Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ 362/श्री दान-प्रदीप में बीज की तरह पात्र में दिया गया दान अत्यन्त फलयुक्त बनता है, क्योंकि सुपात्रदान में ही दातार का शुद्ध परिणाम संभवित है। जिसको कीर्ति प्राप्त करने की इच्छा हो, उस पुरुष की बुद्धि प्रायः पात्र के विषय में आनन्द प्राप्त नहीं करती, क्योंकि अपनी कीर्ति रूप वांछित की सिद्धि के लिए उसका आदर पात्र को छोड़कर अन्य विषय में होता है। उत्तम पुरुष को अपने वांछित कार्य की सिद्धि के लिए अथवा तो अनर्थ का नाश करने के लिए कभी भी दान नहीं देना चाहिए, क्योंकि प्राणियों के इच्छित कार्य की सिद्धि अथवा अनर्थों का नाश तो पूर्वकृत कर्मों के आधीन ही है। किसी भी आशंसा से रहित प्राणी सुपात्र के योग और अपने भावों की उग्रता के कारण कदाचित् इसी भव में भी उसका फल प्राप्त कर सकता है, पर आशंसा रखनेवाला तो कभी भी प्राप्त नहीं कर पाता। इस विषय में पड़ोस में रहनेवाली दो वृद्ध स्त्रियों की कथा इस प्रकार है : श्रीमहावीरस्वामी छद्मस्थावस्था में विचरण करते हुए पारणे के लिए किसी दिन किसी वृद्ध स्त्री के घर पर पधारे। उस वृद्धा के शरीर की सातों धातुएँ जीवादि तत्त्वों के वचन द्वारा वासित थीं। अतः वह आनन्द रस की तरंगों से रोमांचित हुई, एकदम खड़ी हुई, भगवान के सन्मुख गयी और आदरपूर्वक उसने भक्ति से जिनेश्वर को शुद्ध आहार बहराया। उस समय उसके आंगन में देवों ने हर्षपूर्वक सुगन्धित पुष्प व जल की वृष्टि की, साढ़े बारह करोड़ सोनैयों की वृष्टि की, आकाश में दुंदुभि का नाद किया और 'अहो दान! अहो दान!'-इस प्रकार बार-बार स्तुति करके देव स्वर्ग में चले गये। उसके पड़ोस में रहनेवाली एक दरिद्र वृद्ध स्त्री ने यह सब देखा। वह विचार करने लगी-"अहो! धन की प्राप्ति का उपाय मेरे हाथ में लग गया।" । फिर एक दिन उसने मन में हर्षित होते हुए किसी साधु के वेश से आजीविका करनेवाले को निमन्त्रण दिया। उत्सुक मन से उसे मिष्ठान्न देने के लिए आयी। हर्षपूर्वक मिष्ठान्न देते हुए वह विकस्वर नेत्रों से बार-बार आकाश की तरफ देखने लगी। इस प्रकार चेष्टा करती हुई उसे देखकर उस वेषधारी ने पूछा-“हे भद्रे! तूं बार-बार मुख ऊपर करके क्या देख रही है?" वृद्धा ने कहा-"आकाश में से कब स्वर्ण की बरसात होगी? अब तक क्यों नहीं हुई? यही देख रही हूं।" यह सुनकर यति ने पूछा-"आकाश में से स्वर्ण वृष्टि होना कैसे सम्भव है?" तब उसने कहा-"पहले मेरी पड़ोसन वृद्धा ने एक साधु को अन्न का दान किया था, तब स्वर्णवृष्टि हुई थी।" यह सुनकर यति ने उसका रहस्य जानकर हास्यपूर्ण वाणी में कहा-"तब तो हे भद्रे! तूं

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416