Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
View full book text
________________
२४९
हवे मनुष्य तथा तिर्यचने लेश्यानी स्थिति कहे छे. अंतमुहुत्तट्ठिइओ, तिरियनरागं हांति लेस्साओ ॥ चरिमा नराण पुण नव, वासूगा पुत्र कोडीवि ॥ ४४९ ॥
अर्थ - ( तिरियनराणं ) के० पृथ्वीकायादि तिर्येच तथा मनुष्यने (लेस्साओ ) के० पोतपोताने संभवती लेश्याओ (अंतमुहुत्तइिओ) के० एक अंतर्मुहूर्त्तनी स्थितिवाली ( हवंति ) के० होय छे. ( पुणे ) के० वली ( नराणं) के० मनुष्यने (चरिमा ) के० छेल्ली शुक्ललेश्या ( नववासूणा पुव्त्रकोडीवि ) के ० नव वर्ष उगी एक पूर्व कोडी वर्ष सुधी रेहे छे. ते एवी रीते के - गर्भकालना नवमास रहित आठ वर्षमां चारित्र न होय, माटे कोइक जीव नवमे वर्षे चारित्र लइ केवलज्ञान पामे अने त्यार पछी नव वर्ष उगी एव एक पूर्वकोडी वर्ष पर्यंत जोवतो रहे त्यां सुधी केवलीने एक शुक्ल लेश्याज होय. अने वीजा मनुष्यने तो शुक्ल लेश्या अंतर्मुहूर्त सुबीज होय छे. ॥ ४४९ ॥
तिरियाणवि मुहं भणियम से संपि संपई कुच्छं | अभिहियदाख्भहियं, चउगइ जीवाण सामन्नं ॥ ४५०॥
अर्थ - ( तिरियाणवि ) के० एकेंद्रियथी आरंभी पंचेंद्री सुधीना सर्व चिनी (विइपमुह ) के० स्थितिप्रमुख ( असे संपि ) के० सर्व आठे द्वार ( भणियं ) के० कद्या. ( संपइ ) के० हवण ( अभिहियदारम्भहियं ) के० जे द्वार पूर्वे का नयी ते ( चउगइ जीवाण) के० चारे गतिना जोवोना ( सामन्नं ) के० सामान्यपणे द्वार (वुच्छं) के० कहीश. ॥ ४५० ॥
देवा असंखनरतिरि-इत्थीपुंवेय गन्भनरतिरिया || संखाउया तिवेया, नपुंसगा नारगाईया ॥ ४५९ ।।

Page Navigation
1 ... 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272