Book Title: Guru Shishya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 152
________________ गुरु-शिष्य १४१ आपको समझ में आया न? मैं खुद शिष्य बनाता ही नहीं हूँ। इन्हें मैंने शिष्य नहीं बनाया। प्रश्नकर्ता : तो आपके बाद क्या होगा फिर? कोई शिष्य नहीं होगा तो फिर बाद में क्या होगा? दादाश्री : कोई ज़रूरत नहीं है न! हमारा एक भी शिष्य नहीं है। लेकिन रोनेवाले बहुत हैं। कम से कम चालीस-पचास हज़ार रोनेवाले लोग प्रश्नकर्ता : लेकिन आपके बाद कौन? दादाश्री : वह तो 'समय' उस घड़ी बताएगा कि बाद में कौन है, वह ! मैं तो कुछ जानता नहीं हूँ और ऐसा सोचने के लिए फुरसत भी नहीं है। प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि मेरे पीछे चालीस-पचास हज़ार रोनेवाले होंगे, परंतु शिष्य एक भी नहीं। आप क्या कहना चाहते हैं? दादाश्री : मेरा कोई शिष्य नहीं है। यह कोई गद्दी नहीं है। गद्दी हो तो वारिस होगा न? यह गद्दी हो तो लोग वारिस होने आएँगे न! यहाँ तो जिसका चले उसका ही चलेगा। जो सभीका, पूरे जगत् का शिष्य बनेगा, उसका काम होगा! यहाँ तो लोग जिसे 'एक्सेप्ट' करेंगे, उसका चलेगा! ऐसा यह अक्रम विज्ञान यह गुरु का मार्ग नहीं है! यह कोई धर्म नहीं है या कोई संप्रदाय नहीं है। मैं तो किसीका भी गुरु नहीं बना, और न ही बननेवाला हूँ। लक्षण ही मेरे गुरु बनने के नहीं हैं। जिस पद में मैं बैठा हूँ, उस पद में आपको बैठा देता हूँ। गुरुपद-शिष्यपद मैंने रखा ही नहीं है। नहीं तो और सब जगह तो लगाम खुद के पास रखते हैं। जगत् का नियम कैसा है? लगाम छोड़ नहीं देते। परंतु यहाँ तो वैसा नहीं है। यहाँ तो मैं जिस पद में बैठा हूँ, उस पद में आपको बैठाता हूँ। हम लोगों में जुदाई नहीं है। आपमें और मुझमें कोई जुदाई नहीं है। आपको ज़रा जुदाई लगेगी, मुझे जुदाई नहीं लगती। क्योंकि

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