Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 390
________________ 379/श्री दान-प्रदीप यह देखकर बुद्धिनिधान सुधन को आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी। उसके बाद जिनपूजा आदि करके वह जैसे ही स्वर्णथाल, स्वर्ण कटोरे आदि में भोजन करने लगा, उस समय जैसे-जैसे वह खाली कर-करके पात्रादि रखने लगा, वैसे-वैसे वे पात्रादि मानो छोड़ने के अपमान से क्रोधित हुए हों इस प्रकार से उसे छोड़कर आकाश में गमन करने लगे। उसके बाद वह हाथ धोने लगा, तो उस समय थाल को चपल देखकर अर्थात् आकाश में जाते हुए देखकर आश्चर्यचकित होते हुए भागते हुए चोर की लंगोटी को पकड़ने के समान उस थाल के किनारे को हाथ से कसकर पकड़ लिया। पर फिर भी उन अन्य गये हुए पात्रों के साथ की इच्छा से वह थाल भी चला गया। जाते हुए अथवा मरते हुए को भला कोई कमी रोक भी पाया है? उस थाल का एक टुकड़ा टूटकर उसके हाथ में रह गया। यह देखकर सुधन दुःखी होते हुए विचार करने लगा-"मुझे अत्यन्त दुःखदायक पुण्यरहितता कैसे प्राप्त हुई? कि जिससे मेरे पिता की लक्ष्मी ने एक साथ मेरा त्याग कर दिया। ज्यादा क्या कहूँ? मेरे पूर्वकर्मों का उदय अत्यन्त विषम रूप में हुआ है कि जिससे दृढ़ता के साथ हाथ से पकड़ा हुआ थाल भी टूटकर मुझसे दूर चला गया। धन और युवावस्था आदि देखते ही देखते क्षणभर में नाश को प्राप्त हो जाते हैं यह बात प्रसिद्ध ही है। पर जिसने स्वयं सतत सुकृत किया हो, तो वैभव भी निश्चल प्राप्त होता है। निश्चय ही मैंने पूर्वभव में सर्व सुखों को प्रदान करनेवाले धर्म को विधिप्रमाण नहीं किया है, क्योंकि अद्भुत संपत्ति को प्राप्त करने के बावजूद भी वर्तमान में मैं वैभव -रहित बन गया हूं। अतः अब मुझे यतिधर्म अंगीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि धर्म ही सूर्य की तरह अन्धकार समूह रूपी विपत्ति का हनन करनेवाला है और कमल रूपी संपत्ति को विकसित बनानेवाला है।" इस प्रकार विचार करके उछलती अभंग भावना से उत्पन्न हुई वैराग्य तरंगों के द्वारा सुधन का अंतःकरण व्याप्त हो गया। अतः उसने आनंदपूर्वक विनयंधर नामक सूरि के पास चारित्र ग्रहण किया। स्वयं ममतारहित होते हुए भी कौतुक से उस थाल का टुकड़ा अपने पास ही रख लिया, पर लज्जा के कारण कभी भी अन्य किसी साधु को उन्होंने नहीं बताया। अनुक्रम से उन सुधन मुनि ने ग्रहण और आसेवन शिक्षा में निपुणता प्राप्त की। उनका चित्त उत्कृष्ट आगम के द्वारा भावित हुआ। तब गुरु ने उन्हें अकेले विचरण करने की आज्ञा प्रदान की। अनुक्रम से भूमण्डल पर विचरते हुए वे मुनि उत्तर मथुरा में गये। वहां गोचरी के लिए नगर में भ्रमण करते-करते वे मदन के घर गये। वहां स्वर्णथाल आदि अपनी सारी वस्तुएँ उसके घर में देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। मानो उन वस्तुओं को देखने के लिए तरस रहे हों-इस प्रकार से एकटक उन्हें देखने लगे। यह देखकर मदन ने कहा-"कनक और कांकरे

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