Book Title: Dhyana ka Swaroop
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ २८ ध्यान का स्वरूप पर्वत की चोटियों पर हैं। आखिर ये तीर्थक्षेत्र हैं क्या ? जहाँ बैठकर हमारे तीर्थंकरों ने, गणधरों ने, सन्तों ने आत्मसाधना की, आत्मा का ध्यान किया; उन स्थानों को ही तो तीर्थ कहते हैं । उक्त संदर्भ में लेखक की अन्य कृति शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर का स्वाध्याय करना चाहिए। ध्यान के सन्दर्भ में उक्त कृति में समागत निम्नांकित कथन दृष्टव्य है "जब यह बात कही जाती है तो एक प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि हमारे तीर्थंकरों ने, हमारे सन्तों ने, आत्मसाधना के लिए ऐसे निर्जन स्थान ही क्यों चुने? इसलिए कि हमारा धर्मवीतरागी धर्म है, आत्मज्ञान और आत्मध्यान का धर्म है। आत्मध्यान के लिए एकान्त स्थान ही सर्वाधिक उपयोगी होता है। जैसा एकान्त इन पर्वत की चोटियों पर उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र कहीं भी नहीं। कुछ लोग समझते हैं कि पर्वत की चोटी पर जेठ की दुपहरी में कठोर तपस्या करने से, शरीर को सुखाने से कर्मों का नाश होता है; पर इस बात में कोई दम नहीं है; क्योंकि देह को सुखाने से कर्म नहीं कटते, कर्मों का नाश तो आत्माराधना से होता है, आत्मसाधना से होता है। आत्माराधना और आत्मसाधना आत्मज्ञान और आत्मध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पर और पर्याय से भिन्न त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा के जानने का नाम ही आत्मज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है; उसमें ही अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है और उसमें ही लीन हो जाने, समा जाने का नाम सम्यक्चारित्र है। यह सम्यक्चारित्र वस्तुतः तो आत्मध्यानरूप ही होता है। इसमें शरीर के सुखाने को कहीं कोई स्थान नहीं है। यदि यह बात है तो फिर वही प्रश्न फिर उभर कर आता है कि हमारे तीर्थंकर और साधुजनों ने ऐसा स्थान और इतना प्रतिकूल वातावरण ध्यान के लिए क्यों चुना? हम देखते हैं कि सम्मेदशिखर के जिस स्थान से जिनागम के आलोक में तीर्थंकरों ने मुक्ति प्राप्त की है; वहाँ कहीं-कहीं तो इतना भी स्थान नहीं है कि कोई दूसरा व्यक्ति खड़ा भी हो सके । चोटियों को देखकर लगता है कि सभी स्थान लगभग ऐसे ही रहे होंगे। यह बात अलग है कि आज हमने अपनी सुविधा के लिए उन्हें कुछ इसप्रकार परिवर्तित कर दिया है कि जिससे कुछ लोग वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। वस्तुतः बात यह है कि हमारे सन्त ध्यान के लिए, बैठने के लिए भी ऐसा ही स्थान चुनते हैं कि जहाँ बगल में कोई दूसरा व्यक्ति बैठ ही न सके; क्योंकि बगल में यदि कोई दूसरा बैठेगा तो वह बात किए बिना नहीं रहेगा और वे किसी से बात करना ही नहीं चाहते हैं। बातचीत पर से जोड़ती है और पर का सम्पर्क ध्यान की सबसे बड़ी बाधा है। ___ एक तो कोई व्यक्ति पर्वत की इतनी ऊँचाई पर जायेगा ही नहीं, जायेगा भी तो जब उसे बगल में बैठने की जगह ही न होगी, तब बगल में बैठेगा कैसे? इसप्रकार पर्वत की चोटी पर उन्हें सहज ही एकान्त उपलब्ध हो जाता है। इसीप्रकार वे तेज धूप में भी किसी वृक्ष की छाया में न बैठकर ध्यान के लिए पूर्ण निरावरण धूप में ही बैठते हैं। तपती जेठ की दुपहरी में यदि किसी सघन वृक्ष की छाया में बैठेंगे तो न सही कोई मनुष्य, पर पशु-पक्षी ही अगल-बगल में आ बैठेंगे। उनके द्वारा भी आत्मध्यान में बाधा हो सकती है। इस बाधा से बचने के लिए ही वे धूप में बैठते हैं, धूप से कर्म जलाने के लिए नहीं।” आज हम वातानुकूलित कक्षों में बैठकर सामूहिकरूप से ध्यान करने की बात करते हैं। क्या हमारे पूर्वपुरुषों के पास वातानुकूलित कक्ष नहीं थे? यदि थे, तो फिर वे ध्यान करने की लिए पर्वतों की चोटियों पर क्यों गये, भयंकर गर्मी और हड्डियों को गला देनेवाली सर्दी में नग्न दिगम्बर दशा में खुले आकाश में ध्यान करने क्यों बैठे ? ___इस पर कुछ लोग कहते हैं कि आप तो व्यर्थ ही आलोचना करते हैं। १. शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर पृष्ठ-१७-१८

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