Book Title: Dhyana ka Swaroop
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ महावीर वन्दना जो मोह माया गाव मत्सर, गदत गर्दव वीर हैं। जो विपुल विघ्तों बीच में मी, ध्यान धारण धीर हैं। जो ताण-तारण, भव-विवारण, भव जलधि के तीर हैं। ते वंदनीय निवेश, तीर्थकर स्वयं महावीर हैं। जो राग-द्वेष विकार जित, लीव आता ध्यातरें। जिवके विराट् विशाल विलि, अपल केवलज्ञात ।। युगपद् विशद सकलार्थ झलकें, ध्वनित हो व्याल्याव में। वे वर्द्धमान हात जिव, विवों हमारे ध्यान में ।। जितका परम पावत परित, जलनिधि सनात अपार है। जितके गुणों के कथन गों, गणधा व पारौं पार है। बस वीतराग-विज्ञान ही, जितके कथन का सार है। उत सर्वदशी साती को, वंदना शत बार है ।। जितके विमल उपदेश में सबके उदय की बात है। सगभाव समताभाव जितका, जगत में विख्यात है।। जिससे बताया जगत को, प्रत्येक कण स्वाधीत है। कर्ता व धर्ता कोई है, अणु-अणु स्वयं में लीत है। आता बते परमातना, हो शान्ति सारे देश में। है देशवा सर्वोदयी, महावीर के सन्देश में। -डॉ. हुकमचन्द गारिल्ल मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ मैं हूँ अपने में स्वयं पूर्ण, पर की मुझ में कुछ गन्ध नहीं। मैं अरस, अरूपी, अस्पर्शी, पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं।। मैं रंग-राग से भिन्न, भेद से, भी मैं भिन्न निराला हूँ। मैं हूँ अखण्ड, चैतन्यपिण्ड, निज रस में रमने वाला हूँ।। मैं ही मेरा कर्ता-धर्ता, मुझ में पर का कुछ काम नहीं। मैं मुझ में रहने वाला हूँ, पर में मेरा विश्राम नहीं।। मैं शुद्ध, बुद्ध, अविरुद्ध, एक पर-परिणति से अप्रभावी हूँ। आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व, मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ।। __ - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ,

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