Book Title: Chatvara Karmgranth
Author(s): Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 14
________________ ११ भाषा अने छन्द — सामान्य रीते जैन संस्कृतिए प्राकृतभाषा अने आर्याछन्दने मुख्य स्थान आप्युं छे एटले ते संस्कृतिना अनुयायिओए पोतानी मौलिक अने महत्वभरी दरेक कृतिओने प्राकृतभाषामा अने आर्याछन्दमां ज बद्ध करी छे. ते ज रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनी रचना पण प्राकृतभाषामां अने आर्याछन्दमां ज करी छे. विषय - १ पहेला कर्मग्रन्थ तरीके ओळखाता कर्मविपाक नामना कर्मग्रन्थमां ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मों, तेना भेद-प्रभेदो अने तेनुं स्वरूप अर्थात् बिपाक अथवा फळनुं वर्णन दृष्टान्त पूर्वक करवामां आव्युं छे. २ बीजा कर्मस्तव नामना कर्मग्रन्थमां श्रमण भगवान् महावीरनी स्तुति करवा द्वारा ate गुणस्थानोतुं स्वरूप अने ए गुणस्थानोमां प्रथम कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मोनी प्रकृतिओ पैकी कई कई कर्मप्रकृतिओनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय छे एनुं निल्यम करवामां आव्युं छे. ३ त्रीजा बन्धस्वामित्व नामना कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने आश्री जीवोना कर्मप्रकृतिविषयक बन्धस्वामित्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. बीजा कर्मप्रन्थमां गुणस्थानोने श्रीने बन्धनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ज्यारे आ कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने ध्यानमा राखी बन्धस्वामित्वनो विचार करवामां आव्यो छे. ४ चोथा षडशीति नामना कर्मग्रन्थमां जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव अने सङ्ख्या ए पांच विभाग पाडीने तेनुं विस्तारथी विवेचन करवामां आव्युं छे. आ पांच विभाग पैकी ॠण विभाग साथे बीजा विषयो पण वर्णववामां आव्या छे. (क) जीवस्थानमा गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ आठ विषयो चर्चवामां आव्या छे. (ख) मार्गणास्थानमां जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या अने अल्पबहुत्व ए छ विषयो वर्णव्या छे. अने (ग) गुणस्थानमां जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ नव विषयो वर्णव्या छे, पाछला बे विभागो अर्थात् भाव अने सङ्ख्यानुं वर्णन कोई विषयथी मिश्रित नथी. ५ पांचमो शतक नामनो कर्मग्रन्थ जो के आ विभागमां प्रकाशित करवामां नधी आव्योम छतां प्रसङ्गोपात तेना विषयनो निर्देश करी देवो अनुचित नहि ज गणाय. आ कर्मप्रन्थमा, पहेला कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मप्रकृतिओ पैकीनी कई कई प्रकृतिओ भुवबन्धिनी, अभ्रुवबन्धिनी, भुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्व-देशघाती, अघाती, पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्त्तमानप्रकृति अने अपरावर्तमान प्रकृतिओ छे एवं निरूपण करवामां आव्युं छे. ते पछी उपरोक्त प्रकृतिओ पैकीनी कई कई कर्मप्रकृतिओ क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी अने पुद्गलविपाकी छे एवं विभागवर वर्णन करवामां आव्युं छे. आ पछी उपरोक्त कर्मप्रकृतिओना प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध अने प्रदेशबन्ध ए चार प्रकारना बन्धनुं स्वरूप अने ते समजमां आवे ते माठे

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