थ के नंदन संती त्रिशला उरानंदन ।
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(२५) निरंजन जन जगत रंजन बिपति अपनी सुनाऊं मैं ॥ टेक॥ मेरा मन मोह मतवारा, सेज मिथ्यात पग धारा । पड़ा अज्ञान निद्रा में कहो क्योंकर जगाऊं मैं ।। १॥ कुमति आशक्त हो निश दिन विषय में खो दिया निज गुण । मुमति सुन्दर सुहागन को तजा क्योंकर मनाऊं मैं ॥२॥ क्रोध मदलोभ माया का बनाया है कोट भारी। राग और द्वेष का पहरा लगा जाने न पाऊं मैं ॥३॥ तुही है देव देवन को करो बश इस मेरे मनको । लहे न्यामत जो निज गुण को चरण में चित लगाऊं मैं ॥४॥
तर्ज ॥ काहे को चले गिरनारी विनती तो सुनियो॥ तू हितकारि दुख हारि बिनती तो सुनियो ॥ ॥ टेक॥ बैरि कर्म महा दुखदाई । इनसे करो छुटकारी ॥बिनती०॥१॥ क्रोध लोभ मदमाया चारों। दुखकारी अघभारी ॥विनती०२॥ | न्यामत शरण चरण तुमरीली । बेग करो उद्धारी। बिनती० ॥३॥
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तर्ज ॥ सुन सुनरी भावी भय्या को भेजू परदेश । · नहीं नहीं रे देवर सेजों की शोभा उनके साथ ॥
( यह गीत अक्सर औरतें गाती हैं) || परदेशिया में कौन चलेगा तेरे लार ॥ टेक ॥
चलेगी मेरी माता चलेगी मेरी नार । नहीं नहीं रे चेतन जावेंगी दर तक लार ॥ परदे०॥१॥
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(२६) चलेगा मेरा भाई चलेगा मेरा यार । नहीं नहीं रे चेतन फूंकेंगे अगन मंझार ।। परदे० ॥२॥ चलेगी मेरी माता की जाई मेरी लार । नहीं नहीं रे चेतन झूठा है सारा व्यवहार ॥ परदे ॥३॥ चलेगा मेरा बेटा पिता परिवार । नहीं नहीं रे चेतन मतलब का सारा संसार ॥ परदे०॥४॥ चलेगी मेरी फौज चलेगा दरबार । नहीं नहीं रे चेतन जीते जी की है सरकार ।। परदे० ॥५॥ चलेगा मेरा माल खजाना घरबार । नहीं नहीं रे चेतन पड़ा रहेगा सब कार ॥ परदे० ॥६॥ चलेगी मेरी काया चलेगा मनसार । नहीं नहीं रे न्यामत छोड़ेंगे तो हे मंझधार ॥ परदे० ॥ ७॥
॥ इति द्वितीय बाटिका समाप्तम् ॥
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॥ श्री जिनेन्द्रायनमः ॥
तृतीय वाटिका
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तर्ज || इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ||
अपूरब है तेरी महिमा कही हमसे नहीं जाती । तुम्ही सच्चे हितू सबके तुम्ही हरएक के साथी || टेक ॥ पाप जब जग में फैला था गरम बाज़ार हिंसाका । विचारे दीन जीवों को कभी नहीं चैन थी आती ॥ १ ॥ हज़ारों यज्ञ में लाखों हवन में जीव मरते थे । कि जिसको देखकर भर आति थी हरएक की छाती ॥ २ ॥ जगत कल्याण करने को लिया अवतार तब तुमने | सुरासुर चर अचर सबको तेरी बाणी थी मनभाती ॥ ३ ॥ दया का आपने उपदेश दुनिया में दिया आके | वगरने जालिमों के हाथ से दुनिया थी दुख पाती ॥ ४ ॥ जो था पाखंड दुनिया में हुआ सब दूर इकदम में । ध्वजा हरसू नज़र आने लगी जिनमत की लहराती ॥ ५ ॥ जगतकर्ता के और हिंसा के जो झूठे मसायल थे। न्याय परमाण से तुमने किया रद्द सबको इकसाथी ॥ ६ ॥
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( २८ ) हटा हिंसा किया तुमने दयामय धर्म को जारी। न्यायमत जाय बलिहारी है दुनिया यश तेरा गाती ॥७॥
४२ तर्ज | बंटी लाने का कैसा बहाना हुआ। (भद्रकाली भीलनी का अपने पति को मुनौका शिकार करने से रोकना और __ भीलका मुनों के चरणों में गिरना और महावीर का अवतार लेना) कैसा त्यागी का तुमने निशाना किया । कैसे० ॥ मुझको रुसवाय सारा जमाना किया ॥ कैसे० ॥ टेक ।। यह बैरागी महान । नहीं क्रोध और मान । करें आतम का ध्यान । तजे महलो मकान ॥ आके जंगल में अपना ठिकाना किया ॥ कैसे० ॥१॥ दान मुक्ती का सार । सारे नर और नार ।। मांगे हाथ पसार । करे सबका उपकार ॥ नहीं छोटे बड़े का बहाना किया। कैसे० ॥ २॥ इनको मृगीन जान । ऐसा होके अयान । मत बचे कमान । मत खो इनकी जान । कैसे दिलसे दया को रवाना किया ॥ कैसे० ॥ ३॥ सच जानो सुबीर । होगी नकों में पीर ।। मेरे मनको न धीर । मैं तजूंगी शरीर ॥ तुम जो जोगी का इस दम निशाना किया ॥ कैसे०॥४॥ सुनके भील सुजान । डरा मन में अज्ञान॥ डारे तीरो कमान । जंगा हृदय में ज्ञान ॥ भद्रकाली को लेकर पयाना किया ॥ कैसे०॥५॥ .
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(२९) मुनी चरणन मंझार । गिरे भील और नार ।। लेके भाल अघकार । महाबीर अवतार ॥ न्यायमत उपकार जमाना किया ।। कैसे०॥६॥
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तर्ज ॥ जल कैसे भरू नदिया गहरी ॥ दुख कासे कहें कलयुग भारी। कलयुग भारी कलयुग भारी ।। दुख० ॥ टेक ।। दया धरम हृदय में नाहीं। करे जीव घात हिंसा भारी ।। दुख० ॥१॥ शील गया है भारत में से। कर दिया नियोग कुपथ जारी ।। दुख० ॥२॥ झूठ बचन हा ! निश दिन बोलें ॥ करें कपट द्यूतं चोरी जारी ॥ दुख० ॥३॥ किस विधि से सुख होवे प्यारे। करो काम महा दुख अघकारी ॥ दुख० ॥४॥ हमदरदी किस विधि से होवे। लड़ें आपस में दे दे गारी॥ दुख० ॥ ५ ॥ भारत क्यों ना दुखिया होवे । तजा जैन धर्म सब सुखकारी ।। दुख०॥ ६॥ पक्षपात तज जिनमत देखो। नहीं राग द्वेष सब हितकारी ।। दुख० ॥७॥ तज आलस पुरुषारथ धागे।
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(३०) न्यामत सुधरे बिगड़ी सारी ॥ दुख० ॥ .
१४. तर्ज ॥ रघुबर कौशल्या के लाल मुनी की यज्ञ रचाने वाले ॥ | रावण सुनो सुमति हियधार सती सीता के चुराने वाले। सीता के चुराने वाले कुल के दाग लगानेवाले ।। रावण०। टेक । राणी थीं दश आठ हजार । लाया क्यों हर कर पर नार॥ तजकर धर्म सकल सुखकार। शीलकी बाड़ हटानेवालेरावण०१॥ जो तुझे थी सीता से प्रीत । लाया क्यों नहीं स्वयम्बर जीत ।। यह थी क्षत्रीपन की रीत । क्षत्री नाम लजानेवाले ।। रावण०२|| जो सीता लीनी थी ठान । लाया क्यों नहीं सन्मुख आन ॥ तुमतो थे जोधा बलवान । गिर कैलास हिलानेवाले ॥रावण ०३ जाकर दंडक बनके बीच । सूनी लाए सती को खींच ।। कीना काम नीच से नीच । बनेनों में जाने वाले॥रावण०४ होना था सो होगया खैर । उलटी देदो सीता फेर। अच्छा नहीं रामसे बैर । न्यामत कहते कहनेवाले ॥रावण०॥५॥
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तर्ज ॥ फल मत करना सुझे तेगो तवर से देखना । है नहीं कलयुग यह है करजुग समझ के देखलो। . जसौ जो करता है फल पाता है करके देखलो ।। टेक ॥ . जो दया करते हैं औरों पे वही पाते हैं चैन । दुक्ख सागर में पड़े पापी पापकर देखलो ॥ १ ।। अपने जीने के लिये जो और का काटें गला ।
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(३१) सुख नहीं पाते हैं वह भी जी सताके देखलो ॥२॥ न्यायमत हिंसा का फल अच्छा कभी होता नहीं। आगई भारत पे आफत आँख उठाके देखलो ॥३॥
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तर्ज || याद आवेगी तुझे मेरी वफ़ा मेरे वाद ॥ आशना काम न आवेगा कोई मेरे बाद। काफला सारा बिछड़ जावेगा बस मेरे बाद ॥ १ ॥ जब तलक मैं हूं तो हैं यार संगाती तरे । फिर कोई पास भी आवेगा नहीं मेरे बाद ॥ २ ॥ है यकी मुझको कि अग्नी में जला देंगे तुझे। घर में रहने तुझे देगा न कोई मेरे बाद ॥ ३॥ न्यायमत कहदे यह काया से कि जप तप करले । वरना फिर खाक में मिल जावेगी तू मेरे बाद ।। ४ ॥
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तर्ज ॥ पहलू में यार है मुझे उसकी खबर नहीं।
(शिव सुन्दरी अपने मनमें विचार करती है ) मिलना मेरा चेतन से अब आता नजर नहीं। किस देश में वह है मुझे उसकी खबर नहीं ॥ टेक ॥' किस तौर से चेतन को कुमति फंद से लाऊं। मैं मोक्ष बंध में मेरा होता गुजर नहीं ॥ १ ॥ जिन राज जगत लाज तू मेरी सहाई कर। चेतन बिना जीको मेरे आता सबर नहीं ॥ २ ॥
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(३२) चेतन को जगत फंद में बीता अनादि काल। न्यामत तुम्हारी बात में कुछ भी असर नहीं ॥ ३ ॥
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तर्ज ॥ अरे मुवे छोड़ो मेरी चैय्यां रे मुरकयाँ । सुनियो सुमति अरदास हमारी। विनती हमारी प्यारी अरज हमारी ॥ सुनियो० ॥ टेक ॥ जग महाराणी प्यारी सब सुखदानी। दुक्ख मिटानी मेरी सुनियो पुकारी । सुनियो० ॥ १ ॥ | सबक्री प्यारी महा उपकारी। लाखों पहुंचाए तूने मुक्ति मंझारी । सुनियो० ॥२॥ सुर नर मुनि तेरा यश गावें।। शीस नवावें तेरे चरण पियारी ।। सुनियो० ॥ ३॥ श्रीजिन हैं तेरे हितकारी। वह सुखकारी दुखहारी हितकारी ॥ सुनियो० ॥ ४ ॥ कुमता के छलबल अधकारी। चेतन को लावो प्यारी दुखसे निकारी । सुनियो० ॥५॥ न्यामत को नित सीख सुनावो। तू सब जाने जिन बाणी मेरी प्यारी ॥ सुनियो० ॥६॥
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तर्ज ॥ राजा वल मत दे दान ज़मीका॥ अरे जीया मतकर संग बिषयनका ॥ टेक ॥ रावण ने कुलनाश करायो।
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लख मुख पर तिरियन का ॥ अरे० ॥१॥ सब सम्पति पांडवों ने खोई। खेल खेल जूवनका ।। अरे० ॥ २॥ न्यामत सात विषय को तजकर । गाले गुण भगवनका ॥ अरे० ॥३॥
तर्ज ॥ (इन्दर समा ) घरसे यहां कौन खुदा के लिये लाया मुझको ॥ : हाय इन भोगों ने क्या रंग दिखाया सुझको। बेखबर जगत के धन्दों में फसाया मुझको । टेक॥ . मैं तो चेतन हूं निराकार सभी से न्यारा । दुष्ट भोगों ही ने कमा से बंधाया मुझको ॥१॥ नींद गफलत से मेरी आँख कभी भी न खुली। भोग इन्द्री और विषयों ने भुलाया मुझको ।।२।। ज्ञान धन मेरा हरों रूप दिखाकर अपना । । जून चौरासी में भटका के रुलाया मुझको॥३॥ अब न सेऊंगा कभी भूल के इन विषयों को। न्यायमत जैन धरम अब तो है पाया मुझको॥ ४॥ .
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तर्ज ॥ मामुर शोखो से शरात से भरी है .. चेतन जरा दे कान सुन इक बात हमारी। हम बैरी अनादी नहीं टोरेसे टेरेंगे॥१॥ देवों को फंसा लेते हैं मोह जाल डालकर ।
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। ईनसां की असल क्या नहीं सुरपति से डरेंगे ॥ २॥
अय न्यायमत सब जीव हैं कर्मों के फंद में। अहमेन्द्र और धनेन्द्र सभी वश में करेंगे ॥३॥
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तर्ज ॥ मामूर हूं' शोखो से शरारत से भरी हूँ ॥ चेतन हूं निराकार हरबात का ज्ञाता। पर क्या करूं जगबंध से फंदे में फंसा हूं॥ १ ॥ शक्ती है की कर्मों को मैं इकदम में उड़ा दूं । लाचार हूं इस मोह की नागन ने डसा हूं॥२॥ क्या अस्ल है कर्मों को मेरे तेज के आगे । इक छिनके छिनमें ध्यान की अग्नी से जला दूं ॥३॥ अब आन गही न्यायमत जिन शर्ण तुम्हारी । अरदास यही है कि मैं कर्मों से रिहा हूं ॥ ४ ॥
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तर्ज ॥ जिया त तो करत फिरत मेरा मेरा॥ . जिया तूने कैसी कुमति कमाई ।। टेक॥ नवदश मास गर्भ में बीते नरक योनि भुगताई। . अंधकूप से बाहर आयो मैल रह्यो तन छाई ।। जिया०॥ १ ॥ बालापन सब खेल गंवायो तरण भयो सुधआई। कामदेव आंखों में छायो पिछली बात बिसराई ॥ जिया०॥२॥ क्रोध मान माया मद राचो जो चारों दुखदाई। जमके दूत लेन जब आवें भूल जावे चतुराई। जिया० ॥३॥
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धन्य भाग यह जान आपने उत्तम नर गति पाई । उत्तम कुल में जन्म लियो है वृथा काहे गंवाई | जिया० ॥ ४ ॥ जैन धर्म न्यामत तूने पाया पूरव कर्म सहाई ।
तज मिथ्यात गहो तनमनसे जो जिन शासन गाई || जिया०|५|
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तर्ज़ ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ॥
बिना भक्ती सुनो चेतन जगत में तूने दुखपाया । अरे अब तो समझ मूरख कि अवसर तेरा बन आया ॥ टेक ॥ अनंती काल नकों में सहे दुखड़े बहुत तूने ।
गया अब भूल क्यों मूरख तुझे अभिमान क्या छाया ॥ १ ॥ इकेन्द्र से पचेन्द्री तक पशुपक्षी की गति भोगी । कहीं जलचर कहीं नभचर समझले अब तो समझाया ॥ २ ॥ स्वर्ग में भोग सुरियन संग बहुतसी सम्पदा पाई । लखा मुरझाई माला को तु अपने मनमें पछताया ॥ ३ ॥ मनुष भव में गर्भ माही उठाये कष्ट दुर्गति के । तरुण होकर फंसा विषयन काम आंखों में जब छाया ॥ ४ ॥ वृद्ध होकर करी ममता गंवाए तीनो पन अपने ।
भला पछताय क्या होवे काल जब बाके मुंह आया ॥ ५ ॥ भागधन न्यायमत जानो कि उत्तम काया नर पाई । करो श्रद्धान जिनवाणी पे जो जिनराज फ़रमाया ॥ ६ ॥
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तर्ज़ ॥ चलो अब तो प्रभुजो का करलो म्हवन ||
कहीं देखे हमारे गुरु जिन मुद्रा धार ।
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(३६) | जिन मुद्रा धार जिन मुद्रा धार। कहीं देखे० ॥ टेक ॥
शीत समय तटनीतट गढ़े शीत सहें सुमता को विचारकहीं।। ग्रीषम ध्यान धरेंगिरवर पर। तपकर करें कर्मों का संधार ॥ कहीं ॥२॥ वर्षा ऋतु तरुवर के नीचे। क्षण क्षण सहें बून्दों की पछार ।। कहीं० ॥३॥ न्यामत.जो ऐसे गुरु मिलजां। क्षण में कर देवें उद्धार ॥ कहीं० ॥.४ ॥
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तज ॥ हमने दर परदा तुझे माहजनों देख लिया। . .
_ अव न कर परदा कि ओ परदेनशी देख लिया। हमने अपनेही में वह माहजबीं देख लिया। अब नहीं पी रहा पर्दै नशीं देख लिया ।।टेक॥ मारे फिरते थे कहीं दहर में हूरों के लिये । हमने वह रशके कमर आत्र यहीं देख लिया । हमने०॥१॥ सख्त नादानी है लोगों की जो परियों पे मरें। क्यों परीजाद को हृदय में नहीं देख लिया ॥ हमने ॥२॥ कौन मुश्किल है जो कहते हो कि कैसे देखें। शीशै दिल को किया साफ वहीं देख लिया ॥ हमने०॥३॥ न्यायमत मसले मसायल का तो कायल है नहीं। . हमने तो करके तजुर्बा भी यहीं देख लिया ॥ हमने०॥४॥
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तर्ज ॥ अच्छे मयां थामलो हमारी जरा वा जी ॥ (खम्माच) तीन ताल ॥ एजी प्रभु राखलो शरण अपनैय्यांजी ।। टेक ।। में अज्ञान ना जाना तुमको। आज भरम मिटगैय्यांजी ॥ एजी०॥ १ ॥ मोहे अरीं हम धोका दीना।
दर दर मोहे भटकैय्यांजी ॥ एजी० ॥२॥ | तुमतिहूं जग नामी जग स्वामी। यह निश्चय करलैय्यांजी.॥ एजी० ॥३॥ न्यामतकी जो भूल हुई है। माफ करो पद गहिय्यां जी ॥ एजी० ॥ ४ ॥
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तर्ज | राग जगला लावनी जंगला गारा ॥ क्यों परमादी हुबारे तुझको बीता ||
काल अनंता क्यों परमादी हुवारे। सब नर नारी सुनियो जी। कहुं नाटक सती द्रोपदि का सब नर नारी०॥ टेक ॥ नाटक सुनो द्रोपदि का जी महा सती सतधार । किम स्वयम्बर मंडप रचाजी किम अर्जुन भरतार ॥१॥ धर्म पुत्रने तरचायो दुर्योधन के तीर। राज पाट सब हार दिया दुरशासन पकड़ा चीर ॥ २ ॥
ओंकार दोपदिने सुमरा आए शासन बीर ।' महासती का चीर बढ़ाया बंधा गए सन धीर ॥३॥ .
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(३८) बन बनमें भ्रमते फिरे बैराट गए नर नार । कीचकने दुर्भाव किया तब दिया भीमने मार ॥ ४ ॥ कोप किया नारदने क्षणमें लीना चित्र बनाय । खंड धात कोजा पहुंचा और दिया पद्मको जाय ॥५॥ तुरत सुनाया हुक्म देवको हरलावो इसबार । सेज समेत उठालाया वह सती द्रोपदी नार ॥६॥ शील बचाया द्रोपदिने और तज दिया अन्न जल हार। कृष्ण हरी पदमोत्तर जीता दीना शंकट टार ।। ७॥ राजपाट तज भई अजिंका लीना संजम धार ॥ त्रिया वेद को छेद द्रोपदी पहोंची स्वर्ग मंझार ॥ ८॥ आदि अंत सब कहूं हाल द्रोपदि का सुमति विचार।। न्यामत सुमरण कर जिन जीका नाटक उतरे पार ॥९॥
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• तर्ज || चंचोला पार को चाल में ॥
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दुख सागर संसार में, जानो सभी असार। किसके तात और भात हैं, और किसके सुत नार ।।
॥ बोला॥ किसके सुत और नार जगत में स्वास्थ का यह ज़माना है। मोह जाल तज देखो नहीं कोई अपना सभी बिगाना है॥१॥ ज्यू सूके तरुवर पखी उड़ जावै पास नहीं आते ।
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सूके सरवर पे नर नारी पशु भट गीर नहीं जाते॥२॥ .. ऐमी प्रीत लखो घरकों की सब स्वास्थ के साथी हैं। अरे ना काहू का मात पिता और ना कोई यार संगाती है ॥३॥ ऐसा जान श्रद्धान करा समता अपने मनमें लावो ॥ रागद्वेष तजदे न्यामत जो भवसागर तिरना चाहो ॥ ४ ॥
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तर्ज ॥ कदल मत करना मुझे तेनो तबर से देखना ॥ जबसे जिनमत को तजा हिंसक जमाना होगया। सबके दिलसे भाव का करुणा रवाना होगया ॥ टेक ॥ झूठ चोरी और जिनाकारी गई हदसे गुजर। ... पाप करते आप कलयुग का बहाना होगया ॥ १॥ जीव हिंसा जिसमें है उसको कलाम ईश्वर कहें। . .... हाय भारत आज कल बिलकुल दिवाना होगया॥ २॥..... याद रखिये जीव हिंसासे नहीं होगी निजात। .. लाखों को हिंसा से है नकॉमें जाना होगया ॥३॥ . इक दया से दूसरे भी आपके हो जायंगे। . . . देखलो हिंसा से यह भारत बिगाना होगया ॥ ४॥ . भाई से भाई लड़ें हरगिज दया आती नहीं। ... .. . . फूटका दिलमें तुम्हारे क्यों ठिकाना हो गया ॥ ५॥ . . न्यायमत अब तो दया का भाव दिलमें कीजिये । . . . .'. हिंसा करते करते तो तुमको जमाना होगया ॥६॥
॥ इति तृतीय बाटिका समाप्तम् ॥ ..
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॥ श्री जिनेन्द्रायनमः॥ .
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चतुर्थ बाटिका
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तर्ज ॥ इल जे दर्द दिल तुमसे मसोहा हो नहीं सकता । यह कैसी आके कजरी आजकल भारत पे छाई है। घटा आलस्य कुमति हिंसाझूठ जुड़ जुड़के आई है ।। टेक ॥ मूर्खता शोक हठचिंता अंधेरा छागया यारो। धुवांधार हर तरफ लालच ताअस्सुव ने मिचाई है ॥ १॥ निरुद्यमता अविद्या बिजलियां कड़कड़ाके गिरती हैं। ध्वजा धीरज की हिम्मत की अबस इसने गिराई है ॥२॥ भूककी रोगकी दुखकी बेगसे नहर चलती है। सभी सुख सम्पदा दारिद की नदियोंने बहाई है।।३।। हसद के फूटके ओले तडातड़ रात दिन बरसैं । नहीं मालूम होता कौन दुश्मन कौन भाई है ॥ ४ ॥ प्लेग अरु कहत की झुरियां चलें दिल हिल गया सबका । क्षुधा पीड़ित प्रजा दादुर ग़ज़ब हा हा मिचाई है ॥ ५॥ दया दिल में करो यारो परस्पर दुख हरो सबका । .. | कहे न्यामत दया के भावसे होती सहाई है॥६॥. .
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तर्ज ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ॥ | जगत सब छानकर देखा पता सत का नहीं पाया। निजात होनेका जिनमतके सिवा रस्ता नहीं पाया । टेक । कोई न्हाने में शिव माने कोई गानेमें शिव माने । | कोई हिंसामें शिव माने अजब है जाल फैलाया ॥१॥ कोई मरने में शिव कहता कोई जरने में शिव कहता। दार चढ़ने में शिव कहता नहीं कुछ भेद है पाया ॥ २ ॥ कोई लोभी कोई क्रोधी किसी के संग में नारी । जटाधारी लटाधारी किसी ने कान फड़वाया ॥३॥ कोई कहता है मुक्ती से भी उलटे लौट आते हैं। अजब है आपकी मुक्ती मुक्त हो फिर यहीं आया ॥ ४॥ कोई ऐसा मान बैठा है मुक्ति ईश्वर के कबजे में। सिफारिश बिन नहीं मिलती यही है हकने फरमाया ॥ ५॥ कोई कहता है कुछ यारो-कोई कहता है कुछ यारो। जो सच पूछो हैं दीवाने असल रस्ता नहीं पाया ॥ ६॥ अगर मुक्ती की ख्वाहिश है जैनमत की शरण लीजे। पढ़ो तत्वार्थ शासन जिसमें शिव मारग है बतलाया ॥७॥ नहीं यहां पे जरूरत है किसी रिशवत सिफारिश की। चलाजो जैन शासनपे उसीने मोक्षको पाया ॥ ८॥ कर्म बंध तोड़के न्यामत बनो आजाद कर्मों से। ' नहीं कोई रोकने वाला ऋषभ जिन ऐसा फरमाया ॥९॥
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तर्ज | जागो जागो जो शाहजादे तुम पर बारलारे ॥ जागो जागो भारत वासी दुःख परिहारनेरे ।। टेक ॥ आलस्य नींद नैनमें बस गई। फूटफांससे सबको कसगई। बनकर नाग अविद्या डसगई ।। सब मतवारनेरे ॥ १ ॥ जो यहां थे क्षत्री रणवीर । होगए निर्वल और अधीर ।। पड़ गई सबके गले जंजीर । हिम्मत हारनेरे ॥ २ ॥ वनगये सब पुरुशारथ हीन । फिरते महा दुखी और दीन । भारत होगया तेरा तीन ।। आलस्य कारनेरे ॥ ३ ॥ ॥ हृदय दया धरम को धार । विरोध अरु क्रोधासुरको मार । न्यामत आलस्य नींद निवार ॥ सब सुखकारनेरे ॥ ४ ॥
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तर्ज | ढोला ! प्रान तो जगाई वैरी नोंद में ॥ अरे हो रे चेतन भूला फिरे है गति चार में ।। टेक ॥ अब नर भव पायो तूने । ला मनपर उपकारमें ॥ अरे० ॥१॥ मल राग न धोया प्राणी। उमर गंवाई दोई चारमें ॥ अरे० ॥२॥ सुन सीख सुगुरु की न्यामत । हितू नहीं कोई संसार में अरे०३
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तर्ज ॥ चरखा लेने कमरके हिलानेको ॥ | कुंजी देले घड़ी के चलाने को।
चलाने को शिव जानेको ।
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(४३) कूजी देले घड़ी के चलाने को ।। टेक ॥ पांचोंही इन्द्री बनीं पांच सूई ॥ बदी नेकी बातें बतानेको ॥ कुंजी० ॥ १ ॥ | मनका फनर ज्ञान गुणको कमानी। तेरा चेतन है चक्कर फिराने को ।। कुंजी० ॥२॥ सत्य धरम की कूक लगानो। यही काफी है पुरजे हिलाने को ॥ कुंजी० ॥ ३ ॥ कर्मोंकी रज से घड़ी को बचावो । सदा रखना विवेक बचानेको ॥ कुंजी० ॥ ४॥ सम्बरका ढकना लगावो घड़ी पे। निर्जर करो मैल हटाने को ॥ कुंजी० ॥ ५॥ सुमतीकी घंटी घड़ी पे लगी है। ख्वाब गफलत से न्यामत जगाने को ।। कूजी०॥६॥
तर्ज । मुस्लमां होनेको अय किवला में तैय्यार नहीं ॥ (नाटक हकीकृतराय)
| वे धरम दुनियामें जीके हमें करना क्या है। लेके अपयश जो मरे यार तो मरना क्या है ।। टेक ॥॥ . काल टाला नहीं टलता है किसी का यारो॥ जब यह तय हो ही चुका फिर तो झगड़ना क्या है । वेधरम० १ नजर आता है नहीं जीव को शरणा कोई ॥ आपको आप शरण औरका शरणा क्या है ।वे धरम० ॥२॥
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(४४) देहको छोड़ेंगे तो देह नई पावेंगे। जीव मरता है नहीं मरने से डरना क्या है। वे धरम० ॥ ३ ॥ .. करपर उपकार मरे बाद रहेंगे जिन्दा।। नाम जिनका रहे जिन्दा उन्हें मरना क्या है ।। वेधरम० ॥४ राम रावण से बली भीम से जोधा प्यारे ! सारेही खाक हुए हमको अकरना क्या है। वे धरम० ॥ ५ ॥ जिंदगी का तो नहीं कुछ भी भरोसा न्यामत । करले जो करना है फिर अन्तमें करना क्या है। वे धरम ० ॥६॥
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___ वर्ज । इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता । बिना सम्यक्त के चेतन जनम विस्था गंवाता है। तुझे समझाएं क्या मूरख नहीं तू दिलमें लाता है ।। टेक ॥ अथिर है जगत की सम्पत समझले दिलमें अय नादां । । राव और रंक होने का यूंही अफसोस खाता है॥ १॥ ऐश इशरतमें दुख होवे कहीं दुखमें महा सुख हो। क्यों अपने में समझता है यह सब पुद्गलका नाता है ।। २१ बिनाशी सब तु अविनाशी इन्हों पे क्या लुभाता है। निराला वेष है तेरा हु क्यों परमें फंसाता है ॥ ३ ॥ पिता सुत बन्धु और भाई सुहेली संग की नारी।। सुवास्थ को सभीयारी भरोसा क्या रखाता है ॥ ४ ॥
अनादी झूल है तेरी स्वरूप अपना नहीं जाना। || पड़ा है मोह का परदा नजर तुझको न आता है ॥ ५॥
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(४५) है दर्शन ज्ञान गुण तेरा इसे भूला है क्यों मूरख । अरे अब तो समझले त चला संसार जाता है ॥६॥ तू चेतन सबसे न्यारा है भूलसे देह धारा है। तूहै जड़में न जड़ तुझमें तु क्या धोखेमें आता है।।७।। जगत में तूने चित लाया कि इन्द्री भोग मन माया। कभी दिल में नहीं आया तेरा क्या जगसे नाता है ॥ ८॥ तेरे में और परमातम में कुछ नहीं भेद अय चेतन। रतन आतमको मूरख काँच बदले क्यों बिकाता है ॥९॥ मोह के फंद में फंसकर क्यों अपनी न्यायमत खोई । कर्म जंजीर को काटो इसी से मोक्ष पाता है॥१०॥
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वर्ज॥ इन्दरममा ॥ राजा हूँ मैं क़ौमका और इन्दर मेरा नाम ॥ सुनो जगत गुरु बीनती अरज करू महाराज । तुमतो दीन दयाल हो सभी जगत की लाज ॥ १ ॥ कर्म रित पुर जोर हैं डरें कहसे नाय । मन माना दुख देत हैं कीजे कौन उपाय ।।२।। कभू नर्क ले जात है बिकट निगोद मंझार । । कभु सुरनर पशूगति करें जानत सब संसार ॥३॥ मैं तो एक अनाथ हूं यह बैरी अगिनंत। बहुत किया बेहाल मैं सुनो गुरू निर्ग्रन्थ ॥४॥ इनका नेक बिगाड़ में किया नहीं जिनराज । बिन कारण जग बंध से बैर भयो महाराज ॥५॥
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( ४६ ) अब आया तुम पास मैं स्वामी ऋषभ जिनन्द | कर्मन दुष्ट विनाश दो होय मुक्ति आनंद || ६ || न्यायमत बिनती करे चरणन शीस नमाय । पद पंकज सेऊं सदा और नहीं कछु चाह || ७ ||
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तर्ज़ ॥ कन्हैय्या तेरा कारोरी कैसे व्याहू राधे ॥
कैसे देह धारा जीया तूतो न्यारा ॥ टेक ॥ निराकार चेतन तू कंहिये सब बातों का ज्ञाता | अपना रूप आप नहीं देखा ।
कैसे जिया तूभयारे मतवारा ॥ कैसे० ॥ १ ॥ करता हरता नाम तुम्हारो अलख रूप अविनाशी । न्यामत समझ नहीं कुछ आता । मान लिया कैसे लाल ओर कारा || कैसे ० ॥ २ ॥
७०
चाल || होली ( चलत चाल )
यही है जैन धर्म की होरी |
सतसंग मिलो मन विरोध तजो | यही० टेक ॥ परस्पर प्रीत करो रे भाई ।
छोड़ो आपस में जोरा जोरी ॥ सतसंग० ॥ १॥ . पर उपकार गुलाल बनाओ ।
दया धरम की खेलिये होरी || सतसंग० ॥ २ ॥ न्यामत ऐसी होरी खेलो ।
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( ४७ )
होवे कर्मन की तोराफोरी ॥ सतसंग० ॥ ३ ॥
७१
तर्ज़ || सब ठाट पड़ा रहजावेगा जब लाद चलेगा बनजारा ॥
यहां कोई किसीका यार नहीं एक धर्म जीव का साथी है ।। टेक ॥ भाई बन्धु स्वारथ के साथी नहीं कोई मीत और नाती है । वह अंत समय दूर होते हैं जो कहते यार संगाती हैं ॥ १ ॥ तिरिया चंचल मनकी प्यारी जो आज तेरी मनभाती है । जब नाता जगमें टूट चला तब पास जरा नहीं आती है ॥ २ ॥ यह देह जिसे अपनी करमानी अंत दगा दे जाती है । जब दूत मौतका बांध चले यह संग तेरे नहीं जाती है ॥ ३ ॥ अय न्यामत क्यों भूला फिरता है बात तेरी नहीं भाती है । धर्म की नाव में बैठचलो भवसागर पार हो जाती है ॥ ४ ॥
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तर्ज || टूटे न दूध के दांत उमर मेरी कैसे करे वाली ॥ ( वीच बीच में दौड़ है )
कहो किसे उलाहना देरी सखी इन करमन नटखट का | चलो ज्ञान जल भरने मारग रोक लिया शिवकी पनघट का ॥ लपक झपक झटहो लटपट समकित का फोड़ दिया मटका ॥ टेक ॥ लोभ का मला है ऐसो मेरे मुखपे गुलाल |
भूल गई मैंतो ज्ञान ध्यान सुधि और संभाल ॥ काम क्रोध गेंद मार मार के पछारी । जिन भक्ती की चीर फारी रहगई. उधारी ॥.
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( ४८ )
मान अधीर ले उड़ायो, इत्र कपट लगायो
मिथ्या मारग दिखायो, बुझा दिया ज्ञान दीप घटका || कहो ० १ ॥ माया रंग में भिगोई, सगरी ही सुधिखोई,
करछल मनमोही, बात तत्वों की बिगोई । देखो ऐमी बाला जोरी, निश्चय तोरी पोरी पोरी ॥ काहू देखी ऐसी होरी, मोहे कर देई बोरी ।
भर मोह पिचकारी, आशा तृष्णा फुलवारी, ऐसे तक तक मारी, ध्यान आरसी का दर्पण चटका || कहो० ॥२॥
मोह को दियो है डाल, कुछ ऐसो इन्दर जाल ।
जान पड़े कहूं नहीं, हित अनहित हाल । तोड़ दिये ग्यारह अरु बारा व्रत माला हार || नेमकी चुनरिया के, कर दिये तार तार ।
त्याग संजम बिंदी बैना, रत्न त्रयं लटकैना, दशलक्षण व्रत गहना, ज्ञान मोतियन काहार झटका || कहो ० ॥३॥ छीन सत हथफूल, नथशील की निकाली,
खोई चरचा चम्पाकली, खींची दया कानवाली ।
मांग क्षमा दीनी खोल, लड़ी विनय की निकाल || बाजुबंद तपतोड़, माया गलहार डाल । धर्म जोबन लुटाया, खटकर्म मिटाया,
समभाव हटाया, सखी नकों में जा पटका || कहो० ॥ ४ ॥ कर्मों ने देखो सखी, कैसे कैसे दुख दिये । भगवत जाने हम से तो नाहीं जायं कहे ॥
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___.. (४९)
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अब शुभघड़ी आई, सखी जिन धर्म गह्यो। जिनबाणी मनभाई, मनको भरम गयो। न्यामत मनको मनाले, अपने में चितलाले, अपने ही गुणगाले फिरे क्यों भवभव में भटका ॥ कहो ॥५॥
७३ .. तर्ज ॥ आज तपोवन जाएंगे महाबीर जिनन्दा ॥ (हमीर) क्यों जगजालमें आएजी छोड़ो छोड़ो जी धंदा ॥ क्यों० टेक शील और व्रत तप संजम कांजे। मानुष नरभव पाएजी॥ छोड़ो० ॥ १॥ . . . क्रोध मान माया लोभ निवारो। . . . . . . . . . . सुरनर सब शिरनाएजी॥ छोड़ो० ॥२॥ मात पिता सुत नार सुहेली। . ... अंत को काम ना आएजी।। छोड़ो० ॥३॥...... न्यामत अष्ट कर्म फंद काटो। जिन भक्ती चितलाएजी ॥ छोड़ो ॥४॥
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तर्ज | चोला । अल्लादिया की चाल में (जो पार को तरफ गाए जाते हैं।
(यह भजन अठाई के पर्व में पढ़ा जाता है) . . .... दोहा । ... आज उत्सव तिहुलोक में, सुरनर मन हर्षाय । नंदीश्वर बंदन. गये, लेले द्रव्य अथाय ॥ १ ॥
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(५०) हम निर्बल नहीं जा सकें, मानुपोत्तर पार । प्रभू तेरा शरणा लिया, कीजो भवदधि पार ॥ २ ॥
चंबोला। कीज़ो भवदधि पार नाथ में शरणा लिया तुम्हारा । तीनं जगत के कुदेव छोड़े तुमपे निश्चय धारा ।। १ ।। । सेठ सुदर्शन को शूलीसे सिंघासन दीना भारा । पावक को करदिया नीर जब सिया ने मंत्र उचारा ॥२॥ चीर बढ़ाया था द्रोपदि का सभा बीच जाने सारे । मानतुंग जब कैद हुआ तब तोड़ दिये सगरे तारे ॥ ३ ॥ राणी उबला की पण राखी राजा बोधमती हारे। दिया धर्म उपदेश अनंती भवसागर सेती तारे ॥ ४ ॥
दोहा।
न्यामत बावन चैत्य को, बंदे शीस नमाय । चरण कमल महाराज के, पूजे अर्घ बनाय ।।
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तर्ज ॥ जीते जी कद्रवशर की नहीं होती प्यारे । याद मावेगी तुझे मेरी
वफ़ा मेरे वाद (यह मुबारिक बादी है) आज मंदिर में सभा होना मुबारिक होवे । फिर वही धर्म का उपकार मुबारिक होवे ।। १॥ . सारे भाइयों का जमा होना धर्म की चरवा। | नेम और धर्म का करना सो मुबारिक होवे ॥२॥
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मिटे अज्ञान का तमहोवे धरम उजियाला । ||जैन बाणी का सदा होना मुबारिक होवे ॥३॥ होवें अघदूर यह मिथ्यात घटे छिन छिन में । सबको सम्यक्त सदाचार मुबारिक होवे ॥४॥ कष्ट इन्द्री को मिले और विषय को शूली। शील की सेज हमें नित्य मुबारिक होवे ॥५॥ नष्ट कर्मों का हो जो दुष्ट महा बैरी हैं। मोक्ष लेजाने को जिन शर्ण मुबारिक होवे ॥६॥ दंड कुमती को मिले जिसने भुलाया रस्ता । सुमता सुन्दर का हमें संग मुबारिक होवे ॥ ७ ॥ मोह को होवे बनोबास, फंसाया जगमें। हमको जिन भक्ति व संतोष मुबारिक होवे ॥ ८॥ क्रोध और मानसे हमको नहीं कुछभी मतलब । क्षमा और शिरका झुकाना ही मुबारिक होवे ॥ ९॥ एक जिनमतही से मिलता है मुक्ति का रस्ता । न्यायमत तुझको यह जिन धर्म मुबारिक होवे ।। १० ।।
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तर्ज:॥ मेरा रतीन लगता जी अब घर माजाना ॥ गौत्तम स्वामिजी थारी बाणी तनक सुनाय ।। टेके ।। महाबीर मुख बाणी खिरियां। किस बिधिं झेली जाय ।। गौत्तम० ॥१॥ तज यज्ञ समोशरण में आए।
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(५२) गणधर पदवी पाय । गौत्तम ॥२॥ मानस्थम्भ लखमान पलाया। चारों ज्ञान उपाय | गौचम० ॥३॥ जा बाणी से श्रेणक सुलझा। सोही हमें बतलाय । गौत्तम० ॥ ४॥ न्यामत सुनियो श्रीजिन वाणी। सूधा शिवपुर जाय ॥ गौत्तम० ॥ ५ ।।
७७ तर्ज ॥ चलोरी सखी दर्शन करिये रथचड़ जादुनंदन पावत हैं ॥ (कोशिया) चलोरी सखी मिथलापुरमें सब सखी मिल मंगल गावत हैं ।
चलो० ॥ टेक।। श्रीमलनाथ जिन जन्म लिया। तिहूं लोक करत उच्छावत हैं। चलो० ॥ १ ॥ कम्पित सुर आसन सुकटनों। धनपति सज गज चढ़ आवत हैं ।। चलो० ॥ २ ॥ सब सुरनर जय जय शब्द करें। इन्दर चमर दुरावत हैं। चलो० ॥३॥ क्षीरोदधि सुर मिल भरलाए। सौधर्म अस्नान करावत हैं ॥ चलो० ॥४ न्यामत जिनराज को दर्शन। सब मन वाँच्छित फल पावत हैं। चलो० ॥ ५ ॥
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७८ तर्ज ॥ मैंने रामको माला फेरीरे । फेरीरे फेरीरे फेरोरे। मैंने० ॥ भैरव)
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तुझे नींद अनादी आई रे। आई रे आई रेआई रे॥ तुझे०॥ टेक । मतना बीज विषय तरु बोवे । फल चाखत दुख पाई रे॥ तुझे ॥ १॥ इन्द्री विषय करो मत प्यारे । नों में ले जाई रे॥ तुझे० ॥२॥ मात तात सब स्वारथ. साथी। लिपति पड़े हट जाई रे॥ तुझ०॥३॥ न्यामत श्रीजिनके गुण गाले । भवसागर तिरजाई रे ।। तुझे० ॥ ४ ॥
७९ तर्ज ॥ हमारी प्रभु नैय्या उतार दीजो पार ॥ प्रभू जी धारी बाणी ने मोह लियो जी ॥ टेक ॥ यही जिन बाणी सदा मुखदानी । शिवपद की निशानी सो मोह लियो जी ॥ प्रभू०॥१॥
यह जनम संवारती, करम गत टारती। | संसार से निकारती सो मोह लियो जी ॥ प्रभू० ॥२॥ जिन बाणी उरधारी, निज जनम सुधारी। न्यायमत बलिहारी सो मोह लियो जी।। प्रभू०॥ ३ .|| ..
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तर्ज़ || अमोलक जैन धरम प्यारे । भूत विषयों में मतहारे ।
फजूल खर्ची को तजो प्यारे ।
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बिगड़ गए लाखों धनवारे || फ़जूल० टेक ॥ व्याह किया मन तोड़कर, हो बैठे कंगाल | रंडी भड़वे कर दिये देज़र माला माल || अजब हो मूरख मतवारे || फ़जूल० ॥ १ ॥ नामवरी के वासते भूर फेंक बहु कीन । पीछेहाट दुकान की, हुई एक दो तीन ॥ पड़े ओंधे सब नकारे || फ़जूल० ॥ २ ॥ काज रचाया नामको करके जोड़ अनेक । काम बिगाड़ा आपना मानी कही न एक ॥ फिरें अब तो दर दर मारे || फ़जूल० ॥ ३ ॥ लड़का जब पैदा हुवा खूब लुटाया माल । चाहे जच्चा और सुत भूक मरें बेहाल || मगर हो नाम एक बारे || फ़जूल० ॥ ४ ॥ विद्या पढ़ने के लिये कहें कहां से आय । बद रसमों में बंदकर आंखें लाख लुटाय || बना दिये हैं मूरख सारे || फ़जूल० ॥ ५ ॥ मूरख बनं चोरी करें करें मांस मद पान | जूवा गणिका सङ्गमें करें धर्म की हान | पड़े दुख सागर मंझधारे || फ़जूल० ॥ ६ ॥
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जूल खर्ची कारणे बढ़ा पाप अति घोर । | काल प्लेग अब हिन्द में छाय गया चहुं ओर ।। हुआ भारत गारत प्यारे । फजूल०॥ ७ ॥ अब तो आंखें खोलिये भारत सुत परवीन । नहिं दो दिन में देखना हों कोड़ी के तीन । कहे न्यामत हित की प्यारे । फजूल० ॥८॥
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इति चतुर्थ बाटिका समाप्तम् ॥
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पंचम बाटिका
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तर्ज ॥ करल मत करना मुझे तेगो तवर से देखना ॥ | आपमें जबतक कि कोई आपको पाता नहीं। मोक्षके मंदिर तलक हरगिज़ क़दम जाता नहीं ।। टेक ॥ बेदया कूरान या पूराण सब पढ़ लीजिये। आपको जाने बिना मुक्ती कभी पाता नहीं ॥१॥ भाव करुणा कीजिये यह ही धाम का मूल है। जो सतावे और को सुख वह कभी पाता नहीं ॥ २॥ . हरन खुशबू के लिये दौड़ा फिरे जंगल के बीच । अपनी नाभीमें बसे इसको देख पाता नहीं ॥३॥ ज्ञानपे न्यामत तेरे है मोह का परदा पड़ा। इस लिये निज आत्मा तुझको नजर आता नहीं ॥४॥
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तर्ज ॥ चंदा तू लेजा संदेसा हमारे ॥ (चतुर मुकुट लम्बो खड़ी चाल) (स्तान्तवक सेनापती का सीता को बना छोड़ना और सीता का संदेसा देना) सेनापती लेजा संदेस हमारो रे। टेक ॥ चलत चलत व्याकुल भई दूखत सकल शरीर ।
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(५७) उनको दोष ना दीजिये कर्मन की तकप्तीर ।। करम में यूंही लिखा था.हमारो रे। सेना० ॥१॥ जो तू उलटा जाय तो इतनी दियो सुनायं । । भा मंडल भनी कहीं चरणन शीस नमाय ॥ .. . मेरा दुख मत करियो पती म्हारो रे ॥ सेना० ॥२॥ जगत बात सुन मैं तजी कियो ना नेक बिचार। सुनकर निन्दा धर्म की मत तजियो भरतार ॥ . . धरम बिन कोई नहीं हितकारो रे ।। सेना० ॥.३ ॥ . क्यों जिन दर्शन की कही. झूठी बात बनाय। जो मनमें ऐसी बसी क्यों नहीं दी दर्शाय ॥ . मेरे मन यह.दुख है अति भारो रे । सेना० ॥ ४॥ . | छोड़ा थारे देशको छोड़ दिया घरबार ।
राम लखन सूबस बसो बसो नगर परिवार ॥ बिपति में कोई नहीं सुख कारो रे ।। सेना० ॥५॥ | क्यों रोवे सेनापती मनमें धारो धीर। कर्म लिखा सो होयगा लाख करो तदबीर ॥ करम नहीं टरे न्यायमत टारो रे । सेना० ॥ ६॥
८३ . तर्ज ॥ कत्ल मत करना मुझे तेगा तवर ले देखना ॥ . . | जुल्म करना छोड़दो साहिब खुदा के वास्ते । जुल्म अच्छा है नहीं करना किसी के वास्ते ॥ टेक ॥
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(५८) रहम कर जीवों पे बस मत जुल्म पर बांधे कमर ।. क्यों सताता है किसी को चन्द दिनके वास्ते ॥ १ ॥ सच कहो खुद ग़र्ज़ और जालिम है तू याके नहीं। बेजु को मारता अपने मजे के वास्ते ॥ २॥.. काट गल औरों का मांगे खैर अपनी जानकी । . सोच कहां होगा भला तेरा खुदा के वास्ते ॥ ३ ॥ भेट कुर्बानी बलीयज्ञ से ख़ुदा मिलता नहीं। बलके दोजख है खुला इन ज़ालिमों के वास्ते ॥ ४ ॥ पोप मुल्लां की न सुन दिलमें जरा इंसाफ कर। है कहीं अच्छा जुल्म करना किसी के वास्ते ॥ ५ ॥ कर भला होगा भला कलयुग नहीं करजुग है यह । न्यायमत कहता है यह तेरे भले के वास्ते ॥६॥
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तर्ज ॥ पहलू में यार है मुझे उसकी खबर नहीं ॥ . हिंसामें अपने मनको लगाना नहीं अच्छा । करुणा का भाव दिलसे हटाना नहीं अच्छा ॥ टेके ।। यज्ञ और बलीदान खुदगर्जी ने चलाए। कुर्बानि जीव भेट चढ़ाना नहीं अच्छा ॥ १॥ हिंसाके करने से धरम होता नहीं यारो। झूठों के कहने सुनने में आना नहीं अच्छा ॥ २॥ | बोते हों धतूरा नहीं अंगूर मिलेंगे।
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( ५९ ) रस्ते में कांटे शूल लगाना नहीं अच्छा || ३ || काटे जो गला और का अपना कटायगा । धोके में आके सरका कटाना नहीं अच्छा ॥ ४ ॥ करते शिकार जीवोंका आती नहीं दया । यों खून बे जुबांका बहाना नहीं अच्छा ॥ ५ ॥ अपनी सी जान जानिये औरों की जानको । न्यामत किसी के दिलको सताना नहीं अच्छा ॥ ६ ॥
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तज़ ॥, किस विध कीने करम चकचूर | उत्तम छिमापे जिया चम्भा म्हाने आवे || किस० ॥
सुनियो मेरी बिपति जिनराज ।
कर्म महा बैरी दुख देवें ॥ सुनियो० ॥ टेक ॥
पाप पुन्य मिल बेड़ी डारी ।
चौरासी में किया बे लाज ॥
चारों गतीनें मैं फिर आया ।
बन आया नहीं कोई इलाज || सुनियो० ॥ १ ॥
सात विषय में मोह लगाया ।
भूल गया निजराज समाज ॥
ज्ञान ध्यान धन सब हर लीनो । करदिया कौड़ी को मोहताज ॥ सुनियो० ॥ २ ॥ त्रिभवन नाथ सुना: जश तेरा ।
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तीन लोक के तुम सरताज | न्यामत शरण गही प्रभू तेरी। काटो भव भव के फंद आज ।। सुनियो० ॥३॥
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तर्ज ॥ अरी में आज वसंत मनायो। पिया कान्ह घर आयो ।
(होरी काफी) ऐसी कर्मों ने कीनी खिलारी। होरी खेलत खेलत हारी । ऐसी० ॥ टेक ।। लोभ गुलाल मलो मोरे मुख पे, मोह की दी पिचकारी। माया के रङ्गमें ऐसी भिगोई, भूल गई सुधि सारी। रूप अपने को विसारी ॥ ऐसी० ॥१॥ काम क्रोध के कुमकुमे मुख पर, भर भरमार पछारी। आशा तृष्णा की गेंद वनाके, समता कुचन पर मारी। हँसी सङ्ग की सब नारी ॥ ऐसी० ॥२॥ सुमता सखी का संग छुड़ाया, कुमता लार हमारी। नेम धर्म की अगिया मसोसी,
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(६१) ज्ञान चुनरिया फारी। रही मैं समा में उघारी ॥ ऐसी० ॥३॥ . ऐसी कर्मों ने होरी खिलाई, भव भवमें भई ख्वारी। सेवक जान करो मोपे कृपा, . यह न्यायमत दुखारी। मही प्रभु शरण तिहारी । ऐसी० ॥ ४॥
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'तर्ज ॥ नहीं प्रायोरी मेरा सांवरिया ॥ नहीं० ॥
॥ चाल ठुमरी ।। चल आवोरी देखो सुमेला ॥ चल० ॥ टेक ॥ सखी हांसी शहर सुहावन। जिनमंदिर मन भावन ।। सुमेला०।१।। मिती चौदश भादों दूजे । सम्बत् (१९४७) उनीस
सैंतालीस साजे ॥ सुमेला०॥२॥ शुभ कारज मन में छाया। एक मंडप अधिक बनाया ॥ सुमेला० ॥३॥ . सब जन मिल की तैय्यारी। ' ' ' धरी शिविकामध्य जल झारी । सुमेला० ॥ ४॥ । गाते गाते बजारों आए। आनंद से जल भरलाए । सुमेला०॥५॥ जब प्रभुजी को न्हवन कराया।
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( ६२ )
आनंद मेघ वर्षाया || सुमेला || ६ || न्यामत जिन दर्शन करलो | जनम जनम अघ हरलो || सुमेला० ॥ ७ ॥
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तर्ज़ ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ||
यह है कर्मों की गति न्यारी किसीसे ना टरे टारी । करो तुम नाश कर्मों का यही दुख कारी सुख हारी ॥ टेक ॥ हरि जो नोमे नारायण भए त्रय खंड के राजा । मुवे पर ना कोई रोया न उत्पति मंगला चारी ॥ १ ॥ सती सीता हरी रावण हुई निन्दा सकल जगमें । रही अंजना बरष बारा पवन के वियोग में न्यारी ॥ २ ॥ रामचन्दर थे बलभद्दर अयुष्या राज जब पाया । कर्म अंतर पड़ा आके फिरे बन बनमें दुखहारी ॥ ३ ॥ पांच पांडव महा जोधा को भी कर्मोंने आ घेरा । द्यूतके संग करने से सब अपनी सम्पदा हारी ॥ ४ ॥ कर्म से वश चला किसका समझ तो न्यायमत इतना | छुड़ाओ कर्म के बंधन जो है वो मोक्ष अधिकारी ॥ ५ ॥ ८९
तर्ज़ ॥ गये भैना पिहरवा नैना बदल | ( चाल ठुमरी)
जिन जीके चरणों में जीया लगा ।
जीया लागा मनको लगा प्यारे जीया लगा जिन० ॥ टेक ॥
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(६३) काल अनंती नर्को में भोगे। .. . बरषों के दुखड़े सिर पे उठा ।। जिन० ॥१॥ स्वर्गों में सुरियन संग राचा! दुख पायो मालाको लखा ॥ जिन० ॥२॥ कष्ट सहे मानुष भव गरभमें। बालापन अज्ञान रहा । जिन० ॥३॥ तरुण हुआ विषयों में लागा। निश दिन रहा काम आंखोंमें छा । जिन०॥४॥
आयां बुढ़ापा ममताने घेरा। . तीनों पन युही दीने रुला ॥ जिन० ॥५॥ . नर भव सुगति न्यायमत तूने पाई। खोवे अकाज मत धोके में आ ॥ जिन ॥६॥
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तर्ज ॥ मब तुम बिन लछमन भैय्या नैय्या डूब चली मंझधार ॥ अब श्रीजिन भक्ती बिनारेजिया तेरी कौन बंधावे धीर । टेका। जपो जपो नित श्री अरिहंत सनमति और महाबीर । . -एजी बर्द्धमान अतीवीर जपोजिया और जपो जय बीर। अब०१|| नर्क निगोद सभी फिर आयो सही अनंती पीर । स्वगामें मालाको लखजिया हुआ बहुत दलगीर ।। अब० ॥२) गर्भ माहि दुर्गति दुख भोगे पीयो रुधिर शरीर । कष्ट थकी बाहर आयो जिया नहीं अंगपे चीर ॥ अब० ॥३॥
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(६४) क्षुधा तृषा नहिं मिटी जिया तूने पीये समंदर नीर । | एक बूंद क्षीरोदधि हो और इक कण होवे समीर ।। अब० ॥ ४ ॥ चौरासी के दुख महाभारी सुनो कान धर धीर। इन दुक्खोंसे जभी छूटे जिन चरणन आवो तीर।। अब० ॥ ५॥ स्वास्थ साथी इस जग जिया साथी नहीं शरीर । न्यामत शरण गहो जिनवर तेरी नैय्या पहुंचे तीर। अब० ॥ ६॥
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तर्ज ॥ हुआ ध्यान में ईश्वर के जो मगन, उसे कोई कलेश लगा न रहा ॥ रहे जब लग मोहके फंदेमें, परमातम ध्यान कछू न रहा। जब परदा मोह हटा दिलका परदा परमातम का न रहा। निज आतम को जब आतम में लिया देख आतम की आंखाँसे। परकाश हुआ परमातम का तब कोई भेद छुपा न रहा रहे०॥१॥ जब परको छोड़ लखा अपने में भिन्न लखा निजको पर सेती। न्यामत आपा पर भेद मिटा परका लवलेश लगान रहा ।। रहे०।२
तर्ज ॥ कोई ना वाकिफो ना फ़हम पय अंदाज क्या जाने ॥ कोई ना वाकिफो नादान चेतन सार क्या जाने । यह अविनाशी अमूरत सच्चिदानन्द सार क्या जाने ।। टेक ॥ बरङ्गे बू है पोशीदा हमारे तनमें यह युलरू । सिवाये आत्मा परमात्मा इसरार क्या जाने.।। कोई० ॥१॥ फँसे हैं जो कि दुनियां में भला यह बात क्या जाने। वही जाने जो निज आतम को जाने और क्या जाने॥कोई०२।
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(६५). वही है जानने वाले जो निज और परको पहिचाने। . अरेन्यामत बह क्याजाने जो अपने को नहीं जाने । कोई०॥३॥
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त: ।। जी हम प्राधे हैं दर्शन काज मिटादो प्रभू विथा हमारी जी ॥ . | ऐजी हम दर्श लखो जिनराज घटा चहुं अनंद छाई जी ।। टेक।। नाम प्रताप तिरे अंजन से। कीचकसे अभी मान। नार शिव सुन्दरमिलाईजी॥ एजी०॥१॥ नम स्वरूप छवी बैरागी। नाशा दृष्टि पसार। तिहारी छबि मन मेरे भाई जीएजीना॥ उदय रबी आतम भयो मेरे। मिथ्या तिमिर संहार। लखी जो मैंने छबि बीतराईजीएजी०३ भव बनमें मेरे कर्मन बैरी । हर लिया ज्ञान बिचार। करो ना प्रभू मेरी सहाई जी।एजी०।४। तारण तरण सुनो यश तेरो। न्यामत और निहार। यही है मेरी दुहाई जी ॥ एजी० ॥५॥ .
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- तर्ज | सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ लिया नेम नाथ जिन जन्म मुकुट सुरपति के झुक आये॥टेक॥ बहु विध बाजे बजे.अनाहद ज्योतिष घर जाये। :. | तीन लोकमें शोर हुआं सब सुरगण भरमाए ॥१॥
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कल्पवासी घर घंटे वाजत आसन कंपाये । उठ बैठे सुर असुर इन्द्र सब पूजनको आए ॥ २ ॥ इन्दर सब पूजन को आये मन में हर्षाए । तांडव नृत्य किया सुरपति ने चरणन शिरनाए || ३ || सब सखियन मिल मंगल गावें कर कर उच्छाए 1 फिर धनपति ऐरावत रच सज गज चढ़ कर आये ॥ ४ ॥ न्यामत दर्शन करो प्रभू के शौरीपुर जाए |
जनम जनम संकट कट जा मन बंच्छित फल पाए || ५
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तर्ज़ || सोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा मोल ||
अजी न्हवन करो जिन राज चलो सब जल भर कर लावें॥ टेक ॥ हांसी हिसार के भाई मिलकर जल भरने जावें । हर्ष हर्ष मिल मंगल गावें सर चरणन नावें ॥ १ ॥ थै थै थै थै नाचत आवें मनमें हर्षावें । तांडव नृत्य करें प्रभू आगे वंच्छित फल पावें ॥ २ ॥ धीरे धीरे निरख पृथ्वी जल भरने जावें । अजी हाथों हाथ कलश सब लेकर निर्मल जल लावें ॥ ३ ॥ सोरण चमर दुरें प्रभुजी के आनंद यश गावें । न्हवन करें श्रीजिन गंधोदक मस्तक पर लावें ॥ ४ ॥ धन्य घड़ी धनभाग हमारे प्रभु सुमरण पावें । भव भवमें यह न्यामत पावें मंगल दर्शावें ॥ अजी० ॥ ५॥
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... तर्ज ॥ शाशी तेरे वागमें उतरे सिपाही ( शाशीपुनो) ॥ घड़ी धन आज यह पाई है मैंने । . .. : न्हवन जिनराज हाथों से कराऊं ॥.टेक ॥ पहन सुन्दरसे वस्तर अपने तनमें। ... .. कलश लेकर जतनसे नीर लाऊं ॥ घड़ी०॥१॥ . स्तन चोंकी बिछा पंचरस मिलाऊं। न्हवन क्षीरोदधीसे मैं कराऊं ॥ घड़ी० ॥२॥ . . हर्षकर पंच मंगल गीत गाऊं। नृत्य करके चमर फिर फिर दुराऊं ॥ घड़ी० ॥३॥ विधीसे करके यों अस्नान जिनका। बिनय करके सिंघासन पर बिठाऊं ॥ घड़ी०॥४॥ प्रभामंडल प्रभूके पीठ सोहै। .. छत्र जिनराज सिर ऊपर फिराऊं ॥ घड़ी० ॥५॥ न्यायमत इस तरह प्रक्षाल करके । प्रभू चरणों में शीस अपना झुकाऊं ॥ घड़ी० ॥ ६ ॥
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तर्ज ॥ ('चाल नाटक ) अंम्मा मुझे गोटे की टोपी दिलादे ॥ प्यारे जिन चरणोंमें जीया लगाले । जीया लगाले मनको मनाले ॥ परदा हटाले हटालें। प्यारे॥
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(६८) वह सबका स्वामी । तिहूं जगमें नामी ॥ है उसको सारे चराचर का ज्ञान। हितकारी, सुखकारी, दुखहारी, नित ॥ हां हां हां ।। प्यारे ॥ १॥ प्यारे परमातम के तू गुणको गाले। | तू गुणको गाले । नकशा जमाले। हारे उसका हृदय में ध्यान लगाले ॥ प्यारे॥ जो कोई ध्यावेगा। सुरपदवी पावेगा। मुक्ती को जावेगा पावेगा ज्ञान । सब दर्शी, सबदर्शी, सब दी. नित। हां हां हां ॥प्यारे॥२॥ प्यारे जरा कर्मों का कोट उडाले। सम्यक्त बंदूक भर ज्ञान गोली, चारित्र टोपी चढ़ाले । प्यारे । राग को छोड़िये, द्वेष को तोड़िये, बंदूक छोड़िये । हड्डड धड़ीम ॥ न्यामत हो, झटपट हो, झटपट हो फेर। धररर धूम ।। प्यारे० ॥३॥
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तर्ज ॥ (चतुरमुकट ) कंथ बिन कैसे जीऊ मेरी जान ॥ स्वप्ना सच मत जानियो, क्या स्वप्ने की बात । स्वप्ने में साजन मिले, करी नहीं दो बात ॥ कंथ०॥ धर्म बिन कोई न जगमें सार । धर्म बिन० ॥ टेक ॥ यह संसार असार में कोई न अपना जान ।
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( ६९ )
मात पिता परिवार सब हैं झूठे मन आन || धर्म० ॥ १ ॥ धन जोबन थिर ना रहै रहेना तेरी काय । कोट से रहे तू किस गर्भाय ॥ धर्म० ॥ २ ॥ भीम और अर्जुन मेरे बल और कृष्ण मुरार । कंस जरासिंधु नारहे करते गर्व अपार || धर्म० ॥ ३ ॥ सदा नहीं रावण रहा नील और हनुवंत । राम और लछमन मेरे इन्द्रजीत बलवंत ॥ धर्म० ॥ ४ ॥ यूं लख मन थिर्ता घरो करलो पर उपकार । सार जगत में है यही न्यामत देख विचार || धर्म० ॥ ५ ॥
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तर्ज || आहा प्यारा दिन है न्यारा शाहजादे की शादी का
आहा प्यारा दिन है न्यारा जनम ऋषभ जिनआदी का सब शचियन मिल मङ्गल गावें दिन है मुबारकबादी का ॥ टेक ॥ स्वर्ग मंझारी हुई तैय्यारी आए सब झननन झूम | धनपति ऐरावत रच लाए घननन नन नन घूम || आहा० १ सब सुरनारी दे दे तारी नाचै छननन छूम ।
ताल मंजीरे बीन बांसुरी बज रही तन नन तूम || आहा० ॥२॥ जल थल बनबन आनंद घनघन छाए घन नन घूम । सुखरस बूंदें रिम झिम बरसै झनं नन नन नन झूम ॥ आहा० ॥ ३ ॥ सब दुख टारे पाप निवारे दया धरम की धूम |
जय जय कार मची तिहुं जगमें धन धन भारत भूम | आहा०||१४||
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(७०) सुरासुरा आवें फूल बर्षा झन नन नन नन झूम । न्यामत प्यारी वादे वहारी चल रही सन नन सूम ।। आहा०॥ ५॥
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तजं ॥ रघुवर कौशल्या के लाल मुनी को यज्ञ रचाने वाले ॥ धन धन महावीर जिनराज शिव मारग दिखलाने वाले ॥ शिव मारग दिखलानेवाले सबका भ्रम मिटानेवाले ॥धन टेक करके देश विदेश बिहार, कीना सत मारग परचार । फैला दिया धर्म एकबार, हिंसा दूर हटाने वाले ॥ धन० ॥१॥ यहां था पशू यज्ञका जोर, होती थी नित हिंसा घोर । तुमने दिया यज्ञ सब तोड़, मारत प्राण बचानेवाले धन० ॥२॥ वाम मारग को दूर हटाया, तुमने शील धर्म बतलाया । सवको शिव मारग दिखलाया, हो अज्ञान मिटानेवाले ॥धन०३।। जितलाकर युक्ती परचंड, कर दिये सब झूठे मत खंड। भागे छोड़ छोड़ पाखंड, झूठी बात बनानेवाले॥ धन० ॥ ४॥ भारत हो रहा तेरा तीन, न्यामत है पुरुषारथ हीन। है परवंश अति ही प्राधीन, तुम ही धीर बंधानेवाले ॥धन०॥५॥ ... ॥ इति पंचम बाटिका समाप्तम् ॥
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॥ इति श्री जैनभजन शतक समाप्तम् ॥
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( ७१ )
नोटिस
निम्न लिखित भाषा छंद वद्ध चरित्र प्राचीन जैन पंडितोंने रचेथे जिनको अव संशोधन करके मोटे काग़ज़ पर मोटे मक्षरों में सर्व साधारण के हितार्थ छपवाया है सब भाइयोंको पढ़कर धर्म लाभ उठाना चाहिये यह दोनो जैन शास्त्र स्त्री पुरुषोंके लिये बड़े उपयोगी हैं, इनको कविता प्राचीन है और सुन्दर हैं ॥ दोनो शास्त्र जैन मंदिरों में पढ़ने योश हैं:
(१) भविसदत्त चरित्रः --- यह जैन शाल श्रीमान् पंडित बनवारी लालजी जैन ने | सम्बत् १६६६ में कविता रूप चौपाई मादि भाषा में बनाया था जिसको कई प्रतियों द्वारा मिलान करके शुद्धता पूर्वक छपवाया है और कठिन शब्दोंका अर्थ भी प्रत्येक सुके के नीचे लिखा गया है इसमें महाराज, भविसदत्त और सती कमलश्री व तिलकासुन्दरी का पवित्र चरित्र भले प्रकार दर्शाया गया है । सजिल्द मूल्य २)
(२) धन कुमार चरित्रः -- यह जैन शास्त्र श्रीमान् पंडित खुशहाल चन्द
जी जैन ने कविता रूप चौपई आदि भाषा में रचा था इसको भी भले प्रकार संशोधन करके छपवाया है इसमें श्रीमान् धनकुमार जी का जीवन चरित्र मच्छी तरह दिखाया गया है । सजिल्द मूल्य ११)
( ३ ) नमोकार मंत्र: - फूलदार बढ़िया मोटा काग़ज़ सू०
)
पुस्तक मिलनेका पता:
बा० न्यामतसिंह जैनी सेक्रेटरी डिस्टिरिक्ट बोर्ड हिसार ।
. मु० हिसार ( जिला खास हिसार )
( पंजाब )
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________________ - - - (नोटिस) | ग्यामसिंह रचित जैन ग्रन्थमाला के वह अंक जिनके सामने मूल्य लिखा गया है इप कर तय्यार हैं-बाकी अंक भी शीत्र ही प्रकाशित होने वाले हैं: नागरी/ उ 1 जिनेन्द्र भजन माला 2 जैन भजन रत्नावली 3 मूर्ति मंडन प्रकाश ( जैन भजन पुष्पांजली ) 4 जिनेर पूजा 5 कर्ता खंडन प्रकाश ( ईश्वर सरूप दर्पण) 6 भविसदत्त तिलकासुन्दरी नाटक 7 जैन भजन मुक्तावली ८राज भजन एकादशी 9 स्त्री गान जैन भजन पचीसी 10 कलियुग लीला भजनावली 11 कुन्नी नाटक 12 चिदानाद शिवसुन्दरी नाटक 13 अनाथ रुदन 0 0 0 0 0 グリップリパリコづつついつ 0 0 0 0 . D- DD 18 जैन भजन शतक 14 थ्येटरीकल जैन भजन मंजरी 20 मैनासुन्दरी नाटक (बढिया मोरे कागज़ मोटे अक्षर छटो अडीशन) . पुस्तक मिलने का पता|| . न्यामतसिंह जैनी सेक्रेटरी डिस्टिरिक्ट घोर्ड म० हिसार (पंजाब) ___Niamat Singh Jain, . Secretary District Board, HISSAR (Punjab) - पं० घासीराम त्रिपाठी के देशोपकारक प्रेस, लखनऊ में छपा /