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उपधि
छिन्ना नाम ये आचार्येण संदिष्टा यथा विंशतिः, पात्राण्यानयितव्यानि अच्छिन्ना येषां न परिमाणनिरोपः ( निरुप: / निरोध: ? ) एकः साधुः छिन्नानां संदेशं श्रुत्वा तत्रैव समक्षमाचार्यस्य ब्रूते - क्षमाश्रमणा ! अनुजानीत युष्माकं योग्येषु परिपूर्णेषु पतद्ग्रहेषु लब्धेषु यद्यन्यान्यपि लभेरन् ततस्तान्यपि मम योग्यानि गृह्णन्तु एवं ब्रुवाणः शुद्धः । अथैवमाचार्यः नानुज्ञापयति किन्त्वेवमेतान् व्रजतो ब्रूते तर्हि तस्मिन्नेवं भणति प्रायश्चित्तं लघुको मासः ते चेत् व्रजन्तः प्रतिशृण्वन्ति ग्रहीष्याम इति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तं प्रत्येकं लघुको मासः । (व्यभा ३६१९ वृ)
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पात्र की एषणा करने वाले साधुओं के दो प्रकार हैं१. छिन्न- जो आचार्य द्वारा संदिष्ट हैं। यथा- तुम्हें बीस पात्र लाने हैं।
२. अच्छिन्न- जिन्हें पात्रों का परिमाण नहीं बताया गया है।
एक साधु आचार्य के समक्ष उन संदिष्ट साधुओं से कहता है - क्षमाश्रमण ! अनुमति दें- आपके योग्य सारे पात्र प्राप्त हो जाने पर यदि अन्य पात्र प्राप्त हों तो मेरे योग्य पात्र भी लाएं- ऐसा कहने वाला शुद्ध है।
जो साधु आचार्य की अनुमति के बिना पात्र मंगवाता है और जो उसकी बात को स्वीकार करते हैं - वे सब लघु मास प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
३९. वस्त्र - पात्र - लेप-कल्पिक
अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका।" सूत्रे पात्रैषणा लक्षणे अप्राप्ते यदि लेपस्याऽऽनयनाय प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं सूत्रे प्राप्ते तत्रापि कथिते तत्राप्यधिगते स परीक्ष्य लेपस्यानयनाय प्रेषणीयः । एष लेपस्य कल्पिकः । (बृभा ४७१ वृ) सूत्रमाचारान्तर्गतं पात्रैषणाध्ययनम् पाठयित्वा तस्यार्थं कथयित्वा सम्यगधिगते श्रद्धिते चार्थे पात्राय परीक्ष्य प्रेषणीयः । (बृभा ६४९ की वृ)
( जो आचार चूला के पांचवें 'वस्त्रैषणा' नामक अध्ययन का ज्ञाता वह वस्त्रकल्पिक है ।) जिसने पात्रैषणा (आचारचूला का छठा) अध्ययन नहीं पढ़ा है, पढ़ने पर
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आगम विषय कोश - २
भी अर्थ नहीं जाना है, अर्थ को अधिगत नहीं किया है तथा अधिगत अर्थ पर श्रद्धा है या नहीं - इसकी परीक्षा किए बिना गुरु यदि शिष्य को पात्र या लेप लाने भेजता है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। पात्रैषणा सूत्र को प्राप्त, कथित, अधिगत और परीक्षित होने पर शिष्य पात्रकल्पिक और लेपकल्पिक होता है ।
पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति । येन ओघनिर्युक्तिसूत्रम् इयं वा कल्पपीठिका पठिता स्यात्ः'' । (बृभा ५३० वृ) जिसने ओघनियुक्ति सूत्र अथवा कल्पपीठिका को पढ़ा हो, सुना हो, वह गुणित (अत्यंत अभ्यास से आत्मसात्) हो अथवा अगुणित, धारित हो या अधारित, फिर भी उसमें उपयुक्त होता हुआ सूत्रोक्त प्रकार से लेप का भोग करता है, वह लेपकल्पिक है।
४०. प्रतिपूर्ण क्रमणिका ( पदत्राण) के प्रकार
सगल प्पमाण वण्णे, बंधणकसिणे य होइ णायव्वे । अकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई ॥ एगपुड सकलकसिणं, दुपुडादीयं पमाणतो कसिणं । खल्लग खउसा वग्गुरि, कोसग जंघऽड्डजंघा य ॥ पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा भवे कमणी । मज्झमि तु अक्खंडा, अण्णत्थ व सकलकसिणं तु ॥ दुपुडादि अद्धखल्ला, समत्तखल्ला य वग्गुरी खपुसा । अद्धजंघ समत्ता य, पमाणकसिणं मुणेयव्वं ॥ उवरिं तु अंगुलीओ, जा छाए सा तु वग्गुरी होति । खपुसा य खलुगमेत्तं, अद्धं सव्वं च दो इयरे ॥ वडवण्णकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायव्वं । बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं ॥ (बृभा ३८४६-३८५१) कृत्स्न (प्रतिपूर्ण) के चार प्रकार हैं३. वर्ण कृत्स्न ४. बंधन कृत्स्न
१. सकल कृत्स्न
२. प्रमाण कृत्स्न
अकृत्स्न चर्म के अठारह खंड कर पैर के दोनों पाव में धारण करना चाहिए।
• सकल कृत्स्न - एकपुटी - एक तल वाली, पैर जितने प्रमाण
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