Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
श्रावक धर्मप्रदीप टीका : एक समीक्षा ९३ होते हैं। नैष्ठिक प्रतिमा के निरतिचार होते हैं । मलगुण टीकाकार ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए बताया है कि भोगोपभोग व्रत का सचित्ताहारत्व अतीचार एक विचारणीय प्रश्न है । उनका यह भी सुझाव है कि सचित्त उपलक्षण है, यह भोग के समान उपभोगों के सीमन पर भी लागू होना चाहिए। इस प्रकार प्रतीत होता है कि सचित्ताहार से संकल्पित ग्रहण या सीमाओं का उल्लंघन अर्थ लेना चाहिए। इसमें स्वर्ण, वस्त्र, पुष्पमाल आदि सभी समाहित हो जाते हैं। टीकाकार की यह नवीन व्याख्या उसके मौलिक विचारभाव को प्रकट करती है। टीकाकार ने समंतभद्र के द्वारा दिये गये अतीचारों से भी अपना मन्तव्य सुस्पष्ट किया है। सचित्त की चर्चा अभक्ष्य, अतिथिसंविभाग एवं सचित्त त्याग प्रतिसात्व के संदर्भो में भी की गई है। इस विवरण के बावजूद भी यह स्पष्ट है कि मूलगुण, अभक्ष्य, भोगोपभोग व्रत और सचित्तत्याग प्रतिमा के उद्देश्यों में पुनरावृत्ति तो है ही । अहिंसक वृत्ति की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के आधार पर ही इसका निराकरण माना जा सकता है ।
अतिथि संविभाग व्रत की विशेष व्याख्या के अनुसार यह श्रावक को सुपात्रों ( साधु या साधुत्व की ओर प्रवृत्त) को आहार, शास्त्र एवं संयम उपकरण (पीछी, कमंडलु चश्मा) औषध और स्थान (अभय) दान देने की प्रवत्ति का व्रत है। उन्होंने साधु या श्रावक के लिये छड़ी को संयम एवं स्वाध्याय का साधन न होने से उसको उपकरण दान नहीं माना है। यह मत वर्तमान परिवेश एवं साधु के व्यापक क्रिया कलाप को देखते हुए किंचित् विचारणीय प्रतीत होता है। वैसे तो आजकल उनके द्वारा निरूपित अनेक वस्तुयें साधु-संघ के साथ ही चलती हैं, भले ही वे दान न मानी जावे। संभवतः दाता उन्हें संघ के लिये देता है। इस प्रथा को टीकाकार की दृष्टि से
र ही माना जावेगा। अतिथि शब्द का व्यापक अर्थ लेने पर साधु-संघ, श्रावक-श्राविका एवं अन्य सुयोग्य पात्र भी उसके अंतर्गत आता है। ये धर्म-सधाक दान हैं। कुछ समाज-साधक दानों की भी टीकाकार ने चर्चा की है..करुणा दान, समवृत्ति दान, अन्वयदत्ति दान आदि स्थानांग में भी दस दानों की चर्चा आयी है। इन सभी से प्रत्यक्ष में पात्र सेवा होती है और परोक्ष में पुण्यबंध होता है। टीकाकार ने संसारवर्धक एवं पापोत्पादक पदार्थों के दान को कुदानों में गिनाया है। धर्म-प्रभावना, ज्ञानवर्धक साहित्य प्रचार, रथयात्रा आदि विवेकपूर्ण एवं स्वार्थ-त्यागी दृष्टि से किये गये कार्यों में द्रव्य, समय एवं जीवन का उपयोग करने वाले उत्तम दानी माने गये हैं। आचार्य विनोबा ने ऐसे ही सामाजिक उद्देश्यों के लिये जीवन-दान, धन-दान एवं समय-दान की प्रक्रिया प्रचलित की थी। टीकाकार ने एक सामयिक प्रश्न उपस्थित किया है कि क्या धनी पुरुष ही दान दे सकता है ? उत्तर देते हए उन्होंने स्पष्ट किया है कि धनी का दान तो आवश्यकता से अधिक संग्रह के कारण होता है लेकिन दान न्यूनतम आवश्यकताओं के लिये संग्रहीत धन या सामग्री से होता है। उसमें श्रद्धा, विनय, सेवा एवं सहानुभूति का रस अतिरिक्त रूप से समाहित रहता है। फलतः दान एक मनोवृत्ति है जो किसी में भी सहज या परिस्थितिवश प्रस्फुटित हो सकती है
अतिथि संविभाग के अतीचारों में भी आहार दान संबंधी दो अतीचार हैं। इनमें भी सचित्त शब्द का प्रयोग है।
टीकाकार ने सचित्तता के विषय में एक प्रश्न उठाया है। क्या पेड़ों से टूटे हुए एवं जमीन से खोदे गये फल, फल, पत्ते आदि सचित्त अतएव अभक्ष्य माने जावें? कुछ लोगों का इस विषय में भिन्न मत है। यह कहना तो सही नहीं लगता कि फल, फूल, पत्ती, तना आदि वृक्ष या वनस्पतियों के अंग नहीं हैं। यदि ये वृक्षों के अंग नहीं हैं, तो वृक्ष ही किसे कहेंगे? हाँ, मानव के शरीर-अंगों की तुलना में वनस्पतियों के इन अंगों की अपनी-अपनी विशेषतायें होती हैं। ब्रायोफाइलम तथा बिगोनिया जैसे वनस्पतियों के अंग अलिंगी विधियों से नये सजातीय पुनर्जनन कर सकते हैं लेकिन सभी वनस्पति ऐसा नहीं करते । विकास और पुनर्जनन को सजीवता का चिन्ह माना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org