Book Title: Chatvara Karmgranth
Author(s): Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #ttીના જાદુનેyદરે (ાળવી ભાઈચંદ ઉન્મચ૮ રે રામવાળા વરી ન પચમી ઊી ધન નિમીત્ત બાન મૃત જુગલકિશોર મુખ્તાર - સતિ ભેટ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल नं० : खण्ड ३८५ पेन्द्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द-जैनप्रन्थरतमालायाः पञ्चाशीतितमं रत्नम् (८५) बृहत्तपागच्छनायकश्रीमद्-देवेन्द्रसूरिविरचिताः चत्वारः कर्मग्रन्थाः। ---TEACa>प्रथम-द्वितीय-चतुर्थाः स्वोपज्ञविवरणोपेताः तृतीयः पुनरन्याचार्यविरचितयाऽवरिरूपटीकया समलतः। एतेषां सम्पादक:अनेकान्तदर्शननिष्णातबुद्धि-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीयआद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश (प्रसिद्धनाम श्रीआत्मारामजी महाराज ) शिष्यरत्न-प्रवर्तक-श्रीमत्कान्तिविजयमुनिप्रवरपदपङ्कजसेवाहेवाकः चतुरविजयो मुनिः। प्रकाशकस्तु भावनगरस्थ-श्रीजैन-आत्मानन्दसभायाः कार्याधिकारी गान्धी इत्यु पाधिधारकः श्रेष्ठि-त्रिभुवनदासात्मजो वल्लभदासः । विक्रम संवत् १९९० । इस्त्रिसन् १९३४ प्रतयः ५.० मूल्यं रूप्यकद्वयम् । वीरसंवत् २४६० । आत्मसंवत् ३८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wearranarreranaarastra इदं पुस्तकं मुम्बय्या कोलभाटवीथ्यां २६-२८ तमे । गृहे निर्णयसागरमुद्रालये रामचन्द्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रापितम् Heartastasera PAGLASBA Printed by Ramohandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay 2. Published by Vallabhdas Tribhuvandas Gandhi, Secretary, Shri Atmanand Jain Sablıu, Bhavnagar, grecastvasansasranoranRHE प्रकाशितं च तत् “वल्लभदास त्रिभुवनदास गांधी, सेक्रेटरी र श्रीमात्मानन्द जैन सभा, भावनगर" इत्यनेन BLASBATASNPscaseascasa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव्यकर्मग्रन्थचतुष्टयरूप आ विभागनुं संशोधन करती वखते सङ्ग्रह करेली प्रतोना सङ्केतो । कपुस्तक - पाटणना संघवीना पाडाना ताडपत्रीय पुस्तक भण्डारनुं छे. खपुस्तक — पण उपरोक्त भण्डारनुं ज छे. गपुस्तक - पाटणनिवासी शा. मलुकचंद दोलाचंद हस्तकनुं छे. घपुस्तक —- पाटणना बृहत्तपागच्छीय पुस्तक भण्डारनुं छे. ङपुस्तक - पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयजी महाराजे वडोदरामां संग्रह करेला पुस्तक भण्डारनुं छे. टीकाकारे टीकामां उद्धरेल शास्त्रीय प्रमाणोना स्थानदर्शक संकेतो । अनु० अनुयो ० अनु० चू० अनु० हा० टी० आ० प्र० श्रु० द्वि० अ० आ० नि० आ० नि० गा० आव० नि० गा० । आव० सं० गा० उप० मा० गा० उपयो० ० पद कर्मस्त० गा० जम्बू ० जीवस० गा० अनुयोगद्वारसूत्र. अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णी. अनुयोगद्वारसूत्र हारिभद्री टीका. ० गा० आचारसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन. आवश्यक नियुक्ति. आवश्यक नियुक्ति गाथा. आवश्यक संग्रहणी गाथा. उपदेशमाला गाथा. प्रज्ञापनासूत्रोपान उपयोगपद. कर्मस्तव गाथा. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र. जीवसमास गाथा. तत्त्वा० अ० सू० तत्त्वार्थाधिगम अध्याय सूत्र. तत्त्वार्थ० अ० सू० सिद्ध० टीका तत्त्वार्थाधिगम अध्याय सूत्र सिद्धसेनीया टीका. धर्मसं ० नन्दी ० धर्मसङ्ग्रहणी गाथा. नन्दी सूत्रटीका. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चव० गा० पञ्चसं • ० गा० पञ्चसं ० पञ्चाश० गा० ० ल० वृ० प० प्रज्ञा ० प्रज्ञाप० प्रज्ञापना पद । प्रज्ञा० पद प्रज्ञा० समु० पद प्रव० गा० प्रवच० गा० प्रश० का ० प्रशम० का ० प्रशम० पद्य } बृ० कर्मवि० गा० बृ० क० वि० गा० बृहत्कर्मवि० १० गा० बृ० क० स्त० गा० बृ० क० स्त० भा० गा० धृ० द्रव्यसं० गा० बृह० क्षे० गा० धृ० सं० बृ० सं० गा० बृ० संग्र० गा० बृहत्सं० गा० भग० श० उ० भ० श० उ० Š भ० श० उ० प० योगशा० टी० विशे० आ० गा० विशे० गा० विशेषा० गा० 8 पञ्चवस्तुक गाथा. पञ्चसङ्ग्रह गाथा. पञ्चसङ्ग्रह लघुवृत्ति पत्र. पञ्चाशक गाथा. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग पद. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग समुद्धात पद. प्रवचनसारोद्धार गाथा. प्रशमरति कारिका. बृहत्कर्मविपाक गाथा. बृहत्कर्मस्तव गाथा. बृहत्कर्मस्तव भाष्य गाथा. बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा. बृहत्क्षेत्रसमास गाथा. बृहत्सङ्ग्रहणी गाथा. भगवतीसूत्र शतक उद्देश. भगवतीसूत्र शतक उद्देश पत्र. योगशास्त्रवोपज्ञटीका. विशेषावश्यक भाष्य गाथा. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र शतक उद्देश. शास्त्रवार्तासमुच्चय स्तबक श्लोक. श्रावकप्रज्ञप्ति गाथा. श० उ० शास्त्र० स्त० श्लो० श्रावकप्र० गा० । श्राव० प्र० गा० सि० सिद्धहेम०, समु० प० सिद्धहेमशब्दानुशासन. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग समुद्धात पद. मुद्रित थया पछी जडी आवेल प्रमाणोना स्थानदर्शक संकेतो। शास्त्र० स्त० श्लो० ९० पत्र. २ पति ९ शास्त्र० स्त० श्लो० ९१ पत्र. २ पति २७ वृ० सं० गा० ३४९ पत्र. ११३ पति २१ पच्चसं० ल० वृ० ५०३२ पत्र. ११९ पति २ भ० श० उ० ५० ३४५ पत्र. ११९ पनि २१ विशेषा० गा० ३००० पत्र. १२३ पति २२ पत्र १० पति २४ मां गाथा अङ्क ८५ ने बदले ८५५ समजवो. प्रमाण तरीके उद्धरेल प्रमाणग्रन्थोनी स्थानदर्शक सूची। अनुयोगद्वारचूर्णी रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. अनुयोगद्वारमलयगिरीया टीका शेठ देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित.. अनुयोगद्वारहारिभद्री टीका रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. आचाराङ्गसूत्रटीका आगमोदय समिति प्रकाशित. आवश्यकचूर्णी रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. आवश्यक हारिभद्री टीका आगमोदय समिति प्रकाशित. आवश्यकनियुक्ति आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्री टीकागत. आवश्यकसङ्घहणी आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्री टीकागत. उपदेशमाला श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. कर्मप्रकृति रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दशशास्त्रीयगत. कर्मस्तव श्रीजैन-आत्मानंद सभा प्रकाशित नव्यकर्मग्रन्थचतुष्कगत. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पभाष्य श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित बृहत्कल्पवृत्तिगत. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. जीतकल्पभाष्य हस्तलिखित. जीवसमास रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दशशास्त्रीयगत. तत्त्वार्थाधिगम पुना शेठ. मोतीचंद लाधा प्रकाशित. तत्त्वार्थाधिगमटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. धर्मसङ्घहणीटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. नन्धध्ययनचूर्णी रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था नन्द्यध्ययनमलयगिरीया टीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. नन्द्यध्ययनहारिभद्री टीका रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. पञ्चवस्तुकटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. पञ्चसझन्ह रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दश शास्त्रीयगत. पञ्चसङ्ग्रहमूलटीका । (पञ्चसङ्ग्रहलघुटीका) शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. पञ्चाशकटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. प्रज्ञापनासूत्र । प्रज्ञापनासूत्रटीका आगमोदय समिति प्रकाशित. प्रवचनसारोद्धारटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. प्रशमरतिटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. बृहत्कर्मविपाक श्रीजैन-आत्मानन्दसमा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतु टयटीकागत. बृहत्कर्मस्तवभाष्य श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्टय टीकागत. बृहत्कर्मस्तवसूत्र श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्क टीकागत. बृहत्क्षेत्रसमासटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. बृहद्रव्यसङ्ग्रह बृहद्बन्धखामित्व श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्क टीकागत. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत् शतकटीका अमदावादस्थ श्रीवीरसमाज प्रकाशित. शतक बृहत्सङ्ग्रहणीटीका श्रीजैन-आत्मानन्दसमा प्रकाशित. भगवतीसूत्रटीका । आगमोदय समिति प्रकाशित. पञ्चमाज योगशास्त्रखोपज्ञटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. विशेषावश्यकभाष्य बनारस श्रीयशोविजय जैन पाठशाळा प्रकाशित. शास्त्रवार्तासमुच्चयलघुटीका गोडीजी- कारखानुं मुंबई. श्रावकमज्ञप्तिटीका केशवलाल प्रेमचंद मोदी प्रकाशित. षडशीतिक श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्क टीकागत. सिद्धहेमशब्दानुशासनलघुवृत्ति श्रीयशोविजय जैन पाठशाळा बनारस प्रकाशित. सप्ततिकाटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित कर्मग्रन्थद्वितीयविभागगत. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन. REuron आजे अमे विद्वानोना करकमलमां, छेल्लामां छेल्ली ढबे तैयार करेल बृहत्तपागच्छनायक श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत खोपज्ञटीकायुक्त नव्यकर्मग्रन्थचतुष्टयनी आवृत्ति अर्पण करवा भाग्यशाळी थईए छीए ए माटे पूज्यपाद श्रीमान् १०८ श्रीचतुरविजयजी महाराजनो अत्यन्त आभार मानीए छीए. तेम ज पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजना विद्वान् शिष्य श्रीमान् पुण्यविजयजी महाराजे प्रस्तुत ग्रन्थने सुधारवामाटे तेम ज सम्पादनने लगता कार्यमा जे किम्मती हिस्सो आप्यो छे तेमाटे तेओश्रीनो पण आ ठेकाणे अमे अन्तःकरणथी आभार मानीए छीए. __प्रस्तुत आवृत्तिनुं सम्पादन तेओश्रीए जे प्रकारनी योग्यताथी कयु छे तेने विद्वानो स्वयं समजी शके तेम छ, तथापि अमे तेनो टुंकमां परिचय आपवो उचित समजीए छीए-आ आवृत्तिना सम्पादन अने संशोधनमां पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजे प्राचीन ताडपत्रीय तेम ज कागळनी हस्तलिखित अनेक प्रतोनो उपयोग कर्यो छे. तेम ज टीकाकारे प्रमाण तरीके उद्धृत करेल पाठोनां स्थळोनो उल्लेख पण तेओश्रीए ते ते स्थळे कयों छे. अने ग्रन्थना अन्तमा अनेक विषयनां परिशिष्टो आपीने तो तेओश्रीए प्रस्तुत आवृत्तिनी महत्तामा अनेक गणो उमेरो ज को छे. कर्मग्रन्थनी प्रस्तुत आवृत्तिना प्रकाशन माटे उपयोगी द्रव्यनी मदद पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजना सदुपदेशथी अमने जे धर्मात्मा बहेनो तरफथी मळी छे ते सौनो हार्दिक आभार मानवा साथे तेमनां पवित्र नामोनो उल्लेख अमे आनीचे करी दईए छीएरू० १२५ पाटणनिवासी झवेरी मोहनलाल मोतीचन्दनी सुपुत्री बहेन केसरबहेन तरफथी. रू० १२५ पाटणनिवासी झवेरी हेमचन्द मोहनलालनी सुपत्नी बहेन हीराबहेन तरफथी. रू० १०० पाटणनिवासी झवेरी भोगीलाल मोहनलालनी सुपत्नी बहेन मणीबहेन तरफथी. रू० १०० पालनपुरनिवासी परीख मणीलाल सूरजमलनी सुपत्नी बहेन ताराबहेन तरफी. रू० १०० पाटणनिवासी शा. भीखाभाई त्रिभुवनदासनी विधवा बाई मणीना टूम्टीओ तरफी हस्ते शा० भीखाचंद साकरचंद सोनी. रू० ५० पालनपुरनिवासी परीख. डाह्याभाई सूरजमलनी सुपनी बहेन जासुदबहेन तरफथी. रू० ५० अमदावादनिवासी झवेरी मणीलाल मोहनलालनी सुपत्नी बहेन गुलाबबहेन. रू० ५० पाटणनिवासी झवेरी भोगीलाल लहेरचन्दनी सुपत्नी बहेन चम्पाबहेन तरफथी. उपर अमे जेमनां पवित्र नामोनो उल्लेख को छे ते सौनो धन्यवादपूर्वक पुनः एक वार आभार मानीए छीए. निवेदकवल्लभदास त्रिभुवनदास गांधी. सेक्रेटरी श्रीजैन आत्मानंद सभा, भावनगर, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | 040 कर्मग्रन्थोनुं प्रकाशन. अमारुं नवीन संस्करण - प्रस्तुत सटीक चार कर्मग्रन्थोनी वे आवृत्तिओ थई चूकी छे. प्रथम आवृत्ति भावनगर जैनधर्मप्रसारकसभाए मुंबई निर्णयसागर प्रेसमां प्रत आकारे छपावीने प्रसिद्ध करी हती. तेनुं संपादन पं० श्रीमान् आनन्दसागरगणिए कर्यु हतुं, अने ते करी कर्मग्रन्थना जिज्ञासुओनी जिज्ञासाने सौ पहेलां तेओश्रीए ज पूर्ण करी हती. त्यार बाद केटलांएक वर्ष वीत्या पछी प्रथम आवृत्तिनी नक्कलो न मळवाने लीधे बीजी आवृत्तिनुं संपादन प्रत आकारे ज पं० श्रीयुत प्रतापविजयजीए मुक्तिकमलमोहनजैन ग्रन्थमाला तरफथी कर्यु हतुं आ रीते आ कर्मग्रन्थोनी बे आवृत्तिओ थई जवा छतां आजे तेनी एक पण नक्कल नहि मळी शकवाने कारणे, तेम ज केटलाएक कर्मग्रन्थना अभ्यासीओनी नवीन संस्करणमाटेनी सूचनाने ध्यानमां लई अमे आ श्रीजुं संस्करण हाथ धर्युं छे. अमारा संस्करणनी विशेषता - पहेली आवृत्तिना संपादनमां शुद्धिपत्रक आपवा छतां मां घणीए विशिष्ट अशुद्धिओ रही गयेली, जेनुं शुद्धिपत्रक केटलाक समय पहेलां भावनगर जैनधर्मप्रसारकसभाए ज बहार पाडेलं, तेम छतां य केटलीए विशिष्ट अशुद्धिओ रही जवा पामी हती. बीजा संस्करणमां पण उपरोक्त अशुद्धिओनुं संशोधन थई शक्युं नथी. ए बधीए अशुद्धिओनुं संशोधन अमे अमारी प्रस्तुत आवृत्तिमां सावधानपणे करवा बनतो प्रयत्न कर्यो छे. २ प्रस्तुत ग्रन्थना संपादनमा अमे वे प्राचीन ताडपत्रीय प्रतो अने त्रण प्राचीन काळनी प्रतोनो उपयोग करी एनुं संशोधन घणी ज प्रामाणिक रीते कयुं छे, अने साथै साथै केटलाक विशिष्ट पाठभेदो पण आप्या छे. ३ प्रथमनी वे आवृत्तिओमां टीकाने सळंग रीते छापवामां आवी छे, ज्यारे आ आवृत्तिमा ठेकठेकाणे पेरेग्राफ पाडी ते ते विषयोने छूटा पाडवामां आव्या छे. ४ टीकाकारे ठेकठेकाणे प्रमाण तरीके जे अनेक शास्त्रीय पाठो उद्धर्या छे ए बधा कया मन्थना छे ए शोधीने ज्यां सुधी मेळवी शक्या त्यां सुधी ते ते ग्रन्थनां मूळ स्थळोने नोवा यत्न कर्यो छे. अने ते ते मूळ ग्रन्थ साथै सरखावतां जे पाठभेदो जणाया छे तेने अमे टिप्पणमां आप्या छे. आधी अमे कर्मप्रन्थना अभ्यासीओने ते ते प्रन्थमा रहेला कर्मप्रन्थविषयक विविध विचारोने अवगाहवानी सुगमता करी आपी छे. ५ टीकामां जे प्रन्थ अने प्रन्थकार विगेरेनां नामो आवे छे ए वाचकोना लक्ष्यमां एकदम आवे ते माटे ते नामो अमे स्थूलाक्षर ( ब्लॅक टाइप ) मां आप्यां छे.. 2 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रस्तुत संपादनमां ग्रन्थने अन्ते छ परिशिष्टो आपवामां आव्यां छे. जेमांना पहेला परिशिष्टमां टीकाकारे प्रमाण तरीके उद्धरेल शास्त्रीय पाठो, गाथाओ अने श्लोक विगेरे अकारादि क्रमथी स्थलनिर्देशपूर्वक आपवामां आव्या छे. बीजा अने त्रीजा परिशिष्टमां अनुक्रमे कर्मग्रन्थनी टीकामां आवता ग्रन्थ अने ग्रन्थकारोनां नामोनो क्रम आपवामां आव्यो छे. चोथा परिशिष्टमां प्रस्तुत कर्मग्रन्थ अने तेनी टीकामां आवता कर्मप्रन्थविषयक पारिभाषिकशब्दो के जेनी व्याख्या मूळमां तेम ज टीकामां आपवामां आवी छे तेनो स्थलनिर्देशपूर्वक कोश आपवामां आव्यो छे. पांचमा परिशिष्टमां कर्मप्रन्थनी टीकामां आवता पिण्डप्रकृतिसूचक शब्दोनो कोष आपवामां आव्यो छे. अने छट्ठा परिशिष्टमां वर्तमानमा उपलब्ध थता श्वेताम्बर-दिगम्बर संप्रदायना कर्मविषयक समन साहित्यनी नोंध आपवामां आवी छे. कर्मग्रन्थोनुं महत्व । जैन साहित्यमा कर्मग्रन्थोनु केटलु उच्च स्थान छे ए माटे आ ठेकाणे एटलं ज कहेQ बस थशे के-जैन दर्शन ए काल स्वभाव आदि पांचे कारणोने मानवा छतां एणे अमुक वस्तुस्थिति अने दर्शनान्तरोनी मान्यताओने ध्यानमा लई कर्मवाद उपर कांइक वधारे भार मूक्यो छे. एटले जैनदर्शन अने जैन आगमोनुं यथार्थ अने संपूर्ण ज्ञान कर्मतत्त्वने जाण्या सिवाय कोई पण रीते थई शकतुं नथी. अने ए विशिष्ट ज्ञान मेळववा माटेनुं प्रारम्भिक मुख्य साधन कर्मग्रन्थो सिवाय बीजं एक पण नथी. कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह आदि कर्मसाहित्यविषयक विशाल अने दरिया जेवा ग्रन्थोमा प्रवेश करवामाटे कर्मग्रन्थोनो अभ्यास अतिआवश्यक होई कर्मग्रन्थोनुं स्थान जैन साहित्यमा अतिगौरवमयु छे. कर्मग्रन्थोनो परिचय । आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पांच कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे, ते पैकीना चार कर्मप्रन्थोने आ विभागमा प्रकाशित करवामां आवे छे, तेम छतां आ ठेकाणे आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना पांचे कर्मग्रन्थोनो परिचय आपवामां आवे छे. नाम-आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए जे पांच कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे तेनां नाम अनुक्रमे आ प्रमाणे छे-कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति अने शतक. आ नामो ग्रन्थनो विषय अने तेनी गाथासंख्याने लक्ष्यमा राखीने ग्रन्थकारे पाडेला छे. पहेलां त्रण नामो ग्रन्थना विषयने ध्यानमा राखीने पाडवामां आव्यां छे, ज्यारे षडशीति अने शतक ए वे नाम ते ते कर्मप्रन्थनी गाथासंख्याने अनुलक्षीने पाडवामां आव्यां छे. चोथा कर्मपन्थनी गाथा ८६ छे माटे तेनुं नाम षडशीति राखवामां आव्युं छे अने पांचमा कर्मग्रन्थनी गाथा १०० छे माटे तेनुं नाम शतक राखवामां आव्युं छे. आ रीते पांचे कर्मग्रन्थनां जुदा जुदां नाम होवा छतां अत्यारे सामान्य जनता आ कर्मग्रन्थोने पहेलो कर्मप्रन्थ, बीजो कर्मपन्थ, बीजो कर्मग्रन्थ ए नामथी ज ओळखे छे. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ भाषा अने छन्द — सामान्य रीते जैन संस्कृतिए प्राकृतभाषा अने आर्याछन्दने मुख्य स्थान आप्युं छे एटले ते संस्कृतिना अनुयायिओए पोतानी मौलिक अने महत्वभरी दरेक कृतिओने प्राकृतभाषामा अने आर्याछन्दमां ज बद्ध करी छे. ते ज रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनी रचना पण प्राकृतभाषामां अने आर्याछन्दमां ज करी छे. विषय - १ पहेला कर्मग्रन्थ तरीके ओळखाता कर्मविपाक नामना कर्मग्रन्थमां ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मों, तेना भेद-प्रभेदो अने तेनुं स्वरूप अर्थात् बिपाक अथवा फळनुं वर्णन दृष्टान्त पूर्वक करवामां आव्युं छे. २ बीजा कर्मस्तव नामना कर्मग्रन्थमां श्रमण भगवान् महावीरनी स्तुति करवा द्वारा ate गुणस्थानोतुं स्वरूप अने ए गुणस्थानोमां प्रथम कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मोनी प्रकृतिओ पैकी कई कई कर्मप्रकृतिओनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय छे एनुं निल्यम करवामां आव्युं छे. ३ त्रीजा बन्धस्वामित्व नामना कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने आश्री जीवोना कर्मप्रकृतिविषयक बन्धस्वामित्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. बीजा कर्मप्रन्थमां गुणस्थानोने श्रीने बन्धनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ज्यारे आ कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने ध्यानमा राखी बन्धस्वामित्वनो विचार करवामां आव्यो छे. ४ चोथा षडशीति नामना कर्मग्रन्थमां जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव अने सङ्ख्या ए पांच विभाग पाडीने तेनुं विस्तारथी विवेचन करवामां आव्युं छे. आ पांच विभाग पैकी ॠण विभाग साथे बीजा विषयो पण वर्णववामां आव्या छे. (क) जीवस्थानमा गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ आठ विषयो चर्चवामां आव्या छे. (ख) मार्गणास्थानमां जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या अने अल्पबहुत्व ए छ विषयो वर्णव्या छे. अने (ग) गुणस्थानमां जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ नव विषयो वर्णव्या छे, पाछला बे विभागो अर्थात् भाव अने सङ्ख्यानुं वर्णन कोई विषयथी मिश्रित नथी. ५ पांचमो शतक नामनो कर्मग्रन्थ जो के आ विभागमां प्रकाशित करवामां नधी आव्योम छतां प्रसङ्गोपात तेना विषयनो निर्देश करी देवो अनुचित नहि ज गणाय. आ कर्मप्रन्थमा, पहेला कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मप्रकृतिओ पैकीनी कई कई प्रकृतिओ भुवबन्धिनी, अभ्रुवबन्धिनी, भुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्व-देशघाती, अघाती, पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्त्तमानप्रकृति अने अपरावर्तमान प्रकृतिओ छे एवं निरूपण करवामां आव्युं छे. ते पछी उपरोक्त प्रकृतिओ पैकीनी कई कई कर्मप्रकृतिओ क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी अने पुद्गलविपाकी छे एवं विभागवर वर्णन करवामां आव्युं छे. आ पछी उपरोक्त कर्मप्रकृतिओना प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध अने प्रदेशबन्ध ए चार प्रकारना बन्धनुं स्वरूप अने ते समजमां आवे ते माठे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मोदकनुं दृष्टान्त कहेवामां आव्युं छे. आटलं कह्या बाद कयो जीव कई कई जातना बन्धनो स्वामी होय छे ए कहेवामां आव्युं छे अने छेवटे उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनुं विस्तृत स्वरूप वर्णवामां आव्युं छे. आ मुख्य विषयो सिवाय आ कर्मग्रन्थमां ध्रुवबन्धिनी आदि प्रकृतिओने आश्रीने साधनादि भांगाओनुं निरूपण विगेरे अवान्तर अनेक विषयो प्रन्थकारे वर्णवेला छे. आधार-आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए पांच कर्मग्रन्थनी रचना करी ते पहेलां आचार्य श्रीशिवशर्म-श्रीचन्द्रर्षिमहत्तर विगेरे जुदा जुदा पूर्वाचार्यों द्वारा जुदे जुदे समये मी कर्मविषयक छ प्रकरणोनी अथवा बीजा शब्दमां कहीए तो छ कर्मग्रन्थोनी रचना थई चूकी हती. ए ज छ कर्मग्रन्थो पैकीना पांच कर्मग्रन्थोने आधाररूपे पोतानी नजर सामे राखी आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे अने तेथी आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थोने "नव्यकर्मग्रन्थ " तरीके ओळखवामां आवे छे. नव्यकर्मग्रन्थोनी प्राचीनकर्मग्रन्थो साथे तुलना - आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए जे नव्यकर्मग्रन्थोनी रचना करी छे ए उपर जणाववामां आव्युं तेम स्वतन्त्र नयी पण प्राचीनकर्मग्रन्थोने आधारे करवामां आवी छे. ए रचनामां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए मात्र प्राचीन कर्मग्रन्थोना आशयने ज लीधो छे एम नधी पण नाम, विषय, वस्तुने वर्णववानो क्रम विगेरे दरेके दरेक बाबतमाटे तेमणे तेना आदर्शने पोतानी नजर सामे राख्यो छे ए आपणे एमना कर्मग्रन्थो अने प्राचीनकर्मग्रन्थोना तुलनात्मक निरीक्षण द्वारा समजी शकीए छी.. नाम अने विषय -- प्राचीन कर्मग्रन्थोनां नामो अने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थोनां नामोमां लगभग समानता ज छे. जेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना प्रथम कर्मग्रन्थ कर्मविपाक नामर्थ ओळखवामां आवे छे तेम ते ज विषयने चर्चता प्राचीन कर्मग्रन्थविषयक प्रकरणने कर्मविपाक नामधी ज ओळखवामां आवे छे. आ रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य कर्मग्रन्थोनां जे नामो आप्यां छे ते प्राचीन कर्मविषयक प्रकरणो, जेने आधारे तेमणे पोताना नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे, तेने आधारे ज आप्यां छे. Tata कर्मग्रन्थ पैी बीजा अने चोथा कर्मग्रन्थना नाममां दृश्य रीते सहज फरक नजरे आवे छे, तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोने जे नामथी ओळ - खाबेल छे ते नामथी एटले के कर्मस्तव अने षडशीति ए नामथी प्राचीन बीजा अने चोथा कर्मग्रन्थने ओळखवामां आवता तो हता ज. प्राचीन बीजा कर्मग्रन्थने तेना कर्ताए मङ्गलाचरणमा बन्धोदयसयुक्तस्तव एवं नाम १ नमिऊण जिणवरिंदे तिहुयणवरनाणदंसणपईवे । बंधुदयसंतजुत्तं वोच्छामि थयं निसामेह ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्युं छे तेम छतां टीकाकार श्रीगोविन्दाचार्ये पोतानी टीकाना प्रारंभमां अने अन्तमां एनुं नाम कर्मस्तव ज लीधुं छे. आ उपरथी एम लागे छे के मूळग्रन्थकारे पोताना प्रकरणमां बन्धोदयसधुक्तस्तव एवं नाम आपवा छतां ए नाम बोलवू के याद राखq जनसामान्यने अगवडकर्ता थई पडे ते माटे उपरोक्त नामने टुंकावी कर्मस्तव एबुं बीजं नाम आप्यु होय अथवा टीकाकारे ए नाम टुंकाव्यु होय, गमे तेम हो, पण बीजा कर्मग्रन्थy कर्मस्तव ए नाम पहेलेथी रूढ तो हतुं ज. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसरि तो पोताना जीजा कर्मग्रन्थना अन्तमा बीजा कर्मग्रन्थने कर्मस्तव ए नामथी ज ओळखावे छे. प्राचीन चोथा कर्मग्रन्थने पडशीति अने आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण ए बे नामथी ओळखवामां आवे छे. मूळ प्रकरणकारे मूळमां प्रकरणना नामनो उल्लेख कों नथी एटले वर्तमानमा प्रचलित उपरोक्त बे नाम प्रन्थकारनी कल्पनामां हशे के केम ? ए कही शकाय नहिं; तेम छतां आ कर्मग्रन्थना टीकाकार आचार्य श्रीमान् मलयगिरि अने वृद्धगच्छीय आचार्य श्रीहरिभद्रसुरिए चोथा कर्मग्रन्थनी गाथासङ्ख्या अने विषयने ध्यानमा लई उपरोक्त वन्ने य नामोनो निर्देश कर्यो छे. एटले ए नामो आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि पहेला हतां ज एम मानवाने प्रबल कारण छे. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि तो पोताना नव्य चतुर्थ कर्मग्रन्थने षडशीति ए नामथी ज ओळखावे छे. __जेम प्राचीन कर्मग्रन्थोनां नाम गाथानी सङ्ख्या तेम ज विषयने लक्ष्यमा राखीने पाडवामां आव्यां छे तेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रमूरिए पोताना कर्मग्रन्थोने माटे ए ज पद्धति स्वीकारी छे. चोथो अने पांचमो कर्मग्रन्थ तेमनी संक्षेप रचनापद्धति अनुसार टुंकाई जवा छतां नवीन विषयो उमेरीने पण गाथासङ्ख्यानुसार पाडेलां प्राचीन नामोने कायम राखवा तेमणे यत्न कर्यो छे जे आपणे आगळ उपर जोईशं. विषय अने वस्तुवर्णननो क्रम-प्राचीन कर्मग्रन्थकारे पोताना कर्मग्रन्थोमा जे जे विषयो वर्णव्या छे अने तेना वर्णननो जे क्रम राख्यो छे, लगभग ते ज विषयो अने तेना वर्णननो क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोमा राख्यो छे. कर्मग्रन्थोनो क्रम-उपर जणाववामां आव्यु तेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी ते अगाउ आचार्य श्रीशिवशर्म विगेरे जुदा जुदा आचार्यों द्वारा छ कर्मग्रन्थोनी रचना थई चूकी हती. तेम छतां अत्यारे छ कर्मग्रन्थोने कर्मविपाक कर्मस्तव विगेरे जे क्रममा गोठववामां आवे छे ए क्रम प्राचीन नथी पण अर्वाचीन छे. अर्वाचीन एटले आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी त्यारनो. प्राचीन कर्मबन्धोदयोदीर्यासत्तावैचित्र्यवेदिनम् । कर्मस्तवस्य टीकेयं नत्वा वीरं विरच्यते ॥ २ इति श्वेतपटाचार्यगोविन्दगणिना कृता । कर्मस्तवस्य टीकेयं देवनागगुरोर्गिरा ॥ ३ देविंदसूरिलिहियं नेयं कम्मस्थयं सोउं ॥ ४ प्रणम्य सिद्धिशास्तारं कर्मवैचित्र्यवेदिनम् । जिनेशं विदधे वृत्तिं पडशीतेर्यथागमम् ॥ ५ मत्वा जिनं विधाये विकृति जिमवल्लभप्रणीतस्य । आगमिकवस्तुविस्तरविचारसारप्रकरणस्य ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कर्मग्रन्थोनी रचना कोई एक आचार्यनी कृति के समकाले थयेल आचार्योनी कृति नधी, पण सैकाओने गाळे थयेल जुदा जुदा आचार्योनी ए कृतियो छे. एटले अत्यारे कर्मग्रन्थोने जे sant अर्थात् कर्मविपाक पहेलो कर्मग्रन्थ, कर्मस्तव बीजो कर्मग्रन्थ एम छए कर्मग्रन्थोने नम्बर बार गोठवायेला आपणे जोईए छीए ए क्रम कर्मविषयने लगता ज्ञाननी सगवडताने लक्षीने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए गोठवेलो लागे छे, मौलिक नथी. प्राचीन कर्मग्रन्थो पैकीनो शतक कर्मग्रन्थ आचार्य श्रीशिवशर्मसूरिनी कृति छे ज्यारे सप्ततिका कर्मग्रन्थ श्रीचन्द्रर्षिमहत्तरनी रचना छे, कर्मविपाक ए श्रीमर्षिमहर्षिनी कृति छे त्यारे आगमिकवस्तुविचारसार उर्फे षडशीति कर्मग्रन्थ ए श्रीमान् जिनवल्लभगणिनी रचना छे. वीजा त्रीजा कर्मन्थना प्रणेता कोण ? ए संबंधे कशो उल्लेख मळी शकतो नथी, तेम छतां अमने एम लागे छे के कर्मविपाकनी रचना थया पछी आ बे कर्मग्रन्थोनी रचना थई होबी जोईए. आ रीते एकंदर जोतां विक्रमना त्रीजा के चोथा सैकाथी लई विक्रमनी बारमी सदी सुधीमा थयेल जुदा जुदा आचार्यो द्वारा आ कर्मग्रन्थोनी रचना उत्क्रमणी ज करायेल होई अत्यारे चालतो कर्मग्रन्थोनो क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना नव्यकर्मग्रन्थो रचाया पछी ज रूढ थवानो संभव वधारे छे. अने अमारी मान्यता मुजब कर्मग्रन्थोनो अत्यारे प्रचलित क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिथी ज चालु थयो होवो जोईए. घता ए नव्य कर्मग्रन्थोनी विशेषता - प्राचीन कर्मग्रन्थकार आचार्योए पोताना कर्मथोमा जे विषयो वर्णवेला छे ते ज विषयो नव्यकर्मप्रन्थकार आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मप्रथोमा वर्णवेला छे. तेम छतां आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थोमां विशेके प्राचीन कर्मग्रन्थकारोए जे विषयोने अतिस्पष्ट रीते, परन्तु एटला लांबा करी वर्णव्या छे, जे सामान्य रीते कण्ठस्थ करनार अभ्यासीओने अतिकंटाळो आपे; त्यारे तेज विषयोने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्ममन्थोमां एक पण बिषयने पडतो मूक्या सिवाय, एटलं ज नहि पण वीजा अनेक विषयोने उमेरीने, दरेक अभ्यासी सहजमां समजी शके एवी स्पष्ट भाषापद्धतिए अतिसंक्षेपथी प्रतिपादन कर्या छे, जेनो अभ्यास करवामां अने याद करवामां तेना अभ्यासीओने अतिश्रम के कंटाळो न लागे. प्राचीन कर्मग्रन्थोनी गाथासङ्ख्या अनुक्रमे १६८, ५७, ५४, ८६ अने १०२ नी छे ज्यारे नव्य कर्मग्रन्थोनी गाथासङ्ख्या अनुक्रमे ६०, ३४, २४, ८६ अने १०० नी छे. चोथा अने पांचमा कर्मग्रन्थोनी गाथासत्या प्राचीन कर्मग्रन्थोना जेटली जोई कोईए एम न मानी लेवु के - 'प्राचीन चोथा अने पांचमा कर्मग्रन्थ करतां नव्य चतुर्थ पचम कर्मप्रन्थोमां शाब्दिक फरक सिवाय बीजुं कांइ ज नहि होय.' किन्तु आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य कर्मग्रन्थोमां प्राचीन कर्मग्रन्थोना विषयोने जेटला टुंकावी शकाय तेटला काव्या पछी, तेना षडशीति अने शतक ए बे प्राचीन नामोने अमर राखवाना इरादायी कर्ममन्थना अभ्यासीओने अति मददगार थई शके एवा विषयो उमेरीने ड्यासी अने Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सो गाथा पूर्ण करी छे. चोथा कर्मप्रन्थमां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए भेद-प्रभेदो साथै छ भाबोनुं स्वरूप अने भेद-प्रभेदना वर्णन साथै सङ्ख्यात, असङ्ख्यात अने अनन्त ए प्रण कानी माओ स्वरूप वर्णव्युं छे. अने पांचमा कर्मग्रन्थमां उद्धार, अद्धा अने क्षेत्र ए ऋण प्रकारना पल्योपमोनुं स्वरूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार प्रकारना सूक्ष्म अने बादर पुगलपरावर्तोनुं स्वरूप तेम ज उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनुं स्वरूप विगेरे अनेक नवीन विषयो उमेर्या छे. आ रीते प्राचीन कर्मग्रन्थो करतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत नव्य कर्मग्रन्थोमां खास विशेषता ए रहेली छे के प्रस्तुत प्रकाशित कराता कर्मग्रन्थमां प्राचीन कर्ममन्थोना प्रत्येक विषयनो समावेश होवा छतां तेनुं प्रमाण अति नानुं छे अने ते साथै एमां नवा अनेक विषयो संघरवामां आव्या छे. कर्मग्रन्थो -- -उपर अमे जणावी आव्या ते मुजब प्राचीन अने नवीन एम वे प्रकारना कर्मप्रन्धो सिवाय विक्रमनी पंदरमी शताब्दीमां थयेल आगमिक आचार्य श्रीजयतिलकसूरिए संस्कृत कर्मग्रन्थोनी पण रचना करी छे. तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना नव्य कर्मग्रन्थोनुं ज जनसाधारणमां गौरव अने प्रायता बधी पडयां छे, अने आज सुधी जनतामा ए ज अव्यवछिन्न रीते प्रचार पामी रह्या छे. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थो एटले सुधी काम कयुं छे के अत्यारे थोडा एक गण्या गांठ्या विद्वानो सिवाय भाग्ये ज कोई जाणतुं हशे के – आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मप्रन्थो सिवाय बीजा प्राचीन कर्मग्रन्थो पण छे जेने आधारे आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्ममन्थोनी रचना करी छे. नव्य कर्मग्रन्थोनी टीका-आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य पांचे कर्मप्रन्थो उपर स्वोपज़ टीका रची हती तेम छतां श्रीजा कर्मग्रन्थनी टीका आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना समय पछी तरत ज गमे ते कारणे नाश पामी गई होवाथी ते पछीना आचार्योंने मळी शकी नथी; एटले तेनी पूरवणी करवा माटे कोई विद्वान् आचार्यश्रीए नवीन अवचूरिरूप टीको रचीछे जेमनुं नाम टीकामां निर्दिष्ट नथी. अमारा प्रस्तुत विभागमां नव्य पांच कर्मग्रंथ पैकीना पहेला चार कर्मग्रंथो सटीक, अर्थात् पहेलो वीजो अने चोथो स्वोपज्ञ टीका साथै अने त्रीजो उपरोक्त अन्यआचार्यकृत अवचूरी साधे, प्रसिद्ध करवामां आवे छे. टीकानी रचनाशैली -- आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिनी टीका रचवानी शैली एवी मनोरंजक छे के - मूळ गाथाना कोई पण पद के वाक्यनुं विवेचन रही जवा पाम्युं नथी, एट ज नहि पण जे पदार्थने विस्तारपूर्वक समजाववानी जरूरत होय तेनुं ते प्रमाणे निरूपण करवामां आव्युं छे. आ सिवाय प्रस्तुत टीकामां एक ए पण विशेषता जोवामां आवे छे के १ जुभ शतक गाथा २५ मीनुं अवतरण - " मार्गणास्थानकान्याश्रित्य पुनः स्वोपज्ञबन्ध स्वामित्वटीकार्या विस्तरेण निरूपितस्तत अवधारणीय इति ।" २ जुओ ए टीकार्नु अन्तिम पद्य "wagrata टीकाsभूत् परं क्वापि न साऽऽप्यते । स्थानस्याशुन्यता हेतोरतो ऽ लेख्यवचूरिका || Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार जे पदार्थ- विवेचन करे छे ते पदार्थने वधारे स्पष्ट अने मजबूत करवामाटे आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका अने पूर्वमहर्षिविरचित प्रकरणग्रन्थोमांथी ते ते विषयने लगतां प्रमाणो टांकी दे छे. कोई कोई ठेकाणे तो दिगंबर, पुराण बौद्ध अने आयुर्वेदविषयक शास्त्रोनां प्रमाणो मूकी ते ते पदार्थोने सप्रमाण सिद्ध कर्या छे. आ प्रमाणे नव्य कर्मग्रन्थोनी आ टीका एटली तो विशद, सप्रमाण अने कर्मतत्त्वना विषयथी भरपूर छे के एने जोया पछी प्राचीन कर्मग्रन्थो अने तेनी टीका टिप्पणी विगेरे जोवानी जिज्ञासा लगभग शांत थई जाय छे. टीकानी भाषा सरळ, सुबोध अने हृदयंगम होवाथी पठन पाठन करनार सरलताथी कर्मतत्त्वना विषयने प्राप्त करी शके छे. जो के आ टीकामां घणे ठेकाणे अनुयोगद्वार, नंदी अने प्राचीन कर्मग्रन्थ विगैरेनी टीकाना अक्षरशः संदर्भोना संदर्भो नजरे पडे छे पण तेटला मात्रथी अद्भुत अने अपूर्व संग्रह तरीके आ टीकार्नु गौरव कोई पण रीते खंडित थतुं नथी. आ विभागमा आवेल सटीक चार कर्मग्रंथोनुं प्रमाण ५९३८ श्लोक अने २८ अक्षर छे. कर्मविषयक साहित्य-जैनधर्म मुख्यपणे कर्मसिद्धान्तने माननार होई तेनी श्वेतांबर अने दिगंबर ए बन्ने य शाखामां थयेल स्थविरोए अने विद्वान् आचार्यवर्योए जे विधविध प्रकारना विपुल ग्रन्थोनी रचना करी छे ए समग्र साहित्यनो अध्ययन दृष्टिए तेम ज तुलनात्मक पद्धतिए अभ्यास करवा इच्छनारने उपयोगी थाय ते माटे प्रस्तुत प्रकाशनने अंते उपलभ्यमान समग्र कर्मविषयक साहित्यनो परिचय आपनार एक परिशिष्ट आप्यु छे. आ परिशिष्ट जोवाथी दरेकने ए पण ख्यालमां आवशे के--अगाध प्रतिभाशाली जैनाचार्योए कर्मविषयक साहित्यने विधविध रीते केटला विशाळ प्रमाणमां खेड्युं छे ?. ग्रन्थकारनो परिचय. १ ग्रन्थकर्ता-स्वोपज्ञटीकायुक्त नव्य पांच कर्मग्रन्थना प्रणेता बृहनतपागच्छीय श्रीमान् जगचंद्रसूरिजीना शिष्य श्रीदेवेन्द्रसूरि छे, ए वात प्रत्येक कर्मग्रन्थनी प्रशस्ति गुर्वावली गुरुगुणरत्नाकरकाव्य आदि अनेक ग्रन्थोना आधारे निर्विवाद रीते सिद्ध छे. २ समय-श्रीदेवेन्द्रसूरिनो स्वर्गवास विक्रमसंवत् १३२७ मां थयानो उल्लेख गुर्वावलीमा स्पष्ट रीते मळे छे. ए उपरथी एमनो समय लगभग विक्रमनी तेरमी शताब्दी- उत्तरार्द्ध अने चौदमी शताब्दीनो प्रारंभ कही शकाय. एमना जन्म, दीक्षा, सूरिपदप्रतिष्ठा आदिना समयनो उल्लेख कोई पण स्थळेी मळी शकतो नथी, तेम छतां श्रीमान् जगञ्चन्द्रसूरिए क्रियाउद्धार को ते समये तेओश्री दीक्षित अवस्थामा होवानो संभव छे. श्रीमान् जगञ्चन्द्रसूरिए तपागच्छनी स्थापना करी त्यार बाद श्रीदेवेन्द्रसूरि अने श्रीविजयचन्द्रसूरिने सूरिपद समर्पण कर्यानुं वर्णन गुर्वावलीमां आवे छे. , पत्र-१२ श्लोक-११७ जुओ. २ पत्र-८ श्लोक-४० जुओ. ३ पत्र १६ श्लोक १४७ जुओ. ४ पत्र. "श्लोक १०७ जुमओ. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए उपरथी प संभावना थई शके के--संवत् १२८५ पछीना कोई पण संवतमां तेमने सरिषद अपायुं हशे. सूरिपद प्रहण समये श्रीदेवेन्द्रसूरि बय, श्रुत, संयम आदि दरेक बाबतमां अतिप्रौढ अने परिणत होवा जोईए. नहि तो अत्यन्त जोखमबार सूरिपदवी अने खास करीने वाजेतरमा ज क्रियाउद्धार करनार तथा उप्र तपश्चर्या करी तपाविहद मेळवनार श्रीमान् जगचन्द्रसूरिगुरुना गच्छनायक पदना भारने तेओ शी रीते संभाची शके ?. श्रीदेवेन्द्रसूरिने गच्छना कार्यमा सहायभूत थाय तथा गच्छर्नु संरक्षण थई शके एषा हेतुची अने श्रीमान देवभद्रगणिना उपरोधथी श्रीमान् जगञ्चन्द्रसूरिए भी विजयचन्द्रने सूरिपर अर्पण कर्यु हतुं ए वर्णन गुर्वावलीमा छे. आ उपरथी ए वात तरी आवे छ केश्रीदेवेन्द्रसूरिनी आचार्यपदवी थया बाद श्रीविजयचन्द्रने सूरिपदवी आपवामां आवी हती. __ श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए उज्जयिनीनगरीना रहेवासी श्रेष्ठी जिनचन्द्रना पुत्र वीरधवलने जे वखते तेना लग्न निमित्ते महोत्सव थई रह्यो हतो अने लग्न करवानी तैयारी चालती हती ते वखते प्रतिबोध करी तेना पिता जिनचन्द्रनी सम्मति लई संवत् १३०२ मा दीक्षा आपी हती. त्यार बाद तेमने गुजरात देशना प्रह्लादनपुर (पालनपुर) नामना. नगरमा महोत्सवपूर्वक संवत् १३२३ मां सूरिपदवी अर्पण करी हती, जेओ श्रीविद्यानन्दसूरि ए नामथी प्रसिद्ध थया. श्रीदेवेन्द्रसूरिना जन्म, दीक्षा अने सूरिपदवी विगेरेना समयनो निश्चय नथी तो पण तेओश्री तेरमी शताब्दीना पश्चार्द्धमां अने चौदमी शताब्दीना प्रारंभमां विद्यमान हता ए निर्विवाद छे. ३ जन्मभूमि जाति आदि-श्रीदेवेन्द्रसूरिनो जन्म कया देशमा अने कर्य जातिमां थयो हतो ए विगेरेमाटेना उल्लेखो के प्रमाण आज सुधीमां उपलब्ध थयां नथी. गुर्वावलीमा तेओश्री- जे जीवनवृत्तान्त छे ते घणु संक्षिप्त अने अपूर्ण छे. एमां मात्र सूरिपद ग्रहण कर्या पछीनी केटलीएक बीनाओनुं ज वर्णन करेलुं छे नहि के संपूर्ण. तेम ज तेओश्रीनुं जीवनवृत्तांत ज्या ज्यां आवे छे ए बधुंये अधुरं ज देखाय छे. एटले तेओमीना जन्मस्थान, जाति, माता पिता आदि माटे आपणे कशुंज कही शकता नथी. मात्र गुर्वावली विगेरेना आधारे एटलुं जोई शकाय छे के-तेओश्रीनो विहार मोटे भागे माळवा अने गुजरातमा ज थयो छे. आ उपरथी कदाच संभावना करी शकाय के-तेोत्रीनो जन्म गुजरात के माळवा आ बे देशोमांथी कोई पण एक देशमा थयो होय. आथी आगठ वधी जन्म, जाति, माता पिता विगेरे माटे कशुं ज कही शकाय तेम नथी. ४ विद्वत्ता-श्रीमान देवेन्द्रसूरिना प्राकृत अने संस्कृत भाषाना ग्रंथो जोता तेमाची एक असाधारण प्रतिभाशाळी अने जैनसिद्धान्तना तेम ज दर्शनशास्त्रना पारंगत विद्वान पन्न ११ श्लोक १०७ जुओ. २ पत्र-१२ श्लोक-१२४-१२५ जुओ. ३ गुर्वावली पत्र-१५ लोक १५६ श्री १५६ शुभओ. ३ गुर्वावली पत्र-१६ लोक-१६४ जुओ. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ हता एमां सहज पण संदेह नथी. ए बाबतनी साक्षी तेओश्रीना निर्माण करेला प्रथो ज पूरी पाडे छे. तेओश्री अद्भुत व्याख्यानशक्ति धरावता होवाथी तेमना धर्मोपदेशने प्रतिभासंपन्न वस्तुपाल जेवा मंत्रिओ अने अनेक ब्राह्मण पण्डितो घणा ज रसपूर्वक श्रवण करता हता ए बाबतनो उल्लेख गुर्वावलीमा स्पष्ट पणे मळे छे. ५ चारित्र - श्रीमान् देवेन्द्रसूरि केवळ विद्वान ज हता एम नहि परन्तु तेजश्री उत्कृष्ट चारित्रधर्मनुं पालन करवामां पण अत्यंत प्रतिज्ञानिष्ठ हता. श्रीमान् जगच्चन्द्रसूरिए अपूर्व पुरुषार्थ खेडी तथा असाधारण त्याग धारण करी जे क्रिया उद्धार कर्यो हतो एनो निर्वाह श्रीमान् देवेन्द्रसूरि अने श्रीविजयचन्द्रसूरि ए बन्ने आचार्योए साथे मळी करवानो हतो; तेम छतां श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए एकलाए ज तत्कालीन शिथिलाचारी आचार्योना प्रभावी असर पोता उपर कोई पण रीते न पडवा देतां श्रीजगञ्चन्द्राचार्यना करेला क्रियाउद्धारने बराबर रीते संभाळी राख्यो अने श्रीविजयचन्द्रसूरि विद्वान् होवा छतां शिथिलाचारी आचार्योना प्रभावमां दबाई जई शिथिल थइ गया. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए तेमने समजाववा माटे पूरतो प्रयत्न कर्यो परन्तु ज्यारे तेओ कोई रीते समज्या नहीं त्यारे पोते शुद्धक्रियारुचि होवाथी एमनाथी जुदा थई गया. श्रीमान देवेन्द्रसूरिनुं चित्त चारित्र - धर्मी एटलुं तो संस्कारी हतुं के तेमने शुद्धक्रियामां परायण जोई अनेक संनिपाक्षिक आत्मार्थी मुमुक्षुओए ए महापुरुषनो आश्रय लीधो हतो. ६ गुरु —- श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना गुरु वृद्धगच्छीय ( क्रियाउद्धार कर्या पछी बृहत् तपागच्छीय) श्रीमान् जगच्चन्द्रसूरि हता. जेमणे पोताना गच्छमां शिथिलता जोई चैत्रवालगच्छीय श्रीमान् देवभद्रउपाध्यायनी मददथी क्रियाउद्धारना कार्यनो आरंभ कर्यो हतो. आ कार्य माटे ते ओश्रीए असाधारण त्यागवृत्ति अने आगमानुसारी शुद्धक्रियाने स्वीकार्यां. शरुआतमां तेमणे छ विकृतिओनो त्याग करी जींदगी सुधी आंबेल तप करवानो नियम स्वीकार्यो अने पोताना शरीर प्रत्येना ममत्वनो सदंतर त्याग कर्यो. आ प्रमाणे अतिकठिन आचामल ( आंबेल ) तपनी तपस्या करतां बार वर्ष व्यतीत थया बाद तेमने “तपा" ए बिरुद मत्र्युं हतुं अने त्यारथी वृद्धगच्छ ए नामने बदले “तपागच्छ" ए नाम प्रव अने ते ओश्री तपगच्छना आद्य पुरुष तरीके प्रसिद्धि पाम्या. गच्छनी परावृत्ति प्रसंगे मंत्रीवर वस्तुपाल विगेरेए हार्दिक भक्तिपूर्वक आ महापुरुषनी सत्कार - सम्मानरूप पूजा करी हती. श्रीमान् जगच्चन्द्रसूरि मात्र तपस्वी ज हता एम नहीं परन्तु अप्रतिम प्रतिभाशाली असाधारण विद्वान् पण हता. जेओए मेदपाट (मेवाड) नी राज्यधानी आघाटमां बत्रीस दिगंबर वादिओनी साथे वाद कर्यो हतो. ए वादमां हीरानी जेम अभेद्य रहेवाथी चितो. डनरेश तरफथी तेमने “हीरला जगच्चन्द्रसूरि" एवं बिरुद मल्युं हतुं. ए महापुरुषने उग्र तपश्चर्या, निर्मलबुद्धि, असाधारण विद्वत्ता अने विशुद्ध चारित्र एज अद्भुत विभूति १ पत्र - १२ श्लोक-११५-११६ जुओ. २ गुर्वा० पत्र - १२ श्लोक-१२२ श्री भगळ एमनुं जीवन जुओ. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ हां. अने एज विभूतिना प्रभावधी ए महापुरुषस्थापित गच्छमां आज सुधी अनेकानेक प्रभावशाली आचार्यो अने श्रावको थई गया छे. ७ परिवार - श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना परिवारनुं प्रमाण केटलं हतुं एनो सत्ताबार खुलास कोई पण ठेकाणेथी मळी आवतो नथी. परन्तु परंपरानी रीति प्रमाणे ते atani draft आज्ञामां विचरतो समग्र यतिसमुदाय एमनो ज परिवार गणाय. गुर्वावलीनो उल्लेख जोतां उपाध्याय श्रीहेमकलशगणि प्रमुख संविद्मपाक्षिक मुनिओ पण तेजश्रीना परिवारमां हता. वीरधवल अने भीमसिंह आ बन्ने भाइओने प्रतिबोधी पोताना शिष्यो कर्यानो उल्लेख पण गुर्वावलीमां मळे छे. तेमां प्रथम शिष्यनुं नाम श्रीविद्यानंदसूरि छे, जेओ जैन आगमना विद्वान हता एटलं ज नहीं पण तेओश्रीए विद्यानंद नामनुं नवीन व्याकरण बनावेलं हतुं ते जोतां तेओ साहित्यादि विविध विषयोमां पण निष्णात हता. तेओनीनुं व्याकरण कोई पण ठेकाणे मळी आवतुं नथी एटले अत्यारे तो ते नामशेष थई गया जेवुं छे. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना बीजा शिष्य आचार्य श्रीधर्मघोषसूरि हता तेओश्री प्रतिभाशील, विद्वान्, विशुद्धचारित्री अने विशिष्ट प्रभावक पुरुष हता. तेमना रचेला संघाचारभाष्य यमकस्तुतिओ विगेरे अनेकानेक ग्रंथो विद्यमान छे. पोताना गुरु आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना रचेला स्वोपज्ञटीकायुक्त नव्य पंच कर्मग्रंथ आदि ग्रन्थोने तेओश्रीए शुद्ध कर्या छे ए उपरथी तेओश्रीनी विद्वत्तानो अने जैनागम विषयक तेमना विशाळ ज्ञाननो पूर्ण परिचय मळी रहे छे. तेओश्रीने एक त साप करड्यो हतो तेथी श्रावक वर्गमां असाधारण गभराट फेलायो. तेने उतारवा माटे श्रावकोनो आग्रह थवाथी तेओश्रीए श्रावको आगळ वनस्पतिनुं नाम जणावी सापनुं झेर उतराव्यं ए अनिवार्य दशामां करावेल वनस्पतिकायना अतिअल्प आरंभने निमित्ते तेओश्रीए जीवन पर्यंत छ ए विकृतिओनो त्याग कर्यो ए उपरथी एमनी जीवनचर्या अने चारित्र केलां उम्र हतां ए स्पष्ट रीते जणाई आवे छे. आ महापुरुषनुं सविस्तर वर्णन जोवा इच्छनारे श्रीमुनिसुंदरसूरि तथा उपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिकृत गुर्वावलीओ अने जैन तत्त्वादर्श जोवां. ८ ग्रंथरचना — श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए प्राकृत - संस्कृत भाषामां बनावेला जे ग्रंथो अत्यारे जोवामां आवे छे तेनी नामावली आ नीचे आपवामां आवे छे. १ श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति. ३ सिद्धपञ्चाशिकासूत्रवृत्ति. ५ सुदर्शनाचरित्र. ७ वन्दारुवृत्ति (वंदितासूत्रटीका). ९ सिद्धदण्डिका. - २ सटीक पांच नव्य कर्मग्रंथ. ४ धर्मरत्नप्रकरण बृहद्वृत्ति. ६ चैत्यवन्दनादि भाष्यत्रय. ८ सिरिउसहबद्धमाणप्रमुखस्तव. १० चत्तारि अट्ठ दस गाथाविवरण. उपरोक्त ग्रंथोमा २-३-४-५-६ - ७-९ अंकोवाळा ग्रंथो जुदी जुदी संस्थाओ तरफथी छपाईने प्रसिद्धिमां आवी गया छे. आ सिवाय जैन ग्रंथावलीमां श्रीदेवेन्द्रसूरिना नामे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीमा पणा अंथो चढेला छे. परंतु ते जुदा जुदा गच्छोमा थवेल बीजा वीजा श्रीदेवेन्द्रसूरि नामना आचार्योए बनावेला छे. प्रतिओनो परिचय. प्रस्तुत विभागनुं संशोधन करवामां अमे पांच प्रतिओनो संग्रह कर्यो छे. ए प्रतिओनी अनुक्रमे क-व-ग-घ-ङ एवी संज्ञा राखवामां आवी छे. तेमां कई प्रतिनी कई संज्ञा छ ? ते कोनी छे ? केवा प्रकारनी छ ? विगेरेनो परिचय वाचकोनी जाण खातर आ ठेकाणे करावबो ए सर्वथा उचित लेखाशे. क अने ख संज्ञकपुस्तको-आ पुस्तको पाटण-संघवीना पाडाना ताडपत्रीय पुलकभंडारनां छे. ए भंडार अत्यारे शा. पन्नालाल छोटालाल पटवानी देखरेख नीचे छे. तेमां क-पुस्तक ताडपत्र उपर लखेलुं छे अने ते सटीक छ कर्मग्रंथोनुं छे तेनां पत्र ३५१ छे. पुस्तकनी लंबाई ३५॥ इंच अने पहोलाई २॥ इंचनी छे. पुस्तकनी दरेक पुंठीमां वधारेमां वधारे ६ पंक्तिओ अने ओछामा ओछी ४ पंक्तिओ छे. प्रतिनी स्थिति घणी सारी छे. ते प्रतिना अंतमा नीचे प्रमाणेनो उल्लेख छ "इति श्रीमलयगिरिविरचिता सप्ततिटीका समाप्ता ॥७॥ ग्रंथाप्रम-३८८०॥छ।। संवत् १४६२ वर्षे माघशुदि ६ भौमे अद्येह श्रीपत्तने लिखितम् ॥७॥ शुभं भवतु ॥ ऊकेशवंशसम्भूतः, प्रभूतसुकृतादरः । वीसीसाण्डउसीग्रामे, सुश्रेष्टी महणाभिधः ॥ १ ॥ मोघीकृताघसङ्घाता, मोघीरप्रतिघोदया। नानापुण्यक्रियानिष्ठा, जाता तस्य सधर्मिणी ॥ २ ॥ तयोः पुत्री पवित्राशा, प्रशस्या गुणसम्पदा । हार्दूरीकृता दोषैर्धर्मकर्मैककर्मठा ॥ ३ ॥ शुद्धसम्यक्त्वमाणिक्यालङ्कतः सुकृतोद्यतः । एतस्या भागिनेयोऽभूदाकाकः श्रावकोत्तमः ॥ ४ ॥ श्रीजैनशासननभोङ्गणभास्कराणां श्रीमत्तपागणपयोधिसुधाकराणाम् । विश्वाद्भुतातिशयराशियुगोत्तमानां श्रीदेवसुन्दरगुरुप्रथिताभिधानाम् ॥ ५ ॥ पुण्योपदेशमथ पेशलसन्निवेशं तत्त्वप्रकाशविशदं विनिशम्य सम्यक् । एतत्सुपुस्तकमलेखयदुत्तमाशा सा श्राविका विपुलबोधसमृद्धिहेतोः ॥ ६ ॥ बाणाङ्गवेदेन्दुमिते १४६५ प्रवृत्ते, संवत्सरे विक्रमभूपतीये। श्रीपत्तनाहानपुरे वरेण्ये, श्रीज्ञानकोशे निहितं तयेदम् ॥ ७ ॥ यावद् व्योमारविन्दे कनकगिरिमहाकर्णिकाकीर्णमध्ये विस्तीर्णोदीर्णकाष्ठातुलदलकलिते सर्वदोजृम्भमाणे । पक्षद्वन्द्वावदातौ वरतरगतितः खेलतो राजहंसौ ताबजीयादजस्रं कृतियतिमिरिदं पुस्तकं वाच्यमानम् ।। ८॥ शुभं भवतु" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खसंझक पुस्तक ताडपत्र उपर लखायेलुछे अने ते सटीक पांच कर्ममंथतुं छे. तेनां पत्र २ थी ३०६ छे. प्रति अंतमां कांइक त्रुटक छे. तेमी लंबाई २२॥ इंच भने पहोलाई २। इंचनी छे. पुस्तकनी दरेक पुंठीमां वधारेमा बधारे ७ अने पोछामा ओछी ६ पंकिओ छे. प्रतिनो अंत्यभाग नहि होवाथी लेखनकाल आदिने लगती पुष्पिका विगेरे काइ पण आ ठेकाणे आपी शकवू अशक्य छे. तो पण लिपि जोतां चौदमी शताब्दीमा अंउमां आ प्रति लखायानो संभव छे. पुस्तकनी स्थिति साधारण छे. क-खसंज्ञक पुस्तकमां पंक्तिओ एक सरखी नहि होवाना कारणे पंक्तिना अबरोनी नोंध अहीं आपी नथी. गसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक पाटणना रहेवासी शा. मलुकचंद दोलाचंद हस्तकनु छे अने ते कागल उपर लखायेलुं छे. आ प्रतिमां सटीक छए कर्मग्रंथ छे. एनां पानां २८२ छे. प्रतिनी लंबाई १०॥ इंच अने पहोलाई ४॥ इंचनी छे. आ प्रतिनी दरेक पुंठीमा १५ पंक्तिओ छे. पंक्तिदीठ ओछामा ओछा ५० अने वधारेमां वधारे ६२ अक्षरो छे. आ प्रतिना अंतमा लेखन काल आदीनो कशोय उल्लेख नथी तेम छतां लिपि जोतां प्रति १७ मी शताब्दीना प्रारंभमां लखायानो संभव छे. पुस्तकनी स्थिति सारी छे. घसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक पाटण फोफलीया वाडानी आगली शेरीना तपागच्छीय पुस्तकभंडारनुं छे. आ पुस्तकभंडार तेना ट्रस्टीओ पैकी हाल सा. मलुकचंद दोलाचंदनी देखरेख नीचे छे. प्रति कागल उपर त्रिपाठमां लखाएकी छे बने तेमां सटीक छ कर्मग्रंथो छे. तेनां पत्र ११९ छे. प्रतनी लंबाई १०॥ इंच अने पहो. लाई ४॥ इंचथी कांइक ओछी छे. आ प्रतिनी कोई पुंठीमां २४ तो कोईमा २५-२६ अने २७ एम ओछी वत्ती पंक्तिओ छे. पंक्तिदीठ कममां कम ६३ अने अधिकमां अधिक ८१ अक्षरो छे. प्रतिनी स्थिति घणी ज सारी छे. प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणे पुष्पिका छे. "संवत् १६०६ वर्षे कार्तिकशुद ४ गुरौ दिने लिखितम् ।छ। शुभं भवतु ॥" उसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक वडोदराना आत्मानन्द जैनज्ञानमन्दिरमा पूज्य प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयजी महाराजनो पुस्तकसंग्रह छे तेमांनुं छे. ए भंडार आत्मानन्द जैनज्ञानमन्दिरना सेक्रेटरी शा• जीवणलाल किशोरदास कापडीयानी देखरेख नीचे छे. आ प्रति कागल उपर लखायेली छे अने तेमां सटीक पांच कर्मग्रंथ छे. तेनां पत्र १५४ छे. प्रतिनी लंबाई १३ इंचथी कांइक कम अने पहोलाई ५। इंचनी छे. आ प्रतिनी प्रत्येक पुंठीमा १७ पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ कोई पंक्तिमा कममां कम ६४ अने अधिकमां अधिक ६७ अक्षरो छे. आ प्रतिना अंतमा लेखनकाल विगेरेनो उल्लेख नथी. लिपि जोतां ए प्रति १७ भी शताब्दीमा लखायानो संभव छे. प्रतिनी स्थिति घणी सारी छे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रतिओनी शुद्धाशुद्धिनो विचार-क-ख-ग-ध अने डसंज्ञक प्रतिओमां थोडे धणे मंशे अशुद्धिओ तो दरेकमा छे ज, तो पण परस्पर तारतम्यतानो विचार करतां बधीये प्रतिओमां क अने घ आ बे प्रतिओ सौ करतां सारामां सारी छे. बाकीनी खग अने छ आ त्रण प्रतिओमां ख प्रति सारी छे अने गङ आ बे प्रतिओमाथी ग प्रति सारी छे. अर्थात् एक बीजाथी उत्तरोत्तर अधिक अशुद्ध छे. आभार-आ विभागनुं संपादन करती वखते उपरनी पांच प्रतिओनो उपयोग करवामां आव्यो छे. ए पांचे प्रतिओना जुदा जुदा मालिकोए प्रतिओ आपी अमारा संशोधनना कार्यमा जे सुगमता करी आपी छे ते बदल पमहाशयोना उपकारने कोई रीते पण भूली शकाय तेम नथी. वळी आ भागनुं संपादन करती वखते पं. सुखलालजीए हिंदी भाषामां करेला नवीन चार कर्मग्रंथना अनुवादनो अने तेनी प्रस्तावनानो कोई कोई ठेकाणे आश्रय लीधेलो होवाथी तेमनो पण उपकार मानुं छु. अने छेवटमां मारा विद्वान् शिष्य मुनि श्रीपुण्यविजयजीए आ विभागना प्रत्येक फॉर्मनुं अंतिम प्रुफ तपासी आपी अने संपादनने लगता वीजा कार्यने अंगे जोइती मदद आपी मारा कार्यने जे सरल करी आप्युं छे ते माटे तेओनो पण आ ठेकाणे उपकार मार्नु कुंए सर्वथा उचित लेखाशे. उपरोक्त पांचे प्रतिओना आधारे बहु ज सावधानता पूर्वक आ विभागर्नु संशोधन कर्यु छे तो पण कोइक ठेकाणे दृष्टिदोष आदिना कारणे त्रुटि रहेवा पामी होय तो वाचक महाशयो सुधारी वांचे ए अंतिम प्रार्थना साथे विरमुं . मुनि चतुरविजय. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामना प्रथमकर्मग्रन्थनी विषयसूची। E गाथा ss vorm or or or mr m विषय कर्मग्रन्थोनुं संशोधन करती वखते संग्रह करेली प्रतोना सङ्केतो टीकाकारे टीकामां उद्धरेल शास्त्रीय प्रमाणोना स्थानदर्शक सङ्केतो मुद्रित थया पछी जडी आवेल प्रमाणोना स्थानदर्शक सङ्केतो प्रमाण तरीके उद्धरेल प्रमाणमन्थोनी स्थानदर्शक सूची आभार प्रदर्शन प्रस्तावना कर्मग्रन्थोनी विषयानुक्रम सूची १ मङ्गलाचरण, अन्थनो विषय अने संबन्ध आदिनुं कथन 'कर्म'शब्दनी व्युत्पत्ति जीवनुं लक्षण अने कर्मनी सिद्धि कर्म अने जीवनो अनादिसम्बन्ध जीवनी साथे कर्मनो अनादिसम्बन्ध होय तो वियोग केम सम्भवे ? ए शङ्कानुं समाधान २ सामान्य रीते कर्मना प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेश ए चार प्रकारो अने तेनी मोदकना दृष्टान्त द्वारा समज कर्मना मूल अने उत्तर भेदोनी समुच्चय सख्या । ३ कर्मनी मूलप्रकृतिनां नाम तथा ते दरेकना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या ___ मूळकर्मप्रकृतिओने ज्ञानावरणीयादिक्रमथी राखवा- कारण अने उपयोगनुं स्वरूप ५ ४ज्ञानना पांच प्रकार अने व्यञ्जनावग्रहना चार प्रकार पांच ज्ञान- सामान्य स्वरूप केवलज्ञानमा मतिज्ञान आदिना अभावनी चर्चा पांच ज्ञानने मतिज्ञानादिक्रमथी राखवानां कारणो श्रुतनिश्रित अने अश्रुतनिश्रित मतिज्ञानतुं स्वरूप अभुतनिश्रित मतिज्ञानना औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा अने पारिणामिकी बुद्धिने आश्री चार प्रकारो अवग्रहना भेदो व्यञ्जनावग्रहना चार भेदो व्यञ्जनावग्रहमा मन अने चक्षुनुं वर्जन शामाटे ? ए शानुं समाधान व्यञ्जनावग्रहनो काल r or w9 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विषय पत्र गाथा ५ मतिज्ञानना अर्थावग्रह आदि २४ भेदो अने श्रुतज्ञानना उत्तरभेदोनी सङ्ख्या १२ मतिज्ञानना श्रुतनिश्रित १२ भेदो तथा ३३६ अने ३४० भेदोनुं स्वरूप १३ ६ श्रुतज्ञानना अक्षरश्रुत आदि १४ भेदो अने तेनुं सविशेष स्वरूप १४ अढार लिपिनां नाम १४ दीर्घ कालीकी, हेतुवादोपदेशिकी अने दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञाओनुं स्वरूप १५ मिध्यादृष्टिने सम्यक् श्रुतना अभावनी चर्चा १६ आचाराङ्ग आदि ११ अङ्गनां नाम अने पढ़नी सङ्ख्या १७ efष्टवाना पांच भेदो १७ चौदपूर्वनां नाम अने प्रत्येकनी पदसङ्ख्या १७ १८ ७ श्रुतज्ञानना पर्याय आदि २० भेदो अने तेनुं स्वरूप ८ अवधि, मनःपर्यव अने केवल ज्ञानना भेदो १९ १९ २१ अवधिज्ञाना आनुगामिक आदि छ भेदोनुं सप्रमाण वर्णन यमान अने प्रतिपाति अवधिज्ञानमा फरक rafaaraat द्रव्यादि चार प्रकारे प्ररूपणा ऋजुमति अने विपुलमति मनः पर्यवज्ञाननुं स्वरूप मनः पर्यवनी द्रव्यादिभेदोथी प्ररूपणा छप्पन अन्तरद्वीपोनुं सविशेष वर्णन छप्पन अन्तरद्वीपनां नामो २१ २१ २१ २२ २४ केवलज्ञाननुं स्वरूप २६ ९ दृष्टान्तपूर्वक पांच ज्ञानावरण अने नव दर्शनावरणनुं स्वरूप २६ १० चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शनना आवरणनुं स्वरूप २७ ११-१२ निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला अने स्त्यानर्धि निद्रानुं स्वरूप २८ १२ वेदनीयकर्मना सातावेदनीय अने असातावेदनीय भेदोनुं स्वरूप १३ चारगतिमां साता असातानो विभाग अने मोहनीयकर्मनी व्याख्या तथा मोहनीयकर्मना वे भेद २८ १४ दर्शनमोहनीयना त्रण भेद सम्यक्त्वने दर्शनमोहनीय केम कही शकाय ए शङ्कानुं समाधान १५ तत्त्वोनी सङ्ख्या अने सम्यक्त्वमोहनीयनी व्याख्या नवत स्वरूपनिरूपण गाथाओ क्षायिकादिसम्यक्त्वनुं सामान्य स्वरूप १६ मिश्रमोहनीय अने मिध्यात्वमोहनीयनुं स्वरूप २९ ३० ३० ३० ३० ३२ ३३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ गाथा विषय १७ चारित्रमोहनीयकर्मना वे भेदो अने तेना उत्तरमेदो कषायना सोळ भेदोनुं स्वरूप १८ वार कषायनी स्थिति, गति अने तेनी विद्यमानतामां सम्यक्त्व आदिना अभावनुं वर्णन १९ जलरेखा आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना क्रोधनं अने तिनिशलता आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना माननुं वर्णन २० अवलेहिका आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारनी मायानुं अने हरिद्रादि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना लोभनुं वर्णन २१ नोकषायमोहनीय कर्मना हास्यादि छ भेदोनुं स्वरूप भयमोहनीयना सात भेदोनां नाम २२ नोकषायमोहनीयकर्मना स्त्रीवेद आदि त्रण वेदोनुं स्वरूप २३ चारप्रकारना आयुष्कर्मनुं स्वरूप अने नामकर्मना ४२, ९३, १०३ अने ६७ उत्तरभेदोनी सङ्ख्या २४ - २७ नामकर्मनी बेतालीस प्रकृतियो चौद पिण्डप्रकृति, आठ प्रत्येक प्रकृति, सदशक अने स्थावरदशकनुं स्वरूप २८ त्रसचतुष्क स्थावरषटु आदि प्रकृतिबोधक शास्त्रीय संज्ञाओ २९ चौद पिण्डप्रकृतिना ६५ उत्तरभेदो ३० नामकर्मनी ९३, १०३ अने ६७ प्रकृतियोनुं निरूपण ३१ बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्तामां केटली केटली प्रकृतियो होय ? तेनी सङ्ख्या ३२ पिण्डप्रकृतियोनुं विशेष व्याख्यान गतिनामकर्मना चार भेदोनुं स्वरूप जातिनामकर्मना पांच भेदोनुं स्वरूप जाति नामकर्मने मानवानुं प्रयोजन तनुनामकर्मना पांच भेदोनुं स्वरूप कार्मणशरीरसहित जीव गत्यंतरमां जाय छे तो ते जीव जतो आवतो केम देखातो नथी ? ए शङ्कानुं समाधान 1 X 200 4 पत्र ३४ ३४ ३५ ३६ ३७ ३७ ३८ ३८ ३८ ३९-४१ ४१ ४१ ४२ ४२ ४३ ४३ ४३ ४४ ४४ ४५ ४६ ३३ अङ्ग - उपाङ्गना भेदो अने अङ्गोपाङ्गनामकर्मना त्रण भेदोनुं स्वरूप ३४ बन्धननामकर्मना औदारिकबन्धन आदि पांच भेदोनुं दृष्टान्तपूर्वक स्वरूप ४६ ३५ सङ्घातननामकर्मना औदारिकसङ्घातन आदि पांच भेदोनुं ष्टान्तपूर्वक स्वरूप ४६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विषय गाथा ३६ बन्धननामकर्मना औदारिकौदारिकबन्धन आदि पंदर मेदोनुं खरूप पांच शरीराद्विकादिसंयोगोनी अपेक्षार बन्धन छवीस भाव तो पंदर बंधन केम कहां ? ए शङ्कानुं समाधान बन्धननी पेठे पंदर सङ्घातन केम न थाय ? ए शङ्कानुं समाधान ३७-३८ संहनननामकर्मना वार्षभनाराच आदि छ भेदोनुं वर्णन ३९ संस्थाननामकर्मना समचतुरस्र आदि छ भेदोनुं स्वरूप अने वर्णनामकर्मना वर्णादि पांच भेदोनुं स्वरूप ४० गन्ध, रस अने स्पर्शनामकर्मना अनुक्रमे वे पांच अने आठ भेदो अने तेनुं स्वरूप ४१ वर्णादि चारना वीस उत्तरभेदो पैकी शुभ-अशुभ प्रकृतियोनो विभाग ४२ आनुपूर्वीचतुष्क, नरकद्विकादि शास्त्रीय संज्ञाओ अने विहायोग तिनामकर्मना भेदोनुं स्वरूप ४३ आठ प्रत्येक प्रकृतियो पैकी पराधातनामकर्म अने उच्छ्रासनामकर्मनुं स्वरूप ४४ आतपनामकर्मनुं स्वरूप ४५ उद्योतनामकर्मनुं स्वरूप ४६ अगुरुलघु अने तीर्थकरनामकर्मनुं स्वरूप ४७ निर्माणनामकर्म अने उपघातनामकर्मनुं स्वरूप ४८ त्रसदशक पैकी त्रसनाम, बादरनाम अने पर्याप्तनामकर्मनुं स्वरूप पर्याप्तिशब्दनी व्याख्या, पर्याप्तिनां नाम अने एना प्रत्येक भेदनुं स्वरूप पर्याप्त अने करणपर्याप्तनुं स्वरूप शरीरपर्यातिथी ज शरीरनी उत्पत्ति थशे तो शरीरनामकर्मनुं शुं प्रयोजन छे ? ए शङ्कानुं निवारण उच्छासनामकर्मधी ज श्वास लेवानुं काम थई शके सो उच्छ्रासपर्याप्त निरर्थक केम नहि ? ए शङ्कानुं समाधान पत्र ४७ ४८ ४८ ४८ ४९ ५० ५२ ५२ '५३ ५३ ५४ ५४ ५४ ५५ ५५ ५६ ५६ ५६ ५६ ४९ प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुभनाम अने सुभगनामकर्मनुं स्वरूप ५० सुखरनाम, आदेयनाम अने यशःकीर्तिनामकर्मनुं स्वरूप तथा त्रस दशकथी स्थावरदशकता विपरीतपणानो निर्देश अने स्थावरदशकनुं स्वरूप ५७ लब्धअपर्याप्त अने करणअपर्याप्तनुं स्वरूप ५७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा विषय ५१ गोत्रकर्मना उपगोत्र अने नीचगोत्र ए बे मेदोनु स्टान्तद्वारा स्वरूप अने अन्तरायकर्मना दानान्तराय आदि पांच मेदोनुं खरूप ५२ अन्तरायकर्मनुं दृष्टान्तद्वारा खरूप ५३ ज्ञानावरण अने दर्शनावरणकर्मना बन्धहेतुओ ५४ सातावेदनीय अने असातावेदनीयकर्मना बन्धनां कारणो ५५ दर्शनमोहनीयकर्मना बन्धनां कारणो। ५६ कषाय अने नोकषायरूप बे प्रकारना चारित्रमोहनीय. ____ कर्म अने नरकायुकर्मना बन्धहेतुओ ५७ तिर्यगायुकर्म अने मनुष्यायुकर्मना बन्धनां कारणो ५८ देवायु अने शुभ-अशुभनामकर्मना बन्धहेतुओ ५९ उच्च-नीचगोत्रकर्मना बन्धहेतुओ ६० अन्तरायकर्मना बन्धहेतुबो तथा ग्रन्थनो उपसंहार प्रन्थकारनी प्रशस्ति. कर्मस्तवनामक बीजा कर्मग्रन्थनी विषयसूची। - गाथा विषय १ मङ्गलाचरण आदि बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्तार्नु लक्षण २ चौद गुणस्थाननां नामो 'गुणस्थान' शब्दनी व्याख्या मिध्यादृष्टिगुणस्थान, स्वरूप मिथ्यादृष्टिने गुणस्थाननो संभव केम होइ शके ? ए शानुं समाधान जो गुणस्थान होय तो तेने मिथ्यारष्टि केम कही शकाय? ए शानुं समाधान सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान- अने प्रधिभेदतुं खरूप मिश्रगुणस्थाननुं अने अणपुञ्जनुं स्वरूप अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाननुं स्वरूप, तेने लगवा आठ भको अने ए भङ्गोनी स्थापना देशविरतगुणस्थाननुं स्वरूप Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ७१ ७२ ७२ ७४ प्रमत्तगुणस्तानतुं स्वरूप अप्रमत्तगुणस्थाननुं स्वरूप अपूर्वगुणस्थानन स्वरूप अने एना भेदोन कथन अपूर्वगुणस्थानना त्रण कालनी अपेक्षाये असङ्ख्यात. लोकाकाशप्रदेशप्रमाण अध्यवसायो अपूर्वगुणस्थानना त्रणकालनी अपेक्षाए अनन्त अध्यवसाय केम न थाय ? ए शक्कार्नु निवारण अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थाननुं स्वरूप अने तेना बे भेदो सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाननुं स्वरूप उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थाननुं स्वरूप उपशमश्रेणिर्नु स्वरूप अने तेनी स्थापना एक जीव एकभवमा उपशमश्रेणि केटली वार प्राप्त करे ? तेनुं अने तद्विषयक मतान्तर- कथन क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थाननुं स्वरूप क्षपकश्रेणिनुं स्वरूप क्षपकश्रेणिनी स्थापना सयोगिकेवलिगुणस्थानतुं स्वरूप अयोगिकेवलिगुणस्थाननुं अने अयोगित्व केवी रीते थाय ? तेनुं स्वरूप केवलिसमुद्रात कोण करे? अने कोण न करे ? तेनुं स्वरूप योगनिरोध अने शैलेशीकरण- संक्षिप्त स्वरूप बन्धाधिकार । ३ बन्धनुं लक्षण तथा ओघथी १२० अने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमा ११७ प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप ४-५ साखादनगुणस्थानमा १०१ अने मित्रगुणस्थानमा ७४ प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप ६-७ अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमा ७७ अने देशविरतिगुण स्थानमा ६७ प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप ७-८ प्रमत्तगुणस्थानमा ६३ अने अप्रमत्तगुणस्थानमा ५९-५८ प्रकृतिना बन्धन स्वरूप ९-१० अपूर्वकरणगुणस्थानना सात मागमांथी पहेला भागमा ५८ बने ते पछीना पांच मागमा ५६-५६ अने अन्त्य भागमा २६ प्रकृतिना बन्धन स्वरूप ८२ ७५ ७६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ८४ ८४-८५ ८५-८६ ८५-८६ २९ गाथा विषय १०-११ अनिवृत्तिबादरना पांच भागमा कमी २२, २१, २०, १९ अने १८ प्रकृतिना बन्धन स्वरूप ११ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानमा १७ प्रकृतिना बन्धनु स्वरूप १२ उपशान्तमोह आदि त्रण गुणस्थानमा १-१-१ प्रकृतिना बन्धनुं अने अयोगिगुणस्थानमा बन्धना अभावतुं स्वरूप बन्धाधिकारनी समाप्ति उदयाधिकार । १३ उदय अने उदीरणानुं लक्षण तथा ओपथी १२२ अने मिध्यादृष्टिगुणस्थानमा ११७ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १४ सासादनगुणस्थानमां १११ प्रकृतिना उदयतुं वर्णन १४-१५ मिश्रगुणस्थानमां १०० प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १५ अविरतगुणस्थानमां १०४ प्रकृतिना उदयतुं वर्णन १५-१६ देशविरतिगुणस्थानमा ८७ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १६-१७ प्रमत्तगुणस्थानमा ८१ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १७ अप्रमत्तगुणस्थानमा ७६ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १८ अपूर्वकरणगुणस्थानमा ७२ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १८ अनिवृत्तिगुणस्थानमा ६६ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १८-१९ सूक्ष्मसम्पराय अने उपशान्तमोहगुणस्थानमा अनुक्रमथी ६०-५९ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन १९-२० क्षीणमोहगुणस्थानमा ५७-५५ प्रकृतिना उदयतुं वर्णन २०-२१ सयोगिकेवलिगुणस्थानमा ४२ प्रकृतिना उदयनुं वर्णन २१-२३ अयोगिकेवलिगुणस्थानमा १२ प्रकृतिना उदयतुं वर्णन उदयाधिकारनी समाप्ति. उदीरणाधिकार। २३-२४ ओघमां १२० अने मिथ्यादृष्टि आदि छ गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १११, १००, १०४, ८७ अने ८१ प्रकृतिनी उदीरणानुं कथन २४ अप्रमचादि सात गुणस्थानोमा क्रमयी ७३, ६९, ६३, ५७, ५६, ५४ अने ३९ प्रकृतिनी उदीरणा ८ ८ ८८-८९ ८९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा ३० विषय अयोगिकेवलिगुणस्थानमां योगनो अभाव होवाथी उदीरणानो अभाव उदीरणाधिकारी समाप्ति. सत्ताधिकार । २५ सत्तानुं लक्षण तथा प्रथमश्री अगीयार गुणस्थानपर्यन्त १४८ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण २५ सासादन अने मिश्रगुणस्थानमां १४७ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण २६ अनन्तानुबंधिचतुष्कनुं जेणे विसंयोजन कर्य होय, देव-मनुष्यना आयुनो बन्ध कर्यो होय अने उपशमश्रेणि उपर आरूढ थयो होय तेनी अपेक्षाए अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानमा १४२ प्रकृतिनी सत्तानुं वर्णन २६ अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमां अनन्तानुबन्धि आदिसप्तक क्षयनी अपेक्षाए १४१ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण २७ अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमां नरक, तिथेच अने सुराना क्षयनी अपेक्षाये १४५ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण २७ अनन्तानुबन्धि ४ मिथ्यात्व ५ मिश्र ६ अने सम्यक्त्व ७ आ सात प्रकृतिना क्षयनी अपेक्षाए अविरतसम्यग्दृष्टिथी लईने अनिवृत्तिबादर गुणस्थानना प्रथम भाग सुधी १३८ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण २८-२९ क्षपकश्रेणिने आश्री अनिवृत्तिबादरगुणस्थानना बीजा भागथी नवमा भाग सुधी क्रमथी १२२, ११४, ११३, ११२, १०६, १०५, १०४ अने १०३ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण ३० सूक्ष्मसम्परायमा १०२ अने क्षीणमोहमां १०१ अने ९९ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण ३० - ३१ सयोगिकेवलिगुणस्थानमा ८५ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण ३१-३३ अयोगिकेवलिगुणस्थानमा १३ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण ३४ अयोगिकेवलिगुणस्थानमां मतान्तरे १२ प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण ३४ महावीरस्वामिना दीक्षाग्रहणादिनुं संक्षिप्त वर्णन महावीरस्वामिने नमस्कार करवानो श्रोताने उपदेश आदि वर्णन सत्ताधिकारी समाप्ति साथै ग्रन्थनी समाप्ति ग्रन्थकारनी प्रशस्ति पत्र ९१ ९१ ९१ ९१ ९२ ९२ ९२ ९३ ९३-९४ ९४ ९४ ९४-९५ ९५ ९५ ९६ ९६ ९७ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्वनामका त्रीजा कर्मग्रन्थनी विषयसूची। गाथा १०० . . विषय १ मङ्गल अने विषयादिकनुं कथन बन्धस्वामित्वनुं लक्षण चौद मार्गणास्थान अने तेना उत्तरभेदोनी सङ्ख्या २-३ यन्धस्वामित्वमा उपयोगी पंचावन प्रकृतियोनो संग्रह ४-५ सामान्यथी नरकगतिमां तथा रवप्रभा आदि त्रण नरकना नारकोना ओपथी १०१ अने आद्यनां चार गुणस्थानमा क्रमथी १००, ९६, ७० अने ७२ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन ५ पङ्कप्रभा आदि त्रण नरकना नारकोना ओपथी १०० अने पहेला चार गुणस्थानमा क्रमथी १००, ९६, ७० अने ७१ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन ६-७ सासमी नारकीमा ओघथी ९९, अने आदिना चार गुणस्थानमा क्रमथी ९६, ९१, ७० अने ७० प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन । ७-८ तिर्यग्गतिमा पर्याप्ततिर्योना ओघथी ११७ अने आदिना पांच गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ६९, ७० अने ६६ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन ९ मनुष्यगतिमां पर्याप्तमनुष्योना ओपथी १२० अने आदिथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ६९, ७१, ६७, ६३, ५९५८, ५८-५६-५६-२६, २२-२१-२०-१९-१८, १७, १, १, अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्व- कथन ९ लब्धिअपर्याप्त तिर्यञ्च अने मनुष्योना ओघषी तथा मिथ्या दृष्टिमा १०९ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १० सामान्यथी देवगतिमां तथा आदिना बे देवलोकमां देवोना ओपथी १०४ अने आदिना चार गुणस्थानमा क्रमथी १०३, ९६, ७०, अने ७२ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १० ज्योतिष्क, भवनपति, व्यन्तर अने तेनी देवीयोना ओपथी १०३ तथा आदिना चार गुणस्थानमा क्रमथी १०३, ९६, ७० अने ७१ प्रकृतिना बन्धखामित्व कथन १०१ १०३ १०३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विषय ११ सनत्कुमार आदि छ कल्पना देवोना ओघथी १०१ अने आदिना चार गुणस्थानमां क्रमथी १००, ९६, ७० अने ७२ प्रकृतिना बन्धवामित्वनुं कथन गाथा ११ आनतादि चार कल्पना तथा नव प्रैवेयकना देवोना ओषधी ९७, अने आदिना चार गुणस्थानमा ९६, ९२, ७०, अने ७२ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन ११ पांच अनुत्तरना देवोना ओघथी अने अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमा ७२ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन ११-१२ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वी, जल अने वनस्पतिना ओघधी १०९ तथा आदिना वे गुणस्थानमां क्रमथी १०९, ९६ अने मतान्तरे ९४ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १३ पचेन्द्रिय तथा सकायिकोना ओघथी १२० अने प्रथमधी तेर गुणस्थानमां क्रमधी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९-५८, ५८-५६-२६, २२-२१-२०-१९१८, १७, १, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १३ अनिकाय अने वायुकायिकोना ओघथी तथा मिध्यादृष्टिगुणस्थानमा १०५ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १३ योगमार्गणामां मनयोग ४ तथा वचयोग ४ मां ओघथी अने आदिथी तेर गुणस्थानमां पचेन्द्रिय प्रमाणे प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १३ सत्यादिमनोयोग ४ अने वचनयोग ४ नुं स्वरूप १३ औदारिककाययोगमां ओघथी अने प्रथमथी तेर गुणस्थानमां पर्याप्तमनुष्यनी पेठे प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १३ - १५ औदारिकमिश्रकाययोगमां ओषधी ११४ अने पहेला, बीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमां क्रमर्थ १०९, ९४, ७५ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १५ कार्मणकाययोगमा ओघथी ११२ अने पहेला, बीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमां क्रमधी १०७, ९४, ७५, अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १५ आहारककाययोग अने आहारकमिश्रकाययोगमां ओघथी अने छट्ठा गुणस्थानमा ६३ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन पत्र १०३ १०३ १०४ १०४ १०४ १०४ १०५ १०५ १०५ १०५ १०६ १०६ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ १०७ १०७ : गाया १६ बैक्रियकावयोगा गोपथी अने प्रथमनां चार गुणस्थानमा सार मान्य देवगतिप्रमाणे प्रकृतिना बन्धखामिस्वतुं कथम १६ वैक्रियमिश्रकाययोगमा ओधथी १०२ अने पहेला, बीजा अने चोथा गुणस्थानमा क्रमथी १०१, ९४ अने ७१ प्रकृतिना . पन्धस्वामित्वतुं कथन १६ वीवेद आदि त्रण बेदमां ओपथी १२० अने आदिनां नव गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९-५८, ५८-५६-२६ अने २२ प्रकृतिना अन्धस्वामि स्वतुं कथन १६ कषायमार्गणामां अनन्तानुबन्धिचतुष्कमां ओपथी ११७ अने पहेला, बीजा गुणस्थानमा ११७ अने १०१ प्रकृतिना बन्ध स्वामित्वन कथन १६ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमा ओघथी ११८ अने आदिनां पार गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ७४ अने ७७ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १६ प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमा ओघथी ११८ अने आदिना पांच गुणस्थानमां क्रमथी ११७, १०१, ७४, ७७ अने ६७ प्रकृ. तिना बन्धस्वामित्वनु कथन १७ संज्वलनक्रोध, मान अने मायामां ओघथी १२० अने आदिनां नव गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९-५८, ५८-५६-२६, २२-२१-२०-१९ अने १८ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १७ संज्वलनलोभमां ओषधी १२० अने आदिनां दश गुणस्थानमा क्रमी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९-५८, ५८-५६-२६, २२-२१-२०-१९-१८ अने १७ प्रकृतिना बन्धखामित्वन कथन १७ संयममार्गणामां असंयतना ओघी ११८ अने आदिना चार गुणस्थानमां क्रमथी ११७, १०१, ७४ अने ७७ प्रकृतिना बन्धवामित्वनु कथन १७ ज्ञानमार्गणामां मतिमज्ञान आदि ऋण मज्ञानमा ओषयी ११७ अने आदिन व गुणवान क्रमपी ११७, १०१ अने ७४ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन १०७ १०७ १०७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..पत्रा १०८ १०८ १०८ १०८ , गाथा विषय १७ दर्शनमार्गणामां चक्षु अने अचक्षुदर्शनना ओषधी १२० वथा ... . आदिनां बार गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१,७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १ अने १ प्रकृतिना . बन्धखामित्वन कथन १. यथाख्यातचारित्रमा ओघथी १ अने उपशान्तमोह आदि चार गुणस्थानमा क्रमथी १, १, १ अने ० प्रकृतिना बन्धस्वामि त्वनुं कथन १८ मनःपर्यवज्ञानमां ओधी ६५ अने प्रमत्तादि सात गुणस्था नमा क्रमथी ६३, ५९, ५८, २२, १७, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १८ सामायिक अने छेदोपस्थापनीयमा ओघथी ६५ अने प्रमत्तादि चार गुणस्थानमा क्रमथी ६३, ५९, ५८ अने २२ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन १८ परिहारविशुद्धिमां ओपथी ६५ अने छट्ठा तथा सातमा गुण स्थानमा ६३ अने ५९, ५८ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १८ केवलज्ञान अने केवलदर्शनमा ओघथी तथा तेरमा गुणस्थानमा १ प्रकृतिना वन्धस्वामित्वनुं कथन १८ मति, श्रुत, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनमा ओघथी ७९ अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नव गुणस्थानमा क्रमथी ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १०८ १९ औपशमिकसम्यक्त्वमा ओघी ७५ अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि आठ गुणस्थानमा क्रमथी ७५, ६६, ६२, ५८, ५८, २२, १७ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन १९ क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमां ओपथी ७९ अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमां क्रमथी ७७, ६७, ६३ अने ५९ ५८ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १९ क्षायिकसम्यक्त्वमा ओघथी ७९ अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि ११ गुणस्थानमा क्रमथी ७७, ६७, ६३, ५९-५८, ५८,२२, १७, १, १, १ अने ० प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन . १९ मिध्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, देशविरति अने सूक्ष्मसम्पराय १०८ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ विषय गुणस्थानमा ओघथी अने स्व स्व गुणस्थानमां क्रमधी ११७, १०१, ७४, ६७, अने १७ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन १९ आहारकमार्गणामां आहारकनुं ओघथी १२० अने प्रथमथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २० औपशमिकसम्यक्त्वमां कांइक विशेष कथन २० औपशमिक अने क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमां फरक २१ कृष्ण, नील अने कापोत लेश्यामां ओघथी ११८ अने आदिना चार गुणस्थानमां क्रमथी ११७, १०१, ७४ अने ७७ प्रकृ• तिना बन्धस्वामित्वनुं कथन गाथा २२ तेजोलेश्यामां ओघधी १११ अने आदिना सात गुणस्थानमां क्रमथी १०८, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, अने ५९ प्रकृ. तिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २२ शुललेश्यामां ओघथी १०४ अने आदिथी तेर गुणस्थानमां क्रमधी १०१, ९७, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २२ पद्मलेश्यामां ओघथी १०८ अने आदिथी सात गुणस्थानमां क्रमथी १०५, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३ अने ५९ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २३ भव्य अने संज्ञिमां ओघथी १२० अने आदिथी तेर गुणस्थामां क्रमथी ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २३ अभव्यमां ओघथी अने प्रथम गुणस्थानमां ११७ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २३ असंज्ञिमां ओघथी ११७ अने पहेला तथा बीजा गुणस्थानमां क्रमथी ११७, अने १०१ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २३ अनाहारकमां ओघथी ११२ अने पहेला, बीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमां क्रमथी १०७, ९४, ९५ अने १ प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन २४ लेश्यामां गुणस्थाननी सङ्ख्या २४ मतान्तरथी कृष्णादि त्रण लेश्यामां छ गुणस्थाननुं कथन २४ प्रन्थनी समाप्ति पत्र १०९ १०९ १०९ १०९ ११० ११० ११० ११० ११० ११० ११० ११० १११ १११ १११ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६ षडशीतिनामक चोथा कर्मग्रन्थनी विषयसूची | विषय १ मङ्गल अने अमिषेयादि १ द्रव्यादि चार प्रकारथी नमस्कार १ जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अस्पबहुत्व, भाव अने सङ्ख्यादि दश मुख्य विषयोनी व्याख्या तेमां लेश्यानुं सविशेषनिरूपण १ दश विषयोने जीवस्थानादि क्रमथी स्थापवामां कारण १ चौद जीवस्थानमा गुणस्थानादि आठ, चौद मार्गणास्थानमां जीवादि छ अबे चौदगुणस्थानमां जीवादि दश पदार्थोनुं निरूपण प्रथम जीवस्थान अधिकार. २ चौद जीवस्थाननुं स्वरूप २ पर्याप्तिनां छ नाम अने तेनुं स्वरूप २ लब्धि अने करण अपर्याप्तनुं स्वरूप ३ चौद जीवस्थानमा गुणस्थान ३ चौद गुणस्थाननां नामो अने तेना साधारण अर्थनुं निरूपण करती गाथाओ ३ कया कया जीवस्थानमा कयां कयां गुणस्थान होय ? तेनुं निरूपण ३ सयोगिअयोगरूप वे गुणस्थानो संज्ञिने केवी रीते होय ? ए शङ्कानुं समाधान ३ योगनां पन्दर नाम ३ औदारिकादि सात योगोनो क्यां क्यां सम्भव होय ? तेनुं वर्णन ४-५ चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमां कया कया योग होय ? तेनुं सविस्तर वर्णन ५-६ उपयोगनां नामो अने चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमा कया कया उपयोगो होय ? तेनुं वर्णन ६ एकेन्द्रियने श्रुतज्ञान केम घटे ? एनुं निरूपण ७ चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमा कई कई लेश्या होय ? तेनुं स्वरूप पत्र ११२ ११२ ११२ ११५ ११६ ११६ ११७ ११७ ११८ ११८ ११९ १२० १२० १२० १२०-१२१ १२१-१२२ १२३ १२४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ० १३१ ७-८ चोद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमा कर्मनी मूल आठ प्रकृतियोमांथी केटली केटली प्रकृतिनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय? तेमुंखरूप १२४-१२५ द्वितीय मार्गणास्थानअधिकार ९ चौद मार्गणानां नाम अने तेनुं स्वरूप १२७ १० गति, इन्द्रिय, काय अने योग आ चार मार्गणाना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या अने तेनी व्याख्या ११ वेद, कषाय, अने ज्ञान आ ण मार्गणाना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या अने तेनुं सविस्तर व्याख्यान १२८ १२ संयम अने दर्शन आ वे मार्गणाना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या १३० १२ संयममार्गणाना उत्तर भेदो पैकी सामायिक अने छेदोपस्थापनीय चारित्रनुं स्वरूप १३० १२ छेदोपस्थापनीयचारित्रना बे भेद १२ संयममार्मणाना उत्तर भेदो पैकी परिहारविशुद्धिकचारित्रनी व्या ख्या तथा तेना बे भेद अने तपस्या आदिना स्वरूपनी गाथाओ १३१ १२ परिहारविशुद्धिक चारित्रनी प्ररूपणा माटे क्षेत्रादि वीस द्वारो क्षेत्रद्वारमा परिहारविशुद्धिकचारित्री भरतादिक्षेत्रो पैकी कथा क्षेत्रमा होय ? तेनुं स्वरूप कालद्वारमा परिहारविशुद्धिक अवसर्पिण्याविकाळ पैकी कथा काखमां होय ? तेनुं स्वरूप चारित्रद्वारमा परिहारविशुद्धिक सामाविकादि पांच चारित्र पैकी कया चारित्रमा होय? तेनुं स्वरूप तीर्थद्वारमा परिहारविशुद्धिक तीर्थमां होय के अतीर्थमां होय? तेर्नु खरूप १३३ पर्यायद्वारमा परिहारविशुद्धिकने गृहस्थ अने यति पणानो जघन्य तथा कट केटकोपर्याय होय ? सेनुं स्वरूप आगमद्वारमा परिहारविशुद्धिक नवीन वागमनुं अब्बयन करे के न करे ? तेहूं खरूप १३३ वेदारमा परिहारविशुदिनी प्रवृति वखते सीनेपाधि पैकी कमा बेदमां होय? तेनुं खरूप १३३ س س س १३२ १३३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गाथा १३४ १34 १३५ १३५ विषय कल्पद्वारमा परिहारविशुद्धिक स्थितकल्प अने अस्थितकल्प पैकी कया कल्पमां होय ? तेनु स्वरूप लिङ्गद्वारमा परिहारविशुद्धिक द्रव्यलिङ्ग अने भावलिङ्ग पैकी कया लिङ्गमां होय तेनुं स्वरूप लेश्याद्वारमा परिहार विशुद्धिकने कृष्णादि छ लेश्या पैकी कई लेश्याओ होय ? तेनुं स्वरूप ध्यानद्वारमा परिहारविशुद्धिकने आादि चार ध्यान पैकी कयां होय ? तेनुं स्वरूप गणद्वारमा परिहारविशुद्धिकनी जघन्य अने उत्कृष्टथी गणसङ्ख्या अने पुरुषसङ्ख्या केटली होय? तेनुं स्वरूप अभिप्रहद्वारमा परिहारविशुद्धिकने द्रव्यादि चार अभिग्रह पैकी कोई पण अभिग्रह होय के न होय ? तेनुं स्वरूप प्रव्रज्याद्वारमा परिहारविशुद्धिक कोईने प्रत्रज्या आपे के न आपे? तेनुं स्वरूप मुण्डापनद्वारमा परिहार विशुद्धिक कोईने मुण्डे के न मुण्डे ? तेनुं स्वरूप प्रायश्चित्तद्वारमा परिहार विशुद्धिकने कयां प्रायश्चित्त होय ? तेनुं स्वरूप कारणद्वारमा परिहारविशुद्धिकने कारण एटले आलम्बन होय के न होय ? तेनुं स्वरूप निष्प्रतिकर्मताद्वारमा परिहार विशुद्धिक निष्प्रतिकर्म होय के अ. निष्प्रतिकर्म होय? तेनुं स्वरूप भिक्षाद्वारमा परिहार विशुद्धिकना भिक्षा अने विहार कया कालमां होय ? तेनुं स्वरूप परिहारविशुद्धिकना इत्वर अने यावत्कथिक वे भेदो आदिनुं स्वरूप १२ संयममार्गणाना उत्तरभेदोमांथी सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात, देशविरत अने अविरतसम्यग्दृष्टिनी व्याख्या १२ दर्शनमार्गणाना चक्षुदर्शन आदि चार उत्तर भेदोनी व्याख्या १३ लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व अने संझिरूप मार्गणाना उत्तर भेदो १३ लेश्यामार्गणामा छ लेश्यानां नाम १३६ १३६ . १३८ १५८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ पत्र .१३८ १३८ १३८ १३० १४१ १४२ १४२ १४२ १४२-४६ गाथा विषय १३ भन्यमार्गणामां भव्य अभव्यनी व्याख्या १३ सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी वेदकसम्यक्त्वनी व्याख्या १३ सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी क्षायिकसम्यक्त्वनुं स्वरूप १३ सम्यक्त्रमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी औपशमिकसम्यक्त्व, तेना बे भेदो अने प्रन्थिभेदन स्वरूप १३ सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी मिथ्यात्व, मिश्र, त्रण पुञ्ज अने सासादन- खरूप १३ संशिमार्गणामां संज्ञि असंझिनी व्याख्या १४ आहारकमार्गणाना भेद अने मार्गणस्थानमा जीवस्थान १४ आहारक अनाहारकनी व्याख्या अने चौदमूलमार्गणाना बासठ उत्तरभेदोनां नाम १४-१८ मार्गणस्थानना उत्तरभेदो पैकी कया कया भेदमां कयां कयां जीवस्थान होय ? तेनुं स्वरूप अपर्याप्तसंझिने औपशमिक सम्यक्त्व न होवाना अने होवाना मतनुं निरूपण सम्मच्छिममनुष्यनी उत्पत्तिना स्थानो वादर अपर्याप्तने तेजोलेश्या केम सम्भवे ? ए शङ्कानुं निवारण १९-२३ चौदमार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कयां कयां गुणस्थान होय ? तेनुं स्वरूप २४ योगोनी सङ्ख्या अने मार्गणास्थानमा योग २४ सत्यमनोयोग आदि पंदर योगोनुं सप्रमाण स्वरूपनिरूपण २४ कार्मणशरीर गत्यंतरमा साथे जाय छे तो केम देखातुं नथी? ए शङ्कार्नु समाधान तेजसने शरीर मान्युं छे तो तेने योगमां केम गण्यु नथी ? एनुं समाधान २४-२९ चौद मार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कया कया योगो होय ? तेनुं स्वरूप २९ वैक्रियलब्धिवाला अने मिश्रगुणस्थानवाळा मनुष्यतिर्यबोने वैक्रियना आरंभनो सम्भव होवा छतां वैक्रियमिभ केम न होय ? ए शङ्कानुं समाधान १४२-४३ १४४ १४४ १४७-४९ १५० १५० १५४ १५४ १५४-६० १५८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र १६० १६६ १६७ १८८ गाथा विषय __ २९ केवलिसमुद्भातर्नु सविस्तर स्वरूपनिरमण १५१-६४ २९ बधाए केवलियो समुद्धात करे के न करे ? ए शानु समाधान ३० उपयोगनां नाम अने मार्मणास्थानना उत्तरभेदोमा उपयोग १६४ ३० बार उपयोगमां साकार अने अनाकार विभाग १६४ ३०-३४ चौद मार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कया कया उपयोगो होय ? तेनुं स्वरूप ३५ योगनी अन्दर जीवस्थान, गुणस्थान, योग अने उपयोगने आश्री मतान्तरतुं निरूपण ३६ चौदमार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कई कई लेश्याओ होय ? तेनुं स्वरूप ३७ मार्गणास्थानमा स्वस्थाननी अपेक्षाए गतिनुं गतिसाथे परस्पर अल्पबहुत्व अने मनुष्यादिनी सङ्ख्याप्रमाण विगेरे सविशेष स्वरूपनिरूपण ३८ मार्गणास्थानमा इन्द्रियनु इन्द्रियसाथे अने काय काय साये परस्पर अल्पबहुत्व ३९ मार्गणास्थानमा योगर्नु योगसाथे अने बेदतुं वेद साथे परस्पर अल्पबहुत्व ४०-४२ मार्गणास्थानमां कषायनी साथे कषाय ज्ञाननी साथे ज्ञान,, संय मनी साथे संयमनुं अने दर्शननी साथे दर्शननुं परस्पर अल्पबद्दुत्व १७५-७६ ४३-१४ मार्गणास्थानमा लेश्यानी साथे लेश्यानु, भन्याभव्य, सम्यक्त्वनी साथे सम्यक्त्वनु संलि-असंजिनुं अने आहारक-अनाहारकनुं परस्पर अल्पवहुत्व ४४ सिद्ध करतां संसारी जीवो अनन्तगुणा छे अने ते बधाए प्रायः आहारी छे तो अनाहारीथी आहारी असङ्ख्यातगुणा केम सम्भवे ? ए शङ्कानुं समाधान १७९ तृतीय गुणस्थानाधिकार. ४५ गुणस्थानमां चौद जीवस्थाननुं स्वरूप १७९ ४६-४७ गुणस्थानमा पंदर योगोनुं स्वरूप १०९-८० ४८-४९ गुणस्थानमां बार उपयोगनु स्वरूप बने ते विषयमा कार्मप्रन्थिक करतां सिद्धान्तनुं जुदं मन्तव्यः १८०-८२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ विषय गागा ५० गुणस्थानमा छ लेश्यानुं स्वरूप ५० मिथ्यात्वादि मूलबन्धहेतुनुं कथन ५० अहीं प्रमादने बन्धहेतु तरीके केम न जणाव्यो ? तेनुं समाधान ५१ मिथ्यात्व अने अविरतिरूप मूलबन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं खरूप ५२ कषाय अने योगरूप मूलबन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं स्वरूप ५२ गुणस्थानमां चार मूलबन्धहेतुर्नु स्वरूप ५३ प्रसङ्गोपाव मूलबन्धहेतुनो कर्मनी उत्तरप्रकृति आश्री विचार ५४ गुणस्थानमां सामान्यथी बन्धहेतुना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या ५५-५८ गुणस्थानमां बन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं सविशेष स्वरूप. ५९ गुणस्थानमां कर्मनी मूलप्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप ६० गुणस्थानमां कर्मनी मूलप्रकृतिनी सत्ता अने उदयनुं स्वरूप ६१-६२ गुणस्थानमां कर्मनी मूलप्रकृतिनी उदीरणानुं स्वरूप ६२-६३ गुणस्थानमां वर्तमान जीवोना अल्पबहुत्वनुं स्वरूप चतुर्थ भावाधिकार. ६४ छ भावनां नाम तेनी व्याख्या अने उत्तरभेदोनी सङ्ख्या ६४ औपशमिक भावना बे भेदोनुं स्वरूप ६५ क्षायिक अने क्षायोपशमिकभावना क्रमथी नव अने अढार भेदोनुं स्वरूप ६५ दानादि पांच लब्धियो प्रथम क्षायिकभावनी जाणावी अहीं क्षायोपशमिक भावनी कही तो विरोध केम नहिं ? ए श्रद्दानु समाधान ६६ औदयिक अने पारिणामिकभावना क्रमथी अढार अने त्रप्प भेदोनुं स्वरूप ६६ कर्मना उदयथी उत्पन्न थनारा निद्रापचक आदि घणा भावो होइ के छेतो छ भावोज केम कक्षा ? ए शङ्कानुं समाधान ६६ छट्ठा सान्निपातिक भावना छवीस भेदो ६७-६८ सान्निपातिक भावना संभवी शकता छ भेदोमांथी गत्यादि आभी केटला होय अने केटला न होय ? तेनुं स्वरूप ६८ सान्निपातिक भावना पूर्वे छवीस भेदो बताव्या छे आ ठेकाणे वीस अने पंदर मलीने पांत्रीस थाय छे तो विरोध क्रेम नहि ? ए शङ्कानुं समाधान ६९ जीवआश्रित आठ कर्मोमां औपशमिकादि पांच भावोनुं स्वरूप ६९ धर्मास्तिकायादि पांच अजीवनुं स्वरूप 6 पत्र १८२ १८३ १८३ १८३ १८३ १८४ १८४ १८५ १८५-८७ १८७ १८८ १८८ १८९ १८९ १९० १९० १९० १९१ १९१ १९१ १९२ १९३ १९३ १९३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ १९४ १९६ १९४ १९९ माया विषय ६९ अतीतादि भेदथी कालना पण त्रण भेदो थई शके छे तो वे . अहीं केम बताव्या नहिं ? ए शब्दानुं समाधान ६९ समयथी लईने शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त कालनु स्वरूप १९४ ६९ धर्मास्तिकायादि पांच अजीवमा कया कया भावो होय ? तेनुं स्वरूप १९६ ६९ कर्मस्कन्धाश्रित औपशमिकादि भावो अजीवोने पण संभवे छे. तो ते कहेवा जोइए ? ए बाबतनो निर्णय ७. प्रत्येक गुणस्थानमां औपशमिकादि पांच भावोमांथी कया कया ___भावो होय ? तेनुं स्वरूप ७० क्षायोपशमिक, औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक अने सान्निपातिक भावना उत्तरभेदो जेटला जे गुणस्थानमा होय? तेनु स्वरूप ७० उपरोक्त अर्थने प्रतिपादन करनारी सङ्ग्रह गाथाओ १९८ पञ्चम सङ्ख्याधिकार. ७१ सयातना त्रण, असख्यातना नव अने अनन्तना नव मळी संख्याना एकवीस भेदोनु कथन ७२ जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्टसङ्ख्यात तथा पल्य(पाला ) अने परिधिनुं स्वरूप २०० ७३ चार पल्योनां (पालानां) नाम तेनी उंडाइ, वेदिका वगेरेनुं स्वरूप २०१ ७४-७७ पल्योने ( पालाओने ) भरवा अने खाली करवाथी केवी रीते उत्कृष्टसयातुं थाय ? तेनुं सविस्तर स्वरूप २०२-२०६ ७८-७९ नवप्रकारना असङ्ख्यातनुं अने नवप्रकारना अनन्तनुं स्वरूप २०७ ७९ जघन्यसङ्ख्यातादि संख्याना एकवीस भेदोनी स्थापना २०८ ८० अनुयोगद्वारसूत्रना अभिप्राय प्रमाणे उपरोक्त भेदोनुं कथन अने ते सूत्रनो पाठ २०९ ८०-८६ मतान्तरथी असङ्ख्यात अने अनन्तनुं सविस्तर स्वरूप २११-२१३ प्रस्तुत प्रकरणनी समाप्ति प्रन्थकारनी प्रशस्ति २१४ प्रथम परिशिष्ट द्वितीय परिशिष्ट तृतीय परिशिष्ट चतुर्थ परिशिष्ट पंचम परिशिष्ट षष्ठ परिशिष्ट cmo... Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... बृहत्तपागच्छनायक श्रीमद्-देवेन्द्रसूरिविनिर्मिताः चत्वारः कर्मग्रन्थाः । प्रथम-द्वितीय-चतुर्थाः स्वोपज्ञविवरणोपेताः तृतीयः पुनरन्याचार्यविरचितयाऽवचूरिरूपटीकया समलङ्कृतः Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ ॥ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिभ्यो नमः ॥ पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। ॥ नमः श्रीप्रवचनाय ॥ दिनेशवद्ध्यानवरप्रतापैरनन्तकालप्रचितं समन्तात् । योऽशोषयत् कर्मविपाकपकं, देवो मुदे वोऽस्तु स वर्धमानः ॥ १ ॥ ज्ञानादिगुणगुरूणां, धर्मगुरूणां प्रणम्य पदकमलम् । कर्मविपाके विवृति, स्मृतिबीजविवृद्धये विदधे ॥ २॥ तत्राऽऽदावेवाभीष्टदेवतानुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाह---- सिरिवीरजिणं वंदिय, कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कीरइ जिएण हेऊहिं जेण तो भण्णए कम्मं ॥१॥ श्रिया सकलत्रिभुवनजनमनश्चमत्कारिमनोहारिपरमार्हन्त्यमहामहिमाविस्तारि "अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च ।। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥" इतिस्पष्टाष्टप्रातिहार्यशोभया चतुस्त्रिंशदतिशयविभूत्या वा समन्वितो वीरः श्रीवीरः, स चासौ रागद्वेषमोहप्रभृतिवैरिवारपराजयाद् जिनश्च श्रीवीरजिनस्तं श्रीवीरजिनं-श्रीमद्वर्धमानखामिनं 'वन्दित्वा' विशुद्धमानसप्रणिधानसमन्वितेन वाग्योगेन स्तुत्वा, काययोगेन च प्रणम्य, "वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः” इति वचनात् । एतेन मङ्गलार्थमभीष्टदेवतायाः स्तुतिरुक्ता । क्त्वाप्रत्ययस्य चोत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह---'कर्मविपाकं वक्ष्ये' तत्र कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां विपाकः--अनुभवः कर्मविपाकस्तं कर्मविपाकं 'वक्ष्ये' अभिधास्थे । अनेनाभिधेयमाह । कथम् ? इत्याह---'समासतः सङ्केपेण, न विस्तरेण, दुष्षमानुभावापचीयमानमेघाssयुर्बलादिगुणानामैदंयुगीनजनानां विस्तराभिधाने सत्युपकारासम्भवात् , तदुपकारार्थ चैष शास्त्रारम्भप्रयासः । एतेन ससिप्तरुचिसत्त्वानाश्रित्य प्रयोजनमाचष्टे । सम्बन्धस्त्वर्थापत्तिगम्यः, स चोपायोपेयलक्षणः साध्यसाधनलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणो वा खयमभ्यूह्य इति । अथ 'कर्मविपाकं वक्ष्ये' इत्युक्तं तत्र कर्मशब्दं व्युत्पादयन्नाह ---'क्रियते' विधीयतेऽञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकव निरन्तरपुद्गलनिचिते लोके क्षीरनीरन्यायेन वययःपिण्डवद्वा कर्मवर्गणाद्रव्यमात्मस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा म्बद्धं 'येन' कारणेन 'ततः' तस्मात् कारणात् कर्म भण्यत इति सम्बन्धः । केन क्रियते ! इत्याह-- 'जीवेन' जन्तुना, तत्र जीवति - इन्द्रियपञ्चकमनोवाक्कायबलत्रयोच्छ्वासनिःश्वासाऽऽयुर्लक्षणान् दश प्राणान् यथायोगं धारयतीति जीवः । क इत्थम्भूतः ? इति चेद् उच्यतेयो मिथ्यात्वादिकलुषितरूपतया सातादिवेदनीयादिकर्मणामभिनिर्वर्तकः, तत्फलस्य च विशिष्टसातादेरुपभोक्ता, नरकादिभवेषु च यथाकर्मविपाकोदयं संसर्ता, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रासप - त्वरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्षवशाच्च निःशेषकर्माशापगमतः परिनिर्वाता स जीवः सत्त्वः प्राणी आत्मेत्यादिपर्यायः । उक्तं च- यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसत परिनिर्वाता, सात्मा नान्यलक्षणः ॥ इति । कैः कृत्वा जीवेन क्रियते ? इत्याह – 'हेतुभिः ' मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणैश्चतुर्भिः सामान्यरूपैः, "पडिणीयत्तण निन्हव, पओस उवघाय अंतराएण । अञ्च्चासायणयाए, आवरणदुगं जिओ जयइ || " इत्यादिभिर्विशेषप्रकारैरिहैव ( गा० ५३ ) वक्ष्यमाणैः । तदयमत्र तात्पर्यार्थः क्रियते जीवेन हेतुभिर्येन कारणेन ततः कर्म भण्यत इति । कथमेतत्सिद्धिः ? इति चेद् उच्यते-- इहात्मत्वेनाविशिष्टानामात्मनां यदिदं देवासुरमनुजतिर्यगादिरूपं क्ष्मापतिद्रमकमनीषिमन्दमहर्द्धिदरिद्रादिरूपं वा वैचित्र्यं तन्न निर्हेतुकमेष्टव्यम्, मा प्रापत् सदा भावाभावदोषप्रसङ्गः, “नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् " । सहेतुकत्वाभ्युपगमे च यदेवास्य हेतुस्तदेव चास्माकं कर्मेति मतमिति तत्सिद्धिः । यदवोचाम श्री दिनकृत्यटीकायां जीवस्थापनाधिकार एनमेवार्थम् -- क्ष्माभृद्रङ्ककयोर्मनीषिजडयो: सद्रूपनीरूपयोः, श्रीमद्दुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नीरोगरोगार्त्तयोः । सौभाग्यासुभगत्वसङ्गमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं, अन्यत्राप्युक्तम् यत् तत् कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥ आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् । नरादिरूपं चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् ॥ पौराणिका अपि कर्मसिद्धिं प्रतिपद्यन्ते । तथा च ते प्राहु: यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥ यतत्पुराकृतं कर्म, न स्मरन्तीह मानवाः । तदिदं पाण्डवज्येष्ठ !, दैवमित्यभिधीयते ॥ १ पर्यायाः क० ख० घ० । २ कार है ग० । ३ चेद्-इहा° स्व० ग० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । मुदितान्यपि मित्राणि, सुक्रुद्धाश्चैव शत्रवः । न हीमे तत् करिष्यन्ति, यत्न पूर्व कृतं त्वया ।। बौद्धा अप्याहुः इत एकनवतौ कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ! ।। तदपि च कर्म पुद्गलस्वरूपं प्रतिपत्तव्यम् , नामूर्तम् , अमूर्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासम्भवात् , आकाशादिवत् । यदाह अन्ने उ अमुत्तं चिय, कम्मं मन्नति वासणारूवं । तं तु न जुज्जइ तत्तो, उवघायाणुग्गहाभावा ।। नागास उवघायं, अणुग्गहं वा वि कुणइ सत्ताणं ॥ इत्यादि । तच कर्म प्रवाहतोऽनादि, "अणाइयं तं पवाहेण" इति वचनात् । यदि प्रवाहापेक्षयाऽपि सादि स्यात् तदा जीवानां पूर्व कर्मवियुक्तत्वमासीत् पश्चादकर्मकस्य जीवस्य कर्मणा सह संयोगः सञ्जातः, एवं सति मुक्तानामपि कर्मयोगः स्यात् , अकर्मकत्वाविशेषात् , ततश्च मुक्ता अमुक्ताः स्युः, न चेदमिष्टम् , तस्मादनादिर्जीवस्य कर्मणा सह संयोगः । नन्वनादिसंयोगे कथं वियोगो जीवस्य कर्मणा सह ? उच्यते--अनादिसंयोगेऽपि वियोगो दृष्टः काञ्चनोपलवत् । तथाहि---काञ्चनोपलानां यद्यप्यनादिसंयोगस्तथापि तथाविधसामग्रीसद्भावे धमनादिना किट्टिवियोगो दृष्टः; एवं जीवस्यापि ज्ञानदर्शनचारित्रध्यानानलादिनाऽनादिकर्मणा सह वियोगः सिद्धो भवति । यदाह भगवान् भाष्यसुधाम्मोनिधिः जैर्ह इह य कंचणोवलसंयोगोऽणाइसंतइगओ वि। वुच्छिज्जइ सोवायं, तह जोगो जीवकम्माणं ॥ (विशे० गा० १८१९) इत्यलं विस्तरेण ॥ १॥ अथ कतिभेदं कर्म ? इत्याशझ्याह पयइठिइरसपएसा, तं चउहा मोयगस्स दिटुंता । ____ मूलपगइट्ट उत्तरपगई अडवन्नसयभेयं ॥२॥ तत् कर्म पूर्वव्यावर्णितशब्दार्थ 'चतुर्घा' चतुष्पकारं चतुर्भेदं भवतीति शेषः । कथम् ! इत्याह--"पयइठिइरसपएस" त्ति, इह “गम्ययपः कर्माधारे" (सिद्धहेम० २-२-७४) इति पञ्चमी, यथा प्रासादात् प्रेक्षत इति । ततश्च प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशानाश्रित्य, प्रकृतिबन्धस्थितिबन्धरसबन्धप्रदेशबन्धतयेत्यर्थः । तत्र स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां यः समुदायः स प्रकृतिवन्धः, अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य यत् स्थितिकालनियमनं स स्थितिबन्धः, कर्मपुरलानामेव शुभोऽशुभो वा धात्यघाती वा यो रसः सोऽनुभागबन्धो रसबन्ध इत्यर्थः, कर्मपुद्गलानामेव यद ग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षदलिकसङ्ख्याप्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः । उक्तं च-- १ अन्ये तु अमूर्तमेव कर्म मन्यन्ते वासनारूपम् । तत् तु न युज्यते तत उपघातानुग्रहाभावात् ॥ नाकाशमुपधातमनुग्रहं वाऽपि कुरुते सत्त्वानाम् ॥ २ अनादिकं तत् प्रवाहेण ॥ ३ यथेह र काचनोपलसंयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि । व्युच्छिद्यते सोपायं तथा योगो जीवकर्मणोः ॥ ४ हम इह स०॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ठिईबंधु दलस्स ठिई, पएसबंधो पएसगहणं जं । ताण रसो अणुभागो, तस्समुदाओ पगइबंधो ।। (पञ्चसं० गा० ४३२) अन्यत्राप्युक्तम्-~ प्रकृतिः समुदायः स्यात् , स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसः प्रोक्तः, प्रदेशो दलसञ्चयः ।। इदं च प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशानां खरूपं 'मोदकस्य' कणिकादिमयलाकस्य 'दृष्टान्तात्' दृष्टान्तेन भावनीयम् । दृष्टान्तादित्यत्र तृतीयार्थे पञ्चमी । यदाह पाणिनिःस्वप्राकृतलक्षणे"व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति । यथा वातविनाशिद्रव्यनिष्पन्नो मोदकः प्रकृत्या वातमुपशमयति, पित्तोपशमकद्रव्यनिवृत्तः पित्तम् , कफापहारिद्रव्यसमुद्भूतः कफमित्येवंस्वभावा प्रकृतिः । स्थितिस्तु तस्यैव कस्यचिद्दिनमेकम् , अपरस्य तु दिनद्वयम् , एवं यावत् कस्यचिन्मासादिकमपि कालं भवति ततः परं विनाशादिति । रसः पुनः स्निग्धमधुरादिरूपस्तस्यैव कस्यचिदेकगुणः, अपरस्य द्विगुणः, अन्यस्य त्रिगुण इत्यादिकः । प्रदेशाश्च कणिक्कादिरूपास्तस्यैव कस्यचिदेकप्रमृतिप्रमाणाः, अन्यस्य तु प्रसूतिद्वयप्रमाणाः, यावदपरस्य सेतिकादिप्रमाणाः। एवं कर्मणोऽपि कस्यचिद् ज्ञानाच्छादनखभावा प्रकृतिः, अपरस्य दर्शनावरणरूपा, अन्यस्याऽऽहादादिप्रदानलक्षणा, कस्यचित् सम्यग्दर्शनादिविधातजननखभावेत्यादि । स्थितिश्च तस्यैव कस्यचित् त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीरूपा, अपरस्य तु सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिलक्षणेत्यादि । रसस्त्वनुभागशब्दवाच्यस्तस्यैवैकस्थानद्विस्थानत्रिस्थानादिरूपः । प्रदेशा अल्पबहुबहुतरबहुतमादिरूपा इति । पुनः किंविशिष्टं तत् कर्म भवति ? इत्याह ---"मूलपगइऽट्ट उत्तरपगईअडवन्नसयभेयं" ति मूलप्रकृतयः सामान्यरूपाः ‘अष्टौ' अष्टसङ्ख्या यत्र तन्मूलप्रकृत्यष्ट, उत्तरप्रकृतीनां-मूलप्रकृतिविशेषरूपाणामष्टपञ्चाशच्छतभेदा यस्य तदुत्तरप्रकृत्यष्टपञ्चाशच्छतभेदमिति ॥ २॥ ___ अधुना मूलप्रकृतिभेदतस्तस्यैवाष्टविधत्वमुत्तरप्रकृतिभेदतोऽष्टपञ्चाशच्छतभेदत्वं च प्रदर्शयन् खनामग्रामष्टौ मूलभेदान् एकैकस्य च भेदस्य यस्य यावन्त उत्तरभेदास्तांश्च वक्तुमाह-- इह नाणदसणावरणवेयमोहाऽऽउनामगोयाणि। विग्धं च पणनवदुअट्टवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥ 'इह' प्रवचने कर्मोच्यते इति शेषः । “नाणदंसणावरण"त्ति ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम् , ज्ञातिर्वा ज्ञानम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोध इत्यर्थः । तथा दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् , दृष्टिा दर्शनम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः । आत्रियते-आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् , यद्वा आवृणोति-आच्छादयति "रम्यादिभ्यः कर्तरि" (सि० ५-३-१२६) अनटि प्रत्यये आवरणं-मिथ्यात्वादिसचिवजीवव्यापाराहृतकर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः । ततो ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने तयोरावरणं ज्ञानदर्शनावरणं ज्ञानावरणं दर्शनावरणं चेत्यर्थः । तथा वेद्यते-सुखदुःखरूपत- १ स्थितिबन्धो दलस्य स्थितिः, प्रदेशबन्धः प्रदेशग्रहणं यत् । तेषां ( कर्मपुद्गलानां ) रसोऽनुभागस्तत्समुदायः प्रकृतिबन्धः ॥ २०बंध ग०॥ ३०ऽनेनेति दृष्टिक०ख० ग०१०॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । याऽनुभूयते यत् तद् वेद्यम् , “य एचातः" (सि० ५-१-२८) इति यप्रत्यये वेदनीयम् । यद्यपि सर्व कर्म वेद्यते तथापि पङ्कजादिशब्दवद वेद्यशब्दस्य रूढिविषयत्वात् सातासातरूपमेव कर्म वेद्यमित्युच्यते न शेषम् । तथा मोहयति-जानानमपि प्राणिनं सदसद्विवेकविकलं करोतीति मोहः, लिहादित्वादच्प्रत्ययः, मोहनीयमित्यर्थः । तथा एति-गच्छत्यनेन गत्यन्तरमित्यायुः, यद्वा एति-आगच्छति प्रतिबन्धकतां खकृतकर्मावाप्तनरकादि१र्गतेर्निर्गन्तुमनसोऽपि जन्तोरित्यायुः, उभयत्रापि औणादिको गुस्प्रत्ययः, यद्वा आयाति-भवाद् भवान्तरं सङ्कामतां जन्तूनां निश्चयेनोदयमागच्छति "पृषोदरादयः” (सि० ३-२-१५५) इत्यायुःशब्दसिद्धिः । यद्यपि च सर्व कर्म उदयमायाति तथाप्यस्त्यायुषो विशेषः, यतः शेषं कर्म बद्धं सत् किञ्चित्तस्मिन्नेव भवे उदयमायाति, किञ्चित्तु प्रदेशोदयभुक्तं जन्मान्तरेऽपि खवियाकत उदयं नायात्येव इत्युभयथाऽपि व्यभिचारः आयुषि त्वयं नास्ति, बद्धस्य तस्मिन्नेव भवेऽवेदनात् , जन्मान्तरसङ्क्रान्तौ तु खविपाकतोऽवश्यं वेदनादिति विशिष्टस्यैवोदयागमनस्य विवक्षितत्वात् तस्य चायुष्येव सद्भावात् तस्यैवैतन्नाम । अथवा आयान्त्युपभोगाय तमिन्नुदिते सति तद्भवप्रायोग्याणि सर्वाण्यपि शेषकर्माणीत्यायुः । तथा नामयति-गतिजातिप्रभृतिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम । तथा 'गुङ् शब्दे' गूयते-शब्द्यत उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् तद् गोत्रम् । ततो ज्ञानदर्शनावरणं च वेद्य च मोहश्चायुश्च नाम च गोत्रं च ज्ञानदर्शनावरणवेद्यमोहायुर्नामगोत्राणि । तथा विशेषेण हन्यन्ते-दानादिलब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति "स्थास्नायुधिन्याधिहनिभ्यः कः" इति कप्रत्यये 'विघ्नम्' अन्तरायम् । 'च:' समुच्चये । “पणनवदुअट्ठवीस'इत्यादि । अत्र द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिसमासः । भावार्थः पुनर. यम्-पञ्चविधं ज्ञानावरणम् , नवविधं दर्शनावरणम् , द्विविधं वेद्यम् , अष्टाविंशतिविधो मोहः, चतुर्विधमायुः, त्रिशतविधं नाम, त्रिभिरधिकं शतं त्रिशतं-व्युत्तरशतविधमित्यर्थः, द्विविधं गोत्रम् , पञ्चविधं विनमिति । __ अत्राह नन्वित्थं ज्ञानावरणाडुपन्यासे किश्चिदस्ति प्रयोजनम् ? उत यथाकथञ्चिदेव प्रवृत्तः ? इति, अस्तीति ब्रूमः । किं तद् ? इति चेद् उच्यते---इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य खतत्त्वभूतम् , तदभावे जीवत्वस्यैवायोगात् , चेतनालक्षणो हि जीवः, ततः स कथं ज्ञानदर्शनाभावे भवेत् ?; ज्ञानदर्शनयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानम् , तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविचारसन्ततिप्रवृत्तेः । अपि च---सर्वा अपि लब्धयो जीवस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायन्ते, न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य, “सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स, नो अणागारोवओगोवउतस्स" इति वचनप्रामाण्यात् । अन्यच्च यस्मिन् समये सकलकर्मविनिर्मुक्तो जीवः सञ्जायते तस्मिन् समये ज्ञानोपयोगोपयुक्त एव, न दर्शनोपयोगोपयुक्तः, दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये भावात् , ततो ज्ञानं प्रधानम् , तदावारकं च ज्ञानावरणं कर्म, ततस्तत् प्रथममुक्तम् । तदनन्तरं च दर्शनावरणम् , ज्ञानोपयोगाच्युतस्य दर्शनोपयोगेऽवस्थानात् । एते च ज्ञानदर्शनावरणे खवि १ ज्ञानिनमपि ग० ॥ २ दुर्गतेर्निष्क्रमितुम ख० ॥ ३ सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य नोऽनाकारोपयोगोपयुक्तस्य । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया पाकमुपदर्शयन्ती यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः । तथाहिज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षप्राप्तं विपाकतोऽनुभवन् सूक्ष्मसूक्ष्मतरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः खिद्यते भूरिलोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि वस्तूनि निजप्रज्ञयाऽभिजानानो बहुजनातिशायिनमात्मानं पश्यन् सुखं वेदयते; तथाऽतिनिबिडदर्शनावरणविपाकोदये जात्यन्धादिरनुभवति दुःखसन्दोहं वचनगोचरातिकान्तम् , दर्शनावरणक्षयोपशमपटिष्ठतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो यथावद् वस्तुनिकुरम्बं सम्यगवलोकमानो वेदयतेऽमन्दमानन्दसन्दोहम् , तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थे दर्शनावरणानन्तरं वेदनीयग्रहणम् । वेदनीयं च सुखदुःखे जनयति, अभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ, तौ च मोहनीयहेतुकौ, तत एतदर्थप्रतिपत्तये वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणम् । मोहनीयमूढाश्च जन्तवो बहारम्भपरिग्रहप्रभृतिकर्मादानासक्ता नरकाद्यायुष्कमारचयन्ति, ततो मोहनीयानन्तरमायुम्रहणम् । नरकाद्यायुष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादीनि नामान्युदयमायान्ति, तत आयुरनन्तरं नामग्रहणम् । नामकर्मोदये च नियमादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यम् , अतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणम् । गोत्रोदये चोच्चैःकुलोत्पन्नस्य प्रायो दानलाभान्तरायादिक्षयो भवति, राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात् ; नीचैःकुलोत्पन्नस्य तु दानलाभान्तरायाद्युदयः, नीचजातीनां तथादर्शनात् । तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणमिति ॥ ३ ॥ अथ 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायात् प्रथमं तावत् पञ्चधा ज्ञानावरणं व्याचिल्या महसुयओहीमणकेवलाणि नाणाणि तत्थ मइनाणं । वंजणवग्गहु चउहा, मणनयणविर्णिदियचउक्का ॥४॥ इह ज्ञानशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् मतिज्ञानम् , श्रुतज्ञानम् , अवधिज्ञानम् , “मण ति" पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् मनःपर्यवज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, केवलज्ञानम् । तत्र "बुधिं मनिच् ज्ञाने" मननं मतिः, यद्वा मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः-योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्च सा ज्ञानं च मतिज्ञानम् । इदं चाऽऽगमे आभिनिबोधिकज्ञानमुच्यते । यदाह भगवान् देवर्द्धिक्षमाश्रमण:नाणं पंचविहं पन्नत्तं, तं जहा-आमिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं । ( नन्दी पत्र ६५-१)। तत्र चायमाभिनिवोधिकज्ञानशब्दार्थ:--अभि-इत्याभिमुख्ये, नि-इति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखः-वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी नियतः इन्द्रियमनः समाश्रित्य खखविषयापेक्षी बोधनं बोधोऽभिनिबोधः, स एवाऽऽमिनिबोधिकम् , विनयादेराकृतिगणत्वादिकण्प्रत्ययः, अभिनिबुध्यत इत्यभिनिबोध इति कर्तरि लिहादित्वादच् वा, यद्वाऽभिनिबुध्यते आत्मना स इत्यभिनिबोध इति, कर्मणि घञ् , स एवाऽऽमिनिबोधिकमिति तथैव, आमिनिबोधिकं च तद् १ शानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आमिनिबोधकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानम् ॥ ... Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । ज्ञानं चाऽऽमिनिबोषिकज्ञानम् । तथा श्रवणं श्रुतम्-अभिलापप्लावितार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दाभिलाप्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् । तथाऽवधानमवधिः-इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम् , अत एवेदं प्रत्यक्षज्ञानम् । यदुक्तं नन्द्यध्ययने 'नोइंदियपञ्चक्खं तिविहं पन्नतं, तं जहा-ओहिनाणपञ्चक्खं मणपज्जवनाणपचक्खं केवलनाणपञ्चक्खं (नन्दी पत्र ७६-२)। ___ अथवा अवशब्दोऽधःशब्दार्थः, अव-अघोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, यद्वा अवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्च तद् ज्ञानं चावधिज्ञानम् । तथा परिः-सर्वतोभावे, अवनम् अवः, "तुदादिभ्योऽन्को" इत्यधिकारेऽकितौ चेत्यनेन औणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवो मनःपर्यवः-सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, मनःपर्यवश्च स ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम् । यद्वा मनःपर्यायज्ञानम्, तत्र संज्ञिभिजीवैः काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तुचिन्तनव्याहतेन मनोयोगेन मनम्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्यमानानि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाःश्चिन्तनानुगताः परिणामा मनःपर्यायाः, तेषु तेषां वा संबन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । यद्वा आत्मभिर्वस्तुचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पर्येति-अवगच्छतीति मनःपर्यायम् , “कर्मणोऽण्" (सि०५-१-७२) इति अण्प्रत्ययः, मनःपर्यायं च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । तथा केवलम्-एक मत्यादिज्ञानरहितत्वात् "नट्ठम्मि उ छाउमत्थिए नाणे" (आव०नि० गा० ५३९) इति वचनप्रामाण्यात् । आहयदि मत्यादीनि ज्ञानानि स्वखावरणक्षयोपशमभावेऽपि प्रादुःषन्ति ततो निःशेषतः खखावरणक्षये सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् , तत् कथं तेषां तदानीमभावः ?; आह च___आवरणदेसविगमे, जाई विजंति महसुयाईणि । आवरणसबविगमे, कह ताइँ न हुँति जीवस्स ? ॥ इति । उच्यते-इह यथा सहसभानोरतिसमुन्नतधनाधनधनपटलान्तरितस्यापान्तरालावस्थितकटकुट्यायावरणविवरप्रविष्ट[:] प्रकाशो घटपटादीन् प्रकाशयति, तथा केवलज्ञानावरणावृतस्य केवलज्ञानस्यापान्तरालमतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमरूपविवरविनिर्गतः प्रकाशो जीवादीन् प्रकाशयति, स च तथा प्रकाशयन् मतिज्ञानमित्यादिलक्षणं तत्तत्क्षयोपशमानुरूपमभिधानमुद्वहति ततो यथा सकलधनपटलकटकुट्याचावरणापगमे स तथाविधः प्रकाशः सहसमानोरस्पष्टरूपो न भवति किन्तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽन्य एव, तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमतिज्ञानाद्या नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षं मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष केवलज्ञानप्रत्यक्षम् ॥ २ नष्टे तु छानस्थिके शाने ॥ ३ आवरणदेशविगमे, यानि विद्यन्ते मतिश्रुतादीनि । आवरणसर्व( सर्वाबरण) विगमे, कथं तानि न भवन्ति जीवस्य? ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा बरणविलये न तथाविधो भतिज्ञानादिसंज्ञितः केवलज्ञानस्य प्रकाशो भवति, किन्तु सर्वात्मना यमावस्थितं वस्तु परिच्छिन्दन् परिस्फुटरूपोऽन्य एवेत्यदोषः । उक्तं च श्रीपूज्यैः ---- कटविवरागयकिरणा, मेहंतरियस्स जह दिणेसस्स । ते कडमेहावगमे, न हुंति जह तह इमाई पि ॥ अन्यैरपि न्यगादि-- मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः ।। यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः ॥ अन्ये पुनराहुः--सन्त्येव मतिज्ञानादीन्यपि सयोगिकेवल्यादौ, केवलमफलत्वात् सन्त्यपि वदानी न विवक्ष्यन्ते, यथा सूर्योदये नक्षत्रादीनि । उक्तं च- . अन्ने आमिणिबोहियणाणाईणि वि जिणस्स विजंति । अफलाणि य सूरुदए, जहेव नक्खत्तमाईणि ॥ शुद्धं वा केवलम् , तदावरणमलकलङ्कपकापगमात् । सकलं वा केवलम् , तत्पथमतयैव निःशेषतदावरण विगमतः संपूर्णोत्पत्तेः । असाधारणं वा केवलम् , अनन्यसहशत्वात् । अनन्तं वा केवलम् , ज्ञेयानन्तत्वात् अपर्यवसितानन्तकालावस्थायित्वाद्वा । निर्व्याघातं वा केवलम् , लोकेऽलोके वा क्वापि व्याघाताभावात् । केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं यथावस्थितसमस्तभूतभवद्भाविभावखभावावभासि ज्ञानमिति भावना। आह-नन्वेतेषां पञ्चानां ज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किं कारणम् ? उच्यते---इह मतिश्रुते तावदेकत्र वक्तव्ये, परस्परमनयोः खामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधर्म्यात् । तथाहिय एव मतिज्ञानस्य खामी स एव श्रुतज्ञानस्य य एव श्रुतज्ञानस्य खामी स एव मतिज्ञानस्यापि "जैत्य मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ भइनाणं" (नन्दी पत्र १४०-१) इत्यादिवचनप्रामाण्यात् , ततः खामिसाधर्म्यम् । तथा यावानेव मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेव श्रुतज्ञानस्यापि, तत्र प्रवाहापेक्षयाऽतीतानागतवर्तमानरूपः सर्वकालः, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया षट्षष्टिसागरोपमाणि समधिकानि, उक्तं च------ दो बारे विजयाइसु, गयम्स तिन्नऽञ्चुए अहव ताई। अइरेगं नरमवियं, नाणाजीवाण सम्बद्धा ॥ (विशे० गा० २७६२) इति कालसाधर्म्यम् । यथा चेन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं तथा श्रुतज्ञानमपीति कारणसाध१ कटविवरागतकिरणाः, मेघान्तरितस्य यथा दिनेशस्य । ते कटमेघापगमे, न भवन्ति यथा तथेमान्यपि ॥ २ अन्ये आमिनिबोधिकज्ञानादीन्यपि जिनस्य विद्यन्ते। अफलानि च सूर्योदये यथैव नक्षत्रादीनि ॥ ३ यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानम् ॥ ४ द्वौ वारी विजयादिषु, गतस्य त्रीन् ( बारान् ) अच्युतेऽथवा तानि ( सागराणि ६६)। अतिरेक नरभविकं नानाजीवानां सर्वाता । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्ममन्या। र्यम् । तमा यथा मतिज्ञानमादेशतः सर्वव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि इति विषयसाधर्म्यम् । यथा च मतिज्ञानं परोक्षं तथा भुतज्ञानमपि इति परोक्षत्वसाधर्म्यम् । तत इत्थं खाम्यादिसाधादेते मतिश्रुते नियमादेकत्र वक्तव्ये, ते चावध्यादिज्ञानेभ्यः प्रागेव, तद्भाव एवाऽवध्यादिसनावात् । उक्तं च जै सामिकालकारणविसयपरोक्खत्तणेहि तुल्लाई । तम्भावे सेसाणि य, तेणाऽऽईए मइसुयाइं ॥ (विशे० गा०८५) ननु भवतामेका मतिश्रुते, प्रागेव चावध्यादिभ्यः, परमेतयोरेव मतिश्रुतयोर्मध्ये पूर्व मतिः पश्चात् श्रुतमित्येव तत् कथम् ? उच्यते-मतिपूर्वत्वात् श्रुतज्ञानस्स, तथाहि-सर्वत्रापि पूर्वमवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चात् श्रुतम् । यदाह निविडबडिमसम्भारतिर- .. स्कारतरणिः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः मैइपुवं सुयमुत्तं, न मई सुयपुखिया विसेसोऽयं । पुवं पालणपूरणभावाओ जं मई तस्स ॥ (विशे० गा० १०५) नन्धध्ययनचूर्णावप्युक्तम्तेसै वि य मइपुवयं सुयं ति किचा पुर्व मइनाणं कयं, तपिट्ठओ सुयं ति ॥ (पत्र ११) आह-यदि खामित्वादिमिरनयोरमेदस्तहि द्वयोरप्येकत्वमस्तु, मेदहेत्वभावाद् अभेदहेतूना चाभिहितत्वात् , तदयुक्तम् , भेदहेत्वभावस्यासिद्धत्वात् । तथाहि-खाम्यादिभिरभेदे सत्यपि लक्षणभेदादनयोर्भेदः, तथाहि-मन्यते योग्योऽर्थोऽनयेति मतिः, श्रवणं श्रुतमित्यादि । तथा हेतुफलमावाद् मेदः, तथाहि-मतिज्ञानं श्रुतस्य कारणम् , श्रुतं तु कार्यम् । यञ्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाक् तत् तस्य कारणम् , यथा घटस्य मृत्पिण्डः, तमाहि-श्रुतेष्वपि बहुषु ग्रन्थेषु यद्विषयं स्मरणमीहाऽपोहादि वाऽधिकतरं प्रवर्तते स अन्यः स्फुटतरः प्रतिभाति न शेषः । तथा मेद मेवाद् मेदः, तथाहि-मतिज्ञानमष्टाविंशत्यादिभेदम् , श्रुतज्ञानं तु चतुर्दशादिमेवम् । तथा इन्द्रियविभागाद् भेदः, तस्मतिपादिका चेयं पूर्वान्तर्गता गावा सोइंदिओवलद्धी, होइ सुयं सेसयं तु महनाणं । मुत्तूणं दबसुयं, अक्खरलंभो य सेसेसु ॥ (विशे० गा० ११७) तथा वैल्कसमं मतिज्ञानं कारणत्वात् , शुम्बसमं श्रुतज्ञानं तत्कार्यस्वादिस्यप्यनयोर्मेदनिबन्धनम् । तथा इतश्च मेद:- मतिज्ञानमनक्षरं साक्षरं च, तथाहि-अवग्रहज्ञानमनक्षरम् , तस्यानिदेश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकतया निर्विकल्पत्वात् ; ईहादिज्ञानं तु साक्षरम् , तस्य परामर्शदिरूपतयाऽवश्यं वर्णाऽऽहषितत्वात् ; भुतज्ञानं पुनः साक्षरमेव, अक्षरमन्तरेण शब्दार्थपर्यालोचनमानुपपत्तेः। तथा इतश्च मेद:-मूककल्सं मतिज्ञानम् , खमात्रमत्यायकत्वात अमूककल्यं १ यत् खामिकालकारणविषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये । तद्भावे शेषाणि च तेनाऽऽदौ मतिश्रुते ॥ २ मतिपूर्व श्रुतमुकं न मतिः श्रुतपूर्षिका विशेषोऽयम् । पूर्व पालनपूरणमानास् यन्मतिस्तस (श्रुतस्य ) ॥ ३ तयोरपि च मतिपूर्वकं श्रुतमिति कृत्वा पूर्व मतिज्ञानं कृतं तत्पृछतः श्रुतमिति ॥ ४ श्रोग्रेन्द्रियोपलब्धिः भवति श्रुतं शेषकं तु मतिज्ञानम् । मुक्त्वा द्रव्यश्रुतमक्षरलाभश्व शेषेषु ॥ ५ खासदशम् ॥ ६ रज्जुसदशम् ॥ मिश्रितलाव ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसरिविरचितखोपझटीकोपतः [गामा भुतज्ञानम् , खपरप्रत्यायकत्वात् । तथा चामूनेव हेतून संगृहीतवान् माप्यसुधाम्भोनिधिः लक्खणमेया हेउफलभावओ मेयइंदियविभागा। वागक्खरम्येयरमेया मेओ मइसुयाणं ।। (विशे० गा० ९७) तथा कालविपर्ययखामित्वलाभसाधर्म्यान्मतिश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानम् , तथाहि-अपतिपतितैकसत्त्वाधारापेक्षयाऽवस्थितिकालोऽवधिज्ञानस्य षट्षष्टिसागरोपमाणि । तथा यथैव मतिश्रुतज्ञाने मिथ्यात्वोदयतो विपर्ययतामासादयतस्तथाऽवधिज्ञानमपि, तथाहि-मिथ्यादृष्टेः सतस्तान्येव मतिश्रुतावधिज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानि भवन्ति । उक्तं च__ माधत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् ॥ (प्रशम० पद्य २२७) इति । तथा य एव मतिश्रुतयोः खामी स एवावधिज्ञानस्यापि । तथा विभज्ञानिनस्त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानानां लाभसंभवस्ततो लाभसाधर्म्यम् । अवधिज्ञानानन्तरं च छद्मस्थविषयभावप्रत्यक्षत्वसाधान्मनःपर्यायज्ञानमुक्तम् , तथाहियथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति छद्मस्थसाधर्म्यम् । तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयं तथा मनःपर्यायज्ञानमपि, तस्य मनःपुद्गलाऽऽलम्बनत्वाद् इति विषयसाधर्म्यम् । तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति भावसाधर्म्यम् । तथा यथाऽवधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति प्रत्यक्षत्वसाधर्म्यम् । उक्तं च कालविवजयसामित्तलामसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छ उमत्थविसयभावाइसाहम्मा ॥ (विशे० गा० ८७) तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानस्योपन्यासः, सर्वोत्तमत्वाद अप्रमत्तयतिखामिसाधात् सर्वावसाने लाभाच । तथाहि-सर्वाण्यपि मतिज्ञानादीनि ज्ञानानि देशतः परिच्छेदकानि, केवलज्ञानं तु सकलवस्तुस्तोमपरिच्छेदकं सर्वोत्तमम् , सर्वोत्तमत्वाच्चान्ते सर्वशिरःशेखरकल्पमुपन्यस्तम् । तथा यथा मनःपर्यवज्ञानमप्रमत्तयतेरेवोत्पद्यते तथा केवलज्ञानमपि इत्यप्रमत्तयतिखामिसाधर्म्यम् । तथा यः सर्वाण्यपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्यः स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानमवामोति, ततः सर्वान्ते केवलमुक्तम् । उक्तं च 'अंते केवलमुत्तमजइसामित्तायसाणलाभाओ॥ (धर्मसं० गा० ८५) इति ॥ व्याख्यातानि नामसंस्कारमात्रेण पञ्चापि ज्ञानानि । अथामून्येव सविस्तरं व्याचिख्यासुः प्रथमं मतिज्ञानं प्रकटयन्नाह ---"तत्थ महनाणं" इत्यादि । 'तत्र' तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं भवतीत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः । इह किल द्वेधा मतिज्ञानम्-श्रुतनिश्रितमभुतनिश्रितं च । तत्र च यत् प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि सहजविशिष्टक्षयोपशमवशादुत्पद्यते तद् अश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम् , यदाह श्रीदेवर्द्धिवाचक: १ लक्षणमेदाद् हेतुफलभावतो भेदेन्द्रियविभागात् । वल्काक्षरमूकेतरमेदाझेदो मतिश्रुतयोः ॥ २°लो मतिश्रुतयोरिवावधि ग० रु०॥ ३ कालविपर्ययखामित्वलामसाधर्म्यतोऽवधिः ततः । मानसं (मनःपर्याय) इतः छपस्थविषयभावादिसाधर्म्यात् ॥ ४ 'कल्पे उप का घ0 रु०॥ ५ अन्ते केवलमुत्तमयतिखा. मित्वानसानसाभात्॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । 'से किं तं महनाणं ! महनाणं दुविहं पन्नतं, तं जहा–सुयनिस्सियं च अस्सुयनिस्सियं च । से किं तं अस्सुयनिस्सियं ? अस्सुयनिस्सियं चउविहं पन्नतं, तं जहा उम्पत्तिया वेणइया, कम्मिया परिणामिया । बुद्धी चउबिहा वुत्ता, पंचमा नोवलन्भई ।। (नन्दी पत्र ११४-१) तत्रौत्पत्तिकी बुद्धिर्यथा रोहकस्य । वैनयिकी बुद्धिः पददर्शनात्करिण्यादिज्ञायकच्छात्रस्येव । कर्मजा कर्षकस्येव । पारिणामिकी श्रीवजखामिन इव । यत्तु पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले पुनरश्रुतानुसारितया समुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितम् । यदुक्तं श्रीविशेषावश्यके पुँवं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं । तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउकं तं ॥ (विशे० गा० १६९) तचतुर्धा भवति, तद्यथा--अवग्रह ईहा अपायः धारणा । यदाह___ से किं तं सुयनिस्सियं मइनाणं ? सुयनिस्सियं मइनाणं चउन्विहं पन्नतं, तं जहा-- उग्गहो ईहा अवाए धारणा ।। ( नन्दी पत्र १६८-१) पुनरवग्रहो द्वेषा-व्यञ्जनावग्रहः अर्थावग्रहश्च । आह च___ "से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पनते, तं जहा-बंजणुग्गहे अत्थुग्गहे य ।। (नन्दी पत्र १६८-२) तत्र व्यज्यते-प्रकटीक्रियतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम् । आह च-- जिजइ जेणत्यो घड्ड व दीवेण वंजणं तं च । (विशे० गा० १९४) तचोपकरणेन्द्रियं कदम्बपुष्पातिमुक्तकपुष्पक्षुरप्रनानाकृतिसंस्थितश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनलक्षणं शब्दगन्धरसस्पर्शपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा । ततश्च व्यञ्जनेनोपकरणेन्द्रियेण व्यञ्जनानां शब्दादिपरिणतद्रव्याणामवग्रहणं परिच्छेदनमेकस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोपाद्यञ्जनावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानरूपार्थावग्रहादघोऽव्यक्ततरं ज्ञानमित्यर्थः । अयं चतुर्धा । यदाह सूत्रकृत्"वंजणवग्गहु चउह" ति स्पष्टम् । चातुर्विध्यमेव भावयति--"मणनयणविणिंदियचउक"ति मनग्ध मानसं नयनं च लोचनं मनोनयने, मनोनयने विना मनोनयनविना, नाम नान्नैकायें समासो बहुलम्" (सि० ३-१-१८) इति समासः । इन्द्रियाणां चतुष्कमिन्द्रियचतुष्कं तस्माद् इन्द्रियचतुष्कात् , अत्र "गम्ययपः कर्माधारे" (सि० २-२-७४ ) इति पञ्चमी । मनोनयनवर्जमिन्द्रियचतुष्कमाश्रित्य व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्षा भवतीति भावार्थः । १ अथ किं तद् मतिज्ञानम् !, मतिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तयथा-श्रुतनिधितं चाश्रुतनिधितं च । अप कि तदधुतनिश्रितम् ? अश्रुतनिश्रितं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-औत्पत्तिकी वैनयिकी, कर्मजा पारिणामिकी। बुद्धिचतुर्विधा प्रोक्का, पश्चमी नोपलभ्यते ॥ २ °पारि ख० ग० ॥ ३ पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्यत् साम्प्रतं श्रुतावीतं । तद् निश्रितमितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत् ॥ ४ अथ किं तत् श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानम् ? श्रुतनित्रितं मतिज्ञानं चतुर्विध प्रशप्तम् , तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायः धारणा ॥ ५ अथ कोऽसाववप्रहः ? अवप्रहो द्विविधः प्राप्तः, तद्यथा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्यावग्रहश्च ॥ ६ मते वंजक० ग०॥ ७ व्यज्यते येनार्थ: घट इस दीपेन न्यजनं तच ॥ ८ कचन्द्रक्षु क°कपुष्पचन्द्रा घ०॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेनापरिविरतिस्त्रोपवाटीकोपेतः उक्वं च नम्बध्ययने से' किं तं जणुम्गहे ? वंजणुग्गहे चउबिहे पन्नते, तं जहा-सोइंदियवंजणुम्गहे पाणिदियवंजणुग्गहे रसणिदियवंजणुग्गहे फासिदियवंजणुग्गहे ।। (नन्दी पत्र १६९-२) मनोनयनयोर्वर्जनं किमर्थम् ! इति चेद् उच्यते-मनोनयनयोरप्राप्तकारित्वात् , अप्राप्तकारित्वं च विषयकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात् , प्राप्तकारित्वे पुनरनलजलशूल्यादीनां चिन्तनेडबलोकने च दहनक्लेदनपाटनादयः स्युः । अत्र च विषयदेशं गत्वा न पश्यति, प्राप्तं चार्थ नालबत इत्येतावनियम्यते, मूर्तिमता पुनः प्राप्तेन मवत एवानुग्रहोपघातौ दिनकरकिरणादिनेति । अन्यस्त्वाह-व्यवहितार्थानुपलब्धेरनुमानात् प्राप्तकारित्वं लोचनस्पति, एतदयुक्तम् , अनैकान्तिकत्वात् , काचाम्रपटलस्फटिकान्तरितस्याप्युपलब्धेः । स्यादेतत् , नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थ गृहन्तीति दर्शनरश्मीनां तैजसत्वात् तेजोदन्यैरप्रतिस्खलनाददोष इति, एतदप्ययुक्तम् , महाज्वालादौ प्रतिस्खलनोपलब्धेरित्यत्र बहु वक्तव्यम् तन्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात् । ___ व्यञ्जनावग्रहस्य च कालो जघन्य आवलिकासयभागतुल्यः, उत्कृष्ट आनप्राणपृथक्त्वम् । उक्तं च वणवग्गहकालो, आवलियअसंखभागतुल्लो उ। थोवो उक्कोसो पुण, आणापाणप्पहुत्तं ति ॥ इति ॥४॥ उक्तचतुर्धा व्यञ्जनावग्रहः । अथार्थावग्रहादीन् व्याचिख्यासुराह अत्थुग्गहइहावायधारणा करणमाणसहि छहा। इय अहवीसभेयं, चउदसहा वीसहा व सुयं ॥५॥ अर्यत इत्यर्थस्तस्य शब्दरूपादिभेदानामन्यतरेणापि भेदेनानिर्धारितस्य सामान्यरूपस्यावाहणमर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानमित्यर्थः । स च करणमानसैः षोढा भवति, तत्र करणानि चेन्द्रियाणि पञ्च मानसं च मनः करणमानसानि तैः करणमानसैः कृत्वा । इदमुकं भवति-श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः १ चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः २ घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः ३ रसनेन्द्रियार्थावग्रहः ४ स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहः ५ मानसार्थावग्रहः ६ इति षोदाऽर्थावग्रहः । तथाऽवगृहीतस्यैव वस्तुनः 'किमयं भवेत् स्थाणुरेव ? न तु पुरुषः' इत्यादिवस्तुधर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा, ईहनमीहेति कृत्वा । अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो, न चाधुना सम्भवतीह मानवः । प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ॥ इत्याचन्वयधर्मघटनव्यतिरेकधर्मनिराकरणाभिमुखतालिजितो ज्ञान विशेष ईहेति हृदयम् । साऽपि करणमानसैः पोटैव । तथा ईहितस्यैव वस्तुनः स्थाणुरेवायमिति निश्चयात्मको बोपविशेषोऽपायः, अयमपि करणमानसैः षोढा । तथा निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृतिवासनारूपं धरणं अथ कोऽसौ व्यञ्जनावग्रहः? व्यचनावप्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियव्यअनावग्रहो प्राणेन्द्रिय व्यसनावग्रहो रसनेन्दियन्यजनावप्रहः खर्गेन्द्रियव्यजनावग्रहः ॥ २ व्यजनावग्रहकाल भावळिकासमभागनुस्पस्तु । स्तोक उत्कृष्टः पुनरानप्राणमुक्त्वमिति ।। ३ स्थाणुनानेत्यर्थः ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपकनामा प्रथमः कर्मवन्तः । भारणा । साऽपि करणमानसैः षोदैव । अर्थावग्रहादीनां च काप्रमाणमिद उग्गह एक समय, ईहाऽवाया मुहुत्तमद्धं तु । कालमसंखं संख, च धारणा होइ नायवा ॥ (मा० नि० गा०१) इति । पूर्वोक्तप्रकारेणावग्रहादीनां चतुर्णा प्रत्येकं षडिषत्वात् व्यजनावग्रह मेदचतुष्टयेन सह श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं भवति । अश्रुतनिश्रितेन त्वौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुटयेन सह द्वात्रिंशद्भेदं भवति । जातिस्मरणमपि समतिकान्तसमपातभवावगमखरूपं मतिज्ञा. नभेद एव । तथा चाचाराङ्गटीका जातिस्मरणं त्वामिनिबोषिकविशेषः ।। (पत्र २०-१) अथवा "बहु१बहुविध२ क्षिप्रा३ऽनिश्रिता४ऽसन्दिग्ध५ध्रुवाणां ६ सेतराणाम्" (तत्त्वा० अ० १ सू० १६) इति वचनादष्टाविंशतिरपि द्वादशधा भिद्यते । तथाहि-बहूनामपि श्रोतृणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थेऽपि शङ्खमेर्यादितूर्यसमुदाये क्षयोपशमवैचित्र्यात् कश्चिदवग्रहादिभिर्बहु गृहाति, एकहेलाम्फालितानामपि शङ्खमेर्यादितूर्याणां पृथक् पृथक् शब्दं गृह्णातीत्यर्थः १ । अपरस्त्वबहु गृह्णाति, अव्यक्ततूर्यध्वनिमेवोपलभत इत्यर्थः २। अन्यस्तु योषिदादिवाघमानतामधुरमन्द्रत्वादिबहुपर्यायोपेतान् शङ्खादिध्वनीनं पृथक् पृथग् जानातीति बहुविधग्राहीत्युच्यते ३ । एकद्विपर्यायोपेतांस्तु तानेव जानानोऽबहुविधग्राही ४ । अन्यस्तु क्षिप्रमचिरेणार्थ जानाति ५। अन्यस्तु विमृश्य चिरेणेति ६ । अन्यस्त्वनिश्रितमलिङ्गं गृह्णाति न पुनः पताकयेव देवकुलम् ७ । अपरस्तु पताकया देवकुलमिव लिङ्गनिश्रया गृह्णाति ८ । यद् असंशयं गृह्णाति तद् असन्दिग्धम् ९ । संशयोपेतं तु यद् गृह्णाति तत् सन्दिग्धम् १० । यद् एकदा गृहीतं तत् सर्वदैवावश्यं गृह्णाति न पुनः कालान्तरे तहणे परोपदेशादिकमपेक्षते तद् ध्रुवम् ११ । यत् पुनः कदाचिदेव गृह्णाति न सर्वदा तद् अध्रुवम् १२ । एवमेतैर्द्वादशभिर्भेदैरवग्रहादयः पूर्वोक्त मेदयुक्ता वस्तु गृहन्तीत्वष्टाविंशत्या द्वादशभिर्गुणितया त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि भवन्ति । यदाह भाष्यपीयूषपयोधिः "ज बहुबहुविहखिप्पानिस्सियनिच्छियधुवेयरविभता । पुणरुग्गहादओ तो, तं छत्तीसं तिसयमेयं ॥ नाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । बहुविहमणेगमेयं, इक्विकं निद्धमहुराई ॥ बिप्पमचिरेण तं चिय, सरूवओ तं अणिस्सियमलिंगं । निच्छियमसंसयं जं, धुवमच्चंतं न य कयाई ॥ (विशे० गा० ३०७-९) १ अवह एकं समयमीहाऽपायौ मुहूर्तमध्यं (मिसमुहूर्त) तु । कालमसङ्ख्यातं सायातं च धारमा मपति ज्ञातव्या ॥२°न् पृथग् जाक० ख० ग०॥ ३°श्य विमृश्य चि° ख० घ० अ०॥ ४ यद् बहुबहुविवक्षिप्रानिधितनिश्चितध्रुवेतरविभक्ताः । पुनरवहादयोऽतस्तत् षदात्रिंशत्रिशतमेदम् ॥ ५ नानाशब्दसमूहं पहुं पृथग जानाति भिन्नजातिकम् । बहुविधमनेकमेदमेकैकं निग्धमधुरादिं ॥ ६ नाणं सहक ब.ग.प. ३०॥ क्षिप्रमचिरेण तथैव खरूपतः तदनिश्रितमलिगम् । निश्चितमसंशयं यद् ध्रुवमत्यन्तं न कदाचित् ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा अश्रुतनिचितबुद्धिचतुष्टयेन सह चत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि मतिज्ञानस्य मेदानां भवन्ति । यद्वा मतिज्ञानं चतुर्विषं द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् । यदाहुर्निर्दलिताज्ञानसम्भारमसराः श्रीदेवेर्द्धिवाचकवरा: १४ तं समासओ चउहिं पन्नत्तं तं जहा दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ । दखओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबदबाई जाणइ न पासइ । खित्तओ णं आभिणिबोहियनाणी एसेणं सब खितं जाणइ न पासइ । कालओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबकाळं जाणइ न पासइ । भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबभावे जाणइ न पासइ । ( नन्दी पत्र १८३ - २ ) इति । व्याख्यातं सप्रपञ्चं मतिज्ञानम् । साम्प्रतं श्रुतज्ञानं व्याचिख्यासुराह - " चउदसहा वीसहा व सुयं "ति 'श्रुतं' श्रुतज्ञानं 'चतुर्दशधा' चतुर्दशभेदं 'विंशतिषा' विंशतिप्रकारं वा भवतीति ॥ ५ ॥ तत्र प्रथमं श्रुतस्य चतुर्दश भेदान् व्याख्यानयन्नाह - अक्खर सन्नी सम्मं, साईअं खलु सपज्जबसियं च । गमियं अंगपविद्वं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ ६ ॥ इह श्रुतशब्दः पूर्वगाथातः सम्बध्यते । ततोऽक्षरश्रुतं १ संज्ञिश्रुतं २ सम्यक्श्रुतं ३ सादिश्रुतं ४ सपर्यवसितश्रुतं ५ गमिकश्रुतम् ६ अङ्गप्रविष्टश्रुतम् ७ इत्येते सप्त भेदाः सपतिपक्षाः श्रुतस्य चतुर्दश भेदा भवन्ति । तथाहि अक्षरश्रुतप्रतिपक्षम् अनक्षरश्रुतम् १ एवमसंशिश्रुतं २ मिथ्याश्रुतम् ३ अनादिश्रुतम् ४ अपर्यवसितश्रुतम् ५ अगमिकश्रुतम् ६ अङ्गबाश्रुतम् ७ इति । तत्राक्षरं त्रिधा - संज्ञाव्यञ्जनलब्धि भेदात् । उक्तं च * तं सन्नावंजणलद्धिसन्नियं तिविमक्खरं भणियं । सुबहुलिविभेयनिययं, सन्नक्खरमक्खरागारो || ( विशे० गा० ४६४ ) सुबह्यो या एता अष्टादश लिपयः श्रूयन्ते, तथाहि- हंसैलिवी १ भूयलिवी २, जक्खी ३ तह रक्खसी ४ य बोधवा । उड्डी ५ जवणि ६ रुकी कीरी ८ दविडी ९य सिंधविया १० ॥ मालवणी ११ नडि १२ नागरि १३, लाडलिवी १४ पारसी १५ य बोधवा । तह अनिमित्तय १६ लिवी, चाणक्की १७ मूलदेवी य १८ ॥ ܕܦ १ 'ववाचक° क० ङ० ॥ २ तत् समासतश्चतुर्विषं प्रशप्तम्, तद्यथा-व्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः । द्रव्यतः णमिति वाक्यालङ्कारे ( एवं सर्वत्र ) आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वद्रव्याणि जानाति न पश्यति । क्षेत्रतः आमिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सवं क्षेत्रं जानाति न पश्यति । कालतः आभिनिबोधिकशानी आदेशेन कालं जानाति न पश्यति । भावतः आमिनिबधिकशानी आदेशेन सर्वान् भावान् जानाति न पश्यति ॥ ३ ° कारं भव' क० ख० ग० ॥ ४ तत् संज्ञाव्यञ्जनलब्धिसंहिकं त्रिविधमक्षरं भणितम् । सुबहुलिपिमेदनियतं संज्ञाक्षरमक्षराकारः ॥ ५ इंसलिपिर्भूतलिपिर्यक्षी तथा राक्षसी च बोद्धव्या । ओड्री यवनी तुरुष्की कीरी द्राविडी च सिन्धविका ॥ ६ पुरुकी क० ख० ग० कु० ॥ ७ माळविनी नटी नागरी लाटलिपिः पारसी व बोद्धव्या । तथाऽनिमित्तिका लिपिचाणक्या मूलदेवी च ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्यः । सबजनाक्षरमकारादिहकारपर्यन्तमुच्यते । तदेतद्वितयमानात्माकमपि श्रुतकारणत्वादुपचादेव भुतम् । लब्ध्यक्षरं तु शब्दश्रवणरूपदर्शनादेरर्थप्रत्यायनगर्माऽक्षरोपलब्धिः । यदाह जो अक्सरोवलंमो, सा लद्धी तं च होइ विनाणं । इंदियमणोनिमितं, जो आवरणक्खओवसमो ॥ (विशे० गा० ४६६) ततोऽक्षरैरमिलाप्यमावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतमक्षरश्रुतम् १ । नन्वनमिलाप्या अपि किं केचिद्भावाः सन्ति, येनैवमुच्यतेऽमिलाप्यभावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतम् । इति, उच्यतेसन्त्येव । यदाहुः श्रीपूज्या: पेण्णवाणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणमिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतमागो सुयनिबद्धो । जं चउदसपुरधरा, छट्ठाणगया परुप्परं हुंति । तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं ॥ अक्खरलंमेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेणं । ते वि हु मईविसेसा, सुयनाणभंतरे जाण ( विशे० गा० १४१-४३) अनक्षरश्रुतं श्वेडितशिरःकम्पनादिनिमित्तं मामाहयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानम् २१ तथा संज्ञिश्रुतं तत्र संज्ञानं संज्ञा "उपसर्गादातः" (सि० ५-३-११०) इत्यङ्ग प्रत्ययः । सा च त्रिविधा-दीर्घकालिकी हेतुवादोपदेशिकी दृष्टिवादोपदेशिकी। यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः ईंह दीहकालिगी कालिगि ति सन्ना जया सुदीहं पि। संभरह भूयमिस्स, चिंतेह य किह णु कायर ॥ (विशे० गा० ५०८) "जे पुण संचिंतेडे, इटाणिद्वेसु विसयवस्थूसु । वहति नियत्तंति य, सदेहपरिवालणाहेउं ।। पाएण संपयं चिय, कालम्मि न यावि दीहकालंजा। ते हेउवायसन्नी, निश्चिट्ठा हुंति अस्सण्णी । सम्मदिही सन्नी, संते नाणे खओवसमियम्मि । अस्सण्णी मिच्छत्तम्मि दिद्विवाओवएसेणं ॥ (विशे० गा०५१५-१७) योऽक्षरोपलम्मः सा लभिस्तच भवति विज्ञानम् । इन्द्रियमनोनिमित्तं य आवरणक्षयोपशमः ॥ २ प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभागस्त्वनमिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ॥ ३ यचतुर्दशपूर्वधराः पदस्थानगताः परस्परं भवन्ति । तेन सनन्तभागः प्रज्ञापनीयानां यत् सूत्रम् ॥ ४ खुत्तं क० घ०॥ ५ अक्षरलम्मेन समा जनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः । तानपि तु मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि । ६ इह दीर्घकालिकी कालिकीति संज्ञा यया सुदीर्धमपि । संस्मरवि भूतमेष्यत् चिन्तयति च कथं नु. कर्तव्यम् ॥ ये पुनः सचिन्त्य इष्टानिष्टेषु विषयवस्तुषु । पर्तन्ते निवर्तन्ते च खदेहपरिपालनाहेतोः॥ ८ प्रायेण साम्प्रतमेव काले न चापि दीर्घकालझाः। ते हेतुवादसहिनः निश्चेष्टा भवन्ति अमेशिनः। ९काताक०॥१. सम्यग्दृधिः संही सति ज्ञाने क्षायोपशमिके । भसंझी मिथ्यात्वे दृष्टिवादोपदेशेन ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा · - ततश्च संज्ञा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, परं सर्वत्राप्यागमे ये दीर्घकालिक्या संज्ञया संशिनस्ते संज्ञिन उच्यन्ते, ततः संशिनां श्रुतं संज्ञिश्रुतम् समनस्कानां मनः सहितैरिन्द्रियैर्जनितं श्रुतं संज्ञिश्रुतमिति भावः ३ । मनोरहितेन्द्रियजं श्रुतमसंज्ञिश्रुतम् ४ । तथा सम्यग्दृष्टेरहेत्मणीतं मिथ्यादृष्टिप्रणीतं वा यथाखरूपमवगमात् सम्यक् श्रुतम् ५ । मिथ्यादृष्टेः पुनरई - त्प्रणीतमितरद्वा मिथ्याश्रुतं यथास्वरूपमनवगमात् ६ । आह - मिथ्यादृष्टेरपि मतिश्रुते सम्यग्दृष्टेरिव तदावरणकर्मक्षयोपशमसमुद्भवे सम्यग्दृष्टेरिक पृथुतुनोदराद्याकारं घटादिकं च संविदाते, तत् कथं मिथ्यादृष्टेरज्ञाने ? उच्यते - सदसद्विवेकपरिज्ञानाभावात् । तथाहि--- मिथ्यादृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरःसरं प्रतिपद्यते, न भगवदुतस्याद्वादनीत्या; ततो घट एवायमिति यदा ब्रूते तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीन् सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः; घटः सन्नेवेति ब्रुवाण: पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपगमात् पररूपतामसतीमपि तत्र प्रतिपद्यते ; ततः सन्तमसन्तं प्रतिपद्यतेऽसन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञाने मिथ्यादृष्टेर्मतिश्रुते । इतश्च ते मिथ्यादृष्टेरज्ञाने, भवहेतुत्वात् । तथाहि —मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते पशुवधमैथुनादीनां धर्मसाधकत्वेन परिच्छेदके, ततो दीर्घतरसंसारपथप्रवर्तिनी । तथा यदृच्छोपलम्भादुन्मत्तकविकल्पवत् । तथाहि उन्मत्तकविकल्या वस्त्वनपेक्ष्यैव यथाकथञ्चित् प्रवर्तन्ते; यद्यपि च ते कचिद्यथावस्थितवस्तुसंवादिनस्तथापि सम्यग्यथावस्थितवस्तुतत्त्वपर्यालोचनाविरहेण प्रवर्तमानत्वात् परमार्थतोऽपारमार्थिकाः; तथा मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते यथावद्वस्त्वविचार्यैव प्रवर्तेते, ततो यद्यपि ते कचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्यादाववधारणाध्यवसायाभावे संवादिनी तथापि न ते स्वाद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथाप्रवृत्ते, किन्तु यथाकथचित्, अतस्ते अज्ञाने । तथा ज्ञानफलाभावात्, ज्ञानस्य हि फलं यस्य हानिरुपादेयस्य चोपादानम्, मच संसारात् परं किश्चन हेयमस्ति, न च मोक्षात् परं किञ्चिदुपादेयम्, ततो भवमोक्षावेकामतेम हेयोपादेयौ, भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः, ततः साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या, सैव च तत्त्वतो ज्ञानस्य फलम् । तथा चाह भगवानुमाखातिवाचकः ज्ञानस्य फलं विरतिः, ( प्रशम० पद्य० ७२ ) इति । सा च मिथ्यादृष्टेर्नास्तीति ज्ञानफलाभावादज्ञाने मिध्यादृष्टेर्मतिश्रुते । यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः सदसदविसेसणाओ, भवहेउ जहिच्छिओवलभाओ । नाणफलाभावाओ, मिच्छहिट्ठिस्स अन्नाणं ॥ (विशे० गा० ११५ ) इति । तथा---- "साईयं ७ सपज्जबसिय ८ अणाईयं ९ अपज्जवसियं १० इश्श्रेयं दुवालसंगं वुच्छित्तिनया साईयं सवज्जबसियं, अवच्छित्तिनयट्टयाए अणाईयं अपज्जवसिय, तं समासओ चउ १ सदसदविशेषणाद्भवद्धेतुतो यदृच्छोपलम्भात् । ज्ञानफलाभावान्मिथ्यादृष्टेरज्ञानम् ॥ २ खादिकं ७ सपर्यसितम् ८ अनादिकम् ९ अपर्यवसितम् १० इत्येतत् द्वादशानं व्युच्छित्तिनयार्थतया सादिकं सपर्यवसितम् अव्युच्छिनियार्थतयाऽनादिकमपर्यय सितम् तत् समास्रत चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५) कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । विहं पनत, त जहा-पानी वितओ कालओ मावओ। दवाओणं सम्मसुर्य एगं पुरिसं पडुञ्च साईयं सपजवसिवं, यहये पुरिसे पडुच अणाईयं अपज्जवसियं । खितओ गं पंच भरहाई पंच एरवयाई पडुप साई सपजवसियं, पंच महाविदेहाइं पडुच्च अणाईयं अपजवसियं । कालो पं उस्सप्पिणि अवसम्मिणि च पडुच्च साईयं सपज्जवसियं, नोउस्सप्पिणि नोअवसप्पिणिं च पडुप अणाई अपजवसियं" । नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी चेति कालो महाविदेहेषु ज्ञेयः, तत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीक्षणकालाभावात् । “भावओ णं जे जया जिणपन्नता भावा आपविजंति पण्णविजंति पसाविति देसिज्जंति निदंसिज्जति ते तया पडुच्च साईयं सपजवसियं, खाओबसमियं पुण भावं पडपमणाईयं अपज्जवसियं, अहवा भवसिद्धियस्त सुयं साईयं सपजवसियं"। केवलज्ञानोत्सवी तदभावात् , "नट्ठम्मि उ छाउमच्छिए नाणे" (आ० नि० गा० ५३९) इति वचनात् । “अमवसिद्धियस्स सुयं अणाईयं अपजवसियं"। ( नन्दी पत्र १९५-१)। __इह च सामान्यतः श्रुतशब्देन श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं चोच्यते । यदाह-- अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं च । तथा गमाः-सदृशपाठास्ते विद्यन्ते यत्र तद् गमिकम् , “अतोऽनेकखरात्" (सि०७-२-६) इति इक्मत्ययः, तत् प्रायो दृष्टिवादगतम् ११। अगमिकम्-असदृशाक्षरालापकम् , तत् प्रायः कालिकश्रुतगतम् १२ । अङ्गप्रविष्टं द्वादशानीरूपम् १३ । तथाहि अट्ठारस पयसहसा, आयारे १ दुगुण दुगुण सेसेसु । सूयगड २ ठाण ३ समवाय ४ भगवई ५ नायधम्मकहा ६॥ अंगं उवासगदसा ७, अंतगड ८ अणुत्तरोववाइदसा ९ । पन्हावागरणं तह १०, विवायसुयमिगदसं अंगं ११ ॥ परिकम्म १ सुत्त २ पुवाणुओग ३ पुबगय ४ चूलिया ५ एवं । पण दिढिवायमेया, चउदस पुवाइं पुरगयं ।। उप्पाए १ पयकोडी, अग्गाणीयम्मि छन्नवइलक्खा । विरियपवाए ३ अस्थिप्पवाइ ४ लक्खा सयरि सट्टी। भावतः । द्रव्यतः सम्यकश्रुतं एक पुरुष प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम्, बहून् पुरुषान् प्रतीत्यानादिकमपर्यबसितम् । क्षेत्रतः पञ्च भरतानि पञ्चरक्तानि प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम्, पञ्च महाविदेहानि प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् । कालत उत्सर्पिणीमवसर्पिणी च प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम्, नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् । भावतो ये यदा जिनप्रज्ञप्ता भाषा आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्यन्ते निदर्यन्वे, तान् तदा प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम् , क्षायोपशमिकं पुनर्भा प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् । अथवा भवसिद्धिकस श्रुतं सादिकं सपर्यवसितम् । नष्टे तु छानस्थिके ज्ञाने । अभवसिद्धिकस्य श्रुतमनादिकअपर्यवसितम्॥१भविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं श्रुताशानं च ॥ - २ अष्टादश पदसहस्राणि आचारे१द्विगुणद्विगुणानि शेषेषु । सूत्रकृतरस्थानसमवाय भगवती५माताधर्मकपाः ६ ॥ मामुपासकदशान्तिरूद्८ अनुत्तरोपपातिकदशाः ९ । प्रश्नव्याकरणं १० तथा विपाकश्रुतमेका समाम् ॥परिकर्मीसूत्रर पूर्वानुयोग३पूर्वगतालिका ५ एवम् । पत्र दृष्टिवादमेदाश्चतुर्दश पूर्वाणि पूर्वगतम् ॥ उत्पादे १ पदकोटी अप्राणीये २ षण्णवतिलक्षाः । वीर्यप्रवादे ३ अस्तिप्रवादे ४ लक्षाः सप्ततिः षष्ठिः ॥ ३ भग्गेणीय क०ख०ग०॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाया देवेन्द्रसूरिविरचितस्योपज्ञटीकोपेतः एंगपणा कोडी, पयाण नाणप्षवायपुतम्मि ५ । सबप्पवायपुबे ६, एमा पयकोडि छच्च पया । छवीस पयकोडी, पुवे आयप्पवायनामम्मि ७ । कम्मप्पबायपुचे ८, पयकोडी असिइलक्खजुया ।। पञ्चक्खाणमिहाणे ९, पुखे चुलसीइ पयसयसहस्सा ।। दसपयसहसजुया पयकोडी विजापवायम्मि १०॥ कल्लाणनामधिजे ११, पुवम्मि पयाण कोडि छवीसा । छप्पनलक्खकोडी, पयाण पाणाउपुवम्मि १२ ॥ किरियाविसालपुथे १३, नव पयकोडीउ बिति समयविऊ । सिरिलोकबिन्दुसारे १४, सङ्खदुवालस य पयलक्खा ॥ अङ्गबापश्रुतम् आवश्यकदशवैकालिकादि १४ इति ॥ ६॥ व्याख्यातं चतुर्दशधा श्रुतम् । सम्प्रति विंशतिधा श्रुतं व्याख्यानयनाह पजयरअक्वरपयसंघाया४ पडिवत्ति५ तह य अणुओगोद। पाहुखपाहुडपाहुड८वत्थू९पुवा१० य ससमासा ॥७॥ पर्यायश्च अक्षर च पदं च सङ्घातश्च पर्यायाक्षरपदसङ्घाताः । “पडिवत्ति" ति प्रतिपत्तिः, प्राकृतत्वात् लुप्त विभक्तिको निर्देशः । तथा च 'अनुयोगः' अनुगद्वारलक्षणः । प्राभृत. प्रामृतं च प्राभृतं च बस्तु च पूर्व च प्राभृतप्राभृतप्राभृतवस्तुपूर्वाणि । प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः । यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"लिङ्ग व्यभिचार्यपि" । 'चः' समुच्चये । एते पर्यायादयः श्रुतस्य दश भेदाः कथम्भूताः ? इत्याह-"ससमास"त्ति समासः-संक्षेपो मीलक इत्यर्थः, सह समासेन वर्तन्ते ससमासास्ततश्च प्रत्येकं सम्बन्धः । तथाहि-पर्यायः पर्यायसमासः, अक्षरम् अक्षरसमासः, पदं पदसमासः, सङ्घातः सङ्घातसमासः, प्रतिपतिः प्रतिपत्तिसमासः, अनुयोगः अनुयोगसमासः, प्रामृतपाभृतं प्राभृतप्राभृतसमासः, प्राभृतं प्रामृतसमासः, वस्तु वस्तुसमासः, पूर्व पूर्वसमास इति विंशतिधा श्रुतं भवतीति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्पर्यायो ज्ञानस्यांशो विमागः पलिच्छेद इति पर्यायाः । तत्रैको ज्ञानांशः पर्यायः, अनेके तु झानांशाः पर्यायसमासः । एतदुक्तं भवति-लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत् सर्वजघन्य श्रुतमात्रं तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुतज्ञानांशोऽविभागपलिच्छेदरूपो वर्षते स पर्यायः १। ये तु यादयः श्रुतज्ञानाविभागपलिच्छेदा नानाजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुदिताः पर्यायसमास: २। अकारादिलध्यक्षराणामन्यतरदक्षरम् ३ | तेषामेव ब्यादिसमुदायोऽक्षरसमासः१। पर्द १ एकपदोना कोटी पदानां बानप्रवादपूर्वे ५ । सत्यप्रवादपूर्वे ६ एका पदकोटी षट् च पवानि ॥ पदिशकि पदकोटी पूर्वे आत्मप्रवादनामनि । कर्मप्रवादपूर्वे ८ पदकोटी अनीतिलक्षयुता ॥ प्रत्याख्यानामिधाने । चतुरशीतिः पदपातसहस्राणि । दशपदसहसयुक्ता पदकोटी विद्या प्रवादे १०॥ कस्याणनामधेये 14 पदाना कोटिः पदिशतिः । पदपश्चाशलाकोटी पदानां प्राणायुःपूर्वे १२ ॥ क्रियाविशालपूर्वेमव पदकोको शुषते समयविदः । श्रीलोकबिन्दुसारे १४ सार्धद्वादश च पदलक्षम् ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] कर्मविपाकनामा प्रामः कर्ममन्यः ।। अर्थपरिसमातिः पवम्' इत्याधुकिसावेऽपि मेन केन चित्पादनासावधपक्सहमादिप्रमाणा आचारादिमन्था गीयन्ते तदिह गृखते, तस्यैव द्वादशाभुतपरिमाणेऽधिकतमात्, श्रुतमेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् । तस्य च पदस्य तथा विधानायाभावात् प्रमाणं न जास्ते। तत्रैकं पदं परमुच्यते ५ व्यादिपदसमुदायस्तु पदसमासः ६ । “गइ इंदिए य कार" (मा० नि० गा. १४) इत्यादिगामाप्रतिपादितद्वारकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्येकदेशो यो नरकगत्यादिखत्र जीवादिमार्गणा यका क्रियते स सङ्घातः ७ । बादिगत्माबक्यकमार्गका सातसमासः ८ । गत्यादिद्वाराणामन्यतरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारेण जीवादिमर्माणा प्रतिपत्ति: ९। द्वारद्वयादिमार्गणा तु प्रतिपतिसमासः १.। "संतपयपरूवणया दवामाब" (मा. नि० गा०१३) इत्यादि अनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोगद्वारमुच्यते ११५ वयादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासः १२ । माभूतान्तर्वर्ती अधिकार विशेषः माभूतप्राभूतम् १३ । तयादिसमुदायस्तु प्रामृतप्राभृतसमासः १४ । वस्त्वन्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्रामृतम् १५ । तयादिसंयोगस्तु प्रामृतसमासः १६ । पूर्वान्तर्वर्ती अधिकारविशेषो वस्तु १७ । तवादिसंयोगस्तु वस्तुसमासः १८। पूर्वमुत्पादपूर्वादि पूर्वोक्तखरूपम् १९। तद्द्यादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः २०। एवमेते संक्षेपतः श्रुतज्ञानस्य विंशतिर्मंदा दर्शिताः, विस्तरार्थिना तु गृहकर्मप्रकति: स्न्वेषणीया । एते च पर्यायादयः श्रुतभेदा यथोत्तरं तीव्रतीवतरादिक्षयोपशमलभ्यत्वादिवं निर्दिष्टा इति परिभावनीयमिति । अथवा चतुर्विषं श्रुतज्ञानम्, तथाहि-दन्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याण्यादेशेन जानाति, क्षेत्रतः सर्वक्षेत्रमादेशेन झुतज्ञानी जानाति, कालतः सर्वे कालमादेशेन श्रुतज्ञानी जानाति, भावतः सर्वान् भावान् बादेशेन भुतज्ञानी जानातीति ॥ ७ ॥ व्याख्यातं सविस्तरं श्रुतज्ञानम् । सम्प्रत्यवविज्ञानं व्याख्यायते, तच द्वेषा-भवप्रत्ययं देवनारकाणाम् , गुणप्रत्ययं मनुण्यतिरधाम, तच्च बोढा, तथा चाह सूत्रम् अणुगामिवढमाणयपडिवाईयरविहा छहा ओही। रिउमइविउलमई मणनाणं केवलमिगविहाणं ॥८॥ आनुगामि च वर्षमानकं च प्रतिपाति च इतराणि च-अनानुगामिहीयमानकाप्रतिपातीनि मानुगामिवर्षमानकप्रतिपातीतराणि, विधानानि विधाः-भेदाः, तत आनुगामिवर्षमानकमतिपातीवराणि विषा यस्य तत्तथा तस्माद आनुगामिवर्धमानकप्रतिपातीतरविधात् षड्धा 'अवघिः' अवविज्ञानं भवति । उक्तं च नन्यध्ययने "तं समासओ छबिहं पनत्तं, तं जहा-आणुगामियं अणाणुगामियं वड्डमाणयं हीयमाणमं पडिबाई अपडिवाई । ( नन्दी पत्र ८१-१) तत्र गच्छन्तं पुरुषम् आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामि, यद्देशान्तरगतमपि शानिनमनुगच्छति लोचनवत् तद् अवधिज्ञानमानुगामीति भावः १ । तथा न आनुगामि अनानु गतिः इन्द्रियं कायः ॥ ९ सत्पदप्ररूपणता द्रव्यप्रमाणं च ॥ ३ अनुगामि क ख ग एवमऽपि । ४ तत् समासतः षड्डिधं प्रशप्तम् , तथथा-भानुगामिकमनानुगामिकंवर्धमानकं हीममानक प्रविमासमविपाति । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपजटीकोपेतः [गाया गामि, शृङ्खलाबद्धप्रदीप इव यद् न गच्छन्तं ज्ञानिनमनुगच्छति, यत् किल तद्देशवस्यैव भवति, तद्देशनिबन्धनक्षयोपशमजत्वात् , देशान्तरगतस्य त्वपैति, तद् अवविज्ञानमनानुगामीति भावः । थवाह भगवान् श्रीदेवर्द्धिक्षमाश्रमण: से' किं तं अणाणुगामियं ओहिनाणं? अणाणुगामियं ओहिनाणं से जहानामए केह पुरिसे एग महं जोइट्ठाणं काउं तस्सेव जोइट्ठाणस्स परिपेरतेसु परिपेरतेसु परिहिंडमाणे परिहिंडमाणे परिघोलमाणे परिघोलमाणे तमेव जोइट्ठाणं पासह अन्नत्य गए न पासह, एवमेव अणाणुगामियं ओहिनाणं जत्थेव समुप्पजह तत्थेव संखिज्जाणि वा असंखिजाणि वा जोयणाई पासइ न अन्नत्य । (नन्दी पत्र ८९-१) भाष्यकारोऽप्याह अणुगामि उ अणुगच्छद, गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं । इयरो उ नाणुगच्छइ, ठियप्पईवु व गच्छंतं ॥ ( विशे० गा० ७१५) तथा वर्धत इति वर्धमानम् , ततः संज्ञायां कन्प्रत्ययः, बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादभिवर्धमानज्वलनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायतो वर्धमानमवधिज्ञानं वर्धमानकम् । एतत् किलाङ्गुलासझ्येयभागादिविषयमुत्पद्य पुनर्वृद्धिं विषयविस्तरणात्मिका याति यावदलोके लोकप्रमाणान्यसङ्ख्येयानि खण्डानीति ३ । तथा हीयते-तथाविध. सामग्र्यभावतो हानिमुपगच्छतीति हीयमानम् , कर्मकर्तृविवक्षायाम् अनट्प्रत्ययः, हीयमानमेव हीयमानकम् , "कुत्सिताल्पाज्ञाते" (सि० ७-३-३३) कप्रत्ययः, पूर्वावस्थातो यदधोऽधो हासमुपगच्छति तद् हीयमानकमवधिज्ञानमिति ४ । उक्तं च नन्दिचूर्णी हीयमाणं पुधावत्थाओ अहोऽहो हस्समाणं (पत्र १४) इति । तथा प्रतिपततीत्येवंशीलं प्रतिपाति ५ । यदाह--- से किं तं पडिवाई ? पडिवाई जम्नं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जभागं वा संखिजभागं वा वालग्गं वा वालग्गपुहत्तं वा एवं लिक्खं वा जूयं वा जवं वा जवपुहत्तं वा अंगुलं वा अंगुलपुहत्तं वा, एवं एएणं अहिलावेणं विहत्थि वा हत्यं वा कुच्छि वा कुभिहस्तद्वयमुच्यते धणुं वा ग्राउयं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्स वा संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणसहस्साई, उक्कोसेणं लोगं पासित्ताणं परिवडिजा, से तं पडिवाई । (नन्दी पत्र ९६-२) अथ किं वदनानुगामिकमवधिज्ञानम् ? अनानुगामिकमवधिज्ञानं स यथानामकः कश्चित्पुरुष एकं महज्योविःस्थानं कृत्वा तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य परिपर्यन्तेषु परिपर्यन्तेषु परिहिण्डमानः परहिण्डमानः परिघोलयमानः परिघोलयमानः तदेव ज्योतिःस्थानं पश्यति अन्यत्र गतो न पश्यति, एवमेव अनानुगामिकमवधिज्ञानं यत्रैव समुत्पद्यते तत्रैव सत्येयानि वाऽसोयानि वा योजनानि पश्यति नान्यत्र ॥२ °वामेव ख०३ अनुगामि खनुगच्छति गच्छन्तं लोचनं यथा पुरुषम् । इतरतु नानुगच्छति स्थितप्रदीप इव गच्छन्तम् ॥ ४ गामि. ओऽणुग०॥ ५ हीयमानं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो इस्यमानं ॥ अथ किं तत् प्रतिपाति प्रतिपाति यद जघन्येनाकुलस्यासययभागं वा सझयेयभागं वा बाला या वालाप्रपृथक्त्वं वा एवं लिक्षां वा यूको वा य वा यवपृथक्त्वं वा अङ्गुलं वा मालपृषकलं वा, एवमेतेनाभिलापेन वितरित वा हस्तं वा कुक्षि या धनुर्क क्रोशं वा योजनं षा योजनशतं वा योजनसहलं वा सहयेयानि वा असोयानि वा योजनसहस्राणि, उरकर्षण लोकं दृष्य प्रतिपतेत्, एतत प्रतिपाति॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] affarnatar aan: कर्मग्रन्थः । २१ तथा न प्रतिपाति अप्रतिपाति, यत् किलाऽलोकस्य प्रदेशमेकमपि पश्यति तद् अप्रतिपातीति भावः ६ । हीयमानकप्रतिपातिनोः कः प्रतिविशेषः ? इति चेद् उच्यते-- हीयमानकं पूर्वावस्थातोऽघोऽघो ह्रासमुपगच्छदभिधीयते, यत् पुनः प्रदीप इव निर्मूलमेककालमपगच्छति तत् प्रतिपातीति । यद्वा ऽनन्तद्रव्यभावविषयत्वात् ततारतम्य विवक्षयाऽनन्त मेदम्, असयक्षेत्रकालविषयत्वात्तु तत्तारतम्यविवक्षयाऽसत्येय मेदमवधिज्ञानम् । यद्वा चतुर्विधमवविज्ञानं द्रव्यक्षेत्र कालभावात् । तथा चाह 'तं समासओ चउविहं पनचं, तं जहा-दबओ खेतओ कालओ भावओ । दखओ णं ओहिनाणी जहणं अताई रूविदबाई जाणइ पासह, उक्कोसेणं सबरूविदबाई जाणइ पासइ । खितओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोएं लोयप्पमाणमिसाई खंडाई जाणइ पासइ । कालओ णं ओहिनाणी जहनेणं आवलियाए असंखिज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ तीयं च अणागयं च काल जाणइ पासइ । भावओ णं ओहिनाणी जहन्त्रेण वि अणंते भावे जाणइ पासइ, उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासद सबभावाणं अनंतभागं । ( नन्दी पत्र ९७ - १ ) इति । उक्तमवधिज्ञानम् । इदानीं मनः पर्यवज्ञानं व्याख्यानयन्नाह - " रिउमइ विउलमई मणनाणं”ति । ‘मनोज्ञानं’ मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, ऋजुमतिविपुलमति मेदाद्विविषम् । तत्र ऋवीसामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः । यदाह रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं, घडमित्तं चिंतियं मुणइ || ( विशे० गा० ७८४ ) तथा विपुला - विशेषप्राहिणी मतिर्विपुलमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोsurat महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति भावार्थ:, अस्यां व्युत्पत्तौ स्वतनं ज्ञानमेव गृह्यत इति । अथवा ऋज्वी- सामान्यग्राहिणी मतिरस्यासौ ऋजुमतिः । विपुलाविशेषप्राहिणी मतिरस्य स विपुलमतिः, अस्यां व्युत्पत्तौ तद्वान् गृह्यते । यद्वा मनः पर्यायज्ञानं चतुर्विधम् —- द्रव्य क्षेत्रकालभाव मेदात् । उक्तं च- तं समासओ चउबिहं पनतं तं जहा — दवओ खित्तओ कालओ भावओ । दखओ णं १ तत् समासतश्चतुर्विधं प्रशप्तम्, तद्यथा - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः । द्रव्यतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तानि रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति, उत्कर्षेण सर्वरूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति । क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्येनालयास भागम् उत्कर्षेणासवेयानि अलोके लोकप्रमाणमात्राणि खण्डानि जानाति पश्यति । कालतोऽafeज्ञानी जघन्येनाssवलिकाया असधेयभागम्, उत्कर्षेणाऽसङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः अतीतं चानागतं व काल आनाति पश्यति । भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाप्यनन्तान् भावान् जानाति पश्यति, उत्कर्षेणापि अनन्तान भावान् जानाति पश्यति सर्वभावानामनन्तभागम् ॥ २ ऋजु सामान्यं तन्मात्रग्राहिणी ऋजुमतिर्मनोज्ञानम् । प्राय विशेषविमुखं षटमात्रं चिन्तितं जानावि ॥ ३ तत् समासतश्चतुर्विधं प्रशप्तम्, तद्यथा - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो. भावतः । द्रव्यत ऋजुमतिरनन्ताननन्तप्रदेशिकान स्कन्धान् जानाति पश्यति । तानेव विपुलमतिरभ्य विकतरान् बिमलतरान् जानाति पश्यति ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः गाथा सामई अणंते अणंतपएसिए खंघे नामह पासह । ते चेव विउकमई अमहियतराए विमल क्सए जाणइ पासह (नन्दी पत्र १०७-२)ति । क्षेत्रतः पुनर्ऋजुमतिरषो यावदधोलौकिकमामान् जानाति । यदाहुन्धतुर्दशमकरणशतपासासूत्रधारकल्पप्रभुश्रीहरिभद्रहरिपादा नन्दिवृत्ती ईहाघोलौकिकान् अामान् , तिर्यन्लोकविवर्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान् , वेत्ति तद्वर्तिनामपि ॥ (पत्र ४७) ऊवं यावद् ज्योतिश्चक्रस्योपरितलम् । तिरियं जाव अंतो मणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु पारससु कम्मभूमीच तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवेसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पजतगाणं मणोगए भावे जाणइ पासह । तं चेव विउलमई अड्डाइज्जेहिं अंगुलेहिं अब्भहियतरयं विसुद्धतरयं खेवं जाणइ पासइ । (नन्दी पत्र १०८-१)। इह व्याख्या-'अन्तः' मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य 'अर्घतृतीयद्वीपेषु' जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्थेषु 'द्वयोः समुद्रयोः' लवणसमुद्रकालोदसमुद्रयोः 'पञ्चदशसु कर्मभूमिषु' भरतपञ्चकैरवत: पञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणासु 'त्रिंशत्यकर्मभूमिषु' हैमवतपञ्चकह रिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकहैरण्यवतपञ्चकरूपासु । तथा लवणसमुद्रस्यान्तर्मध्ये भवा द्वीपा आन्तरद्वीपास्ते च षट्पञ्चाशत्सङ्ख्याः । तथाहि-इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिममपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्यपरिमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्चीनपट्टवर्णो नानावर्णविशिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमण्डितोभयपार्श्वः सर्वत्र तुल्यविस्तरो गगनमण्डलोल्लेखिरत्नमयैकादशकूटोपशोभितो वज्रमयतलविविधमणिकनकमण्डितभूमिभागदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजनसहस्रायामदक्षिणोत्तरपञ्चयोजनशतविस्तारपद्महदशोभितशिरोमध्यविभागः सर्वतः कल्पपादपश्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणोदार्णवजलसंस्पर्शी हिमवनाम पर्वतः, तस्य लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येकं द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्रे विनिर्गते, तत्रैशान्यां दिशि या विनिर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगायात्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किञ्चिन्यूनैकोनपञ्चाशदधिकनवयोजनशतपरिरय एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते, अयं च पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्मया द्विगन्यूतोच्छ्रितया पद्मवरवेदिकया सर्वतः परिमण्डितः, साऽपि च पद्मवरवेदिका सर्वतो वनखण्डपरिक्षिप्ता, तस्य च वनखण्डस्य चक्रवालतया विष्कम्भो देशोने द्वे योजने परिक्षेपः पद्मवरवेदिकाप्रमाणः । तथा तस्यैव हिमवतः पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाध द्वितीयदंष्ट्राया उपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आमासिकनामा द्वीपो वर्तते । तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपश्चिमायां त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकनामा द्वीपः । तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि १ एतद् वृत्तं नन्दिचूर्णावप्यस्ति ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। २५ प्रीणि योजनशतानि लबणसमुद्रमवगास दंष्ट्राया उपरि पूर्वोकप्रमाणो नाहोलिकनामा बीपः । एवमेते चत्वारो द्वीपा हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्षु तुरुयप्रमाणा अवतिष्ठन्ते । तत एषामेकोलादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनशतान्यतिक्रम्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भाः किश्चिन्यूनपश्चषष्टिसहितद्वादशयोजनशतपरिशेषा मयोतपनवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातश्चतुर्योजनशतप्रमाणान्तस हककर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलकर्णनामानश्चत्वारो द्वीपाः । तद्यथा--एकोरुकस्य परतो हवकर्णः, सामासिकस परतो गजकर्णः, वैषाणिकस्य परतो गोकर्णः, नाङ्गोलिकस्म परतः शष्कुलकर्णः, एवमग्रेऽपि भावना कार्या । तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णामपि द्वीपानां परतः पुनरमि स्थाकम पूर्वोचरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतान्यतिकम्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्मा एकाशीत्यधिकपश्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पूर्वोकप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितबायप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकातः पञ्चयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुखमेण्दमुखाऽयोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः। एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोचरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् षड् योजनशतान्यतिक्रम्य षड्योजनशतायाम विष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टावशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातः षड्योजन शतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एतेषामप्यश्चमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक सप्त सप्त योजनशतान्यतिक्रम्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिरयाः पूर्वोक्तप्रमाणपत्रवरवे. दिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहयकर्णाकर्णक प्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः। तत एतेषामश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोतरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनशतान्यतिक्रम्याष्टयोजनशतायाम विष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुख विद्युन्मुखविद्युदन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोचरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव नव योजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपनवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एवमेते सप्त चतुष्का हिमवति पर्वते चतसृष्वपि विदिक्षु ज्यवस्थिताः, सर्वसझपयाऽष्टाविंशतिः । एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पाहदपमाणायामविष्कम्भावगाहपुण्डरीकहदोपशोभिते शिखरिण्यपि लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिता एकोहकादिनामानोऽक्षुण्णापान्तरालायाम विष्कम्भा अष्टाविंशतिसया द्वीपा वक्तव्याः, सर्वसामया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः ।। एतद्रता मनुष्या अप्येतनामान उपचारात्, भवति च सास्थ्यात् तद्यपदेशः, वा पश्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति । ते च मनुष्या बज्रऋषभनाराचसंहनिनः समचतु. रससंसानाः सांगोपालसुन्दराः कमण्डलुकलशयूपस्तूपवापीध्वजपताकासौवस्तिकयवमत्स्समक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गा रकूर्मरबवरखालांशुकाष्टापदाडशसुप्रतिष्ठकमयूरश्रीदामाभिषेकतोरणमेदिनीजकपिवरमवनादर्शप वैतगजवषमसिंहचामररूपमशस्तोत्तमद्वात्रिंशल्लक्षणधराः खभावत एव सुरमिवदनाः प्रतनुको बमानमायालोमाः सन्तोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसम्पन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादौ ममत्वकारणे ममत्वामिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धा हस्त्यश्वकरभगोमहिमादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपरामुखाः पादविहारिणो ज्वरादिरोगयक्षभूतपिशाचादिग्रहमारिपसनोपनिपातविकलाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमिन्द्राः। तेषां पृष्ठकरण्डकानि चतुःषष्टिसाकानि, चतुर्थातिकमे चाहारग्रहणम् , आहारोऽपि च न शाल्यादिधान्यनिष्पन्नः किन्तु पृथिवीमृतिका कल्पद्रुमाणां पुष्पफलानि च । तथाहि-जायन्ते खलु तत्रापि विससात एवं शालिगोधूममुद्गमाषादीनि धान्यानि परं न तानि मनुष्याणामुपभोगं गच्छन्ति, या तु पृथिवी सा. शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या, यश्च कल्पद्रुमफलानामाखादः स चक्रवर्तिभोजनादप्यषिकगुणः । यदुक्तम्--- 'तेसि णं भंते ! पुष्फफलाणं केरिसए आसाए पन्नते ? गोयमा ! से जहानामए रणो चाउरंतचकवट्टिस्स कल्लाणे भोयणजाए सयसहस्सनिष्फन्ने वन्नोववेए गंधोववेए रसोववेए फ्रासोववेए आसायणिजे विस्सायणिजे दप्पणिज्जे मयणिजे विहणिजे सबिंदियगायपल्हायणिज्जे आसाएणं पनत्ते, इत्तो इतराए चेव पन्नते । (जम्बू० पत्र ११८-१) ततः पृथिवी कल्पपादपपुष्पफलानि च तेषामाहारः । तथाभूतं चाहारमाहार्य प्रासादादिसंस्थाना ये गृहाकाराः कल्पद्रुमास्तेषु यथासुखमवतिष्ठन्ते । न च तत्र क्षेत्रे दंशमशकयूकामस्कुणमक्षिकादयः शरीरोपद्रवकारिणो जन्तव उपजायन्ते । येऽपि जायन्ते भुजगन्याप्रसिंहादयस्तेऽपि मनुष्याणां न बाधायै प्रभवन्ति, नापि ते परस्परं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रभावरहितत्वात् । मनुष्ययुगलानि च पर्यवसानसमये युगलं प्रयुक्ते, तत् पुनर्युगलमेकोनाशीतिदिनानि पालयन्ति । तेषां शरीरोच्छ्योऽष्टौ धनुःशतानि, पल्योपमासकीयमागप्रमाणमायुः, स्तोककषायतया स्तोकप्रेमानुबन्धतया च ते मृत्वा दिवमुपसर्पन्ति । मरणं च तेषां जृम्भिकाकाशक्षुतादिमात्रव्यापारपुरस्सरे भवति, न शरीरपीडारम्भपुरस्सरमिति । अत्र गाथा: हिमगिरिनिग्गयपुवावरदाढा विदिसि संठिया लवणे । जोयणतिसए गंतुं, तिन्नि सए वित्थराऽऽयामा ॥ वेइयवणसंडजुया, चउ अंतरदीव तेसि नामाइं। एगोरुग १ आभासिय २, वेसाणियनाम ३ नंगूली ४ ॥ १ तेषां भगवन् ! पुष्पफलाना कीश आखादः प्रज्ञप्तः! गौतम ! स यथानामकः राजथातुरन्तचक्रवर्तिनः कल्याणं भोजनजातं शतसहसनिष्पर्ण वर्णोपपेतं गन्धोपपेतं रसोपपेतं स्पोपपेतं भाखादनीयं विखादनीय दर्पणीयं मदनीयं बृंहणीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयमाखादेन प्राप्तम् , इत इष्टतरचव प्राप्तः॥ २ हिमगि रिनिर्गतपूर्वापरदाढा विदिधि संस्थिता लवणे । योजनत्रिशतं गला श्रीणि शतानि वित्तराऽऽयामाः॥ वेदिका बनखण्डयुताबखार अन्तरद्वीपास्तेषां नामानि । एकोरुकः १ आमासिकः २ वैषाणिकनामा ३ नामोलिः ४ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । एसि परमो चउपणछसत्तअडनवयजोयणसएसु । ' हयकना ५ गयकन्ना ६, गोकना ७ सक्कुलीकमा ८॥ आयंसग ९ मिंढमुहा१०,अओमुहा११गोमुहा१२चउर दीवा । अस्समुहा १३ हत्थिमुहा१४, सिंहमुहा १५ तह य वग्धमुहा १६ ॥ तत्तो य अस्सकन्ना १७, हस्थि १८ अकन्ना य १९ कनपावरणा २० । उकामुह २१ मेहमुहा २२, विज्जुमुहा २३ विजुदंता य २४ ।। घणदंत२५ लट्टदंता २६, निगूढदंता य २७ सुद्धदंता य २८ । इय सिहरिम्मि वि सेले, अट्ठावीसंतरद्दीवा ।। उभयेऽपि मिलिताः षट्पञ्चाशत्सङ्ख्याः । ऐएसु जुगलधम्मी, धणुसय अट्टसिया परमरूवा । पल्लअसखिज्जाऊ, गुणसीदिणऽवच्चपालणया ॥ चउसट्ठीपिट्टिकरंडमंडियंगा चउत्थभोई य । कप्पतरुपूरियासा, सुरगइगामी तणुकसाया ॥ शेषं सूत्रं स्पष्टम् ॥ कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइमागं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखिजहभागं तीयं अणागयं च कालं जाणइ पासइ । तं चेव विउलमई अब्महियतरागं जाणइ पासइ । (नन्दी पत्र १०८-२) जीतकल्पभाष्येऽप्युक्तम् कालओ उजुमई उ, जहन्नउक्कोसए वि पलियस्स । भागमसंखिजइमं, अतीय ऐम्से व कालदुगे । जाणइ पासइ ते ऊ, मणिजमाणे उ सन्निजीवाणं । ते चेव य विउलमई, वितिमिरसुद्धे उ जाणेइ ॥ (गा० ८२-८३) भावतस्तु तत्पर्यायाश्चिन्तनानुगुणपरिणतिरूपा ऋजुमतेविषय इति । चिन्तनीयं तु मूर्तम १ एषां परतश्चतुःपञ्चषट्सप्ताटनषकयोजनशतेषु । हयकर्णः ५ गजकर्णः ६ गोकर्णः ७ शष्कुलीकर्णः ८ ॥ आदर्शमुखएमेण्ढ़मुखौ१० अयोमुखः ११ गोमुखः १२ चत्वारो द्वीपाः । अश्वमुखः १३ हस्तिमुखः १४ सिंहमुखः १५ तथा च व्याघ्रमुखः १६ ॥ ततश्चाश्वकर्णः १७ हस्तिकर्णा १८ऽकर्णी च १९ कर्णप्रावरणः २० । उल्कामुखः २१ मेघमुखः २३ विद्युन्मुखः २३ विद्युद्दन्तश्च २४ ॥ घनदन्तः २५ लष्टदन्तः २६ निगूढदन्तश्च २७ शुद्धदन्तश्च २८ । इति विखरिण्यपि शैलेऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः । २ एतेषु युगलधर्माणो धनुःशतान्यथोच्छ्रिताः परमरूपाः । पल्यासङ्ख्येयायुष एकोनाशीतिदिनापत्यपालनकाः ॥ चतुःषष्टिपृष्ठकरण्डकमण्डिताङ्गाश्चतुर्थभोजिनश्च । कल्पतरुपूरिताशाः सुरगतिगामिनस्तनुकषायाः॥ ३ कालत ऋजमतिर्जघन्येन पल्योपमस्यासययभागम् , उत्कर्षणापि पल्योपमस्यासजयेयभागमतीतमनागतं च कालं बानाति पश्यति । तदेव विपुलमतिरभ्यधिकतर जानाति पश्यति ॥ ४कालत ऋजुमतितु जघन्यत उत्करतोऽपि पल्यस्य । भागमस येयमतीते एष्यति वा कालद्विके ॥ जानाति पश्यति तांस्तु मन्यमानांस्तु संशिजीवानाम् । तानेव च विपुलमतिवितिमिरशुद्धांतु जानाति प क क स ग घ० रु० ॥ क०४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः गामा मूर्त वा त्रिकालगोचरमपि बाबमर्थमनुमानादवैति, “जाणइ बज्मेऽणुमाणाओ" (विशे० गा. ८१४) इति वचनात् । यत एतत्परिणतान्येतानि मनोद्रव्याणि इत्येतदन्यथानुपपतेरमुकोऽर्थोऽनेन चिन्तित इति लेखाक्षरदर्शनात् तदुक्तार्थमिव प्रत्यक्षं मनोद्रव्यदर्शनाचिन्त्यमर्थमनुमिमीते । स चैष वायाभ्यन्तररूपो द्विविधोऽपि विषयः स्फुटतरबहुतरविशेषाध्यासितत्वेन विपुलमतेविमलतरोऽवसेय इति । निरूपितं मनःपर्यायज्ञानम् ।। ___ अथ केवलज्ञानं व्याचिख्यासुराह-"केवलमिगविहाणं" ति 'केवलं' केवलज्ञानम् 'एकविधानम्' एकविषम् , प्रथमत एव सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावप्राहकत्वादिति भाव इति ॥ ८॥ अमिहितं केवलज्ञानं तदभिधाने च व्याख्यातानि पञ्चापि ज्ञानानि । इदानीमेतेषामावरणमाह एसिं जं आवरणं, पडु व्य चक्खुस्स तं तयावरणं । दंसणचउ पणनिदा, वित्तिसमंदसणावरणं ॥९॥ 'एषां मतिज्ञानादीनां पञ्चानां ज्ञानानां यद् 'आवरणम्' आच्छादकम् , 'पट इव' सूत्रादिनिष्पनशाटक इव 'चक्षुषः' लोचनस्य, तत् तेषां मतिज्ञानादीनामावरणं तदावरणमुच्यते । इदमत्र हृदयम्यथा घनघनतरघनतमेन पटेनावृतं सत् निर्मलमपि चक्षुर्मन्दमन्दतरमन्दतमदर्शनं भवति, तथा ज्ञानावरणेन कर्मणा घनघनतरपनतमेनावृतोऽयं जीवः शारदशशपरकरनिकरनिर्मलतरोऽपि मन्दमन्दतरमन्दतमज्ञानो भवति, तेन पटोपमं ज्ञानावरणं कर्मोच्यते। तत्रावरणस्य सामान्यत एकरूपत्वेऽपि यत् पूर्वोक्तानेकभेदभिन्नस मतिज्ञानस्यानेकभेदमेवाऽऽवरणखभावं कर्म तद् मतिज्ञानावरणमेकग्रहणेन गृह्यते चक्षुषः पटलमिव १ । तथा पूर्वाभिहितभेदसन्दोहस्य श्रुतज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तत् श्रुतज्ञानावरणम् २ । तथा प्राक्प्रपश्चितमेदकदम्बकस्यावधिज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तद् अवधिज्ञानावरणम् ३ । तथा प्रागनितिमेदद्वयस्य मनःपर्यायज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तद् मनःपर्यायज्ञानावरणम् । तथा पूर्वप्ररूपितखरूपस्य केवलज्ञानस्य यद् आवरणखमावं कर्म तत् केवलज्ञानावरणम् ५। उक्तं च बृहत्कर्मविपाके सेरउग्गयससिनिम्मलतरस्स जीवस्स छायणं जमिह । नाणावरणं कम्मं, पडोवमं होइ एवं तु ॥ जह निम्मला वि चक्खू , पडेण केणावि छाईया संती। मंदं मंदतरागं, पिच्छइ सा निम्मला जह वि॥ तेह महसुयनाणावरण अवहिमणकेवलाण आवरणं । जीवं निम्मलरूवं, आवरइ इमेहिं मेएहिं ॥ (गा० १०-१२) तदेवमेतानि पञ्चावरणान्युत्तरप्रकृतयः, तनिष्पन्नं तु सामान्येन ज्ञानावरणं मूलप्रकृतिः । १जानाति बाह्याननुमानात् ॥ २ शरदुद्गतशशिनिर्मलतरस्य जीवस्य च्छादनं यदिह । ज्ञानावर कर्म पटोपमं भवति एवं तु ॥ यथा निर्मलमपि चक्षुः पटेन केनापि च्छादितं सत् । मन्दं मन्दतरफ प्रेक्षते तद् निर्मलं यद्यपि ।। तथा भविभुतज्ञानावरणमवधिमनाकेवलानामावरणम् । जीवं निर्मलरूपमारणोत्येमि भेदः। ३ "तह मामुयनाशाण ओहीयणकेवलाण आवरणं ।" इति ब्रहस्कर्मविपाके। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-१०] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्धः । पवाशुलीपचकनिष्पक्षो मुष्टिः, मूलत्वपत्रशाखादिसमुदयनिष्पनो वा वृक्षः, धृतगुडकणिकादिनिष्पनो वा मोदक इति । एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् । व्याख्यातं पञ्चविध ज्ञानावरणं कर्म। इदानीं नवविषं दर्शनावरणं कर्म व्याख्यानयनाह-"दसणचउ पणनिदा वितिसमं दसणावरणं" ति । इह मीमो भीमसेन इति न्यायात् पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्वा "दसणचउ" इति शब्देन दर्शनावरणचतुष्कं गृपते । तत्र दृष्टिदर्शनम् , दृश्यते-परिच्छिद्यते सामान्यरूपं वस्त्वनेनेति वा दर्शनम् , तस्यावरणानि-आच्छादनानि दर्शनावरणानि तेषां चतुष्कं दर्शनावरणचतुष्कम् । तथा "पणनिद्द" ति द्रांक कुत्सितगती, नितरां द्राति-कुत्सितत्वमवि. स्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यासु ता निद्रा, "मिदादयः" (सि० ५-३-१०८) इति अङ्प्रत्ययः, 'पञ्च' इति पञ्चसायाः-निद्रा१निद्रानिद्रारप्रचला३प्रचलामचलाएस्त्यानपिरूपा निद्राः पञ्चनिद्रा निद्रापञ्चकम् । ततो दर्शनावरणचतुष्कं निद्रापञ्चकमिति नवधा दर्शनावरणं भवति । किंविशिष्टम् ! इत्याह -"वित्तिसमं" ति वेत्रिणा प्रतीहारेण समं-तुल्यं वेत्रिसमम् । यथा राजानं द्रष्टुकामस्याप्यनभिप्रेतस्य लोकस्य वेत्रिणा स्खलितस्य राज्ञो दर्शनं नोपजायते, तथा दर्शनखभावस्याप्यात्मनो येनाऽऽवृतस्य स्तम्भकुम्भाम्भोरुहादिपदार्थसार्थप न दर्शनमुपजायते तद् वेत्रिसमं दर्शनावरणम् । उक्तं च दसणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमाणं, दसणवरणं भवे कम्मं ॥ जह रनो पडिहारो, अणभिप्पेयस्स सो उ लोगस्स । रन्नो तहि दरिसावं, न देइ दई पि कामस्स ।। जह राया तह जीवो, पडिहारसमं तु दंसणावरणं । तेणिह विबंधएणं, न पेच्छए सो घडाईयं ॥ (बृहत्कर्मवि० गा० १९-२१) ॥९॥ अथ दर्शनावरणचतुष्कं व्याचिख्यासुराह चक्खूदिहिअचक्खूसेसिंदियओहिकेवलेहिं च । दंसणमिह सामन्नं, तस्सावरणं तयं चउहा ॥१०॥ इह चक्षुःशब्देन दृष्टिगते, अचक्षुःशब्देन "सेसिदिय" ति चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियाणि गृपन्ते, ततश्चक्षुश्च अचक्षुश्च अवधिश्व केवलं च चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानि तैः चक्षुरचक्षुरवधिके. बलैः । चशब्दः "अचक्खूसेसेंदिय" इत्यत्र मनसः संसूचकः । दर्शनम् इह' प्रबचने 'सामान्य सामान्योपयोग उच्यते, यदुक्तम् जं सामनग्गहनं, भावाणं नेव कड आगारं । अविसेसिऊण अत्थे, दसणमिय वुच्चए समए ॥ (वृ० द्रव्यसं० गा०१३) १दर्शनशीले जीवे दर्शनघातं करोति यत् कर्म । तत् प्रतिहारसमानं दर्शनावरणं भवेत्कर्म ॥ यथा राम प्रतिहारोऽनभिप्रेतस्य स तु लोकस्य । राज्ञस्तत्र दर्शनं न ददाति बटुमपि कामस्य ॥ यथा राजा तथा जीवा प्रविहारसमं तु दर्शनावरणम् । तेनेह विवन्धकेन न प्रेक्षते स घटादिकम् ॥ २ यत् सामान्यपहनं भावानां नैव कलाकारम् । भविशेषामिलार्थान् दर्शनमित्युच्यते समये । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [" गायी 'तस्यावरणं' दर्शनावरणम्, तत् चतुर्षा भवति चक्षुर्दर्शनाबरणम् १ अचक्षुर्दर्शनावरणम् २ अवधिदर्शनावरणम् ३ केवलदर्शनावरणम् ४ इति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् - इह चक्षुर्दर्शनं नाम यत् चक्षुषा रूपसामान्यग्रहणं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं चक्षुः सामान्योपयोगावरणमिति यावत् १ । अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद् दर्शनं स्वस्वविषयसामान्यपरिच्छेदोचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणम् २ । अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादया दर्शनं सामान्यार्थग्रह - णमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम् ३ । केवलेन सम्पूर्णवस्तुतत्त्वमाहकबोषविशेषरूपेण यद् दर्शनं वस्तुसामान्यांशग्रहणं तत् केवलदर्शनं तस्यावरणं केवलदर्शनावरणं ४ | अत्राह - ननु यथाऽवधिदर्शनावरणं कर्मोच्यते तथा मनः पर्यायज्ञानस्यापि दर्शनावरणं कर्म किमिति नोच्यते ?, उच्यते मनःपर्यायज्ञानं तथाविधक्षयोपशमपाटवात् सर्वदा विशेषानेव गृहदुत्पद्यते, न सामान्यम्, अतस्तद्दर्शनाभावात्तदावरणं कर्मापि न भवति । अत्र च चक्षुर्दर्शनावरणोदये एकद्वित्रीन्द्रियाणां मूलत एव चक्षुर्न भवति, चतुःपञ्चेन्द्रियाणां तु भूतमपि चक्षुस्तथाविधे तदुदये विनश्यति तिमिरादिना वाऽस्पष्टं भवति । चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनसां पुनर्यथासम्भवमभवनमस्पष्टभवनं वाऽचक्षुर्दर्शनावरणोदयादिति ॥ १० ॥ अभिहितं दर्शनावरणचतुष्कम्, सम्प्रति निद्रापञ्चकमभिषित्सुराह— सुहपडिवोहा निद्दा १, निद्दानिद्दा २ य दुक्खपडिबोहा । पयला ३ ठिओवविट्ठस्स पयलपयला ४ उ चंकमओ ॥ ११ ॥ सुखेन-अकृच्छ्रेण नखच्छोटिकामात्रेणापि प्रतिबोध: - जागरणं स्वप्नुर्यस्यां स्वापावस्थायां सा सुखप्रतिबोधा निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कारणे कार्योपचारात् निद्रेत्युच्यते १ । निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा, मयूरव्यंसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, 'च' समुच्चये, दुःखेन - कष्टेन बहुभिर्घोलनाप्रकारैरत्यर्थमस्फुट तरी भूत चैतन्यत्वेन स्वप्तः प्रतिबोधो यस्यां सा दुःखप्रतिबोधा, अत एव सुखप्रतिबोधनिद्रापेक्षयाऽस्या अतिशायिनीत्वम्, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा २ । प्रचलति विघूर्णते यस्यां स्वापावस्थायां प्राणी सा प्रचला, सा च स्थितस्योर्ध्वस्थानेन उपविष्टस्य - आसीनस्यं भवति, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला ३ । प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, इयं 'तु:' पुनरर्थे 'चङ्क्रमतः ' चङ्क्रमणमपि कुर्वतो जन्तोरुपतिष्ठते, अतः स्थानस्थित खप्तप्रभवप्रचलामपेक्ष्या ऽतिशायिनीत्वमस्याः, तद्विपाकवेखा कर्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला ४ | सूत्रे च "पयलपयला" इति हखत्वं " दीर्घखौ मिथो वृत्तौ " ( सि० ८ - १ - ४ ) इति सूत्रेण । इति ॥ ११ ॥ I दिणचिंतियत्थकरणी, थीणद्धी ५ अद्धचकिअद्धबला । महुलित्तबग्गधारालिहणं व दुहा उ वेयणियं ॥ १२ ॥ ૪ स्त्याना - बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धि: - अभिकाङ्क्षा जाग्रदवस्थाध्यवसितार्थसाधनविषया स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः । " गौणादयः " ( सि० ८-२-१७४ ) इति प्राकृतसूत्रेण १ 'नमचक्षुर्द क० ख० ग० घ० ङ० ॥ २ स्यापि भ° ग० ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१३) कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्धः। २९ "पीणद्धी" इति निपात्यते । अस्यां हि जामदवस्वाध्यवसितमर्थमुत्वाय साधयति । श्रूयते बेतवागमे कथानकम् - कचित् प्रदेशे कोऽपि क्षुल्लको द्विरदेन दिवा स्खलीकृतः स्त्यानचुदये. वर्तमानखमिनेव द्विरदे बद्धाभिनिवेशो रजन्यामुस्थाय तदन्तयुगलमुत्पाव्य खोपाश्रयद्वारे विस्वा पुनः सुतवान् इत्यादि। इमां च व्युत्पत्तिमाश्रित्याह-"दिणचिंतियस्थकरणी थीणद्धी" इति दिने-दिवसे चिन्तिसमुपलक्षणत्वाभिशायामपि चिन्तितम्-अध्यवसितमर्थ करोति-साधयति निद्रानिद्रावतोरमेदोपचारादिनचिन्तितार्थकरणी, "रम्यादिभ्यः" (सि०५-३-१२६) कर्तर्यनद्प्रत्ययः । यहा स्त्याना-पिण्डीमूता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरस्यामिति स्त्यानलिः, एतत्सद्भावे हि प्रथमसंहननस्य केशवार्धबलसदृशी शक्तिः । एनां च व्युत्पत्तिमाश्रित्याह-"अद्धचकिपद्धबल" ति अर्थवक्रिणः-वासुदेवस्य बलापेक्षया अर्ध बलं-स्थाम यस्या उदये जन्तोर्भवति साऽचयर्धबला, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि थीणद्धीति ५। अत्र चक्षुर्दर्शनावरणादिचतुष्कं मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति, निद्रापञ्चकं तु प्राप्ताया दर्शनलब्धेरुपघातकृत् । आह च गन्धहस्ती निद्रादयः समधिगताया एव दर्शनलब्धेरुपधाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तूद्गमोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति (तत्त्वार्थ अ०८ सू. ८ सिद्ध० टीका)। ___ अभिहितं द्वितीयं नवविधं दर्शनावरणम् । साम्प्रतं तृतीयं कर्म वेचं वेदनीयापरपर्यायं व्याचिख्यासुराह-"महुलित" इत्यादि । मधुना-मधुररसेन लिप्ता-खरण्टिता खड्गस्य-करवालस्य धारा-तीक्ष्णाग्ररूपा तस्या जिया लेहनमिव-आखादनसदृशं द्विषैव' द्विप्रकारमेव सातासातभेदात् , तुशब्द एवकारार्थः, 'वेदनीय' वेधं कर्म भवति । इह च मधुलेहनसन्निभं सातवेदनीयम् , खाधाराच्छेदनसममसातवेदनीयम् । उक्तं च मेहुआसागणसरिसो, सायावेयस्स होइ हु विबागो। जं असिणा तहि छिज्जइ, सो उ विवागो असायस्स ।। (वृ० कर्मवि० गा० २९) ॥१२॥ अथ गतिचतुष्टये सातासातखरूपमाह ओसन्नं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरियनरएसु । मज व मोहणीयं, दुविहं दंसणचरणमोहा॥१३॥ ओसन्नशब्दो देशीवचनो बाहुल्यवाचकः, यथा-"ओसनं देवा सायं वेयणं वेयंति ।" तत्र 'मोसन' बाहुल्येन प्रायेणेत्यर्थः, सुराश्व-देवा मनुजाश्च-मनुष्याः सुरमनुजं समाहारद्वन्द्वः, तस्मिन् सुरमनुजे सुरेषु मनुजेष्वित्यर्थः 'सातं' सातवेदनीयं भवति । ओसन्नग्रहणात् च्यवनकालेऽन्यदाऽपि सुराणामसातोदयोऽप्यस्ति, चारकनिरोधवधवन्धनशीतातपादिमिर्मनुजानामक सातमिति । नरकमवाः प्राणिनोऽप्युपचारात् नरकाः, ततस्तिर्यञ्चश्च नरकाश्च तिर्यमरकानेषु १°समानम ख० ग० ० ॥ २ मध्वाखादनसदृशः सातवेद्यस्य भवति खड विपाकः । यदसिना तत्र सियते सतु विपाकोऽसातस ॥ ३ हु ख०म०॥ ४ बाहुस्पेन देवाः सातं वेदनं वेदवन्ति । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपतः गाया तिर्मनु नरकेष्वित्यर्थः, ओसनशब्दसेहापि सम्बन्धादसातम्, 'तुः पुनर व्यवहितसम्ब धध, स चैवं योज्यते--तिर्यमरकेषु पुनरसातं प्रायो भवति । भोसनग्रहणात् केपावित् महस्तितुरङ्गादीनी तिरश्चां नारकाणामपि जिनजन्मकल्याणकादिषु सातमप्यस्तीति । उक्तं द्विविधं वेदनीयं तृतीयं कर्म । इदानीमष्टाविंशतिविधं मोहनीयं चतुर्थ कर्माभिषित्सुराह-"मजं व मोहणीयं" इत्यादि । 'मममिव' मदिरासहशं मोहयतीति मोहनीयं कर्म । "प्रवचनीयादयः" (सि० ५.१-८) इति कर्तर्यनीयप्रत्ययः । यथा हि मद्यपानमूढः प्राणी सदसद्विवेकविकलो भवति, तथा मोहनीयेनापि कर्मणा मूढो जन्तुः सदसद्विवेकविकलो भवतीति । तच द्विविध' द्विमेदम्, कथम् इत्याह-"दसणचरणमोह"ति दर्शनमोहाचरणमोहादित्यर्थः । तत्र दृष्टिदर्शनं यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदस्तद् मोहयतीति "कर्मणोऽण्" (सि० ५-१-७२) इत्यणपत्यये दर्शनमोहम् । चरन्ति-परमपदं गच्छन्ति जीवा अनेनेति चरणं चारित्रं तद् मोहयतीति चरणमोहमिति ।। १३ ।। अथ दर्शनमोहं व्याख्यानयनाह दसणमोहं तिविहं, सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं। सुद्धं अद्धविसुद्धं, अविसुद्धं तं हवा कमसो॥१४॥ दर्शनमोहं पूर्वोक्तशब्दार्थ 'त्रिविधं त्रिप्रकारं भवति । "सम्म"ति सम्यक्त्वं 'मिश्र' सम्यम्मिथ्यात्वं तथैव मिथ्यात्वम् । एतदेव स्वरूपत आह-शुद्धमविशुद्धमविशुद्धं तद् भवति 'क्रमशः' क्रमेणेति । अयमत्रार्थ:-मिथ्यात्वपुगलकदम्बकं मदनकोद्रवन्यायेन शोषितं सद् विकाराजनकत्वेन शुद्धं सम्यक्त्वं भवति, तदेव किञ्चिद्विकारजनकत्वेनार्धविशुद्ध मिश्रम् , तदेव सर्वथाप्यविशुद्धं मिथ्यात्वमिति । उक्तं चतपथेह प्रदीपस्य, खच्छामपटलैहम् । न करोत्यावृति काश्चिदेवमेतद्रुचेरपि ।। एकपुली द्विपुझी च, त्रिपुली वा ननु क्रमात् । दर्शन्युभयवांश्चैव, मिथ्यावृष्टिः प्रकीर्तितः ॥ अत्राह-सम्यक्त्वं कथं दर्शनमोहनीयं स्यात् ?, न हि तद् दर्शनं मोहयति, तस्यैव दर्शनत्वात् , उच्यते-मिथ्यात्वपकृतित्वेनातिचारसम्भवाद् औपशमिकादिमोहत्वाच दर्शनमोहनीयमिति ॥ १४ ॥ इत्युक्तं सोपतसिविधं दर्शनमोहम् । सम्प्रत्येतदेव व्याचिख्यासुः प्रथम सम्यक्त्वखरूपमाह जियअजियपुनपावाऽऽसवसंवरबंधमुक्खनिजरणा। जेणं सहहह तयं, सम्मं वहगाइबहुभेयं ॥ १५ ॥ जीवश्च अजीवश्च पुण्यं च पापं च आवश्च संवरश्च बन्धश्च मोक्षश्च निर्जरणं च निर्जरा, एतानि नव तत्त्वानि 'येन' कर्मणा 'श्रद्दधाति' प्रत्येति तत् सम्यक्त्वमुच्यते । तत्र नव तत्त्वान्यमूनि जीवा१ऽजीवा २ पुनं३, पावाऽऽसव ५ संवरो ६ य निजरणा । नां नारक० ख० ग० ० ०॥ २ जीवाजीवो पुण्यं पापमाश्रवः संवरण निर्जरणा । बन्यो मोक्षय तथा नव तत्त्वानि भवन्ति इति यानि ॥१॥ एकविधद्विविधत्रिविधाचतुर्क पञ्चविधषविधा जीवा।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मन्यः। बंघो ८ मुबलोय तहा, नव तचा हुंति इय नेया ॥१॥ एगविहदुविहतिविहा, चउहा पंचविहछबिहा जीवा । चेयणपतसइयरेहिं २, वेय३गईश्करण५काएहिं ॥२॥ एगिदिय सुहुमियरा, वितिचउसनीअसनिपंचिंदी। अपजत्ता पजचा, चउदसभेया अहव जीवा ॥ ३ ॥ पण थावर मुहुमियरा, परिचवणसलऽसनिविगलतिगं। इय सोलस अपजत्ता, पजता जीव बचीसा || ॥ धम्माऽधम्माऽऽगासा, य दवदेसप्पएसओ तिविहा । गइठाणऽवगाहगुणा, कालो य अरूविणो दसहा ॥५॥ खंधा देस पएसा, परमाणू पुग्गला चउह रूवी। जीवं विणा अचेयण, अकिरिया सबगय वोमं ॥ ६॥ कालो माणुसलोए, जियधम्माऽधम्म लोयपरिमाणा । सबे दवं इटा, काल विणा अस्थिकाया य ॥ ७॥ धम्माऽधम्माऽऽगासा, कालो परिणामिए इहं भावे । उदयपरिणामिए पुग्गला उ ससु पुण जीवा ॥ ८॥ जीवाजीवतत्त्वे ॥ तिरिनरसुराउ उचं, सायं परपायआयवुज्जोयं । जिणऊसासनिमाणं, पणिदिवइरुसमचउरंसं ॥ ९॥ तसदस चउवन्नाई, सुरमणुदुग पंचतणु उवंगतिगं।। अगुरुलहु पदमखगई, बायाला पुनपगईओ॥ १०॥ पुण्यतत्त्वम् ॥ नाणंतराय पण पण, नव बीए नियअसायमिच्छतं । थावरदस नरयतिगं, कसायपणवीस तिरियदुगं ॥ ११ ॥ चउजाई उवघायं, अपढमसंघयणखगइसे ठाणा। बनाइअमुमचउरो, बासीई पावपगडीओ ॥ १२॥ पापतत्त्वम् ।। चेतनत्रसेतरैर्वेदगतिकरणकायैः ॥ ३॥ एकेन्द्रियाः सूस्मेतरा द्वित्रिचतुःसंश्यसहिपश्चिन्द्रियाः । अपर्याप्ताः पर्याप्ताबतुर्दशमेदा अपना जीवाः ॥ ३ ॥ पञ्च स्थावराः सूक्मेतराः प्रत्येकवनसंस्यसशिविकलत्रिकम् । इति षोडशापर्याप्ताः पर्याप्ता जीवा द्वात्रिंशत् ॥ ४॥धर्माधर्माकासाथ द्रव्यदेवप्रदेशतविविधाः । गतिस्थानावकाशगुणाः कालथारूपिणो दशधा ॥ ५॥ कन्या देशाः प्रदेशाः परमाणवा पुलाचतुर्धा रूपिणः । जीवं विनाऽचे. तना भक्रियाः सर्वगतं व्योम ॥ ६॥ कालो मनुष्यलोके जीवधर्माऽधर्मा लोकपरिमाणाः । सर्वाणि प्रत्याणीधनि कालं विनाऽस्तिकायाब ॥ ॥ धर्माऽधर्माऽकाशाः कालः पारिणाभिके इह भावे । उदयपारिणामिके पुलाव सर्वेषु पुनर्जीवाः ॥ ८ ॥ विर्मपरसुरायुरुजैः (गोत्र) सातं पराधाताऽऽतपोयोतम् । जिनोचावनिर्माण, पो. निद्रयवर्षभचतुरसम् ॥॥सदशकं चलारो वर्णादयः सुरमनुष्यदिकं पब तनव उपाशत्रिकम् । भगुरुला प्रथमखगतिईिचखारिंशत्पुण्यप्रकृतयः ॥१०॥शानान्तरायाः पच पच नव द्वितीये नीचासातमिभ्यालम् । खापरदा नरकत्रिकं कषायपश्चविंशतिखियेदिकम् ॥1॥ चतसो जातय उपपातमप्रथमसंहननसमाविसामानि । वर्णायशुभचतुष्क शीतिः पापप्रकृतयः॥ १२॥ . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसरिविरचितसोपाटीकोपेवा गामा 'इंदिय कसाय अवय, किरिया पण चउर पंच पणवीसा । जोगतिगं वायाला, आसवमेया इमा किरिया ॥१३॥ काय १ अहिगरणीयार, पाउसिया ३ पारितावणी किरिया । पाणइवाया५ऽऽरंमियद, परिगहिया ७ मायवती य ८ ॥ १ ॥ मिच्छादसणक्ती ९, अप्पचक्खाण १० दिट्टि ११ पुट्ठी य१२ । पाडुश्चिय १३ सामंतोवणीय १४ नेसत्थि १५ साहत्यी १६ ॥१५॥ आणवणि १७ वियारणिया १८, अणभोगा १९ अणवकंखपचया २० । अन्नापओग २१ समुदाण२२, पिज२३दोसे२४रियावहिया२५ ॥ १६ ॥ आश्रवतत्त्वम् ॥ भावण चरण परीसह, समिई जइधम्म गुत्ति बारस उ। पंच दुवीसा पण दस, तिय संवरमेय सगवन्ना ॥ १७ ॥ संवरतत्त्वम् ।। बारसविहं तवो निजरा उ अहवा अकामसक्कामा । पयइठिईअणुभागप्पएसभेया चउह बंधो ॥ १८ ॥ निर्जराबन्धतत्त्वे ॥ संतपयपरूवणया१, दवपमाणं च २ खित्त ३ फुसणा य ४ । कालो ५ अंतर ६ भागा ७, भाव ८ऽप्पबहू ९ नवह मुक्खो ॥ १९ ॥ जिण १अजिणरतित्यतित्था४, गिह५अन्नसलिंग७थीटनर९नपुंसा१०। पत्तेय ११संयबुद्धा१२, वि बुद्धबोहि १३१४ऽणिका य१५॥२०॥ __ इति मोक्षतत्त्वम् ॥ इत्युक्तं सोपतो नवतत्त्वखरूपम् , विस्तरतस्तु श्रीधर्मरनटीकातोऽवसेयम् । तदेवं येन कर्मणाऽमूनि नव तत्त्वानि श्रद्दधाति तत् सम्यक्त्वम्, किंविशिष्टं ! "खइयाइबहुमेयं" ति क्षायिकमादौ येषां ते क्षायिकादयः, क्षायिकादयो बहवो भेदाः प्रकारा यस्य तत् क्षायिकादिबहुभेदम् । इहादिशब्दावेदकौपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकग्रहणम् । एतयाख्यानगाथा-- इन्द्रियाणि करायाः अग्रतानि क्रियाः पञ्च चखारः पञ्च पञ्चविंशतिः। योगत्रिकद्वाचवारिंशदाश्रवमेदा इमाःक्रियाः॥१३॥ कायिक्यधिकरणिकी प्रादेषिकी पारितापनिकी क्रिया । प्राणातिपातिक्यारम्भिकी पारिपहिकी मायाप्रत्यायिकी च ॥ १४ ॥ मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी अप्रत्याख्यानिकी दृष्टिकी स्पृष्टिकी च । प्राविसकी सामन्तोपनिपातिकी नैःशखिकी खास्तिकी ॥ १५॥ आनयनिकी विदारणिकाऽनाभोगिकी अनवकाशप्रत्यगिकी । वन्यप्रायोगिकी समुदानिकी प्रेमिकी द्वेषिकी ऐयोपषिकी ॥१६॥ भावनाः चरणानि परीषहाः समितयः यतिधर्माः गुप्तयः द्वादश तु । पश्च द्वाविंशतिः पञ्च दश त्रिकं संवरमेदाः सप्तपञ्चाशत् ॥१७॥ द्वादश विध तपो निर्जरा तु अथवा अकामसकामा । प्रकृतिस्थितिअनुभागप्रदेशमेदाचतुर्धा बन्धः ॥ १०॥ सत्पदप्रकपणता न्यप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शना च । कालोऽन्तरभागी भावाल्पबहुत्वे नवधा मोक्षः ॥ १९ ॥ जिनाजिनतीर्थावीर्षा ग्रहाम्मस्खलिंगनीनरनपुंसकाः । प्रत्येकखयंबुद्धा अपि युद्धमोषितकानेके (सिद्धाः) च ॥ २॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _____३३ कर्मविपाकलामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। खीणे सणमोहे, तिविहम्मि वि खाइयं भवे सम्म । वेयगमिह सोइयचरमिल्लयपुग्गलग्गार्स ॥ (धर्मसं० ८०१) उवसमसेढिगयस्स उ, होइ हु उवसामियं तु सम्मतं । जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ उवसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं, तयंतरालम्मि छाबलियं ॥ मिच्छत्तं जमुइन्नं, तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेइजंतं खओवसमं ।। (विशे० आ० गा० ५२९-३१-३२) इति ॥१५॥ उक्तं सम्यक्त्वम् । अथ मिश्रमाह मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुह जहा अन्ने । नालियरदीवमणुणो, मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ॥ १३ ॥ 'मिश्रात्' मिश्रोदयाद जीवस्य 'जिनधर्मे जिनधर्मस्योपरि न रागः-मतिदौर्बल्यादिना एकान्तनिश्चयात्मकश्रद्धानरूपः प्रीतिविशेषः, न च द्वेषः-एकान्तविप्रतिपत्तिपरिणामोपजातनिन्दात्मकोऽप्रीतिरूपः । मिश्रोदयश्च "अंतमुहु" ति 'अन्तर्मुहूर्त' भिन्नमुहूर्तकालं यावद् भवतीत्यर्थः । अथ कथं मिश्रोदयाजिनधर्मे न रागो न द्वेषः ? इत्याशक्य दृष्टान्तमाह-"जहा अन्ने" इत्यादि । 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासे 'अन्ने' कूराद्योदने 'नालिकेरद्वीपमनुजस्य' नालिकेरद्वीपवासिपुरुषस्य न रागो न च द्वेषोऽदृष्टाऽश्रुतत्वेन । उक्तं च बृहच्छतकबृहच्च - ___ जहा नालिकेरदीववासिस्स अइछुहाइयस्स वि पुरुसस्स इत्थ ओयणाइए अणेगविहे वि ढोइए तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण कारणेण सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नावि सुओ । एवं सम्मामिच्छद्दिहिस्स वि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न रुई न य निंदा ॥ इत्यादि। उक्तं मिथम् । सम्प्रति मिथ्यात्वमाह-"मिच्छं जिणघम्मविवरीयं" ति । “मिच्छं" ति मिथ्यात्वं जिनधर्माद विपरीतं-विपर्यस्तं ज्ञेयमिति शेषः । अत्रायमाशयः-रागद्वेषमोहादिकलसाहितेऽदेवेऽपि देवबुद्धिः, “धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः । सत्त्वानां धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥" १ क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि क्षायिकं भवेत्सम्यक्त्वम् । वेदकमिह सर्वोदितचरमपुदलप्रासम् ॥ उपशमन्नेणिगतस्य तु भवति च भोपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुजोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्खम् ॥ उपशमसम्यक्त्वाच्यवमानस्य मिथ्याखमप्राप्नुवतः । सास्वादनसम्यक्त्वं तदन्तराले षडावलिकम्॥ मिथ्यात्वं यदुदीर्ण तत्क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् । मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकम् ॥ २ उक्सामगसेढिगयस्स होइ उव' इति भाष्ये ॥ ३ यथा नालिकेरद्वीपवासिनोऽतिक्षुधादितस्यापि पुरुषस्यहोदनादिकेऽनेकविधेऽपि ढोकिते तस्याहारस्योपरि न रुचिर्न च निन्दा, येन कारणेन स मोदनादिक आहारो न कदावि स्टो नापि श्रुतः । एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टेरपि जीवादिपदार्थानामुपरि न रुचिर्न च निन्दा ॥ क.५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा इत्यादिप्रतिपादितगुरुलक्षणविलक्षणेऽगुरावपि गुरुबुद्धिः, संयमसूनृतशौचब्रह्मसत्यादि (ब्रह्माकिञ्चन्यादि) खरूपधर्मप्रतिपक्षेऽधर्मेऽपि धर्मबुद्धिरिति मिथ्यात्वम् ॥ १६ ॥ उक्तं मिथ्यात्वम्, तद्भणने चाभिहितं त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयम् । इदानीं चारित्रमोहनीयमभिधित्सुराहसोलस कसाय नव नोकसाय दुविहं चरितमोहणियं । अण अप्पचक्खाणा, पचक्खाणा य संजलणा ॥ १७ ॥ 'द्विविधं ' द्विभेदं चारित्रमोहनीयं भवति, तद्यथा – “सोलस कसाय" ति कप्यन्ते - हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः - संसारः, कषमयन्ते - गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः । यद्वा कषस्याऽऽयः – लाभो येभ्यस्ते कषायाः क्रोधमानमायालोभाः । तत्र क्रोधोऽक्षान्तिपरिणतिरूपः, मानो जात्यादिसमुत्थोऽहङ्कारः, माया परवञ्चनाद्यात्मिका, लोभोऽसन्तोषात्मको गृद्धिपरिणामः । ततः षोडशसङ्ख्याः कषायाः कषायमोहनीयमुच्यते । विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात्, एवमुत्तरत्रापि । “नव नोकसाय" त्ति कषायैः सहचरा नोकषायाः, ते च नव — हास्यादयः षट् यो वेदाः । अत्र नोशब्दः साहचर्यवाची । एषां हि केवलानां न प्राधान्यमस्ति, किन्तु कषायै - रनन्तानुबन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति, तद्विपाकसदृशमेव विपाकं दर्शयन्ति, बुधग्रहवदन्यसंसर्गमनुवर्तन्ते इति भावः । कषायोद्दीपनाद्वा नोकषायाः । उक्तं च कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ॥ ३४ ततो नवसङ्ख्या नोकषाया नोकषायमोहनीयमुच्यते । अथ “यथोद्देशं निर्देशः " इति न्यायात् प्रथमं कषायमोहनीयं व्याख्यानयन्नाह – “अण अप्पच्चक्खाणा" इत्यादि । " अण" त्ति अनन्तानुबन्धिनः । तत्रानन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः । यदवाचियस्मादनन्तं संसारमनुबध्र्ध्नन्ति देहिनाम् । ततोऽनन्तानुबन्धीति, संज्ञाऽऽद्येषु निवेशिता || ते चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः । यद्यपि चैतेषां शेषकषायोदयरहितानामुदयो नास्ति, तथाप्यवश्यमनन्तसंसारमौलकारणमिध्यात्वोदया क्षेपकत्वादेषामेवानन्तानुबन्धित्वव्यपदेशः । शेषकषाया हि नावश्यं मिथ्यात्वोदयमाक्षिपन्ति, अतस्तेषामुदययौगपद्ये सत्यपि नायं व्यपदेश इत्यसाधारणमेतेषामेवैतन्नामेति । तथा न वेद्यते खल्पमपि प्रत्याख्यानं येषामुदयादतोऽप्रत्याख्यानाः । यदभाणि -- नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यान संज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥ ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः । तथा प्रत्याख्यानं - सर्वविरतिरूपमा वृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । यन्यगादि सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमिहोच्यते । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥ १ आद्याः कषायाः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-१८] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्यः । ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः । तथा परीषहोपसर्गोपनिपाते सति चारित्रिणमपि 'संशब्द ईषदर्थे सम्-ईषद् ज्वलयन्ति-दीपयन्तीति संज्वलनाः । यदभ्यधायि परीषहोपसर्गोपनिपाते यतिमप्यमी । समीषद् ज्वलयन्त्येव, तेन संज्वलनाः स्मृताः ॥ ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः । तदेवं चत्वारश्चतुष्ककाः षोडश भवन्तीति ॥ १७ ॥ उक्ताः षोडश कषायाः, सम्प्रत्येतेषामेव विशेषतः किञ्चित् स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुराह जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरियनरअमरा । सम्माणुसव्वविरईअहवायचरित्तघायकरा ॥१८॥ “जाजीव" ति “यावतावजीवितावर्तमानावटपावारकदेवकुलैवमेवे वः" (सि०८-१२७१) इति प्राकृतसूत्रेण वकारलोपे यावजीवं च वर्ष च चतुर्मासं च पक्षश्च यावज्जीववर्षचतुर्मासपक्षास्तान् गच्छन्तीति यावजीववर्षचतुर्मासपक्षगाः । "नानो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः” (सि० ५-१-१३१) इति डप्रत्ययः । इदमुक्तं भवति-यावज्जीवानुगा अनन्तानुबन्धिनः, वर्षगा अप्रत्याख्यानावरणाः, चतुर्मासगाः प्रत्याख्यानावरणाः, पक्षगाः संज्वलनाः । इदं च फेरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो य हणइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो य सामन्नं ।। (उप० मा० गा० १३४) इत्यादिवद् व्यवहारनयमाश्रित्योच्यते; अन्यथा हि बाहुबलिप्रभृतीनां पक्षादिपरतोऽपि संज्वलनाद्यवस्थितिः श्रूयते, अन्येषां च संयतादीनामाकर्षादिकाले प्रत्याख्यानावरणानामप्रत्याख्यानावरणानामनन्तानुबन्धिनां चान्तर्मुहूर्तादिकं कालमुदयः श्रूयत इति । तथा नरकगतिकारणत्वादनन्तानुबन्धिनः कषाया अपि नरकाः, भवति च कारणे कार्योपचारः, यथा--"आयुधृतम् , नडलोदकं पादरोगः" इति । एवं तिर्यग्गतिकारणत्वात् तिर्यञ्चोऽप्रत्याख्यानावरणाः, नरगतिकारणत्वान्नराः प्रत्याख्यानावरणाः, अमरगतिकारणत्वादमराः संज्वलनाः । एतदुक्तं भवति-अनन्तानुबन्ध्युदये मृतो नरकगतावेव गच्छति, अप्रत्याख्यानावरणोदये मृतस्तिर्यक्षु, प्रत्याख्यानावरणोदये मृतो मनुष्येषु, संज्वलनोदये पुनर्मूतोऽमरेष्वेव गच्छति । उक्तश्चायमर्थः पश्चानुपूर्व्याऽन्यत्रापि पंक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो भणिया । देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो नेया ।। (विशे० गा० २९९२) इदमपि व्यवहारनयमधिकृत्योच्यते; अन्यथा हि अनन्तानुबन्ध्युदयवतामपि मिथ्याशां केषाश्चिदुपरितनौवेयकेषुत्पत्तिः श्रूयते, प्रत्याख्यानावरणोदयवतां देशविरतानां देवगतिः, अप्रत्याख्यानावरणोदयवतां च सम्यग्दृष्टिदेवानां मनुष्यगतिः । तथा "सम्म" ति सम्यक्त्वं च “अणुसन्धविरइ"ति विरतिशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् अणुविरतिश्च-देशविरतिः सर्वविर १ परुषवचनेन दिनतपोऽधिक्षिपंश्च इन्ति मासतपः । वर्षतपः शपमानः हन्ति बंध श्रामण्यम् ॥ २ पक्षचतुर्मासवत्सरयावज्जीवानुगामिनो भणिताः । देवनरतिर्यमारकगतिसाधनहेतवो ज्ञेयाः ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रदरिविरचितखोपाटीकोपतः तिश्च यथाख्यातचारित्रं च सम्यक्त्वाणुसर्वविरतियथाख्यातचारित्राणि तेषां पात:-विनाशः सम्यक्त्वाप्सर्वविरतियथाख्यालचारित्रघातस्तं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः सम्यक्त्वाणुसर्वविरतिथयाख्यातचारित्रघातकराः । एतदुक्तं भवति-अनन्तानुबन्धिनः कषायाः सम्यक्त्वघातकाः । यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादाः पंढमिल्लयाण उदए, नियमा संजोयणाकसायाणं । सम्मइंसणलंमं, भवसिद्धीया वि न लहंति ॥ (आ० नि० गा० १०८) अप्रत्याख्यानावरणा देशविरतेर्षातकाः, न सम्यक्त्वस्येत्याल्लब्धम् । यदाहुः पूज्यपादाः बीयेकसायाणुदये, अप्पञ्चक्खाणनामधिज्जाणं । सम्मइंसणलंमं, विरयाविरयं न उ लहंति ॥ (आ०नि० गा० १०९) प्रत्याख्यानावरणास्तु सर्वविरतर्घातकाः, सामर्थ्यान्न देशविरतेः । उक्तं च~ तैइयकसायाणुदए, पञ्चक्खाणावरणनामधिज्जाणं । देसिकदेसविरई, चरितलंभं न उ लहंति ॥ (आ० नि० गा० ११०) संज्वलनाः पुनर्यथाख्यातचारित्रस्य घातकाः, न सामान्यतः सर्वविरतेः । उक्तं च श्रीमदाराध्यपादैः मूलगुणाणं लंभ, न लहह मूलगुणघाइणं उदए । संजरुणाणं उदए, न लहइ चरणं अहक्खायं ॥ (आ० नि० गा० १११) इति ॥ १८॥ अथ जलरेखादिदृष्टान्तेन किञ्चित्सविशेषं क्रोधादिकषायाणां स्वरूपं व्याचिख्यासुराह जलरेणुपुढविपव्वयराईसरिसो चउविहो कोहो । तिणिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१९॥ इह राजिशब्दः सदृशशब्दश्च प्रत्येक सम्बध्यते । ततो जलराजिसशस्तावत् संज्वलनः क्रोषः, यथा ययादिभिर्जलमध्ये राजी-रेखा क्रियमाणा शीघ्रमेव निवर्तते, तथा यः कथमप्युदयप्राप्तोऽपि सत्वरमेव व्यावर्तते स संज्वलनः क्रोधोऽभिधीयते १ । रेणुराजिसदृशः प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः, अयं हि संज्वलनक्रोधापेक्षया तीव्रत्वाद रेणुमध्यविहितरेखावत् चिरेण निवर्तत इति भावः २ । पृथिवीराजिसदृशस्त्वप्रत्याख्यानावरणः, यथा स्फुटितपृथिवीसम्बधिनी राजी कचवरादिभिः पूरिता कष्टेनापनीयते, एवमेषोऽपि प्रत्याख्यानावरणापेक्षया कप्टेन निवर्तत इति भावः ३ । विदलितपर्वतराजिसदृशः पुनरनन्तानुबन्धी क्रोधः, कथमपि निवर्तयितुमशक्य इत्यर्थः ४ । उक्तश्चतुर्विधः क्रोधः ॥ इदानीं मानोऽभिधीयते-तत्र तिनिसलतोपमः संज्वलनो मानः, यथा तिनिश:-बनस्पति१ प्राथमिकानामुदये नियमासयोजनाकषायाणाम् । सम्यग्दर्शनलाभं भवसिद्धिका अपि न लभन्ते ॥ २ द्वितीयकषायाणामुदयेऽप्रत्याख्याननामधेयानाम् । सम्यग्दर्शनलामं विरताविरतं न तु लभन्ते ॥ ३ तृतीयकषायाणामुदये प्रत्याख्यानावरणनामधेयानाम् । देशेकदेशविरतिं चरित्रलामं न तु लभन्दे ।। ४ मूलगुणानां लाभ न लभते मूलगुणघातिनामदये। संज्वलनामामदये न लमते चरणं यथाख्यासम्॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषतत्सम्बन्विनी लता सुखेनैव नमति, एवं यस मानवोदये जीव खामहं मुक्खा सुखेनैव ममति स संज्वलनमानः १ । यथा स्तब्धं किमपि काठममिखेदाविबहूपायैः कष्टेन नमति, एवं यस्य मानस्योदये जीवोऽपि कष्टेन नमति स काठोपमः प्रत्याख्यानावरणो मामः २ । यथाऽसि-हडं बहुतरैरुपायैरतितरां महता कष्टेन नमति, एवं यस्य मानसोदये जीवोऽप्यतिसरां महता कष्टेन नमति सोऽस्थ्युपमोऽप्रत्याख्यानावरणो मानः ३ । शिलायां घटितः शैलः शैलचासौ स्तम्भश्च शैलस्तम्भस्तदुपमस्त्वनन्तानुबन्धी मानः, कथमप्यनमनीय इत्यर्थः ॥१५॥ उक्तश्चतुर्विधो मानः। अथ मायालोमो व्याख्यानयबाह मायाऽवलेहिगोमुत्तिमिंढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोहो हलिहखंजणकहमकिमिरागसामाणो ॥२०॥ मायाऽवलेखिकासमा संज्वलनी, धनुरादीनामुल्लिख्यमानानां याऽवलेखिका वक्रत्वग्रूपा पतति, यथाऽसौ कोमलत्वात् सुखेनैव प्राञ्जलीक्रियते, एवं यस्या उदये समुत्पन्नाऽपि हृदये कुटिलता सुखेनैव निवर्तते सा संज्वलनी माया १। गौः-बलीवर्दस्तस्य मार्गे गच्छतो वक्रतया पतिता मूत्रधारा गोमूत्रिकाऽभिधीयते, यथाऽसौ शुष्का पवनादिभिः किमपि कष्टेन मीयते, एवं यजनिता कुटिलता कष्टेनापगच्छति सा गोमूत्रिकासमा प्रत्याख्यानावरणी माया २१ एवं मेषशृङ्गसमायामप्यप्रत्याख्यानावरणमायायां भावना कार्या, नवरमेषा कष्टतरनिवर्तनीया ३ । धनवंशीमूलसमा त्वनन्तानुबन्धिनी माया, यथा निबिडवंशीमूलस्य कुटिलता किल बहि नाऽपि न दखते, एवं यजनिता मनःकुटिलता कथमपि न निवर्तते साऽनन्तानुबन्धिनी मायेत्यर्थः ४ । तथा लोभो हरिद्रारागसमानः संज्वलनः, यथा वाससि हरिद्वारागः सूर्यातपस्पर्शदिमात्रादेव निवर्तते तथाऽयमपीत्यर्थः १ । कष्टनिवर्तनीयो वस्त्रविलमप्रदीपादिखञ्जनसमानः प्रत्याख्यानावरणलोमः २ । कष्टतरापनेयो वस्त्रलमनिबिडकर्दमसमानोऽप्रत्याख्यानावरणलोमः ३ । कृमिरागरक्तपट्टसूत्ररागसमानः कथमप्यपनेतुमशक्योऽनन्तानुबन्धी लोभ ४ इति ॥२०॥ उक्तं कपायमोहनीयम् । अथ नोकषायमोहनीयं व्याख्यायते, तच्च द्विविधम् -हास्यादिषदक वेदत्रिकं च । तत्र हास्यादिषट्कं व्याख्यानयन्नाह जस्सुदया होइ जिए, हास रई अरह सोग भय कुच्छा। सनिमित्तमन्नहा वा, तं इह हासाइमोहणियं ॥ २१ ॥ यस दयाद' विपाकात् 'भवति' जायते 'जीवे' जीवस्य हासो रतिः अरतिः शोको मयं "कुच्छ"वि जुगुप्सा, हासादिशब्देषु सिलोपः प्राकृतत्वात् , 'सनिमितं' सकारणम् 'मन्यथा' अनिमित्वं निष्कारणम्, वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः, तद् 'इह' प्रक्चने हास्यादिमोहनीयम् । आदिशब्दाद् रतिमोहनीयम् अरतिमोहनीयं शोकमोहनीयं भयमोहनीयं जुगुप्सामोहनीयं मण्यत इति शेषः, इति गाथाक्षरार्थः । भावार्थः पुनस्यम्-यदुदयात् सनिमितमनिमितं वा मीवस्य हासः-हासं भवति तद् हासमोहनीयम् १ । यदुदयात् सनिमित्तमनिमितं वा बाधाभ्यन्तरेषु वस्तुपु जीवस्य रतिः-प्रमोदो भवति तद् रतिमोहनीयम् २ । यदुदयात् सनिमित१ कोनापनीय ग०५०॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ - देवेन्द्रसूरिविरचितखोपशटीकोपेतः [गाया मनिमित्तं वा जीवस्य बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुष्वरतिः-अप्रीतिर्भवति तद् अरतिमोहनीयम् ३ । यदुदयात् सनिमित्तमन्यथा वा जीवस्योरस्ताडनक्रन्दनपरिदेवनदीर्घनिःश्वसनभूलुठनरूपः शोको भवति तत् शोकमोहनीयम् ४ । यदुदयात् सनिमितमनिमित्तं वा तथारूपस्वसङ्कल्पतो जीवस्य "इहपरलोयारऽऽदाण३मकम्हा आजीव१मरण६मसिलोए ७ ।" (आव०सं०गा० पत्र ६४५-२) इति गाथा|क्तं सप्तविघं भयं भवति तद् भयमोहनीयम् ५ । यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा जीवस्याशुभवस्तुविषया जुगुप्सा–व्यलीकं भवति तद् जुगुप्सामोहनीयम् ६॥ २१ ॥ उक्तं हास्यादिषट्कं, सम्प्रति वेदत्रिकमाह पुरिसित्थि तदुभयं पह, अहिलासो जव्यसा हवइ सो उ । थीनरनपुवउदओ, फुफुमतणनगरदाहसमो ॥२२॥ प्रतिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, पुरुषं प्रति स्त्रियं प्रति तदुभयं प्रति-स्त्रीपुरुषं प्रतीत्यर्थः 'यद्वशात्' यत्पारतड्याद् 'अभिलाषः' वाञ्छा 'भवति' जायते, तुशब्दः परस्परापेक्षया पुनरर्थे, स्त्री-योषित् नरः-पुरुषः “नपु"ति नपुंसकं तैवेद्यते-अनुभूयते स्त्रीनरनपुंवेदस्तस्योदयः स्त्रीनरनपुंवेदोदयो ज्ञेय इति शेषः । फुम्फुमा-करीषम् तृणानि-प्रतीतानि नगरं-पुरम् फुम्फुमातृणनगराणि तेषां दाहस्तेन समः-तुल्य इति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-यद्वशात् स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तवशाद् मधुरद्रव्यं प्रति, स फुम्फुमादाहसमः, [* यथा यथौ चाल्यते तथा तथा ज्वलति बृंहति च, एवमबलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषेण तथा तथाऽस्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, अभुज्यमानायां तु च्छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषो मन्दइत्यर्थः, इति *] स्त्रीवेदोदयः १ । यद्वशात् पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा श्लेप्मवशादम्लं प्रति, स पुनस्तृणदाहसमः, [* यथा तृणानां दाहे ज्वलनं झटिति विध्यापनं च भवति, एवं पुंवेदोदये स्त्रियाः सेवनं प्रत्युत्सुकोऽभिलाषो भवति, निवर्तते च तत्सेवने शीघ्रमिति *] नरवेदोदयः २ । यद्वशाद् नपुंसकस्य तदुभयं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तश्लेष्मपशात् मज्जिका प्रति, स पुनर्नगरदाहसमः, [* यथा नगरं दद्यमानं महता कालेन दह्यते विध्याति च महतैव, एवं नपुंसकवेदोदयेऽपि स्त्रीपुरुषयोः सेवनं प्रत्यभिलाषातिरेको महताऽपि कालेन न निवर्तते, नापि सेवने तृप्तिरिति *] नपुंवेदोदयः ३ । अभिहितं वेदत्रिकम् , तदभिघाने चाभिहितं नवधा नोकषायमोहनीयम् , तदभिधाने च समर्थितं चारित्रमोहनीयमिति ॥ २२॥ उक्तमष्टाविंशतिविधं चतुर्थं मोहनीयं कर्म, इदानीं पञ्चममायुष्कर्म व्याचिल्यासुराह सुरनरतिरिनरयाऊ, हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं । बायालतिनवहविहं, तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी ॥२३॥ आयुःशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततश्च सुष्ठ राजन्त इति सुराः, यद्वा "सुरत् ऐश्वर्यदीप्त्योः" १ इहपरलोकादानमकस्मादाजीविकामरणमश्लोकः ॥ २ [* *]-एताहकू सफुल्लिककोष्ठकान्तःपाती सन्दर्भः क पुस्तके नास्ति, एवमग्रेऽपि ॥ ३ °था फुम्फुमा चा ख०॥ ४ दहति च ख० ग० घ०3०॥ ५°वमानाऽपि ख०॥ ६दा ख०1०3०॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२-२४] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । सुरन्ति-विशिष्टमैश्वर्यमनुभवन्ति दिव्याभरणकान्त्या सहजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति मुराः, यदि वा सुष्टु रान्ति-ददति प्रणतानामीप्सितमर्थ लवणाधिपसुस्थित इव लवणजलघौ मार्ग जनार्दनस्पति सुराः-देवाः तेषामायुः सुरायुर्येन तेष्ववस्थितिर्भवति १। नृणन्ति-निश्चिन्वन्ति वस्तुतत्त्वमिति नराः-मनुष्याः तेषामायुनरायुस्तद्भवावस्थितिहेतुः २ । “तिरि" ति प्राकृतत्वात् तिरोऽश्चन्ति-गच्छन्तीति तिर्यश्चः, व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत् , प्रवृत्तिनिमितं तु तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, ततस्तिरब्धामायुस्तिर्यगायुर्येनेतेषु स्थीयते ३ । नरान् उपलक्षणत्वात् तिरश्वोऽपि प्रभूतपापकारिणः कायन्तीव आह्वयन्तीवेति' नरकाः-नरकावासास्तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते येषां ते "अप्रादिभ्यः" (सि०७-२-४६) इति अप्रत्यये नरकास्तेषामायुर्नरकायुर्येन ते तेषु ध्रियन्ते । एतच्चायुईडिसदृशं भवति । तत्र हडिः-खोडकरतेन सदृशं तत्तुल्यम् , यथा हि राजादिना हडौ क्षिप्तः कश्चिचौरादिस्ततो निर्गमनमनोरथं कुर्वाणोऽपि विवक्षितं कालं यावत् तया ध्रियते, तथा नारकादिस्ततो निष्क्रमितुमना अपि तदायुषा प्रियत इति हडिसदृशमायुः । व्याख्यातं चतुर्विषं पञ्चममायुष्कर्म ।। सम्प्रति षष्ठं नामकर्माभिधित्सुराह-"नामकम्म चित्तिसमं” इत्यादि । नामकर्म भवति 'चित्रिसमं' चित्रं कर्म तत् कर्तव्यतया विद्यते यस्य स चित्री-चित्रकरस्तेन समम्-सदृशं चित्रिसमम् । यथा हि चित्री चित्र चित्रप्रकारं विविधवर्णकैः करोति, तथा नामकर्मापि जीवं नारकोऽयं तिर्यग्जातिकोऽयमेकेन्द्रियोऽयं द्वीन्द्रियोऽयमित्यादिव्यपदेशैरनेकधा करोतीति चित्रिसममिदमिति । एतच्चानेकभेदम् , कथम् ? इत्याह-"बायालतिनवइविहं तिउत्तरसयं च सत्तट्टी" ति । अत्र विधाशब्दस्य प्रत्येकं योगाद द्विचत्वारिंशद्विधम् , यद्वा त्रिनवतिविधम् , यदि वा व्युत्तरशतविधम् , अथवा सप्तपष्टिविधम् । चशब्दः समुच्चये व्यवहितसम्बन्धश्च, स च तथैव योजितः ॥ २३ ॥ अथ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशतं भेदान् प्रचिकटयिषुराह गइजाइतणुउवंगा, बंधणसंघायणाणि संघयणा। . संठाणवन्नगंधरसफासअणुपुस्विविहगगई॥२४॥ इह नाम्नः प्रस्तावात् सर्वत्र गत्यादिषु नामेत्युपस्कारः कार्यः । तथाहि-तिनाम जातिनाम तनुनाम उपाङ्गनाम ( ग्रन्थानम् १०००) बन्धननाम सङ्घातननाम संहनननाम संस्था नाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम आनुपूर्वीनाम विहायोगतिनामेति । तत्र गम्यतेतथाविधकर्मसचिवैजींवैः प्राप्यत इति गतिः-नारकादिपर्यायपरिणतिः, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि गतिः, सैव नाम गतिनाम १ । जननं जातिः-एकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेश्येन पर्यायेण जीवानामुत्पत्तिः, तद्भावनिबन्धनभूतं नाम जातिनाम २ । तनोति-जन्तुरात्मप्रदेशान् विस्तारयति यस्यां सा तनुः, तज्जनकं कर्मापि तनुः, सैव नाम तनुनाम, शरीरनामेत्यर्थः ३ । "उवंग" ति उपलक्षणत्वाद् अङ्गोपाङ्गनाम, तत्र “अौप् व्यक्तिम्रक्षणगतिः" इति धातोः अध्यन्ते-गर्भोत्पत्तेरारभ्य व्यक्तीभवन्ति जन्मप्रभृतेर्पक्ष्यन्ते चेत्यानि शिरउरउदरादीनि वक्ष्यमाणखरूपाणि, तदवयवभूतान्यङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानि, शेषाणि तु तत्प्रत्यवयवभूतान्यङ्गुलिषु १°ति नरकावासाख ख०० उ०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा पर्वखावीन्यनोपाज्ञानि ततश्चाज्ञानि चोपानानि च अङ्गोपाङ्गानि चेति इन्द्वे "खादावस (सि० ३-१-११९) इत्येकशेषे च कृते अङ्गोपाङ्गानीति, तत्र यदुदयात् शरीरतयोपाचा व्याप पुढला अङ्गोपाङ्गविभागेन परिणमन्ति तत् कर्मापि अङ्गोपाङ्गनाम ४ । बध्यन्तेसूक्षमाणमुद्रकाः पूर्वगृहीतपुद्गलैः सह शिष्टाः क्रियन्ते येन तद् बन्धनं तदेव नाम बम्वननाम ५ । स्वत एव संन्नन्ति - सङ्घातमापद्यन्ते, ततस्ते सनन्तः सन्तः सङ्घात्यन्ते - प्रत्येकं शरीरपञ्चकप्रायोग्याः पुद्गलाः पिण्डयन्ते येन तत् सङ्घातनं तदेव नाम सङ्घातननाम ६ । संहन्यन्तेभातूनामनेकार्थत्वाद् दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गलाः कपाटादयो लोहपट्टिकादिनेव येन तत् संहर्न लदेव नाम संहनननाम ७ । सन्तिष्ठन्ते विशिष्टावयवरचनात्मिकया शरीराकृत्या जन्तवो भवन्ति येन तत् संस्थानं तदेव नाम संस्थाननाम ८ । वर्ण्यते - अलयितेऽनेनेति वर्णः कृष्णादिः, जन्तुशरीरे कृष्णादिवर्णहेतुकं नामकर्मापि वर्णनाम ९ । गन्ध्यते - आम्रायत इति गन्धः, तद्धेतुत्वान्नामकर्मापि गन्धनाम १० । रस्यते - आस्वाद्यत इति रसस्तिक्तादिः, जन्तुशरीरे तिकादिरसहेतुकं कर्मापि रसनाम ११ । स्पृश्यत इति स्पर्शः कर्कशादिः, तद्धेतुत्वात् कर्मापि स्पर्शनाम १२ । द्विसमयादिना विग्रहेण भवान्तरं गच्छतो जन्तोरनुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानुपूर्वी १३ । गमनं गतिः, सा पुनरत्र पादादिविहरणात्मिका देशान्तरप्राप्तिहेतुद्वन्द्रियादीनां प्रवृत्तिरभिधीयते, नैकेन्द्रियाणां पादादेरभावात्, ततो विहायसा- नमसा गतिर्विहायोगतिः, तद्धेतुत्वात् कर्मापि विहायोगतिनाम १४ । ननु विहायसः सर्वगतत्वेन ततोऽन्यत्र गमनाभावाद् व्यवच्छेद्याभावेन विहायसेति विशेषणस्य वैयर्थ्यम् सत्यम्, किन्तु यदि गतिरित्येवोच्येत तदा नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्याशङ्का स्यात्, तद्व्यवच्छेदार्थं विहायोग्रहणमकारि, विहायसा गतिः प्रवृत्तिर्न तु भवगतिर्नारकादिकेति ॥ २४ ॥ अथ प्रदर्शितानां गत्यादिप्रकृतीनामभिधानसङ्ख्या कथनपूर्वकमष्टौ प्रत्येकप्रकृतीराह - पिंडपचडि प्ति चउदस, परघाउस्सासआयवुजोयं । अगुरुलहुतित्थनिमिणोबधायमिय अट्ठ पत्तेया ॥ २५ ॥ एतैर्गतिनामादिभिः पदैर्वक्ष्यमाणचतुरादिभेदानां पिण्डितानां प्रतिपादनात् पिण्डप्रकृतय उच्यन्ते । काः ? 'इति' इति एता गत्यादयोऽनन्तर गाथोद्दिष्टाः प्रकृतयः । कियन्त्यः पुनस्ताः १ इत्याह-- चतुर्दशसश्याः । तथा प्रक्रमान्नामशब्दः पराघातादिष्वप्यध्याहार्यः, तद्यथापराघातनाम उच्छ्रासनाम आतपनाम उच्योतनाम अगुरुलघुनाम “तित्थ" चि तीर्थकरनाम “निमिण” त्ति निर्माणनाम उपघातनाम 'इति' एताः पराघातादयः 'अष्टौ' अष्टसङ्ख्याः प्रत्येकप्रकृतयो ज्ञेमा, आसां पिण्डप्रकृतिवदन्य मेदाभावादिति ॥ २५ ॥ तल वायर पज्जन्तं, पत्तेय थिरं शुभं च सुभगं च । सुसराऽऽज्य जसं तसदसगं धाघरवसं तु इमं ॥ २६ ॥ नामशब्दस्येहापि सम्बन्धात् सनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम 'चशब्दौ ' समुचये सुखरनाम आदेयनाम " जसं " ति यत्रः कीर्विनाम इत्येवं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-२९] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्थः । श्रसशब्देनोपलक्षितं प्रकृतिदशकं त्रसदशकमिदमुच्यते इति शेषः । तथा स्थावरेण-स्थावरशब्देनोपलक्षितं त्रसदशकस्य विपक्षभूतं "दस" ति प्राकृतत्वाद् दशकं स्थावरदशकम्, तत् पुनरिदं वक्ष्यमाणमिति ॥ २६ ॥ तदेवाह - थावर सुहुम अपजं, साहारण अधिर असुभदुभगाणि । दुस्सरणाइज्जाजस, इय नामे सेयरा वीसं ॥ २७ ॥ ४१ इहापि नामशब्दस्य सम्बन्धात् स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम साधारणनाम अस्थि - नाम अशुभनाम दुर्भगनाम दुःखरनाम अनादेयनाम " अजस" ति अयश: कीर्तिनाम । प्ररूपितं दशकद्वयमपि, अधुना दशकद्वयमीलने यथाभूता सतीयं विंशतिर्यद्विषयोच्यते तदाह"इय" त्ति 'इति' अमुना त्रसादिप्रदर्शितप्रकारेण "नामे" ति नामकर्मणि 'सेतरा' सप्रतिपक्षा प्रत्येकसंज्ञिता विंशतिर्विज्ञेया । तथाहि त्रसनाम्नः स्थावरनाम प्रतिपक्षभूतम् एवं बादरसूक्ष्मप्रकृतीनामपि सेतरत्वं सुप्रतीतमेवेति ॥ २७ ॥ अथानन्तरोद्दिष्टत्रसादिविंशतिमध्ये यासां प्रकृतीनामाद्यपदनिर्देशेन याः संज्ञा भवन्ति ताः कथयन्नाह - " तसचउथिरछकं अधिरछक्कसुहुमतिगथावरचउक्कं । सुभगतिगाइविभासा, तदाहसंस्वाहिँ पयडीहिं ॥ २८ ॥ प्रकृत्योपलक्षितं चतुष्कं त्रसचतुष्कम्, एतदनुसारतः समासोऽन्यत्रापि कार्य:, ततो यथासम्भवं पुनरपि समाहारद्वन्द्वश्च । तत्र त्रसचतुष्कं यथा - त्रस बादरं पर्याप्तं प्रत्येकमिति । स्थिरषट्कम् — स्थिरं शुभं सुभगं सुखरम् आदेयं यशः कीर्तिश्चेति । अस्थिरषट्कम् - अस्थिराsशुभदुर्भगदुःखराऽनादेयाऽयशः कीर्तिस्वरूपम् । सूक्ष्मत्रिकम् -- सूक्ष्माऽपर्याप्त साधारणलक्षणम् । स्थावरचतुष्कम्~~~स्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्त साधारणाख्यम् । सुभगत्रिकम् – सुभगसुखराऽऽदेयाभिधम् । आदिशब्दाद् दुर्भगत्रिकम् – दुर्भगदुःखराऽनादेयखरूपं गृह्यते । ततः सूत्रपदे समासो यथा -- सुभगत्रिकमादिर्यस्य दुर्भगत्रिकस्य तत् सुभगत्रिकादि तस्य विभाषा - प्ररूपणा कर्तव्येति शेषः । काभिः कृत्वा पुनस्त्रसचतुष्कादिका विभाषा कर्तव्या ? इत्याह--- ' तदादि - सङ्ख्याभिः प्रकृतिभिः ' सा - निर्दिष्टा प्रकृतिरादिर्यस्याः सत्यायाः सा तदादिः, तदादिः सत्या यासां प्रकृतीनां तास्तदादिसङ्ख्यास्ताभिस्तदादिसत्याभिः प्रकृतिभिः कोऽर्थः याऽसौ प्रकृतिस्वसादिका निर्दिष्टा तामादौ कृत्वा निर्दिष्टसङ्ख्या पूरणीयेति । एताश्च संज्ञाः प्रकृतिपिण्डकसङ्ग्राहिण्यो यथास्थानमुपयोगमायास्यन्तीति कृत्वा प्ररूपिता इति ॥ २८ ॥ उक्ता नामकर्मणो द्वाचत्वारिंशद् मेदाः । अथ तस्यैव त्रिनवतिभेदान् प्ररूपयितुकामो गत्यादिपदानां पिण्डप्रकृतिसंज्ञिकानां मध्ये येन पदेन यावन्तो भेदाः पिण्डिता वर्तन्ते तान् भेदान् तेषामाह - गइयाईण उ कमसो, चउपणपणतिपणपंच छच्छकं । पणदुगपणsesदुग, इय उत्तरभेयपणसट्ठी ॥ २९ ॥ 'गत्यादीनां ' पिण्डप्रकृतीनां पूर्व प्रदर्शितखरूपाणां पुनः 'क्रमशः ' क्रमेण यथासत्यमिति १० न क० ० ॥ क० ६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरक्तिखोपाटीकोपेतः [गाथा यावत् अतुरादयो मैदा भवन्तीति वाक्यार्थः । तथाहि गतिनाम चतुर्षा, जातिनाम मधषा, तनुनाम पञ्चधा, उपाननाम त्रिधा, बन्धननाम पञ्चधा, सङ्घातननाम पञ्चधा, संहनननाम षोढा, संस्थाननाम पोढा, वर्णनाम पञ्चधा, गन्धनाम द्विधा, रसनाम पञ्चधा, स्पर्शनामाऽष्टधा, आनुपूर्वीनाम चतुर्धा, विहायोगतिनाम द्वेषा । एतेषां सर्वमीलने मेदाप्रमाह"इय" ति 'इति' अमुना चतुरादिभेदमीलनप्रकारेणोचर मेदानां पञ्चषष्टिरिति ॥ २९ ॥ अडवीसजुया तिनवइ, संते वा पनरपंधणे तिसयं । बंधणसंधायगहो, तणूसु सामनवन्नचऊ ॥३०॥ एषा पूर्वोक्ता पञ्चषष्टिः 'अष्टाविंशतियुता' प्रत्येकप्रकृत्यष्टाविंशत्या सह मीलने विमिरघिका नवतिबिनवतिर्भवति । सा च कोपयुज्यते ? इत्याह----"संते" त्ति प्राकृतत्वात् सत्तायो सत्कर्म प्रतीत्य बोद्धन्येत्यर्थः । वाशब्दो विकल्पार्थों व्यवहितसंबन्धश्च, स चैवं योज्यते'पञ्चदशबन्धनैत्रिशतं वा' पञ्चदशसथैर्वक्ष्यमाणखरूपैर्वन्धनैः प्रदर्शितत्रिनवतिमध्ये प्रक्षिप्तैलिभिरधिकं शतं त्रिशतं वा सत्तायामधिक्रियते इति शेषः । अथ त्रिनवतिमध्ये पञ्चदशानां प्रकृतीनां प्रक्षेपेऽष्टोत्तरं शतं भवतीति चेद् उच्यते-या वक्ष्यमाणाः पञ्चदश बन्धननामप्रकृतयस्तासु मध्यात् सामान्यत औदारिकादिबन्धनपञ्चकस्य त्रिनवतिमध्ये पूर्व प्रक्षिप्तत्वात् शेषाणां दशानां प्रक्षेपे त्रिशतमेव भवतीति न कश्चिद्विरोधः । सूत्रे च "पनरबंधणे" इत्यत्र विभक्तिवचनव्यत्ययः प्राकृतत्वादिति । उक्ता नामकर्मणस्त्रिनवतिव्युत्तरशतं च मेदानाम् । अथ सप्तषष्टिभेदानाह---"बंधणसंघायगहो तणूसु" ति । बन्धनानि च पञ्चदश, सङ्घाताचसङ्घातनानि पञ्च, बन्धनसङ्घातास्तेषां ग्रहणं ग्रहो बन्धनसङ्घातग्रहः । 'तनुषु' शरीरेषु, तनुग्रहणेनैव बन्धनसङ्घाता गृह्यन्ते न पृथग् विवक्ष्यन्त इत्यर्थः । तथा “सामनवनचऊ" ति सामान्यं-कृष्णनीलाबविशेषितं वर्णेनोपलक्षितं चतुष्कं सामान्यवर्णचतुष्कं गृह्यत इति शेषः । अयमत्राशयः-इह सप्तपष्टिमध्ये औदारिकादितनुपञ्चकमेव गृखते, न तद्वन्धनानि तस्स. वातनानि च, यत औदारिकतन्वा खजातीयत्वाद् औदारिकतनुसदृशानि बन्धनानि तत्सद्धाताश्च गृहीताः; एवं वैक्रियादितन्वाऽपि निर्जनिजबन्धनसाता गृहीता इति न पृथगेते पक्षदश बन्धनानि पञ्च सङ्घाता गण्यन्ते । तथा वर्णगन्धरसस्पर्शानां यथासङ्ख्यं पञ्चद्विपञ्चाऽष्टमेदैनिष्पन्नां विंशतिमपनीय तेषामेव सामान्य वर्णगन्धरसस्पर्शलक्षणं चतुष्कं गृह्यते, ततश्चानन्तरोदितात् त्र्युत्तरशता वर्णादिषोडशकबन्धनपञ्चदशकसङ्घातपञ्चकलक्षणानां पत्रिंशत्यकृतीनामपसारणे सति सप्तषष्टिर्भवतीति ।। ३० ॥ एतदेवाह-~ इय सत्तही बंधोदए य न य सम्ममीसया बंधे। बंधुदए सत्ताए, वीसवीसऽट्ठवन्नसयं ॥३१॥ 'इति' पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तषष्टिर्नामकर्मप्रकृतीनां भवति । सा च कोपयुज्यते! इत्याह"बंधोदए य" ति बन्धश्च उदयश्च बन्धोदयं तस्मिन् 'बन्धोदये' बन्धे च उदये च सप्तषष्टिर्भवति, चशब्दाद् उदीरणायां च सप्तषष्टिः । अथ बन्धनसङ्घातनवर्णादिविशेषाणां विवक्षा१०जा निजा बख०ग०3०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-३२] कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मबन्धः । बहादेव बन्धे नाधिकार इत्युक्तम् , सम्पति ययोः प्रकृत्योः सर्वथैव बन्धो न भवति ते माह-"न य सम्ममीसया बंधे" ति 'नच' नैव सम्यक्त्वमिश्रके बन्धेऽधिक्रियेते। अयमभिप्रायः-सम्यक्त्वमिश्रयोर्बन्ध एव न भवति, किन्तु मिथ्यात्वपुद्गलानामेव जीवः सम्यक्त्वगुणेन मिथ्यात्वरूपतामपनीय केषाश्चिदत्यन्तविशुद्धिमापादयति, अपरेषां स्वीषद्विशुद्धिम् , केचित् पुनर्मिथ्यात्वरूपा एवावतिष्ठन्ते; तत्र येऽत्यन्तविशुद्धास्ते सम्यक्त्वन्यपदेशभाजः, ईषद्विशुद्धा मिश्रव्यपदेशभाजः, शेषा मिथ्यात्वमिति । उक्तं च-- सम्यक्त्वगुणेन ततो, विशोधयति कर्म तत् स मिथ्यात्वम् । यद्वच्छगणप्रमुखैः, शोध्यन्ते कोद्रवा मदनाः ॥ यत् सर्वथाऽपि तत्र विशुद्धं तद् भवति कर्म सम्यक्त्वम् । मिश्रं तु दरविशुद्धं, भवत्यशुद्धं तु मिथ्यात्वम् ।। उदयोदीरणासत्तासु पुनः सम्यक्त्वमिश्रके अप्यधिक्रियेते । एवं च सति ज्ञानावरणे पञ्च, दर्शनावरणे नव, वेदनीये द्वे, मोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जाः षडिंशतिः, आयुषि चतस्रः, नानि मेदान्तरसम्मवेऽपि प्रदर्शितयुक्त्या सप्तषष्टिः, गोत्रे द्वे, अन्तराये पञ्च इत्येतद्विशत्युत्तरं प्रकृतिशतं बन्धेऽधिक्रियते । एतदेव सम्यक्त्वमिश्रसहितं द्वाविंशत्युत्तरप्रकृतिशतमुदये उदीरणायां च । सत्तायां पुनः शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशत् नाम्नस्त्रिनवतिरित्यष्टाचत्वारिंशं शतम् , यद्वा शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशत् नानरुयुत्तरशतमित्यष्टापञ्चाशं शतमधिक्रियत इति । एतदेव मनसिकृत्याह-"बंधुदए सत्ताए" इत्यादि । इह शतशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् यथासमं बन्धे विशं शतम् , उदये उपलक्षणत्वाद् उदीरणायां च द्वाविंशं शतम् , सत्तायामष्टपञ्चाशं शतम् उपलक्षणत्वादष्टाचत्वारिंशं शतमिति, भावना सुकरैव ॥ ३१॥ अथ पूर्वनिर्दिष्टान् गतिजातिप्रभृतीनां पिण्डप्रकृतीनां चतुरादिमेदान् व्याचिख्यासुराह निरयतिरिनरसुरगई, इगवियतियचउपणिदिजाईओ। ओरालियवेडबियआहारगतेयकम्मइगा ॥ ३२ ।। निरवाश्च तिर्यश्वश्च नराश्च सुराश्च तेषु गतिरिति विग्रहः । भावार्थोऽयम्-गतिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततश्च "अयमिष्टफलं दैवम्" इति वचनाद् निर्गतम् अयम्-इष्टफलं सातवेदनीयादिरूपं येभ्यस्ते निरयाः-सीमन्तकादयो नरकावासाः, ततो निरयेषु विषये गतिरिति गतिनाम निरयगतिनाम, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निरयगतिनाम, नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिधनं निरयगतिनामेति हृदयम् । एवं तिर्यग्नरसुरगतिनामापि वाच्यम् । अत्राह-ननु सर्वेऽपि पर्याया जीवेन गभ्यन्ते प्राप्यन्त इति सर्वेषामपि तेषां गतित्वअसमः, तथा च प्राग्गतिशब्दस्पेयमेव व्युत्पत्तिर्दर्शितेति, नैवम् , यतोऽविशेषेण व्युत्पादिता मपि शब्दा रूढितो गोशब्दवत् प्रतिनियतमेवार्थ विषयीकुर्वन्तीत्यदोषः । उक्तं गतिनाम चतुर्विधम् । - तथा सूचकत्वात् सूत्रस्य एकेन्द्रियाश्च द्वीन्द्रियाश्च त्रीन्द्रियाश्च चतुरिन्द्रियाश्च पञ्चेन्द्रियाश्च १ भोरालवितम्बाहारगतेयकम्मण मण सरीरा घ० ॥ - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ देवेन्द्रसरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाथा तेषां जातय इति विग्रहः । भावार्थोऽयम्-एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियजातिनामभेदात् पञ्चधा जातिनाम । तत्र एकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यावरणक्षयोपशमाद् एकविज्ञानमाज एकेन्द्रियाः, द्वयोः स्पर्शनरसनज्ञानयोरावरणक्षयोपशमाद् द्विविज्ञानभाजो द्वीन्द्रियाः, त्रयाणां स्पर्शनरसनघ्राणज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् त्रिविज्ञानभाजस्त्रीन्द्रियाः, चतुर्णा स्पर्शनरसनप्राणचक्षुर्ज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् चतुर्विज्ञानभाजश्चतुरिन्द्रियाः, पञ्चाना स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्रज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् पञ्चविज्ञानभाजः पञ्चेन्द्रियाः । तत एकेन्द्रियाणां जातिनाम एकेन्द्रियजातिनाम, एवं यावत् पञ्चेन्द्रियजातिनाम । ___ अत्राह-ननु एतेन जातिनाना किं भावेन्द्रियमेकादिकं जन्यते ? उत द्रव्येन्द्रियम् ? माहोखिदेकेन्द्रियोऽयमित्यादिव्यपदेशः ? इति त्रयी गतिः । तत्र यद्यायः पक्षः स न युक्तः, भावेन्द्रियस्य श्रोत्रादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यत्वात् "क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि" इति वचनात् । अथ द्रव्येन्द्रियं जन्यते तदप्ययुक्तम् , द्रव्येन्द्रियस्येन्द्रियपर्याप्तिनामोदयजन्यत्वात् । एकेन्द्रियादिव्यपदेशस्त्वेकादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमपर्याप्तिनामभ्यामेव सेत्स्यति किमन्तर्गडुना जातिनाम्ना ?, अत्रोच्यते-आद्यविकल्पयुगलं तावद् अनभ्युपगमादेव निरस्तम् । यत् पुनरुक्तम् 'एकेन्द्रियादिव्यपदेशस्तु' इत्यादि तदयुक्तम् , यत इन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियपर्याप्तिश्च यथाक्रमं भावेन्द्रियजनने द्रव्येन्द्रियजनने च कृतार्था कथमेकेन्द्रियादिव्यपदेशनिबन्धनपरिणतिलक्षणं कार्यान्तरं जनयितुमलम् !, न ह्यन्यसाध्यं कार्यमन्यः साधयति, अतिप्रसङ्गात् , तस्माद् एकेन्द्रियादीनां समानजातीयजीवान्तरेण सह समाना बाह्या काचित् परिणतिरेकेन्द्रियादिशब्दवाच्या अवश्य जातिनामकर्मोदयत एवाभ्युपगन्तव्या । उक्तं च अन्यभिचारिणा सादृश्येन एकीकृतोऽर्थात्मा जातिः इति । तथाहि-बकुलादीनामनुमानादिसिद्धे इन्द्रियपञ्चकक्षयोपशमे सत्यपि पञ्चेन्द्रियशब्दव्यपदेश्यपञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयजन्यविशिष्टबाबपरिणत्यभावात् न पञ्चेन्द्रियव्यपदेशो भवति । यद्येवं गोतुरगभुजगमातङ्गादिक्रमे सत्यपि पञ्चेन्द्रियव्यपदेश्यस्यापि पर्यायस्य कारणं किश्चित् कर्माभ्युपगन्तव्यम् ? इति चेद् नैवम् , जातिनामकर्मवैचित्र्यादेव तत्सिद्धेः । न चात्रैकान्तेन युक्त्युपन्यास एवाग्रहः कार्यः, आगमोपपतिगम्यत्वात् तत्त्वस्य । यदवादि आगमश्चोपपत्चिश्व, सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥ इति । उक्तं जातिनाम पञ्चधा २ । तथा औदारिकं च वैक्रियं च आहारकं च तैजसं च कामिक चेति द्वन्द्वः । भावार्थोऽयम्-औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणनाममेदात् पञ्चधा शरीरनाम । तत्र उदारं-प्रधानम् , प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं-सातिरेकयोजनसहसमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणम् , बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्ययोचरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेवौदारिकम् , “विनयादिभ्यः" (सि०७-२१ विद्धि ल° ख०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । १६९) इतीकण्प्रत्ययः, तन्निबन्धनं नाम औदारिकनाम, यदुदयवशाद् औदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयति, तद् औदारिकशरीरनामेत्यर्थः १ । तथा विविधा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । तथाहि तदेकं भूत्वा अनेकं भवति, अनेकं भूत्वा एकम्, अणु भूत्वा महद् भवति, महच्च भूत्वा अणु, खेचरं भूत्वा भूमिचरं भवति, भूमिचरं भूत्वा खेचरं भवति, दृश्यं भूत्वा अदृश्यं भवति, अदृश्यं भूत्वा दृश्यमित्यादि । तच्च द्विधा - औपपातिकं लब्धिमत्ययं च । तत्रोपपातिकम् - उपपातजन्मनिमित्तम्, तच देवनारकाणाम् । लब्धिप्रत्ययं तिर्यन्मनुष्याणाम् । वैक्रियनिबन्धनं नाम वैक्रियनाम, यदुदयाद् वैक्रियशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय वैक्रिशरीररूपतया परिणमयति, परिणमध्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति २ । तथा चतुर्दशपूर्व विदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशाद् आह्रियते निर्वर्त्यत इत्याहारकम्, “बहुलम् ” (सि० ५-१-२ ) इति वचनात् कर्मणि णक्प्रत्ययः, यथा पादहारक इत्यादौ, तच्च वैक्रियापेक्षयाऽत्यन्तशुभं स्वच्छस्फटिकशिलेव शुभ्र पुद्गलसमूहघटनात्मकम्, आहारकनिबन्धनं नाम आहारकनाम, यदुदयवशाद् आहारकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय आहारकशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति ३ । तथा तेजसा तेजः पुद्गलैर्निर्वृत्तं तैजसम्, यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुर्यद्वशाच्च विशिष्टतपः समुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्या - विनिर्गमः, तेजोनिबन्धनं नाम तैजसनाम, यदुदयवशात् तैजसशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय "तैजसशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति । तथा कर्मपरमाणुषु भवं कार्मिकं कार्मणशरीरमित्यर्थः । कर्मपरमाणव एवा - त्मप्रदेशैः शैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः कार्मणशरीरम्, कर्मणो विकारः कार्मणमिति व्युत्पत्तेः । तदुक्तम् । ४५ कम्मविगारो कम्मणभट्ट विहविचितकम्मनिष्पन्नं । सर्स सरीराणं, कारणभूयं मुणेयां || अत्र "सवेसिं" ति सर्वेषामौदारिकादिशरीराणां 'कारणभूतं' बीजभूतं कार्मणशरीरम् । न खल्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावसम्भवः । इदं च कार्मणशरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्कान्तौ साधकतमं कारणम् । तथाहि-- कार्मणेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति । ननु यदि कार्मणवपुः परिकरितो गत्यन्तरं सङ्क्रामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मात् नोपलक्ष्यते ? उच्यते--- कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया क्षुरादीन्द्रियाऽगोचरत्वात् । आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि - अन्तराभवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलक्ष्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि नाभावोऽमीक्षणादपि ॥ १ कार्मणं श० क० ख० ० ० ॥ २ कर्मविकारः कार्मणमवविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । सर्वेर्षा शरीराणां कारणभूतं ज्ञातव्यम् ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितरकोपज्ञटीकोपेतः [ गाया कार्मणनिबन्धनं नाम कार्मणनाम, यदुदयात् कार्मणप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय कार्मणशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति ५ ॥ ३२ ॥ उक्तं तनुनाम पञ्चधा ३, इदानीमङ्गोपाङ्गनाम त्रिघा प्राह १६ बाहूरु पिंट्ठि सिर उर, उयरंग उवंग अंगुलीपमुहा । सेसा अंगोवंगा, पढमतणुतिगस्सुवंगाणि ॥ ३३ ॥ 'बाहू' भुजद्वयम् ' ऊरू' ऊरुद्वयम् 'पृष्ठिः' प्रतीता 'शिरः' मस्तकम् 'उर: ' वक्षः 'उदरं ' 'पोट्टमित्यष्टावङ्गान्युच्यन्ते । इह विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् एवमन्यत्रापि । उपाङ्गानि अङ्गुलीप्रमुखाणि, इह पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । 'शेषाणि' तत्प्रत्यवयवमूतान्यङ्गुलपर्वरेखादीनि अङ्गोपाज्ञान, इहापि पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि लिङ्गमतन्त्रम् । यदाहुः प्रभुश्री हेमचन्द्रसूरिपादाः खप्राकृतलक्षणे – “लिङ्गमतन्त्रम्" (सि० ८-४ - ४४५) इति । इमानि च उपाङ्गानि "पढमतणुतिगस्स" ति प्रथमा:- आद्या यास्तनव:-: :- शरीराणि तासां त्रिकं-त्रितयमौदारिकवैकियाऽऽहारकखरूपम् तस्य प्रथमतनुत्रिकस्य भवन्ति । ततः प्रथमतनुत्रिकद्वारेणाङ्गोपाङ्गनामापि त्रिविषं मन्तव्यम् । तथाहि-- औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम आहारकाङ्गोपाङ्गनाम । तत्र मदुदयाद् औदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् मौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम १ । यदुदयाद् वैक्रियशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम २ । यदुदयाद् आहारकशरीरत्वेन परिणतार्ना मुगलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् आहारकाङ्गोपाङ्गनाम ३ । तैजसकार्मणयोस्तु नीवप्रदेश संस्थानानुरोधित्वात् नास्त्यङ्गोपाङ्गसम्भव इति ॥ ३३ ॥ उक्तं त्रिषमङ्गोपाङ्गनाम । साम्प्रतं बन्धननामखरूपमाहउरलाइपुग्गलाणं, निबद्धबज्झतयाण संबंधं । जं कुणइ जउसमं तं उरलाईबंधणं नेयं ॥ ३४ ॥ औदारिकादिपुद्गलानाम् आदिशब्दाद् वैक्रियपुद्गलानाम् आहारकपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां कार्मणपुद्गलानाम्, किंविशिष्टानाम् : इत्याह-- “ निबद्धबज्झतयाण' "त्ति निबद्धाश्च बध्यमानाश्च निबद्धवध्यमानास्तेषां 'निबद्धबध्यमानाना' पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च यत् कर्म 'सम्बन्ध' परस्परं मीलनं करोति दारुणामिव जतु, अत एव जतुसमं तद् औदारिकादिबन्धनम्, आदिशब्दाद् वैक्रियबन्धनम् आहारकबन्धनं तैजसबन्धनं कार्मणबन्धनं 'ज्ञेयं' ज्ञातव्यमिति गाथा - क्षरार्थः । भावार्थस्स्त्वयम् - इह पूर्वगृहीतैसैदारिकपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् औदारिकपुरकान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति - आत्मा अन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् औदारिकशरीरबन्धननाम दारुपाषाणादीनां जतुराळाप्रभृति-श्लेषद्रव्यतुल्यम् १ । पूर्वगृहीतैवैक्रियपुद्गलैः सह परस्पर गृह्यमाणान् वैक्रियपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति -आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसमं वैक्रियशरीरबन्धननाम २ । पूर्वगृहीतैराहार कशरीरपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् आहारकपुद्रान् उदितेन येन कर्मणा बन्नाति - आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसममाहा १ पुट्ठि क० ० ० ॐ० ॥ २ पेहमि घ० ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१६] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मजन्थः । 99 रकशरीरबन्धननाम ३ । पूर्वगृहीतैस्तैजसपुद्गलैः सह परस्परं गृश्यमाणांस्तैजसपुद्गकान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति - आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् नतुसमं तैजसशरीरबन्धननाम ४ । पूर्वगृहीतेः कार्मणपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् कार्मणपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति - मात्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसमं कार्मणशरीरबन्धननाम ५ । यदि पुनरिवं शरीरपञ्चकपुद्गलानामौदारिकादिशरीरनाम्नः सामर्थ्याद्गृहीतानामन्योऽन्य सम्बन्धकारि बन्धनपञ्चकं न स्यात् ततस्तेषां शरीरपरिणतौ सत्यामप्यसम्बन्धत्वात् पवनाहतकुण्ड स्थितास्तीमितसक्तूनामिवैकत्र स्थैर्य न स्यादिति ॥ ३४ ॥ उक्तं बन्धनखरूपम् । इदं च बन्धननाम असंहतानां पुगानां न सम्भवति, अतोऽन्योऽन्यसन्निघानलक्षणपुद्गलसंहतेः कारणं सङ्घातनमाहजं संघाय उरलाइपुग्गले तणगणं व दंताली । तं संघायं बन्धणेमिव तणुनामेण पंचविहं ॥ ३५ ॥ यत् कर्म 'सङ्घातयति' पिण्डीकरोति औदारिकादिपुद्गलान् आदिशब्दाद् वैक्रियपुद्गलान् आहारकपुद्गलान् तैजसपुद्गलान् कार्मणपुद्गलान्, तत्र दृष्टान्तमाह - 'तृणगणमिव' तृणोत्करमिवेतश्चेतश्च विक्षिप्तं 'दन्ताली' काष्ठमयी मरुमण्डलप्रसिद्धा, तत् 'सङ्घातं ' सङ्घातननाम, तच पूर्वोक्तं बन्धननामापि 'तनुनाम्ना' शरीराभिधानेन पञ्चविधं भवतीति । तत्र बन्धननाम पूर्वमेव भावितम् । अथ सङ्घातनाम भाव्यते— औदारिकसङ्घातनाम वैक्रियसङ्घातनाम आहारकसङ्घातनाम तैजससङ्घातनाम कार्मणसङ्घातनाम । तत्र यदुदयाद् औदारिकशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति - अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् औदारिकसङ्घातननाम १ । यदुदयाद् वैक्रियशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति - अन्योऽन्यसन्निघानेन व्यवस्थापयति तद् वैकियसङ्घातननाम २ । यदुदयाद् आहारकशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति--अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् आहारकसङ्घातननाम ३ | यदुदयात् तैजसशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति - अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तत् तैजससङ्घातनाम ४ । यदुदयात् कार्मणशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति - अन्योऽन्यस - निधानेन व्यवस्थापयति तत् कार्मणसङ्घातननाम ५ इति ॥ ३५ ॥ उक्तं पञ्चधा बन्धननाम पञ्चधा सङ्घातननाम । सम्प्रति "संते वा पनरबंधणे तिसयं" इति (३०) गाथा सूचितं बन्धनपञ्चदशकं व्याचिख्यासुराह ओरालबिउव्वाहारयाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिनि तेसिं च ॥ ३६ ॥ औदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीराणां नव बन्धनानीति योगः । कीदृशानां सताम् ? इत्याह'स्वकतैजसकार्मणयुक्तानाम् ' प्रत्येकं खकतैजसकार्मणानां मध्यादन्यतरेण युक्तानामित्यर्थः । "नव" ति नवसङ्खपानि बन्धनानि बन्धनप्रकृतयो भवन्तीति । औदारिकवैक्रियाहारकाणां त्रयाणामपि प्रत्येकं खनाम्ना तैजसेन कार्मणेन च योगाद् द्विकसंयोगनिष्पन्नान्येकैकस्य औदारिकादेस्त्रीणि त्रीणि बन्धनानि भवन्ति तेषां च त्रयाणां त्रिकाणां मीलने नव बन्धनानीति । १ णमवित क० ॥ २ स्वखते क० घ० ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , देवेन्द्रसूरिविरचितखोपझटीकोपेतः [गाया तथाहि-औदारिकऔदारिकबन्धननाम १ औदारिकतैजसबन्धननाम २ औदारिककार्मणबन्धननाम ३, वैक्रियवैक्रियबन्धननाम १ वैक्रियतैजसबन्धननाम २ वैक्रियकार्मणबन्धननाम ३, आहारकाऽऽहारकबन्धननाम १ आहारकतैजसबन्धननाम २ आहारककार्मणबन्धननाम ३ । तत्र पूर्वगृहीतैरौदारिकशरीरपुद्गलैः सह गृह्यमाणौदारिकपुद्गलानां बन्धो येन क्रियते तद् औदारिकौदारिकबन्धननाम १ । येनौदारिकपुद्गलानां तैजसशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धो विधीयते तद् औदारिकतैजसबन्धननाम २। येनौदारिकपुद्गलानां कार्मणशरीरपुगलैः सह सम्बन्धो विधीयते तद् औदारिककार्मणबन्धननाम ३ । एवमनेन न्यायेनान्यान्यपि बन्धनानि वाच्यानि । शेषबन्धननिरूपणायाह-"इयरदुसहियाणं तिन्नि" ति इतरे-खकीयनामापेक्षयाऽन्ये तैजसकार्मणशरीरे, ततः प्राकृतत्वादन्यथोपन्यासेऽपि द्वे च ते इतरे च द्वीतरे ताभ्यां सहितानि-युक्तानि द्वीतरसहितानि, यद्वा "दु" ति द्विकं तत इतरञ्च तट्विकं चेतरद्विकं तेन सहितानि इतरद्विकसहितानि तेषां द्वीतरसहितानाम् इतरद्विकसहितानां वा, औदारिकवैक्रियाहारकाणामत्रापि योज्यम् , त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । अयमाशयः-प्रत्येकमौदारिकवैक्रियाहारकाणां तैजसकार्मणाभ्यां युगपत् संयोगे त्रिकसंयोगरूपाणि त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । तथाहि-औदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम १ वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम २ आहारकतैजसकार्मणबन्धननाम ३ । अर्थः पूर्वोक्त एव । न केवलमेषामौदारिकादीनामितरद्विकसहितानामेव त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, किन्तु "तेसिं च" ति त्रीणीति शब्दो डमरुकमणिन्यायादत्रापि योज्यः । ततोऽयमर्थः-तयोश्चेतरशब्दवाच्ययोस्तैजसकार्मणयोः स्वनाम्ना इतरेण च योगे त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । यथा--तैजसतैजसबन्धननाम १ तैजसकार्मणबन्धननाम २ कार्मणकार्मणबन्धननाम ३ । तदेवं नव त्रीणि त्रीणि च मिलितानि पञ्चदश बन्धनानीति । अत्राह-पञ्चानां शरीराणां द्विकादियोगप्रकारेण षडिंशतिः संयोगा भवन्ति, तत्तुल्यबन्धनानि च कस्मात् न भवन्ति ! उच्यते-औदारिकवैक्रियाहारकाणां परस्परविरुद्धाऽन्योsन्यसम्बन्धाभावात् पञ्चदशैव भवन्ति, नाधिकानि । आह—यथा पञ्चदश बन्धनानि भवन्ति, एवमनेनैव क्रमेण पञ्चदश सङ्घाता अपि कस्मात् नाभिधीयन्ते ? सङ्घातितानामेव बन्धनभावात् , तथाहि-पाषाणयुग्मस्य कृतसङ्घातस्यैवोत्तरकालं वज्रलेपरालादिना बन्धनं क्रियते, तदसत् , यतो लोके ये खजातौ संयोगा भवन्ति त एव शुभाः, एवमिहापि खशरीरपुद्गलानां खशरीरपुद्गलैः सह ये संयोगरूपाः सङ्घातास्ते शुभा इति प्राधान्यख्यापनाय पञ्चैव सङ्घाता अभिहिता इति ॥ ३६॥ व्याख्यातानि पञ्चदशापि बन्धनानि । सम्प्रति संहनननाम षड्विधमभिधित्सुर्गाथायुगलमाह संघयणमहिनिचओ, तं छद्धा बजरिसहनारायं। . तह रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं ॥ ३७॥ कीलिय छेवटुं इह, रिसहो पहो य कीलिया वजं । उभओ मक्कडबंधो, नारायं इममुरालंगे ॥ ३८ ॥ १-२°ह बन्धो ख०ग० ०॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०-३९ ] कर्मfaureater प्रथमः कर्मग्रन्थः । ४६ हम्म्ते - डढी क्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम्, तच्च 'अस्थिनिचयः' कीलिकादिरूषाणामस्थां निचयः-रचनाविशेषोऽस्थिनिचयः । तत् संहननं 'षड्धा' षट्कारैर्भवति । सद्यथा - वज्रऋषभनाराचं १ तथा ऋषभनाराचम् २ इहानुखारोऽलाक्षणिकः, नाराचम् ३ · अर्धनाराचं ४ कीलिका ५ सेवार्तम् ६ । 'इह' प्रवचने 'ऋषभः' ऋषभशब्देन परिवेष्टनपट्ट 'उच्यते, 'वज्र' वज्रशब्देन कीलिकाऽभिधीयते, 'नाराचं' नाराचशब्देनोभयतो मर्कटबन्धी अण्यते । 'इदम्' अस्थिनिचयात्मकं संहननम् 'औदारिकाङ्गे' औदारिकशरीर एव, नान्येषु शरीरेषु तेषामस्थिरहितत्वात् । इति गाथायुगलाक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम् — इह द्वयोरस्मोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेन अस्भा परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयमेदि ratorror वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम्, तन्निबन्धनं नाम वज्रषभनाराचनाम १ । यत् पुनः कीलिकारहितं संहननं तद् ऋषभनाराचम्, तन्निबन्धनं नाम ऋषभनाराचनाम २ । यत्र पुनर्मर्कटबन्धः केवलो भवति न पुनः कीलिका ऋषमसंज्ञः पट्टश्च तद् नाराचम्, तन्निबन्धनं नाम नाराचनाम ३ । यत्र त्वेकपोर्धेन मर्कटबन्धो द्वितीयपार्श्वेन च कीलिका भवति तद् अर्धनाराचम्, तन्निबन्धनं नामाऽर्धनाराचनाम ४ । यंत्र पुनरस्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत् कीलिकासंहननम्, तन्निबन्धनं नाम कीलिकानाम ५ । यत्र तु परस्परं पर्यन्तस्पर्शलक्षणां सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति स्नेहाभ्यवहारतैलाभ्यङ्गविश्रामणादिरूपां च परिशीलनां नित्यमपेक्षन्ते तत् सेवार्तम्, तन्निबन्धनं नाम सेवार्तनाम ६ । यद्वा "छेवट्टे" ति दकारस्य लुप्तस्येह दर्शनात् छेदानाम् - अस्थिपर्यन्तानां वृतं - परस्परसम्बन्घघटनालक्षणं वर्तनं वृत्तिर्यत्र तत् छेदवृत्तम्, कीलिकापट्टमर्कटबन्धरहितमस्थिपर्यन्तमात्रसंस्पर्श षष्ठमित्यर्थः । ततो यदुदयात् शरीरे वज्रऋषभनाराचसंहननं भवति तद् वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्मेति । एवमृषभनाराचादिष्वपि वाच्यमिति ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ व्याख्यानं षड्विधं संहनननाम । सम्प्रति षोढा संस्थाननाम विवक्षुराह --- समचउरंसं निग्गोहसाइखुजाइँ बामणं हुई । संठाणा वन्ना किण्हनीललोहियह लिहसिया ॥ ३९ ॥ समचतुरस्रम् १ “निग्गोह” त्ति पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनात् न्यग्रोधपरिमण्डलम् २ सौदि ३ कुब्जम् ४ वामनम् ५ हुण्डम् ६ इति षट् 'संस्थानानि' अवयव रचनात्मकशरीराकृतिस्वरूपाणि शरीरे भवन्तीति शेषः । तत्र समाः - शास्त्रोक्तलक्षणाऽविसंवादिन्यश्चतस्रोऽलय:पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम्, आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम्, दक्षिण कन्स्य वामजानुनश्चान्तरम्, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत् समचतुरस्रम्, “सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुक्ष चतुरसैणीपदाऽजपदप्रोष्ठपदभद्रपदम्” (सि० ७-३-१२९) इति सूत्रेण समासान्तोऽप्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत् संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानम् । तुल्यारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेताङ्गोपाङ्गावयवः खाङ्गुकाष्टाचिकश १ का भ० ख० ० ० ॥ २ पार्श्वे म° क० ० । एवमप्रेऽपि ॥ ३ सादि ३ वामनम् ४ कुग्जम् ५ हु० ख० ग० ॐ० ॥ क्र० ७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपनटीकोपेतः [गाथ तोच्छ्यः सर्वसंस्थानप्रधानः पञ्चेन्द्रियजीवशरीराकारविशेषः समचतुरस्रसंस्थाननिबन्धनं नाम समचतुरस्रनाम १ । न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य तद् न्यग्रोधपरिमण्डलम्, यथा न्यग्रोधःवटवृक्ष उपरि सम्पूर्णावयवोऽधस्तु हीनस्तथा यत् संस्थानं नामरुपरि सम्पूर्णावयवम् अधस्तु न तथा तद् न्यग्रोधपरिमण्डलम् , तन्निबन्धनं नाम न्यग्रोधपरिमण्डलनाम २। सह आदिनानाभेरघस्तनमागरूपेण यथोक्तप्रमाणयुक्तेन वर्तत इति सादि । सर्वमपि हि शरीरं सादि, ततः सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्तेरादिरिह विशिष्टो ज्ञातव्यः । ततो यत्र नामेरधो यथोक्तममाणयुक्तमुपरि च हीनं तत् सादि संस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम सादिनाम ३ । यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपपन्नम् उरउदरादि च मडभं तत् कुन्नसंस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम कुन्जनाम ४ । यत्र पुनरुरउदरादि यथोक्तप्रमाणोपेतं हस्तपादादिकं च हीनं तद् वामनसंस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम वामननाम ५। अन्ये तु कुलवामनयोर्विपरीतं लक्षणमाहुः । यत्र सर्वेऽप्यवयवाः शास्त्रोक्तप्रमाणहीनास्तत् सर्वत्रासंस्थितं हुण्डसंस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम हुण्डनाम ६ । ततो यदुदयाद् जन्तुशरीरं समचतुरस्रसंस्थानं भवति तत्कर्मापि समचतुरस्रसंस्थाननामेति । एवं न्यग्रोधपरिमण्डलादिप्वपि योज्यम् । उक्तं षोढा संस्थाननाम । इदानीं पञ्चधा वर्णनामाऽऽह-वर्णाः पञ्च भवन्ति कृष्ण१नीललोहित३हरिद्रसिताः ५। तत्र यदुदयाद जन्तुशरीरं कृष्णं भवति राजपट्टादिवत् तत्कर्मापि कृष्णनाम १ । यदुदयादजन्तुशरीरं मरकतादिवद् नीलं भवति तद् नीलनाम २ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं लोहितं-रक्तं हिमुलादिवद् भवति तद् लोहितनाम ३ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं-हारिद्र-पीतं हरिद्रावद् भवति तद् हारिद्रनाम ४ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं सितं-श्वेतं शङ्खादिवद् भवति तत् सितनाम ५। कपिशादयस्त्वेतत्संयोगेनैवोत्पद्यन्ते, न पुनः सर्वथैतद्विलक्षणा इति न दर्शिताः ॥ ३९॥ उक्तं वर्णनाम पञ्चधा । अथ गन्धनाम द्विधाऽऽह--- सुरहिदुरही रसा पण, तित्तकडुकसायअंबिला महुरा। फासा गुरुलघुमिउखरसीउण्हसिणिद्धरुकावऽट ॥ ४०॥ इह गन्धशब्दः प्रक्रमाद् गम्यते, ततः सुरभिगन्धो दुरभिगन्धश्च द्वेधा गन्धः । तत्र सौमुख्यकृत् सुरभिगन्धः, यदुदयाद जन्तुशरीरं कर्पूरादिवत् सुरभिगन्धं भवति तत् सुरभिगन्धनाम १ । वैमुख्यकृत् दुरभिगन्धः, यदुदयाद् जन्तुशरीरं लशुनादिवद् दुरभिगन्धं भवति तद् दुरभिगन्धनाम २ । अत्राप्युभयसंयोगजाः पृथग नोक्ताः, एतत्संसर्गजत्वादेव भेदाविवक्षणात् । उक्तं द्विधा गन्धनाम ॥ अथ पञ्चधा रसमामाऽऽह-रसाः पूर्वोक्तशब्दार्थाः पञ्च भवन्ति । तथाहि-तिक्तकटुकपायाऽम्लाश्चत्वारो मधुरश्च पञ्चमः । तत्र श्लेष्मादिदोषहन्ता निम्बाद्याश्रितस्तिको रसः । तथा च भिषक्शास्त्रम् श्लेष्माणमरुचिं पित्तं, तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात् तिक्तो रसो बुद्धेः, कर्ता मात्रोपसेवितः ॥ इति । १ हुण्डं सं० ख० ग०॥ २ जुलकादि ख० गऊ० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । यदुदयाद् जीवशरीरं निम्बादिवत् तिकं भवति तत् तिक्तनाम १ । गलामयादिप्रशमनो मरिचनागराद्याश्रितः कटुः । यदवादि कटुर्गलामयं शोफं, हन्ति युक्त योपसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो, बृंहणोऽतिकफापहः ॥ यदुदयाद् जन्तुशरीरं मरिचादिवत् कटु भवति तत् कटुनाम २ । रक्तदोषाद्यपहर्ता बिमतकाऽऽमलककपित्थाद्याश्रितः कषायः । यदभाणि - रक्तदोषं कफं पित्तं, कषायो हन्ति सेवितः । रूक्षः शीतो गुरुग्राही, रोषणश्च स्वरूपतः ॥ ५१ यदुदयाद् जन्तुशरीरं बिभीतकादिवत् कषायं भवति तत् कषायनाम ३ । अभिदीपनादिहृद् अम्लीकाद्याश्रितोऽम्लः । यदभ्यधायि - अम्लोsमिदीप्तिकृत् स्निग्धः, शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो, मूढवातानुलोमकः ॥ यदुदयाद् जीवशरीरमम्लीकादिवद् अम्लं भवति तद् अम्लनाम ४ । पित्तादिप्रशमकः खण्डशर्कराद्याश्रितो मधुरः । यदवाचि - पित्तं वातं कर्फ हन्ति, धातुवृद्धिकरो गुरुः । जीवनः केशकृद् बालवृद्धक्षीणौजसां हितः ॥ यदुदयाद् जन्तुशरीरमिक्ष्यादिवद् मधुरं भवति तद् मधुरनाम ५ । स्थानान्तरे स्तम्भिता - हारविध्वंसादिकर्ता सिन्धुलवणाद्याश्रितो लवणोऽपि रसः पठ्यते, स चेह नोपात्तः, मधुरादिसंसर्गजत्वात् तदभेदेन विवक्षणात् । सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः, सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वोपपतेरिति । अभिहितं पञ्चधा रसनाम || अधुना स्पर्शनाम अष्टधा प्राह-स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः 'अष्टौ' अष्टसङ्ख्याका भवन्ति । तथाहि —गुरु १ लघु २ मृदु ३ खर ४ शीत ५ उष्ण ६ स्निग्ध ७ रूक्षाः ८ इति । तत्राघोगमनहेतुरयोगोलकादिगतो गुरुः १ । प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमन हेतुरर्कतूलादिनिश्रितो लघुः २ । सन्नति कारणं तिनिसलतादिगतो मृदुः ३ । स्तब्धतादिकारणं दृषदादिगतः खरः ४ । देहस्तम्भादिहेतुः प्रालेयाद्याश्रितः शीतः ५ । आहारपाकादिकारणं ज्वलनाद्यनुगत उष्णः ६ । पुद्गलद्रव्याणां मिभः संयुज्यमानानां बन्धनिबन्धनं तैलादिस्थितः स्निग्धः ७ । पुद्गलद्रव्याणां मिथोऽसंयुज्यमानानामबन्धनिबन्धनं भस्माद्याधारो रूक्षः ८ । एतत्संसर्गजास्तु नोक्ताः, एष्वेवान्तर्भा - वादिति । ततो यदुदयाद् जन्तुशरीरं गुरु भवति वज्रादिवद् तद् गुरुस्पर्शनाम १ | यदुदयाद् जन्तुशरीरमर्कतूलादिवद् लघु भवति तद् लघुस्पर्शनाम २ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं हंसरूतादिवद् मृदु भवति तद् मृदुस्पर्शनाम ३ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं खरं - कर्कशं पाषाणादिवद् भवति त् खरस्पर्शनाम 8 । यदुदयाद् जन्तुशरीरं शीतं - शीतलं मृणालादिवद् भवति तत् शीतस्पर्शनाम ५ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं हुतभुजादिवद् उष्णं भवति तद् उष्णस्पर्शनाम ६ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं घृतादिवत् स्निग्धं भवति तत् स्निग्धस्पर्शनाम ७ । यदुदयाद् जन्तुशरीरं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ देवेन्द्रसूतिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया मूलादिवद् रूक्षं भवति तद् रूक्षस्पर्शनाम ८॥ १०॥ उक्तमष्टया सर्शनाम । इदानी वर्णादिचतुष्कोत्तरविंशतिभेदानां शुभाशुभत्वयोरभिषित्सया पाह नीलकसिणं दुगंधं, तिसं कडयं गुरुं खरं रुक्खं । सीयं च असुहनवगं, इकारसगं सुभं सेसं ॥४१॥ 'नीलकृष्णं' नीलकृष्णाख्ये कर्मणी अशुभे, दुर्गन्धनाम, "तितं कडुयं" इति तिक्तकटुके रसनाम्नी, गुरु खरं रूक्षं शीतं चेति चत्वारि स्पर्शनामानि । एतानि च सर्वाण्यपि समुदितानि किमुच्यते ? इत्याह-'अशुभनवकं' नव प्रकृतयः परिमाणमस्य प्रकृतिवृन्दस्य तद् नवकम् , अशुभं च तद् नवकं च अशुभनवकम् । 'एकादशकम्' एकादर्शप्रकृतिसमूहरूपं, यथा रक्तपीतश्वेतवर्णाः, सुरभिगन्धः, मधुराऽम्लकषायरसाः, लघुमृदुस्निग्धोष्णस्पर्शा इति 'शुभं' शुभविपाकवेद्यत्वात् शुभखरूपम् । कीदृशं तत् ? इत्याह---'शेष' कुवर्णनवकाद् अवशिष्टम् , कोऽर्थः ? कुवर्णनवकात् शेषा एकादश वर्णादिभेदाः शुभवर्णैकादशकमुच्यत इति ॥ ११ ॥ ___ अधुना गतिनामातिदेशेनाऽऽनुपूर्वीचतुष्टयम्, आनुपूर्वीसम्बन्धेनोत्तरत्रोपयोगिप्रकृतिसमुपायसङ्घाहिनरकद्विकादिरूपं संज्ञान्तरं, विहायोगतिद्विकं चाभिधातुमाह घउह गइ व्वष्णुपुव्वी, गइपुग्विदुगं तिगं नियाउजुयं । पुव्वीउदओ वक्के, सुह असुह वसुट्ट विहगगई ॥४२॥ चतुर्षा गतिरिवाऽऽनुपूर्वी प्रागुक्तरूपा भवति । कोऽर्थः ?--गत्यभिधानन्यपदेश्यमानुपूनाम, ततो निरयानुपूर्वीतियंगानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीदेवानुपूर्वी भेदत आनुपूर्वीनाम चतुर्धति तात्पर्यम् । तत्र नरकगत्या नामकर्मप्रकृत्या सहचरिताऽऽनुपूर्वी नरकगत्यानुपूर्वी, तत्समकालं चास्या वेधमानत्वात् तत्सहचरितत्वम् । एवं तिर्यग्मनुष्यदेवाऽऽनुपूर्योऽपि वाच्याः। "गइपुश्विदुर्ग" ति इह पूर्वीशब्देनाऽऽनुपूर्वी भण्यते, आनुशब्दलोपः "ते लग्वा" (सि० ३-२१०८) इति सूत्रेण, यथा देवदत्तः देवः दत्तः इति । ततो नरकादिगतिनरकाद्यानुपूर्वीखरूपं नरकादिद्विकमुच्यते । तदेव त्रिकमभिधीयते-गतिपूर्वीद्विकमिह काकाक्षिगोलकन्यायेन सम्बध्यते । कीदृशं तद् ? इत्याह-'निजायुयुतं' नरकाद्यायुष्कसमन्वितं नरकादित्रिकमुच्यत इति हृदयम् । उपलक्षणत्वाद् वैक्रियषट्कं विकलत्रिकम् औदारिकद्विक वैक्रियद्विकम् आहारकद्विकम् अगुरुलघुचतुष्कं वैक्रियाष्टकमित्याद्यनुक्तं संज्ञान्तरं ग्राह्यम् । तत्र देवगतिर्देवानुपूर्वी नरकगतिर्नरकानुपूर्वी वैक्रियशरीरं वैक्रियानोपानमिति वैक्रियषट्कम् । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां जातयो विकलत्रिकम् । औदारिकशरीरं औदारिकालोपाङ्गमित्यौदारिफद्विकम् । वैक्रियशरीरं वैक्रियानोपानमिति वैक्रियद्विकम् । आहारकशरीरम् आहारकाङ्गोपाङ्गमित्याहारकद्विकम् । देवगतिर्देवानुपूर्वी देवायुर्नरकगतिर्नरकानुपूर्वी नरकायुर्वेक्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गमिति वैक्रियाष्टकम् । अगुरुलघु १ उपघातरपराघात३उच्छ्वास४लक्षणमगुरुलघुचतुष्कमिति । ननु आनुपूर्व्या उदयो नरकादिपु किमृजुगत्या गच्छत आहोखिद् वक्रगत्या ? इत्याशङ्कयाह-"पुडीउदओ वक्के" ति पूर्व्याः-आनुपूर्व्या वृषभस्य नासिकारज्जु १°शसङ्ख्याप्रकृ° ख० ग० उ०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१-४४] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । कल्पाया उदयः-विपाको वक्र एव भवति । अयमर्थः-नरके द्विसमयादिवोस मच्छतो जील नस्कानुपूळ उग्रः, तिर्यक्षु द्विसमयादिचक्रेण जीवस मच्छतस्त्रियमानुपूर्जा दमः, मनुष्येषु द्विसमयादिवशेण गच्छतो जीवस्य मनुष्यानुपूर्व्या उदयः, देवेषु द्विसम्याविककेण गच्छतो जीवस्य देवानुपूर्ध्या उदयः । उक्तं च वृहत्कर्मविपाके नरयाउयस्स उदए, नरए वक्केण गच्छमाणस्स । नरयाणुपुखियाए, तहिँ उदओ अन्नहिं नत्थि ॥ (गा० १२२) एवं तिरिमणुदेवे, तेसु वि वक्केण गच्छमाणस्स । तेसिमणुपुबियाणं, तहिं उदओ अन्नहिं नत्थि ॥ (गा० १२३) तथा विहायसा-आकाशेन गतिर्विहायोगतिः, सा द्विधा-'शुभा' प्रशस्ता 'अशुभा' अप्र. शस्ता । क्रमेणोदाहरणमाह-“वसुट्ट" ति वृषः-वृषमः सौरमेयो बलीवर्द इति यावत् , ततो वृषस्य उपलक्षणत्वाद् गजकलभराजहंसादीनां प्रशस्ता विहायोगतिः । उष्ट्र:-करभः क्रमेलक इति यावत् , तत उष्ट्रस्य उपलक्षणत्वात् खरतिड्डादीनामप्रशस्ता विहायोगतिरिति ॥ ४२ ॥ व्याख्याताः पिण्डप्रकृतीनामुत्तरभेदाः, साम्प्रतमष्टौ प्रत्येकप्रकृतीरभिघित्सुराह परघाउदया पाणी, परेसि बलिणं पि होइ दुद्धरिसो। ऊससणलद्धिजुत्तो, हवेइ उसासनामवसा ॥४३॥ परान् आहन्ति-परिभवति परैर्वा न हन्यते-नाभिभूयत इति पराघातम् , तन्निबन्धनं नाम पराघातनाम । ततः 'पराघातोदयात्' पराघातनामकर्मविपाकात् 'प्राणी' जन्तुः परेषाम्' अन्येषां 'बलिनामपि' बलवतामपि आस्तां दुर्बलानामित्यपिशब्दार्थः, 'भवति' जायते 'दुर्धर्षः' अनभिभवनीयमूर्तिः । अयमर्थः--यदुदयात् परेषां दुष्प्रधर्षः महौजखी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महाभूपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमुत्पादयति प्रतिपक्षप्रतिभाप्रतिघातं च करोति तत् पराघातनामेत्यर्थः १। 'उच्छ्वासनामवशाद्' उच्छ्वासनामकर्मोदयेन 'उच्छ्सनलब्धियुक्तो भवति' उच्छासैलब्धिसमन्वितो जायते, यदुदयाद् उच्चसनलब्धिरात्मनो भवति तद् उच्छासनाम २ । सर्वलब्धीनां क्षायोपशमिकत्वाद् औदयिकी लब्धिर्न सम्भवतीति चेत् , नैतदस्ति, वैक्रियाहारकलब्धीनामौदयिकीनामपि सम्भवाद्, वीर्यान्तसयक्षयोपशमोऽपि चात्र निमित्तीभवतीति सत्यप्यौदयिकत्वे क्षायोपशमिकव्यपदेशोऽपि न विरुध्यते ॥ ४३ ॥ रविबिंबे उ जियंगं, तावजुयं आयवाउ न उ जलणे। जमुसिणफासस्स तहि, लोहियवनस्स उदउ ति॥४४॥ 'आतपाद्' आतपनामोदयाद् जीवानामङ्गं-शरीरं 'तापयुतं' खयमनुष्णमप्युष्णप्रकाशयुक्तं भवति । आतपस्य पुनरुदयो रविबिम्ब एव, तुशब्द एवकारार्थः। कोऽर्थः!-भानुमण्डलादिपार्थिवशरीरेण्वेव 'न तु' न पुनः 'ज्वलने' हुतभुजि । अत्र युक्तिमाह-'यद्' यस्मात् कारणात् 'तत्र' ज्वलने-ज्वलनजन्तुशरीरे तेजस्कायशरीर इत्यर्थः उष्णस्पर्शस्योदयस्तथा १ नरकायुष उदये नरके वक्रेण गच्छतः । नरकानपूळखत्रोदयोऽन्यत्र नास्ति ॥ एवं तिर्यमनुष्यदेवेषु तेष्वपि वक्रेण गच्छतः । वेषामानुपूर्वीणां तत्रोदयोऽन्यत्र नास्ति ॥ ३ सनिःश्वास ०.०० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितस्त्रोपज्ञटीकोपैतः [ गाथा लोहितवर्णस्योदय इति, तेजस्कायशरीराण्येवोष्णस्पर्शोदयेनोष्णानि लोहितवर्णनामोदयात्तु प्रकाशयुक्तानि भवन्ति, न त्वातपोदयादिति भावः । यदुदयाद् जन्तुशरीराण्यात्मनाऽनुष्णान्यप्युष्णप्रकाशरूपमातपं कुर्वन्ति तद् आतपनामेत्यर्थः ३ ॥ ४४ ॥ अणुसिणपयासरूवं, जियंगमुजोयए इहुजोया । जहदेवुत्तरविक्कियजोइसखज्जोयमाह व्व ॥ ४५ ॥ इह 'उद्योताद्' उद्योतनामोदयेन 'जीवानं' जन्तुशरीरम् 'उद्योतते' उद्योतं करोति, कथम् ? इत्याह- अनुष्णप्रकाशरूपम्, उष्णप्रकाशरूपं हि वहिरप्युद्योतत इति तद्व्यवच्छेदार्थमनुष्णप्रकाशरूपमित्युक्तम् । आह क इवोद्योतोदयाद् जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्ति ? इत्याह- 'यतिदेवोत्तरवै क्रियज्योतिष्कखद्योतादय इव' तत्र यतयश्व - साधवः देवाश्व -सुराः यतिदेवाः, यतिदेवैर्मूलशरीरापेक्षयोत्तरकालं क्रियमाणं वैक्रियं यतिदेवोत्तरवैक्रियम्, ज्योति - काः- चन्द्रग्रहनक्षत्रताराः, खद्योता:- प्रतीताः, ततो यतिदेवोत्तरवैक्रियं च ज्योतिष्काश्व खद्योताश्च ते आदिर्येषां रतौषधीप्रभृतीनां ते यतिदेवोत्तरवैक्रियज्योतिष्कखद्योतादयस्त इव । er Herdsmeक्षणिकः । अयमर्थः - यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियं चन्द्रग्रहादिज्योतिष्काः स्वद्योता रत्नौषधीप्रभृतयश्वानुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं विदधति तथा यदुदयाद् जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाश रूपमुद्योतमातन्वन्ति तद् उद्योतनामेत्यर्थः ४ ॥ ४५ ॥ ५४ अंगं न गुरु न लहुयं, जायइ जीवस्स अगुरुलहुउदद्या । तित्थेण तिहुयणस्स वि, पुजो से उदओ केवलिणो ॥ ४६ ॥ 'अगुरुलघुदयाद्' अगुरुलघुनामोदयेन जीवस्य 'अ' शरीरं न गुरु न लघु 'जायते' raft न्तु अगुरुलघु । यत एकान्तगुरुत्वे हि बोढुमशक्यं स्यात्, एकान्तलघुत्वे तु वायुनाsपह्रियमाणं धारयितुं न पार्येत । यदुदयाद् जन्तुशरीरं न गुरु न लघु नापि गुरुलघु किन्त्वगुरुलघुपरिणामपरिणतं भवति तद् अगुरुलघुनामेत्यर्थः ५ । 'तीर्थेन' तीर्थकरनामकर्मवशात् 'त्रिभुवनस्यापि ' देवमानवदानवलक्षणत्रिलोकलोकस्यापि 'पूज्यः' अर्म्यचनीयो भवति । 'से' तस्य तीर्थकर नामकर्मण: 'उदय' विपाकः 'केवलिनः' उत्पन्न केवलज्ञानस्यैव । यदुदयाद् जीवः सदेवमनुजासुरलोकपूज्यमुत्तमोत्तमं “तित्थं भंते ! तित्यं ? तित्थयरे तित्थं ? गोममा ! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउवन्ने समणसंघे पढमगणहरे चा ॥" (भग० श० २० उ० ८ पत्र ७९२ -२ ) इति परममुनिप्रणीतघर्मतीर्थस्य प्रवर्तयितृपदमवाप्नोति तत् तीर्थ करनामेत्यर्थः ६ ॥ ४६ ॥ अंगोवंग नियमणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं । Bearer वहम्म, सतणुवयवलंबिगाईहिं ॥ ४७ ॥ 'निर्माण' निर्माणनाम 'अङ्गोपाङ्ग नियमनम्' अङ्गप्रत्यङ्गानां नियतप्रदेशव्यवस्थापनं 'करोति' विदधाति, अंत एवेदं 'सूत्रधारसमं ' सूत्रभृत्कल्पम् । यदुदयाद् जन्तुशरीरेष्वङ्गोपाङ्गानां १ तीर्थं भदन्त ! तीर्थम् ? तीर्थकर स्वीर्थम् ? गौतम ! अर्हस्तावनियमात् तीर्थङ्करः, तीर्थं पुनञ्चतुर्वर्णः श्रमसङ्घः प्रथमगणधरो वा ॥ २ ततः सू० ख० ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ १५-४८] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । प्रतिनियतखानवृत्तिता भवति तत् सूत्रधारकल्पं निर्माणनामेत्यर्थः । तदमावे हि तद्धृतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिर्निर्वर्तितानामपि शिरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमः स्यात् ७ । 'उपघाताद' उपघातनामोदयाद् ‘उपहन्यते' विनाश्यते जन्तुः, कैः. इत्याह-खा-खकीया तनुः-शरीरं खतनुस्तस्या अवयवाः-अंशा ये लम्बिकादयः, आदिशब्दात् प्रतिजिहाचौरदन्तादिपरिग्रहस्तैः, "सतणुवयव" इत्यत्र अकारलोपः प्राकृतत्वात् । यदुदयात् खशरीरान्तःप्रवर्धमानैर्लम्बिकापतिजिहाचौरदन्तादिभिर्जन्तुरुपहन्यते तद् उपघातनामेत्यर्थः ८॥ ४७ ॥ व्याख्याता अष्टौ प्रत्येकप्रकृतयः । साम्प्रतं त्रसदशकं व्याख्यानयन्नाह वितिचउपणिंदिय तसा, बायरओ बायरा जिया थूला। नियनियपज्जत्तिजुया, पज्जत्ता लद्धिकरणेहिं॥४८॥ प्रस्यन्ति-उष्णाघभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानाद् उद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसाः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि त्रसनाम । ततः 'सात्' सनामोदयाद जीवाः "बितिचउपणिदिय" त्ति इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वे इन्द्रिये स्पर्शनरसनलक्षणे येषां ते द्वीन्द्रियाः, शङ्खचान्दनककपर्दजलकाकृमिगण्डोलकपूतरकादयो भवन्ति । त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः, यूकामत्कुणगर्दभेन्द्रगोपककुन्थुमैत्कोटकादयः । चत्वारि स्पर्शनरसनघाणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, मक्षिकाअमरमशकवृश्चिकादयः । पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः, मत्स्यमकरहरिहरिणसारसराजहंसनरसुरनारकादयो भवन्तीति । यदुदयाद् जीवास्त्रसा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया भवन्ति तत् त्रसनामेत्यर्थः १ । 'बादराद्' बादरनामोदयाद् 'जीवाः' जन्तवो बादराः-स्थूला भवन्ति । बादरत्वं चेह न चक्षुर्माह्यत्वमिष्टम् , बादरस्याप्येकैकस्य पृथिव्यादिशरीरस्य चक्षुर्माह्यत्वाभावात् । तस्माद् जीवविपाकित्वेन जीवस्यैव कश्चिद् बादरपरिणामं जनयति एतद् , न पुद्गलेषु, किन्तु जीवविपाक्यप्येतत् शरीरपुद्गलेष्वपि काञ्चिदप्यभिव्यक्तिं दर्शयति । तेन बावराणां बहुतरसमुदितपृथिव्यादीनां चक्षुषा ग्रहणं भवति, न सूक्ष्माणाम् । जीवविपाकिकर्मणः शरीरे खशक्तिप्रकटनमयुक्तमिति चेत् , नैवम् , जीवविपाक्यपि क्रोधो भूभनत्रिवलीतरङ्गितालिकफलकक्षरत्खेदजलकणनेत्राघातानत्वपरुषवचनवेपथुप्रभृतिविकारं कुपितनरशरीरेऽपि दर्शयति, विचित्रत्वात् कर्मशक्तेरिति ।। ___ यदुदयाद् जीवा बादरा भवन्ति तद् बादरनामेत्यर्थः २ । 'पर्याप्तात्' पर्याप्तनामोदयाद् जीवा निजनिजपर्याप्तियुता भवन्ति । तत्र पर्याप्ति म पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः, सा च विषयभेदात् षोढा--आहारपर्याप्तिः १ शरीरपर्याप्तिः २ इन्द्रियपर्याप्तिः ३ उच्छ्वासपर्याप्तिः ४ भाषापर्याप्तिः ५ मनःपर्याप्तिः ६ चेति । तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः १ । यया रसीभूतमाहारं रसामुग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २ .यया धातुरूपतया परिण १°मर्कोटका ख० घ००॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञडीकोपेतः [ माया सिमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमथति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३ । वया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यवर्गमालिकमादाय उच्छ्वासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छ्वासपर्याप्तिः ४ । तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति भाषापर्याः ५ । यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य भ मुखति सा मनःपर्याप्तिः ६ । एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपश्ञ्चेन्द्रियाणां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च चतुःपञ्चषट्सया भवन्ति । तथा बैक्रियशरीरिणां शरीरपर्याप्तिरेवैका आन्तर्मौहूर्तिकी, शेषाः पञ्चाप्येकसामयिक्यः । औदारिकशरीरिणां पुनराहार पर्याप्तिरेवैका एकसामयिकी, शेषाः पुनरान्त मौहूर्तिक्यः । आह च--- वेवियपज्जती, सरीर अंतमुहु सेस इगसमया । आहारे इगसमया, सेसा अंतमुहु ओराले || ततः पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां "अम्रादिभ्यः " (सि० ७ - २ - ४६ ) इति अप्रत्यये ते पर्याप्ताः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पर्याप्तनाम । यदुदयात् स्वपर्याप्तियुक्ता भवन्ति जीवास्तत् पर्याप्तनामेत्यर्थः ३ । ते च पर्याप्ता द्विधा - लब्ध्या करणैश्च । तत्र ये स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थ्य प्रियन्ते नार्वाकू ते लब्धिपर्याप्ताः ये च पुनः करणानि - शरीरेन्द्रियादीनि निर्वर्तितवन्तस्ते करणपर्याप्ता इति । ५९ ननु च शरीरपर्याप्त्यैव शरीरं मविष्यति, किं प्रागभिहितेन शरीरनाम्ना ?, नैतदस्ति, साध्यमेदात् । तथाहि —शरीरनाम्नो जीवेन गृहीतानां पुद्गलानामौदारिकादिशरीरत्वेन परिणतिः साध्या, शरीरपर्याप्तेः पुनरारब्धशरीरस्य परिसमाप्तिरिति । अथ प्रागुक्तेनोच्छ्वासनाम्नैवोच्छ्रसनस्य सिद्धत्वाद् इहोच्छ्रासपर्याप्तिर्निर्विषयेति नैवम्, सतीमप्युच्छासनामोदयेन जनितामुच्छ्रसनलथिमात्मा शक्तिविशेषरूपामुच्छासपर्याप्तिमन्तरेण व्यापारयितुं न शक्नुयात् । यथा हि शरीरनामोदयेन गृहीता अप्यौदारिकादिशरीर पुद्गलाः शक्तिविशेषरूपां शरीरपर्याप्तिं विना शरीररूपतया परिणमयितुं न शक्यन्त इति शरीरनाम्नः पृथग् इष्यते शरीरपर्याप्तिः, एवमत्राप्युच्छासनाम्नः पृथगुच्छासपर्याप्तिरेष्टव्या, तुल्ययुक्तित्वादिति ॥ ४८ ॥ पत्तेय तणू पत्तेउयेणं दंतअट्टिमाइ थिरं । नाभुवरि सिराह सुहं, सुभगाओ सव्वजणहट्टो ॥ ४९ ॥ 'प्रत्येकोदयेन' प्रत्येकनामकर्मोदयवशाद् जन्तूनां 'प्रत्येकं तनुः' पृथक् पृथक् शरीरं मबति, यदुदयाद् एकैकस्य जन्तोरेकैकं शरीरमौदारिकं वैक्रियं वा भवति तत् प्रत्येकनामेत्वर्थ: 8 | 'स्थिरं स्थिरनामोदयेन दन्ताऽस्य्यादि निश्चलं भवति, यदुदयात् शिरोऽस्थिग्रीवादीनामवयवानां स्थिरता भवति तत् स्थिरनामेत्यर्थः ५ । 'शुभं' शुभनामोदयात् नाभ्युपरि शिआदिर्भवति, यदुदयाद् नामेरुपर्यवयवाः शुभा भवन्ति तत् शुभनाम, शिरःप्रभृतिभिः स्पृष्टः परो हृष्यतीति तेषां शुभत्वम् ६ । 'सुभगात्' सुभगनामोदयेन सर्वजनेष्टो भवति, १ बैकियपर्याप्तिः शरीरे आन्तमौहूर्तिकी शेषा एकसामयिक्यः । आहारे ( पर्याप्तिः ) एकसामयिकी शेषा आन्तमौहूर्तिक्य औदारिके ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' . AG ५० कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । पदुदयाद् अनुपकार्यपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति तत् सुभगनामेत्यर्थः ७ । तदभ्यधायि अणुवकए वि बहूणं, होइ पिओ तस्स सुभगनामुदओ ति। सुभगुदए वि हु कोई, कंची आसज्ज दूभगो जइ वि। जायएँ तहोसाओ, जहा अभवाण तित्थयरो ॥ सुसरा महुरसुहझुणी, आइज्जा सव्वलोयगावओ। जसओ जसकित्ति इओ, थावरदसगं विवज्जत्थं ॥५०॥ 'सुखरात्' सुखरनामोदयेन मधुरः-माधुर्यगुणालङ्कृतः सुखयतीति सुखः-सुखदो ध्वनिःखरो भवति, यदुदयाद् जीवस्य खरः श्रोत्रप्रीतिहेतुर्भवति तत् सुखरनामेत्यर्थः ८ । 'आदेयाद' आदेयनामोदयेन सर्वलोकेन समस्तजनेन ग्राह्यम्-आदेयं वचः-वचनं यस्य स तथा, यदुदयाद् यत्किञ्चिदपि ब्रुवाणो जीवः सर्वस्योपादेयवचनो भवति, दर्शनसमनन्तरमेव तस्याभ्युत्थानादि समाचरति तद् आदेयनामेत्यर्थः ९ । “जसउ" तिं यशःकीर्तिनामोदयाद् यशःकीर्तिर्भवति । तत्र सामान्यतस्तपःशौर्यत्यागादिसमुपार्जितयशसा कीर्तनं-संशब्दनं श्लाघनं यशःकीर्तिरुच्यते । यद्वा __ दानपुण्यकृता कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः । अथवा एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः । १० इति । व्याख्यातं त्रसदशकम् । सम्प्रति स्थावरदशकं व्याचिख्यासुरतिदिशति--'इतः' त्रसदशकात् स्थावरदशकं विपर्यस्तं' विपरीतार्थ भवति । तथाहि-तिष्ठन्तीत्येवंशीला उष्णाद्यमितापेऽपि तत्परिहाराऽसमर्थाः स्थावराः, "स्थेशमासपिसकसो वरः” (सि०५-२-८२) इति वरप्रत्ययः, पृथिवीकायिका अप्कायिकास्तेजस्कायिका वायुकायिका वनस्पतिकायिका एकेन्द्रियाः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्थावरनाम । तेजोवायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं खाभाविकमेव, न पुनरुष्णाद्यमितापेन द्वीन्द्रियादीनामिव विशिष्टम् १ इति । यदुदयात् सूक्ष्माः पृथिवीकायिकादयः पञ्च भवन्ति तदपि जीवविपाकि सूक्ष्मनामकर्म २ इति । यदुदयात् पूर्वोक्तखयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला जन्तवो भवन्ति तद् अपर्याप्तनाम, अपर्याप्तयो विद्यन्ते येषां तेऽपर्याप्ता इति कृत्वा, तन्निबन्धनं नाम अपर्याप्तनाम । तत्र द्वेषा अपर्याप्ताः-लब्ध्या करणैश्च । तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते, न पुनः खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ति ते लब्ध्यपर्याप्ताः। ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावत् निर्वर्तयन्ति, अथ चावश्यं पुरस्ताद निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः । इह चैवमागमः-लब्ध्यपर्याप्ता अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव नियन्ते नार्वाक्, यस्मादागामिभवायुर्बद्धा नियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति ३ । यदुदयाद् अनन्तानां जीवानां साधारणम्-एकं शरीरं भवति तत् साधारणनाम १ । यदुदयात् कर्णधूजिहाद्यषयवा १ अनुपकृतेऽपि बहूनां भवति प्रियस्तस्य सुभगनामोदयः ॥ सुभगोदयेऽपि खलु कश्चित् कश्चिदासाद्य दुर्भगो यद्यपि । आयते तदोषातू यथाऽभव्यानां तीर्थकरः ॥ २°ति यशसः यशोनामकर्मोदयेन यशःकी ग०॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः अखिराः -- चपला भवन्ति तद् अस्थिरनाम ५ । यदुदयाद् नामेरघः पादादीनामवयवानामशुमता भवति तद् अशुभनाम, पादादिना हि स्पृष्टः परो रुष्यतीति तेषामशुभत्वम् । कामिनीव्यवहा रेण व्यभिचार इति चेत्, नैवम्, तस्य मोहनिबन्धनत्वात्, वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यत इति ६ । यदुदयवशाद् उपकारकृदपि जनस्याऽप्रियो भवति तद् दुर्भगनाम । उक्तं चउवगारकारगो वि हु, न रुश्चई दूभगो उ जस्सुदए । ७ इति । यदुदयात् खरभिन्नहीनखरो भवति तद् दुःखरनाम ८ । यदुदयवशाद् युक्तियुक्तमपि ब्रुवाणो नाऽऽदेयवचनो भवति न च लोकोऽभ्युत्थानादि तस्य करोति तद् अनादेयनाम ९ । यदुदयात् पूर्वप्रदर्शिते यशःकीर्ती न भवतस्तद् अयशः कीर्तिनाम १० इति ॥ ५० ॥ व्याख्यातं द्विचत्वारिंशद्भेदं त्रिनवति भेदं त्र्युत्तरशत मेदं सप्तषष्टिभेदं षष्ठं नाम । सम्प्रि द्विभेदं गोत्रकर्माभिधित्सुराह- गोयं दुहुचनीयं, कुलाल इव सुघडभुंभलाईयं । विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु विरिए य ॥ ५१ ॥ . याया गोत्रं प्राग्वर्णितशब्दार्थं 'द्विधा' द्विभेदम्, कथम् ? इत्याह – 'उच्चनीचं' उच्चं च नीचं च उच्चनीचम्, उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रमित्यर्थः । एतच्च 'कुलाल इव' कुम्भकारतुल्यम् । शोभनो घटः सुघटः -पूर्णकलशः, भुम्भलं - मद्यस्थानम्, सुघटभुम्भले आदी यस्य तत्कृतोपकरणस्य तत् सुघटभुम्भलादि करोतीति शेषः । अयमत्र भावः -- यथा हि कुलालः पृथिव्यास्तादृशं पूर्णकलशादिरूपं करोति यादृशं लोकात् कुसुमचन्दनाक्षतादिभिः पूजां लभते स एव भुम्भलादि तादृशं विदधाति यादृशमप्रक्षिप्तमद्यमपि लोकाद् निन्दां लभते; तथा यदुदयाद् निर्धनः कुरूपो बुद्ध्यादिपरिहीणोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोकात् पूजां लभते तद् उच्चगोंत्रम् १; यदुदयात् पुनर्महाघनोऽप्रतिरूपरूपो बुच्यादिसमन्वितोऽपि पुमान् विशिष्टकुला - भावाद् लोकाद् निन्दां प्रामोति तद् नीचैगोत्रम् २ इति । उक्तं द्विविधं गोत्रकर्म ॥ 1 अथ विकर्म पञ्चधा व्याख्यानयन्नाह — "विग्धं दाणे लाभे" इत्यादि । विशेषेण हन्यन्तेबद्दानादिब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति विघ्नम् - अन्तरायकर्म । तच्च विषयभेदात् पञ्चधेति दर्शगति - दीयत इति दानं तस्मिन् लभ्यत इति लाभस्तस्मिन् भुज्यते - सकृदुपभुज्यत इति भोगः पुष्पाहारादिः, उपेति - पुनः पुनर्भुज्यत इति उपभोगो भवेनाऽऽसनाऽङ्गनादि । उक्तं चसह भुज्ज चि मोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईसु । , उपभोगो उ पुणो पुण, उवभुज्जइ भवणवणियाई ॥ ( वृ०क०वि० गा० १६५ ) ततो भोगश्च उपभोगश्च भोगोपभोगौ तयोः, प्राकृतवशाच द्विर्वचनस्थाने बहुवचनं भवति, यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वप्राकृतलक्षणे- “द्विवचनस्य बहुवचनम् " ( सि० ८-११३० ) इति । विशेषेण ईर्यते - चेष्यतेऽनेनेति वीर्यम्, यद्वा विविधम्- अनेकप्रकारमीरयति यत् प्राणिनं क्रियासु तद् वीर्यं सामर्थ्य शक्तिरिति पर्यायास्तस्मिन् 'चः' समुच्चये, सर्वत्र बिन - १ उपकारकारकोऽपि हि न रोचते दुर्भागस्तु यस्योदये ॥ २ वनवसनात ग० ॐ० ॥ ३ सकृदूभुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिषु । उपभोगस्तु पुनः पुनरुपभुज्यते भवनवनितादि ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-५३] कर्मhaureater प्रथमः कर्मप्रन्यः । ५९ मिति योज्यम् । विषयसप्तमी चेयं सर्वत्र । ततो दानादिविषय मेदतो दानादिविषयं पञ्चधा विनं कर्म भवतीति वाक्याक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् सत्यपि दातव्ये वस्तुनि, आगते च गुणवति पात्रे, जानन्नपि दानफलं यदुदयाद् दातुं नोत्सहते तद् दानान्तरायम् १ | यदुदयाद् विशिष्टेऽपि बातरि, विद्यमानेऽपि देये वस्तुनि याच्ञाकुशलोऽपि याचको न लभते तद् लाभान्तरायम् २ । यदुदयात् सति विभवादौ सम्पद्यमाने चाहारमात्यादौ विरतिहीनोऽपि न भुझे तद् मोगान्तरायम् ३ । यदुदयाद् विद्यमानमपि वस्त्रालङ्कारादि नोपभुङ्क्ते तद् उपभोगान्तरायम् ४ । यदुदयवशाद् बलवान् नीरुजो वयःस्थोऽपि च तृणकुनीकरणेऽप्यसमर्थस्तद् वीर्यान्तरायम् ५ इति ॥ ५१ ॥ एतच भाण्डागारिकसममिति दर्शयन्नाह - सिरिहरियसमं एयं, जह पडिकूलेण तेण रायाई । न कुणइ दाणाईयं, एवं विग्घेण जीवो वि ॥ ५२ ॥ श्रियो गृहं श्रीगृहं-भाण्डागारं तद् विद्यते यस्य स श्रीगृहिकः -- भाण्डागारिकस्तेन समंतुल्यमेतदन्तरायकर्म । यथा 'तेन' श्रीगृहिकेण 'प्रतिकूलेन' अननुकूलेन 'राजादिः ' राजानृपतिः, आदिशब्दात् श्रेष्ठीश्वरतलवरादिपरिग्रहः 'न करोति' कर्तुं न पारयति दानादि, आदिशब्दाद् लाभभोगोपभोगादिग्रहणम् । 'एवम्' अमुना श्रीगृहिकदृष्टान्तेन 'विमेन' अन्तरायकर्मणा ' जीवोऽपि' जन्तुरपि दानादि कर्तुं न पारयतीति ॥ ५२ ॥ व्याख्यातं पञ्चविधमन्तरायं कर्म, तद्व्याख्याने च समर्थिता " इह नाणदंसणावरण वेय" ( गा०३ ) इत्यादिमूलगाथा । अथ “कीरइ जिएण हेऊहिँ जेण तो भन्नए कम्मं” ( गा० १) इत्यादौ यदुक्तं तयाख्यानार्थं यस्य कर्मणो ये बन्धहेतवस्तान् कचन हेतुद्वारेण काऽपि च हेतुमद्दारेण दिदर्शयिषुराह - पडिणीयसण निन्हव, उवघाय पओस अंतराएणं । अच्चासायणयाए, आवरणदुगं जिओ जयह ॥ ५३ ॥ 'आवरणद्विकं' ज्ञानावरणदर्शनावरणरूपं जीवः 'जयति' धातूनामनेकार्थत्वाद् बध्नातीति सम्बन्धः । तत्र ज्ञानस्य–मत्यादेर्ज्ञानिनां - - साध्वादीनां ज्ञानसाधनस्य - पुस्तकादेः 'प्रत्यनीकत्वेन ' तदनिष्टाचरणलक्षणेन 'निह्नवेन' न मया तत्समीपेऽधीतमित्यादिस्वरूपेण 'उपघातेन' मूलतो विनाशस्वरूपेण 'प्रद्वेषेण' आन्तराप्रीतिरूपेण 'अन्तरायेण' भक्तपानवसनोपाश्रयला भनिवारणलक्षणेन 'अत्याशातनया' च जात्याद्युद्धट्टनादिहीलारूपया ज्ञानावरणं कर्म जयतीति सर्वत्र द्रष्टव्यम् । एतच्चोपलक्षणम्, अतो ज्ञान्यवर्णवादेन आचार्योपाध्यायाद्य विनयेनाऽकालखाध्यायकरणेन काले च स्वाध्यायाऽविधानेन प्राणिवधाऽनृतभाषणस्तैन्याऽब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिभिश्च ज्ञानावरणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यमिति । एवं दर्शनावरणेऽपि वाच्यम्, नवरं दर्शनाभिलापो वक्तव्यः । तथाहि--- दर्शनस्य - चक्षुर्दर्शनादेर्दर्शनिनां साध्वादीनां दर्शनसासाघनस्य --श्रोत्रनयननासिकादेः सम्मत्यनेकान्तजयपताकादिप्रमाणशास्त्र पुस्तकादेर्वा प्रत्यनीत्वेन - तदनिष्टाचरणलक्षणेन, निहवेन-न मया तत्समीपेऽधीतमित्यादिखरूपेण, उपघातेन१ °ऽथ च ख० ग० कु० ॥ २° कत्वनिहवोपघातान्तरायात्याशातनादिभिर्दर्श क० घ० पुस्तकयोरेवं पाठः ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोतः [गाथा मूलतो विनाशेन, प्रद्वेषेण-आन्तराप्रीत्यात्मकेन, अन्तरायेण भक्तपानवसनोपायलामनिवराणेन, अत्याशातनया च-जात्यादिहीलया दर्शनावरणं कर्म जयतीति सर्वत्र द्रष्टव्यम् । उपलक्षणमिदम् , अतो दर्शनिनां दूषणग्रहणेन श्रवणकर्तननेत्रोत्पाटननासाछेदजिहाविकर्तनादिना प्राणिवधाऽनृतभाषणस्तैन्याऽब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिभिश्च दर्शनावरणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यम् । यदवादि श्रीहेमचन्द्रसूरिप्रभुपादैः ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत् , तद्धेतूनां च ये किल । विघ्ननिहवपैशून्याऽऽशातनाघातमत्सराः॥ ते ज्ञानदर्शनावारकर्महेतव आश्रवाः । ( योगशा० टी० पत्र ३०६-२)॥ ५३॥ उक्ता ज्ञानावरणदर्शनावरणबन्धहेतवः । इदानीं वेदनीयस्य द्विविधस्यापि तानाह गुरुभत्तिखंतिकरुणावयजोगकसायविजयदाणजुओ। दढधम्माई अन्जइ, सायमसायं विवजयओ ॥५४॥ इह युतशब्दस्य प्रत्येकं योगः, ततो गुरवः-मातापितृधर्माचार्यादयस्तेषां भक्तिः-आसनादिप्रतिपत्तिर्गुरुभक्तिस्तया युतो गुरुभक्तियुतः-गुरुभक्तिसमन्वितो जन्तुः 'सातं' सातवेदनीयम् 'अर्जयति' समुपार्जयतीति सम्बन्धः । 'क्षान्तियुतः' क्षमान्वितः 'करुणायुतः' दयापरीतचेताः 'व्रतयुतः' महावताऽणुव्रतादिसमन्वितः 'योगयुतः' दशविधचक्रवालसामाचार्याद्याचरणप्रगुणः 'कषायविजययुतः' क्रोधादिकषायपरिभवनशील: 'दानयुतः' दानरुचिः 'दृढधर्मः' आपत्स्वपि निश्चलधर्मः, आदिशब्दाद बालवृद्धग्लानादिवैयावृत्त्यकरणशीलो जिनचैत्यपूजापरायणश्च सातम् 'अर्जयति' बध्नाति । यदवाचि देवपूजागुरूपास्तिपात्रदानदयाक्षमाः। (योगशा० टी० पत्र ३०६-२) सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । शौचं बालतपश्चेति, सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः ।। (योगशा० टी० पत्र ३०६-२) तथा 'विपर्ययतः' सातबन्धविपर्ययेण असातमर्जयति, तथाहि-गुरूणामवज्ञायकः क्रोधनो निर्दयो व्रतयोगविकल उत्कटकषायः कार्पण्यवान् सद्धर्मकृत्यप्रमत्तः हस्त्यश्वबलीवर्दादिनिर्दयदमनवाहनलाञ्छनादिकरणप्रवणः खपरदुःखशोकवधतापक्रन्दनपरिदेवनादिकारकश्चेति । यदभ्यधायिदुःखशोकवधास्तापक्रन्दने परिदेवनम् । खान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाश्रवाः ॥ (योगशा० टी० पत्र ३०६-२)॥ ५४ ॥ उक्ता वेदनीयस्य बन्धहेतवः । साम्प्रतं मोहनीयस्य द्विविधस्यापि तानाह उम्मग्गदेसणामग्गनासणादेवदव्वहरणेहिं। दसणमोहं जिणमुणिचेइयसंघाइपडिणीओ ॥५५॥ उन्मार्गस्य-भवहेतोर्मोक्षहेतुत्वेन देशना-कथनमुन्मार्गदेशना, मार्गस्य-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मुक्तिपथस्य नाशना-अपलपनं मार्गनाशना, देवद्रव्यस्य-चैत्यद्रव्यस्य हरणं-भक्षणोपेक्षणप्रज्ञाहीनत्वलक्षणम् , तत उन्मार्गदेशना च मार्गनाशना च देवद्रव्यहरणं च तैहेतुभिर्जीवः १ देवपूजा गुरूपास्तिः पात्रदानं दया क्षमा । इति योगशाले॥ २ च इति हेतु क० ग० १०॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ - ५६] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्ममन्थः । ६१ ' दर्शनमोहं' मिध्यात्वमोहनीयमर्जयति । तथा 'जिनमुनिचैत्यसङ्घादिप्रत्यनीकः' तत्र जिना:तीर्थकराः, मुनयः - साधवः, चैत्यानि - प्रतिमारूपाणि, सङ्घः साधुसाध्वीश्रावक श्राविकाल क्षणः, आदिशब्दात् सिद्धगुरुश्रुतादिपरिग्रहः, तेषां प्रत्यनीकः - अवर्णवादाशातनाद्यनिष्टनिर्वको दर्शनमोहमर्जयति । यदभाणि - वीतरागे श्रुते स धर्मे सर्वसुरेषु च । अवर्णवादिता तीव्र मिथ्यात्वपरिणामिता || सर्वज्ञसिद्धदेवापवो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदेशनानर्थाग्रहोऽसंयत पूजनम् ॥ असमीक्षितकारित्वं, गुर्वादिष्ववमानना । इत्यादयो दृष्टिमोहस्याश्रवाः परिकीर्तिताः ॥ (योगशा० टी० पत्र ३०७ – १) ॥ ५५ ॥ दुविहं पि चरणमोहं, कसायहासाहविसयविवसमणो । बंध नरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुहो ॥ ५६ ॥ 'द्विविधमपि' द्विभेदमपि 'चरणमोहं' चारित्रमोहनीयं - कषायमोहनीयनोकषायमोहनीयरूपं जीवो बनातीति सम्बन्धः । किंविशिष्टः ? इत्याह- 'कषायहास्यादिविषय विवशमनाः' तत्र कषायाः-क्रोधादय उक्तस्वरूपाः षोडश, हास्यादयः - हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा इति गृह्यन्ते, विषयाः- शब्दरूपरसगन्धस्पर्शाख्याः पञ्च ततः कषायाश्च हास्यादयश्च विषयाश्च कषायहास्यादिविषयास्तैर्विवशं-विसंस्थुलं पराधीनं मनः - मानसं यस्य स कषायहास्यादिविषयविवशमनाः । इदमत्र हृदयम् - - कषायविवशमनाः कषायमोहनीयं बध्नाति, हास्यादिविवशमनास्तु हास्यादिमोहनीयं - हास्य मोहनीयरतिमोहनीयाऽरतिमोहनीयशोकमोहनीयभयमोहनीयजुगुप्सामोहनीयाख्यं नोकषायमोहनीयं बध्नाति, विषयविवशमनाः पुनर्वेदत्रयाख्यं नोकषायमोहनीयं बध्नाति । सामान्यतः सर्वेऽपि कषायहास्यादिविषया द्विविधस्यापि चारित्रमोहनीयस्य बन्धहेतवो भवन्ति । यत्प्रत्यपादि कषायोदयतस्तीत्रः, परिणामो य आत्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ॥ उत्प्रासनं सकन्दर्पोपहासो हासशीलता । बहुप्रलापो दैन्योक्तिहस्यस्यामी स्युराश्रवाः ॥ देशादिदर्शनौत्सुक्यं, चित्रे रमणखेलने । परचित्तावर्जना चेत्याश्रवा: कीर्तिता रतेः ॥ असूया पापशीलत्वं, परेषां रतिनाशनम् । अकुशलप्रोत्साहनं, चारतेराश्रवा अमी ॥ स्वयं भयपरीणामः, परेषामथ भापनम् । त्रासनं निर्दयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥ परशोका विष्करणं, स्वशोकोत्पादशोचने । रोदनादिप्रसक्तिश्च, शोकस्यैते स्युराश्रवाः || चतुर्वर्णस्य सङ्घस्य, परिवादजुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च, जुगुप्सायां स्युराश्रवाः || ईर्ष्या विषादगा च, मृषावादोऽतिवक्रता । परदाररतासक्तिः, स्त्रीवेदस्याश्रवा इमे ॥ स्वदारमात्रसन्तोषोऽनीय मन्दकषायता । अवकाचारशीलत्वं, पुंवेदस्याश्रवा इति ॥ स्त्रीपुंसानङ्गसेवोग्राः, कषायास्तीत्रकामता । पाखण्डिस्त्रीत्रतेभङ्गः, षण्ढवेदाश्रवा अमी ॥ साधूनां गर्हणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता । मधुमांसविरतानाम विरत्यभिवर्णनम् ॥ विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः । अचारित्रगुणाख्यानं, तथा चारित्रदूषणम् ॥ १ 'वर्जनं योगशास्त्रे ॥ २ तभ्रंशः योगशास्त्रे ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरवितखोपाटीकोषेतः गाया कमायनोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् । चारित्रमोहनीयस्य, सामान्येनाश्रवा अमी ।। (योगशा० टी० पत्र ३०७-१) अभिहिता मोहनीयस्य बन्धहेतवः । सम्प्रति चतुर्विधस्याप्यायुषस्तानाह-"बंधइ नरयाउ" इत्यादि । 'बध्नाति' अर्जयति 'नरकायुः' नारकायुष्कं जीवः । किंविशिष्टः इत्याह-'महारम्मपरिग्रहरतः' महारम्भरतो महापरिग्रहरतश्चेत्यर्थः । 'रौद्रः' रौद्रपरिणामो गिरिभेदसमानकषायरौद्रध्यानाऽऽरूषितचेतोवृत्तिरित्यर्थः । उपलक्षणत्वात् पञ्चेन्द्रियवधादिपरिग्रहः । यन्यगादिपञ्चेन्द्रियप्राणिवधो, बहारम्भपरिग्रहौ । निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता ॥ रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायता । कृष्णनीलकापोताच, लेश्या अनृतभाषणम् ॥ परद्रव्यापहरणं, मुहुर्मैथुनसेक्नम् । अवशेन्द्रियता चेति, नरकायुष आप्रवाः ।। (योगशा० टी० पत्र ३०७-१) ॥ ५६ ॥ उक्ता नरकायुषो बन्धहेतवः । इदानी तिर्यगायुषस्तानाह तिरियाउ गूढहियओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साउं । पयईइ तणुकसाओ, दाणरुई मज्झिमगुणो य ॥ ७ ॥ तिर्यगायुर्बध्नाति जीवः, किंविशिष्टः ? इत्याह-'गूढहृदयः' उदायिनृपमारकादिवत् तथा आत्माभिप्रायं सर्वथैव निगृहति यथा नापरः कश्चिद् वेत्ति, 'शठः' वचसा मधुरः परिणामे तु दारुणः, 'सशल्यः' रागादिवशाऽऽचीर्णाऽनेकव्रतनियमाऽतिचारस्फुरदन्तःशल्योऽनालोचिताsप्रतिक्रान्तः, तथाशब्दाद् उन्मार्गदेशनादिपरिग्रहः । उक्तं च---- उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढचित्तता । आर्तध्यानं सशल्यत्वं, मायारम्भपरिग्रहौ ॥ शीलवते सातिचारो, नीलकापोतलेश्यता । अप्रत्याख्यानकषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः ।। (योगशा० टी० पत्र ३०७-२) उक्तास्तिर्यगायुर्बन्धहेतवः। अथ मनुष्यायुषस्तानाह-"मणुस्साउं" इत्यादि । मनुष्यायुर्जीवो बध्नाति, किंविशिष्टः? इत्याह-'प्रकृत्या' खमावेनैव 'तनुकषायः' रेणुराजिसमानकषायः, 'दानरुचिः' यत्र तत्र वा दानशीलः, मध्यमास्तदुचिताः केचिद् गुणा:-क्षमामार्दवाऽऽर्जवादयो यस्य स मध्यमगुणः, अधमगुणस्य हि नरकायुःसम्भवाद्, उत्तमगुणस्य तु सिद्धेः सुरलोकायुषो वा सम्मवादिति भावः । चशब्दाद् अल्पपरिग्रहाऽल्पारम्भादिपरिग्रहः । आह च अल्पौ परिग्रहारम्भौ, सहजे मार्दवाऽऽर्जवे । कापोतपीतलेश्यात्वं, धर्मध्यानानुरागिता ।। प्रत्याख्यानकषायत्वं, परिणामश्च मध्यमः । संविभागविधायित्वं, देवतागुरुपूजनम् ॥ पूर्वालापप्रियालापौ, सुखप्रज्ञापनीयता । लोकयात्रासु माध्यस्थ्य, मानुषायुष आश्रवाः ॥ (योगशा० टी० पत्र० ३०७-२) उक्ता मनुष्यायुषो बन्धहेतवः । सम्प्रति देवायुषस्तानाह अविरयमाइ सुराउं, बालतवोऽकामनिजरो जयह। प्रहाः ख० ग० ०॥ २ °नाः क योगशास्त्रे ॥ ३ °णुस्साउ इ° स्व० ० ० ॥ ४'तबाडकाक० ख०ग०3०॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्ममन्यः । सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं ॥ ५८ ॥ 'अविरत : ' अविरतसम्यग्दृष्टिः 'सुरायुः' देवायुकं 'जयति' बघ्नाति, आदिशब्दाद् देशविस्तसरागसंयतपरिग्रहः । वीतरागसंयतस्त्वतिविशुद्धत्वादायुर्न बध्नाति, घोलनापरिणाम एव तस्य बध्यमानत्वात् । बालं तपो यस्य सः 'बाळतपाः' अनविगतपरमार्थखभावो दुःखगर्भमोहगर्भवैराम्योऽज्ञानपूर्वकनिर्वर्तिततपः प्रभृतिकष्टविशेषो मिथ्यादृष्टिः, सोऽप्यात्मगुणानुरूपं किश्चिदसुरादिकायुर्बधाति । यदाह भगवान् भाष्यकारः - बोलतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया । ५७-५८] ६३ वेरेण य पडिबद्धा, मरिडं असुरेख उवबाओ || ( वृ० सं० गा० १६० ) अकामस्य - अनिच्छतो निर्जरा - कर्मविचटनलक्षणा यस्यासावकामनिर्जरः । इदमुक्तं भवति – “अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयायवदं समसग मण्हाणगजल मलकपरिग्गणं दीहरोगचारगनिरोहबंधणयाए गिरितरुसिहरनिवडणयाए जलजलणपवेसअणसणाईहिं” उदकराजिसमान कषायस्तदुचितशुभपरिणामः किञ्चिद् व्यन्तरादिकायुर्बनाति । उपलक्षणत्वात् कल्याणमित्रसम्पर्कमानसो धर्मश्रवणशील इत्यादिपरिग्रहः । यदाहुः सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । कल्याणमित्रसम्पर्कों, धर्मश्रवणशीलता || पात्रे दानं तपः श्रद्धा, रत्नत्रयाऽविराधना । मृत्युकाले परीणामो, लेबयोः पद्मपीतमोः ॥ बाळतपोऽग्मितोयादिसाघनोल्लम्बनानि च । अव्यक्तसामायिकता, देवस्यायुष आश्रवाः ॥ ( योगशा० टी० पत्र ३०७ -२ ) उक्ता देवायुषो बन्धहेतवः । सम्प्रति नामकर्म यद्यपि द्विचत्वारिंशदादिमेदादनेकधा तथापि शुभाशुभविवक्षया द्विविषमित्यस्य द्विविधस्यापि बन्धहेतू नाह – “सरलो" इत्यादि । 'सरल : ' सर्वत्र मायारहितः, गौरवाणि - ऋद्धिरससातलक्षणानि विद्यन्ते यस्य स गौरववान्, न गौरववान् अगौरववान् “आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेत्तेरमणा मतोः " ( सि० ८ - २ - १५९ ) इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थान इल्लादेशः । उपलक्षणत्वात् संसारमीरुः - क्षमामार्दवार्ज वादिगुणयुक्तः शुभं - देवगतियशःकीर्तिपञ्चेन्द्रियजात्यादिरूपं नामकर्म बघ्नाति । 'अन्यथा ' उक्तविपरीतस्वभावः, तथाहि--मायावी गौरववान् उत्कटकोधादिपरिणामः 'अशुभ' नरकगत्ययशः कीर्त्यकेन्द्रियादिजातिलक्षणं नामकर्मार्जयतीति । उक्तं च मनोवाक्कायवक्रत्वं, परेषां विप्रतारणम् । मायाप्रयोगो मिध्यात्वं, पैशून्यं चलचित्तता ॥ सुवर्णादिप्रतिच्छन्दः करणं कूटसाक्षिता । वर्णगन्धरसस्पर्शोन्मथोपपादनानि च ॥ अङ्गोपाङ्गच्यावनानि, यम्रपञ्जरकर्म च । कूटमानतुलाकर्माऽन्यनिन्दात्मप्रशंसनम् ॥ हिंसामृतस्तेयाऽब्रह्ममहारम्भपरिग्रहाः । परुषाऽसभ्यवचनं, शुचिवेषादिना मदः || १ बालतपसि प्रतिबद्धा उत्कट रोषास्तपसा गर्विताः । वैरेण च प्रतिबद्धाः ( तेषां ) मृला भसुरेषु उपपातः ॥ २ अकामतृष्णया अकामक्षुधया अकामब्रह्मचर्यवासेन अकामशीतातपदंशमशका स्नानकस्वेदजालमलपङ्कपरिग्रहेण दीर्घरोगचारकनिरोधबन्धनतया गिरितरुशिखरनिपतनतया जलज्वलनप्रवेशानशनादिभिः ॥ ३ श्रन्यथापादनानि च । ग० ॐ० योगशास्त्रे च ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा मौखर्याक्रोशौ सौभाग्योपधाताः कार्मणक्रिया । परकौतूहलोत्पादः, परहास्यबिडम्बने || वेश्यादीनामलङ्कारदानं दावाग्निदीपनम् । देवादिव्याजाद्गन्वादिचौर्य तीव्रकषायता ॥ चैत्यप्रतिश्रयाऽऽरामप्रतिमानां विनाशनम् | अङ्गारादिक्रिया चेत्यशुभस्य नाम्न आश्रवाः ॥ एत एवान्यथारूपास्तथा संसारमीरुता । प्रमादहानं सद्भावार्पणं क्षान्त्यादयोऽपि च ॥ दर्शने धार्मिकाणां च, सम्भ्रमः स्वागतक्रिया । परोपकारसारत्वमाश्रवाः शुभनामनि ॥ (योगशा० टी० पत्र ३०७ - २ ) ।। ५८ ।। उक्त नाम्नो बन्धहेतवः । सम्प्रति गोत्रस्य द्विविधस्यापि तानाहगुणही मयरहिओ, अज्झयणऽज्झावणारुई निचं । पकुण जिणाइभत्तो, उच्च नीयं इयरहा उ ॥ ५९ ॥ 'गुणप्रेक्षी' यस्य यावन्तं गुणं पश्यति तस्य तमेव प्रेक्षते पुरस्करोति, दोषेषु सत्स्वप्युदास्त इत्यर्थः । ‘मदरहितः' विशिष्टजातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपः श्रुतादिसम्पत्समन्वितोऽपि निरह - कारः, 'नित्यं' सर्वदा 'अध्ययनाध्यापनारुचिः ' स्वयं पठति इतरांश्च पाठयति, अर्थतश्च स्वयममीक्ष्णं विमृशति परेषां च व्याख्यानयति, असत्यां वा पठनादिशक्तौ तीव्रबहुमानः परानध्ययनाध्यापनापरायणान् अनुमोदते, तथा 'जिनादिभक्तः' जिनानां - तीर्थनाथानाम् आदिशब्दात् सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधुचैत्यानामन्येषां च गुणगरिष्ठानां भक्त:- बहुमानपरः 'प्रकरोति' प्रकर्षेण समुपार्जयति ‘उच्चम्' उच्चैर्गोत्रम् | 'नीचं' नीचैर्गोत्रम् ' इतरथा तु' भणितविपरीतस्वभावः । उक्तं च--- परस्य निन्दावज्ञोपहासाः सद्गुणलोपनम् । सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥ सदसद्गुणशंसा च, खदोषाच्छादनं तथा । जात्यादिभिर्मदश्चेति, नीचैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ नीचैर्गोत्राश्रवविपर्यासो विगतगर्वता । वाक्कायचितैर्विनयः, उच्चैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ (योगशा० टी० पत्र ३०८ - १ ) ॥ ५९ ॥ उक्त गोत्रस्य बन्धहेतवः । साम्प्रतमन्तरायस्य ये बन्धहेतवस्तानभिषित्सुः शास्त्रमिदं समर्थयन्नाह - $8 जिणपूयाविग्धकरो, हिंसाइपरायणो जयह विग्धं । इय कम्मविवागोऽयं, लिहिओ देविंदसूरीहिं ॥ ६० ॥ 'जिनपूजाविघ्नकरः' सावद्यदोषोपेतत्वाद् गृहिणामप्येषा अविधेया इत्यादिदेशनादिभिः समयान्तस्तत्त्वदूरीकृतो जिनपूजानिषेधक इत्यर्थः । हिंसा - जीववध आदिशब्दाद् अनृतभाषणस्तैम्याऽब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिपरिग्रहस्तेषु परायणः -- तत्परः, उपलक्षणत्वात् मोक्षमार्गस्य ज्ञानदर्शनचारित्रादेस्तद्दोषग्रहणादिना विनं करोति, साधुभ्यो वा भक्तपानोपाश्चयोपकरणभैषजादिकं दीयमानं निवारयति, तेन चैतद् विदधता मोक्षमार्गः सर्वोऽपि विनितो भवति, अपरेषामपि सत्त्वानां दानलाभभोगपरिभोगविनं करोति, मन्त्रादिप्रयोगेण च परस्य वीर्यमपहरति, हठाच्च बधबन्धनिरोधादिभिः परं निश्चेष्टं करोति, छेदन भेदनादिभिश्व परस्येन्द्रियश १ आश्रवाः शुभनाम्नोऽथ तीर्थकृत्नान भाश्रवाः ॥ इति योगशास्त्रे ॥ २ "ज्ञानचा ख० ० ६० ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः । क्तिमुपहन्ति । स किम् ! इत्याह-'जयति' धातूनामनेकार्थत्वाद् अर्जयति 'विघ्नं' पञ्चप्रकारमप्यन्तरायकर्म । इति' पूर्वोक्तप्रकारेण 'कर्मविपाकः' कर्मविपाकनामकं शास्त्रम् 'अयं' सम्प्रत्येव निगदितखरूपः 'लिखितः' अक्षरविन्यासीकृतः देवेन्द्रसूरिभिः करालकलिकालपातालतलावमज्जद्विशुद्धधर्मधुरोद्धरणधुरीणश्रीमजगचन्द्रमरिचरणसरसीरुहचञ्चरीकैरिति ।। ६० ।। ॥ इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचिता खोपज्ञकर्मविपाकटीका समाप्ता ॥ [अन्धकारप्रशस्तिः] विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् । कर्ममलपटलजलदः, स श्रीवीरो जिनो जयतु ॥ १ ॥ कुन्दोज्ज्वलकीर्तिमरैः, सुरभीकृतसकलविष्टपाभोगः । शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु ॥ २ ॥ तदनु सुधर्मखामी, जम्बूप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः । श्रुतजलनिधिपारीणा, भूयांसः श्रेयसे सन्तु ॥ ३ ॥ ततः प्राप्ततपाचायेंत्यभिख्या भिक्षुनायकाः । समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगच्चन्द्रसूरयः ॥४॥ जगजनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् । विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः ।। ५॥ खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रररिणा । टीका कर्मविपाकस्य, सुबोधेयं विनिर्ममे ॥ ६ ॥ विबुधवरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसूरिमुख्यबुधैः । खपरसमयैककुशलैस्तदैव संशोधिता चेयम् ॥ ७ ॥ यद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे । विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् ॥ ८॥ कर्मविपाके विवृति, वितन्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । कर्मविपाकविमुक्तः, समस्तु सर्वोऽपि तेन जनः ॥ ९॥ ग्रन्थाग्रेम्-१८८२ ॥ समाप्तोऽयं सटीकः कर्मविपाकः। १०भरः ख० उ०॥ २°ग्रम्-१७८२ क० घ०॥ क०९ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। अहम् ॥ पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः। ॥ नमः श्रीप्रवचनाय ॥ बन्धोदयोदीरणसत्पदस्थं, निःशेषकर्मारिवलं निहत्य । यः सिद्धिसाम्राज्यमलञ्चकार, श्रिये स वः श्रीजिनवीरनाथः ।। नत्वा गुरुपदकमलं, गुरूपदेशाद्यथाश्रुतं किञ्चित् । कर्मस्तवस्य विवृति, विदधे स्वपरोपकाराय ॥ तत्राऽऽदावेव मङ्गलार्थमभीष्टदेवतास्तुतिमाह तह थुणिमो वीरजिणं, जह गुणठाणेसु सयलकम्माई। बंधुदओदीरणयासत्तापत्ताणि खवियाणि ॥१॥ 'तथा' तेन प्रकारेण 'स्तुमः' असाधारणसद्भूतसकलकर्मनिर्मूलक्षपणलक्षणगुणोत्कीर्तनेन स्तवनगोचरीकुर्मः, कम् ? 'वीरजिन' तत्र विशेषेण-अपुनर्भावेन ईते-'ईरिक गतिकम्पनयोः' इति वचनाद याति शिवं, कम्पयति-आस्फोटयति अपनयति कर्म वेति वीरः, यदि वा 'शूर वीरणि विक्रान्तौ' वीरयति स्म-कषायोपसर्गपरीपहादिशत्रुगणमभिभवति स्म वीरः, उभयत्र लिहादित्वाद् अच् , यद्वा ईरणमीरः, "भावाकों" (सि० ५--३-१८) इति घञ्, ततश्च विशिष्ट ईरः-गमनं 'सर्वे गत्यर्थी ज्ञानार्थाः' इति वचनाद् ज्ञानं यस्य स वीर इति, अनेन व्युत्पत्तित्रयेण भगवतश्चरमजिनेश्वरस्य स्वार्थसम्पदमाह । अथवा विशिष्टा-सकलभुवनाद्भुता यका स्वर्गापवर्गादिका ई:-लक्ष्मीस्तां राति-भव्येभ्यः प्रयच्छति 'राक् दाने' इति वचनाद् वीरः, "आतो डोऽहावामः” (सि० ५-१-७६) इति डप्रत्ययः, राति च भगवान् सुरासु- . रनरोरगतिर्यसाधारण्या वाण्या निःश्रेयसाभ्युदयसाधनोपायोपदेशेन भव्यानां भुवनाद्भुतां श्रियम् , तथा चोक्तम् अरहंता भगवंतो, अहियं च हियं च न वि इहं किंचि । वारंति कारवंति य, घेत्तृण जणं बला हत्थे ।। (उप० मा० गा० ४४८) उवएस पुण तं देति जेण चरिएण कितिनिलयाणं । देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुयमित्ताणं? ॥ (उप० मा० ४४९) इति । इत्यनया व्युत्पत्त्या च प्रसिद्धसिद्धार्थपार्थिवविपुलकुलविमलनभस्तलनिशीथिनीनाथस्य जिन१ अर्हन्तो भगवन्तोऽहितं च हितं च नापि इह किञ्चित् । वारयन्ति कारयन्ति च गृहीखा जनं बलाद् हस्ते ॥ उपदेशं पुनस्सं ददति येन चरितेन कीर्ति निलयानाम् । देवानामपि भवन्ति प्रभवः किमङ्ग पुनर्मनुजमात्राणाम् ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-२] कर्मवाद्वितीयः कर्मग्रन्थः । ६७ नाथस्य परार्थसम्पदमाह । वीरश्वासौ जिनश्च कषायादिप्रत्यर्थिसार्थजयाद् वीरजिनस्तं वीरजिनम् । 'यथा' येन प्रकारेण अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीससयं । तित्थयराहारगदुगवज्जं मिच्छम्मि सतरसयं ॥ ( गा० ३ ) इत्यादिवक्ष्यमाणेषु 'गुणस्थानेषु' परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पेषु व्याख्यास्यमानखरूपेषु मिथ्यादृष्ट्यादिषु सकलानि - समस्तानि मतिज्ञानावरणप्रभृत्युत्तरप्रकृतिकदम्बकसहितानि कर्माणि - ज्ञानावरणीयादिमूलप्रकृतिरूपाण्यष्टौ कर्माणि च स्वोपज्ञकर्मविपाके विस्तरेण व्याख्यातानि । कथम्भूतानि ? " बंधुदओदीरणयासत्तापत्ताणि” त्ति । तत्र मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिरञ्जनचूर्णपूर्ण समुद्गकवद् निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनः क्षीरनीरवद् वह्नययः पिण्डवद्वाऽन्योऽन्यानुगमा मेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः १, तेषां च यथाखस्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानामपवर्तनादिकरण विशेषकृते खाभाविके वा स्थित्यपचये सति उदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः २, तेषामेव कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानां जीवसामर्थ्यविशेषादू उदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा ३, तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्धसङ्गमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्जरणसङ्क्रमणकृतस्वरूप पच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता ४, बन्धश्ध उदयश्च उदीरणा च सत्ता च बन्धोदयोदीरणासत्तास्ताः प्राप्तानि - गतानि । सूत्रे च “उदीरणया" इत्यत्र कप्रत्ययः स्वार्थिकः, 'क्षपितानि' निर्मूलोच्छेदेनाभावत्वमापादितानीति ॥ १ ॥ गुणस्थानेषु कर्माणि क्षपितानीत्युक्तम् । ततो गुणस्थानान्येव तावत् खरूपतो निर्दिशति - मिच्छे १ सासण २ मीसे ३, अविर ४ देसे ५ पमत्त ६ अपमत्ते ७। नियहि ८ अनियहि ९ सुहमु १० वसम ११ वीण १२ सजोगि १३ अजोगि १४ गुणा ॥ २ ॥ "गुण" चि गुणस्थानानि ततः "सूचनात् सूत्रम्" इति न्यायात् पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद् वा इहैवं गुणस्थानक निर्देशो द्रष्टव्यः । तद्यथा - मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं ९ साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं २ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् ३ अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थानं ४ देशविर - तिगुणस्थानं ५ प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् ६ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् ७ अपूर्वकरण गुणस्थानम् ८ अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानं ९ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् १० उपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं ११ क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं १२ सयोगिकेवलिगुणस्थानम् १३ अयोगिकेवलिगुणस्थानम् १४ इति । तत्र गुणाः - ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानम् - पुनरत्र तेषां शुद्ध्यविशुप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा, गुणानां स्थानं गुणस्थानम्, मिथ्या - विपर्यस्ता दृष्टि:- अर्हत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहृत्पूरपुरुषस्य सिते पीत प्रतिपत्तिवत् स मिथ्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं - ज्ञानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्ध्यपकर्ष - कृतः स्वरूपविशेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाथा ननु यदि मिथ्यादृष्टिः ततः कथं तस्य गुणस्थानसम्भवः ? गुणा हि ज्ञानादिरूपाः, तत् कथं ते दृष्टौ विपर्यस्तायां भवेयुः ? इति, उच्यते---इह यद्यपि सर्वथाऽतिप्रबलमिथ्यात्वमोहनीयोदयाद् अर्हत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति तथापि काचिद् मनुष्यपश्वादिपतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ताऽपि भवति, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गात् । यदागमः-- संबजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निन्चुग्याडिओ चिट्ठइ, जइ पुण सो वि आवरिजिज्जा ता णं जीवो अजीवत्तणं पाविज्जा । ( नन्दीपत्र १९५-२) इति । तथाहि-समुन्नताऽतिबहलजीमूतपटलेन दिनकररजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि नैकान्तेन तत्प्रभानाशः सम्पद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाऽभावग्रसङ्गात् । उक्तं च सुटु वि मेहसमुदए, होइ पहा चंदसूराणं । ( नन्दीपत्र ०१९५-२) इति । एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्ताऽपि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि । गुणस्थानसम्भवः । यद्येवं ततः कथमसौ मिथ्यादृष्टिरेव ? मनुष्यपश्चादिप्रतिपत्त्यपेक्षया अन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्त्य पेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि, नैष दोषः, यतो भगवदर्हत्प्रणीतं सकलमपि द्वादशाङ्गार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गदितमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् । तदुक्तम्----- पैयमक्खर पि इक्कं, पि जो न रोएड सुत्तनिधिहूँ। सेसं रोयंतो वि हु, मिच्छट्टिी जमालि व ॥ (बृहत्सं० गा० १६७) इति । किं पुनर्भगवदर्हदभिहितसकलजीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्ति विकलः ? इति १ । ___ आयम्-औपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणं सादयति-अपनयतीत्यायसादनम् , अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् । अत्र पृषोदरादित्वाद् यशब्दलोपः, कृढ़हुलमिति कर्तर्यनट् , सति ह्यस्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखफलदो निःश्रेयसतरुबीजभूत औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्पतः षड्भिरावलिकाभिरपगच्छतीति । ततः सह आसादनेन वर्तत इति सासादनः, सम्यग्-अविपर्यस्ता दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः, तत्र सह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति साखादनः । यथा हि भुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमाखादयति, तथैषोऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमंस्तद्रसमाखादयति । ततः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च तस्य गुणस्थानं साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । एतश्चैवं भवति-इह गम्मीरापारसंसारसागरमध्यमध्यासीनो जन्तुर्मिथ्यात्वप्रत्ययमनन्तान् पुद्गलपरावर्ताननन्तदुःख १ सर्वजीवानामपि च अक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घोटितस्तिष्ठति, यदि पुनः सोऽपि आश्रियेत ततो जीवो. ऽजीवत्वं प्राप्नुयात् ॥ २ सुष्वपि मेघसमुदये भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः ॥ ३ पदमक्षरमप्येकमपि यो न: । रोचयति सूत्रनिर्दिष्टम् । शेषं रोचयमानोऽपि हि मिथ्याष्टिजमालिरिव। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] कर्मaaroat द्वितीयः कर्मग्रन्थः । ६९ लक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनाऽनामो गनिर्वर्तितयथाप्रवृत्तकरणेन “करणं परिणामोऽत्र" इति वचनाद् अध्यवसायविशेषरूपेणाऽऽयुर्वजनि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासत्येयभागन्यूनैकसागरोपम कोटाकोटीस्थितिकानि करोति । अत्र चान्तरे जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः कर्कशनिबिडचिरप्ररूढगुपिलग्रन्थिवद् दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो ग्रन्थिर्भवति । तदुक्तम् — ती वि थोवमित्ते, खविए इत्थंतरम्मि जीवस्स । हव हु अभिन्नपुत्रो, गंठी एवं जिणा बिंति ॥ ( धर्मसं० गा० ७५२, श्राव० प्र० गा० ३२ ) गठित सुदुभेओ, कक्खडघणरूढ गूढगंठि छ । जीवस्स कम्मजणिओ, घणरागद्दोसपरिणामो ॥ ( विशेषा० गा० १९९५ ) इति । इमं च ग्रन्थि यावदभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति । उक्तं चाssवश्यक टीकायाम् - अभव्यस्यापि कस्यचिद् यथाप्रवृत्तिकरणतो ग्रन्थिमासाद्याऽर्हदादिविभूतिदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति न शेषलाभ इति । एतदनन्तरं कश्चिदेव महात्माऽऽसन्नपरमनिवृतिः समुल्लसितमचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरो निशित कुठारधारयेव परम विशुद्ध्या यथोक्तस्वरूपस्य प्रथेर्भेदं विषाय मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणाद् उपर्यतिक्रम्याऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणलक्षणविशुद्धिजनितसामध्योद् कर्मुहूर्तकाप्रमाणं तत्प्रदेश वेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति । अत्र यथाप्रवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणाs निवृत्तिकरणानामयं क्रमः - जो गंठी ता पढमं गठि समइच्छओ भवे बीयं । अनिट्टीकरणं पुण, सम्मतपुरक्खडे जीवे ॥ ( विशे० आ० गा० १२०३ ) "गंटिं समइच्छओ" त्ति ग्रन्थि समतिक्रामतः- भिन्दानस्येति, “सम्मत्तपुरक्खड " त्ति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिन् आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः । एतस्मिंश्चान्तरकरणे कृते सति तस्य मिथ्यात्वकर्मणः स्थितिद्वयं भवति । अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तर्मुहूर्त प्रमाणा, तस्मादेवान्तरकरणाद् उपरितनी शेषा द्वितीया । स्थापना । तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिक वेदनादसौ मिध्यादृष्टिरेव अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवोपशमिकसम्यक्त्वमाप्नोति, मिथ्यात्वदलिक वेदनाऽभावात् । यथा हि वनदावानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति, तथा मिथ्यात्ववेदनवनदवोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति । तथा च सति तस्योपशमिकसम्यक्त्वलाभः । उक्तं च १ तस्या अपि स्तोकमात्रे क्षपित अत्रान्तरे जीवस्य । भवति हि अभिन्नपूर्वो ग्रन्थिरेवं जिना ब्रुवन्ति ॥ ग्रन्थिरिति सुदुर्भेदः कर्कशघनरूढ गूढप्रन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः ॥ २ त क० ग० ॥ ३ यावद् प्रन्थिः तावत् प्रथमं प्रन्थि समतिकामतो भवेद्वितीयम् । अनिवृत्तिकरणं पुनः सम्यपुरस्कृते जीवे ॥ ४ अपुव्वं तु विशेषावश्यकभाष्ये । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ऊसरदेस दविलयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छम्स अणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो ॥ (विशेषा० गा० २७३४) तस्यां चान्तमौहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्यतः समयशेषायामुत्कृष्टतः षडावलिकाशेषायां सत्यां कस्यचिन्महाबिभीषिकोत्थानकल्पोऽनन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदुदये चासौ सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित् सासादनत्वं याति, तदुत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यादृष्टिर्भवतीति २ । तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेन औषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति । तद्यथा---शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्धं चेति । स्थापना AA। तत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयाद् जीवस्यार्धविशुद्धं जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्त कालं स्पृशति, तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति ३ । तथा विरतिर्विरतं क्लीबे क्तप्रत्ययः, तत्पुनः सावद्ययोगप्रत्याख्यानं तद् न जानाति नाभ्युपगच्छति न तत्पालनाय यतत इति त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः । स्थापना - न ना न तत्र प्रथमेषु चतुर्यु भङ्गेषु मिथ्यापिरजानत्वात् , शेषेषु सम्यग्दृष्टिानित्वात् , न ना पा सप्तसु भङ्गेषु नास्य विस्तमस्तीत्यविरतः, “अनादिभ्यः" (सि०७-२-४६) न 5 न इति अप्रत्ययः, चरमभङ्गे तु विरतिरस्तीति । यद्वा विरमति स्म-सावद्ययोगेभ्यो नई निवर्तते स्मेति विरतः, “गत्यर्थाऽकर्मकपिबभुजेः” (सि०५-१-११) इति क-जाना पा तरि क्तप्रत्यये विरतः, न विरतोऽविरतः, स चासौ सम्यग्दृष्टिश्चाविरतसम्य- जा ऽ न ग्दृष्टिः । इदमुक्तं भवति-यः पूर्ववर्णितोपशमिकसम्यग्दृष्टिः शुद्धदर्शनमोहपुञ्जो- जापा दयवर्ती क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि क्षीणदर्शनसप्तकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिा परममुनिप्रणीतां सावद्ययोगविरति सिद्धिसौधाध्यारोहणनिःश्रेणिकल्पां जानन् अप्रत्याख्यानकषायोदयविनितत्वात् नाभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते, तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । उक्तं च 'बंध अविरहहेउं, जाणतो रागदोसदुक्खं च । विरइसुहं इच्छंतो, विरई काउं च असमत्थो । एस असंजयसम्मो, निंदतो पावकम्मकरणं च । अहिगयजीवाजीवो, अचलियदिट्टी चैलियमोहो । तथा सर्वसावद्ययोगस्य देशे-एकव्रतविषये स्थूलसावद्ययोगादौ सर्वत्रतविषयानुमतिवर्ज. १ ऊपरदेशं दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य । इति मिथ्यावस्यानुदये उपशमसम्यक्त्वं लभते जीवः । २ बन्धमविरतिहेतुं जानानो रागद्वेषदुःखं च । विरतिसुखमिच्छन् विरतिं कर्तुं चासमर्थः ॥ एषोऽसंयतसम्बदृष्टिः निन्दन पापकर्मकरणं च । अधिगतजीवाजीवोऽचलितदृष्टिश्चलितमोहः॥ ३ छलियमोहो क० ख० घ०॥ ४ अयस्थूल°क० घ०॥ ४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] कर्मस्वरूयो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । ७१ सावद्ययोगान्ते विरतं विरतिर्यस्यासौ देशविरतः । सर्वसावद्यविरतिः पुनरस्य नास्ति, प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात्, सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । उक्तं चसंम्म सणसहिओ, गिव्हंतो विरइमप्पसत्तीए । rasutraरमो अणुमइमित्त त्ति देसजई || देशविरतस्य गुणस्थानं देशविरत गुणस्थानम् ५ । तथा संयच्छति स्म-सम्यग् उपरमति स्म संयतः, “ गत्यर्थकर्म ०" (५-१-११ ) इति क्तः, प्रमाद्यति स्म-संयमयोगेषु सीदति स्म, प्राग्वत् कर्तरि क्तः प्रमत्तः, यद्वा प्रमदनं प्रमत्तंप्रमादः, स च मदिराविषयकपाय निद्राविकथानामन्यतमः सर्वे वा । प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तःप्रमादवान् "अम्रादिभ्यः " ( सि० ७-२-४६ ) इति अप्रत्ययः, प्रमत्तश्चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः, तस्य गुणस्थानं प्रमत्तसंयतगुणस्थानम्, विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः । तथाहि —— देश विरतिगुणापेक्षया एतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽविशुद्ध्यपकर्षश्च, अप्रमत्तसंयतापेक्षया तु विपर्ययः । एवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु पूर्वोत्तरापेक्षया विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षाऽपकर्पयोजना द्रष्टव्या ६ । न प्रमत्तोऽप्रमत्तः । यद्वा नास्ति प्रमत्तमस्यासावप्रमत्तः, स चासौ संयतश्च तस्य गुणस्थानम् अप्रमत्तसंयत गुणस्थानम् ७ । अपूर्वम्-अभिनवं प्रथममित्यर्थः करणं-स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्क्रमस्थितिबन्धानां पञ्चानामर्थानां निर्वर्तनं यस्यासावपूर्वकरणः । तथाहि-- बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणीयादिकर्म - स्थितेरपवर्तन करणेन खण्डनम् - अल्पीकरणं स्थितिघात उच्यते । रसस्यापि प्रचुरीभूतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डनम् - अल्पीकरणं रसघात उच्यते । एतौ द्वावपि पूर्वगुणस्थानेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव कृतवान्, अत्र पुनर्विशुद्धेः प्रकृष्टत्वाद् बृहत्प्रमाणतया अपूर्वाविमौ करोति । तथा उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तन करणेनाऽवतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणमुदयक्षणादुपरि क्षिपतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसयेयगुणवृद्ध्या विरचनं गुणश्रेणिः । स्थापना । एतां च पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धत्वात् कालतो द्राघीयसीं दलिकरचनामाश्रित्याऽप्रश्रीर्यसीमल्पदलिकस्यापवर्तनाद् विरचितवान् इह तु तामेव विशुद्धत्वादपूर्वं कालतो ह्रस्वतरां दलिकरचनामाश्रित्य पुनः पृथुतरां बहुतरदलिकस्यापवर्तनाद् विरचयतीति । तथा बध्यमानशुभप्रकृतिष्वबध्यमानाशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसत्येयगुणवृद्ध्या विशुद्धिवशाद् नयनं गुणसङ्क्रमः, तमप्यसाविहापूर्वं करोति । तथा स्थितिं कर्मणामशुद्धत्वात् प्राग् द्राघीयसीं बद्धवान्, te तु तामपूर्वी विशुद्धत्वादेव हसीयसीं बनातीति [ स्थितिबन्धः ] । अयं चापूर्वकरणो द्विधा -- क्षपक उपशमकश्च क्षपणोपशमनार्हत्वात् चैवमुच्यते, राज्यार्ह - कुमारराजवत्, न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा, तस्य गुणस्थानम् अपूर्वकरणगुणस्थानम् । एतच्च गुणस्थानं प्रपन्नानां कालत्रयवर्तिनो नानाजीवानपेक्ष्य सामान्यतोऽसङ्ख्य लोकाकाश१ सम्यग्दर्शनसहितः गृह्णन् विरतिमात्मशक्त्या । एकत्रतादिचरिमः अनुमतिमात्रं इति देशयतिः ॥ २ °यसी दलिकस्यापस्याप' ख० ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः (गाथा प्रदेशप्रमाणान्मध्यवसायस्थानानि भवन्ति । कथं पुनस्तानि भवन्ति ! इति विनेयजनानुग्रहार्थ विशेषतोऽपि प्ररूप्यन्ते-इह तावदिदं गुणस्थानकमन्तर्मुहूर्तकालपमाणं भवति । तत्र च प्रथमसमयेऽपि ये प्रपन्नाः प्रपद्यन्ते प्रपत्स्यन्ते च तदपेक्षया जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, प्रतिपत्तृणां बहुत्वादध्यवसायानां च विचित्रत्वादिति भावनीयम् । ननु यदि कालत्रयापेक्षा क्रियते तदैतद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानामनन्तान्यध्यवसायस्थानानि कस्माद् न भवन्ति ? अनन्तजीवरस्य प्रतिपन्नत्वाद् अनन्तैरेव च प्रतिपत्स्यमानत्वादिति, सत्यम् , स्यादेवं यदि तत्पतिपत्तृणां सर्वेषां पृथक् पृथग्मिन्नान्येवाध्यवसायस्थानानि स्युः, तच्च नास्ति, बहूनामेकाध्यवसायस्थानवर्तित्वादपीति । ततो द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि, चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं तावन्नेयं यावत् चरमसमयः । एतानि च स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमभिव्यामुवन्ति । तद्यथा|४....... अत्र प्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात् प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्त३०००००० गुणविशुद्धम् , तस्माच्च द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि द्विती२००००० यसमयजघन्यात् तदुत्कृष्टमनन्तगण विशद्धम, तस्माच्च ततीयसमयजघन्यमन१०००० न्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमित्येवं तावन्नेयं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टात् चरमसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति । एकसमयगतानि चामून्यध्यवसायस्थानानि परस्परमनन्तभागवृद्ध्यसङ्ख्यातभागवृद्धिसङ्ख्यातभागवृद्धिसङ्ख्येयगुणवृद्ध्यसङ्खयेयगुणवृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरूपपट्स्थानकपतितानि । युगप देतद्रुषस्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्तीति निवृतिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते, अत एवोक्तं सूत्रे “नियहि अनियट्टी" इत्यादि ८ । तथा युगपदेतद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिः-निवृत्तिर्नास्त्यस्येति अनिवृत्तिः समकालमेतद्गुणस्थानकमारूढस्यापरस्य यदध्यवसायस्थानं विवक्षितोऽन्योऽपि कश्चित्तद्वत्येवेत्यर्थः । सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः-कपायो. दयः, बादरः-सूक्ष्मकिट्टीकृतसम्परायापेक्षया स्थूरः सम्परायो यस्य स बादरसम्परायः, अनिवृत्तिश्चासौ बादरसम्परायश्च अनिवृत्तिबादरसम्परायः, तस्य गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानम् । इदमप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणमेव । तत्र चान्तर्भुहूर्ते यावन्तः समयास्तत्पविष्टानां तावन्येवाध्यवसायस्थानानि भवन्ति, एकसमयप्रविष्टानामेकस्यैवाध्यवसायस्थानस्यानुवर्तनादिति । स्थापना प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यवसायस्थानं भवतीति वेदि। तव्यम् । स चानिवृत्तिबादरो द्विधा-क्षपक उपशमकश्च ९।। तथा सूक्ष्मः सम्परायः किट्टीकृतलोभकषायोदयरूपो यस्य सोऽयं सूक्ष्मसम्परायः । सोऽपि द्विधा-क्षपक उपशमको वा, क्षपयति उपशमयति वा लोभमेकमिति कृत्वा, तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् १०। १ स्थानिखानविवत्तिलाक० घ०॥ २ ततोऽपि तदुत्कृ'क० ख० ग० घ०॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] कर्मस्तवाल्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । तथा छाते केवलज्ञानं केवलदर्शनं चात्मनोऽनेनेति च्छद्म-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मोदयः । सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात्, तदपगमानन्तरं चोत्पादात् । छद्मनि तिष्ठतीति च्छद्मस्थः । स च सरागोऽपि भवति इत्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थं वीतरागग्रहणम् । वीत:-- विगतो रागः -- माया लोभकषायोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासौ छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः । स च क्षीणकषायोऽपि भवति, तस्यापि यथोक्तरागापगमाद् अतस्तद्व्यवच्छेदार्थम् उपशान्तकषायग्रहणम् । “कष शिष" इत्यादिदण्डकघातुर्हिसार्थः, कषन्ति कष्यन्ते च परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः – संसारः, कषमयन्ते - गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः - क्रोधादयः, उपशान्ताः – उपशमिता विद्यमाना एव सङ्क्रमणोद्वर्तनादिकरणोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येन स उपशान्तकषायः, स चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्चेति उपशान्तकषायवीतरागच्छअस्थः, तस्य गुणस्थानमिति प्राग्वत् । तत्राविरतसम्यग्दृष्टेः प्रभृत्यनन्तानुबन्धिनः कषाया उपशान्ताः सम्भवन्ति । उपशमश्रेण्यारम्भे ह्यनन्तानुबन्धिकषायान् अविरतो देश विरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा सन् उपशमय्य दर्शनमोहत्रितयमुपशमयति । तदुपशमानन्तरं प्रमचाऽप्रमत्तगुणस्थानपरिवृत्तिशतानि कृत्वा ततोऽपूर्वकरणगुणस्थानोत्तरकालमनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थाने चारित्रमोहनीयस्य प्रथमं नपुंसकवेदमुपशमयति, ततः स्त्रीवेदम्, ततो हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सारूपं युगपत् षट्कम्, ततः पुरुषवेदम्, ततो युगपद् अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणौ क्रोधौ, ततः संज्वलनक्रोधम्, ततो युगपद् द्वितीयतृतीयो मानौ, ततः संज्वलनमानम्, ततो युगपद् द्वितीयतृतीये माये, ततः संज्वलनमायाम्, ततो युगपद् द्वितीयतृतीयौ लोभो, ततः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने संज्वलनलोभमुपशमयति इत्युपशमश्रेणिः । स्थापना चेयम् । विस्तरतस्तूपशेमश्रेणिः स्वोपज्ञशतकटीकायां व्याख्याता ततः परिभावनीया । तदेवमन्येष्वपि गुणस्थानकेषु कापि कियतामपि कषायाणामुपशान्तत्वसम्भवाद् उपशान्तकषायव्यपदेशः सम्भवति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थं वीतरागग्रहणम् । उपशान्तकषायवीतराग इत्येतावताऽपीष्टसिद्धौ छद्मस्थग्रहणं खरूपकथनार्थ, व्यवच्छेद्याभावात् ; न बच्छमस्थ उपशान्तकषायवीतरागः सम्भवति यस्य च्छद्मस्थग्रहणेन व्यवच्छेदः स्यादिति । अस्मिंश्च गुणस्थानेऽष्टाविंशतिरपि मोहनीयप्रकृतय उपशान्ता ज्ञातव्याः । उपशान्तकषायश्च जघन्येनैकं समयं भवति, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त कालं यावत्, तत ऊर्ध्व नियमादसौ प्रतिपतति । प्रतिपातश्च द्वेषा-भवक्षयेणाऽद्धाक्षयेण च । तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य, अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाप्तायाम् । अद्धाक्षयेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति, यत्र यत्र बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नास्तत्र तत्र प्रतिपतता सता ते आरभ्यन्त इति 1 क० १० हास्य | सं.लो. अ. लो. प्र. लो. सं.मा. अ.मा. प्र.मा. सं.मा. अ. मा. प्र.मा. सं. फो. अ.क्रो. प्र. क्रो. g. वे. रवि | अरति शोक | भय खीवे. न. वे. मि.मो. मि. मो. स. मो. अ. क्रो. अ.मा. अ.मा. अ.लो. जुगु. ७३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा यावत् । प्रतिषतंश्च तावत् प्रतिपतति यावत् प्रमत्तगुणस्थानम् । कश्चित्तु ततोऽप्यवस्तनं गुणद्विकं याति कोऽपि सासादनभावमपि । यः पुनर्मचक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनि करणानि प्रवर्तयतीति विशेषः । उत्कर्षतः बैंकस्मिन् भवे द्वौ बारावुपशमश्रेण प्रतिपद्यते । यश्च द्वौ बारावुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य नियमात् तस्मिन् मचे क्षापकश्रेण्यभावः । यः पुनरेकं वारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपीति । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णौ जो दुबे वारे उक्समसेडिं पडिबज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि, जो tafi उबसमसेढी पडिवज्जइ तस्स खबगसेढी चि हुज्ज चि ॥ er कार्मग्रन्थकाभिप्रायः । आगमाभिप्रायेण त्वेकस्मिन् भत्र एकामेव श्रेणि प्रतिपद्यते, चदुक्तं कल्वमाप्ये एवं अपरिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मे । अनयरसेढिवज्जं, एगभवेणं च सजाई ॥ ( गा० १०७ ) सर्वाणि देशविस्त्यादीनि । अन्यत्राप्युक्तम् मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततम् । यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न || इति । ११ । 'तथा क्षीणाः - अभावमापन्नः कषाया यस्य स क्षीणकषायः । तत्रानन्तानुबन्धिकषायान् प्रथममविरतसम्यग्दृष्ट्या द्यप्रमत्तन्तेषु गुणस्थानेषु क्षपयितुमारभते, ततो मिध्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वम्, ततोऽप्रत्याख्यानावरणान् प्रत्याख्यानावरणान् कषायानष्टौ क्षपयितुमारभते, तेषु चार्धक्षपितेष्वेवातिविशुद्धिवशादन्तराल एवं स्त्यानर्द्धित्रिकं नरकद्विकं तिर्यद्विकम् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातयः आतफ्म् उद्योतं स्थावरं सूक्ष्मं साधारणमिति प्रकृतिषोडशकं क्षपयति । तस्मिंश्व क्षीणे कषायाष्टकस्य क्षपितशेषं क्षपयति । ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं हास्या - दिषट्कं पुंवेदं संज्वलनं क्रोषं मानं मायां क्षपयति, एताश्च प्रकृतीरनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थाने धापयति, संज्वलन लोमं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान इति क्षपकश्रेणिः । स्थापना चेर्यम् । विरतस्तु क्षपकश्रेणिस्वरूयं खोपशशतकटीकायां निरूपितं तत एव परिभावनीयम् । तदेवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु क्षीणकषायव्यपदेशः सम्भवति, कापि कियत्तामपि कषायाणां क्षीणस्वात्, अतस्तव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् । क्षीणकषाय वीतरागस्वं च केवलिनोऽप्यस्ति इति तावच्छेदार्थ उद्यस्थग्रहणम् । छद्मस्थग्रहणे च कृते सरामन्यवच्छेदार्थे वीतरामग्रहणम् । रानवासी छद्मश्च वीतरागच्छद्मस्थः । स चोपशान्तकषायोऽप्यस्ति इति तद्व्यवच्छेदार्थ क्षीणकवायग्रहणम् । क्षीणकषायश्चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्च क्षीणकायवीतरागच्छद्मस्थः, तस्य गुणस्थानं क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्वगुणस्थानम् १२ इति । १ यो द्वौ वारौ उपशमश्रेण प्रतिपद्यते तस्य नियमात्तस्मिन् भवे क्षपकश्रेणिर्नास्ति, य एकवारं उपशमश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिरपि भवेदिति ॥ २ एवम प्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु । अन्यतरविस् एमवेन च सर्वाणि ३ ततः क० ० ० ० ० ॥ ४ णाः क्षयमा ० ॥ ५० ० ० # Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमतवाल्यो वित्तीयः कन्या से.मा. सं.मा. सं.को. । हास्य रति | अरति शोक | भय जुगुप्सा स्त्री.वे. न. वे. अ. को. प्र. को. अ. मा. | प्र. मा. | अ. मा. प्र. मा. अ. लो. प्र. लो.. स.मो. मि.मो. मि.मो. अ.को. अ.मा.अ.मा. आ.लो. तथा योगो वीर्य शक्तिः उत्साहः पराक्रम इति पर्यायाः, स च मनोवाकायलक्षणकरणभेदात् तिस्रः संज्ञा लभते, मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति । तथा चोक्तं कर्मप्रकृती परिणामालंबणगणकारणं तेण लद्धनामतिगं। कजब्भासान्नुन्नप्पवेसविसमीकयपएस ॥ (गा० ४ ) तत्र भगवतो मनोयोगो मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात् , ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनाऽवधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्ट्या च ते विवक्षितवस्त्वाकारान्यथानुपपत्त्या लोकस्वरूपादिबाह्यमर्थमवगच्छन्तीति । वाग्योयो धर्मदेशनादौ । काययोगो निमेषोन्मेषचमणादौ । ततोऽनेन योगत्रयेण सह वर्तत इति सयोगी "सर्वादेरिन्" (सि०७-२-५९) इतीन् प्रत्ययः । केवलं-केवलज्ञानं केवलदर्शनं च विद्यते यस्य स केवली, सयोगी चासौ केवली च सयोगिकेवली, तस्य गुणसानं सयोगिकेचलिगुणस्थानम् १३। तथा न विद्यन्ते योगाः पूर्वोक्ता यस्यासावयोगी । कथमयोगित्वमसावुपगच्छति ! इति चेद् उच्यते-स भगवान् सयोगिकेवली जघन्यतोऽन्तर्मइर्तम् उत्कृष्टतो देशोनां पूर्चकोटी विहृत्य कश्चित् कर्मणां समीकरणार्थ समुद्धातं करोति, यस्य · वेदनीयादिकमायुषः सकाशादधिकतरं भवति, अन्यस्तु न करोति । यदाहुः श्रीआर्यश्यामपादा: सचे वि णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छति ! गोयमा ! नो हगढे समढे । १णत्रयमें ख०॥ २ परिणामालम्बनप्रहणकारणं तेन लन्धनामत्रिकम् । कार्याभ्यासान्योऽन्यप्रवेशविषमीकृतप्रदेशम् ॥ ३ सर्वेऽपि खलु भन्दत । केवलिनः समुद्धातं गच्छन्ति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । यस आयुषा तुल्यानि बन्धनैः स्थितिभिश्च । भवोपप्राहिकर्माणि न समुद्रातं स गच्छति ॥ अगला समुद्रातम् भनन्ताः केवलिनो जिनाः । जरामरणविप्रमुकाः सिद्धिं वरगतिं गताः ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः । [माया जस्साउएण तुल्लाई, बंधणेहि ठिईहि य । भवोवग्गाहिकम्माई, न समुग्घायं स गच्छह ॥ अगंतूणं समुग्धायं, अणंता केवली जिणा । जरमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥ (प्रज्ञा० पत्र ६०१-१) अत्र "बंधणेहिं"ति बध्यन्त इति बन्धनानि "भुजिपत्यादिभ्यः कर्मोपादाने" (सि०५३-१२८) इति कर्मण्यनट् , कर्मपरमाणवस्तैः, शेषं सुगमम् । गत्वा वाऽगत्वा वा समुद्धा. तम् । समुद्धातखरूपं च खोपज्ञपडशीतिकटीकायां विस्तरतः प्ररूपितं तत एवावधारणी. यम् । भवोपग्राहिकर्मक्षपणाय लेश्यातीतमत्यन्ताप्रकम्प परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुर्योगनिरोधार्थमुपक्रमते । तत्र पूर्व बादरकाययोगेन बादरमनोयोगं निरुणद्धि, ततो वाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् ; तेनैव सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मवाग्योगं च सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् खावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात्। तध्यानसामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन सङ्कुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति । तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपत्त्या हवपञ्चाक्षरोगिरणमात्रं कालं शैलेशीकरणं प्रविशति । तत्र शैलेशः-मेरुः तस्येयं स्थिरता-साम्यावस्था शैलेशी, यद्वा सर्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी, तस्यां करणं-पूर्वविरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्याऽघातिकर्मत्रितयस्याऽ. सङ्ख्येयगुणया श्रेण्या आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् । तच्चासौ प्रविष्टोऽयोगी स चासौ केवली च अयोगिकेवली । अयं च शैलेशीकरणचरमसमयानन्तरमुच्छि. नचतुर्विधकर्मबन्धनत्वाद् अष्टमृत्तिकालेपलिप्ताऽधोनिममक्रमाऽपनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधाऽलाबुवद ऊर्ध्व लोकान्ते गच्छति, न परतोऽपि, मत्स्यस्य जलकल्पगत्युपष्टम्भिधर्मास्तिकायाऽभावात् । स चोर्ध्व गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्खाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाञ्च समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति । तदुक्तमावश्यकचूर्णी जैत्तिए जीवो अवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उर्दु उज्जुगं गच्छइ न वंकं, बीयं च समयं न फुसइ ॥ (पूर्वार्द्ध पत्र ५८२) इति ।। दुःषमान्धकारनिममजिनप्रवचनप्रदीपप्रतिमाः श्रीजिनभद्रगणिपूज्या अप्याहुः पजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाइं जहन्नजोगिस्स । हुंति मणोदवाइं, तबावारो य जम्मत्तो ।। (विशेषा० गा० ३०५९) तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो। मणसो सबनिरोह, कुणइ असंखिज्जसमएहिं ॥ (विशेषा० गा० ३०६०) १ समुत्सम क० ख० ग० घ००॥ २ यावत्यां जीवोऽवगाढस्तावस्याऽवगाहनया ऊर्ध्वमृजुकं गच्छति न वक्रम् , द्वितीयं च समयं न स्पृशति ॥ ३ पर्याप्तमात्रसंझिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोद्रव्याणि तब्यापारश्च यन्मात्रः॥ तदसहयगुणविहीनं समये समये निरन्धानः सः । मनसः सर्वनिरोध करोत्यसययसमयः॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-11 ७७ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । पंजचमितबिंदियजहन्नवइजोगपजया जे उ । तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो ।। (विशे० गा० ३०६१) सव्ववइजोगरोह, संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहुमपणयस्स पढमसमओववन्नस्स ॥ (विशेषा० गा. ३०६२) जो किर जहन्नजोगो, तदसंखिज्जगुणहीणमिक्केके । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो ॥ (विशेषा० गा० ३०६३) रुंभइ स कायजोगं, संखाईएहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेइ ।। (विशेषा० गा० ३०६४) हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भन्नंति । अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥ (विशेषा० गा० ३०६८) तणुरोहारंभाओ, झायइ सुहुमकिरियानियट्टि सो।। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि ॥ (विशेषा० गा० ३०६९) तदसंखेजगुणाए, गुणसेढीइ रइयं पुरा कम्मं । समए समए खेविलं, कमेण सवं तहिं कम्मं ॥ (विशेषा० गा० ३०८२) उजुसेढीपडिवन्नो, समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो ॥ (विशेषागा०३०८८) इति तस्य गुणस्थानमयोगिकेवलिगुणस्थानम् १४ इति ॥ २ ॥ व्याख्यातानि सभावार्थानि चतुर्दशापि गुणस्थानानीति । अथ यथैतेष्वेव गुणस्थानेषु भगवता बन्धमुदयमुदीरणां सत्तां चाऽऽश्रित्य कर्माणि क्षपितानि तथा बिभणिषुः प्रथमं तावद् बन्धमाश्रित्य क गुणस्थाने कियत्यः कर्मप्रकृतयो व्यवच्छिन्नाः ? इत्येतद् बन्धलक्षणकथनपूर्वकं प्रचि. कटयिषुराह अभिनवकम्मरगहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीस सयं । तित्थयराहारगदुगवजं मिच्छम्मि सतरसयं ॥३॥ मिथ्यात्वादिभिहेतुभिरभिनवस्य-नूतनस्य कर्मणः-ज्ञानावरणादेब्रहणम्-उपादानं बन्ध इत्युच्यते । 'ओपेन' सामान्येनैकं किञ्चिद्गुणस्थानकमनाश्रित्येत्यर्थः । "तत्थ" ति तत्र १ पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवचोयोगपर्यया ये तु । तदसङ्ख्यगुणविहीनान् समये समये निरन्धानः ॥ सर्वबनोयोगरोधं सङ्ख्यातीतैः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोपपनस्य ॥ यः किल जघन्ययोगसदसञ्जयेयगुणहीनमेकैकस्मिन् । समये निरुन्धानो देहविभागं च मुञ्चन् ॥ रुणद्धि स काययोग सङ्ख्यातीतेरेव समयैः । ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावनामेति ॥ ह्रस्वाक्षराणि मध्येन येन काळेन पञ्च भण्यन्ते। आस्ते शैलेशीगतः तावन्मात्रं सकः कालम् ॥ तनुरोधारम्भाद् ध्यायति सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति सः। व्युच्छिनकियमप्रतिपाति शैलेशीकाले ॥ तदसायेयगुणायां गुणश्रेणी रचितं पुरा कर्म । समये समये क्षपयिला कमेण सर्व तत्र कर्म ॥ ऋजुश्रेणिप्रतिपभः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् । एकसमयेन सिध्यति अथ साकारोपयुक्तः सः॥ २ खवियं कमसो सेले सिकालेणं ॥ इति भाष्ये पाठः ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसरिविरपितखोपाटीकोतः [गामा बन्धे 'विशं शतं' विंशत्युत्तरं शतं कर्मपकृतीनां भवतीति शेषः । तथाहि-मतिज्ञानावरणं शुतज्ञानावरणम् अवधिज्ञानाचरणं मनःपर्यायज्ञानाचरणं केवलज्ञानावरणमिति पञ्चधा ज्ञानावरणम् । निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलापचला स्त्यानदिः चक्षुर्दर्शनाचरणम् अचक्षुर्दर्शनाव. रणम् अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति नवविधं दर्शनावरणम् । वेदनीयं द्विधासातवेदनीयम् असातवेदनीयं च । मोहनीयमष्टाविंशतिभेदम् , तद्यथा-मिथ्यात्वं सम्यग्मिध्यात्वं सम्यक्त्वमिति दर्शननिकम् , अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभः ४ अप्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभः ४ मत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभः ४ संज्वलनः कोषो मानो माया लोभः ४ इति षोडश कषायाः, स्त्री पुमान् नपुंसकमिति वेदत्रयम् , हास्यं रतिः अरतिः शोको भयं जुगुप्सेति हास्यषटकम् , मिलितं नव नोकषायाः । आयुश्चतुर्धा-नरकायुः तिर्यगायुः मनुष्यामुः देवायुरिति । अथ नामकर्म द्विचत्वारिंशद्विधम् , तद्यथा-चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः अष्टौ प्रत्येकप्रकृतयः सदशकं सावरदशकं चेति । तत्र पिण्डप्रकृतय इमाः-गतिनाम जातिनाम शरीरनाम अङ्गोपाङ्गनाम बन्धननाम सङ्घातननाम संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम आनुपूर्वीनाम विहायोगतिनामेति । आसां मेदा दर्श्यन्ते-नरकतिर्यअनुष्यदेवगतिनामभेदात् चतुर्धा गतिनाम, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियजातिनामेति पञ्चधा जातिनाम, औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणशरीस्नामेति पञ्चधा शरीरनाम, औदारिकाङ्गोपाङ्गं वैक्रियाङ्गोपाङ्गम् आहारकाङ्गोपाङ्गनामेति त्रिधाऽङ्गोपाङ्गनाम, बन्धननाम पञ्चधा औदारिकबन्धना दि शरीरवत् , एवं सङ्घातनमपि, संहनननाम षड्नेदम्-वज्रऋषभनाराचम् ऋषभनाराचं नाराचम् अर्धनाराचं कीलिका सेवाते चेति, संस्थाननाम पडिधं-समचतुरसं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुजं हुण्डं चेति, वर्णनाम पश्चधा-कृष्णं नीलं लोहितं हारिद्र शुक्लं चेति, गन्धनाम द्विधा-सुरेभिगन्धनाम दुरभिगन्धनामेति, रसनाम पञ्चमा-तिक्त कटुकं कषायम् अम्लं मधुरं चेति, स्पर्शनाम अष्टधा-कर्कशं मृदु लघु गुरु शीतम् उष्णं स्निग्धं रूक्षं च, आनुपूर्वी चतुर्धा-नरकानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी देवानुपूर्वीति, विहायोगतिर्द्विधा-प्रशस्तविहायोगतिः अप्रशस्तविहायोगत्तिरिति आसां चतुर्दशपिण्डप्रकृतीनामुत्तरभेदा अमी पञ्चषष्टिः । प्रत्येकप्रकृतयस्त्विमाः-पराधातनाम उपघातनाम उच्छासनाम आतपनाम उद्योतनाम अगुरुलधुनाम तीर्थकरनाम निर्माणनामेति । त्रसदशकमिदम्-असनाम बादस्नाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम सुखरनाम आदेयनाम यशःकीर्तिनामेति । स्थावरदशकं पुनरिदम् स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम साधारणनाम अस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम दुःखरनाम अनादेयनाम अयशःकीर्तिनामेति । पिण्डमकृत्युसरभेदाः पञ्चषष्टिः प्रत्येकप्रकृतयोऽष्टौ त्रसदशकं स्थावरदशकं च सर्वमीलने त्रिनवतिः । गोत्रं द्विधा--उचर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं च । अन्तरायं पञ्चधा-दानान्तरायं लामान्तरायं भोगान्तरायम् उपभोगान्तरायं वीर्यान्तरायं चेति । एवं च कृत्वा ज्ञानावरणे कर्मप्रकृतयः पञ्च ५ दर्शनावरणे नव ९ वेदनीये द्वे २ मोहनीयेऽष्टा१पामिति ख०ग०॥ २० मिनाम असुरमिनाक० ख००॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाल्यो द्वितीयः कर्ममन्यः । विशतिः २८ आयुषि चतसः ४ नामि त्रिनवतिः ९३ गोत्रे द्वे २ अन्तराये पञ्च ५ सर्वपिण्डेऽवाचत्वारिंशं शतं भवति, तेन च ससायामधिकारः। उदयोदीरणयोः पुनरौदारिकादिबन्धनानां पञ्चानामौदारिकादिसङ्घातनानां च पञ्चानां यथाखमौदारिकादिषु पञ्चसु शरीरेष्यन्तर्मावः । वर्णगन्धरसस्पर्शानां यथासङ्ख्यं पञ्चद्विपञ्चाऽष्टभेदानां तद्भेदकृतां विंशतिमपनीय तेषामेव चतुर्णामभिन्नानां ग्रहणे षोडशकमिदं बन्धनसङ्घातनसहितमष्टचत्वारिंशशताद अपनीयते, शेषेण द्वाविंशेन शतेनाधिकारः । बन्धे तु सम्यम्मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोः समेणैव निष्पाघमावस्वाद् अन्धो न सम्भवतीति तयोविंशतिशताद् अपनीतयोः शेषेम विंशत्युत्तरशतेनाऽधिकार इति प्रकृतिसमुत्कीर्तना कृता । प्रकृत्यर्थः खोपज्ञकर्मविपाकटीकायां विस्तरेण निरूपितखत एवावधार्य इत्यलं प्रसनेन । प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र बन्धे सामान्येन विशं शतं भवतीति प्रकृतम् । तदेव च विंशं शतं 'तीर्थकराहारकद्विकवर्ज' तीर्थकराहारकद्विकरहितं सत् "मिच्छम्मि" ति भीमसेनो भीम इत्यादिवत् पदवाच्यस्यार्थस्य पदैकदेशेनाऽप्यमिधानदर्शनात् मिथ्यात्वे मिथ्यादृष्टिगुणस्थान इत्यर्थः । एवमुत्तरेष्वपि पदवाच्येषु पदैकदेशप्रयोगो द्रष्टव्यः । "सतरसयं" ति सप्तदशाधिकं शतं सप्तदशशतं बन्धे भवतीति । अयमत्राभिप्रायः-तीर्थकरनाम तावत् सम्यक्त्वगुणनिमित्तमेव बध्यते, आहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमाहारकद्रिक स्वप्रमत्तयतिसम्बन्धिना संयमेनैव । यदुक्तं श्रीशिवशर्मसूरिपादैः शतके सम्मैत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं । ( मा० ११) इति । मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एतत्प्रकृतित्रयवर्जनं कृतम् , शेषं पुनः सप्तदशशतं मिथ्यात्वादिभिहें। तुभिर्बध्यत इति मिथ्यारष्टिगुणवाने तद्वन्ध इति ॥ ३ ॥ नन्वेता मिथ्यादृष्टिप्रायोग्याः सप्तदशशतसङ्ख्याः सर्वा अपि प्रकृतय उत्तरगुणस्थानेषु गच्छन्त्युत काश्चिदेव ! इत्याशङ्कयाह नरयतिग जाइथावरचउ हुंडायवछिवहनपुमिच्छं। . .. सोलंतो गहियसउ, सासणि तिरिधीणबुहमतिगं ॥४॥ 'नरकत्रिक' नरकगतिवरकानुनिरकायुर्लक्षणम् "बाइथावस्वउ" ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धाद् 'जातिचतुष्कम्' एकेन्द्रियजात्तिद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिखरूपं 'सावरचतुष्क' सावरबदनाप्राप्तसाधारणलक्षणं, हुण्डम् मातपं छेदपृष्ठं “नपु" ति नपुंसकवेदः “मिच्छं" लि मिथ्यात्वमित्येतासां “सोलंतु" ति षोडशानां प्रकृतीनां मिष्याधिगुणसाने 'वत्र भाव उत्तरकामावः' इत्येवंलक्षणोऽन्तो विनाशः क्षयो मेदो व्यवच्छेद उच्छेद इति पर्यायाः । इयमत्र मापना-एता हि षोडश प्रकृतयो मिथ्याष्टिगुणस्थान एवं बधमायान्ति, मिथ्यात्वसत्त्वत्साशासाम् ; नोत्तरत्र साखादनादिषु, मिथ्यात्वाभामदेव । मत एताः प्रायो नारकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिययोग्यत्वाद् अत्यन्ताऽशुभत्वाच मिथ्याधिरेव वनातीति सप्तदशश्चतात् पूर्वोकाद् एतदपगमे शेषमेकोत्तरं प्रतिशतमेवाबिरत्यादिहेतुनिः सालादने बन्यसायाति, अत एकाह-"इगहियसय सासणि" चि एकाधिकशतं साखादने बध्यते । "इगहियसय" इत्यत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । एवमन्यत्रापि विभक्तिलोपः प्राकृतलक्षण१ सम्यक्लगुणनिमित्तंगामेमाहारम् ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा बशादवसेयः । “तिरिथीणदुहगतिगं" ति । त्रिकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, 'तिर्यत्रिक' तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगायुर्लक्षणं 'स्त्यानर्द्धित्रिकं' निद्रानिद्राप्रचलामचलास्त्यानखिरूपं दुर्भगत्रिकं' दुर्भगदुःस्वराऽनादेयखरूपमिति ॥ ४ ॥ अणमझागिइसंघयणचउ निउज्जोयकुखगइत्थि ति। पणवीसंतो मीसे, चउसयरि दुआउयअबंधा ॥५॥ चतुःशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् "अण" ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कम् अनन्तानुबन्धिको धमानमायालोभाख्यम् , मध्याः-मध्यमा आघन्तवर्जा आकृतयः-संस्थानानि मध्याकृतयः तासां चतुष्कं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं सादिसंस्थानं वामनसंस्थानं कुन संस्थानमिति, तथा काकाक्षिगोलकन्यायात् मध्यशब्दस्यात्रापि योगः, ततो मध्यानि-मध्यमानि प्रथमान्तिमवर्जानि संहननानि-अस्थिनिचयात्मकानि तेषां चतुष्कम्-ऋषभनाराचसंहननं नाराचसंहननम् अर्घनाराचसंहननं कीलिकासंहननमिति, "निउ" ति नीचैर्गोत्रम् , उद्योतम् , कु-कुत्सिताऽप्रशस्ता खगतिः-विहायोगतिः कुखगतिः अप्रशस्तावहायोगतिरित्यर्थः, "स्थि" ति स्त्रीवेद इत्येतासां पञ्चविंशतिपकृतीनां साखादनेऽन्तः, अत्र बध्यन्ते नोत्तरत्रेत्यर्थः, यतोऽनन्तानुबन्धिप्रत्ययो ह्यासां बन्धः, स चोत्तरत्र नास्तीति । ततश्चैकाधिकशतात् पश्चविंशत्यपगमे “मीसि" ति 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने षट्सप्ततिबन्धे भवति । ततोऽपि "दुआउयअबंध" ति द्वयोमनुष्यायुर्देवायुषोरबन्धो द्यायुरबन्धस्तस्माद् द्यायुरबन्धादिति हेतोश्चतुःसप्ततिर्भवति । इदमुक्तं भवति-इह नारकतिर्यगायुषी यथासङ्ख्यं मिथ्यादृष्टिसाखादनगुणस्थानयोwवच्छिन्ने, शेषं तुमनुष्यायुर्देवायुद्वयमवतिष्ठते तदपि मिश्रो न बध्नाति, मिश्रस्य सर्वथाऽऽयुबन्धप्रतिषेधात्। उक्तं च सम्मामिच्छद्दिट्टी, आउयबंधं पि न करेइ । ति । ततः षट्सप्ततेरायुयापगमे चतुःसप्ततिर्भवतीति ॥ ५॥ सम्मे सगसयरि जिणाउयंधि बहर नरतिग बियकसाया। उरलदुगंतो देसे, सत्तही तिअकसायंतो॥६॥ "सम्मि" ति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने “सगसयरि" ति सप्तसप्ततिप्रकृतीनां बन्धो भवति । कथम् । इति चे उच्यते-पूर्वोक्तैव चतुःसप्ततिः "जिणाउबंधि' ति तीर्थकरनाममनुष्यायुर्देवायुयबन्धे सति सप्तसप्ततिर्भवति । एतदुक्तं भवति–तीर्थकरनाम तावत् सम्यक्त्वप्रत्ययादेवात्र बन्धमायाति, ये च तिर्यग्मनुष्या अविरतसम्यग्दृशस्ते देवायुर्बध्नन्ति, ये तु नारकदेवास्ते मनुयायुर्वघ्नन्ति, ततोऽत्रेयं प्रकृतित्रयी समधिका लभ्यते, सा च पूर्वोक्तायां चतुःसप्ततौ क्षिप्यते जाता सप्तसप्ततिरिति । “वहर" ति वज्रर्षभनाराचसंहननं "नरतिय" ति नरत्रिक-नरगतिनरानुपूर्वीनरायुर्लक्षणं "बियकसाय" चि द्वितीयकषायाः-अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः "उरलदुग" ति औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरौदारिकानोपाजलक्षणमित्येतासां दशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टावन्तो भवति, एता अत्र बध्यन्ते नोचरत्रेत्यर्थः । अय १°कं मध्याकृतिचतुष्कं-ज्य ख०॥ २ क संहननचतुष्कम्-ऋ० क० ख० घ० रु०॥ ३ सम्यग्मिध्यादृष्टिरायुर्वन्धमपि न करोति ॥ ४ युनिवर्तयन्ति, क० ख०॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-८] कर्मस्तवाल्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । मत्रामिमायः-द्वितीयकषायांस्तावत् तदुदयाभावान्न बध्नाति देशविरतादिः; कषाया ह्यनन्तानुबन्धिवर्जा वेद्यमाना एव बध्यन्ते, “'जे वेएइ ते बंधइ" इति वचनात् । अनन्तानुबन्धिनस्तु चतुर्विशतिसत्कर्माऽनन्तवियोजको मिथ्यात्वं गतो बन्धावलिकामानं कालमनुदितान् बध्नाति । यदाहुः सप्ततिकाटीकायां मोहनीयचतुर्विशतिकावसरे श्रीमलयगिरिपादाः इह सम्यग्दृष्टिना सता केनचित् प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोजिताः, एतावतैव स विश्रान्तो न मिथ्यात्वादिक्षयाय उद्युक्तवान् , तथाविघसामग्र्यभावात् । ततः कालान्तरेण मिथ्यात्वं गतः सन् मिथ्यात्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति । ततो बन्धावलिकां यावत् नाथाप्यतिक्रामति तावत् तेषामुदयं विना बन्ध इति । (पत्र १३५-२) __ नरत्रिकं पुनरेकान्तेन मनुष्यवेद्यम्, औदारिकद्विकं वज्रऋषभनाराचसंहननं च मनुष्यतिर्यगेकान्तवेद्यम् , देशविरतादिषु देवगतिवेद्यमेव बध्नाति नान्यत् , तेनासां दशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानेऽन्तः । तत एतत् प्रकृतिदशकं पूर्वोक्तसप्तसप्ततेरपनीयते, ततः "देसे सतहि" ति देशे' देशविरतगुणस्थाने सप्तपष्टिर्बध्यते "तियकसायंतु" ति तृतीयकषायाणांप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोमानां देशविरतेऽन्तः, तदुत्तरेषु तेषामुदयाभावाद् अनुदितानां चाबन्धात् “जे वेयइ ते बंधई" इति वचनाद् इति भावः । एतच्च प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोक्तसप्तषष्टेरपनीयते ॥ ६ ॥ ततः तेवहि पमत्ते सोग अरइ अथिरदुग अजस अस्सायं । वुच्छिज्ज छच सत्सव, नेइ सुराउं जया निहूँ॥७॥ "तेवहि पमत्ति" ति त्रिषष्टिः प्रमत्ते बध्यते । शोकः अरतिः "अथिरदुग" ति अस्थिरद्विकम्-अस्थिराऽशुभरूपम् “अजस" ति अयशःकीर्तिनाम असातमित्येताः षट् प्रकृतयः प्रमचे "वुच्छिज" ति प्राकृतत्वादादेशस्य व्यवच्छिद्यन्ते-क्षीयन्ते बन्धमाश्रित्येति भावः । यद्वा सप्त वा व्यवच्छिद्यन्ते । कथम् ? इत्याह-"नेइ सुराउं जया निटें" ति यदा कश्चित् प्रमत्तः सन् सुरायुर्बन्डुमारभते निष्ठां च नयति सुरायुर्वन्धं समापयतीत्यर्थः तदा पूर्वोक्ताः षट् सुरायुःसहिताः सप्त व्यवच्छिद्यन्त इति ॥ ७॥ गुणसहि अप्पमत्ते, सुराउबंधं तु जइ इहागच्छे । ___अबह अट्ठावन्ना, जं आहारगदुगं बंधे ॥८॥ "गुणसट्टि" ति एकोनषष्टिरप्रमत्ते बध्यत इति शेषः । कथम् ? इत्याह-'सुरायुर्वनन्' देवायुर्बन्धं कुर्वन् यदि चेद् 'इह' अप्रमत्तगुणस्थान आगच्छेत् । इयमत्र भावना-सुरा. युर्बन्धं हि प्रमत्त एवारमते नाप्रमत्वादिः, तस्यातिविशुद्धत्वात् , आयुष्कस्य तु घोलनापरिणामेनैव बन्धनात्, परं सुरायुर्बधन् प्रमते किञ्चित् सावशेष सुरायुर्वन्धेऽप्रमचेऽप्यागच्छेत् , अत्र च सावशेष सुरायुर्निष्ठां नयति तत एकोनषष्टिरप्रमचे भवति "देवाउयं च इकं, नायवं अप्पमत्तम्मि ।" इति वचनात् । “अन्नह अट्ठावन्न" ति अन्यथा यदि सुरायुर्वन्धः प्रमत्तेनारब्धः प्रमतेनैव निष्ठां नीतस्ततोऽष्टापञ्चाशदप्रमत्ते भवतीति । १-१मान् वेदयते तान् बनाति ॥ ३ तुष्टयं ख०ग०॥ ४ देवायुष्कं चैकं ज्ञातव्यमप्रमत्ते॥ क.११ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया ननु यदि पूर्वोक्तत्रिषष्टेः शोकाऽरत्यस्थिरद्विकाऽयशोऽसातलक्षणं प्रकृतिषट्कमपनीयते तर्हि सा सप्तपञ्चाशद् भवति, अथ सुरायुःसहितं पूर्वोक्तप्रकृतिषट्कमपनीयते तर्हि षट्पञ्चाशत्, ततः कथमुक्तमेकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वाऽप्रमत्ते ! इत्याशझ्याह---"जं आहारगदुगं बंधे" वि 'यद्' यस्मात् कारणाद् आहारकद्विकं बन्धे भवतीति शेषः । अयमत्राशयः-~-अप्रमत्तयतिसम्बन्धिना संयमविशेषेणाऽऽहारकद्विकं बध्यते, तच्चेह लभ्यत इति पूर्वापनीतमप्यत्र क्षिप्यते, ततः षट्पञ्चाशद् आहारकद्विकक्षेपेऽष्टापश्चाशद् भवति, सप्तपञ्चाशत् पुनराहारकद्विकक्षेप एकोनषष्टिरिति ।।८॥ अडवन्न अपुव्वाइमि, निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे। सुरदुग पणिंदि सुग्वगइ, तसनव उरलविणु तणुवंगा ॥९॥ समचउर निमिण जिण वनअगुरुलघुचउ छलंसि तीसंतो। चरमे छवीसबंधो, हासरईकुच्छभयभेओ ॥१०॥ "अडवन्न अपुवाइमि" ति । इह किलाऽपूर्वकरणाद्धायाः सप्त भागाः क्रियन्ते । तत्राऽपूर्वस्यअपूर्वकरणस्यादिमे-प्रथमे सप्तभागेऽष्टापञ्चाशत् पूर्वोक्ता भवति । तत्र चाये सप्तभागे निद्राद्विकस्य-निद्रामचलालक्षणस्यान्तो भवति, अत्र बध्यते नोत्तरत्रापि, उत्तरत्र तहन्धाध्यवसायस्थानाभावात् , उत्तरेष्वप्ययमेव हेतुरनुसरणीयः । ततः परं षट्पञ्चाशद् भवति । कथम् ? इत्याह-"पणभागि" ति पञ्चानां भागानां समाहारः पञ्चभागं तस्मिन् पञ्चभागे, पञ्चसु मागे. वित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-अपूर्वकरणादायाः सप्तसु भागेषु विवक्षितेषु प्रथमे सप्तमागेsष्टपञ्चाशत् , तत्र च व्यवच्छिन्ननिद्राप्रचलापनयने षट्पञ्चाशत् , सा च द्वितीये सप्तभागे तृतीये सप्तभागे चतुर्थे सप्तभागे पञ्चमे सप्तभागे षष्ठे सप्तभागे भवतीत्यर्थः । तत्र च षष्ठे सप्तभागे आसां त्रिंशत्प्रकृतीनामन्तो भवति इत्याह-"सुरदुग" इत्यादि । सुरद्विकं-सुरगतिसुरानुपूर्वीरूपं "पणिदि" ति पञ्चेन्द्रियजातिः, सुखगतिः-प्रशस्तविहायोगतिः "तसनब" ति प्रसनवकं-त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुखराऽऽदेयलक्षणं "उरल विणु"ति औदारिकशरीरं विना औदारिकाङ्गोपाङ्गं च विनेत्यर्थः "तणु" ति तनवः-शरीराणि "उवंग" ति उपाङ्गे । इदमुक्तं भवति–वैक्रियशरीरम् आहारकशरीर तैजसशरीरं कार्मणशरीरं वैक्रियानो. पाङ्गम् आहारकाङ्गोपाङ्गं चेति । "समचउर" ति समचतुरस्रसंस्थानं "निमिण" ति निर्माणं "जिण" ति जिननाम-तीर्थकरनामेत्यर्थः "वन्नअगुरुलहुचउ" ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धाद् वर्णचतुष्कं-वर्णगन्धरसस्पर्शरूपम् , अगुरुलधुचतुकम्-अगुरुलघूपधातपराधातोच्छ्रासलक्षणमित्येतासां त्रिंशत्प्रकृतीनां "छलंसि" ति षष्ठोऽशः भागः षडंशः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, यथा-तृतीयो भागस्त्रिभाग इति । अत्र डकारस्य लकारो "डोक" (सि०८-१-२०२) इति प्राकृतसूत्रेण तस्मिन् षडंशे। ततः पूर्वोक्तषट्पञ्चाशत इमा• स्त्रिंशत् प्रकृतयोऽपनीयन्ते शेषाः षडिशतिप्रकृतयोऽपूर्वकरणस्य "चरमि" ति चरमे-अन्तिमे सप्तमे सप्तभागे बन्धे लभ्यन्त इत्यर्थः । चरमे च सप्तभागे हास्यं च रतिश्च "कुच्छ" ति कुत्सा च-जुगुप्सा भयं च हास्यरतिकुत्साभयानि तेषां भेदः-व्यवच्छेदो हास्यरतिकुत्साभयभेदो भवतीति । एताश्चतस्रः प्रकृतयः पूर्वोक्तषड्विंशतेरपनीयन्ते, शेषा द्वाविंशतिः, सा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-११] कर्मस्तवाल्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । चाऽनिवृतिवादरप्रथममागे भवतीति ।। ९-१० ॥ एतदेवाह अनियहिभागपणगे, इगेगहीणो दुवीसविहबंधो। पुमसंजलणचउण्हं, कमेण छेओ सतर सुहुमे ॥११॥ 'अनिवृत्तिभागपञ्चके' अनिवृत्तिबादराद्धायाः पञ्चसु भागेष्वित्यर्थः । स पूर्वोक्तो द्वाविं. शतिबन्ध एकैकहीनो वाच्यः, एकैकस्मिन् भागे एकैकस्याः प्रकृतेर्बन्धव्यवच्छेद इत्यर्थः । कथम् ! इत्याह-"पुमसंजलणचउण्डं कमेण छेउ" ति क्रमेणाऽऽनुपूर्व्या प्रथमे भागे पुंवेदस्य च्छेदस्तत एकविंशतेर्बन्धः, द्वितीये भागे संज्वलनक्रोधस्य च्छेदस्ततो विंशतेर्बन्धः, तृतीये भागे संज्वलनमानस्य च्छेदस्तत एकोनविंशतेर्बन्धः, चतुर्थे भागे संज्वलनमायायाश्छेदस्ततोऽ. ष्टादशानां बन्धः, पञ्चमभागे संज्वलनलोभस्य च्छेदः, उत्तरत्र तद्वन्धाध्यवसायस्थानाभावः छेदहेतुः, संज्वलनलोभस्य तु बादरसम्परायपत्ययो बन्धः, स चोचरत्र नास्तीत्यतश्छेदस्ततः सूक्ष्मसम्पराये सप्तदशप्रकृतीनां बन्धो भवतीत्यत आह-"सतर सुहुमि" वि सष्टम् ॥११॥ चउदंसणुचजसनाणविग्घदसगं ति सोलसुच्छेओ। तिसु सायबंध छेओ, सजोगि बंधंतुणंतो अ॥१२॥ बंधो सम्मत्तो। "चउदंसण" ति चतुर्णा दर्शनानां समाहारश्चतुर्दर्शनं-चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शनकेवलदर्शनरूपम् "उच्च" ति उच्चैर्गोत्रम् "जस" ति यशःकीर्तिनाम “नाणविग्धदसगं" ति ज्ञानावरणपश्चकं विघ्नपञ्चकम्-अन्तरायपञ्चकमुभयमीलने ज्ञानविघ्नदशकमित्येतासां षोडशप्रकृतीनां सूक्ष्मसम्पराये बन्धस्योच्छेदो भवति, एतद्वन्धस्य साम्परायिकत्वाद् उत्तरेषु च साम्परायिकस्य कषायोदयलक्षणस्याऽभावादिति । "तिसु सायबंध" ति त्रिषु-उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिगुणस्थानेषु सातबन्धः सातस्य केवलयोगप्रत्ययस्य द्विसामयिकस्य तृतीयसमयेऽवस्थानाभावादिति भावः, न साम्परायिकस्य, तस्य कषायप्रत्ययत्वात् । आह च भाष्यसुधाम्मोनिधिः उवसंतखीणमोहा, केवलिणो एगविहबंधों ।। ते पुण दुसमयठिइयस्स बंधगा न उण संपरायस्स । इति । । "छेओ सजोगि" ति डमरुकमणिन्यायात् सातबन्धशब्दस्येह सम्बन्धस्ततः सयोगिकेवलिगुणस्थाने सातबन्धस्य च्छेदः-व्यवच्छेदः । इह सातबन्धोऽस्ति, योगसद्भावात् । नोत्तरत्राऽयोगिकेवलिगुणस्थाने, योगाभावात् । ततोऽबन्धका अयोगिकेवलिनः । उक्तं च सेलेसी पडिवन्ना, अबन्धगा हुंति नाया। "बंधंतुणंतो अ" ति बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च बन्धशब्दस्याऽने षष्ठीलोपः प्राकृतत्वात् । तत इदमुक्तं भवति—यत्र हि गुणस्थाने यासां प्रकृतीनां बन्धहेतुव्यवच्छेदस्तत्र तासां बन्ध १ उपशान्तक्षीणमोहा केवलिन एकविधबन्धाः ॥ ३ ते पुनर्दिसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सम्परायस॥ ५ शैलेशी प्रतिपना अबन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः ॥२-४-६ षोडशे पञ्चाशके क्रमेण ४१ गापाया उत्तराई ४२ गापायाः पूर्वार्द्धमुत्तरार्द्ध चोपलभ्यते ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञदीकोपेतः सान्तः, यथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने व्यवच्छिन्नबन्धानां षोडशानां प्रकृतीनाम , मिथ्यात्याविरतिकषाययोगा बन्धहेतवस्तेषु मिथ्यात्वं तत्रैव व्यवच्छिन्नम् , ततश्च मिथ्यादृष्टिगुणसाने तासां बन्धस्वान्तः, तत उत्तरेषु कारणवैकल्येन बन्धाभावात् ; इतरासां बन्धस्यानन्तः, तत उत्तरेष्वपि तद्वन्धकारणसाकल्येन बन्धभावादिति । एवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु प्रकृतीनां खखबन्धहेतुव्य. बच्छेदाव्यवच्छेदाभ्यां साकल्यवैकल्यवशाद् बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च भावनीय इति ॥ १२ ॥ ॥ इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां बन्धाधिकारः समाप्तः ॥ बन्धाधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं पुण्यम् । इह कर्मबन्धमुक्तो, लोकः सर्वोऽपि तेनास्तु ॥ साम्प्रतमुदयस्य प्रायस्तत्समानत्वाद् उदीरणायाश्च लक्षणकथनपूर्वकं कस्मिन् गुणस्ताने कियत्यः प्रकृतयस्तस्य भगवतः क्षीणाः ? इत्येतनिर्दिदिक्षुराह उदओ विवागवेयणमुदीरण अपत्ति इह दुवीससयं । सतरसयं मिच्छे मीससम्मआहारजिणऽणुदया ॥१३॥ इह कर्मपुद्गलानां यथाखस्थितिबद्धानामुदयसमयप्राप्तानां यद् विपाकेन-अनुभवनेन वेदनं स उदय उच्यते । “उदीरण अपति" ति कर्मपुद्गलानां यथाखस्थितिबद्धानां यद् अप्राप्तकालं वेदनमुदीरणा भण्यते । "इह" ति 'इह' उदये उदीरणायां च “दुवीससयं" ति 'द्विविंशशतं' द्वाभ्यामधिकं विशं शतं द्विविंशशतं मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तत् सामा• न्यतोऽधिक्रियत इति शेषः । सप्तदशशतं "मिच्छे" ति मिथ्याइष्टिगुणस्थाने उदये भवति । कथम् ? इत्याह-"मीससम्मआहारजिणणुदय" त्ति, मिश्रं च “सम्म" त्ति सम्यक्त्वं च "आहार" ति इहाऽऽहारकशब्देन सर्वत्राऽऽहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमाहारकद्विक गृह्यते तत आहारकं च "जिण" ति जिननाम च मिश्रसम्यक्त्वाहारजिनास्तेषामनुदयात् । इदमत्र हृदयम्-मिश्रोदयस्तावत् सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान एव भवति, सम्यक्त्वोदयस्त्वविरतसम्यग्दृष्ट्यादौ, आहारकद्विकोदयः प्रमत्तादौ, जिननामोदयः सयोगिकेवल्यादौ भवति । तत इदं प्रकृतिपञ्चकं द्वाविंशतिशताद् अपनीयते ततो मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने सप्तदशशतं भवतीति ॥ १३ ॥ मुहमतिगायवमिच्छं, मिच्छंतं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुग्विणुदया, अणथावरइगविगलअंतो ॥१४॥ सूक्ष्मत्रिकं च-सूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणरूपम् आतपं च मिथ्यात्वं च सूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वं मिथ्यात्वे-मिथ्यादृष्टावन्तो यस्य तद् मिथ्यात्वान्तम्, एतत्प्रकृतिपञ्चकस्य मिथ्यात्वेऽन्तो भवतीत्यर्थः । अयमत्राशयः-सूक्ष्मनाम्न उदयः सूक्ष्मैकेन्द्रियेषु, अपर्याप्तनामस्तु सर्वेध्वप्यपर्याप्तकेषु, साधारणनामोऽनन्तवनस्पतिषु, आतपनामोदयस्तु बादरपृथिवीकायिकेष्वेव; न चैतेषु स्थितो जीवः साखादनादित्वं लभते, नापि पूर्वप्रतिपन्नस्तेषूत्पद्यते, साखादनस्तु १°केषु च क० घ०॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१५] कर्मस्तदाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । यद्यपि नादरपर्यासैकेन्द्रियेषूत्पद्यते तथापि न तस्यातपनामोदयः, तत्रोत्पन्नमात्रस्यासमाप्तशरीरस्यैव साखादनत्ववमनात् समाप्ते च शरीरे तत्राऽऽतपनामोदयो भवति, मिथ्यात्वोदयः पुनर्मिथ्यादृष्टावेव तेनैतासां पञ्चप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावुदयस्यान्तः । तत इदं प्रकृतिपञ्चकं पूर्वोक्तसप्तदशशताद् अपनीयते शेषं द्वादशशतं साखादने उदयं प्रतीत्य भवति, नरकानुपूर्व्यपनयने चैकादशशतं भवतीत्येतदेवाह - " सासणे इगारसयं नरयाणुपुविणुदय" चि साखादन एकादशशतमुदये भवति, नरकानुपूर्व्यनुदयात्, नरकानुपूर्व्या उदयो हि नरके वक्रेण गच्छतो जीवस्य भवति, न च साखादनो नरकं गच्छति । यदुक्तं बृहत्कर्मस्तव भाष्ये रयाणुपुडियार, सासणसम्मम्मि होइ न हु उदओ । नरयम्मि जं न गच्छद्द, अवणिज्जह तेण सा तस्स || ( गा० ८ ) ततो नरकानुपूर्वी मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्नसूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वलक्षणप्रकृतिपञ्चकं च सप्तदशशताद् अपनीयते शेषं सासादने एकादशशतं भवतीति । " अणथावरइगविगल अंतु " त्ति " अण” त्ति अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः स्थावरनाम “इग" ति एकेन्द्रियजातिः विकलाः - पञ्चेन्द्रियजात्यपेक्षयाऽसम्पूर्णा द्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजात इत्यर्थः इत्येतासां नवानां प्रकृतीनां साखादनेऽन्त उदयमाश्रित्य भवति । इयमत्र भावना - अनन्तानुबन्धिनामुदये हि सम्यक्त्वलाभ एव न भवति । यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादा: • पैढमिल्याण उदए, नियमा संजोयणाकसायाणं । ८५ सम्मदंसणलंभं, भवसिद्धीया वि न लहंति ॥ ( आ० नि० गा० १०८ ) नापि सम्यग्मिथ्यात्वं कोऽप्यनन्तानुबन्ध्युदये गच्छति, योऽपि पूर्वप्रतिपन्नसम्यक्त्वोऽनन्तानुबन्धिनामुदयं करोति सोऽपि साखादन एव भवतीत्युत्तरेष्वासामुदयाभावः । स्थावरेकेन्द्रियजातिविकलेन्द्रियजातयस्तु यथास्वमेकेन्द्रिय विकलेन्द्रियवेद्या एव । उत्तरगुणस्थानानि तु संशिपञ्चेन्द्रिय एव प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि पञ्चेन्द्रियेष्वेव गच्छतीत्युत्तरेष्वासामुदयाभाव इति ॥ १४ ॥ मीसे सयमणुपुव्वीणुदया मीसोदएण मीसंतो । चउसयमजए सम्माणुपुव्विखेवा बियकसाया ॥ १५ ॥ 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टौ शतमुदये भवति, कथम् ? इत्याह - " अणुपुवीणुदय" चि, इहानुपूर्वीशब्देन तिर्यगानुपूर्वीमनुजानुपूर्वीदेवानुपूर्वीलक्षणा आनुपूर्वीत्रयी गृह्यते तस्या अनुदयात् मिश्रोदयेन च । अयमत्र भावः - नरकानुपूर्वी तावद् उदयमाश्रित्य साखादने व्यवच्छिन्ना, इह सा न गृह्यते; शेषमानुपूर्वीत्रिकं मिश्रदृष्टेर्नोदेति, तस्य मरणाभावात् "र्ने सम्म१°द° ० ० ॥ २ नरकानुपूर्व्याः सासादनसम्यक्त्वे भवति न ह्युदयः । नरकं यत्र गच्छति अपनीयते तेन सा तस्य ॥ ३ प्रथमानामुदये नियमात् संयोजनाकषायाणाम् । सम्यग्दर्शनलाभं भवसिद्धिका अपि न लभन्ते ॥ ४ न सम्यग्मिः करोति कालम् ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाया मीसो कुणइ कालं" इति वचनात् ; मिश्रप्रकृतिः पुनरत्रोदये प्राप्यते, ततः साखादनव्या बच्छिन्न प्रकृतिनवकमानुपूर्वीत्रिकं च पूर्वोकैकादशशताद् अपनीयते शेषा तिष्ठति प्रकृतीनां नवनवतिः, तत्र मिश्रप्रकृतिप्रक्षेपे जातं शतमिति । “मीसंतु" ति मिश्रगुणसाने मिमप्रकृतेरन्तो भवति, एतदुदये हि मिश्रष्टिरेव भवति नान्य इति । "चउसयमजए सम्माणुपुविखेव" ति चतुर्मिरधिकं शतं चतुःशतमुदये भवति, क! इत्याह-'अयते' अविरतसम्यादृष्टी, कथम् ! इत्याह--"सम्म" ति सम्यक्त्वं "अणुपुषि" ति आनुपूर्व्यश्चतसस्तासां क्षेपात्-प्रक्षेपात् । इदमुक्तं भवति--पूर्वोक्तशताद् मिश्रगुणस्थानव्यवच्छिन्नैका मिश्रप्रकृतिरपनीयते, शेषा नवनवतिः, तत्र सम्यक्त्वानुपूर्वीचतुष्कलक्षणं प्रकृतिपञ्चकं क्षिप्यते जातं चतुःशतम्, यतः सम्यक्त्वमत्र गुणे उदयत एव, तथाऽविरतसम्यग्दृशां यथाखं चतस्रोऽ. प्यानुपूर्व्य इति । "बियकसाय" ति द्वितीयकषायाः-अपत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोष. मानमायालोमाः ॥१५॥ मणुतिरिणुपुव्वि विउवष्ट दुहग अणइजदुग सतरछेओ। सगसीह देसि तिरिगइआउ निउज्जोय तिकसाया ॥१६॥ "मणुतिरिणुपुषि" ति आनुपूर्वीशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद् मनुजानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी "विउवऽg" ति वैकियाष्टकं वैक्रियशरीरवैक्रियानोपानदेवगतिदेवानुपूर्वीदेवायुर्नरकगतिनरकानुपूर्वीनरकायुर्लक्षणं दुर्भगम् अनादेयद्विकम्-अनादेयाऽयशःकीर्तिरूपम् इत्येतासां सप्तदशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टावुदयं प्रतीत्य च्छेदो भवति । तत इमाः सप्तदश प्रकृतयः पूर्वोक्तचतुःशताद् अपनीयन्ते शेषा "सगसीह देसि" ति सप्ताशीतिः "देसि" ति देशविरते उदये भवति । इदमत्र तात्पर्यम्-द्वितीयकषायोदये हि देश विराम आगमे निषिद्धः; यदागमः बीयकसायाणुदए, अप्पचक्खाणनामधिजाणं । सम्मइंसणलंभ, विरयाविरयं न उ लहंति ॥ (आ० नि० गा० १०९) नापि पूर्वपतिपनदेशविरत्यादेर्जीवस्य तदुदयसम्भवस्तेनोत्तरेषु तदुदयाभावः; मनुजानुपूर्वीतिर्यगानुपूयोस्तु परभवादिसमयेषु त्रिष्वपान्तरालगतावुदयसम्भवः, स च यथायोगं मनुजतिरश्चां वर्षाष्टकाद् उपरिष्टात् सम्भविषु देशविरत्यादिगुणस्थानेषु न सम्भवति देवत्रिक नारकत्रिकं च देवनारकवेद्यमेव, न च तेषु देश विरत्यादेः सम्भवः, वैक्रियशरीरवैकि. यानोपाननाम्नोस्तु देवनारकेषूदयः, तिर्यग्मनुष्येषु तु प्राचुर्येणाऽविरतसम्यग्दृष्यन्तेषु; यस्तू. तरगुणस्थानेष्वपि केषाच्चिदागमे विष्णुकुमारस्थूलमद्रादीनां वैक्रियद्विकस्योदयः श्रूयते स प्रविरलतरत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचार्येन विवक्षितं इत्यस्माभिरपि न विवक्षित इति; दुर्भगमनादेयद्विकमित्येतास्तु तिसः प्रकृतयो देशविरत्यादिषु गुणप्रत्ययाद नोदयन्त इत्येता अविरते व्यवच्छिन्ना इति । "तिरिगइआउ" ति तिर्यक्शब्दस्य प्रत्येक योगात् तिर्यग्गतिस्तिर्यगायुः "निउज्जोय" ति नीचेगोत्रमुद्योतं च "तिकसाय" ति तृतीयाः कषाया द्वितीयकषायाणामुदये अप्रत्याख्याननामधेयानाम् । सम्यग्दर्शनलाभं विरताविरतं न तु लभन्ते । २°त इति । दुर्भक० घ० ज०॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-१८) कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । निकषाया मयूरव्यंसकादित्वात् पूरणप्रत्ययलोपी समासः, प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः ॥ १६॥ अच्छेओ इगसी, पमत्ति आहारजुगलपक्खेवा । थीणतिगाहारगदुगछेओ छस्सयरि अपमत्ते ॥ १७॥ पूर्वोक्ताष्टप्रकृतीनां देशविरते उदयमाश्रित्य च्छेदो भवति, ततः प्रमत्ते एकाशीतिभवति, आहारकयुगलप्रक्षेपात् । इदमत्र हृदयम्-तिर्यग्गतितिर्यगायुषी तिर्यग्वेधे एब, तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि घटन्ते नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः; नीचैर्गोत्रं तु तिर्यग्गतिखामाव्याद् ध्रुवोदयिकं न परावर्तते, ततश्च देशविरतस्यापि तिरश्चो नीचेर्गोत्रोदयोऽस्त्येव, मनुजेषु पुनः सर्वस्य देशविरतादेर्गुणिनो गुणप्रत्ययाद् उच्चैर्गोत्रमेवोदेतीत्युतरत्र नीचैर्गोत्रोदयाभावः; उद्योतनाम स्वभावतस्तिर्यग्वेद्यम् , तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः, यद्यपि यतिवैक्रियेऽप्युद्योतनामोदेति "उत्तरदेहे च देवजई" इति वचनात् तथापि खल्पत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचायैर्न विवक्षितमित्यसाभिरपि न विवक्षितम् ; तृतीयकषायोदये हि चारित्रलाम एव न भवति, उक्तं च पूज्यैः तेइयकसायाणुदए, पञ्चक्खाणावरणनामधिजाणं । देसिक्कदेसविरई, चरित्तलंमं न उ लहंति ॥ (आ० नि० गा० ११०) न च पूर्वपतिपन्नचारित्रस्य तदुदयसम्भव इत्युत्तरेषु तदुदयाभाव इत्येता अष्टौ प्रकृतयः पूर्वोकसप्ताशीतेरपनीयन्ते शेषा एकोनाशीतिः, तत आहारकयुगलं क्षिप्यते, यतः प्रमत्तयतेराहारकयुगलस्योदयो भवतीत्येकाशीतिः । “थीणतिग" ति स्त्यानिित्रकं-निद्रानिद्रामचलापचलास्त्यानर्द्धिरूपम् आहारकद्विकम्-आहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमिति प्रकृतिपञ्चकस प्रमत्ते छेदो भवति, ततः पूर्वोक्तैकाशीतेरिदं प्रकृतिपञ्चकमपनीयते शेषा षट्सप्ततिरपमत्ते उदये भवति । अयमत्राशयः-स्त्यानर्द्धित्रिकोदयः प्रमादरूपत्वाद् अप्रमत्ते न सम्भवति, आहारकद्विकं च विकुर्वाणो यतिरौत्सुक्याद् अवश्यं प्रमादवशगो भवत्यत इदमप्यप्रमत्ते उदयमाश्रित्य न जाघटीति, यत्पुनरिदमन्यत्र श्रूयते-प्रमत्तयतिराहारकं विकृत्य पश्चाद् विशुद्धिवशात् तत्रस एवाप्रमत्ततां यातीति तत् केनापि स्वल्पत्वादिना कारणेन पूर्वाचार्येर्न विवक्षितमित्यमाभिरपि न विवक्षितमिति ॥ १७ ॥ सम्मत्तंतिमसंघयणतिगच्छेओ विसत्तरि अपुव्वे । हासाइछक्कतो, छसहि अनियहि वेयतिगं ॥ १८॥ सम्यक्त्वम् अन्तिमसंहननत्रिकम्-अर्धनाराचसंहननकीलिकासंहननसेवार्तसंहननरूपमिस्येतत्प्रकृतिचतुष्टयस्याप्रमत्ते छेदो भवति, तत इदं प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोक्तषट्सप्ततेरपनीयते शेषा द्वासप्ततिः "अपुछि" ति अपूर्वकरणे उदये भवतीति । अयमत्राशयः-सम्यक्त्वे क्षपिते उपशमिते वा श्रेणिद्वयमारुह्यत इत्यपूर्वकरणादौ तदुदयाभावः, अन्तिमसंहननत्रयो १ उत्तरदेहे च देवयती ॥ २ तृतीयकषायाणामुदये प्रत्याख्यानावरणनामधेयानाम् । देशकदेशविरति चारित्रलाभं न तु लभन्ते ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाथा दये तु श्रेणिमारोढुमेव न शक्यते तथाविधशुद्धेरभावाद् इत्युत्तरेषु तदुदयाभावः । "हासाइछक्कअंतु" ति हास्यमादौ यस्य षटकस्य तद् हास्यादिषट्कं-हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साख्यं तस्मान्तोऽपूर्वकरणे भवति, संक्लिष्टतरपरिणामत्वाद् एतस्य, उत्तरेषां च विशुद्धतरपरिणामत्वात् तेषु तदुदयाभाव इति । उत्तरेष्वप्ययमुदयव्यवच्छेदहेतुरनुसरणीयः । तत इदं प्रकृति. षट्कं पूर्वोक्तद्विसप्ततेरपनीयते शेषा “छसट्ठि अनियट्टि" ति षट्षष्टिरनिवृत्तिबादरे भवति, उदयमाश्रित्येति शेषः । “वेयतिगं" ति वेदत्रिकं-स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदाख्यम् ॥ १८ ॥ संजलणतिगं छच्छेओ सहि सुहुमम्मि तुरियलोभंतो। उवसंतगुणे गुणसहि रिसहनारायदुगअंतो॥ १९॥ 'संज्वलनत्रिक' संज्वलनक्रोधमानमायारूपमित्येतासां षण्णां प्रकृतीनामनिवृत्तिबादरे छेदो भवति । तत्र स्त्रियाः श्रेणिमारोहन्त्याः स्त्रीवेदस्य प्रथममुदयच्छेदः ततः क्रमेण पुंवेदस्य नपुंसकवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति, पुंसस्तु श्रेणिमारोहतः प्रथमं पुंवेदस्योदयच्छेदस्ततः क्रमेण स्त्रीवेदस्य षण्ढवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति, षण्ढस्य तु श्रेणिमारोहतः प्रथमं षण्ढवेदस्योदयच्छेदस्ततः स्त्रीवेदस्य पुंवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति । एतत्प्रकृतिषट्कं पूर्वोक्तषषष्टेरपनीयते, शेषा "सहि सुहुमम्मि" ति षष्टिः सूक्ष्मसंपराये उदये भवति । अत्र च 'तुर्यलोमान्तः' चतुर्थलोमान्तः संज्वलनलोभव्यवच्छेद इत्यर्थः । तत इयमेका प्रकृतिः षष्टेरपनीयते शेषा 'उपशान्तगुणे' उपशान्तमोहगुणस्थाने एकोनषष्टिरुदये भवति । "रिसहनारायदुगअंतु" ति ऋषभनाराचद्विकम्-ऋषभनाराचसंहनननाराचसंहननाल्यं तस्यान्त उपशान्तगुणे भवति, प्रथमसंहननेनैव क्षपकश्रेण्यारोहणात् क्षीणमोहादौ तदुदयाभावः । उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुखते, तत इदं प्रकृतिद्वयं पूर्वोक्तैकोनषष्टेरपनीयते शेषा ॥ १९ ॥ सगवन्न खीण दुचरमि, निद्ददुगंतो य चरमि पणपन्ना। नाणंतरायदंसणचउ छेओ सजोगि बायाला ॥२०॥ सप्तपञ्चाशत् “खीण" ति क्षीणमोहस्य "दुचरिमि" ति द्विचरमसमये-चरमसमयादग् द्वितीये समये निद्राद्विकस्य-निद्रामचलाख्यस्य क्षीणद्विचरमसमयेऽन्त इत्येतत् प्रकृतिद्वयं पूर्वोक्तसप्तपञ्चाशतोऽपनीयते ततः "चरमि" ति चरमसमये क्षीणमोहस्येति शेषः, "पणपन्न" ति पञ्चपञ्चाशद् उदये भवति । इदमुक्तं भवति-निद्राप्रचलयोः क्षीणमोहस्य द्विचरमसमये उदयच्छेदः । अपरे पुनराहुः-उपशान्तमोहे निद्राप्रचलयोरुदयच्छेदः, पञ्चानामपि निद्राणां घोलनापरिणामे भवत्युदयः, क्षपकाणां त्वतिविशुद्धत्वाद् न निद्रोदयसम्भवः, उपशमकानां पुनरनतिविशुद्धत्वात् स्यादपीति । "नाणंतरायदंसणचउ" ति ज्ञानावरणपञ्चक-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानावरणरूपम् अन्तरायपञ्चकं-दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाख्यं दर्श नचतुष्कं-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणलक्षणमित्येतासां क्षीणमोहचरमसमये छेदो भवति, तदनन्तरं क्षीणमोहत्वाद् इत्येतत्प्रकृतिचतुर्दशकं पूर्वोक्तपञ्चपञ्चाशतोऽपनीयते, शेषेकचत्वारिंशत् तीर्थकरनामोदयाच्च तत्प्रक्षेपे द्वाचत्वारिंशत् सयोगिकेवलिनि भवतीति । एतदेवाह"सजोगि बायाल" ति स्पष्टम् ।। २० ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९-२२] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । तित्थुदया उरलाऽथिरखगइदुग परित्ततिग छ संठाणा । अगुरुलहुवन्नचउ निमिणतेयकम्माइसंघयणं ॥ २१॥ ननु पञ्चपञ्चाशतो ज्ञानावरणपञ्चकाऽन्तरायपञ्चकदर्शनचतुष्कलक्षणप्रकृतिचतुर्दशकापनयन एकचत्वारिंशदेव भवति, ततः कथमुक्तं सयोगिनि द्विचत्वारिंशद्? इत्याह--"तित्थुदय" ति 'तीर्थोदयात्' तीर्थकरनामोदयादित्यर्थः । यतः सयोग्यादौ तीर्थकरनामोदयो भवति, यदुक्तम् उदए जस्स सुरासुरनरवानिवहेहिँ पूहओ होइ। तं तित्थयरन्नामं, तस्स विवागो हु केवलिणो ॥ (बृ० क० वि० गा० १४९) ततः पूर्वोक्तकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम क्षिप्यते जाता द्विचत्वारिंशत् , सा च सयोगिनि भवतीति। "उरलाऽथिरखगइदुग" त्ति द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् अस्थिरद्विकम्-अस्थिराऽशुभाख्यं खगतिद्विकं-शुभविहायोगत्यशुभविहायोगतिरूपम् “परिततिग" ति प्रत्येकत्रिकम्-प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् "छ संठाण" ति षट्संस्थानानि-समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुन्जहुण्डखरूपाणि संस्थानशब्दस्य च पुंस्त्वं प्राकृतलक्षणवशात् , यदाह पाणिनिः खप्राकृतलक्षणे-"लिंगं व्यभिचार्यपि" । "अगुरुलहुवन्नचउ' त्ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् अगुरुलघुचतुष्कम्-अगुरुलघूपघातपराघातोच्छ्रासाख्यं वर्णचतुष्क-वर्णगन्धरसम्पर्शरूपम् "निमिण" ति निर्माणं "तेय" ति तैजसशरीरं "कम्म" ति कार्मणशरीरं "आइसंघयण" ति प्रथमसंहननं वज्रर्षभनाराचसंहननमित्यर्थः ॥ २१ ॥ दुसर सुसर सायासाएगयरं च तीस वुच्छेओ। पारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नयरवेयणियं ॥ २२ ॥ तसतिग पणिदि मणुयाउगइ जिणुचं ति चरमसमयंता। ॥ उदओ सम्मत्तो॥ दुःखरं सुखरं सातं च-सुखम् असातं च-दुःखं सातासाते तयोरेकतरम्-अन्यतरत् सात वाऽसातं वेत्यर्थः, तैदेतासां त्रिंशतः प्रकृतीनां सयोगिकेवलिन्युदयव्यवच्छदः। तत्रैकतरवेदनीय यदयोगिकेवलिनि न वेदयितव्यं तत् सयोगिकेवलिचरमसमये व्युच्छिन्नोदयं भवति, पुनरुचरत्रोदयाभावात् । दुःखरसुखरनाम्नोस्तु भाषापुद्गलविपाकित्वाद् वाग्योगिनामेवोदयः, शेषाणां पुनः शरीरपुद्गलविपाकित्वात् काययोगिनामेव । तेन हि योगेन पुद्गलग्रहणपरिणामालम्बनानि, ततस्तेषु गृहीतेष्वेतेषां कर्मणां स्वखविपाकेनोदयो भवति, तेनाऽयोगिकेवलिनि तद्योगाभावात् तदुदयाभाव इति एतास्त्रिंशत् प्रकृतयः पूर्वोक्तद्विचत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, ततः शेषा द्वादश प्रकृतयोऽयोगिकेवलिन्युदयमाश्रित्य भवन्तीति । एतदेवाह-~"बारस अजोगि" इत्यादि । द्वादश प्रकृतयोऽयोगिकेवलिनि 'चरमसमयान्ताः' चरमसमयेऽयोगिकेवलिगुणस्थान १ उदये यस्य सुरासुरनरपतिनिवहैः पूजितो भवति । तत् तीर्थकरनाम तस्य विपाको हि केवलिनः । २ तत एता ख० कु०॥ क. १२ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा स्मान्तः - व्यवच्छेदो यासां ताश्वरमसमयान्ताः । ता एवाह सुभगं आदेयं "जस" ति यश:कीर्तिनाम अन्यतरवेदनीयं सयोगिकेवलिचरमसमयव्यवच्छिन्नोद्वरितं वेदनीयमित्यर्थः ॥ २२ ॥ "तसतिगं" ति त्रसत्रिकं - त्रसबादरपर्याप्ताख्यं “ पणिदि" ति पञ्चेन्द्रियजातिः " मणुयाउगइ" त्ति मनुजशब्दस्य प्रत्येकं योगात् मनुजायुर्मनुजगतिः "जिण" ति जिननाम "उ" ति उच्चैर्गोत्रम् इतिशब्दो द्वादशप्रकृतिपरिसमाप्तिद्योतक इति ॥ ॥ इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायामुदयाधिकारः समाप्तः ॥ उदयाधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । दुष्कर्मोदयरहितो, लोकः सर्वोऽपि तेनास्तु ॥ अथ तस्य भगवतः कस्मिन् गुणस्थाने कियत्यः प्रकृतय उदीरणामाश्रित्य व्यवच्छिन्नाः ! इत्येतदतिदेशद्वारेणाह - ear agदीरणा परमपमसाईसगगुणे ॥ २३ ॥ उदयवद् उदीरणा पूर्वोक्तशब्दार्था गुणस्थानेषु वक्तव्या । किमुक्तं भवति ? यावतीनां प्रकृतीनामुद स्वामी तावतीनामुदीरणास्वाम्यपीति । अतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमाह – “परमपम - ताईसगुणेति । 'पर' केवलमियान् विशेष::- अप्रमत्त आदौ येषां तेऽप्रमत्तादयः गुणाःगुणस्थानानि सप्त च ते गुणाश्च सप्तगुणाः, अप्रमत्तादयश्च ते सप्तगुणाश्च अप्रमत्तादिसप्तगुणास्तेष्वप्रमत्ता दिसप्तगुणेषु ॥ २३ ॥ किम् ? इत्याह एसा पयडितिगुणा, वेयणियाऽऽहारजुगल धीणतिगं । मणुयाउ पमत्तंता, अजोगि अणुदीरगो भगवं ॥ २४ ॥ ॥ उदीरणा सम्मत्ता ॥ 1 'एषा' उदीरणा प्रकृतित्रिकेण ऊना-हीना वक्तव्या । इयमत्र भावना - — मिध्यादृष्टेः सप्तदशोत्तरशतस्योदयः, उदीरणाऽप्येवम् । साखादनस्य एकादशशतस्योदयस्तथैवोदीरणाऽपि । मिश्रस्योदयः शतस्य, उदीरणाऽपि । अविरतसम्यग्दृष्टेरुदयश्वतुरुत्तरशतस्य तथैवोदीरणा । देशविरतस्य सप्ताशीतेरुदयः, उदीरणाऽपि । प्रमत्तस्यैकाशीतेरुदयः, उदीरणाऽपि च । अप्रमत्ते उदयः षट्सप्ततेः, उदीरणा त्रिसप्ततेः १ । अपूर्वकरणे उदयो द्विसप्ततेः उदीरणा एकोनसप्ततेः २ । अनिवृत्तिबादरे उदयः षट्षष्टेः उदीरणा त्रिषष्टेः ३ । सूक्ष्मसम्पराये उदयः षष्टेः, उदीरणा सप्तपञ्चाशतः ४ । उपशान्तमोहे उदय एकोनषष्टेः, उदीरणा षट्पञ्चाशतः ५ । क्षीणमोहे उदयः सप्तपञ्चाशतः, उदीरणा चतुष्पश्चाशतः ६ । सयोगिकेवलिन्युदयो द्विचत्वारिंशतः, उदीरणा एकोनचत्वारिंशत ७ इति । ननु केन प्रकृतित्रिकेणाऽप्रमत्तादिषूदीरणा ऊना ! इत्याशङ्कयाह – “वेयणियाहारजुगल" ति, युगलशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद् वेदनीययुगलं - - सातवेदनीयाऽसात वेदनीयरूपम्, आहारकयुगलम् - आहार कशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणम्, "थीणतिगं" ति 'स्त्यानर्द्धित्रिकं' निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिरूपं, मनुष्यायुः इत्येतासामष्टानां Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३-२५] कर्मस्तवाल्यो द्वितीयः कर्मबन्धः । प्रकृतीनां प्रमतेऽन्तः-व्यवच्छेद उदीरणां प्रतीत्य यासां ताः प्रमत्तान्ताः । अयमत्र भावार्थ:-स्त्यानचित्रिकं प्रमादरूपत्वाद् अप्रमत्तादिषु नास्त्येव, कुतस्तेषु तदुदीरणा ! आहारकशरीरं च विकुर्वाण औत्सुक्याद् यतिः प्रमत्त एवेति अप्रमत्तादिषु तदपि नास्ति, कुतस्तेषु तदुदीरणा !; सातासातमनुजायुषां हि प्रमादसहितेनैव योगेनोदीरणा भवति नान्येनेत्युत्तरेषु न तदुदीरणा । तदयमत्र तात्पर्यार्थः----उदयमाश्रित्य प्रमत्ते हि स्त्यानर्द्वित्रिकाहारकद्विकाल्यपञ्चप्रकृतयो व्यवच्छिद्यन्ते, उदीरणामाश्रित्य पुनः स्त्यानर्द्धित्रिकाहारकद्विकसातासातमनुजा. युर्लक्षणा अष्टौ प्रकृतय इति मनुजायुःसातासातरूपप्रकृतित्रयेणाऽप्रमत्तादिषु ऊना उदीरणा वाच्येति । 'अयोगी' अयोगिकेवली 'अनुदीरकः' न किमपि कर्मोदीरणया क्षिपति, योगाभावात् , उदीरणा हि योगकृतकरणविशेष इति भगवान् परमप्रयत्नवान् सर्वसंवररूपचारित्रधर्मवान् वेत्यर्थः ॥ २४ ॥ इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायामुदीरणाधिकारः समाप्तः ।। सुकृतं मया यदाप्तं, विवृण्वतोदीरणाधिकारमिमम् । तेनास्तु सर्वलोको, दुष्कर्मोदीरणारहितः ॥ अथ सत्तालक्षणकथनपूर्वकं यथा तेन भगवता त्रिलोकीपतिना श्रीमद्वर्धमानखामिना सत्तामाश्रित्य गुणस्थानेषु कर्माणि क्षपितानि तथा प्रतिपादयन्नाह सत्ता कम्माण ठिई, बंधाईलद्धअत्तलाभाणं । संते अडयालसयं, जा उवसमु विजिणु बियतइए ॥२५॥ सत्ता उच्यत इति शेषः, किम् ? इत्याह-'कर्मणां' ज्ञानावरणादियोग्यपरमाणूनां स्थितिः अवस्थानं सद्भाव इति पर्यायाः । किंविशिष्टानां कर्मणाम् ! इत्याह-'बन्धादिलब्धात्मलाभाना' तत्र मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः कर्मयोग्यपुद्गलैरात्मनो वययःपिण्डवद् अन्योऽन्यानुर्गमाभेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः, आदिशब्दात् सङ्क्रमकरणादिपरिग्रहः, ततो बन्धादिभिर्लब्धःप्राप्त आत्मलाभ:-आत्मखरूपं यैस्तानि बन्धादिलब्धात्मलाभानि तेषां बन्धादिलब्धात्मलाभानां कर्मणां या स्थितिः सा सत्ता, तस्यां "संते" ति सत्कर्मणि-सत्तायामष्टाचत्वारिंशं शतं प्रकृतीनां भवति । कियन्ति गुणस्थानानि यावद् ! इत्याह-“जा उवसमु" ति 'यावदुपशमम्' उपशान्तमोहम् । अयमर्थः-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात् प्रभृत्युपशान्तमोहगुणस्थानं यावदष्टाचत्वारिंशं शतं सत्तायां भवति । किमविशेषेण ? नेत्याह-"विजिणु बियतइए" ति विगतं जिननाम यस्मात् तद् विजिनं जिननामविरहितं तदेवाष्टाचत्वारिंशं शतं भवति । क! इत्याह-द्वितीये-साखादने तृतीये-मिश्रदृष्टौ, "सासणमिस्सरहिएसु वा तित्यं” इति वचनात् साखादनमिश्रयोः सप्तचत्वारिंशं शतं भवतीत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्-इह मिथ्यादृष्टरष्टचत्वारिंशमपि शतं सत्तायाम् ; यदा हि प्राग्बद्धनरकायुः क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्य तीर्थकरनानो बन्धमारभते तदाऽसौ नरकेधूत्पद्यमानः सम्यक्त्वमवश्यं वमतीति मिथ्यादृष्टे. १°तः कर ग० ० ॥ २ °गमोऽमे° उ०॥ ३ साखादन मिश्ररहितेषु वा तीर्थकरम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा स्तीर्थकरनाम्नोऽपि सत्ता सम्भवति; साखादनमिश्रयोस्तु तस्मिन्नेव जिननामरहिते सप्तचत्वारिंशं शतं सत्तायां, जिननामसत्कर्मणो जीवस्य तद्भावाऽनवाप्तेः, तद्वन्धारम्भस्य च शुद्धसम्यक्त्वप्रत्ययत्वात् । यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवभाष्ये तित्थयरेण विहीणं, सीयालसयं तु संतए होइ । सासायणम्मि उ गुणे, सम्मामीसे य पयडीणं ॥ (गा० २५) अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनामक्षिप्तदर्शनसप्तकानामष्टचत्वारिंशस्यापि शतस्य सत्ता सम्भवतीति ॥२५॥ अप्पुव्वाइचउक्के, अण तिरिनिरयाउ विणु बिआलसयं । सम्माइचउसु सत्तगखयम्मि इगचत्तसयमहवा ॥ २६ ॥ . . गाथापर्यन्तवय॑थवाशब्दस्य सम्बन्धात् पूर्व तावदष्टचत्वारिंशं शतं सत्तायामुक्तम् , अथवाऽयमपरः सत्तामाश्रित्य भेदः, तथाहि-'अपूर्वा दिचतुष्के' अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहरूपे "अण" ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कं "तिरिनिरयाउ" ति आयु:शब्दस्य प्रत्येकं योगात् तिर्यगायुर्नरकायुश्च विना द्विचत्वारिंशं शतं भवतीति । अयमाशयः-यः कश्चिद् विसंयोजितानन्तानुबन्धिचतुष्को बद्धदेवायुमनुजायुषि वर्तमान उपशमश्रेणिमारोहति, तस्य तिर्यगायुर्नरकायुरनन्तानुबन्धिचतुष्कलक्षणप्रकृतिषट्करहितं शेषं द्विचत्वारिंशं शतं सत्तायां प्राप्यते । यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवभाष्ये अणतिरिनारयरहियं, बायालसयं वियाण संतम्मि । उवसामगस्सऽपुबानियट्टि सुहुमो व संतम्मि || (गा० २६) "सम्माइचउसु" ति सम्यक्त्वादिचतुर्पु-अविरतसम्यग्दृष्टिदेश विरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु “सत्तगखयम्मि" ति अनन्तानुबन्धिचतुप्कमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वलक्षणसप्तकक्षये सत्येकचत्वारिंशं शतमथवा सत्तायां भवति । इहाप्यथवाशब्द आवृत्त्या योज्यते । यदुक्तं वृहत्कर्मस्तवसूत्रे अणमिच्छमीससम्मं, अविरयसम्माइअप्पमत्तंता । ( गा० ६) इति ॥ २६ ॥ ग्ववगं तु पप्प चउसु वि, पणयालं नरयतिरिसुराउ विणा । सत्तग विणु अडतीसं, जा अनियट्टी पढमभागो ॥ २५॥ क्षपकं 'तुः' पुनरर्थे, क्षकं पुनः 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'चतुर्वपि' अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमतेषु "पणयालं" ति पञ्चचत्वारिंशं शतमथवा भवति । अथवाशब्द इहापि सम्बध्यते । कथम् ? इत्याह---"नरयतिरिसुराउ विण" ति, आयुःशब्दस्य प्रत्येकं योगात् नरकायुस्तिर्यगायुः सुरायुर्विना-अन्तरेण । इदमुक्तं भवति-यो जीवो नारकतिर्यक्सुरेषु चरमं तद्भवमनुभूय मनुष्यतयोत्पन्नस्तस्य नारकतिर्यक्सुरायूंषि खखभवे व्यवच्छिन्नसत्ताकानि जातानि, पुनस्त. १ तीर्थकरेण विहीनं सप्तचत्वारिंशं शतं तु सत्तायो भवति । सास्वादने तु गुणे सम्यम्मिश्रे च प्रकृतीनाम् ॥ २ अनतिर्यनारकरहितं द्वाचत्वारिंशं शतं विजानीहि सत्तायाम् । उपशामकस्य अपूर्वस्याऽनिवृत्तेः सूक्ष्मस्य (अपूर्वस्येत्यादी विभक्तिव्यत्ययात्षष्टी) वा सत्तायाम् (भनेत्यनेनानन्तानुबन्धिचतुष्कं गृह्यते ) ॥ ३ अनमिथ्यामिश्रसम्यक अविरतसम्यक्लाचप्रमत्तान्तम् ॥ (अत्राप्यनेत्यनेनानन्तानुबन्धिचतुष्कं ।) ४ पकजिन पुख० ग०॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः । २६-२९ ] दनवाप्तेः । उक्तं च इति । सुरनरयतिरियआउं, निययभवे सबजीवाणं । ( बृ० क० स्त० गा० ६ ) इयं चैतेषु गुणस्थानेषु सामान्यजीवानां सम्भवमाश्रित्य सत्ता वर्णिता, न त्वधिकृतस्तव - स्तुत्यस्य चरमजिनपरिवृढस्य, अस्याः सुरनारकतिर्यगायुः सम्भवापेक्षणीयत्वाद्, जिनस्य च तदसम्भवात् तस्यापि च प्राग्भवापेक्षया सम्भवो वाच्यः । इदमेव पञ्चचत्वारिंशं शतं सप्तकमनन्तानुबन्धिमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वाख्यं विनाऽष्टात्रिंशं शतं भवति । कियन्ति गुणस्था - नानि यावद् ? इत्याह-- " जा अनियट्टी पढमभागु" त्ति, इहानिवृत्तिबादराद्धाया नव भागाः क्रियन्ते, ततोऽविरते देश विरते प्रमत्तेऽप्रमत्ते निवृत्तिबादरेऽनिवृत्तिबादरस्य च प्रथमो भागस्तावदष्टात्रिंशं शतं भवति । उक्तं च- संते अडयालसयं, खवगं तु पडुच होड़ पणयालं । आउतिगं नत्थि तर्हि, सत्तगखीणम्मि अडतीसं ॥ ( बृ० क० स्त० भा० गा० २९ ) पैणालं अडतीसं, अविरयसम्माउ अप्पमत्तु ति । अ अडतीसं, नवरं खवगम्मि बोधवं ॥ ९१ इति ॥ २७ ॥ अथ क्षपक श्रेणिमधिकृत्याऽनिवृत्तिबादरादिषु प्रकृतिषु सत्ता वर्ण्यते उपशम श्रेणिसत्तायास्त्विह नाधिकार इति - धावर तिरिनिरयायवदुग श्रीणतिगेग विगल साहारं । " सोलखओ दुवीस सयं, बियंसि बियतियकसायंतो ॥ २८ ॥ हानिवृत्तिबादरस्य प्रथमे भागेऽष्टत्रिंशं शतं सत्तायां भवति । तत्र च “थावरतिरिनिरयायदुग” त्तिद्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् स्थावरद्विकं - स्थावर सूक्ष्मलक्षणम्, तिर्यद्विकं - तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीरूपम्, नरकद्विकं - नरकगतिनरकानुपूर्वीलक्षणम् आतपद्विकम् - आतपोद्योताख्यम्, “थीणतिग” त्ति स्त्यानर्द्धित्रिकं - निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिलक्षणम्, “इग” ति एकेन्द्रियजातिः, “विगल" ति विकलेन्द्रियजातयः - द्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिलक्षणांः, "साहारं " ति साधारणनाम इत्येतासां षोडशानां प्रकृतीनां क्षयः सत्तामाश्रित्य भवति । ततोऽनिवृत्तिबादरस्य 'धंशे' द्वितीयभागे द्विविंशं शतं भवति । तत्र “बियतियकसायं तु" त्ति कषायशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वितीयकषायाः - अप्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः, तृतीयकषायाः - प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वार इत्येतासामष्टानां प्रकृतीनामन्तः क्षयः । . ततस्तृतीयांशे चतुर्दशशतं भवतीति ॥ २८ ॥ एतदेवाह - तइयाइसु चउदसतेरबारछपणचउतिहिय सय कमसो । नपुइत्थिहासछगपुंसतुरियकोहमयमायखओ ॥ २९ ॥ १ सुरनरकतिर्यगायुर्निजकभवे सर्वजीवानाम् ॥ २ सत्तायामष्टचत्वारिंशं शतं क्षपकं तु प्रतीत्य भवति पञ्चचत्वारिंशम् | आयुनिकं नास्ति तत्र सप्तके क्षीणेऽष्टात्रिंशम् ॥ ३ पश्चचत्वारिंशमष्टात्रिंशमविरतसम्यक्त्वादप्रमत्त इति । अपूर्वेऽष्टात्रिंशं नवरं क्षपके बोद्धव्यम् ॥ ४ 'जातिः - द्वी' क० घ० ॥ ५°णा 'सा' क० ६० ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिबिरचितसोपाटीकोपेतः [गाथ __तृतीयादिषु भागेषु चतुर्दश च त्रयोदश च द्वादश च षट् च पञ्च च चत्वारि च श्रीणि चेति द्वन्द्वः, तैरधिकं शतम् , “तिहिय सय" इत्यत्राकारलोपो विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् , 'क्रमशः' क्रमेण सत्तायां भवति । कथम् ? इत्याह-"नपुइत्थि" इत्यादि । नपुं च-नपुंसकवेदः स्त्री च-स्त्रीवेदः हास्यषट्कं च-हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यं पुमांश्च-पुंवेदः नपुं. स्त्रीहास्पषट्कपुमांसः, क्रोधश्च-कोपः मदश्च मदो मानोऽहकार इति पर्यायाः माया चनिकृतिः क्रोधमदमायाः, तुर्याः-चतुर्थाः संज्वलनाः क्रोधमदमायास्तुर्यक्रोधमदमायाः, नपुंस्त्रीहास्यपटकपुमांसश्च तुर्यक्रोधमदमायाश्च नपुंस्त्रीहास्यषट्क'तुर्यक्रोधमदमायाः, तासां क्षयो नपुंसीहास्यषट्कपुंतुर्यक्रोधमदमायाक्षयः । 'मायखओ' इत्यत्र हखत्वं “दीर्घहखौ मिथो वृत्तौ" (सि० ८-१-४) इत्यनेन प्राकृतसूत्रेण । इति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-अनिवृत्तिबादरस्य तृतीये भागे द्वितीयतृतीयकषायाष्टकक्षये चतुर्दशाधिकं शतम् , चतुर्थभागे नपुंसकवेदक्षये त्रयोदशाधिकं शतम् , पञ्चमे भागे स्त्रीवेदक्षये द्वादशाधिकं शतम् , षष्ठे भागे हास्यषट्कक्षये षडधिकं शतम् , सप्तमे भागे पुंवेदक्षये पञ्चाधिक शतम् , अष्टमे भागे संज्वलनको. धक्षये चतुरधिकं शतम् , नवमे भागे संज्वलनमानक्षये व्यधिकं शतम् , संज्वलनमायाक्षये तु व्यधिक शतं सत्तायां भवति । तच्च सूक्ष्मसम्पराये ॥ २९ ॥ तथा चाह सुहुमि दुसय लोहंतो, खीणदुचरिमेगसय दुनिहखओ। नवनवइ चरमसमए, चउदंसणनाणविग्धंतो॥ ३०॥ "सुहुमि" ति सूक्ष्मसम्पराये 'द्विशतं' द्वाभ्यामधिकं शतं सत्तायां भवति । तत्र च 'लोमान्तः' संज्वलनलोभस्य क्षयः । ततः "खीणदुचरिमेगसउ" ति क्षीणमोहद्विचरमसमये 'एकशतम्' एकाधिकं शतं सत्तायाम् । तत्र च "दुनिद्दखउ" ति निद्राप्रचलयोर्द्वयोः क्षयो भवति, ततो नवनवतिश्चरमसमये क्षीणमोहगुणस्थानस्येति शेषः । तत्र चत्वारि च तानि दर्शनानि च चतुर्दर्शनानि-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि, ज्ञानानि ज्ञानावरणानिमतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानावरणलक्षणानि पञ्च, विनानि-दानलाभमोगोपभोगवीर्यविनरूपाणि पञ्च, तेषामन्तो भवति ॥ ३०॥ ततः पणसीइ सजोगि अजोगि दुचरिमे देवखगइगंधदुगं। फासह वनरसतणुबंधणसंघायपण निमिणं ॥ ३१॥ पञ्चाशीतिः सयोगिकेवलिनि सतायां भवति । ततः "अजोगि दुचरिमे" ति अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमये इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनां क्षयो भवति । ता एवाह-"देवखगइगंधदुगं" ति । द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् देवद्विकं-देवगतिदेवानुपूर्वीरूपम् , खगतिविकशुभविहायोगत्यशुभविहायोगतिरूपम् , गन्धद्विकं-सुरभिगन्धाऽसुरमिगन्धाख्यम्, "फासट्ट" त्ति स्पर्शाष्टकं-गुरुलघुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरूक्षाख्यम् , “वन्नरसतणुबंधणसंघायपण" ति पश्चकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद्वर्णपञ्चकं-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लाख्यम् , रसपश्चक-तिक्तकटुकषायाम्लमधुररूपम् , तनुपञ्चकम्-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणतनुलक्षणम्, एवं तनुनामा बन्धनपञ्चकं सङ्घातनपश्चकं च वाच्यम् , “निमिण" ति निर्माणमिति ॥ ३१॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०-३४] कर्मविपाकनामा द्वितीयः कर्मप्रन्यः । संघयणअथिरसंठाणछक अगुरुलहुचउ अपज्जतं। सायं व असायं वा, परित्तुवंगतिग सुसर नियं ॥ ३२॥ - षट्कशब्दस्य प्रत्येकं योगात् संहननषट्कं-वज्रऋषभनाराचऋषभनाराचनाराचाऽर्धनाराचकीलिकासेवार्तसंहननाल्यम् , अस्थिरषट्कम्-अस्थिराऽशुभदुर्भगदुःखराऽनादेयाऽयशःकीर्तिरूपम् , संस्थानषट्कं-समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुन्जहुण्डसंस्थानाख्यम् , अगुरुलघुचतुष्कम्-अगुरुलघूपघातपराघातोच्छासाख्यम् , अपर्याप्तम् , सातं वाऽसातं वा एकतरवेदनीयं, यदनुदयावस्थम् , “परित्तुवंगतिग" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् प्रत्येकत्रिकं प्रत्ये. कस्थिरशुभाख्यम् , उपात्रिकम्-औदारिकवैक्रियाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गरूपम् , सुखरम् , "नियं" ति नीचैर्गोत्रमिति ॥ ३२ ॥ बिसयरिखओ य चरिमे, तेरस मणुयतसतिग जसाइज्ज। सुभगजिणुच पणिंदिय सायासाएगयरछेओ॥३३॥ इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनामयोगिकेवलिद्विचरमसमये सत्तामाश्रित्य क्षयो भवति । ततः पूर्वोक्तपञ्चाशीतेरिमा द्विसप्ततिप्रकृतयोऽपनीयन्ते शेषास्त्रयोदश प्रकृतयोऽयोगिचरमसमये क्षीयन्ते । तथा चाह-"बिसयरिखओ" ति स्पष्टम् । 'चः' पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च । चरमसमये पुनः अयोगिकेवलिनस्त्रयोदशप्रकृतीनां क्षयो भवति । "मणुयतसतिग" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् मनुजत्रिक-मनुजगतिमनुजानुपूर्वीमनुजायुर्लक्षणम् , त्रसत्रिकं-त्रसबादरपर्याप्ताख्यम् , “जसाइज" ति यशःकीर्तिनाम आदेयनाम सुभगम् "जिणुच" ति जिननाम उच्चैर्गोत्रम् । “पणिंदिय" ति पञ्चेन्द्रियजातिः सातासातयोरेकतरं तस्य च्छेदः-सचामाश्रित्य क्षय इति ॥ ३३ ॥ अत्रैव मतान्तरमाह नरअणुपुटिव विणा घा, बारस चरिमसमयम्मि जो खविउं । पत्तो सिद्धिं देविंदवंदियं नमह तं वीरं ॥ ३४ ॥ 'नरानुपूर्वी विना' मनुष्यानुपूर्वीमन्तरेण वाशब्दो मतान्तरसूचको द्वादश प्रकृतीरयोगिकेवलिचरमसमये यः क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तस्तं वीरं नमतेति सण्टङ्कः । अयमत्राभिप्रायःमनुजानुपूर्व्या अयोगिद्विचरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः, उदयाभावात् , उदयवतीनां हि द्वादशानां स्तिबुकसङ्कमाभावात् खानुभावेन दलिकं चरमसयेऽपि दृश्यत इति युक्तस्तासां चरमसमये क्षयः; आनुपूर्वीनाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकित्वादः भवान्तरालगतावेवोदयस्तेन भवस्थस्य नास्ति तदुदयः, तदुदयाभावाचायोगिद्विचरमसमये मनुजानुपूर्व्या अपि सत्ताव्यवच्छेदः, तन्मतेऽयोगिकेवलिनो द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां चरमसमये [च] द्वादशानां क्षय इति । ततो यो भगवान् मातापित्रोर्दिवतयोः सम्पूर्णनिजप्रतिज्ञो मक्तिसम्भारम्राजिष्णुरोचिष्णुलोकान्तिकत्रिदशसद्मजन्मभिः पुष्पमाणवकैरिव "सर्वजगजीवहियं भयवं तित्थं पवत्तेहि" (आव० नि० गा० २१५) इत्यादिवचोभिर्निवेदिते निष्क्रमणसमये संवत्सरं यावत् निरन्तरं स्थूरचामीकरधारासारैः प्रावृषेण्यधाराधर इवामुद्रदारियसन्तापप्रसरमवनीमण्डलस्योपशमय्य परस्पर १ सर्वजगजीवहितं भगवन तीर्थ प्रवर्तय ॥ - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा महमहमिकया समायातसुरासुरनरोरगनायकनिकरैः "जय जीव नन्द क्षत्रियवरवृषभ !" इत्यादिवचनरचनया स्तूयमानः सम्प्राप्य ज्ञातखण्डवनं प्रतिपन्ननिरवद्यचारित्रभारः साधिका द्वादशसंवत्सरी यावत् परीषहोपसर्गवर्गसंसर्गमुग्रमधिसह्य परमसितध्यानाऽकुण्ठकुठारधारया सकलघनघातिवनखण्डखण्डनमखण्डमाधाय निर्मलाऽविकलकेवलबलावलोकितनिखिललोकालोकः श्रीगौतमप्रभृतिमुनिपुङ्गवानां तत्त्वमुपदिश्य संसारसरितः सुखं सुखेन समुत्तरणाय भव्यजनानां धर्मतीर्थमुपदाऽयोगिकेवलिचरमसमये त्रयोदश प्रकृतीदश प्रकृतीर्वा क्षपयित्वा 'सिद्धि' परमानन्दरूपां प्राप्तः, तं 'नमत' प्रणमत 'वीर' श्रीवर्धमानस्वामिनम् , किंविशिष्टम् ? 'देवे. न्द्रवन्दितं' देवानां भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामिन्द्राः-खामिनो देवेन्द्रास्तैर्वन्दितः शशधरकरनिकरविमलतरगुणगणोत्कीर्तनेन स्तुतः शिरसा च प्रणतः “वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः" इति वचनात् , यद्वा पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् देवेन्द्रेण-देवेन्द्रसूरिणा आचार्येण श्रीमजगचन्द्रसूरिचरणसरसीरुहचञ्चरीकेण वन्दितः सकलकर्मक्षयलक्षणाऽसाधारणगुणसङ्कीर्तनेन स्तुतः कायेन च प्रणत इति । 'नमत' इति प्रेरणायां पञ्चम्यन्तं क्रियापदम् , तच्च श्रोतृणां कथञ्चिदनाभोगवशतः प्रमादसम्भवेऽप्याचार्येण नोद्विजितव्यम् , किन्तु मृदुमधुरवचोभिः शिक्षानिबन्धनैः श्रोतृणां मनांसि प्रहाद्य यथार्ह सन्मार्गप्रवृत्तिरुपदेष्टव्या इति ज्ञापनार्थम् । यदाह प्रवचनोपनिषद्वेदी भगवान् हरिभद्रसूरिः अणुवतणाइ सेहा, पायं पावंति जुग्गयं परमं । रयणं पि गुणुक्करिसं, उवेइ सोहम्मणगुणेणं ॥ (पञ्चव७ गा० १७) इस्थ य पमायखलिया, पुवब्भासेण कस्स व न हुति । जो तेऽवणेइ सम्मं, गुरुत्तणं तस्स सफलं ति ॥ ( पश्चच० गा० १८) को नाम सारहीणं, स हुज जो भद्दवाइणो दमए । दुढे वि य जो आसे, दमेइ तं सारहिं बिति ॥ (पञ्चव० गा० १९) इति ॥३४॥ ॥ इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां सत्ताधिकारः समाप्तः ।। ॥ तत्समाप्तौ च समाप्ता लघुकर्मस्तवटीका ॥ सत्ताधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । निःशेषकर्मसत्तारहितस्तेनास्तु लोकोऽयम् ।। - १ अनुवर्तनया शिक्षकाः प्रायः प्राप्नुवन्ति योग्यतां परमाम् । रत्नमपि गुणोत्कर्षमुपैति शोधकगुणेन ॥ अत्र चप्रमादस्खलितानि पूर्वाभ्यासेन कस्य वा न भवन्ति । यस्तानि अपनयति सम्यग गुरुत्वं तस्य सफलमिति॥ को नाम सारथीनां स भवेद् यो भद्रवाजिनो दमयेत् । । दुष्टानपि च योऽश्वान् दमयति तं सारथिं शुषते ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मप्रन्धः। ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् । कर्ममलपटलमुक्तः, स श्रीवीरो जिनो जयतु ।। १॥ कुन्दोज्वलकीर्तिभरैः, सुरभीकृतसकल विष्टपाभोगः । शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु ॥ २ ॥ तदनु सुधर्मस्वामी जम्बूप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः । श्रुतजलनिधिपारीणाः, भूयांसः श्रेयसे सन्तु ॥ ३ ॥ क्रमात् प्राप्ततपाचायेंत्यभिख्या भिक्षुनायकाः । समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः ॥ ४ ॥ जगन्जनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् । विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः ॥ ५ ॥ खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिणा। कर्मस्तवस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ६ ॥ विबुधवरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसूरिमुख्यबुधैः । खपरसमयैककुशलैस्तदैव संशोधिता चेयम् ॥ ७ ॥ यद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे । विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् ॥ ८ ॥ कर्मस्तवसूत्रमिदं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । सर्वेऽपि कर्मबन्धास्तेन त्रुट्यन्तु जगतोऽपि ॥ ९ ॥ इति खोपक्षटीकोपतः कर्मस्तवः। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ तपायच्छीयपूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितः बन्धस्वामित्वनामा तृतीयः कर्मग्रन्थः। सावरिका सम्यग् बन्धखामित्वदेशकं वर्धमानमानम्य । बन्धस्वामित्वस्य, व्याख्येयं लिख्यते किञ्चित् ॥ इह खपरोपकाराय यथार्थाभिधानं बन्धवामित्वप्रकरणमारिप्सुराचार्यो मङ्गलादिप्रतिपादिकां गाथामाह बंधविहाणविमुकं, वंदिय सिरिषद्धमाणजिणचंदं । गइयाईसुं बुच्छं, समासओ बंधसामित्तं ॥१॥ व्याख्या-इह प्रथमार्धेन मङ्गलं द्वितीयानाऽभिधेयं साक्षादुक्तम् । प्रयोजनसम्बन्धौ तु सामर्थ्यगम्यौ । तत्र बन्धः-कर्मपरमाणूनां जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य विधानं--मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिर्निर्वर्तनं बन्धविधानं तेने विमुक्तः स तथा तं बन्धविधान विमुक्तं वन्दित्वा श्रीवर्धमानजिनचन्द्रम् 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'समासतः' संक्षेपतो न विस्तरेण, किम् ? इत्याह'बन्धस्वामित्वं' बन्धः-कर्माणूनां जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य स्वामित्वम्-आधिपत्यं जीवानामिति गम्यते । केषु ? “गइयाईसुं" ति गतिरादिर्येषां तानि गत्यादीनि, आदिशब्दाद् इन्द्रियादिपरिग्रहः, तेषु गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु । अत्र चेयं मार्गणास्थानप्रतिपादिका बृहद्भन्धखामिलगाथागइ १ इंदिए य २ काए ३, जोए ४ वेए ५ कसाय ६ नाणे य । संजम ८ दसण ९ लेसा १०, भव ११ सम्मे १२ सन्नि १३ आहारे १४ ॥ (गा०२) तत्र गतिश्चतुर्धा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति १ । इन्द्रियं स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्र मेदात् पञ्चधा, इन्द्रियग्रहणेन च तदुपलक्षिता एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते २ । कायः षोढा पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसकायमेदात् ३ । योगः पञ्चदशधा-सत्यमनोयोगः १ असत्यमनोयोगः २ सत्यासत्यमनोयोगः ३ असत्यामृषामनोयोगः ४ सत्यवाग्योगः ५ असत्यवाग्योगः ६ सत्यासत्यवाग्योगः ७ असत्यामृषावाग्योगः ८ वैक्रियकाययोगः ९ आहारककाययोगः १० औदारिककाययोगः ११ वैक्रियमिश्रकाययोगः १२ आहारक१°न विमुक्तं वन्दिक० ग० घ०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धखामिलापस्कृतीकः कर्मवन्धः । मिनकाययोगः १३ औदारिकमिश्रकाययोगः १४ कार्मणकाययोगः १५ इति ४ । वेदस्त्रिधास्त्रीवेदः पुरुषवेदो नपुंसकवेदश्च ५ । कषायाः क्रोधमानमायालोमाः ६ । ज्ञानं पञ्चषामतिज्ञानं श्रुत्तज्ञानम् अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं च, ज्ञानग्रहणेन चाऽज्ञानमपि तत्पतिपक्षमूतमुपलक्ष्यते, तच्च त्रिविधम्-मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा ७ । 'संयमः' चारित्रं तच्च पञ्चधा-सामायिकं छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च, संयमग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतो देशसंयमोऽसंयमश्च सूच्यत इति संयमः सप्तधा ८ । दर्शनं चतुर्विधम्-चक्षुर्दर्शनम् अचक्षुर्दर्शनम् अवधिदर्शनं केवलदर्शनं च ९ । लेश्या षोढा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कायोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च १० । भव्यः-तथारूपानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यः, मव्यग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतोऽभन्योऽपि गृखते ११ । सम्यक्त्वं त्रिधा-क्षायोपशमिकम् औपशमिकं क्षायिकं च, सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं सासादनं मित्रं च परिगृखते १२ । संज्ञी-विशिष्टसरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्चकसमन्वितः, तत्प्रतिपक्षभूतः सर्वोऽप्येकेन्द्रियादिरसंज्ञी सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितो द्रष्टव्यः १३ । आहारयति ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमित्याहारकः, तत्प्रतिपक्षमूतोऽनाहारकः १४ । ननु ज्ञानादिषु किमर्थमज्ञानादिप्रतिपक्षग्रहणं कृतम् !, उच्यते-चतुर्दशखपि मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिकसत्त्वसमहार्थमिति । उक्तरूपेषु गत्यादिषु बन्धस्वामित्वं वक्ष्ये । तत्र बन्धं च प्रतीत्य विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतमघिक्रियते । तथाहि-ज्ञानावरणे उत्तरप्रकृतयः पञ्च, दर्शनावरणे नव, वेदनीये द्वे, मोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जा षड्विंशतिः, आयुषि चतसः, नाम्नि मेदान्तरसम्भवेऽपि सप्तषष्टिः, गोत्रे द्वे, अन्तराये पश्च, सर्वमीलने विंशत्युत्तरं शतमिति एतच्च प्राक् सविस्तरं कर्मविपाके माक्तिमेव ॥ १ ॥ सम्प्रति विशत्युत्तरशतमध्यगतानामेव वक्ष्यमाणार्थोपयोगित्वेन प्रथम कियतीनामपि प्रकृतीनां साहं पृथकरोति--- जिण सुरविउवाहारदु, देवाउ य नरयसुहुमविगलतिगं। एगिदि थावराऽऽयव, नपु मिच्छ हुंड छेवढं ॥२॥ अण मज्झागिह संघयण, कुखग निय इस्थि दुहमीणतिगं । उज्जोय तिरिदुर्ग तिरिनराउ नरउरलदुग रिसहं ॥ ३ ॥ व्याख्या-जिननाम १ सुरद्विक-युस्गतिसुरानुपूर्तरूपं ३ वैक्रियद्विक-वैक्रियशरीरवैक्रियाजोपासलक्षणम् ५ आहारकद्विकम्-आहारकशरीरं तदङ्गोपाङ्गं च ७ देवायुष्कं च ८ नरकत्रिक-नरकगतिनरकानुपूर्वीनस्कायुष्करूपं ११ सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्माऽपर्यातसाधारणलक्षणं १४ विकलत्रिकं-द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातका १७ एकेन्द्रियजातिः १८ स्थावरनाम १९ आतपनाम २० नपुंसकवेदः २१ मिथ्यात्वं २२ हुण्डसंस्थानं २३ सेवार्तसंहननम् २४ ॥ २॥ __ "अण" ति अनेन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोमाः २८ मध्याकृतयः' मध्यमसंस्थामानिन्यत्रोषपरिमण्डल सादि वामनं कुब्जं चेति ३२ मध्यनसहनमानि ऋषमनाराचं माराचम् मर्थनारावं कीलिक्ल चेति ३६ "कुखग" सि अशुभक्हिायोगतिः ३७ नीचैमात्र ३८ सीवेदः Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [गाया ३९ दुर्मगत्रिक-दुर्भगदुःस्वराऽनादेयरूपं ४२ स्त्यानचित्रिकं-निद्रानिद्राप्रचलामचलास्त्यानर्द्धिलक्षणम् ४५ उद्योतनाम ४६ तिर्यद्विक-तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीरूपम् ४८ तिर्यगायुः ४९ नरायुः ५० नरद्विकं-नरगतिनरानुपूर्वीलक्षणम् ५२ औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम च ५४ वज्रऋषभनाराच संहननम् ५५ इति पञ्चपञ्चाशत्प्रकृतिसङ्ग्रहः ॥३॥ अथैतस्य प्रकृतिसङ्ग्रहस्य यथास्थानमुपयोग दर्शयन् मार्गणास्थानानां प्रथमं गतिमार्गणास्थानमाश्रित्य बन्धः प्रतिपाद्यते-- सुरहगुणवीसवज, इगसउ ओहेण बंधहिं निरया। तित्थ विणा मिच्छि सयं, सासणि नपुचउ विणा छनुई॥४॥ व्याख्या-"जिण सुरविउवाहार" (गा० २) इत्यादिगाथोक्ताः क्रमेण सुरद्विकाये. कोनविंशतिप्रकृतीवर्जयित्वा शेषमेकोत्तरशतमोघेन नारका बध्नन्ति । अयमत्राभिप्रायः- एता एकोनविंशतिकर्मप्रकृतीबंन्धाधिकृतकर्मप्रकृतिविंशत्युत्तरशतमध्याद् मुक्त्वा शेषस्यैकोचरशतस्य नरकगतौ नानाजीवापेक्षया सामान्यतो बन्धः, सुरद्विकाद्येकोनविंशतिप्रकृतीनां तु भवप्रत्ययादेव नारकाणामबन्धकत्वात् । सामान्येन नरकगतौ बन्धमभिधाय सम्प्रति तस्यामेव मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टयविशिष्टं तं दर्शयति-"तित्थ विणा" इत्यादि । प्रागुक्तमेकोत्तरशतं तीर्थकरनाम विना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके शतं भवति । एतच्च शतं नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननप्रकृतिचतुष्कं विना सासादनगुणस्थानके षण्णवति रकाणां बन्धे ।। ४ ।। विणु अणछवीस मीसे, बिसयरि सम्मम्मि जिणनराउजुया । इय रयणाइसुभंगो, पंकाइसु तित्थयरहीणो ॥५॥ व्याख्या-प्रागुक्ता षण्णवतिरनन्तानुबन्ध्यादि ड्विंशतिप्रकृतीविना मिश्रगुण स्थाने सप्ततिः । सैव जिननामनरायुष्कयुता सम्यग्दृष्टिगुणस्थानके द्विसप्ततिः । 'इति' एवं बन्धमाश्रित्य भरः 'रनादिषु' रतनभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाभिधानप्रथमनरकपृथिवीत्रये द्रष्टव्यः । पकप्रभादिषु पुनरेष एवं भङ्गस्तीर्थकरनामहीनो विज्ञेयः । अयमर्थः-पकप्रभाधूमप्रभातमःप्रभासु सम्यक्त्वसद्भावेऽपि क्षेत्रमाहात्म्येन तथाविधाध्यवसायाभावात् तीर्थकरनामबन्धो नारकाणां नास्तीति ततस्तत्र सामान्येन शतम् , मिथ्यादृशां च शतम् , सासादनानां षण्णवतिः, मिश्राणां सप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः । इह सामान्यपदेऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने च रत्नप्रभादिमअस्तीर्थकरनाम्ना हीन उक्तः । मिथ्यादृष्ट्यादिषु त्रिषु गुणस्थानेषु पुनस्तस्य प्रागेवाऽपनीतत्वात् तदवस्थ एव ॥ ५॥ अजिणमणुआउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुच्च विणु मिच्छे । इगनवई सासाणे, तिरिआउ नपुंसचउवलं ॥ ६॥ व्याख्यानप्रभादिनरकत्रयसामान्यबन्धाधिकृतकोतरशतमध्याजिननाममनुजायुषी मुक्त्वा शेषा नवनवतिरोषबन्धे सप्तमपृथिव्यां नारकाणां भवति । सैव नवनवतिर्नरगतिनरानुपूर्वी रूपनरद्विकोश्चैोर्पिना षण्णवातमिथ्यादृष्टिगुणस्थाने भवति । सैव षण्णवति स्तिर्यगायुर्नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननवर्जिता एकनवतिः सासादने सप्तम्यां नारकाणाम् ॥ ६ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः । १०१ अणचउवीसविरहिया, सनरदुगुच्चा य सयरि मीसद्गे।। सतरसउ ओहि मिच्छे, पजतिरिया विणु जिणाहारं ॥७॥ व्याख्या--प्रागुक्ता एकनवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिप्रकृतिभिर्विरहिता नरद्विकोच्चैगोत्राभ्यां च सहिता सप्ततिर्भवति, सा च "मीसदुगे" ति मिश्राऽविरतगुणस्थानद्वये द्रष्टव्या । इह सप्तम्यां नरायुस्तावद न बध्यत एव, तहन्धाभावेऽपि च मिश्रगुणस्थानकेऽविरतगुणस्थानके च नरद्विकं बध्यते । अयमर्थः-नरद्विकस्य नरायुषा सह नावश्यं प्रतिबन्धो यदुत यत्रैवायुर्वध्यते तत्रैव गत्यानुपूर्वीद्वयमपि, तस्याऽन्यदाऽपि बन्धात् ; मिथ्यात्वसासादनयोस्तु कलुषाध्यवसायत्वेन नरद्विकं न बध्यते । एवं नरकगतौ बन्धखामित्वं प्रतिपाद्य.अथ तिर्थग्गतौ तदाह--"सतरसउ" इत्यादि । विंशत्युत्तरशतं जिननामाऽऽहारकद्विकं च विना शेषं सप्तदशोत्तरशतमोघे मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने च पर्याप्तास्तिर्यश्चो बध्नन्ति । अत्रौधे तिरश्चां सत्यपि सम्यक्त्वे भवप्रत्ययादेव तथाविधाध्यवसायाभावात् तीर्थकरनाम्नः सम्पूर्णसंयमाभावाद् आहारकद्विकस्य च बन्धो नास्तीति हृदयम् ॥ ७ ॥ विणु नरयसोल सासणि, सुराउ अण एगतीस विणु मीसे । ससुराउ सयरि सम्मे, बीयकसाए विणा देसे ॥८॥ व्याख्या-प्रागुक्तं सप्तदशोत्तरशतं नरकत्रिकादिषोडशप्रकृतीविना एकोत्तरशतं सासादने पर्याप्ततिरश्वाम् । एतदेवैकोत्तरशतं सुरायुरनन्तानुबन्ध्यायेकत्रिंशत्प्रकृतीश्च विना एकोनसततिः, सा मिश्रगुणस्थाने बध्यते । अयं भावार्थ:-"सम्मामिच्छद्दिट्टी आऊबंधं पि न करेइ ।" इति वचनाद् अत्र सुरनरायुषोरबन्धः, अनन्तानुबन्ध्यादयश्च पञ्चविंशतिप्रकृतयः सासादन एव व्यवच्छिन्नबन्धाः, तथा मनुष्यास्तिर्यश्चश्व मिश्रगुणस्थानकस्था अविरतसम्यग्डष्टिवद् देवाह मेव बन्नन्ति, तेन नरद्विकौदारिकद्विकवज्रऋषभनाराचानामपि बन्धाभावः । एव एकोनसप्ततिः सुरायुषा सहिता सप्ततिः 'सम्यक्त्वे' आवेरतगुणस्थानके भवति । सप्ततिः 'द्वितीयकषायैः' अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभैर्विना षट्षष्टिर्देश विरतगुणस्थाने बध्यते ॥८॥ अथ तिर्यग्गतिबन्धाधिकार एव ग्रन्थलाघवार्थ मनुष्यगतावपि बन्धं दर्शयति इय चउगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण ओहु देसाई। जिणहकारसहीणं, नवसउ अपजत्ततिरियनरा ॥९॥ व्याख्या-यथा पर्याप्ततिरश्चां मिथ्यादृष्ट्यादिषु चतुर्पु गुणस्थानेषु सप्तदशोत्तरशतादिको बन्ध उक्तः 'इति' एवं पर्याप्तनरा अपि चतुर्षु-मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतिगुणस्थानेषु सप्तदशोसरशतादिबन्धस्वामिनो मन्तव्याः। परम्' अयताः अविरतसम्यग्दृष्टयः पर्याप्तनराः “सजिण" ति अविरतसम्यग्दृष्टिपर्याप्ततिर्यग्बन्धयोग्यसप्ततिर्जिननामसहिता एकसप्ततिस्तां बध्नन्ति, जिननामकर्मणोऽपि बन्धकत्वात् तेषाम् । “ओहु देसाइ" ति देशविरतादिगुणस्थानकेषु गुणस्थानकाsनाश्रयणे च पर्याप्तनराणां पुनः 'ओषः' सामान्यो बन्धोऽवसेयः । स च कर्मस्तवोक्त एव । यतः कर्मस्तवग्रन्थे सामान्यतो गुणस्थानकेषु बन्धः प्रतिपादितो न पुनः किञ्चन गत्यादिमा.. 1 सम्यग्मिथ्यादृष्टिरायुर्वन्धमपि न करोति ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरि विरचितः साक्चरिक गणास्थानमाश्रित्य, स चात्र बहुषु स्थानेषूपयोगीति मूलतोऽपि दर्श्यते अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीस सयं । तित्थयराहारगदुगवजं मिच्छम्मि सतरसयं ॥ । नरयतिग जाइथावरचउ हुंडाऽऽयवछिवट्ठनपुमिच्छं । सोलंतो इगहियसउ, सासणि तिरिथीणदुगतिगं ।। अणमझागिइसंघयणचउ निउज्जोय कुखगइत्थि ति । पणवीसंतो मीसे, चउसयरि दुआउय अबंधा ।। सम्मे सगसयरि जिणाउबंषि वदर नरतिग बियकसाया । उरलदुगतो देसे, सत्तट्ठी तियकसायंतो ॥ तेवट्टि पमत्ते सोग अरइ अथिर दुग अजस अस्सायं । बुच्छिज्ज छच्च सत्त क, नेइ सुराउं जया निहूँ । गुणसट्ठि अप्पमत्ते, सुराउबंधं तु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावना, जं आहारगदुगं बंधे ॥ अडवन अपुवाइमि, निहदुगंतो छपन्न पणभागे । सुरदंग पणिदि सुखगइ, तसनव उरल विणु तणुवंगा ।। समचउर निमिण जिण वनअगुरुलहुचउ छलंसि तीसंतो। चरिमे छवीसबंधो, हासरईकुच्छभयभेओ ।। अनियट्टिमागपणगे, इगेगहीणो दुवीस विहबंधो । पुमसंजलणचउण्हं, कमेण छेओ सतर सुहुमे ॥ चउदसणुचजसनाणविग्घदसगं ति सोलसुच्छेओ । तिसु सायबंध छेओ, सजोगि बंधंतुणंतो य ।। (गाथा ३-१२) इति । एतासी दशानामपि गाथानां व्याख्यानं कर्मस्तवीकातो बोद्धन्यम् । इत्योघबन्धः । इह कर्मस्तपोक्तगुणस्थानकबन्धात् नरतिस्श्वा मिश्राऽविरतगुणस्थानकयोरयं विशेष:कर्मस्तवे मित्रगुणस्थानके चतुःसप्ततिः अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके सप्तसप्ततिः तिरश्चां पुनर्मनुष्यद्विकौवारिकद्विकवजऋषभनाराचसंहननरूपप्रकृतिपञ्चकस्व बन्धाभावाद मिश्रगुणस्थानके एकोनससतिः, अविरससम्यादृष्टौ सुरायुःक्षेपे सप्ततिः, नराणां तु मिश्रे एकोनसप्ततिः, अविरतसम्यग्दृछौ तीर्थकरनामसुरायुःक्षेपे एकसप्ततिः । अस्यां च एकसप्ततौ यदि मनुष्यद्विकदारिकद्विक्वजऋषभनाराचसंहननप्रकृतिपञ्चकं नरायुष्कं च क्षिप्यते तदा कमतवोक्ता सप्तससतिर्मवस्यबिरतगुणस्थानके । तथा कर्मस्तवे देशविरतगुणखानके या सप्तपष्टिरक्ता सा तिरश्चौ जिननामरहिता षट्षष्टिदेशविरतगुणस्थाने भवति । प्रमत्तादीनि गुणस्थानानि तिरयों न सम्भवन्ति । नराणां तु सर्वमुणखानकसम्मन देशविरतादिगुणखानकेषु कर्मस्खयोक्ता एवं सर्वोऽप्यन्यूनाधिक ओघकन्धो वाच्यः । ततश्च पर्याप्तनराणां सामान्येन का विशत्युतरशतं प्रकृतीनां प्राप्यते, तेषामेव मिथ्यादृशां सप्तदशोत्तरशतम् , सासावमानामेकोपरशतम् , Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धमामिलापस्तीस कर्ममयः । विसापासकोनसप्ततिः, अनिस्तसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः, देशविरतानां समाहिः, भामजाना त्रिषष्टिः, अनमत्तानामेकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिकादराणां प्रथमे मागेऽष्टपश्चाशत् , भामपञ्चके प्रपञ्चाशत् , सप्तमभागे षड्विंशतिः, अनिवृत्तिबावराणामाये भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये एकविंशतिः, तृतीये विंशतिः, चतुर्थे एकोनविंशतिः, पञ्चमेऽष्टादश च, सूक्ष्मसम्मायाणां सप्तदश, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिनामेका सातलक्षणा प्रकृतिर्बन्धे प्राप्यते, अयोगिनां तु बन्धाभावः । एवमन्यत्राप्योधनन्धः कर्मस्तवानुसारेण भावनीयः । उक्तस्तिर्यमराणां पर्याप्तानां बन्धः, अथ तेषामेवापर्याप्तानां तमाह-"जिणइकारसहीणं" इत्यादि । यदेव नराणामोर घबन्धे विंशत्युत्तरशतं तदेव जिननामाघेकादशप्रकृतिहीनं शेषं नवोत्तरशतमपर्याप्ततिर्यमस ओघतो मिथ्यात्वे च बघ्नन्ति । यद्यपि करणापर्याप्तो देवो मनुष्यो वा जिननामकर्म सम्यक्त्वप्रत्ययेन बन्नाति तथापीह नराणां लब्ध्याऽपर्याप्तत्वेन विवक्षणाद् न जिननामबन्धः ॥ ९॥ तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ च बन्धखामित्वमुक्तम् । साम्प्रतं देवगतिमधिकृत्य तदुच्यते निरय व्व सुरा नवरं, ओहे मिच्छे इगिदितिगसहिया। कप्पदुगे वि य एवं, जिणहीणो जोइभवणवणे ॥१०॥ ___ व्याख्या-सुरा अपि नारकवद् ओघतो विशेषतश्च तद्वन्धवामिनोऽवगन्तव्याः । नवरमयं विशेषः-ओघे मिथ्यात्वगुणस्थानके च बन्धमाश्रित्य सुरा एकेन्द्रियादित्रिकसहिता द्रष्टव्याः । ततोऽयमर्थः--यो नारकाणामेकोत्तरशतरूप ओघबन्धः स एवैकेन्द्रियजालिखावरनामाऽऽतपनामप्रकृतित्रयसहितः सुराणां सामान्यतो बन्धश्चतुरप्रशतम् , तदेव मिमावे जिननामरहितं व्युत्तरशतम् , एतदेवैकेन्द्रियजातिस्थावराऽऽतपनपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसेवार्तलक्षणप्रकृतिसप्तकहीनं सासादने षण्णवतिः, षण्णवतिरेवानन्तानुबन्ध्यादिषड्विंशतिप्रकृतिरहिता मिश्रे सप्ततिः, सैव जिननामनरायुष्कयुता द्विसप्ततिस्तामबिरतसम्यग्दृष्टयो देवा बनन्तीति सामान्यदेवगतिबन्धः । साम्प्रतं देवविशेषनामोच्चारणपूर्वकं तमाह-"कप्पदुगे" इत्यादि । 'कल्पद्विकेऽपि' सौधर्मेशानाख्यदेवलोकद्वयेऽपि ‘एवं' सामान्यदेवबन्धवद् बन्धो द्रष्टव्यः । तथाहि---सामान्येन चतुरप्रशतम् , मिथ्यादृशां व्यग्रशतम् , सासादनानां पण्णवतिः, मिश्राणां सप्ततिः, अविरतानां द्विसप्ततिः । देवौषो जिननामकर्महीनो ज्योतिष्कमवनपतिव्यन्तरदेवेषु तद्देवीषु च विज्ञेयः, जिनकर्मसत्ताकस्य तेषूत्पादाभावेन तत्र तहन्धासम्भवात्, ततः सामान्यतस्यधिकशतम् , मिथ्यात्वेऽपि त्र्यधिकशतम् , सासादने षण्णवतिः, मित्रे ससतिः, अविरते एकसप्ततिः ॥ १०॥ रयण व्व सणकुमाराइ आणयाई उजोयचउरहिया। अपजतिरिय व्व नवसयमिगिदिपुढविजलतरुविगले ॥११॥ व्याख्या-सनत्कुमाराद्याः सहस्रारान्ता देवा रत्नप्रभादिप्रथमपृथिवीत्रयनारकवद् बन्धमाश्रित्य द्रष्टव्याः । तद्यथा-सामान्यनैकाप्रशतम् , मिथ्याशां शतम् , सासादनानां षण्णवतिः, मित्राणां सप्ततिः, अविरतानां द्विसप्ततिः । आनताद्या अवेयकनवकान्ता देवा अपि उद्योतनामतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगायुःप्रकृतिचतुष्करहिता रत्नममादिनारकवदेव द्रष्टव्याः, ततः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १०१ देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः सामान्यतः सप्तनवति ते बध्नन्ति, मिथ्यादृशः षण्णवतिम् , सासादना द्विनवतिम् , मिश्रेऽविरते चोद्योतादिचतुष्कस्य प्रागेवापनीतत्वात् सम्पूर्ण एव रत्नप्रभादिभः ततो मिश्राः सप्तति अविरता द्विसप्तति बन्नन्ति । मिथ्यात्वादिगुणस्थानत्रयाभावात् पश्चानुत्तरविमानदेवा एतामेवाविरतगुणस्थानकसत्कां द्विसप्ततिं बघ्नन्तीत्यनुक्तमपि ज्ञेयमिति । उक्तं देवगतौ बन्धखामित्वम् , तगणनाच्च गतिबन्धमार्गणा समाप्ता । साम्प्रतमिन्द्रियेषु कायेषु च तदारभ्यते-"अपज" इत्यादि । अपर्याप्ततिर्यग्वद् नवोत्तरशतमेकेन्द्रियपृथ्वीजलतरुविकलेषु द्रष्टव्यम् । अयमर्थ:-- विंशत्युत्तरशतमध्याद् जिननामाघेकादशप्रकृतीर्मुक्त्वा शेषं नवोत्तरशतमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाः पृथ्वीजलवनस्पतिकायाश्च सामान्यपदिनो मिथ्यादृशश्च बध्नन्ति ॥ ११ ॥ अर्थतेषामेव सासादनगुणस्थाने बन्धमाह छनवइ सासणि विणु सुहुमतेर केइ पुण बिंति चउनवई। तिरियनराऊहिँ विणा, तणुपज्जतिं न ते जति ॥ १२ ॥ व्याख्या-प्रागुक्तं नवोत्तरशतं सूक्ष्मत्रिकादिप्रकृतित्रयोदशकं मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्नबन्धमिति कृत्वा तद् विना षण्णवतिः सासादने एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपृथ्वीजलवनस्पतिकायानां भवति । केचित् पुनराचार्या ब्रुवते चतुर्नवतिं तिर्यमरायुष्काभ्यां विना, यतस्त एकेन्द्रिय विकले. न्द्रियादयः सासादनाः सन्तस्तनुपर्याप्तिं न यान्ति अतस्ते तिर्यनरायुरबन्धकाः । अयं भावार्थ:तिर्यनरायुषोस्तनुपर्याप्त्या पर्याप्तरेव बध्यमानत्वात् पूर्वमतेन शरीरपर्याप्स्युत्तरकालमपि सासादनभावस्येष्टत्वाद् आयुर्बन्धोऽभिप्रेतः, इह तु प्रथममेव तन्निवृत्तेर्नेष्ट इति षण्णवतिः । तिर्यमरायुषी विना मतान्तरेण चतुर्नवतिः ॥ १२॥ उक्त एकेन्द्रियादीनां बन्धः, अथ पञ्चेन्द्रियाणां त्रसकायिकानां च तमाह ओहु पणिदि तसे गइतसे जिणिकार नरतिगुच्च विणा । मणवयजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से ॥ १३ ॥ व्याख्या-'ओघः' विंशत्युत्तरशतादिलक्षणः कर्मस्तवोक्तः पञ्चेन्द्रियेषु त्रसकायिकेषु चावगन्तव्यः । तद्यथा-सामान्यतो विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, प्रमत्ते त्रिषष्टिः, अप्रमते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिबादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत् , भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् , सप्तमभागे षड्विंशतिः, अनिवृत्तिबादरे आये भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये एकविंशतिः, तृतीये विंशतिः, चतुर्थे एकोनविंशतिः, पञ्चमेऽष्टादश, सूक्ष्मे सप्तदश, शेषगुणस्थानत्रये सातस्यैकस्य बन्धः, अयोगिनि बन्धाभावः । गतित्रसाः-तेजोवायुकायास्तेषु जिननामाघेकादशप्रकृतीर्नरत्रिकमुच्चैर्गोत्रं च विना विंशत्युत्तरं शतं शेषं पञ्चोत्तरं शतं बन्धे लभ्यते, सासादनादिभावस्तु नैषां सम्भवति । यत उक्तम् ने हु किंचि लमिज्ज सुहुमतसा ॥ सूक्ष्मत्रसास्तेजोवायुकायजीवा इति । एवमुक्त इन्द्रियेषु कायेषु च बन्धः, सम्प्रति योगेषु १ न हि किंचिल्लभन्ते सूक्ष्मत्रसाः ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-१५] माख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः । सं प्रतिपादयताह - " मणवयजोगे" इत्यादि । सूचकत्वात् सूत्रस्य सत्यादिमनोयोगचतुष्के सत्पूर्वके सत्यादिवाग्योगचतुष्के च ओघबन्धो विंशत्युत्तरशतादिलक्षणः कर्मस्तवोक्तो ज्ञेयः । तत्र सत्यादिखरूपं त्विदम् सत्यं यथा अस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथाबस्थितवस्तुतत्त्वचिन्तनपरम् । सत्यविपरीतं त्वसत्यम् । मिश्रस्वभावं सत्यासत्यम्, यथा-घवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेष्वशोकवनमेवेदमिति विकल्पनापरम् । तथा यद् न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद् वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण चिकरूप्यते, यथा अस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि तत् किल सत्यं परिभाषितम् । यत् पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतोत्तीर्ण विकल्प्यते, यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वा इत्यादि तद् असत्यम् । यत् पुनर्वस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरम्, यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मचमित्यादिचिन्तनपरं तद् असत्यामृषा, इदं स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वाद् न arthoक्षणं सत्यं भवति नापि मृषेति । इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यम्, निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यथा तु सत्ये । "उरले" चि मनोवाग्योपूर्वके औदारिक काययोगे नरभङ्गः “इय चउगुणेषु वि नरा” ( गा० ९) इत्यादिना प्रागुतस्वरूपः । यथा - ओषे विंशत्युत्तरशतम्, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम्, सासादने एकोत्तरशतम्, मिश्र एकोनसप्ततिः, अविरते एकसप्ततिः इत्यादि । मनोरहितवाग्योगे विकलेन्द्रियभङ्गः । केवलकाययोगे त्वेकेन्द्रियभङ्गः । "तम्मिस्से " ति 'तन्मिश्रे' औदारिकमिश्रयोगे ॥१३॥ सम्प्रति बन्ध उच्यते- १०५ आहारछग विणोहे, चउदससउ मिच्छि जिण पणगहीणं । साणि च नव बिणा, नरतिरिआऊ सुहुमतेर ॥ १४ ॥ व्याख्या—विंशत्युत्तरशतमाहारकादिप्रकृतिषट्कं विना शेषं चतुर्दशाधिकशतमोघबन्धे प्राप्यते । अयं भावार्थः -- औदारिकमिश्रं कार्मणेन सह, तच्चापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धासावस्थायां वा; उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाहारयति, ततः परमैौदारिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावद् शरीरस्य निष्पत्तिः; केवलसमुद्घातावस्थायां द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्र मौदारिकमिति । अपर्याप्तावस्थायां च नाहारकादिषट्कं बध्यते इति तन्निषेषः । केवलिसमुद्घातावस्थायां पुनरेकस्य सातस्मैव मन्धोऽभिधास्यते । एतदेव चतुर्दशोत्तरशतमौदा रिक मिश्र काययोगी मिध्यात्वे जिननामादिप्रकृतिपञ्चकहीनं शेषं नवोत्तरं शतं बध्नाति । स एव सासादने चतुर्नवर्ति बघ्नाति, नवोरक्षतमध्याद् मुक्त्वा नरतिर्यगायुषी सूक्ष्मत्रिकादित्रयोदशप्रकृतीव, नरतिर्यगायुषोरपसत्वेन सासादने बन्धाभावात्, सूक्ष्मत्रिकादित्रयोदशकस्य तु मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्न बन्यतया च ॥ १४ ॥ turerature विणा, जिणपणजय सम्मि जोगिणो सायं । विणु तिरिनराउ कम्मे, वि एवमाहारदुगि ओहो ।। १५ ।। व्याख्या - प्रागुक्ता चतुर्नबतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विंशतिप्रकृतीर्विना जिननामादिप्रकृति क० १४ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [ गाथा 1 पञ्चकयुता च पञ्चसप्ततिस्तामौदारिक मिश्रकाययोगी सम्यक्त्वे बध्नाति । तथा सयोगिन औदारिक मिश्रस्थाः केवलिसमुद्धाते द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु सातमेवैकं बध्नन्ति । एवं गुणस्थानक - चतुष्क एवैौदारिकमिश्रयोगो लभ्यते नान्यत्र । अथ कार्मणयोगादिषु बन्धः प्रतिपाद्यते "विणु तिरि" इत्यादि । यथौदारिक मिश्रे बन्धविधिरोधतो विशेषतश्वोक्तः एवं कार्मणयोगेsपि तिर्यमरायुषी विना वाच्यः, कार्मणकाययोगे तिर्यमरायुषोर्बन्धाभावात् । कार्मणकाययोगो ह्यपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च जीवस्य मिथ्यात्वसासादनाऽविरत गुणस्थानकत्रयोपेतस्य लभ्यते । उक्तं च--- मिच्छे ससाणे वा, अविरसम्मम्मि अहव गहियम्मि । जंति जिया परलोए, सेसिक्कारस गुणे मुत्तुं ॥ ( प्रव० गा० १३०६ ) तथा सयोगिनः केवलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेषु चेति गुणस्थानकचतुष्टय एव कार्मणका योगो नान्यत्र । ततो विंशत्युत्तरशतमध्याद् आहारकषट्कतिर्यमरायुःप्रकृतीर्मुक्त्वा शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्य सामान्येन कार्मणकाययोगे बन्धः । तदेव द्वादशोत्तरशतं जिनादि • पचकं विना शेषं सप्तोत्तरशतं कार्मणकाययोगे मिध्यादृशो बध्नन्ति । तदेव सप्तोत्तरशतं सूक्ष्मादित्रयोदश प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषां चतुर्नवतिं कार्मणयोगे सासादना बघ्नन्ति । चतुर्नवतिरेबाऽनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विंशतिप्रकृतीर्विना जिननामादिप्रकृतिपञ्चकसहिता च पञ्चसप्ततिस्तां कार्मणयोsवरता बन्ति । सयोगिनस्तु कार्मणकाययोगे सातमेवैकं बध्नन्ति । तथाऽऽहारककाय योगश्चतुर्दशपूर्वविदः, आहारक मिश्रकाययोगश्च तस्यैवाऽऽहारकशरीरस्य प्रारम्भसमये परित्यागसमये च औदारिकेण सह द्रष्टव्यः । ततः 'आहारकद्विके' आहारकशरीर तन्मिश्रलक्षणे योगद्वये ओषः कर्मस्तवोक्तः प्रमत्तगुणस्थानवर्ती त्रिषष्टिप्रकृतिबन्धरूपः । एतत् काययोगद्वयं हि लब्ध्युपजीवनात् प्रमत्तस्यैव न त्वप्रमत्तस्य ॥ १५ ॥ सुरओहो वेउव्वे, तिरियनराउरहिओ य तम्मिस्से | deतिगाइम बिय तिय, कसाय नव दु चउ पंच गुणा ॥ १६ ॥ व्याख्या- ' सुरौघः' सामान्यदेवबन्धो वैक्रियकाययोगे द्रष्टव्यः । तद्यथा सामान्येन चतुरशतम्, मिथ्यात्वे त्र्युत्तरशतम्, सासादने षण्णवतिः, मिश्र सप्ततिः, अविरते द्विसप्ततिः । तथा 'तन्मिश्रे' वैक्रियामश्रे स एव सुरौधस्तिर्यमरायुष्करहितो वाच्यः । इह देवनारका निजायुः षण्मासावशेषा एवायुर्वन्ति, अतो वैक्रियमिश्रयोगे उत्पत्तिप्रथमसमयादनन्तरमपर्याप्ताव - स्थासम्भविनि आयुर्द्वयबन्धाभावः । तथा चाऽत्रौघे ह्युत्तरशतन, मिथ्यात्व एकोत्तरशतम्, सासादने चतुर्नवतिः, अविरत एकसप्ततिः । वैक्रियमिश्रयोगो मिश्रता चाऽस्यात्र कार्मणकार्येनैव सह मन्तव्या । अयमपि च मिथ्यात्वसासादनाऽविरतगुणस्थानकत्रय एव लभ्यते नान्यत्र । यद्यपि देशविरतस्याऽम्बडादेः प्रमत्तस्य तु विष्णुकुमारादेवैक्रियं कुर्वतो वैक्रियमिश्रवैकियसम्भवः श्रूयते परं स्वभावस्थस्य वैक्रिययोगस्याऽत्र गृहीतत्वाद् अथवा स्वल्पत्वाद् अन्यतो वा १ मिथ्यात्वं सासादने वाऽविरतसम्यक्त्वेऽथवा गृहीते । यान्ति जीवाः परलोकं शेषेकादश गुणस्थानानि मुक्खा || २ भावम् अहिगए अहवा । प्रवचनसारोद्धारे वेवं पाठः ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-१७] बन्धखामित्वाल्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः । कुतोऽपि हेतोः पूर्वाचार्यैः स नोक्तः । एवं योगेषु बन्धस्वामित्वमुक्तम् । अथ वेदादिषु तदभिषिस्सुः प्रथम गुणस्थानकानि तेष्वाह-"वेयतिग" इत्यादि । 'वेदत्रिके' स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदरूपे 'नव' नवसायाकानि "संजलण" इत्याद्यतनगाथा(१७)स्थ “पढम" इति पदस्यात्रापि सम्बन्धात् 'प्रथमानि' मिथ्यात्वादीनि अनिवृत्तिबादरान्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति, ततः परं वेदानामभावात् । एतेषु यः कर्मस्तवोक्तः सामान्यबन्धः स द्रष्टव्यः । तद्यथा-सामान्यतो नानाजीवापेक्षया विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् , मिने चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देश विरते सप्तषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिः, अप्रमते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिबादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत्, भागपञ्चके षट्पञ्चाशत्, सप्तमभागे षड्विंशतिः, अनिवृत्तिबादरे आद्य मागे द्वाविंशतिः, एवमन्यत्रापि गुणस्थानकेषु यथासम्भवं कर्मस्तवोक्तो बन्धो वाच्यः । कषायद्वारे—आयेऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभरूपे कषायचतुष्के द्वे प्रथमे मिथ्यात्वसासादनाख्ये गुणस्थानके तत्र तीर्थकरबन्धस्य सम्यक्त्वप्रत्ययत्वाद् आहारकद्विकबन्धस्य च संयमहेतुत्वाद् अनन्तानुबन्धिषु तदभावात् सामान्येन सप्तदशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सालादने एकोत्तरशतम् । द्वितीयेऽप्रत्याख्यानाख्ये कषायचतुष्के चत्वारि प्रथमानि मिथ्यात्वसासादनमिश्राऽविरतनामकानि गुणस्थानकानि, तत्राहारकद्विकबन्धाभावेन सामान्येन अष्टादशोत्तरशनम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः । तृतीये प्रत्याख्यानावरणाख्ये कषाय. चतुष्के पञ्च आयानि मिथ्यात्वादीनि देशविरतान्ताने गुणस्थानकानि, देशविरते सप्तषष्टिः, शेषाणि तथैव ॥ १६ ॥ संजलणतिगे नव दस, लोभे चउ अजह दुति अनाणतिगे। वारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहखाइ चरमचऊ ॥ १७॥ व्याख्या-'संज्वलनत्रिके' संज्वलनक्रोधमानमायारूपे नवाऽऽद्यानि गुणस्थानकानि । तत्र सामान्यबन्धाद् निवृत्तिबादरं यावद् वेदत्रिकन्यायेन विंशत्युतरशतादिको बन्धः, अनिवृत्तिबादरे तु प्रथमे भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये पुंवेदरहिता एकविंशतिः, तृतीये संज्वलनक्रोघरहिता विंशतिः, चतुर्थे संज्वलनमानरहिता एकोनविंशतिः, पञ्चमे संज्वलनमायारहिता अष्टादश । संज्वलनलोभस्य तु सूक्ष्मसम्परायेऽपि भावात् तत्र दश प्रथमानि गुणस्थानानि, तत्र नव तथैव, दशमे तु सूक्ष्मसम्पराये सप्तदश प्रकृतयः । संयमद्वारे-'अयते' असंयते चत्वारि आधानि गुणस्थानानि, तत्र सामान्यतोऽविरतसम्यग्दृष्टेरपि सङ्गृहीतत्वाद् जिननामक्षेपात् सप्तदशोत्तरशतं जातमष्टादशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोपरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः । ज्ञानद्वारे-'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपे द्वे मिथ्यात्वसासादने, त्रीणि वा गुणस्थानकानि मिश्रेण सह । अयमाशयः-मिश्रे ज्ञानाशोऽज्ञानांशश्वास्ति, तत्र यदाऽज्ञानांशप्राधान्यविवक्षा तदाऽज्ञानत्रिके गुणस्थानकद्वयमेव, ज्ञानांशप्राधान्य विवक्षायां तु तृतीयं मिश्रमपि, तत्रौषे सप्तदशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोचरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् मिश्रे चतुःसप्ततिः । दर्शनद्वारे-चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः प्रथमानि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [ गाथा द्वादश गुणस्थानानि, परतस्तु चक्षुरचक्षुषोः सतोरप्यनुपयोगित्वेनाव्यापारात् । तत्रौ विंशत्युत्तरशतम्, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम्, इत्यादि यावत् क्षीणमोहे सातबन्ध एकः । यथाख्याते चरमगुणस्थानकचतुष्कम्, तत्र सामान्यत एकः, उपशान्तमोहे एकः, क्षीणमोहे एकः, सयोगिनि एकः, अयोगिनि शून्यम् ॥ १७ ॥ मणनाणि सग जयाई, समय छेय चउ दुन्नि परिहारे । hareदुगि दो चरमाsजयाइ नव महसुओहिदुगे ॥ १८ ॥ व्याख्या - मनः पर्यायज्ञाने सप्त 'यतादीनि' प्रमत्तसंयतादीनि क्षीणमोहान्तानि । तत्र सामान्यत आहारकद्विकसहिता त्रिषष्टिजता पञ्चषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिः इत्यादि यावत् क्षीणमोहे एकः केवलसातबन्धः । सामायिके छेदोपस्थापने च चत्वारि यतादीनि गुणस्थानानि, लत्र सामान्यतः षञ्चषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिरित्यादि प्राग्वत्, सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानकादौ तु सूक्ष्मसम्परायादिचारित्रभावात् । तथा 'द्वे गुणस्थानके' प्रमत्ताश्मरूपे परिहार विशुद्धिकचारित्रे नोत्तराणि, तस्मिंश्चारित्रे वर्तमानस्य श्रेण्यारोहणप्रतिषेधात्, तत्र सामान्यतः पञ्चषष्टिः, प्रमत्ते त्रिषष्टिः, अप्रमते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा । 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे 'द्वे चरमे' अन्तिमे सयोगिकेवल्ययोगिकेवल्याख्ये गुणस्थानके भवतः, अत्रौघे एकस्य सातस्य बन्धः योगिनि च अयोगिनि शून्यम् । तथा मतिश्रुतयोः 'अवषिद्विके' च अवधिज्ञानावधिदर्शनलक्षणे 'अयतादीनि' अविरत सम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणमोहपर्यवसानानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति, सयोग्यादौ केवलोत्पत्त्या मत्यादेरभावात्, तत्रौषतोऽप्रमत्तादेर्मत्यादिमत आहारकद्विकस्यापि बन्धसम्भवाद् एकोनाशीतिः, विशेष चिन्तायामविरतादिगुणस्थानकेषु कर्मस्तवोक्तः सप्तसप्तत्यादिमितो बन्धो द्रष्टव्यः ॥ १८ ॥ " अड उवसमि व वेयगि, खइए इक्कार मिच्छतिगि देखे । सुमि सठाणं तेरस, आहारगि नियनियगुणोहो ॥ १९ ॥ व्याख्या -- इह 'अयतादि' इति पदं सर्वत्र योज्यते । ततोऽयतादीनि उपशान्तमोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानान्योपशमिकसम्यक्त्वे भवन्ति, तत्र सामान्यत औपशमिकसम्यक्त्वे वर्तमानानां देवमनुजायुषोर्बन्धाभावात् पञ्चसप्ततिः, अविरतेऽपि पञ्चसप्ततिः, देशे सुरायुरबन्धात् षट्षष्टिः, प्रमत्ते द्वाषष्टिः, अप्रमत्ते अष्टपञ्चाशद् इत्यादि यावदुपशान्ते एकः । 'वेदके' क्षायोपशमिकापरपर्यायेऽयतादीन्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि, तत्रौघे एकोनाशीतिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, प्रमत्ते त्रिषष्टिः, अप्रमत्ते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा । अतः परमुपशमश्रेणावौपशमिकं क्षपकश्रेणी पुनः क्षायिकम्, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं तुदीर्णमिध्यात्वक्षयेऽनुदीर्णमिध्यात्वोपशमे च भवतीति । उक्तं च--- 'मिच्छत्तं जमुहणणं, तं खीणं अणुइयं तु उवसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेइज्जंतं खओवसमं ॥ (विशेषा० गा० ५३२ ) तथा क्षायिकसम्यक्त्वे अतादीनि अयोगिकेवलिपर्यवसानानि एकादश गुणस्थानकानि, १ मिध्यानं यद् उदीर्णं तत् क्षीणमनुदितं तूपशान्तम् । मिश्रीभागपरिणतं वेद्यमानं क्षयोपशमम् ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८-२१] बन्धस्वामित्वाख्यस्तुतीयः कर्ममन्थः । १०९ तत्रौ एकोनाशीतिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः इत्यादि याबदयोगिनि शून्यम् । क्षायिकसम्यक्त्वस्वरूपं त्विदम् खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि भवनियाणमूयम्मि | निप्पचवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ || ( श्राव० प्र० गा० ४८ ) तथा ‘मिथ्यात्वत्रिके' मिथ्यादृष्टि साखादन मिश्रलक्षणे 'देशे' देशविरते 'सूक्ष्मे' सूक्ष्मसम्पराये 'स्वस्थानं' निजस्थानम् । अयमर्थः --- मिथ्यात्वमार्गणास्थाने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम्, सासादनमार्गणास्थाने सासादनगुणस्थानम्, मिश्रमार्गणास्थाने मिश्रगुणस्थानम्, देशसंयममार्गणास्थाने देश विरत गुणस्थानम्, सूक्ष्मसम्परायसंयमे सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् । अत्र च स्वस्वगुणस्थानीयो बन्धः, यथा —– मिथ्यात्वे ओघतो विशेषतश्च सप्तदशोत्तरशतम्, एवं सासादने एकोत्तरशतम्, मिश्रे चतुःसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, सूक्ष्मे सप्तदशः । आहारकद्वारे त्रयोदश गुणस्थानानि मिथ्यादृयादीनि सयोगिकेवल्यन्तानि आहारके जीवे लभ्यन्ते, अयोगी त्वनाहारकः । तत्रौघतः विंशत्युत्तरशतम्, मिध्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम्, इत्यादि यावत् सयोगिनि सातरूपैका प्रकृतिर्बन्धे भवति । एवं वेदादिषु मार्गणास्थानेषु गुणस्थान कान्युपदर्श्य सम्प्रति तेषु बन्धातिदेशमाह - “ नियनियगुणोहो” चि निजनिजगुणौषः, एतेषु वेदादिषु यानि स्वस्त्वगुणस्थानानि तेष्वोषः कर्मस्तवोक्तो बन्धे द्रष्टव्य इत्यर्थः । स च यथास्थानं भावित एव ॥ १९ ॥ यच्च प्रागुक्तम् “अष्टौपशमिकसम्यक्त्वे गुणस्थानानि” इति तत्र कञ्चिद्विशेषमाह - परमुवसमि वहंता, आउ न बंधंति तेण अजयगुणे । देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुण सुराउ बिणा ॥ २० ॥ व्याख्या - सर्वत्र वेदादिषु निजनिजगुणोघो वाच्य इत्युक्तं परमौपशमिकेऽयं विशेष:-- औपशमिके वर्तमाना जीवा आयुर्न बघ्नन्ति तेनाऽयतगुणस्थान के देवमनुजायुर्भ्यां हीन ओषो वाच्यः, नरकतिर्यगायुषोः प्रागेव मिथ्यात्वसासादनयोरपनीतत्वान्न तद्धीनता । तथा 'देशा दिषु' देशविरतप्रमत्ताऽप्रमत्तेषु पुनरोषः सुरायुर्विना ज्ञेयः । औपशमिकसम्यक्त्वं तूपशमश्रेण्यां प्रथमसम्यक्त्वलामे वा भवति जीवस्य । उक्तं च-I उ बसामगसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अस्खवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ (विशेषा० गा० ५२९, २७३५ ) ननु क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते - क्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिक वेदनं विपाकतो नास्ति प्रदेशतः पुनर्विद्यते, औपशमिके तु प्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेषः ॥ २० ॥ उक्तं बेदादिषु बन्धवामित्वम् । अथ लेश्याद्वारमुच्यतेओहे अट्ठारसयं, आहारदुगूण आइलेसतिगे । तं तित्थोणं मिच्छे, साणाइसु सव्वहिं ओहो ॥ २१ ॥ cym १ क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि भवनिदानभूते । निष्प्रत्यपायमतुलं सम्यक्त्वं क्षायिकं भवति ॥ २ उपशमणिमतस्य भवति औपशमिकं तु सम्यक्जम् । यो वाऽकृतत्रिपुचोऽक्षपितमिध्याजो उमते सम्यक्त्रम् ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [ गाथा व्याख्या -- 'आपलेश्यात्रिके' कृष्णनीलकापोतलेश्यात्रये वर्तमाना जीवाः 'ओघे' सामान्येन विंशत्युत्तरशतमाहारकद्विकोनं जातमष्टादशाधिकशतं तद् बध्नन्ति, आहारकद्विकस्म शुभलेश्याभिर्बध्यमानत्वात् । ' तद्' अष्टादशाधिकशतं तीर्थकरनामोनं सप्तदशोत्तरशतं मिथ्यात्वगुणस्थानके बध्नन्ति । सासादनादिषु गुणस्थानकेषु पुनः 'सर्वत्र' लेश्याषट्केऽपि 'ओषः' सामान्यबन्धो द्रष्टव्यः । ततोऽत्र सासादनमिश्राऽविरतेष्वोषः कर्मस्तवोक्तः ॥ २१ ॥ तेऊ नरयनवूणा, उजोयचउ नरयबार विणु सुक्का । विणु नरयबार पन्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥ २२ ॥ व्याख्या - विंशत्युत्तरशतं नरकत्रिकादिप्रकृतिन व कोनं तेजोलेश्यायामोघत एकादशोत्तरं शतं बध्यते, कृष्णाद्यशुभलेश्याप्रत्ययत्वाद् नरकत्रिकादिप्रकृतिनव कबन्धस्य । इदमेवैकादशोतरशतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषमष्टोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते । सासादनादिषु षट्सु गुणस्थानकेषु ओघः विंशत्युत्तरशतमध्याद् उद्योतादिचतुष्कं नरकत्रिकादिद्वादशकं च मुक्त्वा शेषं चतुरुतरशतमोघतः शुक्कलेश्यायां बध्यते, उद्योतादिप्रकृतीनां तिर्यमरकप्रायोग्यत्वेन देवनरप्रायोग्यबन्धकैः शुक्कलेश्यावद्भिरबध्यमानत्वात् । एतदेव चतुरुतरं शतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषमेकोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते । सासादने तदीयैकोत्तरशतरूपौधबन्धाद् उद्योतादिप्रकृतिचतुष्टयापसारेण शेषाः सप्तनवतिर्बध्यते । मिश्रादिषु एकादशगुणस्थानकेषु तदवस्थः स्वगुणस्थानीयो बन्षो द्रष्टव्यः । विंशत्युत्तरशतमध्याद् नरकत्रिकादिप्रकृतिद्वादशकं विना शेषमष्टोत्तरशतं पद्मलेश्यायामोघतो बध्यते, तल्लेश्यावतां सनत्कुमारादिदेवानां तिर्यक्प्रायोग्यं बघ्नतामुद्योतादिप्रकृतिचतुष्कस्य बन्घसम्भवाद् नात्र तद्बन्धाभावः । एतदेवाष्टोत्तरशतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषं पञ्चोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते । सासादनादिषु षट्सु गुणस्थानकेषु यथास्थित एकोत्तरशतादिरूपः स्वखौघबन्धो द्रष्टव्यः । "अजेणाहारा इमा मिच्छे" चि प्रथमलेश्यात्रिकस्य "ओहे अट्ठारसयं" ( गा० २१ ) इत्यादिना निर्धारितत्वेने मास्तेजः पद्मशुक्ललेश्या मिथ्यात्वगुणस्थानके जिननामाहारकद्विकरहिता विज्ञेयाः, तेजोलेश्यादिषु नरकन वकाद्यूनो यः सामान्यबन्धः प्रतिपादितः स मिध्यात्वगुणस्थानके जिनादिप्रकृतित्रयरहितो विधेय इत्यर्थः । तथा च दर्शितमेव ॥ २२ ॥ सम्प्रति भव्यादिद्वाराण्यभिधीयन्ते - सव्वगुणभव्वसन्निसु, ओहु अभव्वा असन्नि मिच्छासमा । सासणि असन्नि सन्नि व्य कम्मभंगो अणाहारे ॥ २३ ॥ व्याख्या --- सर्वगुणस्थान कोपेते भव्ये संज्ञिनि च मार्गणास्थाने सर्वगुणस्थानकौषः कर्मस्तवोक्तः । अभव्या असंज्ञिनश्च चिन्त्यमाना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकसमाः । अयमर्थः यथा मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतबन्धः कर्मस्तव उक्तस्तथाऽभव्योऽसंज्ञी च सामान्यतो मिथ्यात्वे च सप्तदशोचरशतं बध्नाति । सासादने पुनरसंज्ञी संज्ञिवत्, एकोत्तरशतबन्धक इत्यर्थः । अनाहारके तु मार्गणास्थाने कार्मणकाययोगभङ्गः “विणु तिरिनराउ कम्मे वि" ( गा० १५ ) इत्यादिना योगमार्गणास्थाने प्रतिपादितोऽवगन्तव्यः, कार्मणकाययोगस्थस्यैव संसारिणो नाहारकत्वात् । कार्मणभङ्गश्वायं विंशत्युत्तरशतमध्यादाहारकद्विकदेवायुर्नरकत्रिकतिर्यमरायुः प्रकृत्य Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२-२४] कन्धलामित्वाख्यस्तृतीयः कर्ममन्यः । ष्टकं मुक्त्वा शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्याऽनाहारके सामान्येन बन्धः । तथा जिननाम सुरद्विकं बैक्रियद्विकं च द्वादशोत्तरशतमध्याद मुक्त्वा शेषस्य सप्तोत्तरशतस्यानाहारके मिथ्यादृष्टौ बन्धः। तथा सूक्ष्मादित्रयोदश प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषायाश्चतुर्नवतेः सासादनथेऽनाहारके बन्धः । तथाऽनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिपकृतीश्चतुर्नवतेमध्याद् मुक्त्वा शेषायाः सप्ततेर्जिननामसुरद्विकवैक्रियद्विकयुक्तायाः पञ्चसप्ततेरविरतेऽनाहारके बन्धः । तथा सयोगिनि केवलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वनाहारक एकस्याः सातप्रकृतेर्बन्धः ॥ २३ ॥ अथ प्राग् यदुक्तं लेश्याद्वारे-“साणाइसु सबहिं ओहो" ति (गा० २१) “सासादनादिषु गुणस्थानेषु सर्वत्र लेश्याषट्के ओषो द्रष्टव्यः" इति, तत्र न ज्ञायत आदिशब्दात् कस्यां लेझ्यायां कियन्ति गुणस्थानानि गृपन्ते ! इत्यतो लेश्यासु गुणस्थानकान्युपदर्शयन् प्रकरणसमर्थनां प्रकरणज्ञानोपायं चाह तिसु दुसु सुक्काइ गुणा, चउ सग तेर ति बंधसामित्तं । देविंदसूरिलिहियं, नेयं कम्मत्थयं सोउं ॥ २४ ॥ व्याख्या-'तिसृषु' आद्यासु कृष्णनीलकापोतलेश्यासु "चउ" इत्यादिना यथाक्रम सम्बन्धात् 'चत्वारि' मिथ्यात्वसासादनमिश्राविरतरूपाण्याद्यानि गुणस्थानानि प्राप्यन्ते, एतदुणस्थानच. तुष्के परिणामविशेषतः षण्णामपि लेश्यानां भावात् । 'द्वयोः' तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यात्वादीनि सस गुणस्थानानि, तयोरप्रमत्तगुणस्थानकान्तमपि यावद्भावात् । शुक्ललेश्यायां त्रयोदश मिथ्यात्वादीनि गुणस्थानानि, तस्या मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात् प्रमृति यावत् सयोगिकेवलिगुणखानकं तावदपि भावात् । अयोगी त्वलेश्यः । इह च लेश्यानां प्रत्येकमसोयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्यादृष्यादी सम्भवो न विरुध्यते । तथा कृष्णादिलेश्यात्रयं यदिहाविरतगुणस्थानकान्तमुक्तं तद् बृहत पखामित्वानुसारेण, षडशीतिके तु तस्य प्रमत्तगुणस्थानकान्तं यावदभिहितत्वात् । तथाहि लेसा तिनि पमतं, तेऊपम्हा उ अप्पमता। सुका जाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगि ति ॥ (जिनवल्लमीयषडशीति गा०७३) तत्त्वं तु श्रुतधरा विदन्ति इति । प्रतिपावितं गत्यादिषु बन्धखामित्वम् , तत्प्रतिपादनाच समर्थितं बन्धखामित्वप्रकरणम् । इतिशब्दः परिसमाप्तौ । बन्धखामित्वमेतत् 'ज्ञेयं' बोद्धव्यं, कर्मस्तवं श्रुत्वा, अत्र बहुषु स्थानेषु तदुक्तवन्धातिदेशद्वारेण भणनात् ॥ २४ ॥ एतद्वन्यस्य टीकाभूत्, परं कापि न साऽऽप्यते। स्थानस्याऽशून्यताहेतोरतोऽलेल्यवर्णिका ॥ ॥ इति बन्धवामित्वावधूरिः समाप्ता॥ ग्रन्थानम् ४२६ अक्षराणि २८ १लेश्यास्तिस्रः प्रमत्तं [यावत् ] तेजःपग्रेतु अप्रमतान्तम् । शुका यावत् सयोगिनं निरुदळेश्योऽयोगीति॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। ॥ ॐ नमः प्रवचनाय॥ यद्भाषितार्थलवमाप्य दुरापमाशु, श्रीगौतमप्रभृतयः शमिनामधीशाः । सूक्ष्मार्थसार्थपरमार्थविदो बभूवुः, श्रीवर्धमानविभुरस्तु स वः शिवाय ॥ १॥ निजधर्माचार्येभ्यो, नत्वा निष्कारणैकबन्धुभ्यः । श्रीषडशीतिकशास्त्र, विवृणोमि यथागमं किञ्चित् ॥ २॥ तत्राऽऽदावेवाऽभीष्टदेवतास्तुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाह ममिय जिणं जियमग्गणगुणठाणुवओगजोगलेसाओ। पंधऽपबहूभावे, संखियाई किमवि वुच्छं ॥१॥ जिनं नत्वा जीवखानादि वक्ष्य इति सम्बन्धः । तत्र 'नत्वा' नमस्कृत्य, नमस्कारो हि चतुर्धा-द्रव्यतो नामैको न मावतो यथा पालकादीनाम् १, भावतो नामैको न द्रव्यतो यथाऽनुसरोपपातिसुरादीनाम् २, एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि यथा शम्बकुमारप्रमृतीनाम् ३, एकोन द्रव्यतो नापि भावतो यथा कपिलादीनाम् ४ । ततो द्रव्यभावरूपेण भावनमस्कारेण नमस्कृत्य । कम् ! इत्याह-'जिन' रागद्वेषमोहादिदुरवैरिवारजेतारं वीतरागम् , परमाईन्त्यमहिमालतं तीर्थकरमित्यर्थः । अनेन परमाभीष्टदेवतानमस्कारेण ऐकान्तिकमात्यन्तिकभावमङ्गलमाह, तेन च शास्त्रस्याऽऽपरिसमाप्तेर्निष्पत्यूहता भवतीति । क्त्वाप्रत्ययस्य चोत्तरक्रियासापेक्षत्वाद् उत्तरक्रियामाह-जीवमार्गणागुणस्थानादि वक्ष्ये । इह खानशब्दस्य प्रत्येक योगाद् जीवस्थानानि, मार्गणास्थानानि, गुणस्थानानि । तत्र जीवन्ति-यथायोग्यं प्राणान् धारबम्तीति जीवाः प्राणिनः शरीरमृत इति पर्यायाः, तेषां जीवानां सानानि-सूक्ष्मापासकेन्द्रिमत्वादयोऽवान्तरविशेषाः, तिष्ठन्ति जीवा एषु इति कृत्वा जीवस्थानानि १। मार्गणजीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा, तस्याः सानानि-आश्रया मार्गणासानानि वक्ष्यमा णानि गत्यादीनि २। गुणाः मानदर्शनचारित्ररूपा जीवखमाबविशेषाः, स्थानं-पुनरेतेषां शुधशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः खरूपमेदः, तिष्ठन्ति गुणा अस्मिन्निति कृत्वा, गुणानां स्थानानि गुणस्थानानि-परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पानि खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां सविस्तरमभिहितानि इहैव वा किञ्चिद्वक्ष्यमाणानि मिथ्याष्टिप्रमृतीनि चतुर्दश ३। “उवओग" ति उपयोजनमुपयोगः-बोधरूपो जीवव्यापारः, भावे घन्, यद्वा उपयुज्यते-वस्तुपरिच्छेदं प्रति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मप्रन्यः । ११६ व्यापार्यत इत्युपयोगः, कर्मणि घञ्, यदि वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति जीवोऽनेनेत्युपयोगः, “पुंनाम्नि धः" ( सि० ५ -३ - १३० ) इति करणे घप्रत्ययः, सर्वत्र जीवस्वतत्त्वभूतोऽबोध एवोपयोगो मन्तव्यः ४ | "योग" ति योजनं योगः - जीवस्य वीर्य परिस्पन्द इति यावत्, यदि वा युज्यते - धावनवस्गनादिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः, कर्मणि घञ्, यद्वा युज्यते - सम्बध्यते धावनवल्गनादिक्रियासु जीवोऽनेनेति “पुंनाम्नि०" (सि० ५-३-१३० ) इति करणे घप्रत्ययः, स च मनोवाक्कायलक्षणसहकारिकारण मेदात् त्रिविधो वक्ष्यमाणखरूपः ५ | "लेसाउ" त्ति लिश्यते श्लिष्यते कर्मणा सहात्माऽनयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचि - व्यादात्मनः शुभाशुभपरिणामविशेषः । यदुक्तम् — कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ इति । सा च षोढा – कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्कलेश्या । आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषीदृष्टान्तेन ग्रामघातनप्रचलित चौरषट्कदृष्टान्तेन वा एवमवसेयम् जैह जंबुपायवेगो, सुपक्कफलभरियन मियसाहग्गो । दिट्ठो छहिँ पुरिसेहिं, ते बिंती जंबु भक्खेमो || हि पुणते ? बितेगो, आरुहणे हुज्ज जीयसंदेहो । तो छिंदिऊण मूलाउ पाडिउं ताई भक्खेमो ॥ asserti, किं छित्रेण तरुणा उ अम्हं ? ति । साहा महल छिंदह, तइओ बेई पसाहा उ ॥ गुच्छे चउत्थओ पुण, पंचमओ बेइ गिण्हह फलाई । छट्टो उ बेइ पडिया, एए यि खायहा वित्तुं ॥ दिट्टंतस्सोवणओ, जो बेइ तरुं तु छिंद मूलाओ । सो वह किण्हाए, साह महल्लाउ नीलाए || हवह पसाहा काऊ, गुच्छा तेऊ फलाइँ पम्हाए । पडियाइँ सुक्कलेसा, अहवा अनं इमाऽऽहरणं || चोरा गामवहत्यं, विणिग्गया एगु बेइ घाएह । १ यथा जम्बूपादप एकः सुपक्कफलभरितनतशाखामः । दृष्टः षड्भिः पुरुषेस्ते जुबते जम्मूः भक्षयामः ॥ कथं पुनस्ताः [ भक्षयामः ] ! ब्रवीत्येकः आरोहणे भवेद् जीवसन्देहः । ततश्छित्वा मूलतः पातयित्वा ताः भक्षयामः ॥ द्वितीय आह एतावता किं छिनेन तरुणा तु अस्माकम् ? इति । शाखा महतीरिछन्त तृतीयो ब्रवीवि प्रशावास्तु ॥ गुच्छांचतुर्थकः पुनः पञ्चमो वीति गृहीत फलानि । षष्ठस्तु प्रबीति पतिताः एताः एव स्वादत गृहीत्वा ॥ दृष्टान्तस्योपनयो यो ब्रवीति तरं तु छिन्त मूलतः । स वर्तते कृष्णायां शास्त्रा महतीनलायाम् ॥ भवति प्रशाखाः कापोती गुच्छांस्तैजसी फलानि पद्मा । पतितानि शुक्ललेश्या अथवाऽन्यदिदमाहरणम् ॥ चौरा Aneer विनिर्गता एको ब्रवीति घातयत । क० १५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाच मासु देके विविरविलोपालो जं विच्छह तं मध, दुपवं च चउपर्व वा वि। बीमो मापुल पुरिसे, य तईयो साउहे चउत्थो छ । पंचममो जुझंते, छटो पुण तस्थिमं मगइ । इथं ता हरह धणं, बीजं मारेह या कुणह एयं । केवक हरह धणं ती, उपसंहारो इमो तेसि ॥ सवे मारेह ती, बट्टह सो किण्हलेसपरिणामे । एवं कमेष सेसा, जा चस्मो सुकलेसाए । अस्यैव दृष्टान्तद्वयस्य सङ्ग्रहगाथाः मूलं साह पसाहा, मुच्छ फले छिंद पडियभक्षणमा । सवं माणुस पुरिसा, साउह जुझंत धमहरणा । च लेश्यासु यो जीवो यस्यां लेश्यायां वर्तते स प्रदर्श्यते वेरेणे निरणुकंपो, अइचंडो दुम्मुहो खरो फरुसो । किण्हाइ अणज्झप्पो, वहकरणरओ य तकालं ।। मायाडं मे कुसलो, उक्कोडालुद्ध चवलचलचित्तो । मेहुणतिवाभिरओ, अलियपलावी य नीलाए । मूढो आरंभपिओ, पावं न गणेइ सबकजेसु । न गणेइ हाणिवुड्डी, कोहजुओ काउलेसाए ॥ दक्खो संवरसीलो, रिजुभावो दाणसीलगुणजुत्तो । धम्मम्मि होइ बुद्धी, अरूसणो तेउलेसाए ॥ सत्तणुकंपो य थिरो, दाणं खलु देइ सधजीवाणं । अइकुसलबुद्धिमंतो, धिहमंतो पम्हलेसाए । धम्मम्मि होइ बुद्धी, पावं वजेइ सबकज्जेसु । आरंमेसु न रज्जइ, अपक्खवाई य सुक्काए । यं प्रेक्षध्वं तं सर्व द्विपदं च चतुष्पदं वापि ॥ द्वितीयो मनुष्यान पुरुषाय तृतीयः मायुधांचतुर्थस्तु । पचमको युध्यमानान् षष्ठः पुनस्तत्रेदं भणति ॥ एकं तावत् हरथ धनं द्वितीयं मास्यथ मा मतैषम् । केवलं हरत धनं उपसंहारोऽयं तेषाम् ॥ सर्वान् मारयतेति वर्तते सकृष्णलेझ्यापरिणामे । एवं क्रमेण शेषा यावत् चरमः शुक्ललेश्यायाम् ॥ १ मूलं शाखा प्रशाखा गुचवान् फलानि बिन्त पतितमक्षणता । सर्व मतम्यान पुस्मन् सायुधान युध्यमानान् हन्त] धनहरणम् ॥ १ वैरेण निरखकम्पः अतिवण्यः दुईख खरः पाणायामजण्यात्मः बजकरपरतब तस्माकम् । मायादम्मे कुशल उस्कोचालम्पपलचलचित्तः । मैचनतीमाभिरतः बालीकालापी र बीलायाम् ॥ मूह भारम्मप्रियः पापं व गणयति सर्वकार्ये । न गणपति हानिनी कोषयुतः कापोतडेश्यायाम् ॥ दशः संसशील राजुमाको दानशीलगुणयुकः । धर्मे भवति बुद्धि रोषणा देबोबेश्यायाम् ॥ सच्चानुकम्मकब मिथरस दानं बल ददाति सर्वत्रीवेभ्यः । भविस्यालविवाद प्रतिसाद पनवगायायम धर्मे भवति बुद्धिः पापं पर्जयति सर्वकार्येषु । आरम्मेषु न रजवि अपक्षपातीचमायाम्। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनाना चतुर्थः कर्ममन्यः । ११५ को जीवस्थानानि च मार्गवाखानानि च गुणस्थानानि च उपयोगाश्च योगाय लेश्माबेति इन्द्रे द्वितीया शस्। "बंध" ति मिथ्यात्वादिभिर्बन्महेतु मिरानचूर्णपूर्ण समुद्रवद् निरन्तरं पुलनिचिते को कर्मयोग्यवर्गणापुद्रकैरात्मनः क्षीरनीरवद् वायः पिण्डवद्वा भन्योन्यायमादात्मकः सम्बन्धो बन्धः १ । उपलक्षणत्वाद् उदयोदीरणासत्तानां परिमहः । तत्र तेनामेव कर्मपुद्गलायां यथावस्थितिबद्धानामपवर्तनादिकरणकृते स्वाभाविके वा खिये सस्युदसमवातानां विपाकवेदनमुदयः २ । तेषामेव कर्मयुद्धकानामकारप्राप्तानां जीवसामधर्मविशेषाद् उदयाबरिकायां प्रवेशनमुदीरणा ३ । तेषामेव कर्म पुद्गलानां बन्धसमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्वरणसङ्क्रमकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सति सद्भावः सचा ४ । यद्वा बन्ध इति पदेदेशेऽपि 'भामा खत्थामा' इति न्यायेन पदमयोगदर्शनाद् बन्धहेतवो मिध्यात्वाऽविरतिकपाययोगरूपा वक्ष्यमाणा गृह्यन्ते ७ । “अप्पबहू" ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्व अल्पबहुत्वं मत्यादिरूपमाणास्थानादीनां परस्परं स्तोकभूयस्त्वम् ८ । “भाव" ति जीवाजीवानां तेन तेन रूपेण भवानि - परिणमनानि मावा औपशमिकादयः ९ । ततो बन्धश्व अल्पबहुत्वं च भावाश्चेति द्वन्द्वे द्वितीयाबहुवचनं शस् । सूत्रे च "अप्पबहू" इत्यत्र दीर्घत्वं “दीर्षहखौ मिथो वृत्तौ” ( सि० ८ - १ - ४ ) इति प्राकृतसूत्रेण । "संखिज्जा" चि समायते -चतुष्पल्यादिप्ररूपणया परिमीयत इति सत्यम्, आदिशब्दादसमेयाचन्तकपरिग्रहः ९० । तत एवं जीवस्थानादिकमनन्तकपर्यवसानं द्वारकलापमत्र वक्ष्य इत्यनेनाभिधेयमाह । कथं वक्ष्ये ? इत्याह"किमवि” त्ति किमपि किञ्चित् खल्पं न विस्तरवत्, दुःषमानुभावेनापचीयमानमेघायुर्बलादिगुणानामैदंयुगीनजनानां विखराभिधाने सत्युपकारासम्भवात्, तदुपकारार्थं चैष शास्त्रारम्भप्रयासः । एतेन सविरुचिसत्त्वानाश्रित्य प्रयोजनमाचष्टे । सम्बन्धस्त्वर्थापत्तिगम्यः, स चोपायोपेयलक्षणः साध्यसाधनलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणो वा स्वयमभ्यूः । 1 इह च मार्गणास्थानगुणस्थानादयः सर्वे पदार्था न जीवपदार्थमन्तरेण विचारयितुं शक्यन्त इति प्रथमं जीवस्थानमध्यम् १ | जीवाश्च प्रपश्चत्तो निरूप्यमाणा गत्यादिमार्गणास्थानैरेव निरूपयितुं शक्यन्त इति तदनन्तरं मार्गणास्थानग्रहणम् २ । तेषु च मार्गणास्थानेषु वर्तमाना जीवा न कदाचिदपि मिथ्यादृष्ट्याद्यन्यतमगुणस्थानकविकला भवन्तीति ज्ञापनाय मार्गणास्थानकानन्तरं सुणस्थानकग्रहणस् ३ | असूनि च गुणस्थानकानि परिणामशुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षापकर्वरूपाण्युपयोगवतामेवोपपद्यन्ते नान्येषामाकाशादीनाम् तेषां ज्ञानादिरूपपरिणामरहितत्वादिति प्रतिपत्त्यर्थं गुणस्थानकग्रहणानन्तरमुपयोगग्रहणम् ४ । उपयोगवन्तश्च मनोवाक्कायचेष्टालु वर्तमाना नियमतः कर्मसम्बन्धभाजो भवन्ति । तथा चागमः - जाव णं एस जीवे एसइ वेयह चल फंदर घट्टह खुब्भड़ तं तं भावं परिणम ताव अविध वा सतविहबंधए वा छविहर्षभए वा एगविहघर वा नो णं अबंधए । इति ज्ञापनार्थमुपयोगग्रहणानन्तरं योगग्रहणम् ५ । योगवशाखोपात्तस्यापि कर्मणो याबद् -- १ बापत् खलु एष भीम एजते व्येन चलति स्पन्दते पहते शुभ्यति तं तं भावे परिणमते तावदष्टविचrust an antervasो वा षडिपचन्धको वा एकविधवम्भको वा न सल्बबन्धकः ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाया न कृष्णाद्यन्यतमलेश्यापरिणामो जायते तावद् न तस्य स्थितिपाकविशेषो भवति, "खितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण" इति वचनप्रामाण्यात् , ततो योगवशादुपातस्य कर्मणो लेश्याविशेषतः स्थितिपाकविशेषो भवतीति प्रतिपत्तये योगानन्तरं लेश्याग्रहणम् ६ । लेश्यावन्तश्च यथायोग्यैर्बन्धहेतुभिः कर्मबन्धोदयोदीरणासत्ताः प्रकुर्वन्तीति ज्ञापनाय लेश्यानन्तरं बन्धग्रहणम् ७ । बन्धोदयादियुक्ताश्च जीवा मार्गणास्थानाधाश्रित्य नियमतः परस्परमल्पे वा भवेयुर्वहवो वेति निवेदनार्थ बन्धानन्तरमल्पबहुत्वग्रहणम् ८ । ते च जीवा मार्गणास्थानादिप्वल्पे वा बहवो वा भवन्तोऽवश्यं षण्णामौपशमिकादिभावानां केषुचिद् भावेषु वर्तन्त इति प्रकटनार्थमल्पबहुत्वानन्तरं भावग्रहणम् ९ । औपशमिकादिभाववतां च जीवानामल्पबहुत्वं नियमतः सोयकेन असाध्येयकेन अनन्तकेन वा निरूपणीयमिति भावग्रहणानन्तरं सोयकादिग्रहणम् १० इति । यद्यपि चेह सामान्येनोक्तं "जीवस्थानादि वक्ष्ये" तथाप्येवं विशेषतो द्रष्टव्यम्-जीवस्थानकेषु गुणस्थानकयोगोपयोगलेश्याकर्मबन्धोदयोदीरणासत्ता वक्ष्ये, मार्गणास्थानकेषु पुनर्जीवसानकगुणस्थानकयोगोपयोगलेश्याऽल्पबहुत्वानि, गुणस्थानकेषु च जीवस्थानकयोगोपयोगलेश्यावन्धहेतुबन्धोदयोदीरणासत्ताऽल्पबहुत्वानि । तत्र गाथा: चउदसजियठाणेसुं, चउदस गुणठाणगाणि १ जोगा य २। उपयोग ३ लेस ४ बंधु ५ दउ ६ दीरणा ७ संत ८ अट्ठ पए ॥ चउदसमग्गणठाणेसु, मूलपएसुं बिसहि इयरेसु ।। जिय १ गुण २ जोगु ३ वओगा ४, लेस ५ ऽप्पबहुं ६ च छट्ठाणा ॥ चउदसगुणठाणेसुं, जिय १ जोगु २ वओग ३ लेस ४ बंधा ५ य । बंधु ६ दयु ७ दीरणाओ ८, संत ९ ऽप्पबहुं १० च दस ठाणा ॥ इति ॥ १ ॥ तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमं तावद् जीवस्थानानि निरूपयन्नाह इह मुहुमबायरेगिंदिबितिचउअसन्निसनिपंचिंदी। अपजत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जियहाणा ॥२॥ 'इह' अस्मिन् जगति अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि प्रामिरूपितशब्दार्थानि भवन्ति । केन क्रमेण ! इति चेद् , इत्याह-सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंचिसज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, एते च सर्वेऽपि प्रत्येक पर्यासका अपर्याप्तकाश्चेति । तत्र एक स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां त एकेन्द्रियाः पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतयः, ते च प्रत्येकं द्वेषा-सूक्ष्मा बादराश्च । सूक्ष्मनामकोंदयात् सूक्ष्माः सकललोकव्यापिनः, बादरनामकर्मोदयाद बादराः तेच लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः । द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंक्षिपञ्चेन्द्रिया इति, इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रिया असंज्ञिसंज्ञिमेदमिन्नाश्च पञ्चेन्द्रियाः । तत्र द्वे स्पर्शनरसनलक्षणे चतुर्दशजीवस्थानेषु चतुर्दश गुणस्थानकानि योगाश्च । उपयोगळेश्याबन्धोदयोरीरणासत्ता अष्ट पदानि ॥ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु मूलपदेषु द्विषष्टिरितरेषु । जीवगुणयोगोपयोगा लेश्याऽल्पबहुत्वं च पर स्थानानि ॥ चतुर्दशगुणस्थानेषु जीषयोगोपयोगलेश्यावन्धाय । बन्धोदयोगीरणाः सत्ताऽल्पबहुलं च दश स्थानानि ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । ११७ । इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः कृमिपूतरकचन्दनकशङ्खकपर्दजलौकाप्रभृतयः । त्रीणि स्पर्शनरस - नम्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः कुन्धुमत्कुणयूकागर्द मेन्द्रगोपकमत्कोटकादयः । चत्वारि स्पर्शनरसनप्राणचक्षुर्लक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः अमरमक्षिकामशकवृविकादयः । पञ्च स्पर्शनर सनत्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः मत्स्यमकरेभकलभसारसहंसनरसुरनारकादयः, ते च द्विविधाः - संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च । तत्र संज्ञानं संज्ञा - भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम्, “उपसर्गादातः " ( सि० ५ -३ - ११० ) इत्यप्रत्ययः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः - विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानमाज इति यावत्, तद्विपरीता असंज्ञिन:- विशिष्टस्मरणादिरूप मनोविज्ञान विकला इत्यर्थः । एते च सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः प्रत्येकं द्विधा - पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च । पर्याप्तिर्नाम - पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः, सा च विषयभेदात् षोढा - आहारपर्याप्तिः १ शरीरपर्याप्तिः २ इन्द्रयपर्याप्तिः ३ उच्छ्रासपर्याप्तिः ४ भाषापर्याप्तिः ५ मनः पर्याप्तिः ६ चेति । तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः १ । यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुकलक्षण सप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २ । यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३ । यया पुनरुच्छ्रासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छ्वासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छ्रासपर्याप्तिः ४ । यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः ५ । यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः ६ । एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुःपवषट्ा भवन्ति । यदभाणि आहारसरीरंदिय, पज्जती आणपाणुभासमणे । चचारि पंच छप्पिय, एगिंदियविगलसन्नीणं ॥ अप्रत्ययः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः, “अम्रादिभ्यः " ( सि० ७ - २-४६ ) इति मत्वर्थीयः स्वार्थिककप्रत्ययोपादानात् पर्याप्तकाः । ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्ति विकलास्तेऽपर्याप्तकाः, ते च द्विषा लब्ध्या करणैश्च । तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो म्रियन्ते न पुनः स्वयोग्य पर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि - शरीरेन्द्रियादीनि न तावद् निर्वर्तयन्ति अथ चावश्यं पुरस्ताद् निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः । इह चैवमागम: लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाग, यस्मादागामिभवायुर्बद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः तचाऽऽहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यते । इति ॥ २ ॥ तदेवं निरूपितानि जीवस्थानानि । अथैतेष्वेव जीवस्थानेषु गुणस्थानानि प्रचिकटयिषुराह - १ आहारशरीरेंद्रियाणि पर्याप्तय आनप्राण भाषामनांसि । चतस्रः पश्च षडपि च एकेन्द्रिय विकलसंज्ञिनाम् ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गया देवेन्द्रनारविरवितखोपाटी पायरअसनिविगले, अपनि पढमविय समिअपजते । अजयजुय सनिपजे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु॥३॥ इह खुर्दश गुणस्थानानि भवन्ति । तथमा-मिथ्यादृष्टिगुणसानं १ सासादनसम्याहटिमुषस्थानं २ सम्यम्मिथ्याडष्टिगुणस्थानम् ३ अविरतसभ्याडष्टिगुणस्खानं ४ देशविरतिगुणसमा ५ प्रमतसंयतगुणखानम् ६ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् . अपूर्वकरणगुणसानम् ८ अनियतिवादस्सम्परायगुणसानं ९ सूक्ष्मसम्परायगुणसानम् १० उपशान्तकवायवीतरागच्छ. यखमुणस्थानं ११ क्षीणकवायवीतरागच्छन्नस्थगुणस्थानं १२ सयोमिकेवलिगुणस्थानम् १३ अयोगिकेपलिमुणस्थानम् १४ । एतेषामर्थलेशोऽयम् जीवाइपयत्ये, जिणोवइट्टेसु जा असहहणा । सदहणा वि ब मिच्छा, विवरीयपरूवणा जा य ॥ संसबकरणं जंपिय, जं तेसु अमायरो पयत्येसु । तं पंचविहं मिच्छं, तदिही मिच्छदिट्ठी य॥ उवसमअदाएँ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणः । सम्मं आसायंतो, सासायण मो मुणेययो । बह गुडवहीणि विसमाइमावसहियाणि हुंति मीसामि। मुंअंतस नहोमवदिट्ठीए मीसदिट्ठीओ। लिविहे विदु सम्मते, थोबा वि न विरह जस्स कम्मवसा । सो अविरउ ति भन्नइ, देसे पुण देसविरईओ ॥ विगहाकसायनिदासदाइरओ भवे पमत्तु ति । पंचसमिओ तिगुचो, अपमत्तनई मुणेययो । अप्पुवं अप्पुवं, जहुत्तरं जो करेइ ठिइकंडं । रसकंडं तम्घायं, सो होइ अपुवकरणु ति । विणिवदृति विसुद्धिं, समगपट्टा वि जम्मि अनुनं । तो नियष्टिठाणं, विवरीवमओ वि अनिवट्टी ।। थूलाण लोहसंगण वेयरने बामसे मुणेयचो । सुहुमाण होई सुहुमो, उवसंतेहिं तु उवसंतो ।। १जीवादिपदार्थेषु जिनोपदिष्टेषु याऽश्रद्धा । श्रद्धाऽपि च मिथ्या विपरीतप्ररूपणा या च ॥ संशयकरणं यपि च यस्तेम्वनाहरः पहार्थेषु । तत्पश्चमि मिथ्या सदृष्टिः मिथ्याचि ॥ उपसमाध्यानि स्थिती नियात्रमनाससमेवयन्तुमनाः । सम्यक्त्वं आस्वादयन् सास्वादनो ज्ञातव्यः ॥ यथा पुढदविनी विकमानिभाषचहिते भवतो मिश्रे । भुजानस्य तथोभयदृष्ट्या मिश्रदृष्टिकः ॥ त्रिविधेऽपि हि सम्यक्त्वे स्तोकाऽपि म विरतिः पर कर्मवशात् । सोऽविरत इति भण्यते देशः पुनर्देशविरतेः । विकथाकषायनिद्राशम्दाविरतो भवेत् प्रमत्त इति । पचसहितबिगुप्तोऽप्रमत्तयतिशतव्यः । पूर्वमपूर्व यथोत्तरं यः करोति स्थितिखण्डं । रसखण्डम् तद्धातं स भबलपूर्वकरण इति ॥ विनिवर्तन् विशुद्धिं समकप्रविष्टा मपि यस्मिबन्योन्यम् । सो निखिला मिलमतोऽ. ध्यमिदत्तिास्थलानां लोभसण्डानां वेदको बादरोशातव्यः । सक्ष्माणां भवति सक्ष्म उपशाम्तेःतुपान्त. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानीतिबाल्य चतुर्षः कर्मणाः । सीतमि मोहमिलने, खीयाकमाओ सोग जोगि विमति । होह पउता व तओ, अपउत्ता होइ हु अजोगी। अविश्वसासणमिच्छा, परमविया न उण सेसमुणठाया । मिच्छरस लिनि भंगा, छावलियं होइ सासाणं ॥ तिम उत्थं, पुवामं कोडि कम तेरसमं । सदुपंचक्खा चरिमं, अंतमुहू सेसमुणठाणा ॥ ततो बादराश्व-बादरैकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणाः असंज्ञी च-विशिष्टतरणादिसम्मनोविज्ञानविकरः विकलाश्व-विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिवचतुरिन्द्रियाः बादरासंधिविकलं तस्मिन् बादरासंजिविकले । किंविशिष्टे ! "अपजि" ति अपयर्याने, कोऽर्थः। अपर्याप्सवादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु, तथा अपर्याप्तेऽसंज्ञिनि, तथा विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिपचतुरिन्द्रियेष्वपर्याप्तेषु । किम् ! इत्याह-"पढमबिय" ति इह "सवगुणा" इति पदाद गुणशब्दस्याकर्षणम् , ततः प्रथम-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं द्वितीयं-सासादनमुणसान भवति । अथ तेजोवायुवर्जनं किमर्थम् ! इति चेद्, उच्यते-तेजोवायूनां मध्ये सम्यक्त्वलेशवतामपि उत्पादाभावात् सम्यक्त्वं चासादयतां सासादनभावाभ्युपगमात् । नन्वेकेन्द्रियाणामागमे सासादनभावो नेष्यते, “उभयामावो पुढवाइरसु सम्मत्तलद्धीए" इति पस्ममुनिप्रणीतवचनप्रामाण्यात् , अत एवागमे एकेन्द्रिया अज्ञानिन. एवोक्ताः, द्वीन्द्रियादयश्च केचिदपर्याप्तावस्थायां सासादनभावाभ्युपगमाद् ज्ञानिन उक्ताः केचिच तदमावाद् अज्ञानिनः, यदि पुनरेकेन्द्रियाणामपि सासादनभावः स्यात् तर्हि तेऽपि द्वीन्द्रियादिव उभ. यथाऽप्युच्येरन् , न चोच्यन्ते, यदुक्तम् ऐगेंदिया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ! गोयमा ! नो नाणी नियमा अनाणी । तथाबेइंदिया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि । इत्यादि । तत् कथमिहापर्याप्तबादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणेषु सासादनगुणस्थानकभाव उक्तः !, सत्यमेतत् , किन्तु मा त्वरिष्ठाः, सर्वमेतदने प्रतिविधास्याम इति। "सनिअपजते अजयजुय" ति । संज्ञिन्यपर्याप्ते तदेव पूर्वोक्तं मिथ्यादृष्टिसासावरलक्षणं गुणस्खानकद्वयमयतयुतं भवति । यमनं यतं-विरतिरित्यर्थः, न विद्यते यतं यस्य सोऽयतोड़विस्तसम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, तेन युतं-संयुक्तमयतयुतम् । इदमुक्तं भवति-संजिन्यपर्यासे त्रीणि मिथ्यादृष्टिसासादनाऽविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणानि गुणस्थानानि भवन्ति, न शेषाणि सम्यस्मिथ्यान क्षीणे मोहनीमे क्षीणकषायः सयोगः योगति । भवति प्रयोका च सकः मायोका अवस्येवायोगी । भविरतसाखादनामध्यालानि परभषिकानि न पुनः शेषगुणस्थानानि । मिथ्याखस्य प्रयो भवाः षडावलि भवति साखादनम् ॥ त्रयशिदतराणि चतुर्य पूर्वाणां कोटिकना त्रयोदशम् । लघुपाक्ष कामना शेषगुणस्सायानि ॥ १ उभयाभावः पृविन्यादिकेषु सम्यक्ललम्बेः ॥ ३ एकेन्द्रियाः भदन्त किसानिनोकातिनः गौतम ! न शामिनो नियमावशासिनः ॥ दीन्द्रियाः महन्त ! कि शानिनोमानिनः पौतम । शानिनोप्यहानिनोऽपि॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा दृश्यादीनि, तेषां पर्याप्तावस्थायामेव भावात् । “सन्निपजे सबगुण" ति संज्ञिनि पर्याप्ते सर्वाण्यपि मिथ्यादृष्ट्यादीनि अयोगिपर्यन्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति, संज्ञिनः सर्वपरिणामसम्भवात् । ___ अथ कथं संज्ञिनः सयोग्ययोगिरूपगुणस्थानकद्वयसम्भवः तद्भावे तस्याऽमनस्कतया संज्ञित्वायोगात् ?, न, तदानीमपि हि तस्य द्रव्यमनःसम्बन्धोऽस्ति, समनस्काश्चाऽविशेषेण संझिनो व्यवहियन्ते, ततो न तस्य भगवतः संज्ञिताव्याघातः । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी मणकरणं केवलिणो वि अस्थि तेण सन्निणो भन्नंति, मनोविन्नाणं पडुच ते सन्निणो न भवंति ति । ___ “मिच्छ सेसेसु" ति मिथ्यात्वं शेषेषु' भणितावशिष्टेषु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणेषु सप्तसु जीवस्थानकेषु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेव भवति न सासादनमपि, यतः परभवादागच्छतामेव घण्टालालान्यायेन सम्यक्त्वलेशमाखादय. तामुत्पत्तिकाल एवापर्याप्तावस्थायां जन्तूनां लभ्यते न पर्याप्तावस्थायाम् । अतः पर्याप्तसूक्ष्म१बादर२द्वि३त्रि४चतुपरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां६ तदभावः, अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियेऽपि न सासादनसम्भवः, सासादनस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् , महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानादिति ॥ ३ ॥ ___ तदेवं निरूपितानि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकानि । साम्प्रतं योगा वक्तुमवसरप्राप्तास्ते च पञ्चदश, तद्यथा--सत्यवाग्योगः १ असत्यवाग्योगः २ सत्यमृषावाग्योगः ३ असत्यामृषावाग्योगः ४ । तत्स्वरूपं चेदम् सच्चा हिया सतामिह, संतो मुणयो गुणा पयत्था वा । तषिवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ।। अणहिगया जा तीसु वि, सहु च्चिय केवलो असच्चमुसा । एवं मनोयोगोऽपि चतुर्धा द्रष्टव्यः ४ । काययोगः सप्तधा-औदारिकम् १ औदारिकमिश्रं २ वैक्रिय ३ वैक्रियमिश्रम् ४ आहारकम् ५ आहारकमिश्र ६ कार्मणं च ७ । तत्रौदारिककाययोगस्तियङ्मनुष्ययोः। तयोरेवापर्याप्तयोरौदारिकमिश्रकाययोगः । वैक्रियकाय. योगो देवनारकयोस्तियङ्मनुष्ययोर्वा वैक्रियलब्धिमतोः । वैक्रियमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तयोर्देवनारकयोस्तियअनुष्ययोर्वा वैक्रियस्यारम्भकाले परित्यागकाले च । आहारकं चतुर्दशपूर्वविदः । आहारकमिश्रकाययोग आहारकस्य प्रारम्भसमये परित्यागकाले च । कार्मणकाययोगोऽष्टप्रकारकर्मविकाररूपशरीरचेष्टास्वरूपोऽन्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये केवलिसमुद्धातावस्थायां च । तानेतान् योगान् जीवस्थानकेषु व्याचिख्यासुराह--- अपजस्तछक्ति कम्मुरलमीस जोगा अपजसन्निसु ते । सविउव्वमीस एसुं, तणुपज्जेसुं उरलमन्ने ॥४॥ १मनःकरणं केवलिनोऽप्यस्ति तेन संझिनो भण्यन्ते । मनोविज्ञान प्रतील ते न मशिनः स्युः । २ सत्या हिता सतामिह सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा । तद्विपरीता मृषा मिश्रा या तदुभयसभावा । अमधिकृता या तिसबपि शब्द एव केवलः असल्यामुषा ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडशीतिगामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १२१ अपर्याप्तानां-सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुरसंक्षिपञ्चेन्द्रियाणां षट्कं अपर्याप्तषट्कं तस्मिन् अपर्याप्तषट्के संक्षिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तवर्जितेषु षट्सु अपर्याप्तेषु योगौ भवतः। द्विवचनस्य बहुवचनं प्राकृतत्वात् , यथा--"हत्था पाया" इत्यादौ । को योगौ ! इत्याह-कार्मणौदारिकमिश्रौ । तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, शेषकालं त्वौदारिकमिश्रका• ययोगः । “अपजसन्निसु ते सविउबमीस" ति 'अपर्याप्तसंक्षिषु' संझ्यपर्याप्तजीवेषु 'तौ' पूर्वोक्तौ कार्मणौदारिकमिश्रकाययोगी भवतः, किं केवलौ ! न इत्याह-सह वैक्रियमिश्रेण वतेते इति सवैक्रियमित्रौ । तथा चापर्याप्तसंज्ञिनि त्रयो योगा भवन्ति कार्मणकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगो वैक्रियमिश्रकाययोगश्च । तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, शेषकालं तु तिर्यब्मनुष्ययोरौदारिकमिश्रकाययोगः । संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषु पुनरुत्पद्यमानस्य वैक्रियमिश्रकाययोगो द्रष्टव्यो न शेषस्य, असम्भवात् , मिश्रता चात्र कार्मणेन सह द्रष्टव्या । अत्रैव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-'एषु' पूर्वनिर्दिष्टेषु शेषपर्यात्यपेक्षयाऽपर्याप्तेषु तनुपर्याप्या पर्याप्तेषु शरीरपर्याप्तेष्वित्यर्थः 'औदारिकम्' औदारिककाययोगम् 'अन्ये' केचिदाचार्याः शीलाद्वादयः प्रतिपादयन्तीति शेषः, शरीरपर्यात्या हि परिसमाप्तिवत्या किल तेषां शरीरं परिपूर्ण निष्पन्नमिति कृत्वा । तथा च तइन्थःऔदारिककाययोगस्तिर्यअनुष्ययोः शरीरपर्याप्तेरुव॑म् , तदारतस्तु मिश्रः । (आ. प्र. श्रु. द्वि० अ० पत्र ९४) इति ।। नन्वनया युक्त्या संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषुत्पद्यमानस्य तनुपर्याप्त्या पर्याप्तस्य वैक्रियमपि शरीरमुपपद्यत एव किमिह तद् नोक्तम् ? इति, उच्यते---उपलक्षणत्वाद् एतदपि द्राव्यमित्यदोषः; यद्वा इहापर्याप्ता लब्ध्यपर्याप्तका एवान्तर्मुहूर्तायुषो द्रष्टव्याः, ते च तिर्या नुप्या एव घटन्ते, तेषामेवान्तर्मुहूर्तायुष्कत्वसम्भवात् , न देवनारकाः, तेषां जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्रायुष्कत्वात् । लब्ध्यपर्याप्तका अपि च जघन्यतोऽपि इन्द्रियपर्याप्तौ परिसमाप्तायामेव म्रियन्ते नार्वाग् इत्युक्तमागमाभिप्रायेण । ततस्तेषां लब्ध्यपर्याप्तकानां शरीरपर्यास्या पर्याप्तानामौदारिकमेव शरीरमुपपद्यते न वैक्रियमित्यदोषः । किश्चान्यमतकथनेनाऽयमभिप्रायः सूच्यते यद्यपि तेषां शरीरपर्याप्तिः समजनिष्ट तथापि इन्द्रियोच्छासादीनामबाप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्यासम्पूर्णत्वाद् अत एव कार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वाद् औदारिकमिश्रमेव तेषां युक्त्या घटमानकमिति ॥ ४ ॥ सब्बे सनिपजत्ते, उरलं सुहमे सभासु(स) तं चउम्। वायरि सविउब्बिदुगं, पजसनिसु पार उबओगा ॥५॥ 'स' पञ्चदशापि योगा भवन्ति । तथाहि-चतुर्धा मनोयोगः चतुर्षा वाग्योगः सप्तमा काययोगः । क ! इत्याह-~-'संज्ञिपर्याप्ते' संज्ञी चासौ पर्याप्तश्च संज्ञिपर्याप्तः तस्मिन् संज्ञिपर्याप्ते । नन्वौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रकार्मणकाययोगाः कथं संज्ञिपर्याप्तस्य घटन्ते तेषामपर्याप्तावस्थामावित्वात् !, उच्यते-वैक्रियमित्रं संयतादेवैक्रियं प्रारममाणस्य प्राप्यते, औदारिकमिअकार्मणकाययोगौ तु केवलिनः समुद्धातावस्थायाम् । यदाह भगवानुमाखातिवाचकवरः क. १६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः औदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु || कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । [ गाथा ( प्रश. का. २७६-७७ ) इति । 'पर्याप्ते' सूक्ष्मे सूक्ष्मैकेन्द्रिये औदारिककाययोगो भवति । पर्यासशब्दश्ध "सबे सन्निपजते" इति पदाद् डमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र योज्यः । " चउसु" त्ति चतुर्षु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु तदेवौदारिकं भवति । किं केवलम् ! न इत्याह- ' सभाष' सह भाषया असत्यामृषाखरूपया " विगलेसे असच्चामोसा” इति वचनाद् वर्तत इति सभाषम् । कोऽर्थः ? विकलत्रिकासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु औदारिककाययोगाऽसत्यामृषाभाषालक्षणौ द्वौ योगावित्यर्थः । तद् इत्यनुवर्तते, तद् औदारिकं सह वैक्रियद्विकेन - वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन वर्तत इति सवैक्रियद्विकं बादरै केन्द्रियपर्याप्ते भवति । अयमर्थः - बादरै केन्द्रिये पर्याप्ते औदारिककाययोगवैक्रिय काययोगवैक्रियमिश्र काययोगलक्षणास्त्रयो योगा भवन्ति । तत्र औदारिककाययोगः पृथिव्यम्बुतेजोवनस्पतीनाम्, वैक्रियद्विकं तु वायुकायस्येति ॥ प्ररूपिता जीवस्थानेषु योगाः । साम्प्रतमुपयोगाः प्ररूपणावसरप्राप्ताः, ते च द्वादश । तद्यथा - मतिज्ञान १ श्रुतज्ञान २ अवधिज्ञान ३ मनः पर्यवज्ञान ४ केवलज्ञान ५ लक्षणानि पञ्च ज्ञानानि, मत्यज्ञान १ श्रुताज्ञान २ विभङ्ग ३ रूपाणि त्रीण्यज्ञानानि, चक्षुर्दर्शना १ऽचक्षुर्दर्शना २ऽवधिदर्शन ३ केवलदर्शन ४ रूपाणि चत्वारि दर्शनानि इत्येतानुपयोगान् जीवस्थानकेषु दिदर्शयिषुराह - "पजसन्निसु बार उवओग" त्ति पजशब्देन पर्याप्त उच्यते, ततः पर्याप्ताश्च ते संज्ञिनश्व पर्याप्तसंज्ञिनः, तेषु पर्याप्त संज्ञिषु 'द्वादश' द्वादशसङ्ख्या उपयोगा भवन्ति । ते चक्रमेणैव न तु युगपत्, उपयोगानां तथाजीवस्वभावतो यौगपद्यासम्भवात् । उक्तं च-“सैमए दो णुवओगा” इति । श्रीभद्रबाहुखामिपादा अप्याहुः नामि दंसणम्मिय, एतो एगयरयम्मि उवउत्ता । सबस्स केवलिस्सा, जुगवं दो नत्थि उवओगा || ( आ. नि. गा. ९७९) इति ॥ ५ ॥ पजचउरिंदिअसन्निनु, दुदंस दुअनाण दससु चक्खु विणा । सन्निपचे मणनाणचक्खुकेबलदुगविणा ॥ ६ ॥ चतुरिन्द्रियाश्च असंज्ञिनश्च चतुरिन्द्रियासंज्ञिनः, पर्याप्ताश्च ते चतुरिन्द्रियासंज्ञिनश्च तेषु पर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिषु चत्वार उपयोगा भवन्ति । के ? इत्याह - "दुदंस दुअनाण" चि दर्श: - दर्शनम्, द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्श-चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणम् ; द्वयोरज्ञानयोः समाहारो व्यज्ञानं - मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपम् । अयमर्थः पर्याप्तचतुरिन्द्रियेषु पर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रियेषु च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानचक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणाश्चत्वार उपयोगा भवन्ति । दशम्लु जी १ विकलेषु असत्यामृषा इति ॥ २ समये द्वो नोपयोगो ॥ ३ ज्ञाने दर्शने चानयोरेकतरस्मिनुपयुक्ताः । सर्वस्य केवलिनो युगपद् द्वौ न स्त उपयोगी ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] ... पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १२३ बस्थानकेषु पर्याप्साऽपर्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रिय द्वीन्द्रियपत्रीन्द्रिया८ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रिया९ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय१० लक्षणेषु पूर्वोक्ताश्चत्वार उपयोगाश्चक्षुर्दर्शनं विना भवन्ति । अयमर्थः-पूर्वोक्तदशजीवस्थानकेषु चक्षुर्दर्शनवर्जा अचक्षुर्दर्शनमत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणास्त्रय उपयोगा भवन्ति । ननु स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमसम्भवाद् भवतु मतिरेकेन्द्रियाणाम् , यतु श्रुतं तत् कथं जापटीति ! भाषालब्धिोत्रेन्द्रियकब्धिमतो हि तद् उपपद्यते नान्यस्य । तदुक्तम् भावमयं भासासोयलद्धिणो जुज्जए न इयरस्स । भासाभिमुहस्स सुयं, सोऊण व जं हविजाहि ॥ (विशेषा० गा० १०२) इति । उच्यते-इह तावदेकेन्द्रियाणामाहारादिसंज्ञा विद्यन्ते तथा सूत्रेऽभिधानात् , संज्ञा चामिलाप उच्यते । यदवादि परोपकारभूरिभिः श्रीहरिभद्रसूरिभिर्मूलावश्यकटीकायाम् आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेषः (पत्र ५८०) इति । अभिलाषश्च ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं शन्दा. थोल्लेखानुविद्धः खपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसायरूपः; स च श्रुतमेव, शब्दार्थालोचनानुसारित्वात् , श्रुतस्यैवैतल्लक्षणत्वात् ।। यदवादिषुर्दलितप्रवादिकुवादाः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः इंदियमणोनिमित्तं, जं विनाणं सुयाणुसारेणं । निययत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं ॥ (विशेषा० गा० १००) "सुयाणुसारेणं" ति शब्दार्थालोचनानुसारेण । केवलमेकेन्द्रियाणामव्यक्त एव कश्चनाप्यनिर्वचनीयः शब्दाथोल्लेखो द्रष्टव्यः, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः । यदप्युक्तम्-भाषालब्धिश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वाद् एकेन्द्रियाणां श्रुतमनुपपन्नमिति, तदप्यसमीक्षिताभिधानम् , तथाहि-बकुलादेः स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि किमपि सूक्ष्म भावेन्द्रियपश्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते "पंचिंदिओ व बउलो नरु व सबविसओवलंभाओ" इत्यादिव. चनप्रामाण्यात् । तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं श्रुतमपि मविष्यति, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः । यदाह प्रशस्यभाष्यसस्यकाश्यपीकल्पः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: जैह सुहमं भाविंदियनाणं दबिंदियांण विरहे वि । दवसुयाभावम्मि वि, भावसुयं पस्थिवाईणं ।। (विशेषा० गा० १०३) इति । संज्ञी चासौ अपर्याप्तश्च संश्यपर्याप्तः तस्मिन् संश्यपर्याप्ते मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनकेवलज्ञान१ भावश्रुतं भाषाप्रोत्रलब्धिकस्य युज्यते नेतरस्य । भाषाभिमुखस्य श्रुतं श्रुखा वा यद् भवेत् । २ इन्द्रियमनोनिमित्तं यद् विज्ञानं श्रुतानुसारेण । निजकार्योक्तिसमयं तद् भावश्रुतं मतिः शेषम् ॥ ३ पञ्चेन्द्रिय इव बकुलो नर इव सर्वविषयोपलम्भात् ॥ ४ यथा सूक्ष्मं भावेन्द्रियकानं द्रव्येन्द्रियाणां बिरहेऽपि । द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावभुतं पृथिव्यादीनाम् ॥ ५ °यावरोहे वि । तह दवयाभावे भा' इति विशेषाः वश्यकभाष्ये ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः केवलदर्शनलक्षणकेवलद्विकविहीनाः शेषा मतिज्ञानभुतज्ञानावधिज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञामविभङ्गज्ञानाचक्षुदर्शनाव चिदर्शनरूपा अष्टावुपयोगा भवन्ति ॥ ६ ॥ १२१ [ गाथा उक्त जीवस्थानेषु उपयोगाः । साम्प्रतं जीवस्थानेष्वेव लेश्याः प्रतिपिपादयिषुराह - सन्निदुगि छ लेस अपज्जयायरे पढम चउ ति सेसेसु । .सच बंधुदीरण, संतुदया अट्ठ तेरससु ॥ ७ ॥ संज्ञिनो द्विकम् - अपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं संज्ञिद्विकं तस्मिन्, संज्ञिन्यपर्याप्ते संज्ञिनि पर्याप्ते चेत्यर्थः, षड् लेश्याः - कृष्णनीलकापोततेजः पद्मशुक्ललक्षणा भवन्ति । अपर्याप्तबादरे प्रथमा - श्धतस्रः- कृष्णनीलकापोततेजोरूपा भवन्ति । तेजोलेश्या कथमस्मिन्नवाप्यते ! इति चेद् उच्यते--यदा पुढेवी आउवणस्सइगब्भेपज्जत्तसंखजीवीसु । सम्गचुआणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा || ( वृ० सं० गा० १८० ) इति बचनात् कश्वनापि देवः स्वर्गलोकात् च्युतः सन् बादरैकेन्द्रियतया भूदकतरुषु मध्ये समुत्पद्यते तदा तस्य घण्टालालान्यायेन सा प्राप्यत इत्यदोषः । "ति सेसेसु" ति प्रथमा इत्यनुवर्तते, प्रथमास्तिस्रः - कृष्णनीलकापोतलक्षणाः 'शेषेषु' प्रागुक्तापर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया पर्याप्त बादरै केन्द्रिय वर्जितेषु अपर्याप्तपर्याप्त सूक्ष्मै केन्द्रिय २ द्वीन्द्रिय२त्रीन्द्रिय२ चतुरिन्द्रिया २ऽसंज्ञिपश्चेन्द्रिय २ पर्याप्त बाद रैकेन्द्रिय १ लक्षणेष्वेकादशसु जीवस्थानेषु भवन्ति ता नान्याः, तेषां सदैवाऽशुभपरिणामत्वात्, शुमपरिणामरूपाश्च तेजोलेश्यादयः ॥ तदेवं जीवस्थानकेषु लेश्या अभिधाय साम्प्रतमेतेष्वेव बन्धोदयोदीरणासत्ताख्यस्थानचतु - ष्टयमभिधित्सुराह—“सत्तट्ट बंधु" इत्यादि । सप्त वा अष्टौ वा सप्ताष्टाः, “सुज्वार्थे समा सङ्ख्येये सङ्घयया बहुव्रीहिः” ( सि. ३-१ - १९ ) इति सूत्रेण बहुव्रीहिसमासः, यथा द्वित्रा इत्यादौ । बन्धश्व उदीरणा च बन्धोदीरणे सप्ताष्टानां बन्धोदीरणे सप्ताष्टबन्धोदीरणे त्रयोदशसु जीवस्थानेषु संज्ञिपर्याप्तवर्जितेषु शेषेषु भवतः । एतदुक्तं भवति - अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय १ पर्यातसूक्ष्मैकेन्द्रिया २ऽपर्याप्तबादरै केन्द्रिय ३ पर्याप्तबादरै केन्द्रिया ४ पर्याप्तद्वीन्द्रिय५ पर्याप्त द्वीन्द्रिया ६ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिय ७ पर्याप्तत्रीन्द्रिया ८ पर्याप्तचतुरिन्द्रिय ९ पर्याप्तचतुरिन्द्रिया १० पर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रिय ११ पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रिया १२ऽपर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय १३ रूपेषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, सप्तानामष्टानां वा उदीरणा । तथाहि यदाऽनुभूयमानभवायुष स्त्रिभागनवभागादिरूपे शेषे सति परभवायुर्बध्यते तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धः, शेषकालं त्वायुषो बन्धाभावात् सप्तानामेव बन्धः । तथा यदाऽनुभूयमानभवायुरुदयावलिकावशेषं भवति तदा सप्तानामुदीरणा, अनुभूयमानभवायुषोऽनुदीरणात्, आवलिकाशेषस्योदीरणाऽनर्हत्वात् । उदीरणा हि उदयावलिका बहिर्वर्तिनीभ्यः स्थितिभ्यः सकाशात् कषायसहितेन कषायासहितेन वा योगकरणेन दलिकमाकृष्य उदयसमयप्राप्तदलिकेन सहाऽनुभवनम् । तथा चोक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णो १ पृध्य्यन्वनस्पति गर्भ पर्याप्त सातवर्ष जी विषु । स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि प्रतिविद्धानि स्थानानि ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..-८] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममकाः । - उदयावलियाबाहिरिल्लठिईहिंतो कसाबसहियासहिएणं मोगकरणेणं दलियमाकड्डिन उनयपतदलिएण समं अणुमवणमुदीरणा । ___ ततः कथमावलिकागतस्योदीरणा भवति !, न च परमवायुषस्तदोदीरणासम्भवः, तखोदयाभावात् , अनुदितस्य च उदीरणाऽनर्हत्वात् । शेषकालं त्वष्टानामुदीरणा। सच उदयच प्राकृतत्वात् सन्तोदया, अष्टानामेव कर्मणां त्रयोदशसु जीबखानकेषु पूर्वेषु भवतः । तथाहि-एतेषु त्रयोदशसु जीवस्थानकेषु सर्वकालमष्टानामपि सत्ता, यतोऽष्टानामपि कर्मणा सत्ता उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावदनुवर्तते । एते च जीवा उत्कर्षतो यथासम्भवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकवर्तिन एवेति । एवमुदयोऽप्येतेषु जीवस्थानेष्वष्टानामेव कर्मणां द्रष्टव्यः । तथाहि-सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयोऽवाप्यते, एतेषु च जीवखानकेषूत्कर्षतोऽपि यथासम्भवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकसम्भव इति ॥ ७॥ सत्तट्टछेगबंधा, संतुदया सत्त अट्ट चत्तारि। सत्तह छ पंच दुर्ग, उदीरणा सन्निपजत्ते ॥८॥ संज्ञी चासौ पर्याप्तश्च संज्ञिपर्याप्तः तस्मिन् संज्ञिपर्याप्ते चत्वारो बन्धा भवन्ति । तद्यथा-- सप्तानां प्रकृतीनां बन्ध एकः, अष्टानां प्रकृतीनां बन्धो द्वितीयः, षण्णां प्रकृतीनां बन्धस्तृतीयः, एकस्याः प्रकृतेर्बन्धश्चतुर्थो बन्धः । तत्राऽऽयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां बन्धो जघन्येनाsन्तर्मुहूर्त यावद् उत्कर्षेण च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि षण्मासोनानि अन्तर्मुहूर्तानपूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि । तथाऽऽयुर्वन्धकाले तासामष्टानां बन्धोऽजघन्योत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, आयुषि बध्यमानेऽष्टानां प्रकृतीनां बन्धः प्राप्यते, आयुषश्च बन्धोऽन्तर्मुहूर्तमेव कालं भवति, न ततोऽप्यधिकम् । तथा एता एवाष्टावायुर्मोहनीयवर्जाः षट्, एतासां च जघन्येन एक समयं बन्धः । तथाहि-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायरूपाणां षण्णां प्रकृतीनां बन्धः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने, तत्र चोपशमश्रेण्यां कश्चिदेकं समयं स्थित्वा द्वितीयसमये भवक्षयेण दिवं गतः सन् अविरतो भवति, अविरतत्वे चावश्यं सप्तप्रकृतीनां बन्धक इति षण्णां बन्धो जघन्येनैकं समयं यावद् , उत्कर्षेण स्वन्तर्मुहूर्तम् , सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानस्याऽऽन्तर्मोहूर्तिकत्वात् । तथा सप्तानां प्रकृतीनां बन्धन्यवच्छेदे सत्येकस्याः सातवेदनीयरूपायाः प्रकृतेर्बन्धः, सच जघन्येनैकं समयम् , एकसमयता चोपशमश्रेण्यामुपशान्तमोहगुणस्थाने प्राग्वद्भावनीया, उत्कपेण पुनर्देशोना पूर्वकोटिं यावत् । स चोत्कर्षतः कस्य वेदितव्यः इति चेद उच्यते-यो गर्मवासे माससप्तकमुषित्वाऽनन्तरं शीघ्रमेव योनिनिष्कमणजन्मना जातो वर्षाष्टकाचोवं संयम प्रतिपन्नः, प्रतिपत्त्यनन्तरं च क्षपकश्रेणिमारुह्य उत्पादितकेवलज्ञानदर्शनः, तस्य सयोगिकेवलिनो वेदितव्यः । अयं चात्र तात्पर्यार्थः-मिथ्यादृष्ट्याचप्रमत्तान्तेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, आयुर्बन्धाभावाद् अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरयोश्च सप्तानां बन्धः, सूक्ष्मसम्पराये षण्णां बन्धः, उपशान्तमोहादिष्वेकस्याः प्रकृतेर्बन्धः । तथा सच उदयश्च प्राकृतत्वात् सन्तोदया, ततः उदयावलिकाबायस्थिविभ्यः कषायसहितासहिवन योगकरणेन दलिकमाकृष्य उदयप्राप्तदलिकेन समं अनुभवनमुदीरणा ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटी कोपेतः [गाथा संज्ञिपर्याप्ते सत्तामाश्रित्य त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-सप्त अष्ट चत्वारि । एवमुदयमप्याश्रित्य त्रीणि स्थानानि, तद्यथा - सप्त अष्ट चत्वारि । तत्र सर्वप्रकृतिसमुदयोऽष्टौ, एतासां चाष्टानां सताऽभव्यानधिकृत्याऽनाद्यपर्यवसाना, भव्यानधिकृत्याऽनादिसपर्यवसाना । तथा मोहे क्षीणे सप्तानां सत्ता, सा चाजघन्योत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणा, सा हि क्षीणमोहगुणस्थाने, तस्य च कालमानमन्तर्मुहूर्तमिति । घातिकर्मचतुष्टयक्षये च चतसृणां सत्ता, सा च जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, उत्कर्षेण पुनर्देशोनपूर्वकोटिमाना । तथा सर्वप्रकृतिसमुदयोऽष्टौ तासां च उदयोऽभव्यानाश्रित्याऽनाद्यपर्यवसानः, भव्यानाश्रित्याऽनादिसपर्यवसानः । उपशान्तमोहगुणस्थानकात् प्रतिपतितानाश्रित्य पुनः सादिसपर्यवसानः । स च जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणः, उपशमश्रेणीतः पतितस्य पुनरप्यन्तर्मुहूर्तेन कस्याप्युपशमश्रेणिप्रतिपत्तेः, उत्कर्षेण तु देशोनाsपार्षपुद्गलपरावर्तः । तथा ता एवाष्टौ मोहनीयवर्जाः सप्त, तासामुदयो जघन्येन एकं समयम् । तथाहि — मोहवर्जसप्तानां प्रकृतीनामुदय उपशान्तमोहे क्षीणमोहे वा प्राप्यते, तत्र कश्चिद् उपशान्तगुणस्थान के एकं समयं स्थित्वा द्वितीये समये भवक्षयेण दिवं गच्छन् अविरतो भवति, अविरतत्वे चावश्यमष्टानां प्रकृतीनामुदयः, ततः सप्तानामुदयो जघन्येनैकसमयं यावदवाप्यते, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्तम्, उपशान्त मोह क्षीण मोह गुणस्थानयोरान्तर्मौहूर्तिकत्वात् । तथा घातिकर्मवर्जाश्चतस्रः प्रकृतयः, तासां च जघन्यत उदय आन्तमौहूर्तिकः, उत्कर्षेण देशोनपूर्व कोटिप्रमाण इति । पिण्डार्थश्चायम् — मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्य यावद् उपशान्तमोहगुणस्थानकं तावद् अष्टानामपि सत्ता, क्षीणमोहगुणस्थाने सप्तानां सचा, सयोग्ययोगिगुणस्थानक - चतसृणां सत्ता । तथा मिथ्यादृष्टेः प्रभृति सूक्ष्मसम्परायं यावद् अष्टानामुदयः, उपशान्तमोहगुणस्थाने क्षीणमोहगुणस्थाने च सप्तानां प्रकृतीनामुदयः, सयोग्ययोगिगुणस्थानयोश्चतसृणामुदय इति । तथा संज्ञिपर्याप्ते उदीरणास्थानानि पञ्च तद्यथा – सप्त अष्ट षट् पश्च द्वे इति । तत्र यदाऽनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं भवति तदा तथाखभावत्वेन तस्यानुदीर्यमा - णत्वात् सप्तानामुदीरणा, यदा त्वनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं न भवति तदाऽष्टानां प्रकृतीनामुदीरणा । तत्र मिध्यादृष्टिगुणस्थानकात् प्रभृति यावत् प्रमत्तसंयत गुणस्थानकं तावत् सप्तानामष्टानां वा उदीरणा, सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानके तु सदैवाऽष्टानामेव उदीरणा, आयुष aafoकाशेषे मिश्रगुणस्थानस्यैवाऽभावात् । तथाऽप्रमत्तगुणस्थानकात् प्रभृति यावत् सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानकस्यावलिकाशेषो न भवति तावद् वेदनीयायुर्वजनां षण्णां प्रकृतीनामुदी - रणा, तदानीमति विशुद्धत्वेन वेदनीयायुरुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् ; आवलिकावशेषे तु मोहनीयस्याऽप्यावलिकाप्रविष्टत्वेनोदीरणाया असम्भवात् ज्ञानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायाणामेवोदीरणा । एतेषामेव चोपशान्तमोहगुणस्थानकेऽप्युदीरणा । क्षीणमोह गुणस्थानकेऽप्येतेषामेव यावद् आवलिकामात्रमवशेषो न भवति, आवलिकावशेषे तु ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामप्यावलिकाप्रविष्टत्वाद् नोदीरणेति द्वयोरेव नामगोत्रयोरुदीरणा, एवं सयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽपि । अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु वर्तमानो जीवः सर्वथाऽनुदीरक एव । ननु तदानीमप्येष सयोगिकेवलिगुणस्थानक इव भवोपग्राहि कर्मचतुष्टयोदयवान् वर्तते Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १२७ ततः कथं तदाऽपि तयोर्नामगोत्रयोरुदीरको न भवति ! नैष दोषः, उदये सत्यपि योगसन्यपेक्षत्वाद् उदीरणायाः, तदानीं च तस्य योगासम्भवादिति ॥ ८॥ ___ तदेवं जीवस्थानकेषु गुणस्थानकायभिधाय साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु जीवस्थानकादि विवास्तान्येव तावद् निर्दिशनाह गइदिए य काए, जोए वेए कसायनाणेस। ' संजमदंसणलेसा, भवसम्मे सन्निआहारे ॥९॥ . . गम्यते-तथाविधकर्मसचिवै वैः प्राप्यत इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः। इन्दनादिन्द्रः-आत्मा ज्ञानेश्वर्ययोगात् तस्येदमिन्द्रियम्, "इन्द्रियम्" (सि. ७-१-१७१) इति सूत्रेणाऽभीष्टरूपनिष्पत्तिः, ततो गतिश्च इन्द्रियं च गतीन्द्रियं तस्मिन् गतीन्द्रिये, एवमन्यत्रापि द्वन्द्वः कार्यः, 'चः' समुच्चये २। चीयते-यथायोग्यमौदारिकादिवर्गणागणैरुपचयं नीयत इति कायः “चितिदेहावासोपसमाधाने कश्चादेः" (सि० ५-३-७९) इति घञ्प्रत्ययश्चकारस्य ककारः (च) ३॥ युज्यते धावनवल्गनादिचेष्टास्वात्माऽनेनेति "पुन्नानि." (सि०५३-१३०) इति घे योगः ४। वेद्यते-अनुभूयत इन्द्रियोद्भूतं सुखमनेनेति वेदः ५। "कष शिष जप झप" इत्यादिदण्डकधातुः, कष्यन्ते-हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषःसंसारः, कषमयन्ते-गच्छन्ति एभिर्जन्तव इति कषायाः; यद्वा कपस्यायः-लाभो येभ्यस्ते कषायाः ६। ज्ञातिर्ज्ञानम् , यद्वा ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम्, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोध इत्यर्थः । संयमनं-सम्यगुपरमणं सावद्ययोगादिति संयमः, यद्वा संयम्यते-नियम्यत आत्मा पापव्यापारसम्भारादनेनेति संयमः “संनिव्युपाधमः" (सि०५-३-२५) इति सूत्रेणाल्पत्ययः, यदि वा सम्-शोभना यमाः-प्राणातिपातानृतभाषणादचादानाब्रह्मपरिग्रहविरमणलक्षणा अस्मिन्निति संयमश्चारित्रम् ८ । दृश्यते-विलोक्यते वस्त्वनेनेति दर्शनम् , यदि वा दृष्टिदर्शनम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यात्मको बोध इत्यर्थः ९। लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सहाऽऽत्माऽनयेति लेश्या १० । भवति-परमपदयोग्यतामासादयतीति भव्यः-सिद्धिगमनयोग्यः "भव्यगेयजन्यरम्यापात्याप्लाव्यं न वा" (सि० ५-१-७) इति कर्तरि यप्रत्ययः, सूत्रे च यकारलोपः प्राकृतत्वात् ११। “सम्म" ति सम्य शब्दः प्रशंसार्थोऽविरुद्धार्थो वा, सम्यग् जीवः, तद्भावः सम्यक्त्वम् , प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा प्रशमसंवेगादिलक्षण आत्मधर्म इति यावत् । यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादाः से ये सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे ।। (आव. नि० पत्र ८११-१) इत्यादि १२॥ ____ संज्ञानं संज्ञा-भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, "ब्रह्मादिभ्यस्तौ" (सि०७-२-५) इति इन्प्रत्ययः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्च १ तच्च सम्यक्त्वं प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमक्षयसमुत्थः प्रशमसंवेगादिलिगः शुभ आत्मपरिणामः ॥ २ अतिप्रबलोऽयं लेखकदोषो यमोपलभ्यतेऽदः किन्तु नीत्यादिभ्य इति । तत्त्वतस्तु घिसादिभ्य इनित्यनेनैवेन (सि. ४-२-४)॥ - - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [ गाथा कसमन्विता इत्यर्थः १३ । ओज आहारलोमाहारकवलाहाराणामन्यतममाहारमाहारयति -गृझतीत्याहारः, "अच्" ( सि० ५ - १ - ४९ ) इत्यच् [ प्रत्ययः ] आहारक इत्यर्थः १४ । भोजआहारादीनां लक्षणमिदम् Og सरिरेणोयाहारो, तयाइ फासेण लोमआहारो । पक्खेवाहारो पुण, कावलिओ होइ नायवो ॥ ( प्रब० गा० ११८० ) ॥ ९ ॥ उक्तानि मूलभूतानि चतुर्दश मार्गणास्थानानि । इदानीमेतेषामेवोत्तर मेदानाह - सुरनरतिरिनिरयगई, इगबियतियचउपणिंदि छक्काया । भूजलजलणाऽनिलवणतसा य मणवयणतणुजोगा ॥ १० ॥ st गतिशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, ततः सुरगतिः नरगतिः तिर्यग्गतिः नरकगतिः । तत्र सुष्ठु राजन्त इति सुराः; यदि वा सुष्ठु रान्ति - ददति प्रणतानामभीप्सितमर्थं लबणाधिपसुस्थित इव लवणजलधौ मार्ग जनार्दनस्येति सुराः; यद्वा 'सुरत् ऐश्वर्यदीत्योः ' सुरन्तिविशिष्टमैश्वर्यमनुभवन्ति दिव्याभरणसम्भारसमृद्ध्या सहजनिजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति सुराः, सुरेषु विषये गतिः सुरगतिः । नृणन्ति - विवेकमासाद्य नयधर्मपरा भवन्तीति नराः-मनुष्यास्तेषु विषये गतिर्नरगतिः । " तिरि” चि प्राकृतत्वात् तिरोऽञ्चन्ति - गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, भ्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत् प्रवृत्तिनिमित्तं तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, ततस्तिर्यक्षु विषये गतिस्तिर्यग्गतिः । नरान् उपलक्षणत्वात् तिरश्वोऽपि प्रभूतपापकारिणः कायन्तीव आयतीवेति नरका:- नरकावासास्तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते येषां ते " अभ्रादिभ्यः " ( सि० ७ - २ - ४६ ) इत्यप्रत्यये नरकास्तेषु विषये गतिर्नरकगतिः १३ इहापि इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया इति २ । षट् कायाः - मू:- पृथ्वी जलम् आपः ज्वलनं तेजः अनिलः - वायुः "वण" ति वनस्पतिः साः द्वीन्द्रियादयः ततः प्रत्येकं कायशब्दस्य योगात् पृथिव्येव कायः शरीरं यस्य स पृथिवीकायः, एवमप्कायः तेजस्कायः वायुकायः वनस्पतिकायः त्रस - काय इति ३। 'चः' समुच्चये । योगशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो योगाः, तथाहिमनोयोगः वचनयोगः तनुयोगः । तत्र तनुयोगेन मनः प्रायोग्यवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तुचिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मन इत्युच्यन्ते, तेन मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो मनोयोगः; मनोविषयो वा योगो मनोयोगः । उच्यत इति वचनं भाषापरिणामापन्नः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः, तेन वचनेन सहकारिकारणभूतेन योगो वचन - योगः, वचनविषयो वा योगो वचनयोगः । तनोति - विस्तारयत्यात्मप्रदेशानस्यामिति तनुरौदारिकादिशरीरं तया सहकारिकारणभूतया योगस्तनुयोगः, तनुविषयो ना योगस्तनुयोगः ४ ॥ १० ॥ बेय नरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति । महसुsaहिमणकेवलविभंगमइसुअमाणसागारा ॥ ११ ॥ बेदशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो वेदाः -- नरवेदः स्त्रीवेदः नपुंसकवेदः । तत्र नरस्य - १ शरीरेणीजभाहारस्त्वचा स्पर्शेन लोमाहारः । प्रक्षेपाहारः पुनः कावलिको भवति ज्ञातव्यः ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-१११ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममन्थः । १.२.९ पुरुषस्य स्त्रियं प्रति अभिलाषो नरवेदः, स्त्रियः - योषितः पुरुषं प्रत्यभिलाषः स्त्रीवेदः, नपुंस 'कस्य - षण्ढस्य स्त्रीपुरुषौ प्रत्यभिलाषो नपुंसकवेद: ५। कषायाश्चत्वारः - कोषकषायः “मद" ति मदो मानोऽहङ्कारो गर्व इत्यर्थः मानकषायः मायाकषायः लोभकषायः । इतिशब्दः कषाया...णामनन्तानुबन्ध्यादिबहु मेदसूचनार्थः, सूत्रे च “मायलोभ " त्ति ह्रस्वत्वं प्राकृतत्वात् ६ । “महसुsवहि" इत्यादि । इहाऽवधीत्यत्राऽकारलोपाद् ज्ञानशब्दस्य च प्रत्येकं सम्बन्धाद् एवं प्रयोगः - मतिज्ञानं श्रुतज्ञानम् अवधिज्ञानं मनः पर्यवज्ञानं केवलज्ञानम्, तथा विभङ्गमत्यज्ञानश्रुतज्ञानानि । एतानि पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि साकाराणि वर्तन्त इति वाक्यार्थः । भावार्थरत्वयम् - " बुधिं मनिंच ज्ञाने" मननं मतिः, यद्वा मन्यते - इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तुपरिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः - योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्च सा ज्ञानं च मतिज्ञानम् । श्रवणं श्रुतम् - अभिलापप्ला वितार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दाभिलाप्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् । अवधानमवधिः - इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम्, अथवा अवशब्दोऽधः शब्दार्थः अव-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते - परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः; यद्वा अवधिः- मर्यादा रुपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्च तद् ज्ञानं च अवधिज्ञानम् । परि - सर्वतोभावे, अवनमवः, “तुदादिभ्योऽनकौ” इत्यधिकारे “अकितौ च” इत्यनेनौणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवो मनः पर्यवः सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, मनः पर्यवश्च तद् ज्ञानं च मनः पर्यवज्ञानम् । यद्वा मनः पर्यायज्ञानम्, तत्र संज्ञिभिर्जीवैः काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तु चिन्तनव्यापृतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्यमानानि मनांसीत्युच्यन्ते तेषां मनसां पर्यायाः - चिन्तनानुगताः परिणामा मनः पर्यायाः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनः पर्यायज्ञानम् । यद्वा आत्मभिर्वस्तुचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पर्येति-अवगच्छतीति मनःपर्यायम् " कर्मणोऽण्" ( सि. ५ -३ - १४ ) इत्यण्प्रत्ययः, मनःपर्यायं च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । केवलम् - एकं मत्यादिरहितत्वात् “नैट्ठम्मि उ छाउ atre नाणे" (आ० नि० गा० ५३९ ) इति परममुनिप्रणीतवचनप्रामाण्यात्, शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कपङ्कापगमात्, सकलं वा केवलं तत्प्रथमतयैव निःशेषतदावरण विगमतः 'सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलम् अनन्यसदृशत्वात्, अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वाद् अपर्यवसितानन्तकालावस्थायित्वाद्वा, निर्व्याघातं वा केवलं लोकेऽलोके वा क्वापि व्याघाताभावात्, केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं - यथावस्थितसमस्तभूतभवद्भाविभावावभासि ज्ञानमिति भावना । तथा मतिश्रुतावधिज्ञानान्येव मिथ्यात्वपङ्ककलुषिततया यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानव्यपदेशभावि भवन्ति । उक्तं च--- आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् || ( प्रश० का ० २२७ ) इति । १ नष्टे तु छाद्यस्थिके ज्ञाने ॥ क० १७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपशटीकोपेतः [ শাখ .. "विभंग" ति विपरीतो भङ्गः-परिच्छित्तिप्रकारो यस्मिंस्तद् विभङ्गम् , विपर्यस्तमवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते इत्यर्थः । सह आकारेण-जातिवस्तुपतिनियतप्रहणपरिणामरूपेण "आगारो उ विसेसो" इति वचनाद् विशेषेण वर्तन्त इति साकाराणि । अयमर्थः-वक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनान्यनाकाराणि, अमूनि च पञ्च ज्ञानानि साकाराणि । तथाहि-सामान्यविशेषास्मकं हि सकलं ज्ञेयं वस्तु, कथम् ! इति चेद् उच्यते-दूरादेव हि शालतमालतालबकुलाशोकचम्पककदम्बजम्बुनिम्बादिविशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽनवधारितं तरुनिकरमवलोकयतः सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदपरिस्फुटं किमपि रूपं चकास्ति तत् सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते, "निर्विशेषं विशेषाणामग्रहो दर्शनमुच्यते” इति वचनप्रामाण्यात् । यत् पुनस्तस्यैव निकटीभूतस्य तालतमालशालादिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव महीरुहसमूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिमतीतिजनकं परिस्फुट रूपमाभाति तद् विशेषरूपं साकारं ज्ञानम् अप्रमेयप्रभावपरमेश्वरप्रवचनप्रवीणचेतसः प्रतिपादयन्ति, सह विशिष्टाकारेण वर्तत इति कृत्वा । तदेवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणाबाधितप्रतीतिवशात् सर्वमपि वस्तुजातं सामान्यविशेषरूपद्वयात्मकं भावनीयमिति ॥ ११ ॥ सामइय छेय परिहार सुहुम अहखाय देस जय अजया। चक्खु अचक्खू ओही, केवलदंसण अणागारा ॥१२॥ समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायः-लाभः समायः समाय एव सामायिकं विनयादेराकृतिगणत्वाद् इकण्प्रत्ययः, यद्वा समः-रागद्वेषविप्रमुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्य आयः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वनिदर्शनचरणपर्यायवाटवीभ्रमणसंक्लेशविच्छेदकैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमोपमैर्युज्यते, समाय एव सामायिकं मूलगुणानामाधारभूतं सर्वसावद्यविरतिरूपं चारित्रम् । यदाह वाचकमुख्यः सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् । न हि सामायिकहीनाश्चरणादिगुणान्विता येन ॥ तस्माजगाद भगवान् , सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ।। यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकं तथापि च्छेदादिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते । प्रथमं पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति । तञ्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च । तत्रेत्वरं भाविन्यपदेशान्तरत्वात् खल्पकालम् , तच्च प्रथमच. रमतीर्थकरतीर्थे भरतैरवतेषु यावद् अद्यापि शैक्षकस्य महाव्रतानि नारोप्यन्ते तावद् विज्ञेयम् । आत्मनः कथां यावद् यदास्ते तद् यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः, यावत्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच भरतैरवतेषु प्रथमचरमवर्जमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनां महाविदेहतीर्थकरमुनीनां चावसेयम् , तेषामुपस्थापनाया अभावात् । “छेय" ति छेदोपस्थापना, तत्र पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापना-महाव्रतेष्वारोपणं यत्र चारित्रे तत् छेदोपस्थापनम् , भरतैरवतप्रथमचरमतीर्थकरतीर्थ एवं १ आकारस्तु विशेषः ॥ २ °मपश्चिमव क ख ग घ.०॥ ३ मुत्थापनाया अ°क०स० ग०स०॥ ४ छेदेनोत्था ख०3०। छेदोत्थापग०॥ ५व्रतेषु यत्र क० ख००प००॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] पडशीतिनामा चतुर्थः कमअन्य। नान्यत्र । तच द्विधा-सातिचार निरतिचारं च। तत्राऽनतिचारमित्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यद् आरोप्यते, तीर्थान्तरं का सामतः साधोः, यथा श्रीपार्श्वनाथतीर्थाद् वर्षमानखामितीर्थ सङ्कामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ । सातिचारं पुनर्यद् मूलगुणघातिनः पुनव्रतोच्चारणम् । "परिहारे" त्ति 'परिहारविशुद्धिकं' परिहरणं परिहारस्तपोविशेषस्तेन विशुद्धिर्यसिंश्चारित्रे तत् परिहारविशुद्विकम् , तच द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च । तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रसेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायिकाः, तदव्यतिरेकात् चारित्रमप्येवमुच्यते। इह नवको गणः, तत्रैको वाचनाचार्यश्चत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारश्चाऽनुचारिणः । निर्विशमानकानां चायं तपोविशेषः-- परिहारियाण उ तवो, जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो । सीउण्हवासकाले, भणिओ धीरेहि पत्तेयं ॥ तस्थ जहन्नी गिम्हे, चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमओ । अट्ठममिह उक्कोसो, इत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥ सिसिरे उ जहनाई, छट्ठाई दसमचरिमगो होइ । वासासु अट्ठमाई, बारसपज्जंतगो नेओ ।। पारणगे आयामं, पंचसु गहों दोसऽभिमाहो भिक्खे । कप्पट्टिया वि पइदिण, करेंति एमेव आयामं ॥ एवं छम्मास तवं, चरिउं परिहारिया अणुचरंति । अणुचरगे परिहारियपेयट्ठिए जाव छम्मासा ॥ कैप्पट्ठिओ वि एवं, छम्मास तवं करेइ सेसा उ । अणुपरिहारिंगभावं, वयंति कप्पट्ठियत्तं च ॥ एंवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वनिओ कप्पो । संखेवओ विसेसो, विसेससुत्ताउ नायवो ॥ कैप्पसमत्तीइ तयं, जिणकप्पं वा उविंति गच्छं वा । पडिवज्जमाणगा पुण, जिणम्सगासे पवर्जति ।। (प्रवच० गा०६०२-६०९) १ परिहारिकाणां तु तपः जघन्य मध्यमं तथैवोत्कृष्टम् । शीतोष्णवर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् ॥ तत्र जधन्यं प्रीध्मे चतुर्थ षष्ठं तु भवति मध्यमम् । अष्टममिह उत्कृष्टमितः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥ शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं भवति । वर्षासु अष्टमादि द्वादशपर्यन्तकं झेयम् ॥पारणके आचाम्लं पञ्चसुग्रहः इयोरभिप्रहो भिक्षे । कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनं कुर्वन्ति एवमेवाचामाम्लम् ॥ एवं षण्मासान् तपश्चरिया परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकाः परिहारिकपदस्थिता यावत् षण्मासान् ॥ २प्रवचनसारो द्वारे तु-परिट्टिए- परिस्थिताः इति ॥ ३ कल्पस्थितोऽप्येवं षण्मासस्तिपः करोति शेषास्तु । अनुपरिहारिकमावं प्रजन्ति कल्पस्थितख च ॥ एवं एषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कल्पः । संक्षेपतो विशेषो विशेषसूत्राद् ज्ञातव्यः ॥ ४ एवं सो अ° क० ग० ॥ ५ कल्पसमाप्तौ तक (परिहारिककल्पं) जिनकल्पं वोपयन्ति गई पा। प्रतिपथमानकाः पुनर्जिनसकाशे प्रपद्यन्ते ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेत [गाया तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व न उण अन्नस्स। एएसिं जं चरणं, परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥ (प्रवच० गा० ६१०) ___ अथैते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भवन्ति !, उच्यते-इह क्षेत्रादिनिरूपणार्थ विंशतिद्वाराणि । तद्यथा-क्षेत्रद्वारं १ कालद्वारं २ चारित्रद्वारं ३ तीर्थद्वारं ४ पर्यायद्वारम् ५ आगमद्वारं ६ वेदद्वारं ७ कल्पद्वारे ८ लिङ्गद्वारं ९ लेश्याद्वारं १० ध्यानद्वारं ११ गणद्वारम् १२ अभिग्रहद्वारं १३ प्रवज्याद्वारं १४ मुण्डापनद्वारं १५ प्रायश्चित्तविधिद्वार १६ कारणद्वारं १७ निःप्रतिकर्मद्वारं १८ भिक्षाद्वारं १९ बन्धद्वारम् २० । तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतश्च । यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतो मार्गणा, यत्र च कल्पे स्थितो वर्तते तत्र सद्भावतः । उक्तं च- . . खिते दुहेह मग्गण, जम्मणओ चेव सतिभाके य। जम्मणओ जहिं जाओ, संतीभावो य जहिं कैप्पो ॥ (पञ्चव० १४८५) तत्र जन्मतः सद्भावतश्च पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरवतेषु न तु महाविदेहेषु । न चैतेषां संहरणमस्ति येन जिनकल्पिका इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिप्वकर्मभूमिषु वा प्राप्येरन् । उक्तं च --- "खेत्ते भरहेरवएसु हुंति संहरणवज्जिया नियमा । ( पञ्चव० गा० १५२९) कालद्वारे--अवसर्पिण्यां तृतीये चतुर्थे वाऽरके जन्म, सद्भावः पञ्चमेऽपि, उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा जन्म, सद्भावः पुनस्तृतीये चतुर्थे वा । उक्तं च --- ओसेप्पिणीएँ दोमुं, जम्मणओ तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिणि विवरीओ, जम्मणओ संतिभावेणं ॥ (पञ्चव० गा० १४८७) नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे चतुर्थारकप्रतिभागे काले न सम्भवन्ति, महाविदेहक्षेत्रे तेषामसम्मवात् । चारित्रद्वारे-संयमद्वारेण मार्गणा । तत्र सामायिकस्य च्छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परम्परं तुल्यानि, समानपरिणामत्वात् , ततोऽसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योचं यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुद्धियोग्यानि, तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीनि तेष्वपि सम्भवात् । तत ऊर्ध्वं यानि सङ्ख्यातीतानि संयमस्थानानि तानि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रयोग्यानि । उक्तं च---- तुला जहन्नठाणा, संजमठाणाण पढमबियाणं । तत्तो असंखलोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा ॥ (पञ्चव० गा० १५३०) १ तीर्थकरसमीपासेवकस्य पार्श्व वा न पुनरन्यस्य । एतेषां यत् चरणं परिहारविशुद्धिकं तत्तु ॥ २ क्षेत्रे द्विधेह मार्गणा जन्मतश्चैव सद्भावतश्च । जन्मतो यत्र जातः सद्भावतश्च यत्र कल्पः ॥ ३ कप्पे क०ख० ग० घ० ० ॥ ४ क्षेत्रे भरतैरवतयोः भवन्ति संहरणवर्जिता नियमाद् ॥ ५ अवसर्पिण्या द्वयोर्जन्मतस्तिसृषु सद्भावेन । उत्सर्पिण्यां विपरीतं जन्मतः सद्भावतः ॥ ६ तिसु असं पञ्चवस्तुके ॥ ७ तुल्यानि जघन्यस्थानानि संयमस्थानयोः प्रथमद्वितीययोः । ततोऽसङ्ख्यातलोकान् गला परिहारिकस्थानानि ॥ ८ °णाई पक०ख० ग० घ. उ०॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। ते 'वि असंखा लोगा, अविरुद्धा चेव पढमबीयाणं। उवरि पि तो असंखा, संजमठाणाउ दुण्हं पि ॥ (पञ्चव० गा० १५३१) तत्र परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्तिः स्वकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति न शेषेषु । यदा त्यतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि संयमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्धिककल्पसमाप्त्यनन्तरमन्येप्वपि च चारित्रेषु सम्भवात् , तेष्वपि च वर्तमानस्याऽतीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वात् । उक्तं च-- सट्टाणे पडिवत्ती, अन्नेसु वि हुज पुव्वपडिवन्नो । तेसु वि वÉतो सो, तीयनयं पप्प वुच्चइ उ ॥ (पञ्चव० गा० १५३२) तीर्थद्वारे-परिहारविशुद्धिको नियमतः तीर्थे प्रवर्तमान एव सति भवति, न तूच्छेदेऽनुपत्त्यां वा तदभावे जातिस्मरणादिना । उक्तं च "तिथि त्ति नियमओ च्चिय, होइ स तित्थम्मि न उण तदभावे ।। विगएऽणुप्पन्ने वा, जाईसरणाइएहिं तु ॥ (पञ्चय० गा० १४९२) पर्यायद्वारे--पर्यायो द्विधा-गृहस्थपर्यायो यतिपर्यायश्च । एकैकोऽपि द्विधा-जघन्य उत्कृष्टश्च । तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्य एकोनत्रिंशद्वर्षाणि, यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि चोत्कृटतो देशोनपूर्वकोटीप्रमाणौ । उक्तं च ऐयम्स एस नेओ, गिहिपरियाओ जहन्निगुणतीसा । ___ जइपरियाओ वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा ॥ ( पश्चव० गा० १४९४) आगमद्वारे-अपूर्वागमं स नाधीते, यस्मात् तं कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाराधनत एव स कृतकृत्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विश्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यक् प्रायोऽनुस्मरति । उक्तं च अप्पुव्वं नाहिज्जइ, आगममेसो पडुच्च तं कैप्पं । जमुचियपगहियजोगाराहणओ चेव कयकिञ्चो । प्रवाहीयं तु तयं, पायं अणुसरइ निच्चमेवेसो। एगग्गमणो सम्मं, विस्सोयसिगाइखयहेऊ ।। (पञ्चव० गा० १४९५-९६) वेदद्वारे-प्रवृत्तिकाले वेदः पुरुषवेदो वा नपुंसकवेदो वा भवेत् , न स्त्रीवेदः, स्त्रियाः परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्त्यसम्भवात् । अतीतनयमधिकृत्य पुनः पूर्वप्रतिपन्नश्चिन्त्यमानः सवेदो १ तान्यपि असङ्ख्यानि लोकानि अविरुद्धान्येव प्रथमद्वितीययोः । उपर्यपि ततोऽसङ्ख्यातानि संयमस्थानानि इयोरपि ॥ २ ताण वि असंखलो पञ्चवस्तुके ॥ ३ खस्थाने प्रतिपत्तिरन्येष्वपि भवेत् पूर्वप्रतिपमः। तेष्वपि वर्तमानः सोऽतीतनयं प्राप्य उच्यते तु॥ ४ तीर्थे इति नियमत एव भवति स तीर्थे न पुनस्तदभावे । विगतेऽनुत्पन्ने वा जातिस्मरणादिकैस्तु ॥ ५ एतस्यैष शेयो गृहिपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशत् ( वर्षाणि) । यतिपर्यायो विंशतियोरपि उत्कृष्टो देशोना (पूर्वकोटी)॥ ६ अपूर्व नाधीते आगममेष प्रतीत्य तं कल्पम् । यदुचितप्रगृहीतयोगाराधनत एव कृतकृत्यः ॥ ७ जम्मं पञ्चवस्तुके ॥ ८ °पगिहजो पञ्चवस्तुके ॥ ९ पूर्वाधीतं तु तत् (श्रुतम्) प्रायोऽनुस्मरति नित्यमेवैषः । एकाग्रमनाः सम्यग् विश्रोतसिकादिक्षयहेतुम् ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गामा वा भवेद् अवेदो वा, तत्र सवेदः श्रेणिप्रतिपत्त्यभावे उपशमश्रेणिमतिपतौ वा, आपकश्रेणिपतिपत्तौ स्ववेद इति । उक्तं च-- 'वेदो पवित्तिकाले, इत्थीवजो उ होइ एगयरो। पुष्वपडिवन्नओ पुण, होज सवेओ अवेओ वा ॥ (पञ्चव० गा० १४९७) ... कल्पद्वारे-स्थितकल्प एवायं नास्थितकल्पे, "ठियकप्पम्मि वि नियमा" (पञ्चव० गा० १५३३) इति वचनात् । तत्राऽऽचेलक्यादिषु दशस्वपि स्थानेषु ये स्थिताः साधवस्तत्कल्पा स्थितकल्प उच्यते, ये पुनश्चतुषु शय्यातरपिण्डादिष्ववस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाऽऽचेलक्यादिषु षट्वस्थितास्तत्कल्पोऽस्थितकल्पः । उक्तं च-- ठिय अढिओ य कप्पो, आचेलकाइएस ठाणेसु । सन्वेसु ठिया पढमो, चउ ठिय छसु अट्ठिया बीओ।। (पञ्चव० गा० १४९९) आचेलक्यादीनि च दश स्थानान्यमूनि आचेलकुइसियसिज्जायररायपिंडकिइकम्मे । वयजिट्ठपडिक्कमणे, मासंपज्जोसवणकप्पे ॥ (पञ्चव० गा० १५००) चत्वारश्चावस्थिताः कल्पा इमे सिज्जोयरपिंडम्मी, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य । किइकम्मम्स य करणे, चतारि अवट्ठिया कप्पा ॥ (पञ्चाश० १७ गा० १०) लिङ्गद्वारे--नियमतो द्विविधेऽपि लिने भवति । तद्यथा---द्रव्यलिङ्गे भावलिङ्गे च । एकेनापि विना विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् । लेश्याद्वारे-तेजःप्रभृतिकासूत्तरासु तिसृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वास्वपि कथञ्चि भवति, तत्राऽपीतराखविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो न प्रभूतं कालमवतिष्ठते, किन्तु स्तोकम् , यतः खवीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते । अथ प्रथमत एव कस्मात् प्रवर्तते ? उच्यते--कर्मवशात् । उक्तं च लेसासु विसुद्धासुं, पडिवज्जइ तीसु न उण सेसासु । पुन्वपडिवन्नओ पुण, हुज्जा सव्वासु वि कहंचि ॥ नचंतसंकिलिट्टासु थोवकालं च हंदि इयरेसु । चित्ता कम्माण गई, तहा वि विरियं फलं देह ।। (पञ्चव० गा० १५०३-४) १ वेदः प्रवृत्तिकाले स्त्रीवर्जस्तु भवति एकतरः । पूर्वप्रतिपन्नकः पुनर्भवेत् सवेदोऽवेदो वा ॥ २ स्थितकल्प एव नियमात् । ३ स्थितोऽस्थितश्च कल्पः आचेलक्यादिकेषु स्थानेषु । सर्वेषु स्थिताः प्रथमः चतुर्ष स्थिताः षट्स्वस्थिता द्वितीयः ॥ ४ आचेलक्यौदेशिकशय्यातरराजपिण्डकृतिकर्माणि । प्रतज्येष्ठप्रतिक्रमणानि मासपर्यषणाकल्पौ॥ ५ शयातरपिण्डे चतुर्यामे च पुरुषज्येछये च । कृतिकर्मणश्च करणे चलारोऽवस्थिताः कल्याः॥ ६ पञ्चाशके प्रवचनसारोद्धारे च-'ठिइकप्पो मज्झिमाणं तु' इत्येवं पाठः ॥ ७ लेश्यासु विशुद्धा प्रतिपद्यते तिसषु न पुनः शेषाम् । पूर्वप्रतिपक्षकः पुनर्भवेत् सर्वाखपि कश्चित् ॥ नात्यन्तसंक्लिष्टासु स्तोककालं पहन्दि इतरासु । चित्रा कर्मणां गतिः तथापि वीर्य फलं ददाति ॥ ८ इयराम घ० पश्चवस्तुकेच : Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ १२) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । भ्यानद्वारे-~-धर्मध्यानेन प्रवर्तमानेन परिहारविशुद्धिकं कश्पं प्रतिपयते । पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरौद्रयोरपि भवति केवलं प्रायेण निरनुबन्धः । उक्तं च-- झाणम्मि वि धम्मेणं, पडिवजइ सो पवड्डमाणेणं । इयरेसु वि झाणेसुं, पुव्वपवनो न पडिसिद्धो॥ ऐवं च कुसलजोगे, उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा । रुदद्देसु वि भावो, इमस्स पायं निरणुबंधो ।। (पञ्चव० गा० १५०५-६) गणद्वारे-जघन्यतायो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतः शतसमपाः । पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कर्षतो वा शतशः । पुरुषगणनया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः, उत्कर्षतः सहस्रम् । पूर्वप्रतिपन्नाः पुनर्जघन्यतः शतशः, उत्कर्षतः सहस्रशः । आह च--- गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयस उक्कोसा । उक्कोसजहन्नेणं, सयसु च्चिय पुन्वपडिवन्ना ।। सत्तावीस जहन्ना, सहस्समुक्कोसओ य पडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्न जहन्न उक्कोसा ॥ (पञ्चव० गा० १५३४-३५) अन्नच यदा पूर्वप्रतिपन्नः कल्पमध्याद् एको निर्गच्छति अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपे प्रतिपत्ती कदाचिद् एकोऽपि भवति पृथक्त्वं वा । उक्तं च --- पंडिवज्जमाण भइया, इक्को वि य हुज ऊणपक्खेवे । पुवपडिवन्नया वि य, भइया एको पुहत्तं वा ॥ (पञ्चव० गा० १५३६) अभिग्रहद्वारे--अभिग्रहाश्चतुर्विधाः । तद्यथा---द्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहा भावाभिग्रहाश्च विचित्रा भवन्ति । तत्र परिहारविशुद्धिकस्य इमेऽभिग्रहा न भवन्ति, यस्माद् एतस्य कल्प एव यथोदिसकसोऽभिग्रहो वर्तते । उक्तं च दवाईय अभिग्गह, विचित्तरूवा न हुंति पुण केई । एयर्स जावकप्पो, कप्पु चियऽभिग्गहो जेण ॥ ऐयम्मि गोयराई, नियया नियमेण निरववाया य । तप्पालणं चिय परं, एयस्स विसुद्धिठाणं तु ॥ ( पञ्चव० गा० १५०९-१०) __ प्रव्रज्याद्वारे-नासावन्यं प्रव्राजयति कल्पस्थितिरेषेति कृत्वा । उक्तं च १ ध्यानेऽपि धर्मेण ( ध्यानेन ) प्रतिपद्यतेऽसौ प्रवर्धमानेन । इतरेष्वपि भ्यानेषु पूर्वप्रपन्नो न प्रतिषिद्धः॥ एवं च कुशलयोगे उद्दामे तीव्रकर्मपरिणामात् । रौद्रातयोरपि भावोऽस्य प्रायो निरनुबन्धः ॥ २ एवं अकु. क०ख० ग०प०अ०॥ ३ गणतनय एव गणा जघन्या प्रतिपत्तिः शतश उत्कृष्टा । उत्कृष्टजघन्याभ्यां शतश एवं पूर्वप्रतिपमाः ॥ सप्तविंशतिर्जघन्या सहस्राण्युत्कृष्टतश्च प्रतिपत्तिः । शतशः सहस्रशोबा प्रतिपमा जघन्या उत्कृटा ॥ ४ प्रतिपद्यमाना भक्ता एकोऽपि च भवेद् ऊनप्रक्षेपे । पूर्वप्रतिपनका अपि च भका एकः पृथक्त्वं वा॥ ५ द्रव्यादिका अभिग्रहा विचित्ररूपा न भवन्ति पुनः केऽपि । एतस्य यावत्कल्पं कल्प एवाभिप्रहो येन ॥ ६००वाईआऽभि इति पञ्चवस्तुके ॥ ७°ति इत्तिरिआ। इति पअषस्तके। ८स आवकहिओ कप्पो चि° इति पश्चवस्तुके॥ ९एतस्मिन् गोचरादयो नियता नियमेन निरपवादाश्च । तत्पालनमेव परभेतस्य विशुद्धिस्थानं तु॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपनटीकोपेतः [गाथा . पवाएइ न एसो, अन्नं कप्पट्टिइ ति काऊणं । ( पञ्चव० गा०..१५११) उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति । मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डापयति । अथ प्रव्रज्यामन्तरं नियमतो मुण्डनमिति प्रव्रज्याग्रहणेनैव तद् गृहीतमिति किमर्थ पृथग् द्वारम् ? तदयुक्तम् , प्रवज्यानन्तरं नियमतो मुण्डनस्याऽसम्भवात् , अयोग्यस्य कथञ्चिदत्तायामपि प्रव्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डनायोगाद् , अतः पृथगिदं द्वारमिति । प्रायश्चित्तविधिद्वारे----मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमापन्नस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्य, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानस्ततस्तदने गुरुतरो दोष इति । कारणद्वारे--कारणं नामाऽऽलम्बनम् , तत्पुनः सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकम् , तचास्य न विद्यते येन तदाश्रित्याऽपवादपदसेविता स्यात् , एष हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव खं कल्पं यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्तते । उक्तं च कोरणमालंबणमो, तं पुण नाणाइयं सुपरिसुद्धं । एयम्स तं न विजइ, उचियं तवसौहणोपायं ।। संवत्थ निरवयक्खो, आढवियं सं दढं समाणतो । वट्टइ एस महप्पा, किलिट्टकम्मक्खयनिमित्तं ॥ (पञ्चव० गा० १५१७-१८) निष्प्रतिकर्मताद्वारे-एष महात्मा निष्पतिकर्मशरीरोऽक्षिमलादिकमपि कदाचिद् नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि व्यसने समापतिते द्वितीयपदं सेवते । उक्तं च निप्पंडिकम्मसरीरो, अच्छिमलाई वि नावणेइ सया। पाणंतिए वि य महावसणम्मि न वट्टए बीए ॥ अप्पबहुत्तालोयणविसयाईओ उ होइ एस ति । अहवा सुहभावाओ, बहुगं पेयं चिय इमस्स ॥ (पञ्चव० गा० १५१९-२०) भिक्षाद्वारे-भिक्षा विहारक्रमश्चाऽस्य तृतीयस्यां पौरुप्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गः, निद्राऽपि चाऽस्माऽल्पा द्रष्टव्या । यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्य परिक्षीणं भवति तथाऽप्येकोऽविहरन्नपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तंत्रेव यथाकल्पमात्मीययोगान् विदधाति । उक्तं च--- तइयाए पोरिसीऍ, भिक्खाकालो विहारकालो उ । सेसासु य उम्सग्गो, पाय अप्पा य निद्दौ वि ॥ (पञ्चव० गा० १५२१) प्रवाजयति नेषोऽन्यं कल्पस्थितिरिति कृत्वा ॥ २ कारणमालम्बनं तत् पुनः ज्ञानादिकं सुपरिशुद्धम् । एतस्य तन विद्यते उचितं तपःसाधनोपायः ॥ ३ पञ्चवस्तुके तु-साहणा पायं- साधनात्प्रायः ॥ ४ सर्वत्र निरपेक्ष आहतं खं दृढं समापयन् । वर्तते एष महात्मा क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तम् ॥ ५°रववक्खोक० घ० १०॥ ६ °ढवियं चेव सं सख०। पञ्चवस्तुके तु-आढत्तं चिय द° ॥ ७ निष्प्रतिकर्मशरीरोऽक्षिमलाद्यपि नापनयति सदा । प्राणान्तिकेऽपि च महाव्यसने न वर्तते द्वितीये ॥ ८ पञ्चवस्तुके तु-तहा व° ॥ ९ अल्पबहुखालोचनविषयातीतस्तु भवत्येष इति । अथवा शुभभावाद् बहुकमप्येतदेवास्य ॥ १० तृतीयस्यां पौरुष्यां भिक्षाकालो विहारकालस्तु । शेषासु च उत्सर्गः प्रायोऽल्पा च निद्राऽपि ॥११ निद ति॥ इति पञ्चवस्तुके॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] घडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १३७ अंघावलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नवरि नावजे । तत्थेव अहाकप्पं, कुणइ उ जोग महाभागो ॥ (पञ्चव० गा० १५२२) एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथा--इत्वरा यावत्कथिकाश्च । तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति त इत्वराः, ये पुनः कल्पसमात्यनन्तरमन्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कथिकाः । उक्तं च इत्तरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहिय त्ति ॥ (पञ्चव० गा० १५२४) अत्र स्थविरकल्पग्रहणमुपलक्षणं खकल्पे वेति द्रष्टव्यम् । तत्रेत्वराणां कल्पप्रभावाद् देवमनुष्यतिर्यग्योनिककृता उपसर्गाः सद्योघातिन आतङ्का अतीवाविषयाश्च वेदना न प्रादुःषन्ति, यावत्कथिकानो सम्भवेयुरपि । ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, जिनकरिपकानां चोपसर्गादयः सम्भवन्तीति । उक्तं च-- इत्तरियाणुवसम्गा आयंका वेयणा य न हवन्ति । आवकहियाण भइया, (पञ्चव० गा० १५२६) इति । सथा "सुहुम" त्ति 'सूक्ष्मसम्परायं' सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः-क्रोधादि. कषायः, सूक्ष्मो लोभांशमात्रावशेषतया सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायम् । इदमपि संक्लिश्यमानकविशुद्ध्यमानकमेदं द्विधा । तत्र श्रेणियच्यवमानस्य संक्लिश्यमानकम् , श्रेणिमारोहतो विशुध्यमानकमिति । "अहखाय" त्ति अथशब्दोऽत्र याथातथ्ये, आङ अभिविधौ, आसमन्ताद् याथातथ्येन ख्यातमथाख्यातम् , कषायोदयाभावतो निरतिचारत्वात् पारमार्थिकरूपेण ख्यातमथाख्यातम् । यद्वा यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं-प्रसिद्धम् अकषायं भवति चारित्रमिति यत्तद् यथाख्यातम् । “देसजय" त्ति देशे-सङ्कल्पनिरपराधप्रसवधविषये यतं यमनं संयमो यस्य स देशयतः-सम्यग्दर्शनयुत एकाणुव्रतादिधारी, अनुमतिमात्रश्रावक इत्यर्थः । यदाह श्रीशिवशर्मसूरिवरः कर्मप्रकृतौ--- एंगधयाह चरमो, अणुमइमित्त त्ति देसजई ॥ (गा० ३४० ) "अजय" ति न विद्यते यतं-विरतं विरतिर्यस्य सोऽयतः सर्वथा विरतिहीनः । तथा दर्शनशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि । तत्र चक्षुषा दर्शनं-वस्तुसामान्यांशात्मकं ग्रहणं चक्षुर्दर्शनम् १, अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुहुयेन मनसा च यद् दर्शनं-सामान्यांशात्मकं ग्रहणं तद् अचक्षुर्दर्शनम् २, अवधिना-रूपिद्रव्यमर्यादया दर्शनं-सामान्यांशग्रहणमवधिदर्शनम् ३, केवलेन-संपूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद् दर्शनं-सामान्यांशग्रहणं तत् केवलदर्शनम् ४ इति । किंरूपाण्येतानि दर्शनानि ? मत आह-'अनाकाराणि' सामान्याकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टव्यक्त आकारो येषु तान्यनाकाराणि । भावार्थः प्रागेवोक्त इति ॥ १२ ॥ १ जवाबले क्षीणेऽविहरनपि नवरं नापद्यते । तत्रैव यथाकल्पं करोति तु योगं महाभागः॥ २ इत्वराः स्थविरकल्पे, जिनकल्पे यावत्कथिका इति ॥ ३ इत्वरिकाणामुपसर्गा माता वेदनाश्च न भवन्ति । यावत्कविकानां भक्ताः॥ ४ एकताविचरमः अनुमतिमात्र इति देशयतिः॥ ५°ष्टो व्यक्त आ° 50॥ क.१८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा व सुक भब्बियरा । arr aइगुवसम मिच्छ मीस सासाण सन्नियरे ॥ १३ ॥ इह षोढा लेश्या - कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या 'चः' समुये व्यवहितसम्बन्धश्च स च शुक्ललेश्या च इत्यत्र योज्यः । 'भव्यः' मुक्तिगमनार्हः 'इतर: ' अभव्यः -- कदाचनापि सिद्धिगमनानर्हः । "वेयग" चि 'वेदकं' सम्यक्त्वपुद्गलवेदनात् क्षायोपश किमित्यर्थः । तत्रोदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण अनुदीर्णस्य चोपशमेन विष्कम्भितोदयस्वरूपेण यद् निर्वृत्तं तत् क्षायोपशमिकम् । उक्तं च--- [गाथा मिच्छत्तं जमुन्नं तं खीणं अणुदियं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ॥ (विशेषा० गा० ५३२ ) तथा " खइग" त्ति क्षयेण - अत्यन्तोच्छेदेन त्रिविधस्याऽपि दर्शनमोहनीयस्य निर्वृत्तं क्षायिकम् । तच क्षपक श्रेण्यामेवं भवति - पेढमकसाए समयं खवेइ अंतोमुहुत्तमितेणं । तत्तु च्चिय मिच्छतं, तओ य मीसं तओ सम्मं ॥ बद्धाऊ पडिवन्नो, पढमकसायक्खए जइ मरिज्जा । तो मिच्छतोदयओ, चिणिज्ज भुज्जो न खीणम्मि || तम्मि मओ जाइ दिवं, तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण, पच्छा नाणामइगईओ || खीणमिदंसणतिए, किं होइ तओ तिदंसणाईओ ? 1 ras सम्मट्टी, सम्मत्तखए कओ सम्म ? || निव्वलियमयणकुद्दवरूवं मिच्छत्तमेव सम्मत्तं । रवीणं न उ जो भावो, सद्दहणालक्खणो तस्स | सो तस्स विद्धयरो, जायद सम्म पुग्गलक्खयओ | दिट्टि व सहसुद्धभपडलविगमे मणूसम्स ॥ जह युद्धजलाणुगयं, वैत्थं युद्धं जलक्ख सुतरं । सम्मत्तयुद्धपुग्गलपरिक्खए दंसणं पेवं || (विशेषा० गा० १३१५-२१ १ मिध्यात्वं यदुदीर्णं तत् क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् । मिश्रभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकम् ३ प्रथमकषायान् समकं क्षपयति अन्तर्मुहूर्तमात्रेण । तत एव मिथ्यात्वं ततश्च मिश्रं ततः सम्यक्त्वम् ॥ प्रतिपक्षः प्रथमकषायक्षये यदि म्रियेत । ततो मिध्यात्वोदयतश्चिनुयाद् भूयो न क्षीणे ॥ तस्मिन् मृत बदायुः याति दिवं तत्परिणामश्च सप्तके क्षीणे । उपरतपरिणामः पुनः पश्चानानामतिगतिकः ॥ क्षीणे दर्शनत्रिके किं भव, सकस्त्रिदर्शनातीतः ? । भण्यते सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वक्षये कुतः सम्यक्त्वम् ॥ निर्वलितमदनकोश्वरूप farerana सम्यक्म् । क्षीणं न तु यो भावः श्रद्वानलक्षणस्तस्य ॥ स तस्य विशुद्धतरो जायते सम्यक्ल पुलक्षयतः । दृष्टिरिव लक्ष्णशुद्धाभ्रपटलविगमे मनुष्यस्य ॥ यथा शुद्धजलानुगतं वस्त्रं शुद्धं जलक्षये सुतराम् ॥ सम्यपरिक्षये दर्शनमप्येवम् ॥ ३ दुई क० ० ० ० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातिनामा बतुर्थः कर्मग्रन्थः । तम्मि य तइय चउत्थे, भवम्मि सिझंति खहयसम्मते । सुरनरयजुगलिसु गई, इमं तु जिणकालियनराणं ॥ पडिवत्तीए अविरयदेसपमत्तापमत्तविरयाणं । अनयरो पडिवज्जइ, सुकज्झाणोवगयचित्तो ॥ (विशेषा० गा० १३१४) तथा उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षये सति अनुदीर्णस्व उपशमः-विपाकप्रदेशवेदनरूपस्य द्विविवस्थाप्युदयस्य विष्कम्भणं तेन निवृत्तमौपशमिकम् , तञ्च द्विधा---ग्रन्थिमेदसम्भवमुपशमश्रेणिसम्भवं च । तत्र प्रन्थिमेदसम्भवमेवम्-इह गम्भीरापारसंसारसागरमध्यमध्यासीनो जन्तुर्मिथ्यात्वप्रत्ययमनन्तान् पुद्गलपरावर्तान् अनन्तदुःखलक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनाऽनाभोगनिर्वर्तितयथाप्रवृत्तिकरणेन "करणं परिणामोऽत्र" इति वचनादध्यवसायविशेषरूपेणाऽऽयुर्वर्जानि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासमेयभागन्यूनैकसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानि करोति, अत्र चाऽन्तरे जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामरूपः कर्कशनिविडचिरपरूढगुपिलवक्रमन्थिवद् दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो प्रन्थिर्भवति । तदुक्तम् तीए वि थोवमित्ते, खविण इत्थंतरम्मि जीवम्स । हवइ हु अभिन्नपुल्वो, गट्टी एवं जिणा विति ॥ (धर्मसं० गा० ७५२ ) गंठि ति सुदुब्भेओ, कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व । जीवम्स कम्मजणिओ, घणरागद्दोसपरिणामो॥ (विशेषा० गा० ११९५) इति । इमं च ग्रन्थि यावद् अभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति । उक्तं चावश्यकटीकायाम् अभव्यस्यापि कस्यचिद् यथाप्रवृत्तिकरणतो ग्रन्थिमासाद्य अर्हदादिविभूतिदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति न शेषलाम इति ॥ (पत्र ७६) ____एतदनन्तरं कश्चिदेव महात्मा समासन्नपरमनिर्वृतिसुखः समुल्लसितप्रचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरो निशितकुठारधारयेव परमविशुद्ध्या यथोक्तखरूपम्य ग्रन्थे दं विधाय मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्याऽपूर्वकरणानिवृत्तिकरणलक्षणविशुद्धिजनितसामोऽन्तर्मुहर्तकालप्रमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति । अत्र यथाप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणानामयं क्रमः जो गंठी ता पढम, गंठिं समइच्छओ भवे बीयं । अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ।। (विशेषा० गा० १२०३ ) १ तस्मिंश्च तृतीये चतुर्थे भवे सिम्यन्ति क्षायिकसम्यक्त्वे । सुरनारकयुगलिकेषु गतिरेतत्तु जिनकालिकनराजाम् ॥ प्रतिपत्तौ अविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरतानाम् । अन्यतरः प्रतिपद्यते शुक्लध्यानोपगतचित्तः ॥ २ तस्या अपि स्तोकमात्रे क्षपितेऽत्रान्तरे जीवस्य । भवति हि अभिनपूर्वो प्रन्थिरेवं जिना ब्रुवते ॥ प्रन्धिरिति मुदुर्भदः कर्कशघनरूढगूढप्रन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामः ॥ ३ यावद् प्रन्धिखावत् प्रथमं प्रन्धि समतिकामतो भवेद् द्वितीयम् । अनिवृत्तिकरणं पुनः पुरस्कृतसम्यक्ले जीवे ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेत: [ गाथा “गठि समइच्छओ" ति ग्रन्थि समतिक्रामतः - भिन्दानस्येति, “सम्मत्तपुरक्खडे" ति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिन्, आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः । एतस्मिंश्वान्तरकरणे कृते सति तस्य मिथ्यात्वकर्मणः स्थितिद्वयं भवति । अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, तस्मादेवान्तरकरणादुपरितनी शेषा द्वितीया स्थितिः । स्थापना । तत्र प्रथमस्थितौ विकिवेदना सौ मिथ्यादृष्टिरेव । अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एव औपशमिकसम्यक्त्वमवाभोति, मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावात् । यथा हि वनदावानलःपूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनवनदावोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति, तथा च सति तस्योपशमिकसम्यक्त्वलाभः । यदाहुः श्रीपूज्यपादाः -- सरदेसं दलियं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छम्स अणुदए, उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ (विशेषा० गा० २७३४) इति । व्यावर्णितं ग्रन्थिभेदसम्भवमौ पशमिकसम्यक्त्वम् । अथोपशमश्रेणिसम्भवमौपशमिकसम्यक्त्वं त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वे दिश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतगाथाभिरेव भाव्यतेजैवसामगसेढीए, पट्टवओ अप्पमत्तविरओ त्ति । जवसाणे सो वा होइ पमत्तो अविरओ वा ॥ अन्ने भांति अविरय- देस-पमत्ता ऽपमत्तविरयाणं । अन्नयरो पडिवज्जइ, दंसणसमयम्मि उ नियट्टी || ( विशेषा० गा० १२८५- १२८६ ) संजलाईण समो, जुत्तो संजोयणादओ जे उ । ते पुवि चिय समिया, नणु सम्मत्ताइलाभम्मि || (विशेषा० गा० १२९० ) --- आचार्या: औसि खओवसमो सिं, समोsहुणा भणइ को विसेसो सिं । नवीमि उन्ने, सेसोवसमे खओवसमो || सो चेव नणूवसमो, उइए खीणम्मि सेसए समिए । सुहुमोदयया मीसे, न तूवसमिए विसेसोऽयं ॥ dus tतकम्मं, खओवसमिएस नाणुभागं सो । उवसंतकसाओ पुण, वेण्इ न संतकम्मं पि ॥ (विशेषा ० गा० १२९१-९३) १ ऊपरदेशं दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य । इति मिथ्यात्वस्यानुदये औपशमिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ॥ २ उपशमकश्रेण्याः प्रस्थापकोऽप्रमत्तविरत इति । पर्यवसाने स वा भवति प्रमत्तोऽविरतो वा ॥ अन्ये भणन्त्यविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरतानाम् । अन्यतरः प्रतिपद्यते दर्शनसमये तु निरृत्तिः ॥ संज्वलादीनां शमो युक्तः संयोजनादयो ये तु । ते पूर्वमेव शमिताः ननु सम्यक्त्वादिला || ३ भाष्ये समणम्मि शमने ॥ ४ आसीत् क्षयोपशम एषां शमोऽधुना भण्यते को विशेषोऽनयोः । ननु क्षीणे उदीर्णे शेषोपशमे क्षयोपशमः ॥ स एत्र ननूपशमः उदिते क्षीणे शेषके शमिते । सूक्ष्मोदयता मिथे न त्वौपशमिके विशेषोऽयम् ॥ वेदयति सत्कर्म क्षायोपशमिकेषु नानुभागं सः । उपशान्तकषायः पुनर्वेदयति न सत्कर्मापि ॥ ܤ܂ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३. षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । 'संजोयणाइयाणं, नणूदओ संजयस्स पडिसिद्धो । सच्चमिह सोऽणुभागं, पडुच्च न पएसकम्मं तु ॥ भणियं च सुए जीवो, वेण्ड न वाऽणुभागकम्मं तु । जं पुण पएसकम्मं, नियमा वेएह तं सव्वं ॥ नादियं निज्जरए, नासंतमुदेइ जं तओऽवस्सं । सव्वं पएसकम्मं, वेएवं मुच्चए सव्वो । किह दंसणाइघाओ, न होइ संजोयणाइवेयणओ । मंदाणुभावाए, जहाऽणुभावम्मि वि कहिंचि || निवन्नं पि जहा, सयलचउन्नाणिणो तदावरणं । tvc fault मंदया, एसकम्मं तहा नेयं ॥ (विशेषा० गा० १२९४ - ९८ ) "मिच्छ" त्ति मिध्यात्वम् - अदेवदेवबुद्ध्यगुरुगुरुबुद्ध्यतत्त्वतत्त्वबुद्धिलक्षणम् । “मीस” त्ति इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनोपशमिकसम्यक्त्वेन ग्रन्थिसम्भवेन औषधविशेषकरूपेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म विशोधयित्वा त्रिधा करोति । तथाहि - शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्धं चेति । स्थापना A । तत्र त्रयाणां पुजानां मध्ये योऽसावर्धविशुद्धः पुत्रः स मिश्र उच्यते, सम्यग्मिथ्यात्वमित्यर्थः । एतदुदयात् किल प्राणी जिनप्रणीतं तत्त्वं न सम्यक् श्रद्दधाति नापि निन्दति । उक्तं च बृहच्छतक बृहचूर्णी - हा नालिकेरदी वासिस्स अइछुहियम्स वि पुरिसम्स इत्थ ओयणाइए अणेगहा वि ढोइए तस्स आहारम्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण कारणेणं सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नाव सुओ, एवं सम्मामिच्छदिट्टिम्स वि जीवाइपयत्थाण उवरिं न रुई न य निंदा इत्यादि । 1 तथा “सासाण” त्ति सासादनं तत्र आयम् - औपशमिकसम्यक्त्वलक्षणं सादयति-अपनयति आसादनम्-अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् अत्र पृषोदरादित्वाद् यशब्दलोपः, “रम्यादिभ्यः” (५-३-१२६) कर्तर्य नट्प्रत्ययः, सति यस्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखदो निःश्रेयसतरुबीजभूतो ग्रन्थिभेदसम्भवौपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः षड्तिरावलिकाभिरपगच्छतीति, ततः सह आसादनेन वर्तत इति सासादनम् । यद्वा सास्वादनं तत्र सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनम्, यथा हि मुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तपुरुषस्तद्वमनकाले क्षीराभरसमास्वादयति तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तस्य १ संयोजनादिकानां ननूदयः संयतस्य प्रतिषिद्धः । सत्यमिह सोऽनुभागं प्रतीत्य न प्रदेशकर्म तु ॥ भणितं च ते जीवो वेदयति न वा अनुभागकर्म तु । यत् पुनः प्रदेशकर्म नियमाद् वेदयति तत् सर्वम् ॥ नामुदितं निर्जीर्यते नासदुदेति यततोऽवश्यम् । सर्वं प्रदेशकर्म वेदयित्वा मुच्यते सर्वः ॥ कथं दर्शनादिधातो न भवति संयोजनादिवेदनतः । मन्दानुभावतया यथा अनुभावेऽपि कस्मिंश्चिद् ॥ नित्यमुदीर्णमपि यथा सकळवतुर्ज्ञानिनस्तदावरणम् । नापि घातयति मन्दत्वात् प्रदेशकर्म तथा ज्ञेयम् ॥ २ यथा नालिकेरद्वीपवा+ सिनः अतिक्षुधितस्यापि पुरुषस्यात्रोदनादिके अनेकधाऽपि ढौकिते तस्याहारस्योपरि न रुचिर्न च निन्दा, येन कारणेन स ओदनादिक आहारो न कदाचिद् दृष्टो नापि श्रुतः, एवं सम्यग्मिथ्यादृशोऽपि जीवादिपदार्थानामुपरि न रुचिर्न च निन्दा ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसास्वादो भवतीति इदं साखादनमुच्यत इति । तथा " सन्नि” चि विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाकू संज्ञी, इतरोऽसंज्ञी सर्वोऽप्येकेन्द्रियादिः ॥ १३ ॥ आहारेयर भैया, सुरनरयविभंगमहसुओहिदुगे । सम्मत्ततिगे पम्हासुकासनीसु सन्निदुगं ॥ १४ ॥ ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्याहारकः । ' इतर : ' अनाहारको विग्रहगत्यादिगतः । “भेय” त्ति चतुर्दशमौलमार्गणास्थानानामिमेऽवान्तराश्चतुरादिसङ्ख्या भेदा भवन्तीति शेषः, सर्वेऽपि द्विषष्टिभेदाः । तथाहि —- गतिश्चतुर्धा, इन्द्रियं पञ्चधा, कायः षोढा, योगस्त्रिधा, वेदस्त्रिधा, कषायश्चतुर्धा, ज्ञानपञ्चकम् अज्ञानत्रिकमिति ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा, संयमपञ्चकं देशसंयमासंयमसहितं सप्तधा, दर्शनं चतुर्धा, लेश्या षोढा, भव्योऽभव्यश्चेति भव्यमार्गणास्थानं द्विधा, सम्यक्त्वत्रयमिथ्यात्वमिश्रसासादनभेदात् सम्यक्त्वमार्गणास्थानं षोढा, संज्ञिमार्गणास्थानं सप्रतिपक्षं द्वेधा, आहारकमार्गणास्थानं सप्रतिपक्षं द्वेधा । सर्वेऽप्येत एकत्र मील्यन्ते तत उत्तरभेदा द्वाषष्टिरिति । अत्र गाथा - 1 च पण छत्तिय तिय चउ, अड सग चउ छन् दु छग दो दुन्नि । गइया मग्गणाणं, इय उत्तरभेय बासट्टी || इत्येवमुक्ता गत्यादिमार्गणास्थानानामवान्तरभेदाः । साम्प्रतमेतेष्वेव जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह - “सुरनरयविभंग " इत्यादि । सुरगतौ नरकगतौ च 'संज्ञिद्विकं पर्याप्तापर्याप्तलक्षणं भवति । अपर्याप्त करणापर्याप्तो गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तस्य देवनरकगत्योरुत्पादाभावात् । तथा 'विभङ्गे' विभङ्गज्ञाने 'मतो' मतिज्ञाने 'श्रुते' श्रुतज्ञाने "ओहिदुगि" त्ति अवधिद्विके- अवधिज्ञानावधिदर्शनलक्षणे 'सम्यक्त्वत्रिके' क्षायोपशमिकक्षायिक पशमिकलक्षणे पद्मलेश्यायां शुक्ललेश्यायां संज्ञिनि च संज्ञिद्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं भवति, न शेषाणि जीवस्थानानानि तेषु मिथ्यात्वादिकारणतो मतिज्ञानादीनामसम्भवात् । अत एव च हेतोरिहापर्याप्तकः करणापर्याप्तको गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तस्य मिथ्यादृष्टित्वाद् अशुभलेश्याकत्वाद् असंज्ञिकत्वाच्चेति । आह— क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्तको लभ्यते ! उच्यते—इह यः कश्चित् पूर्वबद्धायुकः क्षपकश्रेणिमारभ्यानन्तानुबन्ध्या दिसप्तकक्षयं कृत्वा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पाद्य यदा गतिचतुष्टयस्यान्यतरस्यां गतावुत्पद्यते तदा सोऽपर्याप्तः क्षायिकसम्यक्त्वे प्राप्यते, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्तश्च देवादिभवेभ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्तीर्थ करादिरपर्याप्तकः सुप्रतीत एव । औपशमिकं सम्यक्त्वं पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरसुरस्य द्रष्टव्यम् । इहौपशमिकसम्यक्त्वमपर्याप्तस्य केचिद् नेच्छन्ति, तथा च ते प्राहुः न तावदस्यामेवापर्याप्तावस्थायामिदं सम्यक्त्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविधविशुद्ध्यभावात्; अथैतत्तदानीं मोत्यादि, . यत्तु पारभविकं तद् भवतु, केन विनिवार्यत इति मन्येथास्तदपि न युक्तियुक्तमुत्पश्यामः, यतो यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वमौपशमिकमवाप्नोति स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न करोत्येव । यदुक्तमागमे १ चलारः पश्च पद् त्रयस्त्रयश्चत्वारोऽष्ट सप्त चत्वारः षट् द्वौ षड् द्वौ द्वौ । गत्यादिमार्गणानामित्युत्तरमेदा द्वाषष्टिः ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४-१५] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । अणबंधोदयमाउगबंध कालं च सासणो कुणई । उक्समसम्मदिट्टी, चउण्हमिकं पि नो कुणई ॥ उपशमश्रेणेम॒त्वाऽनुत्तरसुरेणूत्पन्नस्याऽपर्याप्तकस्यैतल्लभ्यते इति चेद नन्वेतदपि न बहु मन्यामहे, तस्य प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुगलोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति न त्वौपशमिकम् । उक्तं च शतकवृहचूर्णी जो उवसमसम्मदिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमए चेव सम्मतपुंज उदयावलियाए छोरण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मदिट्टी अपज्जत्तगो लगभइ इत्यादि । तस्मात् पर्याप्तसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानकमत्र प्राप्यत इति स्थितम् । अपरे पुनराहुः---भवत्येवापर्याप्तावस्थायामप्यौपशमिकं सम्यक्त्वम् , सप्ततिचूादिषु तथामिधानात् । सप्ततिचूर्णी हि गुणस्थानकेषु नामकर्मणो बन्धोदयादिमार्गणावसरेऽविरतसम्यग्दृष्टेरुदयस्थानचिन्तायां पञ्चविंशत्युदयः सप्तविंशत्युदयश्च देवनारकानधिकृत्योक्तः, तत्र नारकाः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टयः, देवास्तु त्रिविधसम्यग्दृष्टयोऽपि । तथा च तद्वन्थः पैणवीससत्तावीसोदया देवनेरइए पड्डुच, नेरइगो र्खयगवेयगसम्मदिट्टी देवो तिविहसम्मदिट्टी वि ॥ पञ्चविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्ति निर्वर्तयतः । तथाहि-निर्माणस्थिरास्थिरागुरुलघुशुभाशुभतैजसकार्मणवर्णगन्धरसम्पर्शचतुष्कदेवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तकं सुभगदुर्भगयोरेकतरम् आदेयानादेययोरेकतरं यशःकीर्त्ययशःकीोरेकतरमित्येकविंशतिः, ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्ये वैक्रियद्विकोपघातप्रत्येकसमचतुरस्रलक्षणप्रकृतिपञ्चकक्षेपे देवानुपूर्व्यपनयने च पञ्चविंशतिर्भवति । ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिः पुनरपर्याप्तस्य पराघातप्रशस्तबिहायोगतिक्षेपे सप्तविंशतिर्भवति । ततोऽपर्याप्तावस्थायामपीह देवस्यौपशमिकं सम्यक्त्वमुक्तम् । तथा पासाहेऽपि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकचिन्तायामौपशमिकसम्यक्त्वे "उँवसमसम्मम्मि दो सानी" इत्यनेन प्रन्थेन संज्ञिद्विकमुक्तम् । ततः सप्ततिचूर्ण्यभिप्रायेण पञ्चसनहाभिप्रायेण बामामिरपि औपशमिकसम्यक्त्वे संज्ञिद्विकमुक्तम्, तत्त्वं तु केवलिनो विशिष्टबहुश्रुता वा विदन्तीति ॥ १४ ॥ तमसनिअपज्जजुयं, नरे सपायरअपज तेऊए। थावर इगिदि पढमा, चउ बार असन्नि दुदु विगले ॥१५॥ 'तत्' पूर्वोक्तं संज्ञिद्विकमपर्याप्सासंज्ञियुतं 'नरे' नरेषु लभ्यते, जातावेकवचनम् । अयमर्थः अनन्तानुबन्धिबन्धोदयं आयुर्बन्ध कालं च सासादनः करोति । औपशमिकसम्यग्दृष्टिश्चतुर्णामेकमपि न करोति ॥ २ म उपशमसम्यग्दृष्टिरुपशमश्रेणी कालं करोति स प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुजं उदयावलिकाया विम्म सम्यक्लपुद्गलान् वेदयति तेन नोपशमसम्यग्दृष्टिरपर्याप्तको लभ्यते ॥ ३ पश्चविंशतिसप्तविंशत्युदयो देवनेरविकान् प्रतीत्य, नैरयिकः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टिदेवस्त्रिविधसम्यग्दृष्टिरपि ॥ ४ खड्ग क०ख० ०.०॥ ५ इत ऊई-"शेषपर्याप्तिभिरपर्याप्तस्य" इत्येष पाठो जैनधर्मप्रसारकसंसप्रकाबिते पुस्तकेऽधिको दृश्यते, परमस्मत्पार्श्ववर्तिषु पञ्चस्वपि पुस्तकादशेषु नास्ति अतो मूले भारत इति ।। समसम्यक्त्वे द्वौ संशिनौ ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा इह द्वये मनुष्याः, गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सम्मूच्छिमाश्च । तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तेषु यथोक्तं संज्ञिद्विकं लभ्यते । ये तु वान्तपित्तादिषु सम्मूर्च्छन्ति तेऽन्तर्मुहूर्तायुषोऽसज्ञिनो लब्ध्यपर्याप्तकाश्च द्रष्टव्याः । यदाहुः श्रीमदार्यश्यामपादाः प्रज्ञापनायाम्___कहि णं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्तस्स पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवेसु गब्भवकंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा बंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सधेसु चेव असुइट्ठाणेसु इत्थ णं सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति अंगुलस्स असंखेजभागमित्ताए ओगाहणाए । असन्नी मिच्छद्दिट्ठी अन्नाणी सव्वाहिं पजत्तीहिं अपज्जत्ता अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करति त्ति । ( पत्र ५०-१) ___ तान् सम्मूछिममनुष्यानाश्रित्य तृतीयमप्यसंश्यपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानं प्राप्यत इति । "सबायरअपज तेऊए" ति तदेवेत्यनुवर्तते, तदेव पूर्वोक्तं संजिद्विकं सह बादरापर्याप्तेन वर्तत इति सबादरापर्याप्तं तेजोलेश्यायां लभ्यते । एतदुक्तं भवति-तेजोलेश्यायां त्रीणि जीवस्थानानि भवन्ति संश्यपर्याप्तः संज्ञिपर्याप्तः बादरैकेन्द्रियापर्याप्तश्च । बादरोऽपर्याप्तः कथमवाप्यते ! इति चेद् उच्यते-इह भवनपतिव्यन्तरज्योतिप्कसौधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषु मध्ये उत्पधन्ते । यदाह दुःषमान्धकारनिममजिनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः पुंढवीआउवणम्सइ, गन्भे पज्जत्तसंखजीवीसु । सग्गचुयाणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा ॥ (५० सं० पत्र ७७-१) ते च तेजोलेश्यावन्तः, यदभाणि किण्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाणि तेउलेसा मुणेयव्वा ॥ ( ० सं० पत्र ८१-१) यल्लेश्यश्च म्रियते तल्लेश्य एव अग्रेऽपि समुत्पद्यते, “जैल्लेसे मरइ तलेसे उववज्जइ" इति वचनात् । अतो बादरापर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्याऽवाप्यत इति सिद्धं जीवस्थानकत्रयं तेजोलेश्यायामिति । कायद्वारे स्थावरेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणेषु, इन्द्रियद्वारे एकेन्द्रिये च प्रथमानि चत्वारि जीवस्थानानि सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तबादरैकेन्द्रियापर्याप्तवाद १ क भदन्त ! सम्मूच्छिममनुष्याः सम्मूछन्ति? गौतम ! अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य पश्चचलारिंशति योजनशतसहस्रषु अर्धतृतीययोद्वीपसमुद्रयोः पञ्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिंशत्यकर्मभूमिपु षदपश्चाशत्यन्तीपेषु गर्भभ्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेव उच्चारेषु वा प्रश्रवणेषु वा श्लेष्मसु वा सिंघानेषु वा वान्तेषु वा पित्तेषु वा पूतेषु वा शोणितेषु वा शुक्रेषु वा शुकपुद्रलपरिशाटेषु वा विगतजीवकलेवरेषु वा स्त्रीपुरुषसंयोगेषु वा नगरनिर्धमनेषु वा सर्वेष्वेवाशुचिस्थानेषु अत्र सम्मूछिममनुष्याः सम्मूर्च्छन्ति अङ्गुलस्यासयेयभागमात्रयाऽवगाहनाया। असंजिनो मिथ्यादृष्ठयोऽज्ञानिनः सर्वाभिः पर्याप्तिमिरपर्याप्तकाः अन्तर्मुहूर्तायुष्का एव काले कुर्वन्ति ॥ २ पृथिव्यन्वनस्पतिषु गर्भजेषु पर्याप्तसङ्ग्यातजीविषु । स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि प्रतिषिद्धानि स्थानानि ॥ ३ कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याश्च भवनन्यन्तराः । ज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु तेजोलेश्या ज्ञातव्या ॥ ४ ग्रलेश्यो मियते तसेश्य उत्पद्यते ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-१७] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १४५ रै केन्द्रियपर्याप्तलक्षणानि भवन्ति । 'असंज्ञिनि' संज्ञिव्यतिरिक्ते कोलिकर्नलिकन्यायेन प्रथमशब्दस्य सम्बन्धात् 'प्रथमानि' आदिमानि द्वादश जीवस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भवन्ति, सर्वेषामपि विशिष्टमनोविकलतया संज्ञिप्रतिपक्षत्वाविशेषात्, संज्ञिप्रतिपक्षस्य चाऽसंज्ञित्वेन व्यवहारात् । "दु दु विगल" त्ति 'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु द्वे द्वे जीवस्थानके भवतः । तत्र द्वीन्द्रियेषु द्वीन्द्रियोsपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, त्रीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियोsपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, चतुरिन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे ॥ १५॥ दस चरम तसे अजयाहारग तिरि तणु कसाय दु अनाणे । पढमतिलेसा भवियर, अचक्खु नपु मिच्छि सव्वे वि ।। १६ ।। 'से' सकाये 'चरमाणि' अन्तिमानि पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि दश जीवस्थानानि भवन्ति, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसत्वात् । 'अयते' अविरते सर्वाण्यपि जीवस्थानानि भवन्ति । तथा आहारके “तिरि" ति तिर्यग्गतौ ' तनुयोगे' काययोगे कषायचतुष्टये 'द्वयोरज्ञानयोः' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपयोः 'प्रथमत्रिलेश्यासु' कृष्णलेश्यानीललेश्याकापोतलेश्यालक्षणासु भव्ये 'इतरस्मिन्' अभव्ये “अचक्खु" त्ति अचक्षुर्दर्शने “नपु" त्ति नपुंसकवेदे “मिच्छ" चि मिथ्यात्वे 'सर्वाण्यपि ' चतुर्दशापि जीवस्थानकानि भवन्ति, सर्वजीवस्थानकव्यापकत्वाद् अयतादीनामिति ॥ १६ ॥ पजसन्नी केवलदुग, संजय मणनाण देस मण मीसे । पण चरम पज्ज वयणे, तिय छ व पज्जियर चक्खुम्मि ॥ १७ ॥ “पजसन्नि” त्ति पर्याप्तसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानं भवति । क ? इत्याह 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे 'संयतेषु' सामायिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपपञ्चप्रकारसंयमवत्सु “मणनाण" त्ति मनः पर्यायज्ञाने "देस" त्ति देशयते - देशविरते श्रावक इत्यर्थः, "मण" ति मनोयोगे "मीस" त्ति मिश्र - सम्यग्मिथ्यादृष्टौ । तत्र केवलद्विके संयतेषु मनः पर्यायज्ञाने देशविरते च संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानकं विना नान्यद् जीवस्थानकं सम्भवति, तत्र सर्वविरतिदेशविरत्योरभावात् । मनोयोगेऽप्येतदन्तरेणाऽन्यद् जीवस्थानकं न घटते, तत्र मनः सद्भावायोगात् । मिश्रे पुनः पर्याप्तसंज्ञिव्यतिरेकेण शेषं जीवस्थानकं तथाविधपरिणामाभावादेव न सम्भवतीति । तथा पञ्च जीवस्थानानि 'चरमाणि' अन्तिमानि 'पर्याप्तानि' पर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्तत्रीन्द्रियपर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि "वयण" ति वचनयोगे - वाग्योगे भवन्ति न शेषाणि तेषु वाग्योगासम्भवात् । "तिय छ व पज्जियर चक्खुम्मि" त्ति चक्षुर्दर्शने त्रीणि जीवस्थानानि पर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि नान्यानि तेषु चक्षुष एवाभावात् । अत्रैव मतान्तरेण विकल्पमाह — षड् वा जीवस्थानानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति । कथम् ? इत्याह -- "पज्जियर " चि पूर्वप्रदर्शितपर्याप्तत्रिकं सेतरमपर्याप्तत्रिकसहितं षड् भवन्ति । इदमुक्तं भवति - अपर्याप्तपर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिपश्चेन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि षड् जीवस्थानानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति, चतुरिन्द्रियादीनामिन्द्रियपर्याया १ 'लक' क० ख० ग० ॐ० ॥ २ 'प्येनमन्तरे' क० घ० ङ० ॥ क० १९ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया पर्याप्तानां शेषपर्याप्त्यपेक्षया अपर्याप्तानामपि आचार्यान्तरैश्चक्षुर्दर्शनाभ्युपगमात् । यदुक्तं पञ्चसङ्घहमूलटीकायाम्करणापर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियादिषु इन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनं भवति । (पत्र-५-१) इति ॥ १७॥ थीनरपणिदि चरमा, चउ अणहारे दु सन्नि छ अपज्जा। ते सुहमअपज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं ॥१८॥ स्त्रीवेदे नरवेदे पञ्चेन्द्रिये च 'चरमाणि' अन्तिमानि पर्याप्तापर्याप्तासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति । यद्यपि च सिद्धान्ते असंज्ञी पर्याप्तोऽपर्याप्तो वा सर्वथा नपुंसक एवोक्तः । तथा चोक्तं श्रीभगवत्याम ते 'णं भंते ! असन्निपंचेंदियतिरिक्वजोणिया कि इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा ? गोयमा ! नो इत्थिवेयगा नो पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा (श०२४ उ० १ पत्र ८०६) इति । तथापीह स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीवेदे नरवेदे चासंज्ञी निर्दिष्ट इत्यदोपः । उक्तं च पञ्चसङ्घहमलटीकायाम्-- यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती नपुंसकों तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीपुंमावुक्ती (पत्र १०) इति । अपर्याप्तकश्चेह करणापर्याप्तको गृह्यते न लब्ध्यपर्याप्तकः, लव्ध्यपर्याप्तकस्य सर्वस्य नपुंसकत्वात् । अनाहारके "दु सन्नि छ अपज्ज" ति द्विविधः संज्ञी पर्याप्मापर्याप्तलक्षणः षड् अपर्याप्ताश्चेत्यष्टौ जीवस्थानानि भवन्ति । अयमर्थः- अपर्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंजिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि सप्त जीवस्थानानि अनाहारके विग्रहगतावेकं द्वौ त्रीन् वा समयान् यावद् आहारासम्भवात् सम्भवन्ति, विग्गेहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥ (श्रावकप्र० गा०६८) इति वचनात् ; संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानम् अनाहारक केवलिसमुन्द्वातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु लभ्यते । उक्तं च कार्मणशरीरयोगी, तृतीयके पञ्चमे चतुर्थे च । समयत्रये च तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात् ॥ (प्रश० का० २७७) "ते सुहुमअपज्ज विणा सासणि" ति सास्वादने सम्यक्त्वे तान्येव पूर्वोक्तानि षड् अपर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिद्विकलक्षणान्यष्टौ जीवस्थानानि सूक्ष्मापर्याप्तं विना सप्त भवन्ति । एतदुक्तं भवतिअपर्याप्तबाटैरेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपश्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि सप्त जीवस्थानकानि सास्वादनराग्यक्त्वे भवन्तीति; यत्तु सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तलक्षणं जीव १ ते भदन्त ! असंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः किं स्त्रीवंदकाः पुरुषवेदकाः नपुंसकवेदकाः? गौतम ! न स्त्रीवेदका न पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इति ॥ २ विग्रहगतिमापनाः केवलिनः समुद्धता अयोगिनश्च । सिद्धाश्चानाहाराः शेषा आहारका जीवाः ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८-२०] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १४७ स्थानं तत् साखादनसम्यक्त्वे न घटामियति, सास्वादनसम्यक्त्वस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् , महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानात् । सूत्रे च सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , माकृते हि लिङ्ग व्यभिचार्यपि । यदाह पाणिविः स्वप्राकृतलक्षणे “लिङ्गं व्यभिचार्यपि" इति । उक्तानि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकानि । इत ऊर्ध्वमेतेप्वेव मार्गणास्थानकेषु "गुणि" ति गुणस्थानकानि 'वक्ष्ये' प्रतिपादयिष्य इति ॥ १८ ॥ अथ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन्नाह पण तिरि चउ सुरनरए, नर सन्नि पणिंदि भव्व तसि सव्वे । इग विगल भू दग वणे, दुदु एगं गइतस अभव्वे ॥ १९॥ पञ्च गुणस्थानकानि मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्राविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतिलक्षणानि “तिरि" त्ति तिर्यगतौ भवन्ति । चतुःशब्दस्य प्रत्येकं योगात् 'सुरे' सुरगतौ चत्वारि प्रथमगुणस्थानकानि 'नरके' नरकगतौ च प्रथमानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति न देशविरतादीनि, तेषु भवस्वभावतो देशतोऽपि विरतेरभावादिति । 'नरे' नरगतौ 'संज्ञिनि' विशिष्टमनोविज्ञानभाजि पञ्चेन्द्रिये भव्ये 'त्रसे' त्रसकाये च 'सर्वाण्यपि' चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति, एतेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनामयोगिकेवल्यवसानानां सर्वभावानामपि सम्भवात् । "इग" ति एकेन्द्रियेषु सामान्यतः "विगल" ति 'विकलेन्द्रियेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु 'भुवि' पृथ्वीकाये 'उदके' अप्काये 'वने वनम्पतिकाये "दु दु" ति 'द्वे द्वे' आद्ये मिथ्यात्वसासादनलक्षणे भवतः । तत्र मिथ्यात्वमविशेषेण सर्वेषु द्रष्टव्यम् ; सासादनं तु तेजोवायुवर्जबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियपृथिव्यम्बुवनस्पतिषु लब्ध्या पर्याप्तकेषु करणेन त्वपर्याप्तकेषु, न सर्वेष्विति । तथा एक मिथ्यात्वलक्षणं गुणस्थानकं भवति, केषु ? इत्याह-गत्या गमनेन त्रसाः न तु वसनामकर्मोदयाद गतित्रसा:तेजोवायवस्तेषु, सासादनभावोपगतस्य तेषु मध्य उत्पादाभावाद् अभव्येषु चेति ॥ १९॥ वेय तिकसाय नव दस, लोभे चउ अजइ दु ति अनाणतिगे। बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहवाइ चरम चऊ ॥२०॥ 'वेदे' वेदत्रये त्रयाणां कषायाणां समाहारस्त्रिकषायं-क्रोधमानमायालक्षणं तस्मिन् त्रिकषाये "पढम" त्ति प्रथमानीति पदं डमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र योज्यम् । ततो वेदे-स्त्रीपुनपुंसकलक्षणे कषायत्रये च प्रथमानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि अनिवृत्तिवादरपर्यन्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति न शेषाणि, अनिवृत्तिबादरगुणस्थान एव वेदत्रिकस्य कषायत्रिकस्य चोपशान्तत्वेन क्षीणत्वेन वा शेषेषु गुणस्थानेषु तदसम्भवात् । 'लोभे' लोभकषाये दश गुणस्थानानि, तत्र नव पूर्वोक्तानि दशमं तु सूक्ष्मसम्परायलक्षणम् , तत्र किट्टीकृतसूक्ष्मलोभकपायदलिकस्य वेद्यमानत्वात् । चत्वारि प्रथमानि 'अयते' विरतिहीन इत्यर्थः, कोऽर्थः ? विरतिहीने मिथ्यात्वसाखादनमिश्राविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्तीति । "दु ति अन्नाणतिगे" ति 'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणे प्रथमे द्वे गुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसाखादनरूपे भवतः, न मिश्रमपि । यतो यद्यपि मिश्रगुणस्थानके यथास्थितवस्तुतत्त्वनिर्णयो नास्ति तथापि न तान्यज्ञानान्येव सम्यग्ज्ञानलेशव्यामिश्रत्वाद् अत एव न मिश्रगुणस्थानकमभिधीयते । उक्तं च Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः __ [गाथा मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रदृष्टेरज्ञानबाहुल्यं सम्यक्त्वाधिकस्य पुनः सम्यग्ज्ञानबाहुल्यम् (जिनवल्लमीयषडशीतिटीका पत्र १६०-२) इति । ज्ञानलेशसद्भावतो न मिश्रगुणस्थानकमज्ञानत्रिके लभ्यते इत्येके प्रतिपादयन्ति तन्मतमधिकृत्यास्माभिरपि 'द्वे' इत्युक्तम् । अन्ये पुनराहुः-अज्ञानत्रिके त्रीणि गुणस्थानानि, तद्यथा--मिथ्यात्वं साखादनं मिश्रदृष्टिश्च । यद्यपि “मिस्सम्मी वामिस्सा" (पञ्चसं० गा० २०) इति वचनाद् ज्ञानव्यामिश्राण्यज्ञानानि प्राप्यन्ते न शुद्धाज्ञानानि तथापि तान्यज्ञानान्येव, शुद्धसम्यक्त्वमूलत्वेनात्र ज्ञानस्य प्रसिद्धत्वात् , अन्यथा हि यद्यशुद्धसम्यक्त्वस्यापि ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा साखादनस्यापि ज्ञानाभ्युपगमः स्यात् , न चैतदस्ति, तस्याज्ञानित्वेनानन्तरमेवेह प्रतिपादितत्वात् , तस्माद् अज्ञानत्रिके प्रथमं गुणस्थानकत्रयमवाप्यत इति । __ तन्मतमाश्रित्यास्माभिरपि 'त्रिकम्' इत्युक्तम् । तत्त्वं तु केवलिनो विशिष्टश्रुतविदो वा विदन्तीति । द्वादश प्रश्रमानि गुणस्थानकानि अचक्षुर्दर्शने चक्षुर्दर्शने च भवन्ति, यतो मिथ्यादृष्टिप्रभृतिक्षीणमोहपर्यन्तेषु गुणस्थानकेप्वचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शनसम्भवात् । यथारख्याते चारित्रे 'चरमाणि' अन्तिमानि उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति, एषु कषायाभावादिति ॥२०॥ मणनाणि सग जयाई, समइय छेय चउ दुन्नि परिहारे । केवलदुगि दो चरमाऽजयाइ नव महसुओहिदुगे ॥ २१ ॥ 'मनोज्ञाने' मनःपर्यवज्ञाने "सग" ति सप्त गुणस्थानानि भवन्ति । कानि? इत्याह'यतादीनि' तत्र "यमं उपरमे" यमनं यतं सम्यक् सावद्याद उपरमणमित्यर्थः, यतं विद्यते यस्य स यतः-प्रमत्तयतिः, यत आदौ येषां तानि यतादीनि-प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिवादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहलक्षणानीति । सामायिके छेदोपस्थापने च चत्वारि यतादीनि गुणस्थानानि, प्रमत्ताप्रमत्तनिवृत्तिबादरानिवृत्तिबादराणीत्यर्थः । द्वे गुणस्थानके प्रमत्ताप्रमत्तरूपे परिहारविशुद्धिकचारित्र इत्यर्थः, नोत्तराणि, तस्मिन् चारित्रे वर्तमानस्य श्रेण्यारोहणप्रतिषेधात् । 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे द्वे गुणस्थाने भवतः, के ? इत्याह-'चरमे' अन्तिमे सयोगिकेवेलिगुणस्थानकायोगिकेवलिगुणस्थानके इति । "अजयाइ नव मइसुओहिदुगे" ति अयतःअविरतः स आदौ येषां तान्ययतादीनि-अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणमोहपर्यवसानानि नव गुणस्थानानि भवन्ति 'मतौ' मतिज्ञाने 'श्रुते' श्रुतज्ञाने 'अवधिद्विके' अवधिज्ञानावधिदर्शनलक्षणे, न शेषाणि । तथाहि-न मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रेषु भवन्ति, तद्भावे ज्ञानत्वस्यवायोगात् । यत् तु अवधिदर्शनं तत् कुतश्चिदभिप्रायाद् विशिष्टश्रुतविदो मिथ्यादृष्ट्यादीनां नेच्छन्ति, तन्मतमाश्रित्यास्माभिरपि तत् तेषां न भणितम् । अथ च सूत्रे मिथ्यादृष्ट्यादीनामप्यवधिदर्शनं प्रतिपाद्यते । यदाह रभसवशविनम्रसुरासुरनरकिन्नरविद्याधरपरिवृढमाणिक्यमुकुटकोटीविटङ्कनिघृष्टचरणारविन्दयुगल: श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चमाङ्गे ओहिदसणअणागारोवउत्ता णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी १ मिश्रे व्यामिश्राणि ॥ २ °वल्ययोगिके ख० ग० घ०॥ ३ अवधिदर्शनानाकारोपयुक्ता भदन्त ! कि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१-२३] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । वि। जैह नाणी तो अत्थेगइया तिनाणी अत्थेगइया चउनाणी । जे तिनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुअनाणी ओहिनाणी । जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी । जे अन्नाणी ते नियमी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी । (श० ८ उ०२ पत्र ३५५-१) इति । __ अत्र हि येऽज्ञानिनस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति मिथ्यादृश्यादीनामप्यवधिदर्शनं साक्षादत्र सूत्रे प्रतिपादितम् । स एव विभङ्गज्ञानी यदा सासादनभावे मिश्रभावे वा वर्तते तत्रापि तदानीमवधिदर्शनं प्राप्यत इति । यत् पुनः सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानकद्विकं तत्र मतिज्ञानादि न सम्भवत्येव, तद्यवच्छेदेनैव केवलज्ञानस्य प्रादुर्भावात् "नट्ठम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आव०नि० गा० ५३९) इति वचनप्रामाण्यादिति ॥ २१ ॥ अड उवसमि चउ वेयगि, खहगे इक्कार मिच्छतिगि देसे। सुहमे य सठाणं तेर जोग आहार सुक्काए ॥ २२ ॥ काकाक्षिगोलकन्यायाद् इह "अयादीनि" इति पदं सर्वत्र योज्यते। ततोऽयतादीन्युपशान्समोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानान्यौपशमिकसम्यक्त्वे भवन्ति । अयतादीन्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि 'वेदके' क्षायोपशमिकापरपर्याये गुणस्थानकानि भवन्ति । क्षायिकसम्यक्त्वे अयतादीन्ययोगिकेवलिपर्यवसानान्येकादश गुणस्थानकानि भवन्ति । तथा 'मिथ्यात्वत्रिके' मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रलक्षणे 'देशे' देशविरते 'सूक्ष्मे' सूक्ष्मसम्पराये 'चः' समुच्चये 'स्वस्थान' निजस्थानम् । इदमुक्तं भवति-मिथ्यात्वमार्गणास्थाने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् , सासादनमार्गणास्थाने सासादनं गुणस्थानम् , मिश्रे मार्गणास्थाने मिश्रं गुणस्थानम् , देशसंयममार्गणास्थाने देशविरतं गुणस्थानम् , सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्थाने सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् । तथा 'योगे' मनोवाकायलक्षणे अयोगिकेवलिवर्जितानि शेषाणि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, सर्वेष्वप्येतेषु यथायोगं योगत्रयस्यापि सम्भवात् । तथा आहारकेषु आद्यानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, सर्वेष्वप्येतेषु ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतमस्याहारस्य यथायोगं सम्भवात् । तथा "सुक्काए" त्ति शुक्ललेश्यायां प्रथमानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, न त्वयोगिकेवलिगुणस्थानम् , तस्य लेश्यातीतत्वादिति ॥ २२ ॥ अस्सन्निसु पढमदुर्ग, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त।। पढमंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा ॥ २३ ॥ 'असंज्ञिपु' संज्ञिव्यतिरिक्तेषु प्रथमं मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणं गुणस्थानकद्वयं भवति । तत्र (ग्रन्थानम्-१०००) मिथ्यात्वमविशेषेण सर्वत्र द्रष्टव्यम् , सासादनं तु लब्धिपर्याप्तकानां करणापर्याप्तावस्थायामिति । प्रथमासु तिस्पु लेश्यासु मिथ्यादृष्ट्यादीनि प्रमत्तान्तानि षड् गुणस्थाशानिनोऽज्ञानिनः ? गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि । यदि ज्ञानिनः ततोऽस्त्येककाः त्रिज्ञानिनोऽस्त्येककाश्चतुर्सानिनः । ये त्रिज्ञानिनस्ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः । ये चतुर्ज्ञानिनते आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यायज्ञानिनः । ये अज्ञानिनस्ते नियमाद् मत्यज्ञानिनः श्रुताशानिनो विभाशानिनः॥ १ जे नाणी ते अ° भगवत्याम् ॥ २ °मा तिअनाणी, तं जहा-मई भगवस्याम् ॥ ३ नष्टे तु छाद्मस्थिके ज्ञाने ॥ ४ °तादीति पक०॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० देवेन्द्रसूरिविरचितस्योपशटीकोपेतः [गाथा नानि भवन्ति । 'चः' समुच्चये । कृष्णनीलकापोतलेश्यानां हि प्रत्येकमसझ्येयलोकाकाशप्रदेशर्ममाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दसंक्लेशेषु तदध्यवसायस्थानेषु तथाविधसम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनामपि सद्भावो न विरुध्यते । उक्तं च सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनां प्रतिपत्तिकाले शुभलेश्यात्रयमेव भवति । उत्तरकालं तु सर्वा अपि लेश्याः परावर्तन्तेऽपि इति । श्रीमदाराध्यपादा अप्याहु: सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्तं । पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए ॥ ( आव०नि० गा० ८२२) श्रीभगवत्यामप्युक्तम्सोमाइयसंजए णं भंते ! कइलेसासु हुज्जा ? गोयमा ! छसु लेसासु होज्जा, एवं छेओवट्ठावणियसंजए वि (श० २५ उ० ७ पत्र ९१३-१) इत्यादि । तथा 'द्वयोः' तेजोलेश्यापद्मलेश्ययोः सप्त गुणस्थानानि भवन्ति, तत्र षट् पूर्वोक्तान्येव सप्तमं त्वप्रमत्तगुणस्थानकम् , अप्रमत्तसंयताध्यवसायस्थानापेक्षया मिथ्यादृष्ट्यादीनां प्रमत्तान्तानां तेजोलेश्यापद्मलेश्ये तारतम्येन जघन्यात्यन्ताविशुद्धिके द्रष्टव्ये । तथा अनाहारके पञ्च गुणस्थानानि भवन्ति । कानि? इत्याह--'प्रथमान्तिमद्विकाऽयतानि' इति द्विकशब्दम्य प्रत्येकं योगात् प्रथमद्विकं-मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणम् अन्तिमद्विकं-सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणम् 'अयतः' इति अविरतसम्यग्दृष्टिश्चेति । तत्र मिथ्यात्वसाखादनाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणं गुणस्थानकत्रयमनाहारके विग्रहगती प्राप्यते, सयोगिकेवलिगुणस्थानकं त्वनाहारके समुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु द्रष्टव्यम् । यदवादि-"चतुर्थतृतीयपञ्चमेप्वनाहारकः” इति । अयोगिकेवल्यवस्थायां तुयोगरहितत्वेनौदारिकादिशरीरपोषकपुद्गलग्रहणाभावाद् अनाहारकत्वम् , “औदारिकवैक्रियाहारकशरीरपोषकपुद्गलोपादानमाहारः” इति प्रवचनोपनिषद्वेदिनः । एवं मार्गणास्थानेषु गत्यादिषु "गुण" ति गुणस्थानकान्यभिहितानि ॥ २३ ॥ अधुना मार्गणास्थानेप्वेव योगानभिधित्सुः प्रथमं तावद्योगानेव स्वरूपत आह सच्चेयर मीस असचमोस मण वइ विउवियाहारा । उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे ॥ २४ ॥ इह योगशब्देन कारणे कार्योपचारात् तत्तत्सहकारिभृतं मनःप्रभृत्येव विवक्षितमिति तैः सह योगस्य सामानाधिकरण्यम् । तत्र मनोयोगश्चतुर्धा, तद्यथा--सत्यमनोयोगः १ असत्यमनोगः २ सत्यासत्यमनोयोगः ३ असत्यामृपमनोयोगः ४ । तत्र सन्तो मुनयः पदार्था वा, तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थिततत्त्वचिन्तनेन च हितः सत्यः, यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूपः कायप्रमाण इत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनपर इत्यर्थः, सत्यश्चासौ मनोयोगश्च सत्य १ सम्यक्त्वश्रुतं सर्वामु लभते शुद्धासु तिसृषु च चारित्रम् । पूर्वप्रतिपन्नः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायाम् ॥ २ सामायिकसंयतो भदन्त ! कतिषु लेश्याम भवेत् ? गौतम ! पट्सु लेश्यासु भवेत् , एवं छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । मनोयोगः १ | तथा सत्यविपरीतोऽसत्यः, यथा नास्ति जीव एकान्तसद्भूतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तनपरः, असत्यश्चासौ मनोयोगश्च असत्यमनोयोगः २ । तथा मिश्रः - सत्यासत्यमनोयोगः, यथा इह धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुप्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति यदा विकल्पयति तदा तत्राऽशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यः, अन्येषामपि धवखदिरपलाशादीनां तत्र सद्भावाद् असत्य इति सत्यासत्यमनोयोग इति, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरयमसत्य एव यथाविकल्पितार्थायोगात् ३ । न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासावमृषश्च "क्तं नञादिभिन्नैः” (सि० ३-१-१०५ ) इति कर्मधारयः, असत्यामृषश्चासौ मनोयोगश्च असत्यामृषमनोयोगः ४ । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण यद् विकल्प्यते, यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि, तत् किल सत्यं परिभाषितम् आराधकत्वात् । यत्तु विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतोत्तीर्णं किञ्चिद् विकल्प्यते, यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेत्यादि, तद् असत्यमिति परिभाषितं विराधकत्वात् । यत् पुनर्वस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण स्वरूपमात्रप्रतिपादनपरं व्यवहारपतितं किञ्चिद् विकल्प्यते, यथा हे देवदत्त ! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादि, तद् एतत् स्वरूपमात्रप्रतिपादनं व्यावहारिकं विकल्पज्ञानम् । न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेत्यसत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातश्चतुर्धा मनोयोगः । “ वह” ति वाग्योगोऽपि चतुर्धा द्रष्टव्यः तथाहि-- सत्यवाग्योगः १ असत्यवाम्योगः २ सत्यासत्यवाग्योगः ३ असत्यामृपवाग्योगः ४ । तत्र सतां हिता सत्या, सत्या चासौ वाक् च सत्यवाक्, तया सहकारिकारणभृतया योगो [सत्य ] वाग्योगः, अथवा वचनगतं सत्यत्वं तत्कार्यत्वाद् योगेऽप्युपचर्यते, ततश्च सत्यश्चासौ वाम्योगश्च सत्यवाग्योगः, भावार्थः सत्यमनोयोगवद् वाच्यः १ । असत्या - सत्याद् विपरीता सा चासौ वाक् चाऽसत्यवाक् तया योगोऽसत्यवाग्योगः २ । तथा सत्या चासावसत्या चेत्यादि पूर्ववत् कर्मधारयो बहुव्रीहिर्वा, सा चासौ वाक् च सत्यासत्यवाक्, तत्प्रत्ययो योगः सत्यासत्यवाग्योगः ३ न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासावमृषश्चासत्यामृषः, स चासौ वाग्योगश्च असत्यामृषवाग्योगः, शेषं मनोयोगवत् सर्वं वाच्यम् ४ । अत्र तृतीयचतुर्थे मनोयोगो वाग्योगौ च परिस्थूरव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ । निश्चयनयमतेन तु मनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम्, अज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं त्वसत्यम्, उभयानुभयरूपं तु नास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् । तथा काययोगः सप्तधा – वैक्रियकाययोग आहारककाययोगः " उरल" त्ति औदारिककाययोगः “मीस" त्ति मिश्रशब्दस्य पूर्वदर्शितशरीरत्रिकेण सह सम्बन्धाद् वैक्रियमिश्र - काययोग आहारकमिश्रकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगः “कम्मण" त्ति कार्मणकाययोग इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् - विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । तथाहितदेकं भूत्वाऽनेकं भवति, अनेकं भूत्वैकम्, अणु भूत्वा महद् भवति, महद् भूत्वाऽणु, तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति, भूमिचरं भूत्वा खचरम्, अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति, दृश्यं भूत्वाऽदृश्यमित्यादि । यद्वा विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकम्, पृषोदरादित्वाद् अभीष्टरूपसिद्धिः । तच्च द्विधा - औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च । तत्रौपपातिकमुपपातजन्मनिमित्तम्, तच्च देवनारकाणाम्, १५१ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानि १५२ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा लब्धिप्रत्ययं तिर्यअनुष्याणाम् । उक्तं च श्रीमदनुयोगद्वारलघुवृत्ती विविहीं विसिट्टगा वा, किरियों तीए अ जं भवं तमिह । नियमा विउधियं पुण, नारगदेवाण पयईए ॥ (पत्र. ८७) तदेव काययोगस्तन्मयो वा योगो वैक्रिययोगो वैकुर्विककाययोगो वा १ । वैक्रियं मिश्रं यत्र कार्मणेन औदारिकेण वा स वैक्रियमिश्रः, तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरम् , बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेण मिश्रम् , ततो वैक्रियमिश्रश्वासौ कायश्च वैक्रियमिश्रकायस्तेन योगो वैक्रियमिश्रकाययोगः २ । चतुर्दशपूर्वविदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशाद् आहियते निर्वर्त्यत इत्याहारकम् , अथवाऽऽह्रियन्ते गृह्यन्ते तीर्थकरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् । “कृबहुलं" ( बहुलम् सि० ५-१-२) इति कर्मणि करणे वा णकः । यदवादि कंजम्मि समुप्पन्न, सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं इत्थ आहरिज्जइ, भणति आहारगं तं तु ॥ (अनु. हा. टी. पत्र ८७) पाणिदयरिद्धिसंदरिसणथमत्थोवगहणहेडं वा । संसयवुच्छेयत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि || (अनु. चू. पत्र ६१, अनु. हा. टी. पत्र ८७) तदेव कायस्तेन योग आहारककाययोगः ३ । आहारकं मिश्रं यत्र औदारिकेणेति गम्यते स आहारकमिश्रः, सिद्धप्रयोजनम्य चतुर्दशपूर्वविद आहारकं परित्यजत औदारिकमुपाददानस्य आहारकं प्रारभमाणस्य वा प्राप्यते, स एव कायस्तेन योग आहारकमिश्रकाययोगः ४ । तथा औदारिककाययोगः, इह प्रसिद्धसिद्धान्तसन्दोहविवरणप्रकरणप्रमाणग्रन्थग्रथनावाप्तसुधांशुधामधवलयशःप्रसरधवलितसकलवसुन्धरावलयप्रभुश्रीहरिभद्रसूरिदर्शिता व्युत्पत्तिर्लिख्यते-- तत्थ ताव उदारं उरालं उरलं ओरालं वा । तित्थगरगणधरसरीराइं पडुच्च उदारं वुचइ, न तओ उदारतरमन्नमत्थि त्ति काउं, उदारं नाम प्रधानम् । उरालं नाम विस्तरालं विशालमिति वा, जं भणिय होइ, कहं ! साइरेगजोयणसहस्समवट्ठियप्पमाणमोरालियं, अन्नमिदहमित्तं नत्थि, वेडबियं हुन्ज लक्खमहियं, अवट्ठियं पंचधणुसयाई अहे सत्तमाए, इत्थं पुण अवट्टियपमाणं १ विविधा विशिष्टा वा क्रिया तस्यां च यद् भवं तदिह । नियमाद् वैकुर्विकं पुनः नारकदेवानां प्रकृत्या ।। २ °या विकिरिय तीए जं तमिह । अनुयोगद्वारलघुवृत्तौ ॥ ३ कार्ये समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदत्राहियते भणन्ति आहारकं तत् तु ॥प्राणिदयाईसन्दर्शनार्थमर्थावग्रहणहेतुर्वा । संशयव्युच्छेदार्थ गमनं जिनपादमूले ॥ ४ तत्र तावदुदारमुरालमुरलमोरालं वा । तीर्थकरगणधरशरीराणि प्रतीत्योदारमुच्यते, न तत उदारतरमन्यदस्तीति कला ॥ ५ ओरालं ओरालियं अनुयोगद्वारचूर्णी ॥ ६ काउं उदार। उदा अनुयोगद्वारचूर्णी ॥ ७ यद् भणितं भवति, कथं सातिरेकयोजनसहस्रमवस्थितप्रमाणमौदारिकम् , अन्यदेतावन्मानं नास्ति, वैक्रियं भवेद् लक्षाधिकम् , अवस्थितं पश्च धनुःशतानि अधः सप्तम्याम्, अत्र पुनः अवस्थितप्रमाणं सातिरेकं योजनसहस्रम् ॥ ८ °सतं, इमं पु° अनुयोगद्वारचूर्णिलघुवृत्त्योः ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। १५३ अइरेगं जोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति । उरलं नाम खल्पप्रदेशोपचितत्वाद् बृहत्त्वाच मिण्डवत् । ओरालं नाम मांसास्थिस्नायवाद्यवयवबद्धत्वात् । (अनु. हा. टी. पत्र ८७) श्रीपूज्या अप्याहुः तत्थोदारमुरौलं, ओरालमहव महल्लगत्तेण । ओरालियं ति पढमं, पडुच्च तित्थेसरसरीरं ॥ भण्णइ य तहोरालं, वित्थरवंतं वणस्सतिं पप्प । पयईइ नत्थि अन्नं, इद्दहमित्तं विसालं ति ॥ उरलं थेवपएसोवचियं पि महल्लगं जहा भिंडं । मंसट्टिाहारुबद्धं, ओरालं समयपरिभासा ॥ ( अनु. हा. टी. पत्र ८७) सर्वत्र खार्थिक इकप्रत्ययः, उदारमेव उरालमेव उरलमेव ओरालमेव औदारिकम् , पृषोदरादित्वाद् इष्टरूपनिष्पत्तिः, औदारिकमेव चीयमानत्वात् कायः, तेन सहकारिकारणभूतेन तद्विषयो वा योग औदारिककाययोगः ५। तथा औदारिकं मिश्रं यत्र कार्मणेनेति गम्यते स औदारिकमिश्रः, उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाऽऽहारयति, ततः परमौदारिकस्याऽप्यारब्धत्वाद औदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावत् शरीरनिष्पत्तिः । यदाह सकारुश्रुताम्भोनिधिपारदृश्वा विश्वानुग्रहकाम्यया निर्मितानेकशास्त्रसन्दर्भः श्रीभद्रबाहुखामी जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती ॥ केवलिसमुद्धातावस्थायां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकं प्रतीतमेव, "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥” (प्रश० का० २७६) इति वचनात् , औदारिकमिश्रश्चासौ कायश्च तेन योग औदारिकमिश्रकाययोगः ६। तथा कर्मणो विकारः कार्मणम् , "विकारे" (सि०६-२-३०) अण्प्रत्ययः, यद्वा कर्मैव कार्मणम् , “प्रज्ञादिभ्योऽण्" (सि० ७-२-१६५) [इत्या प्रत्ययः, कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवद् अन्योन्यानुगताः सन्तः कार्मणं शरीरम् । उक्तं च---- कम्मविगारो कम्मणमट्ठविहविचित्तकम्मनिप्फन्नं । सव्वेसि सरीराणं, कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ (अनु. हा. टी. पत्र ८७) अत्र "सव्वेसिं" इति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणशरीरम् , १ ओरालियं अनुयोगद्वारचूर्णौ ॥ २ समग्रोऽप्येष पाठः अनुयोगद्वारचूर्णावपि पत्र ६०-६१ तमेऽस्ति ॥ ३ तत्रोदारमुरालं ओरालमथवा महत्तया । औदारिकमिति प्रथमं प्रतीत्य तीर्थेश्वरशरीरम् ॥ भण्यते च तथोरालं विस्तारवद् वनस्पतिं प्राप्य । प्रकृत्या नास्त्यन्यद् एतावन्मानं विशालमिति ॥ उरले तोकप्रदेशोपचितमपि महद्यथा भिण्डम् । मांसास्थिस्नायुबद्धमोरालं समयपरिभाषा ॥ ४ रालं उरलं ओराल. महव विष्णेयं । इति अनुयोगद्वारलघुवृत्ती पाठः ॥ ५ योगेन कार्मणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः । ततः पर मिश्रेण यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः ॥ ६ कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं ज्ञातव्यम् ।। क०२० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ देवेन्द्रसूरिविरक्तिखोपशटीकोपेतः [गाया म खस्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चपरोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावसम्भवः । ___ इदं च कार्मणशरीर जन्तोगत्यन्तरसकान्तौ साधकतमं करणम् । तथाहि-कार्मणेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमुपसर्पति ।। ननु यदि कार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सङ्कामति तर्हि गच्छन् कस्मात् नोपलक्ष्यते ? [उच्यते---] कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् । आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलक्ष्यते। निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ कार्मणमेव कायस्तेन योगः कार्मणकाययोगः ७ । "इय जोग" ति 'इतिः' परिसमाप्तौ । ततोऽयमर्थ:---एत एव योगा नान्य इति । ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते, यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुर्यद्वशाद् विशिष्टतपोविशेषसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुरुषस्य तेजोलेश्याविनिर्गमः, तत् कभमुच्यते एत एव योगा नान्ये ? इति, नैष दोषः, सदा कार्मणेन सहाऽन्यभिचारितया तैजसस्य तद्रहणेनैव गृहीतत्वादिति । निरूपिताः स्वरूपतो योगाः । साम्प्रतमेतानेव मार्गणास्थानेषु निरूपयन्नाह---"कम्ममणहारि" ति व्यवच्छेदफलं हि वाक्यम्, अतोऽवश्यमवधारयितव्यम् । तथावधारणमिहैवम्कार्मणमेवेकमनाहारके न शेषयोगाः, असम्भवादिति । न पुनरेवम्-कार्मणमनाहारकेष्वेवेति, आहारकेष्वपि उत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणयोगसम्भवात् , “जोरण कम्मएम, आहारेई अणंतरं जीवो।" इति परममुनिवचनप्रामाण्यात् । नापि कार्मणमनाहारकेषु भवत्येव' इत्यवधारणमाधेयम् , अयोगिकेवल्यवस्थायामनाहारकस्यापि कार्मणकाययोगाभावात् , “गेयजोगो उ अजोगी" इति वचनात् । एवमन्यत्रापि यथासम्भवमवधारणविधिरनुसरणीय इति ॥ २४ ॥ नरगह पणिदि तस तणु, अचक्खु नर नषु कसाय सम्मदुगे। सनि छलेसाहारग, भव्य मह सुओहिदुगि सब्वे ॥२५॥ 'नरगतौ मनुप्यगतौ पञ्चेन्द्रिये से त्रसकाये तनुयोगे अचक्षुर्दर्शने 'नरे' नरवेदे पुंवेद इत्यर्थः “नपु" ति नपुंसकवेदे 'कषायेषु' क्रोधमानमायालोभेषु 'सम्यक्त्वद्विके' क्षायोपशमिक क्षायिकलक्षणे 'संज्ञिनि' मनोविज्ञानभाजि षट्खपि लेश्यासु आहारके भव्ये 'मती' मतिज्ञाने 'श्रुते श्रुतज्ञाने 'अवधिद्विके' अवधिज्ञानाऽवधिदर्शनरूपे 'सर्वे' पञ्चदशापि योगा भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि मार्गणास्थानेषु यथासम्भवं सर्वयोगप्राप्तेः । यत्तु कापि "जोगा अकम्मगाहारगेसु" इति पदं दृश्यते तद् न सम्यगवगम्यते, यत ऋजुगतौ विग्रहगतौ चोत्पत्तिप्रथमसमये जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥ इति सकलश्रुतघरमवरपरममुनिवचनप्रामाण्याद् आहारकस्यापि सतः कार्मणकाययोगोऽस्त्येव । अथ उच्येत गृह्यमाणं गृहीतमिति निश्चयनयवशात् प्रथमसमयेऽप्यौदारिकपुद्गला गृहमाणा १ योगेन कामणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः ॥ २ गतयोगस्वयोगी ॥ ३ योगाः अकार्मणा आहारकेषु । ४ प्राग्वत् ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-२६] वडशीतिनामा चतुर्थः कर्मबन्धः । १५५ गृहीता एव ततो द्वितीयादिसमयेष्विव तदानीमप्यौदारिकमिश्रकामयोग इति, तदेतद् अयुकम्, सम्बम्बस्तुतस्त्वापरिज्ञानात्, यतो यद्यपि तदानीमौदारिकादिषु पुतला गृधमाणा गृहीता एव तथापि न तेषां गृह्यमाणानां स्वग्रहणक्रियां प्रति करणरूपता येन तनिबन्धनो योगः परिकरूप्येत, किन्तु कर्मरूपतैव निष्पन्नरूपस्य सत उत्तरकालं करणभावदर्शनात् । नहि घटः स्वनिष्पादनक्रियां प्रति कर्मरूपतां करणरूपतां च प्रतिपद्यमानो दृश्यते, द्वितीयादिसमवेषु पुनस्तेषामपि प्रथमसमयगृहीतानामन्यपुद्गलोपादानं प्रति करणभावो न विरुध्यते निष्पन्नत्वात् ; अतस्तदानीमौदारिकमिश्रकाययोग उपपद्यत एव । अत एवोक्तम् - " तेण परं मीसेणं" इति । तस्माद् अस्त्याहारकस्याप्युत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणकाययोग इति । अतः "जोगा अकम्मगाहारगेसु" इति पदं चिन्त्यमस्तीति ॥ २५ ॥ तिरि इत्थि अजय सासण, अनाण उबसम अभव्य मिच्छेतु । तेराहारदुगूणा, ते उरलदुगूण सुरनरए || २६ ॥ " तिरि” ति तिर्यग्गतौ 'स्त्रियां' स्त्रीवेदे 'अयते' विरतिहीने साखादनसम्यक्त्वे "अनाण" ति अज्ञानत्रिके-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गलक्षणे 'उपशमे' औपशमिकसम्यक्त्वे 'अभव्येषु' सिद्धिगमनानुचितेषु 'मिथ्यात्वे' मिध्यादृष्टिषु त्रयोदश योगा भवन्ति । के ? इत्याह- आहारकद्विकेन - आहारकाहारकमिश्रलक्षणेन ऊना:- - हीना आहारकद्विकोनाः । अयमत्राशयः - मनोयोगचतुष्टयवाग्योगचतुष्टयौदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्रकार्मणलक्षणा योगा भवन्ति । तत्र कार्मणमपान्तरालगतौ उत्पत्तिप्रथमसमय एव, औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, पर्याप्तावस्थायामौदारिकं मनोवाग्योगचतुष्टयं च । तथा तिरश्चामपि केषाञ्चिद् वैक्रियलब्धियोगतो वैक्रियमिश्रं वैक्रियं च घटत एव । यत्तु आहारकद्विकम् - आहारकाहारकमिश्रलक्षणं तद् न सम्भवत्येव, तिरब्धां तत्र सर्वविरत्यसम्भवात् ; सर्वविरतस्य हि चतुर्दशपूर्ववेदिन आहारकद्विकं सम्भवति, “आहारं चउदसपुव्विणो” इत्यादिवचनप्रामाण्यादिति । तथा इह स्त्रीवेदो द्रव्यरूपो द्रष्टव्यः, न तु तथारूपाध्यवसायलक्षणो भावरूपः, तथाविवक्षणात् । एवमुपयोगमार्गणायामपि द्रष्टव्यम् । प्राक् च गुणस्थानकमार्गणायां सर्वोऽपि वेदो भावस्वरूपो गृहीतः, तथाविवक्षणादेव, अन्यथा तेषु प्रोक्तगुणस्थानकसङ्ख्यायोगात् ; सयोगिकेवल्यादावपि द्रव्यवेदस्य भावात्, द्रव्यवेदश्च बालमाकारमात्रम् । ततः स्त्रीषु त्रयोदश योगा आहारकद्विकोना भवन्ति, न पुनराहारकद्विकमपि, यस आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्वविद एव भवति, “आहारकदुगं जायइ चउदसपुब्विणो" इति बचनात् । न च स्त्रीणां चतुर्दशपूर्वाधिगमोऽस्ति, स्त्रीणामागमे दृष्टिवादाध्ययनप्रतिषेधात् । यदाह भाष्यसुधासुधांशु: तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला धिईए य । इय अइसेसज्झयणा, भूयावादो य नो श्रीणं ॥ (विशेषा० गा० ५५२ ) इति । 'भूतवाद : ' दृष्टिवादः । तथा अयते साखादने अज्ञानत्रिके च त्रयोदश योगा आहारकद्वि १ पूर्ववत् ॥ २ आहारकं चतुर्दशपूर्विणः ॥ ३ आहारकद्विकं जायते चतुर्दशपूर्विषः ॥ ४ तुच्छा गौरवबहुलाश्वलेन्द्रिया दुर्बला धृत्या च । इति अतिशायीन्यध्ययनानि भूतवादश्व न स्त्रीणाम् ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ माथा कोना भवन्ति । आहारकद्विकं पुनरेतेष्वज्ञानत्वादेव दूरापास्तम् । तथा औपशमिकसम्यक्त्वे आहारकद्विकोनास्त्रयोदश योगाः, आहारकं त्वत्रापि न घटामियर्ति, यत औपशमिकसम्यक्त्वं प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले उपशमश्रेण्यारोहे वा भवति । न च प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले चतुर्दशपूर्वाधिगमसम्भवः, तदभावाच कथमाहारकद्विकभावः प्रादुर्भावपदवीमियति ? । उपशमश्रेण्यारूढस्त्वाहारकं नारभत एव, तस्याऽप्रमत्तत्वात् , आहारकारम्भकस्य तु लब्ध्युपजीवनेन औत्सुक्यभावतः प्रमादबहुलत्वात् । उक्तं च आहारगं तु पमत्तो उप्पाएइ न अप्पमत्तो इति । आहारकस्थितश्चोपशमश्रेणिं नारभत एव, तथाखभावत्वादिति । तथा अभव्ये मिथ्यात्वे व चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावादेव आहारकद्विकवर्जास्त्रयोदश योगाः । त एव पूर्वोक्तास्त्रयोदश योगा औदारिकद्विकेन-औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणेन ऊनाः-हीना एकादश योगाः 'सुरे' सुरगतौ 'नरके' नरकगतौ भवन्ति । तथाहि-मनोवाग्योगचतुष्टयवैक्रियवैक्रियमिश्रकार्मणलक्षणा एकादश योगाः सुरेषु नारकेषु च घटन्ते । तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमय एव, वैक्रियमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायां तु वैक्रियं मनोवाग्योगचतुष्टयं च । यत् पुनरौदारिकद्विकं तद् भवप्रत्ययादेव देवनारकाणां न सम्भवति । आहारकद्विकं तु सुरनारकाणां भवखभावतया विरत्यभावेन सर्वविरतिप्रत्ययचतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवादेव दुरापास्तमिति ॥ २६ ॥ कम्मुरलदुर्ग थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे । छ असन्नि चरमवइजुय, ते विउविदुगूण चउ विगले ॥२७॥ कार्मणम् 'औदारिकद्विकम्' औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणमिति त्रयो योगाः । क ? इत्याह"थावरि" ति स्थावरकाये-पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिकायरूपे, वायुकायिकस्य पृथग् भणिष्यमाणत्वात् । अयमत्र भावः--स्थावरचतुष्के कार्मणौदारिकद्विकरूपास्त्रयो योगा भवन्ति । तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये वा, औदारिकमिश्रं तु अपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायां पुनरौदारिकमिति । 'ते' पूर्वोक्तास्त्रयो योगाः 'सवैक्रियद्विकाः' सह वैक्रियद्विकेन-वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन वर्तन्त इति सवैक्रियद्विकाः सन्तः पश्च भवन्ति । क ? इत्याह---"इगि" त्ति सामान्यत एकेन्द्रिये 'पवने' वायुकाये च । तत्र कार्मणीदारिकद्विकलक्षणयोगत्रयभावना प्राग्वत् । वैक्रियद्विकभावना त्वेवम्-इह किल चतुर्विधा वायवो वान्ति । तद्यथा--सूक्ष्मा अपर्याप्ताः १ सूक्ष्माः पर्याप्ताः २ बादरा अपर्याप्ताः ३ बादराः पर्याप्ताश्च ४ । तत्र बादरपर्यातानां केषाञ्चिद् वैक्रियलब्धिसम्भवोऽस्ति तानधिकृत्य वैक्रियमिश्रं वैक्रियं च लभ्यते । ननु कथमुच्यते केषाञ्चिद् वैक्रियलब्धिसम्भवोऽस्ति ? यावता सर्वेऽपि बादरपर्याप्तवायवः सवैक्रिया एव, अवैक्रियाणां चेष्टाया एवाप्रवृत्तेः । उक्तं च___ केई भणंति-सवे वेठबिया वाया वायंति, अवेउधियाणं चिट्ठा चेव न पवत्तइ । (अनु० चू० पत्र ६७, अनु० हा० टी० पत्र ९२ ) इति । १ आहारकं तु प्रमस उत्पादयति नाप्रमत्तः ॥ २ केचिद् भणन्ति–सर्वे वैकुर्विका वाता वान्ति, अवैकियाणां चेष्टेव न प्रवर्तते ॥ ३ °याणं वाणं चे अनुयोगद्वारचूर्णिलघुटीकयोः॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७-२८] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १५७ तद् अयुक्तम्, सम्यक् सिद्धान्तापरिज्ञानात्, अवैक्रियाणामपि तेषां खभावत एव चेष्टोपपत्तेः । यदाह भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिरनुयोगद्वारटीकायाम् बोकाइया चउव्विहा - सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता, बादरा वि य पज्जता अपज्जता । तत्थ तिनि रासी पत्तेयं असंखेज्जलोगप्पमाणप्पएसरासिपमाणमित्ता, जे पुण बादरा पज्जत्ता ते पयरासंखेज्जइभागमित्ता । तत्थ ताव तिप्हं रासीणं वेउबियलद्धी चेव नत्थि । बायरपज्जत्ताणं पि असंखिज्जइभागमित्ताणं लद्धी अस्थि । जेसि पि लद्धी अत्थि ते वि पलि ओवमासंखिज्जभागसमयमित्ता संपयं पुच्छासमए वेउबियवत्तिणो । तथा जेण सबेसु चेवं उडलोगाइसु चला वायवो विनंति तम्हा अवेविया वि वाया वायंति त्ति घित्वं । सभावो तेसिं वाइयवं । ( पत्र ९२, अनु० चू० पत्र ६७ ) इति । 1 । वानाद्वायुरिति कृत्वा “तिण्हं रासीणं" ति त्रयाणां राशीनां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्तबादरवायुकायिकानाम् । तथा त एव पूर्वोक्ताः पञ्च कार्मणौदारिकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणयोगाः चरमाचतुर्थी असत्यामृषरूपा वाग् वचनयोगश्चरमवाक् तया युक्ताः षड् योगा भवन्ति । क ? इत्याह‘असंज्ञिनि’ संज्ञिव्यतिरिक्ते जीवे । तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, पर्याप्तावस्थायामौदारिकम् । बादरपर्याप्तवायुकायिकानां वैक्रियद्विकम्, चरमभाषा शङ्खादिद्वीन्द्रियादीनामिति । त एव पूर्वोक्ताः षड् योगा वैक्रियद्विकेन - वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन ऊना:- हीनाश्चत्वारो भवन्ति । क ? इत्याह- 'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु । कोऽर्थः : तत्र कार्मणौदारिकद्विकभावना प्राग्वत् । चरमभाषा च असत्यामृषरूपा शङ्खादीनां भवति, शेषास्तु भाषा न भवन्त्येव “ विगैलेसु असच्चामोसे वा” इति वचनादिति ॥ २७ ॥ कम्मुरलमीस विणु मण, वह समइय छेय चक्खु मणनाणे । उरलदुग कम्म पढमंतिम मणवह केवलदुगम्मि ॥ २८ ॥ कार्मणमौदारिक मिश्रं विना शेषास्त्रयोदश योगा भवन्ति । क्क : इत्याह--मनोयोगे वाग्योगे सामायिकसंयमे छेदोपस्थापनसंयमे चक्षुर्दर्शने मनः पर्यायज्ञाने । भावना सुकरैव । यौ तु कार्मदारिकमश्र तौ तेषु सर्वथा न सम्भवत एव, तयोरपर्याप्तावस्थायां भावात् मनोयोगवाम्योगसामायिकच्छेदोपस्थापनचक्षुर्दर्शनमनः पर्यायज्ञानानां च तस्यामवस्थायामसम्भवात् । तथा "उरदुग" त्ति औदारिकद्विकमौदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ [ मिश्रकाययोगौ ] सयोग्यवस्थायामेव समुद्घातगतस्य वेदितव्यौ [ "कम्म" ति कार्मणकाययोगः ] १ वायुकायिकाश्चतुर्विधाः -- सूक्ष्माः पर्याप्ताः १ अपर्याप्ताः २, बादरा अपि च पर्याप्ताः ३ अपर्याप्ताः ४ ग तत्र यो राशयः प्रत्येकं असङ्ख्येयलोकप्रमाणप्रदेशराशिप्रमाणमात्राः, ये पुनर्बादराः पर्याप्तास्ते प्रतरासङ्ख्यातभागमात्राः । तत्र तावत् त्रयाणां राशीनां वैक्रियलब्धिरेव नास्ति । बादरपर्याप्तानामपि असङ्ख्यातभागमात्राणां लब्धिरस्ति । येषामपि लब्धिरस्ति तेऽपि पत्योपमासङ्ख्येयभागसमयमात्राः साम्प्रतं पृच्छासमये वैकुर्विकवर्त्तिनः । तथा येन सर्वेष्वेव ऊर्ध्वलोकादिषु चला वायवो विद्यन्ते तस्मादवैकुर्विका अपि वाता वान्तीति प्रहीतव्यम् । स्वभावस्तेषां वातव्यम् । २ °व लोगा° ख० अनुयोगद्वारलघुटीकायाम् । 'व लोगागासाइ° अनुयोगद्वार चूर्णो ॥ ३ विकलेषु असत्यामृषा वा ॥ ४ इतऊर्द्धम् -- "केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे सप्त योगाः । के ते ? इत्याह--' इत्येवंरूपः पाठो यदि स्थात्तदा सङ्गतिमेति ॥ ५ दारिकमिश्रकार्म क० ख० ० ० ङ० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखो पज्ञटीकोपेतः मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ ( प्रश० का ० २७६ ) कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । (प्रश० का० २७७) इति । प्रथमान्तिममनोयोगौ तु अविकलसकलविमल केवलज्ञानकेवलदर्शनबलाबलोकितनिखिल्लोकालोकस्य भगवतो मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात् । हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनाऽवधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षितवस्त्वालोचनाकारान्यथानुपपत्त्या लोकखरूपादिकं बाह्यमर्थं पृष्टमवगच्छन्ति । प्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनादिषु व्याष्टतस्य तस्यैव भगवतो द्रष्टव्याविति ॥ २८ ॥ मणबइउरला परिहारि सुहमि नव ते उ मीसि सविउव्वा । देसे सविउन्विदुगा, सकम्मुरलमिस्स अहखाए ॥ २९ ॥ परिहारविशुद्धि के सूक्ष्मसम्पराये च नव योगाः । के ते ? इत्याह--मनोयोगश्चतुर्धा वाग्योगश्चतुर्षा औदारिकं चेति । यत्त्वाहारकद्विकं वैक्रियद्विकं कार्मणमौदारिकमिश्रं च तद् न सम्भवत्येव । तथाहि —आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्ववेदिन एव भवति, “आहारं चउदसपुविणो" इति वचनात् ; परिहारविशुद्धिकसंयमप्रतिपत्तिः पुनरुत्कर्षतोऽप्यधीत किञ्चिन्न्यूनदशपूर्वस्यैव, तथैव सिद्धान्तेऽभ्यनुज्ञानात्; तत् कथं परिहारविशुद्धिकस्याऽऽहारकद्विकसम्भव: ? । नापि तस्य वैक्रियद्विसम्भवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुज्ञानात्, जिनकल्पिकस्यैव तस्याऽप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलसंयमघोरानुष्ठानपरायणत्वात् वैक्रियारम्भे च लब्ध्युपजीवनेन औत्सुक्यभावात् प्रमादसम्भवात् । अत एव सूक्ष्मसम्परायसंयमेऽप्याहारकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणानां चतुर्णी योगानामसम्भवः, सूक्ष्मसम्परायसंयमोपेतस्याऽप्यत्यन्तविशुद्धतया निस्तरङ्गमहोदधिकल्पत्वेन वैकियादिप्रारम्भासम्भवात् । कार्मणमौदारिकमिश्रं चापर्याप्ताद्यवस्थायामेवेति संयमद्वयेऽपि तस्याभावः । ते पुनः पूर्वोक्ता नव योगाः 'संवैक्रियाः' सह वैक्रियेण वर्तन्त इति सवैक्रिया वैकियसहिताः सन्तो दश योगाः 'मिश्र' सम्यग्मिथ्यादृष्टौ भवन्ति । तत्र वैक्रियं देवनारकापेक्षया, यत्तु वैक्रियमिश्रं तद् नैवावाप्यते, तस्याऽपर्याप्तावस्थाभावित्वात्, मिश्रभावस्य च "नं सम्ममिच्छो कुणइ कालं” इति वचनप्रामाण्याद् अपर्याप्तावस्थायामसम्भवात् । स्यादेतद् —– वैक्रियलब्धिमतां मनुष्यतिरश्चां सम्यग्मिथ्यादृशां सतां वैक्रियारम्भसम्भवेन कथं वैक्रियमिश्रं नावाप्यते ? इति उच्यते-तेषां वैक्रियारम्भासम्भवात्, अन्यतो वा कुतश्चित् कारणात् पूर्वाचार्यैस्तद् नाभ्युपगम्यत इति न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात्, अतोऽमाभिरपि तद् नेष्टमिति । 'देशे' देशविरते त एव नव पूर्वोक्ताः 'सवैक्रियद्विकाः' वैक्रियतन्मिश्रसहिताः सन्त एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामम्बडादीनां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियद्विकसम्भवात् । तथा त एव नव पूर्वोक्ताः 'सकार्मणौदारिकमिश्राः' सह कार्मणौदारिकमिश्राभ्यां वर्तन्त इति सकार्मणैौदारिकमिश्राः सन्त एकादश योगा यथाख्यातसंयमे भवन्ति । अयमर्थ:मनोयोगचतुष्टयवाम्योगचतुष्टयकार्मणौदारिकद्विकलक्षणा एकादश योगा यथाख्याते भवन्ति । तत्र मनोवाक्चतुष्कौदारिकयोगाः सुज्ञाना एव । कार्मणमौदारिकमिश्रं तु यथाख्यातसंयम१ आहारकं चतुर्दश पूर्विणः ॥ २ न सम्यग्मिथ्यादृष्टिः करोति कालं ॥ १५८ , [ गाथा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । श्रीकुलगृहस्य भगवतः केवलिनः सम्भवति, तस्य हि समुद्धातगतस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणम् , “कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च ।" (प्रश० का०२७७) इति वचनात् , द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेप्वौदारिकमिश्रम्, "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ।" (प्रश. का० २७६ ) इति वचनाद् अवाप्यत इति यथाख्यातसंयमे द्वयोरपि सम्भवात् । अथ विनेयजनानुग्रहाय केवलिसमुद्धातखरूपमभिधीयते--तत्र सम्यग्-अपुनर्भावेन उत्प्राबल्येन कर्मणो हननं-घातः प्रलयो यस्मिन् प्रयनविशेषे स समुद्धातः । अयं च केवलिसमुद्धातोऽष्टसामयिकः, तं च प्रारभमाणः प्रथममेवाऽऽयोजिकाकरणमान्तमौइर्तिकमुदीरणाबलिकायां कर्मप्रक्षेपल्यापाररूपमभ्येति । अथाऽऽयोजिकाकरणमिति कः शब्दार्थः ? उच्यते"आङ् मर्यादायाम्" आ-मर्यादया केवलिदृष्टया योजनं-शुभानां योगानां व्यापारणमायोजिका, “भावे" (सि० ५-३-१२२) णकः, तस्याः करणमायोजिकाकरणम् । आह च कहसमइए णं भंते ! आओजीकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! असंखेजसमइए अंतोमुहुतिए आओजीकरणे पन्नत्ते ।। (प्रज्ञापनापत्र ६०१-१) ___ अयं कृतकृत्योऽपि केवली किमर्थं समुद्धातं करोति ? इति चेद्, उच्यते--वेदनीयनामगोत्राणामायुषा सह समीकरणार्थम् । यदाह भगवान् श्रीभद्रबाहुखामी 'नाऊण वेयणिजं, अइबहुयं आउयं च थोवागं । गंतूण समुग्घायं, खवेइ कम्म निरवसेसं ॥ (आ. नि. गा. ९५४) प्रज्ञापनायामप्युक्तम् कैम्हा णं भंते ! केवली समुग्धायं गच्छइ ? गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेइया अणिजिन्ना भवन्ति । तं जहा-वेयणिजे आउए नामे गोए। सबबहुए से वेयणिज्जे कम्मे हवइ, सबथोवे से आउए कम्मे हवइ, विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छइ ।। (पत्र ६०१-१) "बंधणेहिं" ति बध्यन्त आत्मप्रदेशैः सह लोलीभावेन संश्लिष्टाः क्रियन्ते योगवशाद ये ते बन्धनाः, "भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने" (सि० ५-३--१२८) इति कर्मण्यन , कर्मपरमाणवः, स्थितयः-वेदनाकालाः, शेषं सुगमम् । उक्तं च आयुषि समाप्यमाने, शेषाणां कर्मणां यदि समाप्तिः। न स्यात् स्थितिवैषम्याद्, गच्छति स ततः समुद्धातम् ॥ स्थित्या च बन्धनेन च, समीक्रियार्थ हि कर्मणां तेषाम् । अन्तर्मुहूर्तशेषे, तदायुषि समुजिघांसति सः ॥ कतिसाममिकं भदन्त ! आयोजिकाकरणं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! असङ्ख्येयसामयिकमान्तौहर्तिकम् आयोजिकाकरणं प्रज्ञप्तम् ॥ २ ज्ञाला वेदनीयं अतिघहुकं आयुष्कं च स्तोकम् । गला समुद्धातं क्षपयति कर्म निरवशेषम् ॥ ३ कस्माद् भदन्त ! केवली समुद्धातं गच्छति ? गौतम ! केवलिनश्चत्वारः कर्माशा अक्षीणा भवेदिता अनिर्जीर्णा भवन्ति । तद्यथा-वेदनीयं आयुष्कं नाम गोत्रम् । सर्वबहुक तस्य वेदनीयं कर्म भवति. सर्वस्तोकं तस्यायुःकर्म भवति, विषमं समं करोति, बन्धनैः स्थितिभिश्च, विषमस्य समकरणाय बन्धनः स्थितिभिश्च एवं खलु केवली समुद्धातं गच्छति ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा अथ सर्वेऽपि केवलिनः समुद्धातं गच्छन्ति न वा ? इति चेद्, उच्यते-यस्य केवलिन आयुषा सह वेदनीयनामगोत्राणि समस्थितिकानि भवन्ति स हि न केवलिसमुद्धातं करोति, शेषस्तु करोति । उक्तं च श्रीमदार्यश्यामपादैः सविणं भंते! केवली समुग्धायं गच्छंति ? गोयमा ! नो इणेट्टे समट्टे । जस्साउण तुलाई, बंधणेहिं ठिईहि य । भवोवग्गाहिकम्माई, समुग्धायं से न गच्छइ ॥ अगंतूणं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा । जरमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥ ( पत्र ० ६०१ - १ ) समुद्धातं च कुर्वन् केवली प्रथमसमये बाहुल्यतः खशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां सङ्घातदण्डं दण्डस्थानीयं ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तमेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणाद् मन्यसदृशं मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव । एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति, अनुश्रेणि गमनात् चतुर्थे तु समये तान्यपि मन्थान्तराणि सह लोकनिप्कुटैः पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवतीति । तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तक्रमात् प्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति घनतरसङ्कोचनात् सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति दण्डात्मनि सङ्कोचनात्, अष्टमे समये दण्डं समुपहत्य शरीरस्थ एव भवति । न चैतत् खमकाम्भितम् । यदाहुर्वृद्धाः 1 3 उड्डाहाय्य लोगंतगामिणं सो सदेहविक्खभं । पढसमयम्म दंडं, करेइ बिइयम्मि उ कवाडं || तइयसमयम्मि मंथं, चउत्थए लोगपूरणं कुणइ | पडिलोमं संहरणं, काउं तो होइ देहत्थो || (विशेषा० गा० ३०५२-३०५३) वाचकवरोऽप्याह दण्डं प्रथमे समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये, लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं, संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ ( प्रश० का ० २७४ - २७५ ) तस्येदानीं समुद्धातस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते – योगाश्च मनोवाक्कायाः, अत्रैषां कः कदा व्याप्रियते ? । तत्रेह मनोवाम्योगयोरव्यापार एव, प्रयोजनाभावात् । १ सर्वेऽपि भदन्त ! केवलिनः समुद्वातं गच्छन्ति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । यस्याऽऽयुषा तुल्यानि बन्धनैः स्थितिभिश्च । भवोपग्राहि कर्माणि समुद्वातं स न गच्छति ॥ अगला समुद्वातमनन्ताः केवलिनो जिनाः । जरामरणविप्रमुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः ॥ २ 'महे क० ख० घ० ङ० ॥ ३ ऊर्ध्वाधआयतं लोकान्तगामिनं स स्वदेहविष्कम्भम् । प्रथमसमये दण्डं करोति द्वितीये तु कपाटम् ॥ तृतीयसमये मन्थानं चतुर्थके लोकपूरणं करोति । प्रतिलोमं संहरणं कृत्वा ततो भवति देहस्थः ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममन्यः । १६१ यदाह धर्मसारमूलटीकायां भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् । काययोगस्य तु औदारिककाययोगस्यौदारिकमिश्रकाययोगस्य वा कार्मणकाययोगस्य वा व्यापारो न शेषस्य, लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्याऽसम्भवात् । तत्र प्रथमाघमसमययोरौदारिककायप्राधान्याद् औदारिककाययोग एव, द्वितीयषष्ठसप्तमकेषु पुनः कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वाद् औदारिकमिश्र एव, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु केवलमेव कार्मणं शरीरं व्यापारभागिति कार्मणकाययोगः । यदाहुः श्रीमदार्यश्यामपादाः श्रीप्रज्ञापनायां पत्रिंशत्तमे समुद्रातपदे पढमट्टमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ, बिइयछट्ठसत्तमेसु समएसु ओरालियमीसगसरीरकायजोगं जुंजइ, तइयचउत्थपंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोगं झुंजइ ॥ (पत्र ६०१-२) भाष्यकारोऽप्याह न किर समुग्धायगओ, मणवइजोगप्पओयणं कुणइ । ओरालियजोगं पुण, जुजइ पढमऽहमे समए । उभयचावाराओ, तम्मीसं बीयछट्टसत्तमए । तिचउत्थपंचमे कम्मगं तु तम्मत्तचिट्ठाओ।। (विशे० गा० ३०५४-३०५५) ततः समुद्धातात् प्रतिनिवृत्तो मनोवाक्काययोगत्रयमपि व्यापारयति । यतः स भगवान् भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रवेदनीयेप्वचिन्त्यमाहात्म्यसमुद्धातवशतः प्रभूतमायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदो यदाऽनुत्तरौपपातिकादिना देवेन मनसा पृच्छयते तर्हि व्याकरणाय मनःपुद्गलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा; मनुष्यादिना पृष्टः सन् अपृष्टो वा कार्यवशाद् गृहीत्वा भाषापुद्गलान् वाग्योगम् , तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा; न शेषान् वाङ्मनोयोगान् , क्षीणरागद्वेषत्वात् ; काययोगं तु गमनादिचेष्टासु; तदेवमन्तर्मुहूर्त कालं यथायोगं योगत्रयव्यापारभाक् केवली भूत्वा तदनन्तरम् अत्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुरवश्यं योगनिरोधाय उपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्य ध्यानस्याऽसम्भवात् । यदाह भाष्यसुधाम्भोधिः 'विणिवत्तसमुग्धाओ, तिन्नि वि जोगे जिणो पउंजिज्जा । सञ्चमसञ्चामोसं, च सो मणं तह वईजोगं ॥ ओरालकायजोगं, गमणाई पाडिहारियाणं च । १ प्रथमाष्टमयोः समययोरौदारिकशरीरकाययोग युनक्ति, द्वितीयषष्ठसप्तमेषु समयेषु औदारिकमिवशरीरकाययोगं युनक्ति, तृतीयचतुर्थपश्चमेषु समयेषु कार्मणशरीरकाययोगं युनक्ति ॥ २ न किल समुद्रातगतो मनोवाग्योगप्रयोजनं करोति । औदारिकयोगं पुनर्युनक्ति प्रथमाष्टमयोः समययोः ॥ उभयव्यापाराद् तन्मिभं द्वितीयषष्ठसप्तमेषु । तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु कार्मणं तु तन्मात्रचेष्टायाः ॥ ३ विनिवृत्तसमुद्धातस्त्रीनपि योवान् जिनः प्रयुजीत । सत्यमसत्यामृषं च त मनस्तथा वाग्योगम् ॥ औदारिककाययोगं गमनादि प्रातिहारिकाणां च । क०२१ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः पञ्चप्पणं करिज्जा, जोगनिरोहं तओ कुणई || किं न सजोगो सिज्झइ, स बंधहेउ त्ति जं खलु सजोगो । न समेइ परमसुक्कं स निज्जराकारणं परमं ॥ (विशेषा० गा० ३०५६-३०५८) अन्यत्राप्युक्तम् स ततो योगनिरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकाङ्क्षन् । समयस्थितिं च बन्धं, योगनिमित्तं स निरुरुत्सुः ॥ समये समये कर्मादाने सति सन्ततेर्न मोक्षः स्यात् । यद्यपि हि विमुच्यन्ते, स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि ॥ नाकर्मणो हि वीर्य, योगद्रव्येण भवति जीवस्य । तस्याऽवस्थानेन तु, सिद्धः समयस्थितिर्बन्धः || [ गाथा योगनिरोधं च कुर्वाणः प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि तत्र पर्याप्तमात्रसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मानश्च तद्व्यापारस्तस्माद् असह्येयगुणहीनं मनोयोगं प्रतिसमयं निरुन्धानोऽसङ्ख्यैयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि । यदाह भगवान् श्रीमदार्यश्यामः 'से णं पुवामेव सन्निम्स पंचिंदियस्स पज्जत्तयम्स जहन्नजोगिम्स हिट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं निरुंभइ || ( प्रज्ञा० समु० पद ३६ पत्र ६०७-२ ) भाष्यकारोऽप्याह पेज्जत्तमित्तसन्निम्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । हुंति मणोदबाई, तबावारो य जम्मत्तो ॥ तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो । मणसो सबनिरोहं, कुणइ असंखिज्जसमएहिं || ( विशेषा० गा० ३०५९ - ३०६० ) त अनंतरं चणं वेइंदियम्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हिड्या असंखिज्जगुणहीणं दुखं वइजोगं निरुंभइ || ( प्रज्ञा० समु० पढ़ ३६ पत्र ६०७ -२ ) भाष्यकृदप्याह पैज्जत्तमित्तबिंदियजहन्नवइजोगपज्जवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरुभंतो ॥ सबवइजोगरोहं, संखाई एहिँ कुणइ समएहिं । (विशेषा० गा० ३०६१-३०६२) प्रत्यर्पणं कुर्यात् योगनिरोधं ततः करोति ॥ किं न सयोगः सिध्यति स बन्धहेतुरिति यत् खलु सयोगः । न समेति परमशुक्लं स निर्जराकारणं परम् ॥ १ स पूर्वमेव संज्ञिनः पश्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्तादसङ्ख्ये यगुणपरिहीणं प्रथमं मनोयोगं निरुद्वि ॥ २ पर्याप्तमात्रसंज्ञिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोद्रव्याणि तद्व्यापारश्च यन्मात्रः ॥ तदसगुणविहीनं समये समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं करोत्य सङ्ख्येय समयैः ॥ ३ ततोऽनन्तरं च द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्ताद सख्येयगुणहीनं द्वितीयं वचोयोगं निरुणद्धि ॥ ४ पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवचोयोगपर्यायाः ये तु । तदसङ्खयगुणविहीनं समये समग्रे निरुन्धन् ॥ सर्ववचोयोगरोधं सङ्ख्यातीतैः करोति समयैः ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १६३' ओ अनंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हिट्ठा असंखेज्ज - गुणपरिहीणं तचं कायजोगं निरुभइ || ( प्रज्ञा० समु० पद ३६ पत्र ६०७ -२ ) 1 तं च काययोगं निरुन्धानः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपातिध्यानमधिरोहति । तत्सामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन सङ्कुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति । यदाह भाग्यसुधासुधांशु:ततो य सुमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स || (विशेषा० गा० ३०६२ ) जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेज्जगुणहीणमिक्किक्के । समए निरुंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो ॥ रुंभइ स कायजोगं, संखाईएहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावयामेई || (विशेषा० गा० ३०६३ - ३०६४ ) सीलं च समाहाणं, निच्छयओ सबसंवरो सो य । तस्सेसो सेलेसो, सेलेसी होइ तदवस्था || हम्सक्खराइ मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमित्तं तओ कालं ॥ तणुरोहारंभाओ, झायइ मुहुम किरियानियहिं सो । वुच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि || (विशेषा०गा० ३०६७-३०६९) प्रज्ञापनायामप्युक्तम् जोगनिरोह करित्ता अजोगयं पाउणइ, अजोगयं पाउणित्ता ईसिं हस्तपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुबरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयंते वेदणिज्जाउयनामगोए इच्चए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवित्ता ओरालियतेयाकम्मगाई सबाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढीए अफुसमा - णगईए एगसमएणं अविग्गहेणं उढुं गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ || (समु० प० ३६ पत्र ६०७ - २) भाष्यकारोऽप्याह तदसंखेज्जगुणाए, गुणसेढीइ रइयं पुरा कम्मं । १ ततोऽनन्तरं च सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्तादसङ्ख्येयगुणपरिहीणं तृतीयं काययोगं निरुणद्धि ॥ २ ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोपपन्नस्य ॥ यः किल जघन्ययोगः तदसङ्ख्येयगुणहीनमेकैकस्मिन् । समये निरुन्धन् देहत्रिभागं च मुञ्चन् ॥ रुणद्धि स काययोगं सङ्ख्यातीतैरेव समयैः । ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावतामेति ॥ शीलं च समाधानं निश्चयतः सर्वसंवरः स च । तस्येशः शैलेश: शैलेशी भवति तदवस्था || हस्वाक्षराणि मध्येन येन कालेन पञ्च भण्यन्ते । आस्ते शैलेशीगतस्तावन्मात्रं ततः कालम् ॥ तनुरोधारम्भाद् ध्यायति सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति सः । व्युच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिनं शैलेशीकाले ॥ ३ योगनिरोधं कृत्वाऽयोगतां प्राप्नोति, अयोगतां प्राप्य ईषत् पश्चहखाक्षरोश्चारणाद्धया असङ्ख्येयसामयिकी - मान्तमौहूर्तिकी शैलेशी प्रतिपद्यते, पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च कर्म तस्यां शैलेश्यद्धायामसङ्ख्या मिर्गुणश्रेणिभिरसङ्ख्येयान् कर्मस्कन्धान् क्षपयन् वेदनीयायुर्नामगोत्राणि इत्येतांश्चतुरः कर्माशान् युगपत् क्षपयिलौदारिकतैजसकार्मणानि सर्वैर्विप्रहानैर्विप्रजत्य ऋजुश्रेण्याऽस्पृशद्गत्या एकसमयेनाविग्रहेणोर्ध्व गत्वा साकारोपयुक्तः सिध्यति ॥ ४ तदसयगुणया गुणश्रेण्या रचितं पुरा कर्म । समये समये क्षपयित्वा क्रमेण सर्वं तत्र कर्म ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ देवेन्द्ररिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाथा . समए समए खविडं, कमेण सवं तहिं कम्मं ॥ (विशेषा० गा० ३०८२) रिउसेढीपडिवन्नो, समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो ॥ (विशेषा० गा० ३०८८) अयं च समुद्भातविधिः सर्वोऽप्यावश्यकाभिप्रायेणोक्तः । तत्रेयं गाथा दंडे कबाडे मंथंतरे य संहरणया सरीरत्थे। भासाजोगनिरोहे, सेलेसी सिज्झणा चेव॥ (आ०नि० गा०९५५) इति ॥२९॥ अभिहिता मार्गणास्थानेषु योगाः । साम्प्रतमेतेप्वेव उपयोगस्वरूपनिरूपणपूर्वकमुपयोगानभिधित्सुराह तिअनाण नाण पण चउ, दंसण वार जिय लकग्वणुधओगा। विणु मणनाण दुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु ॥ ३०॥ 'त्रीण्यज्ञानानि' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपाणि 'ज्ञानानि' मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानलक्षणानि पञ्च स्वोपज्ञकर्मविपाकटीकायां विस्तरेणाभिहितस्वरूपाणि 'चत्वारि दर्शनानि' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि इत्येवं द्वादशोपयोगाः प्रामिरूपितशब्दार्था भवन्ति । किंविशिष्टाः ? इत्याह---"जिय लक्षण" ति प्राकृतत्वाद विभक्तिलोपः, ‘जीवस्य' आत्मनः ‘लक्षणं' लक्ष्यते-ज्ञायते तदन्यव्यवच्छेदेनेति लक्षणम्-असाधारणं खरूपम् । अत एवोक्तमन्यत्र-... "उपयोगलक्षणो जीवः" इति । ते च द्विधा--साकारा अनाकाराश्च । तत्र पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि इत्यष्टावुपयोगाः साकाराः, चत्वारि दर्शनानि अनाकारा उपयोगाः। यदाह प्रवचनार्थसार्थसरससरसीरुहसमूहप्रकाशनसहस्रभानुर्मगवान् श्रीमदार्यश्यामः प्रज्ञापनायामुपयोगपदेऽष्टमे कतिविहे णं भंते ! उवओगे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे उवओगे पन्नत्ते, तं जहासागारोबओगे य अणागारोघओगे य। सागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! अट्टविहे पत्नत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियनाणसागारोवओगे मुयनाणसागारोवओगे ओहिनाणसागारोवओगे मणपज्जवनाणसागारोवओगे केवलनाणसागारोवओगे मइअन्नाणसागारोवओगे १ खवियं कमसो सेलेसिकालेणं । इति विशेषावश्यकभाष्ये ॥ २ ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् । एकसमयेन सिध्यति अथ साकारोपयुक्तः सः॥ ३ दण्डः कपाटं मन्या अन्तराणि संहरणता शरीरस्थः । भाषायोगनिरोधः शैलेशी सिद्धिश्चैव ॥ ४ अस्मत्पार्श्ववर्तिषु सर्वेष्वपि पुस्तकादशेषु जैनधर्मप्रसारकसभया मुद्रिते चादर्श "उपयोगपदेऽष्टमे' इत्येवमेवोपलभ्यते परं प्रज्ञापमाया अष्टमपदं तु संज्ञापदमेब, उपयोगपदं तु एकोनत्रिंशत्तममेवेति ॥ ५ कतिविधो भदन्त ! उपयोगः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्विविध उपयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-साकारोपयोगश्चानाकारोपयोगश्च । साकारोपयोगो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! अष्टविधः प्रज्ञप्तः, तयथा-आभिनियोधिकज्ञानसाकारोपयोगः १ श्रुतज्ञानसाकारोपयोगः २ अवधिज्ञानसाकारोपयोगः ३ मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयोगः ४ केवलज्ञानसाकारोपयोगः ५ मस्यशानसाकारोपयोगः ६ श्रुताज्ञानसाकारोपयोगः ७ विभङ्गज्ञानसाकारोपयोगः ८ । अनाकारोपयोगो भदन्त ! कलिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! चतुर्विधः प्रशतः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनानाकारोपयोगः १ अचक्षुर्दर्शनानाकारोपयोगः २ अवधिदर्शनानाकारोपयोगः ३ केवलदर्शनानाकारोपयोगः ४ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०-३२] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १६५ सुयअन्नाणसागारोवओगे विमंगनाणसागारोवओगे । अणागारोबओगे णं भंते ! कइविहे पन्नते ? गोयमा ! चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-चक्खुदंसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणअणागारोवओगे ओहिदसणअणागारोवओगे केवलदंसणअणागारोवओगे य ॥ (उपयो० पद २९ पत्र ५२५-१) भावार्थः प्रागेव मार्गणास्थाने भेदाभिधानावसरे सप्रपञ्चमभिहित इति । “विणु मणनाण" इत्यादि, विना मनःपर्यायज्ञानं केवलद्विकं च-केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणं शेषा नवोपयोगा भवन्ति 'सुरे' सुरगतौ "तिरि" ति तिर्यग्गतौ 'नरके' नरकगतौ 'अयते' विरतिहीने, एतेषु सर्वेष्वपि हि सर्वविरत्यसम्भवेन मनःपर्यायज्ञानकेवलद्विकासम्भवादिति ॥ ३० ॥ तस जोय वेय सुक्काहार नर पणिदि सन्नि भवि सव्वे। नयणेयर पण लेसा, कसाइ दस केवलदुगुणा ॥३१॥ बसेषु 'योगेषु' मनोवाक्कायरूपेषु 'वेदेषु द्रन्यवेदरूपस्त्रीपुंनपुंसकलक्षणेषु शुक्ललेश्यायाम् आहारकेषु नरगतौ पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिपु "भवि" ति भव्येषु च सर्वे द्वादशाप्युपयोगाः सम्भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरत्यादीनां सम्भवात् । “नयणं" ति चक्षुर्दर्शने "इयर" त्ति अचक्षुर्दर्शने ‘पञ्चसु लेश्यासु' कृष्णनीलकापोततेजःपद्मलेश्यासु 'कषायेषु' क्रोधमानमायालोभेषु दश उपयोगा भवन्ति । के ? इत्याह---केवलद्विकेन ऊनाः-हीना ज्ञानचतुष्टयाऽज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः, न तु केवलद्विकम् , चक्षुर्दर्शनादिसद्भावेऽनुत्पादात् तस्य ॥ ३१ ॥ चरिंदि सनि दुअनाणदंस इग बित्ति थावरि अचक्खू । तिअनाण दंसणदुर्ग, अनाणतिग अभव मिच्छदुगे ॥ ३२॥ चतुरिन्द्रिये असंज्ञिनि च चत्वार उपयोगा भवन्ति । के ते ? इत्याह---'व्यज्ञानदर्शने' द्वे अज्ञाने-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपे, द्वे दर्शने-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणे इत्यर्थः । तथा त एव पूर्वोक्ताश्चत्वार उपयोगाः “अचक्खु" त्ति अचक्षुषः-चक्षुर्दर्शनरहिताः सन्तस्त्रयो भवन्ति । केषु ? इत्याह----"इग" ति सामान्यत एकेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु 'स्थावरेषु' पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतिषु । कोऽर्थः ? एकद्वित्रीन्द्रियस्थावरेषु मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनरूपास्त्रय उपयोगा भवन्तीत्यर्थः, न शेषाः, यतः सम्यक्त्वाभावाद् मतिश्रुतज्ञानासम्भवः, सर्वविरत्यभावाच मनःपर्यायज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभावः, यत् पुनरवधिद्विकं विभङ्गज्ञानं च तद् भवप्रत्यय गुणप्रत्ययं वा, न चाऽनयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः सम्भवति, चक्षुर्दर्शनोपयोगाभावस्तु चक्षुरिन्द्रियाभावादेव सिद्धः । तथा त्रयाणामज्ञानानां समाहारः त्र्यज्ञानम् , अज्ञानत्रयम्-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभावरूपं 'दर्शनद्विकं' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणमित्येते पञ्चोपयोगा भवन्ति । क ? इत्याह'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपे । यत्त्वज्ञानत्रिकेऽवधिदर्शनं पूर्वाचार्यैः कुतश्चित् कारणाद् नेप्यते तद् न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात् ; अथ च सिद्धान्ते प्रतिपाद्यते, तथा च प्रज्ञप्तिस्त्रं पूर्वदर्शितमेव, तदभिप्रायादस्माभिरपि नोक्तमिति । 'अभवे' अभव्ये 'मिथ्यासद्विके' मिथ्यात्वे साखादने च] पञ्चोपयोगा:-अज्ञानत्रिकदर्शनद्विकरूपा न शेषाः, अवदातसम्यक्त्वविरत्यमावादिति ॥ ३२ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा केवलदुगे नियदुर्ग, नव तिअनाण विणु खइय अहखाए । दंसणनाणतिगं देसि मीसि अन्नाणमीसं तं ॥ ३३ ॥ ‘केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे 'निजद्विकं' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपमुपयोगद्विकं भवति, न शेषा दश, ज्ञानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलयुगलस्य सद्भावात्, “नट्ठम्मि उ छाउमथिए नाणे । " ( आ० नि० गा० ५३९ ) इति वचनात् । तथा क्षायिके सम्यक्त्वे यथाख्याते च संयमे नवोपयोगा भवन्ति । के ते ? इत्याह- 'अज्ञानत्रिकं' मतिश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणं विना, यतः क्षायिकयथाख्यातयोरज्ञानत्रिकं न भवत्येव, तस्य मिथ्यात्वनिबन्धनत्वात्, निर्मूलतो मिथ्यात्वक्षयेणोपशमेन च क्षायिकसम्यक्त्वयथाख्यातोत्पादात्, अत एतयोर्नवैवोपयोगा भवन्तीति । तथा 'देशे' देशविरते षडुपयोगा भवन्ति । कथम् ? इत्याह--- ' दर्शनज्ञानत्रिकं' त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धः, दर्शनत्रिकं चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपम्, ज्ञानत्रिकंमतिश्रुतावधिज्ञानरूपमिति, न शेषाः, मिध्यात्वसर्वविरत्यभावात् । मिश्र तदेव दर्शनज्ञानत्रिकमज्ञानमिश्रं द्रष्टव्यम्, मतिज्ञानं मत्यज्ञानमिश्रं १ श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानमिश्रं २ अवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमिश्रं ३ दर्शनत्रिकं ३ चेति मिथेऽपि षडुपयोगाः सिद्धा भवन्ति । इह चावधिदर्शनमागमाभिप्रायेण उच्यते, अन्यथा एतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु गुणस्थानकमार्गणायां “अजयाइ नव महसुओहिदुगे" ( गा० २१ ) इत्युक्तमिति ॥ ३३ ॥ १६६ मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारे तिन्नि दंस चउ नाणा । चनाणसंजमोवसम वेयगे ओहिसे य ॥ ३४ ॥ मनः पर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनवजः शेषा दशोपयोगा अनाहारके भवन्ति । यत्तु मनः पर्यवज्ञानं चक्षुर्दर्शनं तच्चानाहारके न सम्भवति, यतोऽनाहारको विग्रहगतौ केवलिसमुद्घातावस्थायां च, न च तदानीं मनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनसम्भव इति । तथा ' त्रीणि दर्शनानि' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपाणि ' चत्वारि ज्ञानानि' मतिश्रुतावधिमनः पर्यायलक्षणानीत्येवं सप्तोपयोगा भवन्ति; क ? इत्याह---चतुः शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् चतुर्षु ज्ञानेषु - मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानेषु, तथा चतुर्षु संयमेषु - सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायेषु, औपशमिके सम्यक्त्वे 'वेदके' क्षायोपशमिकापरपर्याये, अवधिदर्शने 'च' समुच्चये, न शेषाः, तत्सद्भावे मत्यज्ञानादीनामसम्भवात् । इहाप्यवधिदर्शने मत्यज्ञानाद्युपयोगप्रतिषेधो बहुश्रुताचार्याभिप्रायापेक्षया द्रष्टव्यः, अन्यथा हि मत्यज्ञानादिमतामपि सूत्रे साक्षाद् अवधिदर्शनं प्रतिपादितमेव, प्रज्ञप्तिसूत्रं च प्रागेवोक्तमिति ॥ ३४ ॥ उक्ता मार्गणास्थानेषु उपयोगाः । अथ योगेषु जीवगुणस्थानकयोगोपयोगान् अधिकृत्य मतान्तरमाह - दो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ट दु च च वयणे । च दु पण तिनि काए, जियगुणजोगोवओगने ॥ ३५ ॥ अन्ये त्वाचार्याः “मणि” त्ति मनोयोगे द्वे जीवस्थानके, त्रयोदश गुणस्थानकानि, त्रयोदश १ °ये, अवधिद्विके–अवधिज्ञानावधिदर्शनरूपे चः क० ख० ग० ० ॐ० मुद्रितपुस्तकादर्शे च ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३-३७] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः ।। १६७ योगाः, द्वादशोपयोगा इतीच्छन्ति 'क्रमात्' क्रमेण यथासङ्ख्यमित्यर्थः । अत्रायमभिप्रायःप्राग योगान्तरसहितोऽसहितो वा खरूपमात्रेणैव काययोगादिर्विवक्षितस्तेन तत्र यथोक्तगुणस्थानकादिवक्तव्यता सर्वाऽप्युपपद्यते, इह तु काययोगादिर्योगान्तरविरहित एव विवक्ष्यते । यथामनोयोगवाग्योगविरहितः काययोगः, मनोयोगविरहितो वाग्योगः । ततो मनोयोगे द्वे अन्तिमे जीवस्थानके, अयोगिकेवलिवर्जितानि त्रयोदश गुणस्थानानि, कार्मणौदारिकमिश्रवर्जितात्रयोदश योगाः, कार्मणौदारिकमिश्रौ हि काययोगौ अपर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धातावस्थायां वा । न च तदानीं मनोयोगः, अपर्याप्तावस्थायां मनस एवाभावात् , केवलिसमुद्धातावस्थायां तु प्रयोजनाभावात् । उक्तं च मनोवचसी तु तदा सर्वथा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् । (धर्मसारमूलटीकायाम् ) ___ तथा 'वचने' मनोयोगविरहिते वाग्योगे क्रमाद् अष्टौ जीवस्थानानि-पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि, द्वे गुणस्थाने-मिथ्यात्वसासादनलक्षणे, चत्वारो योगाःकार्मणौदारिकमिश्रौदारिकासत्यामृषावाग्योगरूपाः, चत्वार उपयोगाः-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणाः । वाग्योगो हि मनोयोगविरहितखभावो द्वीन्द्रियादिप्वेवाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु सम्भवति नान्येषु । ततो यथोक्तान्येव जीवस्थानकादीनि तत्र सम्भवन्ति नोनाधिकानि । तथा केवलकाययोगे चत्वारि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि, द्वे आये गुणस्थानके-मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे, पञ्च योगा:-वैक्रियद्विकौदारिकद्विककार्मणरूपाः, त्रय उपयोगा:-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनस्वरूपाः । केवलकाययोगो हि एकेन्द्रियेप्वेवावाप्यते, तत्र जीवस्थानकादीनि यथोक्तान्येव घटन्त इति ॥ ३५ ॥ अभिहितं योगेप्वेकीयमतम् । साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लेश्या अभिधित्सुराह छसु लेसासु सठाणं, एगिदि असन्नि भूदगवणेसु। पढमा चउरो तिन्नि उ, नारय विगलग्गि पवणेसु ॥ ३६॥ षड्लेश्यामु खस्थानं खा खा लेश्या भवति, यथा कृष्णलेश्यायां कृष्णलेश्या इत्यादि । सामान्यत एकेन्द्रियेषु 'असंज्ञि(नि'मनोविज्ञानरहिते) 'भूदकवनेषु' पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रथमाःकृष्णनीलकापोततेजोलेश्याश्चतस्रो भवन्ति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवा हि खखभवच्युता एतेषु मध्ये समुत्पद्यन्ते ते च तेजोलेश्यावन्तः, जीवश्च यल्लेश्य एव म्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोपपद्यते, “जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जइ" इति वचनात् । तत एतेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्या भवति । नारकेषु 'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु अमिषु' तेजस्कायेषु 'पवनेषु' वायुकायिकेषु प्रथमास्तिस्रः-कृष्णनीलकापोतलेश्या भवन्ति नाऽन्याः, प्रायोऽमीषामप्रशस्ताध्यवसायस्थानोपेतत्वात् ॥ ३६॥ अहवाय सुहम केवलदुगि सुका छावि सेसठाणेसु। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखऽणंतगुणा ॥ ३७॥ यथाख्यातसंयमे सूक्ष्मसम्परायसंयमे च 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे शुक्ललेश्यैव न शेषलेश्याः, यथाख्यातसंयमादौ एकान्तविशुद्धपरिणामभावात् तस्य च शुक्लेश्याऽविनाभू Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माथा १६८ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः तत्वात् । ‘शेषस्थानेषु' सुरगतौ तिर्यम्गतौ मनुष्यगतौ पञ्चेन्द्रियत्रसकाययोगत्र्यवेदत्रयकषायचतुष्टयमतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकदेशविरताविरतचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनभव्याभव्यक्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकसाखादनमिश्रमिथ्यात्वसंश्याहारकानाहारकलक्षणैकचत्वारिंशत्सु शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्याः । ___उक्ता मार्गणास्थानेषु लेश्याः । इदानीं मार्गणास्थानेषु खस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वं निरूपयिषु राह—'नरनिरय' इत्यादि । इह यथासङ्ख्येन योजना कर्तव्या । सा चैवम्-नरा निरयदेवतिर्यग्योनिकेभ्यः सकाशात् स्तोकाः । यत इह द्विविधा नराः----वान्तपित्तादिजन्मानः सम्मूर्छजाः, स्त्रीगर्भोत्पन्नाः गर्भजाश्च । तत्राद्याः कदाचिद न भवन्त्येव, जघन्यतः समयस्य उत्कृष्टतस्तु चतुर्विशतिमुहूर्तानां तदन्तरकालस्य प्रतिपादितत्वात् ।। यदाह सन्देहसन्दोहशैलशृङ्गभङ्गदम्भोलिभगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः बारस मुहुत्त गन्भे, उक्कोस समुच्छिमेमु चउवीसं । उकोस विरहकालो, दोसु वि य जहन्नओ समओ।। (बृ० सं० पत्र १३०-१) उत्पन्नानां तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेन परतः सर्वेषां निलेपत्वसम्भवाद् यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्त्वसङ्ख्याताः । इतरे तु सर्वदैव सद्ध्येया भवन्ति नासङ्ख्येयाः, तत्र सङ्ख्येयकस्य सङ्ख्यातभेदत्वान्न ज्ञायते कियदपि सङ्ख्येयकम् अतो विशेषत इदं प्ररूप्यते---इह षष्ठवर्गः पञ्चमवर्गेण यदा गुणितो भवति तदा गर्भजमनुप्यसङ्ख्या भवति । अथ कोऽयं षष्ठः (ग्रन्थानम्-१५००) वर्ग: ? कश्च पञ्चमः ? इत्येतदुच्यते-- विवक्षितः कश्चिद् राशिस्तनैव राशिना यत्र गुण्यते स तावद् वर्गः । तत्रैकस्य वर्ग एव न भवति, अतो वृद्धिरहितत्वादेष वर्ग एव न गण्यते । द्वयोस्तु वर्गश्चत्वारो भवन्ति, एष प्रथमो वर्गः ४ । चतुर्णा वर्गः षोडशेति द्वितीयो वर्ग: १६ । षोडशानां वर्गो द्वे शते पट्पञ्चाशदधिक तृतीयो वर्गः २५६ । अस्य राशेर्वर्गः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि पत्रिंशदधिकानि चतुर्थों वर्गः ६५५३६ । अस्य राशेर्वर्गः सार्धगाथया प्रोच्यते चत्तारि य कोडिसया, अउणतीसं च हुति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा, सत्तहि चेव य सहम्सा ॥ दो य सया छन्नउया, पंचमवग्गो इमो विणिद्दिट्टो । ( अनु० चू० पत्र ७०) अकस्थापना-४२९४९६७२९६ । अस्यापि राशेर्वों गाथात्रयेण प्रतिपाद्यते---- लक्खं कोडाकोडी, चउरासीइं भवे सहम्साई । १ सा चैक्ये द्वन्द्वमेययोरिति 'एकचलारिंशति' इति माव्यम्, भविष्यत्यपि, तथापि लेखकेन पण्डितंमन्येन वा केनाप्येतद् अङ्कितं लक्ष्यते ॥ २ द्वादश मुहूर्ता गर्भजेषु सम्मूछिमेषु चतुर्विंशतिः । उत्कर्षतो विरहकालः द्वयोरपि च जघन्यतः समयः ॥ ३ चलारि च कोटिशतानि एकोनशिश्च भवन्ति कोटयः । एकोनपश्चाशद् लक्षाः सप्तषष्टिरेव च सहस्राणि ॥ द्वे च शते षण्णवतिः पश्चमबर्गोऽयं विनिर्दिष्टः ॥४°ग्गो समासत्तो होति ५ लक्ष कोटाकोरी चतुरशीतिभवन्ति सहसामि । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । चचारि य सत्तट्टा, हुंति सया कोडिकोडीणं ॥ चोयाल लक्खाई, कोडीणं सत्त चैव य सहस्सा । तिन्निय सया य सरी, कोडीणं हुंति नायबा ॥ पंचाणउई लक्खा, एगावन्नं भवे सहस्साइं । १६९ छ स्सोलसुत्तर सया, एसो छट्टो हवइ वग्गो || ( अनु० चू० पत्र ७० >> [ अङ्कतोऽपि दर्श्यते—] १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ । तदयं षष्ठो वर्गः पूर्वोक्तेन पञ्चमवर्गेण गुण्यते, तथा च सति या सख्या भवति तस्यां जघन्यपदिनो गर्भजमनुष्या वर्तन्ते । सा चेयम् - ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । अयं च राशिः कोटीकोट्यादिप्रकारेण केनाऽप्यभिधातुं न शक्यतेऽतः पर्यन्तादारभ्याङ्कमात्रसङ्ग्रहार्थ गाथाद्वयम् - छैग तिन्नि तिनि सुन्नं, पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि । पंचैव तिन्नि नव पंच, सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ चर छ हो चउ इक्को, पण दो छक्कक्कगो य अट्टेव । दो दो नव सत्तेव ये, अंकडाणा पराहुत्ता || ( अनु० चू० पत्र० ७० ) तदेवमेतेष्वेकोनत्रिंशदङ्कस्थानेषु जघन्यपदिनो गर्भजमनुष्या वर्तन्ते । उक्तं चानुयोगद्वारेषु जहन्नपए [संखेज्जा] संखिज्जाओ कोडाकोडाकोडीओ । ( पत्र २०५ - २ ) तदेवं जधन्यपदिनो मनुष्याः, उत्कृष्टपदिनस्त्वसङ्ख्याताः । उक्तं चानुयोगद्वारसूत्रेउक्कोसपए असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उसप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खित्तओ उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणूसेहिं सेढी अवहीरह, असंखेज्जाहिं अवसप्पिणीहिं उस्सप्पिणीहिं कालओ, खितओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवम्गमूलपडुप्पन्नं ॥ ( पत्र २०५ - २ ) अस्येयमक्षरगमनिका —— उत्कृष्टपदे मनुप्या असह्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्याः । क्षेत्रतस्त्वेकस्मिन् मनुष्यरूपे प्रक्षिप्ते मनुष्यरूपैरेका नभः प्रदेशश्रेणिरपह्रियते । कियता कालेन ? इत्याह – असमयेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः । कियता क्षेत्रखण्डापहारेण : इत्याह-- "अंगुलपढमवम्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पन्नं" ति श्रेणेरङ्गुलप्रमाणे क्षेत्रे यः प्रदेशराशिस्तस्य यत् प्रथमं वर्गमूलं तत् तृतीयवर्गमूलप्रदेशराशिना गुप्यते, गुणिते च यः प्रदेशराशिर्भवति तत्प्रमाणं क्षेत्रखण्ड - कैकं रूपमपहरति । अयमर्थः - इह किलाङ्गुलप्रमाणक्षेत्रे नमः प्रदेशराशिः सद्भावतोऽसयेय - वारि च सप्तषष्टिर्भवन्ति शतानि कोटिकोटीनाम् ॥ चतुश्चत्वारिंशद् लक्षाः कोटीनां सप्त एव च सहस्राणि । श्रीणि च शतानि च सप्ततिः कोटीनां भवन्ति ज्ञातव्यानि ॥ पञ्चनवतिर्लक्षा एकपञ्चाशद् भवन्ति सहस्राणि । षट् षोडशोत्तराणि शतानि एष षष्टो भवति वर्गः ॥ १ सत्तरि अनुयोगद्वार चूर्णिलघुवृत्त्योः ॥ १ षट् त्रीणि त्रीणि शून्यं पश्चैव च नव च त्रीणि चत्वारि । पश्चैव त्रीणि नव पञ्च सप्त त्रीण्येव त्रीण्येव ॥ चत्वारि षद द्वे चत्वारि एकः पश्च द्वे षट् एककञ्च अष्टेव । द्वे द्वे नव सप्तैव च अङ्कस्थानानि पराकुखानि ॥ १ म ठाणाई उवरिहुत्ताई ॥ अनुयोगद्वारचूर्णो ॥ ३ जघन्यपदे सङ्ख्याताः सङ्गमेयाः कोटिकोटिकोणः ॥ क० २२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा . १७० देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः प्रदेशपरिमाणोऽप्यसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः कल्प्यते २५६; अत्र प्रथम वर्गमूलं षोडश १६, द्वितीयं वर्गमूलं चत्वारि ४, तृतीयं वर्गमूलं द्वे २; तत्र प्रथमवर्गमूलं षोडशलक्षणं तृतीयवर्गमूलेन गुणितं जाता द्वात्रिंशत् ३२, एवमेते नभःप्रदेशाः सद्भावतोऽसजोया अप्यसत्कल्पनया द्वात्रिंशत्सङ्ख्याः परिग्राह्याः । ततः श्रेणेमध्याद् यथोक्तप्रमाणं द्वात्रिंशत्पदेशप्रमाणमित्यर्थः क्षेत्रखण्ड यद्येकैकं मनुष्यरूपं क्रमेण प्रतिसमयमपहरति तदाऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वाऽपि श्रेणिरपहियते यद्येक मनुष्यरूपं स्यात् , तच्च नास्ति, सर्वोत्कृष्टानामपि समुदितगर्भजसम्मूर्छजमनुष्याणामेतावतामेव भावात् । इदमुक्तं भवति --उत्कृष्टपदवर्तिभिरपि सर्वतः सप्तरज्जुप्रमाणस्य धनीकृतस्य लोकस्यैकैकप्रदेशपतिरूपं श्रेणिमात्रमपि अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धितृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रदेशप्रमाणैरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणाङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिद्विकलक्षणतृतीयवर्गमूलगुणितषोडशकलक्षणप्रथमवर्गमूललब्धद्वात्रिंशत्प्रदेशप्रमाणैराकाशखण्डैर्मनुप्यरूपस्थानीयैरपहियमाणमपि नापहियते, एकरूपहीनत्वात् ; यदि पुनरेकं रूपमन्यत् स्यात् ततः सकलाऽपि श्रेणिरपहियेत । कालतश्च प्रतिसमयमेतावत्प्रमाणैरप्याकाशखण्डैरपहियमाणा श्रेणिरसङ्ख्याताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिनिःशेषतोऽपहियते, कालतः सकाशात् क्षेत्रस्यात्यन्तसूक्ष्मत्वात् । उक्तं च---- उक्कोसपए जे मणुम्सा हवंति तेसु इक्वम्मि मसरूवे पक्खित्ते समाणे तेहिं मणुम्सेहिं सेढी अवहीरइ । तीसे य सेढीए कालखित्तेहिं अवहारो मग्गिज्जइ--कालओ ताव असंखिज्जाहिं उम्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, खित्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडप्पन्नं । किं भणियं होइ !------ तीसे सेढीए अंगुलायए खंडे जो पएसरासी तम्स जं पमवग्गमूलपएसरासिमाणं तं तइयवग्गमूलपएसरासिपडप्पाइए समाणे जो पएसरासी हबइ एवइएहिं खंडेहिं अवहीरमाणी अवहीरमाणी जाव निट्ठाइ ताव मणुस्सा वि अवहीरमाणा अवहीरमाणा निर्दृति । आह कहमेगा सेढी पदहमित्तेहिं खण्डेहिं अवहीरमाणी अवहीरमाणी असंखेज्जाहिं उम्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरइ ? आयरिओ आह-खेत्तम्स सुहुमत्तणओ । मुत्ते वि जं भणियं----- सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरयं हवइ खित्तं । अंगुलसेढीमिते, ओसप्पिणीओ असंखिज्जा ॥ ( अनु० चू० पत्र ७२ ) इति । १ उत्कृष्टपदे ये मनुष्या भवन्ति तेष्वेकस्मिन् मनुष्यरूये प्रक्षिप्ते सति तर्मनुष्यैः श्रेणिरपहियते । तस्याश्च श्रेणेः कालक्षेत्राभ्यां अपहारो मृग्यते-कालतस्तावदनयेयाभिरुत्मर्पिण्यवसर्पिणीभिः, क्षेत्रतोऽङ्गुलप्रथमवर्गमूल ततीयवर्गमलगुणितमा कि मणितं भवति?-तस्याः श्रेणरन्डलायते खण्डे यः प्रदेशराशिः तस्य यत प्रथमवर्गमूलप्रदेशराशिमानं तत् तृतीयवर्गमूलप्रदेशराशिगुणिते सति यः प्रदेशराशिभवति एतावद्भिः खण्डरपहियमाणाऽपहियमाणा यावमिस्तिष्ठति तावद् मनुष्या अपि अपहियमाणा अपहियमाणा निस्तिष्ठन्ति । आह कथमेका श्रेणिरेतावन्मात्रः खण्डरपहियमाणा अपहियमाणा असलयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते? आचार्य आह-क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् । सूत्रेऽपि यद्भणि ----सूक्ष्मश्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरकं भवति क्षेत्रम् । अगुलश्रेणिमात्रेऽवर्पिण्योऽसल्येयाः ॥ २ जाव अनुयोगद्वारचूर्णी ॥ ३ °दुप्पाडितं अनुयोगद्वारचूर्णी ॥ ४ ढमं वग्गमूलं तं तइयवग्गमूलपाएगरासिणा पडप्पातिज्जइ, पटुप्पाडिते समाणे जो रासी हवा एवइएहिं खण्डेहि सा सेढी अव अनुयोगदारचूर्णी॥ ५ गाथेयमावश्यकनियुक्तौ सप्तत्रिंशत्तमी ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममन्यः । १७१ अतो निरयादिभ्यः सकाशात् स्तोका नराः, तेभ्यो नारका असङ्घयेयगुणाः । यत एवमनुयोगद्वारेषु नारकपरिमाणमुपदर्श्यते नेरहयाणं भंते ! केवइया वेडवियसरीरा पन्नता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - बद्धिलया मुकिल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धिल्लया ते णं असंखेजा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिअवसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जहभागो । वासि णं ढणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बीयवग्गमूलपडुप्पन्नं, अहव णं अंगुळबिइयवमामूलघणपमाणमित्ताओ सेढीओ ॥ ( पत्र १९९ - २ ) अस्येयमक्षरगमनिका— नारकाणां बद्धानि वैक्रियशरीराण्यसङ्ख्येयानि, प्रतिनारकसेकैक्कवैकियसद्भावाद् नारकाणां चासयेयत्वात्, तानि च कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि । क्षेत्रतस्तु प्रतरा सङ्ख्ये य भाग वर्त्यसङ्ख्येयश्रेणीनां ये प्रदेशास्तत्सङ्ख्यानि भवन्ति । ननु प्रतरासङ्ख्येयभागेऽसङ्ख्येययोजनकोटयोऽपि भवन्ति तत् किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभः श्रेणयो भवन्ति ता इह गृह्यते ? न, इत्याह - " तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई" इत्यादि । तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्विस्तरश्रेणिर्ब्राह्मेति शेषः । कियती ? इत्याह – “अंगुल " इत्यादि । अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे यः श्रेणिराशिः तत्र किलासङ्ख्येयानि वर्गमूलान्युत्तिष्ठन्ति अतः प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्न - गुणितम्, तथा च यावन्त्योऽत्र श्रेणयो लब्धा एतावत्प्रमाणश्रेणीनां विष्कम्भमूचिर्भवति, एतावत्यः श्रेणयोऽत्र गृह्यन्त इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति – अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे किलाsसत्कल्पनया पट्पञ्चाशदधिके द्वे शते श्रेणीनां भवतः, तद्यथा - २५६, अत्र प्रथमं वर्गमूलं १६, द्वितीयं ४, चतुर्भिश्च षोडश गुणिता जाता चतुःषष्टिः ६४, एषा चतुःषष्टिरपि सद्भावतोsयाः श्रेणयो मन्तव्याः, एतावत्सङ्ख्य श्रेणीनां विस्तरसूचिरिह प्राया । अथवा 'णं' इति वाक्यालङ्कारे, अयं द्वितीयः प्रकारः प्रस्तुतार्थविषये । तथाहि – “अङ्गुलबिइयवग्गमूलघण” इत्यादि । अङ्गुलप्रमाणप्रतर क्षेत्रवर्तिश्रेणिराशेर्यद् द्वितीयवर्गमूलमनन्तरं चतुष्टयरूपं दर्शितं तस्य यो घनश्चतुःषष्टिलक्षणस्तत्प्रमाणाः श्रेणयोऽत्र गृह्यन्त इति प्ररूपणैव भिद्यतेऽर्थतस्तु स एव । इदमत्र तात्पर्यम् – सप्तरज्जुप्रमाणस्य घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्र क्षेत्रपदेशराशिगतद्वितीयवर्गमूलघनप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा नारकाः, अतस्ते नरेभ्योऽसङ्ख्यातगुणा एव ॥ एतेभ्योऽपि देवा असङ्ख्यातगुणाः । कथम् ? इति चेद् उच्यते — देवा हि भवनपत्यादिभेदेन चतुर्धा, भवनपतयोऽसुरादिभेदेन दशविधाः । तत्राऽसुरकुमारा अपि तावद् घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशिसम्बन्धिप्रथमवर्गमूलासङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां सम्बन्धी यावान् प्रदेशराशिस्तावत्सङ्ख्याकाः, एवं नागकुमारादयोऽपि द्रष्टव्याः । तथा सत्येययोजनप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्धनी कृतस्य लोकस्य मण्डकाकारः प्रतरोऽपह्रियते तावत्प्रमाणा व्यन्तराः । उक्तं च--- संखेज्जजोयणाणं, सूइपएसेहि भाइयं पयरं । वंतरसुरेहिं हीरइ, एवं एक्केकमेएणं || ( पञ्चसं० गा० ४८ ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा. अस्या अक्षरगमनिका-सयेययोजनप्रमाणा 'सूचिः' एकप्रादेशिकी पतिस्तत्प्रदेशैः-सङ्ख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिकपलिप्रदेशैरिति यावत् भक्तं प्रतरं व्यन्तरसुरैरपहियते तावद्भागलब्धराशिप्रमाणा व्यन्तरसुरा इत्यर्थः । इयमत्र भावना-सङ्ख्येययोजनप्रमाणसुचिप्रदेशाः किलाऽसत्कल्पनया दश, प्रतरप्रदेशाश्च लक्षम् , ततो दशभिर्भागे हृते लब्धाः सहस्रा दश एतावन्त इत्यर्थः । 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण प्रतिनिकायं व्यन्तराणां भावना कार्या । न चैवं सर्वसमुदायपरिमाणनियमव्याघातप्रसङ्गः, सूचिप्रमाणहेतुयोजनसङ्ख्येयत्वस्य वैचित्र्यादिति ॥ __तथा षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयानुलप्रमाणैराकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्यथोक्तखरूपं प्रतरमपहियते तावत्प्रमाणा ज्योतिष्का देवाः । उक्तं च छपन्नदोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ, ( पञ्चसं० गा० ४९) इति । अत एवोक्तम्--"वोणमंतरेहितो संखेजगुणा जोइसिय" ति । तथा वैमानिकदेवा घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धितृतीयवर्गमूलघनप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणाः, अतः सकलभवनपत्यादिसमुदायापेक्षया चिन्त्यमाना देवा नारकेभ्योऽसङ्ख्यातगुणा एव । तेभ्योऽपि च देवेभ्यस्तिर्यञ्चोऽनन्तगुणाः, तत्रानन्तसङ्ख्योपेतस्य वनस्पतिकायस्य सद्भावात् । उक्तं च---- ___ एऍसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुम्साणं देवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ! गोयमा ! सबथोवा मणुम्सा, नेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा ॥ (प्रज्ञाप० पत्र ११९-२) तथा थोवा नरा नरेहि य, असंखगुणिया हवंति नेरइया । तत्तो मुरा सुरेहि य, सिद्धाऽणता तओ तिरिया ॥ (जीवस० गा० २७१) इति ॥ ३७॥ उक्तं गतिष्वल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमिन्द्रियद्वारे कायद्वारे तदभिधित्सुराह--- पण चउ ति दु एगिंदी, थोवा तिनि अहिया अणंतगुणा । तस थोव असंखऽग्गी, भूजलनिल अहिय वणणंता ॥ ३८ ॥ पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियादिभ्यः स्तोकाः, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया ‘अधिकाः' विशेषाधिकाः, तेभ्यस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यो द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः । तत्र च यद्यपि घनीकृतस्य लोकस्य १ षट्पञ्चाशदधिकद्विशताङ्गुलसूचिप्रदेशेभक्तः प्रतरः । ज्योतिष्कः हियते ॥ २ व्यन्तरेभ्यः सवेयगुणा ज्योतिष्काः ॥ ३ एतेषां भदन्त ! नैरयिकाणां तिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां देवानां सिद्धानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोका मनुष्याः, नैरयिका मसझयेयगुणाः, देवा असाधेयगुणाः, सिद्धा अनन्तगुणाः, तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः॥ ४ स्तोका नरा नरेभ्यवासायगुणिता भवन्ति नैरयिकाः । ततः सुराः सुरेभ्यश्च सिद्धा अनन्तास्ततस्तिर्यश्चः।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। १७३ ऊर्ध्वाधआयता एकपादेशिक्यः श्रेणयोऽसङ्ख्यातयोजनकोटीकोटीप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रिया अविशेषेण सूत्रे निर्दिष्टाः, तथा चोक्तं तत्र यथोक्तरूपद्वीन्द्रियपरिमाणाभिधानानन्तरम् जह बेइंदियाणं तहा तेइंदियाणं चउरिंदियाण वि भाणियवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि । ( अनुयो० पत्र २०४-१) इति । ____तथापि सूचिपरिमाणहेतुयोजनगतासङ्ग्यातरूपसङ्ख्याया बहुभेदत्वान्न यथोक्तविशेषाधिकत्वाभिधानव्याघातः । अत एव च हेतोस्तिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियादितुल्यतया सूत्रेऽभिहितेष्वपि तत्रापि नरनिरयदेवप्रक्षेपेऽपि पश्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियादिभ्यः स्तोका एव द्रष्टव्याः । यदभ्यधायि पंचिंदिया य थोवा, विवज्जएण वियला विसेसहिया । (जीवस० गा० २७५) द्वीन्द्रियेभ्योऽपि चैकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायजीवराशेरनन्तानन्तत्वात् । यदुक्तमा एसि णं भंते ! एगिदियबेदियतेइंदियचउरिंदियपंचिंदियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्थोवा पंचिंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, एगिदिया अणंतगुणा ।। (प्रज्ञापनापद ३ पत्र १२०-२) __"लस थोव" इत्यादि । 'त्रसाः' द्वीन्द्रियादयः पूर्वनिर्दिष्टसचयास्तेजस्कायिकादिभ्यः स्तोकाः । तेभ्यस्त्रसेभ्योऽसङ्ख्यातगुणाः “अग्गि" त्ति अग्निकायिकाः, तेषां सूक्ष्मबादरभेदभिन्नानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यः “भू" त्ति पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः । तेभ्यः "जल" ति अप्कायिका विशेषाधिकाः । तेभ्यः “अनिल' त्ति वायुकायिका विशेषाधिकाः । यद्यपि च एतेषामपि पृथिवीकायिकादीनामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणतया सूत्रे अविशेषेण निर्देशः कृतः, तथा चोक्तम्-- जहा पुढविकाइयाण एवं आउकाइयाणं पि । (अनु० पत्र २०२-१) इत्यादि। तथापि लोकानामसङ्ख्यातत्वस्याऽनेकभेदभिन्नत्वादिहैवं विशेषाधिकत्वाभिधानेऽपि न कश्चिदोषः । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनायाम___ "ऐएसि णं भंते ! तसकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं १ यथा द्वीन्द्रियाणां तथा श्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणामपि भणितव्यं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि। २ पञ्चेन्द्रियाश्च स्तोका विपर्ययेण विकला विशेषाधिकाः॥ ३ एतेषां भदन्त! एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाणां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा विशेषाधिका वा? गौतम! सर्वस्तोकाः पश्चेन्द्रियाः, चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, श्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः ॥ ४ यथा पृथ्वीकायिकानामेवमप्कायिकानामपि ॥ ५ एतेषां भदन्त! सकायिकानां पृथ्वीकायिकानामप्कायिकानां तेजस्कायिकानां वायुकायिकानां वनस्पतिकायिकानामकायिकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः, तेजस्कायिका असङ्ख्यगुणाः, पृथ्वीकायिका विशेषाधिकाः, अप्कायिका विशेषाधिकाः, वायुकायिका विशेषाधिकाः, अकायिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reg देवेन्द्रसूरिविरचितवोपज्ञदीकोपेल [ गाथा वणस्सइकाइयाणं अकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया या ? गोयमा ! सबत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखिज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अकाइया अनंतगुणा, वणस्सइकाइया अनंतगुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १२२ - २ ) अन्यत्राप्युक्तम् थोवा य तसा तत्तो, ते असंखा तओ विसेसहिया । कमसो भूदगवाऊ, अकायहरिया अणंतगुणा ॥ ( जीवस० गा० २७६ ) “अकाय” त्ति सिद्धाः । तेभ्यो वायुकायिकेभ्यः “वणऽणंत" त्ति वनस्पतिकायिका अन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वाद् वनस्पतिकायिकानामिति ॥ ३८ ॥ सम्प्रति योगेषु वेदेषु अल्पबहुत्वं प्रचिकटयिषुराह - मणवयणकायजोगी, थोवा अस्संखगुण अनंतगुणा । पुरिसा थोवा इत्थी, संवगुणाऽणंतगुण कीवा ॥ ३९ ॥ मनोयोगिनः स्तोकाः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव मनोयोगित्वात् । तेभ्यो वाग्योगिनोऽसङ्ख्यातगुणाः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां वाम्योगिनां मनोयोगिभ्योऽसङ्ख्यातगुणानां तत्र प्रक्षेपात् । वाम्योगिभ्योऽपि काययोगिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामप्यनन्तानां तत्र प्रपादिति । आह च ऐएसि णं भंते! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीण य करे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा : गोयमा ! सवत्थोवा मणजोगी, वइजोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अनंतगुणा, कायजोगी अनंतगुणा, सजोगी विसेसाहिया । ( प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३४ - १ ) तथा ख्यादिभ्यः पुरुषाः स्तोकाः । तेभ्यः स्त्रियः सङ्ख्यातगुणाः । उक्तं च--- तिगुणा तिरूअहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेया । सत्तावीसगुणा पुण, मणुयाणं तदहिया चैव ॥ बत्तीस गुणा बत्तीसरूवअहिया उ तह य देवाणं । देवीओ पन्नत्ता, जिणेहिं जियरागढ़ोसेहिं | ( प्रवच० गा० ८८३ - ८८४ ) स्त्रीभ्यश्च 'क्लीबा:' नपुंसका अनन्तगुणाः, अनन्तगुणता च वनस्पत्यपेक्षया द्रष्टव्या । उक्तं च १] स्तोकाश्च सास्ततस्तेजस्कायिका असङ्ख्यगुणास्ततः विशेषाधिकाः । क्रमशो भूदकवायवोऽकायवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः ॥ २ एतेषां भदन्त ! जीवानां संयोगिनां मनोयोगिनां वाग्योगिनां काययोगिनामयोगिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुत्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वस्वोका मनोयोगिनः, वाग्योगिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, अयोगिनोऽनन्तगुणाः, काययोगिनोऽनन्तगुणाः, सयोगिनो विशेषाधिकाः ॥ ३ त्रिगुणात्रिरूपाधिकास्तिरवां स्त्रियो ज्ञातव्याः । सप्तविंशतिगुणाः पुनर्मनुजानां तदधिका एव ‘सप्तविंशत्यधिका एवंत्यर्थः ' ॥ द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशद्रूपाधिकास्तु तथा च देवेभ्यः । देव्यः प्रशप्ता जिनैर्जितरागदोषः ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९-४०] पडशीतिमामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १७५ एएसि णं भंते ! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेयगाणं नपुंसकवेषगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा पा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्योवा जीवा पुरिसवेयगा, इत्थीवेयगा संखेज्जगुणा, अवेयगा अणंतगुणा, नपुंसगवेगा अणंतगुणा, सवेयगा विसेसाहिया ॥ (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३४-२) माणी कोही माई, लोही अहिय मणनाणिणो थोवा। ओहि असंखा मइसुय, अहिय सम असंख बिब्भंगा ॥४०॥ कषायद्वारे---सर्वस्तोका मानिनः, मानपरिणामकालस्य क्रोधादिपरिणामकालापेक्षया सर्वस्तोकत्वात् । तेभ्यः कोधिनो विशेषाधिकाः, क्रोधपरिणामकालस्य मानपरिणामकालापेक्षया विशेषाधिकत्वात् । तेभ्योऽपि मायिनो विशेषाधिकाः, यद् भूयस्त्वेन जन्तूनां प्रभूतकालं च मायाबहुलत्वात् । ततोऽपि लोभिनो विशेषाधिकाः, सर्वेषामपि प्रायः संसारिजीवानां सदा परिग्रहाद्याकासासद्भावात् । उक्तं च---- एएसिणं भंते ! जीवाणं सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायाकसाईणं लोमकसाईणं अकसाईण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्थोवा जीवा अकसाई, माणकसाई अणंतगुणा, कोहकसाई विसेसाहिया, मायाकसाई विसेसाहिया, लोभकसाई विसेसाहिया, सकसाई विसेसाहिया। (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३५-१) ज्ञानद्वारे-'मनोज्ञानिनः' मनःपर्यायज्ञानिनः शेषज्ञान्यपेक्षया स्तोकाः, तद्धि गर्भजमनुप्याणां तत्रापि संयतानामप्रमत्तानां विविधामर्वोषध्यादिलब्धियुक्तानामुपजायते । उक्तं चतं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमओ । (विशेषा० गा० ८१२) इत्यादि। ते च स्तोका एव, सङ्ख्यातत्वात् । तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणा अवधिज्ञानिनः, सम्यग्दृष्टिदेवादीनामप्यवधिज्ञानभाजां तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वात् । ततोऽवधिज्ञानिभ्यो मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिनो विशेपाधिकाः, अवधिज्ञानरहितसम्यम्दृष्टिनरतिर्यक्प्रक्षेपात् । एतौ च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिनौ संस्थाने चिन्त्यमानौ द्वावपि 'समौ' तुल्यौ, मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः परस्परमनान्तरीयफत्वात् । यदाह भगवान् देवर्धिवाचकः १ एतेषां भदन्त ! जीवानां सवेदकानां स्त्रीवेदकानां पुरुषवेदकानां नपुंसकवेदकानामवेदकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वस्तोका जीवाः पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेदकाः समयेयगुणाः, अवेदका अनन्तगुणाः, नपुंसकवेदका अनन्तगुणाः, सवेदका विशेषाधिकाः॥ २ एतेषां भदन्त ! जीवानां सकषायिणां क्रोधकषायिणां मानकषायिणां मायाकषायिणां लोभकषायिणां अकवाधिणां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहुका था तुल्या या विशेषाधिका का? गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अकवागिणः, मानकषायिणोऽनन्तगुणाः, क्रोधकषायिणो विशेषाधिकाः, मायाकषामिणो विशेषाधिकाः, लोभकषामिणो विशेषाधिकाः, सकषायिणो विशेषाधिकाः ॥ ३ तत्संयतस्य सर्वप्रमादरहितस विविधर्द्धिमतः ॥ ४ सर नान्तरीक० ख० ग०१००॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा.. जेत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं, दो वि एयाई अन्नुन्नमणुगयाई । (नन्दी पत्र १४०-१) इति । तेभ्यश्च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्गज्ञानिनोऽसत्यातगुणाः, मिथ्यादृष्टिसुरादीनां विभाज्ञानवतां तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वादिति ॥ ४० ॥ केवलिणो णंतगुणा, मइसुयअन्नाणि गंतगुण तुल्ला । सुहमा थोवा परिहार संख अहवाय संखगुणा ॥४१॥ तेभ्यश्च विभङ्गज्ञानिभ्यः केवलिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलज्ञानयुक्तत्वात् । तेभ्योऽपि च केवलज्ञानिभ्यो मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टितया मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयुक्तत्वात् । एते चोभयेऽपि मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनः खस्थाने चिन्त्यमानास्तुल्याः, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयोः परस्परमविनाभावित्वात् । उक्तं च ऐएसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं मुयनाणीणं ओहिनाणीणं मणपज्जवनाणीणं केवलनाणीणं मइअन्नाणीणं सुयअन्नाणीणं विभंगनाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखेजगुणा, आमिणिबोहियनाणी सुयनाणी दो वि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगनाणी असंखिजगुणा, केवलनाणी अणंतगुणा, मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३७-१) संयमद्वारे---सर्वस्तोकाः सूक्ष्मसम्परायसंयमिनः, शतपृथक्त्वमात्रसम्भवात् । तेभ्यः परिहारविशुद्धिकाः सङ्ख्यातगुणाः, सहस्रपृथक्त्वसम्भवात् । तेभ्योऽपि यथाख्यातचारित्रिणः सङ्ख्यातगुणाः, कोटिपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वादिति ॥ ४१॥ छेय समईय संखा, देस असंवगुण गंतगुण अजया। थोव असंग्व दु णंता, ओहि नयण केवल अचक्खू ॥४२॥ तेभ्यो यथाख्यातचारित्रिभ्यश्छेदोपस्थापनचारित्रिणः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीशतपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् । तेभ्योऽपि सामायिकसंयमिनः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीसहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् । तेभ्योऽपि देशविरता असङ्ख्यातगुणाः, असङ्ख्यातानां तिरश्चां देशविरतिसम्भवात् । तेभ्योऽनन्तगुणाः 'अयताः' संयमहीना आद्यगुणस्थानकचतुष्टयवर्तिन इत्यर्थः, मिथ्यादृशामनन्तानन्तत्वात् । दर्शनद्वारे यथाक्रममेवं पदघटना-स्तोका अवधिदर्शनिनः, सुरनारकाणां नरतिरश्चां १ यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानम् , यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानम् , द्वे अपि एते अन्योन्यमनुगते ॥ २ एतेषां भदन्त ! जीवानां आभिनिबोधिकज्ञानिनां श्रुतज्ञानिनामवधिशानिनो मनःपर्यवज्ञानिनां केवलज्ञानिना मत्यज्ञानिनां श्रुताज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा नुल्या वा विशेषाधिका वा ! गौतम ! सर्वस्नोका जीवा मनःपर्यवज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनोऽसङ्ख्ययगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो द्वयेऽपि तुल्या विशेषाधिकाः, विभङ्गशानिनोऽसधेयगुणाः, केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च द्वयेऽपि तुल्या अनन्तगुणाः ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१३] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १७७ च केषाश्चिदवधिदर्शनसम्भवात् । तेभ्यश्चक्षुर्दर्शनिनोऽसङ्ख्यातगुणाः चतुरिन्द्रियादीनामपि चक्षुदर्शनिनां तत्र प्रक्षेपात् । तेभ्योऽनन्तगुणाः केवलदर्शनिनः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलदर्शनयुक्तत्वात् । तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अचक्षुर्दर्शनिनः, सर्वसंसारिजीवानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च नियमादचक्षुर्दर्शनोपेतत्वात् । यदाहुः परममुनयः एएसि णं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचक्खुदंसणीणं ओहिदसणीणं केवलदंसणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओहिदंसणी, चक्खुदसणी असंखिजगुणा, केवलदसणी अणन्तगुणा, अचक्खुदंसणी अणंतगुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३७-२) इति । ॥ ४२ ॥ पच्छाणुपुचि लेसा, थोवा दो संख णंत दो अहिया। . अभवियर थोव णंता, सासण थोवोवसम संखा ॥४३॥ लेण्याद्वारे पश्चानुपूर्व्या लेश्या वाच्याः । तद्यथा-शुक्ललेश्या पद्मलेश्या तेजोलेश्या कापोतलेश्या नीललेश्या कृष्णलेश्या । तत्र स्तोकाः शुक्ललेश्यावन्तः, वैमानिकेष्वेव देवेषु लान्तकादिप्वनुत्तरसुरपर्यवसानेषु केषुचिदेव कर्मभूमिजेषु मनुष्यस्त्रीपुंसेषु तिर्यस्त्रीपुंसेषु च केपुचित् सङ्ख्यातवर्षायुष्केषु शुक्ललेश्यासम्भवात् । ततः सङ्ख्यातगुणाः पद्मलेश्यावन्तः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकदेवेषुक्तरूपेषु च मनुष्यतिर्यक्षु पद्मलेश्याभावात् , सनत्कुमारादिदेवानां च लान्तकादिदेवेभ्यः सङ्ग्येयगुणत्वात् । तेभ्योऽपि तेजोलेश्यावन्तः सङ्ख्येयगुणाः, सौधर्मशानादिदेवेषु केषुचिञ्च तिर्यअनुप्येषु तेजोलेश्यासद्भावात् , तेषां च सकलपद्मलेश्यासहिततिर्यगादिप्राणिगणापेक्षया सहयेयगुणत्वात् । ततः कापोतलेश्यावन्तोऽनन्तगुणाः, अनन्तकायिकेष्वपि कापोतलेश्यासद्भावात् । ततोऽपि विशेषाधिका नीललेश्यावन्तः, नारकादीनां तल्लेश्यावतां तत्र प्रक्षेपात् । ततः कृष्णलेश्यावन्तो विशेषाधिकाः, भूयसां तल्लेश्यासद्भावात् । यदभ्यधायि परमगुरुणा एएसि गं भंते ! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिज्जगुणा, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, किण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३५-१) ___ भव्यद्वारे--अभन्याः खोकाः, तेषां वक्ष्यमाणखरूपजघन्ययुक्तानन्तकतुल्यत्वात् । तेभ्यो १ एतेषां भदन्त ! जीवानां चक्षुदर्शनिनामचक्षुर्दर्शनिनामवधिदर्शनिनां केवलदर्शनिना च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा! गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अवधिदर्शनिनः, चक्षुर्दर्शनिनोऽसोयगुणाः, केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, अचक्षुदर्शनिनोऽनन्तगुणाः ॥ २ एतेषां भदन्त! जीवानां सलेश्यानां कृष्णलेश्यानां नीललेश्यानां कापोतलेश्यानां तेजोलेश्याना पालेश्यानां शुक्लेश्यानां अलेश्यानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पाबा बहका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वस्त्रोका जीवाः शकलेश्याः. पालेश्याः सोयगुणाः, तेजोलेश्याः सञ्जयगुणाः, अलेश्या अनन्तगुणाः, कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, नीललेश्या विशेषाधिकाः, कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, सलेश्या विशेषाधिकाः ।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ देवेन्द्रसूरिबिरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया. भव्याः-सिद्धिगमनाहीं अनन्तगुणाः । आह च भगवानार्यश्यामः एएसि णं भंते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं नोभवसिद्धियाणं नोअभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा बा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवयोवा अभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया नोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३९-१) सम्यक्त्वद्वारे-सास्वादनसम्यम्दृष्टयः स्तोकाः, औपशमिकसम्यक्त्वात् केषाश्चिदेव प्रच्यवमानानां साखादनत्वात् । तेभ्यः "उवसम" ति औपशमिकसम्यग्दृष्टयः सङ्ख्यातगुणाः ॥ ४३॥ __ मीसा संखा वेयग, असंखगुण खइय मिच्छ दु अणंता। सनियर थोव णंताणहार थोवेयर असंखा ॥४४॥ तेभ्यश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टिभ्यो मिश्राः असङ्ख्यातगुणाः । तेभ्यः “वेयग" त्ति क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयोऽसळ्यातगुणाः । तेभ्यः क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, क्षायिकसम्यक्त्ववतां सिद्धानामानन्त्यात् । तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिजीवानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति । संज्ञिद्वारे-संज्ञिनो जीवाः स्तोकाः, देवनारकसमनस्कपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नराणामेव संज्ञित्वात् । तेभ्यः 'इतरे' असंज्ञिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् । यदागमे न्यगादि ऎएसि णं भंते ! जीवाणं सन्नीणं असन्नीणं नोसन्नीणं नोअसन्नीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सवत्थोवा जीवा सन्नी, नोसन्नीनोअसन्नी अणंतगुणा, असन्नी अणंतगुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३९-१) __ तथाऽऽहारकद्वारे-अनाहारकाः स्तोकाः, विग्रहगत्यापन्नसमुद्धातकेवलिभवस्थायोगिकेवलिसिद्धानामेवानाहारकत्वात् । यदाह भाष्यसुधाम्भोधिः विमोहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥ तेभ्यः 'इत्तरे' आहारका जीवा असङ्ख्यातगुणाः । यदवाचि वाचंयमप्रवरैः श्रीमदार्यश्यामपादैः एसि णं भंते ! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया १ एतेषां भदन्त ! जीवानां भवसिद्धिकानामभवसिद्धिकानां नोभवसिद्धिकानां नोभभवसिद्धिकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या या विशेषाधिका का? गौतम ! सर्वस्तोका अमवसिसिकाः, नोभवसिद्धिका नोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, भवसिद्धिका अनन्तगुणाः ॥ २°यानो अ° प्रज्ञापनायाम्॥ ३ एतेषां मदन्त ! जीवानां संशिनामसंझिनो नोसशिना नोअसशिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तस्या चा विशेषाधिका वा? गौतम! सर्वस्तीका मीयाः संशिनः, नौसंशिमोगसंशिनोऽमन्तगुणाः, असंशिनोऽनन्तगुणाः ॥ ४ °मीनोषसमीणं प्रकापमायाम् ॥ ५ विग्रहगस्थापनाः केवलिनः समुखता अयोगिनश्च । सिद्धाश्चामाहाराः शेषा आहारका जीषाः ॥ ६ गायेयं भावकाशति-प्रवचनसारोवार श्रीचन्द्रीयसहणीषु वर्तते पर भाष्यकारप्रन्यस्था नोपलब्धा ॥ ॥ एतेषां भदन्त ! जीवानां आहारकाणामनाहारकाणां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका बा तुल्या या विशेषाधिका का? गौतम | सर्वस्तोका जीवा अनाहारकाः, आहारका मनोयगुणाम Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५-४६ ] पीतिनामा: चतुर्थः कर्मन्यः । १७९ वा तुला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थोवा जीवा अणाहारगा, आहारगा असलज्ज - गुणा । (प्रज्ञा० पद ३ पत्र १३८ - १ ) ननु च सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः संसारिजीवाः ते च प्राय आहारकाः तत् कथमसमातगुणा अनाहारकेभ्य आहारकाः ! इति, नैष दोषः, यतः प्रतिसमयमेकैकस्य निगोदस्याऽसय भागप्रमाणाविग्रहगत्यापन्ना जीवा लभ्यन्ते, ते चानाहारकाः, तत आहारकजीवानामनाहारकजीवापेक्षयासात गुणत्वमेवेति ॥ ४४ ॥ चिन्तितं गत्यादिमार्गणास्थानेषु स्वस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वम् । इदानीं गुणस्थानकेषु जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह - सव्वजियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज्ज सन्निदुगं । सम्मे सन्नी दुविहो, सेसेसुं सन्निपज्जन्तो ॥ ४५ ॥ सर्वाणि जीवस्थानानि - चतुर्दशापि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके भवन्ति, मिथ्यात्वस्य सर्वेषु जीवस्थानकेषु सम्भवात् । तथा "सग" त्ति सप्त जीवस्थानानि सासादने भवन्ति । तद्यथा - 'पञ्चापर्याप्ताः' बादरैकेन्द्रियोऽपर्याप्तः १ द्वीन्द्रियोऽपर्याप्तः २ त्रीन्द्रियोऽपर्याप्तः ३ चतुरिन्द्रियो ऽपर्याप्तः ४ असंज्ञिपञ्चेन्द्रियोऽपर्याप्तः ५ 'संज्ञिद्विकम् ' संज्ञी अपर्याप्तः ६ पर्याप्तः ७ । अपर्याप्तकाश्चेह करणापर्याप्तका द्रष्टव्याः, न तु लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेषु मध्ये सास्वादनसम्यक्त्वसहितस्योत्पादाभावात् । "सम्मे सन्नी दुविहो" ति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके संज्ञी 'द्विविधः' अपर्याप्तपर्याप्तरूप द्रष्टव्यः । इहापर्याप्तकः करणापेक्षया ज्ञेयो न तु लब्ध्यपेक्षया, लब्ध्यपर्याप्तमध्येऽविरतसम्यग्दृष्टेरभावात् । 'शेषेषु' मिश्रदेशविरत्यादिगुणस्थानकेषु संज्ञी पर्याप्त इत्येकमेव जीवस्थानकम्, न शेषाणि तेषां मिश्रभावदेशविरत्यादिप्रतिपत्त्यभावात् । न च पूर्वप्रतिपन्नमिश्रभावोऽ न्येषु जीवस्थानकेषु सङ्क्रामन् लभ्यते, "ने सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इति वचनात् ॥ ४५ ॥ तदेवं गुणस्थानकेषु व्याख्यातानि जीवस्थानकानि । सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव योगान् व्याख्या नयनाह मिच्छदुग अजइ जोगाहारदुगूणा अपुव्वपणने उ । मणबहउरलं सविउब्व मीसि सविउब्वदुग देसे ॥ ४६ ॥ मिथ्यादृष्टिद्विकं-मिथ्यादृष्टिसास्वादनलक्षणं तत्र 'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टौ चेत्येवं गुणस्खानत्रये संज्ञी पञ्चेन्द्रियोऽपि लभ्यते, तस्य च यथोक्ता आहारकद्विकेन- आहारक काययोमाहारकमिश्रकाययोगलक्षणेन ऊना:-रहितात्रयोदश योगाः सम्भवन्ति । यत् पुनराहारकद्विकं तत् चतुर्दशपूर्विण एव । यदभ्यधायि आहारदुगं जायह चउदसपुश्चिस्स (पश्चसं० गा० १२ ) इति । न च मिथ्यादृष्टिसासादनायतानां चतुर्दशपूर्वाधिगमसम्भव इति । तथा 'अपूर्वपञ्चके' अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोह लक्षणे नव योगा भवन्ति । तद्यथाचतुर्विधो मनोयोगः ४ चतुर्विधो बाम्योगः ४ औदारिककाययोगः १ इति, न शेषाः, अत्यन्तवियुद्धतया तेषां वैक्रियाहारकद्विकारम्भासम्भवात्, तत्र स्थितानां च स्वभावत एव श्रेष्यारोहाभावात् । १ न सम्यग्मिध्यादृष्टिः कालं करोति ॥ २ भाद्दारकद्विकं जास्ते चतुर्दशपूर्विणः ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपैतः [ गाथा : औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, कार्मणं त्वपान्तरालगतौ । यद्वा उमे अपि केवलिसमुद्धातावस्थायाम्, ततस्ते अप्यत्र गुणस्थानकपञ्चके न सम्भवत इति । तथा त एव पूर्वोक्ता नव योगाः सवैक्रियाः सन्तो दश योगाः 'मिश्र' सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके भवन्ति । तथाहि - चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौदारिकवैक्रियलक्षणा दश योगा मिश्र भवन्ति, न शेषाः । तद्यथा - आहारकद्विकस्याऽसम्भवः पूर्वाधिगमासम्भवादेव, कार्मणशरीरं त्वपान्तरालगतौ सम्भवति, अस्य च मरणासम्भवेनाऽपान्तरालगत्यसम्भवस्ततस्तस्याप्यसम्भवः । अत एवौदारिकवैक्रियमिश्रे अपि न सम्भवतः, तयोरपर्याप्तावस्थाभावित्वात् । १८० ननु मा भूद् देवनारकसम्बन्धि वैक्रियमिश्रम्, यत् पुनर्मनुष्यतिरश्यां सम्यग्मिथ्यादृशां वैकिलब्धिमतां वैक्रियकरणसम्भवेन तदारम्भकाले वैक्रियमिश्रं भवति तत् कस्माद् नाभ्युपगम्यते ? उच्यते----तेषां वैक्रियकरणासम्भवादन्यतो वा यतः कुतश्चित् कारणात् पूर्वाचार्यैर्नाभ्युपगम्यते तन्न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात् एतच्च प्रागेवोक्तमिति । तथा त एव पूर्वोक्ता नव योगाः 'सवैक्रियद्विकाः' वैक्रियवैक्रियमिश्रसहिताः सन्त एकादश 'देशे' देशविरते भवन्ति, अम्बस्येव वैक्रियलब्धिमतो देशविरतस्य वैक्रियारम्भसम्भवादिति ॥ ४६ ॥ साहारदुग पमन्ते, ते विउवाहारमीस विणु इयरे । कम्मुरलदुगंताइममणवयण सजोगि न अजोगी ॥ ४७ ॥ पूर्वोक्ता एवैकादश योगाश्चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौदारिकवैक्रियद्विकलक्षणाः 'साहारकद्विकाः' आहारकाहारकमिश्रसहिताः सन्तस्त्रयोदश योगाः प्रमते भवन्ति । औदारिकमिश्रकार्मणका योगाभावस्तु पूर्वोक्तयुक्तेरेवावसेय इति । त एव पूर्वोक्तास्त्रयोदश योगा वैक्रियमिश्राहारकमिश्रं विना एकादश 'इतरस्मिन्' अप्रमत्तगुणस्थानके भवन्ति । तथाहि-- चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाम्योगौदारिकवैक्रियाहारकलक्षणा एकादश योगा अप्रमत्ते । यत्तु वैक्रियमिश्रमाहारक मिश्रं च तन्न सम्भवति, तद् वैक्रियस्याहारकस्य च प्रारम्भेकाले भवति, तदानीं च लब्ध्युपजीवनादिनौत्सुक्यभावतः प्रमादभावः सम्भवतीति । तथैौदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, कार्मणं त्वपान्तरालगतौ । यद्वा उभे अपि केवलसमुद्घातावस्थायाम्, ततस्ते अप्यत्र गुणस्थानके न सम्भवत इति । तथा कार्मणम् 'औदारिकद्विकम् ' औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणम् अन्त्यादिममनसी - सत्यासत्यामृषरूपौ मनोयोगौ अन्त्यादिमवचने - सत्यासत्यामृषलक्षणौ वाग्योगौ चेति सप्त योगाः सयोगिकेवलिनो भवन्ति, कार्मणौदारिकमिश्रे तु समुद्धातावस्थायामिति । 'न' नैव पञ्चदशयोगमध्यादेकेनापि योगेन युक्तः 'अयोगी' अयोगिकेवली भवति, योगाभावनिबन्धनत्वादयोगित्वावस्थाया इति ॥४७॥ उक्ता गुणस्थानकेषु योगाः । अधुनैतेष्वेवोपयोगानभिधातुकाम आह तिअनाण दुदंसाइमदुगे अजइ देसि नाणदंसतिगं । ते मीसि मीस समणा, जयाह केवलिदुगंतदुगे ॥ ४८ ॥ 'आदिमद्विके' मिथ्यादृष्टिसाखादनलक्षणप्रथमद्वितीयगुणस्थानकद्वय इत्यर्थः । “तिअनाण दुदंस” त्ति त्रयाणामज्ञानानां समाहारख्यज्ञानं-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपं, दर्शनं दर्शो १ 'कमिश्र क० ग० घ० ॥ २ भादिका क० ग० घ० ३० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७-१९] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १८१ द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्श-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनरूपमित्येते पञ्चोपयोगा मिथ्यादृष्टिसासादनयोर्भवन्ति, न शेषाः, सम्यक्त्वविरत्यभावात् । तथा 'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टी 'देशे देशविरते षड्डुपयोगा भवन्ति । तथाहि-"नाणदंसतिगं" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धाद् ज्ञानत्रिक-मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानरूपं दर्शत्रिकं-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनलक्षणमिति, न शेषाः, सर्वविरत्यभावात् । 'ते' पूर्वोक्ता ज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः षड्डुपयोगाः 'मिश्रे' सम्यम्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके 'मिश्राः' अज्ञानसहिता द्रष्टव्याः, तस्योभयदृष्टिपातित्वात् ; केवलं कदाचित् सम्यक्त्वबाहुल्यतो ज्ञानबाहुल्यम् , कदाचिच मिथ्यात्वबाहुल्यतोऽज्ञानबाहुल्यम् , समकक्षतायां तूभयांशसमतेति । अस्मिंश्च गुणस्थानके यद् अवधिदर्शनमुक्तं तत् सैद्धान्तिकमतापेक्षया द्रष्टव्यमित्युक्तं प्राक् । “समणा जयाई" ति "यउपरमे" यमनं यतं-सर्वसावधविरतं तद् विद्यते यस्य स यतः-"अनादिभ्यः” (सि० ७-२-४६) इत्यप्रत्ययः प्रमत्तगुणस्थानकवर्ती साधुः, यत आदिर्येषां गुणस्थानकानां तानि यतादीनि-प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहलक्षणानि सप्त गुणस्थानकानि तेषु पूर्वोक्ता ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकाख्याः षड्डुपयोगाः “समण" त्ति मनःपर्यायज्ञानसहिताः सप्त भवन्तीति, न शेषाः, मिथ्यात्वघातिकर्मक्षयाभावात् । 'केवलद्विकं' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणोपयोगद्वयरूपम् 'अन्तद्विके' सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणचरमगुणस्थानकद्वये भवति, न शेषा दश ज्ञानदर्शनलक्षणाः, तदुच्छेदेनैव केवलज्ञानकेवलदर्शनोत्पत्तेः, "नेटुम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आ०नि० गा० ५३९) इति वचनात् ॥ १८॥ तदेवमभिहिता गुणस्थानकेषूपयोगाः । साम्प्रतं यदिह प्रकरणे सूत्राभिमतमपि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायानुसरणतो नाधिकृतं तदर्शयन्नाह सासणभावे नाणं, विउव्वगाहारगे उरलमिस्सं। नेगिदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं पि ॥४९॥ 'सासादनभावे' साखादनसम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञानं भवति नाज्ञानमिति 'श्रुतमतमपि सिद्धान्तसम्मतमपि, तथाहि बेइंदिया णं भंते! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुनाणी, आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी । जे अन्नाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-महअन्नाणी सुयअन्नाणी । (भ० श०८ उ०२ पत्र ३४३-२) इत्यादिसूत्रे द्वीन्द्रियादीनां ज्ञानित्वमभिहितं तच्च साखादनापेक्षयैव, न शेषसम्यक्त्वापेक्षया, असम्भवात् । उक्तं च प्रज्ञापनाटीकायाम् "बेइंदियस्स दो नाणा कहं लब्भंति ? भण्णइ-सासायणं पडच तस्सापजत्तवस्स दो नाणा लभति ( ) इति । - १° कस्याचित् सम्य° क० ग०प०॥ २ नष्टे तु छापस्थिके शाने ॥ ३ द्वीन्द्रिया भदन्त ! किं शानिनोऽशानिनः ? गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि । ये ज्ञानिनस्ते नियमादिज्ञानिनः, आमिनिबोषिकक्षानिनः श्रुतशानिनः । येऽशानिनस्तेऽपि नियमाद् यशानिनः, तद्यथा-मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः॥ ४ द्वीन्द्रियस्य द्वे ज्ञाने कथं लभ्येते ? भन्यते-साखादनं प्रतीत्य तस्यापर्याप्तकस्य द्वे जाने लभ्येते॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः [ याबा ततः सासादनभावेऽपि ज्ञानं सूत्रसम्मतमेव । तचेत्थं सूत्रसम्मतमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतम्, किनवज्ञानमेव, कर्मग्रन्थाभिप्रायस्यानुसरणात् । तदभिप्रायश्वायम्-साखादनस्य मिथ्यात्वाभिमुखतया तत्सम्यक्त्वस्य मलीमसत्वेन तन्निबन्धनस्य ज्ञानस्यापि मलीमसत्वादज्ञानरूपतेति । तथा सूत्रे वैकिये आहारके चारभ्यमाणे तेन प्रारभ्यमाणेन सहौदारिकस्यापि मिश्रीभवनादू औदारिकमिश्रमुक्तमिति । तथा चाह प्रज्ञापनाटीकाकारः यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वा पर्याप्तवादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकशरीरयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीस्योम्यान् पुद्गलानादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तिं न गच्छति तावद् वैक्रियेण मिश्रता, व्यपदेशश्च औदारिकस्य प्रधानत्वात् ( पद १६ पत्र ३१९ - १ ) । / एवमाहारकेणापि सह मिश्रता द्रष्टव्या, आहारयति चैतेनैवेति तस्यैव व्यपदेश इति । परित्यागकाले वैक्रियस्याहारकस्य च यथाक्रमं वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनाटीकायाम् [यदा] आहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वाददारिकपदेशं प्रति व्यापाराभावान्न परित्यजति यावत् सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण मिश्रति आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग इति । तच्चैवं वैक्रियाहारकारम्भकाले औदारिकमिश्रं सूत्रेऽभिहितमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतं कार्मग्रन्थिकैः, गुणविशेषप्रत्ययसमुत्थलब्धिविशेषकारणतया प्रारम्भकाले परित्यागकाले च वैक्रियस्याहारकस्य च प्राधान्यविवक्षणेन वैक्रियमिश्रस्याऽऽहारकमिश्रस्य चैवाभिधानात् तदभिप्रायस्य चेहानुसरणात् । तथा नैकेन्द्रियेषु “सासाणो” ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः, सासादनभावः सूत्रे मतः, अन्यथा द्वीन्द्रियादीनामिवै केन्द्रियाणामपि ज्ञानित्वमुच्येत, न चोच्यते, किं तु विशेषतः प्रतिषिध्यते । तथाहि " ऐगिदिया णं भंते! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी ( भ० श० ८ उ० २ पत्र ३४५-२ ) इति । स चेत्थं सासादनभावप्रतिषेधः सूत्रे मतोऽपि केनचित् कारणेन कार्मग्रन्धिकैर्नाभ्युपगम्यत इतीहापि प्रकरणे नाधिक्रियते, तदभिप्रायस्यैवेह प्रायोऽनुसरणादिति । "नेहाहिगयं सुयमयं पि" इत्येतद् विभक्तिपरिणामेन प्रतिपदं सम्बन्धनीयम्, तथैव सम्बन्धितमिति ॥ ४९ ॥ अधुना गुणस्थानकेष्वेव लेश्या अभिधित्सुराह - छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुका अजोगि अल्लेसा । बंधस्स मिच्छविरइकसायजोग ति बउ हेऊ ॥ ५० ॥ 'षट्सु' मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतदेशविरतप्रमत्तलक्षणेषु गुणस्थानकेषु 'सर्वा:' षडपि कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्कलेश्या भवन्ति । "तेउतिगं इगि" ति 'एकस्मिन् ' अप्रमत्तगुणस्थानके 'तेजस्त्रिकं ' तेजः पद्मशुक्कलेश्यात्रयं भवति न पुनराद्यं लेश्यात्रयमित्यर्थालब्धम् । 'षट्सु' १ एकेन्द्रिया भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः १ गौतम ! जो ज्ञानिनो नियमादज्ञानिनः ॥ " Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-५२] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्यः । १८५ अपूर्वकरणानिवृत्तिवावरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु शुक्ललेश्या भवति न शेषाः पञ्च । 'अयोगिनः' अयोगिकेवलिनः 'अलेश्याः' अपगतलेश्याः। इह लेश्यानां प्रत्येकमसोयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि अध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायखानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्याहमादौ, कृष्णलेश्यादीनामपि प्रमतगुणस्थानकेऽपि सम्मबो न विरुध्यत इति ॥ तदेवमुक्ता गुणस्थानकेषु लेश्याः । सम्प्रति बन्धहेतवो वक्तुमवसरप्राप्ताः, ते च मूलमेदतश्चस्वार उत्तरमेदतश्च सप्तपञ्चाशत् , तानुभयथाऽपि प्रचिकटयिषुराह-"बंधस्स मिच्छ” इत्यादि, 'बन्धस्य ज्ञानावरणादिकर्मबन्धस्य मूलहेतवश्चत्वारः 'इति' अमुना प्रकारेण भवन्ति । केन प्रकारेण ? इत्याह-'मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः' तत्र मिथ्यात्वं-विपरीतावबोधखभावम् , अविरतिः-सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावः, कषाययोगाः-आमिरूपितशब्दार्थाः । नन्वन्यत्र प्रमादोऽपि बन्धहेतुरभिधीयते, यदवादि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः । (तत्त्वा० अ० ८ सू०१) इति स कथमिह नोक्तः ? उच्यते-मद्यविषयरूपस्य तस्याविरतावेवान्तर्भावो विवक्षितः । कषायाश्च पृथगेवोक्ताः, वैक्रियारम्भादिसम्भवी तु योगग्रहणेनैव गृहीत इत्यदोष इति ॥५०॥ उक्ताश्चत्वारो मूलहेतवः । इदानीमुत्तरमेदान् प्रचिकटयिषुः प्रथमं मिथ्यात्वस्याविरतेश्चोतरभेदानाह-~ अभिगहियमणभिगहियाऽभिनिवेसिय संसइयमणाभोगं । पण मिच्छ बार अविरइ, मणकरणानियम छजियवहो ॥५१॥ अभिप्रहेण-इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यद् इत्येवंरूपेण कुदर्शनविषयेण निवृत्तमाभिग्रहिकम् , यद्वशाद् बोटिकादिकुदर्शनानामन्यतमं गृह्णाति । तद्विपरीतमनाभिग्रहिकम् , यदशात् सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्येवमीषन्माध्यस्थ्यमुपजायते । 'आभिनिवेशिकं' यद् अभिनिवेशेन निवृत्तम् , यथा गोष्ठमाहिलादीनाम् । 'सांशयिक' यत् संशयेन नितम् , यद्वशाद् भगवदर्हदुपदिष्टेष्वपि जीवाजीचादितत्त्वेषु संशय उपजायते, यथा-न जाने किमिदं भगवदुक्तं धर्मास्तिकायादि सत्यम् । उतान्यथा? इति । 'अनाभोग' यद अनाभोगेन निवृत्तम्, तचैकेन्द्रियादीनामिति । "पण मिच्छ” ति पश्चप्रकारं मिथ्यात्वं भवतीति । द्वादशमकाराऽविरतिः, कथम् ? इल्याह-मनःसान्तं, करणानि इन्द्रियाणि पञ्च तेषां खखविषये प्रवर्तमानानामनियमः-अनियत्रणम् , तथा पण्णा-पृषिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाणां जीवानां वधः-हिंसेति ॥५१॥ . अमिहिता मिथ्यावाविरत्युत्तरबन्धहेतवः। सम्प्रति कमाययोगोतरबन्धहेतूनाह भव सोल कसाया पनर जोग इय उत्तरा उ सगवना । इगचउपणतिषणेसुं, चउतिदुइगपचओ पंधो ॥ ५ ॥ .. सीवेदपुरुषवेदनपुंसकोदहास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साल्पा नव नोकषायाः, ते च कषायसहचरितत्वाद् उपचारेणेह कषाया इत्युक्ताः । षोडश कमायाः अनन्तानुबन्धिक्रोधादयः । नोकवाअकालरूपं व सविस्तर खोपकर्मविपाकटीका निलमितमिति नत एवावधारणीयम् । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ देवेन्द्रसूरिविरचितस्योपज्ञटीकोपेतः [ गाथा. 'पञ्चदश योगा' अत्रैव व्याख्यातखरूपाः । 'इति' अमुना प्रदर्शितप्रकारेण पञ्चद्वादशपञ्चविंशतिपञ्चदशलक्षणेन सप्तपञ्चाशत् पुनरुत्तरमेदा बन्धस्य भवन्तीति ॥ 1 प्रदर्शिता बन्धस्य मूलहेतवश्चत्वार उत्तरे सप्तपञ्चाशत्सङ्ख्याः । अधुना बन्धस्य मूलहेतून गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह “इगचउपणतिगुणेसुं" इत्यादि । इहैवं पदघटना 'एकस्मिन' मिथ्यादृष्टिलक्षणे गुणस्थानके चत्वारः - मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययाः – हेतवो यस्य स चतुःप्रत्ययो बन्धो भवति । अयमर्थः — मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्भिः प्रत्ययैर्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकवर्ती जन्तुर्ज्ञानावरणादिकर्म बध्नाति । तथा 'चतुर्षु' गुणस्थानकेषु साखादनमिश्राविरतदेश विरतलक्षणेषु त्रयः - मिथ्यात्वविवर्जिता अविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्यया यस्य स त्रिप्रत्ययो बन्धो भवतीति । अयमर्थः—साखादनादयश्चत्वारो मिथ्यात्वोदयाभावात् तद्वजैस्त्रिभिः प्रत्ययैः कर्म बनन्ति । देशविरतगुणस्थानके यद्यपि देशतः स्थूलप्राणातिपातविषया विरतिरस्ति तथापि साऽल्पत्वाद् नेह विवक्षिता, विरतिशब्देन इह सर्वविरतेरेव विवक्षितत्वादिति । तथा 'पञ्चसु' गुणस्थानकेषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायलक्षणेषु द्वौ प्रत्ययौ - कषाययोगा यस्य स द्विप्रत्ययो बन्धो भवति । इदमुक्तं भवति - मिथ्यात्वा विरतिप्रत्ययद्वयस्य एतेवभावात् शेषेण कषाययोगप्रत्ययद्वयेनाऽमी प्रमत्तादयः कर्म बघ्नन्तीति । तथा 'त्रिषु' उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु एक एव मिथ्यात्वाविरतिकषायाभावाद् योगलक्षणः प्रत्ययो यस्य स एकप्रत्ययो भवति । अयोगिकेवली भगवान् सर्वथाऽप्यबन्धक इति ॥ ५२ ॥ भाविता मूलबन्धहेतवो गुणस्थानकेषु । सम्प्रत्येतानेव मूलबन्धहेतून् विनेयवर्गानुग्रहार्थमुत्तरप्रकृतीराश्रित्य चिन्तयन्नाह - 1 Gratcong उमिच्छमिच्छअविरइपञ्चइया सायसोलपणतीसा । जोग विणु तिपञ्चयाऽऽहारगजिणवज्ज सेसाओ ॥ ५३ ॥ प्रत्ययशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् चतुः प्रत्ययिका सातलक्षणा प्रकृतिः । मिध्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः । मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयः । योगं विना 'त्रिप्रत्ययिका : ' मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रत्ययिका आहारकद्विकजिनवर्जा: शेषाः प्रकृतय इति गाथाक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम् —–सातलक्षणा प्रकृतिश्चत्वारः प्रत्यया मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा यस्याः सा चतुःप्रत्ययिका, “अतोऽनेकखराद्” (सि० ७-२-६ ) इतीकप्रत्ययः, मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्भिरपि प्रत्ययैः सातं बध्यत इत्यर्थः । तथाहि —सातं मिथ्यादृष्टौ बध्यत इति मिथ्यात्वप्रत्ययम्, शेषा अप्यविरत्यादयस्त्रयः प्रत्ययाः सन्ति, केवलं मिथ्यात्वस्य एवेह प्राधान्येन विवक्षितत्वात् ते तदन्तर्गतत्वेनैव विवक्षिताः, एवमुत्तरत्रापि । तदेव मिथ्यात्वाभावेऽप्यविरतिमत्सु साखा - दनादिषु बध्यत इत्यविरतिप्रत्ययम् । तदेव कषाययोगवत्सु प्रमत्तादिषु सूक्ष्मसम्परायावसानेषु बध्यत इति कषायप्रत्ययम्, योगप्रत्ययस्तु पूर्ववत् तदन्तर्गतो विवक्ष्यते । तदेवोपशान्तादिषु केवलयोगवत्सु मिथ्यात्वाविरतिकषायाभावेऽपि बध्यत इति योगप्रत्ययमिति । एवं सातलक्षणा प्रकृतिश्चतुः प्रत्ययिका । तथा मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः । इह यासां कर्मस्तवे"नरयतिग ३ जाइ ४ थावरच ४ हुंडा १ऽऽयन १ छिबट्ट १ नपु १ मिच्छं १ । ओोतो" Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-५५ ] esशीर्तिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १८५ ( गा० ४ ) इति गाथावयवेन नारकत्रिकादिषोडशप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावन्त उतरता मिथ्यात्व - प्रत्ययाः भवन्तीत्यर्थः । तद्भावे बध्यन्ते तदभावे तूतरत्र साखादनादिषु न बध्यन्त इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मिथ्यात्वमेवासां प्रधानं कारणम्, शेषप्रत्ययत्रयं तु गौणमिति । तथा मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिकाः पश्चत्रिंशत् प्रकृतयः, तथाहि - "सासणि तिरि ३ थीण ३ दुहग ३ तिगं ॥ अण ४ मज्झागि ४ संघयणचउ ४ नि १ उज्जोय १ कुखगइ १ त्थि १ त्ति ।” ( कर्मस्त० गा० ४ - ५ ) इति सूत्रावयवेन तिर्यत्रिकप्रभृतिपञ्चविंशतिप्रकृतीनां साखादने बन्धव्यवच्छेद उक्तः, तथा - " बहर १ नरतिय ३ बियकसाया ४ । उरलदुगंतो २” (कर्मस्त० गा० ६ ) इति सूत्रावयवेन वज्रर्षभनाराचादीनां दशानां प्रकृतीनां देशविरते बन्धव्यवच्छेद उक्तः, एवं च पञ्चविंशतेर्दशानां च मीलने पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयो मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिका एताः, शेषप्रत्ययद्वयं तु गौणम्, तद्भावेऽप्युत्तरत्र तद्बन्धाभावादिति भावः । भणितशेषा आहारकद्विकतीर्थ करनामवजः सर्वा अपि प्रकृतयो योगवर्जत्रिप्रत्ययिका भवन्ति, मिथ्यादृष्ट्यविरतेषु सकायेषु च सर्वेषु सूक्ष्मसम्परायावसानेषु यथासम्भवं बध्यन्त इति मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणप्रत्ययत्रयनिबन्धना भवन्तीत्यर्थः । उपशान्तमोहादिषु केवलयोगवत्सु योगसद्भावेऽप्येतासां बन्धो नास्तीति योगप्रत्ययवजनम्, अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात् कार्यकारणभावस्येति हृदयम् । आहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणाहारकद्विकतीर्थकरनाम्नोस्तु प्रत्ययः “सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं । " ( बृहच्छत० गा० ४५ ) इति वचनात् संयमः सम्यक्त्वं चाभिहित इतीह तद्वर्जनमिति ॥ ५३ ॥ उक्त प्रासङ्गिकम् । इदानीमुत्तरबन्धभेदान् गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह पणपन्न पन्न तियछहिय चत्त गुणवत्त छचउदुगवीसा । सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न उ अजोगिनि ॥ ५४ ॥ मिथ्यादृष्टौ पञ्चपञ्चाशद् बन्धहेतवः १ । सासादने पञ्चाशद् बन्धहेतवः २ । चत्तशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्र्यधिकचत्वारिंशदित्यर्थः, बन्धहेतवो मिश्रगुणस्थानके ३ । षडधिकचत्वारिंशद् बन्धहेतवोऽविरतिगुणस्थानके ४ । एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवो देशविरतगुणस्थानके ५ । विंशतिशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् षड्विंशतिर्बन्धहेतवः प्रमत्तगुणस्थाने ६ । चतुर्विंशतिर्बन्धहेतवोsप्रमत्तगुणस्थानके ७ । द्वाविंशतिर्बन्धहेतवोऽपूर्वकरणे ८ । षोडश बन्धहेतवोऽनिवृत्तिबादरे ९ । दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसम्पराये १० । नव बन्धहेतव उपशान्तमोहे ११ । नव बन्धहेतवः क्षीणमोहे १२ । सप्त बन्धहेतवः सयोगिकेवलिगुणस्थाने १३ । 'न तु' नैवायोगिन्ये कोऽपि बन्धहेतुरस्ति, बन्धाभावादेवेति ॥ ५४ ॥ अथामूनेव बन्धहेतुन् भावयन्नाह पणपन्न मिच्छि हारगवुगूण सासाणि पन्न मिच्छ विणा । मिस्सगकम्मअण विणु तिचत्त मीसे अह छचन्ता ॥ ५५ ॥ मिथ्यादृष्टौ आहारकाहारकमिश्रलक्षणद्विकोनाः पञ्चपञ्चाशद् बन्धहेतवो भवन्ति, आहारकद्विकवर्जनं तु "संयमवतां तदुदयो नान्यस्य" इति वचनात् । साखादने मिथ्यात्वपञ्चकेन बिना पञ्चाशद् बन्धहेतवो भवन्ति, पूर्वोक्तायाः पञ्चपञ्चाशतो मिथ्यात्वपञ्चकेऽपनीते पञ्चाशद् बन्धहे १ सम्यक्स्वगुणनिमित्तं तीर्थकर संयमेनाहारकम् ॥ क० २४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपझटीकोपेतः [गायो तवः सासादने द्रष्टव्याः । मिश्रे त्रिचत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति, कथम् ! इत्याह-'मिश्रद्विकम्' औदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणं "कम्म" ति कार्मणशरीरं "अण" ति अनन्तानुबधिनस्तैर्विना । इयमत्र भावना--"न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इति वचनात् सम्यग्मिथ्यादृष्टेः परलोकगमनाभावाद् औदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रद्विकं कार्मणं च न सम्भवति, अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चास्य निषिद्धत्वाद् अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं च नास्ति, अत एतेषु सप्तमु पूर्वोक्तायाः पञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशद् बन्धहेतवो मिश्रे भवन्ति । 'अथ' अनन्तरं षट्चत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति ॥ ५५ ॥ सदुमिस्सकम्म अजए, अविरहकम्मुरलमीसविकसाए । मुत्तु गुणचत्त देसे, छवीस साहारदु पमत्तं ॥५६॥ क? इत्याह ...--'अयते' अविरते, कथम् ? इत्याह-"सदुमिस्सकम्म" ति द्वयोर्मिश्रयोः समाहारो द्विमिश्रम् , द्विमिश्रं च कार्मणं च द्विमिश्रकार्मणम् , सह द्विमिश्रकार्मणेन वर्तते या त्रिचत्वारिंशत् । इयमत्र भावना-अविरतसम्यग्दृष्टेः परलोकगमनसम्भवात् पूर्वापनीतमौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणं द्विकं कार्मणं च पूर्वोक्तायां त्रिचत्वारिंशति पुनः प्रक्षिप्यते ततोऽविरते षट्चत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति । तथा 'देशे' देशविरते एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति, कथम् ? इत्याह-अविरतिः-त्रसासंयमरूपा कार्मणम् औदारिकमिश्रं द्वितीयकषायान्-अप्रत्याख्यानावरणान् मुक्त्वा शेषा एकोनचत्वारिंशदिति । अत्रायमाशयः --विग्रहगतावपर्याप्तकावस्थायां च देशविरतेरभावात् कार्मणौदारिकमिश्रद्वयं न सम्भवति, सासंयमाद् विरतत्वात् त्रसाविरतिर्न जाघटीति ।। ननु सासंयमात् सङ्कल्पजाद् एवासी विरतो न वारम्भजादपि तत् कथमसी त्रसाविरतिः सर्वाऽप्यपनीयते ?, सत्यम् , किन्तु गृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सत्यप्यारम्भजा साविरतिर्न विवक्षितेत्यदोषः । एतच्च बृहच्छतकहचूर्णिमनुसृत्य लिखितमिति न स्वमनीषिका परिभावनीया। तथाऽप्रत्याख्यानावरणोदयस्याऽस्य निषिद्धत्वाद् इत्यप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं न घटां प्राञ्चति । तत एते सप्त पूर्वोक्तायाः षट्चत्वारिंशतोऽपनीयन्ते तत एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवः शेषा देशविरते भवन्ति । तथा घड़िशतिर्बन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्ति । "साहारदु" ति सह आहारद्विकेनआहारकाहारकमिश्रलक्षणेन वर्तत इति साहारकद्विका ॥ ५६ ॥ अविरइ इगार तिकसायवन अपमत्ति मीसदुगरहिया। चउवीस अपुग्वे पुण, दुवीस अविउवियाहारा ॥५७॥ त्रसाविरतेर्देशविरतेऽपनयनात् शेषा एकादशाविरतय इह गृह्यन्ते, तृतीयाः कषायास्त्रिकषायाः-प्रत्याख्यानावरणास्तद्वर्जाः-तद्विरहिता साहारकद्विका च सैव एकोनचत्वारिंशत् षड्रिंशतिर्भवति । इदमत्र हृदयम्-~-प्रमत्तगुणस्थान एकादशधा अविरतिः प्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं च न सम्भवति, आहारकद्विकं च सम्भवति, ततः पूर्वोक्ताया एकोनचत्वारिंशतः पञ्चदशकेऽपनीते द्विके च तत्र प्रक्षिप्ते षड्विंशतिर्बन्धहेतवः प्रमते भवन्तीति । तथा अप्रमत्तस्य लब्ध्यनुपजीवनेनाऽऽहारकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणमिश्रद्विकरहिता सैव षडिंशतिश्चतुर्विंशतिधहेतबोअमवे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६-५९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मप्रन्थः । १८५ भवन्ति । 'अपूर्वे' अपूर्वकरणे पुनः सैव चतुर्विंशतिक्रियाहारकरहिता द्वाविंशतिबन्धहेतवो भवन्तीति ॥ ५७ ॥ अछहास सोल वायरि, सुहुमे दस वेयसंजलणति विणा । वीणुवसंति अलोमा, सजोगि पुवुत्त सग जोगा ॥५८॥ एते च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिर्बन्धहेतवः 'अछहासाः' हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सालक्षणहास्यषट्करहिताः षोडश बन्धहेतवः “बायरि" त्ति अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानके भवन्ति, हास्यादिषट्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वादिति भावः । तथा त एव षोडश त्रिकशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धाद् वेदत्रिक-स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणं सवलनत्रिक-सञ्जवलनक्रोधमानमायारूपं तेन विना दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसम्पराये भवन्ति, वेदत्रयस्य सज्वलनक्रोधमानमायात्रिकस्य चानिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वात् । त एव दश 'अलोभाः' लोभरहिताः सन्तो नव बन्धहेतवः क्षीणमोहे उपशान्तमोहे च भवन्ति, मनोयोगचतुष्कवाग्योगचतुष्कौदारिककाययोगलक्षणा नव बन्धहेतव उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च प्राप्यन्ते, न तु लोभः, तस्य सूक्ष्मसम्पराय एव व्यवच्छिन्नत्वात् । सयोगिकेवलिनि पूर्वोक्ताः सप्त योगाः, तथाहि-औदारिकमौदारिकमिश्रं कार्मणं प्रथमान्तिमौ मनोयोगी प्रथमान्तिमौ वाग्योगौ चेति । तत्रौदारिकं सयोग्यवस्थायाम् औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगी समुद्धातावस्थायामेव वेदितव्यौ।। मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ (प्रशम० का० २७६) कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च । (प्रशम० का० २७७) इति । प्रथमान्तिममनोयोगी भगवतोऽनुत्तरमुरादिभिर्मनसा पृष्टस्य मनसैव देशनात् , प्रथमान्तिमवा. ग्योगी तु देशनादिकाले । अयोगिकेवलिनि न कश्चिद् बन्धहेतुः, योगस्यापि व्यवच्छिन्नत्वात् ॥ ५८ ॥ उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः । सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव बन्धं निरूपयमाह अपमत्तंता सत्तट्ट मीसअप्पुवधायरा सत्त। बंधइ छ स्सुहुमो पगमुवरिमाऽबंधगाऽजोगी ॥५९॥ मिथ्यादृष्टिप्रभृतयोऽप्रमत्तान्ताः सप्ताष्टौ वा कर्माणि बध्नन्ति, आयुर्बन्धकालेऽष्टौ शेषकालं तु सप्त । “मीसअप्पुबबायरा” इति मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिबादराः सप्तैव बन्नन्ति, तेषामायुर्वन्धाभावात् । तत्र मिश्रस्य तथाखाभान्याद् इतरयोः पुनरतिविशुद्धत्वाद् आयुर्वन्धस्य च घोलनापरिणामनिबन्धनत्वात् । “छ स्मुहुमु" ति सूक्ष्मसम्परायो मोहनीयायुर्वर्जानि षट् कर्माणि बध्नाति, मोहनीयबन्धस्य बादरकषायोदयनिमित्तत्वात् , तस्य च तदभावात् , आयुर्वन्धाभावस्त्वतिविशुद्धस्वादवसेयः । “एगमुवरिम" ति 'एक' सातदेवनीयं कर्म 'उपरितनाः' सूक्ष्मसम्परायाद् उपरिष्टाद्वर्तिन उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनो बन्नन्ति, न शेषकर्माणि, तहन्धहेतुत्वामावात् । 'अवन्धकः' सर्वकर्मप्रपञ्चबन्धरहितः 'अयोगी' चरमगुणस्थानकवर्ती, सर्वबन्धहेतुत्वाभावादिति ॥ ५९ ॥ उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धस्थानयोजना । साम्प्रतं गुणस्थानकेण्वेवोदयसत्ताखानयोजनां निरूपयसाह१सयोग्यवस्थाक०स०प०प०१०॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ [गाथा देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः आसुहुमं संतुदए, अहवि मोह विणु सत्त स्वीणम्मि। चउ चरिमदुगे अह उ, संते उवसंति सचदए ॥ ६०॥ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकमभिव्याप्य सत्तायामुदये चाष्टावपि कर्मप्रकृतयो भवन्ति । अयमर्थः----मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्य सूक्ष्मसम्परायं यावत् सत्तायामुदये चाष्टावपि कर्माणि प्राप्यन्ते । मोहं विना' मोहनीयं वर्जयित्वा सप्त कर्मप्रकृतयो भवन्ति 'क्षीणे' क्षीणमोहगुणस्थानके, सत्तायामुदये च मोहनीयस्य क्षीणत्वात् । “चउ चरिमदुगे" ति 'चरमद्विके' सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानद्वये सत्तायामुदये च चतस्रोऽघातिकर्मप्रकृतयो भवन्ति, तत्र धातिकर्मचतुष्टयस्य क्षीणत्वात् । “अट्ठ उ संते उवसंति सत्तुदए" ति तुशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धाद् उपशान्तमोहगुणस्थानके पुनरष्टावपि कर्मप्रकृतयः सत्तायां प्राप्यन्ते, सप्तोदये मोहनीयोदयाभावादिति भावः ॥ ६०॥ उक्ता सत्तोदयस्थानयोजना । साम्प्रतमुदीरणास्थानानि गुणस्थानकेषु निरूपयिषुराह उइरंति पमत्तंता, सगह मीसह वेयआउ विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो ॥ ६१ ॥ मिश्यादृष्टिप्रभृतयः प्रमत्तान्ता यावद् अद्याप्यनुभूयमानभवायुरावलिकाशेषं न भवति तावत् सर्वेऽप्यमी निरन्तरमष्टावपि कर्माण्युदीरयन्ति । आवलिकावशेषे पुनरनुभूयमाने भवायुषि सप्तव, आवलिकावशेषस्य कर्मण उदीरणाया अभावात , तथास्वाभान्यात् । “मीस?" ति सम्यग्मिथ्यादृष्टिः पुनरष्टावेव कर्माण्युदीरयति, न तु कदाचनापि सप्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके वर्तमानस्य सत आयुष आवलिकावशेषत्वाभावात् । स ह्यन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्क एव तद्भावं परित्यज्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा नियमात् प्रतिपद्यत इति । 'अप्रमत्तादयस्त्रयः' अप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरलक्षणा 'वेद्यायुर्विना' वेदनीयायुपी अन्तरेण षट् कर्माणि उदीरयन्ति, तेषामतिविशुद्धतया वेदनीयायुषोरुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् । “छ पंच सुहुमो" त्ति [ 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मसम्परायः षट् पञ्च वा कर्माण्युदीरयति । तत्र षड् अनन्तरोक्तानि, तानि च तावद उदीरयति यावद् मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति । आवलिकावशेषे च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात् शेषाणि पश्च कर्माण्युदीरयति । “पणुवसंतु" ति उपशान्तमोहः पश्च कर्माण्युदीरयति न वेदनीयायुर्मोहनीयकर्माणि, तत्र वेदनीयायुषोः कारणं प्रागेवोक्तम् , मोहनीयं तूदयाभावाद नोदीर्यते, "वेद्यमानमेवोदीर्यते" इति वचनादिति ॥ ६१॥ पण दो ग्वीण दु जोगी णुदीरगु अजोगि थेव उवसंता। ___ संखगुण खीण सुहुमा, नियहिअप्पुव्व सम अहिया ॥ १२ ॥ . क्षीणमोहोऽनन्तरोक्तानि पञ्च कर्माण्युदीरयति । तानि च तावद् उदीरयति यावद् ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाण्यावलिकापविष्टानि न भवन्ति, आवलिकापविष्टेषु तु तेषु तेषामप्युदीरणाया अभावात् । द्वे एव नामगोत्रलक्षणे कर्मणी उदीरयति । “दु जोगि' ति 'दे' कर्मणी नामगोत्राख्ये योगा नाम-मनोवाक्कायरूपा विद्यन्ते यस्य स योगी-सयोगिकेवली उदीरयति, न शेषाणि । घातिकर्मचतुष्टयं तु मूलत एव क्षीणमिति न तस्योदीरणासम्भवः, वेदनीयायुपो Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०-६४] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । १८९ स्तूदीरणा पूर्वोक्तकारणादेव न भवति । "णुदीरगु अजोगि" त्ति अयोगिकेवली न कस्यापि कर्मण उदीरकः, योगसव्यपेक्षत्वाद् उदीरणायाः, तस्य च योगाभावादिति ॥ उक्ता गुणस्थानकेषूदीरणास्थानयोजना । सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव वर्तमानानां जन्तूनामल्पस्वबहुत्वमाह - " थेव उवसंत" त्ति स्तोकाः 'उपशान्ताः' उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनो जीवाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका उत्कर्षतोऽपि चतुःपञ्चाशत्प्रमाणा एव प्राप्यन्त इति । तेभ्यः सकाशात् क्षीणमोहाः समयेयगुणाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका एकस्मिन् समयेऽष्टोत्तरशतप्रमाणा अपि लभ्यन्ते । एतचोत्कृष्टपदापेक्षयोक्तम् अन्यथा कदाचिद् विपर्ययोऽपि द्रष्टव्यः -- स्तोकाः क्षीणमोहाः, बहवस्तु तेभ्य उपशान्तमोहाः । तथा तेभ्यः क्षीणमोहेभ्यः सकाशात् सूक्ष्मसम्परायानिवृत्तिबादरापूर्वकरणा विशेषाधिकाः । स्वस्थाने पुनरेते चिन्त्यमानास्त्रयोऽपि 'समाः ' तुल्या इति ॥ ६२ ॥ जोगि अपमत्त इयरे, संखगुणा देससासणामीसा । अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे णंता ॥ ६३ ॥ तेभ्यः सूक्ष्मादिभ्यः सयोगिकेवलिनः सङ्ख्यातगुणाः, तेषां कोटीपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् । तेभ्योऽप्रमत्ताः सङ्ख्यगुणाः, कोटीसहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् । तेभ्यः “इयरे" ति अप्रमत्त प्रतियोगिनः प्रमत्ताः सहधेयगुणाः । प्रमादभावो हि बहूनां बहुकालं च लभ्यते विपर्ययेण स्वप्रमाद इति न यथोक्तसयाव्याघातः । " देस" इत्यादि देशविरतसाखादनमिश्राविरतलक्षणाश्चत्वारो यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः । अयोगिमिय्यादृष्टिलक्षणौ च द्वौ यथोत्तरमनन्तगुणैौ । तत्र प्रमत्तेभ्यो देशविरता असङ्ख्येयगुणाः, तिरश्चामप्यसङ्ख्यातानां देशविरतिभावात् । साखादनास्तु कदाचित् सर्वथैव न भवन्ति, यदा भवन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु देशविरतेभ्योऽप्ययगुणाः । तेभ्योऽपि मिश्रा असश्येयगुणाः, साखादनाद्धाया उत्कर्षतोऽपि षडावलिकामात्रतया स्तोकत्वात्, मिश्राद्धायाः पुनरन्तर्मुहूर्तप्रमाणतया प्रभूतत्वात् । तेभ्योऽप्यसङ्ख्येगुणा अविरतसम्यग्दृष्टयः, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि प्रभृततया सर्वकालसम्भवात् । तेभ्योऽप्ययोगिकेवलिनो भवस्थाभवस्थभेदभिन्ना अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्योऽप्यनन्तगुणा मिथ्यादृष्टयः, साधारणवनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति ॥ ६३ ॥ तदेवमभिहितं गुणस्थानवर्तिनां जीवानामल्पबहुत्वम् । इदानीं “नमिय जिणं जियमग्गण" ( गा० १ ) इत्यादि द्वारगाथासूचितं भावद्वारं व्याचिख्यासुराहउवसमग्वयमीसोदयपरिणामा दु नव ठार इगवीसा । तियभेय सन्निवाहय सम्मं चरणं पढम भावे ॥ ६४ ॥ इह किल षड् भावा भवन्ति । विशिष्टहेतुभिः खतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनानि भवन्त्येभिरुपशमादिभिः पर्यायैरिति वा भावाः । किंनामानः पुनस्ते : इत्याह-- " उवसमखयमीसोदय" इत्यादि । अत्र सूचकत्वात् सूत्रस्यैवं प्रयोगः, " उवसम" त्ति औपशमिको भावः, "ख" चि क्षायिको भावः, "मीस" त्ति क्षायोपशमिको भावः, "उदय" त्ति औदयिको भावः, "परिणाम" ति पारिणामिको भावः । तत्रोपशमनमुपशमः - विपाकप्रदेशरूपतया द्विवियस्य विष्कम्भणं स एव तेन वा निर्वृत्त औपशमिकः । क्षयः - कर्मणोऽत्यन्तोच्छेदः Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० देवेन्द्रसूरिविरचितस्त्रोपज्ञटीकोपेतः [ गाय स एव तेन वा निर्वृतः क्षायिकः । क्षयश्च समुदीर्णस्याभावः उपशमश्ध-अनुदीर्णस्य विष्कम्भ तोदयत्वं ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः । उदयः - शुभाशुभप्रकृतीनां विपाकतोऽनुभवनं स एव तेन वा निर्वृत्त औदयिकः । परि-समन्ताद् नमनं - जीवानामजीवानां च जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रीभवनं परिणामः स एव तेन वा निर्वृत्तः पारिणामिकः । एतेषामेव यथासङ्घयं भेदानाह - "दु नव ठार इगवीसा तिय भेय" त्ति द्वौ भेदावोपशमिकस्य १ नव भेदाः क्षायिकस्य २ अष्टादश भेदाः क्षायोपशमिकस्य ३ एकविंशतिर्भेदा औदयिकस्य ४ त्रयो भेदाः पारिणामिकस्य ५ । “संनिवाइय" ति सम् - इति संहतरूपतया नि-इति नियतं पतनं-गमनमेकत्र वर्तनं सन्निपातः कोऽर्थः ? एषामेव व्यादिसंयोगप्रकारस्तेन निर्वृतः सान्निपातिकः, अयं च षष्ठो भावः ६ । अथ "यथोद्देशं निर्देशः " इति न्यायात् औपशमिकादिभावानां व्यादीन् भेदान् प्रचिकटयिषुराह - " सम्मं चरणं पढम भावे" ति इह यथासङ्घयं दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयकर्मोपशमभूतं सम्यक्त्वं चरणं च 'प्रथमे' आद्ये 'भावे' औपशमिकलक्षणे भवतीति शेषः । इति निरूपितौ द्वौ भेदावौपशमिकभावस्य ॥ ६४ ॥ बीए केवलजुयलं, सम्मं दाणाइलद्धि पण चरणं । तइए सेसुवओगा, पण लद्वी सम्म विरइदुगं ॥ ६५ ॥ 'द्वितीये' क्षायिके भावे नव भेदा भवन्ति । तथाहि - 'केवलयुगलं' केवलज्ञानं केवलदर्शनम् । तत्र केवलज्ञानावरणक्षयभूतत्वेन क्षायिकं केवलज्ञानं ९ केवलदर्शनावरणक्षयसम्भूतं क्षायिकं केवलदर्शनं २ दर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थं क्षायिकं सम्यक्त्वं ३ 'दानादिलब्धयः पञ्च' दानलाभभोगोपभोगवीर्यलक्षणा दानादिरूपपञ्चप्रकारान्तरायक्षयोद्भूताः क्षायिक्यः ८ चारित्रमोहनीयक्षयसम्भूतं च क्षायिकं चरणं यथाख्यातसंज्ञितमित्यर्थः ९ । तथा 'तृतीये' क्षायोपशमिकभावेऽष्टादश भेदा भवन्ति । तद्यथा--' ---'शेषोपयोगाः' केवलज्ञानकेवलदर्शनव्यतिरिक्ता मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनः पर्यवज्ञानरूपज्ञान चतुष्टयमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपाज्ञानत्रि कचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनलक्षणदर्शनत्रिकस्वरूपा दशोपयोगाः १० " पण लद्धि" ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् दानलाभभोगोपभोगवीर्यलक्षणा लब्धयः पञ्च ५ " सम्म" त्ति सम्यक्त्वं १ 'विरतिद्विकं' देशविरतिसर्वविरतिलक्षणम् २ इत्येतेऽष्टादश मेदाः क्षायोपशमिके भवन्ति । तत्र चत्वारि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमसम्भूतत्वेन त्रीणि दर्शनानि दर्शनावरणक्षयोपशमोद्भूतत्वेन, दानादिपञ्चब्धयः पञ्चविधान्तरायकर्मक्षयोपशमजन्यत्वेन क्षायोपशमिकभावान्तर्वर्तिन्य इति । ननु दानादिलब्धयः पूर्वं क्षायिकभाववर्तिन्य उक्ताः, इह तु क्षायोपशमिक्य इति कथं न विरोध: ? नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात् । इह दानादिब्धयो द्विविधा भवन्ति - अन्तराय - कर्मणः क्षयसम्भविन्यः क्षयोपशमसम्भविन्यश्च । तत्र च याः क्षायिक्यः पूर्वमुक्तास्ताः क्षयसम्भूतत्वेन केवलिन एव, याः पुनरिह क्षायोपशमिकान्तर्गता उच्यन्ते ताः क्षयोपशमसम्भूताछअस्थानामेव । सम्यक्त्वसर्वविरती अपि क्षायोपशमिके अत्र ग्राझे, ते च यथासानं दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयक्षयोपशमोद्भवत्वेन प्रस्तुतभाव एव वर्तते इति भावः । देशविरतिरप्यम Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५-६६) पडशतिनामा चतुर्थः कर्मबन्धः। १९१ त्याल्यानावरणक्षयोपशमजस्वेन क्षायोपशमिकमाये वर्तत एवेति ॥ ६५ ॥ . अनाणमसिद्धत्तासंजमलेसाकसायगइवेया। .. . मिच्छं तुरिए भव्यामव्वत्तजियत्तपरिणामे ॥६६॥ अज्ञानम् १ असिद्धत्वम् २ असंयमः ३ लेश्याः-कृष्णनीलकापोततेजःपप्रशुक्ललेश्याभेदात षट् ९ कषायाः-क्रोधमानमायालोमाख्याश्चत्वारः १३ गतिः-नरकतिर्यब्यनुष्यसुरगतिभेदाचतुर्धा १७ बेदाः-स्त्रीपुंनपुंसकाल्यास्त्रयः २० मिथ्यात्वम् २१ इत्येते एकविंशतिभेदाः 'तुर्ये चतुर्थे औदयिके मावे भवन्तीत्यक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम्-इहासदध्यवसायात्मकं सज्ज्ञानमप्यज्ञानं तश्च मिथ्यात्वोदयजमेव । यदभ्यधायि जह दुवयणमवयणं, कुच्छिय सीलं असीलमसईए।। भन्नइ तह नाणं पि हु, मिच्छद्दिट्टिस्स अन्नाणं ॥ (विशेषा० गा० ५२०) असिद्धत्वमपि सिद्धत्वाभावरूपमष्टप्रकारकर्मोदयजमेव । असंयमः-अविरतत्वं तदप्यप्रत्याल्यानावरणोदयाद् जायते । लेश्यास्तु येषां मते कषायनिष्यन्दो लेश्याः तन्मतेन कषायमोहनीयोदयजत्वाद् औदयिक्यः, यन्मतेन तु योगपरिणामो लेश्याः तदभिप्रायेण योगत्रयजनककर्मोदयप्रभवाः, येषां त्वष्टकर्मपरिणामो लेश्यास्तन्मतेन संसारित्वासिद्धत्ववद् अष्टप्रकारकर्मोदयजा इति । कषायाः-क्रोधमानमायालोभरूपा मोहनीयकर्मोदयादेव भवन्ति । इह गतयःगतिनामकर्मोदयादेव नारकत्वतिर्यक्त्वमनुजत्वदेवत्वलक्षणपर्याया जायन्त इति । वेदाः-स्त्रीपुंनपुंसकाख्या नोकषायमोहनीयोदयादेव जायमानाः स्पष्टमौदयिका एवेति । मिथ्यात्वमपि अतत्वश्रद्धानरूपं मिथ्यात्वमोहनीयोदयजमेव इत्यौदयिकं प्रतीतमिति ।। ननु निद्रापञ्चकसातादिवेदनीयहास्यरत्यरतिप्रभृतयः प्रभूततरभावा अन्येऽपि कर्मोदयजन्याः सन्ति तत् किमित्येतावन्त एवैते निर्दिष्टाः ?, सत्यम् , उपलक्षणत्वादन्येऽपि द्रष्टव्याः, केवलं पूर्वशास्त्रेषु प्राय एतावन्त एव निर्दिष्टा दृश्यन्त इत्यत्राप्येतावन्त एवास्माभिः प्रदर्शिताः । तथा भन्यत्वम् १ अभव्यत्वं २ जीवत्वम् ३ इत्येते त्रयो भेदाः पारिणामिके भावे भवन्ति । तदेवं द्विमेद औपशमिको भावः २ नवभेदः क्षायिकः ९ अष्टादशभेदः क्षायोपशमिकः १८ एकविंशतिमेद औदयिकः २१ त्रिभेदः पारिणामिकः ३ । सर्वेऽपि भावपञ्चकमेदास्त्रिपञ्चाशदिति ॥६६॥ प्ररूपितं सप्रमेदं भावपञ्चकम् । अधुना सान्निपातिकात्यषष्ठभावमेदप्ररूपणायोपक्रम्यतेतत्र च यद्यप्यौपशमिकादिभावानां पञ्चानामपि द्विकादिसंयोगभङ्गाः षडिशतिर्मवन्ति, तद्यथा औपशमिक १ क्षायिक २ क्षायोपशमिक ३ औदयिक ४ पारिणामिक ५ इति भावपञ्चक पट्टकादावालिख्यते ततो दश द्विकसंयोगा अक्षसंचारणया लभ्यन्ते, दशैव त्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोग इति । तथापि षडेव संयोगा जीवेष्वविरुद्धाः सम्भवन्ति । शेषास्तु विंशतिः संयोगभगाः प्ररूपणामात्रभावित्वेनाऽसम्भविन एव, अतः सम्भविषड्भेदद्वारेण गत्यायामिता यावन्तः सान्निपातिकमावभेदाः सम्भवन्ति यावन्तश्च न सम्भवन्ति तदेतत् प्रकटयमाह १ यथा दुर्वचनमवचनं कुत्सितं शीलमशीलमसत्याः । भण्यते तथा ज्ञानमपि खलु मिथ्यादृष्टेरशानम् ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः चउगई मीसगपरिणामुदएहिँ चउ सखइएहिं । उवसमजुएहिँ वा चउ, केवलि परिणामुदयखइए ॥ ६७ ॥ चत्वारो भङ्गाश्चतसृषु गतिषु चिन्त्यमानासु भवन्ति । कैः कृत्वा ? इत्याह- मिश्रकपारिणामिकौदयिकैर्भावैर्व्यावर्णितस्वभावैः । इयमत्र भावना - गतिचतुष्टयद्वारेण चिन्त्यमानः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षण एकोऽप्ययं त्रिकसंयोगरूपः सान्निपातिको भावश्चतुर्घा भवति । तथाहि — क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वादि, औदयिकी नरकगतिः इत्येको नरकगत्याश्रितस्त्रिकसंयोगः । एवं तिर्यमनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गका अन्येऽपि वाच्या इति । एवं चतुर्विधां गतिं प्रतीत्य त्रिकसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः । सम्प्रति चतुःसंयोगेन चतुरो भेदानाह - " चउ सखइएहिं" ति चत्वारो भेदा भवन्ति । कैः ? इत्याह-सह क्षायिकेण वर्तन्ते ये क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षणा भावास्ते सक्षायिकास्तैः सक्षायिकैः । अयमर्थः -- गतिचतुष्टयद्वारेण चिन्त्यमानः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकक्षायिकलक्षण एकोsप्ययं चतुष्कसंयोगरूपः सान्निपातिको भावश्चतुर्धा भवति । तद्यथा - क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वादि, औदयिकी नरकगतिः, क्षायिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितश्चतुकसंयोगः । एवं तिर्यमनुप्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गका अन्येऽपि वाच्या इति । एवं चतुविधां गतिं प्रतीत्यैकप्रकारेण चतुष्कसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः । अधुना प्रकारान्तरेण चतुष्कसंयोग एव चतुरो भेदानाह - " उवसमजुएहिं वा चउ" ति वाशब्दोऽथवाशब्दार्थः, अथवा क्षायिकभावाभावे औपशमिकेन प्रदर्शितस्वरूपेण भावेन युतैः कलितैः पूर्वोक्तैः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिंकैरेव निप्पन्नस्य सान्निपातिकभावस्य गतिचतुष्कं प्रतीत्य ' चत्वारः ' चतुः सा भेदा भवन्तीति शेषः । तद्यथा- - क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम्, औafrat नरकगतिः, औपशमिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितश्चतुष्कसंयोगः । एवं तिर्यमनुप्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गा अन्येऽपि वाच्याः । तदेवमभिहिता गतिचतुष्टयमाश्रित्यैकेन त्रिसंयोगेन द्वाभ्यां चतुष्कसंयोगाभ्यां द्वादश विकल्पाः । सम्प्रति शुद्धसंयोगत्रयस्वरूपं शेषभेदत्रयं निरूपयिषुराह - "केवलि परिणामुदयखइए" त्ति 'केवली' केवलज्ञानी पारिणामिकौदयिक क्षायिके सान्निपातिकभेदे त्रिकसंयोगरूपे वर्तते, यतस्तस्य पारिणामिकं जीवत्वादि औदयिकी मनुजगतिः क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्रादीनि । तदेवमेकस्त्रिकसंयोगः केवल सम्भवतीति ॥ ६७ ॥ १९२ [गाया स्वयपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेटीए । इय पनर सन्निवाइयया वीसं असंभविणो ॥ ६८ ॥ 'सिद्धाः' निर्दग्धसकलकर्मेन्धनाः क्षायिकपारिणामिके सान्निपातिकमेदे द्विक्संयोगरूपे वर्तन्ते । तथाहि-- सिद्धानां क्षायिकं ज्ञानदर्शनादि, पारिणामिकं जीवत्वमिति द्विक्संयोगो भवति । 'नराणां' मनुष्याणां पञ्चकसंयोगः सान्निपातिकमेद उपशमश्रेण्यामेव प्राप्यते, यतो या क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्मनुष्य उपशमश्रेण प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं चारित्रं क्षायिकं सम्भवत्वं क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि यदयिकी मनुजगतिः पारिणामिकं जीवत्वं भव्यत्वं चेति । 'इति' Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७-६९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममन्थः । १९३ यमुना पूर्वदर्शितप्रकारेण गत्यादिषु संयोगबटुक चिन्तनलक्षणेन परस्परविरोधाभावेन सम्मविनः पञ्चदश सान्निपातिकमेदाः षष्ठभावविकल्पाः प्ररूपिता इति शेषः । "वीस असंगविणो" ति विंशतिसमाः संयोगा असम्भविनः, प्ररूपणामात्रभावित्वेन न जीवेषु तेषां सम्भवोऽस्तीति । ननु षडिशतिमेदाः प्राक् प्रदर्शिताः, इह तु पञ्चदशानां विंशतेश्व मीलने पञ्चत्रिंशत्या मेदाः प्राप्नुवन्तीति कथं न विरोधः ?, अत्रोच्यते ननु विस्मरणशीलो देवानांप्रियः, यतोऽनन्तरमेवोदितं गत्यादिद्वारेणैव ते चिन्त्यमानाः पञ्चदश भवन्ति, मौला व्यादिसंयोगास्तु षडेव । तथाहि —एको द्विक्संयोगः, द्वौ द्वौ त्रिकचतुष्कसंयोगो, एकः पञ्चकसंयोग इति षण्णां विंशत्या मीलने षड्विंशतिसङ्ख्यैवोपजायत इति नात्र कश्चन विरोध इति ॥ ६८ ॥ अभिहिताः सप्रभेदा जीवानामौपशमिकादयो भावाः । साम्प्रतमेतानेव कर्मविषये चिन्तयन्नाह - मोहेव समो मीसो, वउघाहस अट्ठकम्मसु य सेसा । धम्मा पारिणामियभावे खंधा उदइए वि ॥ ६९ ॥ 'मोहे एव' षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदाद्, यथा वृक्षे शाखा वृक्षस्य शाखा, मोहनीयस्यैव कर्मणः 'शमः' उपशमोऽनुदयावस्था भस्मच्छन्नाभेरिव न तु समस्तानां कर्मणाम् । “मीसो चउधाइसु" ति 'मिश्रः क्षयोपशमः, तत्र क्षयः - उदयावस्थस्यात्यन्ताभावस्तेन सहोपशमः - अनुदयावस्था दरविध्यातवह्निवत् क्षयोपशमः, 'चतुर्षु' चतुः समयेषु 'घातिषु' ज्ञानादिगुणघातकेषु कर्मखित्युत्तरोक्तमत्रापि सम्बन्धनीयम्, ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायलक्षणानां षातिकर्मणामेव क्षयोपशमो भवति न त्वघातिकर्मणामिति । 'अष्टकर्मसु ' ज्ञानावरणाद्यन्तरायावसानेषु 'चः' पुनरर्थे अष्टकर्मसु पुनः 'शेषा:' औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावा भवन्ति । तत्रोदयः - विपाकानुभवनम्, क्षय:- अत्यन्ताभावः, परिणामः - तेन तेन रूपेण परिणमनमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् मोहनीय कर्मणः पञ्चापि भावाः प्राप्यन्ते । मोहनीयवर्जितज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायलक्षणानां त्रयाणांघातिकर्मणामुदयक्षयक्षयोपशमपरिणामस्वभावाश्चत्वार एव भावा भवन्ति न पुनरुपशमः । शेषाणां वेदनीयायुर्नामगोत्रस्वरूपाणां चतुर्णामप्यघातिकर्मणामुदयक्षयपरिणामलक्षणास्त्रय एव भावा भवन्ति, न तु क्षयोपशमोपशमाविति । प्रतिपादिता जीवेषु तदाश्रितकर्मसु च पञ्चापि भावाः । अधुना तान् अजीवेषु बिभणिषुराह – “धम्माइ” इत्यादि । इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् धर्मास्तिकायः १ अधर्मास्तिकायः २ आकाशास्तिकायः ३ पुद्गलास्तिकायः ४ कालद्रव्यं ५ चेति परिग्रहः । तत्र धारयति - गतिपरिणतजीवपुद्गलान् तत्स्वभावतायामवस्थापयतीति धर्मः, अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां चीयत इति काय:- सङ्घातोऽस्तिकायः, ततो धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः । तथा न धारयतिगतिपरिणतानपि जीवपुद्गलान् तत्स्वभावतायां नावस्थापयति स्थित्युपष्टम्भकत्वात् तस्येत्यधर्मः शेषं प्राग्वत् । आ-समन्तात् काशते - अवगाहदानतया प्रतिभासत इत्याकाशः, शेषं प्राग्वत् । पूरणगलनघर्माण: पुद्गलाः, पृषोदरादित्वाद् इष्टरूपसिद्धिः, शेषं पूर्ववत् । तथा "कलण समाने " कलनं कालः, कल्यते वा - परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति काल:, कलानां वा समयादिरूपाणां समूहः कालः । आह सामूहिके प्रत्वये नपुंसकलिङ्गेन भवितव्यम्, यथा कापोतं मायूरं चेति, [तन, ] क० २५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ देवेन्द्रसूरिविरचितस्वोपज्ञटीकोपेतः [ गावा याहु: श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः उच्यते रूढिवशाद् लिङ्गस्य न नियमः । यदाह पाणिनि:लिङ्गमशिष्यम्, लोकाश्रयत्वात् तस्येति । ततः काल एव तत्तद्रूपद्रवणाद् द्रव्यं कालद्रव्यम्, तत्र च कालस्य वस्तुतः समयरूपस्य निर्विभागत्वाद् न देशप्रदेशसम्भवः, अत एवात्रास्तिकायत्वाभावो वेदितव्यः । नन्वतीतानागतवर्तमानमेदेन कालस्यापि त्रैविध्यमस्तीति किमिति नोक्तम् ?, सत्यम्, अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनाऽविद्यमानत्वाद् वार्तमानिक एव समयरूपः सद्रूपः । यद्येवं तर्हि पूर्वसमयनिरोधेनैवोत्तरसमयसद्भावेऽसङ्ख्यातानां समयानां समुदयसमित्याद्यसम्भवादावलिकादयः शास्त्रान्तरप्रतिपादिताः कालविशेषाः कथं सङ्गच्छन्ते ?, सत्यम्, तत्त्वतो न सङ्गच्छन्त एव, केवलं व्यवहारार्थमेव कल्पिता इति । ar asat आवलिकादयः कालविशेषाः ? इति विनेयजनपृच्छायां तदनुग्रहाय समयावारभ्य erofeशेषाः प्रतिपाद्यन्ते । तत्र समयखरूपमेवमनुयोगद्वारे प्रतिपाद्यते, तद्यथा---- 'से किं तं समए ? समयस्त णं परूवणं करिस्सामि-से जहानामए नागवारए सिया सरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरम्गहत्थे दढपाणिपायपासपिद्वंतरोरुपरिणए तलजमलजुगलपरिघनिभबाहू चम्मिट्ठगतुहणमुट्ठियसमायनिचियगायकाप लेषणपवणनवण वायामसमत्थे उस्स लस मनाए छेए दबखे पट्टे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवमए एगं महई पडसाडिय वा पट्टसाडियं वा गहाय समराहं हत्थमित्तं ओसारिज्जा, तत्थ चोयए पनai एवं क्यासी-जेनं काले तेणं तुनागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा सयराहे हत्यमिते १ अथ कोऽसौ समयः १ समयस्य प्ररूपणां करिष्यामि - असो मधानामकः सुहागदारकः स्वात् तरुणः बलवान् युगवान् युवा अल्पातङ्कः स्थिरहस्तायो दृढपाणिपादपार्श्वष्ष्ठा प्रोरुपरिणतः सलय मल्युगल परिवनिमबाहुः चर्मेष्टकाgaणमुष्टिकसमाहतनिश्चितगात्रका यो लङ्घनप्लवनजवनव्या बामसमर्थ उरस्कमलसमन्वागतः छैको दक्षः प्राप्तार्थः कुशलो मेधावी निपुणो निपुणशिल्पोपगत एकां महतीं पटशाटिक वा पट्टाटिकां वा गृहीत्वा शीघ्र हस्तमात्रमपसारयेत्, तत्र चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत्येन कालेन तेन तुज्ञागदारकेण तस्याः पाटिकाया या शाटिकाया वा शीघ्रं हस्तमात्रं अपसारितं स समयो भवति ? नायमर्थः समर्थः, कस्मात् ? यस्मात् सङ्ख्यानां तन्तूनां समुदय समितिसमागमेन पढशाटिका निष्पद्यते, उपरितने तन्तामच्छि आवस्त्यस्तन्तुर्न च्छिद्यते, अन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुः छिद्यते अन्यस्मिन् काले आधस्त्यः तन्तुरिछयते, तस्मादसी समयो न भवति । एवं वदन्तं प्रज्ञापक चोदक एवमवादीत्येन कालेन तेन तुनागदारकेण तस्याः पटाटिकाया वा पहशाटिकाया वा उपरितनस्तन्तुरिचमः स समयः १ न भवति, कस्मात् ? यस्मात् सोयानां पक्मणां समुदयसमितिसमागमेनैकतन्तुर्निष्पद्यते, उपरितने पक्ष्मण्य आव पक्ष्म न च्छिद्यते, अन्यस्मिन् काले उपरितनं पक्ष्म च्छिद्यतेऽन्यस्मिन् काले आवस्त्यं पक्ष्म छिद्यते, तस्मात् स समयो न भवति । एवं वदन्तं प्रज्ञापकं चोदक एवमवादीत्येन कालेन तेन तुहागदारकेण तस्य तन्तोरुपरितनं पक्ष्म चिच्छस समय: ? न भवति, कस्मात् ? यस्मादनन्तानां सङ्गातानां समुदयसमितिसमागमेन एक पक्ष्म निष्पद्यते, उपरितने सातेऽविसङ्गतिते यधस्त्वः सङ्घातो न बिसात्यते, अन्यस्मिन् काल उपरितनः सतो वात्ययेऽन्यस्मिन् काले आवस्यः सङ्घाती बिसात्यते तस्मात् स समयो न भवति । अतोऽपि सूक्ष्मतर: समयः हः श्रमणायुष्मन् ! | अमेयानां समयानां समुदसमितिसमावमेन कालित प्रोच्य Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] पडसातिकमा बतुर्वः कर्ममा १५ मोसारिए से समए मवह । नो इण समडे, कहा। जहा संलिजाणे संपूर्ण समुदवसमितिसमागमेणं' पडसाडिया निष्फजह, उबरिलयम्मि संतुम्मि अच्छिले हिहिले तंतू न किज्जा, भनम्मि काले उवरिल्ले तंतू छिज्जद अमम्मि काले हिडिल्ले तंतू छिजइ, तम्हा से समए न भवइ । एवं क्यंत पन्नवगं चोयए एवं बयासी-जेणं कालेणं तेणं तुझागदारएणं तीसे पड. साडियाए वा पहसाडियाए वा उबरिल्ले संतू छिने से समएँ ? न भवह, कम्हा ! जम्हा संलि. जाणं पम्हाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे संतू निष्फजा, उवरिल्ले पम्हम्मि अच्छिन्ने हिहिले पम्हे न छिजा, अचम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जइ अन्मम्मि काले हिडिल्ले पम्हे छिज्जह, तम्हा से समए न भवइ । एवं वयंत पन्नवगं चोयए एवं पयासी-जेणं कालेणं तेणं तुम्नागदारएणं तस्स तंतुस्स उवरिल्ले पम्हे छिन्ने से समएँ ? न भवइ, कम्हा ? जम्हा अणंताणं संघायाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे पम्हे निष्फजइ, उवरिल्ले संघाए अविसंघाइए हिडिल्ले संघाए न विसंघाइज्जइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ अन्नम्मि काले हिडिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ, तम्हा से समए न भवइ । इत्तो वि णं सुहुमतराए समए पन्नते समणाउसो! १ (पत्र १७५-२) ॥ असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिय ति पयुषइ २ (पत्र १७८-२)॥ सोया आवलिका आनः, एक उच्छास इत्यर्थः ३ । ता एव सोया निःश्वासः । द्वयोरपि कालः प्राणुः ५ । सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः ६ । सप्तभिः स्तोकैलवः ७ । सप्तसप्तत्या सवानां मुहूर्तः ८ । त्रिंशता महतैरहोरात्रः ९ । तैः पञ्चदशभिः पक्षः १० । ताभ्यां द्वाभ्यां मासः ११ । मासद्वयेन ऋतुः १२ । ऋतुनयमानमयनम् १३ । अयनद्वयेन संवत्सरः १४ । पचभिस्तैर्युगम् १५ । विंशत्या युगैर्वर्षशतम् १६ । तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् १७ । तेषां शतेन वर्षलक्षम् १८ । चतुरक्षीत्या च वर्षकक्षैः पूर्वानं भवति १९ । पूर्वाङ्ग चतुरशीतिवर्षलक्षैर्गुणितं पूर्व भवति २०, तर सप्ततिः कोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशच कोटिसहस्राणि वर्षाणाम् । उक्तं च--- धस्स य परिमाणं, समरि खल होति कोडिलक्खाओ। छप्पन्नं च सहस्सा, बोधवा वासकोडीणं ॥ (जीवस० गा० १११) : स्थापना-७०५६०००००००००० । इदमपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं श्रुटिताङ्गं भवति . २१ । एतदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं त्रुटितम् २२ । एतदपि चतुरशीतिलौर्गुणितमटटाङ्गम् २३ । एतदपि चतुरशीत्या लौगुणितमटटम् २४ । एवं सर्वत्र पूर्वः पूर्वो राशिश्चतुरशीतिकावरूपेण गुणकारेण गुणित उत्तरोतरराशिरूपता प्रतिपयत इति प्रतिपत्तव्यम् । ततश्च अवचाकं २५ अव २६ हुइका २७ हुइकं २८ उत्पला २९ उत्पलं ३० पमाऊं ३१ पत्रं ३२ . नलिनाझं ३३ नलिनं ३४ अर्थनिपूराझं ३५ अर्थनिपूरं ३६ अयुतार ३७ अयुतं ३८ नपुसाझ ३९ नयुतं ४० प्रयुता ११ प्रयुतं १२ चूलिकाझं ४३ चूलिका ४४ शीर्षप्रहेलिका १५, एवमेते राशयश्चतुरशीतिलक्षाखरूपेण गुणकारेण यथोत्तरं वृद्धा द्रष्टव्यावावद् यावदिदमेव . १ एगा प° अनुयोगद्वारे ॥ २-३ °ए भवइ ? न भ° अनुयोगद्वारे ॥ ४ पूर्वस्य च परिमाणे सततिः खलु भवति कोटिलक्षाणाम् । षट्पञ्चाशन सहला ज्ञातव्या वर्षकोटीनाम् ।। . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રક્ત देवेन्द्रसूरिविरचितवोपज्ञटीकोपेतः [ गाय शीर्षप्रहेलिका चतुरशीतिलक्षैर्गुणितं शीर्षप्रहेलिका भवति ४६ । अस्याः स्वरूपमङ्कतोऽपि दर्श्यते - ७५८२६३२५३०७३०१०२४१९५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ अग्रे चत्वारिंशं शून्यशतम् । तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्नवत्यधिकशतसङ्गमान्यङ्कस्थानानि भवन्ति । एतस्माच्च परतोऽपि सपेयः कालोऽस्ति, स स्वनतिशयिनामसंव्यवहार्यत्वात् सर्षपोपमयाऽत्रैव वक्ष्यते । पल्योपमसागरोपमपुद्गलपरावर्तादिकालखरूपं पुनः स्वोपज्ञशतकटीकायां सविस्तरमभिहितं तत एवावधारणीयम् । ततो धर्मास्तिकाय १ अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय ३ पुद्गलास्तिकाय ४ काल ५द्रव्याणि 'पारिणामिके' तेन तेन रूपेण परिणमनस्वभावे पर्यायविशेषे वर्तन्त इति शेषः । तथाहि — धर्माधर्माकाशास्तिकायानामनादिकालादारभ्य जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थित्युपष्टम्भाaaraदा परिणामेन परिणतत्वादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वम् । कालरूपसमयस्याप्यपरापरस-मयोत्पत्तितयाऽऽवलिकादिपरिणामपरिणतत्वादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वमेव । द्व्यणुकादिस्कन्धानां सादिकालात् तेन तेन स्वभावेन परिणामात् सादिपारिणामिकत्वं मेर्वादिस्कन्धानां त्वनादिकालात् तेन तेन रूपेण परिणामादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वं चेति । आह किं सर्वेऽप्यजीवाः पारिणामिक एव भावे वर्तन्ते ? आहोश्चित् केचिदन्यस्मिन्नपि ? इत्याह - "खंधा उदए ‘वि” त्ति 'स्कन्धाः' अनन्तपरमाण्वात्मका न तु केवलाणवः, तेषां जीवेनाऽग्रहणात्, 'औदयिकेऽपि' औदयिकभावेऽपि न केवलं पारिणामिक इत्यपिशब्दार्थः । तथाहि-- शरीरादिनामोदयजनित औदारिकादिशरीरतया औदारिकादीनां स्कन्धानामेवोदय इति भावः । उदय - एवौदयिक इति व्युत्पत्तिपक्षे तु कर्मस्कन्धलक्षणेष्वजीवेष्वौदयिकभावो भवतीति भावः । तथाहि — क्रोधादये जीवस्य कर्मस्कन्धानामुदयस्तेषामेवौदयिकत्वमिति । वेवं कर्मस्कन्धाश्रिता औपशमिकादयोऽपि भावा अजीवानां सम्भवन्त्यतस्तेषामपि भणनं प्राप्नोति, सत्यम्, तेषामविवक्षितत्वात्, अत एव कैश्चिदजीवानां पारिणामिक एव भावोऽभ्युपगम्यत इति ॥ ६९ ॥ व्याख्याता अजीवाश्रिता अपि भावाः । सम्प्रति जीवगुणभूतेषु गुणस्थानकेषु भावान् निरुरूपयिषुराह- सम्माइच तिग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते । च वीणापुव्वि तिन्नि, सेसगुणद्वाणगेगजिए ॥ ७० ॥ " सम्माइ” त्ति सम्यग्दृष्ट्यादिषु अविरतसम्यग्दृष्टिप्रभृतिषु चतुर्षु चतुः सशषेष्वविरतसम्यण्डष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणेषु गुणस्थानकेष्विति वक्ष्यमाणपदस्यात्रापि सम्बन्धः कार्यः, "तिग च भाव" चि त्रयश्चत्वारो वा भावाः प्राप्यन्त इति भावः । तत्र क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टे तुर्ष्वपि गुणस्थानकेवि त्रयोऽपि भावा लभ्यन्ते । तद्यथा— यथासम्भवमौदयिकी गतिः, क्षायोपशमिकमिन्द्रियसम्यक्त्वादि, पारिणामिकं जीवत्वमिति । क्षायिकसम्यग्दृष्टेरोपशमिकसम्यम्हटेश्व चत्वारो भावा लभ्यन्ते, त्रयस्तावत् पूर्वोक्ता एव; चतुर्थस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणः, औपशमिकसम्यग्दृष्टेः पुनरौपशमिकसम्यक्त्वस्वभाव इति । "चउ पणुबसामगुवसंते” चि चत्वारः पश्च वा भावा द्वयोरप्युपशमकोपशान्तयोर्भवन्ति । किमुक्तं भवति ! - अनिकुचिनादर Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ७०] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मअन्नः। सूक्ष्मसम्परायलक्षणगुणखानकद्धयवर्ती जन्तुरुपशमक उच्यते, तस्य चत्वारः पञ्च वा भावा भवन्ति । कथम् । इति चेद् , उच्यते--अयस्तावत् पूर्ववदेव, चतुर्थस्तु क्षीणदर्शनत्रिकस श्रेणिमारोहतः शायिकसम्यक्त्वलक्षणोऽन्यस्य पुनरौपशमिकखभाव इति । अमीषामेव चतुर्णा मध्येऽनिवृत्तिवादरसूक्ष्मसम्परायगुणखानकद्वयवर्तिनोऽप्यौपशमिकचारित्रस्व शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनाद् औपक्षमिकचारित्रप्रक्षेपे पञ्चम इति । 'उपशान्तः' उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती तस्यापि चत्वारः पञ्च वा भावाः प्राप्यन्ते, ते चानन्तरोपशमकपदप्रदर्शिता एव । "चउ खीणापुषि" ति चत्वारो भावाः 'क्षीणापूर्वयोः' क्षीणमोहगुणस्थानकेऽपूर्वकरणगुणस्थानके चेत्यर्थः । तत्र क्षीणमोहे यः पूर्ववत् , चतुर्थः क्षायिकसम्यक्त्वचारित्रलक्षणः, अपूर्वकरणे तु त्रयः पूर्ववत् , चतुर्थः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वखभाव औपशमिकसम्यक्त्वखभावो वेति । “तिनि सेसगुणट्ठाणग" ति 'त्रयः' त्रिसच्या भावा भवन्ति, केषु ? इत्याह-विभक्तिलोपात् 'शेषगुणस्थानकेषु' मिथ्यादृष्टिसाखादनसम्यग्मिध्यादृष्टिसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणेषु । तत्र मिथ्यादृष्ट्यादीनां त्रयाणामौदयिकी गतिः, क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिक जीवत्वम् इत्येते त्रयो भावाः प्रतीता एव । सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोः पुनरौदयिकी मनुजगतिः, क्षायिक केवलज्ञानादि, पारिणामिकं जीवत्वम् इत्येवंरूपास्त्रय इति । आह किममी त्रिप्रभृतयो भावा गुणस्थानकेषु चिन्त्यमानाः सर्वजीवाधारतया चिन्त्यन्ते ? आहोश्चिदेकजीवाधारतया ? इत्याह-“एगजिए" त्ति एकजीवाधारतयेत्थं भावविभागो मन्तव्यः, नानाजीवापेक्षया तु सम्भविनः सर्वेऽपि भावा भवन्तीति ।। ___ अधुनैतेषु गुणसानकेषु प्रत्येकं यस्य भावस्थ सम्बन्धिनो यावन्त उत्तरभेदा यस्मिन् गुणसानके प्राप्यन्त इत्येतत् सोपयोगित्वादस्माभिरभिधीयते । तद्यथा-क्षायोपशमिकभावभेदा मिथ्यादृष्टिसाखादनयोरन्तरायकर्मक्षयोपशमजदानादिलब्धिपञ्चक ५ अज्ञानत्रय ३ चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शन२ लक्षणा दश भवन्ति, सम्यग्मिथ्यादृष्टौ दानादिलब्धिपञ्चक ५ ज्ञानत्रय ३ दर्शनत्रय ३ मिश्ररूपसम्यक्त्व १ लक्षणा द्वादश मेदा भवन्ति, अविरतसम्यम्दृष्टौ मिश्रत्यागेन सम्यक्त्वप्रक्षेपे त एव द्वादश, विरतौ च द्वादशसु मध्ये देशविरतिप्रक्षेपे त्रयोदश, प्रमवाप्रमत्तयोश्च देशविरतिविरहितेषु पूर्वप्रदर्शितेषु द्वादशखेव सर्वविरतिमनःपर्यायज्ञानप्रक्षेपे चतुर्दश, अपूर्वकरणानिवृचिबादरसूक्ष्मसम्परायेषु चतुर्दशभ्यः सम्यक्त्वापसारणे प्रत्येकं त्रयोदश, उपशान्तमोहक्षीणमोहयोस्त्रयोदशभ्यधारित्रापसारणे द्वादश क्षायोपशमिकभावभेदाः प्राप्यन्ते ।। अधुनौदयिकभावभेदा भाज्यन्ते-मिथ्यादृष्टावज्ञानासिद्धत्वादय एकविंशतिरपि भेदा भवन्ति, साखादन एकविंशतेर्मिथ्यात्वापसारणे विंशतिः, मिश्राविरतयोविंशतेरज्ञानापगमे एकोनविंशतिः, देशविरते च देवनारकगत्यभावे सप्तदश, प्रमत्ते च तिर्यगत्यसंयमाभावे पञ्चदश, अप्रमते च पञ्चदशम्य आधलेश्यात्रिकामावे द्वादश, अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिबादरे च द्वादशभ्यस्तेजःपालेश्ययोरभावे दश, सूक्ष्मसम्पराये सज्वलनलोभमनुजगतिशुक्ललेश्याऽसिद्धत्वलक्षणाश्चत्वार औदमिका भावाः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिषु चतुर्म्यः सञ्जवलनलोभाभावे त्रयः, अयोगिकेवलिनस्तु मनुजगत्यसिद्धत्वरूपमौदयिकभावभेदद्वयं प्राप्यते । औपचमिकमावमेवा उच्यन्ते--अविरतादारभ्योपशान्तं यावदीपञ्चमिकसम्यक्त्वरूप औप Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ देवेबादिविरविलोपावडीकरिता [ गाथा शमिकभावमेहः प्राध्यते, औपशमिकचारित्रमणस्त्वनिवृतेरारभ्योपशान्तं यावत् पाप्यते । क्षाविकभावमेदश्च क्षायिकासम्यक्त्वरूपोऽविरतादारभ्योपशान्तं यावत् प्राप्यते, क्षीणमोहे च क्षायिकं सम्यक्त्वं चारित्रं च प्राप्यते, सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोस्तु नवापि क्षायिकभावाः प्राप्यन्ते। पारिणामिकभावभेदा मिथ्यादृष्टौ त्रयोऽपि, साखादनादारभ्य च क्षीणमोहं यावदभव्यत्वव/ द्वौ भवतः, सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोस्तु जीवत्वमेवेति, भव्यत्वस्य च प्रत्यासमसिद्धावस्थायामभावादधुनाऽपि तदपगतप्रायल्वादिना केनचित् कारणेन शास्त्रान्तरेषु नोक्तमिति नामाभिरप्यत्रोच्यते। यस्य भावस्य भेदा यस्मिन् गुणस्थानके यावन्त उक्तास्तेषां सम्भविभावभेदानामेकत्र मीलने सति ताक्नेदनिष्पनः षष्ठः सान्निपातिकमावभेदस्तस्मिन् गुणस्थानके भवति । यथा-मिथ्यादृष्टावौदायिकभावभेदा एकविंशतिः, क्षायोपशमिकभावमेदा दश, पारिणामिकमावभेदास्त्रयः, सर्वे भेदाश्चतुस्त्रिंशत् । एवं सास्वादनादिप्यपि सम्भविभावभेदमीलने तावद्भेदनिष्पन्नः षष्ठः सानिपातिकमावभेदो वाच्यः । एतदर्थसङ्घाहिण्यश्चैता गाथा यथा--- "पण अंतराय अन्माण तिन्नि अञ्चक्खुचक्खु दस एए । मिच्छे साणे य हवंति मीसए अंतराय पण ॥ नाणतिग दसणतिगं, मीसगसम्मं च बारस हवंति । एवं च अविरयम्मि वि, नवरि तहिं दंसणं सुद्धं ।। देसे य देसविरई, तेरसमा तह पमतअपमचे । मणपज्जवपक्खेवा, चउदस अप्पुषकरणे उ ॥ धेयगसम्मेण विणा, तेरस जा सुहमसंपराउ ति। ते चिय उबसमखीणे, चरितविरहेण बारस उ!! खाओवसमिगभावाण कित्तणा गुणपए पड्डुच्च कया । उदइयभावे इण्हि, ते चेव पडव दंसेमि ॥ चउगहयाई इगधीस मिच्छि साणे व हुंति बीसं च । मिच्छेण विणा मीसे, इगुणीसममाणविरहेण || एमेव अविरयम्मी, सुरनारयगइपिओगयो देसे। सत्तरस हुंति ते चिय, तिरिगइअस्संजमाभावा ॥ पञ्चान्तरायाः अज्ञागानि त्रीणि अवक्षुबक्षुः दश एते । मिध्याले सासाधने व भवन्ति मिष मन्तरायाः पमहानत्रिकं दर्शनत्रिक मिश्रसम्यक्त्वं च द्वादश भवन्ति । एवं चाविरतेऽपि वर तत्र दर्शन शुद्धम् ॥ देशे च देशविरतिस्त्रयोदशी तथा प्रमत्ताप्रमत्तयोः । मनःपर्यवप्रक्षेपात् बतुर्दश अपूर्वकरने तु वेदकसम्यक्जेन विना त्रयोदश यावत् सूक्ष्मसम्पराय इति। त एव उपशान्तक्षीणयोः चारित्रविरहेण द्वादश तु॥ क्षायोपश मिकभावानां कीर्तना गुणपदानि प्रतीत्य कृता । औदायिकभावे इदानी तान्येव प्रतीत्य दर्शयामि ॥ चतुर्गत्यादिका एकविंशतिमिध्याले सासादने च भवन्ति विशतिष । मिथ्याखेन विना मिश्रे एकोनविंशतिरक्षा नविरहेण एवमेवाघिरते पुरनारकपतिवियोगतो देशे। सप्तदश भवन्ति त एव निर्वग्णस्यसबमामावान॥ - - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडशीतिनामा चतुर्थः कर्ममयः। पन्नरस पमतम्मी, अपमते आइलेसतिगविरहे । ते चिय बारस सुकेगलेसओ दस अपुवम्मि ॥ . एवं अनियट्टिम्मि वि, मुहुमे संजलणलोभमणुयगई । अतिमलेसअसिद्धत्तभावमओ जाण चउ भावा ।। संजाणलोमविरहा, उक्सतक्खीणकेवलीण तिगं। लेसाभावा आणसु, अजोगिणो भावदुगमेव ।। अविस्मसम्मा उवसतु जाव उक्समगखाइगा सम्मा। अनियट्टीओ उवसंतु जाब उवसामिवं चरणं ।। खीणम्मि खइयसम्मं, चरणं च दुगं पि जाण समकालं । नव नब खाइयभावा, जाण सजोगे अजोगे य॥ नीवत्तममवत, भवत्तं पि हु मुणेसु मिच्छम्मि । साणाई खीणते, दोन्नि अभवत्तवज्जा उ ॥ सज्जोगि अजोगिम्मि य, जीवत्तं चेव मिच्छमाईणं । ससभावमीलणाओ, मावं मुण सन्निवायं तु ॥ व्याख्यातप्राया एवैताः, नवरमेकादश्यां गाथायाम् "उवसमगखाइगा सम्म" ति अनेनौपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वरूपमौपशमिकक्षायिकभावभेदद्वयं युगपल्लाघवार्थ निरूपितम् । ततश्चाविरतादारभ्योपशान्तमोहं यावत् कस्यचिदौपशमिकसम्यक्त्वरूप औपशमिकभावमेदः प्राप्यते कस्यचित् पुनः क्षायिकसम्यक्त्वरूपः क्षायिकभावभेदश्चेति ॥ ७० ॥ व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां भावद्वारम् । सम्प्रति सपेयकादिद्वारं प्रचिकटयिषुराह संखिजेगमसंखं, परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं। एवमणतं पि तिहा, जहन्नमझुकसा सधे ।। ७१ ॥ पतावन्त पत इति सहानं सोयम् , “य एकातः” (सि०५-१-२८) इति यप्रत्ययः, तब 'एकम्' एकमेव भवति, मापरे असहयेयादेरिव परीत्तादयो मूलभेदस्वरूपा भेदा अस्प विद्यम्त इति भावः । न सलामहतीलसनम् , "देण्डादिभ्यो यः" (सि० ६-४-१६८) इति यप्रत्ययः, असकोयकं तत् पुनः परीचं च युकं च निजपदं-खकीयपदमसायकलक्षणं तच परीचयुक्तनिज १ पञ्चदश प्रमत्तेऽप्रमत्त आदिलेश्यात्रिकविरहे । त एव द्वादश शुक्लैकलेश्यातो दश अपूर्वे ॥ एवममितिऽपि सूरमे सज्वलनलोभमनुजमस्योः । अन्तिमलेश्यासिद्धखयोर्भावाद् जानीहि चखारों भाषाः ॥ समयलनलोविराधान्तक्षणकालिमा त्रिकम् । लेश्याभावाजानीहि भयोगिनो भावद्विकमेव । अविरतसम्बक्साइपशान्तं यायपक्षमकक्षाबिके सम्बक्ले । भनिवृत्तितः उपशान्तं यावदोक्शनिक चरणम् सीणे क्षामिकसम्यक् चरणं च द्विकमपि जानीहि समकालम् । नव नव भायिकमावान् जानीहि सयोगे योगे च ॥ जीपलममव्यवं भव्यखमपि खलु जानीहि मिथ्याले । सासादनादिषु क्षीणान्तेषु द्वावभन्यलवर्जी तु॥ सयौगिन्ययोगनि च जीवखमेव मिथ्यावादीनाम् । खखभावमीलनाद् भावं आनीहि सामिपातिक तु॥ १तिबनवानुवासने दण्याऐवः" इति पाणिनीयसूबेतु दण्डादिभ्यो यत्" इस सूत्रम् ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः [ गाथा पदानि तैर्युक्तं-समन्वितं सत् , किम् ? इत्याह-'त्रिविधं त्रिप्रकारं भवति । यथा-परीत्तासषेयकं १ युक्तासापेयकम् २ असङ्ख्यातासङ्ख्येयकम् ३ इति उक्तं त्रिधाऽसङ्ख्येयकम् । अधुना त्रिविधमनन्तकमाह--"एवमणतं पि तिह" ति 'एवम्' अनेनानन्तरप्रदर्शितप्रकारेण परीत्तयुक्तनिजपदयुक्तलक्षणेन 'अनन्तमपि' अनन्तकमपि न केवलमसायकमित्यपिशब्दार्थः 'त्रिधा' त्रिप्रकारं वेदितव्यम् , तद्यथा--परीत्तानन्तकं १ युक्तानन्तकम् २ अनन्तानन्तकम् ३ इति । एवमेतानि समुदितानि सप्तापि पदानि पुनरेकैकशस्त्रिरूपाणि भवन्तीति दर्शयितुमाह-"जहन्नमज्झुक्कसा सवे" ति प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययाद् 'जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि' जघन्य. मध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि 'सर्वाणि' समस्तानि एकैकशः सप्तापि पदानि वेदितव्यानीत्यर्थः । तथाहि-जघन्यसङ्ख्येयकं मध्यमसङ्ख्येयकम् उत्कृष्ट सङ्ख्येयकम् । तथा जघन्यपरीत्तासङ्ख्येयकं मध्यमपरीत्तासङ्ख्येयकम् उत्कृष्टपरीवासयेयकम् । जघन्ययुक्तासङ्ख्येयकं मध्यमयुक्तासङ्ख्येयकम् उत्कृष्टयुक्तासङ्खधेयकम् । जघन्यासङ्ख्यातासङ्ख्येयकं मध्यमासङ्ख्यातासङ्खधेयकम् उत्कृष्टासङ्ख्यातासअधेयकम् । तथा जघन्यपरीत्तानन्तकं मध्यमपरीत्तानन्तकम् उत्कृष्टपरीत्तानन्तकम् । जघन्ययुक्तानन्तकं मध्यमयुक्तानन्तकम् उत्कृष्टयुक्तानन्तकम् । जघन्यानन्तानन्तकं मध्यमानन्तानन्तकम् उत्कृष्टानन्तानन्तकम् । तदेवं सङ्ख्यातकं त्रिधा असञ्जयातमनन्तकं च नवधा भवतीति ।। ७१।। तदेवं सङ्ख्येयकादिमेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतस्तत्वरूपं निरूपयिषुः सङ्ख्यातकं त्रिधेति यदुदिष्टं तद् विवृण्वन्नाह लहु संखिलं दु चिय, अओ परं मज्झिमं तु जा गुरुयं । जंबूहीवपमाणयचउपल्लपरूवणाह इमं ॥७२॥ इहैकको गणनसङ्ख्यां न लभते, यत एकस्मिन् घटादौ दृष्टे घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते, नैकसझ्याविषयत्वेन । अथवा आदानसमर्पणादिव्यवहारकाले एक वस्तु प्रायो न कश्चिद् गणयति, अतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनसङ्ख्यां लभते, तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसङ्ख्या । अत एवाह-'सत्येयं' सङ्ख्यातकं 'लघु' जघन्यं-हवं, चियशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात् , यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः प्राकृतलक्षणे-"णइ चेअ चिय च अवधारणे" (सि०८-२-१८४) द्वावेव, नैकः, पूर्वोदितयुक्तः । अतः परम्' एतस्माद् द्विकभूतजघन्यसङ्ख्यातकादूर्ध्वं मध्यमं तु सङ्ख्यातकं पुनस्त्रिचतुरादिकमनेकप्रकारं भवति । कियहरं यावद् मध्यमं भवति । इत्याह--"जा गुरुयं" ति 'यावद्' इत्यवधौ 'गुरुकम्' उत्कृष्टं-सर्वोपरिवर्ति सङ्ख्यातकं प्रामोतीति शेषः । अथेदमेव गुरुकं सायातकं कथं विज्ञेयम् ? इत्याह-'इदम्' अधुनैव वक्ष्यमाणस्वरूपं गुरुकं सायातकं ज्ञेयमिति शेषः । कया ? 'जम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पल्यप्ररूपणया' जम्बूनाना वृक्षणोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तेन जम्बूद्वीपेन प्रमाणम्-इयत्वावधारणं येषां ते जम्बूद्वीपप्रमाणकास्ते च ते चत्वारः-चतुःसङ्ख्याः पल्याश्च-धान्यपल्या इव जम्बूद्वीपप्रमाणकचतुःपल्यास्तेषां प्रकृष्टरूपा प्ररूपणा-ज्यावर्णना तया । एतदुक्तं भवति-यथा जम्बूद्वीपो लक्षयोजनप्रमाण एवमेतेऽप्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकं लक्षयोजनप्रमाणा वृत्ताकारत्वाच परिधिना, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२-७३ ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । पेरिही तिलक्ख सोलस, सहस्स दो य सय सत्तावीसहिया । कोसतिय अट्टवीसं, धणुसय तेरंगुलद्धहियं ॥ ( बृह० क्षे० गा० ६ ) २०१ इतिगाथाभिहितप्रमाणोपेताः । उक्तं च श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रे जहन्नयं संखिज्जयं कित्तिलिय होइ ? दो रुवाई | तेण परं अजहन्नमणुकोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयसंखिज्जयं न पावइ । उक्कोसयं संखिज्जयं कित्तियं होइ ? उक्कोसयस्स संखिज्जयस्स परूवणं करिम्सामि – से जहानामए पल्ले सिया एगं जोयणसयसहम्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयस सहम्साई सोलस सहम्साइं दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं चणुस तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं || ( पत्र २३५ - १ ) ततो जम्बूद्वीपप्रमाणचतुः पल्यप्ररूपणयेदमुत्कृष्टं सङ्ख्यातकं प्ररूपयिप्यत इति भावः ॥ ७२ ॥ अथैते चत्वारोऽपि पल्याः किंनामान: : इत्येतदाह- पल्लाsणवट्टियसलागपडिसलागमहासलागक्खा । जोयणसह सोगाढा, सवेइयंता ससिह भरिया ॥ ७३ ॥ धान्यपल्य इव पल्याः कल्प्यन्ते, ते च जम्बूद्वीपप्रमाणाः । किंनामान: : इत्याह-- " अणवद्विय" इत्यादि । यथोत्तरं वर्धमानस्वभावतयाऽवस्थितरूपाभावाद् अनवस्थित एवोच्यते । तथेह शलाका:- एकैकसर्पपप्रक्षेपलक्षणास्ताभिः शलाकाभिर्भियमाणत्वात् पल्योऽपि शलाका । तथा प्रतिशलाकाभिर्निष्पन्नत्वात् प्रतिशलाका । महाशलाकाभिर्निवृत्तत्वात् महाशलाका । तत एषां द्वन्द्वेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकास्ता इत्थम्भूता आख्या :- संज्ञा येषां तेऽनवस्थितशलाका प्रतिशलाकामहाशलाकाख्याः । त एव विशिष्यन्ते - योजनसहस्रं तु अवगाढा: । इदमुक्तं भवति - रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमं योजनसहस्रप्रमाणं रत्नकाण्डं भित्त्वा द्वितीये वज्रकाण्डे प्रतिष्ठिता इति । पुनस्त एव विशिष्यन्ते - "सवेइयंत" त्ति वज्रमय्या अष्टयोजनोचच्छ्रायायाश्चत्वार्यष्टौ द्वादश योजनान्युपरिमध्याधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या द्विगव्यूतोच्छ्रितेन पञ्चधनुः शतविस्तृतेन नानारलमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ता या उपरि वेदिकेति पद्मवrवेदिकेत्यर्थः, द्विगव्यूतोच्छ्रिता पञ्चधनुः शतविस्तीर्णा गवाक्ष हेमकिङ्किणीजालघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवती तस्या अन्तः- प :- पर्यवसानमप्रभाग इति यावद् वेदिकान्तः, ततश्च सह वेदिकान्तेन वर्तन्त इति सवेदिकान्ताः । ते च कथं सर्पपैर्भृताः : इत्याह-- "ससिहभरिय" ति सह शिखया - उच्छ्रयलक्षणया वर्तन्त इति सशिखाः, ततः सशिखं यथा भवति तथा सर्षपैर्भृताः - पूरिताः सशिखभृताः कर्तव्या इति शेषः । अयमत्रा 1 १ परिधित्रयो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे च शते सप्तविंशत्यधिके । क्रोशत्रिकं अष्टाविंशं धनुः शतं त्रयोदशाङ्गुलान्यर्द्धाधिकानि ॥ २ जघन्यं सङ्ख्यातकं कियद् भवति ? द्वे रूपे । ततः परमजघन्योत्कृष्टानि स्थानानि यावद् उत्कृष्टसङ्ख्यातकं न प्राप्नोति । उत्कृष्टं सख्यातकं कियद् भवति ? उत्कृष्टस्य सङ्ख्यातकस्य प्ररूपणां करिष्ये - असौ यथानामकः पल्यः स्यात् एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भाभ्याम्, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे च सप्तविंशे योजनशते त्रयश्च क्रोशा अष्टाविंशं च धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि अर्धाङ्गुलं च किञ्चिद् विशेषाधिकं परिक्षेपेण ॥ ३-४ केवइयं अनुयोगद्वारसूत्रे ॥ क० २६ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ देवेन्द्रसूरिविरचितसोपजदीकोपेतः [गाथा शयः-एतेषां व्यावर्णितखरूपाणां चतुर्णामपि पल्यानां मध्याद् यो यथावसर सर्षपैः पूर्यते तं योजनसहस्रावगाहादूर्द्ध समधिकाष्टयोजनोच्छ्रितवेदिकान्तं पूरयित्वा तदुपरि तावत् शिखा वर्धनीया यावद् एकोऽपि सर्षपो नावतिष्ठत इति । अत्र सर्वे सवेदिकान्ताः सशिखभृताश्च कर्तव्या इति सामान्योक्तावपि प्रथममनवस्थितपल्य एव भृतः करणीयः । शेषास्तु यथावसरमेवेति मन्तव्यमिति ।। ७३ ॥ अधुना तस्यानवस्थितपल्यस्य जम्बूद्वीपप्रमाणस्य सर्षपैर्भूतस्य यद् विधेयं तदाह तो दीवुदहिसु इकिक सरिसवं खिविय निहिए पढमे । पढमं व तदंतं चिय, पुण भरिए तम्मि तह वीणे ॥७४॥ 'ततः' सर्षपभरणादनन्तरमसत्कल्पनया केनचिद् देवेन दानवेन वा वामकरतले धृत्वा 'द्वीपोदधिषु' द्वीपसमुद्रेपु एकैकं 'सर्षपं' सिद्धार्थे क्षिप्त्वा 'निष्ठिते' अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् निष्ठापितेरिक्तीकृते 'प्रथम' अनवस्थितपल्ये, कोऽर्थः ? एकं मर्षयं द्वीपे प्रक्षिपति, एकमुदधौ, पुनरप्येकं द्वीपे, एकमुदधौ, एवं प्रतिद्वीपं प्रत्युदधिं चैकैकं सर्षपं प्रतिक्षिपन्नसौ देवो वा दानवो वा तावद् गतो यावदनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति । ततः किं विधेयम् ? इत्याह ---"पढमं व" इत्यादि। द्वीपे समुद्रे वा यत्रासावनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति "तदंतं चिय"त्ति स एवानवस्थितपल्यस्य निष्ठाकारी द्वीपः समुद्रो वाऽन्तः पर्यवसानं प्रमाणतया यस्य द्वितीयानवस्थितपल्यम्य स तदन्तस्तम् , द्वितीयानवस्थितपल्यप्रमाणाभिधायकं विशेषणमिदम् , ततस्तदन्तमेव चियशब्दम्यावधारणार्थत्वाद् विस्तीर्णतया तावत्प्रमाणमेवेत्यर्थः । 'प्रथममिव' आद्यपल्यमिवेत्युपमानेन द्वितीयमनवस्थितपल्यमपि सहस्रयोजनावगाढमष्टयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिवेदिकोपशोभितं सशिख सर्पपैभृतं कुर्यादिति सूचयति । नतः प्रथमानवस्थितपल्यमिव तदन्तमेव 'पुनः' भूयः 'भृते' सर्पपै: पूरिते 'तस्मिन्' द्वितीयानवस्थितपल्ये 'तथा तेन प्रकारेण निक्षिप्तचरमसर्षपद्वीपादेरग्रत एकः सर्षपो द्वीपे, एकः समुद्रे इत्यादिना क्षीणे' निष्ठिते सति द्वितीयानवस्थितपल्ये ॥ ७४ ॥ ततः किं विधेयम् ? इत्याह --- विप्पइ सलागपल्लेगु सरिसवो इय सलागव(ग्वि)वणेणं । पुन्नो बीओ य तओ, पुवं पिव तम्मि उद्धरिए ॥७२॥ 'क्षिप्यते' निधीयते शलाकापल्ये द्वितीये शलाकासंज्ञक एकसय्य एव सर्षपः, स च नानवस्थितपल्यसत्कः किन्त्वन्य एवेत्यवसीयते, "पुण भरिए तम्मि तह खीणे" (गा० ७४) इति सूत्रावयवम्य सामम्त्यरिक्तीकरणप्रतिपादनपरत्वात् । अन्ये वनवस्थितपल्यसत्क एव क्षिप्यते इत्याचक्षते, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति । आह किमिति द्वितीयपल्य एव निष्ठिते सत्येकस्य सर्षपस्य शलाकापल्ये प्रक्षेपणमभिहितं यावता प्रथमपल्येऽपि निष्ठिते तत्रैकस्य सर्षपस्य प्रक्षेपो युज्यते ? इति, तदयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , यतोऽनवस्थितपल्यशलाकामिरेवासी पूरणीयः, प्रथमश्च लक्षयोजनविस्तृतत्वेनावस्थितपरिमाणतयाऽनवस्थित एव न भवतीत्यतो द्वितीयाद्यनवस्थितपल्यशलाका एव तत्र प्रक्षेपमहन्तीति । न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितम् , यदुक्तमनुयोगद्वारेषु Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४-७६ ] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । २०३ से णं पले सिद्धत्थाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धत्थए हिं दीवसमुद्दाणं उद्धारे घिप्पर, एगे वे गे समुद्दे एगे दीवे एगे समुद्दे एवं खिप्पमाणेहिं खिप्पमाणेहिं जावइया णं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अफुन्ना एस णं एवइए खित्ते पल्ले आइडे । से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धत्थहिं दीवसमुद्दाणं उद्धारे घिप्पइ, एगे दीवे एगे समुद्दे एगे दीवे एगे समुदे एवं खिप्पमाणेहिं खिप्पमाणेहिं जावइया णं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुन्ना एस णं एवइए खिसे पल्ले पढमा सलागा ( पत्र २३५ - २ ) इति । 1 यश्च "पल्लाणवडिय" ( गा० ७३ ) इत्यादिगाथायां प्रथमस्थानवस्थितव्यपदेशोऽसौ योग्यतामात्रेण राज्यार्हकुमारस्य राजव्यपदेशवद् द्रष्टव्यः । " इय सलागखवणेण पुन्नो बीओ य" ति 'इति' अमुना पूर्वप्रदर्शितशलाकाक्षेपणप्रकारेण 'द्वितीयश्च' शलाकापल्यः पूर्णो भृतो भवति सशिख इति यावत् । इयमत्र भावना - ततो यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष द्वितीयपल्यो निष्ठां गतस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववत् सर्पः पूर्यते, ततस्तं तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेत् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो द्वितीया शलाका सर्षपरूपा शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते । ततोऽपि यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष तृतीयोऽनवस्थितपल्यो निष्ठितस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववत् सर्षपैरापूर्यते, ततस्तं तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततस्तृतीया सर्पपरूपा शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते । एवमनेन क्रमेण पुनः पुनरaatraversed भरण रिक्तीकरणलब्धैकैकसर्षपरूपाभिः शलाकाभिः शलाकापल्यो यथोक्तप्रमाणः सशिखाकस्तावत् पूरयितव्यो यावत् तत्रैको ऽप्यन्यः सर्षपो न मातीति । "बीओ य" त्ति इत्यत्र चशब्दात् पूर्वपरिपाट्यागतोऽनवस्थितपल्यः सर्षपैरापूरणीयः, ततः किं विधेयम् ? इत्याह"ओ पुत्रं पिव तम्मि उद्धरिए" त्ति ' ततः शलाकापल्यपूर्वपरिपाट्यागतानवस्थितपल्यापूरणानन्तरं पूर्ववत् 'तस्मिन्' शलाकापल्ये उद्धृते सति ॥ ७५ ॥ वीणे सलाग तइए, एवं पढमेहिं चीययं भरसु । तेहि य तइयं तेहि य, तुरियं जा किर फुडा चउरो ॥ ७६ ॥ 'क्षीणे च' निर्लेपे सति सर्षपरूपा शलाका 'तृतीये' प्रतिशलाकापल्ये प्रक्षिप्यते इतीयमक्षरगमनिका । भावार्थस्त्वयम् -- ततः शलाकापल्यापूरणानन्तरं तं शलाकापल्यं वामकरतले कृत्वा पूर्वानवस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्पपरूपा प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनन्तरोक्तोऽनवस्थितपल्य उत्पाक्ष्यते, ततः शलाकापल्यसर्पपाक्रान्ताद् द्वीपात् 1 १ स पल्यः सिद्धार्थकैर्भूतः, ततस्तैः सिद्धार्थकद्वीपसमुद्राणां उद्धारो गृह्यते, एको द्वीपे एकः समुद्रे एको द्वीपे एकः समुद्रे एवं क्षिप्यमाणैः क्षिप्यमाणैः यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सिद्धार्थकैः स्पृष्टा एष एतावान् क्षेत्र पत्य आदिष्टः । स पल्यः सिद्धार्थकैर्भूतः, ततस्तैः सिद्धार्थकैद्वीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते, एको द्वीपे एकः समुद्रे एको द्वीपे एकः समुद्रे एवं क्षिप्यमाणैः क्षिप्यमाणैः यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सिद्धार्थकैः स्पृष्टा एषा एतावति क्षेत्रे पत्ये प्रथमा शलाका ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः (गाथा समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निःशेषतो रित्तो भवति । ततः शलाकापल्ये पुनरपि सर्षपरूपा एका शलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तदन्तमनवस्थितपल्यं सर्षपैर्भूत्वा ततः परतः पुनरप्येकै सर्षपं प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च प्रक्षिपे यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते । एवमपरापरानवस्थितपल्यापूरणरिक्तीकरणलब्धैकैकसर्षपैर्यदा शलाकापल्य आपूरितो भवति पूर्वपरिपाट्या चानवस्थितपल्यस्तदा शलाकापल्यमुत्पाट्य प्राक्तनानवस्थितपल्यचरमसर्षपाकान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निलेपो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाट्यानन्तररिक्तीकृतशलाकापल्यचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेवेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः पुनरपि शलाकापल्ये सर्षपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते । यत्र चासो द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितस्तावत्प्रमाणविस्तरात्मकमनवस्थितपल्यं सर्षपैरापूर्य ततः परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रप्वकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका सर्पपरूपा प्रक्षिप्यते । एवमनेन कमेण ताबद् वक्तव्यं यावन् त्रयोऽपि प्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः परिपूर्णमापूरिता भवन्ति । ततः प्रतिशलाकापल्यमुत्पाट्य निष्ठितस्थानात् परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो महाशलाकापल्ये एका सर्षपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते । ततः शलाकापल्यमुत्पाट्य प्रतिशलाकापल्यगतचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपान् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद यावदसौं निष्ठितो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रतिगलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाटयेत, उत्पाठ्य च शलाकापल्यगतचरमसर्पपाकान्ताद दीपात परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपस्तावद् गच्छेद् यावदसौ निःशेषतो रिक्तो भवति, ततः शलाकापल्ये प्रथमा शलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यगतचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तत्पर्यन्तविस्तरात्मकोऽनवस्थितपल्यः कल्पयित्वा सर्पपैरापूर्यते, ततस्तमुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेप्वकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निर्लेपो भवति, ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते. एवं शलाकापल्य आपूरणीयः, पवमापूरणोत्पाटनप्रक्षेपपरम्परया तावद्द्वक्तव्यं यावन्महाशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः सर्वेऽपि परिपर्णशिखायुक्ताः समापूरिता भवन्ति । एतदेव निगमयन्नाह---"एवं पढमेहिं" इत्यादि, एवम्' अनेन प्रदर्शितक्रमेण 'प्रथमैः' अनवस्थितपल्यैर्द्वितीयमेव द्वितीयकं-शलाकापल्यं 'भरख' पूरय, 'तैश्च' द्वितीयस्थानवर्तिभिः शलाकापल्यैः 'तृतीय' प्रतिशलाकापल्यं भरस्व, 'तैश्च' प्रतिशलाकापल्यैः 'तुर्य' चतुर्थ महाशलाकापल्यं तावद् भरख यावत् 'किल' इत्याप्तागमवादसंसूचकः ‘स्फुटाः' व्याप्ताः सशिखा भृता इति यावत् 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्या अनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकारल्याः पल्या भवन्तीति ॥ ७६ ॥ ततश्चतुर्णा पल्यानां पूर्णत्वे यत् सम्पद्यते तदाह पढमतिपल्लुद्धरिया, दीवुदही पल्लचउसरिसवा य । सव्वो वि एस रासी, रूवूणो परमसंखिलं ॥ ७७॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । २०५ प्रथमम्-आद्यं यत् त्रिपल्य-पल्यत्रयमनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकात्यं तेनोद्धृताः-एकैकसपप्रक्षेपेण व्याप्ताः प्रथमत्रिपल्योद्धृताः, क एते ? इत्याह-द्वीपोदधयो न केवलं द्वीपोदधयः पल्यचतुष्कसर्षपाश्च, किं भवति ? इत्याह --- 'सर्वोऽपि' समस्तोऽपि 'एषः' अनन्तरोक्तः सर्षपव्यातद्वीपसमुद्रपल्यचतुष्कगतसर्पपलक्षणः 'राशिः' सङ्घातः 'रूपोनः' एकेन सर्षपरूपेण रहितः सन् 'परमसङ्ख्येयम्' उत्कृष्ट सङ्ख्यातकं भवतीति । तदेवं तावदिदमुत्कृष्टं सङ्ख्येयकम् । जघन्यं तु द्वौ, जघन्योत्कृष्टयोश्चान्तराले यानि सङ्ख्यास्थानानि तानि सर्वाणि मध्यमं सङ्ख्येयकमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति । सिद्धान्ते च यत्र कचित् सङ्ख्यातग्रहणं करोति तत्र सर्वत्रापि मध्यम सङ्ख्येयकं द्रष्टव्यम् । यदुक्तमनुयोगद्वारचूर्णी सिद्धते य जत्थ जत्थ संखिजगगहणं कतं तत्थ तत्थ सर्व अजहन्नमणुकोसयं दद्ववं (पत्र ८१) इति । ___ इदं चोत्कृष्टं सङ्ख्येयकमित्थमेव प्ररूपयितुं शक्यते, द्विकादिदशशतसहस्रलक्षकोठ्यादिशीर्षप्रहेलिकान्तराशिभ्योऽतिबहुना समतिकान्तत्वेन प्रकारान्तरेणारख्यातुमशक्यत्वात् । यदाहुः प्रसिद्धसिद्धान्तसन्दोह विवरणप्रकरणकरणप्रमाण(अन्थ ग्रथनावाप्तसुधांशुधामधवलयशःप्रसरधवलितसकलवमुन्धरावलयाः श्रीहरिभद्रमूरिपादा अनुयोगद्वारटीकायाम् - जंबुद्दीवप्पमाणमेत्ता चत्तारि पल्ला-पढमो अणवट्टियपल्लो, बिइओ सलागापल्लो, तईओ पडिसलागापल्लो, चउत्थओ महासलागापल्लो। एए. चउरो वि रयणप्पहपुढवीए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्सावगाहं भितृण बिइए वयरकंडे पइट्टिया। इमा ठवणा-JUUUए.टविया । एगो गणणं न उवेइ, दुप्पभिई संख त्ति काउं । तत्थ पढमे अणवट्ठियपल्ले दो सरिसवा पक्खित्ता एयं जहन्नगं संखिजगं । ततो एगुत्तरवुड्डीए तिन्नि चउरो पंच जाच सो पुन्नो अन्नं सरिसवं न पडिच्छइ त्ति ताहे असब्भावट्ठवणं पडुच्च वुच्चति-तं को वि देवो दाणवो वा उक्वित्तुं वामकरयले काउं ते सरिसवे जंबूद्दीवाइए एगं दीवे एगं समुद्दे पक्खिविजा जाब निद्रिया, ताहे सलागापल्ले एगो सरिसवो छूढो । जत्थ निहिओ तेण सह आरिल्लएहिं दीवसमुद्देहिं पुणो अन्नो पल्लो आइज्जइ, सो वि सरिसवाणं भरिओ, तओ परओ एकेकं दीवसमुद्देसु पक्खिवंतेणं निहाविओ, तओ सलागापल्ले बिइया सलागा पक्खित्ता । एवं एएणं अणवट्ठियपल्लकरणकमेण सलायग्गहणं १ सिद्धान्ते च यत्र यत्र सङ्ख्यातकमहणं कृतं तत्र तत्र सर्वमजघन्यमनुन्कृष्टं द्रष्टव्यम् ॥ २ जम्बूद्वीपप्रमाणमात्राश्चवारः पल्याः-प्रथमोऽनवस्थितपल्यः, द्वितीयः शलाकापल्यः, तृतीयः प्रतिशलाकापल्यः, चतुर्थको महाशलाकापल्यः । एते चत्वारोऽपि रत्नप्रभापृथ्व्याः प्रथमं रत्नकाण्डं योजनसहस्रावगाहं भित्वा द्वितीयस्मिन् वज्रकाण्डे प्रतिष्टिताः । एषा स्थापना Anan। एते स्थापिताः । एको गणनां नोपति, द्विप्रभृति सति कृत्वा । तत्र प्रथमेऽनवस्थितपल्यै द्वौ सर्षपो प्रक्षिप्ती एतजघन्यकं सङ्ख्यातकम् । तत एकोत्तरवृद्ध्या त्रयश्चत्वारः पञ्च यावत् स पूर्णोऽन्यं सर्षपं न प्रतीच्छति इति तदा असद्भावस्थापनां प्रतीत्योच्यते--तं कोऽपि देवो दानवो वोक्षिप्य यामकरतले कृत्वा तान् सर्षपान जम्बूद्वीपादिके एक द्वीपे एक समुद्र प्रक्षिपेद् यावधिष्ठिताः, तदा शलाकापल्य एकः सर्षपो क्षिप्तः । यत्र निष्ठितस्तेन सह आरातीर्थीपसमुद्रः पुनरन्यः पत्यः आदीयते, सोऽपि सर्षपैतः, ततः परत एकैकं द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिपता निष्टापितः, ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्ता । एवमेतेनानवस्थितपल्यकरणक्रमेण शलाकामहणं कुर्वता शलाकापल्यः शलाकाभि Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा करेंतेण सलागापल्लो सलागाणं भरिओ, कमागतो अणवट्टियओ वि । तओ सलागापल्लो सलागं न पडिच्छइ त्ति काउं सो चेव उक्खित्तो निट्टियट्टाणाओ परओ पुबक्कमेण पक्खित्तो निहिओ य, तओ पडिसलागापल्ले पढमा सलागा छूटा । तओ अणवडिओ उक्खित्तो निट्ठियहाणाओ परओ पुधक्कमेण परिश्वत्तो निटिओ य, तओ सलागापल्ले सलागा परिवत्ता । एवं आण्णेणं अण्णेणं अणवट्टिएण आरिक्कनिक्किरतेणं जाहे पुणो सलागापल्लो भरिओ अणवढिओ य, ताहे पुणो सलागापल्लो उक्खित्तो पक्खित्तो निटिओ य पुबक्कमेण, ताहे पडिसलागापल्ले बिइया पडिसलागा छूटा । एवं आइरणनिक्किरणेण जाहे तिन्नि वि पडिसलागसलागअणवट्ठियपल्ला य भरिता ताहे पडिसलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो निटिओ य ताहे महासलागापल्ले पढमा महासलागा छूढा, ताहे सलागापल्लो उक्वित्तो पक्खिप्पमाणो निटिओ य ताहे पडिसलागापले सलागा परिवत्ता । ताहे अणवडिओ उक्वित्तो पक्वित्तो य ताहे सलागापल्ले सलागा पत्रिखत्ता । एवं आदरणनिकिरणकमेण ताव काय जाव परंपरेणं महासलाग पडिसलाग सलाग अणवट्ठियपलो य चउरो वि भरिया, ताहे उक्कोसमइच्छियं । इत्थ जावइया अणवट्टियपल्लसलागापल्लपडिसलागापल्लेग य दीवसमुद्दा उद्धरिया, जे य चउपल्लट्रिया सरिसवा एस सबो वि एतप्पमाणो रासी एगरूवूणो उक्कोसयं संखिजयं हवइ । जहण्णुक्कोसट्टाणमझे जे ठाणा ते सबै पत्तयं अजहण्णमणुक्कोसया संखिज्जया भणियबा । सिद्धंते य जत्थ जत्थ संखिज्जयगहणं कयं तत्थ तत्थ सवं अजहन्नमणुकोसयं दबं । एवं संखेजगे परुविए सीमो पुच्छइ-भगवं! किमेएणं अणवट्टियपल्लसलागपडिसलागाईहि य दीवसमुदुद्धारगहणेण य उक्कोससंविजपरूवणा किज्जइ ? गुरू भणइ नत्थि अन्नो संखिजगम्स फुडयरो पावणोवाओ त्ति (पत्र १११ ) ॥ ७७ ॥ -------- भृतः, क्रमागतोऽनवस्थितोऽपि । ततः शलाकापल्यः शलाकां न प्रतीच्छति इति कृत्वा स एवोत्क्षिप्तो निष्ठितस्थानात् परतः पूर्वक्रमेण प्रक्षिप्तो निष्ठितश्च, ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रथमा शलाका क्षिमा ततोऽनवस्थित उत्क्षिप्तो निष्तिस्थानात परतः पूर्वक्रमेण प्रक्षिप्तो निष्ठितश्च, ततः शलाकापल्य शलाका प्रक्षिप्ता । एवमन्येनान्यन अनवस्थितेन आकिरणनिकिरणेन यदा पुनः शलाकापल्यः भृतोऽनवस्थितश्च, तदा पुनः शलाकापल्य उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्तो निष्टितश्च पूर्वक्रमेण, तदा प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया प्रतिशलाका क्षिप्ता । एवं आकिरणनिस्किरणेन यदा त्रयोऽपि प्रतिशलाकाशलाकानवस्थितपल्याश्च मृताः तदा प्रतिशलाकापल्य उतिक्षप्तः प्रक्षिप्यमाणो निष्ठितश्च तदा महाशलाकापत्ये प्रथमा महाशलाका क्षिप्ता, तदा शलाकापत्य उक्षिप्तः प्रक्षिप्यमाणो निष्टितश्च तदा प्रतिशलाकापस्ये शलाका प्रक्षिप्ता । तदाऽनवस्थिन उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्तश्च तदा शलाकापल्ये शलाका प्रक्षिप्ता । एवं आकिरणनिष्किरणक्रमेण तावत् कत्तव्यं यावत् परम्परया महाशलाका प्रतिशलाका शलाकाऽनवस्थितपल्यथ चत्वारोऽपि मृताः तदोकृष्टं अतिक्रान्तम् । अत्र यावन्तोऽनवस्थितपल्यशलाकापल्यप्रतिशलाका. पल्यैश्च द्वीपसमुद्रा उद्धृताः, ये च चतुष्पल्यस्थिताः सर्पपा एष सर्वोऽपि एतत्प्रमाणो राशिरेकरूपोन उत्कृष्टकं सल्यानकं भवति । जघन्योकृष्टस्थानमध्ये यानि स्थानानि तानि सर्वाणि प्रत्येक अजघन्यानुत्कृष्टानि सख्यातकानि मणितव्यानि । सिद्धान्ते च यत्र यत्र सधयग्रहणं कृतं तत्र तत्र सर्व अजघन्यमनुत्कृष्ट द्रष्टव्यम् । एवं सङ्ख्यातके प्ररूपिते शिष्यः पृच्छति-भगवन् ! किमेतेनानवस्थितपल्यशलाकाप्रतिशलाकादिभिश्च द्वीपसमुद्रोद्धारग्रहणेन चोत्कृष्टस वयातकप्ररूपणा क्रियते ? गुरुर्भणति-नास्त्यन्यः सङ्ख्येयकस्य स्फुटतरः प्ररूपणोपाय इति ॥ १ एष समप्रोऽपि पाठः अनुयोगद्वारचूर्णौ ७९ तमे पत्रेऽप्यस्ति ।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७-७९] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । २०७ इत्युक्तं त्रिविधमपि सत्यकम् । इदानीं नवविधमसत्येयकं नवविधमेव चानन्तकं निरुखपयिषुर्गाथायुगमाह रूवजुयं तु परित्तासंखं लहु अस्स रासि अभासे । जुत्तासंखिजं लहू, आवलियासमयपरिमाणं ॥ ७८ ॥ पूर्वोक्तमेवोत्कृष्टं येयकं 'रूपयुतं तु' रूपेण एकेन सर्षपेण पुनर्युक्तं सत् 'लघु' जघन्यं 'परी'तास' परीत्तासेयकं भवति । इदमत्र हृदयम् - इह येनैकेन सर्पपरूपेण रहितोऽनन्तरोद्दिष्टो राशिरुत्कृष्टसङ्ख्यातमुक्तं तत्र राशौ तस्यैव रूपस्य निक्षेपो यदा क्रियते तदा तदेवोत्कृष्टं सख्यातकं जघन्यं परीत्तासयातकं भवतीति । इह च जघन्यपरीत्तासङ्ख्येयकेऽभिहिते यद्यपि तस्यैव मध्यमोत्कृष्टभेदप्ररूपणावसरस्तथापि परीत्तयुक्तनिजपद भेदतस्त्रिभेदानामप्यसङ्ख्ये यकानां मध्यमो - कृष्टभेद पश्चादल्पवक्तव्यत्वात् प्ररूपयिष्येते, अतोऽधुना जघन्ययुक्तासख्यानकं तावदाह-"अम्स रासि अवभासे" इत्यादि अस्य राशेः - जधन्यपरीत्तासह्येयकगतराशेः 'अभ्यासे परस्परगुने सति 'लघु' जघन्यं युक्तासयेयकं भवति । तच्च 'आवलिकासमयपरिमाणम्' आवलिका"असंखिजाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं" ( अनुयो० पत्र १७८-२ ) इत्यादिसिद्धान्तप्रसिद्धा तम्याः समया:- निर्विभागाः कालविभागास्तत्परिमाणमावलिकासमयपरिमाणम्, जघन्ययुक्तासत्येयकतुल्य समय राशिप्रमाणा आवलिका इत्यर्थः । एतदुक्तं भवति - जघन्यपरीता सङ्ख्येयकसम्बन्धी यावन्ति सर्वपलक्षणानि रूपाणि तान्येकैकशः पृथक् पृथक् संस्थाप्य तत एकैकस्मिन् रूपे जघन्यपरीत्तासल्यातकप्रमाणो राशिर्व्यवस्थाप्यते, तेषां च राशीनां परस्परमभ्यासो विधीयते । इहैवं भावना---असत्कल्पनया किल जघन्यपरीत्तासङ्ख्येयकराशिस्थाने पञ्च रूपाणि कल्प्यन्ते, तानि वित्रियन्ते- - जाताः पञ्चैककाः १११११, एककानामधः प्रत्येकं पश्चैव वाराः पञ्च पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते । तद्यथा-33333 | अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिता जाता पञ्चविंशतिः, साऽपि पञ्चभिराहता जातं पञ्चविंशं शतम् इत्यादिक्रमेणामीषां राशीनां परस्पराभ्यासे जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि ३१३५ । एष कल्पनया तावदेतावन्मात्रो राशिर्भवति, सद्भावतस्वसङ्ख्येरूपो जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकतया मन्तव्य इति ॥ ७८ ॥ निरूपितं जघन्ययुक्तासत्येयकम् । सम्प्रति शेषजघन्यासङ्ख्याता सङ्ख्यातकभेदस्य जघन्यपरीत्तानन्तकादिस्वरूपाणां त्रयाणां जघन्यानन्तकभेदानां च स्वरूपमतिदेशतः प्रतिपिपादयिषुराहवितिचउपंचमगुणणे, कमा सगासंख पढमचउसत्त । ता ते रूवजुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा ॥ ७९ ॥ इह ‘“संखिज्जेगमसंखं” ( गा० ७१ ) इत्यादिगा थोपन्यस्तोत्कृष्टसङ्ख्यातकादिमौल सप्तपदापेक्षया सङ्ख्यातकाद्यभेदविकलानि यानि परीत्तासङ्ख्यातकादीनि पट् पदानि तानि परीत्तासङ्ख्यातकानन्तानन्तक भेदद्वयविकलानि द्वित्रिचतुः पञ्चसङ्ख्यात्वेन प्रोक्तानि । ततः 'द्वित्रिचतुःपञ्चम १ असङ्ख्येयानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन ॥ २ मौलसप्तपदानि त्वेतानि -- उत्कृष्ट सङ्ख्यातकम् १ परीत्ता सख्यातकम् २ युक्तासङ्ख्यातकम् ३ असङ्ख्याता सङ्ख्यातकम् ४ परीत्तानन्तकम् ५ युक्तानन्तकम् ६ अनन्तानन्तकम् ७ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा गुणने द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपदवाच्यराशेरन्योऽन्याभ्यासे सति 'क्रमात्' क्रमेण "सगासंख" त्ति प्राकृतत्वात् 'सप्तमासङ्ख्यातम्' स्थापनापेक्षया जघन्यसंख्यातकम् १ । मध्यमसंख्यातकम् २ | उत्कृष्टसंख्यातकम् ३ परीसासं० जघ.१ परीत्तासं० मध्य. २ परीत्तासं० उत्कृ०३ युक्तासं० जघन्यम् ४ । युक्तास. मध्य०५ युक्तासं० उत्कृ०६ असं. असं० जघ०७१ असंअसं० मध्य० ८ असं. असं० उत्कृ. ९ परीत्तानन्तं जघ०१ परीत्तानन्तं मध्य. २ परीत्तानन्तं उत्कृ. ३ युक्तानन्तं. जघ. ४ युक्तानन्तं मध्य. ५ युक्तानन्तं उत्कृ०६ अनन्तानन्तं जप० । अनन्तानन्तं मध्य. ८ अनन्तानन्तं उत्कृ. ९ ! जघन्यासङ्ख्यातासङ्ख्यातकम् । “पढमचउसत्त णंत" ति प्राकृतत्वात् प्रथमचतुर्थसप्तमान्यनन्तकानि । तत्र प्रथमानन्तकं-जघन्यपरीत्तानन्तकम् चतुर्थानन्तकम्-जघन्ययुक्तानन्तकम् सप्तमानन्तकं-जघन्यानन्तानन्तकं भवतीति । इह जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतोऽसद्ध्येयकानन्तकयोः प्रत्येकं नवविधत्वात् प्रदार्शतभेदानां सप्तमप्रथमादिसङ्ख्यानं सङ्गच्छत एव । इदमत्रैदम्पर्यम्द्वितीये युक्तासङ्ख्यातकपदवाच्ये जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकलक्षणे राशौ विवृते सति यावन्ति रूपाणि तावत्सु प्रत्येक जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकमाना राशयोऽभ्यसनीयाः, ततम्तषां राशीनां परम्परताइने यो राशिर्भवति तत् सप्तमासङ्घयेयकं मन्तव्यम् । तृतीये त्यसइयेयकासङ्ख्येयकपदवाच्ये जघन्यासङ्ख्येयकासङ्ख्येयकरूपे राशी यावन्ति रूपाणि तावतामेव जघन्यासयेयकासङ्ख्ययकराशीनामन्योऽन्यगुणने सति यो राशिः सम्पद्यते तत् प्रथमानन्तकं जघन्यपरीत्तानन्तकमवसेयम् । चतुर्थे तु परीत्तानन्तकपदवाच्ये जघन्यपरीत्तानन्तकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तावत्सङ्ख्यानां जघन्यपरीत्तानन्तकराशीनां परस्परमभ्यासे यावान् राशिर्भवति तत् चतुर्थमनन्तकं जघन्ययुक्तानन्तकं भवति । पञ्चमे तु युक्तानन्तकपदवाच्ये जघन्ययुक्तानन्तकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तत्प्रमाणानामेव जघन्ययुक्तानन्तकराशीनां परस्परगुणने यावान् राशिः सम्पद्यते तत् सप्तमानन्तकं जघन्यानन्तानन्तकं भवति । आह परीत्तासङ्ख्यातकयुक्तासङ्ख्यातकासङ्ख्यातासङ्ख्यातकपरीत्तानन्तकयुक्तानन्तकानन्तानन्तकलक्षणाः षडपि राशयो जघन्यास्तावन्निर्दिष्टाः, मध्यमा उत्कृष्टाश्चैते कथं मन्तव्याः? इत्याह ---"ते रूवजुया" इत्यादि । 'ते' अनन्तरोद्दिष्टा जघन्याः षडपि राशयो रूपेण-एककलक्षणेन युताः-समन्विता रूपयुताः सन्तः किं भवन्ति ? इत्याह--'मध्याः' मध्यमा अजघन्योत्कृष्टा इति यावत् । तत्र यः प्राग्निर्दिष्टो जघन्यपरीत्तासङ्ख्यातकराशिः स एकस्मिन् रूपे प्रक्षिप्ते मध्यमो भवति, उपलक्षणं चैतत् , नैकरूपप्रक्षेप एव मध्यमभणनं किन्त्वेकैकरूपनिक्षेपेऽयं तावद् मध्यमो मन्तव्यो यावद् उत्कृष्टपरीचासङ्ख्येयकराशिन भवतीति । एवमनया दिशा जघन्ययुक्तासचयातकादयोऽपि राशय एकैकस्मिन् रूपे निक्षिप्ते मध्यमाः सम्पद्यन्ते, तदनु चैकैकरूपवृद्ध्या तावद् मध्यमा अवसेया यावत् खं खमुत्कृष्टपदं नासादयन्तीति । तते षडपि किंखरूपाः सन्त उत्कृष्टा भवन्ति ? इत्याह---"रूवूण गुरु पच्छ” त्ति रूपेण-एककलक्षणेन ऊनाः-न्यूना रूपोनाः सन्तस्त एव प्रागभिहिता जघन्या राशयः, तेशब्द आवृत्त्येहापि सम्बन्धनीयः, किं भवन्ति ? Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ ७९-८०] घडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । इत्याह-'गुरवः' उत्कृष्टाः 'पाश्चात्याः' पश्चिमराशय इत्यर्थः । इयमत्र मावना--जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकराशिरेकेन रूपेण न्यूनः स एव पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तासङ्ख्येयकखरूपो भवति, जघन्यासङ्ख्यातासञ्चयातकराशिस्त्त्रेकेन रूपेण न्यूनः सन् पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तासङ्ख्यातकखरूपो भवति, जघन्यपरीत्तानन्तकराशिः पुनरेकेन रूपेण न्यूनः पाश्चात्य उत्कृष्टासङ्ख्यातासङ्ख्यातकस्वरूपो भवति, जघन्ययुक्तानन्तकराशिस्त्वेकरूपोनः पाश्चात्य उत्कृष्टपरीतानन्तकस्वरूपो भवति, जघन्यानन्तानन्तकराशिरेकरू परहितः पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तानन्तकखरूपो भवतीति । इदं चासङ्ख्येयकानन्तकभेदानामित्थं प्ररूपणमागमाभिप्रायत उक्तं, कैश्चिदन्यथाऽपि चोच्यते ॥ ७९ ॥ अत्र एवाह इय मुत्तुत्तं अन्न, वग्गियमिकसि चउत्थयमसंग्वं । होह असंवासंख, लहु रूवजुयं तु तं मज्झं ॥ ८॥ 'इति' पूर्वोक्तप्रकारेण यद असलयातकानन्तकस्वरूपं प्रतिपादितं तत् सूत्रे-अनुयोगद्वारलक्षणे सिद्धान्ते उक्त-निगदितम् । तथा चोक्तं श्रीअनुयोगद्वारेषु उकोमा संग्विजए सायं पक्वित्तं जहन्नयं परित्तामंखिजयं होइ । तेण परं अजहन्नमणुक्कोमयाई टाणाई नाव उक्कोस परित्तासंखिजयं न पायेइ । उक्कोसयं परित्तासंविजयं कित्तियं होइ ? जहन्नयं परितारिख जयं जहन्नयपरित्तासंखिजयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नन्मासो रूबूणो उकोसयं परित्तासंखिजयं हवइ. अहवा जहन्नयं जुत्तासंखिजय रूबूणं उक्कोसयं परित्तासंखिजयं होइ । जहन्नयं जुत्तासंग्विजयं कित्तियं होइ ? जहन्नयपरितासंग्विजयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नन्मासो पडिपुन्नी जहन्नयं जुत्तासंखिजयं होइ. अहवा उक्कोसए परित्तासंखिज्जए स्वं पक्वित्तं जहन्नयं जुनासंखिजय होइ, आवलिया वि तित्तिल्लया चेव । तेण परं अजहन्नमणुकोसयाई टाणाइं जाव उकोसयं जुत्तासंखिजयं न पावइ । उक्कोसयं जुत्तासंखिजयं कित्तिल्लयं होइ ?, जहन्नाणं जुत्तासखि जाणं आवलिया गुणिया अन्नमन्नब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखिजय होइ, अहया जहन्नयं असंखिज्जासंखिजयं रूणं उक्कोमयं जुत्तासंखिज्जयं होइ । जहन्नयं असंस्विजासंग्विजयं कित्तियं होइ ? जहन्नएणं जुत्तासंखिज्जएणं आवलिया गुणिया अन्नमन्नमासो पडिपुन्नो जहन्नयं असंग्विज्जासंग्विजयं होइ. अहवा उक्कोसए जुत्तासंखिज्जए रूवं परिवत्तं जहन्नयं असंखिज्जासंग्विजय होइ । तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयाइं ठाणाइं जाव १ उत्कृष्टके नवयके का प्रक्षिप्त जघन्यः परीतासङ्खयेगक भवति । ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्ट परीत्ताम अवयकं न मानोति । उत्कृष्टयः परीत्तासहये दान कियद् भवति? जघन्यकं परीत्तासययक जघन्यपरीत्तासङ्येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यायो रूपोन उत्कृष्टकं परीत्तासचंचयकं भवति, अथवा जथन्यकं युक्तासङ्ख्ययन रूपोनं उत्कृष्टकं परीतासयेयवं भवति। जधन्यकं युक्तासयेयकं कियद् भवति ? जघन्यकपरीत्तासयेयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णा जघन्य युक्तासयेयकं भवति, अथवोत्कृष्ट के परीतासङ्ख्येयके रूपं प्रक्षिप्त जघन्यकं युक्ताराययकं भवति, आवलिकाऽपि तावत्येव । ततः परमजघन्योस्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टकं युक्तासययक न प्राप्नोति । उत्कृष्टकं युक्तासहयेयकं कियद् भवति ? जघन्यकेन युक्तासखयेयकेनावलिका गुणिता अन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कृष्टकं युक्तासययकं भवति, अथवा जघन्यक्रमसहयेयासङ्ख्येयकं रूपोनं उत्कृष्टकं युक्तास येयकं भवति । जघन्यकमसलयेयासयेयकं कियद् भवति ? जघन्यकेन युकासद्धयेयकेनावलिका गुणिता अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकमसख्ययास येयकं भवति, अथवोत्कृष्टके युक्कासध्ययके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकमसलयेयासयेयकं भवति । ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टक क. २७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं न पावेइ । उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं कित्तियं होइ ? जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं जहन्नय असंखिज्जासंखिज्जयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नभासो रूवूणो उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं परित्ताणंतयं वूणं उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ । जहन्नयं परित्ताणंतयं कित्तियं होइ ? जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं जहन्नयअसंखिज्जासंखिज्जयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नभासो पडिपुन्नो जहन्नयं परित्ताणंतयं होइ. अहवा उक्कोस असंखिज्जासंखिज्जए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं परित्ताणंतयं होइ । तेण परं अजहन्नमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोस परित्ताणंतयं न पावइ । उक्कोसयं परित्ताणंतयं कित्तियं होइ ? जहन्नयं परित्ताणंतयं जहन्नयपरित्ताणंतयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नभासो रुवृणो उक्कोसयं परित्ताणंतयं होइ, अहवा जहन्नयं जुत्ताणंतयं स्वणं उक्कोसयं परित्ताणंतयं होइ । जहन्नयं जुत्ताणंतयं कित्तियं होइ ? जहन्नयं परित्ताणंतयं जहन्नयपरित्ताणंतयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नभासो पडिपुन्नो जन्नयं जुत्ताणंतयं होइ, अहवा उक्कोमए परित्ताणंतर रुवं पक्वित्तं जहन्नयं जुत्ताणंतयं होइ, अभवसिद्धिया वितत्तिया चेव । तेण परं अजहन्नमणुकोसयाई ठाणाई जाब एक्कोसयं जुत्ताणंतयं न पावइ । उक्कोसयं जुत्ताणंतयं कित्तियं होइ : जहन्नणं जुत्ताणंतपुर्ण अभवसि - द्धिया गुणिया अन्नमन्नभासो रुवणो उक्कोस जुत्ताणंतयं होइ. अहवा जहन्नयं अनंताणंतयं रूवूर्ण उक्कोसयं जुत्ताणंतयं होइ । जहन्नयं अनंताणंतयं कित्तियं होइ ! जहन्नपुणं जुत्ताणंतएवं अभवसिद्धिया गुणिया अन्नमन्नभासो डिपुन्नो जहन्नयं अणनाणंतयं होइ, अहवा उको जुत्ताणंत वं पक्वित्तं जहन्नयं अणंताणंतयं होइ । तेण परं अजहन्नमणुकोसयाई ठाणाई | 4 एवं उक्कोमयं अणंताणंतयं नत्थि :- ( २३८ - १ ) इति । सायकं न प्राप्नोति । उत्कृष्टकम येयायकं कियद् भवति । जघन्यकम सङ्ख्यासकं जघन्यकासङ्ख्ययासङ्ख्येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासी रूपोन उत्कृष्टमायकं भवति, अथवा जनन्यकं परीत्तानन्तकं रूपनं उत्कृष्टकम सङ्ख्यासज्यकं भवति । जघन्यकं परीत्तानन्तकं कियद् भवति । जघन्यकमसङ्ख्येयासङ्ख्येयं जघन्यकासयासकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यामः प्रतिपूर्णो जघन्यकं परीतानन्तकं भवति, अथवोत्कृष्ट केsसायके रूप प्रक्षिप्तं जघन्यकं परीतानन्तकं भवति । ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुए के परीत्तानन्तकं न प्राप्नोति । उत्कृष्टकं परीत्तानन्तर्क कियद् भवति ? जघन्यकं परीतानन्तकं जघन्यकपरीत्तानन्तकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासी रूपोन उत्कृष्टकं परीतानन्तकं भवति, अथवा जघन्यकं युक्तानन्तकं रूपोनमुत्कृष्टकं परीत्तानन्तकं भवति । जघन्यकं युतानन्तकं क्रियद् भवति ? जघन्यकं परीतानन्तकं जघन्यकपरीतानन्तकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति, अथवोत्कृष्ट के परीतानन्तके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति, अभवसिद्धिका अपि तावन्त एव । ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टकं युतानन्तकं न प्राप्नोति । उत्कृष्टकं युक्तानन्तकं कियद् भवति ? जघन्यकेन युक्तानन्तकेनाभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याभ्यासों रूपोनः उत्कृष्टकं युक्तानन्तकं भवति, अथवा जघन्यकमनन्तानन्तकं रूपोनमुत्कृष्टकं युक्तानन्तकं भवति । जघन्यकमनन्तानन्तर्क कियद् भवति ? जधन्यकेन युक्तानन्त केनाभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकमनन्तानन्तकं भवति, अथवोत्कृष्ट युक्तानन्तके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकमनन्तानन्तकं भवति । ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि । एवमुत्कृष्टकमनन्तानन्तकं नास्ति ॥ एतचान्तर्गतपाठो मुद्रितानुयोगद्वारेषु नास्ति ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०-८२ ] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । २११ उक्तः सूत्राभिप्रायः । साम्प्रतं मतान्तरगतमसङ्ख्यातानन्तकत्ररूपमाह – “अन्ने वग्गिय" इत्यादि । अन्ये आचार्याः - एके सूरय एवमाहुः, यथा --- ' - 'चतुर्थकमसङ्ख्यं' जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकरूपं 'वर्गितं' तावतैव राशिना गुणितं सत् " एकसि" ति एकवारं 'भवति' जायते - सम्पद्यते असङ्ख्यासहयं 'लघु' जघन्यम् जघन्यासङ्ख्यातासल्यातकं भवतीत्यर्थः । अत्रापि मते असङ्ख्यातकमुद्दिश्य मध्यमोत्कृष्टभेदप्ररूपणा पूर्वोक्तवेति दर्शयन्नाह - "रुवजुयं तु तं मज्झं" ति रूपेणसर्षपलक्षणेन युतं रूपयुतं ‘तुः' अवधारणे व्यवहितसम्बन्धश्च 'तद्' इति तदेवानन्तराभिहितं जघन्यासयासत्येयादिकम् किं भवति ? इत्याह-- 'मध्यं' मध्यमासमयेयासत्येयादिकं भवति ॥८०॥ वृणमाइमं गुरु, ति वग्गिउं तं इमं दस क्रखेवे । लोगrirever, घम्साघम्मेगजियदेसा ॥ ८१ ॥ तदेव जघन्यासत्येयासङ्ख्येयादिकं 'रूपोनम' एकेन रूपेण रहितं सद् 'आदिमं' तदपेक्षया आद्यस्य राशेः सम्वन्धि 'गुरु' उत्कृष्टं भवतीति । अयमत्राशयः- - जघन्यासत्येयासत्येयकं रूपनं स युक्तायातकमुत्कृष्टकं भवति, जघन्यपरीत्तानन्तं रूपोनमसङ्ख्येयासङ्ख्येयकमुत्कृष्टं भवति, जघन्ययुक्तानन्तं तु रूपोनमुत्कृष्टं परत्तानन्तं भवति, जघन्यानन्तानन्तकं तु रूपोनमुकृष्टं युक्तान्त भवतीति । अधुना जघन्यपरीतानन्तकं मतान्तरेण प्ररूपयन्नाह - "ति aftग तं" इत्यादि । 'नद्' इति प्रागभिहितं जघन्यासत्यासत्येयकं 'त्रिर्वर्गयित्वा' सदृशद्विराशी परस्परं त्रीन्वारानभ्यस्येत्यर्थः । अयमत्राशयः -- जघन्यासत्ये यासत्येयकराशेः सदृशद्विराशिगुण लक्षण वर्गों विधीयते तस्यापि वर्गराशेः पुनर्वर्गः क्रियते तस्यापि वर्गराशेः पुनरपि वर्गो निष्पाद्यत इति । ततः किम् इत्याह इमान्' वक्ष्यमाणस्वरूपान् 'दश' इति दशसयान् क्षिप्यत इति कर्मणि घञि क्षेपाः प्रक्षेपणीयराशयस्तान् 'क्षिपत्र' निधेहीत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः । तथाहि - लोकाकाशस्य प्रदेशाः १ धर्मश्च अधर्म एकजीवश्च धर्माधर्मैकजीवास्तेषां देशाः - प्रदेशाः । अयमत्रार्थः धर्मास्तिकायमदेशाः २ अधर्मास्तिकायप्रदेशाः ३ एकजीवप्रदेशाः ४ ॥ ८१ ॥ तथा ठिबंधझवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा । दुह् य समाण समया, पत्तेयनिगोयए विवसु ॥ ८२ ॥ स्थितिबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि कपायोदयरूपाण्यध्यवसायशब्देनोच्यन्ते, तान्यसङ्ख्येयान्येव । तथाहि--- ज्ञानावरणस्य जघन्योऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः स्थितिबन्धः, उत्कृष्टतस्तु त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणः, मध्यमपदे त्वेकद्वित्रिचतुरादिसमयाधिकान्तर्मुहूर्तादिकोऽस मेदः, एषां च स्थितिबन्धानां निर्वर्तकान्यध्यवसायस्थानानि प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भिन्नान्येव, एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणेऽसङ्घयेयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यम् । " अणुभाग" त्ति 'अनुभागाः' ज्ञानावरणादिकर्मणां जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निर्वर्तकान्यसङ्घयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्त्यतोऽनुभागविशेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याः, कारणभेदाश्रितत्वात् कार्यभेदानाम् । "जोगछेयपलिभाग” त्ति योग: मनोवाक्काय Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा विषयं वीर्य तस्य केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागा योगच्छेदप्रतिभागाः, ते च निगोदादीनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानामाश्रिता जघन्यादिभेदभिन्ना असोया मन्तव्याः । "दुण्ह य समाण समय" त्ति 'द्वयोश्च समयोः' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालखरूपयोः समया असङ्ख्येयस्वरूपाः । “पत्तेयनिगोयए" ति अनन्तकायिकान् वर्जयित्वा शेषाः पृथिव्यप्तेजोवायुक्नस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः सर्वेऽपि जीवा इत्यर्थः, ते चासङ्ख्यया भवन्ति । निगोदाः सूक्ष्माणां बादराणां चानन्तकायिकवनस्पतिजीवानां शरीराणीत्यर्थः, ते चासङ्ग्याताः । एवमेते प्रत्येकमसलयेयस्वरूपा दश क्षेपास्तान् क्षिपस्व ॥ ८२ ।। अथ राशिदशकप्रक्षेपानन्तरं तस्यैव राशेयस्मिन् विहिते यद् भवति तदाह--- पुण तम्मि ति वग्गियए, परित्तणंत लहु तस्स रासीण । अब्भासे लह जुत्ताणं अव्भवजियमाणं ॥ ८॥ पुनरपि "तम्मि" ति तस्मिन्' अनन्तरोदिते प्रक्षिप्तक्षेपदशके विवागते श्रीन वारान् वांगते सति परीत्तानन्तं 'लघु' जघन्यं भवति । इदमुक्तं भवति--जघन्यासाच्ययासययकस्वरूपे वारत्रयं वर्गिते राशौ दशैते क्षेपाः क्षिप्यन्ते. तत इत्थं पिण्डितो यो गांग: सम्पद्यते स पुनरपि वारत्रयं वय॑ते ततो जघन्यं परीत्तानन्तकं भवतीति । इदानी जघन्ययुक्तानन्तकनिन्छपणायाह.----- "तस्स रासीण" इत्यादि, 'तम्य' जघन्यपरीत्तानन्तकस्य सम्बन्धिनां गशीनामन्योन्यमभ्यासे सति 'लघु' जघन्यं युक्तानन्तकमभन्यजीवमानं भवति । इयमन्त्र भावना .उधन्यपरीत्तानन्तक ये राशयः सर्षपरूपाम्ते पृथक् पृथग व्यवस्थाप्यन्ते. तेषां तथा व्यवस्थापिकानां जघन्यपरीत्तानन्तकमानानां राशीनामन्योन्याभ्यासे मति युक्तानन्तं जयन्यं भवति, तथा धन्ययुक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि वर्तन्त अभवसिद्धिका अपि जीवा केवलिन तावन्त एव दृष्टा इति ॥ ८३ ॥ जघन्यानन्तानन्तकप्ररूपणायाह-- तव्वग्गे पुण जायड, णताणंत लह तं च तिकरवृत्तो। वग्गसु तह विन तं होड़ गंतववे ग्विवमु छ इमे ॥ ८४ ॥ तस्य-जघन्ययुक्तानन्तकराशेवर्ग-सकृदभ्यासे तद्वर्ग कृते सति 'पुनः' भूयोऽपि 'जायते' सम्पद्यते अनन्तानन्तं 'लघु' जघन्यम् , जघन्यानन्तानन्तकं भवतीत्यर्थः । उत्कृष्टानन्तानन्तकारूपणायाह---"तं च तिक्वुत्तो" इत्यादि । तच्च तत् पुनर्जघन्यमनन्तानन्तं त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् ‘वर्गयस्त्र' तावतैव राशिना गुणय । अयमत्रार्थः---जघन्यानन्नानन्तकराशेस्तावतैव राशिना गुणनम्वरूपो वर्गः क्रियते, ततस्तस्य वर्गितराशेः पुनवर्गः, तस्यापि वर्गितराशेर्भूयोऽपि वर्ग इति । तथापि' एवमपि वारत्रयं वर्गे कृतेऽपि तद्' उत्कृष्टमनन्तानन्तकं 'न भवति' न जायते । ततः किं कार्यम् ! इत्याह----अनन्तक्षेपान् ‘इमान्' वक्ष्यमाणस्वरूपान् ‘पट्' षट्सक्यान् ‘क्षिपस्व' निघेहीति ।। ८४ ॥ तानेव षडनन्तक्षेपानाह-~ सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई काल पुग्गला चेव । सध्यमलोगनहं पुण, ति वग्गिउं केवलदुगम्मि ॥ ८५ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३-८६] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः । २१३ सर्व एव 'सिद्धाः' निष्ठितनिःशेषकर्माणः १ 'निगोदजीवाः' समस्ता अपि सूक्ष्मबादरभेदभिन्ना अनन्तकायिकसत्त्वाः २ विनम्पतयः प्रत्येकानन्ताः सर्वेऽपि वनम्पतिजीवाः ३ 'कालः' इति सर्वोऽप्यतीतानागतवर्तमानकालयमयगशिः ४ पुद्गलाः' समस्तपुद्गलगशेः परमाणवः ५ 'सर्व' समस्तम् 'अलोकनभः' अलोकाकाशमिति उपलक्षणत्वात् सर्वोऽपि लोकालोकप्रदेशराशिः ६ इत्येतद्राशिपटकप्रक्षेपानन्तरं यस्मिन् कृते यद् भवति तदाह-'पुनः' पुनरपि 'त्रिवर्गयित्वा' त्रीन् वारांस्तावतैव राशिना गुणयित्वा 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनयुगले क्षिप्ते सति ॥ ८५ ।। किम् ? इत्याह ग्वित्ते णंनाणं, हवेइ जिटुं तु ववहरइ मज्झं । __ इय सुहमन्यवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं ।। ८६ ।। क्षिप्त' न्यन्ने सत्यनन्तानन्तकं भवति' जायने 'ज्येष्ठम्' उत्कृष्टम् 'तुः' पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च । 'व्यवहाति' व्यवसारे मस्यं तु' मध्यमं पुनः । इयमत्र भावना---इह केवलज्ञानकेवलदर्शनादन तत्पबागा उच्यन्ते. ततः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः पर्यायेप्वनन्तेषु क्षिप्तेषु सल्विति द्रष्टव्यम् , नवरं ज्ञेयपर्यायाणामानन्त्याद ज्ञानपयायाणामप्यानन्त्यं वेदितव्यम् , एवमनन्तानन्तं ज्येष्ठं भवति, भवन्यय यन्तुजातम्यात्र संगृहीतत्वात् , अतः परं वस्तुसत्त्वस्यैव सम्झ्याविषयस्याभावादित्यभिप्रायः । मूत्राभिप्रायतस्त्वित्थमप्यनन्तानन्तकमुत्कृष्टं न प्राप्यते, अनन्तकम्याष्टविधम्यैव तत्र प्रतिपादितलात । तथा चोक्तमनुयोगद्वारेषु ...। एवमुक्कोमयं जगतागतयं नथि » । तदत्र तत्त्वं केलिनो विदन्ति । सूत्रे तु यत्र कचिदनन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्राजघन्योत्कृष्टशब्दवाच्यमनन्तानन्तकं द्रष्टव्यम् । तदेवं व्याख्यातं सप्रपञ्चं सङ्ख्यातकासङ्ख्यातकानन्तकादिस्वरूपम् , तन्निरूपणे च व्याख्याता नमिय जिणं जियमग्गण': ( गा० १ ) इत्यादि मौलद्वारगाथा । सम्प्रति पडशीतिमयगाथाप्रमाणत्वेन यथार्थं पडशीतिकशास्त्रं समर्थयन्नाह-~~ "इय सुहुमत्थवियारो" इत्यादि । इति' पूर्वोक्तप्रकारेण सूक्ष्मः-मन्दमत्यगम्यो योऽर्थःशब्दाभिधेयं तम्य विचार: विचारणं लिग्वितः' अक्षरविन्यासीकृतः पञ्चसङ्ग्रहादिशास्त्रेभ्य इति शेषः । कैः ? इत्याह. ---- 'देवेन्द्र रिभिः' करालकलिकालपातालतलावमजद्विशुद्धधर्मधुरोद्धरणधुरीणश्रीमागचन्द्रमरिक्रमकमलचञ्चरीकरिति ।। ८६ ॥ ॥ इति श्रीदेवेन्द्रमृरिविरचिता स्वोपज्ञषडशीतिकटीका समाप्ता ॥ १ एवमुत्कृष्टमनन्तानन्तकं नास्ति । एतचिहान्तर्गतपाठो दे पलब्धः ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ग्रन्थकारप्रशस्तिः। विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् । सूक्ष्मार्थसार्थदेशी, स श्रीवांगे जिनो जयतु ॥ १ ॥ कुन्दोज्वलकीर्तिभरैः, सुरभीकृतसकलविष्टपाभोगः । शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु ॥ २ ॥ तदनु सुधर्मस्वामी, जम्बप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः । श्रुतजलनिधिपारीणा, भूयांसः श्रेयसे सन्तु ॥ ३ ॥ ततः प्राप्ततपाचार्येत्यभिख्या भिक्षुनायकाः । समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः ॥ ४ ॥ जगजनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् । विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः ॥ ५ ॥ खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसुरिणा। षडशीतिकटीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ६ ॥ विबुधवरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसरिमुग्ख्यबुधैः । खपरसमयैककुशलैम्तदेव संशोधिता चेयम् ॥ ७ ॥ यद्गदितमल्पमतिना. सिद्धान्तविरुद्धमिद किमपि शास्त्रे । विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमावाय तच्छोध्यम् ॥ ८ ॥ पडशीतिकशास्त्रमिदं, विश्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । तेनास्तु भव्यलोकः, सूक्ष्मार्थविचारणाचतुरः ॥ ९ ॥ ग्रन्थानम् २८०० । सर्वग्रन्थानम् ५९३८ अ. २८ ॥ wamannamoram- - १ इति कर्मग्रन्थचतुष्टपात्मकः प्रथमो विभागः । franarayacacas canas Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टं प्रथमम् । कर्मग्रन्थीकान्तः प्रमाणतयोद्धृतानां शास्त्रीयावतरणानामकारादिक्रमेणानुक्रमणिका । अकामतण्हा ए अकितौ च अक्खरलंभेण समा अगंतूर्ण समुग्धार्य अधू अंग उवासगदसा अङ्गोपाङ्गच्यावना नि अजी व्यक्तिभ्रमण अहारसपहसा esar अपुग्वामि अणतिरिनारथरहियं अणबंधोदयमा उग अणमज्झसिंघण अणमिच्छमीससम्मं अणहिगया जा तीसु वि अणाइयं तं पवाण अणुगामि उ अणुगच्छ अणुव अणुचाइ सेहा अतोऽनेकस्वरात् अनियहि भागपणगे अन्तरा भवदेहोऽपि अन् केवलमुत्तम अ आभिणिबोहिय अमुत्तं चिय अने भने भणति अविरय अपबहुत्तालोयण अभवसिद्धियस्स सुर्य अभव्यस्यापि कस्यचित् अभिनवकम्माणं ६३ १२९ क ६५ १ ७६-१६० : १२८ अप्पुवं अवं (पञ्च० ० ० पत्र ३२ ) अप्पुत्रं नाहिजड़ १७ ६३ ३५ 15 १०२ ॥ ९२ १४३. १०२ ९२ १२० ३ अनादिभ्यः ३९-५६-७०-७१-११७- १२८-१८१ अग्लोऽभिदीप्तिकृत् अमिष्टफलं देव अरण्यमेतत्सविताऽस्तमागतो अरहंता भगवंता अर्थपरिसमाप्तिः पदं raji परिग्रहारम्भौ अविरसम्मा उवसंतु अविरय सासणमिच्छा अविसे सियं सुयं सुय अव्यभिचारिणा साहअशोकवृक्षः सुरपुष्प असंखिजाणं समयाणं असमीक्षितकारित्वं असूया पापशीलत्वं ૨૦ ५७ ९६ ४४ १३० arratपपत्तिश्व आगारो उ विसेसो अचेलकुदेसिय आङ मर्यादायाम् आणवणि वियारणिया १३४ १५९ ३२ १७-१८४ तो sasarart: ६६ १०२ | आत्मत्वेनाविशिष्टस्य ( शास्त्र ० स्त० १ ० ९० ) २ ४५-१५४ आद्यत्रयमज्ञानमपि १०-१२९ आ ५० आर्यसंग मिदमुहा ८ आयु लोकं पा३ आयुषि समाप्यमाने १४० आविलोलालवन्त१३६ | आवरणदेसविगमे ११८ | असि खओवसमो सिं १३३ | आहारकदुगं जायइ १७ आहारगं तु पत्तो ६९-९३९ आहारदुगं जायइ १०२ | आहारसरीरिदिय ५१ ४३ १२ ६६ १९ ६२ १९९ ११९ १७ ४४ १ २०७ ६१ ६१ २५ ३५ १५९ ६३ ७ १४० १५५ १५६ १७९ ११७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारसंज्ञा आहाराभिभाहारं चउदसपुन्धिणो १२३ / उवसमअद्धाए ठिओ (पञ्च० ल००प०३२)११८ १५५-१५८ उवसमसम्मत्ताओ उचसमसम्मम्मि दो सभी १४३ ११४ उवसमसेडिगयस्स उ उवसामगसेढिगयरस उवसामगसेढीय १४० m2 eu ९६ उत्सरदेस दहिलयं ७०-१४० इकं ता हरह धणं इत एकनवा कल्पे इत्तरिय धेरकप्पे इत्तरियाणुवसग्गा इत्थ य पभायखलिया इंडिय कसाय अश्वय इंदियमणोनिमित्त इन्द्रियम् इह दीहकालिगी इहपरलोयादाणमइह सम्यग्दृष्टिना सता इहाधोलोकिकान् ग्रामान् १७३ १७६ १७४ ईरिक गतिकम्पनयोः ईयाविपादगाच १२३ पणमि ण भंते ! पनि पएसिगमंने जीवाणं आभि. रामिण भने जीवाणं आहाशामिन जीवाणं नक्ख. मिजीवाणं भव. निर्जीवाणं सक. एएस बन जीवाणं मतोसिमलेबीवायं मन्नीदागिने' जीवाणं मले सि जं भने ! जीवाणं सवे शामिलने नरका२०१ : पागि भने नरद एमु जमलयामा १०४ एकदिग्गामिनी कीनिः एकपकोड़ी • एकजी हिनी न गचिव निविदा ६. एरावयाइ लामो ८५ गिरिर मुहमियर रामिंदिया मते : किं ना उक्कोसए असंखिजा अउकोसा जे मणुस्सा उकोसए संविजए उग्गह एकं समय उच्यते रूढिवज्ञान उजुसेढीपडिवो उहाहाययलोगं उत्तरदेहे च देवजई उत्प्रासनं सकन्दीउदए जम्स मुगसुरउदयावलियाबहिरिल्लुउन्मार्गदेशना मार्गउपयोगलक्षणों जीत्रः उपसर्गादातः उप्पत्तिया वेणझ्या उप्पाए पयकोडी उभयव्वावाराओ उभयाभावो पुढचाउरलं वपरयो उवासं पुण तं देंति उगारकारगो वि हु उवसंतषीणमाहो ANDU MA ५३५ १३३ १९८ १६५ : पत पवाव्यधारूपास्न१५-११७ एयस्मि गोयगई एयम्म एम नेओ १७ एमेव अविस्यमी १६१ पवेसो अट्टारम ११५ गवं अनियट्टिम्मि वि १५३, गवं अपरिवरिया ६६ । एवं उकोमयं अर्णता. ५८ एवं च कृपल जोगे ८३ एवं छम्मासतवं १९९ ७४ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ११३ २० १५२ ११३ एवं तिरिमणुदेवे एस असंजयधम्मो एसि परओ घडपण ओरालकायजोगं भोसर्व देवा सायं वे. ओसप्पिणीए दोसुं ओहिदसणभणागारोवउत्ता औदारिककाययोगऔदारिकप्रयोक्ता औदारिकवैक्रियाहारक ५३ किह दसणाइघाओ ७० किह पुण ते? बितेगो कुत्सिताल्पाहाते १६१ कृहुलम् कृष्णादिद्रव्यसाचिच्यात् १३२ केइ भणंति सम्वे बेउ को नाम सारहीणं के नशादिभिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि १५० क्ष्माभृकयोर्मनीषि ९६ १५१ ल Mr १५२ १९९ ४५-१५३ खेते भरहेरवणसु खंधा देसपएसा कइसमइए णं भंते ! आओ. १५९ खाओवसभिगभावाणकजम्मि समुप्पो खित्ते दुहेह मग्गण १३२ कटविवरागयकिरणा खिप्पमचिरेण तं चिय कटुगलामयं शोफ १३ खीणम्मि खइयसम्म कतिविहे णं भंते ! उव १६४ "खीणम्मि दसणतिए १३० कप्पहिओ वि एवं १३१ खीणम्मि मोहणिजे (प.ल.३०५०३२) ११९ कप्पसमत्तीह तयं खीणे दंसणमोहे ३३-१०९ कम्मविगारो कम्मण १३२ कम्हा गं भंते ! केवली करणं परिणामोऽत्र ६९-१३५ गह इंदिए य काए १९-९८ करणापर्यासेषु चतु १४६ गंठि सि सुदुज्मेमो ६९-१३९ कर्मणोऽण ७-३०-१२९ गणओ तिमेव गणा १३५ कलण् सत्याने १९३ गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः कलाणनामधिजे गम्ययपः कर्माधारे ३-११ कष शिष जस अस७३-१२७ गयजोगो उ अजोगी १५४ कपायनोकषायाणा गुच्छे चउत्थओ पुण कषायसहवर्तित्वात् गुणसहि अप्पमत्ते कषायोदयतस्तीत्रः गौणादयः कहिणं मंते ! समु १४४ काइय महिगरणीया ३२ घणदंत लट्टता कारणमालम्बणमो १३६ कार्मणशरीरयोगी १२२-१४६-१५४-१५९-१८७ चउगइयाई इगवीस १९८ कालओ उज्जुमई उ २५ बउ छ हो चड इको कालओ गं उजुमई २५ चउजाई उवधायं कालविवजयसामि १०चउदसगुणठाणेसुं कालो माणुसलोए चउदसजियठाणेसुं ११६ किन समोगो सिजमा । ६२ वउदसमग्गणठाणेसु किण्हा नीका काऊ १४४ घउदसणुषजसनाण १०२ किरिषाविसालपुणे १८ घर पण छतिय तियचड १०२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १३५ ल चउसद्दिपिढिकरंद २५ जाणइ बझेऽणुमाणाओ चतुर्थतृतीयपत्रमे जातिमरणं स्वामिनिबोधिचतुर्वर्णस्य समस्य जावणं एस जीवे एयह ११५ चत्तारिय कोडिसया जिण अजिण तिस्थऽतिस्था चितिदेहावासोपसमा. जीवसमभब्वतं १९९ चैत्यप्रतिश्रयाराम ६४ जीवाइपयरथेसु (पत्र. ल. वृ०५०३२) चोयाल लक्खाई जीवाजीवा पुन चोरा गामवहत्थं ११३ जे पुण संचिंतेलं जे वेएइ ते बंधन जो अक्षरोवलंभो छग तिमि तिमि सुर १४३ छप्पनदोसयंगुल जो उवसमसम्मट्टिी छवीसं पयकोडी जोएण कम्मएणं १५३-१५४ जो किर जहन्न जोगो जोगनिरोहं करित्ता जंघाबलम्मि खीणे जो दुवे वारे उवसम ७४ जं चउदसपुग्वधरा जं बहुबहुविहस्विप्पा ज्ञानदर्शनयोतद्वत् जंबुद्दीवप्पमाणमेसा ज्ञानस्य फलं विरतिः जं सामनग्गहणं जं सामिकालकारण झाणम्मि वि धम्मेणं जत्तिए जीवो अवगाढो ट जस्थ मइनाणं तत्थ सु ८-१७६ डिबंधु दलरस ठिई जय जीव नन्द क्षत्रिय ठिय अहिओ य कप्पो जल्लेसे मरह तल्लेसे उ १४४-१६७ दियकप्पम्मि विनियमा जस्साउण्ण मुलाई जह इह य कंचणोवल. जह गुडदहीणि विसमा (पश्चल वृ०५०३२) १९८ जह जम्बुपायवेगो ११३ णइ म चिय व अवजह दुब्धयणमवयणं १९१ जह निम्मला विचक्ख २६ तं संजयस्स सन्दजहबपए संखेजा सं १६९ तं सञ्चावंजणलविजहनयं संखिजयं कित्ति. २०१ तं समासओ चउग्विहं पमजह बेइंदियाणं तहा १७३/ तं समासओ छवि पसा. जह रनो परिहारो २७ तइयकसायाणुदए ३६-८७ जह राया तह जीवो तइयसमयम्मि मंयं जह सुद्धजलाणुगयं १३० तहबाए पोरिसीए जह सुहुमं माविंदिय १२३ तओ अणंतरं च गं बेहजहा नालिकेरदीववासि ३३-१४१ तभो अणंतरं च णं सुहु. जहा पुढविकाइयाणं १७३ तणुरोहारंमाओ जा गठीता पढमं ६९-१३९ तत्तो य अस्सकना जाणइ पासह तेज २५ । ततो व सुहुमपणगस्स A . - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ are जो गिन्हे तत्थ ताव उदारं उरालं arrtदारमुरालं तदसंखगुणविहीणं तदसंखेज्जगुणाए ares प्रदीपस्य तम्मि मओ जाइ दिवं तम्मि य तइय चउरथे तसदस चवनाई तस्माजगाद भगवान् तह महसुयनाणावरण निगुणा तिरुव अहिया तितीसयर चत्यं तिथं भंते! तिन्थं fareerसमीवासे freयरेण बिहीण तित्थि त्ति नियमओ चिय तिरिनरसुराट उच् तिरियं जाव अंतो मणु १३१ | दण्डं प्रथमे समये १५२दर्शने धार्मिकाणां च १५३ | दवाईय अभिग्गह ७६ - १६२ | दानपुण्यकृता कीर्तिः ७७ - १६३ | दिहंतस्सोवणओ ३० | दीर्घ स्वौ मिथो वृत्ती १३८ | दुःखशोकवधास्ताप१३९ | देवपूजागुरूपास्ति३१) देवायं च इक १३० | देशादिदर्शनौत्सुक्यं २६ | देसे य देसविर १७४ दो य सया छनउया grat संवरसीलो दंसणसीले जीबे दंडकवाडे समर्थ ruarat मः ११९ दो वारे विजयाइसु ५४ | द्विवचनस्य बहुवचनं १३२ १२ | धम्मम्मि हो बुढी १३३ धम्माधम्मागासा ३१ धम्माधम्मागासा २२ | धर्मशो धर्मकर्ता च ध निविहे विहु सम्म (प० ल० कृ० प० ३२) ११८ नीए विथोमित्ते ६९-१३९ १५५ तुच्छा गारवबहुला तुदादिभ्योऽनुको ७-१२९ मुल्ला जहमठाणा १३२ ते ज्ञानदर्शनावार 昔 नरयतिग जाइ थावर ते णं भंते! असन्नि *ક્ नरयाउयस्स उदए ५२ ते लुग्वा तेवट्टि पमत्ते सोग नरयाणुपुच्चियाए ४०२ ते व असंखा होगा न सम्ममीसो कुणइ कालं १३३ न सम्ममिच्छो कुण तेसि णं भंते! पुप्फफ कालं न हु किंचि लभिज सुहुम २४ ९. तेसु बिय मइपुग्वयं सुर्य नाऊण वेयणिजं नाकर्मणो हि वीर्य थ धूला लोहखंडाण (१० ल० वृ० प० ३२) ११८ | नागासं उवघायं धोवा नरा नरेहि य १७२ | नाणतिय दंसणतिगं धोबा य तसा तत्तो १७४ नाणंतराय पण पण न नाणं पंचविहं पक्ष ११४ | नाणम्मि दंसणस्मि य २७ नाणास समूहं १६४ | नाणुदियं निजरए ११९९ | नामनाम्नैकार्थ्यं समासो १६० ६४ १३५ ५७ ११३ २८-९४-११५ ६० ६० ८१ ६१ १९८ १६८ ८ ५८ ११४ ३१ ર્ ३३ न किरसमुग्धायगओ नवंत संकि लिट्टासु नम्म उ छाउमन्थिए नाणे ७-१७-१२९-१४९ १६१ १३४ १६६-१८६ १०२ ५३ 64 ८५ १५८-१७९-१८६ १०४ १५९ १६२ ३ १५८ ३१ ६ १२२ १३ १४१ ११ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बानो गमः खट्टी च नापमप्युत्सहेष निखमुद्दपि जहा नित्यं सत्वमसत्त्वं वाsनिद्रादयः समधिगतायाः fruiseम्मसरीरो निर्विशेषं विशेषाणानिव्वलियमणकुद्दवनीचैर्गोश्राश्रवदिपनेरइयाणं भंते! केवनोइंदिपञ्चवं ति पक्खचउमासवच्छर पाणभिहाणे पंचाणउई लक्खा पंचिदिओ व बउलो पचेन्द्रियप्राणिवधो पंचिंदिया व थोवा पजत्तमित्तबिंदिय पजतमित्तसनिस्स परिवजमाण भइया परिवत्तीए अविरय पढमकसाए समयं पढमट्ठमेसु समसु पढमियाण उद पण अंतरा अमाण पण थावर सुमिय पणयालं अडतीसं पणवीससत्तावीसोद पण्णवणिजा भावा पचरस पमत्तम्मी यमक्स्वरं पि इ परद्रव्यापहरणं परशोकाविष्करणं परस्य निन्दावशोप परिमसुत पुग्वापरिणामालंबणगहण परिहारियाण उ तो परिही तिलक्ख सोळस परीषहोपसर्गोप प ३५ ३४ १४१ २ पात्रे दानं तपः श्रद्धा २९ पारणगे आयासं १३६ | पितं वातं कफं हन्ति १३० पुढवीआउवणस्सइ १३८ | पुन्नानि ६४ | पुनानि धः १७१ ७ ३५ १८ १६९ १२३ ६२ १७३ पब्बाएइ न एसो पाएण संपयं चिथ पाणिदयरिद्धिसंदरि ७७-१६२ ७६-१६२ पुरुवं सुयपरिकम्मिय पुव्वरस य परिमाणं पुग्वाहीयं तु तयं पूर्वाला प्रियालापो पृषोदरादयः प्रकृतिः समुदायः स्यात् प्रज्ञादिभ्योऽण् प्रत्याख्यानकषायत्वं प्रवचनीयादयः फरुसवणेण दिणतवं १३५ १३९ | बीमगुणा बत्तीस१३८ | बढाऊ पडिवनो १६१ बंधं अविरइहेउं ३६-८६ बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रि १९८ बहुलम् ३१ बारसविहं तवो निजरा ९३ बारस मुहुत गम्भे १४३ | बालतपोभितोयादि परिबद्धा १५ १५९ ६८ ६२ | बीयाह इद्दणं ६१ | खुधिं मनि ज्ञाने ६४ | बेइंदिया णं भंते! किं १७ बेइंदियस्स दो नाणा कह ७५ब्रह्मादयस्त बाल बीओ माणूस पुरिसे बीयसायाद फ १३१ २०१ | भणियं च सुए जीवो ३५ | भण्ण म तहोराक्षं व भ १३६ १५ १५२ ६३ १३१ ५१ १२४-१४४ ११३-१२७ ११३ ११ १९५ १३३ ६२ ५ ४ १५३ ६२ “ २.५ १७४ १३८ ७० १३ ४५ ३२ १६८ ६३ ६३ ११४ ३६-८६ ११३ ६-१२९ १८१ १८१ १२७ १४१ १५३ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्ययजम्यरम्यापा भामा सत्यभामा भावणचरणपरीसह भावसुयं भासासोभाषाकर्त्रीः भावे भिदादयः भुजिपत्यादिभ्यः कर्मोपा मइवं सुयमुत्तं मणकरणं केवलिणो वि म मनोवचसी तदा न व्यापा मनोसी तु सदा सर्वथा मनोवाक्कायवकरवं मलविद्धुमणेर्व्यतिः महुभासायणसरिमो मायाडंभे कुसलो मालविणी नडि नागरि मिच्छन्तं जमुद्द मिच्छादंसणवत्त मिच्छे ससाणे वा मिथ्यात्वाधिकस्य मिथ्यात्वाविरतिप्रमादमिश्रीदारियो freerat after मुदितान्यपि मित्राणि मूढो आरंभपिओ मूलगुणाणं लभ मूलं साह पसाहा मोहोपशम एकस्मिन् hraर्याक्रोशी सौभाग्यो १२७ | यदा पुनरौदारिकशरी११५ | यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्यासी य ३२ | यमूं उपरमे १२३ ६६ यावत्तावज्जीविताव यथा जात्यस्य रक्षस्य यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः यथोद्देशं निर्देश: यदा आहारकशरीरी १५९ २७ | रक्तदोष कफं पित्तं ७६- १५९ | रम्यादिभ्यः ११४ १४ यस्मादनन्तं संसार ९ १२० रिज सेढीपाडव १६३ १६७ रुंभइ स कायजोगं ६३ रौद्रयानं मिथ्यात्वा 1. २९ ३३-१०८-१३८ १५३-१५८ - १५९-१८७ ३२ १०६ १४८ १८३ रम्यादिभ्यः कर्तरि क दाने रिउसामनं तम्मत्त ari atsratat लक्खणभेया हेउफलब्ध्यपर्याप्तका अपि लिङ्गमतन्त्रम् लिङ्गमशिष्यं लोकाश्र लिङ्गं व्यभिचार्यपि ऐसा तिनि पमतं सासु विसुद्धा ११४ | वंजिजाइ जेणत्थो ३६ १४८ वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः ३ वंजणवग्गहकालो areerpur asfoहा ११४ विकारे ७४ विगलेसु असश्चमोसा ६४ ४३ | विनयादिभ्यः ८ १२ विविहा विसिट्टा वा ६-३४-११६-१९० | वीतरागे श्रुते सङ्के १८२ | वेद्दयवणसंडजुया T ल विरताविरतानां चा व ૧૮૨ ६४६ १४८-१८१ ३४ ३५ ५१ २९-१४१ ४ ६६ २१ १६४ ७७-१६३ દૂર ૧૬૮ ૬૦ ११७ ४६ १९४ १८-८९-१४७ fare असच्चामोसे वा १५७ विगहा कसायनिड़ा- (पच० ल०वृ० प० ३२) ११८ ५- १९९ | विगहगइमावना य एच्चातः १४६-१७८ यः कर्ता कर्मभेदानां (शास्त्र ० ० १ ० ९०) २ विणिवर्हति विसुद्धिं (पञ्च० ० ० प० ३२) ११८ तत्पुराकृतं कर्म २|विधाओ १६१ यत् सर्वथापि तत्र १११ १३४ १-९६ १२ 99 १५७ १५३ १२२ ४४ ६१ १५२ ६१ २४ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aapoorvarat वेह संतकम्मं वेदो पवित्तिकाले वेद्यमानमेवदीर्यते arreम्मेण विणा येरेण निरणुकंपो वेश्यादीनामलक्कारव्यत्ययोsप्यासाम् शीलवते सातिचारो शूर वीरणि विक्रान्ताश्लेष्माणमा पित्तं संलोभविरहा संजलणाईण समो संजोयणाइयाणं संहरति पञ्चमे त्वन्तसइ भुजइति भोगो संखेज्जजोयणाणं सच्चा हिया सतामिह सजोगि अजोगिम्मि य सहाणे पडिवत्ती स ततो योगनिरोधं कंपो यथ सत्तावीस जना सदसदविसेसणाओ सदसद्गुणशंसा च संतपयपरूवणया श संते अडयालसयं निन्युपाद्यमः समए दो वओगा समचउर निमिण जिण समये समये कर्मा सम्मतगुणनिमित्तं सम्म सुर्य सव्वा सम्मदंसणसहिओ स सम्म संयमवतां तदुदय १८५ संसकरणं जं पिय (पञ्च० ल० वृ० प० ३२) ११८ १६० ५८ १७३ १२० ५६ | सम्मामिच्छीि १४० आऊ 33 १३४ | सम्मे सगसयरि जिणा १८८ सम्यक्त्वगुणेन ततो १९८ || सम्यक्त्व देशविरति११४ | सरउग्गयससिनिम्मल६४ | सरागसंयमो देश ४ सरिरेणोयाहारो सर्वज्ञसिद्धदेवाप सर्व सावद्यविरतिः ६२ ५० V १९९ १९९ सर्वादेरिन् सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः सवजगज्जीवहियं सव्वजीवाणं पि य णं सम्वत्थ निरareबो सव्वजोगरोह साओ लीओ सव्वे माह सि सव्वे विणं भने ! केवली ७९-१८५ १५० ७१ १५ साइयं सपजवसियं साधूनां गर्हणा धर्मो सामाइय संजए णं भंते ! सामायिकं गुणानामाधारः १४० १४१ १३३ सिजायरपिंडम्मि १६२ | सिद्धं य जन्थ जन्थ ११४ सिसिरे उ जहन्नाई १३५ | सीलं च समाहाणं १६ सासाणमिस्सरहिएस वा ६४ या स सुवि मेहसमुद १९ - ३२ | सुप्रातसुश्वसुदिवशारि ९३ १२७ १२२ | सुरनरयतिरियआउं १०२ सुवर्णादिप्रतिच्छन्दः१६२ | सुमो य होइ कालो सुभगुद बिहु कोई सुरत ऐश्वर्यदीयोः सूचनात् सूत्रम् से किं तं अणाणुगामियं ओहि से किं तं उग्गहे ? से किं तं पडिवाई ? ८० १०१ १०२ ४३ १५० २६ ६०-६३ १२८ ६१ ३४ ७५ ६६ ०५ ६८ १३६ ७७-१६२ ५. ११४ ७५-१६० ५६ ६१ ५५० १३० ५१ १३.४ २०५ १३१ १६३ १२४ ६८ ४९ ५७ ३८-१२८ ९३ ૬૩ १७० ६७ २० ११ २० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ स्थित्या च बन्धनेन च १२ स्थेशभासपिसकसो वरः १९४ स्थादावसयेयः स्वदारमात्रसन्तोषोऽस्वयं मयपरीणामः oro 0 0 किं तं मइनाणे? से कि तं वंजणुग्गहे ? से किं तं समए? समसे किं तं सुपनिस्सियं मह. से गं पल्ले सिद्धत्ययाण से गं पुवामेव सन्निस्स से य सम्मत्ते पसस्थससेलेसी पहिवना सोहंदिओबलद्धी सो धेव नणूवसमो सो तस्स बिसुद्धयरो सीपुंसानङ्गसेवोनाः स्थास्त्रायुधिव्याधिहनिस्थितिपाकविशेषस्तस्य हंसलिवी भूयलिवी हत्था पाया हवह पसाहा काऊ हस्सक्खराई मझेण ६. हिंसानृतस्तेयाब्रह्म___ ५ हिमगिरिनिग्गयपुण्या१५६ हीयमाणं पुम्वावत्थाओ ७७-१६३ द्वितीयं परिशिष्टम् । कर्मग्रन्थटीकान्तरुद्धृतानां ग्रन्थनाम्नां सूची। S अनुयोगद्वार . W अनुयोगद्वारचूर्णि अनुयोगद्वारटीका अनुयोगद्वारलघुवृत्ति अनुयोगद्वारसूत्र अनेकान्तजयपताका भागम आचाराकटीका आर्ष आवश्यकचूर्णि आवश्यकटीका कर्मप्रकृति कर्मप्रकृतिचर्णि कर्मविपाक कर्मस्तव १४६ १६९-१७१-१९४- जीतकल्पभाष्य २०२-२०९-२१३ दिनकृत्यटीका २०५ धर्मसारमूलटीका १६१ १५७-२०५ नन्दिचर्णि २० १५२ नन्दिवृत्ति १६९-२०१नन्द्यध्ययन ७-१२-१९ ५९ नन्यध्ययनचूर्णि ७४-११५-११७-१४२ पञ्चमाङ्ग १३ पञ्चसङ्ग्रह १७३ पञ्चसङ्ग्रहमूलटीका प्रज्ञप्तिसूत्र १६५-१६६ ६९-१३९ प्रज्ञापना १४४-१५९-१६१-१६३-१६४-१७३ प्रज्ञापनाटीका १८१-१८२ प्राकृतलक्षण ४-१८-४६-५८-८९-१४७ बृहच्छतकबृहश्चर्णि ३३-१४१-१८६ १०१-१०२-१०३-१०४/ बृहत्कर्मप्रकृति १०५-१०६-१०७-१०८- बृहकर्मविपाक २६-५३ १०९-११०-१११-१८४ बृहत्कर्मस्तवभाष्य ८५-९२ वृहत्कर्मस्तवसूत्र ९२ ७४ । बृहद्वन्धस्वामित्व ९४-१५ कर्मतवटीका कल्पभाष्य Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५० १२३ ७९ भगवती भिषक्शाल मूलावश्यकटीका शतक शतकवृहपूर्णि षडशीतिक समतिकाचूर्णि सततिचूर्णि १४६-१५० सप्ततिकाटीका सम्मति स्वोपज्ञकर्मविपाक खोपज्ञकर्मविपाकटीका १४६ १११ खोपज्ञकर्मस्तवटीका ७४-१२० स्वोपज्ञशतकटीका १४३ ) स्वोपज्ञषडशीतिटीका ७९-१६४-१८३ ११२ ७३-७४ तृतीयं परिशिष्टम् । कर्मग्रन्थटीकान्तर्गतानां ग्रन्धकृन्नाम्नां सूची। २९ आराध्यपाद ३६-१५० भद्रबाहुस्वामि ३६-८५-१२२-१२७-१५३-१५९ आर्यश्याम ७५-१४४-१६०-१६१ भाष्यकार २०-६३-१६१.-१६२-१६३ १६२-१६४-१७८ भाष्यकृत उमास्वातिवाचक १६-१२१ भाष्यपीयूषपयोधि कार्मग्रन्थिक ७४-१८२ १-१८२, भाष्यसुधाम्भोनिधि गन्धहस्ती १६१-१७८ जिनभद्गणिक्षमाश्रमण ९-७६-१२३-१४० भाष्यसुधांशु १४४-१६८ मलयगिरि देवर्धिक्षमाश्रमण वाचकमुख्य १३० देवर्धिवाचक १०-१४-५७५ वाचकवर पाणिनि ४-१८-८९-१४७-१९४ १६० पूज्य ८-१५-८७-१५३ शिवशर्मसूरि ७९-१३७ पूज्यपाद ३६-१४० शीला १२१ पौराणिक सुधर्मस्वामि १४८ प्रज्ञाकरगुप्त ४५-१५४ हरिभद्रसूरि २२-९६-१२३-१५२-१५७प्रज्ञापनाटीकाकार ૧૮૨ १६१-२०५ ३। हेमचन्द्रसरि ५६-५८-६०-१९५ बौद्ध Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । कर्मग्रन्थटीकान्तर्गतानां पारिभाषिकशब्दानां स्थानदर्शकः कोशः। । १६ गते १९९ शब्द पत्र. शब्द पत्र. शब्द पत्र. अक्षरभुत १४-१८ अनाहारक ९९-१४२/ अवग्रह अक्षरसमासश्रुत १८ अनिवृत्तिकरण ६९ अवधिज्ञान अक्षिम १३ अनिवृत्तियादरसम्परायगुण- अवधिदर्शन २८-१३७ अगमिकश्रुत । स्थान, ७२ अवधिद्विक १४२-१४८ अगुरुलघुचतुष्क __५२-८२ अनिश्रित अवव १९५ अगुरुलघुनाम ४०-५४ अनुगामि अववाङ्ग अङ्ग ४६ / अनुयोगद्वारश्रुत १९ अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान ७० अङ्गप्रविष्टश्रुत १७ अनुयोगद्वारसमासश्रुत १९ अशुद्ध अङ्गबाह्यश्रुत 16 अन्तरकरण ६९ अशुभनाम ४१-५८ अशोपाङ्ग अन्तराय ५-५८-७८ अशुभविहायोगति अङ्गोपाङ्गनाम ३९-४६-७८ अपर्यवसित अश्रुतनिश्रित अचक्षुर्दर्शन २८-१३७ अपर्याप्तनाम ४१-५७-११७ असंयम ९९-१३७ ९९-१२५ अपर्याप्तषक असङ्ख्यात अज्ञानत्रिक १४७ अपाय असङ्खचातासङ्ख्यातक २०७ अटट १९५ अपूर्वकरण ६९ असङ्ख्यातासङ्ख्यातकउत्कृष्ट २०८ अटटाङ्ग १९५ अपूर्वकरणगुणस्थान ७१ असङ्ख्यातासङ्ख्यातकजघन्य २०४ अथाख्यात १३७ अप्रतिपाति २१ असङ्ख्यातासङ्ख्यातकमध्यम २०८ अद्धाक्षय ७३ अप्रत्याख्यानावरण ३४-३६ असंज्ञि ९९-१५७ १३ अप्रमत्तसंयतगुणस्थान ७१ असंज्ञिश्रुत अनक्षरश्रुत असत्यमनोयोग १५१ अननुगामि १९ अबहुविध १३ असत्यवाग्योग अनन्त २०० अभव्य । असत्यामृषमनोयोग अनन्तानन्तकउस्कृष्ट | अम्लरस असत्यामुषवाग्योग अनन्तानन्तकजघन्य २०८ अयन १९५ असन्दिग्ध अनन्ठानन्तकमध्यम २०८ अयशःकीर्तिनाम ४१-५८ असातवेदनीय भनन्तानुबन्धि ३४-३६ अयुत ८१ अनन्तानुबन्धिचतुर्विशति १०१ अयुताङ्ग अस्थिरनाम अनन्तानुबन्धिचतुष्क ८. अयोगिकेवलिगुणस्थान ७५ अस्थिरषद्ध ४१-९५ अनन्तानुवम्येकत्रिंशत् १०१ अरति अहोरात्र १९५ अनवस्थितपल्य २०१ अर्थ निपूर १९५ मातपद्विक अनाकारोपयोग १३०-१३७- अर्थनिपूराङ्ग १९५ आतपनाम ४०-५३ अर्थावग्रह १२ आदेयनाम ४०-५७ अनादिश्रुत १६ अर्धनाराच ४९ थान १९५ अनादेय द्विक ८६ अर्द्ध विशुद्ध ७० आनुपूर्वीनाम ४०-५२-७८ अनादेयनाम ४१-५८ अल्पबहुख ११५-१६९ आभिनिबोधिक क. २९ १५१ १९५ अस्थिरद्विक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पत्र. १५९ ७४ शब्द पत्र. शब्द पत्र. | शब्द आयुः ५-३८-७०/ उपाङ्ग कार्मणकार्मणवम्धननाम आयोजिकाकरण | उपाङ्गत्रिक कार्मणशरीरबन्धननाम आवलिका १९५ उष्णस्पर्श कार्मणसवातननाम आहारक ४५ अनुमति २१ कीलिका ४९ आहारक ९९-१२८-१४२ ऋतु १९५ कुब्ज आहारककाययोग १५२ ऋषभनाराच ४९ कृष्णवर्ण आहारककार्मणबन्धननाम १८/एकेन्द्रियजातिनाम ४४-११६ केवलज्ञान आहारकतैजसकार्मणबन्धननाम एकेन्द्रियत्रिक १०३ केवलदर्शन २८-१३७ ४८ औत्पत्तिकी 11 केवलद्विक १४५-१५७ आहारकतैजसबन्धननाम ४८ औदयिकभाव १९०-१९१ केवलिसमुद्धात आहारकद्विक ५२-८१-१५ औदारिक ४४ क्रोध ३६-१२९ आहारकमिश्रकाययोग १५२ औदारिककाययोग १५२ क्षपकश्रेणि आहारकशरीरबन्धननाम ४६ औदारिककार्मणबन्धननाम ४ायिक ३०--१३८ आहारकषक १०५ औदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम भाविकभाव आहारकसवातननाम ४८ क्षायोपशमिक आहारकाहारकबन्धननाम ४८ औदारिकतैजसबन्धननाम ४८ आयोपशामिका आहारपर्याप्ति ५५-१९७ औदारिकद्विक ५२-८०-१५६ क्षिप्र इन्द्रिय ९८-१२७ -१२८ औदारिकौदारिकबन्धननाम ४८ क्षीणकपायवीतरागच्छन्नस्थइन्द्रियपर्याप्ति ५५-११७ औदारिकमिश्रकाययोग १५३ गुणस्थान १२ औदारिकारीरबन्धननाम ४६ खरम्पर्श उच्चर्गोत्र ५८ आदारिकसङ्घातननाम ४७ गति उच्छास ५९५ औपपातिक १५. गतिम्रस १४७ उच्छासनाम ४०-५३ औपशामिक ३०-६९-१३९ गतिनाम ३९-४३-७८ उच्छासपर्याप्ति ५६ औपशमिकभाव १८९ गन्धद्विक ९४ उस्कृष्टयङ्ख्यात २०० कटुरस ४०-५० उत्तरप्रकृति ४ कपाट १६० गमिकश्रुत उत्पल १९५ करण गुणस्थान ६७-११२-११८ उत्पलाङ्ग ५९५ करणपर्याप्त ५६-५१७ गुरुस्पर्श ६७-८४-११५ करणापर्याप्त ५७-११७ गोत्र ५-५८-७८ उदीरणा ६७-८४-११५ कर्म ग्रन्थि ६९ उद्योतचतुष्क १०३ कर्मजा ११ ग्रन्थिमेद उद्योतनाम ४०-५४ कषाय ३४-७८-९९-१२७- चक्षुर्दर्शन २८-१३७ उपकरणेन्द्रिय चतुरिन्द्रियजातिमाम ४४-११६ उपघातनाम ४०-५४ कपायपञ्चविंशति ३४-७८. -१२८ उपभोगान्तराय ५८ कषायरस ५० चतुर्थकोष उपयोग ११२-१२२-१६४ कषायषोडशक ३४-७८/चतुर्थमद उपशमश्रेणि ७३ काय ९८-१२७-१२८ चतुर्थमान उपशान्तकषायवीतरागच्छन- काययोग १२०-१२८-१५१ चतुर्थमाया स्थगुणस्थान ७३ कार्मण ४५ चतुर्थलोभ उपशान्ताद्धा ७० कार्मणकाययोग १५३ चरणमोह । ५० गन्धनाम ११ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द चूलिका चूलिकाङ्ग छेदोपस्थापनीय जघन्यसङ्ख्यात जातिचतुष्क जातिनाम जातिस्मरण जीवस्थान जिनपञ्चक जिनैकादश जुगुप्सा ज्ञान ज्ञानत्रिक ज्ञानावरण तनुनाम तिक्तरस तिर्यवित्रक तिर्यगानुपूर्वी तिर्यगायुः तिर्यग्गतिनाम free तीर्थकरनाम तुर्योध तुर्यमद तुर्यमान तुर्यमाया सूर्यलोभ तृतीयकषायाः तैजस तैजसात नाम सचतुष्क सत्रिक श्रसदशक वसनवक वसनाम ३८ | दानान्तराय ९१-१२७-१२९ दीर्घकालिकी १६६ | दुरभिगन्ध ४-६०७०८ दुर्भगत्रिक ३९-४४-७८ | दुर्भगनाम जसकार्मणबन्धननाम तेजसतैजसबन्धननाम तैजसशरीरबन्धननाम पत्र. शब्द १९५ | त्रुटिताङ्ग १९५ दण्ड १३० | दर्शन २०० दर्शन ७९. दर्शनचतुष्क ३९-४४-७८ | दर्शनत्रिक १३ | दर्शनत्रिक ११२ - ११६ | दर्शनहिक १०५ | दर्शनमोह १०५ | दर्शनावरण श्रीन्द्रियजातिनाम त्रुटित ४३-१२८ ९३-५२ देवगतिनाम ४०-५६ | देवत्रिक ९४ देवकि ८० निरयत्रिक ४६-५८ निरयद्विक ४१-५८ | निरयानुपूर्वी ५० दुस्स्वरनाम ८०-५२ दृष्टिवादोपदेशिकी १५ | निर्माणनाम ८६-९३ | निर्विशमानक ५२ द्वितीयकषायाः ३९ | द्वीन्द्रियजातिनाम ४४-११६- निर्विष्टकायिक ८६-९३ | धारणा ९४ देवानुपूर्वी ९४ देवायुः ९४ | देशविरतिगुणस्थान ८८ देशसंयम ४५ ध्रुव ४८ | नपुंसकचतुष्क ४८ नपुंसक वेद ४६ नयुत १३ ४७ | नयुताङ्ग ४१ नरकगतिनाम पत्र. शब्द १९५ नरत्रिक १६० नरद्विक ४- २७ नरानुपूर्वी ९९-१२७-१३७ | नलिन ७९-९५ | नरकत्रिक ४१-७८ नरकद्विक ८२ नरकषोडश ४०-५५ नरकानुपूर्वी ४४- ११६ | नरकायुः १९५ नरकगतिनाम २७-८८ | नलिनाङ्ग ३०-७८ नवनोकपाय १६६ नामकर्म १६५ नाराच ३० निद्रा ४-२७-७८ | निद्राद्विक ५८ निद्रानिद्रा १५. निद्रापञ्चक ५० निरयगतिनाम १२८ निश्रित २३ | निःश्वास ५२ | नीचे ९४-५२ | नीलवर्ण ५२ नोकषाय ३८ / नोकपायनवक ७० न्यग्रोधपरिमण्डल ९९-१३७ पक्ष ३८-१२९ पदश्रुत १९५ पदसमासश्रुत १९५ पद्म पत्र. ५२ ५२-९९ ५२ १९५ १९५ ३७-७८ ५-३८-७८ ४३-१२८ पद्माङ्ग ५२-७९ पराघातनाम ५२-९३ | परिहारविशुद्धिक ५०९ | परीत्तानन्तक उत्कृष्ट ५२ | परीतानन्तकजघन्य ३९ | परीतानन्तकमध्यम ४३ | परीत्तासङ्ख्यातक ४९ २८ ८२ २८ २७ ४३ ५० १९५ ३४-७८ १२ पञ्चविंशतिकषाय १३ पञ्चेन्द्रियजातिनाम ४४-३३६ १०० ५२-७९ ५२-९३ ५२ ४०-५४ १३१ १३१ १३ १९५ ५८ ५० ૨૪ ३७-७८ १२८ १८ १८ १९५ १९५ ४०-५३ १३१ २०८ २०८ २०८ २०७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृदुस्पर्श ६९ २०८ पल्य पूर्व शब्द पत्र. शब्द पत्र. शब्द पत्र. परीत्तासङ्ख्यातक उत्कृष्ट २०८ बादरनाम ४०-५५-११६ परीतासायातकजघन्य २०७ भय ३८ मोहनीय ५-२९-७८ परीत्तासङ्घयातकमध्यम २०८ भवक्षय ७३ यथाप्रवृत्तकरण पर्याप्तनाम ४०-५६-११७ भव्य ९९-१२७ यशःकीर्तिनाम पर्यायश्रुत १८ भाव ११५-१८९ युक्तान्तकउत्कृष्ट पर्यायसमासश्रुत १८ भापापर्याप्ति ५६ युक्तानन्तकजघन्य २०८ भोगान्तराय ५८ युक्तानन्तकमध्यम २०८ पारिणामिकभाव १९०-१९५ मतिज्ञान ६-१२९ युक्तासङ्ख्यातक पारिणामिकी ११ मत्यज्ञान १२९ युक्तासङ्ख्यातकउत्कृष्ट २०८ पिण्डप्रकृति ४०-७८/मधुररस ५० युक्तासङ्ख्यातकजघन्य २०७ पुरुषवेद ३८-१२८ मध्यमसङ्ख्यातक २०० युक्तासयातमध्यम २०० १९५ मध्यसंस्थान ९९ युग पूर्वश्रुत १९ मध्यसंस्थानचतुष्क ८. योग पूर्वसमासश्रुत १९ मध्यसंहनन ९९ योग ९८-१३-१२०पूर्वाङ्ग १९५ मध्यसंहननचतुष्क १२७--१२८ प्रकृति ३-४ मध्याकृति ९९ रूक्षस्पर्श प्रचला २८ मनःपर्यवज्ञान ७-१२९ रति प्रचलाप्रथला २८ मनःपर्याप्ति ३-४ प्रतिपत्तिश्रुत १९ मनःपर्यायज्ञान ७-१२९ रसनाम प्रतिपत्तिसमासश्रुत १९ मनुष्यगतिनाम ४३-१२८ लघुस्पर्श प्रतिपाति २१ मनुष्यत्रिक ५२-२५ लब्धिपर्याप्त ५६-५१७ प्रतिशलाकापल्य २०१ मनुष्यद्विक ५२ लब्धिप्रत्यय प्रत्याख्यानावरण ३४-३६ मनुष्यानुपूर्वी लम्ध्यक्षर प्रत्येकनाम ४०-५६ मनुष्यायुः ३९ लब्ध्यपर्याप्त प्रत्येकप्रकृति ४०-७८ मनोयोग १२०-१२८-१५० लव प्रदेश ३-४ मन्थान १६० लाभान्तराय प्रमत्तसंयतगुणस्थान ____७५ महाशलाकापल्य २०१:लेश्या ९९-११३-१२७ प्रयुत १९५ मान ३६-१२५ लोभ प्रयुतान १९५ माया ३६-१२५ लोहितवर्ण प्राणु १९५ मार्गणास्थान ११२ वक (गति) प्राभूतधुत १९ मास १२५ वज्रर्षभनाराच प्रामृतप्राभृतश्रुत १५ मिथ्यात्व ९९ वर्णचतुष्क प्राभृतप्राभृतसमासश्रुत १४१-३३ वर्णनाम प्राभूतसमासश्रुत १९ मिथ्यादृष्टिगुणस्थान वर्धमानक बन्ध ६७-७७-९८-११५ मिथ्यात्वद्विक १६५ वस्नुथुत बन्धननाम ४०-४६-४७-७८ मिथ्याश्रुत १६ वस्तुसमासश्रुत बन्धस्वामित्व ९८ मिश्र ५९ वाग्योग १२०-१२८-१५१ बन्धहेनु ११५ मिन ३३-१४३ वामन १३ मुहूर्त १९५ विकल ११९ बहुविध १३ मूलप्रकृति ४ विकलत्रिक १९५ MESS ० ० ० ० ५० बहु પુર Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. ४० १८ ४१ ५५ वक्रियकार्मणबन्धननाम ४८ मश्वलन शब्द पत्र. शब्द पत्र. शब्द विकलत्रिक ९९ संवत्सर विपाक १९५ सामायिकसंयम संस्थाननाम ४०-४९-७८ सासादन विपुलमति २१ संस्थानषट्क विभाज्ञान ९५ सासादनसम्यक्रव १४१ १२९ संहनननाम ४०-४९-७८ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान ६८ विहायोगतिविक ८९-९४ संहननषद ९५ सास्वादनसम्यक्त्व ३०-१४१ विहायोगतिनाम सङ्ख्यात १९९ सास्वादनगुणस्थान वीर्यान्तराय सवातननाम ४०-४७-७८ सितवर्ण वेद ३४-९९-१२७-१२८ सङ्घातश्रुत १९ सुभगत्रिक बेदकसम्यक्त्व ३०-१३८सद्धातसमासश्रुत वेदत्रिक १९ सुभगनाम ४०-५६ ३८-७८-८७ संज्ञाक्षर वेदनीय १४ सुरगतिनाम ४३-१२८ ५-२८-७८ संज्ञि वैक्रिय १९-११७-१२७ सुरत्रिक ५२ वैक्रियकाययोग संज्ञिद्विक १२४ सुरद्विक ५२ संज्ञिश्रुत १५ सुरमिगन्ध वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम ४८ ३५-३६ सुस्वरनाम ४०-५७ वैक्रियतजसबन्धननाम सज्वलनचनुष्क ८३ सूक्ष्मत्रयोदशक ४८ १०४ सवलनत्रिक वैक्रियद्विक ५२-५५-१५६ ८८ सूक्ष्मत्रिक ४१-८४ सत्ता वैक्रियमिश्रकाययोग ६७-११५ सूक्ष्मनाम वैक्रियवेक्रियबन्धननाम सत्यमनोयोग १५० सूक्ष्मसम्पराय १३७ वैक्रियशरीरबन्धननाम सत्यवाग्योग सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान ४६ सत्यासत्यमनोयोग १५१ सेवात सत्यासत्यवाग्योग १५१ स्तोक वैक्रियसङ्घातननाम ४७ सन्दिग्ध १३ स्त्यानद्धि ५२-८६ सपर्यवसित १६ स्त्यानर्द्धित्रिक ८० वैनयिकी समचतुरस्त्र ४९ स्त्रीवेद ३८-१२९ ११ समय १९४ स्थावरचतुष्क व्यअनाक्षर समुद्रात १५९ स्थावरदशक ४१-७८ व्यअनावग्रह ११ सम्पराय १३७ स्थावरद्विक ९३ शरीरपर्याप्ति सम्यक्त्व ३० स्थावरनाम शलाकापल्य २०६ सम्यक्त्व ९९-१२७ स्थावरषद्क ४१ शीतस्पर्श ५१ सम्यक्त्वत्रिक १४२ स्थिति शीर्षप्रहेलिका १९६ सम्यक्त्वत्रिक १५५ स्थिरनाम ४०-५६ शीर्षप्रहेलिकाङ्ग १९५ सम्यक्श्रुत स्निग्धस्पर्श ७० सम्यग्मिथ्यात्व १४१ स्पर्शनाम ४०-५०-७८ शुभनाम ४०-५६ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थान ७० हारिद्रवर्ण शुभविहायोगति ५३ सयोगिकेवलिगुणस्थान ७५ हास्य श्रुतज्ञान ७-१२९ साकारोपयोग ३०-१६४ हास्यपङ्क ३७-७८-८७ श्रुतलिश्रित १० सातवेदनीय ९ हीयमानक श्रुताशान १२९ सादिश्रुत ३८ सादिसंस्थान १९५ षोडशकषाय ३४-७८ साधारणनाम १९५ संयम ९९-१२७-१३० सामिपातिकभाव १९०-१९२ हेतुवादोपदेशिकी वैक्रियषद १९५ वैक्रियाष्टक २८ शोक ५० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । कर्मग्रन्थान्तर्वर्तिनां पिण्डप्रकृतिसूचकानां शब्दानां कोशः। MSM शब्द पत्र. शब्द अगुरुलघुचतुष्क ५२-८२ तुर्यक्रोध अज्ञानन्त्रिक १४७ तुर्यमद अनन्तानुबन्धिचतुर्विंशति १०१ नुर्यमान अनन्तानुबन्धिचतुष्क ८० नुर्यमाया अनन्तानुबन्ध्येकत्रिंशत् १०१ नुर्यलोभ अनादेयहिक ८६ तृतीयकषायाः अपर्याप्तषट्क १२५ त्रसचतुष्क अवधिद्विक १४२--१४८ बमत्रिक मस्थिरद्विक ८१ सदशक अस्थिरषद ४१-९५ त्रसनवक आतपद्विक ९३ दर्शनचतुष्क आहारकद्विक ५२-८५-१५५ दर्शनत्रिक आहारकषट्क १०५ दर्शनत्रिक उद्योतचतुष्क १०३ दर्शनद्विक उपाङ्गत्रिक ९५ दुर्भगत्रिक एकेन्द्रियत्रिक १०३ द्वितीयकपायाः औदारिकहिक ५२-८०-१५६ दवत्रिक कपायपञ्चविंशति ३४-७८ देवद्विक कषायषोडशक ३४-७८ नपुंसकचतुष्क केवलद्विक १४५--१५७. नरकत्रिक गन्धद्विक ९४ नरकद्विक चतुर्थक्रोध ९४ नरकपोडश चतुर्थमद ९४ नरनिक चतुर्थमान ५४ नरद्विक चतुर्थमाया ५४ नवनोकषाय चतुर्थलोभ ८८ निद्राद्विक जातिचतुष्क ७९ निद्रापञ्चक जिनपञ्चक १०५ निरयत्रिक जिनकादशक १०१ निस्यद्विक ज्ञानत्रिक १६६ नोकपायनवक तिर्यक्त्रिक ८०-५२ पञ्चविंशतिकषाय तिर्यग्द्विक ९३-५२ मध्यसंस्थानचतुष्क पत्र. शब्द पत्र. ९४ मध्यसंहननचतुष्क ८० ९४ मनुष्यत्रिक ५२-१५ ९४ मनुप्यद्विक ५४ मिथ्यात्वद्विक ८८ वर्णचतुष्क ८६-९३ विकलत्रिक ४१ विकलनिक ७१-९५ विहायोगतिद्विक ८९-९४ ४१-७८ वेदनिक ३८-७८-८७ ८२ वैफियद्विक ५२-२९-१५६ २७-८८ वैक्रियपद्ध वैक्रियाष्टक पोडशकपाय मंस्थानपद संहननपद ८६-१३ संजिद्रिक सज्वलनचनुष्क ९४-५२ १०० मञ्चलननिक सम्यक्त्वत्रिक ५२-२३ सम्यक्त्वनिक १५५ सुभगत्रिक सुरत्रिक ५२-५९ मुरद्विक ३७-७८ सूक्ष्मप्रयोदशक १०४ ८२ सूक्ष्मत्रिक ४१-८४ २७ /स्त्यानईित्रिक ५२-७९ स्थावरचतुष्क ५२-५३ स्थावरदशक ३७-७८ स्थावरद्विक ९३ ३४-७८ स्थावरषद ८०/हास्यषद ३७-७८-८७ १४२ 0 0 win Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंबर ग्रन्थनुं नाम. कर्मप्रकृति चूर्ण १ २ 11 15 पञ्चसङ्ग्रह 59 स्वोवृत्ति बृहत 35 दीपकxx ३ प्राचीन छ कर्मग्रन्थ 13 35 षष्ठं परिशिष्टम् । श्वेताम्बरीयकर्मतत्त्वविषयकशास्त्राणां सूची । (१) कर्मविपाक वृत्ति व्याख्याच 13 35 वृति वृत्ति 93 टिप्पनx (२) कर्मस्तव चूर्णटिप्पनx मुनिचन्द्रसूरि 15 19 भाष्य * भाष्यछ वृत्ति कर्त्ता. शिवशर्मसूरि 19 वृत्ति (४) पडशीतिक भाष्य लो० १९२० मलयगिरि लो० ८००० यशोविजयोपा. लो० १३००० 35 लोकप्रमाण. ध्याय चन्द्रमित्तर गा० ९६३ मलयगिरि वामदेव रा० ४७५ श्लो० ७००० उदयप्रभसूरि लो० ९००० लो० १८८५० छो० २५०० गा० ५५१ गर्गपिं गा० १६८ परमानन्दसूरि | श्लो० ९२२ लो० १००० गोविन्दाचार्य 19 टिप्पनx उदयप्रभसूरि लो० २९२ (३) बन्धस्वामित्व गा० ५४ लो० ४२० ० ५७ गा० २४ गा० ३२ लो० १०९० हरिभद्रसूरि श्रो० ५६० जिनवल्लभगणी | गा० ८६ गा० २३ रचनाकाल वगैरे. विक्रमनी ५ मी सदीनो संभव छे. अन्थकारे पोतानुं नाम आप्युं नथी पण विक्रमनी १२ मी सदीथी पहेलानो होवो जोइए. विक्रमनी १२ मी सदी. विक्रमनी १२-१३ सदी. विक्रमनी १८ मी सदी. पोतानो समय ग्रन्थकारे आप्यो नथी तेम बीजे ठेकाणे पण जोयो नथी. "" विक्रमनी १२-१३ मी सदी. विक्रमनी १२ मी सदीनो संभव ले. आ ग्रन्थनी ५४७ अने ५६७ गाथाओ पण जोवामां आवे छे. विक्रमनी १० मी सदीनो संभव छे. विक्रमनी १२-१३ मी सदीविक्र० १२-१३ मी सदीनो संभव छे. कर्ताए पोतानुं नाम आप्युं नथी. विक्रमनी १३ मी सदीनो संभव छे. रचनाकाल अने पोतानुं नाम ग्रन्थकारे आप्युं नथी. 13 वृत्तिकारे पोतानो समय आयो नथी पण ४२८८ पहेलानो होवो जोइए. विक्रमनी १३ मी सदीनो संभव छे. रचनानो काल अने पोवानुं नाम ग्रन्थकारे आप्युं नथी. विक्रमसंवत् १९७२ विक्रमनी १२ मी सदी. भाष्यकारे पोतानो समय अने नाम आयु नथी. * आवा चिह्नवाला प्रन्थो मुद्रित थइ गया छे. X आवा चिह्नवाला ग्रन्थो हजु सुधी अमारा जोवामां आब्या नथी. पण वृहट्टिप्पनिका अने ग्रन्थावलीना आधारे अहीं नोंध लोधी है. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थन नाम. ____कर्ता. लोकप्रमाण. रचनाकाल वगेरे. " भाष्य ,, वृत्ति " वृत्ति " वृत्ति ,, प्रा०वृत्तिर विवरणx , उद्धारx ,, अवचूरि (५)शतक , भाष्य गा०३८ भाष्यकारे पोतानो काल भने नाम आप्यु नथी. हरिभद्रसुरि श्लो० ८५० विक्रमनी १२ मी सदी. मलयगिरि श्लो० २१४० विक्रमनी १२-१३ मी सदी. यशोभद्रसूरि श्लो० १६३० विक्रमनी १२ मी सदी. रामदेव श्लो. ७५० विकमनी १२ मी सदी. मेरुवाचक पत्र.३२ विवरणकारनो समय विवरण जोया सिवाय थई शके नहीं. श्लोक० १६०० - रचनाकाल अने कर्त्तानुं नाम ग्रन्थ जोवाथी कदाच मळी शके. श्लो० ७०० शिवशर्मसुरि गा० १११ । विक्रमनी ५ मी सानो संभव दे. गा०२४ ' भाप्यकारे पोतार्नु नाम अने समय • ग्रन्थमा आप्यो नथी. गा० २४ चक्रेश्वरसूरि श्लो० १४१३ । विक्रमसंवत् ११७९ श्लो० २३२२ रचनाकाल अने पोतानुं नाम चूर्णीकारे आप्यु नथी. मलधारिहेमच ४०: विक्रमनी १२ मी सदी. न्द्रसूरि उदयप्रभसूरि श्लो० ९७४ ।। विक्रमनी १३ मी सदीनो संभव छे. गुणरत्रसूरि पत्र० २५ . विक्रमी १५ मी सदी. चन्द्रर्षिमहत्तर : गा० ७५ ।। पोतानो समय ग्रन्थकारे आप्यो नथी. अभयदेवसूरि गा० १९१ विक्रमनी १५-१२ मी सदी. पत्र. १३२ । रचनाकाल अने कर्तार्नु नाम कदाच ग्रन्थ जोवाथी मळी शके. चन्द्रर्पिमहत्तर शो० २३०० ग्रन्थमाथी रचनाकाल मळी शक्यो भाग्य , वृहद्भाव्य ,, चूर्णी वृत्ति वृति ,, टिप्पनx ,, अवचूरि (६) सप्ततिका ,, भाष्य " चूर्णी प्रा०वृत्ति नथी. वृत्ति मलयगिरि श्लो० ३७८० विक्रमनी १२-१३ मी सदी. भाष्यवृत्ति मेरुतुझसूरि श्लो० ४१५० । विक्रम संवत् १४४९. टिप्पनx रामदेव श्लो० ५७४ विक्रमनी १२ मी सदी. ,, भवचूरि गुणरत्नसूरि विक्रमनी १५ मी सदी. लोक प्रमाण नवीन कर्मग्रन्थनी अवचूरि साथे गणायेलुं छे. सार्द्धशतक जिनवल्लभगणी गा० १५५ विक्रमनी १२ मी सदी. " भाष्य गा० ११० भाष्यकारे पोतानुं नाम अने रचना काल भाष्यमां भाप्यो नथी. ,, चूर्णी मुनिचन्द्रसूरि श्लो० २२०० विक्रमसंवत् ११७० __, वृत्ति धनेश्वरसरि । श्लो०३७०० विक्रमसंवत् ११७१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंबर अन्धनुं नाम. का . श्लोकप्रमाण. रचनाकाल वगेरे. लो० १२० , प्रा० वृतिः चक्रेश्वरसूरि ताड०प० १५१ रचनाकाल पुस्तक जोया सिवाय कही शकाय नहीं. , वृत्तिटिप्पनx लो० १४०० रचनाकाल भने कर्तानु नाम पुस्तक जोवाथी निश्चय करी शकाय. ५ मध्य पांच कर्मग्रन्थ देवेन्द्रसूरि । गा० ३०४ विक्रमनी १३-१४ मी सदी. , म्योपशटीका (बन्धस्वामित्व विना) लो० १०.३१ .,, भवचूरि मुनिशेखरसूरि श्लो० २९५० रचनाकालनो निर्णय पुस्तक जोवाथी कदाच थाय. ,, अवचूरि गुणरत्रसूरि श्लो. ५४.७ विक्रमनी १५ भी सदी. (२) बम्धस्वामित्वअ श्लो० ४२६ अ० भवचूरिकाकारे पोतार्नु नाम तथा - वचूरिस समय आप्यो नथी. (३) कर्मलब बिक- कमलसंयमोपा- मो० १५० विक्रमसंवत् १५५९ रणx ध्याय (७) कर्मग्रन्थवा- जयसोम श्लो. विक्रमनी १७ मी सही. 1 लावबोधस (५) ,, ,, x मतिचन्द्र रचनाकालनो निर्णय पुस्तक जोया सिवाय थई शके नहीं. (६) , जीवविजय लो. १०००० बिक्रमसंवत् १८०३ मनःस्थिरीकरणप्र- महेन्द्रसूरि । गा०१६७ विक्रमसंवत् १२८४ करण श्लो० २३०० संस्कृत धार कर्मग्रन्थ जयतिलकसूरि श्लो० ५६९ विक्रमनी १५ मी सदीनो प्रारम्भ. कर्मप्रकृतिद्वात्रिंशिका, गा०३२ ग्रन्थकारे रचनाकाल भने पोतानुं नाम आप्यु नथी. ९ भावप्रकरण विमल विजयगणी गा०३० विक्रमसंवत् १६२३ स्वोपज्ञवृत्ति श्लो० ३२५ विक्रमसंवत् १६२३ 1. बन्धहेतूदयत्रिभङ्गी हर्षकुलगणी गा० ६५ विक्रमनी १६ मी सदी. , वृत्तिवानर्षिगणी नो०११५० विक्रमसंवत् १६०२ "बग्धोदयसत्ताप्रक-विजयविमलगणी गा० २४ विक्रमनी १७ मी सदीनो प्रारम्भ. रण स्वोपशाचचूरिस , श्लो. ३.. १२ कर्मसंवेधभगमक- देवचन्द्र रचनाकाल प्रन्ध जोवाथी कदाच मळी आवे. ३ भूयस्कारादिविचार- लक्ष्मीविजय गा०६० विक्रमनी १७ मी सदी. प्रकरण. , वृत्ति । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंबर. कर्त्ता. लोकप्रमाण. १ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत पुष्पदन्त तथा श्लो० ३६००० अनुमाने विक्रमनी ४-५ मी सदी. (षट्खण्डशास्त्र) भूतबली २ "" ५ ६ ग्रन्थनाम. " 95 23 93 " 22 35 37 "" गा० २३६ कषायप्राभृत. गुणधर धृ० वृत्ति यतिवृषभाचार्य लो० ६००० उच्चा०वृत्ति | उच्चारणाचार्य श्लो० १२००० | शामकुण्डाचार्य | श्लो० ६००० टीका २० चू० व्याख्या | तुम्बुलराचार्य लो० ८४००० प्रा०टीका | बप्प देवगुरु ज०टीका वीरसेन तथा जिनसेन नेमिचन्द्रसिद्धा गा० १७०५ न्तचक्रवर्ति 33 33 55 ३ गोम्मटसार 33 दिगम्बरीयकर्मतत्त्वविषयकशास्त्राणां सूची । 29 13 19 प्रा०टीका टीका कर्णा० टीका तुम्बुलूराचार्य सं०टीका समन्तभद्राचार्य व्या०टीका बप्प देवगुरु धव०टीका | वीरसेन 12 ४ लब्धिसार कुन्दकुन्दाचार्य | श्लो० १२००० शाम कुण्डाचार्य श्लो० ६००० श्लो० ५४००० लो० ४८००० कर्णा० टीका चामुण्डराय taaraर्णी सं०टीका सं०टीका हिं० टीका श्लो० १४००० श्लो० ७२००० सं०टीका केशवर्णी हिं०टीका टोडरमलजी श्रीमद्भयचन्द्र टोडरमलजी नेमिचन्द्रसिद्धा | गा० ६५० न्तचक्रवर्ति सं० क्षपणासार सं० माधवचन्द्र सं० पश्चसङ्ग्रह अमितगति श्लो० ६०००० । श्लो० ६०००० अज्ञात छे. 33 93 31 " लगभग विक्रम संवत् २०५ अनुमान विक्रमनी ५ मी सदी. अनुमा० विक्रमनी ६ ही सर्दी. अज्ञात छे. 33 रचनाकाल. 33 विक्रमनी ९-१० मी सदी. विक्रमनी ११ मी सदी. विक्रमनी ११ मी सदी. विक्रमनी १३ मी सदी. विक्रमनी १०-११ मी सदी. विक्रमसंवत् १०७३ १. आ परिशिष्ट पं. सुखलालजी कृत कर्मविपाकना हिन्दी अनुवादमांथी लीधुं छे. २. आसङ्ख्या कर्मप्राभृतनी सङ्ख्या साथे मेळवीने लखेली है. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति समाप्तानि परिशिष्टानि । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति सटीक : कर्मग्रन्थचतुष्टयरूपः प्रथमो विभागः समाप्तः Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ श्रीआत्मानन्दजैन ग्रन्थरत्नमालायामयावधिमुद्रितानां ग्रन्थानां सूची । × १ समवसरणस्तवः -- तपा आचार्य श्रीधर्मघोषसूरिप्रणीतः सावचूरिकः - x २ क्षुल्लकभवावलिप्रकरणम् — श्रीधर्मशेखरगणिगुम्फितं सावचूरिकम् x ३ लोकनालिद्वात्रिंशिकाप्रकरणम् - तपाआचार्यश्रीधर्मघोषसूरि सूत्रितं सावचूरिकम् x ४ योनिस्तवः -- तपाश्रीधर्मघोषसूरिविरचितः सावचूरिक: X ५ कालसप्ततिकाप्रकरणम् — तपाश्रीमद्धर्मघोषाचार्यनिर्मितं सटीकम् x ६ देहस्थितिस्तवः - तपाश्रीधर्मघोषसूरिविहितं सावचूरिकम् लघ्वल्पबहुत्वप्रकरणम् - सटीकं च X ७ सिद्धदण्डिकाप्रकरणम् -- तपाआचार्य श्रीमद्देवेन्द्रसूरि संदृब्धं सावचूरिकम् X ८ कायस्थितिस्तोत्रम् — तपाश्री कुलमण्डनसूरि संसूत्रितं सावचूरिकम् X ९ भावप्रकरणम् - श्रीमद्विजयविमलगणिविनिर्मितं खोपज्ञावचूर्ण्या समलङ्कृतम् ×१० नवतत्त्वप्रकरणम् — उपकेश गच्छीया चार्य श्री देवगुप्तसूरिविहितं नवाङ्गीवृत्तिकार श्रीमदभयदेवाचार्यप्रणीतेन भाष्येण श्रीमद्यशोदेवोपाध्यायसूत्रितेन विवरणेन च विभूषितम् नवतत्त्वप्रकरणम् मूलमात्रं च ×११ विचारपश्चाशिकाप्रकरणम् - श्रीमद्विजयविमलगणिगुम्फितं खोपज्ञावचूर्या समेतम् ×१२ परमाणुखण्डपत्रिंशिका पुलपत्रिंशिका निगोदषट्त्रिंशिका चश्रीरत्नसिंह सूरिविहितयाऽवचूर्या सहिताः x१३ बन्धषट्त्रिंशिका - श्रीविजयविमला परनाम्ना वानरर्षिगणिना प्रणीतयाऽवचूर्या समेता ×१४ श्रावकत्रतभङ्गप्रकरणम् - सावचूरिकम् X१५ देववन्दन - गुरुवन्दन - प्रत्याख्यानभाष्यम् -- तपाश्रीमद्देवेन्द्रसूरिविहितं तपाश्रीसोमसुन्दरसूरिविनिर्मितयाऽवचूर्योपेतम् x१६ सिद्धपञ्चाशिकाप्रकरणम् — तपाआचार्य श्रीमद्देवेन्द्रसूरिसूत्रितं सावचूरिकम् ×१७ अन्नायउच्छकुलकम् — श्री आनन्द विजयगणिकृतयाऽवचूर्या सहितम् x१८ विचारसप्ततिकाप्रकरणम् -- श्रीमन्महेन्द्रसूरि सङ्कलितं श्रीविनयकुशलप्रणीतया वृत्त्या समेतम् ×१९ अल्पबहुत्वविचारगर्भो महावीरस्तवः - श्री समय सुन्दरगणिगुम्फितया स्वोपज्ञवृत्त्योपेतः महादण्डकस्तोत्रं च - सावचूरिकम् X२० पञ्चसूत्रम् -- याकिनीमह्त्तरासृनु - आचार्यश्रीहरिभद्रविनिर्मितया टीकया समेतम् x२१ जम्बूस्वामिचरितम् — अञ्चलगच्छीय श्रीजयशेखरसूरिप्रणीतं संस्कृतपद्यबन्धनम् x२२ रत्नपालनृपकथानकम् - वाचनाचार्य सोममण्डनविनिर्मितं संस्कृतपद्यबन्धनम् २३ सूक्तरत्नावली - बृहत्तपागच्छीय श्रीमद्विजय सेनसूरिप्रणीता २४ मेघदूतसमस्यालेख :- श्रीमन्मेघविजयोपाध्याय विनिर्मितः मेघवृत महाकाव्य चतुर्थषरणसमस्यापूर्तिरूपः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ चेतोदतम्-मेघदूतमहाकाव्यचतुर्थचरणसमस्यापूर्तिरूपम् ४२६ पर्युषणाष्टाहिकाद्यदिनत्रयव्याख्यानम्-श्रीमद्विजयलक्ष्मीसूरिप्रणीतम् x२७ चम्पकमालाकथा-श्रीमद्भावविजयगणिगुम्फिता संस्कृतपद्यमयी x२८ सम्यक्त्वकौमुदी-श्रीमज्जिनहर्षगणिग्रथिता संस्कृतगद्यात्मका ४२९ श्राद्धगुणविवरणम्-श्रीजिनमण्डनगणिप्रणीतम् x३० धर्मरत्नप्रकरणम् –पिप्पलगच्छीयश्रीशान्त्याचार्यप्रणीतं खोपज्ञटीकोपेतम् ४३१ कल्पसूत्रम्-दशाश्रुतस्कन्धस्याष्टममध्ययनं श्रीमद्विनयविजयोपाध्यायविरचितया सुबो धिकाख्यया टीकया समेतम् ४३२ उत्तराध्ययनसूत्रम्----श्रीभावविजयगणिसङ्कलितया वृत्त्योपेतम् ४३३ उपदेशसप्ततिका-बृहत्तपागच्छीयश्रीसोमधर्मगणिप्रणीता ४३४ कुमारपालप्रबन्धः---श्रीमजिनमण्डनगणिप्रणीतो गद्यपद्यमयः ४३५ आचारोपदेशः-श्रीमच्चारित्रसुन्दरगणिविनिर्मितः ४३६ रोहिण्यशोकचन्द्रकथा४३७ गुरुगुणषट्त्रिंशत्पट्त्रिंशिकाकुलकम्-श्रीरत्नशेखरमृरिप्रणीतं स्वोपज्ञदीपिकाव्यया व्याख्यया युतम् ४३८ ज्ञानसाराष्टकानि-न्यायविशारद-न्यायाचार्यश्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविहितानि श्रीम देवचन्द्रजिद्विनिर्मितया ज्ञानमञ्जरिव्यया व्याख्ययोपेतानि । ४३९ समयमारप्रकरणम्-श्रीमद्देवानन्दाचार्यप्रणीतं वोपज्ञटीकासमलङ्कतम् नवतत्त्वस्वरूप वर्णनात्मकम् समयसारप्रकरणमूलं च x४० सुकृतसागरमहाकाव्यं-श्रीरत्नमण्डनविनिर्मितं संकृतपद्यमयं पेथडझाज्झणचरितात्मकं ४४१ धम्मिल्लकथाx४२ प्रतिमाशतकम्-~-न्यायविशारद-न्यायाचार्य-श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविहितं श्रीभाव प्रभसूरिविरचितया लघुटीकया सहितम् x४३ धन्यकथानकम्-श्रीदयावर्धनप्रणीतं संस्कृतपद्यात्मकम् ४४४ चतुर्विंशतिजिनस्तुतिसङ्ग्रहः-श्रीशीलरत्नसृरिविनिर्मितः x४५ रौहिणेयकथानकम्x४६ लघुक्षेत्रसमासप्रकरणम्-श्रीरत्नशेखरसूरिप्रणीतं खोपज्ञटीकोपेतम् x४७ बृहत्सवाहणी-श्रीमज्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीता आचार्यश्रीमलयगिरिपूज्यविहितया टीकया समेता बृहत्सवहणीमूलं च ४४८ श्राद्धविधिः-बृहत्तपागच्छीयश्रीरत्नशेखरसूरिसूत्रितः स्वोपज्ञवृत्तियुतः x४९ षड्दर्शनसमुच्चयः---आचार्यश्रीहरिभद्रसूरिप्रणीतः श्रीगुणरत्नसूरिनिर्मितया टीकयोपेतः ४५० पञ्चसंग्रहः-श्रीचन्द्रर्षिमहत्तरसूत्रितः श्रीमन्मलयगिरिपादप्रणीतया टीकया सहितः ४५१ सुकृतसङ्कीर्तनकाव्यम् ---पण्डितश्रीअरिसिंहविरचितं प्रतिसर्ग श्रीअमरचन्द्रकवि विनि मितश्लोकचतुष्कयुतं महामात्यश्रीवस्तुपालतेजःपालचरितात्मकम् Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x५२ चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः१ कर्मविपाक:-गर्षिमहर्षिप्रणीतः पूर्वाचार्यप्रणीतया व्याख्यया श्रीपरमानन्दसूरि सूत्रितया टीकया चोपेतः २ कर्मस्तवः-श्रीगोविन्दाचार्यविरचितया टीकयोपेतः ३ बन्धस्वामित्वम्-बृहद्गच्छीयाचार्यहरिभद्रकृतया टीकया समेतम् ४ आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम्-पडशीतिरित्यपरं नाम श्रीमज्जिनवल्लभगणिप्रणीतम् आचार्यश्रीप्रमलगिरिपाद विहितया वृहद्गच्छीयाचार्यहरिभद्रकृतया च टीकया सहितम् चत्वारः कर्मग्रन्था मूलमात्राः कर्मस्तवभाष्यद्वयं षडशीतिभाष्यं च ४५३ सम्बोधसप्ततिका-नागपुरीयतपागच्छीयश्रीरत्रशेखरसूरिसङ्कलिता श्रीगुणविनयवा चकप्रणीतया व्याख्यया समलता x५४ कुवलयमालाकथा-श्रीरत्नप्रभसूरिप्रणीता आचार्यदाक्षिण्याङ्कसूत्रितप्राकृतकथानुसा रिणी संस्कृतभाषात्मका गद्यपद्यमयी ४५५ सामाचारीप्रकरणम् आराधकविराधकचतुर्भङ्गीप्रकरणं च-एतहयमपि न्याय विशारदन्यायाचार्यमहोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविनिर्मितं खोपज्ञटीकोपेतम् ४५६ करुणावज्रायुधं नाटकम्-- श्रीबालचन्द्रसूरिप्रणीतम् ४५७ कुमारपालचरित्रमहाकाव्यम्-श्रीमच्चारित्रसुन्दरगणिप्रणीतं संस्कृतपद्यमयम् ४५८ महावीरचरियं-श्रीनेमिचन्द्रमरिविनिर्मित प्राकृतं पद्यबन्धं च । ४५९ कौमुदीमित्राणन्दरूपकम् --प्रबन्धशतकर्तृश्रीरामचन्द्रसूरिप्रणीतम् ४६० प्रबुद्धरोहिणेयं नाटकम्-श्रीरामभद्रसूरिमृत्रितं प्रकरणम् ४६१ धमाभ्युदयं छायानाटकं मूक्तावली च---एतद्वितयमपि श्रीमन्मेघप्रभाचार्यविनिर्मितम् ४६२ पञ्चनिग्रन्थीप्रकरणं प्रज्ञापनोपाङ्गतृतीयपदसङ्ग्रहणी च-एतद्वितयमपि नवाङ्गी. वृत्तिकारश्रीमदभयदेवाचार्यसंसूत्रितं सावचूरिकम् ४६३ रयणसेहरीकहा-श्रीजिनहर्पगणिग्रणीता प्राकृतभाषामयी गद्यपद्यात्मका ६४ सिद्धप्राभृतम्-पूर्वाचार्यप्रणीतटीकया समलङ्कृतम् x६५ दानप्रदीपः-महोपाध्यायश्रीचारित्ररत्नगणिगुम्फितः संस्कृतपद्यात्मकः ४६६ बन्धहेतूदयत्रिभनयादीनि प्रकरणानि सटीकानि १ बन्धहेतूदयत्रिभङ्गीप्रकरणम् -- श्रीहर्पकुलगणिप्रणीतं श्रीविजयविमलगणिविर चितविवरणोपेतम् २ जघन्योत्कृष्टपदे एककाले गुणस्थानकेषु बन्धहेतुप्रकरणं सटीकम् ३ चतुर्दशजीवस्थानेषु जघन्योत्कृष्टपदे युगपगन्धहेतुकारणं सटीकम् ४ बन्धोदयसत्ताप्रकरणम्---श्रीमद्विजयविमलगणिविहितं सावचूरिकम् ६७ धर्मपरीक्षा---श्रीजिनमण्डनगणिप्रणीता ४६८ सप्ततिशतस्थानकप्रकरणम् -बृहत्तपागच्छीयश्रीसोमतिलकसूरिनिर्मितं राजसूरिगच्छी यश्रीदेवविजयविरचितया वृत्त्या समेतम् Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ चेइयवंदणमहाभासं-श्रीशान्त्याचार्यप्रणीतं संस्कृतछाययाविभूषितम् ७० प्रश्नपद्धतिः-नवाझवृत्तिकारश्रीमदभयदेवाचार्यशिष्यश्रीहरिचन्द्रगणिविरचिता x७१ कल्पसूत्रम्--दशाश्रुतस्कन्धस्याष्टममध्ययनं श्रीधर्मसागरोपाध्यायसूत्रितया किरणावल्या ख्यया टीकया सहितम् ७२ योगदर्शनम् महर्षिपतञ्जलिप्रणीतं न्यायाचार्यश्रीमद्यशोविजयोपाध्यायकृतयावृत्त्योपेतं योगविंशिका च-आचार्यहरिभद्रविनिर्मिता न्यायविशारदोपाध्यायश्रीमद्यशोविजय गणिगुम्फितया टीकया युता ७३ मण्डलप्रकरणम्-विनयकुशलपणीतं स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् ७४ देवेन्द्रप्रकरणं नरकेन्द्रकप्रकरणं च-एतत्प्रकरणयुग्मं पूर्वाचार्यप्रणीतं मुनिचन्द्र मुरिसूत्रितया वृत्त्या च समेतम् ७५ चन्द्रवीरशुभा-धनधर्म-सिद्धदत्तकपिल-सुमुखनृपादिमित्रचतुष्केति कथाचतुष्ट यम्-तपागच्छालङ्कारश्रीमुनिसुन्दरसूरिप्रणीतं संस्कृतपद्यात्मकम् ७६ जनमेघदूतकाव्यम्---- ७७ श्रावकधर्मविधिप्रकरणम्-आचार्यहरिभद्रप्रणीतं श्रीमानदेवमूरिविरचितया वृत्त्यासहितं ७८ गुरुतत्त्वविनिश्चयः-न्यायविशारद-न्यायाचार्य-श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविनिर्मितः खोपज्ञटीकोपेतः ७९ ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायविरचिता खोपजविवरणयुता परमज्योतिःपञ्चविंशतिका परमात्मपञ्चविंशतिका श्रीविजयप्रभस्वाध्याय ऋपभदेवस्तवनं च ८० वसुदेवहिण्डिप्रथमखण्डम् - श्रीसङ्घदासगणिवाचकविरचितः प्राकृतसाहित्यस्यापूर्वः प्राचीनतरोऽयं ग्रन्थः वसुदेवपरिभ्रमणेतिवृत्तगर्भितः प्रथमोऽशः ८१ वसुदेवहिण्डिप्रथमखण्डम्-श्रीसङ्घदासगणिवाचकविरचितः द्वितीयोऽशः ८२ बृहत्कल्पसूत्रम् --श्रुतकेवलिस्थविरार्यभद्रबाहुखामिप्रणीतं खोपज्ञनियुक्त्युपेतं श्रीसङ्घ दासगणिविनिर्मितेन भाष्येण युतं आचार्यश्रीमलयगिरिपादविहितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकीतिसूरिसूत्रितया शेपसमग्रवृत्त्या समेतम् तस्यायं पीठिकारूपः प्रथमोऽशः ८३ बृहत्कल्पसूत्रम् --सनियुक्तिभाप्यवृत्तिकम् तस्यायं प्रथमोद्देशकगतप्रलम्बप्रकृत-मास कल्पप्रकृतात्मको द्वितीयोऽशः ८४ बृहत्कल्पसूत्रम्---सनियुक्तिभाप्यवृत्तिकम् तस्यायं प्रथमोद्देशकान्तस्तृतीयोऽशः ८५ नव्यकर्मग्रन्थचतुष्टयम् --श्रीमद्देवेन्द्ररिप्रणीतं खोपज्ञीकोपेतम् - Page #288 --------------------------------------------------------------------------  Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर सेवा मन्दिर पुस्तकालय काल नं. - लेखक जावनी सारा शीर्षक चत्वरा कर्म सन्मा खण्ड ----क्रम संख्या 2 ....