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महाव्रत
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आगम विषय कोश-२
किया। उसके साथ छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत को जोड़ा जाता है, वैसे ही मूलगुणप्रतिसेवना से उत्तरगुण और उत्तरगुणसे वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। प्रतिसेवना से मूलगुण नष्ट होते हैं। जब तक छहकाय संयम है, लोगं विदित्ता अपरं परं च. सव्वं पभ वारिय सव्ववारी॥ तब तक मूलगुण और उत्तरगुण दोनों विद्यमान हैं। जब तक ये दोनों
दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी जातपत्र ने स्त्री और हैं, तब तक इत्वरिक सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र रात्रिभोजन का वर्जन किया। साधारण और विशिष्ट-दोनों प्रकार तथा बकुश निग्रंथ और प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ विद्यमान हैं। के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने स्त्री, रात्रिभोजन, प्राणातिपात ८. स्वप्न में व्रतभंग : व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त आदि सभी दोषों का वर्जन किया। सू १/६/२८)
पाणवध-मुसावादे, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे सुमिणे। ० रात्रिभोजन से मूलगुण-विराधना
सयमेगं ति अणूणं, ऊसासाणं भवेन्जासि॥ जइ वि य फासुगदव्वं, कुंथू-पणगाइ तह वि दुप्पस्सा।
महव्वयाइं झाएज्जा, सिलोगे पंचवीस वा। पच्चक्खनाणिणो वि हु, राईभत्तं परिहरंति॥ इत्थीविप्परियासे तु, सत्तावीससिलोइओ॥ __(बृभा २८६३)
(व्यभा ११९, १२०) यद्यपि अवगाहिम (मिठाई) आदि द्रव्य प्रासुक (अभिल
- मुनि स्वप्न में प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और षणीय) हैं किन्तु उन पर लगे हुए कुंथु , पनक आदि आगन्तुक परिग्रह का सेवन करने पर पूरे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग अथवा तद्-उद्भव जीव रात्रि में दुर्दर्श होते हैं। केवली आदि करे। अथवा पच्चीस श्लोक प्रमाण महाव्रतों (द ४/११-१५) का प्रत्यक्षज्ञानी पुरुष आगन्तुक तथा तद्-उद्भव जन्तुरहित आहार
ध्यान करे। स्वप्न में स्त्रीविपर्यास होने पर कायोत्सर्ग में सत्ताईस को देख सकते हैं, फिर भी वे रात्रिभोजन का परिहार करते हैं, श्लोक (१०८ उच्छ्वास) का ध्यान करे। इसलिए कि मूलगुण की विराधना न हो।
९. महाव्रतरक्षा हेतु भावना (पांच महाव्रत मूलगुण और रात्रिभोजनविरति उत्तरगुण है, तेसिं च रक्खणट्ठाय, भावणा पंच पंच एक्केक्के ।.. किन्तु यह मूलगुणों की रक्षा का हेतु है, इसलिए इसका मूलगुणों भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो आयसं। के साथ प्रतिपादन किया गया है। -श्रीआको १ रात्रिभोजनविरमण)
___ (आनि ३१६ चू) ७. मूलगुण-उत्तरगुण कब तक?
महाव्रतों की सुरक्षा के लिए प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति चरणसेढीओ। भावनाएं हैं। जो भावित करती है, वह भावना है। जैसे लोह तम्हा जिणेहि दोन्नि वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं॥ रसायन को शिलाजत की भावना दी जाती है। अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गगं। (महाव्रतों की सुरक्षा के तीन साधनों में एक साधन है भावनाछक्काय संजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं॥ तेसिं चेव वदाणं, रक्ख, रादिभोजणणियत्ती। .....इत्तरिय छेद संजम, नियंठ बकुसा य पडिसेवी॥ अट्ठपवयणमादाओ, भावणाओ य सव्वाओ॥ जहा तालदुमस्स अग्गसूतीए हताए मूलो हतो चेव,
भगवती आराधना ६/११७९) मूले वि हते अग्गसूती हता, एवं मूलुत्तरगुणेसु वि उव- ..."समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे गोयसंहारो।
(निभा ६५३०-६५३२ चू) माईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच महव्वयाई सभावणाई मूलगुणों और उत्तरगुणों की प्रतिसेवना करने वाले मुनि छज्जीवनिकायाई आइक्खइ"। (आचूला १५/४२) चारित्रश्रेणि से भ्रष्ट होते हैं, इसलिए अर्हतों ने सर्व साधुओं के श्रमण भगवान् महावीर ने केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न लिए दोनों के अतिक्रमण का निषेध किया है। जैसे ताडवृक्ष का होने पर गणधर गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रथों के लिए भावनाओं अग्र आहत होने पर मूल और मूल आहत होने पर अग्र नष्ट हो सहित पांच महाव्रतों और छहजीवनिकायों का निरूपण किया।
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