Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ कर देने की बात समझ में नहीं आई । ये तो मूलगुणों के भी मूल गुण हैं। इनका अपहार करने वाले एवं कराने वाले को शास्त्रज्ञ या आगमज्ञ कहना विडंबना ही होगी। इनमें गुरुपूजा, गुणगुरु-यजन, ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध आचारवृद्ध सम्मान, वृद्धानुगामिता एवं कृतज्ञता के गुण क्या अनुज्ञावचनी हो सकते हैं ? हम 'पासगस्स उद्देसोणत्थि एवं 'मानिताः सततं मानयन्ति' कैसे भूल गये ? यही शास्त्रीय आधार हमारे विचार को प्रबल बना सका और पंडित जी के 'आपके तर्क बड़े प्रबल रहे' का आशीर्वाद प्राप्त कर सका। इसीलिये वे आ० चवरे जी के 'उपसर्ग-सहन' के मत के सहभागी भी बन गये। हमने भी मौनी बनकर संवादी मार्ग ग्रहण किया। इसके अनुरूप सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अनेक सहयोगी संस्थाओं एवं समितियों के माध्यम से हमने १९८७ के पहले दिन से यह कार्य प्रारंभ कर ही दिया। इस हेतु भाई नंदलाल जैन के अनुरोध पर कुंडलपुर क्षेत्र पर अगस्त १९८७ में एक बैठक आयोजित की। इसमें साधुवाद आयोजन की पूरी द्विचरणी योजना स्वीकृत हुई एवं इक्कीस सदस्यों की प्रबंध समिति गठित की गई। इनके नाम यथास्थान पद सहित दिये गये हैं। इसमें रिक्त स्थानों पर अनेक नये सदस्यों का मनोनयन भी किया गया। अनेक संस्थाओं के साथ कुंडलपुर क्षेत्र समिति इसकी मुख्य सहयोगी बनी। इस पर भी सैद्धांतिक आपत्तियां आई। पंडित नाथू लाल शास्त्री एवं ब्र. माणिक चंद जी चवरे के मतों से इनका निराकरण किया गया। साधुवाद ग्रन्थ के संपादक मंडल का गठन किया गया। प्रारंभ में इसमें तीन सदस्य थे, बाद में इसे षट् सदस्यी बनाया गया। इसके वरिष्ठ संपादक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जैन समाजशास्त्री डा० आदिनाथ संगवे कोल्हापुर है। लगभग पंद्रह माहों में ग्रन्थ के लिये विभिन्न खंडों की सामग्री प्राप्त हो गयी। उसका संपादन किया गया और उसे प्रबंध समिति की मई, १९८८ की बैठक में कुछ चर्चाओं के बाद, पारित करने का प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। इस बैठक में जैन समाज के मूर्धन्य विद्वान् के "पौरपाट अन्वय-१" लेख के ग्रन्थ में समाहरण पर चर्चा तीक्ष्ण रही, उस पर साधु जनों का भी ध्यान गया। ऐसा भी लगा जैसे आ० चवरे जी के अनुसार प्रबंध समिति के मुख्य सहयोगी संपादक मंडल के अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हों। हमने इस व्यतिक्रम को प्रायः एक वर्ष तक मौन रह कर सहन किया और अंत में सहयोग-सहयोगिभाव की चिंता किये बिना अनेक प्रकार के सुझावों को ध्यान में रखकर आवश्यक संशोधन परिवर्धन कर ग्रंथ को मुद्रणार्थ सौप दिया । इस प्रक्रिया में तथा अपने पृष्ठ-सीमा बंधन के कारण हम अनेक विद्वान लेखकों के लेखों का समाहरण नहीं कर सके हैं। आशा है, हमारे सहयोगी लेखक हमारी परिस्थितियों के सम्वेदी होंगे और हमें क्षमा करेंगे । संभवतः यह ग्रंथ मई-जून १९८९ में मुद्रित हो जाता, पर डा० जैन की दो माह की दीर्घ विदेश यात्रा एवं उसकी तैयारी की व्यस्तता ने इस प्रक्रिया को भी विलंबित कर दिया । हमें प्रसन्नता है कि उन्होंने लौट कर इस कार्य को उत्साहपूर्वक लिया और यह ग्रंथ आपके समझ है । मुझे विश्वास है कि इसकी विविधा आपको रुचिकर लगेगी। प्रारंभ में साधुवाद ग्रंथ के लधुतर आकार का अनुमान था, पर परिस्थितियों की जटिलता ने इसे किंचित वृहत् आकार दे दिया है। कुछ ऋणात्मक हितैषियों ने इसकी सामग्री की कोटि पर रूढ़िवद्धता और पुनरावृत्ति की धारणा प्रचारित की है। इसमें कितनी रूढ़िवद्धता है, यह तो सुधी पाठक इसके विविध खंडों की विषय-सूची के अन्तर्गत सामग्री के अध्ययन से अनुमान लगा सकेंगे। हाँ, पुनरावृत्ति की बात विचारणीय है। सारणी १ से यह पता चलता है कि कोई भी साधुवाद ग्रंथ इस दोष से अछूता नहीं। फिर भी, इस ग्रंथ में यह अन्य ग्रंथों की तुलना में न केवल अल्प है अपितु उसका चयन सामग्री की जीवंत उपयोगिता तथा ग्रंथ गरिमा के अनुरूप किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 610