Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 378
________________ 367/श्री दान-प्रदीप फिर सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त धन आकुलता रहित होकर अपने घर की तरफ चला, क्योंकि महापुरुषों की वृत्ति मान और अपमान में तुल्य ही होती है। चलते-चलते वह अपने ग्राम की नदी के किनारे पहुँच गया। वहां आकर उसने विचार किया-"मेरी प्रिया ने बहुत ही आशा के साथ मुझे वहां भेजा था। पर मेरे साथ धन न देखकर वह अत्यन्त दुःखी होगी। अतः उस दुःख को न सह सकने के कारण कहीं मरणादि अनिष्ट स्थिति न उपस्थित हो जाय।" इस प्रकार विचार करके उसने नदी में से गोल-गोल चिकने और सूर्य की किरणों के समान चमकीले छोटे-छोटे पत्थर चुनकर रत्नों की तरह एक गांठड़ी में बांध लिये। फिर उस पोटली को मस्तक पर रखकर अपने घर की तरफ चला। उसकी प्रिया ने दूर से ही उसको आते हुए देखकर आनन्दित हुई। उठकर उसके सामने गयी और उसके सिर पर से पोटली लेकर उसे सुरक्षित स्थान पर रखा। फिर कुशल-क्षेमादि की बात पूछकर उसने पति के लिए भोजन तैयार किया। वह खा-पीकर क्षणभर आराम करने के लिए सो गया। उसके बाद उसकी भार्या ने उत्सुकता के साथ वह पोटली खोली, तो उसमें से जगमगाते रत्नों को देखा। यह देखकर उसके पास बैठी हुई उसकी पड़ोसिनों ने कहा-"अहो! तुम्हारे पिता की कैसी उदारता है! तुम पर अद्भुत प्रीति है कि अगणित अमूल्य रत्नों को देकर उन्होंने अपने जामाता का सत्कार किया है।" इस प्रकार उसकी सखियाँ प्रशंसा करने लगीं। वह स्वयं भी आनन्दित होती हुई जोर-जोर से हंसने लगी। उनकी बातचीत से धन की निद्रा भंग हो गयी। भ्रान्ति पाते हुए शय्या से उठकर तुरन्त अपनी प्रिया के पास गया और पत्थरों को रत्नों व मणियों के रूप में देखकर विस्मित हो गया। आश्चर्य से उसके नेत्र विकस्वर हो गये। तभी उसकी प्रिया ने कहा-“हे स्वामी! आपने मानो इन रत्नों को कभी न देखा हो इस प्रकार आश्चर्य से क्यों देख रहे हैं?" तब धन ने सर्व हकीकत बतायी कि जब तुम्हारे पिता ने मुझे कुछ भी नहीं दिया, तब मैंने नदी में से पत्थर लेकर यह पोटली बांधी थी। यह सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। तभी शासनदेवी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर कहा-“हे मुग्धजनों! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? इस विषय में यथार्थ वृत्तान्त सुनो धन ने मार्ग में मुनियों को आहार दान का जो पुण्य बांधा, उसी के फलस्वरूप ये पत्थर रत्न बने हैं। पात्रदान के प्रभाव से तलवार के प्रहार भी हार रूप में परिणत हो जाते हैं, आपत्ति संपत्ति के रूप में परिणत हो जाती है और पत्थर मणियों के रूप में रूपान्तरित हो जाते हैं।" इस प्रकार कहकर देवी अदृश्य हो गयी। यह सब देखकर लोग बार-बार धन की

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