Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 224
________________ उत्तराध्ययन २०६ अब सातवी नरक आयु- स्थिति जघन्य द्वाविति सागर । तमस्तमा की उत्कृष्टायु स्थिति है तीन तीस सागर ।। १६६ || नारक जीवो की जितनी है अपनी आयु -स्थिति-परिमाण । जघन्यतया उत्कृष्टतया उतनी ही काय स्थिति पहचान || १६७॥ जघन्य अन्तर्मुहूर्त है उत्कृष्ट अनन्त काल परिमाण । नारक जीवो का फिर वही जन्म लेने का अन्तर जान ।।१६८ || वर्ण, गध फिर रस, स्पर्ग, सस्थान अपेक्षा से पहचान । उनके फिर यो भेद हजारो होते है समझो मतिमान | ||१६|| अब तिर्यग् पंचेन्द्रिय प्राणी दो प्रकार से वर्णित जान । समूर्छिम - तिर्यञ्च और गर्भज तिर्यञ्च भेद पहचान ॥ १७० ॥ इन दोनो के तीन-तीन फिर कहे विभेद यहाँ पहचान | जलचर, स्थलचर, खेचर हैं, अब इनके भेद सुनो मतिमान ! ।। १७१ ।। अब फिर जलचर पाँच प्रकार कहे हैं जो कि यहाँ ज्ञातव्य | मत्स्य व कच्छप, ग्राह, मकर, फिर ससुमार सज्ञा बोधव्य ।। १७२ ॥ वे सर्वत्र न व्याप्त व लोक एक भाग स्थित है मतिमान | काल- विभाग चतुर्विध उनका यहाँ कहूँगा अब पहचान ।। १७३ ।। सतत प्रवाह अपेक्षा से वे यहाँ अनादि अनन्त रहे । स्थिति सापेक्षतया वे जलचर सादि सान्त फिर स्पष्ट कहे ॥ १७४॥ जलचर की श्रायु-स्थिति जघन्यत है अन्तर्मुहूर्त मान । उत्कृष्टायु स्थिति है उनकी एक करोड़ पूर्व की जान ।। १७५ ॥ - जलचर की काय स्थिति जघन्यत है अन्तर्मुहूर्त मान । फिर उत्कृष्टतया काय स्थिति पृथक्त्व कोटि पूर्व परिमाण ॥ १७६ ॥ जघन्यत अन्तर्मुहूर्तं, उत्कृष्ट अनन्त काल परिमाण । जलचर जीवो का फिर वही जन्म लेने का अन्तर जान ।। १७७ ॥ वर्ण, गध फिर रस, स्पर्श, सस्थान अपेक्षा से पहचान | उनके फिर यो भेद हजारो होते हैं समभो मतिमान | ॥ १७८ ॥ चतुष्पाद, परिसर्प भेद से दो प्रकार स्थलचर ज्ञातव्य । चतुष्पाद, फिर चार प्रकार कहे हैं मुझसे सुन तू भव्य ! ॥ १७६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237