Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 222
________________ २०४ उत्तराध्ययन कार्पासास्थिक, मिजक, तिन्दुक और त्रपुप मिंजक ज्ञातव्य । शतावरी फिर कानखजूरी ओर इन्द्रकायिक है, भव्य | ॥१३८ || इन्द्रगोप आदिक त्रीन्द्रिय प्राणी होते वे सर्वत्र नही होते हैं. लोक एक सतत प्रवाह अपेक्षा से वे कहे अनादि ग्रनन्त सुजान / स्थिति सापेक्षतया फिर उन्हे कहा है सादि सान्त पहचान ॥ १४०॥ त्रीन्द्रिय जीवो की जघन्य आयु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त मान । उत्कृष्टायु स्थिति उनकी उनचास दिवस की है मतिमान ! ॥ १४१ ॥ त्रीन्द्रिय जीवो की काय स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त मान । सतत जन्म है वही त सख्येय काल उत्कृष्ट विधान ! || १४२|| जघन्य श्रन्तर्मुहूर्त है उत्कृष्ट अनन्त काल परिमाण । त्रीन्द्रिय जीवों का फिर वहीं जन्म लेने का अन्तर जान ॥ १४३॥' वर्ण, गंध फिर रस, स्पर्श, संस्थान अपेक्षा से पहचान | उनके फिर यो भेद हजारो होते है समभो मतिमान | ॥ १४४ ॥ अब चतुरिन्द्रिय प्राणी दो प्रकार से कथित यहाँ पहचान । अपर्याप्त पर्याप्त तथा फिर सुन उनके अव भेद प्रधान || १४५ || है अधिका, पोतिका और मक्षिका, मच्छर और भ्रमर । कीट, पतङ्ग व टिकण, कुकुण श्रादिक नाम कहे मतिधर ! ॥ १४६ ॥ कुक्कड व श गरिटी, नन्दावर्त और वृश्चिक ज्ञातव्य | डोल, भृङ्गरीटक व प्रक्षिवेधक, विरली सज्ञा बोधव्य || १४७ || अक्षिल, मागध व प्रक्षिरोडक विचित्रपत्रक व चित्रपत्रक | श्रोहिज लिया जलकारी नीचक फिर तन्तवकादिक नामक || १४८ || इत्यादिक ये चतुरिन्द्रिय प्राणी होते नाना विध हैं । वे सर्वत्र नही होते है, लोक एक भाग स्थित हैं ॥१४६॥ नानाविध है । भाग स्थित हैं ||१३|| सतत प्रवाह अपेक्षा से वे जीव अनादि अनन्त रहे । स्थिति सापेक्षतया चतुरिन्द्रिय जीव सादि फिर सान्त कहे ॥ १५० ॥ चतुरिन्द्रिय की जघन्यत श्रायु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त मान । उत्कृष्टायु -स्थिति उनकी तुम पहचानो छह मास प्रमाण ॥ १५१ ॥

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