Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग उसकी चर्चा विस्तार से प्रथम भाग में की जा चुकी है; वहाँ से जान लेवें, विस्तारभय से यहाँ चर्चा नहीं करेंगे। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विकार का कर्ता न तो आत्मद्रव्य है और न द्रव्यकर्मादि अन्य द्रव्य हैं। निष्कर्ष यह है कि विकार उत्पन्न करने का संपूर्ण दायित्व, स्वयं पर्याय का ही है, अन्य का नहीं; अत: उपर्युक्त श्रद्धापूर्वक, पर्याय के कार्यकलापों का विश्लेषण करने से ही उत्पादक कारण का निर्णय हो सकेगा। पर्याय और द्रव्य के प्रदेश अभेद होने से, दोनों का अस्तित्व भी अभेद है। अत: पर्याय बिना का द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना की पर्याय नहीं होती। इस अपेक्षा, द्रव्य से निरपेक्ष रहकर भी पर्याय उत्पाद नहीं कर सकती; इस अपेक्षा आत्मा को पर्याय के विकार का कर्ता भी कहा जाता है। इन सब स्थितियों को स्वीकार करते हुए, विकार के उत्पादक कारण की खोज करना ही समीचीन मार्ग है। द्रव्य में त्रिकाल रहने वाली शक्तियाँ-सामर्थ्य तो-गुण है, उनके परिणमन का नाम ही पर्याय है। आत्मा भी एक द्रव्य है, उसमें भी अनन्त गुण हैं; लेकिन उनमें कुछ गुण ऐसे हैं, जो शुद्ध होते हुए भी, उनमें विकारी होने की योग्यता होती है। साथ ही एक ज्ञान गुण ऐसा भी है, जो स्व एवं पर को जानने के स्वभाव वाला होते हुए भी, कभी विपरीत परिणमन नहीं करता अर्थात् जानने के अतिरिक्त कुछ नहीं करता। इसलिये ज्ञान के परिणमन को स्वाभाविक क्रिया भी कहा है। द्रव्य में गुण अभेद रहते हैं; अत: द्रव्य के एक समय के परिणमन में, अनन्तगुणों का परिणमन एक साथ वर्तता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के प्रति समय के परिणमन में अनन्तगुणों के कार्य एक साथ वर्तते हैं। उक्त परिणमन में, स्वाभाविक क्रिया ऐसे ज्ञान का परिणमन भी होता है तथा

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