Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
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तथा संज्ञीपंचेंद्रीयने ( नव दस) के० नव अने दश प्राण अनुक्रमे जाणवा. ॥ ४८०॥ . एगिंदियस्सवि आहार-भयमेहुणपरिग्गहाइ सन्नाइ । कोहे माणे माया-लोहे ओहे य लोगे य॥ ४८१॥ ___ अर्थ-(एगिदियस्सवि ) के० एकेंद्रीय जीवोने ( आहार) के० आहार, ( भय ) के० भय, ( मेहुण ) के० मैथुन, (परिग्गह) के० परिग्रह, ( कोहे ) के० क्रोध, (माणे ) के० मान, (मायो) के० माया, (लोहे) के० लोभ. (आहेय) के० ओघ अने (लोगेय) के. लोक ए दश (सन्नाइ) के० संज्ञा होय छे. ॥ ४८१ ॥ . हवे जीवोने समुदूघात कहे छे.. वेयण कसाय मरणे, वेउव्वी तेय हार केवलिया ॥ सग पण चउ तिन्नि कमा, नर सुर नेरइयतिरियाणं॥४८॥
अर्थ-(वेयण) के० वेदना, (कसाय) के० कसाय, (मरमे) के० मरण, (वेउव्वी) के वैकिय, (तेय) के तेजस, (आहार) के० आहारक अने (केवलिया) के केवली, ए सात समुदूधात जाणवातेमां (नर) के० मनुष्यने (सग) के० सात, (सुर) के० देक्ताने (पण) के० पांच, निरइय) के० नारकीने (चउ) के० चार, अने (तिरियाणं) के० तिर्यचने (तिनि) के० त्रण समुदघात (कमा) के० अनुकमे होय छे. ॥ ४८२ ॥ ___ हवे संक्षेपे संग्रहणीना चोवीस द्वार कहे छे. संखित्तयरी उ इमा, सरीरमोगाहणा य संघयणा ॥ । सन्ना संठाण कसाय,लेसिदिय दु समुग्घाया ॥४८३॥ । दिछीदंसणनाणे, जोगुवओगोववायचवणट्ठिइ ॥ पज्जत्ति किमाहारे, सन्नि गई आगई वेए ॥ ४८४॥

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