Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग पहिचान ही मूल आधार है, ज्ञेयों के स्वरूप की पहचान नहीं। जो अपने नहीं हैं अर्थात् स्व (ज्ञायक) नहीं है, उनके प्रति परपने का निर्णय, स्वरूप की नि:शंक पहिचान बिना नहीं हो सकेगा; स्वरूप की पहिचान एवं निर्णय हुए बिना, ज्ञेयों में परपने के विकल्पों से प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती। भेदज्ञान का प्रथम सोपान अनादि से आत्मा शरीर के साथ एक हो गया हो अर्थात् दोनों का अस्तित्व एक हो गया हो ऐसा अनुभव में आता है; लेकिन वास्तविक स्थिति इससे विपरीत है। मृत्यु काल में आत्मा तो शरीर से निकल जाता है और शरीर यहीं पड़ा रह जाता है-मिट्टी में मिला दिया जाता है; इससे सिद्ध होता है कि जो शरीर में से निकल गया, . वही आत्मा था, उसका नाश नहीं हुआ - उसका अस्तित्व है। ऐसे निकल जाने वाले आत्मा को चेतना लक्षण के द्वारा, सरलता से पहिचान लिया जाता है। चेतना की विद्यमानता में, शरीर को भी जीवित (ज्ञान युक्त) कहा जाता था। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शरीर से निकल जाने वाली चेतना शक्ति का धारक है, वही आत्मा है; शरीर नहीं। चेतना शक्ति धारक ज्ञायक इन्द्रियगोचर नहीं होने से अमूर्तिक है। ज्ञान के द्वारा स्व एवं पर का जाननेवाला होने से ज्ञायक भी है, ऐसा अनुभव होता है। ज्ञायक, अपने असंख्यात प्रदेशी स्व क्षेत्र में रहते हुवे ही ज्ञान के द्वारा ज्ञेयों का ज्ञान कर लेता है, जानने के लिये स्व क्षेत्र को छोड़कर ज्ञेय के पास जाना नहीं पड़ता और न ज्ञेय को ज्ञायक के समीप आना पड़ता है; दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अवस्थित रहते हैं, फिर भी ज्ञायक को ज्ञान तो हो ही जाता है। जानने के लिये ज्ञान को ज्ञेय के सन्मुख भी नहीं होना पड़ता वरन्Page Navigation
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