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[5.2] पूर्व जन्म के संस्कार हुए जागृत, माता के
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एक बार चेतावनी देने के बाद हमेशा उस नियम का पालन
किया
प्रश्नकर्ता : हमारे यहाँ तो 'अतिथि देवो भवः' ऐसा कहते हैं न?
दादाश्री : हाँ! तिथि तय किए बिना, चिट्ठी-विट्ठी लिखे बिना जो आएँ, वे अतिथि। और उस समय यदि अपनी परिणति अच्छी रही तो उसे जागृति कहेंगे, वह पुरुषार्थ कहलाएगा। तब फिर मोक्ष के लिए सर्टिफाइड होने की तैयारी हो गई। कसौटी पर खरा तो उतरना पड़ेगा न? तब वे लोग भी समझ गए कि 'मैंने खुद खाना बनाया। फिर मैंने उन लोगों को समझाया कि 'इनकी तबियत ज़रा ठीक नहीं
प्रश्नकर्ता : फिर सब ढकना पड़ता है। नहीं?
दादाश्री : ढकना तो पड़ेगा ही न। वर्ना अपनी ही कमी उजागर होगी न?
प्रश्नकर्ता : ठीक है। लेकिन दादा! वे जो आए, वे भी भगवान ही हैं न?
दादाश्री : वह तो अब पता चला कि भगवान हैं'। भगवान के लिए मन बिगाडने में हर्ज नहीं है क्योंकि उन्हें बुलाने वाले तो लाखों लोग हैं लेकिन इन्हें (मेहमान) बुलाने वाला तो कोई नहीं है इसीलिए अपने यहाँ पर भाव नहीं बिगाड़ना चाहिए। हम कौन लोग हैं! कहाँ अपना व्यवहार ! निश्चय न हो तो ठीक है लेकिन व्यवहार तो उच्च होना चाहिए न! यही सब से बड़ा तप है। उसके बाद जिंदगी भर उन्होंने इस नियम का पालन किया लेकिन इस घटना से उन्हें बहुत ही पछतावा हुआ। वे जो मेहनाम आए थे, वह व्यवस्थित। वे रहे, वह भी व्यवस्थित। वे गए, वह भी व्यवस्थित। तब क्या फिर उल्टा सोचना चाहिए? सोचना ही नहीं चाहिए न। फिर वे जो कुछ भी खाते हैं, वह अपने हक़ का ही खाते हैं तो फिर उनके लिए उल्टा विचार ही नहीं आएगा और प्रेम से खाना खाकर जाएगा।