Book Title: Dhyana ka Swaroop
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ ध्यान का स्वरूप उक्त सम्पूर्ण विषयवस्तु के आलोढन के उपरान्त जो तथ्य उभर कर सामने आते हैं; यहाँ उनके संदर्भ में इस विषय पर अनुशीलन अपेक्षित है। उक्त सूत्र में जिस ध्यान को परिभाषित किया गया है; वह उत्तम संहननवालों के ही होता है। यद्यपि वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच और नाराच - इन तीन संहननों को उत्तम संहनन माना गया है; तथापि जिस ध्यान से अष्ट कर्मों का विनाश होता है, मोह-राग-द्वेष का पूर्णत: अभाव होकर पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है, सर्वज्ञता प्राप्त होती है; वह ध्यान तो शुक्लध्यान है और वह प्रथम संहनन वज्रर्षभनाराच संहननवालों के ही होता है, चौथे काल में ही होता है; अभी इस पंचमकाल में होता ही नहीं है। उस ध्यान के आरंभ के दो पाये तो उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी में होते हैं और शेष दो पाये क्रमश: तेरहवें गुणस्थान के अन्त में और चौदहवें गुणस्थान में होते हैं। पृथक्त्ववितर्क नामक पहला शुक्लध्यान आठवें गुणस्थान में आरंभ होकर क्षपक श्रेणीवालों के दशवें गुणस्थान तक और उपशम श्रेणीवालों यारहवें गुणस्थान तक होता है। इसके निमित्त से मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम होता है अर्थात् मोह-राग-द्वेष का अभाव होता है और एकत्ववितर्क नामक दूसरा शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है; उसके निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होता है। इसप्रकार चार घातिया कर्मों का अभाव आरंभ के दो शुक्ल ध्यानों से होता है और अघातिया कर्मों का अभाव सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरे शुक्लध्यान और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक चौथे शुक्लध्यान से होता है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अरहंत और सिद्धदशा की प्राप्ति का हेतुभूत शुक्लध्यान तो इस काल में संभव ही नहीं है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि क्या आप यह कहना चाहते हैं कि मुक्ति प्राप्ति का हेतुभूत ध्यान इस काल में होता ही नहीं है ? यदि यह बात सत्य जिनागम के आलोक में है तो फिर इसका आशय तो यह हुआ कि पंचम काल में मुक्तिमार्ग आरंभ ही नहीं होता । नहीं, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि मुक्तिमार्ग तो चौथे गुणस्थान से ही आरंभ हो जाता है। अरे भाई ! अकेला शुक्लध्यान ही ध्यान नहीं है। ध्यान चार प्रकार के होते हैं- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ।' इन चारों ध्यानों में प्रत्येक ध्यान के चार-चार भेद हैं। इसप्रकार कुल मिलाकर ध्यान सोलह प्रकार के हो जाते हैं। उक्त चार ध्यानों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान तो संसार के कारण हैं और अन्त के दो ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान मुक्ति के कारण हैं। इसप्रकार यह सुनिश्चित होता है कि इस पंचमकाल का हेतुभूत धर्मध्यान होता है। ध्यान के संदर्भ में उक्त चारों ध्यान और उनके चार-चार भेदों का सामान्यज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि आज ध्यान की चर्चा तो बहुत होती है; पर उसके स्वरूप को बहुत कम लोग जानते हैं । ध्यान - ध्यान सब कोई कहे, ध्यान न जाने कोय । ध्यान पंथ जाने विना, ध्यान कहाँ से होय ॥ १. दुख-पीड़ारूप चिन्तवन आर्तध्यान है। अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजन्य और निदानज के भेद से आर्तध्यान चार प्रकार का होता है। १. अनिष्ट पदार्थों के संयोग होने पर, उन्हें दूर करने के लिए होनेवाला प्रबल चिन्तवन अनिष्टसंयोगज नामक आर्तध्यान है । २. इष्ट पदार्थों के वियोग होने पर, उन्हें प्राप्त करने के लिए होनेवाला प्रबल चिन्तवन इष्टवियोगज नामक आर्त्तध्यान है। १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र २८ २. वही, अध्याय ९, सूत्र २९

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