Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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२८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
वैज्ञानिक के निष्कर्ष कई बार गलत भी होते हैं। क्या योगिप्रत्यक्ष भी भ्रान्त हो सकता है ? जैन परम्परा में अवधिज्ञान तो भ्रान्त हो सकता है, मनःपर्यय और केवल नहीं। प्रज्ञाकर इस समस्या से परिचित है। वे कहते हैं कि अतीन्द्रिय विषयों का वर्णन तो सभी करते हैं किन्तु वह परस्पर विरोधी भी पाया जाता है। ऐसी स्थिति में जो प्रमाणसंवादी हो उसे हम प्रत्यक्ष कहेंगे और शेष को भ्रम ।'
विद्यानन्द की अष्टसहस्री का उपर्युक्त प्रसंग इस सन्दर्भ में विशेष उपयोगी है। यहाँ प्रश्न उठाया गया है कि प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त आगम की क्या आवश्यकता है। आचार्य कहते हैं कि ज्योतिर्ज्ञान (ग्रह नक्षत्रों की गति आदि का ज्ञान) आगम से ही होता है, केवल प्रत्यक्ष और अनुमान से नहीं । शंका उठाई गई है कि सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष ज्ञान से ही तो ज्योतिर्ज्ञान हो जाता है। उत्तर दिया गया है कि सर्वज्ञ को योगिप्रत्यक्ष की प्राप्ति के पूर्व यदि पूर्ववर्ती उपदेश प्राप्त न हो तो उन्हें योगिप्रत्यक्ष की प्राप्ति नहीं होती। श्रुत और चिन्तन के उत्कर्ष से ही योगिप्रत्यक्ष प्राप्त होता है ।
आधुनिक दृष्टि से देखने पर यह स्वाभाविक जान पड़ता है कि ज्योतिर्ज्ञान पूर्व परम्परा से प्राप्त होता है । परन्तु इस परम्परागत उपदेश को प्रत्यक्ष निरीक्षणों के द्वारा निरन्तर जाँचना होता है और उसमें जो अंश प्रमाणसंवादी न हो, उसे भ्रम मानकर छोड़ना भी पड़ता है। विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों में ज्योतिर्ज्ञान का विवरण एक-सा नहीं है। यह विभिन्नता यही दिखाती है कि इन विवरणों में यथार्थ के साथ भ्रम का कुछ अंश मिला हुआ है। इस अंश की पहचान आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से काफी हद तक सम्भव हुई है। ऐसी स्थिति में ज्योतिर्ज्ञान के प्राचीन विवरणों पर आँख मूंद कर विश्वास करना सम्भव नहीं है। ज्योतिर्ज्ञान के परम्परागत अनेक रूप हमारे सामने हैं । उनमें कितना अंश सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा परीक्षित है-यह जानने का कोई साधन नहीं है । अतः अमुक एक विवरण सर्वोपदिष्ट है, इसलिए उस पर पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए-यह आग्रह करना उचित नहीं होगा।
१. प्रमाणवातिक भाष्य पृ० ३२८ : अतीन्द्रियार्थ हि वचः सर्वेषामेव विद्यते परस्परविरुद्धं च । तथा पृ० ३२७; तत्र प्रमाण
संवादि यत् प्राग् निर्णीतवस्तुनः तद् भावना प्रत्यक्षमिष्ठं शेषा उपप्लवाः । २. अष्टसहस्री पृ० २३५ : न च प्रत्यक्षानुमानाभ्यामन्तरेणोपदेशं ज्योतिर्जानादिप्रतिपत्तिः । सर्वविदः प्रत्यक्षादेव तत्प्रतिपत्तिः
अनुमानविदां पुनरनुमानादपोति चेन्न । सर्वविदामरि योगिप्रत्यक्षात् पूर्वमुपदेशाभावे तदुत्पत्ययोगात् । ३. स्व० पं० सुखलालजी ने तत्त्वार्थसूत्र को भूमिका में तीसरे-चौथे अध्याय के विषय में लिखा था कि प्राचीन समय में
ये धारणाएं प्रचलित थीं। इस रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए ।
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