Book Title: Guru Shishya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 126
________________ गुरु-शिष्य ११५ दादाश्री : वह तो इन अक्कलवालों के हाथ में गया न, तब इन अक्कलवालों ने खोज की। दूसरे कोई रहे नहीं इसलिए उन्होंने दुकानें डाल दीं। बाक़ी, अंधे को बेवकूफ आ मिलते हैं। इस देश में पता नहीं कहाँ से मिल जाते हैं, ऐसे के ऐसे तूफ़ान ही चलाए हैं लोगों ने। गद्दीपति बन बैठते किसे अधिकार है गद्दीपति होने का? जिनमें क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं हों उन्हें! आपको वह न्याय नहीं लगता? न्याय से क्या होना चाहिए? प्रश्नकर्ता : ठीक है। दादाश्री : इसलिए कितने ही हमसे पूछते हैं कि यह आपने 'अक्रम' क्यों निकाला? मैंने कहा, 'यह मैंने नहीं निकाला है। मैं तो निमित्त बन गया हूँ। मैं किसलिए निकालूँ? मुझे क्या यहाँ पर गद्दियाँ स्थापित करनी है? हम क्या यहाँ गद्दियाँ स्थापित करने आए हैं? किसीका उत्थान करते हैं हमलोग? नहीं। यहाँ किसीका मंडन नहीं करते, किसीका खंडन नहीं करते। यहाँ तो वैसा कुछ है ही नहीं। यहाँ गद्दी भी नहीं है न! गद्दीवाले को झंझट है सारी। जहाँ गद्दियाँ हैं, वहाँ मोक्ष होता ही नहीं। पूजने की कामना ही काम की धर्मवालोंने तो उनके मतार्थ रखने के लिए, उनकी पूजे जाने की दुकानें चलाने के लिए, ये सब रास्ते निकाले हैं। इसलिए लोगों को बाहर निकलने ही नहीं दिया। उन्हें खुद को पुजवाने के लिए इन सब लोगों को उल्टे चक्कर में डाला। वे तोड़फोड़वाले लोग दूसरा कुछ होने ही नहीं देते! तोड़फोड़ करनेवाले यानी पूजे जाने की कामनावाले। पूजे जाने की कामना दलाली ही है न! धर्म की पुस्तक हाथ में आई और किसीने उन्हें बिठा दिया कि, 'अब पढ़ते रहिए।' तब से उसे भीतर कामना उत्पन्न हो जाती है कि अब लोग मुझे पूजेंगे। तब यदि आपको पूजे जाने की कामना उत्पन्न हुई, तो आपको डिसमिस कर देना चाहिए। क्योंकि ज्ञानीपुरुष की पुस्तक को छूने के बाद कामना उत्पन्न

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