Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 220
________________ २०२ उत्तराध्ययन उल्का, विद्युत् आदि अनेकों उसके भेद यहाँ बोधव्य । सूक्ष्म अग्नि अविविध होने से एक भेद ही है ज्ञातव्य ॥११०॥ सर्व लोक मे व्याप्त सूक्ष्म है लोक एक भाग स्थित वादर । ___ अव इनका मैं काल-विभाग चतुर्विध, यहाँ कहूंगा स्फुटतर ॥१११।। सतत प्रवाह अपेक्षा से वे कहे अनादि अनन्त सुजान ! स्थिति सापेक्षतया उन जोवो को तू सादि सान्त पहचान ।।११२॥ अग्निकाय की जघन्यत. श्रायु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त मान । उत्कृष्टायु-स्थिति है उनकी तीन रात-दिन को, मतिमान ॥११३।। तेजस् जीवो की काय-स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त मान । सतत जन्म है वही अतः उत्कृष्ट असख्य काल परिमाण ॥११४।। जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अनन्त काल परिमाण । अग्निकायिको का फिर वही जन्म लेने का अन्तर जान | ॥११॥ वर्ण, गध फिर रस, स्पर्श, सस्थान अपेक्षा से पहचान । उनके फिर यो भेद हजारो होते हैं समझो मतिमान! ॥११६।। दो प्रकार के वायु जीव हैं, सूक्ष्म और बादर पहचान । फिर इनके दो-दो विभेद है, अपर्याप्त पर्याप्त महान ॥११७।। अव वादर पर्याप्त वायु के पाँच भेद होते मतिमान | उत्कलिका, मडलिका, धन, गुजा फिर शुद्ध वायु पहचान ।।११८॥ सवर्तक, मारुत इत्यादि अनेक भेद फिर हैं आख्यात । सूक्ष्म वायु अविविध होने से एक भेद ही है प्रख्यात ॥११६॥ सर्व लोक मे व्याप्त सूक्ष्म, फिर लोक एक भाग स्थित वादर । काल-विभाग चतुर्विध इनका, यहाँ कहूंगा अब सुन सादर ।।१२०।। सतत प्रवाह अपेक्षा से वे कहे अनादि अनन्त यहाँ। स्थिति सापेक्षतया उनको फिर सादि सान्त है यहाँ कहा ।।१२१।। वायुकाय की जघन्यत. आयु-स्थिति अन्तर्मुहुर्त मान । उत्कृष्टायु-स्थिति इनकी है तीन हजार वर्ष परिमाण ।।१२२।। मारुत जीवो को काय-स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त मान । सतत जन्म है वही अत. उत्कृष्ट असंख्य काल परिमाण ॥१२३।।

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